________________
का० ३२, सू० ४२ ] प्रथमो विवेकः
[ ६३ प्राणान् यद्विरहेऽप्यहं विधृतवांस्तेन पासुन्दर,
वक्त्रं दर्शयितु तथापि न पुरस्तस्या विलक्षः क्षमः॥" इति ।
इह च तावन् पुरुषकारमात्राभिनिवेशिनां दैवमपाकुर्वतां नास्तिकानां देवबहुमानव्युत्पत्तये पुरुषकारोऽप्यफलस्तदभावोऽपि सफल इति दर्शनीयम् । ततो दैवायत्तफले दरिद्रचारुदत्तादिरूपके पुरुषयापारस्य गौणत्वात् कथं प्रारम्भादयः स्युः ?
न, तत्रापि नायकस्य फलाथित्वात् , फलम्य च प्रारम्भादिनान्तरीयकत्वात् । अनुमान्यपि हि सस्यानि वृष्टिसेकाप्यायितायां भुवि उच्छूनता-स्तम्बभवन-पुष्पोद्गमक्रमेणैव फलन्ति ।
यद्यपि हि सेवावशेषव्यापारविमुखः पुरुपो न व्याप्रियते, तथापि देवरितो राजादिव्यांप्रियत एव । स च राजादिगतो व्यापारः पुरुषगत एव । तद्वयापारसाध्यफलार्थित्वात् । अपरथा परत: प्राप्तमपि फलं नाङ्गीकुर्यादिति ॥३६॥ विरहमें भी जो मैं प्राणोंको धारण किए रहा इसलिए लज्जित हुआ मैं अपने लज्जासे युक्त [त्रपासुन्दरं मुखको उसके [सीताके सामने दिखलानेमें समर्थ नहीं हूँ।
इसमें कलागम रूप पञ्चमी अवस्थाका वर्णन है ।
ऊपर यह बतलाया था कि प्रारम्भादि अन्य अवस्थानोंकी योजना देवके व्यापार से भी हो सकती है। किन्तु उसका फल नायकको ही प्राप्त होगा। इसीका समर्थन करते हुए पागे उसकी विशेष उपयोगिताका प्रतिपादन करते हैं।
केवल पुरुषार्थको मानने वाले और देवका तिरस्कार करने वाले नास्तिकोंको भी दंवमें श्रद्धा करानेके लिए कहीं] पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जाता है और उसका प्रभाव [अर्थात् देव भी सफल हो जाता है यह बात यहां नाटकमें दिखलानी चाहिए । इसलिए केवल देवके अधीन फल वाले 'दरिद्र-चारुदत्त' प्रादि रूपकोंमें पुरुषके व्यापारके गौण हो जानेसे प्रारम्भ प्रादि [अवस्थाएँ] कैसे हो सकती हैं यह शङ्का यदि उठाई जाय तो]---
___ ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ भी नायकको फलको कामना होती ही है। और फल प्रारम्भादिके बिना नहीं हो सकता है। [इसलिए उसमें भी प्रारम्भादि अवस्थाओंका समावेश हो सकता है । बिना बोए हुए बीज भी [जब किसी प्रकार खेतमें पड़ जाते हैं तो वे] वर्षासे तर हुई भूमिमें फूलकर [अंकुर फूटकर] पौदा बन कर और फूल कर क्रमसे ही फलते हैं [इसी प्रकार बिना पुरुषार्थके केवल भाग्यके द्वारा बोए गए कर्म बीज भी प्रारम्भादि प्रवस्थानोंके द्वारा ही फलको उत्पन्न करते हैं।
____ यद्यपि सेवा प्रादि समस्त व्यापारोंसे रहित राजादि सदृश] पुरुष स्वयं] किसी कार्यको नहीं करता है किन्तु देवसे प्रेरित अथवा राजा प्रादि होनेपर [स्वयं भी वैव-प्रेरणाके अनुसार व्यापार करता ही है । और राजादिगत वह [देव प्रेरित व्यापार भी] पुरुषका ही व्यापार होता है । [क्योंकि उस देवी- व्यापार द्वारा होने वाले फलका प्रार्थी वह [राजावि] हो होता है । अन्यथा [यदि वह फलार्थो न हो तो] बादमें प्राप्त होनेवाले फलको भी स्वीकार न करें॥३६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org