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उपसंहारः ] चतुर्थो विवेकः
[ ४० . __एतानि च स्वल्पमात्ररंजनानिमित्तत्वाद, वृद्धैरनभिहितत्वाच्च वृत्तावेव कीतितानीति ।
शब्द-प्रमाण-साहित्य-छन्दोलक्ष्मविधायिनाम् ।। श्रीहेमचन्द्रपादानां प्रसादाय नमो नमः ॥ १ ॥ परोपनीतशब्दार्थाः, स्वनाम्ना कृतकीर्तयः । निबद्धारोऽधुना तेन, को नौ क्लेशमवेष्यति ॥ २ ॥ न सूत्र-वृत्त्योराधिक्यं न हीनत्वं न कुण्ठता। यावदर्था गिरः सन्ति स्वयं सन्तो विवेचताम् ॥ ३ ॥ शब्दलक्ष्म-प्रमालक्ष्म-काव्यलक्ष्म-कृतभमः । वाग्विलासस्त्रिमार्गो नौ प्रवाह इव जाह्र जः ॥ ४ ॥ रूपस्वरूपं विज्ञातु यदीच्छत अथास्थितम् । सन्तस्तदानीं गृहीत निर्मलं नाट्यदर्पणम ॥ ५ ॥ समर्पणं निवृत्तिश्च संहार इति सप्तमः। उपन्यासः प्रसंगेन भवेत् कार्यस्य कीतेनम् ।। ३१० ॥ निर्वेदवाक्यव्युत्पत्तिर्विन्यास इति स स्मृतः । भ्रान्तिनाशो विबोधः स्यान्मिथ्याख्यानं तु साध्वसम ॥ ३११॥ सोपालम्भवचः कोपपीडयेह समर्पणम् । निदर्शनस्योपन्यासो निवृत्तिरिति कथ्यते ॥ ३१२ ॥
संहार इति च प्राहुयेत् कार्यस्य समापनम् ।। इनके स्वल्प मात्रामें ही मनोरंजक होने तथा भरतमुनि [वृद्ध] के द्वारा न कहे जानेके कारण [इनको हमने मूल ग्रंथमें न दिखलाकर यहाँ] वृत्तिभागमें ही दिखलाया है।
व्याकरण, न्याय, साहित्य तथा छन्दःशास्त्रके लक्षण ग्रंथोंकी रचना करनेवाले श्री पूज्य प्राचार्य हेमचन्द्रजीको प्रसन्नताके लिए हम उनको नमस्कार करते हैं ॥१॥
___ आजकल कि ग्रंयकार प्राय:] दूसरोंके शम्वों और प्रोंको लेकर अपने नामसे [ग्रंथ रचना-दिखलाकर कोतिका उपार्जन करते हैं [इसी दशामें इस ग्रंथ की रचनामें उठाए हुए] हमारे क्लेशको कौन समझता है ॥२॥
_[हमारे इस ग्रंथमें] न सूत्रका प्राधिक्य है और न वृतिभागका। न किसी भागमें कमी है और न [कुण्ठता अर्थात् अस्पष्टता है। विद्वान लोग स्वयं ही देख लें कि इसमें जितना अर्थ कहना है उतने ही शब्दोंका प्रयोग किया गया है। [अनावश्यक कुछ भी नहीं लिखा गया है और न अपेक्षित वातको छोड़ा हो गया है] ॥३॥
व्याकरणशास्त्र, न्यायशास्त्र और साहित्यशास्त्रमें श्रमको प्रदर्शित करनेवाला हम दोनोंकी वाणीका प्रवाह गंगाको पाराके समान तीन धारामों वाला है ।। ४॥
हे सज्जन पुरुषों यदि माप रूपकोंके वास्तविक स्वरूपको देखना चाहते हो तो इस निर्मल नाव्यदर्पणको प्रहण कीथिए । [इस निर्मल नाव्यापरणमें ही रूपकोंके स्वरूपको यथार्थ वर्शन हो सकेगा।
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