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________________ इस कथन से उनका अभिप्राय यह है कि रसवद् अलंकार वहां होता है जहाँ श्रृंगार मादि स्पष्ट (प्रधान प्रयवा मनी) रूप से दिखाये गये हों तपा साथ ही स्थायिभाव, संचारिभाव, विभाव तथा मिनय प्रयांत अनुभाव और सात्विक भाव [के विभिन्न प्रकारों का स्वशम्द से भासद (कयन) भी किया गया हो। इसी प्रलंकार के उदाहरण-स्वरूप उन्होंने निम्नोक्त तीन पच प्रस्तुत किये ये इति भावयतस्तस्य समस्तान पार्वतोगुणान् । संभृतानल्पसंकल्पः कम्बः प्रबलोऽभवत् ।। स्विखताऽपि स गाण बभार पुलकोत्करम् । कवम्बकलिकाकोशकेसरप्रकरोपम् ॥ भणमौत्सुक्यभिच्या चिन्तानिश्चलया क्षणम् । क्षरणं प्रमोबालसया हुशास्यास्यमभूष्यत ॥ का० सा० सं० ४॥२-४ । यह उदाहरण रसवादियों के मत में रस का है और प्रलंकारवादियों के मत में रसवत् अलंकार का। उन दोनों का विभिन्न दृष्टिकोण ही इस धारणा का उत्तरदायी है । किन्तु यहां विचाणीय विषय यह दृष्टिकोण नहीं है, अपितु यह है कि क्या किसी सरस वाक्य में रस मादि की स्वशब्दोक्ति अनिवार्य है । उद्भट के टीकाकार प्रतिहारेन्दुराज ने उक्त पचों में विभावादि पांचों तत्त्वों की स्वशब्दोक्ति का निर्देश करते हुए लिखा है कि यहां कन्दर्प अर्थात् 'रति' नामक स्थायिभाव, मौत्सुक्य, चिन्ता, प्रमोद (हर्ष) नामक संचारिभाव, स्वेद मोर पुलक (रोमाञ्च) नामक सात्विकभाव-ये सभी, तथा इनके अतिरिक्त पार्वती मोर 'तस्य' अर्थात् महादेव ये दोनों विभाव भी स्वशन द्वारा कथित है। (पृष्ठ ५४) प्रत. यहां उद्भट-सम्मत रसवत् अलंकार का उक्त लक्षण घटित हो जाता है। उद्भट मोर प्रतिहारेन्दुराज के इन वक्तव्यों से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उद्भट के समय तक रसवत् अलंकार (मयवा रस) के उदाहरणों में विमावादि की स्वशम्दोक्ति अनिवार्यतः स्वीकृत की जाती थी। उद्धट के उपरान्त मानन्दवचन ने अपने रसदोष-प्रसंग में उक्त दोष का नामोल्लेख नहीं किया। हाँ, रस वाच्य पर प्रात न होकर व्यङ्गय पर मान होता है-इस प्रसंग में उन्होंने प्रकारान्तर से इस दोष की चर्चा की है। इस सम्बन्ध में उनका कथन यह है कि किसी भी रचना में विभाव मादि की परिपक्व सामग्री के प्रभाव में रस पादि के नामोल्लेख-मात्र से रसानुभूति नहीं हो जाती--हि देव भाराविनम्बमानमावि विभावाविप्रतिपादनरहिते काम्ये मनापपि रसवस्वप्रतीतिरस्ति। -न्या. १५४ वृत्ति मागे बसकर कुम्सक ने उट के उस कवन का उल्लेख करते हुए उसका खण्डन किया। उनके मत का सार यह है कि रस पादि की स्वब्दोक्ति द्वारा ही यदि रसवर्णा का चमत्कार स्वीकार किया जाए तब तो सपुर (पादि मिष्टान) का नाम लेने मात्र से भी उनका मास्वाद प्राप्त हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है।' १. पदपि करिवत् ' स्व चाविचारिविभाषाभिमवारपवम्' इत्यनेन पूर्वमेव सावं विरचितम् । स्वसवासावरतानामपरिणापूर्वमस्माकम् । x x x x बद स्म रमितीयमानाः तिषषमतरत: तमानी परखचमत्कारं कुर्वन्तीत्यनेन न्यायेन पूजनुनयः पापा समरमियवनावाः बास्वापसम्परं सम्मास्यन्ति xxx x. नीतियापित पड ३४३-३४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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