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________________ का० ४६, सू०७० ] प्रथमो विवेकः [ १३७ एषा वधू भरतराजकुलस्य साध्वी, दुर्योधनस्य महिषी प्रियसङ्गरस्य । विस्मृत्य पाण्डु-धृतराष्ट्र-पितामहादीन् , गन्धर्ववीरपशुभिः परिभूयते स्म ॥ युधिष्ठिरः--[ श्रुत्वा दुर्योधनान्त:पुरे महतीमपायशंकामाविष्कुर्वन्नाह ] वत्स ! स्वगोत्रपरिभवाविष्कारनिष्ठुरः शब्दः। अद्याप्यभ्रान्त ५वासि । कः कोऽत्र, चापम । [इति चापारोपणमभिनयन सम्भ्रमादुत्तिष्ठति] इति । के चित्तु स्थानेऽस्य अनुनयात्यो ग्रह-निग्रहरूपं 'शमनं' पठन्ति । यथा पार्थविजये-- "भीमः-प्राः क एष मयि स्थिते भरतकुलं परिभवति ? अतः परं न मर्षयामि" इति । अत्र 'अयि वत्स ! स्वगोत्र' इत्यादि पूर्वदशितेन युधिष्ठिरसंरम्भेण भीमस्यानुनयग्रहणम् । अरतिनिग्रहो यथा वेणी संहारे यह भारतके राजवंशको साध्वी वध, और युद्धप्रेमी दुर्योधनकी रानी, पाण्डु तराष्ट्र और पितामह [भीष्म] प्राविको भुलाकर [अर्थात् उनको शक्ति प्रादिकी ओर ध्यान न देकर] दुष्ट गन्धर्व वीरों द्वारा अपमानित की जा रही है। युधिष्ठिर-[ सुनकर, और दुर्योधनके अन्तःपुरमें किसी भारी विनाशको शंका समझकर कहते हैं कि ] हे वरस [भीम] ! अपने वंशके अपमानका कठोर अप्रिय शब्द [सुनाई दे रहा है। तुम अब तक स्थिर बैठे हुए हो। कौन, यहाँ कौन है ? धनुष-धनुष [जल्दी धनुष माओ] इस प्रकार [कहते हुए और] धनुष चढ़ानेका अभिनय करते हुए जल्दीसे उठते हैं । इसमें दुर्योधन के अंतःपुर में होनेवाले विनाशको देखकर युधिष्ठिरकी व्य प्रता का वर्णन दिया गया है । अतः यह 'ताप' नामक अङ्गका उदाहरण है। कुछ लोग इस ['ताप' नामक अंग] के स्थानपर अनुनयके ग्रहण और अरतिके निग्रह रूप 'शमन' को प्रतिमुख संधिके अंगों में पढ़ते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे लोग 'ताप' को प्रतिमुखसन्धिका अङ्ग न मानकर 'शमन' को उसका अङ्ग मानते हैं । और इस शमनकी व्याख्या दो प्रकारकी करते हैं । एक अनुनयका ग्रहण, और दूसरी अरतिका निग्रह, इन दोनोंको वे 'शम:' कहते हैं। जैसे पार्थविजयमें [अनुनयग्रहणका उहाहरण "भीम--अरे, यह कौन है जो मेरे रहते भरतकुलका अपमान करना चाहता है। इससे अधिक मैं सहन नहीं करूंगा। ___ इस [उदाहरण] में "हे वत्स ! अपने गोत्रके पराभवका-सा अप्रिय शब्द सुनाई दे रहा है" इत्यादि पूर्वशित [ वाक्यमें दिखलाए हुए ] युधिष्ठिरके क्रोधको देखकर भीम [युधिष्ठिरके] अनुनयका ग्रहण करते हैं [इसलिए यह अनुनय ग्रहण रूप शमनके प्रथम भेदका उदाहरण है। प्ररति-निग्रह [नामक शमनके दूसरे भेवका उदाहरण] जैसे वेण संहारमें = Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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