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नाट्यदर्पणम् । का० ११६-२०, सू०१२३-२४ अथ बीभत्सः - [सूत्र १७४]-जुगुप्सनीयरूपादि-परश्लाघासमुद्भवः ।
बीभत्सोऽभिनयश्चास्य निष्ठेवोद्वेग-निन्दनः ॥[१८] १२०॥ जुगुप्सनीया मालिन्य-कुथितत्व-दुर्गन्धित्व-कर्कशत्वादिभिरमनोज्ञाः । रूपादयो रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-शब्दलक्षणाः विषयाः । पररय विपक्षस्य श्लाघा स्तुतिः । एभ्यो दृष्टश्रुतेभ्यो विभावेभ्यो जुगुप्सास्थायी बीभत्सो रसः समुद्भवति । परश्लाघायां हि विशेषतो दोषदर्शनेन जुगुप्सते। निष्ठेवः कफनिरसनम् । उद्वेगो गात्रधूननम्। निन्दनं दोषोधनम् । एभिर्गात्रसङ्कोचन-मुखविकूणन-नासाकर्णप्रच्छादन-हल्लेखादिरनुभावः सूच्यते । व्यभिचारिणश्चास्य व्याधि-मोह-आवेग-अपस्मार-मरणादयः इति ॥ [१८] १२० ॥
___अथाद्भुत :[सूत्र १७५]-दिव्येन्द्रजाल-रम्यार्थ-दर्शनाभीष्टसिद्धितः। अद्भुतः, सोऽभिनेतव्यः श्लाघा-रोमाञ्च-हर्षतः ॥
[१६] १२१ ॥ दिव्याः शक्रादयः । इन्द्रजाल मन्त्र-दिव्य-हस्तयुक्त्यादिना असंभवद्वस्तु. प्रदर्शनम् । रम्यः सातिशयत्वेन हृद्योऽर्थः शिल्पकर्म-रूप-वाक्य-गन्ध-रस-स्पर्श-नृत्तगीतादिकः, तस्य दर्शनं साक्षात्कारः । अनेन स्वयं कीर्तनं श्रवणं च गृह्यते । श्रभीष्टमत्य
प्रब बीभत्स [रसका वर्णन करते ह]
[सूत्र १७४]-घृणित रूप ग्रादि तथा शत्रुकी प्रशंसा मादिसे उत्पन्न बीभत्सरस होता है। थूकने, नाक-भौं सिकोड़ने और निन्दाके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है ।[१८] १२०॥
मलिनता सडांष, दुर्गन्ध अथवा कर्कशता माविके कारण प्ररुचिकर [अर्थ] 'जुगुप्सनीय' [अर्थ] कहलाते हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श शम्मादि रूप विषम 'पर' अर्थात् विपक्ष [शत्रु] की प्रशंसा ['परश्लाघा' पबसे अभिप्रेत है । इन विभावोंके देखने या सुननेसे जुगुप्सारूप स्थायिभाव वाला वीभत्सरस उत्पन्न होता है। शत्रुकी प्रशंसामें विशेष रूपसे दोषोंको देखकर उससे घृणा करता है । निष्ठेव' पदका अर्थ कफका निकलना [अर्थात् थूकना है। हाथपर मादिका चलाना उद्वेग [का सूचक है। निन्दा अर्थात् दोष निकालना। इनसे अङ्गों के सिकोड़ने, मुखके विचकाने, नाक-कान प्राविके बन्द करने और जी मिचलाने, आदि अनुभादोंका ग्रहण होता है । व्याधि, मोह, मावेग, अपस्मार, मरण प्रादि इसके व्यभिचारिभाव है । [१८] १२० ॥
प्रब अद्भुत [रसका निरूपण करते हैं]
[सूत्र १७५]-देवताओं, अथवा इन्द्रजाल, सुन्दर रस्तु प्रादिके देखने सगा भाभीष्ट प्रर्थको [प्राकस्मिक] सिद्धिसे उत्पन्न होने वाला अद्भुत रस होता है । प्रशंसा रोमाञ्च तथा हर्षके द्वारा उसका अभिनय करना चाहिए ॥ [१८] १२१॥
दिव्य प्रर्यात् इन्द्रादि देवता । मन्त्र अथवा किसी द्रव्य अथवा हायको चालाको याविक द्वारा असम्भव बातको दिखला देना 'इन्द्रजाल' कहलाता है। रम्य अर्थात् अत्यन्त सुन्दर लगने वाला अचं जैसे सिल्प-रचना, अपवा रूप या वाक्यरचना, प्रथदा गग्व, रस,
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