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________________ २४८ ] नाट्यदर्पणम् । का० ६६, सू० १४३ "मयः-देव ! सीतापहारमतितरां जुगुप्सते लङ्कालोकः।। रावण:- [साक्षेपम् ] सीतापहारमतितरां जुगुप्सते लकालोकः ? मयः-[सभयम् ] अथ किम् । रावण:-[ सावहेलम् ]--- अविदितपथः प्रेम्णां बाह्यानुरागरुजां जडो, वदतु दयितामैत्रीवन्ध्यो यथाप्रतिभं जनः। मम पुनरियं सीता राज्यं सुखं विभवः प्रियं, हृदयमसवो मित्रं मन्त्री रतिधृतिरुत्सवः ।। [पुनः सखेदम् ] आर्य ! किमेकमस्य पामरप्रकृतेर्लङ्कालोकस्य विचारचातुरीवैमुख्यमुद्भावयामि अस्यां प्रेम ममेव वाङ्मनसयोरुत्तीर्णमन्यस्य चेद्, वैदेह्यां नयनकलालवणप्रारोहभूमौ भवेत् । कापेयं परिरभ्य स प्रकटयन्नुलुण्ठभूयं हठात् , किञ्चित् कामितमादधीत, कृतवान् वेधास्तु मां रावणम् ।। अपरथा पुनराये ! अहंयुनिकराग्रणीरवगणय्य धर्मार्गलां, प्रसह्य यदि जानकीमभिरमेत लङ्कापतिः । 'मय-[रावरणसे] देव ! लङ्कावासी लोग सीताके अपहरणकी प्रत्यन्त निन्दा करते हैं। रावण----[क्रोधपूर्वक] प्रार्य ! क्या लङ्कावासी लोग सीताके अपहरणको अत्यन्त निन्दा करते हैं ? मय-[डरता हुआ] और क्या। रावरण [अनादर पूर्वक] --- प्रेममार्गको न समझनेवाले, अनुरागको पीडाका अनुभव करने में अक्षम, और प्रियजन की मैत्रीसे रहित, मूर्ख लोग अपनी समझके अनुसार चाहे जो कहें। पर मेरे लिए तो यह सीता ही राज्य, सुख, वैभव, प्रिय, हृदय, प्रारण, मित्र, मन्त्री, धैर्य और प्रानन्द सब-कुछ है। [फिर खेवपूर्वक कहता है] प्रार्य ! इन पामर-प्रकृति वाले लङ्कावासियोंकी अविचारशोलताको क्या कहूँ यदि वाणी और मनको सीमाको पार कर जाने वाले मेरे [प्रेमके ] समान किसी औरका केवल नेत्रोंसे प्रास्वादन करने योग्य लावण्यके अंकुरको जन्मभूमि सीतामें [मेरा सा] प्रेम हो जाय तो वह निश्चय ही [उसको] जबरदस्ती पकड़कर आनन्दातिरेक पूर्वक वानरता [वानरके समान काम-प्रवृत्ति को प्रकट करता हुआ कुछ [अद्भुत काम-व्यापार करने लगता। यह तो कहो कि विधाताने मुझे [अत्यन्त धैर्यशालो, रावण बनाया है [कि मैने अपने हाथमें होने और उसके लिए इतना कष्ट उठानेपर भी अभी तक उसके साथ बलात्कार नहीं किया है । नहीं तो हे प्रार्य !अभिमानियोंका अग्रणी लङ्कापति, धर्ममर्यादाका परित्याग करके जानकीके साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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