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उक्त स्थला के अतिरिक्त निम्नोक्त वो मन्य स्थलों में प्रकार की चर्चा साक्षात् न हो कर प्रसाक्षात् रूप से हुई है:
१. जो कवि (नाटककार) नानाविध शब्द तथा अर्थ के लील्य (चमत्कार) कारण रस रूप अमृत से पराङ्मुख हो जाते है वे विद्वान् होते हुए भी उत्तम कवियों की गणना में नहीं पाते।
२. काव्य (नाटक) में पर्व और शब्द की उत्प्रेक्षा (कल्पना) इतनी इलाध्य नहीं है जितना कि रस इलाध्य है। पका हुमा और सुन्दर भी माम यदि रस-शून्य हो तो [भोक्ता के मन में] उसके प्रति उद्वेजना (पणा, अरुचि) उत्पन्न हो जाती है।
___ इन दोनों स्थलों में शब्द मोर पर्ष के लोल्य (चमत्कार) और इनकी उत्प्रेक्षा (कल्पना) से ग्रन्थकारों का तात्पर्य शब्दालंकार और प्रर्थालंकार से ही है।
ग्रन्थ के मूलभाग में अन्यत्र भी 'प्रलंकार' शब्द का प्रयोग हुमा है, पर वहां इस शब्द से तात्पर्य है-नायिका के यौवनस्थ भाव, हाव भादि २० धर्म जो तीन सों में विभक्त किये गये है। किन्तु प्रस्तुत प्रकरण से इन प्रलंकारों का कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि ये शम्दार्य रूप काव्य-शरीर के शोभाकारक धर्म न होकर नायिका के व्यक्तित्व के शोभाकारक धर्म है।
उपयुक्त उद्धरणों में से प्रथम उखरण में कक्षा की भपेक्षा नाटक को इस प्राधार पर उत्कृष्ट माना गया है कि रस के बिना भी केवल अलंकार-प्रयोग के बल पर कचा का निर्माण हो सकता है किन्तु नाटक के लिए रस एक अनिवार्य तत्व है। वस्तुतः यह धारणा संस्कृत के दशकुमारचरित, वासवदत्ता मादि कथा-पाख्यायिका साहित्य को लक्ष्य में रखकर प्रस्तुत की गयी प्रतीत होती है, जिनमें अलंकारों का प्रतिशय प्रयोग हुपा है । इसका एक कारण पाठक की दृष्टि से था और दूसरा कारण कवि की दृष्टि से । यह साहित्य सामान्य स्तर से उच्च वर्ग के लिए निर्मित होता था। इनसे एक ओर ये पाठक अनुप्रास, यमक, श्लेष, परिसंख्या, विरोधाभास मादि से चमस्कृत होते नहीं अघाते थे, और उधर दूसरी ओर 'गचं कवीनां निकषः वदन्ति' इस उक्ति के माधार पर गवकार की सिद्धि एवं प्रशंसा का प्राधार अलंकार-प्रयोग द्वारा चमकार-प्रदर्शन समझा जाने लगा था। किन्तु उक्त धारणा वर्तमान कथा-साहित्य के लिए नितान्त उपयुक्त नहीं है। नाटक के समान इसके लिए भी रस-तत्व का समावेश नितान्त अनिवार्य है, और अलंकार की इसे भी विशेष प्रपेक्षा नहीं रहती। इसी प्रकार प्रबन्धकार मोर मुक्तककार कवियों में भी रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने इसी प्रकार का ही भन्तर निर्देश किया है जो कि युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। .. १. मानार्थशब्दलौल्येन पराञ्चो ये रसामृतात् ।
विद्वांसस्ते कवीद्राणामहन्ति न पुनः कयाम् ॥ ना० १० १०६ २. न तपार्यशब्बोत्प्रेक्षाः इलाध्याः काम्ये पया रसः ।
विपाककनमप्यानं उद्वेषयति नीरसम् ॥ मा०३० २२२ ३. . ना० २०४।२७,२८ ४. x x x x x। योग्यतां च रसनिवेशकव्यवसायिनः प्रबन्धकवयो विवन्ति, न पुनः शब्दार्थप्रथन-वैचिश्यमानोन्मविष्णवो मुक्तकवयः ।
हि. ना. १० पृष्ठ १९७
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