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________________ १०२ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ४०, सु० ४८ प्रतिज्ञामास्थित..ते भीमसेने, दुर्योधने चान्तर्जल निमग्ने यत्नान्वेषणैरप्यनुपलभ्यमाने युधिष्ठिरो निर्वेदाद् विमृशन्नाह तीर्णे भीष्ममहोदधौ कथमपि द्रोणानले निवृते, कर्णाशीविषभोगिनि प्रशमिते शल्ये च याते दिवम् । भीमेन प्रियसाहसेन रभसात् स्वल्पावशेषे जये, सर्वे जीवितसंशयं वयममी वाचा समारोपिताः ॥ अत्र भीमक्रोधात् कार्यविनिपाते सति जात इति क्रोधजप्रतिज्ञाविघ्नात्मा विमर्शः । एवमनेकहेतुजो विमर्शसन्धिः ॥३॥ अथ निर्वहणसन्धिं निरूपयति [ सूत्र ४८ ] - सवीजविकृतावस्थाः, नानाभावा मुखादयः । फलसंयोगिनो यस्मिन् असौ निर्वहणो ध्रुवम् ॥४०॥ बीजtय विकृतं विकार उत्पत्ति उद्घाट- फलौन्मुख्यादिकः सह बीजविकृतैः तक न टिकनेवाली, उसी दिन पूर्ण होनेवाली] प्रतिज्ञा कर लेनेपर, और दुर्योधनके जलके भीतर छिप जाने तथा प्रयत्न- पूर्वक खोज करनेसे भी न मिलनेपर प्रत्यन्त दुःखी होकर 'विमर्श' करते हुए युधिष्ठिर कहते हैं- “भीष्म रूप महासागरको पार कर लेनेपर, जैसे-तैसे करके द्रोणाचार्य रूप श्रग्निको शान्त करनेके बाद, और कर्ण रूप भयंकर नागराजको नाश करने तथा शल्यके स्वर्ग सिधार जानेके बाद जबकि विजयका थोड़ा-सा ही काम शेष रह गया था ऐसे समय साहस हो जिसको प्रिय है इस प्रकारके भीमसेनने केवल [अपनी प्रतिज्ञा रूप] वारणीसे हम सबको संशयमें डाल दिया है । [श्रर्थात् यदि प्राज दुर्योधनका पता नहीं लग पाता है तो भीमसेन अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार अपना प्राण त्याग कर देंगे । उस दशामें हम सबकी भी वही गति होगी ] । यह [विमर्श ] भीमके क्रोधके कारण कामके बिगड़ जानेपर उत्पन्न हुआ है, इसलिए कोष -जन्य प्रतिज्ञासे उत्पन्न विघ्न रूप विमर्श है । इस प्रकार अनेक प्रकारके हेतुनोंसे 'विमर्श' उत्पन्न होता है | ॥३६॥ ५ निर्वहण सन्धि अब मागे 'निर्वहरण' सन्धिका निरूपण करते हैं [ सूत्र ४८ ] - बीज और उसके [ उद्घाटन फलोन्मुखता श्रादि] विकारों एवं [प्रारम्भ प्रावि रूप] अवस्थानोंके सहित [बिन्दु पताका श्रादि ] नाना प्रकार के भाव [अर्थात् स्थायिभाव व्यभिचारिभाव श्रादि प्रथवा बिन्दु प्रादि उपाय ] तथा मुख आदि [ सन्धियाँ] जहाँ पहुँच कर [मुख्य ] फलसे युक्त होते हैं वह 'निर्वहरण' [नामक पंचम सन्धि कहलाता ] है । और वह [रूपकोंके समस्त भेदप्रभेदोंमें ध्रुव अर्थात् ] अपरिहार्य है |४०| बीजको विकृति प्रर्थात् उत्पत्ति उद्घाटन, फलोन्मुखता प्रादि। बीज [ उसकी ] विकृति तथा प्रारम्भ आदि अवस्थानोंके सहित जो विद्यमान हों । [ यह कारिकाके 'सबीज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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