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का० १६३, सू० २६० ] चतुर्थो विवेकः
[ ३६३ देवशब्देन सुराः सुर्यश्चैकशेषाद् गृह्यन्ते । एषां च नीचवर्जितानामुत्तम-मध्यमनराणां च । स्त्रीणां प्राकृतस्यैव विधानात् पुरुषाणामेव संस्कृता भाषा। कदाचित् पुनः कार्यवशतः कृताभिषेकाया राज्या मन्त्रिजा-पण्यस्त्रियोलिगिनां च एकशेषेण पुं-स्त्रीरूपाणां परिबाड्-मुनि-शाक्य-श्रोत्रियादीनां संस्कृतं द्रष्टव्यम् । लिंगिनश्च दम्भ विना ये गृहीतव्रतास्तेषां संस्कृतम् । सामर्थ्याच्च व्याजलिंगिनां प्राकृतमिति लभ्यते । स्थगोपनार्थमेतैर्भाषान्यथात्वस्य करणात् । तत्र महिष्याः संधि-विग्रहचिंतादिना, मंत्रिजाया न्यायप्रवृत्त्यादिना वेश्याया वैदग्ध्यादिना, लिंगिनां च सर्वविद्याकौशलख्यापनादिना कार्येण संस्कृत, अन्यत्र तु प्राकृतमवर्गतव्यम् । 'योषिताम्' इति महिष्यादीनां प्राकृतस्यैव प्राप्तौ 'देवानीचनृणां' इति च लिंगिनां संस्कृतस्यैव प्रसङ्ग 'जातुचिन्' इत्यप्राप्त्यर्थं प्राप्तनिषेधार्थ चोपात्तम् । तेन लिंगिनां बाहुल्येन प्राकृतं भवतीति । [३३] १९२ ॥
अथ प्राकृतं पाठ्यमाह[सूत्र २६०]-बाल-बण्ड-ग्रहग्रस्त-मत्त-स्त्रीरूप-योषिताम् । प्राकृतेनोत्तमस्यापि दारिद्यश्वर्यमोहिनः ।
[४०] १६३ ॥ 'देव' शम्बसे एक शेषसे देव और देवी दोनोंका ग्रहण होता है। इनमें और नीचोंको छोड़कर शेष पुरुषोंकी भाषा संस्कृत होनी चाहिए। स्त्रियों के लिए प्राकृतका ही विधान होने से [स्त्रियोंकी प्राकृत भाषाही होनी चाहिए। कभी-कभी कार्यवश पटरानी मंत्रि-पत्नी वेश्या तथा लिगियोंमें एक शेष द्वारा स्त्री-पुरुष रूप दोनों प्रकारके संन्यासियों मुनियों बोर तथा ब्राह्मण भोत्रिपादिको संस्कृत भाषा समझनी चाहिए । लिंगसे जिन्होंने दम्भ रहित होकर प्रत लिया है उनको संस्कृतका प्रयोग कराना चाहिए। इस कथनको सामर्थ्यसे बनावटी परिवाजक प्रादिके द्वारा प्राकृतका प्रयोग करना चाहिए यह अर्थ निकलता है। क्योंकि ये अपनेको छिपानेके लिए भाषाको बदल भी लेते हैं। उनमेंसे सन्धि-विग्रह प्रादिकी चिन्ताके अवसरपर राजनीतिके द्वारा संस्कृत भाषरण करना चाहिए] न्याय, विचार प्रादिके समय [मन्त्रिजाया अर्थात] मन्त्रीको पत्नीके द्वारा [संस्कृत भाषण कराना चाहिए] । वैदग्प्यादि प्रदर्शन] के लिए वैश्या द्वारा मोर सब विधानोंमें प्रवीणताके सिद्ध करनेके लिए परिवाजिका मादिके द्वारा कार्याविशेषके कारण संस्कृतका प्रयोग कराना चाहिए। और साधारण रूपमें अन्य जगह प्राकृतका ही प्रयोग समझना चाहिए। 'योषिताम्' इस पदसे महिषी माविमें प्राकृत [का प्रयोग] प्राप्त होनेसे और 'देवानीवनृणां' पबसे परिवाजक आदिमें संस्कृत कि प्रयोगके] के ही प्राप्त होनेपर 'जातुचित्' इस पदको [प्राप्तको]प्रप्राप्तिके लिए अर्थात् प्राप्तके निषेषकरनेके लिए पहल किया गया है। इसलिए परिव्राजक प्राविमें अधिकतर प्राकृतका प्रयोग होता है ।[३९]१९२॥
अब मागे प्राकृत पाठ्यको कहते हैं
[सूत्र २६०]-बालकों, नपुसको प्रहग्रस्त, मत्त, स्त्रीप्रकृति वाले और स्त्रियोंका प्राकृतका ही प्रयोग कराना चाहिए। और दारिज्य अथवा ऐश्वर्यादि मोहित उत्तम पुरुषके द्वारा भी [प्राकृत भाषाका हो प्रयोग कराना चाहिए। [re] १९३ ।
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