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का० ३६, सू० ४२ ] प्रथमो विवेकः (५) अथ फलागमं निरूपयति-- [सूत्र ४२] -साक्षादिष्टार्थसम्भूति- यकस्य फलागमः ॥३६॥
साक्षात् समनन्तरं, न तु दानादिभ्यः स्वर्गादिफमिव जन्मान्तरभाविनी। इष्टस्याभिप्रेतस्य, अर्थस्य प्रयोजनस्य, सम्यक् पूर्णत्वेन, भूतिरुत्पत्तिः, फलस्यागमः भागमारम्भो न पुनरागतत्वम् । इह फलस्योत्पत्त्यावेशः पश्चम्यवस्था । उत्पन्नस्य तु नायकेन यः सम्भोगस्तत् प्रबन्धस्य मुख्यं साध्यम् । अत एव फले साध्ये नायकस्य पश्वावस्थाः सङ्गच्छन्ते ।
'नायकस्य' इत्यनेन चावस्थान्तराणि सचिव-नायिका-विपक्ष-देवादिव्यापाररपि निबन्ध्यते इत्युक्त भवति । तानि तु तथा निबद्धान्याप फल तो नायक एव पर्यवस्यन्ति । अत एव रत्नावल्यां--प्रारम्भेऽस्मिन् स्वामिनो वृद्धिहेतौ' इत्यादि स्वामिगत्वेनैव यौगन्धरायणेनोक्तम् । फलागमः पुन यकस्यैव निबध्यते । (५) फलागम अवस्था---
अब फलागम [रूप पञ्चमी अवस्था का निरूपण करते हैं
[सूत्र ४२]---नायकको साक्षात् [जन्मान्तरभावी फलके रूपमें नहीं प्रपितु इसी जन्म में कार्यके बाद इष्ट अर्थको प्राप्ति 'फलागम [रूप पञ्चमी अवस्था कहलाती है ॥३६॥
[ कारिकामें पाया हुया ] साक्षात्' पद समन्तर] तुरन्त बादमें [ होनेवाली इार्थ प्रालिका सूचक है], न कि दानादिले प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि फलके समान दूसरे जन्ममें प्राप्त होनेवाली [इष्टार्थ प्राप्तिका ग्रहण उससे होता है] । 'इष्ट' अर्थात् अभिप्रेत [चाहे हुए] 'अर्थ' अर्थात् प्रयोजनका [सम्भूति अर्थातु] सम्यक् पूर्ण रूपसे [भली प्रकार भूति अर्थात् उत्पत्ति । 'फलागम' कहलाती है । फलागन इस पदमें] 'मागम' अर्थात् प्रारम्भ [का ग्रहण करना चाहिए, न कि [प्रागतत्व अर्थात् फलकी सिद्धि । अर्थात् फलको उत्पत्तिका प्रारम्भ पश्चमी [फलागम रूप] अवस्था |से अभिप्रेत है। और [पूर्ण रूपसे उत्पन्न [फल) का जो नायकद्वारा उपयोग है वह प्रबन्धका मुख्य साध्य है । [अवस्था रूप नहीं। इसलिए फलकी 'सिद्धि में नायककी पाँच अवस्थाएँ मानना युक्तिसङ्गत है।
_ 'नायकस्य' इस पद से यह सूचित किया है कि फतागम रूप अन्तिम अवस्थाको छोड़कर अन्य [चारों अवस्थाएँ सचिव, नायिका, प्रतिनायक या देव प्रादिके व्यापारोंके द्वारा भी प्रायोजित हो सकती हैं [किन्तु फलागम रूप अन्तिम अवस्था केवल नायकको ही प्राप्त होती है। यह अभिप्राय है। वे [प्रारम्भ आदि रूप चार अवस्थाएँ] उस प्रकारसे [अर्थात् नायकसे भिन्न सचिव, नायिका, प्रतिनायक तथा देवादि द्वारा निबद्ध होनेपर भी फल रूपमें [अन्तको] नायकमें ही पर्यवसित होती है [अर्थात् शेष चारों अवस्थाओंको प्रायोजना चाहे किसीके भी प्रयत्नसे हो किन्तु अन्तमें उसका फल नायकको ही प्राप्त होना है।। इसीलिए रत्नावली में--- 'स्वामिको वृद्धिके हेतुभूत इस कार्य में' इत्यादि स्वामिगत रूपसे ही [फलका निर्देश करते हुए] यौगन्धरायणने कहा है। [अर्थात् रत्नावलीके प्रारम्भमें प्रारम्भावस्थाका प्रायोजन यद्यपि अमात्य यौगंधरायणने किया है किंतु उसका फल स्वामिगत ही निर्दिष्ट किया है] । फलागम [पञ्चमी अवस्था केवल] नायकको हो वरिणत की जाती है ।
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