Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [भाग २] भगवजिनसेनाचार्य भारतीय ज्ञानपीठ काशी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला [ संस्कृत ग्रन्थाङ्क ] श्रीमद्भगवजिनसेनाचार्यप्रणीतम् म हा पु राणम् [प्रथमो विभागः] आदिपुराणम् द्वितीयो भागः हिन्दीभाषानुवादसहितः भारतीय पा ) 2830 BHARATIYA JNANA PITH 1944 सम्पादक पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य साहित्याध्यापक, गणेश दि० जैन विद्यालय, सागर भा र ती य ज्ञा न पीठ का शी प्रथम प्रावृत्ति । एक सहस्र प्रति भाद्रपद, वीरनि० सं० २४७७ वि० सं० २००८ सितम्बर १९५१ मूल्य १० रु. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा र ती य ज्ञा न पीठ का शी स्व. पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में तत्सुपुत्र सेठ शान्तिप्रसाद जी द्वारा संस्थापित ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उप आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन और उसका मूल और यथासंभव अनुवाद आदिके साथ प्रकाशन होगा। जैन भण्डारों की सचियाँ, शिलालेखसंग्रह, विशिष्ट विद्वानों के अध्ययनग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्यग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित होंगे। संस्कृत ग्रंथांक प्रकाशकअयोध्याप्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ काशी पोस्ट बाक्स नं० ४८, बनारस १ मुद्रक-देवताप्रसाद गहमरी, संसार प्रेस, काशीपुरा, बनारस स्थापनाब्द फाल्गुन कृष्ण ६ वीरनि०२४७० सर्वाधिकार सुरक्षित विक्रम सं० २० । १८ फरवरी १९ | Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० मूर्तिदेवी, मातेश्वरी मेठ शान्तिप्रसाद जैन waterson Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JNĀNA-PITHA MURTIDEVI JAINA GRANTHAMĀ LA SANSKRITA GRANTHA No. 9 MAHĀPURĀNA Vol. I. OF BIIAGAVAT JINASENĀCĀRYA PART SECOND WITH HINDI TRANSLATION SNARATIYA JNANA PLTH 34 Translated and Edited BY PANDITA PANNALAL JAIN, SAHITYACHARYA Sahityadhyapak-GANESHA DIGAMBAR JAINA VIDYALAYA, SAGAR. Published by Bharatiya Jnanapitha Kashi First Edition) 1000 Copies. BHADRAPADA, VIR SAMVAT 2477 VIKRAMA SAMVAT 2008 SEPTEMBER, 1951. Price Rs. 10/ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHARATIYA JNANA-PITHA KASHI FOUNDED BY SETH SHANTI PRASAD JAIN IN MEMORY OF HIS LATE BENEVOLENT MOTHER JNANA-PITHA MÜRTI DEVI JAIN GRANTHAMALA SHRI MURTI DEVI IN THIS GRANTHAMALA CRITICALLY EDITED JAIN AGAMIC PHILOSOPHICAL, PAURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABITRANSA, HINDI, KANNADA & TAMIL ETC., WILL BE PUBLISHED IN THEIR RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES CATALOGUE OF JAIN BHANDARAS, INSCRIPTIONS, STUIES OF COMPETENT SCHOLARS & POPULAR JAIN LITERATURE ALSO WILL BE PUBLISHED SANSKRIT Founded in Phalguna Krishna 9, Vira Sam. 2470 AND GRANTHA No. 9 PUBLISHER AYODHYA PRASAD GOYALIYA SECY., BHARATIYA JNANAPITHA, POST BOX No. 48, BANARAS N. 1. All Rights Reserved. Vikrama Samvat 2000 18th Feb. 1944 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयभागस्य विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठ | विषय षड्विंशतितम पर्व लिए पहुँचा । चक्रवर्ती उसकी विनयसे चक्रवर्ती भरतने विधिपर्वक चक्ररत्नकी बहुत प्रसन्न हुए। ४५-५० पूजा की और फिर पुत्रोत्पत्तिका उत्सव समुद्रका विविध छंदों द्वारा विस्तृत मनाया। नगरीकी सजावट की गई। वर्णन । अन्तमें कवि द्वारा पुण्यका माहात्म्य मनन्तर दिग्विजयके लिए उद्यत हुए। वर्णन । उस समय शरद ऋतुका विस्तृत वर्णन । ___ एकोनत्रिशत्तम पर्व १-७ दिग्विजयके लिए उद्यत चक्रवर्तीका अनन्तर चक्रवर्ती दक्षिण दिशाकी ओर वर्णन । तत्कालोचित सेनाकी शोभाका आगे बढ़े। मार्गमें अनेक राजाओंको वश वर्णन । करते जाते थे। बीचमें मिलनेवाले विविध ७-६ पूर्व दिशामें प्रयाणका वर्णन । गंगा देशों, नदियों और पर्वतोंका वर्णन । ६२-७१ का वर्णन । ६-१७ दक्षिण समुद्र के तटपर चक्रवर्ती ने अपनी समस्त सेना ठहराई। वहांकी प्राकृतिक सप्तविंशतितम पर्व शोभाका वर्णन । चक्रवर्तीने रयके द्वारा सारथी द्वारा गंगा तथा बनकी शोभा दक्षिण समुद्र में प्रवेश कर वहांके अधिपति का वर्णन। १८-२५ व्यंतरदेवको जीता। ७२-८० हाथी तथा घोड़ों प्रादि सेनाके अंगोंका त्रिंशत्तम पर्व वर्णन । २६-३२ सम्राट् भरत दक्षिण दिशाको विजय अष्टाविंशतितम पर्व कर पश्चिमकी ओर बढ़े। वहां विविध दूसरे ही दिन प्रातःकाल होते ही दिग्वि वनों, पर्वतों और नदियोंकी प्राकृतिक जयके लिए पागे प्रयाण किया। चक्ररत्न सुषमा देखते हुए वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके मागे-आगे चल रहा था। तात्कालिक क्रमशः वे विन्ध्य गिरिपर पहुँचे। उसकी सेनाकी शोभाका वर्णन । क्रमशः चलकर बिखरी हुई शोभा देखकर उनका चित्त वे गंगाद्वारपर पहुँचे। वहां वे उपसमुद्रको बहुत ही प्रसन्न हुआ। वहीं उन्होंने अपनी देखते हुए स्थलमार्गसे गंगाके किनारेके सेना ठहराई। अलेक वनोंके स्वामी उनके उपवनमें प्रविष्ट हुए। वहीं सेनाको ठह पास तरह-तरहको भेंट लेकर मिलने के लिए राया। अनन्तर समुद्र के किनारेपर पहुँचे, . पाये। भरतने सबका यथोचित सन्मान वहां समुद्रका विस्तृत वर्णन। ३३-४४ किया। समुद्रके किनारे-किनारे जाकर वे भरत चक्रधर लवणसमुद्र में स्थलकी पश्चिम लवण-समुद्रके तटपर पहुंचे। वहां तरह वेगसे आगे बढ़ गये। बारह योजन उन्होंने दिव्य शस्त्र धारणकर पश्चिम समद्र मागे चलकर उन्होंने अपने नामसे चिह्नित में बारह योजन प्रवेश किया और व्यन्तएक बाण छोड़ा, जोकि मागध देवकी सभामें राधिपति प्रभास नामक देवको वश में किया। पहुँचा । पहले तो मागधदेव बहुत बिगड़ा पुण्यके प्रभावसे क्या नहीं होता? ८१-६५ पर बादमें बाणपर चक्रवर्तीका नाम देख एकत्रिंशत्तम पर्व गर्वरहित हमा। तथा हार, सिंहासन और अनन्तर अठारह करोड़ घोड़ोंके अधिकण्डल साथ लेकर चक्रवर्तीके स्वागतके पति भरत चक्रधरने उत्तरकी मोर प्रस्थान Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् द्वारा विषय पृष्ठ | विषय पृष्ठ किया । क्रमशः चलते हुए विजया राजा उनके साथ थे। पुरोहितके द्वारा पर्वतकी उपत्यकामें पहुँचे। वहां वे अपनी कैलास पर्वतका वर्णन । १३१-१३६ समस्त सेना ठहराकर निश्चिन्त हुए। समवशरणका संक्षिप्त वर्णन । १३७-१४० पता चलनेपर विजयार्धदेव अपने समस्त समवसरणमें स्थित श्री ऋषभ जिनेन्द्र परिकरके साथ इनके पास आया और का वर्णन । सम्राटके द्वारा भगवान्की स्तुति उनका प्राज्ञाकारी हुआ। विजयार्धको का वर्णन । १४१-१५० जीत लेनेसे इनकी दिग्विजयका अर्धभाग चतुस्त्रिशत्तम पर्व पूर्ण हो गया। अनन्तर उन्होंने उत्तरभारत कैलाससे उतरकर अयोध्या नगरीकी में प्रवेश करनेके अभिप्रायसे दण्डरत्न द्वारा ओर प्रस्थान । चक्ररत्न अयोध्या नगरीविजया पर्वतके गुहाद्वारका उद्घाटन के द्वारपर पाकर रुक गया, जिससे सबको किया। ६६-१११ प्राश्चर्य हश्रा । चक्रवर्ती स्वयं सोच-विचार द्वात्रिंशत्तम पर्व में पड़ गए। निमित्तज्ञानी पुरोहितने गर्मी शान्त होनेपर उन्होंने गुहाके बतलाया कि अभी आपके भाइयोंको वश मध्यमें प्रवेश किया। काकिणी रत्नके करना बाकी है। पुरोहितकी सम्मतिके द्वारा मार्गमें प्रकाश होता जाता था। अनुसार राजदूत भाइयों के पास भेजे गये। बीचमें उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नाम उन्होंने भरतकी प्राज्ञामें रहना स्वीकार की नदियां मिलीं, उनके लटपर सेनाका नहीं किया और श्री ऋषभनाथ स्वामीके विश्राम हुअा। स्थपतिरत्नने अपने बुद्धि पास जाकर दीक्षा ले ली। १५१-१७१ बलसे पुल तैयार किया जिससे समस्त पञ्चत्रिंशत्तम पर्व सेना उस पार हुई। गुहागर्भसे निकलकर सब भाई तो दीक्षित हो चुके, परन्तु सेना सहित भरत उत्तर भरत-क्षेत्र में पहुंचे। बाहुबली राजदूतकी बात सुनकर क्षुभित चिलात और पावर्त नामके राजा बहुत हो उठे। उन्होंने कहा कि जब पिताजीने कुपित हुए। वे परस्परमें मिलकर चक्रवर्तीसे सबको समान रूपसे राजपद दिया है, तब युद्ध करनेके लिए उद्यत हुए । नाग जाति एक सम्राट् हो और दूसरा उसके अधीन के देवोंकी सहायतासे उन दोनोंने चक्रवर्ती रहे यह संभव नहीं। उन्होंने दूतको फटकी सेनापर घनघोर वर्षा की जिससे ७ दिन कारकर वापिस कर दिया। अन्तमें दोनों तक चक्रवर्तीकी सेना चर्मरत्नके बीच में पोरसे युद्धकी तैयारियाँ हुई। १७२-१९६ नियन्त्रित रही। अनन्तर जयकुमारके त्रिंशत्तम पर्व प्राग्नेय बाणसे नाग जातिके देव भाग खड़े युद्धके लिए इस पोरसे भरतकी सेना हुए। और अब उपद्रव शान्त हुआ। आगे बढ़ी और उस पोरसे बाहुबलीकी चिलात और पावर्त दोनों ही म्लेच्छ राजा सेना आगे आई। बुद्धिमान् मंत्रियोंने निरुपाय होकर शरणमें पाये। क्रमशः विचार किया कि इस भाई-भाईकी लड़ाईभरतने उत्तरभरतके समस्त म्लेच्छ में सेनाका व्यर्थ ही संहार होगा। इसलिए खण्डोंपर विजय प्राप्त की। ११२-१३० अच्छा हो कि स्वयं ये दोनों भाई ही लड़ें। प्रयस्त्रिशत्तम पर्व सबने मिलकर नेत्रयुद्ध, जलयुद्ध और दिग्विजय करनेके बाद चक्रवर्ती सेना मल्लयुद्ध, ये तीन युद्ध निश्चित किये। सहित अपनी नगरीके प्रति वापिस लौटे। तीनों ही युद्धोंमें जब बाहबली विजयी मार्गमें अनेक देश, नदियों और पर्वतोंको हुए तब भरतने कुपित होकर चकरत्न उल्लंघन करते हुए कैलास पर्वतके समीप चला दिया, परन्तु उससे बाहुबलीकी कुछ पाए। वहांसे श्री ऋषम जिनेन्द्रकी पूजा भी हानि नहीं हुई। बाहुबली चक्रवर्तीके करनेके लिए कैलास पर्वतपर गए। अनेक इस व्यवहारसे बहुत ही विरक्त हुए और Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयभागस्य विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठ | विषय पृष्ठ जंगलमें जाकर दीक्षा ले ली। उन्होंने एक अनन्तर कन्वय क्रियानोंका निरूवर्षका प्रतिमायोग लिया और कायोत्सर्ग पण किया। २७७-२८६ करते हए तपश्चरण करते रहे। भरत चत्वारिंशत्तम पर्व चक्रवर्तीने उनके चरणों में अपना मस्तक षोडश संस्कार तथा हवनके योग्य टेक दिया। बाहुबली केवलज्ञान प्राप्त मंत्रोंका वर्णन । २६०-३१६ कर मोक्षको प्राप्त हुए। २००-२२० एकचत्वारिंशत्तम पर्व सप्तत्रिंशत्तम पर्व कुछ समय व्यतीत होनेपर भरत चक्रवर्तीने बड़े वैभवके साथ अयोध्या चक्रधरने एक दिन रात्रिके अन्तिम भागमें नगरमें प्रवेश किया। उनके वैभवका अद्भुत फल दिखलानेवाले कुछ स्वप्न वर्णन । २२१-२३६ | देखे । स्वप्न देखनेके बाद उनका चित्त अष्टत्रिशत्तम पर्व कुछ त्रस्त हुा । उनका वास्तविक फल जाननेके लिए वे भगवान् प्रादिनाथके एक दिन भरतने सोचा कि हमने जो समवसरण में पहुँचे। वहां जिनेन्द्र बन्दनावैभव प्राप्त किया है उसे कहाँ खर्च करना के अनन्तर उन्होंने श्री प्राद्यजिनेन्द्रसे चाहिए। जो मुनि है, वे तो धनसे निःस्पृह निवेदन किया कि मैंने ब्राह्मण वर्णकी रहते हैं। प्रतः अणुव्रत धारी गृहस्थोंके सृष्टि की है। वह लाभप्रद होगी या लिए ही धनादिक देना चाहिए। एक हानिप्रद । तया मैंने कुछ स्वप्न देखे हैं विन भरत चक्रवर्तीने नगरके सब लोगोंको उनका फल क्या होगा? भरतके उत्तरमें किसी उत्सबके बहाने अपने घर बुलाया। श्री भगवान्ने कहा कि वत्स! यह ब्राह्मण घरके अन्दर पहुँचने के लिए जो मार्ग थे वर्ण प्रागे चलकर मर्यादाका लोप करनेये हरित अंकरोंसे पाच्छादित करा दिये। वाला होगा यह कहकर उन्होंने स्वप्नोंका बहुतसे लोग उन मार्गोसे चक्रवर्तीके महल फल भी बतलाया, जिसे सुनकर चक्रवर्तीके भीतर प्रविष्ट हुए। परन्तु कुछ लोग ने अयोध्या नगरीम वापिस प्रवेश किया। बाहर खड़े रहे। चक्रवर्तीने उनसे भीतर और दुःस्वप्नोंके फलकी शान्तिके लिए न पानेका जब कारण पूछा तब उन्होंने जिनाभिषेक आदि कार्य कर सुखसे प्रजाका कहा कि मार्गमें उत्पन्न हुई हरी घास प्रादि पालन करने लगे। में एकेन्द्रिय जीव होते हैं। हम लोगोंके द्विचत्वारिंशत्तम पर्व चलनेसे वे सब भर जाएँगे अतः दयाकी रक्षाके लिए हम लोग भीतर पाने में असमर्थ एक दिन भरत सम्राट राजसमामें हैं। चक्रवर्ती उनके इस उत्तरसे बहुत प्रसन्न बैठे हुए थे। पास ही अनेक अन्य राजा हुए। उन्होंने उन्हें दूसरे प्रासक मार्गसे विद्यमान थे। उस समय उन्होंने विविध भीतर बुलाया और उन्हें दयालु समझकर दृष्टान्तोंके द्वारा राजाओंको राजनीति श्रावक संज्ञा दी, वही ब्राह्मण कहलाए। तथा वर्णाश्रम धर्मका उपदेश दिया। ३३१-३५० इन्हें ब्राह्मणोचित क्रियाकाण्ड प्रादिका त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व उपदेश दिया। अनेक क्रियाओंका उपदेश , यहांसे गुणभद्राचार्यकी रचना है। दिया। सबसे पहले गर्भान्वय क्रियानोंका सर्वप्रथम उन्होंने गुरुवर जिनसेनके प्रति उपदेश दिया। २४०-२६८ भक्ति प्रकट कर अपनी लघुता प्रदर्शित की। अनन्तर श्रेणिकने समवसरणसभामें एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व खड़े होकर श्री गौतम गणधरसे प्रार्थना प्रयानन्तर भरत चक्रवर्तीने दीक्षा की कि भगवन् ! अब मैं श्री जयकमारका न्वय क्रियाओंका उपदेश दिया। . २६६-२७६ । चरित सुनना चाहता हूँ कृपा कर कहिये। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय उत्तर में गणधर स्वामीने जयकुमारका विस्तृत चरित कहा । काशीराज प्रकंपन की सुपुत्री सुलोचनाने स्वयंवर मंडप में जयकुमारके गलेनें वरमाला डाल दी। ३५१-३०५ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व स्वयंवर समाप्त होते ही चक्रवर्ती भरत के पुत्र प्रकीर्ति और जयकुमारके बीच घनघोर युद्ध हुश्रा । श्रन्तमें जयकुमार विजयी हुए । प्रकंपन तथा भरतकी दूरदशितासे युद्ध शान्त हुआ तथा दोनोंका मनमुटाव दूर हुआ । पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व कंपनने पुत्री के पील और संतोषी प्रशंसा की तथा अर्ककीर्तिकी प्रशंसा कर उन्हें शांत किया । तथा चक्रवर्ती भरतके पास दूत भेजकर अपने अपराधके प्रति क्षमायाचना की । चक्रवर्तीने उसके उत्तरमें प्रकंपन और जयकुमारकी बहुत ही प्रशंसा की । महापुराणम् ३८६-४२४ जयकुमार और सुलोचनाका प्रेममिलन जब जयकुमारने अपने नगरकी ओर वापिस श्रानेका विचार प्रकट किया तब अपने उन्हें बड़े वैभवके साथ बिदा किया। मार्ग में जयकुमार चक्रवर्ती भरत से मिलनेके लिए गये। चयतीने उनका बहुत सत्कार किया। अयोध्यासे लौटकर जब जयकुमार अपने पड़ावकी श्रोर गंगाके मार्ग से जा रहे थे तब एक देवीने मगरका रूप धरकर उनके हाथीको ग्रस लिया जिससे जयकुमार हाथी सहित गंगा में डूबने लगे तब सुलोचनाने पंचनमस्कार मंत्र की आराधनासे इस उपसर्गको बूर किया। पृष्ठ ४२५-४३१ बड़ी धूमनाम के साथ जयकुमारने हस्तिनापुर प्रवेश किया। नगरके नरनारियोंने सुलोचना और जयकुमारको देखकर अपने नेत्र सफल किये। जयकुमार ने हेमादादिके समक्ष ही सुलोचना ४३२-४४० विषय को पटरानीका पट्ट बांधा और बड़े वैभवके साथ सुखसे रहने लगे । इधर किसी कारणवश सुलोचनाके पिता अपनको संसारसे विरक्ति हो गई। उन्होंने वैराग्य भावनाका चिन्तन कर अपनी विरक्तिको बढ़ाया तथा रानी सुप्रभाके साथ दीक्षा धारणकर निर्वाण प्राप्त किया । सुप्रभा यथायोग्य स्वर्ग में उत्पन्न हुई। जयकुमार और सुलोचना के विविध भोगोंका वर्णन । ४४२-४४३ पृष्ठ ४४३-४४५ पट्चत्वारिंशत्तम पर्व किसी एक दिन जयकुमार अपनी प्राणवल्लभा सुलोचनाके साथ मकानकी छतपर बैठे हुए थे कि अचानक उनकी दृष्टि प्रकाशमार्गसे जाते हुए विद्याधरदम्पतिपर पड़ी दृष्टि पड़ते ही 'हा मेरी प्रभावती' कहकर जयकुमार मूच्छित हो गये और सुलोचना भी 'हा मेरे रतिवर' कहती हुई मूच्छित हो गई । उपचारके बाद दोनों सचेत हुए जयकुमारने सुलोचनासे मूच्छित होनेका कारण पूछा तब वह पूर्वभवका वृत्तान्त कहने लगी। विस्तारके साथ दोनोंकी भवावलिका वर्णन ४४६-४७९ । सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व जयकुमार और सुलोचना पूर्व भवकी चर्चा कर रहे थे, कि जयकुमार ने उससे श्रीपाल चक्रवर्तीके विषय में पूछा । सुलोचनाने अपनी सरस वाणीके द्वारा श्रीपाल चक्रवर्तीका विस्तृत कथानक प्रगट किया । श्रनन्तर दोनों सुखसे अपना समय बिताने लगे । देव द्वारा जयकुमारके शीलकी परीक्षा । जयकुमारका संसारसे विरक्त होना और भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में गणधर पद प्राप्त करना । भरत चक्रवर्तीका दीक्षाग्रहण, केवलज्ञानकी प्राप्ति, भगवान्‌का अंतिम विहार और निर्वाणप्राप्ति । ४८०-५०० ५०१-५१२ ५.१३-५१५ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवजिनसेनाचार्यविरचितम् महापुराणम् [द्वितीयो भागः] अथ षड्विंशतितमं पर्व अथ चक्रधरः पूजां चक्रस्य विधिवद् व्यधात् । सुतोत्पत्तिमपि श्रीमान् अभ्यनन्ददनुक्रमात् ॥१॥ ना'दरिद्रीज्जनः कश्चिद् विभोस्तस्मिन् महोत्सवे । दारिद्युमथिलाभे तु जातं विश्वाशितं भवे ॥२॥ चतुष्केषु च रथ्यासु' पुरस्यान्तर्बहिः पुरम् । पुजीकृतानि रत्नानि तदाथिभ्यो ददौ नृपः ॥३॥ अभिचार क्रियेवासोच्चक्रपूजास्य विद्विषाम् । जगतः शान्तिकर्मेव जातकर्माप्यभूत्तदा ॥४॥ ततोऽस्य दिग्जयोद्योगसमये शरदापतत् । जयलक्ष्मीरिवामुष्य प्रसन्ना विमलाम्बरा ॥५॥ अलका इव संरेजुः अस्या० मधुकरवजाः । सप्तच्छदप्रसूनोत्थरजोभूषितविग्रहाः ॥६॥ प्रसन्नमभवत्तोयं सरसां सरितामपि । कवीनामिव सत्काव्यं जनताचित्तरञ्जनम् ॥७॥ सितच्छदावली रेजे सम्पतन्ती समन्ततः । स्थूलमुक्तावली नद्धा कण्ठिकेव शरच्छियः ॥८॥ अथानन्तर श्रीमान् चक्रवर्ती भरत महाराजने विधिपूर्वक चक्ररत्नकी पूजा की और फिर अनुक्रमसे पुत्र उत्पन्न होनेका आनन्द मनाया ॥१॥ राजा भरतके उस महोत्सव के समय संसार भरमें कोई दरिद्र नहीं रहा था किन्तु दरिद्रता इस बातकी हो गई थी कि धन देने पर भी उसे कोई लेनेवाला नहीं मिलता था। भावार्थ-महाराज भरतके द्वारा दिये हुए दानसे याचक लोग इतने अधिक संतुष्ट हो गये कि उन्होंने हमेशाके लिये याचना करना छोड़ दिया ॥२॥ उस समय राजाने चौराहोंमें, गलियोंमें, नगरके भीतर और बाहर सभी जगह रत्नाक ढर किये थे और वं सब याचकोंके लिये दे दियं थे ॥३॥ उस समय भरतन जा चक्ररत्नकी पूजा की थी वह उसके शत्रुओंके लिये अभिचार क्रिया अर्थात् हिंसाकार्यके समान मालूम हुई थी और पुत्र-जन्मका जो उत्सव किया था वह संसारको शान्ति कर्मके समान जान पड़ा था ।।४॥ तदनन्तर भरतने दिग्विजयके लिये उद्योग किया, उसी समय शरदऋतू भी आ गई जो कि भरतकी जयलक्ष्मीके समान प्रसन्न तथा निर्मल अम्बर (आकाश) को धारण करनेवाली थी॥५॥ उस समय सप्तपर्ण जातिके फलोंसे उठी हुई परागसे जिनके शरीर सुशोभित हो रहे हैं ऐसे भूमरोंके समूह इस शरद् ऋतुके अलकों (केशपाश) के समान शोभायमान हो रहे थे ॥६॥ जिस प्रकार कवियोंका उत्तम काव्य प्रसन्न अर्थात् प्रसाद गुणसे सहित और जनसमूहके चित्तको आनन्दित करनेवाला होता है उसी प्रकार तालाबों और नदियोंका जल भी प्रसन्न अर्थात् स्वच्छ और मनुष्योंके चित्तको आनन्द देनेवाला बन गया था ॥७॥ चारों ओर उड़ती हुई हंसोंकी पंक्तियां ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो शरदऋतुरूपी लक्ष्मी १ दरिद्रो नाभूत् । नो दरिद्री जनः ल । न दरिद्री जनः द०, इ०, अ०, ५०, स० । २ याचकजनप्राप्तौ । ३ सकलतृप्तिजनके। ४ चतुष्पथकृतमण्डपेषु । ५ वीथिषु । ६ 'बहिः पर्ययां च' इति समासः । ७ मारणक्रिया । ८ आगता । ६ निर्मलाकाशा निर्मलवसना च । १० शरल्लक्ष्म्याः । ११ आच्छादित । १२ हंसपङ्क्तिः । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् सरोजलमभूत्कान्तं सरोजरजसा ततम् । सुवर्णरजसाकीर्णमिव कुट्टिमभूतलम् ॥६॥ सरः सरोजरजसा परितः स्थगितोदकम् । कादम्ब'जायाः सम्प्रेक्ष्य मुमुहुः स्थलशंकया ॥१०॥ कञ्जकिजल्कपुञ्जन पिञ्जरा षट्पदावली। सौवर्णमणिब्धेव शरदः कण्ठिका बभौ ॥११॥ सरोजलं समासे दुःमुखराः सितपक्षिणः । वदान्यकुलमुद्भूतसौगन्ध्यमिव वन्दिनः ॥१२॥ नदीनां पुलिनान्यासन् शुचीनि शरदागमे । हंसाना रचितानीव शयनानि सितांशुकः ॥१३॥ सरांसि ससरोजानि सोत्पला 'वप्रभूमयः । सहससैकता नद्यो जश्चेतांसि कामिनाम् ॥१४॥ प्रसन्नसलिला रेजु: सरस्यः सहसारसाः। कृजितैः कलहंसानां जितनपुरशिञ्जितैः ॥१५॥ नीलोत्पलेक्षणा रेजे शरच्छीः पडाकजानना। व्यक्तमाभाषमाणेव कलहंसीकलस्वनः ॥१६॥ पक्वशालिभुवो नमुकणिशाः पिञ्जरश्रियः । स्नाता "हरिद्रयवासन् शरत्कालप्रियागमे ॥१७॥ मन्दसाना मदं भेजुः सहसाना" मदं जहः । शरल्लक्ष्मी समालोक्य शुद्धयशुद्धबोरयं५ निजः ॥१८॥ की बड़े बड़े मोतियोंकी मालासे बनी हुई कण्ठमाल (गले में पहननेका हार) ही हो ॥८॥ कमलोंकी परागसे व्याप्त हुआ सरोवरका जल ऐसा सुन्दर जान पड़ता था मानो सुवर्णकी धूलिसे व्याप्त हआ रत्नजटित पथिवीका तल ही हो ॥९॥ जिसका जल चारों ओरसे कमलों की परागसे ढका हुआ है ऐसे सरोवरको देखकर कादम्ब जातिके हंसोंकी स्त्रियां स्थलका संदेह कर बार बार मोहमें पड़ जाती थी अर्थात् सरोवरको स्थल समझने लगती थीं ॥१०॥ जो भमरोंकी पंक्तियां कमलोंके केशरके समहसे पीली पीली हो गई थीं वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो सुवर्णमय मनकाओंसे गूंथा हुआ शरद् ऋतुका कंठहार ही हो ॥११।। जिस प्रकार चारण लोग प्रसिद्ध दानी पुरुषके समीप उसकी कीति गाते हुए पहुंचते हैं उसी प्रकार हंस पक्षी भी शब्द करते हुए अतिशय सुगन्धित सरोवरके जलके समीप पहुंच रहे थे ।।१२।। शरद् ऋतुके आते ही नदियोंके किनारे स्वच्छ हो गये थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो सफेद वस्त्रों से बने हुए हंसोंके बिछौने ही हों ॥१३॥ कमलोंसे सहित सरोवर, नील कमलोंसे सहित खेतोंकी भूमियां और हंसों सहित किनारोंसे युक्त नदियां ये सब कामी मनुष्योंका चित्त हरण कर रहे थे ॥१४॥ जिनमें स्वच्छ जल भरा हआ है और जो सारस पक्षियोंके जोडोंसे सहित हैं ऐसे छोटे छोटे तालाब, नुपुरोंके शब्दको जीतनेवाले कलहंस पक्षियोंके सुन्दर शब्दोंसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ।।१५॥ नीलोत्पल ही जिसके नेत्र हैं और कमल ही जिसका मुख है ऐसी शरद्ऋतुकी लक्ष्मीरूपी स्त्री कलहंसियों के मधुर शब्दोंके बहाने वार्तालाप करती हुई सी जान पड़ती थी ॥१६॥ जिनमें वाले नीचेकी ओर झुक गई हैं और जिनकी शोभा कुछ कुछ पीली हो गई है ऐसी पके चावलोंकी पृथिवियां उस समय ऐसी जान पड़ती थीं मानो शरद् कालरूपी पतिके आनेपर हल्दी आदिके उबटन द्वारा स्नान कर सुसज्जित ही बैठी हों ॥१७॥ उस शरदऋतुकी शोभा देखकर हंस हर्षको प्राप्त हए थे और मयरोंने अपना हर्ष छोड़ दिया था। सो ठीक ही है क्योंकि शुद्धि और अशुद्धिका यही स्वभाव होता है। भावार्थहंस शुद्ध अर्थात् सफेद होते हैं इसलिये उन्हें शरऋतुकी शोभा देखकर हर्ष हुआ परन्तु मयूर अशुद्ध अर्थात् काले होते हैं इसलिये उन्हें उसे देखकर दुःख हुआ। किसीका वैभव देखकर शुद्ध अर्थात् स्वच्छ हृदयवाले पुरुष तो आनन्दका अनुभव करते हैं और अशुद्ध अर्थात् मलिन स्वभाव वाले-दुर्जन पुरुष दुःखका अनुभव करते हैं, यह इनका स्वभाव ही है ।।१८।। १ कलहंसस्त्रियः । 'कादम्बः कलहंसः स्याद'इत्यभिधानात् । २ मोहयन्ति स्म । ३ रचिता । ४ जगुः। ५ हंसाः। ६ त्यागिसमूहम् । ७ सौहार्दम् । ८ केदार। ६ पुलिन । १० अपहरन्ति स्म। ११ रजन्या । १२ हंसाः। मन्दमाना ल०। १३ हर्षम् । १४ मयुराः । सहमाना ल० । १५ अयमात्मीयगुणो हि । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पविशतितम पर्व कलहंसा हसन्तीव विरुतः स्म शिखण्डिनः । अहो 'जडप्रिया यूयमिति निर्मलमूर्तयः॥१६॥ चित्रवर्णा घनाबद्धरुचयो गिरिसंश्रयाः । समं शतमुखेष्वासैबहिणः स्वोन्नति जहः ॥२०॥ 'बन्धूकैरिन्द्रगोपश्रीरातेने वनराजिष । शरल्लक्षम्येव निष्ठयतः ताम्बूलरसबिन्दुभिः ॥२१॥ विकासं बन्धुजीवेषु' शरदाविर्भवन्त्यधात् । सतीव सुप्रसन्नाशा' विपङका विशदाम्बरा ॥२२॥ हंसस्वनानकाकाशकणिशोज्ज्वलचामरा । पुण्डरीकातपत्रासोहिग्जयोत्थेव सा शरत् ॥२३॥ दिशां प्रसाधनायाधाद् वाणासन परिच्छदम् । शरत्कालो २२जिगीषोहि श्लाघ्यो बाणासनग्रहः ॥२४॥ धनावली कृशा पाण्डः प्रासीदाशा विमुञ्चती। घनागमवियोगोत्थचिन्तयेवाकुलीकृता ॥२५॥ नभः सतारमारजे विहसत्कुमुदाकरम् । कुमुदतीवनं चाभाज्जयत्तारकितं नभः ॥२६॥ निर्मल शरीरको धारण करनेवाले हंस मधुर शब्द करते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानों अहो तुम लोग जड़प्रिय-मूर्खप्रिय (पक्षमें जलप्रिय)हो इस प्रकार कहकर मयूरोंकी हँसी ही उड़ा रहे हों ।।१९।। जिनका वर्ण अनेक प्रकारका है, जिनकी रुचि-इच्छा (पक्षमें कान्ति) मेघोंमें लग रही है और जो पर्वतोंके आश्रय हैं ऐसे मयूरोंने इन्द्रधनुषोंके साथ ही साथ अपनी भी उन्नति छोड़ दी थी। भावार्थ-उस शरदऋतुके समय मयूर और इन्द्रधनुष दोनोंकी शोभा नष्ट हो गई थी ॥२०॥ वन-पंक्तियोंमें शरद् ऋतुरूपी लक्ष्मीके द्वारा थूके हुए ताम्बूलके रसके बंदोंके समान शोभा देनेवाले बन्धूक (दुपहरिया) पुष्पोंने क्या इन्द्रगोप अर्थात् वर्षाऋतुमें होनेवाले लाल रंगके कीड़ोंकी शोभा नहीं बढ़ाई थी ? अर्थात् अवश्य ही बढ़ाई थी। बन्धक पुष्प इन्द्रगोपोंके समान जान पड़ते थे ॥२१॥ जिस प्रकार निर्मल अन्तःकरणवाली, पापरहित और स्वच्छ वस्त्र धारण करनेवाली कोई सती स्त्री घरसे बाहिर प्रकट हो अपने बन्धुजनोंके विषयमें विकास अर्थात् प्रेमको धारण करती है उसी प्रकार शुद्ध दिशाओंको धारण करनेवाली कीचड़-रहित और स्वच्छ आकाशवाली शरद् ऋतुने भी प्रकट होकर बन्धुजीव अर्थात् दुपहरिया के फूलोंपर विकास धारण किया था-उन्हें विकसित किया था। तात्पर्य यह है कि उस समय दिशाएं निर्मल थीं, कीचड़ सूख गया था, आकाश निर्मल था और वनोंमें दुपहरियाके फूल खिले हुए थे ।।२२।। उस समय जो हंसोंके शब्द हो रहे थे वे नगाड़ोंके समान जान पड़ते थे, वनोंमें काशके फूल फूल रहे थे वे उज्ज्वल चमरों के समान मालूम होते थे, और तालाबोंमें कमल खिल रहे थे वे छत्रके समान सुशोभित हो रहे थे तथा इन सबसे वह शरदऋतु ऐसी जान पड़ती थी मानो उसे दिग्विजय करनेकी इच्छा ही उत्पन्न हुई हो ॥२३॥ उस शरऋतुने दिशाओं को प्रसाधन अर्थात् अलंकृत करने के लिये वाणासन अर्थात् बाण और आसन जातिके पुष्पों का समूह धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुओंको प्रसाधन अर्थात् वश करनेके लिये जिगीषु राजाको वाणासन अर्थात् धनुषका ग्रहण करना प्रशंसनीय ही है ॥२४॥ उस समय समस्त आशा अर्थात् दिशाओं (पक्षमें संगमकी इच्छाओं) को छोड़ती हुई मेघमाला कृश और पाण्डुवर्ण हो गई थी सो उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो वर्षा कालके वियोगसे उत्पन्न हुई चिन्तासे व्याकुल होकर ही वैसी हो गई हो ॥२५॥ उस शरद्ऋतुके समय ताराओंसे सहित आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो कुमुदिनियों सहित सरोवरकी हँसी ही कर रहा हो १ जलप्रिया ल०, द०, इ०, स०, अ०, प० । २ मेघकृतवाञ्छाः । ३ इन्द्रचापः । ४ बन्धुजीवकः । 'बन्धूकः . बन्धुजीवकः' इत्यभिधानात्। ५ बन्धूक-कुसुमेषु, पक्षे सुहृज्जीवेषु। ६ पुण्यागङ्नेव । ७ सुप्रसन्नदिक्, पक्षे सुप्रसन्नमानसा। सुप्रसन्नात्मा-ल०। ८ विगतकर्दमा, पक्षे दोषरहिता। ६ पक्षे निर्मलवस्त्राः । १० अलंकाराय । जयार्थं च । ११ झिण्टिकुसुमसर्जककुसुमपरिकरम् । पक्षे धनु:परिकरम् । १२ जेतुमिच्छोः । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् तारकाकुमुदाकीर्णे नभःसरसि निर्मले। हंसायते स्म शीतांशु विक्षिप्तकरपक्षतिः ॥२७॥ नभोगृहाङगणे तेनुः श्रियं पुष्पोपहारजाम् । तारकादिग्वधूहारतारमुक्ताफलत्विषः ॥२८॥ बभुनभोऽम्बुधौ ताराः स्फुरन्मुक्ताफलामलाः । करका इव मेघोघेः निहिता' हिमशीतलाः ॥२६॥ ज्योत्स्नासलिलसम्भूता इव बुद्बुदपङक्तयः । तारका रुचिमातेनुः विप्रकीर्णा नभोऽङगणे ॥३०॥ तनूभूतपयोवेणी नद्यः परिकृशा दधुः । वियुक्ता घनकालेन विरहिण्य इवाङगनाः ॥३१॥ अनुद्धता गभीरत्वं भेजुः स्वच्छजलांशुकाः । सरित्स्त्रियो धनापायाद् वैधव्यमिव संश्रिताः ॥३२॥ दिगडगना घनापायप्रकाशीभूतमूर्तयः । "व्यावहासीमिवातेनुः प्रसन्ना हंसमण्डलः ॥३३॥ कूजितः कलहंसानां निजिता इव तत्त्यजः। केकायितानि शिखिनः सर्वः कालबलाद् बली ॥३४॥ ज्योत्स्नादुकूलवसना लसन्नक्षत्रमालिका । बन्धुजीवाधरा रेजे निर्मला शरदङगना ॥३॥ ज्योत्स्ना कीर्तिमिवातन्वन् विधुर्गगनमण्डले। शरल्लक्ष्मी समासाद्य सुराजेवाद्युतत्तराम् ॥३६॥ बन्धुजीवेषु विन्यस्तरागा बाणकृतद्युति:१३ । हंसी सखीवृत्ता रजे नवोढेव' शरद्वधूः ॥३७॥ और कुमुदिनियोंसे सहित सरोवर ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंसे सुशोभित आकाश को ही जीत रहा हो ॥२६॥ तारकारूप कुमुदोंसे भरे हुए आकाशरूपी निर्मल सरोवरमें अपने किरणरूप पंखोंको फैलाता हुआ चन्द्रमा ठीक हंसके समान आचरण करता था ॥२७॥ जिनकी कान्ति दिशारूपी स्त्रियोंके हारोंमें लगे हुए बड़े बड़े मोतियोंके समान है ऐसे तारागण आकाशरूपी घरके आंगनमें फूलोंके उपहारसे उत्पन्न हुई शोभाको बढ़ा रहे थे ॥२८॥ देदीप्यमान मुक्ताफलोंके समान निर्मल तारे आकाशरूपी समद्र में ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो मेघों के समूहने बर्फके समान शीतल ओले ही धारण कर रक्खे हों ॥२९॥ आकाशरूपी आंगनमें जहां तहां बिखरे हुए तारागण ऐसी शोभा धारण कर रहे थे मानो चांदनी रूप जलसे उत्पन्न हुए बबूलोंके सम्ह ही हों ।।३०।। वर्षाकालरूपी पतिसे बिछुड़ी हुई नदियां विरहिणी स्त्रियोंके समान अत्यन्त कृश होकर जलके सूक्ष्म प्रवाहरूपी चोटियोंको धारण कर रही थीं ॥३१॥ वर्षाकालके नष्ट हो जानेसे नदीरूप स्त्रियां मानों वैधव्य अवस्थाको ही प्राप्त हो गई थीं, क्योंकि जिस प्रकार विधवाएं उद्धतता छोड़ देती हैं उसी प्रकार नदियोंने भी उद्धतता छोड़ दी थी, विधवाएं जिस प्रकार स्वच्छ (सफेद) वस्त्र धारण करती हैं उसी प्रकार नदियां भी स्वच्छ वस्त्ररूपी जल धारण कर रही थीं, और विधवाएं जिस प्रकार अगम्भीर वृत्तिको धारण करती हैं उसी प्रकार नदियां भी अगम्भीर अर्थात् उथली वृत्तिको धारण कर रही थीं ॥३२।। मेघोंके नष्ट हो जानेसे जिनकी मूर्ति आकृति प्रकाशित हो रही है ऐसी दिशारूपी स्त्रियां अत्यन्त प्रसन्न हो रही थीं और हंसरूप आभरणोंके छलसे मानो एक दूसरेके प्रति हँस ही रही थीं ॥३३॥ उस समय मयूरोंने अपनी केका वाणी छोड़ दी थी, मानो कलहंस पक्षियोंके मधुर शब्दोंसे पराजित होकर ही छोड़ दी हो, सो ठीक ही है क्योंकि समयके बलसे सभी बलवान् हो जाते हैं ॥३४॥ चांदनीरूपी रेशमी वस्त्र पहने हुए, देदीप्यमान नक्षत्रोंकी माला (पक्ष में सत्ताईस मणियोंवाला नक्षत्रमाल नामका हार) धारण किये हुए और दुपहरियाके फूल रूप अधरोंसे सहित वह निर्मल शरदऋतुरूपी स्त्री अतिशय सुशोभित हो रही थी ॥३५॥ शरद् ऋतुकी शोभा पाकर आकाशमण्डलमें चांदनीरूपी कीर्तिको फैलाता हुआ चन्द्रमा किसी उत्तम राजाके समान अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥३६॥ वह शरदऋतु नवोढ़ा स्त्रीके समान १ किरणा एव पक्षतिः मूलं यस्य । २ वर्षोपलाः ।। ३ निक्षिप्ताः । ४ पयःप्रवाहा इत्यर्थः । ५ पक्षे श्वेतस्थूलवस्त्राः। ६ विधवाया भावः । ७ परस्परहासम् । ८ हंसमण्डनाः प०, इ०, द० । हंसमण्डनात् ल०। ६ मयूररुतानि। १० तारकावली, पक्षे हारभेदः । ११ बन्धूकेषु बान्धवेषु च । १२ झिण्टि, पक्षे शर। १३ विकासः पक्षे कान्तिः। १४ नूतनविवाहिता । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पविशतितमं पर्व स्वयं' धौतमभाद् व्योम स्वयं प्रच्छालितः शशी । स्वयं प्रसादिता नद्यः स्वयं सम्माजिता दिशः ॥३८॥ शरल्लक्ष्मीमुखालोकदर्पण शशिमण्डले । प्रजादृशो धूति भेजुः असम्मष्टसमुज्ज्वले ॥३६॥ वनराजीस्ततामोदाः कुसुमाभरणोज्ज्वलाः । मधुव्रता भजन्ति स्म कृतकोलाहलस्वनाः ॥४०॥ तन्व्यो वनलता रेजुः विकासिकुसुमस्मिताः । सालका इव गन्धान्धविलोलालिकुलाकुलाः ॥४१॥ दर्पोद्धराः' खुरोत्खातभुवस्तामोकृतेक्षणाः । वृषाः प्रतिवृषालोककुपिताः प्रतिसस्वनः ॥४२॥ प्रवास्किरन्त शुडगाः वृषभा धीरनिःस्वनाः । वनस्थलीः स्थलाम्भोजमणालशकलाचिताः ॥४३॥ वृषाः ककुदसंलग्नमृदः कुमुदपाण्डराः । व्यक्ताङकस्य मृगाङकस्य लक्ष्मीभ बिमरुस्तदा ॥४४॥ क्षीरप्लवमयों कृत्स्नामातन्वाना वनस्थलीम् । प्रस्नुवाना वनान्तेषु प्रसस्नुर्गोमतल्लिकाः० ॥४॥ कुण्डोध्न्योऽमृतपिण्डेन" घटिता इव निर्मलाः । गोगृष्टयोर वनान्तेषु शरच्छिय इवारुचन्२३ ॥४६॥ सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार नवोढ़ा स्त्री बन्धुजीव अर्थात् भाईबन्धुओंपर राग अर्थात् प्रेम रखती है उसी प्रकार वह शरद्ऋतु भी बन्धुजीव अर्थात् दुपहरियाके फूलोंपर राग अर्थात् लालिमा धारण कर रही थी, नवोढा स्त्री जिस प्रकार देदीप्यमान होती है उसी प्रकार शरद् ऋतु भी बाण जातिके फूलोंसे देदीप्यमान हो रही थी और नवोढा स्त्री जिस प्रक सखियोंसे घिरी रहती है उसी प्रकार वह शरद्ऋतु भी हंसीरूपी सखियोंसे घिरी रहती थी ॥३७॥ उस समय आकाश अपने आप साफ किये हुएके समान जान पड़ता था, चन्द्रमा अपने आप धोये हएके समान मालम होता था, नदियां अपने आप स्वच्छ हुई सी जान पड़ती थी और दिशाएं अपने आप झाड बहार कर साफ की हईके समान मालम होती थीं ॥३८॥ जो शरद् ऋतुरूपी लक्ष्मीके मख देखने के लिये दर्पणके समान है और जो बिना साफ किये ही अत्यन्त उज्ज्वल है ऐसे चन्द्रमण्डलमें प्रजाके नेत्र बड़ा भारी संतोष प्राप्त करते थे ॥३९॥ जिनकी सगन्धि चारों ओर फैल रही है और जो फलरूप आभरणोंस उज्ज्वल हो रही हैं ऐसो वनपंक्तियोंको भूमर कोलाहल शब्द करते हुए सेवन कर रहे थे ॥४०॥ जो फूले हुए पुष्परूपी मन्द हास्यसे सहित थीं तथा गन्धसे अंधे हुए भमरोंके समूहसे व्याप्त होनेके कारण जो सुन्दर केशोंसे सुशोभित थीं ऐसी वनकी लताएं उस समय कृश शरीरवाली स्त्रियोंके समान शोभा पा रही थीं ॥४१॥ जो खुरोंसे पृथिवीको खोद रहे थे, जिनकी आंखें लाल लाल हो रही थी और जो दूसरे बैलोंके देखनेसे क्रोधित हो रहे थे ऐसे मदोन्मत्त बैल अन्य बैलोंके शब्द सुनकर बदले में स्वयं शब्द कर रहे थे ॥४२॥ उसी प्रकार गम्भीर शब्द करते हुए वे बैल अपने सींगोंके अग्रभागसे स्थलकमलोंके मृणालके टुकडोंसे व्याप्त हुई वनकी पृथिवीको खोद रहे थे ॥४३।। इसी तरह उस शरदऋतुमें जिनके कांधौलपर मिट्टी लग रही है और जो कुमुद पुष्पके समान अत्यन्त सफेद हैं ऐसे वे बैल स्पष्ट चिह्नवाले चन्द्रमाकी शोभा धारण कर रहे थे ॥४४॥ जिनसे अपने आप दूध निकल रहा है ऐसी उत्तम गायें वनकी सम्पूर्ण पृथिवीको दुधके प्रवाहके रूप करती हुई वनोंके भीतर जहां तहां फिर रही थीं ॥४५॥ इसी प्रकार जिनके स्तन कुण्डके समान भारी हैं और जो अमृतके पिण्डसे बनी हुईके समान अत्यन्त निर्मल हैं ऐसी तुरन्तकी प्रसूत हुई गायें वनोंके मध्यमें शरद् ऋतुकी शोभाके समान जान पडती थीं ।।४६।। १ आत्मना प्रसन्नमित्यर्थः। २ प्रसन्नीकृताः । ३ कृशाः अङ्गनाश्च । ४ उत्कृष्टाः । ५ वृषभाः । ६ किरन्ति स्म । ७ वनस्थली ल०। ८-चिताम् ल०। ६ धरन्ति स्म । १० प्रशस्तगावः । 'मतल्लिका मचिका प्रकाण्डमुद्धतल्लजौ। प्रशस्तवाचकान्यमूनि' इत्यभिधानात् । ११ पिठराधीनाः । पिठरः स्थाल्युभा कुण्डमित्यभिधानात् । “ऊधस्तु वलीबमापीनम्'। ऊधसोऽनम् इति सूत्रात् सकारस्य नकारादेशः । १२ सकृतप्रसूता गावः । 'गृष्टिः सकृत्प्रसूतिका' इत्यभिधानात् । १३ इवाभवन् ल० । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् हुम्भारवभूतो' वत्सानापियन्प्रकृतस्वनान् । पीनापीनाः पयस्विन्यः पयःपीयूषमुत्सुकाः॥४७॥ क्षीरस्यतो निजान्वत्सान् हुम्भागम्भीरनिःस्वनान् । धेनुष्याः पाययन्ति स्म गोपैरपि नियन्त्रिताः॥४८॥ प्राक्स्वीया जलदा जाताः शिखिनामप्रियास्तदा । रिक्ता जलधनापायाद् अहो कष्टा दरिद्रता ॥४६॥ 'व्यावहासीमिवातेनुः गिरयः पुष्पितैर्दुमैः । व्यात्युक्षीमिव तन्वानाः स्फुरनिसरशीकरैः ॥५०॥ प्रवृद्धवयसो रेजुः कलमा भृशमानताः । परिणामात्प्रशुष्यन्तो जरन्तः पुरुषा इव ॥५१॥ विरेजुरस"नापुष्पैः मंदालिपटलावृतः । इन्द्रनीलकृतान्तयः५ सौवर्णरिव भूषणः ॥५२॥ घनावरणनिर्मुक्ता दधुराशा दृशां मुदम् । नटिका इव नेपथ्यगृहाबडग"मुपागताः ॥५३॥ अदधुर्घनवृन्दानि मुक्तासाराणि भूधराः । सदशानीव वासांसि निष्प्रवाणीनि सानुभिः ॥५४॥ पवनाधोरणारूढा भ मुर्जीमूतदन्तिनः । सान्तर्गजा निकुञ्जषु सासारमदशीकराः ॥५॥ शुकावलीप्रवालाभचञ्चुस्तेने दिवि५ श्रियम् । हरिन्मणिपिनद्धव तोरणाली सपद्मभा॥५६॥ जिनके स्तन बहुत ही स्थूल हैं और जो हंभा शब्द कर रही हैं ऐसे दूधवाली गायें दूध पीनेके लिये उत्सुक हुए तथा बार बार हंभा शब्द करते हुए अपने बच्चोंको दूधरूपी अमृत पिला रही थीं ॥४७॥ इसी प्रकार हंभा ऐसा गंभीर शब्द करनेवाली गायें ग्वालाओंके द्वारा अलग बांध दिये जानेपर भी दूध पीने की इच्छा करनेवाले अपने बच्चोंको दूध पिला ही रही थीं ॥४८॥ जो मेघ पहले मयूरोंको अत्यन्त प्रिय थे वे ही अब शरद्ऋतुमें जलरूप धनके नष्ट हो जानेसे खाली होकर उन्हें अप्रिय हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि दरिद्रता बहुत ही कष्ट देनेवाली होती है ।।४९।। उस समय फूले हुए वृक्षोंसे पर्वत ऐसे जान पड़ते थे मानो परस्पर में हँसी ही कर रहे हों और झरते हुए झरनोंके छींटोंसे ऐसे जान पड़ते थे मानों फाग ही कर रहे हों-विनोदवश एक दुसरेके ऊपर जल डाल रहे हों ॥५०॥ कलमी जाति के धान, जो कि बहत दिनके थे अथवा जिनके समीप बहत पक्षी बैठे हए थे, जो खब नव रहे थे और जो अपने परिपाकसे जगत्के समस्त जीवोंका पोषण करते थे, वे ठीक वृद्ध पुरुषोंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥५१॥ सहजनाके वृक्ष मदोन्मत्त भूमरोंके समूहसे घिरे हुए अपने फूलोंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनके मध्यभागमें इन्द्रनील मणि लगा हुआ है ऐसे सुवर्णमय आभूषणोंसे ही सुशोभित हो रहे हों ॥५२॥ जिस प्रकार आभूषण आदि पहिननेके परदेवाले घरसे निकल कर रंगभूमिमें आई हुई नत्यकारिणी नेत्रोंको आनन्द देती है उसी प्रकार मेघोंके आवरणसे छुटी हुई दिशाएं नेत्रोंको अतिशय आनन्द दे रही थीं ॥५३॥ पर्वतोंने जो अपनी शिखरों पर जल-रहित सफेद बादलोंके समूह धारण किए थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों अंचलसहित नवीन वस्त्र ही हों ॥५४।। जिनपर वायुरूपी महावत बैठे हुए हैं, जो भीतर ही भीतर गरज रहे हैं और जो लतागृहोंमें जलकी बुदें रूपी मदधाराकी बूंदें छोड़ रहे हैं ऐसे मेघरूपी हाथी जहाँ तहाँ फिर रहे थे ॥५५।। जिनकी चोंच मूगा के समान लाल है ऐसी तोताओंकी १हँ भा इत्यनुकरणावभूतः। २ पाययन्ति स्म । ३ प्रकर्षेण कृत। ४ प्रवद्धोधसः । ५ धेनवः । ६ -मुत्सुकाम् ल०। ७ क्षीरमात्मानमिच्छन् । ८ 'धेनुष्या बन्धके स्थिता' इत्यभिधानात् । ६ परस्परहसनम् । १० परस्परसेचनम् । ११ वृद्धवयस्काः प्रवृद्धपक्षिणश्च । १२ परिपक्वात् । १३ वृद्धाः । १४ सर्जकाः । १५ मध्यरित्यर्थः । १६ नर्तक्यः । १७ अलंकारगृहात् । १८ वर्षाणि । १६ वस्तिसहितानि । 'स्त्रियां बहत्वे वस्त्रस्य दशा स्युर्वस्तयः' इत्यभिधानात् । अन्यदपि दशावर्तावस्थायां वस्त्रान्ते स्युर्दशा अपि । २० वस्त्राणि । २१ नूतनानि । 'अनाहतं निष्प्रवाणि तन्त्रकं च नवाम्बरे' इत्यभिधानात् । २२ हस्तिपक । 'अधोरणो हस्तिपकः' इत्यभिधानात् । २३ मेघ । २४ सानुषु । २५ आकाशे । २६ पद्मरागसहिता। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमं पर्ष चेतांसि 'तरणाङगोपजीविनामुद्धतात्मनाम् । पुंसां च्युताधिकाराणामिव दैन्यमुपागमन् ॥५७॥ प्रतापी भुवनस्यैकं चक्षुनित्यमहोदयः । भास्वानाक्रान्ततेजस्वी बभासे भरतेशवत् ॥५८॥ इति प्रस्पष्टचन्द्रांशुप्रहासे शरदागमे । चक्रे दिग्विजयोद्योगं चक्री चक्रपुरस्सरम् ॥५६॥ प्रस्थानभेर्यो गम्भीरप्रध्वानाः प्रहतास्तदा । श्रुता बहिभिरुद्ग्रीवैः घनाडम्बरशडाकिभिः ॥६०॥ कृतमडरगलनेपथ्यो बभारोरस्थलं प्रभुः। शरल्लक्ष्म्येव सम्भक्तं सहारहरिचन्दनम् ॥६॥ ज्योत्स्नामये दुकले च शुक्ले परिदधौ नृपः । शरच्छियोपनीते वा मदुनी दिव्यवाससी ॥६२।। प्राजानुलम्बिना ब्रह्मसूत्रेण विबभौ विभुः। हिमाद्रिरिव गड्गाम्बुप्रवाहेण तटस्पृशा ॥६३॥ "तिरीटोदप्रमूर्धासौ कर्णाभ्यां कुण्डले दधौ । चन्द्रार्कमण्डले वक्तुमिवायाते जयोत्सवम् ॥६४॥ वक्षःस्थलेऽस्य रुरुचे रुचिरः कौस्तुभो मणिः । जयलक्ष्मीसमुद्वाहमङगलाशंसिदीपवत् ॥६॥ -- --- - पंक्ति आकाशमें ऐसी शोभा बढ़ा रही थी मानो पद्मराग मणियोंकी कान्ति सहित हरित मणियों की बनी हुई वन्दनमाला ही हो ॥५६॥ जिस प्रकार अधिकारसे भूष्ट हुए मनुष्योंके चित्त दीनताको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार नावोंके द्वारा आजीविका करनेवाले उद्धत मल्लाहोंके चित्त दीनताको प्राप्त हो रहे थे । भावार्थ-शरदऋतुमें नदियोंका पानी कम हो जानेसे नाव चलानेवाले लोगोंका व्यापार बन्द हो गया था इसलिये उनके चित्त दुःखी हो रहे थे ।।५७।। उस समय सूर्य भी ठीक महाराज भरतके समान देदीप्यमान हो रहा था, क्योंकि जिस प्रकार भरत प्रतापी थे उसी प्रकार सूर्य भी प्रतापी था, जिस प्रकार भरत लोकके एकमात्र नेत्र थे अर्थात सबको हिताहितका मार्ग दिखानेवाले थे उसी प्रकार सुर्य भी लोकका एक मात्र नेत्र था, जिस प्रकार भरतका तेज प्रतिदिन बढ़ता जाता था उसी प्रकार सूर्यका भी तेज प्रतिदिन बढ़ता जाता था, और जिस प्रकार भरतने अन्य तेजस्वी राजाओंको दबा दिया था उसी प्रकार सर्यने भी अन्य चन्द्रमा तारा आदि तेजस्वी पदार्थोंको दबा दिया था-अपने तेजसे उनका तेज नष्ट कर दिया था॥५८। इस प्रकार अत्यन्त निर्मल चन्द्रमाकी किरणें ही जिसका हास्य है ऐसी शरद् ऋतुके आनेपर चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्न आगे कर दिग्विजय करनेके लिये उद्योग किया ॥५९॥ उस समय गम्भीर शब्द करते हुए प्रस्थान कालके नगाड़े बज रहे थे, जिन्हें मेघके आडम्बरकी शंका करनेवाले मयूर अपनी ग्रीवा ऊंची उठाकर सुन रहे थे ॥६०॥ उस समय जिन्होंने मंगलमय वस्त्राभूषण धारण किये हैं ऐसे महाराज भरत हार तथा सफेद चन्दन से सुशोभित जिस वक्षःस्थलको धारण किये हुए थे वह ऐसा जान पड़ता था मानो शरद्ऋतु रूपी लक्ष्मी ही उसकी सेवा कर रही हो ॥६१॥ महाराज भरतने चांदनीसे बने हुएके समान सफेद, बारीक और कोमल जिन दो दिव्य वस्त्रोंको धारण किया था वे ऐसे जान पड़ते थे माना शरदऋतुरूपी लक्ष्मीक द्वारा ही उपहारम लायं गयं हो ॥६२।। घुटनों तक लटकते हए ब्रह्मसत्रसे महाराज भरत ऐसे सशोभित हो रहे थे, जैसा कि तटको स्पर्श करनेवाले गंगा जलके प्रवाहसे हिमवान् पर्वत सुशोभित होता है ॥६३॥ मुकुट लगानेसे जिनका मस्तक बहुत ऊंचा हो रहा है ऐसे भरत महाराजने अपने दोनों कानोंमें जो कुण्डल धारण किये थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो जयोत्सवकी बधाई देनेके लिये सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डल ही आये हों ॥६४॥ भरतेश्वरके वक्षःस्थलपर देदीप्यमान कौस्तुभ मणि ऐसा सुशोभित होता था , १ द्रोण्युडुपाद्युपजीविनाम् । नदीतारकाणामित्यर्थः । ४ किरीटोदन-ल०, द०, अ०, स० । २ मङ्गलालङ्कारः। ३ सेवितम् । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् विधुबिम्बप्रतिस्पधि 'द ऽस्यातपवारणम् । तन्निभेनैन्दवं बिम्बमागत्येव सिषेविषु ॥६६॥ तदस्य रुचिमातेने धृतमातपवारणम् । चूडारत्नांशुभिभिन्नं सारुणांश्वि' पडकजम् ॥६७॥ स्वधुनीशीकरस्पधि चामराणां कदम्बकम् । 'दुधुवुर्वारनार्योऽस्य दिक्कन्या इव संश्रिताः ॥६॥ ततः स्थपतिरत्नेन निर्ममें स्यन्दनो महान् । सुवर्णमणिचित्राङगो मेरुकुञ्जश्रियं हसन ॥६॥ चक्ररत्नप्रतिस्पधिचक्रद्वितयसङगतः । बजाक्षघटितो० रेजे रथोऽस्येव मनोरथः ॥७०॥ कामगैर्वायुरहोभिः१ कुमुदोज्ज्वलकान्तिभिः । यशोवितानसंकाशेः स रथोऽयोजिर वाजिभिः ॥७॥ स तं स्यन्दनमारक्षधुक्तसारथ्यधिष्ठितम्१३ । नितम्बदेशमद्रीशः१५ सुरराडिव चक्रराट् ॥७२॥ ततः प्रास्थानिक:५ पुण्यनिर्घोषरभिनन्दितः । प्रतस्थ दिग्जयोधुक्तः कृतप्रस्थानमडगलः ॥७३॥ तदा नभोडगणं कृत्स्नं जयघोषैररुध्यत । नपांगणं च संरुद्धम् अभवत् सैन्यनायकैः ॥७४॥ महामुकुटबद्धास्तं परिवः समन्ततः। दूरात् प्रणतमूर्धानः सुरराजमिवामराः ॥७॥ प्रचचाल बलं विष्वग् प्रारुद्धपुरवीथिकम् । महायोधमयी सष्टिः अपूर्वेवाभवत्तदा ॥७६॥ मानो विजयलक्ष्मीके विवाहरूपी मंगलकी सूचना देनेवाला दीपक ही हो ॥६५॥ उन्होंने चन्द्रमण्डलके साथ स्पर्धा करनेवाले जिस छत्रको धारण किया था वह ऐसा जान पड़ता था मानो उस छत्रके बहानेसे स्वयं चन्द्रमण्डल ही आकर उनकी सेवा करना चाहता महाराज भरतने जो छत्र धारण किया था वह चूडारत्नकी किरणोंसे मिलकर ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो सूर्यको लाल किरणों सहित कमल ही हो ॥६७।। जो वारांगनाएं महाराज भरतके आस-पास गंगाके जल की बूदोंके साथ स्पर्धा करनेवाले चमरोंके समूह ढल रहीं थीं ऐसी जान पड़ती थों मानो अच्छी तरहसे आई हुई दिक्कन्याएं ही हों ॥६८।। तदनन्तर स्थपति रत्नने एक बड़ा भारी रथ तैयार किया जो कि सुवर्ण और मणियोंसे चित्र विचित्र दिखनेवाले मेरु पर्वतके लतागृहोंकी शोभाकी ओर हँस रहा था ॥६९।। वह रथ चक्ररत्नकी प्रतिस्पर्धा करनेवाले दो पहियोंसे सहित था तथा वज़के बने हुए अक्ष (दोनों पहियोंके बीच में पड़ा हुआ मजबूत लोहदंड-भौंरा) से युक्त था इसलिये महाराज भरतके मनोरथके समान बहुत ही ही अधिक सुशोभित हो रहा था ।।७०।। उस रथमें जो घोड़े जोते गये थे वे इच्छानुसार गमन करते थे, वायुके समान वेगशाली थे, कुमुदके समान उज्ज्वल कान्तिवाले थे और यशके समूह के समान जान पड़ते थे ॥७१॥ जिस प्रकार इन्द्र मेरु पर्वतके तटपर आरूढ़ होता है उसी प्रकार भरतश्वर, जिसपर योग्य सारथि (हांकनेवाला) बेठा है ऐस रथपर आरूढ़ तदनन्तर प्रस्थान समयमें होनेवाले 'जय' 'जय' आदि पूण्य शब्दोंके द्वारा जिनका अभिनन्दन किया जा रहा है, जो दिग्विजयकी समस्त तैयारियां कर चुके हैं और जिनके साथ प्रस्थानकालीन सभी मंगलाचार किये जा चुके हैं ऐसे महाराज भरतने प्रस्थान किया ।।७३॥ उस समय आकाशरूपी समस्त आंगन जय जय शब्दोंकी घोषणासे भर गया था, और राजाका आँगन सेनापतियोंसे भर गया था ॥७४॥ जिस प्रकार देव लोग इन्द्रको घेर कर खड़े हो जाते हैं उसी प्रकार दूरसे ही मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हुए महामुकुट बद्ध राजा लोग भरत को घेरे हुए चारों ओर खड़े थे ॥७५।। जिसने चारों ओरसे नगरकी समस्त गलियोंको रोक लिया है ऐसी वह सेना चलने लगी। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो यों बड़े-बड़े १ दधे ल० । २ आतपवारणव्याजेन । ३ मिश्रम् । ४ सूर्यकिरणसहितम् । ५ वीजयन्ति स्म । ६ संसृताः ल०। ७ रच्यते स्म । ८ अवयव । ६ तट । १० वरुथाङ्ग । ११ वेगवद्भिः । १२ इज्यते स्म । १३ युक्तिपरसारथिसमाश्रितम् । १४ मेरोः। १५ प्रस्थाने नियुक्तैः । १६ भटमयी। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमं पर्व पुरः पावातमाश्वीयं रथकड्याच हास्तिकम् । क्रमानिरी'युरावेष्टय सपताकं रथं प्रभोः ॥७७॥ रथ्या "रथ्याश्वसंघट्टा उत्यितैमरेणुभिः। बलक्षोदाक्षमाव्योम समुत्पेतुरिव स्वयम् ॥७॥ रौक्म रजोभिराकीणं तदा रेज नभोऽजिरम् । स्पृष्ट बालातपेनेव पटवासेन वाततम् ॥७९॥ शनैः शनर्जनैर्मुक्ता विरेजुः पुरवीथयः। कल्लोलैरिव 'वेलोत्थैः महाब्धेस्तीरभूमयः ॥८॥ पुराउनाभिरुन्मुक्ताः सुमनोजलयोऽपतन् । सौधवातायनस्थाभिः दृष्टिपातैः समं प्रभौ ॥८॥ जयेश विजयिन् विश्वं विजयस्व दिशो दश । पुण्याशिषां शतैरित्थं पौराः प्रभुमयूयुजन् ॥२॥ सम्राट् पश्यन्नयोध्यायाः परां भूति तदातनीम् । शनैः प्रतोली सम्प्रापद् रत्नतोरणभासुराम् ॥८३॥ पुरो बहिः पुरः पश्चात् समं च विभुनाऽमुना । ददृशे दृष्टिपर्यन्तम् असङखचमिव तद्बलम् ॥८४॥ जगतः प्रसवागारादिव तस्मात् पुराद् बलम् । निरियाय निरुच्छ्वासं१३ शनैरारुद्धगोपुरम् ॥८॥ किमिदं प्रलयक्षोभात् मुभितं वारिर्जलम् । किमुत त्रिजगत्सर्ग:" प्रत्यग्रोऽयं विजृम्भते ॥८६॥ इत्याशक्षकच नभोभाग्भिः सुरैः साश्चर्यमीक्षितम् । प्रससार बलं विष्वक्पुराग्निर्याय चक्रिणः ॥७॥ योद्धाओंकी एक अपूर्व सृष्टि ही उत्पन्न हुई हो ॥७६॥ सबसे पहले पैदल चलनेवाले सैनिकोंका समूह था, उसके पीछे घोड़ोंका समूह था, उसके पीछे रथोंका समूह और उसके पीछे हाथियों का समूह था। इस प्रकार वह सेना पताकाओंसे सहित महाराजके रथको घेरकर अनक्रम से निकली ॥७७॥ जिन मार्गौसे वह सेना जा रही थी वे मार्ग रथ और घोड़ोंके संघटनसे उठी हुई सुवर्णमय धूलिसे ऐसे जान पड़ते थे मानो सेनाका आघात सहने में असमर्थ होकर स्वयं आकाशमें ही उड़ गये हों ।।७८।। उस समय सुवर्णमय धूलिसे भरा हुआ आकाशरूपी आंगन ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बालसूर्यकी सुनहली प्रभासे स्पर्श किया गया हो, और सुगन्धित वर्णसे ही व्याप्त हो गया हो ॥७९।। धीरे धीरे लोग नगरकी गलियोंको छोड़कर आगे निकल गये जिससे खाली हुई ये गलियां ऐसी जान पड़ती थीं मानो ज्वारभाटासे उठी हुई लहरोंके चले जानेपर खाली हुई समुद्रके किनारे की भूमि ही हों॥८०॥ उस समय बड़े बड़े मकानोंके झरोखोंमें खड़ी हुई नगर-निवासिनो स्त्रियोंके द्वारा अपने अपने कटाक्षोंके साथ छोड़ी हुई जलियां महाराज भरतके ऊपर पड़ रही थीं ॥८१।। हे ईश, आपकी जय हो, हे विजय करनेवाले महाराज, आप संसारका विजय करें और दशों दिशाओंको जीतें; इस प्रकार सैकड़ों पुण्याशीर्वादोंके द्वारा नगरनिवासी लोग भरतकी पूजा कर रहे थे-उनके प्रति सन्मान प्रकट कर रहे थे ।।८२॥ इस प्रकार उस समय होनेवाली अयोध्याकी उत्कृष्ट विभूतिको देखने हुए सम्राट भरत धीरे धीरे रत्नोंके तोरणोंसे देदीप्यमान गोपुरद्वारको प्राप्त हुए ॥८३॥ उस समय महाराज भरतको नगरके बाहर अपने आगे पीछे और साथ साथ जहांतक दृष्टि पड़ती थी वहां तक असंख्यात सेना ही सेना दिखाई पड़ती थी ॥८४।। जगत्की उत्पत्तिके घरके समान उस अयोध्यापुरीसे वह सेना गोपुरद्वारको रोकती हुई बड़ी कठिनतासे धीरे धीरे बाहर ॥८५॥ क्या यह प्रलय कालके क्षोभसे क्षोभको प्राप्त हआ समद्रका जल है ? अथवा यह तीनों लोकोंकी नवीन सृष्टि उत्पन्न हो रही है ? इस प्रकार आशंका कर आकाशमें खड़े हुए देव लोग जिसे बड़े आश्चर्य के साथ देख रहे हैं ऐसी चक्रवर्तीकी वह सेना नगरसे निकल कर चारों ओर फैल गई॥८६-८७।। १ पदातीमा समूहः । २-कटचा ल० । ३ निर्गच्छन्ति स्म । ४ रथनियुक्तवाजी। रथाश्वः ६०,ल०, इ० । ५ उत्पतन्ति स्म । ६ स्पष्टं ल०। ७ चाततम् । ८ जलविकारोत्थैः 'अब्ध्यम्बुविकृता वेला' इत्यभिधानात् । -मपूजयन् ल० । १० सम्पदम् । ११ तत्कालजाम् । १२ गोपुरम् । १३ उच्छवासानिष्क्रान्तं यथा भवति तथा । ससङकटमिति यावत् । १४ विलोकसष्टिः । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् ततः प्राची दिशं जेतु कृतोद्योगो विशाम्पतिः। प्रययौ प्रामुखो भूत्वा चक्ररत्नमनुवजन् ॥८॥ चक्रमस्य ज्वलढ्योम्नि प्रयाति स्म पुरो विभोः । सुरैः परिष्कृत विश्वम्भास्वद्विम्बप्रभास्वरम् ॥८६॥ चक्रानयायि त जे निधीनामीशितुर्बलम् । गुरोरिच्छानुतिष्णु मुनीनामिव मण्डलम् ॥१०॥ दण्डरत्नं पुरोधाय सेनानीरग्रणीरभूत् । स्थपुटानि समीकुर्वन् स्थलदुर्गाण्ययत्नतः ॥१॥ अग्रण्या दण्डरत्नेन पथि राजपथीकृते । यथेष्टं प्रययो सैन्यं क्वचिदप्यस्खलद्गति ॥२॥ ततोऽध्वनि विशामीशः सोऽपश्यच्छारदी श्रियम् । दिशां प्रसाधनों कोतिम् आत्मीयामिव निर्मलाम् ॥३॥ सरांसि कमलामोदन् उद्वमन्ति शरच्छियः । मुखायितानि सम्प्रेक्ष्य सोऽभ्यनन्ददधीशिता ॥४॥ स हंसान सरसां तोरेष्वपश्यत् कृतशिञ्जनान् । मूणालपीथ सम्पुष्टान् शरदः पुत्रकानिव ॥६५॥ चञ्च्वा मृणालमुद्धृत्य हंसो हंस्यं समर्पयन् । राजहंसस्य हृद्यस्य महतीं धृतिमाददे ॥६६॥ सधीची वीचिसंरुद्धाम् अपश्यन् परितः सरः। कोकः १ कोकूयमानोऽस्य मनसः प्रीतिमातनोत् ॥१७॥ १३हंसयूनाब्जकिञ्जल्करजापिञ्जरितां निजाम् । वधूं विधूतां सोऽपश्यच्चक्रवाकीविशङकया ॥१८॥ तरङगैर्धवलीभूतविग्रहां कोककामिनीन् । व्यामोहादनुधावन्तं स५ जरद्धंसमैक्षत ॥६६॥ नदीपुलिनदेशेष हंससारसहारिष । शयनेष्विव तस्यासीद् धृतिः शुचिमसीमसु ॥१०॥ तदनन्तर जिन्होंने सबसे पहले पूर्व दिशाको जीतनेका उद्योग किया है ऐसे महाराज भरतने चक्ररत्नके पीछे-पीछे जाते हुए पूर्वकी ओर मुख कर प्रयाण किया ।।८८॥ सूर्यमण्डल के समान देदीप्यमान और चारों ओरसे देव लोगोंके द्वारा घिरा हुआ जाज्वल्यमान चक्ररत्न आकाशम भरतश्वरके आगे-आगे चल रहा था ।।८९।। जिस प्रकार मुनियोका समह गरुकी इच्छानुसार चलता है उसी प्रकार निधियोंके स्वामी महाराज भरतकी वह सेना चक्ररत्न की इच्छानुसार उसके पीछे पीछे चल रही थी।९०॥ दण्डरत्नको आगे कर सेनापति सबसे आगे चल रहा था और वह ऊंचे नीचे दुर्गम वनस्थलोंको लीलापूर्वक एकसा करता जाता था ॥९॥ आगे चलनेवाला दण्डरत्न सब मार्गको राजमार्गके समान विस्तृत और सम करता जाता था इसलिये वह सेना किसी भी जगह स्खलित न होती हुई इच्छानुसार जा रही थी॥९२।। तदनन्तर मार्ग में प्रजापति-भरतने दिशाओं को अलंकृत करनेवाली अपनी कीर्तिके समान निर्मल शरद् ऋतुकी शोभा देखी ।।९३।। शरद् ऋतुरूपी लक्ष्मीके मुखके समान जो सरोवर कमल की सुगन्धि छोड़ रहे थे उन्हें देखकर महाराज भरत बहुत ही प्रसन्न हुए ॥१४॥ सरोवरों के किनारेपर मधुर शब्द करते हुए और मणालरूपी मक्खन खाकर पुष्ट हाए हंसोंको भरतेश्वर ने शरदऋतुके पुत्रोंके समान देखा ।।९५।। जो हंस अपनी चोंचसे मृणालको उठाकर हंसीके लिये दे रहा था उसने, सब राजाओंमें श्रेष्ठ इन भरत महाराजके हृदय में बड़ा भारी संतोष उत्पन्न किया था ॥९६॥ जो चकवा लहरोंसे रुकी हई चकवीको न देखकर सरोवरके चारों ओर शब्द कर रहा था उसने भी भरतके मनकी प्रीतिको अत्यन्त विस्तृत किया था ।।१७।। एक तरुण हंसने कमल केशरकी धूलिसे पीली हुई अपनी हंसीको चकवी समझकर भूलसे छोड़ दिया था महाराज भरतने यह भी देखा ।।९८॥ लहरोंसे जिसका शरीर सफेद हो गया है ऐसी चकवीको हंसी समझकर और उसपर मोहित होकर एक बढ़ा हंस उसके पीछे-पीछे दौड रहा था--महाराज भरतने यह भी देखा ॥९९।। जिनकी सीमाएं अत्यन्त पवित्र हैं जो हंस तथा १ पूर्वाम् । ३ परिवृतं ल०। ३ सूर्यविम्बम् । ४ तद्भजे ल०। ५ निम्नोन्नतानि । ६ शिञ्जितान् प०, द०, ल० । ७ क्षीरनवनीत । स्वपयोनवनीतमित्यर्थः । ८ राजश्रेष्ठस्य । ६ हृदये। १० प्रियाम् । ११ सरसः समन्तात् । १२ भृशं स्वरं कुर्वाणः । १३ तरुणहंसेन । १४ अवज्ञाताम् । १५ चक्री। १६ शुचित्वस्याधिषु । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड्विंशतितमं पर्व 'रोधोलता शिखोत्सृष्टपुष्पप्रकटशोभिनीः । सरितीरभुवोऽदर्शज्जलोच्छ्वासतरडिङ् गताः ॥१०१॥ लतालयेषु रम्येषु रतिरस्य प्रपश्यतः । स्वयं गलत्प्रसूनौघर चितप्रस्तरेष्वभूत् ॥१०२॥ क्वचिल्लतागृहान्तःस्थ चन्द्रकान्त शिलाश्रितान् । स्वयशोगान संसक्तान् किन्नरान् प्रभुरैक्षत ॥१०३॥ चिल्लताः प्रसूनेषु विलीनमधुपावलीः । विलोक्य स्रस्तकेशीनां सस्मार प्रिययोषिताम् ॥ १०४ ॥ सुमनो वर्षमानः प्रीत्येवास्याधिमूर्धजम् । पवनाभूतशाखानाः प्रफुल्ला मार्गशाखिनः ॥ १०५॥ सच्छायान् सकलान् तुङगान् सर्वसम्भोग्यसम्पदः । मार्गद्रुमान् समद्राक्षीत् स नृपाननुकुर्वतः ॥ १०६ ॥ सरस्तीरभुवोऽपश्यत् सरोजरजसा तताः । सुवर्णकुट्टिमाशङकामध्वन्यहृदि तन्वतीः ॥१०७॥ बलरेणुभिरारुद्धे दोषांमन्ये' नभस्यसौ । करुणं स्वतीं वीक्षाञ्चक्रे चक्राह्वकामिनीम् ॥१०८॥ गवां गणानथापश्यद्गोष्पदारण्य चारिणः । क्षीरमेघानिवाजसं क्षरत्क्षीरप्लुतान्तिकान् ॥ १०६ ॥ सौरभेयान् स शूङ्गाग्रसमुत्वातस्थलाम्बुजान् । मृणालानि यशांसीव किरतोऽपश्यदुन्मदान् ॥ ११०॥ सारस आदि पक्षियोंसे मनोहर हैं, और जो विछी हुई शय्याओंके समान जान पड़ते हैं ऐसे नदी - किनारे के प्रदेशोंपर महाराज भरतको भारी संतोष हुआ ॥ १००॥ जो किनारेपर लगी हुई लताओं के अग्रभागसे गिरे हुए फूलों के समूहसे सुशोभित हो रही हैं और जो जलके प्रवाह से उठी हुई लहरों से व्याप्त हैं ऐसी नदियोंके किनारे की भूमि भी भरतेश्वरने बड़े प्रेमसे देखी थी ।। १०१ ।। जिनमें अपने आप गिरे हुए फूलों के समूहसे शय्याएं बनी हुई हैं ऐसे रमणीय लतागृहों को देखते हुए भरतको उनमें भारी प्रीति उत्पन्न हुई थी ॥ १०२॥ उन भरत महाराज ने कहीं कहीं पर लतागृहों के भीतर पड़ी हुई चन्द्रकान्ति मणिकी शिलाओंपर बैठे हुए और अपना यशगान करनेमें लगे हुए किन्नरों को देखा था ॥ १०३ || कहीं कहीं पर लताओंके फूलोंपर बैठे हुए भूमरों के समूहों को देखकर जिनकी चोटियां ढीली होकर नीचे की ओर लटक रही हैं ऐसी प्रिय स्त्रियों का स्मरण करता था || १०४ || जिनकी शाखाओंके अग्रभाग वायुसे हिल रहे हैं ऐसे फूले हुए मार्ग के वृक्ष मानो बड़े प्रेमसे ही भरत महाराजके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा कर रहे थे ॥१०५॥ वह भरत मार्ग के दोनों ओर लगे हुए जिन वृक्षोंको देखते जाते थे वे वृक्ष राजाओं का अनुकरण कर रहे थे क्योंकि जिस प्रकार राजा सच्छाय अर्थात् उत्तम कान्तिसे सहित होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी सच्छाय अर्थात् उत्तम छांहरीसे सहित थे, जिस प्रकार राजा सफल अर्थात् अनेक प्रकारकी आयसे सहित होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष सफल अर्थात् अनेक प्रकार के फलों से सहित थे, जिस प्रकार राजा तुङ्ग अर्थात् उदार प्रकृतिके होते हैं उसी प्रकार वृक्ष भी 'तुङ्ग अर्थात् ऊंचे थे और जिस प्रकार राजाओं की सम्पदाएं सबके उपभोगमें आती हैं उसी प्रकार उन वृक्षोंकी फल पुष्प पल्लव आदि सम्पदाएं भी सबके उपभोग में आती थीं ॥ १०६ जो सरोवरोंके किनारेकी भूमियां कमलोंकी परागसे व्याप्त हो रही थीं और इसीलिये जो पथिकों के हृदयमें क्या यह सुवर्णकी धूलियोंसे व्याप्त हैं, इस प्रकार शंका कर रहीं थीं; उन्हें भी महाराज भरत देखते जाते थे || १०७ ॥ सेनाकी धूलिसे भरे हुए और इसीलिये रात्रि के समान जान पड़नेवाले आकाशमें रात्रि समझ कर रोती हुई चकवीको देखकर महाराज भरतके हृदय में बड़ी दया उत्पन्न हो रही थी || १०८ || कुछ आगे चलकर उन्होंने जंगलोंकी गोचर भूमि में चरते हुए गायों के समूह देखे, वे गायों के समूह दूधके मेघोंके समान निरन्तर झरते हुए दूधसे अपनी समीपवर्ती भूमिको तर कर रहे थे ||१०९ || जिन्होंने अपने सींगोंके १ तटलता । "कूलं रोधश्च तीरश्च तटं त्रिषु इत्यभिधानात् । २ केशेषु । ३ रजसा-ल० । ४ आत्मानं दोषां रात्रिं मन्यत इति । ५ क्रियाविशेषणानां नपुंसकत्वं द्वितीया वक्तव्या । ६ आलुलोके । ७ गोगम्यवन | ११ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् वात्सकं क्षीरसम्पोषादिव निर्मलविग्रहम् । सोऽपश्यच्चापलस्येव परां कोटि कृतोप्लुतम् ॥११॥ स पक्वकणिशानमूकलमक्षेत्रमैक्षत । नौद्धत्यं फलयोगीति नृणां वक्तुमियोचतम् ॥११२॥ वप्रान्तर्भुवमाघातुमिवोत्पलमिवानतान्। स कैदार्येषु कलमान् वीक्ष्यानन्दं परं ययौ ॥११३॥ फलानतान् स्तम्बकरीन् सोऽपश्यद् वप्रभूमिषु । स्वजन्महेतून केदारान्नमस्यत इवावरात् ॥११४॥ आपीतपयसः प्राज्यक्षीरा लोकोपकारिणीः । पयस्विनीरिवापश्यत् प्रसूताः शालिसम्पदः ॥११॥ 'अवतंसितनीलाब्जाः कञ्जरेणुश्रितस्तनीः । इक्षुदण्डभृतोऽपश्यच्छालींश्चोत्कुर्वती स्त्रियः ॥११६॥ हारिगीतस्वनाकृष्टः वेष्टिता हंसमण्डलैः। शालिगोप्यो दृशोरस्य मुदं तेनुवंटिकाः॥११७॥ कृताध्वगोपरोधानि गीतानि दधतीः सतीः । न्यस्तावतंसाः कणिशः शालिगोपीदर्श सः ॥११८॥ सुगन्धिमुखनिःश्वासा भूमरैराकुलीकृताः। मनोऽस्य जलः शालीनां पालिकाः कलबालिकाः ॥११॥ उपाध्वं प्रकृतक्षेत्रान् क्षेत्रिणः परिधावतः । बलोपरोधरायस्तानक्षतासौ० सकौतुकम् ॥१२०॥ अग्रभागसे स्थलकमल उखाड़ डाले हैं और जो अपने यशके समान उनकी मृणालोंको जहां तहां फेंक रहे हैं ऐसे उन्मत्त बैल भी भरत महाराजने देखे थे ॥११०॥ दूधसे पालन पोषण होनेके कारण ही मानो जिनका निर्मल-सफेद शरीर है, जो चंचलताकी अन्तिम सीमाके समान जान पड़ते हैं और जो बार बार उछल-कूद रहे हैं ऐसे गायोंके बछडोंके समूह भी भरतेश्वर देखते जाते थे ॥१११॥ भरत महाराज पकी हुई बालोंसे नम्रीभूत हुए धानोंके खेत भी देखते जाते थे, उस समय वे खेत ऐसे मालूम होते थे मानो 'लोगोंको उद्धतपना फल देनेवाला नहीं है' यही कहने के लिये तैयार हुए हों ॥११२॥ जो खेतके भीतर उत्पन्न हुए कमलोंको सूंघनेके लिये ही मानो नम्रीभूत हो रहे हैं ऐसे खेतोंमें लगे हए धानके पौधोंको देखकर भरत महाराज परम आनन्दको प्राप्त हो रहे थे ॥११३॥ उन्होंने खेतकी भूमियोंमें फलोंके भारसे झुके हुए धानके उन पौधोंको भी देखा था जो कि अपने जन्म देनेके कारण खेतोंको बड़े आदरके साथ नमस्कार करते हुएसे जान पड़ते थे ॥११४॥ उन्होंने जहां तहां फैली हुई धानरूप सम्पदाओं को गायोंके समान देखा था, क्योंकि जिस प्रकार गायें जल पीती हैं उसी प्रकार धान भी जल पीते हैं (जलसे भरे हुए खेतोंमें पैदा होते हैं) जिस प्रकार गायोंमें उत्तम दूध भरा रहता है उसी प्रकार धानोंमें भी पकनेके पहले दूध भरा रहता है और गायें जिस प्रकार लोगोंका उपकार करती हैं उसी प्रकार धान भी लोगोंका उपकार करते हैं ॥११५॥ जिन्होंने नाल सहित कमलोंको अपने कर्णका आभूषण बनाया है, कमलकी पराग जिनके स्तनोंपर पड़ रही है, जो हाथमें ईखका दंडा लिये हुए हैं और जो धान रखाने के लिये 'छो छो' शब्द कर रही हैं ऐसी स्त्रियों को भी उन्होंने देखा था ।।११६॥ जो अपने मनोहर गीतोंके शब्दोंसे खिंचकर आये हुए हंसों के समूहोंसे घिरी हुई हैं ऐसी धानकी रक्षा करनेवाली नवीन स्त्रियां भरत महाराजके नेत्रोंका आनन्द बढ़ा रही थीं ॥११७।। जो पथिकोंको रोकनेवाले सुन्दर गीत गा रही हैं और जिन्होंने धानकी बालोंसे कर्णभूषण बना कर धारण किये हैं ऐसी धानकी रखानेवाले स्त्रियोंको भरत ने बड़े प्रेमसे देखा था ।।११८।। जो अपने मुखकी सुगन्धित निःश्वाससे आये हुए भूमरोंसे व्याकुल हो रही हैं ऐसी धान रखानेवाली कुलीन लड़कियां महाराज भरतके मनको हरण कर रही थीं ।।११९।। जो सेनाके लोगोंसे मार्गके समीपवर्ती खेतोंकी रक्षा करने के लिये उनके १ भुवः अन्तः अन्तर्भुवम् । २ –मेवानतान् ल०, इ०, प० । ३ सस्यक्षेत्रसमूहेषु । ४ धेनूः । ५ स वतंसित-इ० । ६ उत्कर्षान् कुर्वतीः । ७ कुलबालिकाः ल०, इ०, द०। ८ मार्गसमीपे । ६ कृत। १० क्लेशितान् । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमं पर्व १३ 'उपशल्यभुवोऽद्राक्षीशिगमानभितो विभुः । केदारलावैराकीर्णाः स भ्राम्यद्भिः कृषीवलः ॥ १२१ ॥ सोऽपश्यभिगमोपान्ते पथ: संश्यानकर्दमान् । प्रव्यक्तगोखु रक्षोदस्थपुटान तिसङकटान् ॥ १२२॥ निगमान् परितोऽपश्यद् ग्राममुख्यान् महाबलान्' । पयस्विनो जनैः सेव्यान् महारामतरूनपि ॥ १२३ ॥ ग्रामान् कुक्कुट सम्पात्यान् सोऽत्यगाद् वृतिभिर्वृतान् । 'कोशातकी लतापुष्पस्थगिताभिरितोऽमुतः ॥ १२४ ॥ कुटीपरिसरेण्वस्य धृतिरासीत् प्रपश्यतः । फलपुष्पानता वल्लीः प्रसवाढयाः सतीरपि ॥ १२५ ॥ योषितो निष्क्रमालाभिः वलयैश्च विभूषिताः । पश्यतोऽस्य मनो जहः ग्रामीणाः संश्रितावृती: ४ । १२६। १५ ऊगवीनकलशैः दध्नामपि निहित्रकैः । ग्रामेषु फलभेदैश्च तमद्राक्षुर्महत्तराः ॥१२७॥ ततो विदूरमुल्लङ्घय सोऽध्वानं पुतनावृतः । गङ्गामुपासदद् वीरः प्रयाणैः " कतिधैरपि ॥ १२८॥ हिमवद्विधूतां पूज्यां "सतामा सिन्धुगामिनीम् । शुचिप्रवाहामा कल्पवृत्ति कीर्तिमिवात्मनः ॥ १२६ ॥ २० शफरीप्रेक्षणामुद्यत्तरङगभ्रू विनर्तनाम् । वनराजी बृहच्छाटी परिधानां वधूमिव ॥१३०॥ चारों ओर दौड़ रहे हैं और सेनाके लोगों की जबर्दस्ती करनेपर खेद खिन्न हो रहे हैं ऐसे खेतों के मालिक किसानों को भी भरतेश्वरने बड़े कौतुकके साथ देखा था ।। १२० ।। जो खेत काटने वाले इधर-उधर घूमते हुए किसानोंसे व्याप्त हो रहीं हैं ऐसी प्रत्येक ग्रामोंके चारों ओरकी निकटवर्ती भूमियोंको भी भरतेश्वरने देखा था ॥१२१॥ जो स्पष्ट दिखनेवाले गायोंके खुरोंके चिह्नोंसे ऊंचे नीचे हो रहे हैं और जो अत्यन्त सकड़ हैं ऐसे कुछ कुछ कीचड़ से भरे हुए गांव के समीपवर्ती मार्गों को भी भरत महाराज देखते जाते थे ।। १२२ ।। उन्होंने ग्रामों के चारों ओर खड़े हुए महाबलवान् गांव के मुखिया लोगों को देखा था तथा पक्षी तिर्यञ्च और मनुष्यों के द्वारा सेवा करने योग्य बड़े बड़े बगीचों के वृक्ष भी देखे थे ॥ १२३॥ जो जहां तहां लौकी अथवा तुरई की लताओं के फूलों से ढकी हुई वाड़ियोंसे घिरे हुए हैं और जिनपर एकसे दूसरेपर मुरगा भी उड़कर जा सकता है ऐसे गावोंको वे दूरसे ही छोड़ते जाते थे ।। १२४ || झोपड़ियों के समीपम फल और फूलोंसे झुकी हुई फूलों सहित उत्तम लताओं को देखते हुए महाराज भरतको बड़ा आनन्द आ रहा था ।। १२५ ।। जो सुवर्णकी मालाओं और कड़ोंसे अलंकृत हैं तथा वाड़ियोंकी ओटमें खड़ी हुई हैं ऐसी गांवोंकी स्त्रियां भी देखनेवाले भरतका मन हरण कर रही थीं ।। १२६ ॥ गांवों के बड़े बड़े लोग घी के घड़, दही के पात्र और अनेक प्रकारके फल भेंट कर उनके दर्शन करते थे ।। १२७॥ तदनन्तर धीरवीर भरत सेनासहित कितनी ही मंजिलों द्वारा लम्बा मार्ग तय कर गङ्गा नदी के समीप जा पहुंचे || १२८ || वहां जाकर उन्होंने गङ्गा नदीको देखा, जोकि उनकी कीर्ति के समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार उनकी कीर्ति हिमवान् पर्वतसे धारण की गई थी उसी प्रकार गङ्गा नदी भी हिमवान् पर्वतसे धारण की गई थी, जिस प्रकार उनकी कीर्ति पूज्य और उत्तम थी उसी प्रकार गङ्गा नदी भी पूज्य तथा उत्तम थी, जिस प्रकार उनकी १ ग्रामान्तभुवः । “ग्रामान्त उपशल्यं स्यात्" इत्यभिधानात् । २ केदारैः सुनन्तीति केदारलावास्तैः । ३ मार्गान् । ४ ईषदार्द्रकर्दमान् । ५ ग्राममहत्तरान् । ६ महाफलान् द०, इ० । ७ वयस्तिरोजनैः ल० । क्षीरोपायनान् क्षीरिणश्च । महाग्राम - इत्यपि क्वचित् । e पटोरिका । 'कोशातकी ज्योत्स्निकायामपामार्गेऽपि सा भवेत्' इत्यभिधानात् । १० गृह । ११ पुत्रैराढ्या । १२ सुवर्णमालाभिः । १३ ग्रामे भवाः । १४ 'संवृतावृतीः संसृतासूती:' इत्यपि क्वचित् । १५ घृतकुम्भैः । १६ भाजनविशेषैः । १७ - सददधीरः द० । १८ कतिपयः । १६ सतीम् ल० । २० मीननेत्राम् । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् विस्तीर्णजनसम्भोग्यः कुजद्धं सालिमेखलैः। तरडगवसनः कान्तां पुलिनर्जघनरिव ॥१३॥ लोलोमिहस्तनिर्धूतपक्षिमालाकलस्वनः। किमप्यालपितुं यत्न तन्वन्ती वा तटदुमैः ॥१३२॥ क्षती न्यभदन्तानां "रोधोजवनवतिनीः । रुन्धतीमब्धिभीत्येव लसमिदुकलकः ॥१३३॥ रोमराजीमिवानीलां वनराजी विवृण्वतीम् । 'तिष्ठमानामिवावर्तव्यक्तनाभिमुदन्यते ॥१३४॥ विलोलवीचिसङवट्टाद् उत्थितां पतगावलिम् । पताकामिव बिभ्राणां लब्धां सर्वापगाजयात् ॥१३॥ समासमीनां पर्याप्तपयसं धीरनिःस्वनाम् । जगतां पावनीं मान्यां हसन्तीं गोमतल्लिकाम् ॥१३६॥ गुरुप्रवाहप्रसृतां तीर्थकामरुपासिताम् । गम्भीरशब्दसम्भूति जैनी श्रुतिमिवामलाम् ॥१३७॥ कीर्ति समुद्र तक गमन करनेवाली थी उसी प्रकार गङ्गा नदी भी समुद्र तक गमन करनेवाली थी, जिस प्रकार उनकी कीर्तिका प्रवाह पवित्र था उसी प्रकार गङ्गा नदीका प्रवाह भी पवित्र था और जिस प्रकार उनकी कीर्ति कल्पान्त काल तक टिकनेवाली थी उसी प्रकार गङ्गा नदी भी कल्पान्त काल तक टिकनेवाली थी। अथवा जो गङ्गा किसी स्त्रीके समान जान पड़ती थी, क्योंकि मछलियां ही उसके नेत्र थे, उठती हुई तरंगें ही भौहोंका नचाना था और दोनों किनारों के वनकी पंक्ति ही उसकी साड़ी थी। जो स्त्रियों के जवान भाग के समान सुन्दर किनारोंसे सहित थी, उसके वे किनारे बहुत ही बड़े थे। शब्द करती हुई हंसोंकी माला ही उनकी करधनी थी और लहरें ही उनके वस्त्र थे।-चञ्चल लहरों रूपी हाथोंके द्वारा उडाये हुए पक्षिसमूहों के मनोहर शब्दोंसे जो ऐसी जान पड़ती थी मानो किनारे के वृक्षोंके साथ कुछ वार्तालाप करने के लिये प्रयत्न ही कर रही हो ।-जो अपनी छलकती हुई लहरोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो तटरूपी नितम्ब प्रदेशपर जंगली हाथियोंके द्वारा किये हुए दातोंके घावोंको समुद्ररूप पतिके डरसे शोभायमान लहरोंरूपी वस्त्रसे ढक ही रही हो। जो दोनों ओर लगी हुई हरी भरी वनश्रेणियोंके प्रकट करने तथा साफ साफ दिखाई देनेवाली भंवरोंसे ऐसी जान पड़ती थीं मानों किसी स्त्रीकी तरह अपने समद्ररूप पतिके लिये रोमराजि और नाभि ही दिखला रही हो।-जो चंचल लहरोंके संघटनसे उड़ी हुई पक्षियोंकी पंक्तिको धारण कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो सब नदियोंको जीत लेनेसे प्राप्त हुई विजय पताकाको ही धारण कर रही हो। जो किसी उत्तम गायकी हँसी करती हुई सी जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार उत्तम गाय समांसमीना अर्थात् प्रति वर्ष प्रसव करनेवाली होती है उसी प्रकार वह नदी भी समांस-मीना अर्थात् परिपुष्ट मछलियोंसे सहित थी, जिस प्रकार उत्तम गायमें पर्याप्त पय अर्थात् दूध होता है उसी प्रकार उस नदीमें भी पर्याप्त पय अर्थात् जल था, जिस प्रकार उत्तम गाय गम्भीर शब्द करती है उसी प्रकार वह भी गम्भीर कल-कल शब्द कर रही थी, उत्तम गाय जिस प्रकार जगतको पवित्र करनेवाली है उसी प्रकार वह भी जगतको पवित्र करनेवाली थी और उत्तम गाय जिस प्रकार पूज्य होती है उसी प्रकार वह भी पूज्य थी। अथवा जो जिनवाणीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार जिनवाणी गुरु-प्रवाह अर्थात् आचार्य परम्परासे प्रसृत हुई है उसी प्रकार वह भी गुरुप्रवाह अर्थात् बड़े भारी जलप्रवाहसे प्रसृत हुई थी-प्रवाहित हुई थी। जिस प्रकार जिन वाणी तीर्थ अर्थात् धर्मकी इच्छा करनेवाले पुरुषों १ कान्तः ल० । २ वालोमि-त० । ३-वनेभः ल० । ४ तीर । ५ प्रदर्शयन्तीम् । ६ मांसभक्षकमीनसहिताम् । प्रति वर्ष गर्भ गृहणन्तीम् । 'समांसमीना सा यैव प्रतिवर्ष प्रसूयते'। ७ प्रशस्तगाम् । गोमचचिकाम् ल०, द०, इ० । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमं पर्व १५ राजहंसः कृतो 'पास्यामलङवयां विधृतायतिम् । जयलक्ष्मीमिव स्फीताम् आत्मीयामधिगामिनीम् । ।१३८ ।। विलसत्पद्मसम्भूतां जनतानन्ददायिनीम् । जगद्भोग्यामिवात्मीयां श्रियमायतिशालिनीम् ॥ १३६ ॥ विजयार्थ तटाकान्त कृतश्लाघा" सुरंहसम् । श्रभग्नप्रसरां दिव्यां निजामिव पताकिनीम् ॥१४०॥ व्यालोलोमिक रास्पृष्टः स्वतीरवनपादपैः । दधद्भिरङकुरोर्भेदम् श्राश्रितां कामुकैरिव ॥ १४१ ॥ रोघोलतालयासीनान् स्वेच्छया सुरदम्पतीन् । हसन्तीमिव सुध्वानैः शीकरोत्थविसारिभिः ॥ १४२॥ किन्नराणां कलक्वाणैः समानरुपवीणितैः । सेव्यपर्यन्तभूभाग लतामण्डपमण्डनाम् ॥१४३॥ के द्वारा उपासित होती है उसी प्रकार वह भी तीर्थ अर्थात् पवित्र तीर्थ स्थानकी इच्छा करनेवाले पुरुषों के द्वारा उपासित होती अथवा किनारेपर रहनेवाले मनुष्य उसमें स्नान आदि किया करते थे, जिस प्रकार जिनवाणी से गंभीर शब्दों की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार उससे भी गंभीर अर्थात् बड़े जोरके शब्दों की उत्पत्ति होती थी, और जिस प्रकार जिनवाणी मल अर्थात् पूर्वापर विरोध आदि दोषोंसे रहित होती है उसी प्रकार वह भी मल अर्थात् कीचड़ आदि गंदले पदार्थों से रहित थी । - अथवा जो अपनी ( भरतकी) विजयलक्ष्मी के समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार विजयलक्ष्मीकी उपासना राजहंस अर्थात् बड़े बड़े राजा लोग करते थे उसी प्रकार उस नदी की भी उपासना राजहंस अर्थात् एक प्रकारके हंस विशेष करते थे, जिस प्रकार जयलक्ष्मी का कोई उल्लंघन - अनादर नहीं कर सकता था उसी प्रकार उस नदीका भी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था, जयलक्ष्मीका आयति अर्थात् भविष्यत्काल जिस प्रकार स्पष्ट प्रकट था इसी प्रकार उसकी आयति अर्थात् लम्बाई भी प्रकट थी, जयलक्ष्मी जिस प्रकार स्फीत अर्थात् विस्तृत थी उसी प्रकार वह भी विस्तृत थी और जयलक्ष्मी जिस प्रकार समुद्र तक गई थी उसी प्रकार वह गंगा भी समुद्र तक गई हुई थी । अथवा जो भरतकी राज्यलक्ष्मी के समान मालूम होती थी क्योंकि जिस प्रकार भरतकी राज्यलक्ष्मी शोभायमान पद्म अर्थात् पद्म नामकी निधि से उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार वह नदी भी पद्म अर्थात् पद्म नामके सरोवरसे उत्पन्न हुई थी, भरतकी राज्य लक्ष्मी जिस प्रकार जनसमूहको आनन्द देनेवाली थी उसी प्रकार वह भी जनसमूहको आनन्द देनेवाली थी, भरतकी राज्यलक्ष्मी जिस प्रकार जगत् के भोगने योग्य थी उसी प्रकार वह भी जगत् के भोगने योग्य थी, और भरतकी लक्ष्मी जिस प्रकार आयति अर्थात् उत्तरकालसे सुशोभित थी उसी प्रकार वह आयति अर्थात् लम्बाईसे सुशोभित थी । अथवा जो भरतकी सेनाके समान थी, क्योंकि जिस प्रकार भरतकी सेना विजयार्थ पर्वतके तटपर आक्रमण करनेसे प्रशंसाको प्राप्त हुई थी उसी प्रकार वह नदी भी विजयार्ध पर्वतके तटपर आक्रमण करने से प्रशंसाको प्राप्त हुई थी (गङ्गा नदी विजयार्थ पर्वतके तटको आक्रान्त करती हुई बही है), जिस प्रकार भरतकी सेनाका वेग तेज था उसी प्रकार उस नदीका वेग भी तेज था । जिस प्रकार भरत की सेना के फैलावको कोई नहीं रोक सकता था उसी प्रकार उसके फैलावको भी कोई नहीं रोक सकता था और भरतकी सेना जिस प्रकार दिव्य अर्थात् सुन्दर थी उसी प्रकार वह नदी भी १ सेवाम् । २ विवृतायतीम् ल० । ३ पद्महृदये ज्ञाताम् । पक्षे निधिविशेषजाताम् । ४ आक्रमण । ५ श्लाध्यां ल०, इ० । ६ सुवेगाम् । ७ रोमाञ्चम् । ८ तीरलतागृहस्थितान् । सुस्वानैः ल । स्वस्वानः इ० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ महापुराणम् हारिभिः किन्नरोद्गीतैः श्राहूता हरिणाङगनाः । दधतीं तीरकच्छेषु' प्रसारितगलद्गलाः ॥ १४४ ॥ हृद्यैः ससारसारावंः पुलिनदिव्ययोषिताम् । नितम्बानि सकाञ्चीनि हसन्तीमिव विस्तृतैः ॥ १४५॥ चतुर्दशभिरन्वितां सहस्रैरब्धियोषिताम् । सद्धीचीनामिवोद्वीचि' बाहूनां परिरम्भणे ॥ १४६ ॥ इत्याविष्कृतसंशोभां "जाह्नवीमैक्षत प्रभुः । हिमवगिरिणाम्भोधेः प्रहितामिव कण्ठिकाम् ॥ १४७॥ मालिनीवृत्तम् शरदु हितकान्तिं प्रान्तकान्तारराजीविरचितपरिधानां सैकतारोहरम्याम् । युवतिमिव गभीरावर्तनाभि प्रपश्यन् प्रमदमतुलमूहे क्ष्मापतिः स्वः स्रवन्तीम् ॥१४८॥ सरसिजमकरन्दोद्गन्धिराधूतरोधोवन किसलय मन्दां दोलनोदृढ मान्द्यः । श्रसकृदमर सिन्धोराधुनानस्तरङ्गान् श्रहृत नृपवधूनामध्वखेदं समीरः ॥ १४६ ॥ सुन्दर थी । जो चंचल लहरों रूपी हाथोंसे स्पर्श किये गये और अंकुररूपी रोमांचोंको धारण किये हुए अपने किनारे के वनके वृक्षोंसे आश्रित थी और उससे ऐसी मालूम होती थी मानो कामी जनों से आश्रित कोई स्त्री ही हो ।- जो जलकणोंसे उत्पन्न हुए तथा चारों ओर फैलते हुए मनोहर शब्दों से अपनी इच्छानुसार किनारे परके लतागृहों में बैठे हुए देव देवांगनाओंकी हँसी करती हुई सी जान पड़ती थी । किन्नरोंके मधुर शब्दवाले गायन तथा वीणाकी झनकारसे सेवनीय किनारे की पृथिवीपर बने हुए लतागृहोंसे जो बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी । - किन्नर देवोंके मनोहर गानोंसे बुलाई हुई और सुखसे ग्रीवाको लम्बा कर बैठी हुई हरिणयों को जो अपने किनारेकी भूमिपर धारण कर रही थी । - जिनपर सारस पक्षी कतार बांधकर मनोहर शब्द कर रहे हैं ऐसे अपने बड़े बड़े सुन्दर किनारोंसे जो देवांगनाओंके करधनी सहित नितम्बों की हँसी करती हुई सी जान पड़ती थी । - जिन्होंने आलिंगन करनेके लिये तरंगरूपी भुजाएं ऊपरकी ओर उठा रखी हैं ऐसी सखियों के समान जो चौदह हजार सहायक नदियोंसे सहित है । - इस प्रकार जिसकी शोभा प्रकट दिखाई दे रही है और जो हिमवान् पर्वतके द्वारा समुद्र के लिये भेजी हुई कण्ठमाला के समान जान पड़ती है ऐसी गङ्गा नदी महाराज भरतने देखी ।। १२९ - १४७।। शरद् ऋतुके द्वारा जिसकी कान्ति बढ़ गई है, किनारे के वनोंकी पंक्ति ही जिसके वस्त्र हैं, जो बालूके टीलेरूप नितम्बों से बहुत ही रमणीय जान पड़ती हैं, गंभीर भंवर ही जिसकी नाभि है और इस प्रकार जो एक तरुण स्त्रीके समान जान पड़ती है ऐसी गङ्गा नदीको देखते हुए राजा भरतने अनुपम आनन्द धारण किया था ।। १४८ || जो कमलोंकी मकरन्दसे सुगन्धित है, कुछ कुछ कम्पित हुए किनारे के बनके पल्लवों के धीरे धीरे हिलनेसे जिसका मन्दपना प्रकट हो रहा है और जो गङ्गा नदी की तरंगों को बार-बार हिला रहा १ तीरवनेषु । ४ वीचिबाहूनां ल० । २ प्रसारितो भूत्वा सुखातिशयेनाधो गलद्गलो यासां ताः । ३ सखीनाम् । ५. गंगाम् । ६ प्राप्त । ७ संकतनितम्ब । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतितमं पर्व शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् तामाक्रान्तहोरन्मुखां' कृतरजोधूति' जगत्पावनीम् प्रासेव्यां द्विजकुञ्जरैरविरतं सन्तापविच्छेदिनीम् । जैनी कोतिमिवाततामपमलां शश्वज्जनानन्दिनीं निध्यायन् विबुधापगां निधिपतिःप्रीति परामासदत् ॥१५०॥ इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणोते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भरतराजविग्विजयोद्योगवर्णनं नाम षड्विंशतितमं पर्व ॥ है ऐसा वहांका वायु रानियोंके मार्गके परिश्रमको हरण कर रहा था ॥१४९॥ वह गङ्गा ठीक जिनेन्द्रदेवकी कीतिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्र देवकी कीर्तिने समस्त दिशाओं को व्याप्त किया है उसी प्रकार गङ्गा नदीने भी पूर्व दिशाको व्याप्त किया था, जिनेन्द्र भगवान् की कीर्तिने जिस प्रकार रज अर्थात् पापोंका नाश किया है उसी प्रकार गङ्गा नदीने भी रज अर्थात् धूलिका नाश किया था, जिनेन्द्र भगवान्की कीर्ति जिस प्रकार जगत्को पवित्र करती है उसी प्रकार गङ्गा नदी भी जगतको पवित्र करती है, जिनेन्द्र भगवानकी कीति जिस प्रकार द्विज कुंजर अर्थात् श्रेष्ठ ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्योंके द्वारा सेवित है उसी प्रकार गङ्गा नदी भी द्विज कुंजर अर्थात् पक्षियों और हाथियोंके द्वारा सेवित है, जिनेन्द्र भगवान्की कीर्ति जिस प्रकार निरन्तर संसार-भूमण-जन्य संतापको दूर करती है उसी प्रकार गङ्गा नदी भी सूर्यकी किरणोंसे उत्पन्न संतापको नष्ट करती थी और जिनेन्द्र भगवान्की कीति जिस प्रकार विस्तृत, निर्मल और सदा लोगोंको आनन्द देनेवाली है उसी प्रकार वह गङ्गा नदी भी विस्तृत, निर्मल तथा सदा लोगोंको आनन्द देती थी। इस प्रकार उस गङ्गा नदीको देखते हुए निधियोंके स्वामी भरत महाराज परम प्रीतिको प्राप्त हुए थे ॥१५०॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टि लक्षण महापुराण संग्रहके हिन्दी-भाषानुवादमें भरतराजकी दिग्विजयके उद्योगको वर्णन करनेवाला छब्बीसवां पर्व पूर्ण हुआ। १ दिङमुखाम् । २ रजोनाशनम्। ३ पक्षिगजैः विप्रादिमुख्यैश्च । ४ अवलोकयन् । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व अथ व्यापारयामास दशं तत्र' विशाम्पतिः। प्रसन्नः सलिलैः पाद्यं वितरन्त्यामिवात्मनः ॥१॥ व्यापारितदशं तत्र प्रभुमालोक्य सारथिः। प्राप्तावसरमित्यूचे वचश्चेतोऽनुरञ्जनम् ॥२॥ इयमालादिताशेषभुवना देवनिम्नगा। रजो विधुन्वती भाति भारतीव स्वयम्भुवः ॥३॥ पुनातीयं हिमाद्रिं च सागरं च महानदी । प्रसूतौ च प्रवेशे च गम्भीरा निर्मलाशया ॥४॥ इमां वनगजाः प्राप्य निर्वान्त्येते मदश्च्युतः । मुनीन्द्रा इव सद्विद्या गम्भीरां तापविच्छिदम् ॥५॥ इतः पिबन्ति वन्येभाः पयोऽस्याः कृतनिःस्वनाः । इतोऽमी पूरयन्त्येनां मुक्तासाराः शरद्धनाः ॥६॥ अस्याः प्रवाहमम्भोधिः धत्ते गाम्भीर्ययोगतः। असोढं विजयान तुङगेनाप्यचलात्मना ॥७॥ अस्याः पयःप्रवाहेण नूनमधिवितृड् भवेत्। क्षारेण पयसा स्वेन दह्यमानान्तराशयः ॥८॥ पद्म हवाद्धिमवतः प्रसन्नादिव मानसात् । प्रसूता पप्रथे पृथ्ख्यां शुद्धजन्मा हि पूज्यते । ६॥ व्योमापगामिमां प्राहुवियत्तः पतितां क्षितौ । गङगादेवीगृहं विष्वगाप्लाव्य स्वजलप्लवैः ॥१०॥ अथानन्तर वहांपर जो स्वच्छ जलसे अपने लिये (भरतके लिये) पादोदक प्रदान करती हुई सी जान पड़ती थी ऐसी गङ्गा नदीपर महाराज भरतने अपनी दृष्टि डाली ॥१॥ उस समय साथिन महाराज भरतका गङ्गापर दष्टि डाल हए देखकर चित्तको प्रसन्न करनेवाल निम्नलिखित समयानुकूल वचन कहे ॥२॥ हे महाराज ! यह गङ्गा नदी ठीक ऋषभदेव भगवान्की वाणीके समान जान पड़ती है, क्योंकि जिस प्रकार ऋषभदेव भगवान्की वाणी समस्त संसारको आनन्दित करती है उसी प्रकार यह गङ्गा नदी भी समस्त लोकको आनन्दित करती है और ऋषभदेव भगवान्की वाणी जिस प्रकार रज अर्थात् पापोंको नष्ट करनेवाली है उसी प्रकार यह गङ्गा नदी भी रज अर्थात् धूलिको नष्ट कर रही है ॥३॥ गंभीर तथा निर्मल जलसे भरी हुई यह गङ्गा नदी उत्पत्तिके समय तो हिमवान् पर्वतको पवित्र करती है और प्रवेश करते समय समुद्रको पवित्र करती है ॥४॥ जिस प्रकार गंभीर और सन्तापको नष्ट करनेवाली सद्विद्या (सम्यग्ज्ञान) को पाकर बडे बडे मनि लोग मद अर्थात अहंकार छोड कर मुक्त हो जाते हैं उसी प्रकार ये जंगली हाथी भी इस गंभीर तथा संतापको नष्ट करनेवाली गङ्गा नदीको पाकर मद अर्थात गण्डस्थलसे झरनेवाले तोय विशेषको छोड़कर शान्त हो जाते हैं ॥५॥ इधर ये वनके हाथी शब्द करते हुए इसका पानी पी रहे हैं और इधर जलकी वृष्टि करते हए ये शरदऋतूके मेघ इसे भर रहे हैं ॥६॥ अत्यन्त ऊंचा और सदा निश्चल रहनेवाला विजयाध पर्वत भी जिसे धारण नहीं कर सका है ऐसे इसके प्रवाहको गम्भीर होनेसे समुद्र सदा धारण करता रहता है ।।७।। संभव है कि अपने खारे जलसे जिसका अन्तःकरण निरन्तर जलता रहता है ऐसा समुद्र इस गङ्गा नदीके जलके प्रवाहसे अवश्य ही प्यासरहित हो जायेगा ॥८॥ यह गङ्गा प्रसन्न मनके समान निर्मल हिमवान् पर्वतके पद्म नामक सरोबरसे निकलकर पृथिवीपर प्रसिद्ध हुई है सो ठीक ही है क्योंकि जिसका जन्म शुद्ध होता है वह पूज्य होता ही है ॥९॥ यह गङ्गा अपने जलके प्रवाहसे गङ्गादेवीके घरको चारों ओरसे भिगोकर आकाश १ गंगायाम् । २ उत्पत्तिस्थाने। ३ सुखिनो भवन्ति मुक्ताश्च । ४ मदच्यतः ल० । ५ परमागमरूपाम् । ६ सोढुमशक्यम् । दत्तुमशक्यमित्यर्थः । ७ वियतः ल०, इ०, द० । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व • बिति हिमवानेनां शशांककरनिर्मलाम् । प्रा सिन्धोः प्रसूता कीर्तिमिव स्वां लोकपावनीम् ॥११॥ वनराजीद्वयनेयं विभाति' तटवर्तिना। वाससोरिव युग्मेन विनीलेन कृतश्रिया ॥१२॥ स्वतटाश्रयिणी धत्ते हंसमालां कलस्वनाम् । काञ्चीमिवेयमम्भोजरजःपिञ्जरविग्रहाम् ॥१३॥ नवीसखीरियं स्वच्छ भणालशकलामलाः । सम्बिति स्वसात्कृत्य सख्यं श्लाघ्यं हि तादृशम् ॥१४॥ राजहंसरियं सेव्या लक्ष्मीरिव विभाति ते। तन्वती जगतः प्रीतिमलवयमहिमा परैः ॥१५॥ वनवेदीमियं धत्ते समुत्तुङगां हिरण्मयीम् । प्रज्ञिामिव तवालङ्घयां नभोमार्गविलअघिनीम् ॥१६॥ इतः प्रसीद देवेमां शरल्लक्ष्मी विलोकय । बनराजिषु संरूढां सरित्सु सरसीषु च ॥१७॥ इमे सप्तच्छदाः पौष्पं विकिरन्ति रजोऽभितः। पटवासमिवामोदसंवासितहरिन्मुखम् ॥१८॥ बाणः कुसमबाणस्य बाणरिव विकासिभिः । ह्रियते कामिनां चेतो रम्यं हारिन कस्य वा ॥१९॥ विकसन्ति सरोजानि सरस्सु सममुत्पलैः । विकासिलोचनानीव वदनानि शरच्छियः ॥२०॥ पडाकजेषु विलीयन्ते भमरा गन्धलोलुपाः । कामिनीमुखपद्मेषु कामुका इव काहलाः ॥२१॥ मनोजशरपुडाखाब्ज : पक्षमधुकरा इमे । विचरन्त्यब्जिनीषण्डे मकरन्दरसोत्सुकाः ॥२२॥ से अर्थात् हिमवान् पर्वतके ऊपरसें पृथिवीपर पड़ी है इसलिये इसे आकाशगङ्गा भी कहते हैं ॥१०॥ जो चन्द्रमाकी किरणों के समान निर्मल है, समुद्रतक फैली हुई है और लोकको पवित्र करनेवाली है ऐसी इस गङ्गाको यह हिमवान् अपनी कीर्तिके समान, धारण करता है ॥११॥ यह गङ्गा अपने तटवर्ती दोनों ओरके वनोंसे ऐसी सुशोभित हो रही है मानो इसने नीले रंगके दो वस्त्र ही धारण कर रक्खे हों ॥१२।। कमलोंके परागसे जिनका शरीर पीला पीला हो गया है और जो मनोहर शब्द कर रही हैं ऐसी हंसोंकी पंक्तियोंको यह नदी इस प्रकार धारण करती है मानो मन्द-मन्द शब्द करती हुई सुवर्णमय करधनी ही धारण किये हो ॥१३॥ यह नदी स्वच्छ मृणालके टुकडोंके समान निर्मल अन्य सखी स्वरूप सहायक नदियोंको अपने में मिलाकर धारण करती है सो ठीक ही है क्योंकि ऐसे पुरुषोंकी मित्रता ही प्रशंसनीय कहलाती है ।।१४॥ अनेक राजहंस (पक्षमें बड़े बड़े राजा) जिसकी सेवा करते हैं, जो संसारको प्रेम उत्पन्न करनेवाली है, और जिसकी महिमा भी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसी यह गङ्गा आपकी राजलक्ष्मीके समान सुशोभित हो रही है ॥१५॥ जो अत्यन्त ऊंची है, सोनेकी बनी हुई है, आकाश-मार्गको उल्लंघन करने वाली है और आपकी आज्ञाके समान जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसी वनवेदिकाको यह गङ्गा नदी धारण कर रही है ॥१६॥ हे देव, प्रसन्न होइए और इधर वनपंक्तियों, नदियों और तालाबोंमें स्थान जमाये हुई शरद् ऋतु की इस शोभाको निहारिये ॥१७॥ ये सप्तपर्ण जातिके वृक्ष अपनी सुगन्धिसे समस्त दिशाओं को सुगन्धित करनेवाले सुगन्धिचूर्णके समान फूलोंकी परागको चारों ओर बिखेर रहे हैं ॥१८॥ इधर कामदेवके बाणोंके समान फूले हुए बाण जातिके वृक्षों द्वारा कामी मनुष्योंका चित्त अपहृत किया जा रहा है सो ठीक ही है क्योंकि रमणीय वस्तु क्या अपहृत नहीं करती ? अथवा किसे मनोहर नहीं जान पड़ती ? ॥१९॥ इधर तालाबोंमें नील कमलोंके साथ साथ साधारण कमल भी विकसित हो रहे हैं और जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो जिनमें नेत्र विकसित हो रहे हैं ऐसे शरद्ऋतुरूपी लक्ष्मीके मुख ही हों ॥२०॥ इधर ये कुछ कुछ अव्यक्त शब्द करते हुए सुगन्ध के लोभी भूमर कमलोंमें उस प्रकार निलीन हो रहे हैं जिस प्रकार कि चाटुकारी करते हुए कामी जन स्त्रियोंके मुखरूपी कमलोंमें निलीन-आसक्त-होते हैं ॥२१॥ जो मकरन्द रसका पान १ बिभर्ति ल०।२ धृतथिया ल०, द०, इ० । ३ स्वच्छमृणाल-ल०।४ तादृशाम् ल०।५ पक्ष राजश्रेष्ठः । ६ प्रसिद्धाम् । ७ झिण्टिभिः । ८ अपहृतम् । ९ आश्लिष्यन्ति । निलीयन्ते ल०। १० अस्फुटवचनाः । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् रूषिताः कञ्जकिञ्जल्कः प्राभान्त्येते मधुव्रताः । सुवर्णकपिरिङगैः कामाग्नेरिव मुर्मुराः ॥२३॥ स्थलेषु स्थलपद्मिन्यो विकसन्त्यश्चकासति । शरच्छियो जिगीषन्त्या दृष्यशाला' इवोत्थिताः ॥२४॥ स्थलाब्जशङकिनी हंसी सरस्यब्जरजस्तते । संहृत्य पक्षविक्षेपं विशन्तीयं निमज्जति ॥२५॥ हंसोऽयं निजशाबाय चञ्च्वोद्धृत्य लसद्विसम् । पोथबुद्ध्या ददात्यस्मै शशासककरकोमलम् ॥२६॥ 'कृतयत्नाः प्लवन्तेऽमी राजहंसाः सरोजले। सरोजिनीरजःकीर्णे धूतपक्षाः शनैः शनैः ॥२७॥ चक्रवाकी सरस्तीरे तरडगः स्थगिताममम् । अपश्यन् करुणं रौति चक्राहः साधुलोचनः ॥२८॥ अभ्येति बरटाशडकी धार्तराष्ट्रः१० कृतस्वनम् । सरस्तरडगशुभ्राङगी कोककान्तामनिच्छतीम् ॥२६॥ अनुगडरगातटं भाति साप्तपर्णमिदं वनम् । समनोरेणुभिर्योम्नि वितानश्रियमावषत् ॥३०॥ मन्दाकिनीतरगोत्थपवनोऽध्वश्रमं हरन् । शनैः स्पृशति नोडल्गानि रोधोवनविधूननः ॥३१॥ प्रातिथ्यमिव नस्तन्वन् हतगडगाम्बुशीकरः१५ । अभ्येति पवमानोऽयं बनवीथीविधूनयन् ॥३२॥ अगोष्पदमिदं देव देवैरध्युषितं वनम् । लतालयविभात्यन्तः१८ कुसुमप्रस्तराञ्चितैः ॥३३॥ करनेके लिये उत्कण्ठित हो रहे हैं ऐसे ये भूमर कामदेवके बाणोंकी मूठके समान आभावाले अपने पंखोंसे कमलिनियोंके समूहमें जहां तहां विचरण कर रहे हैं घूम रहे हैं ॥२२॥ जिनके अंगोपांग कमलकी केशरसे रूषित होनेके कारण सुवर्णके समान पीले पीले हो गये हैं ऐसे ये भूमर कामरूपी अग्निके स्फुलिङ्गोंके समान जान पड़ते हैं ॥२३॥ जगह जगह पृथिवीपर फूले हुए स्थल-कमलिनियोंके पेड़ ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाली शरद्ऋतुरूपी लक्ष्मीके खड़े हुए कपड़ेके तम्बू ही हों ॥२४॥ जो कमलोंकी परागसे व्याप्त हो रहा है ऐसे सरोवरमें कमलको स्थलकमल समझती हुई यह हंसी पंखोंके विक्षेपको रोककर अर्थात् पंख हिलाये बिना ही प्रवेश करती है और पानीमें डब जाती है ॥२५॥ यह हंस चन्द्रमाकी किरणोंके समान कोमल और देदीप्यमान मृणालको अपनी चोंचसे उठाकर और क्षीर-सहित मक्खनके समान कोई पदार्थ समझकर अपने बच्चेके लिये दे रहा है ॥२६॥ कमलिनीके परागसे भरे हुए तालाबके जलमें ये हंस धीरे धीरे पंख हिलाते हुए बड़े प्रयत्नसे तैर रहे हैं ॥२७॥ तालाबके तीरपर तरंगोंसे तिरोहित हुई चकवीको नहीं देखता हुआ यह हंस आंखोंमें आंसू भरकर बड़ी करुणाके साथ रो रहा है ।।२८॥ संभोगकी इच्छा करनेवाला यह शब्द करता हुआ हंस, तालाबकी तरंगोंसे जिसका शरीर सफेद हो गया है ऐसी चकवी के सन्मुख जा रहा है जब कि वह चकवी इस हंसकी इच्छा नहीं कर रही है ॥२९॥ गङ्गा नदी के किनारे किनारे यह सप्तपर्ण जातिके वृक्षोंका वन ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो अपने फलोंकी परागसे आकाशमें चंदोवाकी शोभा ही धारण कर रहा हो ॥३०॥ मार्गकी थकावट को दूर करता हुआ और किनारेके वनोंको हिलाता हुआ यह गङ्गाकी लहरोंसे उठा हुआ पवन हम लोगोंके शरीरको धीरे धीरे स्पर्श कर रहा है ॥३१॥ वनकी पंक्तियोंको हिलाता हुआ यह वायु ग्रहण की हुई गङ्गाके जलकी बूंदोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो हम लोगोंका अतिथि-सत्कार करता हुआ ही आ रहा हो ॥३२॥ हे देव, जो गायोंके संचारसे रहित है अर्थात् अत्यन्त दुर्गम १ आच्छादिताः । २ कनकवत् पिङगलैः । ३ विस्फुल्लिङगाः । ४ पटकुटयः । 'दूष्यं वस्त्रे च तद्गृहे'। ५ सक्षीरनवनीतबुद्ध्या । ६ कृतयत्नं ल०, द०, इ०, अ०, ५०, स०। ७ स्तनिताम् आच्छादिताम् । ८ आलोकयन् । ६ हंसकान्तेति शडकावान् । “वरटा हंसकान्ता स्यात् वरटा वरलापि च" इति वैजयन्ती । १० सितेतरचञ्चुचरणवान् हंसः । 'राजहंसास्तु ते चञ्चुश्चरणः लोहितः सिताः । मलिनमल्लिकाक्षास्तै धार्तराष्ट्राः सितेतरैः' इत्यभिधानात् । ११ कृतस्वनः द०, ब०, ल० । कृतस्वनाम् अ०। १२ अस्माकम् । १३ तटवन । १४ अतिथित्वम् । १५ शीकरैः ल०, प०, इ० । १६ अभिमुखमागच्छति । १७ प्रमाणरहितम् । प्रवेष्टुमशक्यं वा । १८ विभात्यतैः इ०, ल०, द०। १६ शयन । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व मन्दारवनवीथीनां सान्द्रच्छायाः समाश्रिताः । चन्द्रकान्तशिलास्वेते रंरम्यन्ते नभःसदः ॥३४॥ अहो तटवनस्यास्य रामणीयकमद्भुतम् । 'अवधूतमिजावासा परिरंसन्तेऽत्र यत्सुराः ॥३॥ मनोभवनिवेशस्य लक्ष्मीरत्र वितन्यते । सुरदम्पतिभिः स्वरम् प्रारब्धरतिविभूमैः ॥३६॥ इयं निषुबनासक्ताः' सुरस्त्रीरतिकोमलाः । हसतीव तरङगोत्थः शीकरैरमरापगा ॥३७॥ इतः किन्नरसङगीतम् इतः सिद्धोपवीणितम् । इतो विद्याधरोनृत्तम् इतस्तद्गतिविभूमः ॥३८॥ नृत्तमप्सरसां पश्यन् शृण्वंस्तद्गीतनिःस्वनम् । वाजिवक्त्रोऽयमुद्ग्रीवः सममास्ते स्वकान्तया ॥३६॥ "निष्पर्यायं बनेऽमुष्मिन् ऋतुवर्गो विवर्धते । परस्परमिव द्रष्टुम् उत्सुकायितमानसः ॥४०॥ अशोकतारत्रायं तनुते पुष्पमञ्जरीम् । लाक्षारक्तः खगस्त्रीणां चरणरभिताडितः ॥४१॥ 'स्कोकिलकलालापमुखरीकृतदिङमुखः । चूतोऽयं मजरीपत्ते मदनस्येव तीरिकाः॥४२॥ चम्पका विकसन्तोऽत्र० कुसुमतौ वितन्वति । प्रदीपानिव पुष्पौघान् दधतीमे मनोभुवः ॥४३॥ सहकारेष्वमी मत्ता विरुवन्ति' मधुव्रताः। विजिगीषोरनडागस्य काहला इव पूरिताः ॥४४॥ कोकिलानकनिःस्वानः अलिज्यारवजम्भितैः । अभिषेण यतीवात्र मनोभूर्भुवनत्रयम् ॥४॥ है और जो देवोंके द्वारा अधिष्ठित है अर्थात् जहां देव लोग आकर क्रीड़ा करते हैं ऐसा यह वन फूलोंके बिछौनोंसे सुशोभित इन लतागृहोंसे अतिशय सुशोभित हो रहा है ॥३१।। इधर मन्दार वृक्षोंकी वन-पंक्तियोंकी घनी छाया में बैठे हुए ये देव लोग चन्द्रकान्त मणियोंकी शिलापर बार-बार क्रीड़ा कर रहे हैं ॥३४॥ अहा, इस किनारेके वनकी सुन्दरता केसी आश्चर्यजनक है कि देव लोग भी अपने अपने निवासस्थान छोड़कर यहां क्रीड़ा करते हैं ॥३५।। जिन्होंने अपनी इच्छानुसार रति-क्रीड़ा प्रारम्भ की है ऐसे देव देवांगनाओंके द्वारा यहां कामदेवके घरकी शोभा बढ़ाई जा रही है। भावार्थ देव देवांगनाओंकी स्वच्छंद रतिक्रीडाको देखकर मालूम होता है कि मानो यह कामदेवके रहनेका घर ही हो ॥३६॥ यह गङ्गा अपनी तरंगोंसे उठी हुई जलकी बूंदोंसे ऐसी जान पड़ती है मानो संभोग करने में असमर्थ होकर दीनता भरे अस्पष्ट शब्द करनेवाली देवांगनाओंकी हंसी ही कर रही हो ॥३७॥ इधर किन्नरोंका संगीत हो रहा है, इधर सिद्ध लोग वीणा बजा रहे हैं, इधर विद्याधरियां नृत्य कर रही हैं और इधर कुछ विद्याधरियां विलासपूर्वक टहल रही हैं ॥३८।। इधर यह किन्नर अपनी कान्ता के साथ साथ अप्सराओंका नृत्य देखता हुआ, और उनके संगीत शब्दोंको सुनता हुआ सुखसे गला ऊंचा कर बैठा है ॥३९॥ परस्परमें एक दूसरेको देखनेके लिये जिसका मन उत्कण्ठित हो रहा है ऐसा ऋतुओंका समूह इस वनमें एक साथ इकट्ठा होता हआ बढ़ रहा है ॥४०॥ लाखसे रंगे हुए विद्याधरियोंके चरणोंसे ताड़ित हुआ यह अशोक वृक्ष इस वनमें पुष्प-मंजरियों को धारण कर रहा है ॥४१॥ कोकिलोंके आलापसे जिसने समस्त दिशाओंको वाचालित कर दिया है ऐसा यह आमवृक्ष कामदेवकी आंखोंकी पुतलियोंके समान पुष्प-मंजरियोको धारण कर रहा है ॥४२॥ वसन्तऋतुके फैलनेपर इस वनमें जो चम्पक जातिके वृक्ष विकसित हो रहे हैं और फूलोंके समूह धारण कर रहे हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो कामदेवके दीपक ही धारण कर रहे हों ।।४३।। इधर ये मदोन्मत्त भूमर आम् वृक्षोंपर ऐसा शब्द कर रहे हैं मानो सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाले कामदेवरूपी राजाके बाजे ही बज रहे हों ॥४४॥ कोयलों १ अवज्ञात । २ रन्तुमिच्छन्ति । ३ यस्मात् कारणात् । ४ शक्ताः ल०, इ० । ५ रतिकाहलाः ल०, द०, इ० । ६ नृत्यम् अ०, इ० । ७ युगपत् । निष्पर्यायो प०, ल०, द०, अ०, स०। ८ पुंस्कोकिलानामालापः ल०। । बाणाः। तारकाः ल०। १० विकसन्त्यत्र ल०, द०, इ०, अ०, ५०, स० । ११ वसन्तकाले। १२ विस्तृते सति । अविवक्षित कर्मकोऽकर्मक इत्यकर्मकत्वमत्र । १३ दधतोऽमी ल०, द०, इ०, अ०, प०, स० । १४ ध्वनन्ति । १५ सेनया अभियाति । णिज्बहुलं कृञादिषु णिज् । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ महापुराणम् निचुलः सहकारेण विकसन्नत्र माधवीम् । तनोति लक्ष्मीमभूणाम् अहो प्रावृश्रिया समम् ॥४६॥ माधवीस्तबकेष्वत्र माधवोऽद्य विजम्भते । वनलक्ष्मीप्रहासस्य लीलां तन्वत्सु विश्वतः ॥४७॥ वासन्त्यो विकसन्त्येता वसन्तर्तुस्मितश्रियम् । तन्वानाः कुसुमामोदः प्राकुलीकृतषट्पदाः ॥४८॥ मल्लिकाविततामोदैविलोलीकृतषट्पदः । पादपेषु पदं धत्ते शुचिः पुष्पशुचिस्मितः॥४६॥ कदम्बामोदसुरभिः केतकीधूलिधूसरः । तापात्ययानिलो देव नित्यमत्र विज़म्भते ॥५०॥ माद्यन्ति कोकिलाः शश्वत् सममत्र शिखण्डिभिः । कलहंसोकलस्वानः सम्मूछित विकूजिताः ॥५१॥ कूजन्ति कोकिला मत्ताः केकायन्ते कलापिनः । उभयस्यास्य वर्गस्य हंसा: प्रत्यालपन्त्यमी ॥५२॥ इतोऽमी किन्नरीगीतम अनुकूजन्ति षट्पदाः । सिद्धोपवीणितान्यष निहनुतेऽन्यभतस्वनः ॥५३॥ जितनूपुरझडकारम् इतो हंसविकूजितम् । इतश्च खेचरीनृत्यम् अनुनृत्यच्छिखाबलम् ॥५४॥ इतश्च संकतोत्सङगे सुप्तान् हंसान् सशावकान् । प्रातः प्रबोधयत्युद्यन्१३ खेचरीनपुरारवः ॥५५॥ इतश्च रचितानल्पपुष्पतल्पमनोहराः। चन्द्रकान्तशिलागर्भा सुरैर्भोग्या लतालयाः ॥५६॥ के मधुर शब्दरूपी नगाड़ों और भूमरोंकी गुंजार रूप प्रत्यंचाकी टंकार ध्वनिसे यहां ऐसा मालूम होता है मानो कामदेव तीनों लोकोंको जीतनेके लिये सेना सहित चढ़ाई ही कर रहा हो ॥४५॥ अहा, कैसा आश्चर्य है कि आमवृक्षके साथ साथ फूलता हुआ यह निचुल जातिका वृक्ष इस वनमें वर्षाऋतुकी शोभाके साथ साथ वसन्त ऋतुकी भारी शोभा बढ़ा रहा है ॥४६॥ इधर इस वनमें चारों ओरसे वन-लक्ष्मीके उत्कृष्ट हास्यकी शोभा बढ़ानेवाले माधवीलता के गुच्छोंपर आज वसन्त बड़ी वृद्धिको प्राप्त हो रहा है ।।४७।। जो अपने विकाससे वसन्त ऋतुक हास्यकी शोभा बढ़ा रही हैं और जो फलोंकी संगन्धिसे भमरोंको व्याकूल कर रही हैं ऐसी ये वसन्तमें विकसित होनेवाली माधवीलताएं विकसित हो रही हैं फल रही हैं ॥४८॥ जिसने मालतीकी फैली हुई सुगन्धिसे भूमरोंको चंचल कर दिया है और फूल ही जिसका पवित्र हास्य है ऐसा यह ग्रीष्मऋतु वृक्षोंपर पैर रख रहा है अपना स्थान जमा रहा है ॥४९।। हे देव, कदम्ब पुष्पोंकी सुगन्धिसे सुगन्धित तथा केतकीकी धूलिसे धूसर हुआ यह वर्षाऋतु का वायु इस वनमें सदा बहता रहता है ॥५०॥ इस वनमें मयूरोंके साथ साथ कोयल सदा उन्मत्त रहते हैं और कल-हंसियों (वदकों) के मनोहर शब्दोंके साथ अपना शब्द मिलाकर बोलते हैं ॥५१॥ इधर उन्मत्त कोकिलाएं कुह कुह कर रही हैं, मयूर केका वाणी कर रहे हैं और ये हंस इन दोनोंके शब्दोंकी प्रतिध्वनि कर रहे हैं ।।५२।। इधर ये भूमर किन्नरियोंके द्वारा गाये हुए गीतोंका अनुकरण कर रहे हैं और इधर यह कोयल सिद्धोंके द्वारा बजाई हुई वीणाके शब्दोंको छिपा रहा है ॥५३॥ इधर नूपूरोंकी झंकारको जीतता हुआ हंसोंका शब्द हो रहा है, और इधर जिसका अनुकरण कर मयूर नाच रहे हैं ऐसा विद्याधरियोंका नृत्य हो रहा है ॥५४॥ इधर बालूके टीलोंकी गोदमें अपने बच्चों सहित सोये हुए हंसोंको प्रातःकालके समय यह विद्याधरियोंके नूपुरोंका ऊंचा शब्द जगा रहा है ॥५५॥ इधर जो बहुतसे फूलोंसे बनाई हुई शय्याओंसे मनोहर जान पड़ते हैं, जिनके मध्यमें चन्द्रकान्त मणिको शिलाएं पड़ी १ हिज्जुलः । 'निचुलो हिज्जुलोऽम्बुजः' इत्यभिधानात् । २ वसन्ते भवाम् । 'अलिमुक्तः पुण्ड्रकः स्याद् वासन्ती माधवी लता' इत्यभिधानात् । एतानि पुण्ड्रदेशे वसन्तकाले बाहुलेन जायमानस्य नामानि । ३ वासन्तीगुच्छकेषु। 'स्याद् गुच्छकस्तु स्तबकः' इत्यभिधानात् । ४ ग्रीष्मः । ५ पुष्पाण्येव शुचिस्मित यस्य सः। ६ ईषत्पाण्डुः । 'ईषत्पाण्डुस्तु धूसरः' इत्यभिधानात । ७ वर्षाकालवायुः । ८ मिश्रित । ६ केकां कुर्वन्ति । १० प्रत्युत्तरं कुर्वन्ति। ११ अपलापं कुरुते। १२ अनुगतं नृत्यन शिखाबलो यस्य । १३-त्युच्चैः प० । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व इतीवं वनमत्यन्तरमणीयः परिच्छदः। स्वर्गाद्यानगतां प्रीति जनयेत् स्वःसदा सदा ॥५७॥ बहिस्तटवनादेतद् वृश्यते काननं महत् । नानाद्रुमलतागुल्मवीरुद्भिरतिदुर्गमम् ॥५८॥ वृष्टीनामप्यगम्प्रेऽस्मिन् वने मुगकदम्बकम् । नानाजातीयमुद्भान्तं सैन्यक्षोभात् प्रधावति ॥५६॥ इदमस्मबलक्षोभाद् उत्त्रस्तमुगसङकुलम् । वनमाकुलितप्राणमिवाभात्यन्धकारितम् ॥६०॥ गजयूथमितः कच्छाद् अन्धकारमिवाभितः। विश्लिष्टं बलसङक्षोभाद् अपसर्पत्यतिद्रुतम् ॥६१॥ शनैः प्रयाति सजिघन्- दिशः प्रोत्क्षिप्तपुष्करः । स महाहिरिवादीन्द्रो भद्रोऽयं गजयूथपः ॥६२॥ महाहिरयमायाम मिमान इव भूरुहाम् । श्वसनायच्छते" कच्छाद ऊर्वीकृतशरीरकः ॥६३॥ "शयुपोता निकुञ्जषु पुजीभूता वसन्त्यमी। वनस्येवान्त्रसन्तानाः चमूक्षोभाद्विनिःसुताः ॥६४॥ अयमेकचरः पोत्रसमुत्खातान्तिकस्थलः१२ । रुणद्धि वर्त्म सैन्यस्य वराहस्तीवरोषणः ॥६॥ सैनिकरर्यमारुद्धः१३ पाषाणलकुटादिभिः । व्याकुलीकुरुते" सैन्यं गण्डो५ गण्ड६ इव स्फुटम् ॥६६॥ प्राणा इव वनादस्माद् विनिष्कामन्ति सन्तताः। सिंहा बहुदवज्वाला धुन्वानाः केसरच्छटाः ॥६७॥ हुई हैं और जो देवोंके उपभोग करने योग्य हैं ऐसे लतागृह बने हुए हैं ॥५६।। इस प्रकार यह वन अत्यन्त रमणीय सामग्रीसे देवोंके सदा नन्दन वनकी प्रीतिको उत्पन्न करता रहता है ॥५७॥ इधर किनारेके वनके बाहर भी एक बड़ा भारी वन दिखाई दे रहा है जो कि अनेक प्रकारके वृक्षों, लताओं, छोटे छोटे पौधों और झाड़ियोंसे अत्यन्त दुर्गम है ॥५८॥ जिसमें दृष्टि भी नहीं जा सकती ऐसे इस वनमें सेनाके क्षोभसे घबड़ाया हुआ यह अनेक जातिके मृगों का समूह बड़े जोरसे दौड़ा जा रहा है ॥५९॥ जो हमारी सेनाके क्षोभसे भयभीत हुए हरिणों से व्याप्त है तथा जिसमें जीवों के प्राण आकुल हो रहे हैं ऐसा यह वन अन्धकारसे व्याप्त हुए के समान जान पड़ता है ॥६०॥ इधर सेनाके क्षोभसे अलग अलग हुआ यह हाथियोंका झण्ड गङ्गा किनारेके जलवाले प्रदेशसे अन्धकारके समान चारों ओर बड़े वेगसे भागा जा रहा है ॥६॥ हाथियोंके झुण्डकी रक्षा करनेवाला यह भद्र गजराज सूंड़को ऊंचा उठाता हुआ तथा दिशाओंको सूंचता हुआ धीरे धीरे ऐसा जा रहा है मानो शेषनाग सहित सुमेरु पर्वत ही जा रहा हो ॥६२॥ जिसने अपने शरीरके ऊर्ध्वभागको ऊंचा उठा रक्खा है ऐसा यह बड़ा भारी सर्प जलवाले प्रदेशसे सांस लेता हुआ इस प्रकार आ रहा है मानो वृक्षोंकी लम्बाईको नापता हुआ ही आ रहा हो ॥६३।। इधर इस लतागृहमें इकट्ठ हुए ये अजगरके बच्चे इस प्रकार श्वास ले रहे हैं मानो सेनाके क्षोभसे वनकी अंतड़ियोंके समह ही निकल आये हों ॥६४॥ जो अकेला ही फिरा करता है, जिसने अपनी नाकसे समीपके स्थल खोद डाले हैं, और जो अत्यन्त क्रोधी है ऐसा यह शूकर सेनाका मार्ग रोक रहा है ॥६५।। सेनाके लोगोंने जिसे पत्थर लकड़ी आदिसं रोक रक्खा है ऐसा यह गंड अर्थात छोटे पर्वतके समान दिखनेवाला गंडा हाथी स्पष्ट रूपसे सेनाको व्याकुल कर रहा है॥६६॥ जो दावानलकी ज्वालाके समान पीले और विस्तृत गर्दनपरके बालोंके समूहोंको हिला रहे हैं ऐसे ये सिंह इस वनसे इस प्रकार १ नाकिनाम् । २ प्रतानिनीलताभिः । 'लता प्रतानिनी वीरुत् गुल्मिन्युपलमित्यपि' इत्यभिधानात् । ३ बहुजलप्रदेशात् । 'जलप्रायमनूपं स्यात् पुंसि कच्छस्तथाविधः।' इत्यभिधानात् । ४ विभक्तम् । ५ आघ्राणयन् । ६ प्रमिति कुर्वन्निव । ७ दीर्षीभवति । यमुघ्नः स्वेंगे चाजाः" इत्यात्मनेपदी।-नागच्छते ल०, इ०। ८ अजगरशिशवः । ६ निकुञ्जऽस्मिन् ल०, द०, इ०। १० पुरीतत् । ११ एकाकी। १२ मुखाग्र । 'मुखाग्रे कोडहलयोः पोत्रम्' इत्यभिधानात्। 'योत्रष्पोहलक्रोडमुखे त्रट्' इति सूत्रेण सिद्धिः । १३ वेष्टितः । १४ आकुली-ल०। १५ खड्गीमृगः । १६ गण्द्रशल इव । १७ दवज्वालसदृशाः । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ महापुराराष्ट्र गुग्गुलूनां वनादेष महिषो धनकर्बुरः । निर्याति मृत्युदंष्ट्राभविषाणाग्रानि भीषणः ॥ ६८ ॥ लद्वालधयो लोलजिह्वा व्यालोहितेक्षणाः । व्याला' बलस्य सङ्क्षोभम् श्रमी तन्वन्त्यनाकुलाः ॥६६॥ शरभः" खं समुत्वत्य पतनुत्तापितोऽपि सन् । नैष दुःखासिकां वेद चरणैः पृष्ठवर्तिभिः ॥ ७० चमरोऽयं ' 'चमूरोधाद् विद्रुतो द्रुतमुत्पतन् । क्षोभं तनोति सैन्यस्य वर्षो रूपीच" दुर्धरः ॥७१॥ शशः शशस्त्रयं १२ देव सैनिकैरनन द्रुतः । शरणायेव भीतात्मा म"ध्येसैन्यं निलीयते ॥७२॥ सारङगोऽयं तनुच्छायाकल्माषितवनः शनैः । प्रयाति शृङ्गभारेण शाखिनेव प्रशुष्यता ॥७३॥ दक्षिणेर्मतया" विष्वगभिधावन्त्यपीक्षिता" । प्रजानुपालनं न्याय्यं तवाचष्टे मुगप्रजा" ॥ ७४ ॥ कलापी बर्हभारेण मन्दं मन्वं व्रजत्यसौ । केशपाशश्रियं तन्वन् वनलक्ष्म्यास्तनूदहः ॥७ नेत्रावलीमिवातन्वन् वनभूम्याः सचन्द्रकैः । कलापिनामयं सङघो विभात्यस्मिन् वनस्थले ॥७६॥ "सीतां रथाङगानां स्वनमाकर्णयन् मुहुः । हरिणानामिवं यूथं नापसर्पति वर्त्मनः " ॥७७॥ निकल रहे हैं मानो उसके प्राण ही निकल रहे हों ॥ ६७ ॥ जो मेघके समान कर्बुर वर्ण है, जिसके सींगका अग्रभाग यमराजकी दाढ़ के समान है तथा जो अत्यन्त भयंकर है ऐसा यह भैंसा इस गुगुलके वनसे बाहर निकल रहा है ||६८|| जिनकी पूंछ हिल रही है, जिह्वा चंचल हो रही है और नेत्र अत्यन्त लाल हो रहे हैं ऐसे ये सिंह आदि क्रूर जीव स्वयं व्याकुल न होकर ही सेना my क्षोभ बढ़ा रहे हैं ।। ६९ ।। यह अष्टापद आकाश में उछलकर यद्यपि पीठके बल गिरता है तथापि पीठपर रहनेवाले पैरोंसे यह दुःखका अनुभव नहीं करता । भावार्थ अष्टापद नामका एक जंगली जानवर होता है उसके पीठपर भी चार पांव होते हैं । जब कभी वह आकाश में छलांग मारनेके बाद चित्त अर्थात् पीठके बल गिरता है तो उसे कुछ भी कष्ट नहीं होता क्योंकि वह अपने पीठपरके पैरोंसे संभलकर खड़ा हो जाता है ||७०|| जो मूर्तिमान् अहंकारके समान है, दुर्जेय है और सेनासे घिर जानेके कारण जल्दी जल्दी छलांग मारता हुआ इधर-उधर दौड़ रहा है ऐसा यह मृग सेनाका क्षोभ बढ़ा रहा है ॥७१॥ हे देव, यह खरगोश दौड़ रहा है, यद्यपि सैनिकोंने इसका पीछा नहीं किया है तथापि यह डरपोंक होनेसे इधर-उधर दौड़कर शरण ढूंढने के लिये आपकी सेनाके बीच में ही कहीं छिप जाता है || ७२ || जिसने अपने शरीरकी कान्तिसेवनको भी काला कर दिया है ऐसा यह कृष्णसार जातिका मृग सूखे हुए वृक्षके समान अनेक शाखाओंवाले सींगों के भारसे धीरे धीरे जा रहा है ॥७३|| देखिये, दाहिनी ओर घाव लगने से जो चारों ओर चक्कर लगा रहा है ऐसा यह हरिणोंका समूह मानो आपसे यही कह रहा है कि आपको सब जीवों का पालन करना योग्य है || ७४ ॥ जो अपनी पूंछके द्वारा वनलक्ष्मी के केशपाशकी शोभा को बढ़ा रहा है ऐसा यह मयूर पूंछके भारसे धीरे धीरे जा रहा है ॥ ७५ ॥ इधर इस वनस्थलमें यह मयूरोंका समूह ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो अपनी पूंछ परके चन्द्रकोंसे वनकी पृथिवी रूपी स्त्रीके नेत्रोंके समूह की शोभा ही बढ़ा रहा हो ॥ ७६ ॥ इधर देखिये, चलते हुए रथके पहिये के शब्दको बार बार सुनता हुआ यह हरिणोंका समूह मार्ग १ कौशिकानाम् । 'कुम्भोरुखलकं क्लीबे कौशिको गुग्गुलुः पुरः' इत्यभिधानात् । २ चलत् । ३ दुष्टमृगाः । ४ निर्भीताः । ५ अष्टापदः । ६ ऊर्ध्वमुखचरणो भूत्वा । ७ जानाति । 5 व्याघूः । C सेनानिरोधात् । १० धावमानः । ११ रूपी च ल० । १२ 'शश प्लुतगती' उत्प्लुत्य गच्छन् । १३ अनुगतः । १४ सैन्यमध्ये | १५ अन्तर्हितो भवति । विलीयते अ०, इ० । १६ शबलितः । १७ दक्षिणभागे कृतव्रणतया । 'दक्षिणे गतया विष्वगभिधावन् प्रवीक्षताम् । प्रजानुपालनं न्याय्यं तवाचष्टे मृगव्रजः ।।' ल० । १८ सैनिकैरवलोकिताः । १९ मृगसमूहः । २० चीत्कारं कुर्वताम् । क्रीडोs कूजे' इति अकूजार्थ तङविधानात् कूजार्थे परस्मैपदी । २१ वर्त्मनः ल० । दूरतः अ० । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितम पर्व हरिणीप्रेक्षितेष्वेताः पश्यन्ति सकुतूहलम् । स्वां नेत्रशोभा कामिन्यो बहिबर्हेषु मूर्धजान् ॥