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________________ [ ८ का० ३६, सू०४१ ] प्रथमो विवेकः नलः-समभूदिदानी स्वप्नार्थप्राप्याशा।" इति ॥ ३५ ॥ (४) अथ नियताप्तिं स्पष्टयति [सत्र ४१]-नियताप्तिरुपायानां सामन्यात् कार्य निर्णयः। प्रधानफलहेतूनां प्रतिबन्धकाभावेन सकलसहकारिसम्पत्या कार्यस्य प्रधानफलस्य निर्णयो भविष्यत्येवेति निश्चयो,नियता फलाव्यभिचारिणी प्राप्निनियताप्तिः । यथा वेणीसंहारे "कर्ता द्यूतच्छलानां जतुमयशरणोद्दीपनः सोऽभिमानी, राजा दुःशासानादे-गुरुरनुजशतस्यागराजस्य मित्रम । कृष्णाकेशोत्तरीयव्यपनयनपटुः पाण्डवा यम्य दासाः, क्वास्ते दुर्योधनोऽसौ कथयत न रुषा द्रष्टुमभ्यागतौ स्वः॥" इत्यादिना भीमार्जुनाभ्यामेकशेषदुर्योधनान्वेषणानियताप्तिदशिता। नल-अब स्वप्नके अर्थको प्राप्तिको प्राशा हो गई है।" इत्यादि ॥३५॥ ४ नियताप्ति अवस्था प्रारम्भ, यत्न, और प्राप्त्याशा रूप तीन अवस्थामोंका वर्णन कर चुकनेके बाद अब . 'नियताप्ति' रूप चतुर्थ अवस्थाके लक्षणादिका अवसर प्राप्त होता है। अतः प्रागे उसका वर्णन प्रारम्भ करते है। अब नियताप्ति के लक्षण आदि] को स्पष्ट करते है [सूत्र ४१]-उपायोंके सफल होजानेसे कार्य [की प्राप्ति का निर्णय 'नियताप्ति' कहलाती है। प्रधान फलके हेतुओंके, प्रतिबन्धक [कारणों का नाश [प्रभाव हो जानेसे और [उसकी उत्पत्तिके] समस्त सहकारियोंके प्राप्त हो जानेके कारण कार्य अर्थात् प्रधान फलका निर्णय अर्थात् अवश्य होगा हो इस प्रकारका निश्चय, नियता अर्थात् फलको अव्यभिचारिणी निश्चित प्राप्ति होनेसे [इस व्युत्पत्ति के अनुसार] .नियताति [कहलाती है। . जैसे वेणीसंहारमें-- "[हम पाण्डवोंके साथ] द्यूतका छल [करके हमारा राज्य अपहरण करने वाला, लाखके घर में बन्द करके हम सब] को जलाने वाला, दुःशासन प्रादिका वह अभिमानी राजा, सौ भाइयोंका गुरु [ज्येष्ठ भाई], अङ्गराज [करणं] का मित्र, द्रौपदीके केश और वमों का अपहरण कराने में पटु और [अधिक क्या कहें] पाण्डव जिसके 'दास' हैं वह दुर्योधन अब कहाँ है, बतलानो, हम दोनों [अर्थात् अर्जुन और भीम] क्रोधमे. [उसे मारनेके लिए] नहीं केवल मिलनेके लिए पाए हैं।" इत्यादि [वचन] से भीम तथा अर्जुनके द्वारा प्रकले बचे हुए दुर्योधनका अन्वेषण किए जानेके कारण [पाण्डवोंको राज्यको प्राप्तिका निश्चय हो जाने से । यह नियताप्ति है। वेणीसंहारके पञ्चम अङ्कमें कर्ण ग्रादि तक सब सेनापतियों का बंध हो जानेपर और दुर्योधनका जीवन भी सङ्कटमें पड़ जानेपर मूछित दुर्योधनको रथमें लेकर सारथि उसके रथ को भगा लाता है। ऐसी दशामें धृतराष्ट्र तथा गान्धारी दुर्योधनको समझा रहे हैं। उसी समय दुर्योधनको खोजते हुए भीम और अर्जुन उधर पा निकलते हैं। उसी प्रसङ्गमें यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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