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कुन्तक के उपरान्त मम्मट ने 'रस आदि की स्वशब्दवाच्यता' को रसदोषों में परिगणित किया। उन्हें इस दोष की प्रेरणा प्रानन्दवर्द्धन और सम्भवतः कुन्तक के उक्त प्रसंगों से मिली होगी। मम्मट के अनुकरण पर विश्वनाथ ने भी इस दोष की स्वीकृति की ओर निम्नोक्त उदाहरण प्रस्तुत किये
(क) सामुन्वीक्ष्य कुरंगाक्षी रसो नः कोऽप्यजायत । (ख) चन्द्रमण्डलमालोक्य शृङ्गारे मग्नमन्तरम् । (ग) अजायत रतिस्तस्याः त्वयि लोचमगोचरे । (घ) जाता लज्जावती मुग्धा प्रियस्य परिचुम्बने ।
इधर रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने सम्भवतः मम्मट के इस प्रसंग से प्रेरणा प्राप्त कर उनसे असहमति प्रकट करते हुए उक्त रूप में इस दोष को मस्वीकृति की है। इस सम्बन्ध में हमारी विनम्र सम्मति यह है कि
(क) जहां विभावादि-सामग्री अपूर्ण एवं अपरिपक्व रूप में प्रस्तुत की जाती है, अथवा इसका प्रभाव ही रहता है, वहां यदि रस, शृगार, रति, लज्जा प्रादि शब्दों द्वारा कथन को सरस बनाने की चेष्टा की जाए तो निस्सन्देह ऐसे कथन न तो सरस कहाएंगे पोर न काव्यत्व की किसी कोटि में ही वे अन्तर्भूत होंगे। वे केवल साधारण वार्तामात्र ही होंगे जैसे कि विश्वनाथ द्वारा प्रस्तुत उक्त चार वाक्य ।
(ख) जहां विभावादि की सम्पूर्ण सामग्री का उपस्थापन सम्यक् रूप से किया जाए, और यदि वहां रस आदि में से किसी एक का नाम-निर्देश भी अनायास हो जाए तो इन सरस प्रसंगों में यह दोष प्रयम तो स्वीकृत नहीं करना चाहिए, और यदि स्वीकृत किया भी जाए तो उसे क्षम्य समझना चाहिए, क्योंकि इससे रस-प्राप्ति में कोई व्याघात उपस्थित नहीं होता। उदाहरणार्थ, रामचन्द्र-गुणचन्द्र प्रस्तुत पद्य में मानिनी के नेत्रों का प्रपञ्च-चातुर्य-पूर्ण वर्णन काव्यालादकता का उत्पादक है, किन्तु केवल 'उत्सुकम्' नामक संचारिभाव के प्रयोग से इसमें रसदोष मानकर काव्यत्व की प्रस्वीकृति अथवा हीन-काव्यत्व की स्वीकृति करना समुचित नहीं है । इसी प्रकार एक ओर उद्भट तथा दूसरी ओर स्वयं मम्मट द्वारा प्रस्तुत दो उदाहरण भी केवल वार्तामात्र न होकर काव्यचमत्कार के उत्पादन में समर्थ हैं, क्योंकि उस सहृदय को जो इस पारिभाषिक काव्यदोष से नितान्त अपरिचित है, इन शब्दों के प्रयोग के कारण उसके प्राह्लाद में तनिक भी व्याघात नहीं पहुंचता।
(ग) काव्यप्रकाश के टीकाकारों ने इस प्रसंग में यह संकेत भी किया है कि स्थायिभाव, संचारिभाव आदि के प्रचलित नामों के स्थान पर यदि उनका पर्यायवाची शब्द रख दिया जाए तो वहां दोष नहीं रहता। उदाहरणार्थ "ठणत्कारः अतिगतंवत्साहस्तस्य कोऽप्यभूत" में 'उत्साह नामक स्थायिभाव का प्रयोग दोष का कारण है, पर यदि यह पाठ कर दिया जाए तो यह दोष न रहेगा-'प्रमोदस्तस्य कोऽप्यभूत् ।' किन्तु यह धारणा भी समुचित नहीं है । इस दोष का एक
१. हिन्दी नाट्यदर्पण पृष्ठ ३२८ २. (क) सबीग वयितातने.....
(ख) तामनकलयमंगल..." । का० प्र० ७/३२१, ३२२
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