७॥ इत्यनाकुलमेवेदं संन्यैरप्याकुलीकृतम् । वनमालक्ष्यते विश्वग् असम्बाधमगद्विजम् ॥७९॥ जरठोऽप्यातपो नायम् इहास्मान् देव बाधते । वने महातरुच्छाया नैरन्तर्यानुबन्धिनि ॥८॥ इमे वन[मा भान्ति सान्द्रच्छाया मनोरमाः । त्वद्भक्त्य' वनलक्ष्म्येव मण्डपा विनिवेशिताः॥८॥ सरस्यः स्वच्छसलिला वारितोष्णास्तटब्रुमैः। स्थापिता वनलक्ष्म्येव प्रपा भान्ति क्लमच्छिंदः ॥८२॥ बहवाणासनाकीर्णमिदं खगिभिराततम् । सहा स्तिकमपर्यन्तं वनं युष्मद्वलायते ॥८॥ इत्थं वनस्य सामृद्ध्यं निरूपयति सारयौ। वनभूमिमतीयाय सम्राडविदितान्तराम्॥४॥ तदाश्वीयखरोद्धाता उत्थिता वनरणवः । दिशा मुखेषु संलग्नाः तेनुर्यवनिकाश्रियम् ॥८॥ सादिना वारवाणानि" स्यूतान्यपि सितांशुकः । काषायाणीव जातानि ततानि वनरेणुभिः॥८६॥ वनरेणुभिरालग्नः जटीभूतानि योषितः । स्तनांशकानि कृच्छे ण बधुरध्वश्रमालसाः ॥८७॥ कुम्भस्थलीषु संसक्ताः करिणामध्वरेणवः । सिन्दूरश्रियमातेनुः धातुभूमिसमुत्थिताः ॥८॥ से एक ओर नहीं हट रहा है ॥७७॥ ये स्त्रियां हरिणियोंके नेत्रोंमें अपने नेत्रोंकी शोभा बड़े कौतूहलके साथ देख रही हैं और हरिणोंकी पूंछोंमें अपने केशोंकी शोभा निहार रही हैं ॥७८॥ जिसमें हरिण पक्षी आदि सभी जीव एक दूसरेको बाधा किये बिना ही निवास कर रहे हैं ऐसा यह वन यद्यपि सैनिकोंके द्वारा व्याकुल किया गया है तथापि आकुलतासे रहित ही प्रतीत हो रहा है ॥७९॥ हे देव, जो बड़े बड़े वृक्षोंकी घनी छायासे सदा सहित रहता है ऐसे इस वनमें रहनेवाले हम लोगोंको यह तीव्र घाम कुछ भी बाधा नहीं कर रहा है ॥८०॥ ये घनी छाया वाले वनके मनोहर वृक्ष ऐसे जान पड़ते हैं मानो बनलक्ष्मीने आपकी भक्ति (सेवा) करनेके लिये मण्डप ही लगा रक्खे हों ॥८१॥ किनारे परके वृक्षोंसे जिनकी सब गर्मी दूर कर दी गई है ऐसे स्वच्छ जलसे भरे हुए ये छोटे छोटे तालाब ऐसे मालूम होते हैं मानो वनलक्ष्मीने क्लेश दूर करनेवाली प्याऊ ही स्थापित की हों ॥८२॥ हे प्रभो, यह वन आपकी सेना के समान जान पड़ता है क्योंकि जिस प्रकार आपकी सेना बहुतसे बाणासन अर्थात् धनुषोंसे व्याप्त है उसी प्रकार यह वन भी बाण और असन जातिके वक्षोंसे व्याप्त है, जिस प्रका की सेना खड्गी अर्थात् तलवार धारण करनेवाले सैनिकोंसे भरी हुई है उसी प्रकार यह वन भी खड्गी अर्थात् गेंडा हाथियोंसे भरा हुआ है, जिस प्रकार आपकी सेना हाथियोंके समूहसे सहित है उसी प्रकार यह वन भी हाथियोंके समहसे सहित है और जिस प्रकार आपकी सेनाका अन्त नहीं दिखाई देता उसी प्रकार इस वनका भी अन्त नहीं दिखाई देता ॥८३॥ इस प्रकार सारथिके वनकी समृद्धिका वर्णन करते रहनेपर सम्राट भरत उस वनभूमिको इस तरह पार कर गये कि उन्हें उसकी लम्बाईका पता भी नहीं चला ।।८४।। उस समय घोड़ोंके समूहके खुरों के आघातसे उठी हुई वनकी धूलि समस्त दिशाओंमें व्याप्त होकर परदेकी शोभा धारण कर रही थी ॥८५॥ घुडसवारोंके कवच, यद्यपि ऊपरसे सफेद वस्त्रोंसे ढके हुए थे तथापि वनकी धूलिसे व्याप्त होने के कारण ऐसे मालूम पड़ते थे मानो कषाय रंगसे रंगे हुए ही हों ।।८६।। मार्गक परिश्रमसे अलसाती हई स्त्रियां वनकी धलि लगनेसे भारी हए स्तन ढंकनेवाले वस्त्रों को बड़ी कठिनाईसे धारण कर रही थीं ॥८७॥ गेरू रंगकी भूमिसे उठी हुई मार्गकी धूलि १ लोचनेषु । २ पक्षी । ३ प्रवृद्धः । ४ तव भजनाय । ५ पानीयशालिकाः । 'प्रपा पानीयशालिका' इत्यभिधानात् । ६ झिण्डि सर्जक, पक्षे चाप । ७ गण्डमगः,पक्षे आयुधिकः । ८ उभयत्रापि गजसमूहम् । है अशातान्तरमवधिर्यस्मिन्नत्ययकर्मणि । १० अश्वारोहकाणाम्। 'अश्वारोहस्तु सादिनः' इत्यभिधानात् । ११ कञ्चुकाः। 'कञ्चुको वारवाणोऽस्त्री' इत्यभिधानात्। १२ उतानि । १३ कषायरञ्जितानि । १४ गैरिक । ४ , Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ महापुराणम् ततो 'मध्यन्दिनेऽभ्यर्णे दिदीपे तीव्रमंशुमान् । विजिगीषुरिवारूढप्रतापः शुद्ध मण्डलः ॥८६॥ 'सरस्तीरतरुच्छायाम् श्राश्रयन्ति स्म पत्रिणः अरदातपसन्तापात् सकुचत्पत्र' सम्पदः ॥ ६०॥ हंसाः कलमषण्डेषु पुञ्जीभूतान् स्वशावकान् । पक्षैराच्छादयामासुः प्रसोढजरठातपान् ॥ ६१ ॥ वन्याः स्तम्बेरमा भेजुः सरसीरवगाहितुम् । मदस्रुतिषु तप्तासु मुक्ता मधुकरव्रजः ॥ ६२॥ शाखाभङर्गः कृतच्छायाः प्रयान्तो गजयूथपाः । ' शाखोद्धारमिवातन्वन् खरांशोः करपीडिताः ॥६३॥ यूथं वनवराहाणाम् उपर्युपरि पुञ्जितम् । तदा प्रविश्य 'वेशन्तम् प्रधिशिश्ये सकर्दमम् ॥ ६४ ॥ मृणालैरङगमावेष्टय स्थिता हंसा विरेजिरे । प्रविष्टाः शरणायेव शशाङ्ककरपञ्जरम् ॥६५॥ चक्रवाकयुवा भेजे घनं शैवलमाततम् । सर्वाङगलग्नमुष्णालुः विनीलमिव कञ्चुकम् ॥६६॥ पुण्डरीकातपत्रेण कृतच्छायोऽब्जिनीवने । राजहंसस्तदा भेजे हंसीभिः सह मज्जनम् ॥६७॥ विभङ्गैः कृताहारा मृणालैरवगुण्ठिता:' । विसिनोपत्रतल्पेषु शिश्यिरे हंसशावकाः ॥६८॥ इति शारदिके तीव्रं तन्वाने तापमातपे । पुलिनेषु प्रतप्तेषु न हंसा धृतिमादधुः ॥६६॥ हाथियोंके गण्डस्थलोंमें लग कर सिन्दूरकी शोभा धारण कर रही थी ॥८८॥ तदनन्तर मध्याह्न का समय निकट आनेपर सूर्य अत्यन्त देदीप्यमान होने लगा । उस समय वह सूर्य किसी विजिगीषु राजाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार विजिगीषु राजा प्रताप ( प्रभाव ) धारण करता है उसी प्रकार सूर्य भी प्रताप ( प्रकृष्ट गर्मी ) धारण कर रहा था और जिस प्रकार विजिगीषु राजाका मण्डल (स्वदेश) शुद्ध अर्थात् आन्तरिक उपद्रवोंसे रहित होता है उसी प्रकार सूर्यका मण्डल (बिम्ब) भी मेघ आदिका आवरण न होनेसे अत्यन्त शुद्ध ( निर्मल) था ।।८९।। शरद् ऋतुके घामके संतापसे जिनके पंखोंकी शोभा संकुचित हो गई है ऐसे पक्षी सरोवरोंके किनारेके वृक्षोंकी छायाका आश्रय लेने लगे ॥९०॥ जो मध्याह्नकी गर्मी सहन करने में असमर्थ हैं और इसीलिये जो कमलोंके समूहमें आकर इकट्ठे हुए हैं ऐसे अपने बच्चोंको हंस पक्षी अपने पंखोंसे ढँकने लगे || ११ || मदका प्रवाह गर्म हो जानेसे जिन्हें भ्रमरोंके समूह ने छोड़ दिया है ऐसे जंगली हाथी अवगाहन करनेके लिये सरोवरोंकी ओर जाने लगे ॥ ९२ ॥ सूर्य की किरणोंसे पीड़ित हुए हाथी वृक्षोंकी डालियां तोड़ तोड़कर अपने ऊपर छाया करते हुए जा रहे थे और उनसे ऐसे मालूम होते थे मानो शाखाओं का उद्धार ही कर रहे हों ॥९३॥ उस समय जंगली शूकरोंका समूह कीचड़ सहित छोटे छोटे तालाबोंमें प्रवेश कर परस्पर एक दूसरे के ऊपर इकट्ठे हो शयन कर रहे थे ।। ९४ ।। अपने शरीरको मृणालके तन्तुओंसे लपेटकर बैठे हुए हंस ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अपनी रक्षा करनेके लिये चन्द्रमाकी किरणोंसे बने हुए पिंजड़े में ही घुस गये हों ।। ९५ ।। जो उष्णता सहन करने में असमर्थ है ऐसे किसी तरुण चकवाने अपने सर्व शरीरमें लगे हुए, मोटे मोटे तथा विस्तृत शैवालको धारण कर रक्खा था और उससे वह ऐसा मालूम होता था मानो नीले रंगका कुरता ही धारण कर रहा हो ॥९६॥ जिसने कमलिनियों के वनमें सफेद कमलरूप छत्रसे छाया बना ली है ऐसा राजहंस उस मध्याह्न के समय अपनी हंसियों के साथ जलमें गोते लगा रहा था ।। ९७ ।। जिन्होंने मृणालके टुकड़ोंका आहार किया है और मृणालके तन्तुओंसे ही जिनका शरीर ढका हुआ है ऐसे हंसों के बच्चे कमलिनी के पत्ररूपी शय्या पर सो रहे थे ।। ९८ ।। इस प्रकार शरद् ऋतुका घाम तीव्र संताप फैला रहा १ मध्याह्नकाले । २ पक्षिणः ल० । ३ पक्ष । ४ शाखाखण्डैः । ५ पल्लवानि गृहीत्वा आक्रोशम् । ६ पल्वलम् । अल्पसर इत्यर्थः । “वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरः' इत्यभिधानात् । ७ उष्णमसहमानः । 'शीतोष्णत्रयादशः आलुः' । ८ आच्छादिता । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितमं पर्व मध्यस्थोऽपि तदा तीव्र तताप तरणिर्भुवम् । नूनं तीवप्रतापानां माध्यस्थ्यमपि तापकम् ॥१०॥ स्वेदबिन्दुभिराबद्धजालकानि' नुपस्त्रियः । वदनान्यूहरब्जिन्यः पद्मानीवाम्बुशीकरैः ॥१०॥ नृपवल्लभिकावक्त्रपडाकजेष्वपुषच्छियम् । धर्मबिन्दूद्गमो निर्यल्लावण्यरसपूरवत् ॥१०२॥ गलधर्माम्बुबिन्दूनि मुखानि नपयोषिताम् । अवश्यायततानीव राजीवानि विरेजिरे ॥१०३॥ नपाङगनामुखाब्जानि धर्मबिन्दुभिराबभुः । मुक्ताफलद्रवीभूतैरिवालकविभूषणः ॥१०४॥ रथवाहा रथानहुः प्रायस्ताः फेनिलर्मुखैः। तीवं तपति तिग्मांशौ समेऽपि प्रस्खलत्खुराः ॥१०॥ हस्ववृत्तखुरास्तुङगाः तनुस्निग्धतनूरुहाः । पृथ्वासना महावाहाः प्रययुर्वायुरंहसः ॥१०६॥ महाजवजुषो वक्त्राद् उद्वमन्तः खुरानिव । महोरस्काः स्फुरत्प्रोथा' द्रुतं जग्मुर्महाहयाः ॥१०७॥ समुच्छितपुरो भागाः शुद्धावर्ता मनोजवाः। अपर्याप्तेषु मार्गेषु वृतमीयुस्तुरङगमाः ॥१०॥ मेधासत्वजवोपेता विनीताश्चटलक्रमाः। गल्हमाना इव स्प्रष्टुं महीमश्वा द्रुतं ययुः ॥१०॥ प्रश्वेभ्योऽपि रयेभ्योऽपि पत्तयो वेगितं.२ ययुः। सोपानकै:१३ पदैः स्थाणुकण्टकोपललडिघनः ॥११०॥ था और उससे तपे हुए नदियोंके किनारोंपर हंसोंको संतोष नहीं हो रहा था ।।९९।।उस समय सूर्य यद्यपि मध्यस्थ था, आकाशके बीचोंबीच स्थित था, पक्षपात रहित था तथापि वह पृथिवीको बहुत ही संतप्त कर रहा था सो ठीक ही है क्योंकि तीव्र प्रतापी पदार्थोंका मध्यस्थ रहना भी संताप करनेवाला होता है ।। १००॥ जिस प्रकार कमलिनियां (कमलकी लताएं) जलकी बूंदोंसे सुशोभित कमलोंको धारण करती हैं उसी प्रकार महाराज भरतकी स्त्रियां पसीनेकी बूंदोंसे जिनपर मोतियोंका जाल-सा बन रहा है ऐसे अपने मुख धारण कर रही थीं ॥१०१।। रानियोंके मुख-कमलोंपर जो पसीनेकी बूंदें उठी हुई थीं वे निकलते हुए सौन्दर्य रूपी रसके प्रवाहके समान शोभाको पुष्ट कर रही थीं ॥१०२।। जिनसे पसीनेकी बूंदें टपक रही हैं ऐसे रानियोंके मुख ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो ओंसकी बूंदोंसे व्याप्त हुए कमल ही हों ॥१०३।। जिन पसीनेकी बूंदोंसे रानियोंके मुख-कमल सुशोभित हो रहे थे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो केशपाशको अलंकृत करनेवाले मोती ही पिघल पिघलकर तरल रूप हो गये हों ॥१०४।। उस समय सूर्य बड़ी तेजीके साथ तप रहा था इसलिये जो घोड़े रथोंको ले जा रहे थे उनके मख परिश्रमसे खल गये थे, उनमें फेन निकल आया था और उनके खुर समान जमीनपर भी स्खलित होने लगे थे ॥१०५॥ जिनके खुर छोटे और गोल हैं, जिनपर छोटे और चिकने रोम हैं, जो बहुत ऊंचे हैं, जिनका आसन अर्थात् पीठ बहुत बड़ी है, और जिनका वेग वायुके समान है ऐसे बड़े बड़े उत्तम घोड़े भी जल्दी जल्दी दौड़े जा रहे थे ॥१०६॥ जो तीव्र वेगसे सहित हैं, जो अपने आगेके खुरोंको मुखसे उगलते हुएके समान जान पड़ते हैं, जिनका वक्षःस्थल बड़ा है और जिनकी नाकके नथने कुछ कुछ हिल रहे हैं ऐसे बड़े बड़े घोड़े जल्दी जल्दी जा रहे थे ।।१०७।। जिनके आगेका भाग बहुत ऊंचा है, जिनके शरीरपरके भंवर अत्यन्त शुद्ध हैं, और जिनका वेग मनके समान है ऐसे घोड़े उस छोटेसे मार्गमें बड़ी शीघूताके साथ जा रहे थे ॥१०८॥ जो बुद्धि-बल और वेगसे सहित हैं, विनयवान् हैं तथा सुन्दर गमनके धारक हैं ऐसे घोड़े पुथिवीको (रजस्वला अर्थात् धूलिसे युक्त-पक्षमें-रजोधर्मसे यक्त समझ) उसके स्पर्श करने में घृणा करते हुए ही मानो बड़े वेगसे जा रहे थे ।।१०९।। पैदल चलनेवाले १ जालसमूहानि । कोरकाणि वा । २ प्रालेय । 'अवश्यायस्तु नीहारस्तुषारस्तुहिनं हिमम् । प्रालेयं मिहिका च' इत्यभिधानात् । ३ रथाश्वाः । ४ उपतप्ताः ।-रायस्तैः इत्यपि पाठः । ५ समानभूतलेऽपि । ६ पृथुलपृष्ठभागाः । ७ वायुवेगाः । ८ घोणाः । ६ देवमणिप्रमुखशुभावर्ताः । १० असम्पूर्णेषु सत्सु । ११ कुत्समानाः । १२ वेगवद् यथा भवति तथा । १३ सपादत्राणैः । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ महापुराणम् शाक्तिकाः सह याष्टीकै : प्रासिका धन्वभिः समम् । नैस्त्रिशिकाश्च तेऽन्योन्यं स्पर्धयेव ययुर्युतम् ॥ १११ ॥ पुरः प्रधावितः प्रेझखद्वारवाणा' प्रपल्लवाः । जातपक्षा इवोड्डीय भटा जग्मुरतिद्रुतम् ॥ ११२ ॥ प्रयात धावतापेत मार्ग मा रुध्वमप्रतः । इत्युच्वंदच्चरद्ध्वानाः पौरस्त्यानत्ययुभंटाः ॥ ११३ ॥ इतोऽपसर्पताश्वीयात् इतो धावत हास्तिकात् । इतो रथावपत्रस्ता डूरं नश्यत नश्यत ॥ ११४॥ प्रमुष्माज्जनसङ्घट्टाव् उत्थापयत डित्यकान्' । इतो " हस्त्युरसाबश्वान् श्रपसारयत द्रुतम् ॥ ११५ ॥ इतः प्रस्थानमाराध्य स्थितोऽयं धातुको गजः । मध्येऽध्वं १२ १३ प्राजितुर्दोषात् "पर्यस्तोऽयमितो रथः ॥ ११६ ॥ १क्रमेलकोऽयमुत्रस्तः " प्रतीपं पथि धावति । उत्सुष्टभारो लम्बोष्ठो जनानिव विडम्बयन् ॥११७॥ वित्रस्ताद्वेसरादेनां पतन्तीमवरोषिकाम् । सन्धारयन् प्रपातेऽस्मिन् " सौविवल्लः " पतत्ययम् ॥ ११८ ॥ यवीयानेष पण्यस्त्रीमुखालोकनविस्मितः । पातितोऽप्यश्वसङ्घट्टेः नात्मानं वेद" शून्यषीः ॥ ११६ ॥ हरिद्वारञ्जितश्मश्रुः कज्जलाकितलोचनः । "कुट्टिनीमनुयशेष* प्रवयास्तरुणायते ॥१२०॥ इति प्रयाणसञ्जल्पैः श्रज्ञाताध्वपरिश्रमाः । सैनिकाः शिबिरं प्रापन् सेनास्याः प्राऊनिवेशितम् ॥ १२१ ॥ सैनिक जूता पहने हुए पैरोंसे डूंठ, कांटे तथा पत्थर आदिको लांघते हुए घोड़े और रथोंसे भी जल्दी जा रहे थे ॥ ११० ॥ शक्ति नामके हथियारको धारण करनेवाले लट्ठ धारण करनेवालों के साथ, भाला धारण करनेवाले धनुष धारण करनेवालोंके साथ और तलवार धारण करनेवाले लोग परस्पर एक दूसरेके साथ स्पर्धा करते हुए ही मानो बड़ी शीघ्रताके साथ जा रहे थे ॥ १११ ॥ आगे आगे दौड़नेसे जिनके कवचके अग्र भाग कुछ कुछ हिल रहे हैं ऐसे योद्धा लोग इतनी जल्दी जा रहे थे मानो पंख उत्पन्न होनेसे वे उड़े ही जा रहे हों ॥ ११२ ॥ चलो, दौड़ो, हटो, आगेका मार्ग मत रोको इस प्रकार जोर जोरसे बोलनेवाले योद्धा लोग अपने सामनेके लोगोंको हटा रहे थे ।। ११३ ॥ अरे, इन घोड़ोंके समूहसे एक ओर हटो, इन हाथियोंके समूहसे भागो, और बिचले हुए इन रथोंसे भी दूर भाग जाओ ॥ ११४॥ अरे, इन बच्चोंको लोगों की इस भीड़से उठाओ और इन हाथियों के आगेसे घोड़ोंको भी शीघ्र हटाओ ।। ११५ ।। इधर यह दुष्ट हाथी रास्ता रोककर खड़ा हुआ है और इधर यह रथ सारथिकी गलतीसे मार्ग के बीच में ही उलट गया है ।। ११६ ।। इधर देखो, जिसने अपना भार पटक दिया है, जिसके लंबे ओठ हैं और जो बहुत घबड़ा गया है ऐसा यह ऊंट मार्ग में इस प्रकार उल्टा दौड़ा जा रहा है मानो लोगोंकी विडम्बना ही करना चाहता हो ।। ११७।। इधर इस ऊँची जमीनपर घबड़ाये हुए खच्चरपरसे गिरती हुई अन्तःपुरकी स्त्रीको कोई कंचुकी बीचमें ही धारण कर रहा है परन्तु ऐसा करता हुआ वह स्वयं गिर रहा है ।। ११८।। यह तरुण पुरुष वेश्याका मुख देखनेसे आश्चर्यचकित होता हुआ घोड़े के धक्केसे गिर गया है, परन्तु वह मूर्ख 'में' गिर गया हूं इस तरह अब भी अपने आपको नहीं जान रहा है ।। ११९ ।। जिसने अपने बाल खिजाबसे काले कर लिये हैं, जिसकी आंखों में काजल लगा हुआ है और जो किसी कुट्टिनीके पीछे पीछे जा रहा है ऐसा यह बूढा ठोक तरुण पुरुषके समान आचरण कर रहा है ।। १२० ।। इस प्रकार चलते समयकी बात १ शक्तिः प्रहरणं येषां ते शाक्तिकाः । २ यष्टिहेतिकैः । ३ कौन्तिकाः । ४ असिहेतिकाः । ५ प्रधावनैः । ६ चलत्कञ्चुक | ७ पुरोगामिनः । ८ भो विगतभयाः । ६ बालकान् । डिम्भकान् ल०, ५०, इ०, अ०, प०, स० । १० हस्तिमुख्यात् । ११ गमनम् । - पन्थान -ल० । १२ मार्गमध्ये । १३ सारथेः । 'नियन्ता प्राजिता यन्ता सूतः क्षत्ता च सारथिः ।" इत्यभिधानात् । १४ उत्तानितः । १५ उष्ट्रः । १६ भीतिं गतः । १७ प्रतिकूलम् । अभिमुखमित्यर्थः । १८ प्रपातस्तु तटो भृगुः । १६ कञ्चुकी । २० युवा । २१ जानाति । २२ पलितप्रतीकारार्थं प्रयुक्तौषधविशेषरञ्जित । २३ शफरीम् । 'कुट्टिनी शफरी समे' इत्यभिधानात् । २४ अनुगच्छन् । २५ वृद्धा: । 'प्रवया स्थविरो वृद्धो जिनो जीर्णो जरनपि' इत्यभिधानात् । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिबिरके समीप पहु सप्तविंशतितम पर्व ततोऽवरोभनवधूमुखच्छायाविलअधिनि । मध्यन्दिनात सम्राट् सम्प्राप शिबिरान्तकम् ॥१२२॥ छत्ररत्नकूतच्यायो दिव्यं रथमधिष्ठितः । न तवातपसम्बाधां विदामास' विशाम्पतिः ॥१२३॥ वर्षायोभिरथास प्रारधसु खसडकथः । प्रयातमपि नावानं विवेद भरताधिपः ॥१२४॥ नोद्घातः कोऽप्यभूवद्धग रथाङ्गपरिवर्तनः । रथवेगेऽपि नास्याभूत् क्लेशो' दिव्यानुभावतः ॥१२५॥ रथवेगानिलोवस्त व्यासतं तद्ध्वजांशुकम् । पश्चादागामिसैन्यानामिव मार्गमसूत्रयत् ॥१२६॥ रोड़तगतिक्षोभाद् उद्भताड़गपरिश्रमाः। कथं कथमपि प्रापन् रथिनोऽन्ये रयं प्रभोः ॥१२७॥ तमध्वशेषमध्वम्यः" तुरङगैरत्यवाहयन् । सादिनः प्रभुणा साधं शिविरं प्रविविक्षवः ॥१२८॥ दूरावृष्यकुटीभेदान् उत्थितान् प्रभुरेक्षत। सेनानिवेशमभितः सौषशोभापहासिनः ॥१२॥ रौप्यदरेष विन्यस्तान् विस्तृतान् पदमण्डपान् । सोऽपश्यज्जनतातापहारिणः सुजनानिव ॥१३०॥ किमेतानि स्थलाब्जानि हंसयूथान्यमूनि वा । इत्याशकघ्र स्थूलाग्राणि दूराद्दवृशिरे जनः ॥१३॥ सामन्तानां निवेशेषु कायमानानि नकधा। निवेशितानि विन्यासः निबध्यौ८ प्रभुरग्रतः ॥१३२॥ परितः कायमानानि वीक्ष्य कण्टकिनीतीः। निष्कण्टके निजे राज्ये मेने तानेव कण्टकान् ॥१३३॥ चीतसे जिन्हें मार्गका परिश्रम भी मालूम नहीं हुआ है ऐसे सैनिक लोग सेनापतिके द्वारा पहले से ही तैयार किये हुए शिबिर अर्थात् ठहरनेके स्थानपर जा पहुंचे ॥१२१॥ तदनन्तर जब मध्याह्नका सूर्य अन्तःपुरकी स्त्रियोंके मुखकी कान्तिको मलिन कर रहा था तब सम्राट भरत रके समीप पहंचे ॥१२२॥ जिनपर छत्ररत्नके द्वारा छाया की जा रही है और जो देवनिर्मित सुन्दर रथपर बैठे हुए हैं ऐसे महाराज भरतको उस दोपहरके समय भी गर्मीका कुछ भी दुःख मालूम नहीं हुआ था ॥१२३॥ जिन्होंने समीपमें चलनेवाले वृद्ध जनोंके साथ साथ अनेक प्रकारकी कथाएं प्रारम्भ की हैं ऐसे भरतेश्वरको बीते हुए मार्गका भी पता नहीं चला था ॥१२४॥ दिव्य सामर्थ्य होनेके कारण रथके पहियोंकी चालसे उनके शरीरमें कुछ भी उद्घात (दचका) नहीं लगा था और न रथका तीव्र वेग होनेपर भी उनके शरीरमें कुछ क्लेश हुआ था ॥१२५।। रथके वेगसे उत्पन्न हुए वायुसे ऊपरकी ओर फहराता हुआ उनकी ध्वजा का लम्बा वस्त्र ऐसा जान पड़ता था मानो पीछे आनेवाली सेनाके लिये मार्ग ही सूचित कर रहा हो ॥१२६॥ रथकी उद्धत गतिके क्षोभसे जिनके अंग अंगमें पीड़ा उत्पन्न हो रही है ऐसे रथ पर सवार हुए अन्य राजा लोग बड़ी कठिनाईसे महाराज भरतके रथके समीप पहुंच सके थे ॥१२७॥ जो घुड़सवार लोग महाराज भरतके साथ ही शिबिरमें प्रवेश करना चाहते थे उन्होंने बचे हुए मार्गको अपने उन्हीं चलते हुए श्रेष्ठ घोड़ोंसे बड़ी शीघुताके साथ तय किया था ॥१२८॥ जो राजभवनोंकी शोभाकी ओर भी हँस रहे हैं ऐसे शिबिरके चारों ओर खड़े किये हुए रावटी तम्बू आदि डेराओंको महाराज भरतने दूरसे ही देखा ॥१२९।। उन्होंने चांदीके खंभोंपर खड़े किये हुए बहुत बड़े बड़े कपड़ेके उन मण्डपोंको भी देखा था जो कि सज्जन पुरुषों के समान लोगोंका संताप दूर कर रहे थे ॥१३०॥ क्या ये स्थलकमल हैं अथवा हंसोंके समूह हैं इस प्रकार आशंका कर लोग दूरसे ही उन तम्बुओंके अग्रभागोंको देख रहे थे ॥१३१॥ सामन्त लोगोंकी ठहरनेकी जगहपर अनेक प्रकारकी रचना कर जो तम्बू वगैरह बनाये गये थे उन्हें भी महाराज भरतने सामनेसे देखा था ॥१३२॥ तम्बुओंके चारों ओर जो कटीली १ दिनाधिपे ट० । मध्याह्नसूर्ये । २ विविदे। ३ कुलवृद्धादिभिः । ४ मुख ल० । ५ अतिदूरं गतम् । ६ पीड़ा। ७ रथचक्रभूमणः । ८ क्लमः ट० । श्रमः । ६ उद्धतम् । १० अदर्शयत् । ११ अध्वनि साधुभिः । १२ अतिक्रम्य प्रापत् । १३ प्रवेष्टुमिच्छवः । १४ सेनारचनायाः समन्तात् । १५ पटकुटयाग्राणि । 'दूष्यं स्थूलं पटकुटीगुणलयनिश्रेणिका तुल्या' इति बैजयन्ती । १६ कुटीभेदाः । १७ नानाप्रकारा। १८ ददर्श । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० महापुराणम् तरुशाखाग्रसंसक्तपर्याणादि' परिच्छदान् । स्कन्धावारात् बहिः कांश्चिद् श्रावासान् प्रभुरंक्षत ॥ १३४ ॥ बहिनिवेशमित्यादीन् विशेषान् स विलोकयन् । प्रवेशे शिबिरस्यास्य महाद्वारमयासदत् ॥१३५॥ तदतीत्य समं सैन्यैः संगच्छन् किञ्चिदन्तरम् । महाब्धिसमनिर्घोषमाससाद वणिक्पथम् ॥१३६॥ कृतोपशोभमाबद्धतोरणं चित्रकेतनम् । वणिग्भिरूढ रत्नाधं स जगाहे वणिक्पथम् ॥ १३७॥ प्रत्यापणमसौ तत्र रत्नराशीनिधीनिव । पश्यन् मेने निधीयत्तां प्रसिद्धचैव तथास्थिताम् ॥१३८॥ समौक्तिकं स्फुरद्रत्नं जनतोत्कलिकाकुलम् । रथा वणिक्पथाम्भोधि पोता इव ललङघिरे ॥ १३६॥ चलवश्वीयकल्लोलः स्फुरनिस्त्रिशरोहितः । राजमार्गोऽम्बुधेर्लीलां महेभमकरंरधात् ॥१४०॥ राजन्यकेन संरुद्धः समन्तादानू पालयम् । तदासौ विपणीमार्गः सत्यं राजपथोऽभवत् ॥ १४१ ॥ ततः पर्यन्तविन्यस्त रत्नभासुरतोरणम् । रथकटया परिक्षेपकृतबाह्यपरिच्छदम् ॥ १४२ ॥ श्रारुध्यमानमश्वीयैः हास्तिकेनातिदुर्गमम् । बहुनागवनं " जुष्ट" कलभैश्च करेणुभिः ॥ १४३ ॥ छत्रषण्डकृतच्छायं महोद्यानमिव क्वचित् । क्वचित्सामन्तमण्डल्या रचितास्थानमण्डलम् ॥ १४४॥ बाड़ियां बनाई गई थीं उन्हें देखकर महाराज भरतने अपने निष्कण्टक राज्यमें ये ही कांटे हैं ऐसा माना था । भावार्थ - भरतके राज्य में बाड़ीके कांटे छोड़कर और कोई कांटे अर्थात् शत्रु नहीं थे ।।१३३ || जहांपर वृक्षोंकी डालियोंके अग्र भागपर घोड़ोंके पलान आदि अनेक वस्तुएं टंगी हुई हैं और जो शिबिरके बाहिर बने हुए हैं ऐसे कितने ही डेरे महाराज भरतने देखे ।।१३४।। इस प्रकार शिबिर के बाहर बनी हुई अनेक प्रकारकी विशेष वस्तुओंको देखते हुए महाराज शिबिरमें प्रवेश करनेके लिये उसके बड़े दरवाजेपर जा पहुंचे ॥ १३५ ॥ बड़े दरवाजेको उल्लंघन कर सैनिकों के साथ कुछ दूर और गये तथा जिसमें समुद्रके समान गंभीर शब्द हो रहे हैं ऐसे बाजारमें वे जा पहुंचे ।। १३६ ।। जिसकी बहुत अच्छी सजावट की गई है जिसमें तोरण बंधे हुए हैं, अनेक प्रकारकी ध्वजाएं फहरा रही हैं और व्यापारी लोग जिसमें रत्नों का अर्थ लेकर खड़े हैं ऐसे उस बाजार में महाराजने प्रवेश किया || १३७ ।। वहां पर प्रत्येक दुकान पर निधियों के समान रत्नोंकी राशि देखते हुए महाराज भरतने माना था कि निधियों की संख्या प्रसिद्धि मात्र से ही निश्चित की गई है । भावार्थ - प्रत्येक दूकानपर रत्नोंकी राशियां देखकर उन्होंने इस बातका निश्चय किया था कि निधियोंकी संख्या नौ है यह प्रसिद्धि मात्र है, वास्तव में वे असंख्यात हैं ।। १३८।। जो मोतियोंसे सहित है, जिसमें अनेक रत्न देदीप्यमान हो रहे हैं और जो मनुष्यों के समूहरूपी लहरोंसे व्याप्त हो रहा है ऐसे उस बाजाररूपी समुद्र को रथोंने जहाजके समान पार किया था ।। १३९ ।। उस समय वह राजमार्ग चलते हुए घोड़ों के समुदायरूपी लहरोंसे, चमकती हुई तलवाररूपी मछलियोंसे और बड़े बड़े हाथीरूपी मगरों से ठीक समुद्रकी शोभा धारण कर रहा था ।। १४० ।। उस समय वह बाजारका रास्ता महाराज के तम्बू तक चारों ओरसे अनेक राजकुमारोंसे भरा हुआ था इसलिये वास्तवमें राजमार्ग हो रहा था ।।१४१।। तदनन्तर जिसके समीप ही रत्नोंके देदीप्यमान तोरण लग रहे हैं, घेरकर रक्खे हुए रथों के समूहसे जिसकी बाहरकी शोभा बढ़ रही है - जो घोड़ों के समूहसे भरा हुआ है, हाथियों के समूहसे जिसके भीतर जाना कठिन है, जो हाथियोंकी बड़ी भारी सेनासे सुशोभित है, हाथियों के बच्चे और हथिनियोंसे भी भरा हुआ है । अनेक छत्रोंके समूहकी छाया होनेसे १ पल्ययनादिपरिकरान् । २ शिखरात् । ३ कटकाद् बहिः । ४ धृतरत्नार्धम् । ५ प्रमाणम् । ६ नवनिधिरूपेण स्थिताम् । तथास्थितान् ल० । ७ तरंगाकुलम् । ८ मत्स्यविशेषैः । ६ रथसमूहपरिवेष्टेन कृतबाह्यपरिकरम् । १० ईषदसमाप्तनागवनम् । नागवनसदृशमिति यावत् । ११ सेवितम् । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतितम पर्व प्रविशभिश्च निर्यद भिः अपर्यन्तैनियोगिभिः। महाब्धेरिव कल्लोलैः तटमाविर्भवद्ध्वनि ॥१४॥ अनतोत्सारणव्यग्रमहादौवारपालकम् । कृतमङगलनिर्घोषं वाग्देव्येव कृतास्पदम् ॥१४६॥ चिरानुभूतमप्येवम् अपूर्वमिव शोभया । नृपो नृपाङगणं पश्यन् किमप्यासीत् सविस्मयः ॥१४७॥ निधयो यस्य पर्यन्ते मध्ये रत्नान्यनन्तशः । महतः शिबिरस्यास्य विशेषं कोऽनुवर्णयेत् ॥१४८॥ शार्दूलविक्रीडतम् स श्रीमानिति विश्वतः स्वशिबिरं लक्ष्म्या निवासायितं पश्यन्नात्तधतिविलङध्य विशिखाः स्वर्गापहासिश्रियः । सम्भाम्यत्प्रतिहाररुद्धजनतासम्बाधमुत्केतनं प्राविक्षत् कृतसन्निवेशमचिरादात्मालयं श्रीपतिः ॥१४॥ तत्राविष्कृतमङगले सुरसरिद्वीचीभुवा वायुना सम्मष्टाङगणवेदिके विकिरता तापच्छिदः शीकरान् । शस्ते वास्तुनि विस्तृते स्थपतिना सद्यः समुत्थापिते लक्ष्मीवान् सुखभावसनधिपतिःप्राची दिशं निर्जयन् ॥१५०॥ जो कहींपर किसी बड़े भारी बगीचाके समान जान पड़ता है और कहीं अनेक राजाओंकी मण्डलीसे युक्त होनेके कारण सभामण्डपके समान मालूम होता है, जो प्रवेश करते हुए और बाहर निकलते हुए अनेक कर्मचारियोंसे लहरोंसे शब्द करते हुए किसी महासागरके किनारेके समान जान पड़ता है। जहां पर बड़े बड़े द्वारपाल लोग मनुष्योंकी भीडको दूर हटाने में लगे हुए हैं, जहां अनेक प्रकारके मंगलमय शब्द हो रहे हैं और इसीलिये जो ऐसा जान पड़ता है मानो सरस्वती देवीने ही उसमें अपना निवास कर रखा हो तथा जो चिरकालसे अनुभूत होनेपर भी अपनी अनोखी शोभासे अपूर्वके समान मालूम हो रहा है ऐसे राजभवनके आंगनको देखते हुए महाराज भरत भी कुछ कुछ आश्चर्यचकित हो गये थे ।।१४२-१४७॥ जिसके चारों ओर निधियां रक्खी हुई है और बीचमें अनेक प्रकारके रत्न रखे हुए हैं ऐसे उस बड़े भारी शिबिर की विशेषताका कौन वर्णन कर सकता है ॥१४८। इस प्रकार लक्ष्मीके निवासस्थानके समान सुशोभित अपने शिबिरको चारों ओरसे देखते हुए जो अत्यन्त संतुष्ट हो रहे हैं ऐसे लक्ष्मीपति श्रीमान् भरतने, चारों ओर दौड़ते हुए द्वारपालोंके द्वारा जिसमें मनष्योंकी भीड़ का उपद्रव दूर किया जा रहा है, जिसपर अनेक पताकाएं फहरा रही हैं, और जिसमें अनेक प्रकारकी रचना की गई है ऐसे अपने तम्बमें शीघ्र ही प्रवेश किया ॥१४९।। जिसमें मंगलद्रव्य रखे हुए हैं, गङ्गा नदीकी लहरोंसे उत्पन्न हुए तथा संतापको दूर करनेवाली जलकी बंदोंको बरसाते हए वायसे जिसके आंगनकी बेदी साफ की गई है, जो प्रशंसनीय है, विस्तत है तथा स्थपति (शिलावट) रत्नके द्वारा बहुत शीघ खड़ा किया गया है, बनाया गया है ऐसे तंबूमें पूर्व दिशाको जीतनेवाले, निधियोंके स्वामी श्रीमान् भरतने सुखपूर्वक निवास किया १ रथ्याः । 'रथ्या प्रतोली विशिखा' इत्यमरः । २ विहितसम्यग्रचनम् । ३ भरतेश्वरः । ४ सम्माजित । ५ गृहे । ६ पूर्वाम् । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ महापुराणम् राज्ञामावसथैषु शान्तजनताक्षोभेषु पीताम्भसाम् अश्वानां पटमण्डपेषु निवहे स्वरं तृणग्रासिनि । गङगातीरसरोवगाहिनि वनेष्वालानिते हास्तिकें जिष्णोस्तत्कंटकं चिरादिव कृतावासं तदा लक्ष्यते ।। १५१ । तत्रासीनमुपायनैः कुलधनंः कन्याप्रदानादिभिः प्राच्या मण्डलभूभुजः समुचितंराराधयन् साधनैः । संरुद्धाः प्रविहाय मानमपरं प्राणशिषुश्चक्रिण दूरादानतमौलयो जिनमिव प्राज्योदयं नाकिनः ॥ १५२ ॥ इत्यांच भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलेक्षण महापुराणसङ्ग्रहे भरतराजविजयप्रयाणवर्णनं नाम सप्तविंशतितमं पर्व ॥ ।। १५० ।। जिस समय राजाओं के तम्बुओंमें मनुष्यों की भीड़का क्षोभ शान्त हो गया था, घोड़ों के समूह जल पीकर कपड़े के बने हुए मण्डपों में अपने इच्छानुसार घास खाने लगे थे, और हाथियों के समूह गङ्गा नदी के किनारे के सरोवरोंमें अवगाहन कराकर—स्नान कराकर वनों में बांध दिये गये थे उस समय विजयी महाराज भरतकी वह सेना ऐसी जान पड़ती थी मानो चिर कालसे ही वहां रह रही हो ।। १५१ ।। जिस प्रकार श्रेष्ठ महिमाको धारण करनेवाले तथा समवसरण सभा में विराजमान जिनेन्द्रदेवकी देव लोग आराधना करते हैं उसी प्रकार श्रेष्ठ वैभवको धारण करनेवाले तथा उस मण्डपमें बैठे हुए महाराज भरतको पूर्वदिशाके राजाओंने अपनी कुल-परम्परासे आया हुआ धन भेंटमें देकर, कन्याएं प्रदान कर तथा और भी अनेक योग्य वस्तुएं देकर उनकी आराधना सेवा की थी। इसी प्रकार उनकी सेनाके द्वारा रोके हुए अन्य कितने ही राजाओंने अहंकार छोड़कर दूरसे ही मस्तक झुकाकर चक्रवर्तीके लिये प्रणाम किया था ।। १५२ ।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य-प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण श्रीमहापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतराजका राजाओंकी विजयके लिये प्रयाण करना इस बातका वर्णन करनेवाला सत्ताईसवां पर्व समाप्त हुआ । १ सेनाभिः । २ परिवृताः । ३ नमस्कुर्वन्ति स्म । ४ प्रचुराभ्युदयम् । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व अथान्येद्युदिनारम्भे कृतप्राभातिकक्रियः । प्रयाणमकरोच्चक्री चक्ररत्नान मार्गतः ॥२॥ अलङध्यं चक्रमाक्रान्तपरचक्र पराक्रमम् । दण्डश्च दण्डितारातिः द्वयमस्य पुरोऽभवत् ॥२॥ रक्ष्यं देवसहस्रेण चक्र दण्डश्च तादृशः । जयाङगमिदमेवास्य द्वयं शेषः परिच्छदः ॥३॥ विजयार्थ प्रतिस्पधिवणिं यागहस्तिनम् । प्रतस्थे प्रभुरारुह्य नाम्ना विजयपर्वतम् ॥४॥ प्राची दिशमयो जेतुम् प्रापयोधेस्तमुद्यतम् । नूनं स्तम्बरमव्याजाद् ऊहे. विजयपर्वतः ॥५॥ सुरेभं० शरदभाभम् प्रारूढो जयकुञ्जरम् । स रेजे दीप्तमुकुटः सुरेभंर सुरराडिव ॥६॥ सितातपत्रमस्योच्चः विवृतं श्रियमादधे। यशसां प्रसवागारमिव तद्व्याजजृम्भितम् ॥७॥ लक्ष्मीप्रहासविशदा चामराली समन्ततः । व्यधूयतास्य विध्वस्ततापा ज्योत्स्नेव शारवी ॥८॥ जयद्विरदमारूढो ज्वलज्जैत्रास्त्रभासुरः । जयलक्ष्मीकटाक्षाणाम् अगमत् स शरव्यताम् ॥६॥ महामुकुटबद्धानां सहस्राणि समन्ततः । तमनुप्रचलन्ति स्म सुराधिपमिवामराः॥१०॥ अथानन्तर-दूसरे दिन सवेरा होते ही जो प्रातःकालके समय करने योग्य समस्त क्रियाएं कर चुके हैं ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके पीछे पीछे प्रस्थान किया ॥१॥ शत्रु-समूह के पराक्रमको नष्ट करनेवाला तथा स्वयं दूसरोंके द्वारा उल्लंघन न करने योग्य चक्ररत्न और शत्रुओंको दण्डित करनेवाला दण्डरत्न, ये दोनों ही रत्न चक्रवर्तीकी सेनाके आगे आगे रहते थे ॥२॥ चक्ररत्न एक हजार देवोंके द्वारा रक्षित था और दण्डरत्न भी इतने ही देवोंके द्वारा रक्षित था। वास्तव में चक्रवर्तीकी विजयके कारण ये दो ही थे, शेष सामग्री तो केवल शोभा के लिये थी ॥३॥ अबकी बार चक्रवर्तीने, जिसका शरीर विजयाध पर्वतके साथ स्पर्धा कर रहा है ऐसे विजयपर्वत नामके पूज्य हाथीपर सवार होकर प्रस्थान किया था ॥४॥ उस समय ऐसा मालूम होता था मानो समुद्र पर्यन्त पूर्व दिशाको जीतनेके लिये उद्यत हुए महाराज भरतको उस हाथीके छलसे विजयार्ध पर्वत ही धारण कर रहा हो ।।५।। जिस प्रकार देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाला इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़ा हुआ सुशोभित होता है उसी प्रकार देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाला भरत शरद् ऋतुके बादलोंके समान सफेद और देवों के द्वारा दिये हुए उस विजयपर्वत हाथीपर चढ़ा हुआ सुशोभित हो रहा था ॥६।। भरतेश्वर के ऊपर लगा हुआ सफेद छत्र ऐसी शोभा धारण कर रहा था मानो छत्रके बहानेसे यशकी उत्पत्ति का स्थान ही हो ॥७॥ लक्ष्मीके हास्यके समान निर्मल और शरदऋतुकी चांदनीके समान संतापको नष्ट करने वाली चमरोंकी पंक्ति महाराज भरतके चारों ओर ढुलाई जा रही थी ॥८॥ विजय नामके हाथी पर आरूढ़ हुए और विजय प्राप्त करानेवाले प्रकाशमान अस्त्रोंसे देदीप्यमान होनेवाले भरतेश्वर जयलक्ष्मीके कटाक्षोंके लक्ष्य बन रहे थे। भावार्थ-उनकी ओर विजयलक्ष्मी देख रही थी॥९॥ जिस प्रकार देव लोग इन्द्रके पीछे पीछे चलते हैं उसी प्रकार हजारों मुकुटबद्ध बड़े बड़े राजा लोग चारों ओर भरत महाराजके पीछे पीछे चल रहे थे ॥१०॥ १ अनुगमनात् । २ अरिनिकर । परराष्ट्र वा। ३ चक्रिणः । ४ परिकरः । ५ विजयार्धगिरिणा स्पर्धमानदेहम् । ६ पूजोपतगजम् । ७नन ल०। ८ धरति स्म । विजयागिरिः । १० सुशब्दम् । ११ ऐरावतम् । १२ क्षत्रव्याज । १३ लक्ष्यताम् । 'लक्षं लक्ष्यं शरव्यं च' इत्यभिधानात् । १४ अपरिमिता इत्यर्थः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् दूरमद्य प्रयातव्यं निवेष्टव्यमुपार्णवम् । त्वरध्वमिति सेनान्यः सैनिकानुदतिष्ठयन् ॥११॥ त्वर्यतां प्रस्थितो देवो दवीयश्च प्रयाणकम् । बलाधिकारिणामित्थं वचो बलमचुक्षुभत् ॥१२॥ अद्यासिन्धु' प्रयातव्यं गङगाद्वारे निवेशनम् । 'संश्राव्यो मागधोऽद्यैव विलाध्य पयसां निधिम् ॥१३॥ समुद्रमद्य पश्यामः समुद्रङगत्तरङगकम् । समुद्रं लङ्घतेऽद्यैव समुद्र शासनं विभोः ॥१४॥ अन्योन्यस्येति सञ्जल्पैःसम्प्रास्थिषत सैनिकाः । प्रयाणभेरीप्रध्वानः तदोद्यन् द्यामधिध्वनत् ॥१५॥ ततः प्रचलिता सेना सानुगडगं धृतायतिः । मिमानव तदायाम पप्रथे प्रथितध्वनिः ॥१६॥ सचामरा चलद्धंसां सबलाका पताकिनी । अम्वियाय चमूर्गङगा सतुरङगा तरङगिणीम् ॥१७॥ राजहंसः कृताध्यासा क्वचिदप्यस्खलद्गतिः । चमूरब्धिं प्रति प्रायात्" सा द्वितीयेव जाह्नवी ॥१८॥ "विपरीतामतवृत्तिः निम्नगा"मुन्नतस्थितिः। त्रिमार्गगां व्यजेष्टासौ पृतना बहुमागंगा ॥१६॥ 'आज बहुत दूर जाना है और समुद्र के समीप ही ठहरना है इसलिये जल्दी करो' इस प्रकार सेनापति लोग सैनिकोंको जल्दी जल्दी उठा रहे थे ॥११॥ 'अरे जल्दी करो, महाराज प्रस्थान कर गये, और आजका पड़ाव बहुत दूर है' इस प्रकार सेनापतियोंके वचन सेनाको क्षोभित कर रहे थे ।।१२।। 'आज समुद्र तक चलना है, गङ्गाके द्वारपर ठहरना है और आज ही समुद्रको उल्लंघन कर मागधदेवको वश करना है ।।१३।। आज हम लोग, जिसमें ऊंची ऊंची लहरें उठ रही हैं ऐसे समुद्रको देखेंगे और आज ही समुद्रको उल्लंघन करनेके लिये महाराजकी मुहर सहित आज्ञा है' ॥१४॥ इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करते हुए सैनिकोंने प्रस्थान किया, उस समय प्रयाण-कालमें बजनेवाले नगाड़ों के उठे हुए शब्दने आकाशको शब्दायमान कर दिया था ॥१५॥ तदनन्तर, जिसका शब्द सब ओर फैल रहा है ऐसी वह सेना गङ्गा नदीके किनारे बी होकर इस प्रकार चलने लगी मानो उसकी लम्बाईका नाप करती हई ही चल रही हो ।।१६।। उस समय वह सेना ठीक गङ्गा नदीका अनुकरण कर रही थी क्योंकि जिस प्रकार गङ्गा नदीमें हंस चलते हैं उसी प्रकार उस सेनामें चमर ढुलाये जा रहे थे, जिस प्रकार गङ्गा नदी में बगुला उड़ा करते हैं उसी प्रकार उस सेनामें ध्वजाएं फहराई जा रही थीं और जिस प्रकार गङ्गा नदी में अनेक तरङ्ग उठा करते हैं उसी प्रकार उस सेनामें अनेक घोड़े उछल रहे थे ।।१७।। वह सेना समुद्र की ओर इस प्रकार जा रही थी मानो दूसरी गङ्गा नदी ही जा रही हो क्योंकि जिस प्रकार गङ्गा नदीमें राजहंस निवास करते हैं उसी प्रकार उस सेनामें भी राजहंस अर्थात् श्रेष्ठ राजा लोग निवास कर रहे थे और जिस प्रकार गङ्गा नदीकी गति कहीं भी स्खलित नहीं होती उसी प्रकार उस सेनाकी गति भी कहीं स्खलित नहीं हो रही थी ॥१८॥ अथवा उस सेनाने गङ्गा नदीको जीत लिया था क्योंकि गङ्गा नदी विपरीत अर्थात उल्टी प्रवत्ति करने वाली थी (पक्षमें वि-परीत -पक्षियोंसे व्याप्त थी) परन्तु सेना विपरीत नहीं थी अर्थात् सदा चक्रवर्तीके आज्ञानुसार ही काम करती थी, गङ्गा नदी निम्नगा अर्थात् नीच पुरुषको प्राप्त होने वाली थी (पक्षमें ढालू स्थानकी ओर बहनेवाली थी) परन्तु सेना उसके विरुद्ध उन्नतगा अर्थात् उन्नत पुरुष-चक्रवर्तीको प्राप्त होनेवाली थी और इसी प्रकार गङ्गा त्रिमार्गगा अर्थात् तीन मार्गोसे गमन करनेवाली थी (पक्षमें त्रिमार्गगा, यह गंगाका एक नाम है) परन्तु १ अर्णवसमीपे । २ वेगं कुरुध्वम् । ३ दूरतरम । ४ आ समुद्रम् । ५ साधनीयः । संसाध्यो इ०, अ०, द०, ल०। ६ उच्चैश्चलद्वीचिकम् । ७ समुद्रलङघनेऽद्यैव ल०, द०, इ०। ८ मुद्रया सहितम् । है गन्तुमुपक्रान्तवन्तः । १० खम् । ११ ध्वनिमकारयत् । १२ विसकण्ठिकासहितम् । १३ सपताकावती। १४ तरडगवतीम् । १५ अगच्छत् । १६ पक्षिभिः परिवृताम् । प्रतिकूलामिति ध्वनिः । १७ विपरीतवृत्तिरहितेत्यर्थः । १८ नीचपथगामिति ध्वनिः । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व अनुगङगातटं यान्ती ध्वजिनी सा ध्वजांशुकः । वनरेणुभिराकोणं सम्ममार्जेव खाङगणम् ॥२०॥ दुर्विगाहा महानाहाः' सैन्यान्युत्तेरुरन्तरे। गङगानुगा धुनीर्बह्वीः बहुराजकुलस्थितीः ॥२१॥ मार्गे "बहुविधान् देशान् सरितः पर्वतानपि । "वनधीन वनदुर्गाणि खनीरप्यत्यगात् प्रभुः ॥२२॥ अगोष्पदेष्वरण्येषु दुशं व्यापारयन् विभुः। भूमिच्छि"द्रपिधानाय क्षणं यत्नमिवातनोत् ॥२३॥ पथि प्रणेमुरागत्य सम्भ्रान्ता मण्डलाधिपाः। दण्डोपनतवृत्तस्य' विषयोऽयमिति प्रभुम् ॥२४॥ स चक्र धेहिर राजेन्द्र सधुरं प्राज सारथे। सजल्प इति नास्यासीद् प्रयत्नावनतद्विषः ॥२५॥ प्रतियोद्ध मशक्तास्तं "प्रथनेषु जिगीषवः । तत्पदं प्रणतिव्याजात समौलिभिरताडयन ॥२६॥ "विभुत्वमरिचक्रेषु भूपरागानु रञ्जनम् । स्वचक्र इव सोऽधत्त महतां चित्रमीहितम् ॥२७॥ सेना अनेक मार्गोसे गमन करनेवाली थी ॥१९॥ गङ्गा नदीके किनारे किनारे जाती हुई वह सेना अपनी फहराती हुई ध्वजाओंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो वनकी धूलिसे भरे हुए आकाशरूपी आंगनको ध्वजाओंके वस्त्रोंसे साफ ही कर रही हो ।।२०।। महाराज भरतकी सेनाओंने उत्तरकी ओर बहनेवाली तथा आनेवाली जिन अन्य अनेक नदियों और सेनाओंको पार किया था वे परस्परमें एक दूसरेके अनुरूप थीं अर्थात् नदियां सेनाओंके समान थीं और सेनाएं नदियोंके समान थों, क्योंकि जिस प्रकार नदियां दुर्विगाह्य अर्थात् कठिनतासे प्रवेश करने योग्य होती हैं उसी प्रकार सेनाएँ भी कठिनताके प्रवेश करने योग्य होती हैं, जिस प्रकार नदियां महाग्राह अर्थात् बड़े बड़े मगरमच्छोंसे सहित होती हैं उसी प्रकार सेनाएं भी महाग्राह अर्थात् बड़े भारी आग्रहसे सहित होती हैं, और जिस प्रकार नदियां बहुराज कुलस्थिति अर्थात् (बहुराज कुल स्थिति) अनेक राजाओं की पृथिवीको ग्रहण करनेवाली स्थितिसे सहित होती है उसी प्रकार सेनाएं भी बहुराज कुलस्थिति अर्थात् अनेक राजवंशोंकी स्थितिसे सहित होती हैं ॥२१॥ धनवान् महाराज भरत मार्गमें पड़ते हुए अनेक देश, नदियां, पर्वत, वन, किले और खान आदि सबको उल्लंघन करते हुए आगे चले जा रहे थे ॥२२॥ गाय आदि जानवरों के संचारसे रहित वनोंमें दष्टि डालते हए भरतेश्वर ऐसे जान पड़ते थे मानो पथिवीके छिद्रों राजा जिसे दण्ड रत्न प्राप्त होता है यह देश उसीका होता है इस निश्चयसे आकर महाराज को ढकनेके लिये क्षण भर प्रयत्न ही कर रहे हों ।।२३।। मार्गमें घबड़ाये हुए अनेक मण्डलेश्वर राजा भरतको प्रणाम कर रहे थे ।।२४।। मार्गमें महाराज भरतेश्वरके समस्त शत्रु बिना प्रयत्नके ही नम्रीभूत होते जाते थे इसलिये उन्हें कभी यह शब्द नहीं कहने पड़ते थे कि हे राजेन्द्र, आप चक्ररत्न धारण कीजिये और हे सारथे, तुम रथ चलाओ ॥२५॥ जीतनेकी इच्छा करनेवाले अन्य कितने ही राजा लोग युद्ध में भरतेश्वरसे लड़ने के लिये समर्थ नहीं हो सके थे इसलिये नमस्कार के बहाने अपने मकटोंसे ही उनके पैरोंकी ताडना कर रहे थे ॥२६॥ महाराज भरत जिस प्रकार अपने राज्यमें विभुत्व अर्थात् ऐश्वर्य धारण करते थे उसी प्रकार शत्रुओंके राज्यों में भी विभुत्व अर्थात् पृथिवीका अभाव धारण करते थे-उनकी भूमि छीन लेते थे, (विगत भूर्येषां तेषां भावः विभुत्वम् ) और जिस प्रकार अपने राज्यमें भूप-रागानुरंजन अर्थात् १ महानकाः, पक्षे महास्वीकाराः। २ नदीः । ३ राजकुलस्थितेः समाः । ४ बहुसंख्यान् । बहुस्थितान् ल०, इ० । बहुतिथान् ट०। ५ सरोवरान् । धनवान् ल०, प०, इ० । बलवान् अ०, स०। ६ अगम्येषु । ७ भूगच्छिादनाय । ८ दण्डेन प्राप्ता वृत्तिर्यस्य सस्तस्य । ६ प्रणामः । १० प्रसिद्धस्त्वम् । ११ धारय। १२ यानमुखम् । 'धूः स्त्री क्लीबे यानमुखम्' इत्यभिधानात् । १३ प्रेरय, 'अज प्रेरणे च' । १४ युद्धेषु । प्रधनेषु ल०, द०, इ०, प०, स०, अ० । १५ प्रभुत्वम्, व्यापित्वं च। १६ स्वराष्ट्रपक्षे भूपानामनुरागरञ्जनम्। अरिराष्ट्र पक्षे भुवः परागरञ्जनम् । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् सन्ध्यादिविषये नास्य समकक्षों हि पार्थिवः । षाड्गुण्यमत एवास्मिन् चरितार्थ मभूत प्रभौ ॥२८॥ प्रतिराष्ट्रमपानीतप्राभृतान् विषयाधिपान् । सम्भावयन् प्रसादेन सोऽत्यगाद् विषयान् बहून् ॥२६॥ नास्त्रे व्यापारितो हस्तो मौर्वी धनुषि नापिता। केवलं प्रभुशक्त्यैव प्राची दिग्विजिताऽभुना ॥३०॥ गोकुलानामुपान्तेषु सोऽपश्यद् युववल्लवान् । बनवल्लीभिराबद्धजूटकान्- गोऽभिरक्षिणः ॥३१॥ मन्थाकर्षश्रमोद्भूतस्वेदबिन्दुचिताननाः । मथ्नतीः सकुचोत्कम्पं सलील त्रिकनर्तनः ॥३२॥ मन्थरज्जुसमाकृष्टिक्लान्तबाहः१ इलयांशुकाः । स्त्रस्तस्तनांश का लक्ष्यत्रिवलीभडगरोदराः ॥३३॥ क्षुब्धाभिघातोच्चलितस्थलगोरसबिन्दुभिः । विरलैरगसंलग्नः शोभां कामपि पुष्णतीः ॥३४॥ मन्थारवानुसारेण किञ्चिदारब्धमूर्छनाः । विस्रेस्तकबरीबन्धाः कामस्येव पताकिकाः ॥३५॥ १"गोष्ठाङगणेष सल्लापैः१५ स्वैरमारब्धमन्थनाः । प्रभुर्गोपवधुः पश्यन् किमप्यासीत् समुत्सकः ॥३६॥ वने वनगजैर्जुष्टे प्रभुमेनं वनेचराः । दन्तैर्वनकरीन्द्राणाम् अद्राक्षुः सह मौक्तिकः ॥३७॥ राजाओं के प्रेमपूर्ण अनुरागको धारण करते थे उसी प्रकार शत्रुओंके राज्यों में भी भू-परागानुरंजन अर्थात् पथिवीकी धूलिसे अनुरंजन धारण करते थे, शत्रुओंको धुलिमें मिला देते थे, सो ठीक ही है, क्योंकि महापुरुषोंकी चेष्टाएं आश्चर्य करनेवाली होती ही हैं ॥२७॥ संधि आदि गुणों के विषयमें कोई भी राजा महाराज भरतके बराबर नहीं था इसलिये सन्धि आदि छहों गुण उन्हीं में चरितार्थ हुए थे। भावार्थ-कोई भी राजा इनके विरुद्ध नहीं था इसलिये इन्हें किसीसे सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और आश्रय नहीं करने पड़ते थे ॥२८॥ प्रत्येक देशमें भेंट लेकर आये हुए वहांके राजाओंका वड़ी प्रसन्नतासे आदर-सत्कार करते हुए महाराज भरत बहुतसे देशोंको उल्लंघन कर आगे बढ़ते जाते थे ॥२९॥ भरतेश्वरने न तो कभी तलवारपर अपना हाथ लगाया था और न कभी डोरी ही धनुषपर चढ़ाई थी। उन्होंने केवल अपनी प्रभुत्वशक्तिसे ही पूर्व दिशाको जीत लिया था ।।३०। उन्होंने गोकुलोंके समीप ही गायोंकी रक्षा करनेवाले तथा वनकी लताओंसे जिन्होंने अपने शिरके बालों का जुडा बांध रखा है ऐसे तरुण ग्वाला देखे ॥३१।। कढ़नियोंके खोंचनेके परिश्रमसे उत्पन्न हुए पसीनेकी बंदोंसे जिनके मुख व्याप्त हो रहे हैं, जो लीलापूर्वक नितम्बोंको नचा नचा कर स्तनोंको हिलाती हुई दही मथ रही हैं, कढ़नियोंके खींचनेसे जिनकी भुजाएं थक गई हैं, जिनके सब वस्त्र ढीले पड़ गये हैं, जिनके स्तनोंपरका वस्त्र भी नीचेकी ओर खिसक गया है, जिनके कृश उदरमें त्रिवली की रेखाएं साफ साफ दिख रही हैं, रई (फूल) के आघातसे उछल उछलकर शरीरमें जहाँ तहाँ लगी हुई दहीकी बड़ी बड़ी बूंदोंसे जो एक प्रकारकी विचित्र शोभाको पुष्ट कर रही हैं, मन्थन से होनेवाले शब्दोंके साथ साथ ही जिन्होंने कुछ गाना भी प्रारम्भ किया है, जिनके केशपाश का बन्धन खल गया है और इसीलिये जो कामदेवकी पताकाओंके समान जान पडती हैं, तथा गोशालाके आंगनोंमें अपने इच्छानुसार वार्तालाप करती हुई जिन्होंने दहीका मथना प्रारम्भ किया है ऐसी ग्वालाओंकी स्त्रियोंको देखते हुए महाराज भरतेश्वर कुछ उत्कण्ठित हो उठे थे ॥३२-३६।। जंगली हाथियोंसे भरे हए वनमें रहनेवाले भील लोगोंने जंगली हाथियोंके दांत और मोती भेंट कर महाराजके दर्शन किये थे ।।३७।। जिनका शरीर श्याम है जिनके १ सन्धिविग्रहयानासनद्वैधाश्रयानां विषये। २ समानप्रतिपत्तिकः । ३ सन्ध्यादिगुणसमूहः । ४ कृतकृत्यम् । ५ प्रभोः स०अ०, द० । ६ नासौ ल०, द०, इ०। ७ तरुणगोपालान् । 'गोपे गोपालगोसंख्यागोदुगाभीरवल्लवाः' इत्यभिधानात् । ८ केशपाशान् । ६ मथनं कुर्वतीः । १० नितम्ब । 'त्रिका कृपस्य वेमौ स्यात् त्रिकं पृष्ठधरे त्रये' इत्यभिधानात् । ११ समाकर्षणग्लाना। १२ मनोज्ञ । १३ मथन । १४ स्वरविश्रवण । १५ गोस्थान । 'गोष्ठं गोस्थानकम्' इत्यभिधानात् । १६ मिथो भाषणः । १७ सेवित । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टाविंशतितमं पर्व श्यामाङागीरनभिव्यक्तरोगराजीस्तनूदरोः । परिधानीकृतालोलपल्लवव्यक्तसंवृती: ॥३८॥ चमरीबालकाविद्धकबरीबन्धबन्धुराः। फलिनो फलसन्दग्धमालारचितकण्ठिकाः ॥३६॥ कस्तूरिकामृगाध्यासवासिताः सुरभीमदः । सञ्चिन्वतीर्वनाभोगे प्रसाधनजिघृक्षया ॥४०॥ पुलिन्दकन्यकाः सैन्यसमालोकनविस्मिताः । अव्याजसन्दराकारा दूरादालोकयत् प्रभुः ॥४१॥ चमरीवालकान् केचित् केचित् कस्तूरिकाण्डकान् । प्रभोरुपायनीकृत्य ददृशुम्लेंच्छ राजकाः ॥४२॥ तत्रान्तपालदुर्गाणां सहस्राणि सहस्रशः। लब्धचक्रधरादेशः सेनानीः समशिश्रियत् ॥४३॥ अपूर्वरत्नसन्दर्भः कुप्यसारधनैरपि । अन्तपालाः प्रभोराज्ञां सप्रणामैरमानयन् ॥४४॥ ततो बिदूरमुल्लाध्य सोऽध्वानं सह सेनया। गडागाद्वारमनुप्रापत् स्वमिवालडाध्यमर्णवम् ॥४५॥ वहिः समुद्रमुद्रिक्तं वै प्यं निम्नोपगं जलन् । समुद्रस्येव निष्यन्दम् अब्धेराराद् व्यलोकयत् ॥४६॥ वर्षारम्भो युगारम्भ योऽभूत् कालानुभावतः । ततः प्रभृति संवृद्धं जलं द्वीपान्तमावणोत् ॥४७॥ अलाध्यत्वात् महीयस्त्वाद् द्वीपपर्यन्तवेष्टनात् । द्वैप्यमम्बु समुद्रिक्तम्१३ अगादुपसमुद्रताम् ॥४८॥ पश्यन्नुपसमुद्रं तं गत्वा स्थलपथेन सः । गङगोपवनवेद्यन्तर्भागे सैन्यं न्यबीविशत् ॥४६॥ शरीरपर अभी रोमराजी प्रकट नहीं हुई है, उदर भी जिनका कृश है, वस्त्रके समान धारण किये हुए चंचल पत्तोंसे जिनके शरीरका संवरण प्रकट हो रहा है, चमरी गायके बालोंसे बंधे हुए केशपाशोंसे जो बहुत ही सन्दर जान पड़ती हैं, गुंजाफ्लोंसे बनी हुई मालाओंको जिन्होंने अपना कण्ठहार बनाया है, कस्तूरी मगके बैठनेसे सगन्धित हुई मिट्टीको आभूषण बनाने की इच्छास जो वनके किसी एक प्रदेशम इकटठी कर रही हैं, जिनका आकार वास्तवमें सन्दर र जो सेनाके देखनेसे विस्मित हो रही हैं ऐसी भीलोंकी कन्याओंको भरतने दूरसे ही देखा था ।।३८-४।। कितने ही म्लेच्छ राजाओंने चभरी गायके बाल और कितने ही ने कस्तरीमगकी नाभि भेट कर भरतके दर्शन किये थे ।।४२।। बहांपर सेनापतिने चक्रवर्तीकी आज्ञा प्राप्त कर अन्तपालोंके लाखों किले अपने वश किये । ॥४३।। अन्तपालोंने अपूर्व अपूर्व रत्नों के समुह तथा सोना चांदी आदि उत्तम धन भेंट कर भरतेश्वरको प्रणाम किया तथा उसकी आज्ञा स्वीकार की ॥४४॥ तदनन्तर सेनाके साथ साथ बहुत कुछ दूर मार्गको व्यतीत कर वे गङ्गाद्वारको प्राप्त हुए और उसके बाद ही अपने समान अलंघनीय समुद्रको प्राप्त हुए ।।४५।। उन्होंने समुद्र के समीप ही, समुद्रसे बाहर उछल उछल कर गहरे स्थानमें इकट्ठे हुए द्वीप सम्बन्धी उस जलको देखा जो कि समद्रके निष्यन्दके समान मालम होता था अथवा समद्रके जलके समान ही निश्चल-स्थायी था अर्थात् उपसमुद्रको देखा, समुद्रका जो जल उछल उछलकर समुद्रके समीप ही द्वीपके किसी गहरे स्थानमें इकट्ठा होता जाता है वही उपसमुद्र कहलाता है। उपसमुद्र द्वीपके भीतर होता है इसलिये उसका जल द्वैप्य कहलाता है। उपसमुद्रका जल ऐसा जान पड़ता था मानो समुद्रका स्वेद ही इकट्ठा हो गया हो ॥४६।। कर्मभूमिरूप युगके प्रारम्भ में जो वर्षा हुई थी तबसे लेकर कालके प्रभावसे बढ़ता हुआ वही जल द्वीपके अन्त भाग तक हुच गया था ।।४७।। जो जल समुद्रस उछल उछलकर द्वीपम आया था वह अलंघनीय था, वहत गहरा था और उसने द्वीपके सब समीपवर्ती भागको घेर लिया था इसलिये वही उपसमुद्र कहलाने लगा था ।।४८॥ उस उपसमुद्रको देखते हुए भरतने सुखकर मार्गसे जाकर १ अभ्यन्तरप्रदेशाः । २ गुजारचित । ३ अनुपाधि । ४ व्याध । ५ कार्पासश्रीखण्डादि । ६ अपूजयन् । ७ समुद्रस्य बहिः । ८ द्वीपसम्बन्धि । ६ अगाधभावप्राप्तम् । १० प्रस्रवणम् । ११ सामर्थ्यतः । १२ अत्यन्तमहत्त्वात् । १३ उत्कटम् । १४ सुखपथेन ल० । सुलपथेन इ०, ल० । 'सुखेन लायत गह्यते इति सुलः' इति 'इ' टिप्पण्याम् । १५ वेद्यन्तभागे ल० । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् वेदिकातोरणद्वारमस्ति 'तत्रोच्छितं महत् । शनैस्तेन प्रविश्यान्तर्वणं सैन्यं न्यविक्षत ॥५०॥ तत्र वास्तु वशादस्य किञ्चित्सङकुचिता यतः । स्कन्धावारनिवेशोऽभूद् अलाध्यव्यूहविस्तृतिः ॥५१॥ नन्दनप्रतिमें तस्मिन् वने रुद्धातपाङिपे। गङगाशीतानिलस्पर्शः तबलं सुखमावसत् ॥५२॥ तस्मिन् पौरुषसाध्येऽपि कृत्य देवं प्रमाणयन् । लवणाब्धिजयोद्युक्तः सोऽभ्यच्छद् दैविकी क्रियाम् ॥५३॥ 'अधिवासितजैत्रास्त्रः स त्रिरात्रमुपोषिवान् । मन्त्रानुस्मृतिपूतात्मा शुचितल्पोपगः शुचिः ॥५४॥ सायं प्रातिकनिःशेषकरणीय समाहितः । पुरोधोऽधिष्ठितां पूजां स व्यधात् परमेष्ठिनाम् ॥५५॥ सेनान्यं बलरक्षाय नियोज्य विधिवद् विभुः। प्रतस्थे घृतदिव्यास्त्रो जिगीषुर्लवणाम्बुधिम् ॥५६॥ प्रतिग्रहा पसारादिचिन्ताऽभून्नास्य चेतसि । विलिलङधयिषोरब्धिम् अहो स्थर्य महात्मनाम् ॥५७॥ अजितञ्जयमारुक्षद् रथं दिव्यास्त्रसम्भूतम् । योजितं वाजिभिदिव्यः जलस्थलविलङियभिः ॥५८॥ १३पत्रश्यामरथं प्रोच्चैः चलच्चक्राडककेतनम् । तमूहर्जवना वाहा दिव्य"सव्यष्ट्रचोदिताः ॥५६॥ ततोऽस्म दत्तपुण्याशीः पुरोधा १"धृतमङगलः । त्वं देव विजयस्वेति स इमामृचमापठत् ॥६०॥ गङ्गाके उपवनकी वेदीके अन्तभागमें सेनाका प्रवेश कराया ।।४९।। वहां वेदिकामें एक बड़ा भारी तोरणद्वार है जो कि उत्तर द्वार कहलाता है, उसी द्वारसे धीरे धीरे प्रवेश कर वनके भीतर सेनाको ठहराया ।।५०।। वहां चक्रवर्तीके शिविरकी जो रचना हुई थी उसकी, उस क्षेत्रके अनसार, लम्बाई तो अधिक थी परन्तु चौड़ाई कुछ कम थी और उसकी सेनाके विस्तार को कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था ॥५१॥ जो नन्दन वनके समान है तथा जिसके के आतापको रोकनेवाले हैं ऐसे उस वनमें भरतकी वह सेना गङ्गा नदीके शीतल वायुके • स्पर्शसे सुखपूर्वक निवास करती थी ॥५२॥ यद्यपि मागध देवको वश करना यह कार्य पौरुषसाध्य है अर्थात् पुरुषार्थसे ही सिद्ध हो सकता है तथापि उसमें दैवकी प्रमाणता मानकर लवण समुद्रको जीतने के लिये तत्पर हुए भरत महाराजने भगवान् अरहन्त देवके आराधन करनेका विचार किया ॥५३॥ जिसने मन्त्र तन्त्रोंसे विजयके शस्त्रोंका संस्कार किया है, तीन दिन उपवास किया है, मन्त्रके स्मरणसे जिसका आत्मा पवित्र है, जो पवित्र शय्यापर बैठा हुआ है, स्वयं पवित्र है, सायंकाल और प्रातःकालकी समस्त क्रियाओंमें सावधान है और पुरोहित जिसके समीप बैठा है ऐसे उन भरतने पञ्च परमेष्ठीकी पूजा की ।।५४-५५।। भरतने विधिपूर्वक सेनाकी रक्षाके लिये सेनापतिको नियुक्त किया और स्वयं दिव्य अस्त्र धारण कर लवण समुद्रको जीतनेकी इच्छासे प्रस्थान किया ॥५६॥ समुद्रको उल्लंघन करनेकी इच्छा करने वाले भरतके चित्तमें यह भी चिन्ता नहीं हुई थी कि क्या क्या साथ लेना चाहिये और क्याक्या यहां छोड़ देना चाहिये सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंका धैर्य ही आश्चर्यजनक होता है ॥५७॥ जो देवोपनीत अस्त्र-शस्त्रोंसे भरा हआ है और जिसमें जल स्थल दोनोंपर समान रूपसे चलने वाले दिव्य घोड़े जुते हुए हैं ऐसे अजितंजय नामके रथपर भरतेश्वर आरूढ हुए ॥५८॥ जो पत्तोंके समान हरितवर्ण है, जिसपर बहुत ऊंचे चक्रके आकारसे चिह्नित ध्वजा फहरा रही है और जो दिव्य सारथिके द्वारा प्रेरित है-हांका जा रहा है-ऐसे उस रथको वेगशाली घोड़े ले जा रहे थे ।।५९।। तदनन्तर हे देव, आपकी जय हो इस प्रकार भरतके लिये १ तत्रोत्तरं द०, ल० । २ द्वारेण । ३ गृहसामर्थ्यात् । ४ बलविन्यासविस्तारः । ५ सदृशे । ६ -माविशत् ल० । ७ मागधामरसाधनरूपकायें। ८ मन्त्रसंस्कृत । ९ अस्तमनप्रभातसम्बन्धि । १० स्वीकारत्यजनादि । ११ विलङघितुमिच्छोः । १२ मतास्थैर्य अ०, स०, इ० । १३ वाहनवाजिभिः श्यामवर्णीकृतरथम् । अनेकतद्रथाश्वाः हरिद्वर्णा इत्युक्ताः । १४ वेगिनः । १५ दिव्यसारथिप्रेरिताः । 'नियन्ता प्राजिता यन्ता स्तः क्षत्ता च सारथिः। सव्येष्ट्रदक्षिणस्थौ च संज्ञारथकुटुम्बिनः" इत्यभिधानात् । (सव्येष्टेति ऋदन्त इति केचित् )ऋचं मन्त्रमित्यर्थः । १६ चोदितं ल० । नोदिताः स०, अ०। १७ धृतमङगलम् अ०, स०, इ० । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितम पर्व ३९ जयन्ति विधुताशेषबन्धना धर्मनायकाः । त्वं धर्मविजयी भूत्वा तत्प्रसादाज्जयाखिलम् ॥६१॥ सन्त्यधिनिलया देवाः त्वद्भक्त्यन्तनिवासिनः। तान् विजेतुमय कालः तवेत्युच्चैर्जुघोष च ॥६२॥ ततः कतिपयैरेव नायकैः परिवारितः। जगतीतल मारक्ष गड गाद्वारस्य चक्रभूत् ॥६३॥ न केवल समुद्रान्सःप्रवेशद्वारमेव तत् । कार्यसिद्धरपि द्वार तदमस्त रथाङगभूत् ॥६४॥ धतमङगलवेषस्य तद्वद्यारोहण विभोः । विजयश्रीसमुद्वाहवेद्यारोहणवद् बभौ ॥६५॥ मद्गहाङगणवेदीयं जगतीति विकल्पयन । दृशं व्यापारयामास 'कुल्याबुद्ध्या महोदधौ ॥६६॥ स प्रतिज्ञामिवारूढो जगतीं तां महायतिम् । निस्तीर्णमिव तत्पार पारावारमजीगणत् ॥६७॥ मुहुः प्रचलदुद्वेलकल्लोलमनिलाहतम् । विलड्यनाभयादुच्चैः फूत्कुर्वन्तमिवारवैः ॥६॥ वीचिबाहुभिहन्मुक्तः सरत्नैः शीकरोत्करैः। पाद्यं स्वस्येव तन्वान मौक्तिकाक्षतमिश्रितैः ॥६६॥ प्रसङखयशङखमाकान्तविश्वद्वीपमपारकम् । परैरलडवचमक्षोभ्यं स्वबलौघानुकारिणम् ॥७०॥ उत्फेन जम्भिकारम्भैः सापस्मारमिवोल्बणम् । केनाप्यशक्यमाधर्तु क्वचिदप्यनवस्थितम् ॥७१॥ पवित्र आशीर्वाद देकर मंगलद्रव्य धारण किये हुए पुरोहितने इस नीचे लिखी हुई ऋचाको पढ़ा ।।६०।। समस्त कर्मबन्धनको नष्ट करनेवाले धर्मनायक-तीर्थकर देव सदा जयवन्त रहते हैं इसलिये उनके प्रसादसे तू भी धर्मपूर्वक विजय प्राप्त कर, सबको जीत ॥६१। उसी समय पुरोहितने यह भी जोरसे घोषणा की कि हे देव, इस समुद्र में निवास करनेवाले देव आपके उपभोग करने योग्य क्षेत्रके भीतर ही रहते हैं इसलिये उन्हें जीतनेके लिये आपका यह समय है ॥६२।। तदनन्तर कुछ वीर पुरुषोंसे घिरे हुए चक्रवर्ती भरत गङ्गाद्वारकी वेदीपर जा चढ़े ॥६३।। चक्रवर्तीने उस गङ्गाद्वारकी वेदीको केवल समुद्रके भीतर प्रवेश करनेका द्वार ही नहीं समझा था किन्तु अपने कार्यकी सिद्धि होनेका भी द्वार समझा था ।।६४।। मंगल वेषको धारण करनेवाले चक्रवर्तीका उस वेदीपर आरूढ होना विजय-लक्ष्मीके विवाहकी वेदीपर आरूढ होनेके समान बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ॥६५॥ यह वेदी मेरे घरके आंगनकी वेदी है इस प्रकार कल्पना करते हुए भरतने महासागरपर कृत्रिम नदीकी बुद्धिसे दृष्टि डाली थी। भावार्थ-भरतने अपने बलकी अधिकतासे गङ्गाकी वेदीको ऐसा समझा था मानो यह हमारे घरके आंगनकी ही वेदी है और महासमुद्रको ऐसा माना था मानो यह एक छोटी-सी नहर ही है ॥६६।। वे उस बड़ी लम्बी वेदीपर इस प्रकार आरूढ़ हुए थे जैसे अपनी प्रतिज्ञापर ही आरूढ़ हुए हों और समुद्रको उन्होंने ऐसा माना था जैसे उसके दूसरे किनारे पर ही पहुंच गये हो ॥६७।। उस वेदीपरसे उन्होंने समुद्र देखा, उस समुद्र में बारबार तटको उल्लंघन करनेवाली लहरें उठ रही थीं, पवन उसका ताड़न कर रहा था और वह अपने गंभीर शब्दोंसे ऐसा मालूम होता था मानो उल्लंघनके भयसे रो ही रहा हो। तरंगरूपी भुजाओंसे किनारेपर छोड़े हुए रत्न सहित जलके छोटे छोटे कणोंसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो भरतके लिये मोती और अक्षतोंसे मिला हुआ अर्घ ही दे रहा हो। उस समुद्र में असंख्यात शंख थे, उसने समस्त द्वीपोंको आक्रान्त कर लिया था, वह पाररहित था, उसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था और न उसे कोई क्षोभित ही कर पाता था इसलिये वह ठीक भरतकी सेनाके समूहका अनुकरण कर रहा था क्योंकि उसमें भी बजाये जानेवाले असंख्यात शंख थे, उसने भी समस्त द्वीप आक्रान्त कर लिये थे-अपने आधीन बना लिये थे, वह भी अपार था, वह भी दूसरोंके द्वारा अलंघनीय तथा क्षोभित करनेके अयोग्य था। वह समुद्र किसी अपस्मार (मृगी) १ तीर्थकराः । २ त्वत्पालनक्षेत्र । ३ वेदिभुवम् । ४ रथाङगधृत द०, इ०, ल० । ५ मडागलालडकारस्य । ६ 'कुल्याल्या कृषिमा सरित्'। ७ गारंगतम् । ८ उद्गतडिण्डीराभिवृद्धिः । पक्षे उद्गतफेन । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० महापुराणम् अकस्मादुच्चरवालम् अनिमित्तचलाचलम् । अकारणकृतावर्तम् अति सङकुसुकस्थितिम् ॥७२॥ हसन्तमिव फेनोवैः लसन्तमिवर वीचिभिः। चलन्तमिव कल्लोलः माद्यन्तभिव धूणितैः ॥७३॥ सरत्नमुल्बगविध मुक्तशूत्कारभीकरम् । स्फुरत्तरङगनिर्मोकं स्फुरन्तमिव भोगिनम् ॥७४॥ अत्यम्बुपानादुद्रिक्तप्रतिश्यायमिवाधिकम् । क्षुतानीव विकुर्वाण ध्वनितानि सहस्रशः ॥७॥ "अाधूनमसकृत्पीतविश्वस्त्रोतस्विनीरसम् । रसातिरेकादुद्गारं तन्वानमिव खात्कृतः ॥७६॥ निजगम्भीरपातालमहागर्तापदेशतः । अतृप्यन्तमिवाम्भोभिः पातालविवृताननम् ॥७७॥ के रोगीके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार अपस्मारका रोगी फेन सहित आती हई जृम्भिकाओं अर्थात् जमुहाइयोंसे व्याकुल रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी फेन सहित उठती हुई जृम्भिका अर्थात् लहरोंसे व्याकुल था, जिस प्रकार अपस्मारका रोगी किसी के द्वारा पकड़कर नहीं रखा जा सकता उसी प्रकार वह समुद्र भी किसीके द्वारा नहीं रोका जा सकता और जिस प्रकार अपस्मारका रोगी किसी भी जगह स्थिर नहीं रहता इसी प्रकार वह समुद्र भी किसी जगह स्थिर नहीं था-लहरोंके कारण चंचल हो रहा था। वह समद्र अकस्मात ही गम्भीर करता था, विना कारण ही चंचल था और बिना कारण ही उसमें आवर्त अर्थात भंवर पड़ते थे, इसलिये उसकी दशा किसी अन्यन्त भयभीत मनुष्य के समान हो रही थी क्योंकि अत्यन्त भयभीत मनुष्य भी अचानक शब्द करने लगता है, चिल्ला उठता है, बिना कारण ही कांपने लगता है, और बिना कारण ही आवर्त करने लगता है इधर उधर भागने लगता है। वह समद्र फेन उठनेसे ऐसा जान पड़ता था मानो हँस ही रहा हो, ज्वार-भाटाओंसे ऐसा मालूम होता था मानो लास्य (नृत्य) ही कर रहा हो, लहरोंसे ऐसा सुशोभित होता था मानो चल ही रहा हो और हिलनेसे ऐसा दिखाई देता था मानो नशे में झूम ही रहा हो अथवा वह समुद्र किसी सर्पके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार सर्प रत्नसहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी रत्नसहित था, जिस प्रकार सर्पमें उत्कट विष अर्थात् जहर रहता है उसी प्रकार समुद्र में भी उत्कट विष अर्थात् जल था, जिस प्रकार सर्प सू सू आदि फुकारोंसे भयंकर होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी सू सू आदि शब्दोंसे भयंकर था, जिस प्रकार सर्पके देदीप्यमान कांचली होती है उसी प्रकार उस समद्रके भी देदीप्यमान लहरें थीं, और जिस प्रकार सर्प चंचल रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी चंचल था । अथवा वह समुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो अधिक पानी पीनेसे उसे सर्दी (जुकाम) ही हो गई हो और इसीलिये हजारों शब्दोंके बहाने छींकें ही ले रहा हो। अथवा वह समुद्र किसी आधुन अर्थात् बहुत खानेबाले-पेटू-मनुष्य के समान जान पड़ता था, क्योंकि जिस प्रकार आघून मनुष्य बहुत खाता है और बादमें भोजन की अधिकता होनेसे डकारें लेता है उसी प्रकार उस समुद्रने भी समस्त नदियोंका जल पी लिया था और बादमें जलकी अधिकता होनेसे वह भी शब्दोंके बहाने डकारें ले रहा था। वह समुद्र अपने गम्भीर पातालरूपी महाउदरके बहानेसे जलसे कभी तृप्त नहीं होता था और इसी लिये मानो उसने तालु पर्यन्त अपना मुख खोल रखा था। भावार्थ-वह समुद्र किसी ऐसे मनुष्यके समान जान पड़ता था जो बहुत खानेपर भी तृप्त नहीं होता, क्योंकि जिस प्रकार तृप्त नहीं होनेवाला मनुष्य बहुत कुछ खाकर भी तृष्णासे अपना मुख खोले रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी बहुत कुछ जल ग्रहण कर चुकनेपर भी तृष्णासे अपना मुख खोले रहता था-नदियों १चञ्चलम् । २ नितराम् अस्थिरस्थितिम् । 'असंकसकोऽस्थिरे' इत्यमरः । विशेषनिघ्नवर्गः । ३ नृत्यन्तम् । ४ उत्कटजलम् । ५ सीकरम् प० । ६ उत्कटपीनसम् 'प्रतिश्यायस्तु पीनराः' इत्यभिधानात् । ७ औदरिकम् । तृप्तिरहितमित्यर्थः । ८ -गपि- ल० । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितम पर्व ४१ दिशां 'रावणमाकान्त्याचलग्राहं विभीषणम्। रक्षसामिव सम्पातमतिकायं' महोदरम् ॥७॥ वीचीबाहुभिराघ्नन्तम् अजस्रं तटवेदिकाम् । समर्यादत्वमाहत्य श्रावयन्तमिवात्मनः ॥७९॥ चनद्भिरचलोदः कल्लोलरतितिनम् । सरिद्युवतिसम्भोगाद् असम्मान्तमिवात्मनि ॥८॥ तरङिगतत वृद्धं प्रयुकं व्यक्तरडिगतम् । सरत्नमतिकान्ताडगं सग्राहमतिभीषणम् ॥८॥ लावण्येऽपि न सम्भोग्यं गाम्भीर्येऽप्यनवस्थितम् । महत्त्वेऽपि कृताक्रोश व्यक्तमेव जलाशयम् ॥८२॥ न चास्य मदिरासङगो न कोऽपि मदनज्वरः । तथाप्युद्रिक्त कन्दर्पम् आरूढमधुविक्रियम् ॥८३॥ का अन्य जल ग्रहण करनेके लिये तत्पर रहता था। वह समद्र समस्त दिशाओंमें व्याप्त होकर शब्द कर रहा था इसलिये 'रावण' था, उसने अनेक पहाड़ अपने जलके भीतर डुबा लिये थे इसलिये 'अचलग्राह' था। वह सब जीवोंको भय उत्पन्न कराता था इसलिये विभीषण था, अत्यन्त बड़ा था इसलिये 'अतिकाय' था और बहुत गहरा होनेसे 'महोदर' था इस प्रकार वह ऐसा जान पड़ता था मानो राक्षसोंका समह ही हो। वह समुद्र अपनी तरङ्गरूपी भुजाओं के द्वारा किनारेकी वेदीपर निरन्तर आघात करता रहता था इसलिये ऐसा जान पड़ता था मानो धक्का देकर उसे अपने समर्यादपनेको ही सुना रहा हो । वह पर्वतके समान ऊंची उठती हुई लहरोंसे किनारेको उल्लंघन कर रहा था इसलिये ऐसा जान पड़ता था मानो नदीरूप स्त्रियोंके साथ संभोग करनेसे अपने आपमें ही नहीं समा रहा हो । उसके शरीरमें अनेक तरंगरूपी सिकुड़नें उठ रही थीं इसलिये वह वृद्ध पुरुषके समान जान पड़ता था, (पक्षमें अत्यन्त बड़ा था) अथवा वह समद्र किसी पथक अर्थात् बालकके समान मालूम होता था (पक्षमें पृथु क अधिक है जल जिसमें ऐसा था) क्योंकि जिस प्रकार बालक पृथिवीपर घुटनोंके बल चलता है उसी प्रकार वह समद्र भी लहरोक द्वारा पृथिवीपर चल रहा था, जिस प्रकार बालक सरकता है उसी प्रकार वह भी लहरोंसे सरकता था, जिस प्रकार बालक अत्यन्त सुन्दर होता है उसी प्रकार वह भी अत्यन्त सुन्दर था। इसके सिवाय वह समुद्र मगरमच्छ आदि जलचरजीवों से सहित था तथा अत्यन्त भयंकर था अथवा वह समुद्र स्पष्ट ही जलाशय (ड और ल में अभेद होनेसे जडाशय) अर्थात् मूर्ख था क्योंकि लावण्य रहनेपर भी वह उपभोग करने योग्य नहीं था जो लावण्य अर्थात् सुन्दरतासे सहित होता है वह उपभोग करने योग्य अवश्य होता है परन्तु समद्र वैसा नहीं था (पक्षमें लावण्य अर्थात खारापन होनेसे किसीके पीने योग्य नहीं था) गंभीरता होनेपर भी वह स्थिर नहीं था, जो गंभीरता अर्थात् धैर्यसे सहित होता है वह स्थिर अवश्य रहता है परन्तु समुद्र ऐसा नहीं था (पक्षमें गंभीरता अर्थात् गहराई होनेपर भी वह लहरोंसे चंचल रहता था) और महत्त्वके रहते हुए भी वह चिल्लाता रहता था-गालियां बका करता था, जो महत्त्व अर्थात बड़प्पनसे सहित होता है वह बड़ा शान्त रहता है, चिल्लाता नहीं है परन्तु समुद्र ऐसा नहीं था (पक्षमें बड़ा भारी होनेपर भी लहरोंके आघातसे शब्द करता रहता था) इन सब कारणोंसे स्पष्ट है कि वह जडाशय अवश्य था (पक्षमें जल है आशयमें जिसके अर्थात् जलसे भरा हआ था)। उस समद्रके यद्यपि मद्यका संगम नहीं था-मद्यपानका अभाव था तथापि वह आरूढ मधविक्रिय था अर्थात् मद्यपानसे उत्पन्न होने वाले विकार नशाको धारण कर रहा था. इसी प्रकार यद्यपि उसके काम-ज्वर नहीं था तथापि वह उद्रिक्तकंदर्प था अर्थात तीव्र काम-विकारको धारण करनेवाला था। भावार्थ-इस श्लोक श्लेष १ रौतीति रावणस्तम । शब्दं कर्वन्तमिति यावत् । पक्षे दशास्यम् । २ पर्वतस्वीकारवन्तम् । पक्ष अचलग्राहमिति कञ्चिद् राक्षसम । ३ भयङकरम् । पक्षे रावणानुजम् । ४ अतिशयं मूतिम् महान्तमित्यथः । पक्षे अतिकायमिति कञ्चिदसरम । ५ महाकक्षिम् । पक्षे महोदरमिति राक्षसम् । ६ उत्कटकामम्, पक्षे उत्कटजलदर्पम् । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ महापुराणम् श्रनाशितंभवं पीत्वा सुस्वादुसरितां जलम् । गतागतानि कुर्बन्तं सन्तोषादिव वीचिभिः ॥ ८४ ॥ नदीवधूभिरासेव्यं कृतरत्नपरिग्रहम् । महा' भोगिभिराराध्यं चातुरन्तमिव प्रभुम् ॥८५॥ यादोदोर्घातनिर्घात दूरोच्चलितशीकरैः । सपताकमित्राशेष शेषार्णवविनिर्जयात् ॥८६॥ कुलाचलपृयुस्तम्भजम्बू द्वीप महौकसः" । विनीलरत्ननिर्माणम् एकं सालमिवोच्छ्रितम् ॥८७॥ श्रनादिमस्तपर्यन्तम् अखिलार्थावगाहनम् । गभीरशब्दसन्दर्भ श्रुतस्कन्धमिवापरम् ॥८८॥ नित्यप्रवृत्तशब्दत्वाद् द्रव्याथिकनयाश्रितम् । वीचीनां क्षणभङगित्वात् पर्यायनयगोचरम् ॥८६॥ नित्यानुबद्धतृष्णत्वात् शश्वज्जलपरिग्रहात्' । गुरूणां च तिरस्कारात् 'किराजानमिवान्वहम् ॥६०॥ मूलक विरोधाभास अलंकार है इसलिये प्रारम्भ-काल में विरोध मालूम होता है परन्तु बाद में उसका परिहार हो जाता । परिहार इस प्रकार समझना चाहिये कि वह मद्यके संगमसे रहित होकर मधु अर्थात् पुष्परसकी विक्रिया धारण कर रहा था अथवा मनोहर जलपक्षियों की क्रियाएं धारण कर रहा था और कामज्वरसे रहित होकर भी उद्रिक्त-कं-दर्प था अर्थात् जलके अहंकार से सहित था । वह समुद्र किनारेपर आती जाती हुई लहरोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो जिससे कभी तृप्ति न हो ऐसा नदियोंका मीठा जल पीकर लहरों द्वारा संतोपसे गमनागमन ही कर रहा हो । अथवा वह समुद्र चक्रवर्तीके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार चक्रवर्ती अनेक स्त्रियोंके द्वारा सेवित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी नदीरूपी अनेक स्त्रियों के द्वारा सेवित था, जिस प्रकार चक्रवर्ती के पास अनेक रत्नोंका परिग्रह रहता है उसी प्रकार उस समुद्र के पास भी अनेक रत्नोंका परिग्रह था, जिस प्रकार चक्रवर्ती महाभोगी अर्थात् बड़े बड़े राजाओं के द्वारा आराधन करने योग्य होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी महाभोगी अर्थात् बड़े-बड़े सर्पोंके द्वारा आराधन करने योग्य था और जिस प्रकार चक्रवर्ती चारों ओर प्रसिद्ध रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी चारों ओर प्रसिद्ध था - व्याप्त था । जल-जन्तुओंके आघातसे उड़ी हुई और बहुत दूरतक ऊंची उछटी हुई जलकी बूंदोंसे वह समुद्र ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बाकी के समस्त समुद्रोंको जीतनेसे अपनी विजय पताका ही फहरा रहा हो । उस समुद्रका नीले रंगका पानी वायुके वेगसे ऊपरको उठ रहा था जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो कुलाचलरूपी बड़े बड़े खंभोंपर बने हुए जम्बुद्वीपरूपी विशाल घरका नील रत्नोंसे बना हुआ एक ऊंचा कोट ही हो । अथवा वह समुद्र दूसरे श्रुतस्कन्धके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार श्रुतस्कन्ध आदि - अन्त-रहित है उसी प्रकार वह समुद्र भी आदि - अन्त-रहित था, जिस प्रकार श्रुतस्कन्ध समस्त पदार्थोंका अवगाहन-निरूपण करनेवाला है उसी प्रकार वह समुद्र भी समस्त पदार्थोंका अवगाहन-प्रवेशन-धारण करनेवाला है, और जिस प्रकार श्रुतस्कन्ध में गंभीर शब्दोंकी रचना है उसी प्रकार उस समुद्रमें भी गम्भीर शब्द होते रहते थे-अथवा वह समुद्र द्रव्यार्थिक नयका आश्रय लेता हुआ सा जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार द्रव्याथिंक नयसे प्रत्येक पदार्थ में नित्य शब्दकी प्रवृत्ति होती है उसी प्रकार उस समुद्र में भी नित्य शब्द की प्रवृत्ति हो रही थी अर्थात् निरन्तर गंभीर शब्द होता रहता था । अथवा उसकी लहरें क्षणभंगुर थीं इसलिये वह पर्यायार्थिकके गोचर भी मालूम होता था क्योंकि पर्यायार्थिक नय पदार्थोंको क्षणभंगुर अर्थात् अनित्य बतलाता है । अथवा वह समुद्र किसी दुष्ट राजाके समान मालूम होता था क्योंकि जिस प्रकार दुष्ट राजा सदा तृष्णासे सहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी सदा तृष्णासे सहित रहता था अर्थात् प्रतिक्षण अनेक नदियोंका जल ग्रहण करते रहने १ अतृप्तिकरम् । २ महासर्पोंः । ३ सार्वत्रिकं प्रसिद्ध मित्यर्थः । चातुरङ्ग स०, इ० अ०, प० । ४ निर्द्धर्त-ल० । ५ महागृहस्य । ६ जलस्वीकारात् । ७ गुरुद्रव्याणामधःकरणात् । ८ कुत्सितराजानम् । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व ससत्त्वमतिगम्भीर भोगिभिर्धतवेलकम् । स राजानमिवात्युच्चः वृत्ति मर्यादया धृतम् ॥१॥ अनेकमन्तरद्वीपमन्तर्वतिनमात्मनः । दुर्गदेशमिवाहार्य पालयन्तमलङघनैः ॥२॥ गर्जभिरतिगम्भीर नभोव्यापिभिरूजितैः । आपूर्यमाणमम्भोभिः घनौधैः किडकरैरिव ॥३॥ 'रअगितैश्चलितः क्षोभैः उत्थितैश्च विवर्तनः । ग्रहाविष्टमिवोज्जम्भं सध्यानं च सणितम् ॥१४॥ रत्नांशुचित्रिततलं मुक्ताशबलितार्णसम् । ग्राहरध्यासितं विष्वक्सुखालोकं च भीषणम् ॥६५॥ नदीनं रत्नभूधिष्ठम् अप्प्राणं चिरजीवितम् । समुद्रमपि चोन्मुद्र० झषके'तुमसन्मथम् ॥६६॥ पर भी संतुष्ट नहीं होता था, जिस प्रकार दुष्ट राजा जल (जड़) अर्थात् मूर्ख मनुष्योंसे घिरा रहता है उसी प्रकार वह समद्र भी निरन्तर जल अर्थात पानीसे घिरा रहता था, और जिस प्रकार दुष्ट राजा गुरु अर्थात् पूज्य महापुरुषोंका तिरस्कार करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी गुरु अर्थात् भारी वजनदार पदार्थोका तिरस्कार करता रहता था अर्थात् उन्हें डुबोता रहता था। अथवा वह समुद्र किसी उत्तम राजाक समान जान पड़ता था क्योकि जिस प्रकार उत्तम राजा सत्त्व अर्थात पराक्रमसे सहित होता है उसी प्रकार वह समद्र भी सत्त्व अर्थात जल-जन्तुओं से सहित था, जिस प्रकार उत्तम राजा अत्यन्त गंभीर होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अत्यन्त गंभीर अर्थात् गहरा था, जिस प्रकार उत्तम राजाके समीप अनेक भोगी अर्थात् राजा लोग विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार उस समद्रकी बला (तट) पर भी अनेक भोगी अर्थात सर्प विद्यमान रहते थे, जिस प्रकार उत्तम राजाकी वृत्ति उच्च होती है उसी प्रकार उस समुद्रकी वृत्ति भी उच्च थी अर्थात् उसका जल हवासे ऊंचा उठ रहा था और जिस प्रकार उत्तम राजा मर्यादा अर्थात् कूल-परम्परास आईहुई समीचीन पद्धतिस सहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी मर्यादा अर्थात् पालीसे सहित था। वह समुद्र अपने मध्यम रहनेवाले अनेक अन्तर्वीपोंकी रक्षा कर रहा था वे अन्तर्वीप उसके अलंघनीय तथा हरण करनेके अयोग्य किलोंके समान जान पडते थे। वह अतिशय गम्भीर समुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो सेवकोंके समान निरन्तर बढ़ते जते हुए और आकाशमें फैले हुए मेघोंके द्वारा ही जलसे भरा गया हो अथवा वह समुद्र किसी ग्रहाविष्ट अर्थात् भूत लगे हुए मनुष्यके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार ग्रहाविष्ट मनुष्य जमीनपर रेंगता है, चलता है, क्षुब्ध होता है, ऊंचा उछलता है और इधर उधर घूमता है अथवा करवटें बदलता है उसी प्रकार वह समुद्र भी लहरोंसे पृथिवीपर रेंग रहा था, चल रहा था, क्षुब्ध था, ऊंचा उछलता और इधर उधर घूमता था अर्थात् कभी इधर लहरता था तो कभी उधर लहरता था, तथा ग्रहाविष्ट मनुष्य जिस प्रकार उज्जृम्भ अर्थात् उठती हुई जमुहाइयोंसे सहित होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी उज्जृम्भ अर्थात् उठती हुई लहरोंसे सहित था, जिस प्रकार ग्रहाविष्ट मनुष्य शब्द करता है उसी प्रकार समुद्र भी शब्द कर रहा था और जिस प्रकार ग्रहाविष्ट मनुष्य कांपता रहता है उसी प्रकार वह समुद्र भी वायुसे कांपता रहता था। उस समुद्रका तल भाग रत्नोंकी किरणोंसे चित्र-विचित्र हो रहा था, उसका जल मोतियोंसे चित्रित था, और वह चारों ओर मगरमच्छोंसे भरा हुआ था इसलिये वह देखने में अच्छा भी लगता था और भयानक भी मालूम होता था। वह समुद्र अनेक रत्नों १ भूप्रसर्पणः । २ चलनः । ३ उत्थानः। ४ भ्रमणः । ५ उज्ज़म्भणम् । पक्षे जम्भिकासहितम् । ६ सरित्पतिम् । निस्वसदृशम् । 'नभावे निषेधे च स्वरूपार्थे व्यतिक्रमे। ईषदर्थे च सादृश्ये तद्विरुद्धतदन्ययोः ॥' इत्यभिधानात् । ७ आपः प्राणं यस्य स तम् । पक्षे गतप्राणम् । ८ चिरकालस्थायिनम् । -जीविनम् अ०प०,ब०स०,इ० । ६ मुद्रया सहितम् । १० मुद्रारहितम् । महान्तमित्यर्थः । ११ झषाअकितम् । १२ मत् मनो मथ्नातीति मन्मथः न मन्मथः अमन्मथस्तं मनोहरमित्यर्थः । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ महापुराणम् अदृष्टपारमोभ्यम् असंहार्य मनुत्तरम् । सिद्धालयमिव व्यक्तम् अव्यक्तममृतास्पदम् ॥७॥ क्वचिन्महोपलच्छाया धृतसन्ध्याभूविभूमम् । कृतान्धतमसारम्भं क्वचिन्नीलाश्मरश्मिभिः ॥९॥ हरिन्मणिप्रभोत्सः क्वचित्सन्दिग्ध शैवलम् । क्वचिच्च कौडाकुमी कान्ति तन्वानं विद्रुमाङकुरैः MEET क्वचिच्छुक्तिपुटोभेदसमुच्चलितमौक्तिकम् । तारकानिकराकोणं हसन्तं जलभृत्पथम् ॥१०॥ वेलापर्यन्तसम्मू ईत्सर्वरत्नांशुशीकरः । क्वचिदिन्द्रधनुर्लेखां लिखन्तमिव खाडगणे ॥१०१॥ रथाङ्गपाणिरित्युच्चैः सम्भूतं रत्नकोटिभिः। महानिधिमिवापूर्वम् अपश्यन्मकराकरम् ॥१०२॥ से भरा हुआ था इसलिये नदीन अर्थात् दीन नहीं था यह उचित था (पक्षमें 'नदी इन' नदियोंका स्वामी था)परन्तु अप्राण अर्थात् प्राण रहित होकर भी चिरजीवित अर्थात् बहुत य तक जीवित रहनवाला था, समुद्र अर्थात् मुद्रा सहित होकर भी उन्मुद्र अर्थात् मुद्रारहित था और झषकेतु अर्थात् मछलीरूप पताकासे सहित होकर भी अमन्मथ अर्थात् कामदेव नहीं था यह विरुद्ध बात थी किन्तु नीचे लिखे अनुसार अर्थमें परिवर्तन कर देनेसे कोई विरुद्ध बात नहीं रहती। वह प्राणरहित होनेपर भी चिरजीवित अर्थात् चिरस्थायी रहनेवाला था अथवा चिरकालसे जल सहित था, समुद्र अर्थात् सागर होकर भी उन्मुद्र अर्थात् उत्कृष्ट आनन्दको देनेवाला था (उद्-उत्कृष्टां मुदं हर्ष राति-ददातीति उन्मुद्रः) और झषकेतु अर्थात् समुद्र अथवा मछलियोंके उत्पातसे सहित होकर भी अमन्मथ अर्थात् काम नहीं था। अथवा वह समुद्र स्पष्ट ही सिद्धालयके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार सिद्धालयका पार दिखाई नहीं देता है उसी प्रकार उस समुद्रका भी पार दिखाई नहीं देता था-दोनों ही अदृष्टपार थे,जिस प्रकार सिद्धालय अक्षोभ्य है अर्थात् आकुलता-रहित है उसी प्रकार समुद्र भी अक्षोभ्य था अर्थात् क्षोभित करनेके अयोग्य था उसे कोई गँदला नहीं कर सकता था, जिस प्रकार सिद्धालयका कोई संहार नहीं कर सकता उसी प्रकार उस समूहका भी कोई संहार नहीं कर सकता प्रकार सिद्धालय अनुत्तर अर्थात् उत्कृष्ट है उसी प्रकार वह समुद्र भी अनुत्तर अर्थात् तैरनेके अयोग्य था, जिस प्रकार सिद्धालय अव्यक्त अर्थात् अप्रकट है उसी प्रकार वह समुद्र भी अव्यक्त अर्थात अगम्य था और सिद्धालय जिस प्रकार अमतास्पद अर्थात अमत (मोक्ष)का स्थान है उसी प्रकार वह समुद्र भी अमृत (जल) का स्थान था। कहीं तो वह समुद्र पद्मरागमणियों से संध्या कालके बादलोंकी शोभा अथवा संदेह धारण कर रहा था और कहीं नील मणियोंकी किरणोसे गाढ़ अन्धकारका प्रारम्भ करता हुआ सा जान पड़ता था। कहीं हरित मणियोंकी कान्तिके प्रसारसे उसमें शेवालका संदेह हो रहा था और कहीं वह मूंगाओंके अंकुरोंसे कुंकुम की कान्ति फैला रहा था। कहीं सीपोंके संपुट खुल जानेसे उसमें मोती तैर रहे थे और उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओके समूहसे भरे हुए आकाशकी ओर हँस ही रहा हो। तथा कहींपर किनारेके समीप ही समस्त रत्नोंकी किरणों सहित जलकी छोटी छोटी बंदें पड़ रही थों उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशरूपी आंगनमें इन्द्रधनुषकी रेखा ही लिख रहा हो। इस प्रकार जो ऊँचे तक करोड़ों रत्नोंसे भरा हुआ था ऐसे उस समुद्रको चक्रवर्तीने अपूर्व महानिधिके समान देखा ।।६८-१०२॥ १ अविनाश्यम्। २ न विद्यते उत्तरः श्रेष्ठो यस्मात् स तम् । ३ सलिलपीयूषनिवासम् । पक्षे अभयस्थानम् । 'सुधाकरयज्ञशेषसलिलाज्यमोक्षधन्वन्तरिविषकन्दच्छिन्नसहायदिविजेष्वमृत' इत्यभिधानात्। ४ पद्मराग- माणिक्य । ५ लिप्त । सन्देहविषयीकृत। ६ समुत्सर्पन्नानारत्नमरीचियुतशीकरैः। ७ -संकरैः प०। ८ मकरालयम् ल० । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व दृष्ट्वाऽथ तं महाभागः कृतधीर्धीरनिःस्वनम् । दृष्टचैवातुलयच्चक्री गोष्पदावज्ञयार्णवम् ॥१०३॥ ततोऽभिमतसंसिद्ध्यं कृतसिद्धनमस्त्रियः । रथं प्रचोदयेत्युच्चैः प्राजितारमचोदयत् ॥१०४॥ विमुक्तप्रवाहः ऊयमानो मनोजवैः । लवणाब्धौ द्रुतं 'प्रायाद यानपात्रायितो रथः ॥ १०५॥ रथो मनोरथात पूर्व रथात् पूर्वं मनोरथः । इति सम्भाव्यवेगोऽसौ रथो वाधिं व्यगाहत ॥१०६ ॥ जलस्तम्भः प्रयुक्तो नु जलं न स्थलतां गतम् । स्यन्दनं यदमी वाहा जले निन्युः स्थलास्थया ॥१०७॥ तथैव चक्रचीत्कारः तथैवोच्चैः प्रधौरितम्' । यथा बहिर्जलं पूर्वम् श्रहो पुण्यं रथाङगिनः ॥ १०८ ॥ महद्भिरपि कल्लोलः 'शोक्यमानास्तुरङ्गमाः । रथं निन्युरनायासात् प्रत्युतैषां स विश्रमः ॥ १०६॥ रथचक्रस" मुत्पीडाज्जलोत्पीडः त्वमुत्पतन् । न्यधाद् ध्वजांशु के जाड्यं जलानामीदृशी गतिः ॥ ११० ॥ नागरागस्तुरङ्गाणाम् श्रादितः श्रमघमतः । क्षालितः खुरवेगोत्थैः केवलं शीकरैरपाम् ॥ १११ ॥ क्षणं रथाङ्गसङ्घट्टाज्जलमयेद्विधाऽभवत् । व्यभावि भाविनां वर्त्म चक्रिणामिव सूत्रितम् ॥ ११२ ॥ रथोऽस्याभिमतां भूमि प्रापत्सारथि चोदितः । मनोरथोऽपि संसिद्धि पुण्यसारथिचोदितः ॥११३॥ तदनन्तर-महाभाग्यशाली बुद्धिमान् भरतने गम्भीर शब्द करते हुए उस समुद्रको देखकर, दृष्टि मात्र से ही उसे गायके खुरके समान तुच्छ समझ लिया ॥ १०३॥ और फिर अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार कर 'शीघ्र ही रथ बढ़ाओ' इस प्रकार सारथिके लिये जोरसे प्रेरणा की || १०४ || जिनकी रास ढीली कर दी गई है और जिनका वेग मनके समान है ऐसे घोड़ोंके द्वारा ले जाया जानेवाला वह रथ लवणसमुद्रमें जहाजकी नाई शीघ्रताके साथ जा रहा था ।। १०५ ॥ मनोरथसे पहले रथ जाता है अथवा रथसे पहले मनोरथ जाता है इस प्रकार जिसके वेगकी सम्भावना की जा रही है ऐसा वह रथ समुद्र में बड़े वेगके साथ जा रहा था ।। १०६ ।। क्या वह जलस्तम्भिनी विद्यासे थंभा दिया गया था अथवा स्थलपनेको ही प्राप्त हो गया था क्योंकि चक्रवर्तीके घोड़े स्थल समझकर ही जलमें रथ खींचे लिये जा रहे थे ।। १०७ ।। जिस प्रकार जलके बाहर पहियों का चीत्कार शब्द होता था उसी प्रकार जलके भीतर भी हो रहा था और जिस प्रकार जलके बाहर घोड़े दौड़ते थे उसी प्रकार जल के भीतर भी दौड़ रहे थे, अहा ! चक्रवर्तीका पुण्य भी कैसा आश्चर्यजनक था ! ॥ १०८॥ वे घोड़े बड़ी बड़ी लहरोंसे सींचे जानेपर भी बिना किसी परिश्रमके रथको ले जा रहे थे । उन लहरोंसे उन्हें कुछ दुःख नहीं होता था बल्कि उनका परिश्रम दूर होता जाता था ।। १०९ ।। रथके पहिये के आघातसे आकाशकी ओर उछलनेवाले जलके समूहने ध्वजाके वस्त्र में भी जाड्य अर्थात् भारीपन ला दिया था सो ठीक ही है क्योंकि जलका ऐसा ही स्वभाव होता है । भावार्थसंस्कृत काव्योंमें ड और ल के बीच कोई भेद नहीं माना जाता इसलिये जलानाम् की जगह जडानाम् पढ़कर चतुर्थ चरणका ऐसा अर्थ करना चाहिये कि मूर्ख मनुष्योंका यही स्वभाव होता है कि वे दूसरोंमें भी जाड्य अर्थात् मूर्खता उत्पन्न कर देते हैं ।। ११० ।। घोड़ोंके शरीर पर लगाया हुआ अंगराग (लेप) परिश्रमसे उत्पन्न हुए पसीनेसे गीला नहीं हुआ था केवल खुरोंके वेगसे उठे हुए जलके छींटोंसे ही धुल गया था ।। १११।। रथके पहियोंके संघट्टनसे क्षण भरके लिये जो समुद्रका जल फटकर दोनों ओर होता जाता था वह ऐसा मालूम होता था मानो आगे होनेवाले सगर आदि चक्रवर्तियोंके लिये सूत्र डालकर मार्ग ही तैयार किया जा रहा हो ।। ११२ ।। सारथिके द्वारा चलाया हुआ चक्रवर्तीका रथ उनके अभिलषित स्थानपर पहुंच १ महाभागं ल० । २ सारथिम् । ३ त्यक्तरज्जुभिः । ४ अगच्छत् । ५ स्थलमिति बुद्ध्या । ६ गतिविशेषाक्रान्तम् । ७ जलाद् बहिः । स्थल इत्यर्थः । ८ सिच्यमानाः । सेचनविधिः । १२ जलसमूहः । जलानां जडानामिति ध्वनिः । १३ स्वेदः । ε १० श्रमहरणकारणम् । ११ समुत्पीडनात् । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ महापुराणम् गत्वा कतिवयान्यब्धौ योजनानि रथः प्रभोः । स्थितोऽन्तर्जलमाक्रम्य प्रस्ताश्व इव वाधिना ॥ ११४ ॥ द्विषयोजनमागाय स्थिते मध्येऽर्णव' रथे । रथाङ्गपाणिरारुष्टो' जग्राह किल कार्मुकम् ॥ ११५ ॥ स्फुरज्ज्यं वज्रकाण्डं तद्धनुरारोपितं यदा । तदा जीवित सन्देहवोलारूढमभूज्जगत् ॥ ११६॥ स्फुरन्मौर्वीरवस्तस्य मुहुः प्रध्वानयन् विशः । प्रक्षोभमनयद्वाधिं चलत्तिमिकुलाकुलम् ॥११७॥ संहार्यः किममुष्याब्धिः उत विश्वमिदं जगत् । इत्याशङक्य क्षणं तस्थे तदा नभसि खेचरैः ॥ ११८ ॥ ast गुणवत्यस्मिन् ऋजुकर्मणि कार्मुके । श्रमोघं सन्दधे बाणं श्लाध्यं 'स्थानकमास्थितः ॥ ११६ ॥ 'श्रहं हि भरतो नाम चक्री वृषभनन्दन: । मत्साद्भवन्तु मद्भुक्तिवासिनो' व्यन्तरामराः ॥१२०॥ इति व्यक्तलिपिन्यासो दूतमुख्य इव द्रुतम् । स पत्रीं चक्रिणा मुक्तः प्राङ्मुखीमास्थितो गतिम् ॥ १२१ ॥ जितनिर्घातनिर्घोषं ध्वनिं कुर्वशभस्तलात् । न्यपप्तन्मागधावासे तत्सैन्यं क्षोभमानयन् ॥ १२२ ॥ किमेष क्षुभितोऽम्भोधिः कल्पान्तपवनाहतः । निर्घातः किस्विवुद्ध्वान्तो भूमिकम्पो नु जृम्भते ॥ १२३॥ इत्याकुलाकुलधियः तन्निकायोपगाः सुराः । परिवव्रुरुपेत्यैनं सप्तद्धा मागधं प्रभुम् ॥ १२४ ॥ देव दीप्रः शरः कोऽपि पतितोऽस्मत्सभागणे । तेनायं प्रकृतः क्षोभो न किञ्चित्कारणान्तरम् ॥१२५॥ गया और पुण्यरूपी सारथिके द्वारा प्रेरित हुआ उनका मनोरथ भी सफलताको प्राप्त हो गया ॥ ११३ ॥ महाराज भरतका रथ समुद्रमें कुछ योजन जाकर जलके भीतर ही खड़ा हो गया मानो समुद्रने ऊपरकी ओर बढ़कर उसके घोड़े ही थाम लिये हों ॥ ११४॥ जब वह रथ समुद्र के भीतर बारह योजन चलकर खड़ा हो गया तब चक्रवर्तीने कुछ कुपित होकर धनुष उठाया ॥ ११५ ॥ जिसकी प्रत्यंचा ( डोरी) स्फुरायमान है और काण्ड वजूके समान है ऐसा वह धनुष जिस समय चक्रवर्तीने प्रत्यंचासे युक्त किया था उसी समय यह जगत् अपने जीवित रहनेके संदेह रूपी झूलापर आरूढ़ हो गया था अर्थात् समस्त संसारको अपने जीवित रहनेका संदेह हो गया था ।। ११६ ।। समस्त दिशाओंको बार-बार शब्दायमान करते हुए चक्रवर्तीके धनुषकी स्फुरायमान प्रत्यंचा शब्दने इधर-उधर भागते हुए मच्छोंके समूहसे भरे हुए समुद्रको भी क्षोभित कर दिया था ।। ११७ ।। क्या यह चक्रवर्ती इस समुद्रका संहार करना चाहता है अथवा समस्त संसारका ? इस प्रकार आशंका कर विद्याधर लोग उस समय क्षण भरके लिये आकाशमें खड़े हो गये थे ।।११८।। जो टेढ़ा होकर भी गुणवान् ( पक्ष में डोरीसे सहित) और सरल कार्य करनेवाला था ( पक्षमें सीधा बाण छोड़नेवाला था ) ऐसे उस धनुषपर चक्रवर्तीने प्रशंसनीययोग्य आसनसे खड़े होकर कभी व्यर्थ न जानेवाला अमोघ नामका बाण रखा ।। ११९ ॥ 'मैं वृषभदेवका पुत्र भरत नामका चक्रवर्ती हूँ इसलिये मेरे उपभोगके योग्य क्षेत्रमें रहनेवाले सब व्यन्तर देव मेरे अधीन हों इस प्रकार जिसपर स्पष्ट अक्षर लिखे हुए हैं ऐसा हुआ वह चक्रवर्ती के द्वारा चलाया हुआ वाण मुख्य दूतकी तरह पूर्व दिशाकी ओर मुख कर चला ॥। १२०-१२१ ॥ और जिसने वज्रपातके शब्दको जीत लिया है ऐसा भारी शब्द करता हुआ तथा मागध देवकी सेनामें क्षोभ उत्पन्न करता हुआ वह बाण आकाश-तलसे मागध देवके निवासस्थानमें जा पड़ा ।। १२२ ।। क्या यह कल्पान्त कालके वायुसे ताड़ित हुआ समुद्र ही क्षोभको प्राप्त हुआ है ? अथवा जोरसे शब्द करता हुआ वजू पड़ा है ? अथवा भूमिकंप ही हो रहा है ? इस प्रकार front बुद्धि अत्यन्त व्याकुल हो रही है ऐसे उसके समीप रहनेवाले व्यन्तरदेव तैयार होकर HTTE देवके पास आये और उसे घेरकर खड़े हो गये ।। १२३ - १२४ ।। हे देव, हमारे सभा १ जलमध्ये । २ अर्णवमध्ये | ३ क्रुद्धः । ४ स्फुरन्ती ज्या मौर्वी यस्य स तम् । ६ स्थानकम् प्रत्यालीढादिस्थानम् । ७ मदधीना भवन्तु । ८ मम क्षेत्रवासिन इत्यर्थः । १० पूर्वाभिमुखीम् । ११ अशनि । १२ अत्याकुलबुद्धयः । १३ विहितः । ५ चक्रिणः । ६ बाणः । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व येनायं प्रहितः पत्री नाकिना दानवेन वा । तस्य कर्तुं प्रतीकारमिमे सज्जा वयं प्रभो ॥ १२६ ॥ इत्यारक्षि' भटैस्तूर्णम् एत्य विज्ञापितः प्रभुः । श्रलमाध्वं भटालापैः इत्युच्चैः प्रत्युवाच तान् ॥ १२७॥ यूयं त एव मद्ग्राह्याः सोऽहमेवास्मि मागधः । श्रुतपूर्वमिदं किं वः सोढपूर्वो मयेत्यरिः ॥ १२८ ॥ बिर्भात यः पुमान् प्राणान् परिभूतिमलीमसान् । न गुणैलिङगमात्रेण पुमानेष प्रतीयते ॥ १२६ ॥ सचित्र पुरुषो वास्तु चञ्चापुरुष' एव च । यो विनापि गुणैः पौंस्नै: ' नाम्मैव पुरुषायते ॥ १३०॥ स पुमान् यः पुनीते स्वं कुलं जन्म च पौरुषः । भटब्रुवो जनो यस्तु तस्यास्तव भवनिर्भुवि ॥ १३१ ॥ विजिगीषुतया देवा" वयं नेच्छाविहारतः " । ततोऽरिविजयादेव सम्पदस्तु सदापि नः ॥१३२॥ वस्तुवाहनराज्याङगैः श्राराधयति यः परम् । परभोगीणमैश्वर्यं तस्य मन्ये विडम्बनम् ॥१३३॥ शशाली प्रभुः कोऽपि मत्तोऽयं धनमोप्सति । धनायतोऽस्य दास्यामि निधनं प्रथनैः समम् ॥१३४॥ विचूनं शरं तावत् कोपाग्नेः प्रथमेन्धनम् । करवाणीदमेवास्तु "तनुशल्कैरुपेन्धनम् ॥१३५॥ ? भवनके आंगन में कोई देदीप्यमान बाण आकर पड़ा है उसीसे यह क्षोभ हुआ है इसका दूसरा कारण नहीं है ।। १२५ ।। हे प्रभो, जिस किसी देव अथवा दानवने यह बाण छोड़ा है हम सव लोग उसका प्रतिकार करनेके लिये तैयार हैं ।। १२६ ।। इस प्रकार रक्षा करनेवाले वीर योद्धाओं ने शीघ्र ही आकर अपने स्वामी मागध देवसे निवेदन किया और मागध देवने भी बड़े जोरसे उन्हें उत्तर दिया कि चुप रहो, इस प्रकार वीर वाक्योंसे कुछ लाभ नहीं है ॥१२७॥ तुम लोग वे ही मेरे अधीन रहनेवाले देव हो और मैं भी वही मागध देव हूं, क्या मुझे कभी पहले अपना शत्रु सहन हुआ है ? यह बात तुम लोगोंने पहले भी कभी सुनी है ।। १२८।। जो पुरुष पराभव से मलिन हुए अपने प्राणोंको धारण करता है वह गुणोंसे पुरुष नहीं कहलाता किन्तु केवल लिङ्ग से ही पुरुष कहलाता है ॥ १२९ ॥ जो पुरुष, पुरुषोंमें पाये जानेवाले गुणों के बिना केवल नाम से ही पुरुष बनना चाहता है वह या तो चित्रमें लिखा हुआ पुरुष है अथवा तृण काष्ठ वगैरह से बना हुआ पुरुष है ।। १३०|| जो अपने पराक्रमसे अपने कुल और जन्मको पवित्र करता है वास्तवमें वही पुरुष कहलाता है, इसके विपरीत जो मनुष्य झूठमूठ ही अपनेको वीर कहता है पृथिवीपर उसका जन्म न लेना ही अच्छा है || १३१|| हम लोग शत्रुओंको जीतने से ही 'देव' कहलाते हैं, इच्छानुसार जहां तहां बिहार करने मात्र से देव नहीं कहलाते इसलिये हम लोगोंकी संपत्ति सदा शत्रुओंको विजय करने मात्र से ही प्राप्त हो । १३२ ।। जो मनुष्य रत्न आदि वस्तु, हाथी घोड़े आदि वाहन और छत्र चमर आदि राज्यके चिह्न देकर किसी दूसरेकी आराधना-सेवा करता है उसका ऐश्वर्य दूसरोंके उपभोगके लिये हो और मैं ऐसे ऐश्वर्यको केवल विडम्बना समझता हूं ॥ १३३ ॥ बाण चलानेवाला यह कोई राजा मुझसे धन चाहता है सो इसके लिये मैं युद्धके साथ साथ निधन अर्थात् मृत्यु दूंगा ||१३४|| सबसे पहले मैं इस बाण को चूर कर अपने क्रोधरूपी अग्निका पहला ईधन बनाऊंगा, यही बाण अपने छोटे छोटे टुकड़ों ४७ १ प्रभो वयम् स० अ०, प०, इ० । २ अङ्गरक्षिभटैः । ३ तूष्णीं तिष्ठत । ४ ते पूर्वस्मिन् विद्यमाना एव । ५ परिभव । ६ तृणपुरुषः । चञ्चोऽनलादिनिर्माण चञ्चा तु तृणपूरुष', इत्यभिधानात् । करिकलभन्यायमाश्रित्य पुनः पुरुष शब्दप्रयोगः । ७ वा ल०, ब०, अ०, प०, स० द०, इ० ८ पुरुष सम्बन्धिभिः । अनुत्पत्तिः । 'नो निः शापे' इति अनिप्रत्ययान्तः । १० दीव्यन्ति विजिगीषन्तीति देवाः । ११ स्वैरविहारतः । कीडाविहारत इति भावः । १२ परभोगिभ्यो हितम् । १३ अस्मत् । १४ प्रधनैः द०, इ०, ल०, अ०, प०, स० । युद्धैः । 'युद्धमायोधनं जन्यं प्रधनं प्रविदारणम्' इत्यभिधानात् । १५. अल्पशकालैः ( चूर्णीकृतशरीरेन्धनः ) । १६ सन्धुक्षणम्, शत्रुशरीरशकलैः । अग्निज्वालनम् । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् साक्षेपमिति संरम्भाद् डवीर्य गिरमूजिताम् । व्यरसीद् दशनज्योत्स्ना संहरन्मागां वरः ॥१३६॥ ततस्तमूनुरभ्यर्णाः सुरा दुष्टपरम्पराः । प्रभु शमयितुं क्रोधाद् विद्या वृद्धविभोः स्थितिः ॥१३७॥ यथार्थ वरमर्यञ्च मितञ्च बहुविस्तरम् । अनाकुलञ्च गम्भीर "नाधिपामीदृशं वचः ॥१३८॥ सत्यं परिभवः सोहम् अशक्यो मानशालिनाम् । बलवद्भिविरोधस्तु स्वपराभवकारणम् ॥१३॥ सत्यमेव यशो रक्ष्यं प्राणैरपि धनरपि । तत्तु प्रभुमनाश्रित्य कथं लभ्यत धीधनैः ॥१४०॥ अलब्धभावो लब्धार्थपरिरक्षणमित्यपि । द्वयमेतत् सुखाल्लभ्यं जिगीषोश्रियं विना ॥१४१॥ बलिनामपि सन्त्येव बलीयांसो मनस्विनः । बलवानहमस्मीति नोत्सेक्तव्यमतः परम् ॥१४२॥ न किञ्चिदप्यनालोच्य विधेयं सिद्धिकाम्यता। ततः शरः कुतस्त्योऽयं किमीयों वेति मृग्यताम् ॥१४३॥ श्रुतञ्च बहुशोऽस्माभिः प्राप्तीयं पुष्कलं वचः । जिनाश्चक्रधरस्साध वय॑न्तीहेति भारते ॥१४४॥ ननं चक्रिण एवायं जयाशंसी शरागमः । धुतान्धतमसोद्योत: सम्भाव्योऽन्यत्र कि रवे:१० ॥१४॥ अथवा खलु संशय्य चक्रपाणेरयं शरः । व्यनक्ति व्यक्तमेवैनं तन्नामाक्षरमालिका ॥१४६॥ से मेरी क्रोधरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाला हो ॥१३५।। इस प्रकार वह मागध देव क्रोध से तिरस्कारके साथ साथ कठोर वचन कहकर दांतोंकी कान्तिको संकुचित करता हआ जब चुप हो रहा ।।१३६।। तब कुल-परम्पराको देखने वाले समीपवर्ती देव उसका क्रोध शमन करनेके लिये उससे कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि राजा लोगोंकी स्थिति विद्याकी अपेक्षा वृद्ध हुए मनुष्योंसे ही होती है, भावार्थ-जो मनुष्य विद्यावृद्ध अर्थात् विद्याकी अपेक्षा बड़े हैं उन्हींसे राजा लोगोंकी मर्यादा स्थिर रहती है किन्तु जो मनुष्य केवल अवस्थासे बड़े हैं उनसे कुछ लाभ नहीं होता ।।१३७। उन देवोंने जो वचन कहे थे वे समयके अनकल थे, अर्थसे भरे हुए थे, परिमित थे, अर्थकी अपेक्षा बहुत विस्तारवाले थे, आकुलता-रहित थे और गंभीर थे सो ठीक ही है क्योंकि मूखोंके ऐसे वचन कभी नहीं निकलते हैं ॥१३८॥ उन देवोंने कहा कि हे प्रभो, यह ठीक है कि अभिमानी मनुष्योंको अपना पराभव सहन नहीं हो सकता है परन्तु बलवान् पुरुषों के साथ विरोध करना भी तो अपने पराभवका कारण है ।।१३९।। यह बिलकुल ठीक है कि अपने प्राण अथवा धन देकर भी यशकी रक्षा करनी चाहिये परन्तु वह यश किसी समर्थ पुरुषका आश्रय किये बिना बुद्धिमान् मनुष्योंको किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? ॥१४०॥ प्राप्त नहीं हुई वस्तुका प्राप्त होना और प्राप्त हुई वस्तुकी रक्षा करना ये दोनों ही कार्य किसी विजिगीषु राजाके आश्रयके बिना सुखपूर्वक प्राप्त नहीं हो सकते ॥१४१॥ हे प्रभो, बलवान् मनुष्योंकी अपेक्षा और भी अधिक बलवान् तथा बुद्धिमान् हैं इसलिये मैं बलवान् हूं इस प्रकार कभी गर्व नहीं करना चाहिये ॥१४२॥ सिद्धि अर्थात् सफलताकी इच्छा करनेवाले पुरुषको बिना विचारे कुछ भी कार्य नहीं करना चाहिये इसलिये यह बाण कहांसे आया है ? और किसका है ? पहले इस बातकी खोज करनी चाहिये ॥१४३॥ इस भारतवर्ष में चक्रवतियों के साथ तीथे कर निवास करग, अवतार लग एस आप्त पुरुषोक यथाथ वचन ह ने अनेक बार सने हैं ॥१४४॥ विजयको सचित करनेवाला यह बाण अवश्य ही चक्रवर्तीका ही होगा क्योंकि सघन अन्धकारको नष्ट करनेवाला प्रकाश क्या सूर्यके सिवाय किसी अन्य वस्तु में भी संभव हो सकता है ? अर्थात् नहीं ॥१४५॥ अथवा इस विषयमें संशय करना व्यर्थ है। यह बाण चक्रवर्तीका ही है, क्योंकि इसपर खुदे हुए नामके अक्षरोंकी माला साफ साफ ही १ प्रभोः स्थितिविद्यावृद्धर्भवति हि । २ प्रभोः ल० । ३ यथावसरमयं च द०, ल०, अ०, प०, स०, इ० । ४ अभिलषणीयम् । ५ बुद्धिहीनानाम् । ६ सिद्धि वाञ्छता । ७ कस्य सम्बन्धि । - विचार्यताम । आप्तसम्बन्धि । १० रवि विवय॑ । ११शंकां मा कार्षीः। १२ चक्रिनामाक्षर । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशविंशतितम पर्व ४९ तदेन शरमभ्यर्च्य गन्धमाल्याक्षतादिभिः। पूज्याचैव विभोराज्ञा गत्वास्माभिः शरार्पणा ॥१४७॥ मा गा मागष वैचित्यं' कार्यमेतद् विनश्चिनु । न युक्तं तत्प्रतीपत्वं तव तद्देशवासिनः ॥१४॥ तबलं देव संरभ्य' तत्प्रातीयं न शान्तये। महतः सरिदोषस्य कः प्रतीपं तरन् सुखी ॥१४॥ बलवाननुवयश्चेद् अनुनयोऽद्य चक्रभत । महत्स वैती वृत्तिम् प्रामनन्त्यविपत्करीम् ॥१५०॥ इहामुत्र च जन्तूनाम् उन्नत्यं पूज्यपूजनम् । तापं तत्रानुबध्नाति पूज्यपूजाव्यतिक्रमः ॥१५॥ इति तद्वचनात्किञ्चित् प्रबुद्ध इव तत्क्षणम् । अज्ञातमेवमेतत्स्याद् इत्यसौ प्रत्यपद्यतर ॥१५२॥ ससम्मममिवास्याभूत् चितं किञ्चित्ससाध्वसम् । साशङकमिवर सोद्वेगं प्रबुद्धमिव च क्षणम् ॥१५३॥ ततः प्रसेदुषी५ तस्य नचिरादेव" शेमषी । पर्वापर व्यलोकिष्ट कोपापायात् प्रशेमुषी५ ॥१५४॥ सोऽयं चक्रभृतामाद्यो भरतोऽलङययशासनः । प्रतीक्ष्यः सर्वथास्माभिः अनुनेयश्च सादरम् ॥१५॥ चक्रित्वं चरमाडागत्वं पुत्रत्वं च जगद्गुरोः। इत्यस्य पूज्यमेकैकं किं पुनस्तत्समुच्चितम् ॥१५६॥ इति निश्चित्य "सम्भान्तः अनुयातः सुरोत्तमैः । सहसा चक्रिणं द्रष्टुमुच्चचाल स मागधः ॥१५७॥ चक्रवर्तीको प्रकट कर रही है ॥१४६।। इसलिये गन्ध माला अक्षत आदिसे इस बाणकी पूजा कर हम लोगोंको आज ही वहां जाकर उनका यह बाण उन्हें अर्पण कर देना चाहिये और आज ही उनकी आज्ञा मान्य करनी चाहिये ॥१४७।। हे मागध, आप किसी प्रकारके विकारको प्राप्त मत ह जिये, और हम लोगोंके द्वारा कहे हुए इस कार्यका. अवश्य ही निश्चय कीजिये, क्योंकि उनके देशमें रहनेवाले आपको उनके साथ विरोध करना उचित नहीं है ॥१४८॥ इसलिये हे देव, क्रोध करना व्यर्थ है, चक्रवर्तीके साथ वैर करनेसे कुछ शान्ति नहीं होगी क्योंकि नदीके बड़े भारी प्रवाहके प्रतिकूल तैरनेवाला कौन सुखी हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥१४९।। यदि बलवान् मनुष्यको अनुकल बनाये रखना चाहिये यह नीति है तो चक्रवर्तीको आज ही प्रसन्न करना चाहिये, क्योंकि बड़े पुरुषोंके विषयमें बेंतके समान नम् वृत्ति ही दुःख दूर करनेवाली है ऐसा विद्वान् लोग मानते हैं ॥१५०। पूज्य मनुष्योंकी पूजा करनेसे इस लोक तथा परलोक-दोनों ही लोकोंमें जीवोंकी उन्नति होती है और पूज्य पुरुषोंकी पूजा का उल्लंघन अर्थात् अनादर करनेसे दोनों ही लोकोंमें पाप बन्ध होता है ॥१५१।। इस प्रकार उन देवोंके वचनोंसे जिसे उसी समय कुछ कुछ बोध उत्पन्न हुआ है ऐसे उस मागध देवने मुझे यह हाल मालूम नहीं था यह कहते हुए उनके वचन स्वीकार कर लिये ॥१५२॥ उस समय उसके चित्तमें कुछ घबड़ाहट, कुछ भय, कुछ आशंका, कुछ उद्वेग और कुछ प्रब हो रहा था ।।१५३॥ तदनन्तर थोड़ी ही देरमें निर्मल हुई और क्रोधके नष्ट हो जानेसे शान्त हुई उसकी बुद्धिने आगे पीछेका सब हाल देख लिया ॥१५४॥ यह वही चक्रवर्तियोंमें पहला चक्रवर्ती भरत है जिसकी कि आज्ञाका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता, हम लोगोंको हरएक प्रकारसे इसकी पूजा करनी चाहिये और आदर सहित इसकी आज्ञा माननी चाहिये ॥१५५॥ यह चक्रवर्ती है, चरमशरीरी है और जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवका पुत्र है, इन तीनोंमेंसे एक एक गुण ही पूज्य होता है फिर जिसमें तीनोंका समुदाय है उसकी तो बात ही क्या कहनी है? ||१५६।। इस प्रकार निश्चय कर वह मागध देव शीघ ही चक्रवर्तीको देखनेके लिये आकाश-मार्गसे चला, उस समय संभूमको प्राप्त हुए अनेक अच्छे अच्छे देव उसके पीछे पीछे १चित्तविकारम् । २ चक्रिप्रतिकूलत्वम्। ३-वर्तिनः ल० । ४ संरम्भ मा कार्षीः । ५ प्रातिकूल्यम् । ६ प्रवाहस्य। ७ वेतससम्बन्धिनीम् । अनुकूलतामित्यर्थः। १८ पापं ल०। ६ जन्तौ। १० एव । ११ अनुमने । १२ इव अवधारणे । १३ प्रसन्नवती। १४ अल्पकालेनैव । १५ उपशमवती। १६ पूज्यः । सांशयिकः, संशयापनमानसः । १७ सम्भ्रमवद्भिः । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० महापुराणम् खमुन्मणिति रीटांशुरचितेन्द्रशरासनम् । क्षणेनोल्लधय सम्प्रापत् तं देशं यत्र चक्रभृत् ॥ १५८ ॥ पुरोधाय शरं रत्नपटले सुनिवेशितम् । मागधः प्रभुमानंसीद प्रायं स्वीकुरु मामिति ॥ १५६ ॥ चकोत्पत्तिक्षणे भद्र यन्नायामोऽनभिज्ञकाः । महान्तमपराधं नः त्वं क्षमस्वार्थितो मुहुः ॥ १६० ॥ युष्मत्पादरजःस्पर्शाद् वाधिरेव न केवलम् । पूता वयमपि श्रीमन् त्वत्पादाम्बुजसेवया ॥ १६१॥ रत्नान्यमुन्यनर्घाणि स्वर्गेऽप्यसुलभानि च । श्रधो निधीनामाधातुं सोपयोगानि सन्तु ते ॥ १६२ ॥ हारोऽयमतिरोचिष्णुः प्रवाराहं 'रशुक्तिजैः । श्रवेणुद्विपसम्भूतैः दुब्धो मुक्ताफलैर्युजैः ॥१६३॥ तव वक्षःस्थलाश्लेषा'द् उपेया दुपहारताम् । स्फुरन्ती" कुण्डले चामू कर्णासङ्गात् पवित्रताम् ॥१६४॥ इत्यस्मं कुण्डल दिव्य हारं च विततार सः । त्रैलोक्यसारसन्दोहमिवैकध्यमुपागतम् ॥१६५॥ रत्नश्चाभ्यच्यं रत्नेशं मागधः प्रीतमानसः । प्रभोरवाप्तसत्कारः तन्मतात् स्वमगात् पदम् ॥१६६॥ अथ तत्रस्थ एवाब्धिं सान्तद्वपं विलोकयन् । प्रभुविसिस्मये किञ्चिद् बह्वाश्चर्यो हि वारिधिः ॥ १६७॥ ततः कुतुहलाद् वाधिं पश्यन्तं धूर्गतः " पतिम् । तमित्युवाच दन्तांशुसुमनोमञ्जरी: किरन् ॥ १६८ ॥ पृथ्वीवृत्तम् अयं जलधिरुच्चलत्तरलवीचिबाहूद्ध तस्फुरन्मणिगणार्चनो ध्वनदसङ्खचशङ्खाकुलः । तवार्धमिव संविधित्सुरन वेलमुच्चैर्नदन् मरुद्भुतजलानको दिशतु शश्वदानन्दथुम्१५ ॥१६६॥ जा रहे थे ।।१५७।। देदीप्यमान मणियोंसे जड़े हुए मुकुटकी किरणोंसे जिसमें इन्द्रधनुष बन रहा है ऐसे आकाशको क्षण भरमें उल्लंघन कर वह मागध देव जहां चक्रवर्ती था उस स्थान पर जा पहुंचा ।। १५८।। रत्नके पिटारेमें रक्खे हुए बाणको सामने रखकर मागध देवने भरत के लिये नमस्कार किया और कहा कि हे आर्य, मुझे स्वीकार कीजिये अपना ही समझिये ।। १५९ ।। हे भद्र, हम अज्ञानी लोग चक्र उत्पन्न होनेके समय ही नहीं आये सो आप हमारे इस भारी अपराधको क्षमा कर दीजिये, हम बार बार प्रार्थना करते हैं ।। १६० ।। हे श्रीमन्, आपके चरणों की धूलिके स्पर्शसे केवल यह समुद्र ही पवित्र नहीं हुआ है किन्तु आपके चरणकमलोंकी सेवा करने से हम लोग भी पवित्र हो गये हैं ।। १६१ ।। हे प्रभो, यद्यपि ये रत्न अमूल्य हैं और स्वर्गमें भी दुर्लभ हैं तथापि आपकी निधियों के नीचे रखनेके काम आवें ।। १६२ ॥ | यह अतिशय देदीप्यमान तथा सूअर, सीप, बांस और हाथी में उत्पन्न न होनेवाले दिव्य मोतियोंसे गुथा हुआ हार आपके वक्षःस्थलके आलिंगनसे पूज्यताको प्राप्त हो तथा ये देदीप्यमान- चमकते हुए दोनों कुण्डल आपके कानोंकी संगतिसे पवित्रताको प्राप्त हों ।। १६३ - १६४ ।। इस प्रकार उस मागध देवने एकरूपताको प्राप्त हुए तीनों लोकोंकी सार वस्तुओंके समुदायके समान सुशोभित होनेवाला हार और दोनों दिव्य कुण्डल भरतके लिये समर्पित किये ॥ १६५ ॥ तदनन्तर जिसका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है ऐसे मागध देवने अनेक प्रकारके रत्नोंसे रत्नों के स्वामी भरत चक्रवर्ती की पूजा की और फिर उनसे आदर-सत्कार पाकर उन्हींकी संगतिसे वह अपने स्थानपर चला गया ।।१६६।। अथानन्तर - वहां खड़े रहकर ही अन्तद्वीपों सहित समुद्रको देखते हुए महाराज भरतको कुछ आश्चर्य हुआ सो ठीक ही है क्योंकि वह लवणसमुद्र अनेक आश्चर्योंसे सहित था ।। १६७।। तदनन्तर दांतोंकी किरणेंरूपी पुष्पमंजरीको बिखेरता हुआ सारथि कौतूहल से समुद्रको देखने वाले भरतसे इस प्रकार कहने लगा ॥ १६८ ॥ कि, उछलती हुई चंचल लहरें १ अग्रे कृत्वा । २ नमस्करोति स्म । ३ आगताः । ४ प्रार्थितः । ५ निधिं प्रयत्नेन स्थापयितुमधः शिलाकतु सप्रयोजनानि भवन्त्विति भावः । ६ न सूकरजैः । ७ इक्षुजैः । ८ सङ्गात् । ६ उपगच्छत् । १० पूज्यताम् । ११ स्फुरती कुण्डले चेमे ल० । १२ एकप्रकारम् । १३ विस्मितवान् । १४ यानमुखं गतः । सारथिरित्यर्थः । १५ आनन्दम् । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व अमुष्य जलमुत्पतद्गगनमेतदालक्ष्यते शशाङककरकोमलच्छविभिराततं शीकरैः। प्रहासमिव दिग्वधूपरिचयाय विश्वग्दधत् तितांस'विव चात्मनः प्रतिदिशं यशो भागशः ॥१७०॥ क्वचित्स्फुटितशुक्तिमौक्तिकततं सतारं नभो जयत्यलिमलीमसं मकरमीनराशिश्रितम् । क्वचित्सलिलमस्य भोगिकुल सडकुलं सून्नतं नरेन्द्रकुलमुत्तमस्थितिजिगीषतीवोद्भटम् ॥१७१॥ इतो विशति गाङगमम्ब शरदम्बुदाच्छच्छवि स्रुतं हिमवतोऽमुतश्च सुरसं पयः सैन्धवम् । तथापि न जलागमेन पुतिरस्य पोपूर्यते धवं न जलसद्धग्रहरिह जलाशयों धायति ॥१७२।। वसन्ततिलकावृत्तम् व्याप्योदरं चलकुलाचलसन्निकाशाः पुत्रा इवास्य तिमयः पयसा प्रपुष्टाः। कल्लोलकाश्च परिमारहिताः समन्ताद् अन्योन्यघट्टनपराः सममावसन्ति ॥१७३॥ रूपी भुजाओंके द्वारा धारण किये हुए देदीप्यमान मणियोंके समूह ही जिसकी पूजाकी सामग्री है, जो शब्द करते हुए असंख्यात शंखोंसे आकुल है, जो प्रत्येक बेलाके साथ जोरसे शब्द कर रहा है, वायुके द्वारा कंपित हुआ जल ही जिसके नगाड़े हैं और जो इन सबसे ऐसा जान पड़ता है मानो आपके लिये अर्घ ही देना चाहता हो ऐसा यह समुद्र सदा आपके लिये आनन्द देवे ॥१६९।। आकाशकी ओर उछलता हुआ और चन्द्रमाकी किरणोंके समान कोमल कान्तिवाले जलके छोटे छोटे छींटोंसे व्याप्त हुआ इस समुद्रका यह जल ऐसा जान पड़ता है मानो दिशारूपी स्त्रियों के साथ परिचय करनेके लिये चारों ओरसे हास्य ही कर रहा हो अथवा अपना यश बांटकर प्रत्येक दिशामें फैलाना ही चाहता हो ॥१७०॥ खुली हुई सीपोंके भोतियोंसे व्याप्त हुआ, भमरके समान काला और मकर मीन, मगर-मच्छ आदि जल-जन्तुओंकी राशि-समहसे भरा हुआ यह समुद्रका जल कहीं ताराओं सहित, भूमरके समान श्याम और मकर मीन आदि राशियों से भरे हुए आकाशको जीतता है तो कहीं राजाओंके कुलको जीतना चाहता है क्योंकि जिस प्रकार राजाओंका कुल भोगी अर्थात् राजाओंके समूहसे व्याप्त रहता है उसी प्रकार यह जल भी भोगी अर्थात् सौके समूहसे व्याप्त है,जिस प्रकार राजाओंका कुल सून्नत अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट होता है उसी प्रकार यह जल भी सून्नत अर्थात् अत्यन्त ऊंचा है, जिस प्रकार राजाओंका कुल उत्तम स्थिति अर्थात् मर्यादास सहित होता है उसी प्रकार यह जल भी उत्तम स्थिति अर्थात् अवधि (हह) से सहित है, और राजाओंका कूल जिस प्रकार उद्धट अर्थात उत्कृष्ट योद्धाओंसे सहित होता है उसी प्रकार यह जल भी उद्भट अर्थात् प्रबल है ॥१७१॥ इधर हिमवान् पर्वत से निकला हुआ तथा शरदऋतुके बादलोंके समान स्वच्छ कान्तिको धारण करनेवाला गङ्गा नदीका जल प्रवेश कर रहा है और उस ओर सिन्धु नदीका मीठा जल प्रवेश कर रहा है,फिर भी जलके आनेसे इसका संतोष पूरा नहीं होता है, सो ठीक ही है क्योंकि जलाशय (जिसके बीच में जल है, पक्षमें जड़ आशयवाला-मूर्ख) जल (पक्षमें जड़-मूर्ख) के संग्रहसे कभी भी संतुष्ट नहीं होता है । भावार्थ--जिस प्रकार जलाशय अर्थात् मूर्ख मनुष्य जल संग्रह अर्थात् मूर्ख मनुष्योंके संग्रहसे संतुष्ट नहीं होता उसी प्रकार जलाशय अर्थात् जलसे भरा हुआ समुद्र या तालाब जल-संग्रह अर्थात् पानीके संग्रह करनेसे संतुष्ट नहीं होता ॥१७२।। इस समुद्रके उदर अर्थात् मध्यभाग अथवा पेटमें व्याप्त होकर पय अर्थात् जल अथवा दूधसे अत्यन्त पुष्ट हुए तथा चलते हुए कुलाचलोंके समान बड़े बड़े इसके पुत्रोंके समान मगरमच्छ और प्रमाण रहित ४ जलाधारः १ विस्तारितुमिच्छत् । २ सर्पसमूह पक्ष भोगिसमह। ३ सिन्धुनदीसम्बन्धि । जडबुद्धिश्च । ५ द्रायति तप्यति । द्वै तृप्तौ। -६ माविशन्ति ल०, द० । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ महापुराणम् आपो धनं धृतरसाः सरितोऽस्य दाराः पुत्रीयिता' जलचराः सिकताश्च रत्नम् । इत्थं विभूति' लवदुर्ललितो विचित्रं धत्ते महोदधिरिति प्रथि' मानमेषः ॥ १७४॥ निःश्वासधूममलिनाः फणमण्डलान्तः सुव्यक्तरत्नरुचयः परितो भ्रमन्तः । व्यायच्छमानतनवो रुषितं रकस्माद् प्रत्रोल्मुकश्रियममी दधते फणीन्द्राः ॥ १७५ ॥ पादैरयं जलनिधिः शिशिरैरपीन्दोः श्रास्पृश्यमानसलिलः सहसा खमुखम् । रोषादिवोच्चलति मुक्तगभीरभाषो वेलाछलेन" म महान् सहतेऽभिभूतिम् ॥ १७६ ॥ नाकौकसां धृतरसं‍ सहकामिनीभिः प्राक्रीडनानि " " सुमनोहरकाननानि । द्वीपस्थलानि रुचिराणि सहस्रशोऽस्मिन् सन्त्यन्तरीपमिव दुर्गनिवेशनानि ॥ १७७॥ अनेक लहरें ये सब चारों ओरसे एक दूसरे को धक्का देते हुए एक ही साथ इस समुद्र में निवास कर रहे हैं ॥१७३॥ हे प्रभो, इस समुद्रके जल ही धन हैं, रस अर्थात् जल अथवा शृङ्गार या स्नेहको धारण करनेवाली नदियां ही इसकी स्त्रियां हैं, मगरमच्छ आदि जलचर जीव ही इसके पुत्र हैं और बालू ही इसके रत्न हैं इस प्रकार यह थोड़ी सी विभूतिको धारण करता है तथापि महोदधि इस भारी प्रसिद्धिको धारण करता है यह आश्चर्यकी बात है । भावार्थइस श्लोक कविने समुद्रकी दरिद्र अवस्थाका चित्रण कर उसके महोदधि नामपर आश्चर्य प्रकट किया है । दरिद्र अवस्थाका चित्रण इस प्रकार है । हे प्रभो, इस समुद्र के पास आजीविका के योग्य कुछ भी धन नहीं है। केवल जल ही इसका धन है अर्थात् दूसरोंको पानी पिला पिलाकर ही अपना निर्वाह करता है, इसकी नदीरूप स्त्रियोंका भी बुरा हाल है वे बेचारी रस-जल धारण करके अर्थात् दूसरेका पानी भर भरकर ही अपनी आजीविका चलाती हैं । पुत्र हैं परन्तु वे सब जलचर अर्थात् ( जडचर) मूर्ख मनुष्यों के नौकर अथवा सूर्ख होनेसे नौकर हैं अथवा पानी में रहकर शेवाल बीनना आदि तुच्छ कार्य करते हैं, इसके सिवाय कुल परम्परा से आई हुई सोना-चाँदी रत्न आदिकी संपत्ति भी इसके पास कुछ नहीं है - बालू ही इसके रत्न हैं, यद्यपि इसमें अनेक रत्न पैदा होते हैं परन्तु वे इसके निजके नहीं हैं उन्हें दूसरे लोग ले जाते हैं इसलिये दूसरे के ही समझना चाहिये इस प्रकार यह बिलकुल ही दरिद्र है फिर भी महोदधि ( महा + उ + दधि * ) अर्थात् लक्ष्मीका बड़ा भारी निवासस्थान इस नामको धारण करता हैं यह आश्चर्य की बात है । आश्चर्यका परिहार ऊपर लिखा जा चुका है || १७४॥ जो निःश्वासके साथ निकलते हुए धूमसे मलिन हो रहे हैं, जिनके फणाओंके मध्यभागमें रत्नोंकी कान्ति स्पष्ट रूपसे प्रकट हो रही है, जो चारों ओर गोलाकार घूम रहे हैं, जिनके शरीर बहुत लम्बे हैं, और जो अकस्मात् ही क्रोध करने लगते हैं ऐसे ये सर्प इस समुद्र में अलातचक्रकी शोभा धारण कर रहे हैं ।। १७५ ।। इस समुद्रका जल चन्द्रमाके शीतल पादों अर्थात् पैरों से (किरणों से) स्पर्श किया जा रहा है, इसलिये ही मानो यह क्रोधसे गम्भीर शब्द करता हुआ ज्वारकी लहरोंके छलसे बदला चुकानेके लिए अकस्मात् आकाशकी ओर उछल कर दौड़ रहा है सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष सिरस्कार नहीं सह सकते ।। १७६ ।। इस समुद्रके जलके १ पुत्रा इव आचरिताः । २ विभूतेश्वर्यस्य लवो लेशस्तेन दुर्ललितो दुर्गवः । लवशब्दोऽत्र विचित्रकारणम् । ३ प्रसिद्धताम् । ४ फणमण्डलमध्ये | ५ सुप्रकट । ६ दीर्घभवच्छरीराः । ७ रोषः । ८ अलातशोभाम् । किरण : चरणैरिति ध्वनिः । १० दिवोच्छ्वलति ल० । ११ जलविकारव्याजेन । 'अन्ध्यम्बुविकृता वेला' इत्यभिधानात् । १२ पराभवम् । १३ क्रियाविशेषणम् । मतिरसं द० । प्रतरसां ल० । १४ आसमन्तात् क्रीडनानि येषु तानि । १५ समनोहर इत्यपि क्वचित् पाठः । १६ अन्तर्द्धापमिव । 'द्वीपोsस्त्रियामन्तरीपं यदन्तर्बारिणस्तटम् ।' इत्यभिधानात् । १७ महाद्वीपमध्यवर्तीनि गिरिदुर्गादिनिवेशनानि च सन्तीत्यर्थः । * 'दधि क्षीरोतरावस्थाभाषे श्रीवास सर्जयोः' इति मेदिनी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व मालिनीवृत्तम् श्रयमनि' भूतवेलो रुद्धरोधोऽन्तराल' श्रनिलबलविलोलैर्भूरिकल्लोलजालैः । तटवनमभिहन्ति व्यक्तमस्मैः प्ररुष्यम् मम किल बहिरस्मान्नास्ति वृत्तिर्मुषेति ॥ १७८ ॥ प्रविगणितमहत्त्वा पूयमस्मान् स्वपादः अभिहथ' किमलड घ्यं वो वृथा तौङग्यमेतत् । वयमिव किमलङध्याः किं गभीरा इतीत्थं परिवदति 'विराबैर्नून मब्धिः कुलाव्रीन् ॥१७६॥ प्रहर्षिणीवृत्तम् श्रत्रायं भुजगशिशु बिलाभिशङकी व्यात्तास्यं तिमिमभिधावति प्रहृष्टः । तं सोऽपि स्वगलबिलावलग्न लग्नं स्वान्त्रास्था" विहितदयो न जेगिलीति ॥ १८० ॥ दोधकवृत्तम् धृतामिष" शकः । पुनरप्यपयाति ।। १८१॥ एवमहामणिरश्मिचिकीर्ण तोयममुष्य मीनगगोऽनुसरन् सहसास्माद् वह्निभिया लोलतरङग विलोलितदृष्टिः वृद्धतरोऽसुमतिः १५ सुमतं नः । ही रथमेष तिमिङिगलशङकी पश्यति पश्य तिमिः १७ स्तिमिताक्ष: ॥१८२॥ भुजङ्गप्रयातवृत्तम् इहामी भुजङ्गाः सरत्नैः फणाग्रैः समुत्क्षिप्य भोगान्" खमुद्वीक्षमाणाः । विभाव्यन्त एते तरङगोरहस्तैः घृता दीपिकौघा महावाधिनेव ॥१८३॥ भीतर अपनी देवांगनाओंके साथ बड़े वेगसे आते हुए देवोंके हजारों क्रीड़ा करनेके स्थान हैं, हजारों मनोहर वन हैं और हजारों सुन्दर द्वीप हैं तथा वे सब ऐसे जान पड़ते हैं मानो इसके भीतर बने हुए किले ही हों ।। १७७ ।। ज्वार-भाटाओंसे चंचल हुआ यह समुद्र इस वनके बाहर मेरा जाना नहीं हो सकता है इसलिये इसपर प्रकट क्रोध करता हुआ अपने किनारेके वनको वायुके वेगसे अतिशय चंचल और पृथिवी तथा आकाशके मध्य भागको रोकनेवाली अनेक लहरोंके समूहसे व्यर्थ ही ताड़न कर रहा है ।। १७८।। हे प्रभो, यह गरजता हुआ समुद्र ऐसा जान पड़ता है मानो अपने ऊंचे शब्दोंसे कुल पर्वतोंको यही कह रहा है कि हे कुलपर्वतो, तुम्हारी ऊँचाई बहुत है इसीलिए क्या तुम अपने पैरों अर्थात् अन्तके भागोंसे हम लोगोंकी ताड़ना कर रहे हो ? तुम्हारी यह व्यर्थकी ऊंचाई क्या उल्लंघन करनेके अयोग्य है ? क्या तुम हमारे समान अलंध्य अथवा गंभीर हो ? ।।१७९ ।। इधर यह सांपका बच्चा अपना बिल समझ कर प्रसन्न होता हुआ, मुख फाड़े हुए मच्छके मुखमें दौड़ा जा रहा है और वह भी अपने गले रूप बिलमें लगे हुए इस सांपके बच्चेको अपने अन्तरेंगमें संचित हुई निर्दयता के कारण निगल रहा हँ ।।१८०।। इधर यह मछलियोंका समूह पद्मराग मणिकी किरणोंसे व्याप्त हुए इस समुद्रके जलको मांस समझकर उसे लेनेके लिये दौड़ता है और फिर अकस्मात् ही अग्नि समझकर वहांसे लौट आता है ।। १८१ ।। हे देव, इधर देखिये, चंचल लहरोंसे जिसकी दृष्टि चंचल हो रही हैं और जो बहुत ही बूढ़ा है ऐसा यह मच्छ इस रथको मछलियोंको खानेवाला बड़ा मच्छ समझकर निश्चल दृष्टिसे देख रहा है, हमारा ख्याल है कि यह बड़ा मूर्ख है ।। १८२ ॥ इधर ५३ १ अस्थिर । अचलमित्यर्थः । २ आकाशमण्डलैः । 'भूम्याकाशरहः प्रयोगानयेषु रोधस्' । ३ तटवनाय । ४ बृथा । ५ अभिताडयथ । ६ पक्षिध्वनिभिः । ७ इव । विवृताननम् । मध्य । मध्यमं चाबलग्नं च तुद्योऽस्त्री' इत्यमर: । १० निजपुरीतद्विद्याकृतकृतयः ( ? ) । ११ भृशं गिलति । १२ पद्मराग । १३ समुद्रस्य । १४ पलल । १५ अशोभनबुद्धिः । १६ साधुज्ञातम् । १७ मत्स्यः । १८ स्तिमिता बार्द्धनिश्चलामित्यभिधानात् । १६ शरीराणि । 'भोगः सुखे स्त्रियादिभृतावहेश्च फणकाययोः' । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ && भुजङ्गप्रयातैरिदं महानीलवेश्मेव महापुराणम् लक्ष्यतेऽन्तःस्फुरद्रत्नकोटि । वारिराशेः जलं दीपैरनेकैः ज्वलद्भिश्चलद्भिस्ततध्वान्तमुद्भिः ॥ १८४ ॥ मत्तमयूरवृत्तम् कृतलास्याः । वाताघातात् पुष्कर वाद्यध्वनिमुच्चः तन्वानेऽब्धौ मन्द्रगभीरं द्वीपोपान्ते सन्ततमस्मिन् सुरकन्याः रंरम्यन्ते मत्तमयूरैः सममेताः ॥ १८५ ॥ नीलं श्यामाः कृतरवम् च्चेधृतनादा' 'विद्युद्वन्तः स्फुरितभुजङगोत्फणरत्नम् । श्राश्लिष्यन्तो जलदसमूहा जलमस्य व्यक्ति' नोपवजि तुमलं ते घनकाले ॥ १८६॥ पश्याम्भोधेरनु तटमेनां वनराजी राजीवास्य' प्रशमिततापां विततापाम् । वे लोत्सर्पज्जलकणिकाभिः परिधौताम् नीलां शाटीमियर सुमनोभिः प्रविकीर्णाम् ॥ १८७॥ तोटकवृत्तम् परितः सरसीः सरसः कमलैः सुहिताः सुचिरं विचरन्ति मृगाः । १५ उपतीरममुष्य निसर्गसुखां वर्षांत "निरुपद्रुतिमेत्य वने ॥ १८८ ॥ अनुतीरवनं मृगयूथमिदं कनकस्थलमुज्ज्वलितं रुचिभिः । परिवीक्ष्य दवानलशङिक भूशं परिधावति" धावति तीरभुवः ॥ १८६॥ रत्नसहित फणाके अग्रभागसे अपने मस्तकको ऊंचा उठाकर आकाशकी ओर देखते हुए ये सर्प ऐसे जान पड़ते हैं मानो इस महासमुद्रने अपने तरंगोंरूपी बड़े बड़े हाथोंसे दीपकों के समूह ही धारण कर रखे हों ।। १८३ ।। जिसके भीतर करोड़ों रत्न देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा यह महासमुद्रका जल सर्पोंके इधर-उधर जानेसे ऐसा दिखाई देता है मानो फैले हुए अन्धकारको नष्ट करते हुए, जलते हुए और चलते हुए अनेक दीपकों सहित महानील मणियोंका बना हुआ घर ही हो ॥ १८४ ॥ जिस समय यह समुद्र वायुके आघातसे पुष्कर (एक प्रकारका बाजा) के समान गंभीर और ऊंचे शुब्द करता है उस समय इस द्वीपके किनारेपर इन उन्मत्त मयूरोंके साथ साथ नृत्य करती हुई ये देवकन्याएं निरन्तर क्रीड़ा किया करती हैं ।। १८५ ।। वर्षाऋतु में बादलों के समूह और इस समुद्रका जल दोनों एक समान रहते हैं क्योंकि वर्षाऋतु में बादलोंके समूह काले रहते हैं और समुद्रका जल भी काला रहता है, बादलोंके समूह जोरसे गरजते हुए आनन्दित होते हैं और समुद्रका जल भी जोरसे शब्द करता हुआ आनन्दित होता है-लहाता रहता है, बादलोंके समूहमें बिजली चमकती है और समुद्रके जलमें भी सर्पोंके ऊंचे उठे हुए फणाओं पर रत्न चमकते रहते हैं, इस प्रकार बादलोंके समूह अपने समान इस समुद्रके जलका आलिंगन करते हुए वर्षा ऋतु किसी दूसरी जगह नहीं जा सकते यह स्पष्ट है ।। १८६ | | कमलके समान सुन्दर मुखको धारण करनेवाले हे देव, समुद्र के किनारे किनारे की इन वनपंक्तियोंको देखिये जिनमें कि सूर्य का संताप बिलकुल ही शान्त हो गया है, जहां तहां विस्तृत जल भरा हुआ है, जो फूलोंसे व्याप्त हो रही हैं और जो बड़ी बड़ी लहरोंके उछलते हुए जलकी बूंदोंसे धोई हुई नीले रंगकी साड़ियोंके समान जान पड़ती हैं ।। १८७।। इस समुद्र के किनारेके वनमें उपद्रव रहित तथा स्वभाव से ही सुख देनेवाले स्थानपर आकर सरस कलमी धानोंको खाते हुए ये हरिण बहुत काल तक इन तालाबोंके चारों ओर घूमा करते हैं ।। १८८ ।। इस किनारेके वनमें कान्ति १ व्याप्तान्धकारनाशकैः । २ जलमिति वाद्य अथवा चर्मानद्धवाद्यभेदः । ३ सममेतैः ल०, द० । ४ धृतमोदा ल० । ५ तडिद्वन्तः । ६ व्यक्तं ल० । ७ गन्तुम् । ८ मेघसमूहाः । ६ कमलास्य । १० विस्तृतजलाम् । ११ जललवैः । 'कणिका कथ्यतेऽत्यन्ता सूक्ष्मवस्त्वग्निमन्थयोः ॥ १२ वस्त्रम् । १३ सरसीनां समन्ततः । १४ पोषिताः । १५ तटे । १६ निरुपद्रवाम् । १७ तटवने । १८ परिमण्डले ( वेलायाम् ) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितम पर्व प्रहर्षिणी लावण्यावयमभिसारयन्' सरित्स्त्रीः प्रास्त्रस्तप्रतनुजलांशकास्तरडगः।। पाश्लिष्यन्मुहुरपि नोपयाति तृप्ति सम्भोगरतिरसिको न तृप्यतीह ॥१६॥ वसन्ततिलका रोधोभुवोऽस्य तनुशीकरवारिसिक्ताः सम्माजिता विरलमुच्चलितैस्तरङगैः । भान्तीह सन्ततलताविगलत्प्रसून-नित्योपहारसुभगा धुसदां' निषेव्याः॥१६॥ मन्दाक्रान्ता स्वर्गाद्यानश्रियमिव हसत्युत्प्रसूने बनेऽस्मिन् मन्दाराणां सरति पवने मन्दमन्दं बनान्तात् । मन्दाक्रान्ताः सललितपदं किञ्चिदारब्धगानाः चङकम्यन्ते खगयुवतयस्तीरदेशेष्वमुष्य ॥१६२॥ प्रहर्षिणी अप्सव्य स्तिमिरयमाजिघांसुराराद् अभ्येति द्रुतमभिभावुकोप्सुयोनिम्। शैलोच्चानपि निगिलंस्तिमीनितोऽन्यो व्यत्यास्ते२ समममुना युयुत्समानः ॥१६॥ पृथ्बी जलादजगरस्तिमि शयुमपि३ स्थलादप्सुजो विकर्षति५ युयुत्सया कृतदृढनहो' दुर्ग्रहः । तथापि न जयो मिथोऽस्ति समकक्ष्ययोरेनयोः ध्रुवं न समकक्ष्य योरिह जयेतरप्रक्रमः ॥१९४॥ से प्रकाशमान सुवर्णमय स्थानोंको देखकर जिसे दावानलकी शंका हो रही है ऐसा यह हरिणों का समूह बहुत शीघ्र किनारे की पृथिवीकी ओर लौटता हुआ दौड़ा जा रहा है ।।१८९।। यह समुद्र, जिनके जल रूपी सूक्ष्म वस्त्र कुछ कुछ नीचेकी ओर खिसक गये हैं ऐसी नदीरूपी स्त्रियों को लावण्य अर्थात् सुन्दरताके कारण (पक्षमें खारापनके कारण) अपनी ओर बुलाता हुआ तथा तरंगोंके द्वारा बार-बार उनका आलिंगन करता हुआ भी कभी तृप्तिको प्राप्त नहीं होता सो ही है क्योंकि जो अत्यन्त रसिक अर्थात् कामी (पक्षमें जल सहित) होता है वह इस संसार में अनेक बार संभोग करनेपर भी तृप्त नहीं होता है ।।१९०। जो छोटी छोटी बूंदोंके पानी के सींचनेसे स्वच्छ हो गई है, निरन्तर लताओंसे गिरते हुए फूलोंके उपहारसे जो सदा सुन्दर ड़ती हैं, और जो देवोंके द्वारा सेवन करने योग्य हैं ऐसी ये यहांकी किनारेकी भमियां विरल विरल रूपसे उछलती हुई लहरोंसे अत्यन्त सुशोभित हो रही हैं ।। १९१।। स्वर्गके उपवनकी शोभाकी ओर हंसनेवाले तथा फूलोंसे भरे हुए इस वनमें मन्दार वृक्षोंके वनके मध्य भागसे यह वायु धीरे धीरे चल रहा है और इसी समय जिन्होंने कुछ कुछ गाना प्रारम्भ किया है ऐसी ये धीरे धीरे चलनेवाली विद्याधरियां इस समुद्र के किनारेके प्रदेशोंपर लीलापूर्वक पैर रखती उठाती हुई टहल रही है ॥१९२।। इधर, इस जलमें उत्पन्न हुए अन्य अनेक मच्छोंको तिरस्कार कर उनके मारनेकी इच्छा करता हुआ यह इसी जलमें उत्पन्न हुआ बड़ा मच्छ बहुत शीघ दूरसे उनके सन्मुख आ रहा है और पर्वतके समान बड़े बड़े मच्छोंको निगलता हुआ बड़ा मच्छ उस पहले बड़ मच्छके साथ युद्ध करनेकी इच्छा करता हुआ खड़ा है ॥१९॥ इधर, यह अजगर जलमेंसे किसी बड़े मच्छको अपनी ओर खींच रहा है और मजबूतीसे पकड़ने १ अभिसारिकायाः कुर्वन् । २ श्लक्ष्ण । ३ तटभूमयः । ४ देवानाम् । ५ हसतीति हसत् तस्मिन् । ६ सरतीति सरत् तस्मिन् । ७ मन्दगमनाः । ८ अप्सु भवः । ६ आहन्तुमिच्छः । १० अभिभवशीलः । ११ शङखं जलचरं वा। १२ वैपरीत्येन स्थितः । १३ अजगरम्। १४ मत्स्यः । १५ आकर्षति । १६ योद्धमिच्छया । १७ परस्परविहितदृढग्रहणम् । ग्रहः स्वीकारः । १८ गृहीतुमशक्यः । १६ समबलयोः । २० अपजयः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ महापुराणम् वनं वनगजैरिदं जलनिधेः समास्फालितं वनं बनगजैरिव स्फुटविमुक्त सांराविणम् । मृदङ्गपरिवादन श्रियमुपादधद्दिक्त तनोति तटमुच्चलत्सपदि दत्तसम्मार्जनम् ॥ १६५॥ तरत्तिमिकलेवरं स्फुटितशुक्तिशल्का चितं स्फुरत्परुषनिःस्वनं विवृतरन्ध्रपातालकम् । भयानकमितो जलं जलनिधेर्ल सत्पन्नगप्रमुक्ततनु' कृत्ति संशयितवीचिमालाकुलम् ॥१६६॥ इतो धुतवनोऽनिलः शिशिरशीकरानाकिरन् उपैति शनकैस्तट मसुगन्धिपुष्पाहरः । इतश्च परुषोऽनिलः स्फुरति धूतकल्लोलसात् कृतस्वनभयानक स्तिमिकलेवरानाघुनन् ॥ १६७॥ शार्दूलविक्रीडितम् अस्योपान्तभुवश्चकासति तरां वे लोच्चलन्मौक्तिकैः श्राकीर्णाः कुसुमोपहारजनितां लक्ष्मीं वघाना भृशम् । सेवन्ते सह सुन्दरीभिरमरा याः स्वर्गलोकान्तरम् मन्वाना धृतसम्मदास्तटवनच्छायातरून्संश्रिताः ॥ १६८॥ एते ते मकरादयो जलचरा मत्वेव कुक्षिम्भरिम् वारां राशिमनन्तरायमधिकं पुत्रा इवास्योरसा:' । भाग' प्रतिलिप्सया नु " जनकस्याक्रोशतोप्यग्रतो युध्यन्ते मिलिताः परस्परमहो बद्धक्रुधो धिग्धनम् ।१६ लोकानन्दिभिरप्रमा" परिगतं रुच्चावचैर्भोगिनाम् श्रारूढं रधिमस्तक शुचितमैः सन्तापविच्छेदिभिः । पातालैविवृतानने मुंहुरपि प्राप्तव्ययैरक्षर्यः श्रासंसारममुष्य नास्ति विगमो" रत्नैर्जलौघैरपि ॥ २००॥ वाला यह दुष्ट मच्छ भी लड़नेकी इच्छासे उसे जमीनपरसे अपनी ओर खींच रहा है तथापि एक समान बल रखनेवाले इन दोनोंमें परस्पर किसीकी जीत नहीं हो रही है सो ठीक हो है क्योंकि इस संसारमें जो समान शक्तिवाले हैं उनमें परस्पर जय और पराजयका निर्णय नहीं होता है ।। १९४।। जंगली हाथियोंके द्वारा अतिशय ताड़न किया हुआ यह समुद्रका जल, जिसमें जंगली हाथी स्पष्ट रूपसे गर्जना कर रहे हैं ऐसे किसी वनके समान तथा मृदंग बजने की शोभाको धारण करता हुआ और दिशाओंमें उछलता हुआ किनारेको बहुत शीघ्र शुद्ध कर रहा है ॥ १९५॥ जिसमें अनेक मछलियों के शरीर तैर रहे हैं, जो खुली हुई सीपोंके टुकड़ोंसे व्याप्त है, जिसमें कठोर शब्द हो रहे हैं, जिसने अपने रन्ध्रों में पातालको भी धारण कर रखा है, और जो तैरते हुए सांपोंसे छूटी हुई कांचलियोंसे लोगोंको ऐसा संदेह उत्पन्न करता है मानो लहरों के समूहसे ही व्याप्त हो ऐसा यह समुद्रका जल इधर बहुत भयानक हो रहा है ॥ १९६॥ इधर, वनको हिलाता हुआ, शीतल जलकी बूंदों को बरसाता हुआ और वृक्षोंके सुगन्धित फूलों की सुगन्धिका हरण करता हुआ वायु धीरे धीरे किनारे की ओर बह रहा है और इधर बड़े बड़े मच्छों के शरीरको कंपाता हुआ तथा हिलती हुई लहरों के शब्दोंसे भयंकर यह प्रचण्ड वायु बह रहा है ।।१९७|| जो बड़ी बड़ी लहरोंसे उछलते हुए मोतियोंसे व्याप्त होकर फूलोंके उपहारसे उत्पन्न हुई अतिशय शोभाकों धारण करती हैं, किनारेके वनके छायादार वृक्षोंके नीचे बैठे हुए देव लोग हर्षित होकर अपनी अपनी देवांगनाओंके साथ जिनकी सेवा करते हैं और इसीलिये जो दूसरे स्वर्ग लोककी शोभा बढ़ाती हैं ऐसी ये इस समुद्रके किनारे की भूमियां अत्यन्त सुशोभित हो रही हैं ॥। १९८।। ये मगरमच्छ आदि जलचर जीव, जिसके पास अनन्त धन है ऐसे इस समुद्रको अपने उदरका पालन-पोषण करनेवाला पिता समझकर सगे पुत्रों के समान उसका धन बांटकर अपने भाग ( हिस्से ) को अधिक रूपसे लेने की इच्छासे, गर्जनाके शब्दों के बहाने चिल्लाते हुए पिता के सामने ही इकट्ठे होकर क्रोधित होते हुए परस्परमें लड़ रहे हैं, हाय ! ऐसे धनको धिक्कार हो । १९९ ।। मुंह खोलकर पड़े हुए अनेक पातालों अर्थात् विवरों और ३ ललत्यत्रङग ल०, द०, इ० अ०, प०, स०, ब० । चलत्सर्पम् । ६ तन्वाना प० । ७ स्वोदरपूरकम् । 'उभावात्मंभरिः कुक्षिम्भरिः भवाः । ६ भागं लब्धुमिच्छया । १० इव । ११ प्रमाणरहितैः । १४ वियोगः । १ जलम् । २ शकल । ४ निर्मोक । ५ पुष्पाण्याहर्तुं शीलः । स्वोदरपूरके ।' इत्यभिधानात् । ८ उरसि १२ नानाप्रकारैः । १३ मस्तके | Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व खग्धरा वजूद्रोण्याममुष्य क्वथदिव जठरं व्यक्तमुद्बुबु दाम्बु स्फूर्जत्पातालरन्थ्रोच्छ्वसदनिलबलाद्विष्वगावर्तमानम्' । प्रस्तीर्णाने करत्नान्यपहरति जने नूनमुत्तप्तमन्तः प्रायो रायां वियोगो जनयति महतोऽप्युग्रमन्तवदाहम् । २०१ प्रहर्षिणी श्रायुष्मन्निति बहुविस्मयोऽयमब्धिः गम्भीर प्रकृतिरनलसत्त्वयोगः प्रायस्त्वामनुहरते विना वसन्ततिलका इत्थं नियन्तरि परां श्रियमम्बुराशेः श्रवर्णयत्यनुगतंर्वचनविचित्रैः । प्राप प्रमोदमधिकं नचिराच्च' सम्राट् सेनानिवेशमभियातुमना बभूव ॥ २०३॥ सद्रत्न: सकलजगजनोपजीव्यः । जडिम्ना ॥ २०२॥ ५७ बड़वानलोंके द्वारा बार बार ह्रास होनेपर भी जिनका कभी क्षय नहीं हो पाता है, जो लोगोंको आनन्द देनेवाले हैं, प्रमाण रहित हैं, अनेक प्रकारके हैं, सर्पोंके फणाओंपर आरूढ़ हैं, अत्यन्त पवित्र हैं, और संतापको नष्ट करनेवाले हैं ऐसे रत्नों तथा जलके समूहों की अपेक्षा इस समुद्रका जब तक संसार है तब तक कभी भी नाश नहीं होता । भावार्थ - यद्यपि इस समुद्र के अनेक रत्न इसके विवरों-बिलों में घुसकर नष्ट हो जाते हैं और जलके समूह बड़वानलमें जलकर कम हो जाते हैं तथापि इसके रत्न और जलके समूह कभी भी विनाशको प्राप्त नहीं हो पाते क्योंकि जितने नष्ट होते हैं उससे कहीं अधिक उत्पन्न हो जाते हैं ॥ २००॥ बहुत बड़े पाताल रूपी छिद्रोंके द्वारा ऊपरकी ओर बढ़ते हुए वायुके जोरसे जो चारों ओर घूम रहा है और जिसमें जलके अनेक बबूले उठ रहे हैं ऐसा यह समुद्रका उदर अर्थात् मध्यभाग वज्रकी कड़ाही में खौलता हुआ सा जान पड़ता है अथवा लोग इसके जहां तहां फैले हुए अनेक रत्न ले जाते हैं इसलिये मानो यह भीतर ही भीतर संतप्त हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि धनका वियोग प्रायः करके बड़े बड़े पुरुषोंके हृदयमें भी भयंकर दाह उत्पन्न कर देता है ॥। २०१ || हे आयुष्मन्, जिस प्रकार आप अनेक आश्चर्योंसे भरे हुए हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी अनेक आश्चर्योंसे भरा हुआ है, जिस प्रकार आपके पास अच्छे अच्छे रत्न हैं उसी प्रकार इस समुद्र के पास भी अच्छे अच्छे रत्न हैं, जिस प्रकार संसारके समस्त प्राणी आपके उपजीव्य हैं अर्थात् आपकी सहायतासे ही जीवित रहते हैं उसी प्रकार इस समुद्रके भी उपजीव्य हैं अर्थात् समुद्र में उत्पन्न हुए रत्न मोती तथा जल आदिसे अपनी आजीविका करते हैं, जिस प्रकार आप गंभीर प्रकृतिवाले हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी गंभीर (गहरी ) प्रकृतिवाला है और जिस प्रकार आप अनल्पसत्त्व योग अर्थात् अनन्त शक्तिको धारण करनेवाले हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी अनल्पसत्त्व योग अर्थात् बड़े बड़े जलचर जीवोंसे सहित है अथवा जिस प्रकार आप अनालसत्व योग अर्थात् आलस्यके सम्बन्धसे रहित हैं उसी प्रकार यह समुद्र भी अनालसत्व योग अर्थात् नाल ( नरा ) रहित जीवोंके सम्बन्ध सहित हैं इस प्रकार यह समुद्र ठीक आपका अनुकरण कर रहा है । यदि अन्तर है तो केवल इतना ही है कि यह जलकी ऋद्धिसे सहित है और आप जल अर्थात् मूर्ख (जड़) मनुष्योंकी ऋद्धिसे रहित हैं || २०२ || इस प्रकार जब सारथिने समुद्रकी उत्कृष्ट शोभाका वर्णन किया तब सम्राट् भरत बहुत ही अधिक आनन्दको प्राप्त हुए तथा शीघ्र ही अपनी छावनी में जानेके लिये उद्यत हुए ॥ २०३॥ १ - वर्त्यमानम् द०, प०, ल० । २ धनानाम् । ३ अनुकरोति । ४ जडत्वेन । ५ सारथौ । ६ आशु । ८ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ महापुराणम् मालिनी अथ रथपरिवृत्त्यं सारथौ कृच्छ्रकृच्छ्रात् विषमवलन' भुग्नग्रीवमश्वानुत्सौ । धुवति मरुति मन्दं वीचिबेगोपशान्ते शिबिरमभिनिधीनामीशिता सम्प्रतस्थे ॥ २०४ ॥ कथमपि रथचक्रं सारयित्वाम्बुरुद्धम् " प्रवहणकृतकोपान् वाजिनोऽनुप्रसाध्य' । रथमधि जलमब्धौ चोदयामास सूतो जलधिरपि नृपानुव्रज्ययेवोच्चचाल ॥ २०५ ॥ श्रयमयमुदभारो' वारिराशेर्वरूथं स्थगयति रथवेगादेष भिन्नोमिरब्धिः । इति किल तटसद्भिस्तकर्यमाणो रथोऽयं जवनतुरगकृष्ट : १० प्राप पारेसमुद्रम् ॥ २०६॥ शिखरिणी तरङ्गात्यस्तोऽयं २३ समघटितसर्वाङ्गघटनो रथः क्षेमात् प्राप्तो रथचरण" हेतिश्च कुशली । तुरङगा धौताङगा जलधिसलिलै रक्षतखुरा महत्पुण्यं जिष्णोरिति किल जजल्पुस्तटजुषः १५ ॥२०७॥ नृपैर्गङगाद्वारे प्रणतमणिमौयपतकरैः श्रधस्तात्तद्वेद्याः सजयजयघोषे रधिकृतैः १९ । बहिर्द्वारं?" सैन्यैर्युगपदसकृद्घोषितजयः विभुर्दृष्टः प्रापत् स्वशिबिर बहिस्तोरणभुवम् ॥ २०८ ॥ अथानन्तर - जब सारथिने बड़ी कठिनाईसे रथ लौटानेके लिये विषम रूप से घूमनेके कारण गलेको कुछ टेढ़ा कर घोड़ोंको हांका, मन्द मन्द वायु बहने लगा और लहरोंका वेग शान्त हो गया तब निधियोंके स्वामी भरतने छावनीकी ओर प्रस्थान किया || २०४ || पानीसे रुके हुए रथके पहियोंको किसी तरह बाहर निकालकर और बार बार हांकने अथवा बोझ धारण करनेके कारण कुपित हुए घोड़ोंको प्रसन्न कर सारथि समुद्र में जलके भीतर ही रथ चला रहा था, और वह समुद्र भी उस रथके पीछे पीछे जानेके लिये ही मानो उछल रहा था ॥ २०५ ॥ अरे, यह समुद्रकी बड़ी भारी लहर रथकी छतरीको अवश्य ही ढक लेगी और इधर रथके वेग से समुद्र की लहरें भी फट गई हैं इस प्रकार किनारे पर खड़े हुए लोग जिसके विषय में अनेक प्रकारके तर्क-वितर्क कर रहे हैं ऐसा वह वेगशाली घोड़ोंसे खींचा हुआ रथ समुद्र के किनारे पर आ पहुंचा || २०६ || जिसके समस्त अंगोंकी रचना एक समान सुन्दर है ऐसा यह रथ लहरों को उल्लंघन करता हुआ कुशलतापूर्वक किनारे तक आ गया है, चक्ररत्नको धारण करनेवाले चक्रवर्ती भरत भी सकुशल आ गये हैं और समुद्रके जलसे जिनके समस्त अंग धुल गये हैं तथा जिनके खुर भी नहीं घिसे हैं ऐसे घोड़े भी राजी खुशी आ पहुंचे हैं । अहा ! विजयी चक्रवर्तीका बड़ा भारी पुण्य है, इस प्रकार किनारे पर खड़े हुए लोग परस्परमें वार्तालाप कर रहे थे । ॥२०७॥ जो वेदी के नीचे गङ्गाद्वारपर नियुक्त किये गये हैं, जिन्होंने नवाये हुए मणिमय मुकुटों पर अपने अपने हाथ जोड़कर रखे हैं और जो जय जय शब्दका उच्चारण कर रहे हैं ऐसे राजा लोग, तथा दरवाजेके बाहर एक साथ बार बार जयघोष करनेवाले सैनिक लोग जिसे देख १ परिवर्तनाय | २ विषमाकर्षणकुटिलग्रीवं यथा भवति तथा । ३ प्रेरितमिच्छौ सति । ६ तीरस्थैः । द्वितीयातत्पुरुषः । १५ तटसेविनः । ४ गमयित्वा । ५ प्रेरण । ६ प्रसादं नीत्वा । ७ अनुगमनेन । ८ जलसमूहः । १० वेगाश्वाकृष्ट: । ११ समुद्रस्य पारम् । १२ तरङ्गान् त्यस्तः तरङ्गात्यस्तः इति वररुचिना तथैवोक्तत्वात् । १३ समानं यथा भवति तथा घटित । १४ चक्रायुधः । तीरस्था इत्यर्थः । १६ अधिकारिभिः । १७ द्वारस्य बाह्ये | Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतितमं पर्व शार्दूलविक्रीडितम् तत्रोद्घोषितमङगलैर्जयजयेत्यानन्दितो वन्दिभिः गत्वातः शिबिरं नपालयमहाद्वारं समासादयन् । 'अन्तर्वशिकलोकवारवनितादत्ताक्षताशासनः२ प्राविक्षनिजकेतनं निधिपतिर्वातोल्लसत्केतनम् ॥२०६॥ वसन्ततिलका देवोऽयमक्षततनुविजिताब्धिरागात् ते यूयमानयत साक्षतसिद्धशेषाः । प्राशीध्वमाध्यमिह सम्मुखमेत्य तूर्णम् इत्युत्थितः कलकलः कटके तदाभूत् ॥२१०॥ जीवेति नन्दतु भवानिति धिषीष्ठाः देवेति निर्जयरिपनिति गां जयेति । त्वं स्ताच्चिरायुरिति कामितमान हीति पुण्याशिषां शतमलम्भि तदा स वृद्धः ॥२१॥ जीयादरीनिह भवानिति निजितारिः देव प्रशाधि वसुधामिति सिद्धरत्नः।। त्वं जीवताच्चिरमिति प्रथमं चिरायः प्रायोजि मङगलधिया पुनरुक्तवाक्यैः ॥२१२॥ देवोऽयमम्बुधिमगाधमलङघयपारम् उल्लङघय लब्धविजयः पुनरप्युपायात्। पुण्य कसारथिरिहेति विनान्तरायः पुण्य प्रसेदुषि नणां किमिवास्त्यलङघयम् ॥२१३॥ रहे हैं ऐसा वह भरत अपनी छावनीके बाहरवाली तोरणभूमिपर आ पहुंचा ॥२०८॥ वहां पर जय जय इस प्रकार मंगलशब्द करते हुए बन्दीजन जिन्हें आनन्दित कर रहे हैं ऐसे वे महाराज भरत छावनीके भीतर जाकर राजभवनके बड़े द्वारपर जा पहुंचे वहां परिवारके लोगों तथा वेश्याओंने उन्हें मंगलाक्षत तथा आशीर्वाद दिये । इस प्रकार निधियोंके स्वामी भरतने जिसपर वायु के द्वारा ध्वजाएं फहरा रही हैं ऐसे अपने तम्बूमें प्रवेश किया ॥२०९॥ जिन्होंने शरीर ट लगे बिना ही समुद्रको जीत लिया है ऐसे ये भरत महाराज आ गये हैं, इसलिये तुम मंगलाक्षत सहित सिद्ध तथा शेषाक्षत लाओ, तुम आशीर्वाद दो और तुम बहुत शीघ्र सामने जाकर खड़े होओ इस प्रकार उस समय सेनामें बड़ा भारी कोलाहल उठ रहा था ॥२१०॥ हे देव, आप चिरकाल तक जीवित रहें, समृद्धिमान् हों, सदा बढ़ते रहें, आप शत्रुओंको जीतिये, पृथिवीको जीतिये, आप चिरायु रहिये और समस्त मनोरथोंको प्राप्त कीजिये-आपकी सब इच्छाएं पूर्ण हों इस प्रकार उस समय वृद्ध मनुष्योंने भरत महाराजके लिये सैकड़ों पवित्र आशीर्वाद प्राप्त कराये थे ॥२११॥ यद्यपि भरतेश्वर शत्रुओंको पहले ही जीत चुके थे तथापि उस समय उन्हें आशीर्वाद दिया गया था कि देव, आप शत्रओंको जीतिये, यद्यपि उन्होंने चौदह रत्नोंको पहले ही प्राप्त कर लिया था तथापि उन्हें आशीर्वाद मिला था कि हे देव ! आप पृथिवीका शासन कीजिये, और इसी प्रकार वे पहले हीसे चिरायु थे तथापि आशीर्वाद में उनसे कहा गया था कि हे देव, आप चिरकाल तक जीवित रहें-चिरायु हों। इस प्रकार मंगल समझकर लोगोंने उन्हें पुनरुक्त (कार्य हो चुकनेपर उसी अर्थको सूचित करनेके लिये फिरसे कहे हुए,) वचनोंसे युक्त किया था ॥२१२॥ एक पुण्य ही जिनका सहायक है ऐसे महाराज भरत अगाध और पाररहित समुद्रको उलंघनकर तथा योग्य उपायसे विजय प्राप्त कर बिना किसी विघ्न-बाधाके यहां वापिस आ गये हैं सो ठीक ही है क्योंकि निर्मल पुण्यके रहते १ कञ्चुकी। 'अन्तर्वशिका अन्तःपुराधिकारिणः।' जनः' इत्यभिधानात् । २ आशीर्वचनः । ३ आशीषं कुरुध्वम् । ७ शासु अनुशिष्टौ लोट् । ८ उपागमत् । ६ प्रसन्न सति । 'अन्तःपुरेष्वधिकृतः स्यादन्तर्वशिको ४ भुवम् । ५ भव । ६ याहि । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् पुण्यादयं भरतचक्रधरो जिगीषुः उद्भिन्नवेलमनिलाहतवीचिमालम् । प्रोल्लङघच वाधिममरं सहसा विजिग्ये पुण्ये बलीयसि किमस्ति जगत्यजय्यम् ॥२१४॥ पुण्योदयेन मकराकरवारिसीम पृथ्वी स्वसादकृत चक्रधरः पृथुश्रीः । दुर्लङघचमब्धिमवगाह्य विनोपसगैः पुण्यात् परं न खलु साधनमिष्टसिद्ध्यै ॥२१॥ चक्रायुधोऽयमरिचक्र भयङकरश्रीः आक्रम्य सिन्धुमतिभीषणनऋचक्रम् । मचनम्। चक्रे वशे सरमवश्यमनन्यवश्यं पुण्यात् परं न हि वशीकरणं जगत्याम् ॥२१६॥ पुण्यं जले स्थलमिवाभ्यवपद्यते नृन् पुण्यं स्थले जलमिवाशु नियन्ति तापम् । पुण्यं जलस्थलभये शरणं तृतीयं पुण्यं कुरुध्वमत एव जना जिनोक्तम् ॥२१७॥ पुण्यं परं शरणमापदि दुविलङध्यं पुण्यं दरिद्रति जन धनदायि पुण्यम् । पुण्यं सुखाथिनि जन सुखदायि रत्नं पुण्यं जिनोदितमतः सुजनाश्चिनुध्वम् ॥२१८॥ पुण्यं जिनेन्द्र परिपूजनसाध्यमाद्यं पुण्यं सुपात्रगतदानसमुत्थमन्यत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात् पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥२१॥ हुए मनुष्योंको क्या अलंघनीय (प्राप्त न होने योग्य) रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥२१३॥ सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाले भरत चक्रवर्तीने पुण्यके प्रभावसे, जिसमें ज्वारभाटा उठ रहे हैं और जिसमें लहरोंके समूह वायुसे ताड़ित हो रहे हैं ऐसे समुद्रको उल्लंघन कर शीघ्र ही मागध देवको जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि अतिशय बलवान् पुण्यके रहते हुए संसारमें अजय्य अर्थात् जीतने के अयोग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥२१४॥ बहुत भारी लक्ष्मीको धारण करनेवाले चक्रवर्ती भरतने पुण्यकर्मके उदयसे ही बिना किसी उपद्रवके उल्लंघन करनेके अयोग्य समुद्रको उल्लंघन कर समुद्रका जल ही जिसकी सीमा है ऐसी पृथिवीको अपने आधीन कर लिया, सो ठीक ही है क्योंकि इष्ट पदार्थोकी सिद्धिके लिये पुण्यसे बढ़कर और कोई साधन नहीं है ॥२१५॥ शत्रुओंके समूहके लिये जिनकी सम्पत्ति बहुत ही भयंकर है ऐसे चक्रवर्ती भरतने अत्यन्त भयंकर मगर-मच्छोंके समूहसे भरे हुए समुद्र को उल्लंघन कर अन्य किसीके वश न होने योग्य मागध देवको निश्चित रूपसे वश कर लिया, सो ठीक ही है क्योंकि लोकमें पुण्यसे बढ़कर और कोई वशीकरण (वश करनेवाला) नहीं है ॥२१६॥ पुण्य ही मनुष्योंको जलमें स्थलके समान हो जाता है, पुण्य ही स्थलमें जलके समान होकर शीघ्र ही समस्त संतापको नष्ट कर देता है और पूण्य ही जल तथा स्थल दोनों जगहके भयमें एक तीसरा पदार्थ होकर शरण होता है, इसलिये हे भव्य जनो, तुम लोग जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए पुण्यकर्म करो ॥२१७॥ पुण्य ही आपत्तिके समय किसीके द्वारा उल्लंघन न करनेके योग्य उत्कृष्ट शरण है, पुण्य ही दरिद्र मनुष्योंके लिये धन देनेवाला है और पुण्य ही सुखकी इच्छा करनेवाले लोगोंके लिये सुख देनेवाला है, इसलिये हे सज्जन पुरुषों! तुम लोग जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए इस पुण्यरूपी रत्नका संचय करो ॥२१८।। जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करनेसे उत्पन्न होनेवाला पहला पुण्य है, सुपात्रको दान देनेसे उत्पन्न हुआ, दूसरा पुण्य है व्रत पालन करनेसे उत्पन्न हुआ, तीसरा पुण्य है और उपवास करनेसे उत्पन्न हुआ, चौथा पुण्य है इस प्रकार पुण्यकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको ऊपर लिखे हुए चार प्रकारके पुण्योंका १ सीमां ल०, इ०, द०, अ०, प०, स०। -मिवाभ्युपपद्यते ल०, द०। ५ दरिद्रयति । २ स्वाधीनं चकार । ३ समुद्रम् । ४ प्राप्नोति । For Private & Personal use only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थं स्वपुण्यपरिपाक 'जमिष्टलाभं चक्री सभागृहगतो नृपचक्रमध्ये हरिणी धुततटवने रक्ताशोकप्रवालपुटोद्भिदि स्पृशति पवनं मन्दं मन्दं तरङ्गविभेदिनि । अनुसरसरित्सैन्यंः सार्धं प्रभुः सुखमावसज्जलनिधिजयश्लाघाशीर्भिर्जिनाननुचिन्तयन् ॥ २२१॥ श्रष्टाविंशतितमं पर्व संश्लाघयन्' जनतया श्रुतपुण्यघोषः । शक्रोपमः पृथुनृपासनमध्यवात्सीत् ॥२२०॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षण महापुराण सप्रहे पूर्वार्णवद्वारविजयवर्णनं नामाष्टाविंशं पर्व । संचय करना चाहिये ।। २१९ || इस प्रकार जिसने लोगों के समूहसे पुण्यकी घोषणा सुनी हैं ऐसे चक्रवर्ती भरत, अपने पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुए इष्ट वस्तुओंके लाभकी प्रशंसा करते हुए सभा भवन में पहुंचे और वहां राजाओंके समूहके मध्यमें इन्द्रके समान बड़े भारी राजसिहासन पर आरूढ़ हुए || २२० || जिस समय किनारे के वनको हिलानेवाला, रक्त अशोक वृक्षकी कोंपलोंके संपुटको भेदन करनेवाला और लहरोंको भिन्न भिन्न करनेवाला वायु धीरे धीरे बह रहा था उस समय समुद्रको जीतनेकी प्रशंसा और आशीर्वादके साथ साथ जिनेन्द्र भगवान्‌का स्मरण करते हुए भरतने गङ्गा नदीके किनारे किनारे ठहरी हुई सेनाके साथ सुख से निवास किया था ।। २२१ ।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहके भाषानुवाद में पूर्व समुद्र के द्वारको विजय करनेका वर्णन करनेवाला अट्ठाईसवां पर्व समाप्त हुआ । १ उदयजम् । भेदिनि । २ स श्लाघयन् ल० । १३ जनसमूहेन । ६१ ४ अधिवसति स्म । ५ पल्लवपुटो Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व अथ चक्रधरो जैनी कृत्वेज्यामिष्टसाधनीम् । प्रतस्थे दक्षिणामाशां जिगीषुरनुतोयधि ॥१॥ 'यतोऽस्य पदढक्कानां ध्वनिरामन्द्रमुच्चरन् । मूछितः काहलारावः अब्धिध्वानं तिरोदधे ॥२॥ प्रयाणभेरीनिःस्वानः सम्मूर्छन् गजबृहितैः । दिङमुखान्यनयत् क्षोभं हृदयानि च विद्विषाम् ॥३॥ विबभुः पवनोद्भूता जिगीषोर्जयकेतनाः। वारिधेरिव कल्लोलान् उद्वेला नाजुहषवः ॥४॥ एकतो लवणाम्भोधिः अन्यतोऽप्युपसागरः । तन्मध्य प्यान्बलौघोऽस्य तृतीयोऽब्धिरिवाबभौ ॥५॥ हस्त्यश्वरथपादातं देवाश्च सनभश्चराः । षडडगं बलमस्येति पप्रथे व्याप्य रोदसी ॥६॥ पुरः प्रतस्थे दण्डन चक्रेण तदनन्तरम् । ताभ्यां विशोधिते मार्गे तबलं प्रययौ सुखम् ॥७॥ तच्चक्रमरिचक्रस्य केवल ऋकचायितम् । दण्डोऽपि दण्डपक्षस्य कालदण्ड२ इवापरः ॥८॥ प्रययौ निकषाम्भोधि३ समया तटवेदिकाम् । अनुवेलावनं सम्राट सैन्यः संश्रावयन्१५ दिशः ॥६॥ अनुवाधितट कर्षनलडाधयां स्वामनीकिनीम् । प्राज्ञालतां नपाद्रीणां मूधिन रोपयति स्म सः ॥१०॥ चलिते चलितं पूर्व निर्याते निःसृतं पुरः। प्रयाते यातमेवास्मिन् सेनानीभिरिवारिभिः ॥११॥ अथानन्तर-चक्रवर्ती भरत समस्त इष्ट वस्तुओंको सिद्ध करनेवाली जिनेन्द्रदेवकी पूजा कर दक्षिण दिशाको जीतनेकी इच्छा करते हुए समुद्रके किनारे किनारे चले ॥१॥ जिस समय चक्रवर्ती जा रहा था उस समय तुरहीके शब्दोंसे मिली हुई बड़े बड़े नगाड़ोंकी गंभीर ध्वनि समुद्रकी गर्जनाको भी ढक रही थी ॥२॥ हाथियोंकी चिग्घाड़ोंसे मिले हुए प्रस्थानके समय बजनेवाले नगाड़ोंके शब्द समस्त दिशाओं तथा शत्रुओंके हृदयौंको क्षोभ प्राप्त करा रहे थे ॥३॥ जीतनेकी इच्छा करनेवाले चक्रवर्तीकी वायुसे उड़ती हुई विजय-पताकाएं ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो ज्वारसे उठी हुई समुद्रकी लहरोंको ही बुला रही हों ॥४॥ उस सेनाके एक ओर (दक्षिणकी ओर) तो लवण समद्र था और दूसरी (उत्तर की) ओर उपसागर था उन दोनोंके बीच जाता हुआ वह सेनाका समूह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो तीसरा समुद्र ही हो ॥५॥ हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, देव और विद्याधर यह छह प्रकारकी चक्रवर्तीकी सेना आकाश और पृथिवीके अन्तरालको व्याप्त कर सब ओर फैल गई थी ।।६।। सेनामें सबसे आगे दण्डरत्न और उसके पीछे चक्ररत्न चलता था तथा इन दोनोंके द्वारा साफ किये हए मार्गमें सुखपूर्वक चक्रवर्तीकी सेना चलती थी ॥७॥ चक्रवर्तीका वह एक चक्र ही शत्रुओंके समुहको नष्ट करनेके लिये करोंतके समान था तथा दण्ड ही दण्ड देने योग्य शत्रुओंके लिये दूसरे यमदण्डके समान था ॥८॥ सम्राट भरत समुद्रके समीप समीप किनारेकी वेदीके पास पास किनारेके अनुसार अपनी सेनाके द्वारा दिशाओंको गुंजाते हुए-सचेत करते हुए चले ।।९।। अपनी अलंघनीय सेनाको समुद्रके किनारे किनारे चलाते हुए चक्रवर्ती भरत अपनी आज्ञारूपी लताको राजारूपी पर्वतोंके मस्तकपर चढ़ाते जाते थे ॥१०॥ महाराज भरतके शत्रु उनके सेनापतियोंके समान थे, क्योंकि जिस प्रकार महाराजके चलनेकी इच्छा होते ही सेनापति १ गच्छतः । २ पटु प०, इ०, द० । ३ मिश्रितः । ४ आच्छादयति स्म । ५ मिश्रीभवन् । ६ उज्जृम्भितान् । ७ स्पर्धा कर्तुमिच्छवः । ८ गच्छन् । ६ द्यावापृथिव्यौ। 'भूद्यावौ रोदस्यौ रोदसी च ते' इत्यमरः । १० दण्डरत्नेन । ११ करपत्रमिव चारितम् । १२ यमस्य दण्डः । १३ अम्भोधेः समीपम्। 'निकषा त्वन्तिके मध्ये' १४ तटवेदिकायाः समीपे। १५ साधयन् । १६ प्रापयन् । १७ भरते। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व निष्क्रान्त इति सम्भ्रान्तरायात इति भीवशैः । प्राप्त' इत्यनवस्थैश्च' प्रणेमे सोऽरिभूमिपैः ॥ १२ ॥ महापगारयस्येव तरुरस्य बलीयसः । यो यः प्रतीपमभवत् स स निर्मूलतां ययौ ॥१३॥ "प्रतीपवृत्तिमादर्श छायात्मानं व नात्मनः । विक्रमैकरसश्चक्री सोऽसोढ किमुत द्विषम् ॥ १४ ॥ चमूरवश्रवादेव' कैश्चिदस्य विरोधिभिः । 'चमूरुवृत्तमारब्धम् अतिदूरं पलायितैः १० ॥१५॥ "महाभोगेनृपैः कैश्चिद् भयादुत्सृष्टमण्डलैः । भुजङ्गैरिव निर्मोकः तत्यजेऽपि परिच्छदः १३ ॥१६॥ प्रदुष्टान् भोगिनः " कांश्चित् प्रभुरुद्धृत्य मन्त्रतः १५ । वल्मीकेष्विव दुर्गेषु "कुल्यानन्यानतिष्ठिपत् ॥१७॥ पहले ही चलनेके लिये तैयार हो जाते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजको चलनेके लिये तत्पर सुनकर स्वयं चलनेके लिये तत्पर हो जाते थे अर्थात् स्थान छोड़कर भागनेकी तैयारी करने लगते थे अथवा भरत की ही शरणमें आनेके लिये उद्यत हो जाते थे, जिस प्रकार महाराज के नगरसे बाहर निकलते ही सेनापति उनसे पहले बाहर निकल आते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजको नगरसे बाहिर निकला हुआ सुनकर स्वयं अपने नगरसे बाहर निकल आते थे अर्थात् नगर छोड़कर बाहर जानेके लिये तैयार हो जाते थे अथवा भरतसे मिलनेके लिये अपने नगरोंसे बाहर निकल आते थे और जिस प्रकार महाराजके प्रस्थान करते ही सेनापति उनसे पहले प्रस्थान कर देते हैं उसी प्रकार उनके शत्रु भी महाराजका प्रस्थान सुनकर उनसे पहले ही प्रस्थान कर देते थे अर्थात् अन्यत्र भाग जाते थे अथवा चक्रवर्तीसे मिलनेके लिये आगे बढ़ आते थे || ११ | चक्रवर्ती भरत नगरसे बाहर निकला यह सुनकर जो व्याकुल हो जाते थे, चक्रवर्ती आया यह सुनकर जो भयभीत हो जाते थे और वह समीप आया यह सुनकर जो अस्थिरचित हो जाते थे ऐसे शत्रु राजा लोग उन्हें जगह जगह प्रणाम करते || १२ || जिस प्रकार किसी महानदीके बलवान् वेगके विरुद्ध खड़ा हुआ वृक्ष निर्मूल हो जाता है - जड़ सहित उखड़ जाता है उसी प्रकार जो राजा उस बलवान् चक्रवर्तीके विरुद्ध खड़ा होता था उसके सामने विनयभाव धारण नहीं करता था वह निर्मूल हो जाता था - वंशसहित नष्ट हो जाता था ।।१३॥ एक पराक्रम ही जिसे प्रिय है ऐसा वह भरत जब कि दर्पणमें उलटे पड़े हुए अपने प्रतिविम्बको भी सहन नहीं करता था तब शत्रुओंको किस प्रकार सहन करता ? ।। १४ ।। कितने ही विरोधी राजाओंने तो उनकी सेनाका शब्द सुनते ही बहुत दूर भागकर हरिणकी वृत्ति प्रारम्भ की थी ।। १५ ।। और कितने ही वैभवशाली बड़े बड़े राजाओंने भयसे अपने अपने देश छोड़कर छत्र चमर आदि राज्य चिह्नोंको उस प्रकार छोड़ दिया था जिस प्रकार कि बड़े बड़े फणाओंको धारण करनेवाले सर्प अपने वलयाकार आसनको छोड़कर कांचली छोड़ देते हैं ||१६|| जिस प्रकार दुष्ट सर्पोंको मंत्र के जोरसे उठाकर वामीमें डाल देते हैं उसी प्रकार भरतने अन्य कितने ही भोगी- विलासी दुष्ट राजाओं को मंत्र ( मंत्रियोंके साथ की हुई सलाह ). के जोरसे उखाड़कर किलोंमें डाल दिया था, उनके स्थानपर अन्य कुलीन राजाओं को बैठाया ६३ ८ १ समीपं प्राप्तः । २ अवस्थामतिक्रान्तैः । त्यक्तपूर्वस्वभावैरित्यर्थः । ३ महानदीवेगस्य । ४ प्रतिकूलम् । ५ प्रतिकूलवृत्तिम् । ६ छायास्वरूपम् । 'आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वष् च' इत्यमरः । ७ सहति स्म । सेनाध्वनिसमाकर्णनात् । ६ कम्भोजादिदे राजऋणविशेषवर्तनम् । 'कदली कन्दली चीनश्चमूरुप्रियकावपि । समूरुश्चेति हरिणा अमी अजिनयोनयः । ' इत्यभिधानात् । १० पलायिभिः ल०, प०, द० । ११ पक्ष महाकायैः । 'भोगः सुखे स्त्र्यादिभृतावहेश्च फणकाययोः ' इत्यभिधानात् । १२ त्यक्तभूभागैः । पक्ष त्यक्तवलयैः । १३ परिच्छदोऽपि छत्रचामरादिपरिकरोऽपि परित्यक्तः । १४ पक्षं सर्पान् । १५ मन्त्रशक्तितः । १६ सत्कुलजान् । १७ स्थापयति स्म । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् अनन्यशरणंरन्यस्तापविच्छेदमिच्छभिः । तत्पादपादपच्छाया न्यषेवि सुखशीतला ॥१८॥ केषाञ्चित् पत्रनिर्मोक्षं' छायापाय च भूभुजाम् । पादपानामिव ग्रीष्मः समभ्यर्णश्चकार सः ॥१६॥ ध्वस्तोष्मप्रसरा गाढम् उच्छ्वसन्तोऽन्तराकुलाः । प्राप्तेऽस्मिन् वैरिभूपालाः प्रापुर्मर्तव्यशेषताम् ॥२०॥ 'वरकाम्यति यः स्मास्मिन् प्रागेव विननाश सः । 'विदिध्यापयिषुर्वाह्न शलभः कुशली किमु ॥ २१ ॥ वस्तुवाहन सर्वस्वम् श्रच्छिद्य प्रभुराहरन् । श्ररित्वमरिचक्रेषु १२ व्यक्तमेव चकार सः ॥२२॥ स्वयमपित सर्वस्वा नमन्तश्चक्रवर्तिनम् । पूर्वमप्यरयः पश्चाद् अधिकारित्वमाचरन् ॥ २३॥ साधनं " रमुनाक्रान्ता या धरा धृतसाध्वसा । साधनैरेव तं तोषं नीत्वाऽभूद्धृतसाध्वसा ॥ २४ ॥ कुल्याः " कुलधनान्यस्मै दत्वा स्वां भुवमाजिजन्" । कुल्या' घनजलौघस्य जिगीषोस्ते हि पार्थिवाः ॥ २५ ॥ प्रजाः करभराक्रान्ता यस्मिन् स्वामिनि दुःस्थिताः । तमुद्धृत्य पदे तस्य युक्तदण्डं न्यधाद् विभुः ॥२६॥ था ॥ १७ ॥ जिन्हें अन्य कोई शरण नहीं थी और जो अपना संताप नष्ट करना चाहते थे ऐसे कितने ही राजाओंने सुख तथा शान्ति देनेवाली भरतके चरणरूपी वृक्षोंकी छायाका आश्रय लिया था ||१८|| जिस प्रकार समीप आया हुआ ग्रीष्म ऋतु वृक्षोंके पत्र अर्थात् पत्तोंका नाश कर देता है और उनकी छाया अर्थात् छांहरीका अभाव कर देता है उसी प्रकार समीप आये हुए भरतने कितने ही राजाओंके पत्र अर्थात् हाथी घोड़े आदि वाहनों (सवारियों) का नाश कर दिया था और उनकी छाया अर्थात् कान्तिका अभाव कर दिया था । भावार्थ - भरतके समीप आते ही कितने ही राजा लोग वाहन छोड़कर भाग जाते थे तथा उनके मुखकी कान्ति भयसे नष्ट हो जाती थी ॥। १९ ॥ महाराज भरतके समीप आते ही शत्रु राजाओं का सब तेज ( पक्ष में गर्मी) नष्ट हो गया था, उनके भारी भारी श्वासोच्छ्वास चलने लगे थे और वे अन्तःकरण में व्याकुल हो रहे थे, केवल उनका मरना ही बाकी रह गया था ||२०|| जिस पुरुषने भरतके साथ शत्रुता करने की इच्छा की थी वह पहले ही नष्ट हो चुका था, सो ठीक ही है क्योंकि अग्नि को बुझाने की इच्छा करनेवाला पतंगा क्या कभी सकुशल रह सकता है ? अर्थात् नहीं ॥२१॥ महाराज भरतने शत्रुओंके हीरा मोती आदि रत्न तथा सवारी आदि सब धन छीन लिया था और इस प्रकार उन्होंने समस्त अरि अर्थात् शत्रुओंके समूहको स्पष्ट रूपसे अरि अर्थात् धनरहित कर दिया था ||२२|| अपने आप समस्त धन भेंट कर चक्रवर्तीको नमस्कार करनेवाले राजा लोग यद्यपि पहले शत्रु थे तथापि पीछेसे वे बड़े भारी अधिकारी हुए ||२३|| जो पृथिवी पहले भरतकी सेनासे आक्रान्त होकर भयभीत हो रही थी वही पृथिवी अब अपने धनसे भरत को संतोष प्राप्त कराकर निर्भय हो गई थी ॥ २४ ॥ उच्च कुलोंमें उत्पन्न हुए अनेक राजाओं ने भरतेश्वरके लिये अपनी कुल परम्परासे चला आया धन देकर फिरसे अपनी पृथिवी प्राप्त की थी सो ठीक ही है क्योंकि कुल्य अर्थात् कुल परम्परासे आया हुआ धन और कुल्या अर्थात् नहरमें उत्पन्न हुआ जल ये दोनों ही पृथिवीसे उत्पन्न हुए पदार्थ, जीतनेकी इच्छा करनेवाले राजा होते ||२५|| जिस राजाके रहते हुए प्रजा करके बोझसे दब कर दुःखी हो रही थी, १ वाह्ननिर्णाशम् । पक्षं पर्णविनाशम् । २ तेजोहानिम् । ३ समीपस्थः । ४ निरस्तप्रभावप्रसराः । पक्षे निरस्तोष्णप्रसराः । ५ भरते । ६ मरणकालप्राप्तपुरुषसमानतामित्यर्थः । ७ वैरमिच्छति । ८ यो नास्मिन् इ० । ( ना पुमान् इति इ० टिप्पणी) । ६ क्षपयितुमिच्छुः । १० आकृष्य । ११ स्वीकुर्वन् । १२ न विद्यते राः धनं येषां १३ अधिकशत्रुत्वमिति ध्वनिः । १४ सैन्यैः । ऋज गतिस्थानार्जुनोपार्जनेषु । १८ सरितः । 'कुल्याल्पा कृत्रिमा सरित्' । १९ दुःखिताः ल० । तानि अरीणि तेषां भावस्तत्त्वम्, निर्धनत्वमित्यर्थः । १५ निरस्तभीतिः । १६ कुलजाः । १७ उपार्जयति स्म । 'कुल्या कुलवधूः सरित्' । अथवा कृत्रिमसरितः । तत्पक्षे २० योग्यदण्डकारिपुरुषं स्थापयामास । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व ६५ निजग्राह नृपान् दृप्तान् अनुजग्राह सत्क्रियान् । न्यायः क्षात्रोऽयमित्येव प्रजाहितविधित्सया ॥२७॥ योगक्षेनी जगत्स्थित्य न प्रजास्वेव केवलम् । प्रजापालेष्वपि प्रायस्तस्य चिन्त्यत्वमीयतुः ॥२८॥ पाथिजस्थैकराष्ट्रस्य मता वर्णाश्रमाः प्रजाः । पार्थिवाः सार्वभौमस्य प्रजा यत्तेन ते धृताः११ ॥२६॥ पुण्यं साधनमस्यैकं चक्रं तस्यैव पोषकम् । तद्वयं साध्यसिध्यङग सेनाङगानि विभूतये ॥३०॥ इति मण्डलभूपालान् बलात् प्राणमयन्नयम् । मानमेवाभनक तेषां न सेवाप्रणयं विभुः ॥३१॥ प्रतिपयाणमभ्येत्य "प्राणंसिखुरमुं न पाः। प्राणरक्षामिदास्याज्ञां वहन्तः स्वेषु मूर्धसु ॥३२॥ . प्रगताननुजग्राह सातिरेकै:१६ फलैः प्रभुः । किम् कल्पतरोः सेवास्त्यफलाल्पफलापि वा ॥३३॥ १"सम्प्रेक्षितः स्मितहसिः सवित्रम्भश्च जल्पितः । सम्राट् सम्भावयामास नृपान् सम्माननैरपि ॥३४॥ स्मितः प्रसादैः सञ्जल्पः दिसम्भं हसितैर्मुदम् । प्रेक्षितैरनुरागं च व्यक्ति स्म नृपेषु सः ॥३॥ भरतने उसे हटाकर उसके पदपर किसी अन्य नीतिमान् राजाको बैठाया था ।।२६।। उन्होंने अहंकारी राजाओंको दण्डित किया था और सत्कार अथवा उत्तम कार्य करनेवाले राजाओं पर अनुग्रह किया था सो ठीक ही है क्यों कि प्रजाका हित करनेकी इच्छासे क्षत्रियोंका यह ऐसा न्याय ही है ।।२७।। राजा भरतने जगत्की स्थितिके लिये केवल प्रजाके विषयमें ही योग (नवीन वस्तुको प्राप्त करना) और क्षेम (प्राप्त हुई वस्तुकी रक्षा करना) की चिन्ता नहीं की थी किन्तु प्रजाकी रक्षा करनेवाले राजाओंके विषयमें भी प्रायः उन्हें योग और क्षेमकी चिन्ता रहती थी ॥२८।। किसी एक देशके राजाकी प्रजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्ण रूप मानी जाती है परन्तु चक्रवर्तीकी प्रजा नम्रीभूत हुए राजा लोग ही माने जाते हैं इसलिये चक्रवर्तीको प्रजाके साथ साथ राजाओंकी चिन्ता करना भी उचित है ॥२९॥ भरतके समस्त कार्योको सिद्ध करनेवाला एक पूण्य ही सख्य साधन था, और चक्ररत्न उस पुण्यकी पुष्टि करनेवाला था, पुण्य और चक्ररत्न ये दोनों ही उसके साध्य (सिद्ध करने योग्य विजय रूप कार्य) की सिद्धि के अंग थे, बाकी हाथी घोड़े आदि सेनाके अंग केवल वैभवके लिये थे ॥३०॥ इस प्रकार मण्डलेश्वर राजाओंसे बलपूर्वक प्रणाम कराते हुए चक्रवर्तीने उनका केवल मान भंग ही किया था, अपनी सेवाके लिये जो उनका प्रेम था उसे नष्ट नहीं किया था ॥३॥ प्राणोंकी रक्षाके समात भरतकी आज्ञाको अपने मस्तकपर धारण करते हए अनेक राजा लोग प्रत्येक पड़ावपर आकर उन्हें प्रणाम करते थे ॥३२॥ प्रणाम करनेवाले राजाओंको महाराज भरतने बहुत अधिक फल देकर अनुगृहीत किया था सो ठीक ही है क्योंकि कल्पवृक्षकी सेवा क्या कभी फलरहित अथवा थोड़ा फल देनेवाली हुई है ? ॥३३॥ सम्राट भरतने कितने ही राजाओंकी ओर देखकर, कितने ही राजाओंकी ओर मुसकराकर, कितने ही राजाओंकी ओर हंसकर, कितने ही राजाओं के साथ विश्वासपूर्वक वार्तालाप कर, और कितने ही राजाओं का सन्मान कर उन्हें प्रसन्न किया था ।।३४।। उन्होनं कितनं हो राजाओपर मुसकराकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की थी, कितने ही राजाओंपर वार्तालाप कर अपना विश्वास प्रकट किया था, कितने ही राजाओंपर हंसकर अपना हर्ष प्रकट किया था और कितने ही राजाओंपर प्रेमपूर्ण १ निग्रहं करोति स्म। २ दाविष्टान् । ३ स्वीकृतवान् । ४ न्यायादनपेतः । ५ क्षत्रियधर्मः । ६ पार्थिवेष । ७ एकदेशवतः । ८ क्षत्रियादिवर्णाः ब्रह्मचर्याद्या आश्रमाः। ६ प्रजायन्ते प०, ल० । १० पार्थिवाः । ११ स्वीकुताः । १२ प्रह्वीभूतानकुर्वन् । १३ गर्वमेव । १४ मर्दयति स्म । 'भजोऽवमर्दने'। १५ नमस्कुर्वन्ति स्म । १६ तर्दत्तधनात् साधिकैः । १७ स्निग्धावलोकन: । संप्रेक्षण: ल० । १८ सविश्वासैः । 'समौ विधम्मविश्वासी' इत्यमरः । १६ वचनैः । २० वस्त्राभरणादिपूजनः । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् 'प्रताप्र्सीत् प्रणतानेष समताप्सीद् विरोधिनः । शमप्रतापी मां जेतुः पार्थिवस्योचितौ गुणौ ॥३६॥ प्रसन्नया दृशैवास्य प्रसादः प्रणते रिपौ । भू भडगेणास्फुटत् कोपः सत्यं बहुनटो नृपः ॥३७॥ 'अङगान्मणिभिरत्यङगः वडगांस्तुडागर्मत डागजः। तैश्च तैश्च कलिडगेशान सोऽभ्यनन्ददुपानतान्।३८। 'मागधायितमेवास्य स्फुटं मागधिक पैः । कीर्तयद्भिर्गुणानुच्चः प्रसादमभिलाषुकः ॥३६॥ कुरूनवन्तीन् पाञ्चालान् काशींश्च सह कोसलैः । वैदर्भानप्यनायासाद् आचकर्ष चम्पतिः ॥४०॥ १२वजन् मद्रांश्च कच्छांश्च चेदीन् वत्सान् ससुह्मकान् । पुण्ड्रानोण्ड्रांश्च गौडांश्च मतमश्रावयद् विभोः।४१। दशार्णान् कामरूपांश्च काश्मीरानप्युशोनरान् । मध्यमानपि भूपालान् सोऽचिराद् वशमानयत् ॥४२॥ ददुरस्मै नृपाःप्राच्यकलिङगाङगारजान्" गजान् । गिरीनिव महोच्छ्रायान् "प्रश्चोतन्मदनिर्भरान् ॥४३॥ "दशार्णकवनोद्भूतानपि चेदिककशजान्"। दिड नागस्पधिनो नागान् “प्रादुर्नाग वनाधिपाः ॥४४॥) विभोर्बलभरक्षोभम् प्रासहन्तीव दुःसहम् । सुषवेऽनन्तरत्नानि गभिणीव वसुन्धरा ॥४५॥ दृष्टि डालकर अपना प्रेम प्रकट किया था ॥३५॥ उन्होंने नम्रीभूत राजाओंको संतुष्ट किया था और विरोधी राजाओंको अच्छी तरहसे संतप्त किया था सो ठीक ही है क्योंकि पृथिवीको जोतनेके लिये शान्ति और प्रताप ये दो ही राजाओंके योग्य गुण माने गये हैं ॥३६॥ राजा भरत नमस्कार करनेवाले पुरुषपर अपनी प्रसन्न दृष्टिसे प्रसन्नता प्रकट करते थे और साथ ही शत्रुके ऊपर भौंह टेढ़ी कर क्रोध प्रकट करते जाते थे इसलिये यह उक्ति सच मालूम होती है कि राजा लोग नट तुल्य होते हैं ।।३७॥ उत्तम उत्तम मणियोंको भेंट कर नमस्कार करते हुए अंग देशके राजाओंपर, ऊंचे ऊंचे हाथियोंको भेंट कर नमस्कार करते हुए वंग देशके राजाओं पर और मणि तथा हाथी दोनोंको भेंट कर नमस्कार करते हए कलिंग देशके राजाओंपर वह भरत बहुत ही प्रसन्न हुए थे ।।३८।। भरतेश्वरके प्रसादकी इच्छा करनेवाले मगध देशके राजा उनके उत्कृष्ट गुण गा रहे थे इसलिये वे ठीक मागध अर्थात् बन्दीजनोंके समान जान पड़ते थे ॥३९॥ भरत महाराजके सेनापतिने कूर, अवंती, पांचाल, काशी, कोशल और वैदर्भ देशोंके । राजाओंको बिना किसी परिश्रमके अपनी ओर खींच लिया था अर्थात अपने वश कर लिया था ॥४०॥ मद्र, कच्छ, चेदि, वत्स, सह्म, पूण्ड, औण्ड और गौड़ देशोंमें जा जा कर सेनापतिने सब महाराजकी आज्ञा सनाई थी॥४॥ उसने दशार्ण, कामरूप, काश्मीर, उशीनर और मध्यदेशके समस्त राजाओंको बहुत शीघु वश कर लिया था ।। ४२।। वहां के राजाओं ने जिनसे मदके निर्भरने भर रहे है ऐसे, पूर्व देशमें उत्पन्न होनेवाले तथा कलिंग और अंगार देशमें उत्पन्न होनेवाले, पर्वतोंके समान ऊंचे ऊंचे हाथी महाराज भरतके लिये भेंटमें दिये थे ॥४३।। जिनमें हाथी उत्पन्न होते हैं ऐसे वनोंके स्वामियोंने दिग्गजोंके साथ स्पर्धा करनेवाले, दशार्णक वनमें उत्पन्न हुए तथा चेदि और कसेरु देशमें उत्पन्न हुए हाथी महाराजके लिये प्रदान किये थे ॥४४॥ उस समय भरतेश्वरको पथिवीपर जहां तहां अनेक रत्न भेंटमें मिल रहे इसलिये ऐसा जान पडता था मानो गभिणीके समान पथिवीने चक्रवर्तीकी सेनाके बोझसे उत्पन्न हुए दुःसह क्षोभको न सह सकनेके कारण ही अनन्त रत्न उत्पन्न किये हुए हों ।।४५।। १ तर्पयामास । २ सन्तापयति स्म । ३ जेतुं ल०, इ०, अ०, प०, स० । ४ व्यक्तो बभूव । ५ नटसदृशः । ६ अङगदेशाधिपान् । ७ अनपॅः । ८ आनतान् । ६ मागधीयित -प०, इ० । स्तुतिपाठका इवाचरितान् । १० मगधाधिपः । ११ स्वीकृतवान् । १२ गच्छन् । १३ शासनम्, आज्ञामित्यर्थः । १४ प्राक्दिकसम्बन्धिकलिङगदेशाङगारजान् । १५ गलत् । १६ दशार्ण देशसम्बन्धि । १७ चेदिकसेरुजान् ल०, द०। १८ दधति स्म । १६ गजवन । २० गर्भस्थ शिशुरिव । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व प्रापाण्डरगिरिप्रस्थात् प्रा च वैभारपर्वतात् । आशैलाद गोरथादस्य विचे रुर्जयकुञ्जराः ॥४६॥ वडगाङगपुण्डमगधान् मलदान् काशिकौसलान् । सेनानीः परिबभ्राम जिगीषुर्जयसाधनैः ॥४७॥ कालिन्दकालकूटौ च किरातविषयं तथा । मल्लदेशं च सम्प्रापन्म तादस्य' । चमूपतिः ॥४८॥ धुनों सुमागधों गङगां गोमती च कपीवतीम् । रथास्फा' च नदी तीर्वा मुरस्य चमूगजाः ॥४हा गम्भीरामतिगम्भीरां कालतोयां च कौशिकीम् । नदी कालमहीं तानाम् अरुणां निचुरामपि ॥५०॥ तं लौहित्य समुद्रं च कम्बुकं च महत्सरः। चम्मतङगजास्तस्य भेजुः प्राच्य वनोपगाः ॥५१॥ दक्षिणेन नदं शोणम् उत्तरेण च नर्मदाम् । बीजानदीमुभयतः परितो मेखलानदीम् ॥५२॥ विचेरुः स्वखुरोद्धृतधूलीसंरुद्धदियखाः । राजविनोऽस्य स्फुरत्प्रोथार जयसाधनवाचिनः ॥५३॥ औदुम्बरों१३ च पनसां तमसा प्रमशामपि । "पपुरस्य द्विपाः शुक्तिमती च यमुनामपि ॥५४॥ चेदिपर्वतमुल्लङघच चेदिराष्ट्र विजिग्यिरे । पम्पा"सरोऽम्भोऽतिगमा विभोरस्य तुरङगमाः॥५॥ तनुष्यमूकमाक्रम्य कोलाहलगिरि श्रिताः। प्राङमाल्यगिरिमासेदुः जयिनोऽस्य जयद्विपाः ॥५६॥ नागप्रियाद्रिमाक्रम्य १"कुतपावज्ञया विभोः । सेनाचराः स्वसाच्चक्रुः गजांश्चेदिककूशजान् ॥५७॥ नदी वृत्रवती क्रान्त्वा वन्येभक्षतरोधसम्" । भेजुश्चित्रवतीमस्य चमूवीरास्तुरङगमः ॥५॥ हिमवात् पर्वतके निचले भागसे लेकर वंभार तथा गोरथ पर्वत तक सब जगह भरत महाराज के विजयी हाथी घूम रहे थे ॥४६॥ सबको जीतनेकी इच्छा करनेवाला भरतका सेनापति अपनी विजयी सेनाके साथ साथ बंग, अंग, पुंड, मगध, मालव, काशी और कोशल देशों में सब जगह घूमा था ॥४७।। भरतकी संमतिसे वह सेनापति कालिंद,कालकूट, भीलोंका देश, और मल्ल देशम भी पहुंचा था ॥४८॥ उनकी सेनाके हाथी सुमागधी, गंगा, गोमती, कपीवती और रेवस्या नदीको तैरकर जहां-तहां घूम रहे थे ॥४९॥ पूर्व दिशाके पास पास जानेवाले उनकी सेनाके हाथी अत्यन्त गहरी गंभीरा, कालतोया, कौशिकी, कालमही, ताम्रा, अरुणा और निधुरा आदि नदियों तथा लौहित्य समुद्र और कंबुक नामके बड़े बड़े सरोवरोंमें घूमे थे ॥५०-५१॥ जिन्होंने अपने खुरोंसे उठी हुई धूलिसे समस्त दिशायें भर दी हैं, जो बड़े वेगशाली हैं और जिनके नथने चंचल हो रहे हैं ऐसे महाराज भरतकी विजयी सेनाके घोड़े शोण नामक नदकी दक्षिण ओर, नर्मदा नदीकी उत्तर ओर, वीजा नदीके दोनों ओर और मेखला नदीके चारों ओर घूमे थे ॥५२-५३।। भरतके हाथियोंने उदुम्बरी, पनसा, तमसा, प्रमशा, शक्तिमती और यमुना नदीका पान किया था ॥५४॥ चक्रवर्तीके घोड़ोंने पम्पा सरोवरके जलको पार किया था तथा चेदि नामके पर्वतको उल्लंघन कर चेदि नामके देशको जीता था ॥५५॥ सबको जीतनेवाले भरतके विजयी हाथी ऋष्यमक पर्वतको उल्लंघन कर कोलाहल पर्वत तक जा पहुंचे थे और फिर माल्य पर्वतके पूर्व भागके समीप भी जा पहुंचे थे ॥५६।। भरतकी सेनाके लोगोंने लीलापूर्वक नागप्रिय पर्वतको उल्लंघन कर चेदि और कसेरु देशमें उत्पन्न हुए हाथियोंको अपने आधीन कर लिया था ॥५७। उनकी सेनाके वीर पुरुष घोड़ोंके द्वारा क्षत्रवती नदीको पार कर जिसके किनारे जंगली हाथियोंसे खूदे गये हैं ऐसो चित्र १ चरन्ति स्म । २ मलयान् इ०, अ० । मालयान् प० । मालवान् ल०, द० । ३ आज्ञातः । ४ चक्रिणः । ५ रथस्यां अ०। रेवस्यां प०, ट० । रवस्थां द०। ६ अवतीर्य ! ७ निधुरामपि ल० । ८ लौहित्यसमुद्रनामसरोवरम् । ६ पूर्व । १० शोणनदस्य दक्षिणस्यां दिशि । ११ वेगिनः । १२ नासिका । १३ उदुम्बरी स०, इ०, अ०, ५०, द०, ल०। १४ 'ययुः' इत्यपि पाठः । यानमकुर्वन् । १५ चेदिदेशम् । १६ जयन्ति स्म। १७ पम्पासरोजलमतिक्रान्ताः। १८ देहली। १६ -सेरुजान ल०, द०। २० वेत्रवतीं इ०। छत्र वतीं प० । वृत्तवतीं अ०, स० । २१ वनगजक्षुण्णतटाम् । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ महापुराणम् रुद्ध्वा माल्यवतीतीरवनं वन्पेभसडकुलम । याबुनं च पयः पीत्वा जिग्घुरस्य द्विपा दिशः ॥५६॥ अनुवणुमतीतीरं गत्वास्य जयसाधनम् । वत्सभूमि समाक्रम्य शामिप्यलडघयत् ॥६०॥ विशालां नालिका सिन्धुं परां निष्कुन्दरीमपि । बहुवजां च रम्यां च नदी सिफतिनीमपि ॥६१॥ ऊहां च समतोयां च कब्जामपि कपीवतीम् । निविन्ध्यां च धुनी जम्बूमती च सरिदुत्तमाम् ॥६२॥ वसुमत्यापगामब्धिगामिनी शर्करावतीम् । सिप्रा च कृतमालां च परिजां पनसामपि ॥६३॥ नदीमवन्तिकामां च हस्तिपानी च निम्नगाम् । कागन्धुमापगां' व्याधीं धुनों चर्मण्वतीमपि ॥६४॥ शतभोगां च नन्दां च नदीं करभवे गिनीम् । चुल्लितापी च रेवां च सप्तपारां च कौशिकीम् ॥६॥ सरितोऽमूरगाधापा विब्वगारुद्ध्य तबलम् । तुरङगमखुरोत्खाततीरा विस्तारिणीयं धात् ॥६६॥ तरश्चिकं गिरि क्रान्त्वा रुद्ध्वा वैडूर्यभूधरम् । भटाः कूटाद्रिमुल्लङघय पारियात्रमशिश्रियन् ॥६७॥ गत्वा पुष्पगिरः प्रस्थान सानन सितगिरेरपि । गदागिरेनिकजेष' बलान्यस्य विशश्रमः ॥६॥ वातपृष्ठदरीभागा नक्षवत् कुक्षिभिः५१ समम् । तत्सैनिकाः श्रयन्ति स्म कम्बलाद्रितटान्यपि ॥६६॥ वासवन्तं महाशैलं विलडघयासुरवूपने २ । स्थित्वाऽस्य सैनिकाः प्रापन मदेभानङगरेयिकान्१३ ॥७०॥ निःसपत्नमिति नमुः इतश्चेतश्च सैनिकाः। द्विपान् वनविभागेषु कर्षन्तोऽस्य निर्गजः ॥७१॥ दुस्तराः सुतरा जाताः सम्भुक्ताः सरितो बलः। स्वारोहाइच दुरारोहा गिरयः क्षुण्णसानवः ॥७२॥ वती नदीको प्राप्त हुए थे ।।५८।। जंगली हाथियोंसे भरे हुए माल्यवती नदीके किनारेके वनको घेरकर तथा यमुना नदीका पानी पीकर भरतके हाथियोंने उस ओरकी समस्त दिशाएं जीत ली थीं ॥५९।। उनकी विजयी सेनाने वेणुमती नदीके किनारे किनारे जाकर वत्स देशकी भूभिपर आक्रमण किया और फिर दशार्णा (धसान) नदीको भी उल्लंघन किया--पार किया ॥६०॥ भरतकी सेनाने विशाला, नालिका, सिन्धु, पारा, निकुन्दरी, बहुवजा, रम्या, सिकतिनी, कुहा, समतोया, कंजा, कपीवती, निविन्ध्या, नदियोंमें श्रेष्ठ जम्मती, वसुमती, समुद्र तक जानेवाली शर्करावती, शिप्रा, कृतमाला, परिजा, पनसा, अवन्तिकामा, हरितपानी, कागंधुनी, व्याधी, चर्मण्वती, शतभागा, नन्दा, करभवेगिनी, चुल्लितापी, रेवा, सप्तपारा, और कौशिकी इन अगाध जलसे भरी हुई नदियोंको चारों ओरसे घेरकर जिनके किनारे घोड़ोंके खुरोंसे खुद गये हैं ऐसी उन नदियोंको बहुत चौड़ा कर दिया था ।।६१-६६।। सैनिकोंने तैरश्चिक नामके पर्वतको लांघकर वैडूर्य नामका पर्वत जा घेरा और फिर कुटाचलको उल्लंघन कर पारियात्र नामका पर्वत प्राप्त किया ||६७॥ भरतकी वह सेना पुष्प गिरिके शिखरोंपर चढ़कर स्मितगिरिके शिखरोंपर जा चढ़ी और फिर वहांसे चलकर उसने गदा नामक पर्वतके लतागृहोंमें विश्राम किया ॥६८॥ भरतके सैनिकोंने ऋक्षवान् पर्वतकी गफाओंके साथ साथ वातपृष्ठ पर्वतकी गुफाओंका आश्रय लिया और फिर वहांसे चलकर कम्बल नामक पर्वतके किनारोंपर आश्रय प्राप्त किया ॥६९॥ वे सैनिक वासवन्त नाभके महापर्वत को उल्लंघन कर असुरधूपन नामक पर्वतपर ठहरे और फिर वहांसे चलकर मदेभ तथा अंगिरेयिक पर्वतपर जा पहुंचे ।।७०।। सेनाके लोग उन देशोंको शत्रुरहित समझकर अपने हाथियों के द्वारा बनके प्रदेशोंमें हाथी पकड़ते हुए जहां तहां घूम रहे थे ।।७१॥ जो नदियां दुस्तर अर्थात् कठिनाईसे तैरने योग्य थीं वे ही नदियां सैनिकोंके द्वारा उपभुक्त होनेपर सुतर अर्थात् सुखसे १ बलम् । २ दशार्णान्' इत्यपि क्वचित् । ३ कुहां ल०। ४ कामधुन्यापगाम् । ५ सानून् । ६ स्मितगिरे-ल० । ७ नितम्बेषु । ८ विश्रमन्ति स्म । ६ वातपृष्ठगिरिकन्दरप्रदेशान् । १० भल्लूका इव । ११ तद्धीरस्थितगुहाभिः सह इत्यर्थः । १२ असुरधूपन इति पर्वतविशेषे। १३ मदेभश्च आनङगश्च रेयिकश्च तान् । १४ स्वीकुर्वन्तः । १५ सुखारोहाः । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व राष्ट्राच्यवधयस्तेषां राष्ट्रीयाश्च महीभुजः । फलाय जज्ञिरे भर्तुः योजिताश्चामना फलैः ॥७३॥ अपानवारपारीणान् द्वैप्यानप्यु पसागरे । बली बलैरवष्टभ्य प्रापोपवनजान् गजान् ॥७४॥ रत्नान्यपि विचित्राणि तेभ्यो लब्ध्वा यथेप्सितम् । तानेवास्थापयत्तत्र सन्तुष्टः प्रभुराज्ञया ॥७॥ महान्ति गिरिदुर्गाणि निम्नदुर्गाणि च प्रभोः । सिद्धानि बलरुद्धानि किमसाध्यं महीयसाम् ॥७६॥ इत्थं स पृथिवीमध्यान् पौरस्त्यान्निर्जयन्नुपान् । प्रतस्थे दक्षिणामाशां दाक्षिणात्यजिगीषया ॥७७॥ यतो यतो बलं जिष्णोः प्रचलत्युद्घनायकम् । ततस्ततः स्म सामन्ता नमन्त्यानसमौलयः ॥७॥ त्रिकलिडागाधिपानीद्रान कच्छान्धविषयाधिपान् । प्रातरान् केरलांश्चोलान् पुन्नागांश्च व्यजेष्ट सः॥७॥ कडुम्बानोलिकांश्चैव स माहिषकमेकुरान् । पाण्ड्यानन्तरपाण्डयांश्च दण्डेन वशमानयत् ॥८॥ नपानेतान् विजित्याशु प्रणमय्य स्वपादयोः । हत्वा तत्साररत्नानि प्रभुः प्रापत् परां मुदम् ॥५॥ सेनानीरपि बभ्रामविभोराज्ञां समुद्वहन् । गिरीन् ससरितो देशान् कालिङगकवनाश्रितान् ॥१२॥ स साधनः समं भेजे तैलाभिक्षुमतीमपि । नदी नरवां वडगा श्वसनां च महानदीम् ॥३॥ तैरने योग्य हो गई थी। इसी प्रकार जो पर्वत दुरारोह अर्थात् कठिनाईस चढने योग्य थे वे ही पर्वत सैनिकों के द्वारा शिखरोंके चूर्ण हो जानेसे स्वारोह अर्थात् सुखपूर्वक चढ़ने योग्य हो गये थे ।७२॥ देश, उनकी सीमाएं और देशोंके राजा लोग सम्राट भरतेश्वरको फल प्रदान करने के लिये ही उत्पन्न हुए थे तथा बदलेमें भरतने भी उन्हें अनेक फलोंसे युक्त किया था। भावार्थ-- सम्राट् भरत जहां जहां जाते थे वहां वहांके लोग उन्हें अनेक प्रकारके उपहार दिया करते थे और भरत भी उनके लिये अनेक प्रकारकी सुविधाएं प्रदान करते थे ॥७३॥ जो राजा लोग उपसमुद्रके उस पार रहते थे अथवा उप-समुद्रके भीतर द्वीपोंमें रहते थे उन सबको बलवान न संनाक द्वारा अपने वश किया था तथा वनम उत्पन्न होनेवाले हाथियोकी पकड़ पकड़कर उनका पोषण किया था ।।७४॥ महाराज भरतने उन राजाओंसे अपने इच्छानुसार अनेक प्रकारके रत्न लेकर संतुष्ट हो अपनी आज्ञासे उनके स्थानोंपर उन्हींको फिरसे विराजमान किया था ।।७५।। जो बड़े बड़े किले पहाड़ोंके ऊपर थे और जो जमीनके नीचे बने हुए थे वे सब सेनाके द्वारा धिरकर भरतके वशीभूत हो गये थे, सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंको क्या असाध्य है ? ॥७६।। इस प्रकार भरतने पूर्व दिशाके समस्त राजाओंको जीतकर दक्षिण दिशाके राजाओंको जीतनेकी इच्छासे उस पृथिवीके मध्यभागसे दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान किया ॥७७।। उत्कृष्ट सेनापति सहित विजयी भरतकी सेना जहां जहां जाती थी वहां वहां के राजा लोग सामन्तों सहित मरतक झुका झुकाकर उन्हें नमस्कार करते थे ।।७८॥ दक्षिणमें भरतने त्रिलिंग, औद्र, कच्छ, प्रातर, केरल, चेर और पुन्नाग देशोंके सब राजाओंको जीता था ।।७९।। तथा कूट, ओलिक, महिष, कमेकुर, पाण्ड्य और अन्तरपाण्ड्य देशके राजाओं ण्ड रत्नके द्वारा अपने वशीभूत किया था ।।८०।। सम्राट् भरतने इन सब राजाओंको शीघ ही जीतकर उनसे अपने चरणोंमें प्रणाम कराया और उनके सारभत रत्न लेकर परम आनन्द प्राप्त किया ॥८॥ चक्रवर्तीकी आज्ञा धारण करता हआ सेनापति भी कालिंगक वनके समीपवर्ती अनेक पहाड़ों, नदियों तथा देशोंमें घूमा था ॥८२॥ वह अपनी सेनाओंके साथ साथ तैला, इक्षुमती, नकरवा, वंगा और श्वसना आदि महानदियोंको प्राप्त हुआ था १ सेनान्या । २ उभयतीर भवान् । 'पारावारपरेभ्यः इति खः' इति प्रागजितीयेऽर्थे खः । 'पारावारे परे तीरे' इत्यमरः । ३ द्वीपे जातान्। ४ घाटीं कृत्वा । ५ पुपोष वनजान् ल०, द०, ३०, अ० । ६ पूर्व दिग्भवान् । ७ दक्षिणदिशि जाता। ८ चेरान् ल०, द० । ६ बलेन । १० प्रभो-ल० । ११ कलिङगदेशसम्बन्धि । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० महापुराणम् धुनी वैतरणों माषवती च समहेन्द्रकाम् । सैनिकः सममुत्तीर्य ययौ शुष्कनदीमपि ॥४॥ सप्तगोदावरं तीर्वा' पश्यन् गोदावरी शुचिम् । सरो मानसमासाद्य मुमुदे शुचिमानसः ॥८॥ सुप्रयोगां नदी तीर्वा कृष्णवेणां च निम्नेगाम् । सन्नीरां च प्रवेणी च व्यतीयाय समं बलः ॥८६।। कुब्जां धैर्या च चूर्णी च वेणां सूकरिकामपि । 'अम्बेणां च नदी पश्यन् दाक्षिणात्यानशुश्रुवत् ॥७॥ महेन्द्रादि समाक्रामन् विन्ध्योपान्त च निर्जयन् । नागपर्वतमध्यास्य प्रययौ मलयाचलम् ॥८॥ गोशीर्ष दर्दुरादि च गिरि पाण्डयकवाटकम् । स शीतगुहमासीदन्" अगं श्रीकटनाह्वयम् ॥८६॥ श्रीपर्वत च किष्किन्धं निर्जयञ्जयसाधनः । तत्र तत्रोचिताभः अवर्धत चमूपतिः ॥१०॥ कर्णाटकान् स्फुटाटो पविकटोद्भट वेषकान् । हरिद्राञ्जनताम्बूलप्रियान् प्रायो यशोधनान् ॥१॥ प्रान्धान २०हन्द्रप्रहारेषु कृतलक्षान् कदर्यकान् । पाषाणकठिनानङगैः न परं हृदयरपि ॥२॥ कालिङगकान् गजप्रायसाधनान् सकलाधनान् । प्रायेण तादृशानोडान् जडानुड्ड"मरप्रियान् ॥३॥ चिोलिकानालिकप्रायान् प्रायशोऽनजचेष्टितान् । केरलान् सरलालापान कलागोष्ठीषु चुञ्चकान् पोण्डधान् प्रचण्डदोर्दण्डखण्डितारातिमण्डलान् । प्रायो गजप्रियान् धन्विकुन्तभूयिष्ठसाधनान् ॥६॥ ॥८३॥ तथा वैतरणी, माषवती और महेन्द्रका इन नदियोंको अपने सैनिकोंके साथ पार कर वह शुष्क नदीपर जा पहुंचा था ।।८४॥ सप्तगोदावर नामके तीर्थ और पवित्र गोदावरीको देखता हुआ वह पवित्र हृदयवाला सेनापति मानस सरोवरको पाकर बहुत प्रसन्न हुआ ॥८५।। तदनन्तर उसने सेनाओंके साथ साथ सप्रयोगा नदीको पार कर कृष्णवर्णा, सन्नीरा और प्रवेणी नामकी नदीको पार किया ।।८६।। तथा कुब्जा, धैर्या, चूर्णी, वेणा, सूकरिका और अम्बर्णा नदीको देखते हुए उसने दक्षिण दिशाके राजाओंको चक्रवर्तीकी आज्ञा सुनाई ॥८७॥ फिर महेन्द्र पर्वतको उल्लंघन कर विन्ध्याचलके समीपवर्ती प्रदेशोंको जीतता हुआ नागपर्वतपर चढ़कर वह सेनापति मलय पर्वतपर गया ।।८८।। वहांसे अपनी सेनाके साथ साथ गोशीर्ष, दर्दर, पाण्ड्य, कवाटक और शीतगह नामके पर्वतोंपर पहंचा तथा श्रीकटन, श्रीपर्वत और किष्किन्ध पर्वतोंको जीतता हआ वहांके राजाओंसे यथायोग्य लाभ पाकर वह सेनापति अतिशय वृद्धिको प्राप्त हुआ ।।८९-९०। प्रकट रूपसे धारण किये हुए आडम्बरोंसे जिनका वेष विकट तथा शूरवीरताको उत्पन्न करने वाला है, जिन्हें हल्दी, तांबूल और अंजन बहुत प्रिय हैं, तथा जिनके यश ही धन है ऐसे कर्णाटक देशके राजाओंको, जो कठिन प्रहार करने में सिद्धहस्त हैं जो बड़े कृपण हैं और जो केवल शरीरकी अपेक्षा ही पाषाणके समान कठोर नहीं हैं किन्तु हृदय की अपेक्षा भी पाषाणके समान कठोर हैं ऐसे आंधू देशके राजाओंको, जिनके प्रायः हाथियों की सेना है और जो कला-कौशल रूप धनसे सहित हैं ऐसे कलिङ्ग देशके राजा कलिङ्ग देशके समान हैं, मूर्ख हैं और लड़नेवाले हैं ऐसे ओण्ड देशके राजाओंको, जिन्हें प्रायः झूठ बोलना बहुत प्रिय है और जिनकी चेष्टाएं कुटिल हैं ऐसे चोल देशके राजाओंको, मधुर गोष्ठी करने में प्रवीण तथा सरलतापूर्वक वार्तालाप करनेवाले केरल देशके राजाओंको, जिनके भुजदण्ड अत्यन्त बलिष्ठ हैं, जिन्होंने शत्रुओंके समूह नष्ट कर दिये हैं, जिन्हें हाथी बहुत प्रिय हैं और जो यद्धमें प्रायः धनष तथा भाला आदि शस्त्रोंका अधिकतासे प्रयोग करत हैं ऐसे पाण्ड्य १ तीर्थं अ०, स०, ल०। २ 'सुप्रवेगाम्' इत्यपि क्वचित् । ३ कृष्णवर्णी ल०। ४ अभ्य) ल०। ५ श्रावयति स्म। ६ नागपर्वते स्थित्वा । ७ आगमत् । ८ गर्व । ६ मनोहरः । 'विकटः सुन्दरे प्रोक्तो विशालविकरालयोः' इत्यभिधानात् । १० दुःख । ११ कृतव्याजान् । 'व्याजोडपदेशो लक्ष्यं च' इत्यमरः। १२ कृपणान् । 'कदर्ये कृपणे क्षुद्रकिपचानमितंपचः' इत्यमरः । १३ करिबहलसेनान् । १४ युद्ध । १५ द्राविडान् । १६ अलीक अनृत । १७ वक्रवर्तनान् । १८ कलगोष्ठीष चञ्चुरान् ल०, द०। १६ प्रतीतान् । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व दृष्टापदानानन्यांश्च तत्र तत्र व्यु दुत्थितान् । जयसैन्यैरवस्कन्ध सेनानीरनयद् वशम् ॥१६॥ ते च सत्कृत्य सेनान्य पुरस्कृत्य ससाध्वसम् । चक्रिणं प्रणमन्ति स्म दूरादूरीकृतायतिम् ॥७॥ करग्रहेण सम्पीड्य दक्षिणाशां वधूमिव । 'प्रसभं हृततत्सारो दक्षिणाब्धिमगात् प्रभुः ॥१८॥ लवङागलवलीप्रायम् एलागुल्मलतान्तिकम् । वेलोपान्तवन पश्यन् महतीं धृतिमाप सः ॥६६॥ तमासिषेविरे मन्दमान्दोलितसरोजलाः । एलासुगन्धयः सौम्या वेलान्तवनवायवः ॥१०॥ मरुदुद्धतशाखाग्रविकीसुमनोऽञ्जलिः । ननं प्रत्यगृहीदेनं वनोद्देशो विशाम्पतिम् ॥१०१॥ पवनाधूतशाखाप्रैः व्यक्तषट्पदनिःस्वनैः । विश्रान्त्य सैनिकानस्य व्याहरनिव' पादपाः ॥१०२॥ अथ तस्मिन वनाभोगें सैन्यमावासयद् विभुः । वैजयन्तमहाद्वारनिकटेऽम्बुनिधेस्तटे ॥१०३।। सन्नागं१० बहुपुन्नागर सुमनोभिरधिष्ठितम् । बहुपत्ररथं जिष्णोः बलं तद्वनमावसत्" ॥१०४॥ देशके राजाओंको और जिन्होंने प्रतिकूल खड़े होकर अपना पराक्रम दिखलाया है ऐसे अन्य देशके राजाओंको सेनापतिने अपनी विजयी सेनाके द्वारा आक्रमण कर अपने आधीन किया था ॥९१-९६॥ उन राजाओंने सेनापतिका सत्कार कर तथा भयसहित कुछ भेंट देकर जिन्होंने उनका भविष्यत्काल अर्थात आगे राजा बना रहने देना स्वीकार कर लिया है ऐसे चक्रवर्तीको दूरसे ही प्रणाम किया था ॥९७।। जिस प्रकार पुरुष करग्रह अर्थात् पाणिग्रहण संस्कार से किसी स्त्रीको वशीभूत कर लेता है उसी प्रकार चक्रवर्ती भरतने करग्रह अर्थात् टैक्स वसलीसे दक्षिण दिशाको अपने वश कर लिया था और फिर जबरदस्ती उसके सार पदार्थों को छीनकर दक्षिण समुद्रकी ओर प्रयाण किया था ॥९८॥ वहां वह चक्रवर्ती, जिनमें प्रायः लवंग और चन्दनकी लताएं लगी हुई हैं तथा जो इलायचीके छोटे छोटे पौधोंकी लताओंसे सहित है ऐसे किनारे के समीपवर्ती वनको देखता हुआ बहुत भारी संतोषको प्राप्त हुआ था ॥९९।। जो तालाबोंके जलको हिला रहा है, जिसमें इलायचीकी सुगन्धि मिली हुई है और जो सौम्य है ऐसे किनारेके वनकी वायु उस चक्रवर्तीकी सेवा कर रही थी ॥१००। वायुसे हिलती हुई शाखाओंके अग्रभागसे जिसने फूलोंकी अंजलि बिखेर रखी है ऐसा वह वनका प्रदेश ऐसा जान पडता था मानो इस चक्रवर्तीकी अगवानी ही कर रहा हो ॥१०॥ वक्षोंकी शाखाओं के अग्रभाग वायुसे हिल रहे थे और उनपर भूमर स्पष्ट शब्द कर रहे थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे वृक्ष हाथ हिला हिलाकर भमरोंके शब्दोंके बहाने पुकार पुकारकर विश्राम करनेके लिये भरतके सैनिकोंको बुला ही रहे हों ॥१०२॥ __ अथानन्तर-चक्रवर्तीने उस वनके मैदानमें समुद्रके किनारे वैजयन्त नामक महाद्वारके निकट अपनी सेना ठहराई ॥१०३।। वह वन और भरतकी सेना दोनों ही समान थे क्योंकि जिस प्रकार वन सनाग अर्थात मोथाके पौधौंस सहित था उसी प्रकार सेना भी सनाग अर्थात् हाथियोंसे सहित थी, जिस प्रकार वन बहुपुन्नाग अर्थात् नागकेशरके बहुत वृक्षोंसे सहित था उसी प्रकार सेना भी बहुपुन्नाग अर्थात् अनेक उत्तम पुरुषोंसे सहित थी, जिस प्रकार वन सुमन अथोत् फलोस सहित था उसी प्रकार वह संना भी सुमन अथोत् दव अथवा अत्छ हृदयवाले पुरुषोंसे सहित थी, और जिस प्रकार वन बहुपत्र रथ अर्थात् अनेक पक्षियोंसे सहित होता १ दृष्टसामर्थ्यात् । 'अपदानं कर्मणि स्यादतिवृत्तेऽवखण्डन ।' इत्यभिधानात् । २ अभ्युत्थितान् । ३ आक्रम्य । ४ अङगीकृतसम्पदम् । ५ बलात्कारेण । ६ चन्दनलता। ७ 'तताङकितम्' इत्यपि क्वचित् । ततं विस्तृतम् । ८ आह्वयन्ति स्मेव। ६ विस्तार। १० प्रशस्तगजम् । सुनागवृक्षं च । ११ पुरुषश्रेष्ठ नागकेसरं च । १२ देवः कुसुमैश्च । १३ बहुवाहनस्यन्दनम् बहुलविहगञ्च । 'पतत्रिपत्रि पतगपतत्पत्र रथाङगजाः' इत्यभिधानात् । १४ एवंविधं बलमेवंविधं वनमावसत् । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ महापुराणम् सच्छायान् सकलांस्तुङगान् बहुपत्र परिच्छदान् । असेवन्त जनाः प्रीत्या पार्थिवांस्तापविच्छिदः ॥१०॥ सच्छायानप्यसम्भाव्य फलान् प्रोज्झ्य महानुमान् । सकलान् विरलच्छायान् अप्यहो शिश्रियुर्जनाः ॥१०६॥ "याकालिकीमनाहृत्य बहिश्छायां तदातनीम् । भाविनी तरुमूलेषु छायामाशिधियञ्जना: ॥१०७॥ वनस्थलीस्तरुच्छायानिरुद्धद्यमणित्विषः । 'सजानयस्तरस्तीरेष्वध्यासिषत सैनिकाः ॥१०॥ सप्रेयसीभिराबद्धप्रणयराश्रिता नपैः । कल्पपादपजां लक्ष्मों व्यक्तमहर्वनद्रुमाः ॥१०॥ कपयः कपिलच्छनाम् उद्धनानाः फलच्छटाः । सैनिकानाकुलांश्चक्रुः निविष्टान् वीरुधामधः ॥११०॥ सरःपरिसरेष्वासन् प्रभोराश्वीयमन्दुराः । सुन्दराः स्वरमाहार्यः१० बाष्पच्छेद्यस्तुणाङकुरै:११ ॥१११॥ है उसी प्रकार वह सेना भी अनेक सवारियों और रथोंसे सहित थी, इस प्रकार भरतकी वह सेना अपने समान दनमें ठहरी ॥१०४॥ उस वनके पार्थिव अर्थात् वृक्ष (पथिव्यां भवः, 'पार्थिवः') अर्थात् राजाओं (पृथिव्या अधिपः 'पार्थिवः') के समान थे, क्योंकि जिस प्रकार राजा सच्छाय अर्थात् उत्तम कान्तिसे सहित होते हैं उसी प्रकार उस वनके वक्ष भी सच्छाया अर्थात् उत्तम छाया (छाँहरी) से सहित थे, जिस प्रकार राजा लोग सफल अर्थात आयो सहित होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी सफल अर्थात् फलोंसे सहित थे। जिस प्रकार राजा लोग तुङ्ग अर्थात् ऊंची प्रकृतिके-उदार होते हैं उसी प्रकार उस बनके वृक्ष भी तुंग अर्थात् ऊंचे थे, जिस प्रकार राजा लोग बहुपत्रपरिच्छद अर्थात् अनेक सवारी आदिके वैभवसे सहित होते हैं उसी प्रकार उस बनके वृक्ष भी बहुपत्रपरिच्छद अर्थात् अनेक पत्तोंके परिवारसे सहित थे और जिस प्रकार राजा लोग ताप अर्थात् दरिद्रतासम्बन्धी दुःखको नष्ट करनेवाले होते हैं उसी प्रकार उस वनके वृक्ष भी ताप अर्थात् सूर्यके घामसे उत्पन्न हुई गर्मीको नष्ट करने वाले थे, इस प्रकार भरतके सैनिक, राजाओंकी समानता रखनेवाले वक्षोंका आश्रय बडे प्रेमसे ले रहे थे ॥१०५।। सेनाके कितने ही लोग उत्तम छायासे सहित होनेपर भी जिनसे फल मिलने की संभावना नहीं थी ऐसे बड़े बड़े वृक्षोंको छोड़कर थोड़ी छाया वाले किन्तु फलयुक्त वृक्षों का आश्रय ले रहे थे । भावार्थ-जिस प्रकार धनाढय होनपर भी उचित वृत्ति त्ति न देनेवाले कंजस स्वामीको छोड़कर सेवक लोग अल्पधनी किन्तु उचित वत्ति देनेकाले उदार स्वामीका • आश्रय लेने लगते हैं उसी प्रकार सैनिक लोग फलरहित बड़े बड़े वृक्षोंको छोड़कर फलरहित छोटे छोटे वृक्षोंका आश्रय ले रहे थे ।।१०६।। सेनाके लोग उस समयकी थोड़ी देर रहनेवाली बाहिरकी छाया छोड़कर वृक्षोंके नीचे आगे आनेवाली छायामें बैठे थे ।।१०७।। वनस्थली के वृक्षोंकी छायासे जिनपर सूर्यका धूप रुक गया है ऐसे कितने ही सैनिक अपनी अपनी स्त्रियों सहित तालाबोंके किनारोंपर बैठे हुए थे ॥१०८।। परस्परके प्रेमसे बंधे हुए राजा लोग अपनी अपनी स्त्रियों सहित जिनके नीचे बैठे हुए हैं ऐसे वनके वृक्ष कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुई शोभा को स्पष्ट रूपसे धारण कर रहे थे। भावार्थ-वनके वे वक्ष कल्पवक्षोंके समान जान पडते थे और उनके नीचे बैठे हुए स्त्री-पुरुष भोगभूमिके आर्य तथा आर्याओंके समान मालम होते थे ॥१०९।। वहां करेंचके फल-समूहोंको हिलाते हुए वानर उन लताओंके नीचे बैठे हुए सैनिकों को व्याकुल कर रहे थे क्योंकि करेंचके फलके रोयें शरीरपर लग जानेसे खुजली उठने लगती . है।॥११०॥ तालाबोंके समीप ही इच्छानुसार चरने योग्य तथा भापसे ही टटनेवाले घासके १ सच्छायान् तेजस्विनश्च। २ वहुदलपरिकरान्, बहुवाहनपरिकरांश्च । ३ व क्षान् नृपतीश्न । ४ अस्थिराम्। ५ -माशिधियुर्जनाः ल०, द० । ६ स्त्रीसहिताः । ७ मर्कटीनाम् । 'कपिकच्छुश्च मर्कटी' इत्यभिधानात् । द फलमञ्जरीः । ६ लतानाम् । १० सर्वत्रप्रदेशेषु सुलभरित्यर्थः । ११ कोमलैः । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तमं पर्व श्रवतारित पर्याण' मुखभाण्डाद्युपस्कराः । स्फुरत्प्रोथैर्मुखैरश्वाः क्ष्मां जघ विविवृत्सवः ॥ ११२ ॥ सान्द्रपद्मरजःकीर्णाः" सरसामन्तिकस्थले । मन्दं 'दुधुवुरङ्गानि वाहाः कृतविवर्तनाः ॥ ११३॥ विबभावम्बरे कञ्जरञ्जःपुञ्जोऽनिलोद्धृतः । प्रयत्नरचितोऽश्वानामिवोच्चैः पटमण्डपः ॥११४॥ रजस्वला महीं स्पृष्ट्वा जुगुप्सव इवोत्थिताः । द्रुतं विविशुरम्भांसि सरसीनां महाहयाः ॥ ११५ ॥ वारि" वारिज किञ्जल्कततान्यश्वा विगहिताः । धौतमप्यङ्गरागं स्वं भेजुरम्भोजरेणुभिः ॥ ११६॥ सरोवगाह निर्वृतश्रमाः पीताम्भसो हयाः । श्रामीलिताक्षमध्यूषुः विततान् पटमण्डपान् ॥११७॥ नालिकेरमेष्वासीद् उचितो "वर्ष्मशालिनः । निवेशो हास्तिकस्यास्य विभोस्तालीवनेषु च ॥ ११८ ॥ प्रपतन्नालिकेरौवस्थपुटा वनभूमयः । हस्तिनां स्थानतामीयुः तैरेवर प्रान्तसारितैः ॥ ११६॥ द्विपानुदन्यतः स्तोत्रं वमयुव्यञ्जित " श्रमान् । निन्युर्जलोपयोगाय सरांस्यभिनिषादिनः ॥१२०॥ नीचैर्गतेन सुव्यक्तमार्ग सञ्जनितश्रमान् । गजानाधोरणा निन्युः सरसीरवगाहने" ॥१२१॥ अंकुरोंसे सुन्दर, चक्रवर्ती के घोड़ोंकी घुड़सालें थीं ।। १११॥ जिनपरसे पलान और लगाम आदि सामग्री उतार ली गई है ऐसे घोड़े जमीनपर लोटनेकी इच्छा करते हुए, जिनमें नाकके नयने हिल रहे हैं ऐसे मुखोंसे जमीनको सूंघ रहे थे ।। ११२ ।। कमलोंकी सान्द्र परागसे भरे हुए, तालाव के समीपवर्ती प्रदेशपर लोटकर वे घोड़े धूलि झाड़नेके लिये धीरे धीरे अपने शरीर हिला रहे थे ॥ ११३ ॥ जो कमलोंकी परागका समूह वायुसे उड़कर आकाशमें छा गया था वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो घोड़ोंके लिये बहुत ऊंचा कपड़े का मण्डप ही बनाया गया हो ॥। ११४ || बड़े बड़े घोड़े पृथिवीको रजस्वला अर्थात् धूलिसे युक्त ( पक्ष में रजोधर्म से युक्त) देखकर ग्लानि करते हुए से उठे और शीघ्र ही सरोवरोंके जलमें घुस गये ।। ११५॥ कमलकी केशरसे भरे हुए जलमें प्रविष्ट हुए घोड़ोंका अंगराग (शोभाके लिये शरीरपर लगाया हुआ एक प्रकारका लेप ) यद्यपि धुल गया था तथापि उन्होंने कमलोंके परागसे अपने उस अंगरागको पुनः कर प्राप्त लिया था । भावार्थ-कमलोंकी केशरसे भरे हुए पानी में स्नान करनेसे उनके शरीरपर जो कमलोंकी केशरके छोटे छोटे कण लग गये थे उनसे अंगराग की कमी नहीं मालूम होती थी ॥ ११६ ॥ सरोवरोंमें घुसकर स्नान करनेसे जिनका सब परिश्रम दूर हो गया है और जिन्होंने इच्छानुसार जल पी लिया है ऐसे घोड़े कपड़ेके बड़े बड़े मंडपों में कुछ कुछ नेत्र बन्द किये हुए खड़े थे ।। ११७॥ ऊंचे ऊंचे शरीरोंसे सुशोभित होनेवाले, महाराज भरत के हाथियों के डेरे नारियल और ताड़ वृक्षके वनों में बनाये गये थे जो कि सर्वथा उचित थे ।।११८।। जो वनकी भूमि ऊपरसे पड़ते हुए नारियलोंके समूहसे ऊंची नीची हो रही थी वही नारियलोंके एक ओर हटा देनेसे हाथियोंके योग्य स्थान बन गई थी ।। ११९ ।। जिन्हें बहुत प्यास लगी है तथा जो वमथु अर्थात् सूंड़से निकाले हुए जलके छींटोंसे अपना परिश्रम प्रकट कर रहे हैं ऐसे हाथियोंको महावत लोग पानी पिलानेके लिये तालाबोंपर ले गये थे ॥ १२०॥ जो धीरे धीरे चलनेसे मार्ग में उत्पन्न हुए परिश्रमको प्रकट कर रहे हैं ऐसे हाथियोंको महावत १ पल्ययनखलीनादिपरिकराः । २ आघापयन्ति स्म । ३ विवर्तयितुमिच्छ्वः । ४ - कीर्णे ल० । ५ कम्पयन्ति स्म । ६ - निलोद्भुतः ल० 1. ७ अयं नु ल । ८ कुसुमरजोवतीम्, ऋतुमतीमिति ध्वनिः । है दृष्ट्वा ल० द० १० जलानीत्यर्थः । ११ प्रमाणम् । 'वर्ष्म देहप्रमाणयोः' इत्यभिधानात् । १२ गजैरेव । १३ स्वकरैर्भीत्याकारेण पर्यन्तप्रसारितः । १४ तृषितान् । 'उदन्या तु पिपासा तृट्' इत्यभिधानात् । १५. करशीकरप्रकटित । 'वमथुः करशीकरः' इत्यभिधानात् । १६ हस्त्यारोहाः । 'हत्यारोहो निषादिनः' इत्यमरः । अगमनेनेत्यर्थः । 'अल्प नीचैर्मह्त्युच्चैः १७ मन्दगमनेन । स्खलद्गमनेन वा । १८ अवगाह्नार्थम् । १० ७३ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GE महापुराणम् प्रवेष्ट मब्जिनी पत्रच्छतं नागो नवग्रहः । नैच्छत् प्रचोद्यमानोऽपि वारि वारी विशङ्कया ॥ १२२ ॥ वनं विलोकयन् स्वैरं कवलोचितपल्लवम् । गजश्चिरगृहीतोऽपि किमप्यासीत् समुत्सुकः ॥ १२३ ॥ स्वैरं न पपुरम्भांसि नागृह्णन् कवलानपि । केवलं मनसम्भोगसुखानां सस्मरुर्गजाः ॥ १२४ ॥ उत्पुष्करान् स्फुरद्रौक्म कक्ष्यान्नित्यु द्विपान् सरः । सशयूनिव' नीलाद्रीन् सविद्युत इवाम्बुदान् ॥ १२५॥ वनद्विपमदामोदाहिने गन्धवाहिने । श्रजः कुप्यञ्जलोपान्तं निन्ये कृच्छ्रानिषादिना ॥ १२६॥ अकस्मात् कुपितो दन्तीं शिरस्तिर्यग्विधूनयन् । श्रनङकुशवशस्तीव्रम् प्रधोरणमखेदयत् ॥१२७॥ वन्यानेकप सम्भोगसङक्रान्तमववासनाम् । 'विसोढं सरसों नैच्छत्मदेभः करिणीमिव ॥ १२८ ॥ पीतं वनद्विपैः पूर्वम् अम्बु तद्दानवासितम् । द्विपः करेण सञ्जिघून् "नापावास्फालयत् परम् ॥ १२६॥ पीताम्भसो मदासारैः वृद्धि निन्युः सरोजलम् । गजा मुधा धनादानं नूनं वाच्छन्ति नोन्नताः ॥ १३० ॥ उत्पुष्करं सरोमध्ये निमग्नोऽपि मदद्विपः । रंरणद्भिः खमुत्पत्य व्यज्यते स्म मधुवतः ॥ १३१ ॥ पीताम्बुरम्बुदस्पधि बृंहितो मदकुञ्जरः । दुधावर गण्डकण्डूयां १३ चण्डगण्डूषवारिभिः ॥ १३२॥ लोग नहलानेके लिये तालाबोंपर ले गये थे ।। १२१ ।। कोई नवीन पकड़ा हुआ हाथी वार-बार प्रेरित होनेपर भी कमलिनीके पत्तोंसे ढके हुए जलमें समुद्रकी आशंकासे प्रवेश नहीं करना चाहता था ।। १२२ ।। बहुत दिनका पकड़ा हुआ भी कोई हाथी अपने इच्छानुसार खाने योग्य नवीन पत्तोंवाले वनको देखता हुआ विलक्षण रीतिसे उत्कण्ठित हो रहा था ।। १२३ ।। कितने ही हाथियोंने इच्छानुसार न तो पानी ही पिया था और न ग्रास ही उठाये थे, वे केवल वनके संभोगसुखों का स्मरण कर रहे थे ।। १२४ || जिनकी सूंड़ ऊंची उठी हुई है और जिनकी बगलमें सुवर्ण की मालाएं देदीप्यमान हो रही हैं ऐसे हाथियोंको महावत लोग सरोवरोंपर ले जा रहे थे, उस समय वे हाथी ऐसे जान पड़ते थे मानो अजगर सहित नील पर्वत ही हो अथवा बिजली सहित मेघ ही हों ।। १२५ ।। जो जंगली हाथी के मदकी गन्धको धारण करनेवाले वायुसे कुपित हो रहा है ऐसे किसी हाथीको उसका महावत बड़ी कठिनाईसे जलके समीप ले जा सका था ॥ १२६ ॥ अचानक कुपित हुआ कोई हाथी अपने शिरको तिरछा हिला रहा था, वह अंकुशके वश भी नहीं होता था और महावतको खेद खिन्न कर रहा था ।। १२७॥ जंगली हाथी के संभोग से जिसमें मदकी वास फैल रही है ऐसी हथिनीको जिस प्रकार कोई मदोन्मत्त हाथी नहीं चाहता है उसी प्रकार जिसमें जंगली हाथियोंकी क्रीड़ासे मदकी गंध मिली हुई है ऐसी सरोवरी में कोई मदोन्मत्त हाथी प्रवेश नहीं करना चाहता था ।। १२८ ।। जिस पानीको पहले वनके हाथी पी चुके थे और इसीलिये जो मदकी गन्धसे भरा हुआ था ऐसे पानीको सेनाके हाथियोंने नहीं पिया था, वे केवल सूंडसे संघ संघकर उसे उछाल रहे थे ।। १२९ ।। जिन हाथियोंने तालाबका पानी पिया था उन्होंने अपना मद बहा बहाकर तालाबका वह पानी बढ़ा दिया था, सो ठीक ही है क्योंकि जो उन्नत अर्थात् बड़े होते हैं वे किसीका व्यर्थ ही धन लेने की इच्छा नहीं करते हैं ॥१३०॥ कोई मदोन्मत्त हाथी यद्यपि सूंड ऊपर उठाकर तालाबके मध्यभागमें डूबा हुआ था तथापि आकाशमें उड़कर शब्द करते हुए भूमरोंसे 'वह यहाँ है', इस प्रकार साफ समझ पड़ता था । ॥१३१॥ जो पानी पी चुका है और जिसकी गर्जना मेघोंके साथ स्पर्धा कर रही है ऐसा कोई मदोन्मत्त हाथी अपने कुरलेके जलकी तेज फटकारसे कपोलोंकी खुजली शान्त कर रहा था १ नवो नूतनो ग्रहः स्वीकारो यस्य सः । २ गजबन्धन हेतुभूतगतिशङ्कया । इत्यभिधानात् । ३ वनस्य सम्भोगाज्जातसुखानाम् । ४ उद्गतहस्ताग्रान् । 'दृष्या कक्ष्या वरत्रा स्यात्' इत्यभिधानात् । ६ अजगरसहितान् । ७ अनिलाय । ६ आघ्रापयन् । १० न पिबन्ति स्म । ११ भृशं गुञ्जद्भिः । १२ अपनयति स्म । १३ कपोलकण्डूयनम् । 'वारी तु गजबन्धनी' ५ सुवर्णमयसवरत्रान् । विगाढुं ल० द० । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व विमुक्तं व्यक्तसूत्कारं करमुत्क्षिप्य वारणः। वारि स्फटिकदण्डस्य लक्ष्मीमूहे खमुच्चलत् ॥१३३॥ उदगाहविनिर्धूतश्रमाः केचिन्मतङगजाः । 'बिसभङग रधुस्तृप्ति हेलया कवलीकृतः ॥१३४॥ मुणालैरधिदन्ताग्रम् अपितविबभुर्गजाः। अजस्रमम्बुसंसेका रदैः प्रारोहितैरिव ॥१३॥ प्रमाद्यन् द्विरदः कश्चिन्मृणालं स्वकरोद्धतम् । ददावालान बुद्ध्यैव नियन्त्रे द्विगुणीकृतम् ॥१३६॥ चरणालग्नमाकर्षन् मुणालं भीलुको गजः । बहिःसरस्तट व्यास्थद् अन्दुतन्तुक शङकया ॥१३७॥ करैरुत्क्षिप्य पद्मानि स्थिताः स्तम्बरमा बभुः। देवतानुस्मति किञ्चित् कुर्वन्तोऽर्घरिवोद्धतः ॥१३॥ सरस्तरङगधौताङगा जुस्तुङगा मतङगजाः । शुङगारिता इवालग्नः सान्द्ररम्भोजरेणुभिः ॥१३६॥ ययुः करिभिरारुद्धं परिहृत्य सरोजलम् । पतत्रिणः सरस्तीरं तद्युक्तमबलीयसाम् ॥१४०॥ सरोवगाहनिणिक्त मूर्तयोऽपि मतङगजाः। रजः प्रमाथैरात्मानं चक्रुरेव मलीमसम् ॥१४॥ वयं जात्यैव मातडगार मदेनोद्दीपिताः पुनः । कुतस्त्या शुद्धिरस्माकम् इत्यात्तं न रजो गजैः॥१४२॥ वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं सरस्स रुचिरं प्रविहृत्य नागाः सन्तापमन्त"रुदितं प्रशमय्य तोयैः । तोरनुमानुपययुः किमपि प्रतोषात् बन्धं तु तत्र नियतं न विदाम्ब"भूवः ॥१४३॥ ॥१३२॥ कितने ही हाथी सूड ऊंची उठाकर सू सू शब्द करते हुए ऊपरको पानी छोड़ रहे थे, उस समय आकाशकी ओर उछलता हुआ वह पानी ठीक स्फटिक मणिके बने हुए दण्डेकी शोभा धारण कर रहा था ॥१३३॥ पानीमें प्रवेश करनेसे जिनका सब परिश्रम दूर हो गया है ऐसे कितने ही हाथी लीलापूर्वक मृणालके टुकड़े खाकर संतोष धारण कर रहे थे ।।१३४॥ कितने ही हाथी अपने दाँतोंके अग्रभागपर रखे हुए मृणालोंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो निरन्तर पानीके सींचनेसे उनके दांत ही अंकुरित हो उठे हों ।।१३५।। मदसे अत्यन्त उन्मत्त हुआ कोई हाथी अपनी सडसे ऊपर उठाये हए मणालको बाँधनेकी साँकल समझकर उसे दूहरी कर महावतको दे रहा था ।।१३६॥ अपने पैरमें लगे हुए मृणालको खींचता हुआ कोई डरपोक हाथी उसे बाँधनेकी साँकल समझकर तालाबके बाहरी तटपर ही खड़ा रह गया था ॥१३७॥ अपनी संडोंसे कमलोंको उठाकर खड़े हुए हाथी ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो हाथोंमें अर्घ लेकर किसी देवताका कुछ स्मरण ही कर रहे हों ।।१३८।। जिनके शरीर तालाबकी लहरोंसे धुल गये हैं ऐसे ऊँचे ऊँचे हाथी सघन रूपसे लगे हुए कमलोंकी परागसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्नान कराकर उनका शृङ्गार ही किया गया हो ।। १३९।। हाथियोंसे घिरे हुए तालाब के जलको छोड़कर सब पक्षी तालाबके किनारेपर चले गये थे सो ठीक ही है क्योंकि निर्बल प्राणियोंको ऐसा ही करना योग्य है ।।१४०॥ तालाबोंमें प्रवेश करनेसे जिनके शरीर निर्मल हो गये हैं ऐसे कितने ही हाथी धूल उड़ाकर फिरसे अपने आपको मैला कर रहे थे ॥१४१।। प्रथम तो हम लोग जातिसे ही मातंग अर्थात् चाण्डाल हैं (पक्षमें-हाथी हैं) और फिर मद अर्थात् मदिरासे (पक्षमें--गण्डस्थलसे बहते हुए तरल पदार्थसे) उत्तेजित हो रहे हैं इसलिये हम लोगोंकी शुद्धि अर्थात् पवित्रता (पक्षमें-निर्मलता) कहांसे रह सकती है ऐसा समझकर ही मानो हाथियोंने अपने ऊपर धूल डाल ली थी ॥१४२॥ इस प्रकार वे हाथी बहुत देर तक सरोवरोंमें क्रीड़ा कर और अन्तरङ्गमें उत्पन्न हुए संतापको जलसे शान्त कर किनारेके वृक्षों १ खमुच्छ्व लत् ल०, द०, इ०, १०, १०, स० । २ जलावगाहैः । ३ मृणालखण्डः । ४ धृतवन्तः । ५ दन्तैः ल०, द० । ६ संजातप्रारोहै:, अङकुरितः। ७ बन्धनरज्जुः । ८ आरोहकाय । ६ सरस्तटीबाह्यप्रदेशे। १० प्रक्षिपति स्म । 'असु क्षेपणे'। ११ शृङखलासूत्र । 'अथ शृङखले । अन्दुको निगलोऽस्त्री स्याद्' इत्यभिधानात् । १२ त्यक्त्वा। १३ शुद्ध। १४ धूलिप्रक्षेपैः। १५ श्वपत्राः इति ध्वनिः । १६ इव । १७ अभ्यन्तरोद्भूतम् । १८ न विदन्ति स्म । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ महापुराणम् हृत्वा सरोऽम्बु करिणो निजदानवारि संवधितं रविनिमयादनणाश्च सन्तः । तद्वीचिहस्तजनितप्रतिरोधशङका व्यासगिनो नु सरसः प्रसभं निरीयुः ॥१४४।। आधोरणा मदमषीमलिनान करीन्द्रान् निर्णेक्तु मम्बु सरसामवगाहयन्तः । शेकुन केवलमपामुपयोगमात्रं "तीरस्थिताननु नयस्तदचीकरन्त ॥१४॥ स्वैरं नवाम्बुपरिपीतमयत्नलभ्यतीरमेषु न कृतः कवलग्रहोऽपि । छायास्वलम्भि न तु विश्रमणं प्रभिन्नः स्तम्बरमैर्बत मदः खलु नात्मनीन: ॥१४६॥ नाध्वा द्रुतं गुरुतरैरपि नातियातो युद्धेषु जातु न किमप्यपराद्धमेभिः । भारक्षमाश्च करिणः सविशेषमेव बद्धास्तथाप्यनिभृता० इति दिक्चलत्वम् ॥१४७॥ बध्नीथ नः किमिति हन्त विनापराधात् जानीत भोः१३ प्रतिफलत्यचिरादिदं वः । इत्युच्चलत्सृणि' विधूय शिरांसि बन्धे वैरं न यन्तष गजाः स्म विभावयन्ति ॥१४८॥ प्राघातुको५ द्विरदिनः सविशेषमेव गात्रापरान्तकर वालधिष न्ययोजि ।। बन्धेन सिन्धरवरास्त्वितर तथा नो गाढीभवत्यविरतान्न८ परत्र बन्धः ॥१४६।। के समीप आ गये थे, यद्यपि वहां उनके बाँधनेका स्थान नियत था तथापि क्रीड़ासे उत्पन्न हुए अतिशय संतोषसे उन्हें उसका कुछ भी ज्ञान नहीं था ॥१४३॥ हाथियोंने तालाबोंका जो पानी पिया था उसे मानो अपना बदला चुकाने के लिये ही अपने मदरूपी जल से बढ़ा दिया था, स प्रकार प्यास रहित हो सखकी साँस लेते हए वे हाथी, 'ये तालाब अपनी लहरेंरूपी हाथोंसे कहीं हमें रोक न लें' ऐसी आशंका कर तालाबोंसे शीघ ही बाहर निकल आये थे ।।१४४।। मदरूपी स्याहीसे मलिन हए हाथियोंको निर्मल करने के लिये तालाबोंके जलमें प्रवेश कराते हुए महावत जब उन्हें जलके भीतर प्रविष्ट नहीं करा सके तब उन्होंने केवल जल ही पिलाना चाहा परन्तु बहुत कुछ अनुनय विनय करनेपर भी वे किनारे पर खड़े हुए उन हाथियोंको केवल जल भी पिलाने के लिये समर्थ नहीं हो सके थे। भावार्थ---मदोन्मत्त हाथी न तो पानीमें ही घुसे थे और न उन्होंने पानी ही पिया था ॥१४५॥ मदोन्मत्त हाथियोंने न तो अपने इच्छानुसार बिना यत्नके प्राप्त हुआ पानी ही पिया था, न किनारेके वृक्षोंसे कुछ तोड़कर खाया ही था, और न वृक्षोंकी छायामें कुछ विश्राम ही प्राप्त किया था, खेद है कि यह मद कभी भी आत्मा का भला करनेवाला नहीं है ।।१४६।। इन हाथियोंने शरीर भारी होनेसे शीघ्र ही मार्ग तय नहीं किया यह बात नहीं है अर्थात् इन्होंने भारी होनेपर भी शीघू ही मार्ग तय किया है, इन्होंने युद्ध में भी कभी अपराध नहीं किया है और ये भार ढोनेके लिये भी सबसे अधिक समर्थ हैं फिर भी केवल चंचल होनेसे इन्हें बद्ध होना पड़ा है इसलिये इस चंचलताको ही धिक्कार हो ॥१४७।। तुम लोग इस प्रकार बिना अपराधके हम लोगोंको क्यों बांध रहे हो? तुम्हारा यह कार्य तुम्हें शीघ ही इसका बदला देगा यह तुम खूब समझ लो इस प्रकार बांधने के कारण महावतोंमें जो वैर था उसे वे हाथी अंकुशको ऊपर उछालकर मस्तक हिलाते हुए स्पष्ट रूपसे जतला रहे थे ॥१४८॥ जो हाथी जीवोंका घात करनेवाले थे वे शरीरके आगे पीछे तथा सूड और पूंछ आदि १नै मेयात् । परिदानं परीवर्त नैमेयनियमावपि' इत्यभिधानात् । २ --दतणाः श्वसन्तः ल० । -दनृणाः श्वसन्तः द० । ३ शुद्धान् कर्तुम् । ४ तीरे स्थितान्- ल०। ५ कारयन्ति स्म। ६ नैव । ७ मत्तः । 'प्रभिन्नो जितो मत्तः' इत्यभिधानात् । ८ आत्महितम् । ६ नानुयातो प०, ल० । १० चञ्चलाः। ११ बन्धनं कुरुथ । १२ लोट् । १३ भोः यूयम् । १४ उच्चलदंशं यथा भवति तथा । 'अंकशोऽस्त्री . सणिः स्त्रियाम्' इत्यभिधानात् । १५ हिंस्रकः । 'शरारुर्घातुको हिस्रः' इत्यभिधानात् । १६ अपरगात्रान्त । शरीरापरभाग। 'द्वी पूर्वपश्चाद्जङघादिदेशौ गात्रापरे ऋमात्' इति रभसः । गात्रे इत्युक्ते पूर्वजङघा, अपरे इत्युक्ते हस्तिनः अपरजघा, अन्त इत्युक्ते हस्तिनो मध्यप्रदेशः, कर इत्युक्ते हस्तिनो हस्तः, वालधिरित्युक्ते पुच्छविशेषः । शरीरमध्य। १७ अघातुकाः। १८ असंयतात् । अनतिकादित्यर्थः । १६ संयते । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० एकोनत्रिंशसमं पर्व पालानिता वनतरुष्वतिमात्रमुच्चस्कन्धेषु सिन्धुरवराश्च तथोच्चकर्यत् । तन्नूनमाश्रयणमिष्टमदात्तमेव सन्धारणाय महतामहतात्मसारम् ॥१५०॥ इत्थं नियन्तुभिरनेकपवृन्दमुच्चैः आलानितं तरुषु सामि निमीलिताक्षम् । तस्थौ सुखं विचतुरेण कृताङ्गहारं लीलोपयुक्तकवलं स्फुटकर्णतालम् ॥१५॥ उत्तारिताखिलपरिच्छदलाघवेन प्रव्यञ्जितद्रुतगतिक मलक्ष्यवेगाः । आपातुमम्बुसरसा परितः प्रसस्त्र : उच्छडखलै रनुगताः कलभैः करिण्यः ॥१५२॥ प्राक्पीतमम्बु सरसां 'कृतमौष्ट्रकेण स्वोद्गाला दूषितमुपात्ततदङगगन्धम् । नापातुमच्छदुदिदन्यषितोऽपि वर्क:१३ सर्वो हि वाञ्छति जनो विषयं मनोज्ञम् ॥१५३॥ पीतं पुरा गजतया सलिलं मदाम्बु संवासितं सरसिजाकरमेत्य तूर्णम् । प्रीत्या पपुः कलभकाश्च करेणवश्च सम्भोगहेतुरुदितो" हि सगन्ध"भावः ॥१५४॥ प्रहर्षिणी पीत्वाऽम्भो व्यपगमितान्तरङगतापाः सन्तापं बहिरुदितं सरोवगाहः । नीत्वान्तं गजकलभः समं करिण्यः सम्भोक्तुं सपदि वनद्रुमान् विचेरुः ॥१५॥ सब जगह बन्धनोंसे युक्त किये गये थे और जो हाथी किसीका घात नहीं करते थे वे बन्धनसे घुक्त नहीं किये गये थे इससे यह सिद्ध होता है कि जो अविरत अर्थात् हिंसा आदि पापोंके त्यागसे रहित हैं उन्हीं के कर्मबन्धन सुदृढ़ रूपसे होता है और जो विरत अर्थात् हिंसा आदि पापोंके त्यागसे सहित हैं उनके कर्मका बन्ध नहीं होता ।।१४९।। जिनके स्कन्ध बहुत ऊंचे गये हैं ऐसे वनके वक्षोंमें ही सेनाके ऊँचे ऊँचे हाथी बांधे गये थे सो ठीक ही है पुरुषोंको धारण करने के लिये जिसकी स्वशक्ति नष्ट नहीं हुई है ऐसा बहुत बड़ा ही आश्रय चाहिये ।।१५०।। इस प्रकार महावतोंके द्वारा ऊंचं वृक्षोम बाँधा हुआ वह हाथियोका समूह आधी आंखें बन्द किये हए सखसे खडा था, उस समय वह अपना सब शरीर हिला रहा था, लीलापूर्वक ग्रास ले रहा था और कान फड़फड़ा रहा था ।।१५१।। पलान आदि सब सामान उतार लेनेसे हलकी होकर जिन्होंने जल्दी जल्दी चलकर अपनी शीघ गति प्रकट की है, तथा चंचल बच्चे जिनके पीछे पीछे आ रहे हैं ऐसी हथिनियाँ तालाबोंका पानी पीने के लिये चारों ओर से जा रही थीं ।।१५२॥ तालाबोंके जिस पानीको पहले ऊँटोंके समूह पी चुके थे, जो ऊंटोंके उगालसे दूषित हो गया था और जिसमें ऊँटोंके शरीरकी गंध आने लगी थी ऐसे पानीको हाथी का बच्चा प्यासा होने पर भी नहीं पीना चाहता था, सो ठीक ही है क्योंकि सभी कोई अपने मनके विषयभत पदार्थके अच्छे होनेकी चाह रखते हैं ॥१५३॥ जिसे पहले हाथियों समुह पी चुके थे और जिसमें उनके मद जलकी गंध आ रही है ऐसे पानीको हथिनियाँ तथा उनके बच्चे बहुत शीघू तालाबपर जाकर बड़े प्रेमसे पी रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि समानता ही साथ साथ खाने पीने आदि संभोगका कारण होता है ॥१५४॥ जिन्होंने जल पीकर अन्तरङ्गका संताप दूर किया है और तालाबमें घुसकर बाहिरी संताप नष्ट किया है ऐसी हथिनियां अपने १ आधोरणः । २ यस्मात् कारणात् । ३ अर्ध। ४ बिदृश्यानि विगतानि चत्वारि यस्य तेन । अङगविक्षेपम । ६पाद । ७ स्वच्छन्दवत्तिभिः । ८ सम्पूर्णम् । ६ उष्ट्रसमूहेण । १० निजोद्गार । ११ उष्ट्रशरीरगन्धम् । १२ भृशं तुषितंः । १३ तरुणगजः । विक्कः अ० । १४ उक्तः । १५ परिमलत्वं मित्रत्वं च । १६ नाशम् । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् वल्लीनां सकुसुमपल्लवाग्रभङ्गान् गुल्मौघानपि सरसां कडडगरांश्च । सुस्वादून मृदुविटपान् वनमाणां तद्यूयं कवलयति स्म धेनुकानाम् ॥१५६॥ कुञ्जेषु प्रतनुतणाडाकुरान् प्रमदनन् वप्रान्तानपि रदनैः शनैर्विनिघ्नन । वल्ल्यग्रसनचणः फलेग्रहिः सन् वालोलः कलभगणश्चिरं विज हे ॥१५७॥ प्रत्यग्राः किसलयिनीगहाण शाखा- भरध्युच्चैर्वनगहनं निषीद कुञ्ज । सम्भोग्यानुपसरसल्लकीवनान्तान् इत्येवं० व्यहृत वने करेणुवर्गः ॥१५८॥ सम्भोगर्वनमिति निविशन ययेष्टं स्वातन्त्र्यान्महरपि धूर्गनिबद्धः । बद्धव्यः सहकलभः करेणुवर्गः सम्प्रापत् समुचितमात्मनो निवेशम् ॥१५॥ वित्रस्तरपथमुपाहृतस्तुरङगैः पर्यस्तो५ रथ इह भग्ननिरक्षः । एतास्ता द्रुतमपयान्त्यपेत्य मार्गाद् वारस्त्रीवहनपराश्च वेगसर्य: ॥१६०॥ वित्रस्तः करभनिरीक्षणाद् गजोऽयं भीरुत्वं प्रकटयति प्रधावमानः । २०उत्त्रस्तात्पतति च वेसरादमुष्माद् वित्रस्तस्तनजघनांशुका पुरन्धी ॥१६॥ इत्युच्चय॑तिवदतां पृथग्जनानां सञ्जल्पः क्षुभितखरोष्ट्रकौक्षकैश्च । सव्याक्रोशैर्जनितरवैश्च सैनिकानां सडक्षोभः क्षणमभवच्चमूषु राज्ञाम् ॥१६२॥ बच्चोंके साथ खाने के लिये शीघ ही वनके वक्षोंकी ओर चली गई ॥१५५॥ वह हथिनियोंका समह लताओंके पुष्पसहित नवीन पत्तोंके अग्रभागोंको, छोटे छोटे पौधोंको, रसीले कडंगरि वृक्षोंको और वनके वृक्षोंकी स्वादिष्ट तथा कोमल शाखाओंको खा रहा था ॥१५६।। लतागहोंमें पतली घासके अंकुरोंको खूदता हुआ खेतोंकी मेड़को अपने दाँतोंसे धीरे धीरे तोड़ता हुआ, लताओंके अग्रभागके खाने में चतुर तथा फलोंको तोड़ता हुआ वह चंचल हाथियों के बच्चों का समह चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा था ।।१५७।। पत्तेवाली नवीन लताओंको ग्रहण कर, ऊँची ऊँची शाखाओंसे युक्त सघन वनमें जा, लतागहमें बैठ और खानेके योग्य सल्लकी वनोंके समीप जा इस प्रकार महावतोंकी आज्ञासे वह हथिनियोंका समह वनमें इधर-उधर विहार कर रहा था ॥१५८।। इस प्रकार जो अनेक प्रकारकी क्रीड़ाओंके द्वारा वनका अ नसार उपभोग कर रहा है, स्वतन्त्रतापूर्वक आगे चलनेसे महावत लोग जिसे रोक रहे हैं और जो बाँधने के योग्य हैं ऐसा वह हथिनियोंका समूह बच्चोंके साथ अपने ठहरने योग्य स्थानपर जा पहंचा ॥१५९।। इधर हाथियोंसे डरे हुए इन घोड़ोंने यह रथ कुमार्गमें ले जाकर पटक दिया है, इसका धूरा और भौंरा टूट गया है तथा वेश्याओंको ले जानेम तत्पर ये खच्चरियाँ अपना मार्ग छोड़कर बहुत शीघू भागी जा रही हैं ॥१६०॥ इधर यह ऊंट देखनेसे डरा हुआ हाथी दौड़ा जा रहा है और उससे अपना डरपोकपना प्रकट कर रहा है तथा इधर जिसके स्तन और जधन परका वस्त्र खिसक गया है ऐसी यह स्त्री डरे हुए खच्चरसे गिर रही है ।।१६१॥ इस प्रकार जोर जोरसे बोलते हुए साधारण पुरुषोंकी बातचीतके शब्दोंसे, क्षोभको प्राप्त हुए गधे, ऊंट तथा बैलोंके शब्दोंसे और परस्पर बुलानेसे उत्पन्न हुए संनिकोंके कठोर शब्दोंसे राजाओंकी १ सानि । 'कडङगरो बुसं क्लीबे' इत्यभिधानात् । २ करिणीनाम् । 'करिणी धेनुका वशा' इत्यमरः। सुरभीणाम् । ३ कोमल । ४ मर्दयन् । ५ सान्वन्तान् । 'स्नुर्वप्रः सानुरस्त्रियाम्' इत्यमरः । ६ भक्षणसमर्थः। ७ फलानि गृह्णन् । ८ भङगं कुरु। ६ आस्स्व । १० सादिजनानुनयः । ११ विहाति स्म। १२ अनुभवन् । १३ सादिभिः । १४ निषिद्धः । १५ उत्तानं यथा पतितः । १६ भग्नयानमुखः । १७ निर्गतावयवः । १८ वेसराः। १६ भयं गतः । २० चकितात् । २१ परस्परभाषमाणानाम् । २२ वृषभैः । २३ परस्पराह्वयैः । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्तम पर्व ७९ मालिनी अवनिपतिसमाजेनानुयातस्तुरङगः अकृशविभवयोगाग्निर्जयन् लोकपालान् । प्रतिदिशमुपशृण्वन्नाशिषश्चक्रपाणिः शिबिरमविशदुच्चैर्वन्दिनां पुण्यघोषः ॥१६३॥ अथ सरसिजिनीनां गन्धमादाय सान्द्रं धुततटवनवीथिर्मन्दमावान् समन्तात् । श्रममखिलमनौत्सीत् कर्तुमस्योपचारं प्रहित इव सगन्धः सिन्धुना' गन्धवाहः ॥१६४॥ अविदितपरिमाणरन्वितो रत्नशखैः स्फरितमणिशिखा गिभिः सेवनीयः । सततमुपचितात्मा रुद्धदिक्चक्रवालो जलनिधिमनुजहे' तस्य सेनानिवेशः ॥१६॥ शार्दूलविक्रीडितम् तत्रावासितसाधनो निधिपतिर्गत्वा रथेनाम्बुधि जैत्रास्त्रप्रतिजितामरसभस्तं व्यन्तराधीश्वरम् । जित्वा मागधवत् क्षणाद्वरतनुं तत्साह्वमम्भोनिधेः द्वीपं शश्वदलञ्चकार यशसा कल्पान्तरस्थायिना ॥१६६॥) लेभेऽभेद्यमुरश्छदं वरतनोवेयकं च स्फुरच्चूडारत्नमुदंशु दिव्यकटकान्सूत्रं च रत्नोज्ज्वलम् । सदनैरिति पूजितः स भगवान् श्रीवैजयन्तार्णव-द्वारेण प्रतिसन्निवृत्य कटकं प्राविक्षदुत्तोरणम् ॥१६७॥ सेनाओंमें क्षण भरके लिये बड़ा भारी क्षोभ उत्पन्न हो गया था ।।१६२॥ घोड़ोंपर बैठे हुए अनेक राजाओंका समूह जिसके पीछे पीछे चल रहा है ऐसा वह चक्रवर्ती अपने बड़े भारी वैभव से लोकपालोंको जीतता हआ तथा प्रत्येक दिशामें बन्दीजनोंके मंगल गानोंके साथ साथ आशीवर्वाद सनता हआ अपने उच्च शिविर में प्रविष्ट हुआ ।।१६३।। ___अथानन्तर जो किनारके वनकी पंक्तियोंको हिला रहा है ऐसा वायु कमलिनियों की उत्कट गंध लेकर धीरे धीरे चारों ओर बह रहा था और समुद्रके द्वारा भेजे हुए किसी खास सम्बन्धीके समान चक्रवर्तीके समस्त परिश्रमको दुर कर रहा था ॥१६४॥ उस समय वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान (पड़ाव) ठीक समुद्रका अनुकरण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार समुद्र प्रमाणरहित शंख और रत्नोंसे सहित होता है उसी प्रकार वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान भी प्रमाणरहित शंख आदि निधियों तथा रत्नोंसे सहित था, जिस प्रकार समद्र, जिनके मस्तकपर अनेक रत्न देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे भोगी अर्थात् सोसे सेवनीय होता है उसी प्रकार वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान भी, जिनके मस्तकपर अनेक मणि देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे भोगी अर्थात राजाओके द्वारा संवनीय था, जिस प्रकार समुद्र निरन्तर बढता रहता है उसी प्रकार वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान भी निरन्तर बढता जाता था, और जिस प्रकार समद्र सब दिशाओंको घेरे रहता है उसी प्रकार वह चक्रवर्तीकी सेनाका स्थान भी सब दिशाओंको घेरे हुए था ।।१६५॥ जिसने अपनी सेना समुद्रके किनारे ठहरा दी है और जिसने अपने विजयशील शस्त्रोंसे मागध देवकी सभाको जीत लिया है ऐसे निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीने रथके द्वारा समुद्र में जाकर मागधदेवके समान व्यन्तरोंके स्वामी वरतनु देवको भी जीता और समुद्रके भीतर रहनेवाले उसके वरतन नामक द्वीपको कल्पान्त कालतक स्थिर रहनेवाले अपने यश से सदाके लिये अलंकृत कर दिया ।। १६६।। भरतने वरतन देवसे कभी न टूटनेवाला कवच, देदीप्यमान हार, चमकता हुआ चूड़ारत्न, दिव्य कड़े और रत्नोंसे प्रकाशमान यज्ञोपवीत इतनी वस्तुएं प्राप्त की। तदनन्तर उत्तम रत्नोंसे जिसकी पूजा की गई है ऐसे ऐश्वर्यशाली १ आगच्छन् । २ अपनयति स्म । ३ बन्धुः। ४ समुद्रेण । ५ चक्रादिरत्नशङखनिधिभिः । पक्षे मौक्तिकादिरत्नशङखैः । ६ पक्ष सः । ७ वद्धितस्वरूपः । ८ अनुकरोति स्म। ६ निवासितबलः । १० पूज्यः । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० महापुराणम् स्वच्छं स्वं हृदयं स्फुटं प्रकटयन्मुक्ताफलच्छद्मना स्वं चान्तर्गतरागमाशु कथयन्नुद्यत्प्रवालाङकुरैः । सर्वस्वं च समर्पयनुपन' यन्त्रन्तर्वणं दक्षिणो वारां राशिरमात्यवद्विभुमसौ निर्व्याजमाराधयत् ।। १६८ ।। श्रास्थाने जयदुन्दुभीनन नदन् प्राभातिके मङगले गम्भीरध्वनितैर्जयध्वनिमिव प्रस्पष्टमुच्चारयन् । सुव्यक्तं स जलाशयोऽप्यजल' धोर्वाराम्पतिः श्रीपति निर्ऋ त्य ' स्थितिरन्वियाय सुचिरं शक्रो यथाद्यं जिनम् इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण सङग्रहे दक्षिणार्णवद्वारविजयवर्णनं नामैकोनत्रिंशं पर्व । भरतने वैजयन्त नामक समुद्र के द्वारसे वापिस लौटकर अनेक प्रकारके तोरणोंसे सुशोभित किये गये अपने शिबिर में प्रवेश किया ॥ १६७॥ उस समय वह दक्षिण दिशाका लवणसमुद्र ठीक मंत्री की तरह छलरहित हो भरतकी सेवा कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार मंत्री अपने स्वच्छ हृदयको प्रकट करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी मोतियों के छलसे अपने स्वच्छ हृदय ( मध्यभाग) को प्रकट कर रहा था, जिस प्रकार मंत्री अपने अन्तरङ्गका अनुराग (प्रेम) प्रकट करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी उत्पन्न होते हुए मूंगाओं के अंकुरोंसे अपने अन्तरङ्गका अनुराग (लाल वर्ण) प्रकट कर रहा था, जिस प्रकार मंत्री अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है उसी प्रकार समुद्र भी अपना सर्वस्व (जल) समर्पण कर रहा था, जिस प्रकार मंत्री अपना गुप्त धन उनके समीप रखता था उसी प्रकार वह समुद्र भी अपना गुप्त धन ( मणि आदि ) उनके समीप रख रहा था, और जिस प्रकार मंत्री दक्षिण ( उदार सरल ) होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी दक्षिण ( दक्षिण दिशावर्ती ) था ।। १६८ ।। अथवा जिस प्रकार इन्द्र दास होकर अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मी के स्वामी प्रथम जिनेन्द्र भगवान् वृषभदेवकी सेवा करता था उसी प्रकार वह समुद्र भी दास होकर राज्यलक्ष्मी के अधिपति भरत चक्रधरकी सेवा कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार इन्द्र आस्थान अर्थात् समवसरण सभामें जाकर विजय-दुन्दुभि बजाता था उसी प्रकार वह समुद्र भी भरतके आस्थान अर्थात् सभामण्डपके समीप अपनी गर्जनासे विजय- दुन्दुभि बजा रहा था, जिस प्रकार इन्द्र प्रातःकालके समय पढ़े जानेवाले मंगल- पाठके लिये जय जय शब्दका उच्चारण करता था उसी प्रकार वह समुद्र भी प्रातःकालके समय पढ़े जानेवाले भरतके मंगल- पाठके लिये अपने गंभीर शब्दोंसे जय जय शब्दका स्पष्ट उच्चारण कर रहा था, जिस प्रकार इन्द्र जलाशय ( जडाशय ) अर्थात् केवल ज्ञानकी अपेक्षा अल्प ज्ञानी होकर भी अपने ज्ञानकी अपेक्षा अजलधी ( अजड़धी ) अर्थात् विद्वान् (अजड़ा धीर्यस्य सः ) अथवा अजड (ज्ञानपूर्ण परमात्मा) का ध्यान करनेवाला ( अजड़ं ध्यायतीत्यजडधी: ) था उसी प्रकार वह समुद्र भी जलाशय अर्थात् जलयुक्त होकर भी अजलधी अर्थात् जल प्राप्त करने की इच्छासे ( नास्ति जले धीर्यस्य सः ) रहित था, इस प्रकार वह समुद्र चिरकाल तक भरतेश्वरकी सेवा करता रहा ।। १६९॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवाद में दक्षिण समुद्र के द्वारके विजयका वर्णन करनेवाला उनतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ । १ प्रापयन् । २ अन्तर्जलम् । ३ समवसरणे । ४ सदृशं ध्वनन् । ५ पटुबुद्धिः । ६ भृत्यवृत्तिः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व 'प्रथापरान्तं निर्जेतुम् उद्यतः प्रभुरुद्ययौ। दक्षिणा परदिग्भागं वशीकुर्वन् स्वसाधनैः ॥१॥ पुरः प्रयातमश्वोयः अन्वक्प्रचलितं रथः । मध्य हस्तिघटा 'प्रायात् सर्वत्रैवात्र पत्तयः ॥२॥ "सदेवबलमित्यस्य चतुरगं विभोर्बलम् । विद्याभतां बलैः सार्द्ध षडभिरङविपप्रथे ॥३॥ प्रचलबलसंक्षोभाद् उच्चचाल किलार्णवः। महतामनुवृत्ति नु श्रावयन्ननुजीविनाम् ॥४॥ बलैःप्रसह्य निर्भुक्ताः११ प्रह्वन्ति स्म महीभुजः । सरितः कर्दमन्ति स्म स्थलन्ति स्म महाद्रयः ॥॥ सुरसाः कृतनिर्वाणा: स्पृहणीया बुभुक्षुभि: । महद्भिः सममुद्योग: फलन्ति स्मास्य सिद्धयः ॥६॥ अभेद्या दृढसन्धाना२१ विपक्षजय हेतवः । २३शक्तयोऽस्य स्फुरन्ति स्म सेनाश्च विजिगीषुषु ॥७॥ फलेन" योजितास्तीक्ष्णाः सपक्षा५ दुरगामिनः । नाराचैः२६ सममेतस्य योधा जग्मुर्जयाङगताम् ॥८॥ अथानन्तर-पश्चिम दिशाको जीतने के लिये उद्यत हए चक्रवर्ती भरत अपनी सेनाके द्वारा दक्षिण और पश्चिम दिशाके मध्यभाग (नैऋत्य दिशा) को जीतते हुए निकले ॥१॥ उनकी सेनामें घोड़ोंके समूह सबसे आगे जा रहे थे, रथ सबसे पीछे चल रहे थे, हाथियोंका समूह बीचमें जा रहा था और प्यादे सभी जगह चल रहे थे ।।२।। हाथी, घोड़े, रथ, प्यादे इस प्रकार चार तरहकी भरतकी सेना देव और विद्याधरोंकी सेनाके साथ साथ चल रही थी। इस प्रकार वह सेना अपने छह अंगोंके द्वारा चारों ओर विस्तार पा रही थी ॥३॥ उस चलती हुई सेना के क्षोभसे समुद्र भी क्षुब्ध हो उठा था--लहराने लगा था और ऐसा जान पड़ता था मानो 'सबको महापुरुषोंका अनुकरण करना चाहिये' यही बात सेवक लोगोंको सुना रहा हो ॥