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गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि में शंकुक ही इस 'चित्रोत्पलार्वलम्बितक' प्रकरण के निर्माता होंगे। किन्तु वे किसके प्रप्रमात्य थे इसका पता नहीं चल रहा है। यह ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है ।
(१२) छल्तिरामम् - नाटयदर्पणकार ने चार स्थानों पर 'छलितराम' नाटक के नाम का उल्लेख करते हुए उदाहरण प्रस्तुत किए है। कुन्तक के वक्रोक्तिजीवित में भी 'दलितराम' का उल्लेख पाया जाता है । धनिक के 'दशरूपकावलोक' में [१०४१, ३-१३, १७] तीन स्थलों पर, मोज के 'शृङ्गारप्रकाश' [० ११, पृ० १२३], तथा सरस्वतीकण्ठाभरण [१० ३७७, ६४५ ] तथा विश्वनाथ के साहित्यदर्पण [ परि० ६ प २६१] में भी इसका उल्लेख पाया जाता है। किन्तु न तो इसके कर्ता का पता चलता है और न यह ग्रन्थ ही उपलब्ध होता है ।
'व्यायोग' के लक्षण के
(१३) जामदग्न्यजयः - 'नाटचदर्पण' के 'द्वितीय विवेक में प्र में 'स्त्रीनिमित्त संग्राम' जिसमें स्त्री की प्राप्ति के लिए संग्राम न वह व्यायोग होता है। इसका उदाहरण दिखलाने के लिए- 'स्त्रीति मत्र्य संग्रामसंयुक्तश्च । यथा- 'जामदग्नजय परशुरामेण सहस्राजु तस्य वैधः कृतः । इस रूप में इस जामदग्न्यजय व्यायोग' का उल्लेख किया है । 'दशरूपक के मूल में मोर 'अवलोक' टीका में भी व्यायोग के लक्षण के प्रसङ्ग में 'अस्त्रीनिमि तश्च संग्रामो जामदग्न्यजये यथा' [ ३-६१], लिख कर इसका निर्देश इसी रूप में किया गया है । किन्तु इसकी रचना किसने कब की इसका कोई पता नहीं लगा है। यह ग्रन्थ भी इस समय उपलब्ध नहीं हो रहा है ।
(१४) तरङ्गवतम् - नाट्यदर्पण के द्वितीय विवेक में 'प्रकरण' के निरूपण प्रसङ्ग में का० ३ तथा ४ की व्याख्या में दो जगह 'तरङ्गवत्त' प्रकरण का उल्लेख किया गया है। धनिक के 'दशरूपकावलोक' [३-३८], शारदातनय के 'भावप्रकाशन' [भूषि०८, १० २४३], प्रौर विश्वनाथ के साहित्यदर्पण [परि० ६ ० २२६ ] में भी इसका उल्लेख पाया जाता है किन्तु इसका कर्ता कौन है इस विषय में कोई पता नहीं चलता है, भोर न यह ग्रन्थ मिलता है ।
(१५) देवीचन्द्रगुप्तम् - माटयदर्पण' में सात वार देवी चन्द्रगुत नाटक का उल्लेख भाषा है मोर उसे 'मुद्राराक्षसकार' विशालदेव या विशाखदत्त की कृति बतलाया गया है । इन उदाहरणों से इस नाटक की कथावस्तु प्रायः स्पष्ट हो जाती है । राजा रामगुप्त ने प्रबल शकराय के मांगने पर अपनी रानी ध्रुवदेवी को शकराज को समर्पित कर देना स्वीकार कर लिया। बाद को रामगुप्त के भाई चन्द्रगुप्त ध्रुवदेवी के वेष में शकराज के शिविर में गया मौर वहां पहुँच कर चन्द्रगुप्त ने शकराज का वध कर डाला, यह इस नाटक की कथा है। इस कथा का उल्लेख 'हर्षचरित' में पाया जाता है
"शकानामाचार्यः शकाधिपतिः चन्द्रगुप्त भ्रातृजायां ध्रुवदेवीं प्रार्थयमानः, चन्द्रगुप्तेन घ. बदेवीवेषधारिणा स्त्रीवेषजनपरिवृतेन रहसि व्यापादित इति ।"
[ हर्षचरित उ० ५ ० २७० ]
'काव्यमीमांसा' में भी इस कथा का उल्लेख प्राता हैदवा रुद्धगतिः खसाधिपतये देवीं ध्रुवस्वामिनीं यस्मात् खण्डितसाहसो निववते श्रीरामगुप्तो नृपः ।
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[ काव्यमीमांसा ०९५० ४७ ]
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