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नाट्यदर्पणम् का० १६३, सू० २४५-४० 'चिह्न' घणादेः सत्तानिश्चयहेतुः शरीरविकारः । 'घृणा' नीचार्थजुगुप्सनम । 'स्पर्द्धा' अधिकेन सह साम्याधिक्याभिलाषः । 'उद्यम' उत्साहः । एषामुन्नयः सत्तानिश्चय इति । [१०] १६३ ।।
(५) अथ स्थैर्यम-- [सूत्र २४५]-विघ्नेऽप्यचलनं स्थैर्य प्रारब्धादशभादपि । ___ 'विघ्नः' प्रत्यूहः । 'अचलनं' दायम् । अशुभमिह परलोकानुचितमिति ॥
(६) अथ गाम्भीर्यम[सूत्र २४६] -नाम्भीर्य सहजा मूतिः कोप-हर्षादिगोपिनी ॥
[११] १६४ ॥ 'सहजा' मुखराग-दृष्टविकारादिरहिता । 'मूर्तिः'देहस्वभावः । 'आदि' शब्दाद भय-शोकादिग्रहः । 'गोपनी प्रच्छादिकेति ।। [११] [१६४ ।।
(७) अथौदार्यम[सूत्र २४७] -प्रौदार्य शत्रु-मित्राणां प्रारिणतेनाप्युपग्रहः ।
बहुवचनान्मध्यस्थानां ग्रहः । 'प्राणित'-शब्देन स्वजीवितव्यस्य दानमुच्यते । 'अपि'-शब्देन दान-प्रियभाषणादिग्रहः । 'उपग्रह उपकार इति ।
"चिह्न' अर्थात् घृणा आदिको विद्यमानताका निश्चायक हेतुभूत शारीरिक विकार । मोच अर्थको निन्दा 'घृणा' है । अधिक गुण वालेको बराबरी करना या उससे अधिक बनने की इच्छा 'स्पा' [कहलाती है । 'उद्यम' का अर्थ उत्साह है। इनका 'उन्नयन' अर्थात् सस। का निश्चय [जिस चिह्नके द्वारा होता है उसको 'शोभा' गुण कहते हैं] ।। [१०] १६३ ॥
(५) अब मागे स्थर्य [गुणका लक्षण करते हैं]--- [सूत्र २४५] —विघ्नोंके उपस्थित होने पर भी प्रौर अशुभ प्रारब्धसे भी अपने निश्चयको न छोड़ना स्थैर्य कहलाता है ।
'विघ्न' अर्थात् प्रत्यूह बाधा । 'प्रचलन' अर्थात् दृढ़ रहना । 'प्रशुभ' का अर्थ यहाँ परलोकके अयोग्य [कर्म मादि] है।
(६) अब आगे गम्भीर्य [गुरणका लक्षण करते हैं]
[सूत्र २४६]-क्रोध और हर्ष प्रादिको प्रकट न होने देनेवाली स्वाभाविक देह-स्थिति का नाम गाम्भीर्य है । [११] १६४ ॥
___ सहजा अर्थात् [क्रोधादिके मानेपर भी] मुखको लालिमा और दृष्टिके विकार प्रादि से रहित । 'भूति' अर्थात् बेहका स्वभाव । 'प्रादि' शब्दसे [कोप और हर्षके साथ] भयशोकादिका भी ग्रहण होता है। 'गोपनी' अर्थात् प्राच्छादन करने वाली [प्रकट न होने देने बासी] ॥ [११] १६४ ॥
(७) अब प्रागे औदार्य [गुरणका लक्षण करते हैं]
[सूत्र २४७]-अपने प्राण देकर भी शत्रु या मित्रका उपकार करना 'पौवार्य' लाता है।
बहुवचनमे [शत्रु और मित्रों के साथ] मध्यस्थोंका भी पहरण होता है। 'प्राणित'
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