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(५) भारम्भ करके उसे अन्त तक निभाने का प्रयत्न न करना । (६) यदि मनायास माद्यन्त निर्वाह हो भी जाए तो उसे अंगरूप में रसपोषक
बनाने का यत्न करना।
उपर्युक्त साधनों में से प्रथम दो तो एक ही हैं। पांचवें साधन का तीसरे और चौथे में तथा छठे का पहले में अन्तर्भाव हो सकता है । इन सब का कुल मिलाकर उद्देश्य यह है कि रचना में प्रलंकारों को रस के अंग रूप में ही स्थान दिया जाए, प्रधान रूप में कभी नहीं, और ऐसा करने के लिए कवि समीक्षा-बुद्धिसे काम ले, तभी मर्यालंकार अपनी यथार्थता को प्राप्त कर सकेंगे
ध्वन्यात्मभूते भृङ्गारे समीक्ष्य विनिवेशतः ।
रूपकाविरलंकारवर्ग एति यथार्थताम् ॥ ध्व० २ । १७ ॥ ५. गुण
रस और गुण के परस्पर-सम्बन्ध का निर्देश करते हुए एक स्थान पर ग्रन्थकार लिखते हैं कि 'व्यायोग' नामक रूपक में वीर, रोद्र प्रादि दीप्त रसों की स्थिति होती है। मतः इस में गद्य तथा पद्य दोनों पोजगुण-युक्त होने चाहिएं : दीप्तानां वीररौद्रादीनां रसानामाश्रयः । प्रतएवात्र गधं पद्यं चौजोगुणयुक्तम् ।' (हि० ना० द० पृष्ठ० २२१) .
मानन्दवर्द्धन तथा उनके अनुयायियों के अनुसार गुण का रस के साथ दोहरा सम्बन्ध होता है-एक सम्बन्ध प्रधान है और दूसरा गौण । प्रधान सम्बन्ध का प्राधार सहृदय की चित्तवृत्ति है, और गौरण सम्बन्ध का प्राधार वर्ण, पद और अर्थ हैं । अतः गुरण प्रधानतः रस का धर्म है और गौणतः वर्णादि का'।
(१) रस के साथ गुरण का प्रधान सम्बन्ध होता है । इसका यह तात्पर्य है कि शृंगार, करुण मादि कोमल रसों में चित्त की द्रुति होने के कारण माधुर्य गुण की स्वीकृति होगी, और वीर, रौद्र मादि कठोर रसों में चित्त की दीप्ति होने के कारण अोज गुण की। कोमल अथवा कठोर रसों में से किसी भी रस में यदि प्रर्थ का भवबोध त्वरित हो जाएगा तो वहाँ चित्त की व्याप्ति होने के कारण माधुर्य अथवा भोज के मतिरिक्त प्रसाद गुण की भी स्वीकृति की जाएगी। दूसरे शब्दों में, किसी सरस. रचना में यदि त्वरित अर्थावबोध न होगा तो वहां रस के अनुकूल माधुर्य अथवा भोज में किसी एक गुण की स्थिति मानी जाएगी, और यदि त्वरित अर्थावबोध हो जाएगा तो वहाँ रस के अनुकूल माधुर्य और प्रसाद गुरण, अथवा भोज और प्रसाद गुरण दो-दो गुणों की स्थिति स्वीकृत होगी। इस प्रकार ये गुण सहृदय के चित्त की विभिन्न अवस्थामों पर आधारित हैं। चित्त की द्रुति, दीप्ति अथवा व्याप्ति नामक अवस्थाएं पहले होती हैं और रसाभिव्यक्ति इनके बाद होती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सहृदय का मन इन भवस्थानों में से न गुजरे और रस का अभिव्यक्ति हो जाए । निष्कर्षतः चित्तवृत्ति कप गुण और रस में पूर्वापर-सम्बन्ध है तथा यह सम्बन्ध नित्य अर्थात पनिवार्य है।
(२) गुण का रस के साथ गोण सम्बन्ध भी है । इसका तात्पर्य यह है कि शृंगार, करुण १. (क) ये रसस्याङ्गिनो धर्माःx x अचलस्थितयो गुणाः। (ब): गुणवृत्या पुनस्तेषां मृत्तिः समायोर्मता।
.का०० ८.६६,७१
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