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________________ का० ५०, सू०७४ ] यथा वात्रैव- वैनतेयः - [ रामं प्रति] अजितेन्द्रियः खलु दुरात्मा रावणो न क्षाम्यति कलितसौभाग्यसाराणां परदाराणाम् । तदियमार्या वैदेही क्वचिदपि गोप्रयितुमुचिता । प्रथमो विवेकः लक्ष्मणः - अजितेन्द्रियः खलु दुरात्मा सूर्यहासो न क्षाम्यति पापीयसां पुंसाम् । तदियमा वैदेहीन क्वचिदपि गोपायितुमुचिता ।" इति । अनेन वैनतेयवचनं प्रध्वस्तमिति । (१२) अथोपन्यास :---- [ १४३ [ सूत्र ७४ ] - उपपत्तिरुपन्यास: कंचिदर्थं विधातु या उपपत्ति-युक्तिःस उपन्यासः । यथा कृत्यांरादणे"रामः सीते आतां पुष्पकम् । सीता - इतास ! अवि मरिस्सं न पुरण आरुहिस्सं । [ हताश ! अपि मरिष्यामि न पुनरारोक्ष्यामि । इति संस्कृतम् ] | रावणः --- आः ! किं बहुना यावत् करेण दृढपीडितमुष्टियन्त्रमुत्खाय चन्द्रकिरणद्युतिचन्द्रहासेन त्वत्पुरो बटुशिरःकमलोपहार आरभ्यते । समधिरोह शिवाय तावत् । से तीव्र धार वाले यदि मेरे ये बारण देवी [ सीता] की रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हो सकें तो अपने दीर्घ पुख पत्रोंकी हवासे [ रावणके] केशोंकी शोभा को नष्ट करते हुए अत्यन्त कठोर एवं सघन रावरणके शिरोंके झुण्डको ये बारण कैसे काटेंगे । (१२) उपन्यास - श्रथवा जैसे यहाँ [ रघुविलासमें] ही [ इसका एक और उदाहरण ] - [ प्रजितेन्द्रिय ] ''वैनेतय-- [ रामके प्रति ] दुष्ट रावण बड़ा कामी है वह दूसरोंकी सुन्दर स्त्रियों को सहन नहीं करता है । इसलिए इन प्रार्या वैदेहीको कहीं छिपाकर रखना ही उचित है । लक्ष्मरण-- [ तो फिर हमारा या चन्द्रहास नहीं अपितु] सूर्यहास [ खड्ग ] भी बड़ा दुष्ट और [ श्रजितेन्द्रिय अपने ] वशमें न रहने वाला है । वह पापी पुरुषों को क्षमा नहीं करता है । इसलिए इन श्रार्या वैदेहीको कहीं छिपानेको श्रावश्यकता नहीं है । इस [ लक्ष्मण वचन ] से वैनतेयके वचनका काट हो जाता है । अब 'उपन्यास ' [ नामक प्रतिमुख सन्धिके १२वें अङ्गका लक्षरण आदि कहते हैं ][ सूत्र ७४ ] - [ किसी कार्यके लिए ] युक्तिको प्रस्तुत करना 'उपन्यास' [ कहलाता है] । fret कार्य करनेके लिए जो युक्ति वह 'उपन्यास' है । जैसे कृत्यारावरणमें--- रावण -- हे सीते ! पुष्पक विमानपर चढ़ जाओ । Jain Education International सोता -- श्ररे नीच, मैं मर भले ही जाऊँ पर चढ़ेंगी नहीं । रावस -- प्रच्छा, अधिक कहनेकी आवश्यकता नहीं तो ले मैं जोरसे मूठको पकड़ कर चन्द्र-किरणोंके समान द्युति वाली तलवारको निकालकर तेरे सामने इन बटुनों [ तपस्वी ब्रह्मचारियों के शिरों-रूपी कमलों को काट कर ] उपहार देना प्रारम्भ करता हूँ । भला चाहो तो चढ़ नाश्रो , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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