SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का० ६३, सू० १०७ ] प्रथमो विवेकः यत्र द्रौपदीकेशसंयमनकार्यस्य व्यापारेण ग्रथनमिति । (४) अथ निर्णय: ..... [स] १०७] - निर्णयोऽनुभवख्यातिः ! ज्ञेयेऽर्थे सन्दिद्दानं अप्रतिययमानं वा प्रति यदनुभवस्यानुभूतस्यार्थस्य निर्णयार्थ कथन तत् ज्ञेयार्थनिर्णयात् निर्णयः । यथा यादवाभ्युदये समुद्रविजयं प्रति"वसुदेवः -- [सप्रमोदम् ] देव ! मया कंसप्रतिभयेन कृष्णं गोकुले गोपयता यो महान क्लेशोऽनुभूतस्तस्य फलमिदानीमभूत् । किन्तु लोकपरिज्ञानभयेन यन्मया देवपादानामपि न विज्ञप्त तत्र देवेन क्षन्तव्यम् ।" अत्र वसुदेवेन स्वानुभूतं कृष्णगोपनक्लेशं समुद्रविजयो बोधितः । यथा वा पुष्पदूतिके प्रकरणे 'किन्नामनक्षत्रोऽयं बालकः' इति समुद्रदत्तेन पृष्ठः सेनापतिः 'विशाखा नक्षत्रो ऽयं बालकः' इत्याह । समुद्रदत्तः श्रुत्वा पूर्वानुभूतं नन्दयन्तीसमागमं स्मरन्नाह - 'तदा किल नन्दयन्त्या पुष्टेन मया कथितं यथा- एतौ तौ प्रतिदृश्येते चारुचन्द्रसमप्रभौ । ख्यातौ कल्याणनामानौ उभौ तिष्यपुनर्वसू | तदाधानाद् दशमं जन्म नक्षत्रमिति ज्योतिःशास्त्रसमर्याविदो यद् ब्रुवते तदुपपन्नमेवेति । इसमें द्रौपदीके केशोंके बाँधनेक रूप कार्यका व्यापार द्वारा ग्रथन किया है । (४) अब 'निर्णय ' [ नामक निर्वहरणसंधिके चतुर्थ अङ्गका लक्षरण आदि करते हैं ] - [सूत्र १०७ ] - अनुभवका कथन करना 'निर्णय' [ कहलाता ] है । जानने योग्य अर्थके विषय में संदेहयुक्त या प्रज्ञानयुक्त व्यक्ति के प्रति जो निर्णयके लिए अनुभूत अर्थका कथन करना है वह, ज्ञेय अर्थका निर्णय करनेवाला होनेसे 'निर्णय' [कहलाता ] है । जैसे यादवाभ्युदयमें समुद्रविजयके प्रति वसुदेव कहते हैं "वसुदेव -- [श्रानन्दके साथ ] देव कंसके भयके कारण कृष्णको गोकुलमें छिपाकर रखने में मैंने जो कष्ट उठाए उनका फल श्राज प्राप्त हो गया । किन्तु लोगोंको मालूम हो जानेके भय से जो मैंने श्रापको भी नहीं बतलाया उसके लिए श्राप क्षमा करें ।" यहाँ वसुदेवने अपने अनुभूत कृष्णके छिपानेके क्लेशको समुद्र विजयको सूचना दी। श्रथवा जैसे पुष्पवृतिक [नामक ] प्रकरण में -- “ यह बालक किस नक्षत्र में उत्पन्न हुआ है" इस प्रकार समुद्रदत्त के द्वारा पूछे जानेपर सेनापति - "यह बालक विशाखा नक्षत्रमेका हैं" यह कहते हैं । इसको सुनकर समुद्रदत्त पूर्वानुभूत नन्दयंती के समागमको स्मरण करते हुए कहते हैं कि "उस समय नंदयंतीके द्वारा पूछे जानेपर मैंने उससे कहा था कि चन्द्रमाके समान सुन्दर कांति वाले और प्रसिद्ध सुन्दर नामवाले ये दोनों तिष्य और पुनर्वसू के समान दिखलाई देते हैं । उसको ध्यान में रखनेसे ज्योतिःशास्त्र के पण्डित जो यह कहते हैं कि इनका जन्म-नक्षत्र दशम है सो ठीक ही है ।" Jain Education International [ १८१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy