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( २ ) है। इस नायक-भेद के कारण ही इसके नाम का भेद हो जाता है। 'नायकानुसारित्वात् सर्वव्यवहाराणाम्' क्योंकि सारे व्यवहार नायक के अनुसार ही होते हैं । इसलिए प्रकरणोक्त नायक होने के कारण चतुरङ्गत्व प्रादि धर्मों से युक्त रूपक भेद को 'प्रकरणी' कहते हैं . यह ग्रन्थकार का मभिप्राय है। इस प्रकार नाटयदर्पण में १० मुख्य रूपक तथा नाटिका एवं प्रकरणी रूप दो सीर्ण भेदों को मिलाकर कुल १२ प्रकार के रूपकों का वर्णन किया गया है।
दशरूपककार धनञ्जय ने दस प्रकार के मुख्य रूपकों के साथ 'नाटिका' रूप एक सङ्कीर्ण भेद को मिला कर ११ रूपकों का निरूपण किया है । फिर भी उन्होंने अपने ग्रन्थ का नाम 'दशरूपक' ही रखा है । इसका कारण कुछ तो भरतमुनि के नाटयशास्त्र में १८वें अध्याय के लिए प्रयुक्त होने वाला 'दशपकनिरूपणाध्याय' नाम है। उसमें भी नाटिका सहित ११ भेदों का निरूपण होने पर भी उसका नाम 'दशरूपकनिरूपणाध्याय' रखा गया है । उसीके अनुकरण पर धनजय ने भी अपने ग्रन्थ का नाम 'दशरूपक' रखा है। इसके साथ धार्मिक भावना के अनुसार विष्णु के दस अवतारों के साथ भरतमुनि के दशरूपकों का सम्बन्ध जोड़ना भी इसका एक कारण है। अपने मङ्गलाचरण में इस सम्बन्ध को दिखलाते हुए निम्न श्लोक लिखा है--
"दशरूपानुकारेण यस्य मायन्ति भायकाः। नमः सर्वविदे तस्मै विष्णवे भरताय च ॥"
[दशरूपक १, २] जिस प्रकार यहां धनञ्जय ने रूपकों की दश संख्या का अपने इष्ट देव विष्णु [पनाप के पिता का नाम भी विष्णु ही था के दस अवतारों के साथ सम्बन्ध जोड़ कर अपनी धार्मिक भावुकता का परिचय दिया है, इसी प्रकार नाटपदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने रूपकों की द्वादश संख्या का अपने धर्म में प्रतिपादित प्राचार से लेकर दृष्टिवाद-पर्यन्त द्वादश मङ्गों के साथ सम्बन्ध पोरकर ही. अपना मङ्गलाचरण श्लोक लिखा है
"चतुर्वर्गफलो नियं, जैनों वाचमुपास्महे । रूपदिशभिविश्वं यया न्याय्य धृतं पथि ॥"
[नाटयदर्पण १.१] इस प्रकार दस के स्थान पर १२ रूपक भेदों का निरूपण नाटघदर्पण का प्रतिपाद्य विषय है । इस विषय का प्रतिपादन करने के लिए ग्रन्यकार ने अपने प्रन्थ को चार भागों में विभक्त किया है। उन्हें 'विवेक' नाम से निर्दिष्ट किया है। प्रथम विवेक में उन्होंने केवल नाटक का निरूपण किया है। द्वितीय विवेक में 'प्रकरण' प्रादि शेष ११ रूपक भेदों का निरूपण किया है । इस प्रकार अपने मुख्य प्रतिपाद्य विषय मर्थात् द्वादश रूपों के लक्षणों का प्रतिपादन उन्होंने दो विवेकों में ही कर दिया है। उसके बाद तृतीय विवेक में नाटप से सम्बद्ध वृत्ति, रस, भाव भौर अभिनय मादि का विवेचन किया है, भोर पतुथं विवेक में कुछ ऐसी बातों की चर्चा की है जो सारे रूपकों में समान रूप से उपयोग में पाने वाली है। इसलिए इस विवेक का नाम 'सर्वरूपकसाधारणमक्षणनिर्णयः' रखा गया है। दशरूपककार वनश्चय ने नाटक के अतिरिक्त अन्य रूपक-भेदों के निपल में बहुत संक्षेप से काम लिया है। अधिकांश रूपकों का निरूपण उन्होंने दो चार श्लोकोही समाप्त कर दिया है। नाटयर्पणकार रामचन्द्र-पुरुचन्द्र ने नाटक के समान पन्य रूपक भेदों का निरूपण भी प्रर्याप्त विस्तार के साथ किया है। इसलिए उबका निरूपण धमक्षय की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और उपयोगी बन पड़ा है।
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