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________________ ४४ ] माट्यदर्पणम् [ का० १६, सू०१६ 'दृश्यार्थः' इति दृश्या, रजकत्वाद् दर्शनीया, अर्था नायकपरितोपभोगा यत्र । चरितासाक्षात्कारे हि प्रेक्षकाणामव्युत्पत्तिः । सम्भोगासाक्षात्कारे च किमनेन महाक्लेशेनेति वैरस्य स्यात् । शापावसानविवाहादयोऽपि रजकत्वात् साक्षात्कार्याः । यथा उर्वश्याः शापोद्भवस्य लताभावस्य नाशः। दृश्याविनाभाविनौ सूच्यो-ऊसौ अप्यौँ क्वचिद् भवतः । एतदकस्य स्वरूपम् । यह [बिन्दु] पद उपयोगकी दृष्टिसे हो रखा गया है। इसलिए सारे रूपकोंके अन्तिम पडों में, एकाङ्की रूपों में और समवकार प्रादिके पट्टोंमें उपयोग न होनेसे 'बिन्दु' की रचना नहीं की जाती है। __ अङ्कके लक्षणमें 'सबिन्दुः' के बाद प्रगला 'दृश्यार्थः' पद है। इसलिए अगले अनुच्छेदमें उसकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं _ 'दृश्यार्थः' इससे [यह अभिप्राय है कि] दृश्य अर्थात् मनोरञ्जक होनेसे देखने योग्य अर्थ अर्थात् नायकके चरित और उपभोग जिसमें हों [वह 'दृश्यार्थः' इमा। इसमें चरित और उपभोग दोनोंका साक्षात्कार प्रावश्यक है। क्योंकि] चरितका साक्षात्कार न होनेपर देखनेवालोंको [रामादिवत् प्रवर्ततिव्यं न रावणादिवत् इस प्रकारको] शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती है। और सुन्दर भोगका साक्षात्कार न होनेपर [नायकके द्वारा उठाए गए] इस महान् क्लेशसे क्या लाभ हुआ ऐसा अनुभव होनेसे [नाटक] नीरस हो जायगा। शापकी निवृत्ति और विवाह प्रादि भी रञ्जक होनेसे [अंकके भीतर] साक्षात् दिखलाने चाहिए। [अर्थात् उनका दिखलाना निषिद्ध नहीं है] । जैसे [विक्रमोर्वशीमें] उर्वशीके शापवश प्राप्त हुए लताभावको नित्ति [दिखलाई गई] है । दृश्यके प्रविनाभूत होनेसे 'सूच्य' और 'ऊह्य' अर्थ भी कहीं [अङ्कमें हो सकते हैं । यह पङ्कका स्वरूप है । ___यहाँपर ग्रन्थकारने 'एतदङ्कस्य स्वरूपम्' कहा है। इसके पूर्व ३६ पृष्ठ पर एतावदङ्कलक्षणम्' यह लिख चुके हैं। अर्थात् अङ्कके लक्षणको व्याख्या करते हुए एक जगह 'एतावदङ्कलक्षणम्' और दूसरी जगह 'एतदङ्कस्वरूपम्' यह लिखा है। इस दो प्रकारके लेखका विशेष प्रयोजन है। लक्षण दो प्रकारके माने गए हैं एक तटस्थ लक्षण और दूसरा स्वरूप-लक्षण । जो स्वरूपके अन्तर्गत न होकर भी अन्यसे भेद कराने वाला हो उसको 'तटस्थलक्षण' कहते हैं । और जो स्वरूपके अन्तर्गत होकर प्रन्यसे व्यावृत्ति कराता है वह 'स्वरूपलक्षण' कहलाता है । जैसे 'जन्माद्यस्य यतः' जिससे जगत्का जन्मादि अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति पौर प्रलय होता है वह ब्रह्म या ईश्वर है। इसमें जगत्का जन्मादि ईश्वर या ब्रह्मके स्वरूपके अन्तर्गत न होनेपर भी व्यावर्तक होनेसे 'तटस्थ-लक्षण' कहलाता है। मोर 'सच्चिदानन्दं ब्रह्म' प्रादि ब्रह्मके 'स्वरूप लक्षण' होते हैं। इसी प्रकार यहाँ 'प्रवस्थायाः समाप्तिर्वा छेदो वा कार्ययोगतः' यह प्रङ्कका 'लक्षण' अर्थात् 'तटस्थ लक्षण' है और 'सबिन्दुः दृश्यायः' यह महका 'स्वरूप' अर्थात् स्वरूप-लक्षण है । इस अभिप्रायसे ये दोनों पद लिखे गए हैं। इस प्रकार 'अङ्क' के लक्षण तथा स्वरूपका प्रतिपादन करने के बाद अगले चरण में अन्धकार 'अंक' के काल-परिमाणका निर्देश करते हैं। इसमें एक मुहूर्त अर्थात दो घड़ी [४८ मिनट] से मेकर चार पहर [१२ घण्टा] तक अंकका काल-परिमाण बतलाया है । मर्थात् एक मंकका विस्तार उतना ही होना चाहिए जिसका अभिनय इस समयके भीतर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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