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________________ ३४६ ] नाट्यदर्पणम् । का० १४६, सू० २१३-१४ 'इष्ट' प्रियं, तम्य दर्शन-श्रवणे अपीष्टे। आदिशब्दादनिष्टदर्शन-श्रवण-व्याध्यादेविभावस्य ग्रहः । कार्याज्ञानं नेत्राभ्यां पश्यतोऽपि श्रोत्राभ्यां शृण्वतोऽपि चेदानी किं कृत्यमित्यनिश्चयः। नेदं वैकल्य-अचैतन्यस्वभावमित्यपस्मार-मोहाभ्यां भिन्नम् । 'मौन' तूष्णीम्भावः । 'अनिमेषणं' अनिमेषनिरीक्षणम् । बहुवचनात् परवशत्वादिभिरनुभावैरभिनेतव्यमिति। (३२) अथालस्यम्[सूत्र २१४]-कर्मानुत्साह आलस्यं श्रमाद्याज्जृम्भितादिभिः ॥[४३] १४५ ॥ श्रादिशब्दात् सौहित्य-स्वभाव-व्याधि-गर्भादिभिर्विभावैः स्त्री-नीचानामनुद्यमरूपमालस्यं भवति । श्रमस्य व्यभिचारित्वेऽपि अन्यव्यभिचारिणं प्रति विभावत्वे न दोषः । व्यभिचारिता तु परस्परं व्यभिचारिणां स्थायित्वप्रसङ्गाद् दुष्टैव । एवं व्यभिचारिणाम् अनुभावत्वमपि भवत्येव । जृम्भितेन, आदिशब्दाद् आसितेनाहारवर्जितपुरुषार्थानारम्भादिभिश्चानुभावैस्तदभिनेतव्यम् । अलसोऽपि ह्यवश्यमाहारं करोत्येवेति ॥ [४३] १४५ ॥ ___ इष्ट प्रर्थात् प्रिय, उसका दर्शन और श्रवण भी इष्ट [पदसे अभिप्रेत है। आदि सम्बसे अनिष्टके वर्शन, श्रवण, व्याधि प्रादि कारणों [विभावों] का भी ग्रहण होता है। कार्य का मान न होना अर्थात प्रांखोंसे देखते हुए और कानोंसे सुनते रहनेपर भी, अब क्या करना चाहिए इसका निश्चय न कर सकना । यह [जाड्य] न विकलता रूप है और न प्रचैतन्य रूप इसलिए [वैकल्य रूप] अपस्मार तथा [अचंतन्य रूप] मोह दोनोंसे भिन्न है। मौन अर्थात् चुप रहना । अनिमेषरण अर्थात् टकटकी लगाकर देखना । बहुवचनसे परवशता प्रादि अनुभावोंके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। (३२) प्रब प्रालस्य [व्यभिचारिभावका लक्षरण करते हैं]-- [सत्र २१४]--श्रम प्राविके कारण कार्यमें उत्साहका न होना 'पालस्य' कहलाता है। जम्भाई आदिके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है । [४३] १४५ ॥ [जम्भितादिभि: में प्रयुक्त श्रादि शब्दसे पेट भरा होना, [पालस्यका] स्वभाव, रोग, या गर्भ प्रादि कारणोंसे स्त्री और नीचोंको उद्यमहीनता पालस्य कहलाता है। श्रमके ध्यभिचारिभाव होनेपर भी दूसरे व्यभिचारिभावके प्रति विभाव [कारण] होने में कोई दोष नहीं है। व्यभिचारिभावोंकी परस्पर व्यभिचारिता [उनमेंसे एकके] स्थायिभाव बन जानेके कारण दूषित हो है। [अर्थात् व्यभिचारिभाव तो किसी स्थायिभावका ही होता है। यदि एक व्यभिचारिभावको दूसरेका व्यभिचारिभाव माना जाय तो पहला व्यभिचारी, व्यभिचारिभाव नहीं अपितु स्थायिभाव हो जायगा। इसलिए किसी व्यभिचारिभावको दूसरे भ्यभिचारीका व्यभिचारिभाव नहीं माना जा सकता है। हां उनको विभाव और अनुभाव माना जा सकता है] इसी प्रकार व्यभिचारिभाव अनुभाव भी हो सकते हैं। ज़म्भित सबसे प्रौर मावि शब्दसे बैठे-बैठे खानेके अतिरिक्त कोई काम न करने प्रादि अनुभावोंके द्वारा.उसका अभिनय किया जाता है। प्रालसी भी भोजन तो अवश्य ही करता है इसलिए खामेको छोड़कर अन्य कोई काम न करना प्रालस्य कहलाता है । [४३] १४५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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