४॥ सेनाके द्वारा जबर्दस्ती आक्रमण किये हए राजा लोग नम हो गये थे, नदियोंमें कीचड़ रह गया था और बड़े बड़े पहाड़-समान जमीनके सदश-हो गये थे ।।५।। जिनका उपभोग अत्यन्त मनोरम है, जो सतोष उत्पन्न करनेवाली हैं, और जो उपभोगक्री इच्छा करनेवाले मनुष्योंके द्वारा चाहने योग्य हैं ऐसी इस चक्रवर्तीकी समस्त सिद्धियां इसके बड़े भारी उद्योगोंके साथ ही साथ फल जाती थी अर्थात सिद्ध हो जाती थीं -॥६॥ जिन्हें कोई भेद नहीं सकता है, जिनका संगठन अत्यन्त मजबूत है और जो शत्रुओंके क्षयका कारण है ऐसी भरतकी शक्ति तथा सेना दोनों ही शत्रु राजाओंपर अपना प्रभाव डाल रहे थे ॥७॥ भरतके योद्धा उनके बाणोंके समान थे, क्योंकि जिस प्रकार योद्धा फल अर्थात् इच्छानुसार लाभसे युक्त किये जाते थे उसी प्रकार बाण भी फल अर्थात लोहेकी नोकसे यक्त किये जाते थे, जिस प्रकार योद्धा तीक्ष्ण अर्थात् तेजस्वी थे उसी प्रकार बाण भी तीक्ष्ण अर्थात् १ रूपयाद्रिनाथनतमौलिविराजिरत्नसन्दोहनिर्गलितदीप्तिमयाअघ्रिपद्मम् । देवं नमामि सततं जगदेकनाथं भक्त्या प्रणष्टदुरितं जगदेकनाथम् । 'त' पुस्तकेऽधिकोऽयं श्लोकः । २ अपरदिगवधिम् । ३ अभ्युदयवान् । ४ नैऋत्यदिग्भागम् । ५ पश्चात् । ६ अगच्छत् । ७ सदेवं ल०। ८ प्रकाशते स्म । ६ भटानाम् । १० बलात्कारेण । ११ निजिताः । १२ प्रणता इव आचरन्ति स्म । १३ महीभुजः वृक्षा वा । १४ कर्दमा इवाचरिताः । १५ सिद्धिपक्षे रागसहिताः। फलपक्षे रससहिताः। 'गुणे रागे द्रवे रसः' इत्यमरः । १६ कृतसुखाः । १७ भोक्तुमिच्छभिः । आश्रितजनैरित्यर्थः । १८ उत्साहैः । १६ फलानीवाचरन्ति स्म। २० कार्यसिद्धयः । २१ दृढसम्बन्धाः । २२ -क्षय-ल०। २३ प्रभु. मंत्रोत्साहरूपाः । २४ तीरिफलेन अभीष्टफलेन च। २५ पत्रसहिताः सहायाश्च । २६ बाणः । ११ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨ महापुराणम् दूरमुत्सारिताः सैन्यैः परित्यक्तपरिच्छदाः । विपक्षाः सत्यमेवास्य विपक्षत्वमुपाययुः ॥६॥ आक्रान्त भूभृतो नित्यं भुञ्जानाः फलसम्पदम् । कुपतित्वं ययुश्चित्रं कोपेऽप्यस्य विरोधिनः ॥ १०॥ सन्धिविग्रहचिन्तास्य' पदविद्यास्व'भूत् परम् । धूतया तव्यपक्षस्य क्वं सन्धानं क्व विग्रहः ॥११॥ इत्यजेतव्यपक्षोऽपि यदयं दिग्जयोद्यतः । तन्नूनं 'भुक्तिमात्मीयां तद्व्याजेन परीयिवान् ॥१२॥ कान्ताः सैनिकैरस्य विभोः पारेऽर्णव ११ भुवः । पूगद्रुमकृतच्छाया नालिकेरवनंस्तताः ॥ १३ ॥ निपपेर नालिकेराणां तरुणानां स्रुतो रसः । सरस्तीरतरुच्छाया विश्रान्तैरस्य सैनिकैः ॥ १४ ॥ पैने थे, जिस प्रकार योद्धा सपक्ष अर्थात् सहायकों से सहित थे उसी प्रकार बाण भी सपक्ष अर्थात् पंखों से सहित थे, और जिस प्रकार योद्धा दूर तक गमन करनेवाले थे उसी प्रकार बाण भी दुर तक गमन करनेवाले थे, इस प्रकार वे दोनों साथ साथ ही विजयके अंग हो रहे थे ||८|| भरत के विपक्ष ( विरुद्धः पक्षो येषां ते विपक्षाः ) अर्थात् शत्रुओंको उनकी सेनाने दूर भगा दिया था और उनके छत्र चमर आदि सब सामग्री भी छीन ली थी इसलिये वे सचमुच ही विपक्षपनेको ( विगतः पक्षो येषां ते विपक्षास्तेषां भावस्तत्त्वम् ) प्राप्त हो गये थे अर्थात् सहायरहित हो गये थे || ९ || यह एक आश्चर्यकी बात थी कि भरतके विरोधी राजा सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर तथा उनके क्रोधित होनेपर भी अनेक प्रकारको फल-संपदाओंका उपभोग करते हुए कुपतित्व अर्थात् पृथिवीके स्वामीपनेको प्राप्त हो रहे थे । भावार्थ - इस श्लोक में श्लेषमूलक विरोधाभास अलंकार है इसलिये पहले तो विरोध मालूम होता है वादमें उसका परिहार हो जाता है | श्लोकका जो अर्थ ऊपर लिखा गया है उससे विरोध स्पष्ट ही झलक रहा है। क्योंकि भरतके क्रोधित होनेपर और उनकी सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर कोई भी शत्रु सुखी नहीं रह सकता था परन्तु नीचे लिखे अनुसार अर्थ बदल देनेसे उस विरोधका परिहार हो जाता है-भरत के विरोधी राज लोग, उनके कुपित होने तथा सेनाके द्वारा आक्रमण किये जानेपर अपनी राजधानी छोड़कर जंगलों में भाग जाते थे, वहाँ फल खाकर ही अपना निर्वाह करते थे और इस प्रकार कु-पतित्व अर्थात् कुत्सित राजवृत्ति ( दरिद्रता ) को प्राप्त हो रहे थे ।।१०।। उस भरतको सन्धि (स्वर अथवा व्यंजनोंको मिलाना) और विग्रह (व्युत्पत्ति ) की चिन्ता केवल व्याकरण शास्त्रमें ही हुई थी अन्य शत्रुओंके विषयमें नहीं हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि जिसने समस्त शत्रुओंको नष्ट कर दिया है उसे कहां सन्धि ( अपना पक्ष निर्बल होनेपर बलवान् शत्रुके साथ मेल करना) करनी पड़ती है ? और कहां विग्रह (युद्ध) करना पड़ता है ? अर्थात् कहीं नहीं ||११|| इस प्रकार भरतके यद्यपि जीतने योग्य कोई शत्रु नहीं था तथापि वे जो दिग्विजय करनेके लिये उद्यत हुए थे सो केवल दिग्विजयके छलसे अपने उपभोग करने योग्य क्षेत्र में चक्कर लगा आये थे- घूम आये थे || १२ || महाराज भरतके सैनिकोंने, जहां सुपारीके वृक्षोंके द्वारा छाया की गई है और जो नारियलके वनोंसे व्याप्त हो रही है ऐसे समुद्र के किनारेकी भूमि पर आक्रमण किया था ||१३|| सरोवरोंके किनारे के वृक्षोंकी छायामें विश्राम करनेवाले भरतके सैनिकोंने नारियलके तरुण अर्थात् बड़े बड़े वृक्षों फलसम्पदम्, १ सहायपुरुषरहितत्वम् । २ आक्रान्ता भूभृतो ल० । भूभृतः राजानः पर्वताश्च । ३ अभीष्टवनस्पतिफलसम्पदं च । ४ भूपतित्वं कुत्सितपतित्वं च । ५ संधानयुद्धचिन्ता च । ६ शब्दशास्त्रेषु । ७ निरस्तत्रुपक्षस्य | पालनक्षेत्रम् । ६ दिग्विजयछद्मना । १० प्रदक्षिणीकृतवान् । ११ समुद्रतीरम् । 'पारे मध्येऽन्यः षष्ठ्या' । १२ पानं क्रियते स्म । १३ निसृतः । ご Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व स्फुरत्परुषसम्पातपवनाधूननोत्थितः । तालीवनेषु' तत्सैन्यः शुश्रव मर्मर ध्वनिः ॥१५॥ समं ताम्बुलवल्लीभिः अपश्यत् क्रमुकान् विभुः । एककार्यत्वमस्माकमितीव' मिलितान्मिथः ॥१६॥ न पस्ताम्बुलवल्लीनाम् उपघ्नान् क्रमुकद्रुमान् । निध्यायन वेष्टि"तांस्ताभिः 'मुमुदे दम्पतीयितान् ॥१७॥ स्वाध्यायमिव कुर्वाणान् बनेष्वविरतस्वनान् । बीन्मनीनिव सोऽपश्यद् यत्रास्त मितवासिनः ॥१८॥ पनसानि म दून्यन्तः कण्टकीनि बहिस्त्वचि । सुरसान्यमतानीव जनाः 'प्रादन् यथेप्सितम् ॥१६॥ नालिकेररसः पानं पनसान्यशनं परम् । मरीचान्य पदंशश्च बन्या० वृत्तिरहो सुखम् ॥२०॥ सरसानि मरीचानि किमप्यास्वाद्य विष्किरान् । रुवतः१ प्रभुरद्राक्षी गलवश्रुविलोचनान् ॥२१॥ विदश्य मञ्जरीस्तीक्ष्णा मरीचानां सशङकितम् । शिरो विधुन्वतोऽपश्यत् प्रभुस्तरुणमर्कटान् ॥२२॥ वनस्पतीन् फलानमान् वीक्ष्य लोकोपकारिणः । जाताः कल्पद्रुमास्तित्वे निरारकास्तदा जनाः ॥२३॥ लतायुवतिसंसक्ताः प्रसवाढया वनद्रुमाः । करदा' इव तस्यासन प्रीणयन्तः फलैर्जनान् ॥२४॥ नालिकेरासवैमत्ताः किञ्चिदा"णितेक्षणाः । यशोऽस्य जगुरामन्द्रकुहर सिंहलाडागनाः ॥२५॥ से निकला हुआ रस खूब पिया था ॥१४॥ वहां भरतकी सेनाके लोगोंने ताड़ वृक्षोंके वनों में वायुके हिलनेसे उठी हुई बहुत कठोर सूखे पत्तोंकी मर्मर-ध्वनि सुनी थी ॥१५॥ वहां सम्राट भरतने हम लोगोंका एक ही समान कार्य होगा यही समझकर जो पानकी बेलोंके साथ साथ परस्परमें मिल रहे थे ऐसे सुपारीके वृक्ष देखे ॥१६॥ जो पानोंकी लताओंके आश्रय थे तथा जो उनके साथ लिपटकर स्त्री-पुरुषके समान जान पड़ते थे ऐसे सुपारीके वृक्षोंको बड़े गौरके साथ देखकर महाराज भरत बहुत ही प्रसन्न हुए थे ॥१७।। उन वनोंमें सूर्यास्तके समय निवास करनेवाले जो पक्षी निरन्तर शब्द कर रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो सर्यास्तके समय निवास करने वाले तथा स्वाध्याय करते हुए मुनि ही हों उन्हें भरतने देखा था ॥१८॥ जो भीतर कोमल हैं तथा बाहरी त्वचापर कांटोंसे युक्त हैं ऐसे अमृतके समान मीठे कटहलके फल सेनाके लोगोंने अपने इच्छानसार खाये थे ।।१९।। वहां पीनेके लिये नारियलका रस, खानेके लिये कटहलके फल और व्यंजनके लिये मिरचे मिलती थीं, इस प्रकार सैनिकों के लिये वनमें होने वाली भोजनकी व्यवस्था भी सुखकर मालूम होती थी ॥२०॥ जो सरस अर्थात् गीली भिरचे खाकर कुछ कुछ शब्द कर रहे हैं और जिनकी आंखोंसे आंसू गिर रहे हैं ऐसे पक्षियोंको भी भरतने देखा था ॥२१॥ जो तरुण वानर बहुत तेज भिरचोंके गुच्छोंको निःशंक रूपसे खाकर बादमें चरपरी लगनेसे शिर हिला रहे थे उन्हें भी महाराजने देखा ॥२२॥ उस समय वहां फलोंसे झुके हुए तथा लोगोंका उपकार करनेवाले वृक्षोंको देखकर लोग कल्पवक्षोंके अस्तित्वमें शंकारहित हो गये थे ॥२३॥ जो लतारूप स्त्रियोंसे लिपटे हुए हैं और अनेक फलोंसे युक्त हैं ऐसे वनके वृक्ष अपने फलोंसे सेनाके लोगोंको संतुष्ट करते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानो भरतके लिये कर ही दे रहे हों ॥२४॥ जो नारियलकी मदिरा पीकर उन्मत्त हो रही हैं और इसीलिये जिनके नेत्र कुछ कुछ घूम रहे हैं ऐसी सिंहल द्वीपकी स्त्रियां वहां गद्गद १ तालवनेषु । २ शुष्कपर्णध्वनिः । 'अथ मर्मरः, स्वनिते वस्त्रपर्णानाम्' इत्यभिधानात् । ३ पर्णक्रमुकमेलनादेककार्यत्वमिति । ४ आश्रयभूतान । 'स्यादुपघ्नान्तिकाश्रये' इत्यमरः । ५ विध्याय वे-ल० । ६ -स्वनम् ल०। ७ विहगान । ८ यत्र रविरस्तं गतस्तत्र वासिनः । ६ भक्षयन्ति स्म । भक्षितवन्तः इत्यर्थः । १० बनवासः । ११ रवं (रत्नं) कुर्वतः । १२ भक्षयित्वा । १३ निस्सन्देहाः । १४ कर सिद्धायं ददतीति करदाः, कुटुम्बिजना इवेत्यर्थः। 'आलस्योपहतः पादः पादः पाषण्डमाश्रितः । राजानं सेवते पादः पादः कृषिमुपागतः ॥' १५ प्रचलायित । १६ गम्भीरगहरं यथा भवति यथा । गद्गदसहितकम्पनं कुहरशब्देनोच्यते । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ महापुराणम् (त्रिकूट'मलयोत्सङगे गिरौ पाण्डयकवाटके । जगरस्य यशो मन्द्रमर्छनाः किन्नराडगनाः ॥२६॥ र मलयोपान्तकान्तारे सह्याचलवनेषु च । यशो वने चरस्त्रीभिः उज्जगेऽस्य जयाजितम् ॥२७॥ चन्दनोद्यानमाधुय मन्दं गन्धवहो ववौ । मलयाचलकुञ्जभ्यो हरनिर्भरशीकरान् ॥२८॥) विष्वग्विसारी दाक्षिण्यं समुज्झन्नपि सोऽनिलः । सम्भावयन्निवातिथ्यः विभोः श्रममपाहरत् ॥२६॥ एलालवङगसंवाससुरभिश्वसितैर्मुखैः। स्तनैरापाण्डुभिः सान्द्रचन्दनद्रवचितैः ॥३०॥ सलीलमदुभिर्या ते नितम्बभरमन्थरैः । स्मितैरनङगपुष्पास्त्रस्तबकोभेदविभमैः ॥३१॥ कोकिलालापमधुरैः ज्वलित (जल्पित) रनतिस्फुटः । मदुबाहुलतान्दोलसुभगश्च विचेष्टितः ॥३२॥ लास्यैः स्खलत्पदन्यासः मुक्ताप्रायविभूषणः । मदमञ्जुभिरुद्गीतैः जितालिकुलशिञ्जितः ॥३३॥ ( तमालवनवीथीष सञ्चरन्त्यो यदृच्छया। मनोऽस्य जहरारूढयौवनाः केरल स्त्रियः ॥३४॥ प्रसाध्य दक्षिणामाशां विभुस्त्रैराज्यपालकान् । समं प्रणमयामास विजित्य जयसाधनैः ॥३॥ कण्ठसे महाराज भरतका यश गा रही थीं ॥२५॥ त्रिकट पर्वतपर, मलय गिरिके मध्यभाग पर और पाण्डयकवाटक नामके पर्वतपर किन्नर जातिकी देवियाँ गंभीर स्वरसे चक्रवर्ती का यश गा रही थीं ॥२६।। इसी प्रकार मलय गिरिके समीपवर्ती वनमें और सह्य पर्वतके वनोंमें भीलोंकी स्त्रियां विजयसे उत्पन्न हुआ महाराजका यश जोर जोरसे गा रहीं थीं ॥२७॥ उस समय मलय गिरिके लतागृहोंसे झरनोंके जलके छोटे छोटे कण हरण करता हुआ तथा चन्दनके बगीचेको हिलाता हुआ वायु धीरे धीरे वह रहा था ।।२८। वह वायु दक्षिण दिशा को छोड़कर चारों ओर बह रहा था और ऐसा जान पड़ता था मानो अतिथि-सत्कारके द्वारा भरतका सन्मान करता हुआ ही उनका परिश्रम दूर कर रहा था। भावार्थ---इस श्लोकमें दाक्षिण्य शब्दके श्लेष तथा अपि शब्दके सन्निधानसे नीचे लिखा हुआ विरोध प्रकट होता है'वह वायु यद्यपि दाक्षिण्य (स्वामीके इच्छानुसार प्रवृत्ति करना) भावको छोड़कर स्वच्छन्दता पूर्वक चारों ओर घूम रहा था तथापि उसने एक आज्ञाकारी सेवककी तरह भरतका अतिथिसत्कार कर उनका सव परिश्रम दूर कर दिया था, जो स्वामीके विरुद्ध आचरण करता है वह उसकी सेवा क्यों करेगा? यह विरोध है परन्तु दाक्षिण्य शब्दका दक्षिण दिशा अर्थ लेनेसे वह विरोध दूर हो जाता है ('दक्षिणो दक्षिणोद्भूतसरलच्छन्दवतिषु' इति मेदिनी दक्षिणस्य भावो दाक्षिण्यम्, पक्षे दक्षिणैव दाक्षिण्यम् ) ।।२९।। तमाल वृक्षोंके वनकी गलियोंमें इच्छानुसार इधर-उधर घूमती हुई केरल देशकी तरुण स्त्रियाँ इलायची, लौंग आदि सुगन्धित वस्तुओंके सम्बन्धसे जिनके निःश्वास सुगन्धित हो रहे हैं ऐसे मुखोंसे, जो घिसे हुए चन्दनके गाढ़ लेपसे सुशोभित हो रहें हैं ऐसे स्तनोंसे, नितम्बोंके भारके साथ ईर्ष्या करनेवाले लीलासहित सुकोमल गमनसे, जो कामदेवके पुष्परूपी शस्त्रोंके गुच्छोंके खिलनेके समान सुशोभित हो रहे हैं ऐसे मन्द हास्यसे, कोयलकी कूकके समान मनोहर तथा अव्यक्त वाणीसे, सुकोमल बाहुरूपी लताओंके इधर उधर फिरानेसे सुन्दर चेष्टाओंसे, जिसमें स्खलित होते हुए पैर पड़ रहे हैं ऐसे नृत्योंसे, अधिकतर मोतियोंके बने हुए आभूषणोंसे, भूमरसमूहकी गुंजारको जीतनेवाले मदसे मनोहर उत्कृष्ट गीतोंसे चक्रवर्ती भरतका मन हरण कर रही थीं ॥३०-३४।। इस प्रकार महाराज भरतने अपनी विजयी सेनाके द्वारा दक्षिण दिशाको वश कर चोल, केरल और पाण्डच १ त्रिकुटे म०, द०, ल., अ०, प०, स० । त्रिकूटगिरिमलयाचलसानौ। २ वनचर-ल । ३ विसरणशीलः । ४ दक्षिणदिग्भागः । आनुकूल्येन च। ५ अतिथी साधुभिः उपचारैरित्यर्थः । ६ उच्छ्वासैः । ७ गमनैः। ८ मन्दैः । जल्पितः वचनैः । १० सिजनै: अ०, ५०, ब०, स० । ११ विराज्येषु जातान् । चोरकेरलपाण्डयान् । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व ८५ कालिङ्ग केगंजरस्य मलयोपान्त भूधराः । तुलयद्भिरिवोन्मानम् श्राक्रान्ताः स्वेन वर्ष्मणा ॥ ३६ ॥ दिशां प्रान्तेषु विश्रान्तैदिग्जयेऽस्य चमूगजैः । दिग्गजत्वं स्वसाच्चक्रे शोभायं तत्कथान्तरम् ॥३७॥ ततोऽपरान्तमारुह्यं सह्याचलतटोपगः । पश्चिमार्णववेद्यान्त पालकानजयद् विभुः ॥ ३८ ॥ जयसाधनमस्यान्धेः आरातीरे व्यजृम्भत । महासाधनमप्युच्चैः परं पारमवाष्टभत् ॥३१॥ उपसिन्धु रिति व्यक्तम् उभयोस्तीरयोर्बलम् । दृष्ट्वास्य साध्वसात्क्षुभ्यन्निवाभूदाकुलाकुलः ॥४०॥ ततः स्म बलसङ्क्षोभाद् इतो वाधिः प्रसर्पति । इतः स्म बलसङ्क्षोभात् ततोऽब्धिः प्रतिसर्पति ॥४१॥ हरिन्मणिप्रभोत्सर्वैः ततमब्धेर्बभौ जलम् । चिराद् विवृत्तमस्यैव" सशैवलमधस्तलम् ॥४२॥ पद्मरागांशुभिभिन्नं क्वचनान्धेर्व्यभाज्जलम् । क्षोभादिवास्य हृच्छोर्णम् " उच्चल " च्छोणितच्छटम् ॥४३॥ सह्येोत्सङ्गे" लुठन्नब्धिः नूनं दुःखं न्यवेदयत् । सोऽपि सन्धारयन्नेनं बन्धुकृत्यमिवातनोत् ॥४४॥ सहयैर्बल सङ्घट्टः सहयः “ सह्यतिपीड़ितः । शाखोद्धारमिव व्यक्तम् श्रकरोद् रुग्णपादपैः ॥४५॥ इन तीन राजाओंको एक साथ जीता और एक ही साथ उनसे प्रणाम कराया ||३५|| जो अपने शरीरसे मानो मलय पर्वतकी ऊँचाईकी ही तुलना कर रहे हैं ऐसे कलिंग देशके हाथियोंने मलय पर्वतके समीपवर्ती अन्य समस्त छोटे छोटे पर्वतोंको व्याप्त कर लिया था ||३६|| दिग्विजयके समय दिशाओं के अन्त भाग में विश्राम करनेवाले भरतके हाथियोंने दिग्गजपना अपने आधीन कर लिया था अर्थात् स्वयं दिग्गज बन गये थे इसलिये अन्य आठ दिग्गजोंकी कथा केवल शोभा के लिये ही रह गई थी ||३७|| तदनन्तर पश्चिमी भागपर आरूढ़ होकर सह्य पर्वतके किनारे के समीप होकर जाते हुए भरतने पश्चिम समुद्र के किनारेके राजाओं को जीता ||३८|| भरत की वह विजयी सेना समुद्र के समीप किनारे किनारे सब जगह फैल गई थी और वह इतनी बड़ी थी कि उसने समुद्रका दूसरा किनारा भी व्याप्त कर लिया था ।। ३९ ।। उस समय हवासे लहराता हुआ उपसमुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो दोनों किनारेपर भरतकी सेना देखकर भयसे ही अत्यन्त आकुल हो रहा हो ||४०|| उस किनारेका उपसमुद्र सेनाके क्षोभसे इस किनारे की ओर आता था और इस किनारेका उपसमुद्र सेनाके क्षोभसे उस किनारेकी ओर जाता था ।।४१।। ऊपर फैली हुई हरे मणियोंकी कान्तिसे व्याप्त हुआ वह समुद्रका जल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इस समुद्रका शेवाल सहित नीचेका भाग ही बहुत समय बाद उलटकर ऊपर आ गया हो ||४२ || कहीं कहीं पर पद्मराग मणियोंकी किरणोंसे व्याप्त हुआ समुद्रका जाल ऐसा जान पड़ता था मानों सेनाके क्षोभसे समुद्रका हृदय ही फट गया हो और उसीसे खूनकी छटाएँ निकल रही हों ||४३|| सह्य पर्वतकी गोदमें लोटता हुआ ( लहराता हुआ ) वह समुद्र ऐसा जान पड़ता था मानो उससे अपना दुःख ही कह रहा हो और सहय पर्वत भी उसे धारण करता हुआ ऐसा मालूम होता था मानो उसके साथ अपना बन्धुभाव ( भाईचारा ) ही बढ़ा रहा हो ||४४|| सेनाके असह्य संघटनोंसे अत्यन्त पीड़ित हुआ वह सह्य पर्वत अपने टूटे हुए वृक्षोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो अपने मस्तकपर लकड़ियों का गट्ठा रख१ कलिङगवने जातैः । कलिङगवनजाता उन्नतकायाश्च । उक्तञ्च दण्डिना देशविरोधप्रतिपादनकाले 'कलिङगवनसम्भूता मृगप्राया मतङ्गजाः ' इति । २ मलयदेशसमीपस्थपर्वताः । ३ गुणयद्भिः - अ०, इ०, स० । ४ दिग्गजाः सन्तीति कथाभेदः । ५ अपरदिग्भागम् । ६ व्याप्य । ७ वेलान्त - इत्यपि क्वचित् । ८ प्रभुः ल० । विजृम्भितम् ल० । १० - मत्युच्चैः द०, ल०, अ०, प०, स० । ११ अपरतीरम् । १२ अशिश्रियत् । १३ उपसमुद्रः । १४ परिणतम् । चिरकालप्रवर्तितम् । १५ हृत् हृदयम् शीर्णं विदीर्णं सत् । १६ - मुच्छ्वल- ल०, द० 1 १७ सह्यगिरिसानौ । १८ पश्चिमार्णवपर्वतः । १६ पल्लवं गृहीत्वा आक्रोशम् । २० भुग्न । 'रुग्णं भुग्ने' इत्यमरः । भुग्न -ल० । भग्न-द० । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ महापुराणम् चलत्सत्त्वो गुहारन्ध: विमुञ्चन्नाकुलं स्वनम् । महाप्राणोऽद्रिरुत्क्रान्तिम् इयायेव बलक्षतः ॥४६॥ चलच्छाखी चलत्सत्त्वः चलच्छिथिलमेखलः । नाम्नवाचलतां भेजे सोऽद्विरेवं चलाचलः ॥४७॥ गजतावन सम्भोगैः तुरङगखुरघटनैः । सहोत्सङगभुवः क्षुण्णाः स्थलीभावं क्षणाद् ययुः ॥४८॥ आपश्चिमार्णवतटाद् प्रा च मध्यमपर्वतात् । पातुङगवरकादद्रेः तुङगगण्डोपलाडाकितात् ॥४६॥ तं कृष्णगिरिमुल्लङघच तं च शैलं समन्दरम् । मुकुन्दं चाद्रिमुदप्ता जयभास्तस्य बभमः ॥५०॥ तत्रा परान्तकान् नागान् ह्रस्वग्रीवान् परान् रदैः। युक्तान् पीनायतस्निग्धैः श्यामान् स्वक्षा न मदुत्वचः ५१ 'महोत्सङगानु दग्राडागान् रक्तजिह्मोष्ठतालुकान् । मानिनो दीर्घवालोष्ठान् पद्मगन्धमदच्युतः ॥५२॥ सन्तुष्टान् स्वे वने शूरान् दृढपादान् सुवर्षणः । स भेजे तद्वनाधीशः ससम्भममुपाहृतान्० ॥५३॥ बनरोमावलीस्तुङगतटारोहार बहूनदीः । पूर्वापराब्धिगाः सोऽत्यत् सह्याद्रेर्दहितृरिव ॥५४॥ सञ्चरभीषणग्राहैः भीमां भैमरथी नदीम् । नचक्रकृतावतरवेणां च दारुणाम् ॥५५॥ कर भरतके प्रति अपनी पराजय ही स्वीकृत कर रहा हो (पूर्व कालमें यह एक पद्धति थी कि पराजित राजा शिरपर लकड़ियोंका गट्ठा रखकर गले में कुल्हाड़ी लटकाकर अथवा मुखमें तण दबाकर विजयी राजाके सामने जाते थे और उससे क्षमा मांगते थे।) ॥४५॥ वह पर्वतरूपी बड़ा भारी प्राणी सेनाके द्वारा घायल हो गया था, उसके शिखर टूट-फूट गये थे, उसका सत्त्व अर्थात् धैर्य विचलित हो गया था-उसके सब सत्त्व अर्थात् प्राणी इधर-उधर भाग रहे थे, वह गुफाओंके छिद्रोंसे व्याकुल शब्द कर रहा था और इन सब लक्षणोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत शीघू मरना ही चाहता हो ।।४६।। उस पर्वतके सब वृक्ष हिलने लगे थे, सब प्राणी इधर-उधर चंचल हो रहे थे--भाग रहे थे और उसके चारों ओरका मध्यभाग भी शिथिल होकर हिलने लगा था इस प्रकार वह पर्वत नाममात्रसे ही अचल रह गया था, वास्तवमें चल हो गया था ॥४७॥ लोगोंकी बनक्रीड़ाओंसे तथा घोड़ोंके खुरोंके संघटनसे उस सह्य पर्वतके ऊपरकी भूमि चूर चूर होकर क्षण भरमें स्थलपनेको प्राप्त हो गई थी अर्थात् जमीनके समान सपाट हो गई थी ॥४८॥ चक्रवर्ती भरतके मदोन्मत्त विजयी हाथी, पश्चिम समुद्रके किनारे से लेकर मध्यम पर्वत तक और मध्यम पर्वतसे लेकर ऊंची ऊंची चट्टानोंसे चिह्नित तुंगवरक पर्वत तक, कृष्ण गिरि, सुमन्दर तथा मुकुन्द नामके पर्वतको उल्लंघन कर, चारों ओर घूम रहे थे ॥४९-५०।। जिनकी गर्दन कुछ छोटी है, जो देखने में उत्कृष्ट हैं, मोटे लम्बे और चिकने दाँतोंसे सहित हैं, काले हैं, जिनकी सब इन्द्रियाँ अच्छी है, चमड़ा कोमल है, पीठ चौड़ी है, शरीर ऊँचा है, जीभ, ओंठ और तालु लाल हैं, जो मानी हैं, जिनकी पूछ और ओंठ लम्बे हैं, जिनसे कमलके समान गंधवाला मद झर रहा है, जो अपने ही वनमें संतुष्ट है, शूरवीर है, जिनके पैर मजबूत हैं , शरीर अच्छा है और जिन्हें उन वनोंके स्वामी बड़े हर्ष या क्षोभके साथ भेंट देने के लिये लाये हैं ऐसे पश्चिम दिशामें उत्पन्न होनेवाले हाथी भी भरतने प्राप्त किये थे ॥५१-५३।। वन ही जिनकी रोमावली है और ऊंचे किनारे ही जिनके नितम्ब हैं ऐसी सह्य पर्वतकी पुत्रियोंके समान पूर्व तथा पश्चिम समुद्रकी ओर बहनेवाली अनेक नदियां महाराज भरतने उल्लंघन की थीं--पार की थीं ॥५४॥ चलते-फिरते हुए भयंकर मगरमच्छोंसे भयानक भीमरथी नदी, नाकुओंसे समहसे की हुई आवतॊसे भयंकर दारुवेणा नदी, किनारे १ गुह्मरन्ध्रेः ल० । २ सिंहादिसत्त्वरूपमहाप्राणः । 'प्राणो हृन्मारुते चोले काले जीवेऽनिले बले।' इत्यभिधानात् । ३ मरणावस्थाम् (मृतिम्) । ४ जनता ल०, द० । ५ पश्चिमदिवसमीपान् । ६ कुब्जस्कन्धोत्कृष्टान् । ७ पीनायित-ल० । ८ सुनेत्रान् । ६ बृहदुपरिभागान् । १० उपायनीकृतान् । ११ नितम्बाः । १२ अगात् । १३ पुत्रीरिव । १४ भीमरथीं ल० । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशतमं पर्व नीरा तीरस्थवानीर' शाखाग्र स्थगिताम्भसम् । मूलां कूलङकर्षरोधः उन्मूलिततटद्रुमाम् ॥ ५६ ॥ बाणामविरताबाणां केत म्बामम्बुसम्भृताम् । करीरित' तटोत्गां करीरों सरिदुत्तमाम् ॥५७॥ प्रहरां " विषमग्राहैः दूषितामसतीमिव । मुररां कुररैः सेव्याम् अपपङका सतीमिव ॥ ५८ ॥ पारां पाजलं कूजत्क्रौञ्चकादम्ब सारसाम् । "दमनां समनिम्नेषु समानामस्खलद्गतिम् ॥५॥ मदश्रुतिमिवाबद्ध वेणिकां" सह्यदन्तिनः । गोदावरीमविच्छिन्नप्रवाहामतिविस्तृताम् ॥ ६०॥ करीरवण संरुद्धतटपर्यन्त भूतलाम् । तापीमातपसन्तापात् कवोष्णा बिभूतीमपः ॥ ६१॥ रम्यां तीरतरुच्छायासं सप्तमृगशावकाम् । खातामिवापरान्तस्य " नदीं लाङ्गलखातिकाम् ॥ ६२ ॥ सरितोऽम् समं सैन्यैः उसतार चमूपतिः । तत्र तत्र "समाकर्षन्मदिनो वनसामजान् ॥ ६३॥ प्रसारित सरिज्जिह्मो योऽब्धिं पातुभिबोद्यतः । सह्याचलं तमुल्लङ्घय विन्ध्याद्रि प्राप तद्द्बलम् ॥६४॥ भूभृतां पतिमुत्तुङ्गं पृथुवंशं धृतायति । परैरलङचमद्राक्षीद् विन्ध्याद्रि स्वमिव प्रभुः ॥ ६५ ॥ पर स्थित बेतोंकी शाखाओंके अग्रभागसे जिसका जल ढका हुआ है ऐसी नीरा नदी किनारे को तोड़नेवाले अपने प्रवाहसे जिसने किनारेके वृक्ष उखाड़ दिये हैं ऐसी मूला नदी, जिसमें निरन्तर शब्द होता रहता है ऐसी बाणा नदी, जलसे भरी हुई केतवा नदी, जिसके किनारे के प्रदेश हाथियोंने तोड़ दिये हैं अथवा जिसके किनारे के प्रदेश करीर वृक्षोंसे व्याप्त हैं ऐसी करीरी नामकी उत्तम नदी, विषमग्राह अर्थात् नीच मनुष्योंसे दूषित व्यभिचारिणी स्त्रीके समान विषम ग्राह अर्थात् बड़े बड़े मगरमच्छों से दूषित प्रहरा नदी, सती स्त्रीके समान अपंका अर्थात् कीचड़रहित, ( पक्ष में-कलंकरहित ) तथा कुरर पक्षियोंके द्वारा सेवा करने योग्य मुररा नदी, जिसके जलके किनारे पर क्रौञ्च, कलहंस ( बदक) और सारस पक्षी शब्द कर रहे हैं ऐसी पारा नदी, जो समान तथा नीची भूमिपर एक समान जलसे भरी रहती है तथा जिसकी गति कहीं भी स्खलित नहीं होती है ऐसी मदना नदी, जो सह्य पर्वतरूपी हाथी के बहते हुए मदके समान जान पड़ती है, जो अनेक धाराएं बांधकर बहती है, जिसका प्रवाह बीचमें कहीं नहीं टूटता, और जो अत्यन्त चौड़ी है ऐसी गोदावरी नदी, जिसके किनारे के समीपकी भूमि करीर वृक्षोंके वनों से भरी हुई है और जो धूपकी गरमी से कुछ कुछ गरम जलको धारण करती है ऐसी तापी नदी, तथा जिसके किनारे के वृक्षोंकी छायामें हरिणों के बच्चे सो रहे हैं और जो पश्चिम देशकी परिखाके समान जान पड़ती है ऐसी मनोहर लांगलखातिका नदी, इत्यादि अनेक नदियों को सेनापतिने अपनी सेनाके साथ साथ पार किया था । उस समय वह सेनापति मदोन्मत्त जंगली हाथियों को भी पकड़वाता जाता था ।। ५५-६३ || जो अपनी नदियाँरूपी जीभोंको फैलाकर मानो समुद्रको पीने के लिये ही उद्यत हुआ है ऐसे उस सहय पर्वतको उल्लंघन कर भरतकी सेना विन्ध्याचलपर पहुँची || ६४ ॥ चक्रवर्ती भरतने उस विन्ध्याचलको अपने समान ही देखा था क्योंकि जिस प्रकार आप भूभृत् अर्थात् राजाओं के पति थे उसी प्रकार विन्ध्याचल भी भूभृत् अर्थात् पर्वतोंका पति था, जिस प्रकार आप उत्तुंग अर्थात् अत्यन्त उदार हृदय थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी उत्तुंग अर्थात् अत्यन्त ऊँचा ८७ १ वेतस । २ प्रवाहैः । ३ अविच्छिन्नविश्वग्वाणाम् । अविरतः आबाणो यस्यां सा । ४ केतवा -ल० । ५ गजप्रेरित | ६ विषमकर:, पक्ष नीचग्रहणैः । ७ पक्षिविशेषैः । ८ अपगतकर्दमाम् । पक्षे अपगतदोषपङकाम् । ६ तीरजले । १० कलहंस | ११ मदनां ल०, द० । १२ समानप्रदेशेषु । निम्नदेशेषु च । १३ जलेन समानाम् । १४ मदस्रवणम् । १५ प्रवाहाम् । कुल्याम् वा । १६ वेणुवन । १७ खातिकाम् । १८ पश्चिमदेशस्य । १६ स्वीकुर्वन् । २० राज्ञां गिरीणां च । २१ महान्वयं महावेणु च । २२ धृतधनागमम् । घृतायामं च । 'आयतिर्दीर्घतायां स्यात् प्रभुतागामिकालयोः ।' Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् भाति यः शिखरस्तुङगैः दूरव्यायतनिर्भरैः । सपताकविमानौघः विश्रमायेव संश्रितः ॥६६॥ यः पूर्वापरकोटिभ्यां विगाह्याम्बुनिधि स्थितः । ननं दावत्रयात् सख्यम् अमुना प्रचिकीर्षति ॥६७ नयन्ति निर्शरा यस्य शश्वत्पुष्टि तटदुमान् । स्वपादाश्रयिणः पोष्याः प्रभुणेतीव शंसितुम् ॥६॥ तटस्थपुट पाषाणस्खलितोच्चलिताम्भसः। नदीवधूः कृतध्वानं निरहंसतीव यः ॥६६॥ वनाभोगमपर्यन्तं यस्य दग्धुमिवाक्षमः । भृगुपाताय' दावाग्निः शिखराण्यधिरोहति ॥७०॥ ज्वलद्दावपरीतानि यत्कूटानि वनेचरैः । चामीकरमयानीव लक्ष्यन्ते शचि सन्निधौ ॥७॥ समातङग' वनं यस्य सभुजङग परिग्रहम् । विजाति कण्टकाकीर्ण क्वचिद्धत्तेऽतिकष्टताम् ॥७२॥ क्षीब कुञ्जरयोगेऽपि क्वचिदक्षीबकुञ्जरम् । विपत्रमपि सत्पत्रपल्लवं भाति यद्वनम् ॥७३॥ था, जिस प्रकार आप पृथुवंश अर्थात् विस्तृत-उत्कृष्ट वंश (कूल) को धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी पृथवंश अर्थात् बड़े बड़े बाँसके वक्षोंको धारण करनेवाला था, जिस प्रकार आप धतायति अर्थात् उत्कृष्ट भविष्यको धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी धृतायति अर्थात् लम्बाईको धारण करनेवाला था, और जिस प्रकार आप दूसरोंके द्वारा अलंघ्य अर्थात अजय थे उसी प्रकार वह विन्ध्याचल भी दूसरोंके द्वारा अलंध्य अर्थात् उल्लंघन न करने योग्य था ॥६५॥ जिनसं बहुत दूरतक फलनवाल झरनं झर रह ह एस ऊच ऊचं शिखरा से वह पर्वत ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पताकाओंसहित अनेक विमानोंके समह ही विश्राम करने के लिये उसपर ठहरे हों ।।६६।। वह पर्वत अपने पूर्व और पश्चिम दिशाके दोनों कोणोंसे समुद्र में प्रवेश कर खड़ा हुआ था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो दावानलके डरसं समुद्रके साथ मित्रता ही करना चाहता हो ॥६७॥ उस विन्ध्याचलके झरने 'स्वामीको अपने चरणोंका आश्रय लेनेवाले पुरुषोंका अवश्य ही पालन करना चाहिये' मानो यह सूचित करने के लिये ही अपने किनारेके वृक्षोंका सदा पालन-पोषण करते रहते थे ।।६८। वह पर्वत शब्द करते हुए निर्भरनोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो अपने किनारेके ऊँचे नीचे पत्थरों से स्खलित होकर जिनका पानी ऊपरकी ओर उछल रहा है ऐसी नदीरूपी स्त्रियोंकी हँसी ही कर रहा हो ॥६९।। उस पर्वतकी शिखरोंपर लगा हुआ दावानल ऐसा जान पड़ता था मानो उसके सीमारहित बहुत बड़े वनप्रदेशको जलानेके लिये असमर्थ हो ऊपरसे गिरकर आत्म के लिये ही उसके शिखरोंपर चढ रहा हो ॥७०॥ आषाढ महीनेके समीप जलती हुई दावानलसे घिरे हुए उस पर्वतके शिखर वहांके भीलोंको सुवर्णसे बने हुएके समान दिखाई देते थे ॥७१॥ उस पर्वतका वन कहीं कहीं मातंग अर्थात् हाथियोंसे सहित था अथवा मातंग अर्थात् चांडालोसे सहित था, भुजंग अर्थात् साँके परिवारसे युक्त था अथवा भुजंग अर्थात् नीच (विटगुंडे) लोगोंके परिवारसे युक्त था और अनेक प्रकारके काँटोंसे भरा हुआ था अथवा अनेक प्रकारके उपद्रवी लोगोंसे भरा हुआ था इसलिये वह बहुत ही दुःखदायी अथवा शोचनीय अवस्थाको धारण कर रहा था ॥७२॥ उस पर्वतपरका वन क्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत्त हाथियोंसे युक्त होकर भी अक्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत्त हाथियोंसे रहित था, और विपत्र अर्थात् पत्तोंसे रहित होकर भी सत्पत्रपल्लव अर्थात् पत्तों तथा कोंपलोंसे सहित १ इव। २ मित्रत्वम् । ३ समुद्रेण । ४ कर्तमिच्छति । ५ तटनिम्नोन्नत । ६ प्रपातपतनाय । 'पपातस्त्वतटो भगु' इत्यभिधानात् । ७ ग्रीष्म । ८ सगजं पक्षे सचाण्डालम् । ६ ससर्प, पक्षे सविट् । १० पक्षिताति, पक्षे नीच जाति । ११ मत्तगज। १२ अक्षीवं समुद्रलवणम् 'सामुद्रं यत्त लवणमक्षीब वशिरञ्च तत्'। कुञ्जो गुल्मगुहान्ती रातीति ददातीति । १३ वीनां पत्राणि पक्षाणि यस्मिन् सन्तीति, अथवा विगताश्वम् । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व स्फुटद्वेणू दरोन्मुक्तः व्यस्तैर्मक्ताफलः क्वचित् । वनलक्ष्म्यो हसन्तीव स्फुटहन्तांशु' यद्वने ॥७४॥ गुहामुखस्फुरद्धीरनिर्झरप्रतिशब्दकः। गर्जतीव कृतस्पर्धी महिम्ना यः कुलाचलैः ॥७॥ स्फुटनिम्नोन्नतोद्देशः चित्रवर्णेश्च धातुभिः । मृगरूपैरतकर्यैश्च चित्राकारं बिति यः ॥७६॥ ज्वलन्त्यौषधयो यस्य वनान्तेष तमीमुखे । देवताभिरिवोत्क्षिप्ता' दीपिकास्तिमिरच्छिदः ॥७७॥ क्वचिन्मृगेन्द्रभिन्नभकुम्भों'च्चलितमौक्तिकः । यदुपान्तस्थलं धत्त प्रकीर्णकुसुमश्रियम् ॥७८॥ स तमालोकयन् दूरात् प्राससाद महागिरिम् । आह्वयन्तमिवासक्त मरुद्भुतैस्तद्रुमैः ॥७॥ स तद्वनगतान् दूराद् अपश्यन् घनकर्बुरान् । 'सयूथानुद्धनुर्व शान् किरातान् करिणोऽपि च ॥८॥ सरिद्वधूस्तदुत्सङगे० विवृत्तशफरीक्षणाः। तद्वल्लभा इवापश्यत् स्फुरद्विस्तमन्मनाः ॥१॥ था इस प्रकार विरोधरूप होकर भी सुशोभित हो रहा था। भावार्थ--इस श्लोकमें विरोधाभास अलंकार है, विरोध ऊपर दिखाया जा चुका है अब उसका परिहार देखिये--वहाँका वन क्षीबकुंजर अर्थात् मदोन्मत्त हाथियोंसे युक्त होनेपर भी अक्षीबकुंजर अर्थात् समुद्री नमक तथा हाथीदाँतोंको देनेवाला था अथवा सोहाजनाके लतामण्डपोंको प्रदान करनेवाला था और विपत्र अर्थात् पक्षियोंके पंखोंसे सहित होकर भी उत्तम पत्तों तथा नवीन कोंपलोंसे सहित था (अक्षीबं च कुञ्जश्चेत्यक्षीबकुञ्जौ, तौ राति ददातीत्यक्षीबकुञ्जरम् अथवा 'अक्षीबाणां शोभाञ्जनानां कुञ्ज लतागृहं राति ददाति', 'सामुद्रं यत्तु लवणमक्षीब वशिरं च तत्' 'कुञ्जो दन्तेऽपि न स्त्रियाम्' 'शोभाञ्जने शिग्रतीक्ष्णगन्धकाक्षीबमोचका इति सर्वत्रामरः) ॥७३॥ उस पर्वतके वनमें कहीं कहीं पर फटे हुए बांसोंके भीतरसे निकलकर चारों ओर फैले हुए मोतियोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो वनलक्ष्मि यां ही दाँतोंकी किरणें फैलाती हुई हँस रही हों ।।७४।। गुफाओंके द्वारोंसे निकलती हुई झरनोंकी गंभीर प्रतिध्वनियों से वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी महिमाके कारण कुलाचलोंके साथ स्पर्धा करता हुआ गरज ही रहा हो ॥७५॥ वह पर्वत ऊँचे नीचे प्रदेशोंसे, अनेक रंगकी धातुओंसे और हरिणोंके अचिन्तनीय वर्णोंसे प्रकट रूप ही एक विचित्र प्रकारका आकार धारण कर रहा था ॥७६।। उस पर्वतके वनोंमें रात्रि प्रारम्भ होनेके समय अनेक प्रकारकी औषधियाँ प्रकाशमान होने लगती थी जो कि ऐसी जान पडती थीं मानों देवताओंने अन्धकारको नष्ट करनेवाले दीपक ही जलाकर लटका दिये हों ॥७७॥ कहीं कहींपर उस पर्वतके समीपका प्रदेश, सिंहों के द्वारा फाड़े हुए हाथियोंके मस्तकोंसे उछलकर पड़े हुए मोतियोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो बिखरे हुए फूलोंकी शोभा ही धारण कर रहा हो ॥७८॥ जो वायुसे हिलते हुए किनारेके वृक्षों से बुलाता हुआ सा जान पड़ता था ऐसे अपने में आसक्त उस महापर्वतको दूरसे ही देखते हुए चक्रवर्ती भरत उसपर जा पहुंचे। ॥७९॥ वहां जाकर उन्होंने उस पर्वतके वनोंमें रहनेवाले झुण्डके झुण्ड भील और हाथी देखे वे भील मेघोंके समान काले थे और धनुषोंके बाँसोंको ऊँचा उठाकर कंधोंपर रक्खे हुए थे तथा हाथी भी मेघोंके समान काले थे और धनुषके समान ऊँची उठी हुई पीठकी हड्डीको धारण किये हुए थे ।।८०॥ उस पर्वतके किनारेपर उन्होंने चंचल मछलियां ही जिनके नेत्र हैं और बोलते हुए पक्षियोंके शब्द ही जिनके मनोहर शब्द हैं ऐसी उस विन्ध्याचलकी प्यारी स्त्रियोंके समान नदीरूपी स्त्रियोंको बड़ी ही उत्कण्ठाके साथ १ स्फुरद्दन्तांशु-ल० । २ व्यक्त। ३ गैरिकादिभिः । ४ उद्धृताः । ५ -च्छवलत-ल०, द० । ६ पुष्पोपहारशोभाम् । ७ अनवरतम् । ८ ससमूहान् । उद्गतधनुषो वेणून् । उद्गतधनुराकारपृष्ठस्थांश्च । १० पर्वतसानौ। ११ विहगध्वनिरेवाव्यक्तवाचो यासां ताः । -मुन्मनाः ल०, द० । १२ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् मध्यविन्ध्यमथैक्षिष्ट' नर्मदां सरिदुत्तमाम् । प्रततामिव तत्कोतिम् प्रासमुद्रमपारिकाम् ॥५२॥ तरङगितपयोवेगां भुवो वेणीमिवायताम् । पताकामिव विन्ध्याद्रेः शेषाद्रिजयशंसिनीम् ॥३॥ सा धुनी बलसंक्षोभात् उड्डीनविहगावलिः । विभोरुपागमे बद्धतोरणेव क्षणं व्यभात् ॥८४॥ नर्मदा सत्यमेवासीन्नर्मदा नृपयोषिताम् । 'यदुपोरूत्तरन्तीस्ताः शफरीभिरघट्टयत् ॥५॥ तामुत्तीर्य जनक्षोभाद् उत्पतत्पतगावलिम्" । बलं विध्योत्तरप्रस्थान प्राक्रामत् कुतुपास्थया ॥८६॥ तस्या “दक्षिणतोऽपश्यद् विन्ध्य मुत्तरतोऽप्यसौ । द्विधाकृतमिवात्मानम् अपर्यन्तं दिशोर्द्वयोः ॥८७॥ स्कन्धावारनिवेशोऽस्य नर्मदामभितोऽद्युतत् । प्रथिम्ना विन्ध्यमावेष्टय स्थितो विन्ध्य इवापरः ॥८८॥ गर्गण्डोपलैरश्वैः अश्ववक्त्रैश्च १३ विद्रुतैः । स्कन्धावारः स विन्ध्यश्च भिदा" नावापतुर्मिथः ॥८६ बलोपभुक्तनिःशेषफलपल्लवपादपः । अप्रसूनलतावीरुद्विन्ध्यो वन्ध्यस्तदाभवत् ॥६॥ वैणवैस्तण्डुलैर्मुक्ताफलमित्रैः कृतार्चनाः । अध्यूषुः१५ सैनिकाः स्वरं रम्या विन्ध्याचलस्थलीः१५ ॥१॥ देखा ॥८१।। तदनन्तर उन्होंने विन्ध्याचलके मध्य भागमें समुद्र तक फैली हुई और किसी से न रुकने वाली उसकी कीर्तिके समान नर्मदा नामकी उत्तम नदी देखी ॥८२।। जिसके जलका प्रवाह अनेक लहरोंसे भरा हुआ है ऐसी वह नर्मदा नदी पृथिवीरूपी स्त्रीकी लम्बी चोटीके समान जान पड़ती थी अथवा शेष सब पर्वतोंको जीत लेनेकी सूचना करनेवाली विन्ध्याचल की विजय-पताकाके समान मालम होती थी॥८३॥ सेनाके क्षोभसे जिसके ऊपर पक्षियोंकी पंक्तियां उड़ रही हैं ऐसी वह नदी क्षण भरके लिये ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने चक्रवर्ती के आनेपर तोरण ही बांधे हों ।।८४॥ चंकि वह नर्मदा नदी जलको पार करने वाली रानियों के लिये मछलियोंके द्वारा धक्का देती थी इसलिये वह सचमुच ही उन्हें नर्मदा अर्थात् क्रीड़ा प्रदान करनेवाली हुई थी ।।८५॥ मनुष्योंके क्षोभसे जिसके पक्षियोंकी पंक्ति ऊपरको उड़ रही है ऐसी उस नर्मदा नदीको पार कर उस सेनाने देहली समझकर विन्ध्याचलके उत्तरकी ओर, आक्रमण किया ॥८६॥ वहां भरतने दक्षिण और उत्तर दोनों ही ओर विन्ध्याचलको समय दोनों ओर दिखाई देनेवाला वह पर्वत ऐसा जान पडता था मानों अपने दो भाग कर दोनों दिशाओंको ही अर्पण कर रहा हो ॥८७।। भरतकी सेनाका पड़ाव नर्मदा नदी के दोनों किनारोंपर था और वह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अपने विस्तारसे विन्ध्याचल को घेरकर कोई दूसरा विन्ध्याचल ही ठहरा हो ॥८८।। उस समय सेनाका पड़ाव और विन्ध्याचल दोनों ही परस्पर में किसी भेद (विशेषता) को प्राप्त नहीं हो रहे थे क्योंकि जिस प्रकार सेनाके पड़ावमें हाथी थे उसी प्रकार विन्ध्याचलमें भी हाथियों के समान ही गंडोपल अर्थात् बड़ी बड़ी काली चट्टानें थी और सेनाके पड़ावमें जिस प्रकार अनेक घोड़े इधर उधर फिर रहे थे उसी प्रकार उस विन्ध्याचल में भी अनेक अश्ववक्त्र अर्थात् घोड़ोंके मुखके समान मुखवाले किन्नर जातिके देव इधर-उधर फिर रहे थे (कवि-सम्प्रदायमें किन्नरोंके मुखोंका वर्णन घोड़ों के मुखोंके समान किया जाता है) ।।८९।। सेनाने उस विन्ध्याचलके समस्त फल पत्ते और वृक्षोंका उपभोग कर लिया था और लताओं तथा छोटे छोटे पौधोंको पुष्परहित कर दिया था इसलिये वह विन्ध्याचल उस समय वन्ध्याचल अर्थात् फल-पुष्प आदिसे रहित हो गया था ।।९।। मोतियोंसे मिले हए वासी चावलोंसे जिनेन्द्रदेवकी पूजा करते हए सैनिक लोगोंने वहाँ इच्छा १-मवैक्षिष्ट अ०, स०, इ० । २ प्रवेणीम् । ३ नम क्रीडा तां ददातीति नर्मदा । ४ ऊरुसमीपे । यदपो ह्युत्तरन्ती-ल०। ५ पक्षी। ६ देहलीति बद्ध्या। ७ नर्मदायाः । ८ दक्षिणस्यां दिशि स्थितः । है उत्तरस्यां दिशि स्थितम् । १० विन्ध्याचलम् नर्मदाविन्ध्याचलमध्ये विभिद्य द्विधाकृत्य गतेति भावः । १२ पृथुत्यन। १२ गण्डलः । १३ मिन्नरः । १४ गरम् । २५ निवरान्ति रग। १६ -1र Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व कृतावासञ्च तत्रनं ददृशुस्तद्वनाधिपाः । वन्यैरुपायनः इलाध्यः अगदैश्च महौषधैः ॥१२॥ उपानिन्यु: करीन्द्राणां दन्तानस्मै समौक्तिकान् । किरातवर्या "वर्या हि स्वोचिता सत्क्रिया प्रभौ ॥३॥ पश्चिमान विन्ध्याद्रिम् उल्लङध्योत्तीर्य नर्मदाम् । विजेतुमपरामाशां प्रतस्थे चक्रिणो बलम् ॥१४॥ गत्वा किञ्चिदुदग्भयः प्रतीची दिशमानशे। प्राक प्रतापोऽस्य दुर्वारः सचकं चरम बलम् ॥६५॥ तदा प्रचलदश्वीयखरोद्भूतं० महीरजः। न केवलं द्विषां तेजो रुरोध द्युमणेरपि ॥६६॥ लाटा ललाट'संघृष्टभूपृष्ठाश्चाटुभाषिणः । लालाटिक पदं भेजुः प्रभोराज्ञावशीकृताः ॥१७॥ केचित्सौराष्ट्रिकैर्नागः परे १३पाञ्चनदैर्गजैः। तं तद्वनाधिपा वीक्षाञ्चक्रिरे चक्रचालिताः ॥१८॥ चक्रसन्दर्शनादेव बस्ता निर्मण्ड'लग्रहाः। ग्रहा५ इव नृपाः केचित् चक्रिणो वशमाययुः ॥९॥ दिश्यानिवार द्विपान् क्ष्मापानपथुवंशान्मदोद्धरान् । प्रचक्रे "प्रगुणांश्चक्री बलादाक्रम्य दिक्पतीन् ॥१०॥ नुपान् सौराष्ट्रकानुष्ट्रवामीशतभूतो पदान् । सभाजयन् प्रभुर्भेजे रम्या रैवतकस्थलीः ॥१०१॥ नुसार निवास किया था सो ठीक ही है क्योंकि विन्ध्याचलपर रहना बहुत ही रमणीय होता है ॥९१॥ विन्ध्याचलके वनोंके राजाओंने वनोंमें उत्पन्न हुई रोग दूर करनेवाली और प्रशंसनीय बड़ी बड़ी औषधियां भेंट कर वहाँपर निवास करनेवाले राजा भरतके दर्शन किये ॥९२॥ भीलोंके राजाओंने बड़े बड़े हाथियोंके दांत और मोती महाराज भरतकी भेंट किये, सो ठीक ही है क्योंकि स्वामीका सत्कार अपनी योग्यताके अनुसार ही करना चाहिये ॥९३॥ विन्ध्याचलको पश्चिमी किनारेके अन्तभागसे उल्लंघन कर और नर्मदा नदीको पार कर चक्रवर्ती की सेनाने पश्चिम दिशाको जीतनेके लिये प्रस्थान किया ॥९४|| वह सेना पा उत्तर दिशाकी ओर बढ़ी और फिर पश्चिम दिशामें व्याप्त हो गई। सेनामें सबसे आगे महाराज भरतका दुर्निवार प्रताप जा रहा था और उसके पीछे पीछे चक्रसहित सेना जा रही थी।।९५।।उस समय वेगसे चलते हुए घोड़ोंके समूहके खुरोंसे उड़ी हुई पृथिवीकी धूलिने केवल शत्रुओंके ही तेजको नहीं रोका था किन्तु सुर्यका तेज भी रोक लिया था ।।९६।। जिन्होंने अपने ललाटसे पृथिवीतलको घिसा है और जो मधुर भाषण कर रहे हैं ऐसे भरतकी आज्ञासे वश किये हुए लाट देशके राजा उनके लालाटिक पदको प्राप्त हुए थे। (ललाटं पश्यति लालाटिकः-स्वामी क्या आज्ञा देते हैं ? यह जानने के लिये जो सदा स्वामीके मुखकी ओर ताका करते हैं उन्हें लालाटिक कहते हैं। ) ॥९७।। चक्र रत्नसे विचलित हुए कितने ही वनके राजा ओंने सोरठ देशमें उत्पन्न हुए और कितने ही राजाओंने पंजाबमें उत्पन्न हुए हाथी भेंट देकर भरतके दर्शन किये ।।९८॥ जो चक्रके देखनेसे ही भयभीत हो गये हैं और जिन्होंने अपने देशका अभिभान छोड़ दिया है ऐसे कितने ही राजा लोग सूर्य चन्द्र आदि ग्रहों के समान चक्रवर्तीके वश ।। भावार्थ--जिस प्रकार समस्त ग्रह भरतके वशीभत थे--अनकल थे उसी प्रकार उस दिशाके समस्त राजा भी उनके वशीभूत हो गये थे ॥९९।। चक्रवर्ती भरतने दिग्गजोंके समान पृथुवंश अर्थात् उत्कृष्ट वंशमें उत्पन्न हुए (पक्षमें पीठपरकी चौड़ी रीढ़से सहित) और मदोद्धर अर्थात् अभिमानी ( पक्षमें-मदजलसे उत्कट ) राजाओंको जबर्दस्ती आक्रमण कर अपने वश किया था ।।१००।। सैकड़ों ऊंट और घोड़ियोंकी भेंट लेकर आये ऊंट और घोडियोंकी भेंट लेकर आये हए सोरठ देशके राजाओं १ व्याधिघातकः । २ उपायनीकृत्य नयन्ति स्म। उपनिन्यः अ०, इ०, ५०, स०, द० । ३ श्रेष्ठाः । ४ चर्या ल० । ५ विभौ स०, अ० । ६ पश्चिमान्तेन ल०, द० । ७ उत्तरदिशम् । ८ पश्चिमाम् । ६ पश्चात् । १० खुरोद्भूतमहीरजः ल० । ११ संदष्ट-इ०, प०, द०। १२ विशिष्टभृत्यपदम् । 'लालाटिकः प्रभोर्भावदर्शी कार्यक्षमश्च यः' इत्यभिधानात् । १३ पञ्चनदीष जातः । १४ देशग्रहणरहिताः । १५ आदित्यग्रहाः । १६ दिशि भवान्। १७ प्रणतान् । १८ उष्ट्राश्वसमूहधृतोपदान् । १६ तोषयन् । २० ऊर्जयन्तगिरिस्थलीः । , Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् सुराष्ट्रषर्जयन्ताद्रिम् अद्रिराजमिवोच्छितम् । ययौ प्रदक्षिणीकृत्य भावितीर्थमनुस्मरन् ॥१०२॥ क्षौमांशुकदुकूलश्च चीनपट्टाम्बरैरपि । पटीभेदैश्च' देशेशा ददृशुस्तमुपायनैः ॥१०॥ कांश्चित् सम्मानदानाभ्यां कांश्चिद्विरम्भभाषितः । प्रसन्नीक्षितैः कांश्चिद् भुपान्विभररञ्जयत् ॥१०४॥ गजप्रवे कैर्जात्यश्वै रत्नैरपि पृथग्विधः । तमानचुन पास्तुष्टाः स्वराष्ट्रोपगतं प्रभुम् ॥१०॥ तरस्विभिर्वपुर्मेधावयःसत्त्वगुणान्वितैः । तुरङगमैस्तुरुष्का द्यैः विभुमाराधयन् परे ॥१०६॥ केचित्काम्बोजबालीकतैतिलारट्टसैन्धवैः । वानायुकैः सगान्धारः वापये रपि वाजिभिः ॥१०७॥ कुलोपकुलसम्भूतैः नानादिग्देशचारिभिः । प्राजानेयः समग्राङगैः प्रभुमैक्षन्त पार्थिवाः ॥१०॥ प्रतिप्रयाणमित्यस्य रत्नलाभो न केवलम् । यशोलाभश्च दुःसाध्यान् बलात् साधयतो नपान् ॥१०॥ जलस्थलपथान् विष्वग् आरुध्य जयसाधनैः । प्रत्यन्तपालभूपालान् अजयत्तच्च मूपतिः ॥११०॥ विलडध्य विविधान् देशान् अरण्यानीः सरिगिरीन् । तत्र तत्र विभोराज्ञां सेनानीराश्वशुश्रुवत् ॥११॥ प्राच्यानिव स भूपालान् प्रतीच्यानप्यनुक्रमात् । श्रावयन् हृततन्मानधनः प्रापापराम्बुधिम् ॥११२॥ से सेवा कराते हुए अथवा उनसे प्रीतिपूर्वक साक्षात्कार (मुलाकात) करते हुए चक्रवर्ती भरत गिरनार पर्वतके मनोहर प्रदेशोंमें जा पहुंचे ।।१०१॥ भविष्यत् कालमें होनेवाले तीर्थ कर नेमिनाथका स्मरण करते हए वे चक्रवर्ती सोरठ देशमें समेरु पर्वतके समान ऊंचे गिरनार पर्वतकी प्रदक्षिणा कर आगे बढ़े ॥१०२।। उन उन देशोंके राजाओंने उत्तम उत्तम रेशमी वस्त्र, चायना सिल्क तथा और भी अनेक प्रकारके अच्छे अच्छे वस्त्र भेंट देकर महाराज भरत के दर्शन किये ॥१०३॥ भरतने कितने ही राजाओंको सन्मान तथा दानसे, कितने ही राजाओं को विश्वास तथा स्नेहपूर्ण बातचीतसे और कितने ही राजाओंको प्रसन्नतापूर्ण दृष्टिसे अनुरक्त किया था ।।१०४॥ कितने ही राजाओंने संतुष्ट होकर उत्तम हाथों, कुलीन घोड़े और अनेक प्रकारके रत्नोंसे अपने देशमें आये हुए महाराज भरतकी पूजा की थी--।।१०५।। अन्य कितने ही राजाओंने वेगसे चलनेवाले, तथा शरीर, बद्धि, अवस्था और बल आदि गणोंसे सहित तुरुष्क आदि देशोंमें उत्पन्न हुए घोड़ोंके द्वारा भरतकी सेवा की थी ॥१०६॥ कितने ही राजाओंने उसी देशके घोड़े घोड़ियोंसे उत्पन्न हुए, तथा एक देशके घोड़े और अन्य देशकी घोड़ियोंसे उत्पन्न हुए, नाना दिशाओं और देशोंमें संचार करनेवाले, कुलीन और पूर्ण अंगोंपाङ्ग धारण करनेवाले, काम्बोज, वाल्हीक, तैतिल, आरट्ट, सैन्धव, वानायुज, गान्धार और बाण देशमें उत्पन्न हुए घोड़े भेंट कर महाराजके दर्शन किये थे ॥१०७-१०८॥ इस प्रकार भरत को प्रत्येक पड़ावपर केवल रत्नोंकी ही प्राप्ति नहीं हुई थी किन्तु अपने पराक्रमसे बड़े बड़े दुःसाध्य (कठिनाइयोंसे जीत जाने योग्य) राजाओको जीत लेनेसे यशकी भी प्राप्ति हुई थी ।।१०९।। भरतके सेनापतिने अपनो विजयी सेनाओंके द्वारा चारों ओरसे जल तथा स्थलके मार्ग रोककर पहाड़ी राजाओंको जीता ।।११०॥ सेनापतिने अनेक प्रकारके देश, बड़े बड़े जंगल, नदियां और पर्वत उल्लंघन कर सब जगह शीघ्र ही सम्राट् भरतकी आज्ञा स्थापित की ॥१११॥ इस प्रकार चक्रवर्ती क्रम क्रमसे पूर्व दिशाके राजाओंके समान पश्चिम दिशाके राजाओंको भी वश करता हुआ तथा उनके अभिमान और धनका हरण करता हुआ पश्चिम समुद्रकी ओर १ सूत्रवस्त्रद्वयं पटी। २ स्नेह । ३ श्रेष्ठः। ४ नानाविधैः । ५ तुरुष्कदेशजात्याद्यैः । ६ तैतिल-आरटसिन्धुदेशजैः । ७ वानायुदेशे जातः । ८ वापिदेशभवः, पाणेयः द०, वाणये ल० । है कुलीनः । 'आजानेयाः कुलीनाः स्युः' इत्यभिधानात्, जात्यश्वरित्यर्थः। १० प्रभो- ल० । ११ श्रावयति स्म । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व 'वेलासरित्करान्वाद्धिः अतिदूरं प्रसारयन् । नूनं प्रत्यग्रहीदेवं नानारत्नार्घमुद्वहन् ॥११३॥ शूर्पोन्मेयानि रत्नानि वार्वेरित्यप्रशं"सिनी। यानपात्रमहामानैः उन्मयान्यत्र तानि यत् ॥११४॥ नाम्नैव लवणाम्भोधिरित्युदन्वान् लघु कृतः। रत्नाकरोऽयमित्युच्चैः बहु मेने तदा नपैः ॥११५॥ पतन्यत्र पतङपोऽपि तेजसा याति मन्दताम् । दिदीप तत्र तेजोऽस्य प्रतीच्यां जयतो नपान् ॥११६॥ धारयंश्च करत्नस्य पारयः सङगरोदधेः । द्विषा मुदे जयस्तीवं स तिग्मांशुरिवाद्युतत् ॥११७॥ अनवादधि तटं गत्वा सिन्धुद्वारे न्यवेशयत् । स्कन्धावारं स लक्ष्मीवान् प्रक्षोभ्यं स्वमिवाशयम् ॥११८॥ सिन्धोस्तटवने रम्ये न्यविक्षन्नास्य सैनिकाः। चमद्विरदसम्भोगनिकुब्जी भूतपादपे ॥११॥ तत्राधिवासितानोडगः पुरश्चरण कर्मवित्। पुरोधा धर्मचक्रेशान् "प्रपूज्य विधिवत्ततः॥१२०॥ सिद्धशेषाक्षतः पुण्यः गन्धोदकविमिश्रितः । अभ्यनन्दत्सुयज्वा तं पुण्याशीभिश्च चक्रिणम् ॥१२॥ ततोऽसौ धृतदिव्यास्त्रो रथमारुह्य पूर्ववत् । जगाहे लवणाम्भोधि गोष्पदावज्ञया प्रभुः ॥१२२॥ चला ।।११२॥ उस समय वह सम : ऐसा जान पड़ता था मानो किनारे पर बहनेवाली नदियां रूपी हाथोंको बहुत दूर तक फैलाकर नाना प्रकारके रत्नरूपी अर्घको धारण करता हुआ महाराज भरतकी अगवानी ही कर रहा हो अर्थात् आगे बढ़कर सत्कार ही कर रहा हो ॥११३।। जो लोग कहा करते हैं कि समुद्रके रत्न सूपसे नापे जा सकते हैं वे उसकी ठीक ठीक प्रशंसा नहीं करते बल्कि अप्रशंसा ही करते हैं क्योंकि यहाँ तो इतने अधिक रत्न हैं कि जो बड़े बड़े जहाजरूप नापोंसे भी नापे जा सकते हैं ॥११४॥ यह समुद्र 'लवण समुद्र' इस नामसे बिलकुल ही तुच्छ कर दिया गया है, वास्तवमें यह रत्नाकर है इस प्रकार उस समय भरत आदि राजाओंने उसे बहुत बड़ा माना था ॥११५॥ जिस दिशामें जाकर सूर्य भी अपने तेजकी अपेक्षा मन्द (फीका) हो जाता है उसी दिशामें पश्चिमी राजाओंको जीतते हुए चक्रवर्ती भरत का तेज अतिशय देदीप्यमान हो रहा था ॥११६॥ चक्ररत्नको धारण करता हुआ, युद्धरूपी समुद्रको पार करता हुआ और शत्रुओंको उद्विग्न करता हुआ वह भरत उस समय ठीक सूर्य के समान देदीप्यमान हो रहा था ॥११७॥ जो राज्यलक्ष्मीसे युक्त है ऐसे उस भरत ने समुद्रके किनारे किनारे जाकर अपने हृदयके समान कभी क्षुब्ध न होनेवाला अपनी सेनाका पड़ाव सिन्धु नदीके द्वारपर लगवाया। भावार्थ--जहाँ सिन्धु नदी समुद्रमें जाकर मिलती है वहां अपनी सेनाके डेरे लगवाये ।।११८॥ सेनाके हाथियोंके उपभोगसे जहाँके वृक्ष निकुञ्ज अर्थात् लतागृहोंके समान हो गये हैं ऐसे सिन्धु नदीके किनारेके मनोहर वनमें भरतकी सेनाके लोगोंने निवास किया ।। ११९॥ तदनन्तर कार्यके प्रारम्भमें करने योग्य समस्त कार्यो को जाननेवाले पुरोहितने वहांपर मन्त्रोंके द्वारा चक्ररत्नकी पूजा कर विधिपूर्वक धर्मचक्रके स्वामी अर्थात् जिनेन्द्रदेवकी पूजा की और फिर गन्धोदकसे मिले हुए पवित्र सिद्ध शेषाक्षतों और पुण्यरूप अनेक आशीर्वादोंसे चक्रवर्ती भरतको आनन्दित किया ।।१२०-१२१॥ तदनन्तर १वेलासरित एव करा: तान् । २ इव । ३ प्रस्फोटनेन उन्मातुं योग्यानि। प्रस्फोटनं शर्पमस्त्रीत्यभिधानात् । ४ वेला। -रिभ्यप्रशंसिभि: ल०। प्रशस्तेऽपि न प्रशस्या। (प्रशस्ताऽपि न प्रशस्या)। ५ सूर्यः । ६ प्रतीच्यानिति पाठः । ७ चक्ररत्नं धारयन् । ८ प्रतिज्ञासमुद्रं समाप्तं कुर्वन् । ६ शत्रन । १० कम्पयन् । (एज कम्पने इति धातुः । 'दारिपारिवेद्युदेजिजेतिसाहिसाहिलिम्पविन्दोपसर्गात् इति कर्तरि शम् प्रत्ययः' । 'मध्ये कर्तरि शप्' इति शप विधानात् एजयादेशः)। ११ नितरां ह्रस्वीभूत । १२ समन्त्रकं पूजितचत्ररत्नः (अनः शकटम् तस्याङगम् चक्रम्) । १३ पूर्वसेवा । १४ पञ्चपरमेष्ठिनः । १५ पुरोहितः । सुष्ट दृष्टवान् । 'यज्वा तु विधिनेष्टवान्' इत्यमरः । 'सुयजोड वनिट' इति अतीतार्थे सुयजधातुभ्यां ड्वनिप्प्रत्ययः । १६ मागधविजये यथा । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् (प्रभा'समजयत्तत्र प्रभासं व्यन्तराधिपम् । प्रभासमूहमर्कस्य स्वभासा तर्जयन्प्रभुः ॥१२३॥ जयश्रीशफरीजालं' मुक्ताजालं ततोऽमरात् । लेभे सान्तानिकों' मालां हेममालाञ्च चक्रभुत् ॥१२४॥ इति पुण्योदयाज्जिष्णुः व्यंजेष्टामरसत्तमान् । तस्मात् पुण्यधनं प्राज्ञाः शश्वदर्जयतोजितम् ॥१२॥ शार्दूलविक्रीडितम् (त्वङग तुङग तुरङगसाधनखुरक्षुण्णा महोस्थण्डिलाद् ___ उद्भूत रगरे गुभिर्जलनिधेः कालुष्यमापादयन् । सिन्धुद्वारमुपेत्य तत्र विधिना जित्वा प्रभासामरं तस्मात्सारधनान्यवापदतुलश्रीरग्रणीश्चक्रिणाम् ॥१२६॥ लक्ष्म्यान्दोल'लतामिवोरसि दधत् सन्तानपुष्पस्रजं मुक्ताहेममयेन जालयुग लेनालडाकृतोच्चस्तनुः । लक्ष्म्द्वाह गृहादिवाप्रतिभयो२ निर्यन्निधेरम्भसां लक्ष्मीशो रुरुचे भृशं नववरच्छायां परामुदहन ॥१२७॥ जिसने दिव्य अस्त्र धारण किये हैं ऐसे भरतने पहलेके समान रथपर चढ़कर गोष्पदके समान तुच्छ समझते हुए लवण समुद्र में प्रवेश किया ॥१२२।। अपनी प्रभासे सूर्यकी प्रभाके समहको तिरस्कृत करते हुए भरतने वहां जाकर अतिशय कान्तिमान् प्रभास नामके व्यन्तरोंके स्वामी को जीता ॥१२३॥ तदनन्तर चक्रवर्तीने उस प्रभासदेवसे जयलक्ष्मीरूपी मछलीको पकड़ने के लिये जालके समान मोतियोंका जाल, कल्पवृक्षके फूलोंकी माला और सुवर्णका जाल भेंट स्वरूप प्राप्त किये ॥१२४॥ इस प्रकार विजयी भरतने अपने पुण्यकर्मके उदयसे अच्छे अच्छे देवोंको भी जीता इसलिये हे पण्डित जन. तम भी उत्कृष्ट फल देनेवाले पण्य पूण्यरूपी धनका सदा उपार्जन करो ॥१२५।। अनुपम लक्ष्मीके धारक भरत, उछलते हुए बड़े बड़े घोड़ोंकी सेना के खुरोंसे खुदी हुई पृथिवीसे उड़ती हुई रथकी धूलिके द्वारा समुद्रको कलुषता प्राप्त कराते हुए (गॅदला करते हुए) सिन्धुद्वारपर पहुंचे और वहां उन्होंने विधिपूर्वक प्रभास नामके देवको जीतकर उससे सारभूत धन प्राप्त किया। ॥१२६॥ जो अपने वक्षःस्थलपर लक्ष्मीके झूला की लताके समान कल्पवृक्षके फूलोंकी माला धारण किये हुए है, जिसका ऊँचा शरीर मोती और सुवर्णके बने हुए दो जालोंसे अलंकृत हो रहा है, जो निर्भय है और लक्ष्मीका स्वामी है ऐसा यह भरत लक्ष्मीके विवाहगृहके समान समुद्रसे निकल रहा है और नवीन वरकी उत्कृष्ट कान्तिको धारण करता हुआ अत्यन्त सुशोभित हो रहा है ।।१२७।। इस प्रकार समुद्र-पर्यन्त पूर्व दिशाके राजाओंको, वैजयन्त पर्वत तक दक्षिण दिशाके राजाओंको और पश्चिम समुद्र १ प्रकृष्टदीप्तिम्। २ जयश्रीरेव शफरी मत्सी तस्या जालम् पाशः । ३ कल्पवृक्षजाताम् । ४ वल्गत् । ५ चूर्णीकृतात् । ६ शर्करापायप्रदेशात् । ७ सङगरपांशुभिः। ८ सम्पादयन् । ६ लक्ष्म्या : प्रेडखोलिकारज्जुम् । १० मालायुग्मेन । ११ विवाह। १२ भयरहितः । १३ नुतनवरशोभाम् । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्तमं पर्व प्राच्या'नाजलधेरपाच्यनृपतीनावैजयन्ताज्जयन् निजित्यापरसिन्धसीमघटितामाशां प्रतीचीमपि दिक्पालानिव पार्थिवान्त्रणमयन्नाकम्पयन्नाकिनो दिक्चक्रं विजितारिचक्रमकरोदित्यं स भूभृत्प्रभुः ॥१२८॥ पुण्याच्च क्रधरश्रियं विजयिनीमैन्द्रीं च दिव्यश्रिय पुण्यात्तीर्यकरश्रियं च परमां नैःश्रेयसीञ्चाश्नुते । पुण्यादित्यसुभच्छियां चतसणाभाविर्भवेद् भाजनं तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियःपुण्याग्जिनेन्द्रागमात् ॥१२६।। इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसडामहे पश्चिमार्णवद्वारविजयवर्णनं नाम त्रिशं पर्व । की सीमा तक पश्चिम दिशाको जीतकर दिक्पालोंके समान समस्त राजाओंसे नमस्कार कराते हुए तथा देवोंको भी कम्पायमान करते हुए राजाधिराज भरतने समस्त दिशाओंको शत्रुरहित कर दिया ॥