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________________ मान्यता का अभिशाप रामचन्द्र के जीवन का अन्तिम भाव दु:खमय ही रहा । इसका कारण उनका प्रन्या हो पाना था। 'प्रमावक-परित' के अनुसार तो मणहिल-मट्टन के राजा जयसिंह सिद्धराज के समय में ही उनकी दाहिनी मांस नष्ट हो गई थी। इस बात का वर्णन प्रभावक-चरित में निम्न प्रकार किया गया है "उपाययाश्रितस्यास्य महापीठापुरःसरम् । व्यनशर दक्षिण : ........ ....." कर्मप्रामाण्यमालोच्य ते शीतीभूतचेतसा। स्थितास्तत्र पतुर्मासीमासीनास्तपसि स्थिरे ।" पर्थात् कभी चतुर्मास के अवसर पर कवि रामचन्द्र की पोख. दुखने भाई और प्रत्यन्त पीड़ा देने के बाद उनकी दाहिनी मांस जाती रही । रामचन्द्र ने उसे अपने कर्मों का दोष कहकर सन्तोष किया। भोर पूर्ववत् तपोऽनुष्ठान करते हुए चातुर्मास्य को वहीं पूर्ण किया। ऐसा प्रतीत होता है कि यह घटना उनके मुख्य १५-१६ अन्यों के रचना-काल के बाद हुई है। पौर उसने उनकी कार्य-पद्धति एवं प्रवृत्ति को ही बदल दिया है । इस दुर्घटना के बाद वे अन्य ग्रन्थों को छोड़ कर केवल स्तवों की रचना में लग गए। हमारे इस अनुमान का कारण यह है कि उनके स्ववों में अनेक जगह दृष्टि-दान की प्रार्थना पाई जाती है। 'निमिस्तव' के अन्त में उन्होंने लिखा है नेमे ! निषेहि निशितासिलताभिराम ! चन्द्रावदातमहसं मयि देव! हुष्टिम् । सयस्तमांसि विततान्यपि यान्तु नाश मुज्जम्भतां सपदि शाश्वतिकः प्रकाशः ।। इसमें स्पष्टतः दृष्टिदान की प्रार्थना की गई है । 'षोडश षोडशिका' के अन्त में भी कुछ इसी प्रकार की प्रार्थना निम्न श्लोक में की गई है। स्वामिन्ननन्तफलकल्पतरोऽतिराम ! चन्द्रावदात चरिताञ्चितविश्वपक्र! शकस्तुतांघ्रिसरसीरुह ! दुःस्थसाथै, देव ! प्रसीद करुणां कुरु देहि दृष्टिम् ।। ऊपर हमने 'प्रभावक परित' के जो श्लोक उद्धृत किए थे यद्यपि 'ध्यनशद् दक्षिणं पक्षुः' केवल दक्षिण चक्षु के नाश की बात कही गई थी किन्तु वस्तुत: उनकी एक ही चक्षु नष्ट नहीं हुई थी अपितु वे दोनों नेत्रों से विहीन अन्धे हो गए थे। इसीलिए इन सब इलोकों में उन्होंने दृष्टिदान की प्रार्थना की है। 'व्यतिरेकद्वात्रिशिका' के अन्त में तो उन्होंने अपने विधिनताव्य' अर्थात् देवात् प्राप्त हुई भन्यता का उल्लेख किया है। और इसके साथ ही 'गलत्तनुता' पर्षात वाक्य का भी संकेत करते हुए लिखा है जगति पूर्वविविनियोग विधिनतान्ध्य-गलत्तनुताऽदिकम् । सकलमेव विखुम्पति यः क्षणात अभिनवः शिवमुष्टिकरः सताम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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