SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयो विवेकः [ २५१ इदं रंगमध्यप्रविष्टपात्रपठितेन वचसा नेपथ्यपठितमनिष्टार्थसूचकं संयुज्यमान चूलिकागण्डः । यथा वा सत्यहरिश्चन्द्र को०- ६७, सू० १४४ ] " राजा - कपिब्जल ! पुरो गत्वा विलोकय, आश्रमः कियति दूरे ? [' यदादिशति देवः इत्यभिधाय कपिन्जलो निष्क्रान्तः] राजा ! [सखेदम् ] - विङ् मां भ्रणविघातिनं सकलुषं धिग् जीवितं मेऽखिलक्षोणीलो ककरोपतापजनिता धिग् धिग् ममैताः श्रियः । पुण्यास्ते करुणामृता मनसो ये नाम वाचंयमाः, हस्तारोपितशर्मणि प्रतिकलं वृत्ताः शुभे कर्मणि ॥ कुन्तल ! वयमिदानीं सर्वस्वपरित्यागमीहामहे । [ प्रविश्य ] कपिब्जलः - देव प्रत्यासन्नं पश्य - राजा - किं सर्वस्वपरित्यागम् ? कपिन्जलः - नहि, मुनीनामाश्रमम् ।" इति । " इस श्लोक में मुख्य रूपसे वसन्तमें होनेवाले कोकिलके वियोगियों को मार डालनेवाले अर्थात् अत्यन्त सन्तापदायक कलरवका वर्णन है । परन्तु प्रकृत में कंसको मारनेवाले कृष्ण के साथ भी उसका सम्बन्ध है । 'अन्यतः प्रसूतः', 'अन्येन वर्धितः', 'परपुष्टः' आदि सब पद कोकिलके वाचक भी होते हैं और कृष्णपरक भी । कोकिलका नाम 'परभृत' भी है । क्योंकि कोकिल अपने बच्चों का पालन कौनोंके द्वारा कराता है। कृष्ण भी परभृत दूसरेके द्वारा पाले हुए हैं । 'कृष्ण' तथा 'मधुप्रभवः' पद भी कोकिल पक्ष तथा कृष्ण दोनोंमें लगते हैं । यह कोकिल वियोगी जनों को सन्तापदायक होता है । मुख्य रूपसे यहाँ उसका ही उल्लेख है । किन्तु मन्यार्थक होनेपर भी वह वाक्य प्रस्तुत कंसके वचन के साथ मिल गया है । इसलिए यह गण्डका उदाहरण बन गया है । अथवा जैसे सत्य हरिश्चन्द्रमें— "राजा - कपिञ्जल जरा धागे बढ़कर देखो कि आश्रम कितनी दूर है ? [जो प्राज्ञा, कहकर कपिञ्जल बाहर चला जाता है] । राजा- - [खेदपूर्वक]— मेरी इस लक्ष्मीको धिक्कार है । भ्रूणहत्या करने वाले मुझको धिक्कार है । मेरे पापी जोधनको धिक्कार है । सारे भूमण्डल के लोगोंको करों द्वारा सन्ताप देकर प्राप्त की गई करुणा श्रार्द्र हृदय वाले और मौन धारण करने वाले जो [मुनिगरा ] अनायास सुख प्रदान करनेवाले [हस्तारोपितशर्म रिण] शुभ कामों में प्रतिक्षरण लगे रहते हैं वे धन्य हैं । कुन्तल ! अब हम सर्वस्व दरित्याग कर [मुनियत ग्रहरण करना ] चाहते हैं । कपिञ्जल - [ प्रविष्ट होकर ] देव ! समीप श्रा गया है उसको देखिए । राजा-क्या ! सर्वस्व परित्यागको [ देखू] ? कपिंजल — जी नहीं, मुनियोंके श्राश्रमको ।" इसमें अन्य अभिप्रायसे कहा गया कपिञ्जलका वचन, प्रस्तुत राजाके वचनके साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy