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इत्कारमकारणकसुहदं विश्वस्य पावं जिनं तं स्तोतुस्त्रिजगदिलक्षण गुणग्रामाभिरामाकृतिम् । यः कश्चिद् विकचीबभूव बत मे भाग्यातिरेकस्ततः
तल्लोकव्यतिरिक्तमुक्तिगुवतिप्रेमप्रमोदोत्सवः ॥ इन दोनों श्लोकों में से प्रथम लोक में ग्रन्थकार ने पार्श्वदेव की स्तुति की है और उनके अनुग्रह से 'विधिनतान्य' और 'गलत्तनुता' के नाश की भाशा प्रकट की है। दूसरे श्लोक में भी उन्हीं पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए इसीप्रकार अपने 'भाग्यातिरेक' के 'विकचीभवन' की चर्चा की है । यों भन्छ ता जीवन का अभिशाप है। किन्तु उसमें बाह्य वृत्तियों का निरोध होकर मनुष्य की वृत्तियां स्वयं अन्तर्मुखी बन जाती है और उसके भीतर भगवान के प्रति प्रेम का उदय हो जाता है यह अच्छी बात है। इस दूसरे श्लोक में रामचन्द्र ने अपने उसी 'भाग्यातिरेक' के "विकचीभवन' को प्रमोदोत्सव' कह कर प्रपना सन्तोष व्यक्त किया है। प्रन्थकार के जीवन की अन्तिम झांकी
माचार्य हेमचन्द्र के जीवन की मन्तिम झांकी हम देख चुके हैं। जिस समय 'महिलपट्टन' के राजा कुमारपाल अपने उत्तराधिकारी के निर्णय के सम्बन्ध में परामर्श करने के लिए प्राचार्य हेमचन्द्र के आवास-स्थान पर परामर्श कर रहे थे, उस समय पाचार्य के पन्यान्य शिष्यों के साथ रामचन्द्र भी उपस्थित थे। उस समय प्रजयपाल को राज्य का उत्तराधिकारी न बनाने का जो परामर्श प्राचार्य हेमचन्द्र की भोर से दिया गया था उसमें रामचन्द्र का विशेष हाथ था। माचार्य हेमचन्द्र के शिष्यों में रामचन्द्र का प्रतिद्वन्द्वी पोर मन ही मन उनसे द्वेष रखने वाला उसका सहपाठी बालचन्द्र भी था। उसने ही अजयपाल के पास जाकर रामचन्द्र की चुग़ली करके अजयपाल को रामचन्द्र का शत्रु बना दिया था। इसलिए जैसा कि हम पहिले पढ़ चुके हैं अब अजयपाल राजा बना तो उसने रामचन्द्र को बुला कर गर्म लोहे की चादर के ऊपर बिठा कर उनको मरवा डाला । रामचन की इस नृशंस हत्या के पूर्व मजयपाल ने कहा था कि
महिवीढह सचराचरह जिण सिरि दिल्हा पाय। तमु प्रत्थमरतु दिणेसरह होउत होइ चिराय ॥' [महीपीठस्य सचराचरस्य येन शिरसि दत्ताः पादाः ।
तस्यास्तमनं दिनेश्वरस्य भवितव्यं भवति चिराय ॥] अर्थात् जो मारे चराचर जगत् के सिर पर पैर रखकर चलता है उस दिनेश्वर सूर्य का अन्त में चिरकाल के लिए प्रस्त हो जाता है। इसी प्रकार माज हमारे सिर पर पैर रखने का यत्न करने वाले इस रामचन्द्र का अन्त हो रहा है। रामचन्द्र के सहकारी गमावन्द्र
प्रस्तुत 'नाट्यदर्पण' ग्रन्थ की रचना में रामचन्द्र के साथ गुणचन्द्र का भी नाम माता है । अर्थात् इस ग्रन्थ की रचना रामचन्द्र गुणचन्द्र दोनों ने मिल कर की है। इनमें से रामचन्द्र के जीवन का वृत्तान्त ऊपर दिया गया है । किन्तु गुणचन्द्र के विषय में कुछ अधिक परिचय नहीं मिलता है । केवल इतना विदित होता है कि ये रामचन्द्र के सहपाठी घनिष्ट मित्र भौर प्राचार्य हेमचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने अपने तीसरे साथी वर्षमानगणि के साथ सोमप्रभाचार्य रचित 'कुमारपाल प्रतिबोध' का श्रवण किया था। इस बात का उल्लेख करने वाले दो श्लोक हम पृष्ठ ८
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