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________________ का० १२६, सू० १८१ ] तृतीयो विवेकः [ ३२६ मानिन्याश्चरणानतिव्यतिकरे वाष्पाम्बुपूर्णेक्षणं, चक्षुर्जातमहो प्रपञ्चचतुरं जातागसि प्रेयसि ॥" इत्यादौ रसोत्पत्तरदोष एवायम् । तस्मादव्युत्पन्नोक्तित्वादवक्रोक्तिरेवेयम् । एवमुभयरससाधारणविभावपदानां कण्टेन नियतविभावाभिधायित्वाधिगमोऽपि सन्दिग्धत्वलक्षणो वाक्यदोष एव । यथा "परिहरति रति मतिं लुनीते स्खलतितरां परिवर्तते च भूयः । इति बत विषमा दशा स्वदेह परिभवति प्रसभं किमत्र कुर्मः ॥" अत्र मतिपरिहारादीनां विभावानां करुणादावपि सम्भवात् शृंगारं प्रति भावत्वसन्देह इति ॥ [२३] १२५ ॥ अथ वृत्तिलक्षणे रसानन्तरमुद्दिष्टानां भावानामवसरस्तत्रापि रसानुरोधेन प्रथम स्थायिन उच्यन्ते । [सूत्र १८१]-रति-हासश्च-शोकश्च क्रोधोत्साही भयं तथा । जुगुप्सा-विस्मय-शमा रसानां स्थायिनः क्रमात् ॥ [२४] १२६ ॥ जाने वाले, उसके बात करनेपर [प्रसन्नतासे] फटे हुए, मालिंगन करने लगनेपर [कोषसे] लाल हुए, और कपड़ा पकड़नेपर भौहें टेढ़ी किए तथा चरणोंमें प्रणाम करने लगनेपर प्रासुमोसे भरे, मानिनीके नेत्र प्रियतमके [परस्त्री-सम्भोग रूप अपराधके अपराधी होनेपर नाना प्रकारको प्रपञ्च-रचनामें चतुर हो गए हैं यह पाश्चर्यको बात है। इत्यादिमें [उत्सुकता प्रादि रूप व्यभिचारिभावोंके स्वशग्दवाच्य प्रति नामतः गृहीत होनेपर भी] रसको उत्पत्ति होनेसे यह [व्यभिचारिभावादिको स्वशम्बवाच्यता] बोष नहीं होता है। इसलिए अविद्वानोंके द्वारा कथित होनेसे यह [स्थायिभावादिको स्वानवाध्यताको दोष ठहराने वाली] उक्ति ठीक उक्ति नहीं है [अर्थात् व्यभिचारिभावारिको स्वशब्दवाच्यताको दोष नहीं मानना चाहिए । ___इसी प्रकार दो रसोंमें समान रूपसे पाए जाने वाले विभावादि वाधक पदोंसे किसी एक नियतरसके विभावादिको कठिनतासे प्रतीति भी [जिसेकि मम्मट प्रादिने रसदोषोंमें गिनाया है वह रसदोष न होकर सन्दिग्धत्वरूप वाक्यदोष ही है। जैसे [इस नायिकाको] बड़ी बेचैनी हो रही है, इसकी बुद्धि ठिकाने नहीं है, बार-बार गिर पड़ती है, और निरी करवटें बदल रही है । इस प्रकार इसके देहकी बड़ी विषम अवस्था हो रही है इसका क्या उपाय करना चाहिए। इसमें रतिका परिहरण प्रादि रूप विभाव[शृंगारमें तो होते ही हैं उसके अतिरिक्त] करुणादिमें भी हो सकते हैं इसलिए उनके शृंगारके प्रति भाव होने में सन्देह है [इसे अन्य लोग रसदोष मानते हैं । परन्तु ग्रंथकारके मतमें वह वाक्यदोष है, रसदोष नहीं] ॥[२३] १२५ ॥ अब वृत्तियोंके लक्षणमें रसोंके बाद कहे हुए भावोंके प्रतिपादनका यपि अवसर है किन्तु रसोंके प्रसङ्गसे पहिले स्थायिभावोंको कहते हैं। [सूत्र १८१]- रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, मुगुप्ता, विस्मय भोर सम में नौ शृंगारादि पूर्वोक्त नौ] रसोंके क्रमशः स्थायिभाव हैं । [२४] १२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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