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________________ का० ४४, सू० ५६ ] प्रथमो विवेकः [ ११५ यथा वेणीसंहारे भीमं प्रति द्रौपदी "जं असुरसमराभिमुहस्स हरिणो मङ्गल, तं तुम्हाणं भोदु । इति । [यदसुरसमराभिमुखस्य हरेमङ्गलं, तद् युष्माकं, भवतु । इति संस्कृतम् । (७) अथ विलोभनम्-- - [सूत्र ५६]-विलोभनं स्तुतेर्गाय॑म् स्तुते-गुणवदेतदिति श्लाघातः प्रस्तुते कृत्ये गाय-अभिलाषस्थिरीकरण विलोभनम् । .. यथा वेणीसंहारे 'चश्वभुज' इत्यादि श्लोकानन्तरं "द्रौपदी-नाध किं दुक्करं तए परिकुविएण ? ता अणुगिएहंतु एदं वसिदं देवदाउ । [नाथ ! किं दुष्करं त्वया परिकुपितेन ? तदनुगृह्णन्तु एतद् व्यवसितं देवताः । ' इति संस्कृतम] इत्यनेन सुयोधन वधस्य गुणवत्त्वख्यापनाद् भीमस्य गाय पदं विलोभनम् । इदं च परिन्यासानन्तरमेव निबध्यते । सन्ध्यन्तर साधारण्याय चोक्तक्रमेणोशः॥ जैसे 'वेणीसंहार' में भीमके प्रति द्रौपदी कहती है] असुरोंसे युद्ध के लिए जाते हुए विष्णुको जो मङ्गल प्राप्त हुआ था वह तुमको भी [प्राप्त हो। (७) विलोभन विलोभन-अब विलोभन [नामक सत्तम अङ्गको कहते हैं][सूत्र ५६]-- स्तुतिके द्वारा [वस्तुके प्रति] अभिलाष विलोभन [कहलाता है। स्तुतिसे अर्थात यह [वस्तु] गुरगवान है इस प्रकारको प्रशंसाके कारण प्रस्तुत कार्य के विषय में अभिलाषका स्थिर हो जाना 'विलोभन' [कहलाता है। जैसे 'वेणीसंहार' में 'चञ्चद्भुजभ्रमित' इत्यादि श्लोकके बाव द्रौपदी [कहती है] ---- "हे नाथ आपके प्रकुपित होनेपर क्या दुष्कर है ? [अर्थात् सब कुछ सहज साध्य है । इसलिए देवतागण तुम्हारे इस निश्चयको अनुगृहीत करें।" इससे सुयोधनके वधको गुणवत्ताको सूचित करके भीमसेनके [उसके प्रति] अभिलाष को पुष्ट करना 'विलोभन' है। इसका सन्निधेश [मुखसन्धिके चतुर्थ प्रङ्ग] 'परिन्यास' के अनन्तर [पञ्चम अङ्गके रूपमें] ही होता है। परन्तु उद्देशवालो कारिकामें इसे परिन्यासके बाद नहीं रखा है। ६ मङ्गोंके बाद सातवें अंगके रूपमें रखा गया है। इसका यह कारण है कि ] अन्य सन्धियोंमें भी होनेके कारण उक्त क्रमसे [ अर्थात् अन्य सन्धियोंमें होनेवाले अङ्गोंके प्रारम्भमें ] कथन किया गया है। इसका यह अभिप्राय है कि यह जो 'विलोभन' अङ्ग यहाँ दिखलाया है इसका स्थान साधारणतः मुखसन्धिके परिन्यास अङ्गके बाद होता है । इसलिए मुखसन्धिके अङ्गोंमें 'परिन्यास' अङ्गके बाद इसको गिनाना चाहिए था। किन्तु ४१वीं कारिकामें परिन्यासके बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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