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________________ १०८ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ४३, सू० ५० अथ सकल काव्यार्थः, प्रधानरसलक्षणं प्रयोजनं च, संक्षेपेणोपक्षिप्यत इति प्रथम (१) 'उपक्षेपं लक्षति [सूत्र ५०]-बीजस्योप्तिरुपक्षेपः-- विस्तारिणः काव्याथस्य मूलभूतो भागो बीजमिव 'बीजम'। तस्य उप्तिरावापमानं 'उपक्षेः' । यथा रत्नावल्यां नेपथ्ये द्वीपादन्यस्मादपि मध्यादपि जलनिधेर्दिशोऽप्यन्तात् । आनीय झटिति घट यति विधिरभिमतमभिमुखीभूतः ।। इत्यादिना यौगन्धरायणेन वत्सराजस्य रत्नावलीप्राप्तिहेतुः स्वव्यापारानुकूलदैवो बीजमुप्तम् ॥ होता है। और अगसे सम्बद्ध [अर्थात् अङ्गोंको शैलीसे निबद्ध] कथावस्तु लोहेको शलाकाके समान [एकदम सीधा अपरिवर्तनीय नहीं रहता है [उसमें लचकोलापन आ जाता है जिससे कवि सौन्दर्याधानके लिए उसे प्रावश्यकतानुसार मोड़माड़ सकता है। प्रत्येक अङ्गका अलगअलग प्रयोजन उनके लक्षणमें यथावसर दिखलावेंगे। इस अनुच्छेद में ग्रन्थकारने पश्च-सन्धियोंमें कहे जानेवाले मङ्गोंकी उपयोगिताके विषय में सामान्यरूपसे प्रकाश डाला है । उसके अनुसार अङ्गोंका प्रयोजन कथावस्तुमें चमत्कार को उत्पन्न करना है । अङ्गोंके प्रयोगके बिना अत्यन्त सरस कथावस्तु भी नीरस बन जाती है । और अङ्गोंके यथोचित प्रयोगके द्वारा नीरस कथावस्तुमें भी चमत्कार उत्पन्न किया जा सकता है। इसलिए ग्रन्थकारने रूपकोंमें अङ्गोंके प्रयोगको अपरिहार्य माना है। उन्हीं के द्वारा कथाका विस्तार और लचकीलापन पाता है। और पुनरुक्ति प्रादि दोषोंका परिहार होता है । प्रत एव अङ्गोंका प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है ॥४१-४२।। इन दो कारिकाओं में मुखसन्धिके अङ्गोंका उद्देश अर्थात् नाममात्रसे कथन करनेके बाद अब ग्रन्थकार मुखसन्धि के बारहों अङ्गोंका अलग-अलग-अलग लक्षणादि आगे करेंगे । इनमें सबसे पहिले उपक्षेप रूप प्रथम अङ्गका लक्षण करते हैं -- (१) उपक्षेप [उपक्षेप रूप प्रथम मनके द्वारा समस्त काव्यका अर्थ और प्रधान रस रूप प्रयोजन संक्षेपमें बीज रूपसे उपक्षिप्त किया जाता है, इसलिए ['उपक्षिप्यतेऽनेन इति उपक्षेपः' इस व्युत्पत्तिके अनुसार सबसे पहिले 'उपक्षेप' का लक्षण करते हैं [सूत्र ५०]- [कथावस्तुके बीजका वपन करना 'उपक्षेप' कहलाता है । [मागे चलकर विस्तृत होनेवाले कथावस्तुका मूलभूत भाग धान्यके] बोजके समान [होनेसे 'बीज' [कहलाता है। उसको डालना अर्थात् बोना जिस अङ्गके द्वारा किया जाता है वह] 'उपक्षेप' [कहलाता है। जैसे रत्नावलीमें नेपथ्यमें [बीजका 'उपक्षेप' इस प्रकार किया गया है दूसरे द्वीपसे भी, समुद्रके बीचसे भी और दिशाके छोरसे भी अनुकूल हुआ वैव अभिइत वस्तुको लाकर मिला देता है। इत्यादि [कथन के द्वारा [वत्सरांज उदयनके मंत्री] यौगन्धरायणने वत्सराज उदयन] को रस्नावली [नाधिका] की प्राप्ति करानेवाले अपने व्यापारके अनुकूल देव रूप For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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