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का० ६७, सू० १४५ ]
द्वितीय विवेक:
[ २५३
केचित् त्वसद्भूतेन पारदार्यादिनैपुण्यादिना योऽन्योऽन्यस्तवो हास्यहेतुस्तं प्रपचमाहुः । यथा-
"रंडा चंडा दिक्खिदा धम्मदारा मज्जं मंसं खज्जए पिज्जए वा । भिक्खा भोज्जं चम्मखंडं च सेज्जा कोलो धम्मो करस नो भादि रम्मो | [रण्डा चण्डा दीक्षिता धर्मदारा, मद्यं मांसं खाद्यते पीयते वा । भिक्षा भोज्यं चर्मखण्डं च शय्या, कौलो धर्मः कस्य नो भाति रम्यः ॥ " इति संस्कृतम्]
अन्ये तु द्वयोर्लभं विना मिथ्यारूपं हास्यं संस्तवयुक्तं प्रपञ्चत्वेन मन्यन्ते । यथा प्रयोगाभ्युदये—
"तरङ्गदत्तकचेटी- अम्मो अयं खु एसो संचारिमं उवहासपट्टणं काय्यभंडीरवो इदो येवा गच्छदि ।
[अहो अयं खल्वेप संचरिष्णूपहासपत्नं आर्यभ एडीरव इत एवागच्छति । इति संस्कृतम् ।
विदूषक -- उपसृत्य भोदी ! सागदं ते ।
[भवति । खागतं ते] ।
नेटी - [ स्वगतम् ] परिहासइस्सं दाव णं । [ प्रकाशम् ] को दाणि एस अम्हा पुरस्कार है' [ यहाँ तक ] यह स्तुति सहित; राजा और सुसंगताका परस्पर हास्य है। एक अर्थात् राजाको सागरिकाको प्राप्ति रूप लाभका कारण है । और मिथ्या व्यवहार रूप होनेसे प्रपञ्च है । सुसंगताको करर्णाभररणकी प्राप्ति [प्रयञ्जके लक्षणमें कहे हुए 'एकलाभकृत् पदसे यहाँ ] मुख्य साध्यके प्रति अनुपयुक्त होनेसे विवक्षित नहीं है ।
कुछ लोग प्रसद्भूत परदाराभिगमन् श्रादिके नैपुण्यके द्वारा जो एक-दूसरेकी स्तुति हास्यका कारण है उसको प्रपञ्च कहते हैं। जैसे
उत्कट [ कामवेग वाली] रंडियाँ [ जिस धर्ममें] दीक्षाप्राप्त धर्मदारा [ समझी जाती] हैं, मद्य और मांस [स्वेच्छा-पूर्वक] खाया-दिया जाता है । [जिस धर्ममें] भिक्षा हो भोजन है, और चर्मका टुकड़ा ही शय्या है ऐसा कौल [ वाममार्गी सम्प्रदायका ] धर्म किसको सुन्दर [ श्राकर्षण करने वाला] नहीं लगता है ।
इसमें कौल धर्मके अनुयायी किसी साथीका उपहास करते हुए उसमें परदाराभिगमन यादि दिखलाकर उसकी हास्यकर स्तुति की गई है इसलिए यह दूसरे लक्षण के अनुसार प्रपञ्चका उदाहरण है ।
अन्य लोग तो दोनों [ मेंसे किसी ] के लाभके बिना ही प्रशंसायुक्त मिथ्या हास्यको प्रपञ्च कहते जैसे प्रयोगाभ्युदयमें ---
"तरंगदत्तकी दासी - अरे सञ्चरणशील उपहास - नगर रूप यह कार्य भण्डोरक इधर ही
प्रा रहे हैं ।
विदूषक - [पास आकर ] श्रापका स्वागत है ।
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