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नाट्यदर्पणम्
[ का० १२५, सू० १५०
(क) धीरोदात्त धीरोद्धत-धीरललित-धीर शांतेषूत्तमेषु वीर- रौद्र-शृंगारशांतानामवर्णनं, विपरीतवर्णनं वा । मध्यमाधमेषु त्वेषु वीरादिरसप्रकर्ष वर्णनम् ।
(क ) क्वचिद् वर्ण- समासान्यथाप्रथनम् । तत्र दीप्तेषु रसेषु संयुक्तैमूर्धन्यैश्च वर्णैः समासदैर्येण च प्रायः प्रसन्नो मसृणश्च बन्धः । अदीप्तेषु तु शृंगार- हास्यकरुण-शान्तेषु मूर्धस्थवर्गापव्चमै स्वैश्च वर्णैः असमासेन मध्यमसमासेन च प्रायः प्रसन्नो बन्धः । सर्वेषु च प्रसिद्धैर क्लिष्टैरप्राम्यैः पुष्टः थैः पदैर्न्यासः ।
( क १०) क्वचिदुत्तमस्य उत्तमनायिकायां व्यलीकसम्भावना | ( क ११) क्वचिन्नायिकापादप्रहारादिना नायकस्य कोपः ।
(१२) क्वचिद् वयो - वेष- देश - काला- अवस्था-व्यवहारादीनामन्यथा वर्णनम् । ( क १३) एवमन्यदपि यमक - श्लेष - चित्रादिकं ऋतुं समुद्रादि चन्द्रार्कोदयास्तादिप्रकर्ष वर्णनं च रसानङ्गमनौचित्यं द्रष्टव्यमिति ।
(ख) अथाङ्गौत्रम् | अंगस्य मुख्यरसपोषकतया श्रवयवभूतस्य औप्रय' विस्तरेणेत्कटत्वं दोषः । यथा कृत्यारावणे जटायुबध-लक्ष्मणशक्तिभेद - सीताविपत्ति८) धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरशांत रूप उत्सम प्रकृतियों में भी वीर, रौद्र, श्रृंगार तथा शांत रसोंका वर्णन न करना अथवा विपरीत वर्णन [ प्रकृति- विपर्यय नामक रस दोष होता है] और मध्यम तथा प्रथम प्रकृतियोंमें तो इन [ धीरोदात्तादि] में वीरादि रसोंके प्रकर्षका वर्णन [भी अनुचित होनेसे प्रकृति-विपर्यय नामक रसदोषोंमें पाता है] ।
( क ) कहीं वर्णों तथा समासोंका [रसके विपरीत रूपमें ] श्रन्यथा प्रयोग [ भी रसदोव में गिना जाता है] । जैसे [वीर रौद्रादि ] दीप्त रसोंमें संयुक्त और मूर्धन्य [अर्थात् ऋटुरषारणां मूर्धा - र, ष, तथा टवर्ग ] वर्णों तथा लम्बे-लम्बे समासोंसे सुन्दर और मनोहारिणी रचना बनती है । और शृङ्गार, हास्य, करुण, तथा शांत जैसे प्रदीप्त रसोंमें तो वर्गके पश्चम अक्षर से युक्त ह्रस्व वरणों और समास-रहित अथवा श्रल्प समासके द्वारा सुन्दर तथा मनोहारिणी रचना होती है। और सभी रसोंमें प्रसिद्ध प्रक्लिष्ट ग्राम्यता रहित तथा पुष्टार्थक पदोंका विन्यास होना चाहिए। [इसके विपरीत होनेपर दोष हो जाता है] ।
( क १० ) कहीं उत्तम [ प्रकृति ] के [ नायक ] की उत्तम नायिकाके प्रति व्यभिचारसम्भावना [ भी अनौचित्य मानी जाती है क्योंकि उत्तम प्रकृतिकी नायिकामें इस प्रकारके दोषकी सम्भावना भी नहीं करनी चाहिए ] ।
( क ११) कहीं नायिकाके पादप्रहारादिसे नायकके कोपका वर्णन [ अनौचित्यके है ] । ( क १२) कहीं प्रयु, वेष, देश, काल, अवस्था तथा व्यवहाराविका श्रन्यथा वरन [भी अनौचित्य माना जाता है ] ।
( क १३ ) यमक, इसी प्रकार [अनुचित रूपसे प्रयुक्त] श्लेष, चित्र, ऋतु, समुद्रावि, सूर्य तथा चन्द्र के उदयास्तादिके जो कि रसके अंग नहीं हैं उन [रसके अनङ्ग] के प्रकर्षका वन [अर्थात् श्रत्यधिक विस्तारके साथ वर्णन] अनौचित्य समझना चाहिए ।
(ख) अब [ श्रङ्गोंकी] उता [दोषका निरूपण करते हैं] प्रङ्ग अर्थात् मुख्य रसके पोषक होनेसे प्रवयव रूपकी उग्रता प्रर्थात् अत्यन्त विस्तारके कारण उत्कट हो जाना भी दोष है । जैसे कृत्यारावरगमें जटायुके बध, लक्ष्मणके शक्ति लगने, औौर सीताको विपत्तिको सुनने
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