SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ 1 नाट्यदर्पणम । का० १८६, सू० २७५-७८. [सूत्र २७५]-वेषाल्पतैव विच्छित्तिः परां शोभा वितन्वती ॥ ॥[३१]१८४॥ __ स्वल्पाप्याकल्परचना प्रकृतिसौभाग्यादिगुणयुक्तत्वात् परां शोभा स्त्रियां वितन्वती विच्छित्तिरिति ॥ [३१] १८४॥ अथं लीला[सूत्र २७६]-लीला दयितवागादेः स्वे न्यासो बहुमानतः । आदिशब्दाद वेष-व्यापारादिग्रहः । प्रियतमप्रीत्यतिशयेन दयितवागादेः सशृङ्गारं स्वस्मिन् न्यासः सम्यक करण लीलेति । __ अथ विश्वोक:[सूत्र २७७]-विव्वोकोऽनादरो मान-ददिष्टेऽपि वस्तुनि ॥ ॥ [३२]१८५॥ मानश्चित्तसमुन्नतिः । दर्पः सौभाग्यगर्वः। इष्ट वस्त्रमाल्यालंकारादीति । ॥ [३२]१८५।। अथ विहृतम्[सूत्र २७८]--विहृतं जल्पकालेऽपि मौनं ह्री-व्याज-मौग्ध्यतः । जल्पकालो भाषणस्योचितः समयः । मौनमभाषणम् । व्याजः छद्म । उपलक्षण सित्र २७५] -अत्यधिक सौन्दर्यको प्रदर्शित करनेवाला स्वल्प वेष-धारण ही विच्छित्ति कहलाती है । [३१]१८४॥ स्त्रियोंके भीतर उनके प्रकृष्ट सौभाग्यादि गुणोंसे युक्त होनेके कारण प्रत्यन्त सौंदर्य को प्रकाशित करनेवाला थोडासा भी वेष-विन्यास 'विच्छित्ति' कहलाती है ॥[३१j१८४॥ अब मागे 'लीला' [का लक्षण करते हैं] [सूत्र २७६]-प्रियके वचन प्राविको अत्यन्त प्रावरपूर्वक अपने भीतर रखना लीला कहलाती है। मादि शब्बसे बेष और व्यापार प्रादिका प्रहरण होता है। प्रितमके प्रति अत्यधिक प्रेम होनेके कारण प्रियतमको वाणी माविको श्रृंगाराभिव्यक्तिपूर्वक अपने में लगाना अर्थात यथार्थ बनाना 'लीला' कहलाती है। प्रव प्रागे 'विश्वोक' [का लक्षण करते हैं] [सूत्र २७७] -मान अथवा दर्पके कारण इष्ट बस्तुके प्रति भी. मनावर दिखलाना 'विश्लोक' कहलाता है ।[३२]१८५॥ मान अर्थात् चित्तका चढ़ा होना। हर्ष अर्थात् सौभाग्यका गर्व । इष्ट अर्थात वस्त्र माला, अलंकार प्रादि ॥[३२]१८५॥ अब प्रागे विहृत [का लक्षण करते हैं]--- [सूत्र २७८]--लज्जा अथवा किसी बहाने अथवा मुग्धताके कारण बोलने के उचित समयपर भी न बोलना 'विहत' कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy