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१.४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ४४, सू० ५५ __ सीता--[ ससम्भ्रमं स्वगतम् ] कथमहं राममेव अनङ्गमज्ञासिषम् ?"
इत्यनङ्गभ्रान्त्या निगूढस्य रामस्य लवङ्गिकावचसा उद्भेदः ।। (६) अथ करणम
[सूत्र ५५]-करणं प्रस्तुतक्रिया । अवसरानुगुणस्यार्थस्य प्रारम्भः करणम् । यथा वेणीसंहारे"सहदेवः-आर्य गच्छामो वयं गुरुजनानुज्ञाता विक्रमानुरूपमाचरितुम् । भीमः--एते च वयमुद्यता एवार्यस्याज्ञामनुष्ठातुम।" इत्यनेन अनन्तराङ्कप्रस्तूयमान-संग्रामारम्भणात् 'करणम् । यथा वा यादवाभ्युदये द्वितीयाङ्कोपान्त्ये
"कसः--[ सप्रसादम् ] साधु अमात्य साधु । अयमेव संग्रहोपायो नान्यः । तत् तर्हि व्रज त्वं सामग्रीकरणाय ।",
इत्यनेन अनन्तराङ्कप्रस्तूयमान-मल्लरङ्गभूमिप्रारम्भात् करणमिति । अन्ये तु विपदां शमनं करणमाहुः। शमनं चाशीर्वादवशेन अन्यथा वा।
सीता-[ पावर-पूर्वक अपने मनमें ] अच्छा मैं रामचन्द्रजीको हो कामदेव समझ रही थीं !"
. इस प्रकार कामदेवके भ्रममें छिपे हुए रामचन्द्रका लङ्गिकाके वचनसे [सीताके प्रति प्रकट होना] उद्भव है।
उभेदके दूसरे लक्षणके अनुसार ये दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं। (६) करण
प्रब करण [नामक मुखसन्धिके षष्ठ अङ्गका लक्षरण करते हैं][सूत्र ५५]-प्रस्तुत [कार्यका अनुष्ठान करण [कहलाता है। अवसरके अनुकूल अर्थका प्रारम्भ करना 'करण' [कहलाता है। जैसे घेणीसंहारमें--
"सहदेव-हे प्रार्य. हम गुरुजनोंकी अनुमतिसे अपने पराक्रमके अनुसार [युर] करनेके लिए जा रहे हैं।
भीम--और ये हम भी प्रार्यको प्राज्ञाका पालन करनेके लिए तैयार हो हैं।"
इस [संवाद] से अगले अङ्कमें प्रस्तुत किए जाने वाले संग्रामका प्रारम्भ करनेसे यह 'करण' [का उदाहरण है। __ अथवा असे यादवाभ्युदयमें द्वितीय अङ्गके प्रायः अन्तमें उपान्त्ये]--
"कंस--[प्रसन्न होकर शाबाश मन्त्रिवर शाबाश, यही [कृष्णक] पकड़नेका उपाय है दूसरा नहीं। इस लिए सामग्री तैयार करनेके लिए जानो।"
इस [कथन से अगले परमें प्रस्तुत किए जानेवाले मल्लयुगका मलाड़ा बनानेका प्रारम्भ करनेसे यह 'करण' [नामक मुखसंषिका षष्ठ पङ्ग है।
पन्य [माचार्य] तो विपत्तियोंके शमनको 'करण' कहते हैं। वह शमन मानीरिक रूपमें अथवा अन्य प्रकारसे दोनों प्रकारसे हो सकता है।
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