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दर्पणम्
का० ६६, सू० १४३
[यदि तदा श्रृंगाल सहस्त्रस्य पर्याप्ता । अथ किमेतां प्रवेश्य द्वारशोभा निर्माता ? अथवा स्कंदेन प्रवेशिता ?]
चेटी - अय्य ! मा एत्तियं श्रनेक्खसु । अत्तिका चाउथिए 'बाधयदि । [ आर्य ! मा एतावदन्वीक्षस्व । अत्तिका चातुर्थिकेन बाध्यते ] विदूषकः - भयवं चाउत्थिय मं पिबंभरणं अनुकंपेहि । इति [ भगवन् चातुर्थिक ! मामपि ब्राह्मणमनुकम्पस्व] ।" यथा वा नलविलासे लम्बस्तनी कापालिकीं प्रति विदूषकः-“एकं दाव मे संसयं भंजेहि । मह बंभणीए माया स्थूलकुट्टिणी जा पाडलिपुत्ते वसदि सा किं तुमं, आदु अन्ना का वि । इत्यादीति ।
[एकं तावन्मे संशयं भङ्गव । मम ब्राह्मण्या माता स्थूलकुट्टिनी या पाटलिपुत्रे वसति सा किं त्वम् ? उतान्या कापि ? ]" (२) प्रथाधिबलम् -
[सूत्र १४३ ] – मिथो जल्पे स्वपक्षस्य स्थापनाधिबलं बलात् ॥
॥ [३१] ६६ ॥ मिथः परस्परं जल्पे उक्तिप्रत्युक्तिक्रमे क्रियमाणे स्वपक्षस्य खाभ्युपगमस्य परस्परप्रज्ञोपजीवनबलात् स्थापना सुघटितत्वं क्रियते यत्र तदधिकबलसम्बन्धादधिबलम् |
चेटी- श्रार्य ! इतना ही [मोटा इनको ] मत समझो। माताजी [ श्राजकल ] चातुर्थिक [ चौथे दिन श्रानेवाले ज्वर] से पीड़ित है [ इसलिए दुबली हो गई है ] ।
विदूषक - हे भगवन चातुथिक ! [ यदि आपकी कृपासे यह इतनी मोटी है तो फिर ] मुझ ब्राह्मरंगके ऊपरभी कृपा कीजिए ।"
यह वर्तमान प्रत्यक्ष अर्थका बोधक हास्यकर वचन है ।
[अथवा ] जैसे नलविलास में लम्बस्तनी कापालिका के प्रति विदूषक [ कहता है ] - "विदूषक - मेरे एक संशयको दूर करो। [ यह बताओ कि ] मेरी ब्राह्मणीकी [अर्थात् मेरी पत्नीकी] स्थूलकुट्टिनी नामकी माता जो पटनामें रहती है वह क्या तुम ही हो, अथवा कोई और है ? इत्यदि [ भी वर्तमान प्रत्यक्ष अर्थ विषयक हास्यकर वचन होनेसे इस प्रकारके व्याहारका उदाहरण है ।"
(२) 'अधिबल' नामक द्वितीय वीथ्यङ्ग
अब 'अधिबल' [ नामक द्वितीय विथ्यङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं ] -
[सूत्र १४३ ] -- परस्पर वार्तालाप में बलपूर्वक अपने पक्षकी स्थापना करना 'अधिवल' [कहलाता ] है । [३१] ६६ । .
'मिथः' अर्थात् परस्पर, 'जल्प' अर्थात् उक्ति प्रत्युक्ति के क्रम में [ कथनोपकथनके करनेमें ] • अपने पक्ष अर्थात् प्रपने सिद्धान्तका परस्पर बुद्धिका प्रवलम्बन कर जो स्थापन अर्थात् युक्तियुक्तत्व सिद्ध किया जाता है वह अधिक बलका सम्बन्ध होनेसे 'अधिबल' [कहलाता ] है । १. वाणी ।
२. मूल ।
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