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________________ का० ४६, सू०७१ ] प्रथमो विवेकः [ १३६ "भीष्मः एतत् ते हृदयं स्पृशामि र्याद वा साक्षी तवैवात्मजः, सम्प्रत्येव तु गोग्रहे यदभवत् तत् तावदाकर्त्यताम् । एकः पूर्वमुदायुधैः स बहुभिदृष्टस्ततोऽनन्तरं, यावन्तो वयमाहवप्रणयिनस्तावन्त एवार्जुनाः।" अत्रीनगधं विशेषवद्वाक्यम। यथा वा सत्यहरिश्चन्द्र--- "वसुभूति:-[सरोष राजानं प्रति] न नाम स्युः स्वर्ण-क्षिति-सुत-कलत्राणि यतिनां, तदस्मै यहत्तं तदिह निखिलं भस्मनि हुतम् । विहाय व्यामोहं विमृश विमृशाद्यापि नृपते ! तपोव्याजच्छन्न किमपि नियतं देवमिदम ।। कुल पतिः-[सोपहामम] अरे मुखर ! सचिवापसद ! चिराद् यथार्थमभिहितवानसि । दुस्तप-तपःकर कलि तस्वर्गापवर्गशर्मणो मापदेशेन दैवतान्येव मुनयः।" वाक्यको अपेक्षा विशेषता-युक्त वह वाक्य पुष्पके समान [होनेसे] 'पुष्प' कहलाता है। पुष्प जिस प्रकार केशरचनाका अलङ्कार होता है इसी प्रकार विशेषवत् उत्तर वाफ्य] पूर्व-वाक्य का शोभा-धायक होता है। जैसे 'विलक्षदुर्योधन' में--- ___ "भीष्म [दुर्योधनसे कह रहे हैं]-- यह मैं तुम्हारे हृदयका स्पर्श करके [ तुम्हारी शपथ खाकर कह रहा हूँ ] अथवा तुम्हारा ही पुत्र इसका साक्षी हो सकता है। कि अभी गौमोंको पकड़ते समय जो-कुछ हुमा उसको पहिले सुन लो। पहिले [युद्ध के प्रारम्भ होते समय] शस्त्र उठाए हुए हम] बहुतसे लोगोंने उस अकेले [अर्जुन] को देखा था और उसके बाद [जब युद्ध में गर्मी प्राई तो हम लोग जितने ही [उसके साथ] युद्ध करनेको इच्छा करनेवाले थे [उनमेंसे प्रत्येकके साथ युद्ध करने के लिए प्रस्तुत] उतने ही अर्जुन दिखलाई देते थे।" इसमें श्लिोकका] उत्तरार्द्ध [पूर्वार्द्ध का विशेषक होनेसे] 'विशेषवत्' है । अथवा जसे सत्यहरिश्चन्द्रमें"वसुभूति [क्रोधमें श्राकर राजाके प्रति कहते हैं]-- संन्यासियों के पास सोना, पृथिवी, पुत्र, कलत्रादि नहीं होने चाहिए इसलिए मापने इस [कुलपति साधु] को जो कुछ [अपना राज्य और स्वर्ण प्रादि] दिया है वह सब भस्ममें डाली पाहुतिके समान व्यर्थ है। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि इस व्यामोहको तोड़कर [कि यह कोई महात्मा है] हे राजन् ! आप अब भी विचार कीजिए [इसके चक्कर में मत पड़िए] यह तो तपस्वीके वेषमें छिपा हुमा निश्चय ही कोई देवता है जो आपको परीक्षा लेनेकेलिए आया हुआ प्रतीत होता है। कुलपति-उपहास करते हुए] अरे वाचाल ! नीच मन्त्री ! बहुत देर बाद तूने ठीक बात कही है । दुष्कर तपरूपी हाथके द्वारा स्वर्ग और अपवर्ग सुखको प्राप्त करनेवाले मुनिगण [सचमुच] देवता ही होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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