SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का० ६८, सू० १४६ ] द्वितीयो विवेकः [ २५५ मपि । यथा देवीचन्द्रगुप्ते द्वितीयेऽङ्के प्रकृतीनामाश्वासनाय शकस्य ध्रुवदेवीसम्प्रदाने अभ्युपगते राज्ञा रामगुप्तेनारिवधार्थं यियासुः, प्रतिपन्नध्रुवदेवीनेपथ्यः कुमार चन्द्रगुप्तो विज्ञपयन्नुच्यते यथा " राजा - प्रतिष्ठोक्तिषु न खल्वहं त्वां परित्यक्तुमुत्सहे । प्रत्यप्रयौवनविभूषणमङ्गमेतद्, रूपश्रियं च तव यौवनयोग्य रूपम् । सक्तिं च मय्यनुपमामनुरुध्यमानो देवीं त्यजामि बलवांस्त्वयि मेऽनुरागः ॥ अन्यस्त्रीशंकया ध्रुवदेवी - यदि भत्ति अवेक्खसि तदो मं मंदभाइणिं परि चचयसि । [ यदि भक्तिमपेक्षसे ततो मां मन्दभागिनीं परित्यजसि ] । राजा - अपि च, त्यजामि देवीं तृणवत् त्वदन्तरे | ध्रुवदेवी - अहं पि जीविदं परिच्चयंती अज्जउत्तं पढमयरं य्येव परिच्चइस्सं । [ अहमपि जीवितं परित्यजन्ती आर्यपुत्रं प्रथमतरमेव परित्यक्ष्यामि ।' राजा - त्वया विना राज्यमिदं हि निष्फलम् । ध्रुवदेवी - ममावि संपद निष्फलो जीवलाओ सुहपरिचयपीओ भविरसदि । [ममापि साम्प्रतं निष्फलो जीवलोकः सुखपरित्यजनीयो भविष्यति । ]. गुप्तके द्वारा ध्रुवदेवीको शकराजको दे देना स्वीकार कर लेनेपर ध्रुवदेवीका वेष धारण करके शत्रुके बधके लिए जाने वाले कुमार चन्द्रगुप्तको लक्ष्य करके कहते हैं राजा - प्रतिष्ठा वचनोंके अवसरपर मैं तुमको भुला नहीं सकता हूँ । मैं [ यद्यपि ] देवीका परित्याग करने जा रहा हूँ किन्तु श्रभिनव यौवनसे रमणीय तुम्हारी यह देह, यौवनके अनुरूप इस रूप-सौन्दर्य, और अपने प्रति अनुपम प्रेमको देखकर तुम्हारे प्रति मेरा प्रबल अनुराग है । ध्रुवदेवी - [ चन्द्रगुप्तको दूसरी स्त्री समझ कर ] यदि इसके प्रेमकी अपेक्षा है तो [ इसका अर्थ यह है कि अपने प्रति अनन्य अनुराग रखने वाली ] मुझ मन्दभागिनीका परित्याग कर रहे हैं। राजा - और तुम्हारे कारण [अर्थात् तुम देवीकी दूसरे पक्ष में तुम्हारे प्रेमके वशीभूत होकर ] मैं तृणके समान [अर्थात् शकराजको देवीके वे बेनेको स्वीकार कर रहा हूँ ] । ध्रुवदेवी - [प्रापके इस परित्यागसे खिन्न होकर ] मैं भी अपने जीवनका परित्याग करके प्रार्यपुत्रको पहिले ही छोड़ दूंगी । राजा - [ चन्द्रगुप्तके प्रति ] तुम्हारे बिना मेरा यह राज्य व्यर्थ है । ध. बदेवी- मेरे लिए भी अब यह जीवलोक निष्फल है । उसे मैं सरलता से परित्याग कर सकूंगी । राजा - किन्तु देवी मेरी विवाहिता पत्नी है इसलिए उनके प्रति मुझे दया बाती हैं। रक्षा कर हो लोगे ऐसा मानकर देवीका परित्याग कर रहा हूँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy