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________________ २१६ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ७३, सू० १२३ 'अत्र' नाटिकायां 'मुख्या' नृपवंशजत्व-गम्भीरत्व-परिणीतत्वादिभिः प्रधानं नायिका, तद्वशादन्तःपुरसंगीतकसम्बन्धेन श्रुति-दर्शनाभ्यामासन्नया 'अन्यया' 'कन्यया' 'योगः' सम्बन्धो नायकस्य 'पर्यन्ते' निर्वहणसन्धौ दर्शयितव्यः ॥ [६] ७१ । - नेता च तल्लाभादर्वाक् प्रवर्धमानानुरागो मुख्यातश्चकितहृदयः कन्यायामुपवनादिषु संकेतस्थानेषु संघटते। . __ कृत्यान्तरमपि दर्शयति[सूत्र १२३] —देवी दक्षाऽपरा मुग्धा समा धर्मा द्वयोः पुनः ॥[७] ७२॥ क्रोध-प्रसाद-प्रत्यूह-रति-च्छमादि भूरिशः। देवी दक्षा चतुरा निबन्धनीया । अपरा तु कन्या मुग्धा चातुर्यवर्जिता। धर्माः पुनः क्षत्रियवंशजत्व-नय-विनय-लज्जा-महत्त्व-गाम्भीर्यादयः, तुल्या द्वयोः देवी-कन्ययोर्निबन्धनीयाः ॥ [७] ७२ ॥ तथा कन्यानुरागपरिज्ञाने देव्या राजनि क्रोधः। राज्ञा च तस्याः प्रसादनम् । देव्या च राज्ञः कन्यासमागमे विघ्नः । राज-कन्ययोः परस्परं रतिः । सर्वेषामान्योन्यं वचनम् । आदि शब्दादन्यदपि श्रृगारांगं भूयो भूयो निबन्धनीयमिति ।। इस नाटिकामें राजवंशमें उत्पन्न होनेके कारण, गम्भीरत्वके कारण और परिणीता होनेके कारण, मुख्या नायिका ही प्रधान होती है। उसके द्वारा अन्तःपुरके संगीत प्रादिके सम्बन्धसे श्रवण या दर्शन द्वारा प्रास दूसरी कन्याके साथ नायकका सम्बन्ध अन्तमें अर्थात् निर्वहण सन्धिमें दिखलाना चाहिए। ॥ [६] ७१॥ और उसके [अर्थात् निर्वहरण सन्धिके] पहिले तो नायक [अन्य कन्याके प्रति क्रमशः] अनुरागको वृद्धि होनेपर भी मुख्य नायिकासे डरता हुआ-सा ही उपवन प्रादिमें कन्यासे मिलता है। प्रब [नाटिकामें] करने योग्य अन्य बात भी दिखलाते हैं [सूत्र १२३]-देवीको चतुरा रूपमें, और [अन्य अर्थात] कन्याको मुग्धा रूपमें [दिखलाना चाहिए । दोनोंके [कुलजत्वादि] धर्म समान [दिखलाने चाहिए । ७ [७२] ॥ __ [और नाटिकाको पाख्यानवस्तुके बीच में] कोष, प्रसाद, विध्न, रति और छल प्रादिका प्रचुर-प्रयोग दिखलाना चाहिए। देवी दक्षा प्रर्थात् चतुरा रूपमें प्रदर्शित करनी चाहिए। और दूसरी कन्या तो मुग्धा प्रर्थात् चातुर्यरहित [दिखलानी चाहिए। क्षत्रियवंशजत्व, नय, विनय, लज्जा, महत्त्व, गाम्भीर्य मावि धर्म दोनों अर्थात् देवी तथा कन्यामें समान रूपसे दिखलाने चाहिए। कन्याके [ प्रति राजाके ] अनुरागका ज्ञान होनेपर राजाके प्रति देवीका क्रोध, और राजाके द्वारा उस [देवों को प्रसन्न करनेका यत्न [दिखलाना चाहिए । देवीके द्वारा राजा कन्याके साथ समागममें विघ्न उपस्थित करना, राजा और कन्याका परस्पर अनुराग, और सबका एक दूसरेको धोखा [ देकर कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न नाटिकामें दिखलाना चाहिए । आदि शब्दसे श्रृंगारके अंगभूत अन्य धर्मोको भी बार-बार ग्रथित करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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