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का० १६५, सू० २४०-५० ] चतुर्थो विवेकः
[ ३७५ () अथ ललितम[सूत्र २४८]-शृङ्गारिचेष्टा ललितं निविकाराः स्वभावजाः ॥
[१२] १६५ ॥ 'शृङ्गारिण्यः' शृङ्गारनिताः। चेष्टाःतिर्यगवलोकन-वक्रोक्तिभाषण-शरीरमंकारादिकाः । निविकाराः' गहारहिताः । 'म्वभावजाः' अबुद्धिपूर्वका इति ।[१२] १६५।।
अथ मुख्य नेतारमुक्त्वा गौणमाह[सूत्र २४६]-अमुख्यो नायकः किश्चिदूनवृत्तोऽग्रयनायकात् ।
'अमुख्यत्वं' प्रधानकलापेक्षयाऽवान्तरफलभाजनत्वात । 'नायकत्वं' वहुतरवृत्तव्यापकत्वान मुख्यनेतृसहायभूतत्वाच्च । किश्चिदृनं. म्वल्पन्युनं वृनं शार्य-त्यागबुद्ध चादिकं यम्य । अयं च पताकाप्रकरीम्पो नायको दपत्र्य इति ॥
अथ प्रतिनायकमाह - [सूत्र २५०] -लोभी धीरोद्धतः पापो, व्यसनी प्रतिनायकः ॥
[१३] १६६ ॥ मुख्यनायकम्य प्रतिपन्थी नायकः 'प्रनिनायकः' । यथा राम-यधिष्ठिग्यो • गवण-दुर्योधनौ इति ।। [१३] १६६॥ मनसे अपने जीवनको दे डालनेका अभिप्राय है । 'अपि' शम्बसे दान और प्रियभाषण प्रावि का प्रहरण होता है । 'उपग्रह' अर्थात् उपकार ।।
(८) प्रब ललित [गणका लक्षण प्रागे करते हैं। ----
[सूत्र २४८] - [निन्दित] विकारोंसे रहित स्वाभाविक शृंगार-वेटाएँ ललित कहलाती हैं। [१२] १६५ ।
'शृंगारिणी' अर्थात् शृंगारसे उत्पन्न होने वाली। 'चेष्टा' अर्थात् तिरछी नसरसे देखना, वक्रोक्तियोंसे भाषण, तथा शरीरको सजाना प्रादि । 'निविकार' अर्थात् प्रसुन्दरतासे रहित । 'स्वभावजा' प्रोत् बिना सोच कर को हुई ।। [१२] १६५ ।।
मुख्य नायकका वर्णन करने के बाद अब मागे गौरण नायकको कहते हैं---
[सूत्र २४६ }-मुख्य नायककी अपेक्षा कुछ कम वृत्त [कम कथाभाग] वाला अमुल्प नायक कहलाता है।
प्रधान फलको अपेक्षा प्रवान्तर प्रमुख्य फलका पात्र होनेसे इसको 'अमुल्य' कहा गया है। और बहुत बड़े कथाभागमें व्यापक होने तथा नायकके सहायक रूपमें होनेसे उसका 'नायकत्व' होता है। जिसका वृत्त प्रर्थात् शौर्य त्याग और बुद्धि प्रादिका मुख्य नायककी प्रपेक्षा] 'किचिदूनम्' अर्थात् कम है। और यह [प्रमुख्य नायक कारिका २६ तथा ३२ में प्रथम विवेकमें कहे हुए] 'पताका' तथा 'प्रकरी' नायक समझने चाहिए।
अब प्रागे प्रतिनायकका लक्षण करते हैं[सूत्र २५०] -प्रतिनायक लोभी, धीरोद्धत, पापी पोर व्यसनी होता है। [१३] १६६ ।
मुख्य नायकका विरोधी नायक 'प्रतिनायक' कहलाता है। जैसे राम और पुधिष्ठिरके विरोषी राबरण और दुर्योधन मादि ।। [१३] १६६ ॥
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