SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का० १८७, सू०:२७६-८१ ] .चतुर्थो विवेकः [ ३८५ त्वादनायत्तत्व-बाल्यादयोऽपि गृह्यन्ते । आत्मनो चादिप्रकाशननिमित्तं समयेऽप्यभाषणं विहृतमित्यर्थः। अथ ललितम[सूत्र २७९]-ललितं गात्रसंचारः सुकुमारो निरर्थकः ॥[३३]१८६॥ गात्रस्य नेत्रहस्तादेः, संचारो व्यापारः। सुकुमारोऽतिमनोहरो, द्रष्टव्यं विना दृष्टिक्षेपो, ग्राह्यमृते हस्तादिव्यातिरित्येवं निष्प्रयोजनो ललितम् । सप्रयोजनस्तु व्यापारो विलास, इत्यनयोर्भेदः इति ॥ [३३] १८६॥ _ अथ कुटुमितम्- - [सूत्र २८०]-कचौष्ठाविग्रहे कोपो मृषा कुटुमितं मुदि । आदिशब्दात् स्तन-करादिप्रहः। प्रियतमेन कचादिषु गृह्यमाणाया अन्तःप्रमोदे ऽपि व्यलीककोपकरण कुटुमितमिति । अथ मोट्टायितम्[सूत्र २८१]-मोट्टायितं प्रियेक्षादौ रागतो गात्रमोटनम् ॥[३४] १८७॥ प्रियस्य दर्शन-श्रवणानुकरणादिषु सद्भावभावनात्मकरागवशादंगमर्दनपर्यन्त योषितश्चेष्टितमति ॥ [३४] १८७ ॥ ___ जल्पकाल प्रर्यात भाषणके उचित समय । मौन अर्थात् चुप रहना। व्याण सर्वात बहामा । इसके उपलक्षण स्प होमेसे परवशता और बाल्य माविका ग्रहण होता है। अपनी लज्जा प्राविके प्रकाशनके लिए बोलने अवसरपर भी न बोलना "बिहत' कहलाता है यह अभिप्राय है। मागे 'ललित'का [लक्षण करते हैं[सत्र २७६]-व्यर्ष ही मसापतके साथ अंगोंका चलाना 'ललित' कहलाता है। गात्र अषवा नेत्र और हाप प्रारिका, संचार प्रति संचालन-व्यापार । सुकुमार अर्थात प्रत्यन्त मनोहर । [बसे प्रष्य विषयके न होनेपर भी हरि गड़ाना, पकरने योग्य किसी वस्तुके न होनेपर भी हाच माविका चलाना। इस प्रकारका निष्प्रयोजन म्यापार 'ललित' कहलाता है। और सप्रयोजन व्यापार विलास' कहलाता है। यह इन दोनोंका भेर है।[३१]१८६॥ अब मागे 'पुट्टमित' [का लक्षण करते है] [सूत्र २८८]-[प्रियतम बाराश, मोष्ठ मावि पकड़े जानेपर हायके भीतर तो प्रसन्नताके होनेपर भी बाहर मिया कोष रिसताना 'मित' कहलाता है। ... मावि शबसे स्तन, कर प्राविका पहण होता है। प्रियतमके पारामा मारिके • पकड़े जानेपर भी भीतर प्रसन्नता होनेपर भी झूठमूठ नाराज होता 'मित' कहलाता है। अब मागे मोहायित कालम करते [वत्र २८१]-प्रियतमके वन माविक होनेपर गोका मरोहमा 'मोहापित' का है [avjter प्रियतमले बर्मन, भवर, परसारित होनेपर तन्मयता म राम भारत [विमित्र मंगोंकि मन पर्यन्त स्वीकायापार मोडावित मनाता हैrean . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy