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( ७६ ) शायता सविधेऽप्यनीश्वरा सफलीक महो मनोरथान् । दयिता दयिताननाम्बुजं परमीलनयना निरीक्षते ॥
[रसगंगाधर पृष्ठ ४१,१२] इन दोनों उदाहरणों में अन्तःवृत्ति के आधार पर अन्ततः सम्भोग श्रृंगार की ही स्वीकृति होगी, वियोग की भावना तो यहां उद्दीपक मात्र है। (५) अदभुत रस की महत्ता एवं स्थिति
नाट्यदर्पण में अद्भुत रस को चर्चा दो स्थलों पर की गयी है-एक 'परिगृहन' नामक निर्वहण-सन्ध्यङ्ग के प्रसंग में और दूसरे 'नाटक' नामक रूपक के प्रसंग में।
पहले प्रसंग में अद्भुत रस का सामान्य सा स्वरूप-निर्देश है-"अद्भुत रस की प्राप्ति 'उपगृहन' (परिगृहन) कहाती है । इसका स्थायिभाव 'विस्मय' है । उदाहरणार्थ, रामाभ्युदय नाटक में सीता-ज्वलन प्रकरण के अन्तर्गत सीता के लिए अग्निदेव का प्रवेश प्रादि ।" [पृष्ठ १८८]
दूसरे प्रसंग में अद्भुत रस की महत्ता एवं स्थिति पर प्रकाश डाला गया है-"नाटक नामक रूपक में एक रस अंगीरूप में होना चाहिए, तथा अन्य रस अंगरूप में । इसके अन्त में अद्भुत रस होना चाहिए : एकाङ्गिरसमन्याङ्गम् अद्भुतान्तम्' । 'मद्भुतान्तम्' पद का विग्रह करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि “अद्भुत एव रसोऽन्ते निर्वहणे यत्र", अर्थात् नाटक के अन्त में–निर्वहण सन्धि में-प्रद्भुत रस होना चाहिए । इसकी व्याख्या में मागे कहा गया है कि "नाटक में एक ओर शृंगार, वीर, रौद्र प्रादि रसों द्वारा स्त्रीरत्न, पृथ्वीलाभ, शत्रुक्षय रूप सम्पत्तियों की प्राप्ति होती है, और दूसरी पोर करुण, भयानक तथा बीभत्स रसों द्वारा इन सब की प्राप्ति । किन्तु नाटक के अन्त में अद्भुत रस द्वारा लोकोत्तर एवं असम्भाव्य फलरूप प्राप्ति दिखानी चाहिए, क्योंकि प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई फल तो अवश्य होता ही है, अतः यदि नाटक में प्रसाधारण वस्तु रूप फल की कल्पना न की गयी तो फिर इसके निर्माण में परिश्रम करने से क्या लाभ ?"
(पृष्ठ ३७) इस कथन का अभिप्राय यह है कि मंगी रस चाहे कोई भी हो किन्तु उस रस से सम्बद्ध फल 'अद्भ' से मिश्रित होना चाहिए । 'अद्भुत' से यहां तात्पर्य है ऐसा फल जो एक पीर तो असम्भाव्य हो, अर्थात् ओ सामान्य परिस्थितियों में सुलभ न हो, अथवा जिसके लिए नायक को लोकाचार से किचिद् विलक्षण माचरण करना पड़े अथवा घोर विपत्तियों का सामना करना पड़े; और दूसरी मोर वह लोकोत्तर हो, अर्थात् जिसकी प्राप्ति सामान्य जन के लिए प्रायः असम्भव सी होती हुई भी सबकी लालसा एवं कामना का विषय बनी रहे। उदाहरणार्थ, सामान्य लोकव्यवहार के तमान केवल विवाह-सम्बन्ध द्वारा नायिका की प्राप्ति में अद्भुत-तत्व का समावेश म होने के कारण यह नाटक का विषय नहीं है । हाँ, दुष्यन्त-शकुन्तला का प्रेम-प्रसंग नाटक का विषय बन सकता है, क्योंकि इसमें एक मोर लोकाचार से विलक्षण प्राचरण किया गया है भोर दूसरी ओर अनन्द्य सुन्दरी शकुन्तला रूप फलप्राप्ति प्रत्येक सहृदय की लालसा एवं कामना का विषय बन गयी है। इसी प्रकार 'पृथ्वीराज-संयोगिता स्वयंवर' भी प्रसामान्य वरमाला-प्रसंग के समालेश के कारण नाटक का विषय बन सकता है। इसी प्रकार वीर रस के नाटकों में भी मैपोलियन का कथन भी कि "मैं गया. मैंने देखा और मैंने जीत लिया" उसी स्थिति में नाटक
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