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________________ ३१० ] नाट्यदर्पणम् [ का० ११३, सू० १६७ विशिष्टवस्त्राभरणादि नेपथ्यम् । इष्टो विदूषक - चन्द्रोदय-चक्रवाक-ईसाले ख्यादिः । यद्वा जयन - वदन- प्रसाद - स्मित- मनोज्ञांगविकार- वक्रोक्त्यादयो ग्लान्यालस्य-श्रमादयश्चेष्टाः । एवंविधा हि विकाराः परस्परं स्त्री-पुंसयोरिष्टा भवन्ति । केलयः पुष्पावचय-उपवनगमन - जलक्रीडादयश्चेष्टाविशेषाः । एवमन्येऽप्युपलक्षणा देवंविधा विभावा द्रष्टव्याः । एभ्यो यथायोगमुभयात्मापि जायते रतिस्थायी श्रृंगारः । 1 स च शृंगारो लब्धसत्ताकः सन्नभिनेयो वाचिक सात्त्विक आंांगिक श्राहार्याभिनयैर्नटेन सामाजिकानां साक्षाश्चर्वणागोचर उत्साहादिभिः कर्तव्यः । उत्साहो नयन-वंदनप्रसादकारी चित्तोल्लासः । अयं च स्थाय्यपि वीरस्य अत्रागन्तुकत्वाद् अनुभावः । एवं रसान्तरं प्रति व्यभिचारित्वमपि स्थायिनां सहचारितया भवत्येव । अस्य च स्थाय्यनुभावाभिनय-द्वारेणात्राभिनयहेतुत्वम् । एवं रत्यादावपि वाच्यम् । तापोऽभिमताप्राप्तेः काय मनः- पीडा । मन्युरीर्ष्याप्रणयभंगाभ्यां चित्तोद्वेगः । उत्साह - चाटुभ्यां नयनचातुर्य-क्षेप - परस्यांगविकारादिः सम्भोग' गारस्यानुभावः सूचितः । ताप - अश्रु- मन्युभिः पुनः पुनः परिदेवनादिर्विप्रलम्भशृंगारस्यनुभावो लक्षितः । तत्र सम्भोगे सुखमया धृत्यादयो व्यभिचारिणः । विप्रलम्भे त्वालस्यौग्य - जुगुप्सावर्जा निर्वेदादयो दुःखप्राया इति ||[११]११३ || नेपथ्यका प्रहरण करना चाहिए। 'इष्ट' पवसे विदूषक, चन्द्रोदय, चक्रवाक, हंस और प्रालेल्य [ चित्र ] प्रादिको भी लेना चाहिए । प्रथवा [ इष्ट पदसे ] नेत्रों घोर चेहरेकी प्रसन्नता, मुस्कराहट, सुन्दर अंगविकार, सुमनोहर वकोक्तियाँ प्रादि और ग्लानि, प्रालस्य धम प्रादि चेटा लेनी चाहिए। [ क्योंकि ] इस प्रकारके विकार स्त्री-पुरुषोंको परस्पर इष्ट होते हैं । केलियोंसे पुष्पावचय, वनविहार, जलकोडा प्रादि चेष्टानोंका ग्रहण होता है। [इन सबके ] उपलक्षरण रूप होनेसे इसी प्रकारके अन्य विभाव भी ले लेने चाहिए। इनके द्वारा यथायोग्य [ सम्भोग तथा विप्रलम्भ रूप] दोनों प्रकारका रतिरूप स्थायिभाववाला श्रृंगार उत्पन्न होता है । उस उत्पन्न श्रृंगारको उत्साह भाविके द्वारा अभिनय करना चाहिए अर्थात् वानिक सास्विक [ मानसिक], प्रांगिक तथा वेषाविषयक [माहार्य ] प्रभिनयोंसे नटके द्वारा सामाfroth साक्षात् चर्वणाका विषय बनाया जाना चाहिए । नेत्रों और चेहरेको प्रफुल्लित करनेवाली चित्तको प्रसन्नता उत्साह [कहलाता ] है । यह [उत्साह ] वीररसका स्थायिभाव होनेपर भी यहाँ शृंगाररसमें प्रागन्तुक गौरण होनेसे [ स्थायिभाव न होकर ] धनुभाव होता है । इसी प्रकार [अन्य] स्थायिभावोंका भी दूसरे रसोंमें सहकारी होनेके कारण व्यभिचारित्व भी होता ही है । इस [ वीररसके] स्थायिभाव और [श्रृंगाररसके] अनुभावका अभिनय [के प्रति प्रवर्तकत्व] द्वारा यहाँ [श्रृंगाररस में ] अभिनयके प्रति हेतुत्व होता है । इसी प्रकार रत्यादिमें भी [ अन्य रसोंके प्रति व्यभिचारिभावत्व प्रावि] समझना चाहिए। [ 'ताप' शब्दकी व्याख्या करते हैं] । प्रियजन [ प्रभिमत ] के प्राप्त न होनेपर होने वाली शारीरिक और मानसिक पीडा 'ताप' कहलाती है। 'मधु' पबसे ईर्ष्या तथा प्रणय- कलहके द्वारा होनेवाला जितका उद्वेग [गृहीत होता है । कारिकामें पाए हुए] 'उत्साह' तथा 'चाटु' शब्दोंसे नयनचातुर्य और भूक्षेप करने वाले [ स्त्री-पुरुष रूप विभाव ] के अंगविकारादि रूप सम्भोगम्वार के अनुभावोंको सूचित किया गया है । और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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