SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८० ] नाट्यदर्पणम् [ का० १७४, सू० २५७-५६ अथासां त्रैविध्यमाह - [ सूत्र २५७ ] - मुग्धा मध्या प्रगल्मेति त्रिविधाः स्युरिमाः पुनः । इमाः कुलजादय इति । अथ मुग्धा [ सत्र २५८ ] - मुग्धा वामा रते स्वत्वमाना रोहद्वयः - स्मरा ॥ [२१] १७४ ॥ रतं सुरतं; तत्र विपरीता अनभिज्ञत्वात् । अत एवेपदीर्ष्या-कोपा। रोहत प्रवर्ध - मानं वयो यौवनं स्मरश्च यस्या इति ।। [२४] १७४ ॥ अथ मध्या [ सूत्र २५६ ] - मध्या मध्यवयः -काम-माना मूर्छान्तमोहना । मध्या अनधिरूढप्रौढवयःयः -काम-माना यस्याः । मूर्द्धान्तं श्रचैतन्यपर्यवसायि मोहन सुरतं किंचिदभिज्ञत्वादस्याः । एषा च धीरा अधीरा धीराधीरा चेति त्रिधा । तत्र धीरा कृतागसि प्रिये सोत्प्रासवक्रोक्तिपरा । अधीरा साश्रुपरुषभाषिणी । धीराधीरा सात्मासं परुषवक्रोक्तिव । दिनीति । 1 कारण अनुरागहीन [गणिका नायिका ] भी हो सकती है। राजा और दिव्य नायकों के साथ गणिका नायिकाका वर्णन नहीं करना चाहिए। किन्तु यह गणिका यदि दिव्य हो तो 'क्वापि' इस कथन से कथावस्तुके अनुरोधसे कभी राजाको नायिका भी हो सकती हैं। जैसे उर्वशी पुरूरवाकी [नायिका है] । 'नृपे दिव्ये च न प्रभों' राजा और दिव्य नायकके साथ गणिकाका वर्णन नहीं करना चाहिए' इस [पूर्वोक्त नियम] का यह अपवाद है जिसमें विक्रय गमिकाको राजाकी नायिका रूपमें वर्णन करनेकी अनुमति दी गई है] ।। [२०] १७३६ इन [नायिकानों ] के तीन भेद बतलाते हैं [सूत्र २५७ ] [ कुलजा दिव्या क्षत्रिया और गरिका ] ये [ चारों नायिकाएँ] फिर मुग्धा मध्या और प्रगल्भा [भेवसे] तीन प्रकारकी होती है । ये अर्थात् कुलजा आदि [चारों नायिकाएं इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन भेद होते हैं : कुल मिलाकर बारह भेद हो जाते हैं ] । We मुग्धा [नायिकाका लक्षरग करते हैं। [ सूत्र २५८ ] -- ' योवन और कामके उठावपर स्थित' स्वल्प मान वाली तथा सुरतव्यापार में प्रतिकूल नायिका 'मुग्धा' नायिका कहलाती है | २१] १७४ Jain Education International अब आगे मध्या [ नायिकाका लक्षरण करते हैं ] [ सूत्र २५६ ] - मध्यम प्रायु, मध्यम काम और मध्यम मान वाली तथा सुरतकाल में [श्रानन्दातिरेक से ] मूर्छा पर्यन्त पहुँच जानेवाली मध्या नायिका होती है । मध्यम अर्थात् प्रप्रौढ, जिसकी आयु, काम तथा मान [ अप्रौढ ] होते हैं [ वह मध्या नामिका कहलाती है ] मूर्छान्त प्रर्थात् प्रचैतन्य पर्यन्त जिसका 'मोहन' अर्थात् सूत-व्यापार होता है ! क्योंकि वह [सुरतानन्दसे] कुछ परिचित हो चुकी है । और यह धीरा प्रधीरा तथा धीराधीरा भेदसे तीन प्रकारकी होती | उनमें से प्रियके (प्रन्यस्त्री-सम्बन्धरूप] अपराध-युक्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy