SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का० १३, सू० ११ ] प्रथमो विवेकः [ ३५ नहीं होता है। क्योंकि नाटकका सारा भाग तो सर्वश्राव्य अर्थात् 'प्रकाशम्' होता ही है । उसके लिए हर जगह 'प्रकाशम्' लिखने की भावश्यकता नहीं होती है । उस 'प्रकाशम्' के बीच जहाँ कुछ भाग ऐसा श्रा जाता है जिसे वक्ता स्वयं तक ही सीमित रखना चाहता है उसके लिए 'स्वगतम्' शैलीका प्रयोग होता है । यद्यपि 'स्वगत' शब्दसे अपने मनमें कही जाने वाली "स्वगतं स्वहृदि स्थितम्" बातका ही ग्रहण होता है किन्तु वह बोली इतने उच्चस्वरसे जाती है कि नाटक देखने वाले सामाजिक उसको सुन सकें । जहाँ कोई ऐसी बात कहनी होती है जिसको उस समय सामाजिकको भी सुनाना अभीष्ट नहीं होता है वहाँ उस बातको 'स्वगतम् ' पदसे न कहकर 'कर्णे एवमिव' लिख कर कानमें कहलाया जाता है । 'स्वगतम्' के रूप में कही जाने वाली बात केवल अन्य पात्रोंसे गोपनीय होती है । सामाजिकों से नहीं | एक बार जब 'स्वगतम्' लिख दिया गया तब वह 'स्वगतम्' के रूपमें कही जाने वाली बात जहाँपर समाप्त होती है उसके बाद 'प्रकाशम् ' पदका निर्देश करना आवश्यक होता है । इसलिए 'स्वगतम्' के समास होने के बाद 'प्रकाशम्' का उल्लेख नाटकों में सर्वत्र किया है गोपनीय बातको कहनेका एक प्रकारका यह 'स्वगतम्' हुआ। इसके अतिरिक्त दो प्रकार और भी हैं। एक 'अपवारितम्' और दूसरा 'जनान्तिकम्' । इनमें से जब एक व्यक्तिसे छिपा कर प्रधिक व्यक्तियोंपर बातको प्रकट करना अभीष्ट होता है तब उस बातको 'जनान्तिकम्' नामसे कहा जाता है। 'जनान्तिकम्' शब्दका अर्थ ही यह बतला रहा है कि बहुत से 'जनों' के 'प्रतिक' अर्थात् समीप जो हो वह 'जनान्तिकम्' कहलाने योग्य है । इसलिए 'जनान्तिकम्' के रूप में कही जाने वाली बात एक ही व्यक्तिसे गोपनीय श्रोर बहुतसे जनोंके लिए श्राव्य होने के कारण उनके 'अन्तिक' अर्थात् 'निकट' होनेसे 'जनान्तिक' नामसे कही जाती है। इसके विपरीत जो बात बहुतों से छिपा कर एक ही व्यक्तिपर प्रकाशित करने योग्य हो उसको प्रगट करने के लिए 'अपवारितम्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । यह शब्द भी नाटकों बहुत प्रयुक्त होता है । इस प्रकार गोपनीय बातको प्रकट करने के लिए (१) 'स्वगतम् ' ( २ ) ' अपवारितम्' और (३) 'जनान्तिकम्' इन तीन नाटकीय प्रभिव्यक्ति-शैलियोंका निर्देश किया गया है। इन सभी शैलियोंके द्वारा अभिव्यक्त किए जाने वाले भाव सामाजिकोंके लिए श्राव्य ही होते हैं। इसलिए इतने जोरसे अभिव्यक्त किए जाते हैं कि सामाजिक बिना किसी कठिनाईके उनको सुन सकें । केवल अभिनयकी मुद्राओंोंके द्वारा उनकी गोपनीयताका प्रदर्शन किया जाता है। आगे कही जाने वाली श्रथवा पूर्व कही जो बात सामाजिकको भी नहीं सुनानी होती है उसके लिए इनसे भिन्न (४) 'कर्णे एवमेव' कानमें कहलाने की चौथी शैली और भी पाई जाती । है उसका निर्देश यहाँ नहीं किया गया है श्रागे १६वीं कारिका में उसका उल्लेख करेंगे यह ' एवमेव' वाली शैली नाटकों में बहुत कम मात्रा में विरल रूपसे ही प्रयुक्त होती है । एक नाटक में एक बारसे अधिक इसका प्रयोग प्रायः नहीं पाया जाता है । ( ५ ) प्रकाशम् वाली पांचवी शैली मुख्य अभिव्यजना-शैली है । जो सारे नाटकों में प्रद्यत्तं व्यापक रहती है ।। १३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy