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________________ अव.] प्रथमो विवेकः अलङ्कारमृदुः पन्थाः कथादीनां सुसञ्चरः । दुःसञ्चरस्तु नाट्यस्य रसकल्लोलसङ्कलः ॥३॥ न गीतावाद्यनृत्तज्ञा लोकस्थितिविदो न ये । अभिनेतुच कतुं च प्रबन्धास्ते बहिर्मुखाः ॥४॥ देखकर और स्वयं भी [अनेक रूपकोंका निर्माण करके [मर्शत नाव्य-लक्षण मादिका पूर्ण मान और अनुभव प्राप्त करके हम दोनों [अर्थात् इस ग्रंथके रचयिता रामचन्द्र गुरणचन्द्र इस नायवर्पण ग्रंथमें नाव्य-लक्षणकी विवेचना [प्रारम्भ करते हैं ।२।। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि इस ग्रन्थके कर्ता रामचन्द्र और गुणचन्द्र दो व्यक्ति हैं। उन दोनोंने मिलकर इस ग्रन्थकी रचना की हैं। इस माट्यदर्पणके अतिरिक्त 'द्रव्यालङ्कारवृत्ति' नामक एक और भी ऐसा ग्रन्थ है जिसकी रचना इन दोनोंने मिलकर की है। गुणचन्द्रका स्दतन्त्र रूपसे लिखा हुआ कोई अन्य नहीं मिलता है। परन्तु रामचन्द्र ने स्वतन्त्र रूपसे भी बहुतसे ग्रन्थोंकी रचना की है। उनको प्रायः 'प्रबन्ध-शतकर्ता उपाधि से विभूषित किया जाता है। इसका अभिप्राय यह हुमा कि उन्होंने लगभग सौ ग्रन्थोंकी रचना की थी। उनके सब ग्रन्ध तो अब तक नहीं मिले हैं और न उनके नाम ही ज्ञात हैं किन्तु फिर भी अपने ग्यारह नाटकोंका उल्लेख उन्होंने अपने इस ग्रन्थमें स्थान-स्थानपर किया है। अर्थात् अधिक नहीं तो कम-से-कम ग्यारह नाटक तो उन्होंने बनाए ही हैं। जब इतने नाटक उन्होंने स्वयं बनाए हैं तो सम्भवतः अपने समयमें उपलब्ध प्रायः सभी नाटक उन्होंने पढ़ डाले होंगे। इतने नाटकोंके पढ़ने और स्वयं बनानेके बाद उन्होंने इस नाट्यदर्पणकी रचनामें हाथ लगाया है इससे विदित होता है कि वे इस विषयपर ग्रन्थ लिखने के लिए प्रत्यन्त उपयुक्त और अधिकारी व्यक्ति हैं। इसी बातको सूचित करने के लिए उन्होंने इस श्लोक में सबसे पहले अपने नाट्य-विषयक इस विशाल अनुभवका उल्लेख उपर्युक्त प्रकारसे किया है। नाट्यरचनाकी दुष्करता काव्यके, श्रव्य-काव्य, नाटक आख्यायिका प्रादि अनेक भेद माने गए हैं। इन सबकी ही रचनाके लिए विशेष प्रकारको प्रतिभाकी प्रावश्यकता होती है किन्तु ग्रंथकार की दृष्टि में नाटककी रचना अन्य प्रङ्गोंकी अपेक्षा अधिक कठिन है । इसलिए वे अगले श्लोकोंमें उसकी दुष्करताका प्रतिपादन करते हुए लिखते हैं कथा प्रावि [काव्यके अन्य प्रभेदोंकी रचना का मार्ग अलङ्कारोंसे कोमल हो मानेके कारण सुखपूर्वक सञ्चरण करने योग्य है [मर्थात् अलङ्कार-प्रधान कथा प्रादिकी रचना सरलतासे की जा सकती है] किन्तु रसोंको कल्लोलोंसे परिपूर्ण होनेसे नाट्यका मार्ग प्रत्यन्त कठिन. [दुःसञ्चर] है। ३ । जो गीत-वाद्य-नृत्य प्रादिको नहीं जानते हैं और जो लोक-व्यवहार में कुशल नहीं हैं वे [प्रवन्धान अर्थात्] नाटकोंका अभिनय करने और रचना करनेकेलिए [बहिर्मुख हैं अर्थात्] अधिकारी नहीं हैं । ४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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