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________________ १० ] नाट्यदर्पणम्. [ का० ३६, सू० ४१ यथा वा राघवाभ्युदये षष्ठेऽङ्क --- "सुग्रीवः- [जाम्बवन्तं प्रति] भवतु याहशस्तादृशो वा स पारदारिको राक्षसस्तथापि देवपादानां वध्यः। रामः-[ सीतापहार स्मृत्वा सगर्वविशादम् ] कपिराज ! प्रतिराजविक्रमयामिनीतपनोदये भवति सहाये सति-- निहत्य दशकन्धरं सह विपक्षरक्षःकथा-- प्रथाभिरधिसङ्गरं जनकजा ग्रहीष्ये ध्रुवम् । शशाक नस रक्षितु रघुपतिः परेभ्य; प्रिया-- मयं तदपि सम्भवी चिरमकीतिकोलाहलः ॥" - इति। भीमकी उक्ति है। इसको सुनकर कौरवपक्षके मुख्य सेनानायकोंके मारे जाने और दुर्योधनके अकेले ही शेष रह जानेसे अब पाण्डवोंकी राज्य-प्राप्ति प्राय: निश्चित हो जाती है । इसलिए ग्रन्थकारने इसे कार्यकी 'नियताप्ति' रूप चतुर्थी अवस्था के उदाहरण के रूपमें यहाँ प्रस्तुत किया है। इसी प्रकारका नियताप्तिका दूसरा उदाहरण मागे अपने बनाए राघवाभ्युदय नाटक मेंसे प्रस्तुत करते हैं। अथवा जैसे राघवाम्युदयके षष्ठाडूमें___ सुप्रीव-[जाम्बवन्तके प्रति कहते हैं कि] हे अमात्य ! वह दूसरेको का अपहरण करने वाला राक्षस [रावण] चाहे कैसा भी [बलवान और विद्वान् हो किन्तु [दूसरेकी श्री का अपहरण करने वाला होनेके कारण वह पापी है प्रत एव] देव पाद [श्री रामचन्द्रजी] के लिए बध्य ही है। राम-सीताके अपहरणके दुःखको स्मरण करके गर्व तथा विषादके सहित कहते हैं कि हे कपिराज ! शत्रुनो [प्रतिराज] के विक्रम रूप यामिनी [रात्रि के लिए सूर्यके .. समान अर्थात् शत्रुओंके पराक्रमको नष्ट करने वाले प्रापके सहायक होनेपर शत्रु राक्षसोंकी कथानोंकी परम्पराओंके साथ रावणको युद्धभूमिमें मार कर निश्चय हो मैं [जनकजा] सीताको प्रात कर लूंगा। फिर भी वह रघुपति दूसरोंसे अपनी प्रियाको रक्षा करने में भी समर्थ नहीं हुश्री इस प्रकारका अपकीतिका कोलाहल सदाके लिए हो हो जायगा। यह। ___ यहां भी फलसिद्धिके बाधकोंका निराकरण और फल-प्राप्ति अर्थात् सीताके उद्धारके अभीष्ट साधनोंके उपस्थित हो जानेसे रामचन्द्रको सीताके उद्धार रूप फलको प्राप्तिका निश्चय हो ही गया है। इसलिए यह भी 'नियताप्ति' रूप चतुर्थी अवस्थाकाके उदाहरण रूपमें प्रस्तुत क्यिा गया है। इस प्रकार यहाँ तक कार्यकी प्रारम्भ आदि पांच अवस्थानों में से चार अवस्थामोंका लक्षण तथा उदाहरण प्रादि सहित विस्तार-पूर्वक विवेचन हो गया । अब एक 'फलागभ' रूप अन्तिम अवस्था शेष रह जाती है। उसका निरूपण अगले श्लोकार्ध द्वारा प्रस्तुत करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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