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का० १८२, सू० २७० 1 चतुर्थो विवेकः
३५. ऽलंकाराः । तेन नायकभेदेषुद्धतादिषु धीरत्वं विशेषणमुक्तम् । भावादयस्तु पुरुषाणां उत्साहाद्याच्छादिता एव भवन्तीति ते गौणाः। भावादीनां च विंशतिसंख्यात्वमत्रोदिष्टभेदापेक्षया, अपरथा यौवने वनितालंकाराणामनन्तसंख्यात्वमेव । तत्र प्रथमे त्रयो अंगाद्, यौवनोद्बोधशालिनः प्रियदृष्टि-वस्त्र-माल्यादिबाह्यनिमित्तरहिताद्गात्रमात्राज्जायन्ते । तेभ्यः परे दश स्वस्माद् रतिलक्षणाद् भावात् प्रियोपभोगानुपभोगयोर्जायन्ते। एते च दश एक-द्वि-त्र्यादिविकल्पेन भावान्नावश्यम्भाविनः । अथांगजाःस्वाभावि: काश्च क्रियारूपाः स्त्रीचेष्टात्मकाः । मिलिताश्च त्रयोदशसंख्याः। ततः परे सप्त यत्नं अन्तःपरिस्पन्दं विना देहधर्मरूपाः पुरुषोपभोगे सति भवन्ति । पूर्वे तु चेष्टात्मकाः । इच्छातो यत्नस्ततो देहचेष्टोति यत्लजा इति ॥ [२७-२८] १८०-१८१॥
(१) अथ भावादीनां प्रत्येकशो लक्षणमाह[सूत्र २७०]-भावो वागादिवशिष्ट यं चिह्न रत्युत्तमत्वयोः ।
वाचां, श्रादिशब्दात् कर-पादादीनां वैशिष्ट यं हृद्यो विकारः अंतर्गतरतिभावस्य पामरनायिकावलक्षण्येन उत्तमप्रकृतित्वस्य च निश्चयहेतुर्भावः। भवति हि तथाभूतं वागादिवैचित्र्यमुपलभ्य बुद्धोऽयमन्तःकामप्रदीपोरया इति, उत्तमप्रकृतिश्च नायिकेयमिति सहृदयस्य निश्चय इति ।। [मलबार] उत्साहादि [पुरषोचित अलङ्कारों से माच्छादित ही होते हैं इसलिए [पुरुषोंने] उनको गौरण कहा गया है। भाव प्राविको बीस संख्या यहाँ गिनाए गए बोस] भावोंकी दृष्टिसे ही है। वैसे तो यौवनमें स्त्रियोंके अलङ्कारों की संख्या अनन्त होती है। उन [बोस मलयारों] मेंसे [भाव-हाव और हेला ये] पहले तीन यौवनोदयसे युक्त शरीरमें प्रियके देखने अथवा वस्त्र-माल्य आदिके बिना बाह्य साधनोंके बिना केवल शरीरमात्रसे उत्पन्न होते हैं [इसीलिए इनको अंगज कहा गया है। और उनसे अगले बस स्वयं अपने रतिरूप भावसे प्रियका उपभोग होने या न होनेपर उत्पन्न होते हैं । ये बस [अलङ्कार कहीं एक, कहीं दो, मा कहीं तीन मावि रूपसे भी उत्पन्न हो सकते हैं । इसलिए वे प्रवश्यम्भावी नहीं होते हैं। पोर अंगज तथा स्वाभाविक सभी अलकार क्रियारूप अर्थात् स्त्रियोंके चेष्टात्मक होते हैं। [जंगल तथा स्वाभाविक दोनों प्रकारके अलङ्कारोंको] मिलाकर तेरह संख्या होती है। उनके बाब सात [अलर] पुरुषका उपभोग हो जाने के बाद [स्त्रियों के भीतर] यत्न अर्थात् भीतरी म्यापारके बिना ही बह धर्मके रूपमें प्रकट होते हैं। पहले तिरह] तो चेष्टात्मक होते हैं। [पर ये सात चेष्टात्मक नहीं अपितु देह धर्मरूप होते हैं यह इनका भेव है]. इच्छासे मन होता है। यरनसे वेह-चेष्टा होती है। इसलिए बिह-चेष्टात्मक पहले तेरह अलवरयस्त [मोर अन्तिम सात अलङ्कार प्रयत्न होते हैं ।। [२७-२८) १८०-१८१ ॥
अब मागे भाव मादिके अलग-अलग सक्षरण करते हैंरति पौर उत्तमत्वको सूचक वाणी आदिको विशेषताको 'भाव' कहते हैं।
[सत्र २७०]-बापीका और प्रादि शब्दसे हाथ-पैर प्राविका शिष्टय प्रति मनोहर विफार, भीतर रहने वाले रति-भावशा मोर पामर नायिकासे भिन्न उत्तम प्रकृतित्य निश्मायक चिह्न, 'भाव' कहलाता है । उस प्रकारके वाणी माविक सिंहको देखकर इसके भीतर काम-प्रदीप प्रज्वलित हो गया है इस प्रकारका और यह नामिका उत्तम
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