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नाट्यदर्पणम् । का० ४६, सू० ७० राजा-भो महाब्राह्मण ! कोऽन्य एवं ऋचामभिज्ञः ?
अत्र मौर्स दोष छादयितु यद् विदूषकेणोक्त तद् राज्ञो हास्यहेतुत्वान्जर्मद्युतिः ।
अन्ये तु नर्मजां धृतिं नर्मधु तिमाहुः । यथा रत्नावल्याम्--- ___ सुसंगता-सहि ! अदक्खिन्ना दाणि सि तुवं जा एवं भट्टिणो हत्थावलंबिया वि को न मुचसि ।
सखि ! अदाक्षिण्या इदानीं त्वमसि या एवं भतुर्हस्तावलम्बितापि कोप न मुञ्चसि । इति संस्कृतम् ] ।
सागरिका-[सभ्रूभंगमीषद्विहस्य] सुसंगदे ! इयाणि पि न विरमसि ।" इति । [सुसंगते ! इदानीमपि न विरमसि । इति संस्कृतम्]।
एते च नर्म-नमा ती अङ्ग कामप्रधानेष्वेव रूपकेषु निबन्धमहतः । कैशिकीप्राधान्येन तेषां हास्योचितत्वादिति । () अथ तापः
[सूत्र ७०]-अपायदर्शनम् तापः यथा पार्थविजये"कचुकी--भो भो लोकपाला: परित्रायध्वम् ।
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राजा-हे महाब्राह्मण [तुमको छोड़कर और कौन इन ऋचारोंको समझ सकता है।
यहाँ [अपनो] मूर्खताके दोषको छिपानेकेलिए विदूषकने जो-कुछ कहा है वह राजाके हास्यका हेतु होता है । [इसलिए नर्मद्युति अंगका उदाहरण है] ।
अन्य लोग तो नर्म [मजाक से उत्पन्न ति [अानन्द को नर्मद्युति कहते हैं। जैसे रत्नावलीमें
___ सुसंगता-सखि ! तुम बड़ी दाक्षिण्य-रहित हो जो स्वामी के इस प्रकार हाथ पकड़ने पर भी क्रोध नहीं छोड़ती हो।
सागरिका-[भौहें टेढ़ी करके तनिक हंसकर सुसंगते ! तू अब भी नहीं मानती है ।
यह नर्मद्युतिका उदाहरगा है । क्योंकि इसमें मुमंगताके हास्यवचनमे मागरिकाको एक प्रकारके विशेष प्रानन्द या धर्य की प्राप्ति हो रही है। इसलिए जो लोग नभेजा धृतिको 'नर्मद्युति' कहते हैं उनकी दृष्टिसे यह नर्मद्युतिका उदाहरण होता है।
ये नर्म तया नर्मति नामक दोनों अंग काम-प्रधान रूपों में ही निबद्ध किए जा सकते हैं। क्योंकि उन [काम-प्रधान रूपों के कंशिकी-प्रधान होने से उनमें हास्य उचित हो सकता है। () ताप
अब 'ता' [नामक प्रतिमुखमविके अष्टम अंगका लक्षण करते है .
[मूत्र ७०] किसी इष्टजनके [अपाय अर्थात विनाका दर्शन तापजनक होनेमे] 'ताप' [कहलाता है । बसे पाविजयमें
कन्चुको-हे हे मोकपासो ! रक्षा करो।
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