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________________ ३६४ ] नाट्यदर्पणम [ का० १६५, सू० २४०-४१ ग्रहैः शनैश्चरादिभिः, कदाग्रहैर्वा ग्रस्ता दूषिता ग्रहग्रस्ताः । स्त्रीरूपाः स्त्रीप्रकृतयः पुरुषाः। बालादीनामज्ञत्व-नीचप्रकृतिकत्व-तुच्छस्वभावत्वादेः प्राकृतेन पाठः। तथोत्तमप्रकृतेरपि धीरोदात्तादे-ारियैश्वर्याभ्यां उपलक्षणाद् धनभ्रशादिना च मूढमनसः प्राकृत पाठ इति ॥ [४०] १६३ ।। ___ अपरमपि वाक्प्रकारमाह[सूत्र २६१]-प्रत्यन्तनीच-भूतादौ पैशाची मागधी च वाक् ।। शौरसेनी तु नीचस्य देशोद्देशे स्वदेशगीः ।।[४१] १६४॥ अत्यन्तनीचः प्रकष्टाधमप्रकृतिः । आदिशब्दात् पिशाचादिग्रहः । एषु पैशाची मागधी च सांकर्येण भाषा भवति । नीचमात्रप्रकृतेः पुनः शौरसेनी। देशस्य कुममगधादेरुद्देशः प्रकृतत्वं तस्मिन् सति स्व-विदेश सम्बन्धिनी भापा निबन्धनीयेति ॥ [४१] १६४।' प्रकारांतरमप्याह[सत्र २६२]-तिर्यग्जात्यन्तरादीनामानुरूप्येण संकथा। तिर्यञ्चः पशवो पक्षिणश्च । जात्यन्तराणि वरिणग-विप्र-चाण्डालादीनि । एतानि ग्रहों अर्थात् शनैश्चर प्रादिके प्रथवा कुत्सित प्राग्रहोंसे जो दूषित हैं वे ग्रहग्रस्त हुए [उनके द्वारा प्राकृत भाषाका प्रयोग कराना चाहिए ] । स्त्रीरूप अर्थात स्त्रियों-जैसे स्वभाववाले पुरुष [उनके द्वारा भी प्राकृतका ही प्रयोग कराना चाहिए । बालकों ग्रादिके मूर्ख, अज्ञानी, नीच प्रकृति वाले तथा क्षुद्र स्वभाववाले होने आदिके कारण प्राकृत भाषाका पाठ कराया जाता है । और [कभी] उत्तम प्रकृति वाले अर्थात् धीरोदात्त आदिके [स्वभाव वाले पुरुषके भी दरिद्रता अथवा ऐश्वर्यातिशयसे मोहित हो जानेपर और इनके उपलक्षण रूप होनेसे धननाश प्रादिसे भी विमूढमनस्क हो जानेपर प्राकृत ही बुलवाना चाहिए । [४० |१६३॥ अब बोलने के विषयमें अन्य प्रकारोंका भी वर्णन करते हैं [सूत्र २६१]-अत्यन्त नीच भूतादि [ के भाषण ] में पंशाची' तथा मागधी [संकोणं] भाषा प्रयुक्त होती है । नीच [पात्रके भाषण में 'शौरसेनी' प्राकृत भाषा होती है । और किसी देश-विशेषका उल्लेख होनेपर अपने-अपने देशको भाषाका ही प्रयोग कराना चाहिए । [४१] १९४ । अत्यन्त नीच अर्थात अत्यधिक अधम प्रकति वाला। भूतादि पद में प्रयुक्त मादि शब्दसे पिशाचादिका ग्रहण होता है। इसमें पंशाची और मागधी दोनों भाषाओंका संकीर्ण रूपसे प्रयोग होता है। और केवल सामान्य रूपसे नीच प्रकृति वाले पात्र में शौरसेनी भाषाका प्रयोग कराना चाहिए । [४१] १६४ ॥ अब मागे [भाषाके विषय] अन्य प्रकार भी बतलाते हैं--- [सूत्र २६२]--पशु-पक्षी आदि और विभिन्न जातियों में प्रौचित्य के अनुसार [भाषा का अवलम्बन करके बातचीत होनी चाहिए। तिर्यक् अर्थात् पशु और पक्षी । अन्य जातियाँ प्रयोत् वरिणक, विप्र, चाण्डाल प्रादि । गे सब एक ही स्थानपर भी हो सकते हैं। 'प्रादि' शब्दसे ग्राममें रहनेवाले नगर निवासी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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