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________________ ३५४ ] नाट्यदर्पणम [ का० १५२, सू० २२७ अथानिक:[सूत्र २२७] -कर्मणोऽङ्ग रुपाङ्गश्च साक्षाद् भावनमाङ्गिकः ॥ ॥[५०] १५२॥ कर्मणोऽनुकार्य चेष्टाया अङ्ग : शिरो-हस्त-वक्षः-कटी-पार्श्व-पादादिभिः, उपाङ्ग श्च नेत्र-भू-पक्ष्म-अधर-कपोल-चिबुकादिभिः। साक्षाद् भावनं परोक्षस्यापि सामाजिकेभ्य: साक्षादिव करणमाङ्गिकः। अङ्गानि प्रयोजन हेतवो यस्येत्याङ्गिकः । 'यथाभावं' इति, अत्रापि स्मर्यते । तेन रामादेरनुकार्यस्य ये क्रोध-उत्साह-आवेग-वैमनस्यहर्ष-वैवर्ण्य-श्रास्यराग-भ्र कुट्यादयश्चेष्टाविमिश्रा भावाः, तैरनस्यूतस्य कर्मणः साक्षादिव भावनं न तु केवलस्येति । तत्रोत्तमाङ्गस्याकम्पित-कम्पितादयस्त्रयोदश। होती ही है। क्योंकि] भ्रांतिसे भी भृङ्गारादिकी उत्पत्ति हो सकती है। अन्यथा स्वप्नमें कामिनी, वैरी चोर प्रादिको देखने वालोंके भीतर रसके चरम सीमापर पहुंच जानेपर [रसोंके अनुकूल] स्तम्भादि अनुभाव कैसे होते हैं ? प्रब प्रांगिक [अभिनयका वर्णन करते हैं]-- [सूत्र २२७] -अंगों और उपाङ्गोंके द्वारा कार्योका साक्षात्कार कराना आंगिक [अभिनय कहलाता है । [५०] १५२ । कार्योका अर्थात् अनुकार्य [रामादि] की चेष्टाका । अंगोंके द्वारा अर्थात् सिर हाथ याती कमर पाव और पैर आदि रूप [मुख्य अंगों] के द्वारा। और उपांगों प्रर्थात् नेत्र भौंह, पलक, अधर, कपोल, ठोड़ी प्रादि [गौण] उपांगोके द्वारा। साक्षात् भावन प्रर्थात् परोक्ष अर्थको भी सामाजिकोंके लिए साक्षात्-सा बना देना। प्रांगिक [अभिनय कार्य] है। अङ्ग जिसका प्रयोजन अर्थात् हेतु है वह प्राङ्गिक है [यह आङ्गिक सब्दका निवर्चन हुमा] । इस कारिकाके पूर्वाद्ध में पठित 'यथाभावनुक्रिया मेंसे] 'यथाभावं' यह भाग यहाँ [प्राङ्गिकके लक्षणमें] भी संगत होता है। इसलिए रामादि अनुकार्यके जो कोष, उत्साह, आवेग, वैमनस्य, हर्ष, वैवर्ण्य, मुखराग और भ्र कुटि प्रादिसे युक्त चेष्टाविमिश्रित भाव हैं उनसे समन्वित कार्योका सा साक्षात्करण होना आवश्यक है], केवल [भावानुकरण रहित कर्म] का नहीं। इस प्रकार प्राङ्गिक अभिनयका लक्षण करनेके बाद अब ग्रंथकार भरत मुनिके नाट्य शास्त्रके प्राधारपर प्राङ्गिक अभिनयोंका संक्षिप्त विवेचन करते हैं। भरतमुनिके नाट्यशास्त्रके प्राठवें अध्यायमें इन प्राङ्गिक अभिनयोंका विशेष रूपर वर्णन किया गया है उसीका संकेत करते हुए ग्रंथकार प्रागे प्रतिपादन करते हैं। ग्रन्थकारने यहाँ अङ्गों और उपाङ्गोंके द्वारा किए जाने वाले अभिनयको प्राङ्गिक अभिनय कहा है । भरतमुनिने इन अङ्गों तथा उपाङ्गों का विभाजन निम्न प्रकार किया है "तत्र शिरो हस्तोरः पावकटीपादतः षडंगानि । नेत्र-भ्र-नासाधर - कपोल - चिबुकन्युपांगानि ॥ ८-१४ ॥ उनमेंसे सिरके कम्पित पाकम्पित प्रादि तेरह प्रकार के अभिनय होते हैं। इन छः मङ्गोंमेंसे सिरके तेरह प्रकारके अभिनयोंका संकेत यहाँ ग्रन्थकारने किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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