१२८॥ पुण्यसे सबको विजय करनेवाली चक्रवर्तीकी लक्ष्मी मिलती है, इन्द्रकी दिव्य लक्ष्मी भी पुण्यसे मिलती है, पुण्यसे ही तीर्थ करकी लक्ष्मी प्राप्त होती है और परम कल्याण रूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्यसे ही मिलती है इस प्रकार यह जीव पुण्यसे ही चारों प्रकारकी लक्ष्मीका पात्र होता है, इसलिये हे सुधी जन! तुम लोग भी जिनेन्द्र भगवान्के पवित्र आगमके अनुसार पुण्यका उपार्जन करो ॥१२९।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें पश्चिमसमुद्रके द्वारका विजय वर्णन करनेवाला तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। १ पूर्वीदिनदेशजान् । २ पूर्वरामुद्रपर्यन्तम् । ३ दक्षिणदेशभूपान् । ४ पचिनात् । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तम पर्व कौबेरीमय निर्जेतुम् प्राशामभ्युद्यतो विभुः। प्रतस्थ वाजिभूयिष्ठः साधनैः स्थगयन् दिशः ॥१॥ धौरितर्गत मुत्साहः सत्त्वं शिक्षां च लाघवैः । जाति वपुर्णणस्तज्ज्ञाः तदाश्वानां विजज्ञिरे ॥२॥ धौरितं गतिचातुर्यम् उत्साहस्तु पराक्रमः । शिक्षाविनयसंपत्ती रोमच्छाया वपुर्गुणः ॥३॥ पुरोभागा निवात्येतुं पश्चाद्भागैः कृतोद्यमा प्रययुटुंतमव्वानम् अध्वनीना स्तुरङगमाः ॥४॥ खुरोद्धृतान् महीरेणून् स्वाङगस्पर्शभयादिव । केचिद् व्यती युरध्यध्वं' महाश्वाः कृतयिक्रमाः ॥५॥ छायात्मनः१० सहोत्थान केचित्सोढ मियाक्षमाः। खुरैरघट्टयन वाहाः स तु सौक्षम्यान्नबाधितः ॥६॥ केचिन्नत्तमिवातेनः महीरङगे तुरङगमाः। क्रमैश्चङक्रमणारम्भे'२ कृतमड्डुकवादनः ॥७॥ स्थिरप्रकृतिसत्त्वानाम् अश्वानां चलताऽभवत् । प्रचलत्खुरसंक्षुण्णभुयां गतिषु केवलम् ॥८॥ कोटयोऽष्टादशास्य स्युः वाजिनां वायु रंहसाम् । आजानेयप्रधानानां५ योग्यानां चक्रवर्तिनः ॥६॥ रुद्धरोधोवनाक्षुण्णतटभासयंत्यपः । सिन्धोः१६ प्रतीपता" भेजे प्रयान्ती सा पताकिनी ॥१०॥" अथानन्तर-उत्तर दिशाको जीतने के लिये उद्यत हुए चक्रवर्ती भरत जिनमें अनेक घोड़े हैं ऐसी सेनाओंसे दिशाओंको व्याप्त करते हुए निकले ।।१।। उस समय घोड़ोंके गुण जानने वाले लोगोंने धौरित नामकी गतिसे उनकी चाल जानी, उत्साहसे उनका वल जाना, स्फतिके साथ हलकी चाल चलनेसे उनकी शिक्षा जानी और शरीरके गुणोंसे उनकी जाति जानी ।।२।। गतिकी चतुराईको धौरित, उत्साहको पराक्रम, विनयको शिक्षा और रोमोंको कान्तिको शरीरका गुण कहते हैं ॥३॥ अच्छी तरह मार्ग तय करनेवाले घोड़े मार्गमें बहुत जल्दी जल्दी जा रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने पीछेके भागोंसे अगले भागोंको उल्लंघन ही करना चाहते हों ॥४॥ अपने खुरोंसे उड़ती हुई पृथिवीकी धूलिका कहीं हमारे ही शरीरके साथ स्पर्श न हो जावे? इस भयसे ही मानों अनेक बड़े बड़े घोड़े अपना पराक्रम प्रकट करते हुए मार्गमें उस धूलिको उल्लंघन कर रहे थे ॥५॥ कितने ही घोड़े अपनी छायाका भी अपने साथ चलना नहों सह सकते थे इसलिये ही मानो वे उसे अपने खरोंसे तोड रहे थे परन्तु सक्ष्म होनेसे उस छायाको कुछ भी बाधा नहीं होती थी ॥६॥ कितने ही घोड़े ऐसे जान पड़ते थे मानों चलनेके प्रारम्भमें बजते हुए नगाड़े आदि बाजोंके साथ साथ अपने पैरोंसे पृथ्वीरूपी रङ्गभूमिपर नृत्य ही कर रहे हों ॥७॥ जिनका स्वभाव और पराक्रम स्थिर है परन्तु जिन्होंने अपने चलते हुए खुरोंसे पृथ्वी खोद डाली है ऐसे घोड़ोंकी चंचलता केवल चलने में ही थी अन्यत्र नहीं थी ॥८॥ जिनका वेग वायुके समान है, जो उत्तम जातिके हैं और जो योग्य हैं ऐसे चक्रवर्तीके घोड़ों की संख्या अठारह करोड़ थी ॥९॥ जिसने किनारे के वन रोक लिये हैं, जिसने किनारेकी पृथिवी १ धाराभिः । 'आस्कन्दितं धौरितकं रेचितं वल्गितं प्लुतम् । गतयोऽमः पञ्च धाराः ।' पदैरुत्प्लुत्योत्प्लुत्य गमनम् आस्कन्दितम् । कङकशिखिकोड़नकुलगतैः सदृशम् धौरितकम् । मध्यमवेगेन चक्रवद् भमणम् रेचितम् । पद्भिर्वल्गितम् बल्गितम् । मृगसाम्येन लङघनं प्लुतम् । आस्कन्दितादीनि पञ्चपदानि धाराशब्दवाच्यानि । धारेत्यश्वगतिः सा आस्कन्दितादिभेदेन पञ्चविधा भवतीत्यर्थः। २ गमनम् । ३ बुबुधिरे। ४ पूर्वकायान्। ५ अतिगन्तुम् । ६ अपरकायैः। ७ अध्वनि समर्थाः । ८ अतीत्यागच्छन् । ६ मार्ग। १० छायास्वरूपस्य। ११ छायात्मा। १२ शीघगमनारम्भ। १३ वाद्य विशेषः । १४ पवनवेगिनाम् । १५ जात्यश्वमुख्यानाम् । १६ सिन्धनद्याः । १० प्रतिकूलताम् । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तम पर्व प्रभोरिवागमात्तुष्टा सिन्धुः सैन्याधिनायकान् । तरङगपवनैर्मन्दम् प्रासिषेवे सुखाहरः ॥११॥ गडगावर्णनयोपेतां फेनार्धा२ सम्मखागताम् । तां पश्यन्नत्तरामाशां जितां मेने निधीश्वरः ॥१२॥ अनुसिन्धुतटं सैन्यैः उदीच्यान् साधयन्नपान् । विजयार्धाचलोपान्तम् पाससाद शनैर्मनुः ॥१३॥ स गिरिमणिनिर्माणनवकूटविशङकट: । ददृशे प्रभुणा दूराद् धृतार्घ इव राजतः ॥१४॥ स शैलः पवनाधूतचलशाखाग्रबाहुभिः । दूरादभ्यागतं जिष्णुम् आजुहावेव पादपः ॥१५॥ सोऽचलः शिखरोपान्तनिपतन्निराम्बभिः। प्रभोरुपागमे पाद्यं “संविधित्सुरिवाचकात्॥१६॥ स नगो नागपुन्नागपूगादिद्र मसङकट: । रम्यस्तटवनोद्देशः आह्वत् प्रभुमिवासितुम् ॥१७॥ रजो वितान यन् पौष्पं पवनैः परितो वनम् । सोऽभ्युत्तिष्ठन्निवास्यासीत् कूजत्कोकिलडिण्डिमः॥१८॥ किमत्र बहुना सोऽद्रिः विभु दिग्विजयोद्यतम् । प्रत्यच्छदिव संप्रीत्या सत्काराङगैरतिस्फुटैः ॥१६॥ पिनद्ध'तोरणामुच्चैरतीत्य बनवेदिकाम् । नियन्त्रितं२ बलाध्यक्षः जगाहेऽन्तर्वणं बलम् ॥२०॥ वनोपान्तभुवः सैन्यः प्रारुद्धा रुद्धदिङमुखैः । उड्डीनविहगप्राणा निरुच्छ्वासास्तदाभवन् ॥२१॥ तोड़ दी है और जो जलको कम करती जाती है ऐसी चलतो हुई वह सेना मानो सिन्धु नदीके साथ शत्रता ही धारण कर रही थी। भावार्थ-वह सेना सिन्धु नदीको हानि पहुँचाती हुई जा रही थी ॥१०॥ वह सिन्धु नदी मानो चक्रवर्ती भरतके आनेसे संतुष्ट होकर ही सुख देनेवाले अपनी लहरोंकी पवनसे धीरे धीरे सेनाके मुख्य लोगोंकी सेवा कर रही थी ॥११॥ जो गङ्गा नदीके समस्त वर्णनसे सहित है और फेनोंसे भरी हुई है ऐसी सामने आई हुई सिन्धु नदीको देखते हुए निधिपति-भरत उत्तर दिशाको जीती हुईके समान समझने लगे थे ॥१२॥ सिन्धु नदीके किनारे किनारे अपनी सेनाओंके द्वारा उत्तर दिशाके राजाओंको वश करते हुए कुलकर-भरत धीरे धीरे विजयाई पर्वतके समीप जा पहुंचे ॥१३॥ जो मणियोंके बने हुए नौ शिखरोंसे बहत विशाल मालम होता था ऐसा वह चाँदीका विजयार्ध पर्वत भरतने दूरसे ऐसा देखा मानो शिखरोंके बहानेसे अर्घ ही धारण कर रहा हो ॥१४॥ जिनकी शाखाओंके अग्रभागरूपी भुजाएँ वायुसे हिल रही हैं ऐसे वृक्षोंसे वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो दूरसे सन्मुख आये हुए विजयी भरतको बुला ही रहा हो ॥१५॥ शिखरोंके समीपसे ही पड़ते झरनोंके जलसे वह पर्वत ऐसा अच्छा सुशोभित हो रहा था मानो चक्रवर्ती भरतके आनेपर उनके लिये पाद्य अर्थात् पैर धोनेका जल ही देना चाहता हो ॥१६॥ वह पर्वत नाग, नागकेसर और सुपारी आदिके वृक्षोंसे भरे हुए तथा मनोहर अपने किनारे के वनके प्रदेशोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो विश्राम करने के लिये स्वामी भरतको बुला ही रहा हो ॥१७॥ जो अपने वनके चारों ओर वायुसे उड़ते हुए फूलोंकी परागका चँदोवा तान रहा है और शब्द करते हुए कोकिल ही जिसके नगाड़े हैं ऐसा वह पर्वत भरतका सन्मान करनेके लिये सामने खड़े हुए के समान जान पड़ता था ॥१८॥ इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ है ? इतना ही बहुत है कि वह पर्वत बड़े प्रेमसे प्रकट किये हुए सत्कारके सब साधनोंसे दिग्विजय करने के लिये उद्यत हुए भरतका मानो सत्कार ही कर रहा था ॥१९॥ जिसके चारों ओर तोरण बँधे हुए हैं ऐसी वनकी ऊंची वेदीको उल्लंघन कर सेनापतियोंके द्वारा नियन्त्रित की हुई (वश की हुई) सेनाने वनके भीतर प्रवेश किया ॥२०॥ समस्त दिशाओंमें फैलनेवाली सेनाओंसे उस वनके समीप १ सुखस्याहरणम् स्वीकारो ये भ्य (पञ्चमी) स्ते तैः, सुखाकरैरित्यर्थः। २ फेनाढयाम् प०, ल० । ३ विशाल: । ४ रजतमयः । ५ संविधातुमिच्छः । ६ अभात् । ७ संकुलैः ल०, प०, द०, स०, अ०, इ० । ८ वस्तुम् । ६ विस्तारयन् । १० अभिमुखमुत्तिष्ठन् । ११ विभक्त अ०, प०, द०, स०, ल०, इ०। १२ नियमितम् । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ महापुराणम् अभूतपूर्वमुद्भूतप्रतिध्वानं बलध्वनिम् । श्रुत्वा 'बलवदुत्त्रेसुः तिर्यञ्चो वनगोचराः ॥२२॥ बलक्षोभादिभो' निर्यन् वलक्षोऽभाद्" बनान्तरात् । सुरेभः सुविभक्ताङ्गः सुरेभ' इब वर्ष्मणा ॥ २३॥ प्रबोधजुम्भणादास्यं व्याददौ किल केसरी । न मेऽस्त्यंतर्भयं किञ्चित् पश्यतेऽतीव दर्शयन् ॥ २४ ॥ शरभो रभसादूर्ध्वम् उत्पत्योत्तानितः पतन् । सुस्थ एव पदैः पृष्ठचैः श्रभूनिर्मातृकौशलात् ॥२५॥ १२ विषाणोल्लिखित स्कन्धो रुषिताऽऽताप्रितेक्षणः १२ । खुरोत्खातावनिः सैन्यैः ददृशे महिषो विभीः ॥ २६ ॥ चमूरवश्रवोद्भूत" साध्वसाः क्षुद्रका मृगाः । विजयार्द्धगुहोत्सङ्गान् युगक्षय इवाश्रयन् ॥२७॥ अनुदुता" मृगाः शावंः पलायाञ्चक्रिरेऽभितः । वित्रस्ता वेपमानाङ्गाः " सिक्ताभयरसैरिव ॥ २८ ॥ चराहारति" मुक्त्वा वराहा मुक्तपल्वलाः । विनेषु विस्फुटद्यथाः ? चमूक्षोभादितोऽमुतः ॥२६॥ वरणावरणास्तस्थुः करिणोऽन्ये भयद्रुताः । हरिणा हरिणा रातिगुहान्तानधिशिश्यिरे ॥३०॥ की समस्त भूमियाँ भर गई थीं, उनके पक्षीरूपी प्राण उड़ गये थे और उस समय वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो श्वासोच्छ्वाससे रहित ही हो गई हों । अर्थात् सेनाओं के बोझसे दबकर मानो मर ही गई हों ||२१|| जो पहले कभी सुनने में नहीं आया था और जिसकी प्रतिध्वनि उठ रही थी ऐसा सेनाका कलकल शब्द सुनकर वनमें रहनेवाले पशु बहुत ही भयभीत और दुःखी हो गये थे ||२२|| जो अपने शरीरकी अपेक्षा ऐरावत हाथी के समान था, जिसके समस्त अंगोपाङ्गों का विभाग ठीक ठीक हुआ था, और जो मधुर गर्जना कर रहा था ऐसा कोई सफेद रंगका हाथी सेनाके क्षोभसे वनके भीतरसे निकलता हुआ बहुत ही अच्छा सुशोभित हो रहा था ।। २३॥ मेरे मनमें कुछ भी भय नहीं है जिसकी इच्छा हो सो देख ले इस प्रकार दिखलाता हुआ ही मानो कोई सिंह जागकर जमुहाई लेता हुआ मुँह खोल रहा था || २४|| अष्टापद बड़े वेग से ऊपरकी ओर उछलकर ऊपरकी ओर मुँह करके नीचे पड़ गया था परन्तु बनानेवाले ( नामकर्म ) की चतुराईसे पीठपरके पैरोंसे ठीक ठीक आ खड़ा हुआ था--उसे कोई चोट नहीं आई थी ||२५|| जो पत्थर से अपने कन्धे घिस रहा है, जिसके नेत्र क्रोधित होनेसे कुछ कुछ लाल हो रहे हैं और जो खुरोंसे पृथिवी खोद रहा है ऐसा एक निर्भय भैंसा सेनाके लोगोंने देखा था ||२६|| सेनाके शब्द सुनने से जिनके भय उत्पन्न हो रहा है ऐसे छोटे छोटे पशु प्रलयकालके समान विजयार्ध पर्वतकी गुफाओं के मध्य भागका आश्रय ले रहे थे । भावार्थ - जिस प्रकार प्रलयकालके समय जीव विजयार्धकी गुफाओं में जा छिपते हैं उसी प्रकार उस समय भी अनेक जीव सेनाके शब्दों से डरकर विजयार्धकी गुफाओं में जा छिपे थे ||२७|| जिनके पीछे पीछे बच्चे दौड़ रहे हैं और जिनका शरीर कँप रहा है ऐसे डरे हुए हरिण चारों ओर भाग रहे थे तथा वे उस समय ऐसे मालूम होते थे मानों भयरूपी रससे सींचे हो गये हों ||२८|| सेनाके क्षोभसे जिन्होंने जलसे भरे हुए छोटे छोटे तालाब ( तलैया) छोड़ दिये हैं और जिनके झुण्ड विखर गये हैं ऐसे सूअर अपने उत्तम आहार में प्रेम छोड़कर इधर उधर घुस रहे थे ।। २९ ।। कितने ही अन्य हाथी भय से भागकर वृक्षोंसे ढकी हुई जगह में छिपकर जा खड़े हुए थे और हरिण सिंहों की गुफाओं १ अधिकम् । २ तत्रसुः । ३ धवलः । ४ रेजे । ५ शोभनध्वनिः । ६ सुव्यक्तावयवः । ७ देवगणः । Ε विवृतमकरोत् । पृष्ठवत्तभिः । १० निर्माणकर्म अथवा विधिः । ११ पाषाणो ल० । १२ रोषेणारुणीकृतः । १३ निर्भीतिः । १४ सेनाध्वन्याकर्णनाज्जात । १५ प्रलयकाले यथा । १६ अनुगताः । १७ कम्पमानशरीराः । १८ उत्कृष्टाहारप्रीतिम् । १६ त्यक्तवेशन्ताः । २० नश्यन्ति स्म । विविशुः ल० । २१ विप्रकीर्णवृन्दाः । २२ वृक्षविशेषाच्छादनाः सन्तः । २३ सिंहः । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तम पर्व इति सत्त्वा वनस्येव प्राणाः प्रचलिता भृशम् । प्रत्यापत्ति' चिराद् ईयुः सैन्यक्षोभे प्रसेदुषि ॥३१॥ "प्रयायानुवनं किञ्चिद् अन्तरं तदनन्तरम् । रूप्याद्रेमध्यमं कूटं सन्निकृष्य स्थितं बलम् ॥३२॥ ततस्तस्मिन् वने मन्दं मरुतां दोलितदुमे । नपाज्ञया बलाध्यक्षाः स्कन्धावारं न्यवेशयन् ॥३३॥ स्वैरं जगहरावासान् सैनिकाः सानुमत्तटे । स्वयं गलत्प्रसनौष घनशाखि घने वने ॥३४॥ सरस्तीरतरूपान्तलतामण्डपगोचराः। रम्या बभूवुरावासाः सैनिकानामयत्नतः ॥३५॥ वनप्रवेशम् उन्मुग्धाः प्राहुर्वैराग्यकारणम् । तत्प्रवेशो यतस्तेषाम् अभवद् रागवृद्धये ॥३६॥ अथ तत्र कृतावासं ज्ञात्वा सनियमं प्रभुम् । अगाम्मागधवत् द्रष्टुं विजया धिपः सुरः ॥३७॥ तिरीटशिखरोवप्रो लम्बप्रालम्बनिर्भरः । स भास्वस्कटको२ रेजे राजताद्रिरिवापरः ॥३८॥ सितांशुकधरः स्रग्वी हरिचन्दनचचितः। स बभौ धृत्तरत्ना? निधिः शङख इवोच्छितः ॥३६॥ ससंभमं च सोऽभ्येत्य प्रसतामगमत्प्रभोः । ससत्कारं च तं चक्री भद्रासनमलम्भयत् ॥४०॥ के भीतर ही जा ठहरे थे ॥३०॥ इस प्रकार वनके प्राणोंके समान अत्यन्त चंचल हुए प्राणी सेनाका क्षोभ शान्त होनेपर बहुत देरमें अपने अपने स्थानोंपर वापिस लौटे थे ॥३१॥ तदनन्तर वह सेना वन ही वन कुछ दूर जाकर विजया पर्वतके पाँचवें कूटके समीप पहुँचकर ठहर गई ॥३२।। सेनाके ठहरनेपर सेनापतियोंने महाराजकी आज्ञासे, जिसके वृक्ष मन्द मन्द वायुसे हिल रहे थे ऐसे उस वनमें सेनाके डेरे लगवा दिये थे ॥३३॥ जिसमें अपने आप फूलोंके समूह गिर रहे हैं और जो घने घने लगे हुए वृक्षोंसे सघन हैं ऐसे विजयाध पर्वतके किनारके वनमें सैनिक लोगोंने अपने इच्छानुसार डेरे ले लिये थे ॥३४॥ सरोवरोंके किनारेके वृक्षोंके समीप ही जो लतागृहों के स्थान थे वे बिना प्रयत्न किये ही सेनाके लोगोंके मनोहर डेरे हो गये थे ॥३५॥ 'वनमें प्रवेश करना वैराग्यका कारण है, ऐसा मूर्ख मनुष्य ही कहते हैं क्योंकि उस वनमें प्रवेश करना उन सैनिकोंकी रागवृद्धिका कारण हो रहा था। भावार्थ-वनमें जानेसे सेनाके लोगोंका राग बढ़ रहा था इसलिये वनमें जाना वैराग्यका कारण है ऐसा कहनेवाले पुरुष मूर्ख ही हैं॥३६॥ __ अथानन्तर-महाराज भरतको वहाँ नियमानुसार ठहरा हुआ जानकर विजया पर्वतका स्वामी विजया नामका देव मागध देवके समान भरतके दर्शन करने के लिये आया ॥३७॥ उस समय वह देव किसी दूसरे विजया पर्वतके समान सुशोभित हो रहा था, क्योंकि जिस प्रकार विजयाध पर्वत शिखरसे ऊंचा है उसी प्रकार वह देव भी मुकुटरूपी शिखरसे जिस प्रकार विजयाई पर्वतपर झरने झरते हैं उसी प्रकार उस देवके गलेमें भी झरनों के समान हार लटक रहे थे और जिस प्रकार विजया पर्वतका कटक अर्थात् मध्यभाग देदीप्यमान है उसी प्रकार उसका कटक अर्थात् हाथोंका कड़ा भी देदीप्यमान था ।।३८।। जो सफेद वस्त्र धारण किये हुए हैं, मालाएँ पहिने है, जिसके शरीरपर सफेद चन्दन लगा हुआ है और जो रत्नोंका अर्थ धारण कर रहा है ऐसा वह देव खड़ी की हुई शंख नामक निधिके समान सुशोभित हो रहा था ॥३९॥ उस देवने बड़ी शीघताके साथ आकर चक्रवर्तीको नमस्कार किया और १ पुनस्तत्प्राप्तिम् पूर्वस्थितिमित्यर्थः । २ जग्मुः । ३ प्रशान्ते सति । ४ गत्वा । ५ रौप्याद्रः प०, द०, ल०। रूपानेः अ० स० द०। ६ समीपं गत्वा । ७ अद्रिसानौ । ८ 'निष निमित्तसमारोहपरिणाहघनोद्घनाघनोपघ्ननिघोग्घसंघामूर्त्यत्यादानाङगासन्ननिमित्तप्रशस्तगणा' इति सूत्रेण निमित्तार्थ्य निघशब्दो निपातितः निमित्तशब्दः समारोहपरिणाहे वर्तते ऊर्ध्वविशालतायां वर्तते इत्यर्थः । समारोहपरिणाह 'परिणाहो विशालता' उत्सेधः विशालः इत्यर्थः । अस्मिन्नर्थे घनोद्घनापघनोपध्ननिघद्घ संघा मूर्त्यत्यादानाङगासन्ननिमित्तप्रशस्तगणा इति निपातनात् सिद्धिः । ६ जडाः । १० यस्मात् कारणात् । ११ ऋजुलम्बिहारः । १२ करवलयः एव सानु । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् गोपायिताऽहमस्याद्रेः मध्यमं कूटमावसन् । स्वैरचारी चिरादद्य त्वयाऽस्मि परवान् विभो ॥४१॥ विद्धि मां विजया ख्यम् अमुं च गिरिमूजितम् । अन्योऽन्य संश्रयाद् आवाम् प्रलंघ्यावचलस्थिती ॥४२॥ देव दिग्विजयस्याद्ध विभजन्नेष सानुमान् । विजयार्द्धश्रुति धत्ते 'तात्स्थ्यात् तद्रूढयो वयम् ॥४३॥ आयुष्मन् युष्मदीयाज्ञां मूर्ना स्रजमिवोद्वहन् । पदातिनिविशेषोऽस्मि विज्ञाप्यं किमतः परम् ॥४४॥ इति वस्तथोत्थाय "शिवस्तीर्थाम्बुभिः प्रभुम् । 'सोऽभ्यषिञ्चत् सरैः साद्धं स्वं नियोगं निवेदयन् ॥४५॥ तदा प्रणेदुरामन्द्रम् प्रानकाः पथि वार्मुचाम् । विचेरुर्मरुतो मन्दम् प्राधूतवनवीययः ॥४६॥ ननु तुः सुरनर्तक्यः सलीलानतितवः। जगुश्च मङगलान्यस्य जयशंसोनि किन्नराः ॥४७॥ कृताभिषेकमेनं च शुभनेपथ्यधारिणम् । युयोज रत्नलाभेन लम्भयन् स जयाशिषः ॥४८॥ स तस्म रत्नभृङगारं सितमातपवारणम् । प्रकीर्णक युगं दिव्यं ददौ च हरिविष्टरम् ॥४६॥ इति प्रसाधितस्तेन वचोभिः सानुवर्तनः। प्रसादतरलां दृष्टिं तत्र व्यापारयत् प्रभुः ॥५०॥ विजितश्च सानुशं प्रभुणा कृतसत्क्रियः । भूत्यत्वं प्रतिपद्यास्य स्वमोकः प्रत्यगात् सुरः ॥५॥ विजयाद्धे जिते कृत्स्नं जितं दक्षिणभारतम् । मन्वानो निधिराट् तच्च चक्ररत्नमपूजयत् ॥५२॥ चक्रवर्तीने भी उसे सत्कारपूर्वक उत्तम आसनपर बैठाया ॥४०॥ भरतसे उस देवने कहा कि मैं इस पर्वतका रक्षक हूँ और इस पर्वतके बीचके शिखरपर रहता हूँ। हे प्रभो, मैं आजतक अपनी इच्छानुसार रहता था-स्वतन्त्र था परन्तु आज बहुत दिनमें आपके आधीन हुआ हूँ ॥४१॥ मझे तथा इस ऊँचे पर्वतको आप विजया/ जानिये अर्थात हम दोनोंका नाम विजया है और हम दोनों ही परस्पर एक दूसरेके आश्रयसे अलंन्य तथा निश्चल स्थितिसे युक्त हैं ॥४२॥ हे देव, यह पर्वत दिग्विजयका आधा आधा विभाग करता है इसलिये ही यह विजयार्ध नामको धारण करता है और उसपर रहनेसे मेरा भी विजयार्ध नाम रूढ़ हो गया है ॥४३॥ हे आयुष्मन्, मैं आपकी आज्ञाको मालाके समान मस्तकपर धारण करता हूँ और आपके पैदल चलनेवाले एक सैनिकके समान ही हूँ, इसके सिवाय में और क्या प्रार्थना करूँ ? ॥४४॥ इस प्रकार कहता हुआ और दिग्विजय करनेवाले चक्रवर्तियोंका अभिषेक करना मेरा काम है' इस तरह अपने नियोगकी सूचना करता हुआ वह देव उठा और अनेक देवोंके साथ साथ कल्याण करनेवाले तीर्थजलसे सम्राट भरतका अभिषेक करने लगा ।।४५।। उस समय आकाशमें गंभीर शब्द करते हुए नगाड़े बज रहे थे और वन-गलियोंको कम्पित करता हुआ वायु धीरे धीरे बह रहा था ॥४६।। लीलापूर्वक भौंहोंको नचाती हुई नृत्य करनेवाली देवांगनाएँ नृत्य कर रही थीं और किन्नर देव भरतकी विजयको सूचित करनेवाले मंगलगीत गा रहे थे ॥४७॥ तदनन्तर जिनका अभिषेक किया जा चुका है और जो सफेद वस्त्र धारण किये हुए हैं ऐसे भरतको विजय करनेवाला आशीर्वाद देते हुए उस देवने अनेक रत्नोंकी प्राप्तिसे युक्त किया अर्थात् अनेक रत्न भेंट किये ॥४८॥ उस देवने उनके लिये रत्नोंका भृङ्गार, सफेद छत्र, दो चमर और एक दव्य सिंहासन भी भेट किया था ॥४९॥ इस प्रकार ऊपर लिखे हुए सत्कारसे तथा विनयसहित वचनोंसे प्रसन्न हुए भरतने उस देवपर प्रसन्नतासे चंचल हुई अपनी दृष्टि डाली ॥५०॥ अनन्तर भरतने जिसका आदर-सत्कार किया है और 'जाओ' इस प्रकार आज्ञा देकर जिसे बिदा किया है ऐसा वह विजया देव उनका दासपना स्वीकार कर अपने स्थानपर वापिस चला गया ॥५१॥ विजयार्ध पर्वतके जीत लेनेपर समस्त दक्षिण भारत जीत लिया गया १ रक्षिता। २ नाथवान् परवश इत्यर्थः । 'परवान्नाथवानपि' इत्यभिधानात् । ३ परस्परमाधाराधेयरूपसंश्रयात् । ४ तस्मिन् तिष्ठति इति तत्स्थ: तस्य भावः तात्स्थ्यम् तस्मात् । ५ विजयार्द्ध इति रूढयः । ६ पत्तिसदृशः । ७ मङगलैः । ८ विजयार्द्धकुमारः। चामरयुगलम् ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तम पर्व ૨૦૨ गन्धः पुष्पश्च धूपैश्च दीपैश्च सजलाक्षतः। फलैश्च तरुभिः दिव्यश्चक्रेज्यां निरवर्तयत् ॥५३॥ विजयार्द्धजयऽप्यासीद् अमन्दोऽस्य जयोद्यमः । उत्तरार्द्धजयाशंसा' प्रत्यागूर्णस्य चक्रिणः ॥५४॥ ततः प्रतीपमागत्य रूप्याद्रे पश्चिमां गुहाम् । निकषा वनमारुध्य बलरीशो न्यविक्षत ॥५५॥ दक्षिणेन तमद्रीन्द्र मध्य वेदिक योद्धयोः । बलं निविविशे भर्तुः सिन्धोस्तटवनाद् बहिः ॥५६॥ भूयो द्रष्टव्यमत्रास्ति बह्वाश्चर्य धराधरे। इति तत्र चिरावासं बहु मेने किलाधिराट् ॥५॥ चिरासनेऽपि तत्रास्य नासीत् स्वल्पोऽप्युपक्षयः । प्रत्युतापूर्वलाभेन प्रभुरापूर्यताब्धिवत् ॥५॥ कृतासनं च तत्रैनं श्रुत्वा द्रष्टुमुपागमन् । पार्थिवाः पृथिवीमध्यात् मध्ये नद्योर्द्वयोः स्थितः ॥५६॥ दूरानतचलन्मौलिसंदष्टकरकटमला:१२ । प्रणमन्तः स्फुटीचक्रुः प्रभौ भक्ति महीभुजः ॥६०॥ कुडकुमागरुक'रसुवर्णमणिमौक्तिकः । रत्नैरन्यैश्च रत्नेशं भक्त्यानचुनृपाः परम् ॥६१॥ विष्वगापूर्यमाणस्य रैराशिभिरनारतम् । कोश"प्रावेशरत्नानाम् इयत्तां कोऽस्य निर्णयेत् ॥६२॥ देशाध्यक्षा बलाध्यक्षः बलं सुकृतरक्षणम् । यवसेन्धन"सन्धानैः तदोपजगृहुश्चिरम् ॥६३॥ उत्तरार्द्धजयोद्योगं प्रभोः श्रुत्वा तदागमन् । पार्थिवाः कुरुराजाद्याः समग्रबलवाहनाः ॥६४॥ ऐसा मानते हुए चक्रवर्तीने चक्ररत्नकी पूजा की ॥५२।। उन्होंने चक्ररत्नकी पूजा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, जल, अक्षत, फल और दिव्य नैवेद्यके द्वारा की थी ॥५३॥ विजयाध पर्वत तक वजय कर लेनेपर भी उत्तरार्धको जीतनेकी आशासे उद्यत हए चक्रवर्तीका विजयका उद्योग शिथिल नहीं हुआ था ॥५४॥ तदनन्तर-वह भरत कुछ पीछे लौटकर विजयाध पर्वतकी पश्चिम गुहाके समीपवर्ती वनको अपनी सेनाके द्वारा घेरकर ठहर गया ॥५५।। विजयार्ध पर्वतके दक्षिणकी ओर पर्वत तथा वन दोनोंकी वेदियोंके बीचमें सिन्धु नदीके किनारेके वन के बाहर भरतकी सेना ठहरी थी ॥५६॥ अनेक आश्चर्योंसे भरे हुए इस पर्वतपर बहुत कुछ देखने योग्य है यही समझकर चक्रवर्तीने वहां बहुत दिन तक रहना अच्छा माना था ।।५७॥ वहाँपर बहुत दिनतक रहने पर भी भरतका थोड़ा भी खर्च नहीं हुआ था, बल्कि अपूर्व अपूर्व वस्तुओंके लाभ होनेसे वह समुद्र के समान भर गया था ।।५८।। भरतको वहां रहता हुआ सुनकर गङ्गा और सिन्धु दोनों नदियोंके बीचमें रहनेवाले अनेक राजा लोग अपनी अपनी पृथिवीसे उनके दर्शन करनेके लिये आये थे ॥५९।। दूरसे झुके हुए चंचल मुकुटोंपर जिन्होंने अपने हाथ जोड़कर रक्खे हैं ऐसे नमस्कार करते हुए राजा लोग महाराज भरतमें अपनी भक्ति प्रकट कर रहे थे ॥६०॥ उन राजाओंने केशर, अगुरु, कपूर, सुवर्ण, मोती, रत्न तथा और भी अनेक वस्तुओंसे भक्तिपूर्वक चक्रवर्तीका उत्तम सन्मान किया था ।।६१॥ धनकी राशियों से निरन्तर चारों ओरसे भरते हुए भरतके खजाने में प्रविष्ट हुए रत्नोंकी मर्यादा (संख्या) का भला कौन निर्णय कर सकता था ? भावार्थ--उसके खजाने में इतने अधिक रत्न इकट्ठे हो गये थे कि उनकी गणना करना कठिन था ।।६२।। उस समय समीपवर्ती देशोंके राजाओंने, सेनापतियोंके द्वारा जिसकी अच्छी तरह रक्षा की गई है ऐसी भरतकी सेनाको चिरकाल तक भूसा, ई धन आदि वस्तुएँ देकर उपकृत किया था ॥६३॥ महाराज भरत विजयार्ध पर्वतसे उत्तर भागको जीतनेका उद्योग कर रहे हैं यह सुनकर कुरु देशके राजा जयकुमार १ इच्छामुद्दिश्य । २ उद्यतस्य । ३ पश्चिमदिशम् । ४ रौप्याद्रः प० । रूप्याद्रेः अ० स० इ०। ५ वनस्य समीपम् । ६ तस्य अद्रीन्द्रस्य दक्षिणस्यां दिशि । ७ पर्वतवेदिकावनवेदिकयोः । ८ बहुकालनिवसने सत्यपि । ६ धनव्ययः । १० पुनः किमिति चेत् । ११ गंगासिन्धुनदीमध्यात् । १२ कुड्मलाः द०, ल०, अ०, स०, इ० । १३ कालागुरु कालागुर्वगुरुः स्याद्' इत्यमरः । १४ भाण्डागारप्रवेशयोग्य । १५ तृण । १६ उपकारं चक्रुः । १७ सोमप्रभपुत्राद्याः । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महापुराणम् पाहताः केचिदाजग्मुः प्रभुणा मण्डलाधिपाः । अनाहताश्च संभेजः विभुं चारुभटा: परे ॥६५॥ विदेशः किल यातव्यो जेतव्या म्लेच्छभूमिपाः । इति संचिन्त्य सामन्तःप्रायः सज्ज धनबलम् ॥६६॥ धन्विनः शरनाराचसंभूतेषुधिबन्धनैः । न्यवेदयन्निवात्मान् ऋणदासमधोशिनाम् ॥६७॥ धनुर्धरा धन: सज्ज्यम् प्रास्फाल्य चकृषः परे। चिकीर्षव इवारीणां जीवाकर्ष सहुडकृताः ॥६॥ करवालान् करे कृत्वा तुलयन्ति स्म केचन । स्वामिसत्कारभारेण नूनं तान् प्रमिमित्सवः ॥६६॥ १°संमिता भृशं रेजुः भटाः प्रोल्लासितासयः । निर्मोकरिव विश्लिष्टः ललज्जिह्वामहाहयः ॥७०॥ साटोपं स्फुटिताः केचिद् वल्गन्ति स्माभितो भटाः । अस्युद्यताः पुरोऽरातीन् पश्यन्त इव सम्मुखम् १"अस्त्रय॑स्त्रैश्च शस्त्रैश्च शिरस्त्रैः२° सतन्त्रकैः । वधुर्जयनशालानां लीलां रथ्याः सुसम्भूताः।७२। रथिनो रथकटयासु" गुर्वीरायुधसंपदः । समारोप्यापि पत्तिभ्यो भेजुरेवातिगौरवम् ॥७३॥ तथा और भी अनेक राजा लोग अपनी समस्त सेना और सवारियां लेकर उसी समय आ पहुंचे ॥६४॥ कितने ही मण्डलेश्वर राजा भरतके बुलाये हुए आये थे और कितने ही उत्तम उत्तम योद्धा बिना बुलाये ही उनके समीप आ उपस्थित हुए थे ॥६५॥ अब विदेशमें जाना है और म्लेच्छ राजाओंको जीतना है यही विचार कर सामन्तोंने प्रायः धनष-बाणको धारण करने वाली सेना तैयार की थी ॥६६॥ धनुष धारण करनेवाले योद्धा छोटे-बड़े बाणोंसे भरे हुए तरकसोंके बाँधनेसे ऐसे जान पड़ते थे मानो वे अपने स्वामियोंसे यही कह रहे हों कि हम लोग आपके ऋणके दास हैं अर्थात् आज तक आप लोगोंने जो हमारा भरणपोषण किया है उसके बदले हम लोग आपकी सेवा करनेके लिये तत्पर है ॥६७॥ हुंकार शब्द करते हुए कितने ही धनुषधारी लोग अपने डोरी सहित धनुषको आस्फालन कर खींच रहे थे और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शत्रुओंके जीवोंको ही खींचना चाहते हों ॥६८॥ कितने ही योद्धा लोग हाथमें तलवार लेकर उसे तोल रहे थे मानो स्वामीसे प्राप्त हुए सत्कारके भारके साथ उसका प्रमाण ही करना चाहते हों ॥६९।। जो कवच धारण किये हुए हैं और जिनकी तलवारें चमक रही हैं ऐसे कितने ही योद्धा इतने अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनकी काँचली कुछ ढीली हो गई है और जीभ बार-बार बाहर लपक रही है ऐसे बड़े बड़े सर्प ही हों ॥७०॥ कितने ही योद्धा अभिमानसहित हाथ में तलवार उठाये और गर्जना करते हुए चारों ओर इस प्रकार घूम रहे थे मानो शत्रुओंको अपने सामने ही देख रहे हों ॥७१॥ आग्नेय बाण आदि अस्त्र, महास्तम्भ आदि व्यस्त्र, तलवार धनुष आदि शस्त्र, शिरकी रक्षा करनेवाले लोहके टोप और कवच आदिसे भरे हुए रथोंके सम्ह ठीक आयुधशालाओंकी शोभा धारण कर रहे थे ।।७२।। रथोंमें सवार होनेवाले योद्धा यद्यपि भारी भारी शस्त्रोंको रथोंपर रखकर जा रहे थे तथापि १ वीरभटाः । 'शूरवीरश्च विक्रान्तो भरश्चारभटो मतः' इति हलायुधः। २ नानादेशः । ३ भूभुजः म०, द०, अ०, प०, स०, ल०, इ० । ४ सन्नद्धीकृतम् । ५ ज्यासहितम्। ६ आताड्य, टणत्कारं कृत्वा । स्फाल्या कृष : ब०, ८०, अ०, म०, प०, स०, ल०, इ०। ७ आकर्षयन्ति स्म । ८ भारेण सह । ६ प्रमातुमिच्छवः । १० धृतकवचाः । ११ प्रकर्षेणोल्लासितखड्गाः । १२ शिथिलैः । १३ चलत् । १४ आस्फालिते भुजाः। १५ खड्गे उद्युक्ताः। १६ शत्रून् प्रत्यक्षमालोकयन्निव । १७ दिव्यायुधः । १८ गरलगुडाद्यायुधैः । १६ सामान्यायुधैः । २० शीर्षकः । २१ शस्त्रशालानाम्। २२ वीथ्याः । २३ रथिकाः । २४ रथसमूहेषु । २५ अतिश्लाघनम् । अति भारयुक्तमिति ध्वनिः, अत्यर्थ वेगं गता इत्यर्थः । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तमं पर्व १०३ हस्तिनां पदरक्षायं सुभटा योजिता नृपं । राजन्यैः सह युध्वानः कृताश्चाभिनिषादिनः ॥ ७४ ॥ प्रवीरा राजपुध्वानः क्लृप्ताः पत्तिषु नायकाः । श्रश्वीये' च ससन्नाहा: ' सोत्तरङगा स्तुरङगिणः ॥७५॥ प्राचरय्य बलान्येके स्वानीक्षांचक्रिरे नृपाः । दण्डमण्डलभोगासंहृतव्यूहः * सुयोजितैः ॥७६॥ चक्रिणोऽवसरः कोऽस्य योऽस्माभिः साध्यतेऽल्पकैः । भक्तिरेषा तु नः काले प्रभोर्यदनुसर्पणम् ॥७७॥ प्रभोरवसरः सार्य:' प्रसार्य तो यशोधनम् । विरोधिबलमुत्सायं सन्धायं पुरुषव्रतम् ॥७८॥ द्रष्टव्या विविधा देशा लब्धव्याश्च जयाशिषः । इत्युदाचक्रिरे ऽन्योन्यं भटाः श्लाघ्यैरुदाहृतः ॥७६॥ गिरिदुर्गोऽयमुल्लङ्घयो महत्यः सरितोऽन्तरा" । इत्यपायेक्षिणः केचिद् श्रयानं बहु मेनिरे ॥८०॥ इति नानाविधर्भावः संजल्पश्च लघूत्थिताः । प्रस्थिताः सैनिकाः प्रापन् सेश्वराः शिबिरं प्रभोः ॥८१॥ वे पैदल चलनेवाले सैनिकों की अपेक्षा अधिक गौरव अर्थात् भारीपन ( पक्षमें श्रेष्ठता ) को प्राप्त हो रहे थे । भावार्थ- पैदल चलनेवाले सैनिक अपने शस्त्र कन्धेपर रखकर जा रहे थे और रथोंपर सवार होनेवाले सैनिक अपने सब शस्त्र रथोंपर रखकर जा रहे थे तो भी वे पैदल चलनेवालों की अपेक्षा अधिक भारी हो रहे थे यह बड़े आश्चर्यकी बात है परन्तु अति गौरव शब्दका अर्थ अतिशय श्रेष्ठता लेनेपर वह आश्चर्य दूर हो जाता है । पैदल सैनिकों की अपेक्षा रथपर सवार होनेवाले सैनिक श्रेष्ठ होते ही हैं ॥७३॥ राजाओंने हाथियोंके पैरोंकी रक्षा करनेके लिये जिन शूरवीर योद्धाओंको नियुक्त किया था वे अनेक राजाओं के साथ युद्ध करते थे और उन हाथियोंके चारों ओर विद्यमान रहते थे अथवा समय पर महावत भी बनाये जाते थे ||७४ || जो राजाओं के साथ भी युद्ध करनेवाले थे ऐसे श्रेष्ठ शूर वीर पैदल सेनाके सेनापति बनाये गये थे और जो घुड़सवार कवच पहिने हुए तथा लहराते हुए नदी के प्रवाहके समान थे उन्हें घुड़सवार सेनाका सेनापति बनाया था ॥ ७५ ॥ कितने ही राजा लोग अच्छी तरह रचे हुए दण्डव्यूह, ( दण्डके आकार सेनाको सीधी रेखामें खड़ा रखना) मण्डल व्यूह, ( मण्डलके आकार गोल चक्कर लगाकर खड़ा रखना ), भोगव्यूह ( अर्धगोलाकार खड़ा करना) और असंहृत व्यूह, ( फैलाकर खड़ा करना) से अपनी सेनाकी रचना कर उसे देख रहे थे ॥ ७६ ॥ इस चक्रवर्तीका ऐसा कौन-सा कार्य है जिसका हम तुच्छ लोग स्मरण भी कर सकते हों अर्थात् कार्यका सिद्ध करना तो दूर रहा उसका स्मरण भी नहीं कर सकते, फिर भी हम लोग जो स्वामी के पीछे पीछे चल रहे हैं सो यह हम लोगोंकी इस समयपर होने वाली भक्ति ही है । हम लोगोंको स्वामीका कार्य सिद्ध करना चाहिये, अपना यशरूपी धन फैलाना चाहिये, शत्रुओंकी सेना दूर हटानी चाहिये, पुरुषार्थ धारण करना चाहिये, अनेक देश देखने चाहिये और विजयके अनेक आशीर्वाद प्राप्त करने चाहिये, इस प्रकार प्रशंसनीय उदाहरणों के द्वारा योद्धा लोग परस्परमें बातचीत कर रहे थे ।। ७७-७९ ।। यह दुर्गम पर्वत उल्लंघन करना है और बीचमें बड़ी-बड़ी नदियाँ पार करनी हैं इस प्रकार अनेक विघ्न-बाधाओं का विचार करते हुए कितने ही लोग आगे नहीं जाना ही अच्छा समझते थे ||८०|| इस प्रकार अनेक प्रकारके भावों और परस्परकी बातचीतके साथ जल्दी उठकर जिन्होंने प्रस्थान किया है ऐसे सैनिक लोग अपने अपने स्वामियों सहित चक्रवर्ती के शिविरमें जा पहुंचे ॥८१॥ १ अश्वसमूहे । २ सकवचाः । ३ ऊर्मिसमानाः । ४ दण्डादीनि चत्वारि व्यूहभेदनामानि । अत्राभिधानम् तिर्यग्वृत्तिस्तु दण्डः स्याद् भोगोऽन्यावृत्तिरेव च । मण्डलं सर्वतो वृत्तिः प्रागवृत्तिरसंहृतः' । ५ समयः । ६ स्मर्यते द०, ल० अ०, प०, ह०, स० । ७ अनुवर्तनम् । ८ प्रापणीयः । ६ ऊचिरे । १० मध्ये मध्ये । ११ वानरहितत्वम् अथवा अगमनम् । १२ निजस्वामिसहिताः । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महापुराणम् प्रचेलुः सर्वसामग्रया नपाः सम्भतकोष्ठिकाः । प्रभोश्चिरं जयोद्योगम् प्राकलय्याहिमाचलम् ॥८२॥ भटाकुटिकः केचिद्धता लालाटिकः' पर। नृपाः पश्चात्कृतानीका विभोनिकटमाययुः ॥८३॥ समन्तादिति सामन्तरापतभिः ससाधनैः । समिद्धशासनश्चक्री समेत्य जयकारितः ॥४॥ सामवायिक सामन्तसमाजैरिति सर्वतः । सरिदोघेरिवाम्भोधिः प्रापूर्यत विभोर्बलम् ॥८॥ सवनः सावनिः सोऽद्रिः परितो रुरुधे बलैः । जिनजन्मोत्सवे मेरुः अनीकैरिव नाकिनाम् ॥८६॥ विजया चलप्रस्था० विभोरध्यासिता बलैः । स्वर्गावासश्रियं तेनुः विभक्तपमन्दिरैः ॥८७॥ प्रक्ष्वेलित रथं विष्वक् प्रहेषिततुरङ्गमम् । प्रबृहितगजं सैन्यं ध्वनिसादकरोद् गिरिम् ॥८॥ बलध्वानं गुहारन्छः प्रतिभृद्भुत मुद्वहन् । सोऽद्रिरुद्रिक्ततद्रोधो५ धवं फूत्कारमातनोत् ॥८६॥' अत्रान्तरे ज्वलन्मौलिप्रभापिञ्जरिताम्बरः। ददृशे प्रभुणा व्योम्नि गिरेरवतरत् सुरः ॥१०॥ स ततोऽवतरन्नद्रेः बभौ सानुचरोऽमरः । सवनः कल्पशाखीव लसदाभरणांशुकः ॥१॥ . भरतेश्वरका हिमवान् पर्वत तक विजय प्राप्त करनेका उद्योग बहुत समयमें पूर्ण होगा ऐसा समझकर राजा लोग सब प्रकारकी सामग्रीसे कोठे भर भरकर निकले ॥८२॥ कितने ही राजा लाठी धारण करनेवाले योद्धाओंके साथ, और कितने ही ललाटकी ओर देखनेवाले उत्तम सेवकोंके साथ, अपनी सेना पीछे छोड़कर भरतके निकट आये ।।८३।। इस प्रकार अपनी अपनी सेना सहित चारों ओरसे आते हुए अनेक सामन्तोंने एक जगह इकट्ट हो कर, जिनकी आज्ञा सब जगह देदीप्यमान है ऐसे चक्रवर्तीका जयजयकार किया ॥८४॥ जिस प्रकार नदियोंके समहसे समुद्र भर जाता है उसी प्रकार सहायता देनेवाले सामन्तोंके सम्हसे भरतकी सेना सभी ओरसे भर गई थी ।।८५।। जिस प्रकार भगवान्के जन्म-कल्याणके समय बन और भूमि सहित सुमेरु पर्वत देवोंको सेनाओंसे भर जाता है उसी प्रकार वह विजयार्ध पर्वत भी वन और भमि सहित चारों ओरसे सेनाओंसे भर गया था ॥८६॥ भरतकी सेनाओंसे अधिष्ठित हुए विजयार्ध पर्वतके शिखर अलग अलग तने हुए राजमण्डपोंसे स्वर्गकी शोभा धारण कर रहे थे ॥८७। जिसमें चारों ओरसे रथ चल रहे हैं, घोडे हिनहिना रहे हैं, और हाथी गरज रहे हैं ऐसी उस सेनाने उस विजयार्ध पर्वतको एक शब्दोंके ही आधीन कर दिया था अर्थात् शब्दमय बना दिया था ॥८८॥ गफाओंके छिद्रोंसे जिसकी प्रतिध्वनि निकल रही है ऐसे सेना के शब्दोंको धारण करता हुआ वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो सेनासे घिर जानेके कारण फू फू शब्द ही कर रहा हो अर्थात् रो ही रहा हो ॥८९॥ इसी बीचमें भरतने, देदीप्यमान मुकुटकी कान्तिसे जिसने आकाशको भी पीला कर दिया है और जो पर्वतपरसे नीचे उतर रहा है ऐसा एक देव आकाशमें देखा ॥९०॥ जिसके आभूषण तथा वस्त्र देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा वह देव अपने सेवकों सहित उस पर्वतसे उतरता हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो जिसके आभूषण और वस्त्र देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा वनसहित १ भूपाः ल० । २ तण्डुलादिभारवाहकबलीबर्दाः । ३ लकुटम् आयुधं येषां तैः। ४ प्रभोर्भावशिभिः 'लालाटिकः प्रभोर्भावदर्शी कार्यक्षमश्च यः' इत्यभिधानात् । ५ जयकारं नीतः संजातजयकारो वा जय जयति स्तुत इति यावत् । ६ मिलित । ७ वनसहितः । ८ अवनिसहितः । ६ सैन्यः । १० सानवः । ११ मण्डलैः ल०। १२ सिंहनादित 'क्ष्वेडा तु सिंहनादः स्यात्' इत्यभिधानात् । १३ शब्दमयमकरोत् । १४ प्रतिध्वनितम् 'सती प्रतिश्रुतप्रतिध्वाने' इत्यभिधानात् । १५ उत्कटसेनानिरोधः । १६ अनचरैः सहितः । १७ वनेन सहितः । . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिशत्तमं पर्व १०५ दिव्यः प्रभान्वयः कोऽपि सम्मुर्छति किमम्बरे । तडित्पुञ्जः किमग्यचिरिति दृष्टः क्षणं जनः ॥१२॥ किमप्येतदधिज्योतिरित्यादावविशेषतः । पश्चादवयवव्यक्त्या प्रव्यक्तपुरुषाकृतिः ॥१३॥ कृतमालश्रुतिव्यक्त्यै' कृतमालः स चम्पकैः । कृतमाल इवोत्फुल्लो निदध्ये प्रभुणाऽग्रतः ॥१४॥ सप्रणामं च संप्राप्तं तं वीक्ष्य सहसा विभुः। यथाहप्रतिपत्त्याऽस्मै प्रासनं प्रत्यपादयत् ॥६॥ प्रभुणाऽनुमतश्चायं कृतासनपरिग्रहः । क्षणं विसिस्मिये पश्यन् धामा मुष्याति मानुषम् ॥६६॥ संभाषितश्च संभ्राजा पूर्व पूर्वार्द्धभाषिणा । सुरःप्रचक्रमे वक्तुमिति प्रश्रयवद्वचः ॥१७॥ क्व वयं क्षुद्रका देवाः क्व भवान्दिव्यमानुषः । पौतन्यमुचितं मन्ये २ वाचाटयति नः स्फुटम् ॥१८॥ आयुष्मन् कुशलं प्रष्ट जिहीमः" शासितुस्तव । त्वदायत्ता यतःर" कृत्स्ना जगतः कुशलक्रिया ॥६॥ लोकस्य कुशलाधाने निरूढं यस्य कौशलम् । कुशल"दक्षिणस्याऽस्य बाहोस्ते मां जिगीषतः ।१०० देवानां प्रिय देवत्वं तवाशेषजगज्जयात् । नाम्नैव तु वयं देवा जातिमात्रकृतोक्तयः ॥१०॥ गीर्वाणा वयमन्यत्र २० जिगीषौ शितगीश्शराः । त्वयि कुण्ठगिरो जाताःप्रस्खलद्गर्वगद्गदाः॥१०२ कल्पवृक्ष ही हो ।।९।। क्या कोई दिव्य प्रभाका समुह आकाशमें फैल रहा है ? अथवा क्या बिजलीका समह है ? अथवा क्या अग्निकी ज्वाला है ? . इस प्रकार अनेक कल्पनाओं से लोगोंने जिसे क्षण भर देखा था जो पहले तो यह कोई कान्तिका समूह है इस प्रकार सामान्य रूपसे देखा गया था, परन्तु बादमें अवयवोंके प्रकट होनेसे जिसका पुरुषका-सा आकार साफ साफ प्रकट हो रहा था, जो अपना कृतमाल नाम प्रकट करने के लिये चम्पाके फूलोंकी माला पहिने हुआ था और जो उससे फूले हुए कृतमाल वृक्षके समान जान पड़ता था ऐसे उस देवको चक्रवर्ती भरतने अपने सामने खड़ा हुआ देखा ।।९२-९४|| आनेके साथ ही नमस्कार करते हुए उस देवको अकस्मात् अपने सामने देखकर भरतने उसे यथा योग्य सत्कारके साथ आसन दिया ॥९५।। भरतकी आज्ञासे वह देव आसनपर बैठा और उनके लोकोत्तर तेजको देखता हुआ क्षण भरके लिये आश्चर्य करने लगा ॥९६॥ प्रथम ही, पहले बोलनेवाले सम्राट भरतने जिसके साथ बातचीत की है ऐसा वह देव नीचे लिखे अनसार विनयसहित वचन कहने लगा ॥९७॥ हे देव, हम क्षुद्र देव कहाँ ? और आप दिव्य मनुष्य कहाँ ? तथापि मैं ऐसा मानता ह, कि हम लोगोंका यथायोग्य देवपना ही हम लोगोंको स्पष्ट रूपसे वाचालित कर रहा है अर्थात् जबर्दस्ती बुलवा रहा है ॥९८।। हे आयुष्मन्, आप जैसे शासन करनेवालोंका कुशल-मंगल पूछनेके लिये हम लोग लज्जित हो रहे हैं क्योंकि इस जगत्का सब तरहका कल्याण करना आपके ही आधीन है ।।१९।। जगतका कल्याण करनेके लिये जिसकी चतुराई प्रसिद्ध है और जो समस्त पृथिवीको जीतना चाहती है ऐसी आपकी इस दाहिनी भुजाकी कुशलता है न ? ॥१००॥ हे देव, आप देवोंके भी प्रिय हैं, आपने समस्त जगत्को जीत लिया है इसलिये यह देवपना आपके ही योग्य है हम लोग तो नाममात्रके ही देव हैं--केवल देव जातिमें जन्म होनेसे ही देव कहलाने लगे हैं। यहाँ पर 'देवानां' 'प्रिय' ये दोनों ही पद पृथक्-पृथक् हैं, अथवा ऐसा १ प्रभासन्तानः । २ व्याप्नोति। ३ अग्निशिखामतिक्रान्तः । ४ कृतमालनामा। कृतमाल आरग्वधः । 'आरग्वधे राजवृक्षः शम्भाकचतुरंगुलाः । आरेवतव्याधिघातकृतमालस वर्णकाः ॥' इत्यभिपनात् । ५ दृश्यते स्म । ६ प्रापयत् । ७ तेजः । ८ चक्रिणः । ६ मानुषमतीतम । १० संस्कृतभाषिणा । पूर्वाभि--अ० ५० स० द० ल० । ११ पूतनायाः अपत्यं पौतनः तस्य भावः पौतन्यम् । देवत्वमित्यर्थः । १२ नम् । १३ वाचालं करोति । १४ लज्जामहे । १५ यस्मात् कारणात् । १६ क्षेमकरण। १७ प्रख्यातम् । १८ क्षेमं किम् । १६ गीरेव शापानुग्रहसमर्था वाणाः साधन निग्रहानुग्रहयोरेषामिति गीर्वाणाः देवा त्यर्थः । २० जिगीषोः त्वत्तः अन्यत्र । २१ शीतशीश्वरा: ट० । मन्दानामीश्वरा इत्यर्थः । शीते रते एते शीतशयः तेषामीश्वराः क्रियासु मंदानामीश्वरा इत्यर्थः । २२ मन्दवचराः । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महापुराणम् 'राजोक्तिस्त्वयि राजेन्द्र राजतेऽनन्यगामिनी । अखण्डमण्डलां कृत्स्नां षट्षण्डां गां नियच्छति ॥ १०३ ॥ चक्रात्मना ज्वलत्येष प्रतापस्तव दुःसहः । प्रथते दण्डनीतिश्च दण्डरत्नछलाद् विभोः ॥ १०४ ॥ ईशितव्या मही कृत्स्ना स्वतन्त्रस्त्वमसीश्वरः । निधिरत्तद्विरेश्वयं कः परस्त्वादृशः प्रभुः ॥ १०५॥ भूमत्येकाकिनी लोकं शश्वत्कीतिरनर्गला । सरस्वती च वाचाला कथं ते ते' प्रिये प्रभोः ॥ १०६ ॥ इति प्रतीतमाहात्म्यं त्वां सभाजयितु दिवः । त्वद्द्बलध्वानसंक्षोभ साध्वसाद् वयमागताः ॥ १०७॥ कूटस्था वयमस्याद्रेः स्वपदा' दविचालिनः । भूमिमेतावत तावत् त्वया देवावतारिताः ॥ १०८ ॥ विप्रकृष्टान्तरावासवासिनो व्यन्तरा वयम् । संविधेयास्त्वये दानों प्रत्यासन्नाः पदातयः ॥ १०६ ॥ विद्धि मां विजयार्द्धस्य मर्मज्ञममृताशनम् । कृतमालं गिरेरस्य कूटेऽमुष्मिन् कृतालयम् ॥ ११०॥ मयि स्वसात्कृते" देव स्वीकृतोऽयं महाचलः । सगुहाकाननस्यास्य गिरेर्गर्भविदस्म्यहम् ॥ १११ ॥ गर्भज्ञोsहं गिरेरस्मीत्यत्यल्पमिदमुच्यते । द्वीपान्धिवलये कृत्स्ने नास्माकं कोऽप्यगोचरः ॥ ११२ ॥ कार्य करना चाहिये कि हे प्रिय, समस्त जगत्को जीतनेसे आप देवोंके भी देव हैं ॥ १०१ ॥ हम गीर्वाण हैं और आपके अतिरिक्त विजयकी इच्छा करनेवाले किसी दूसरे पुरुपके विषय में यद्यपि हम वचनरूपी तीक्ष्ण वाणोंको धारण करते हैं तथापि आपके विषय में हम लोग कुण्ठितवचन हो रहे हैं, हमारा अहंकार जाता रहा है और हमारे वचन गद्गद् स्वरसे निकल रहे हैं ॥ १०२ ॥ हे राजेन्द्र, आप छह खण्डों में बँटी हुई समस्त प्रदेश सहित इस संपूर्ण पृथिवी का शासन करते हैं इसलिये दूसरी जगह नहीं रहनेवाली राजोक्ति आपमें ही सुशोभित हो रही है - आप ही वास्तवमें राजा है ॥१०३॥ हे विभो, चत्ररत्नके बहानेसे यह आपका दुःसह प्रताप देदीप्यमान हो रहा है और दण्डरत्नके छलसे आपकी दंड नीति प्रसिद्ध हो रही है ।। १०४ ॥ | यह समस्त पृथिवी आपके आधीन है - पालन करने योग्य है, आप इसके स्वतन्त्र ईश्वर हैं और निधियाँ तथा रत्न ही आपका ऐश्वर्य है इसलिये आपके समान ऐश्वर्यशाली दूसरा कौन है ? ॥ १०५ ॥ । हे प्रभो, आपकी कीर्ति स्वच्छन्द होकर समस्त लोकमं सदा अकेली फिरा करती है और सरस्वती वाचाल है अर्थात् बहुत बोलनेवाली है फिर भी न जाने ये दोनों ही स्त्रियां आपको प्रिय क्यों ? ॥ १०६ ॥ । इस प्रकार जिनका माहात्म्य प्रसिद्ध है ऐसे आपकी सेवा करनेके लिये हम लोग आपकी सेनाके शब्दके क्षोभसे भयभीत हो आकाश से यहां आये हैं ॥१०७॥ हे देव, हम लोग इस पर्वतकी शिखरपर रहते हैं और अपने स्थानसे कभी भी विचलित नहीं होते परन्तु इस भूमि पर आपके द्वारा ही अवतारित हुए हें -- उतारे गये हैं ।। १०८ ।। हम लोग दूर दूर तक अनेक स्थानों में रहनेवाले व्यन्तर हैं अब आप हम लोगोंको अपने समीप रहनेवाले सेवक बना लीजिये ।। १०९ ।। आप मुझे इस पर्वत के इस शिखरपर रहनेवाला और विजयार्ध पर्वतका गर्म जाननेवाला कृतमाल नामका देव जानिये ॥११०॥ हे देव, आपने मुझे वश कर लिया है इसलिये इस महापर्वतको अपने आधीन हुआ ही समझिये क्योंकि मैं गुफाओं और वन सहित इस पर्वतका समस्त भीतरी हाल जानता हूँ ।। १११ ।। अथवा में 'इस पर्वतका भीतरी हाल जाननेवाला हूँ यह बहुत ही थोड़ा कहा गया है क्योंकि समस्त द्वीप और समुद्रोंके भीतर ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है जो हम लोगों का जाना १ राजेति शब्दः । २ शासति । ३ ऐश्वर्यवती भवितुं योग्या । ४ प्रतिबंधरहिता । ५ कीर्तिसरस्वत्यौ । ६ प्रियतमे ( बभूवतुः ) । ७ सेवितुम् । स्वस्थानात् । ६ एतावद्भमिपर्यन्तम् । 'यावत्तावच्च साकल्येऽवधी मानेऽवधारणे । १० संविधापयितुं योग्याः । १९ त्वदधीने कृते । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ एकत्रिंशत्तमं पर्व वटस्थान' वटस्थांश्च' कूटस्थान् कोटरोटजात्' । 'असपाटान् क्षपाटांश्च विद्धि नः सार्व सर्वगान् ॥ ११३॥ इति प्रशान्त मोजस्वि वचः सम्भाव्य सादरम् । सोऽमरो वित 'तारास्नं भूषणानि चतुर्दश ॥ ११४ ॥ तान्यनन्योपलभ्यानि प्राप्य चकी परां सुदम् । भेजे तत्कृत" सत्कारैः सुरः सोऽय्याप सम्भवम् ॥ ११५ ॥ तं रूप्याद्विगुहाद्वारप्रवेशोपायशंसिनम् । प्रविसज्यं स्वसेनान्यं प्राहिणोत् प्रभुरप्रतः ॥ ११६ ॥ त्वमुद्घाट्य गुहाद्वारं यावन्निर्वाति" सा गुहा । तावत् पाश्चात्यखण्डस्य निर्जयाय कुरूद्यमम् ॥११७॥ इति चक्रधरादेशं मूर्ध्ना मायमिवोद्वहन् । कृतमालामरोद्दिष्टकृत्स्नोपायप्रयोगवित् ॥ ११८ ॥ कृती कतिपयैरेष तुरङ्गः सपरिच्छदैः । प्रतस्थ वाजिरत्नेन दण्डपाणिश्चमूपतिः ॥ ११६॥ किंचिच्चान्तरमुल्लंध्य स सिन्धोर्वनवेदिकाम् । विगाह्य विजयार्द्धस्य संप्रापत् तटवेदिकाम् ॥ १२०॥ तत्सोपानेन रूप्याद्रेः श्रारुह्य जगतीतलम् । प्रत्यङमुखो" गुहोत्सङ "गम् श्राससाद चमूपतिः ॥ १२१ ॥ जयताच्चक्रवर्तीति सोऽश्वरत्नमधिष्ठितः " । दण्डेन ताडयामास गुहाद्वारं स्फुरद्ध्वनिः ॥ १२२ ॥ दण्ड रत्नाभिघातेन गुहाद्वारे निरगंले" । तद्गर्भाद् बलवानूष्मा निर्ययौ किल संततः ॥ १२३ ॥ दधद्दण्डाभिघातोत्थं डकारमरपुटम् । सवेदनमिवास्वेदि निर्गतासु गुहोष्मणा ॥ १२४ ॥ हुआ न हो ॥ ११२ ॥ हे सार्व अर्थात् सबका हित करनेवाले, वटके वृक्षोंपर, छोटे छोटे गड्ढों में, पहाड़ोंकी शिखरोंपर, वृक्षोंकी खोलों और पत्तोंकी झोपड़ियों में रहनेवाले तथा दिन और रात्रिमें भ्रमण करनेवाले हम लोगोंको आप सब जगह जाने वाले समझिये ॥ ११३॥ इस प्रकार आदर सहित शान्त और ओजपूर्ण वचन कहकर उस देवने भरतके लिये चौदह आभूषण दिये ||११४ ।। जो किसी दूसरेको प्राप्त नहीं हो सकते थे ऐसे उन आभूषणोंको पाकर चक्रवर्ती परम हर्षको प्राप्त हुए और चक्रवर्तीके द्वारा किये हुए सत्कारोंसे वह देव भी अत्यन्त हर्षको प्राप्त हुआ ।। ११५ ॥ तदनंतर विजयार्ध पर्वतकी गुफाके द्वारसे प्रवेश करनेका उपाय बतलाने वाले उस देवको भरत चक्रवर्तीने बिदा किया और गुफाका द्वार खोलनेके लिये सबसे आगे अपना सेनापति भेजा । ११६ ॥ चक्रवर्तीने सेनापतिसे कहा कि तुम गुफाका द्वार उघाड़कर जब तक गुफा शान्त हो तब तक पश्चिम खण्डको जीतनेका उद्योग करो ।। ११७ ।। इस प्रकार चक्रवर्तीकी आज्ञाको मालाके समान मस्तकपर धारण करता हुआ और कृतमाल देवके द्वारा बतलाये हुए समस्त उपायों के प्रयोगको जाननेवाला वह चतुर सेनापति कुछ घोड़े और सैनिकों के साथ दंडरत्न हाथ में लेकर अश्वरत्नपर आरूढ़ होकर चला ॥११८-११९॥ थोड़ी दूर जाकर तथा सिन्धु नदीके वनकी वेदीको उल्लंघन कर विजयार्ध पर्वतके तटकी वेदी पर जा पहुंचा ॥ १२० ।। प्रथम ही वह सेनापति सीढियोंके द्वारा विजयार्ध पर्वतकी वेदिकापर चढ़ा और फिर पश्चिम की ओर मुंहकर गुफाके आगे जा पहुंचा ।। १२१ ।। अश्वरत्न पर बैठे हुए सेनापतिने चक्रवर्तीकी जय हो इस प्रकार कहकर दण्डरत्नसे गुफा द्वारका ताड़न किया जिससे बड़ा भारी शब्द हुआ ।। १२२॥ दण्डरत्नकी चोटसे गुफाका द्वार खुल जानेपर उसके भीतरसे बड़ी भारी गर्मी निकलने लगी || १२३ ॥ दण्डरत्नके प्रहारसे उत्पन्न हुए क्रेङकार शब्दको धारण करते हुए दोनों किवाड़ ऐसे जान पड़ते थे मानो वेदनासे सहित होनेके और कुछ १ न्यग्रोधस्थान् । २ पातालस्थान् । 'गर्तावटौ भुवि श्वभ्रे' इत्यभिधानात् । 'श्वभूगतविटागादा भुवो विवरवाचका:' इति कात्येनोक्तम् । ३ वृक्षविवरपर्णशालासु जातान् 'पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्' इत्यभिधानात् । ४ राक्षसेभ्योऽन्यान् । ५ क्षपा रात्रिः तस्यामटन्तीति क्षपाटाः तान् राक्षसानित्यर्थः । 'पलंकषो रात्रिनटो रात्र्यटो जललोहितः' इत्यभिधानात् । ६ सहितान् । ७ तेजोऽन्वितम् । ८ ददौ । ६ तिलकादिचतुर्दशाभरणानि । १० चक्रिकृत । ११ उपशान्तिमेति । १२ पश्चिमखण्डस्य । १३ आज्ञाम् । १४ पश्चिमाभिमुखः । १५ समीपम् । १६ आरूढः । १७ दण्डरत्नेन । १८ अर्गलरहिते सति । १६ विस्तृतः । २० ध्वनिविशेषः । २१ कवाटयुगलम् 'कवाटमररं तुल्ये' इत्यभिधानात् । २२ स्विद्यति स्म स्वेदितमित्यर्थः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ महापुराणम् उद्घाटितकवाटेन द्वारेणोष्माणमुद्वमन् । रराज राजतः शैलो लब्धोच्छवासश्चिरादिव ॥१२५॥ कवाटपुटविश्लेषाद् उच्चचार महान् ध्वनिः । दण्डेनाभिहतस्याद्रेः प्राक्रोश इव विस्फुरन् ॥१२६॥ गुहोष्मणा स नाश्लेषि' विदूरमपवाहितः । तरश्विनाऽश्वरत्नेन देवताभिश्च रक्षितः ॥१२७॥ निपेतुरमरस्त्रीणां दृक्क्षेपैः सममम्बरात् । सुमनःप्रकरास्तस्मिन् हासा इव जयश्रियः ॥१२८॥ तवेदी ससोपाना रूप्याद्रेः समतीयिवान् । सोऽभ्यत् सतोरणां सिन्धोः पश्चिमां वनवेदिकाम् ॥१२६॥ वेदिकां तामतिक्रम्य संजगाहे' परां भुवम् । नानाकरपुरग्रामसीमारामरलडकृताम् ॥१३०॥ प्रविष्टमात्र एवास्मिन् प्रजास्त्रासमुपाययुः । समं 'दारगवरन्या घटन्ते स्म पलायितुम् ॥१३॥ केचित् कृतधियो धीराः सार्धाः पुण्याक्षतादिभिः। प्रत्यग्रहीपुरभ्येत्य सबलं बलनायकम् ॥१३२॥ न भेतव्यं न भेतव्यम् आध्वमाध्वं यथासुखम् । इत्यस्याज्ञाकरा विष्वक् भे मुराश्वासितप्रजाः ॥१३३॥ म्लेच्छखण्डमखण्डाज्ञः परिक्रामन् प्रदक्षिणम् । तत्र तत्र विभो राज्ञां म्लेच्छराजैरजिग्रहत् ॥१३४॥ इदं चक्रधरक्षेत्र स चैष निकट प्रभुः । तमाराधयितुं यूयं त्वरध्वं सह साधनैः ॥१३॥ भरतस्यादिराजस्य चक्रिणोऽप्रतिशासनम् । शासनं शिरसा दध्वं यूयमित्यन्वशाच्च" तान् ॥१३६ कारण चिल्ला ही रहे हों, उन्हें दुःखसे पसीना ही आ गया हो और गुफाके भीतरकी गरमी से उनके प्राण ही निकले जा रहे हों ॥१२४॥ जिसके किवाड़ खुल गये हैं ऐसे द्वारसे गरमी को निकालता हुआ वह विजयार्ध पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत दिन बाद उसने उच्छ्वास ही लिया हो ।१२५।। दोनों किवाड़ोंके खुलनेसे एक बड़ा भारी शब्द हुआ था और वह ऐसा जान पड़ता था मानो दण्डरत्नके द्वारा ताड़ित हुए पर्वतके रोनेका शब्द ही हो ॥१२६।। देगशालो अश्वरत्न जिसे बहुत दूर तक भगा ले गया है और देवताओंने जिसकी रक्षा की है ऐसे उस सेनापतिको गुफाकी गरमी छू भी नहीं सकी थी ।।१२७॥ उस समय उस सेनापतिपर देवांगनाओंके कटाक्षोंके साथ साथ आकाशसे फूलोंके समूह पड़ रहे थे और वे जयलक्ष्मी के हासके समान जान पड़ते थे ।। १२८।। सेनापति सीढ़ियों सहित विजयाई पर्वतके किनारे की वेदीको उल्लंघन करता हुआ तोरण सहित सिन्धु नदीके पश्चिम ओर वाली वनकी वेदिवा के सन्मुख पहुंचा ॥१२९।। उसने उस वेदिकाको भी उल्लंघन कर अनेक खानि, पुर, ग्राम, सीमा और बाग बगीचोंसे सुन्दर म्लेच्छखण्डको उत्तम भूमिमें प्रवेश किया ।।१३०॥ उस भूमिमें सेनापतिके प्रवेश करते ही वहाँकी समस्त प्रजा घबड़ा गई, उसमेंसे कितने ही लोग स्त्रियों तथा गाय भैंस आदिके साथ भागनेके लिये तैयार हो गये ॥१३१॥ कितने ही बुद्धिमान् तथा धीर वीर पुरुष पवित्र अक्षत आदिका बना हुआ अर्घ लेकर सेनासहित सेनापतिके सन्मुख गये और उसका सत्कार किया ॥१३२।। अरे डरो मत, डरो मत, जिसको जिस प्रकार सुख हो उसी प्रकार रहो इस प्रकार प्रजाको आश्वासन देते हुए चक्रवर्तीके सेवक चारों ओर घूमे थे ॥१३३॥ अखण्ड आज्ञाको धारण करनेवाला वह सेनापति प्रदक्षिणा रूपसे म्लेच्छखण्ड में घूमता हुआ जगह जगह म्लेच्छ राजाओंसे चक्रवर्तीकी आज्ञा स्वीकृत करवाता जाता था ॥१३४॥ सेनापतिने म्लेच्छ राजाओंको यह भी सिखलाया कि यह चक्रवर्तीका क्षेत्र है और वह प्रसिद्ध चक्रवर्ती समीप ही है इसलिये तुम सब अपने अपने सेनाओंके साथ उनकी सेवा करनेके लिये शीघ्रता करो। चक्रवर्ती भरत इस युगके प्रथम अथवा सबसे मुख्य राजा है इसलिये कभी भंग नहीं होनेवाली उनकी आज्ञाको तुम सब अपने मस्तकपर धारण करो ॥१३५-१३६॥ १ न आलिंगितः । २ अपनीतः । ३ अभ्यगच्छत् । ४ प्रविशति स्म । सञ्जगाहे ल० । ५ पश्चिमाम् । ६ (द्वन्द्वसमासः)कललधेनुभिः । ७ चेष्टन्ते स्म। ८ यथासुखं तिष्ठत । ६ सेनान्यः । १० भृत्याः । ११ अग्राहयत् । १२ समीपे आस्ते । १३ न विद्यते प्रतिशासनं यस्य । १४ धारयत । १५ शारित स्म । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्तम पर्व जाता वयं चिरादद्य सनाथा इत्युदाशिषः । केचिच्चक्रधरस्याज्ञाम् अशठा प्रत्यपत्सत ॥१३७॥ संधिविग्रहयानादिषाड्गुण्यकृतविक्रमाः । बलात् प्रमाणिताः केचिद् ऐश्वर्यलवदूषिताः ॥१३८॥ कांश्चिद्दर्गाश्रितान् म्लेच्छान् अवस्कंदनिरोधनैः । सेनानीर्वशमानिन्ये नमत्यज्ञोऽधिकं क्षतः ॥१३६।। केचिद् बलरवष्टब्धाः तत्पीडां सोढमक्षमाः। शासन चक्रिणस्तस्थुः स्नेहो नापीलितात् खलात् ॥१४० इत्युपायरुपायज्ञः साधयम्लेच्छभभुजः । तेभ्यः कन्यादिरत्नानि प्रभो ग्यान्युपाहरत् ॥१४१॥ (धर्मकर्मबहि ता इत्यमी म्लेच्छका मताः । अन्यथाऽन्यः समाचारः आर्यावर्तेन ते समाः ॥१४२।। इति प्रसाध्य तां भूमिम् अभूमि धर्मकर्मणाम् । म्लेच्छराजबलै: सार्द्ध सेनानीय॑वृतत् पुनः ॥१४३॥ रराज राजराजस्य साश्वरत्नचम्पतिः । सिद्धदिग्विजयी जैत्रः प्रताप इव मूतिमान् ॥१४४॥ सतोरणामतिक्रम्य स सिन्धोर्वनवेदिकाम् । विगाढश्च० ससोपानां रूप्यारेस्तटवेदिकाम् ॥१४॥ प्रारूढो जगतीमद्रेः व्यू ढोरस्को महाभुजः । षड्भिर्मासैः प्रशान्तोमं सोऽध्यवासीद्र गुहामुखम्१३ ॥१४६।। तत्रासीनश्च संशोध्य बद्दपायं गुहोदरम् । कृतारक्षाविधिः सम्यक् प्रत्यायाच्छिबिरं" प्रभोः ॥१४७॥ 'आज हम लोग बहुत दिनमें सनाथ हुए हैं इसलिये जोर जोरसे आशीर्वाद देते हुए कितने ही बुद्धिमान् लोगोंने चक्रवर्तीकी आज्ञा स्वीकृत की थी॥१३७॥ जिन्होंने सन्धि, विग्रह और यान आदि छह गुणोंमें अपना पराक्रम दिखाया था और जो थोड़ेसे ही ऐश्वर्यसे उन्मत्त हो गये थे ऐसे कितने ही राजाओंसे सेनापतिने जबर्दस्ती प्रणाम कराया था ॥१३८॥ किलेके भीतर रहनेवाले कितने ही म्लेच्छ राजाओंको सेनापतिने उनका चारों ओरसे आवागमन रोककर वश किया था सो ठीक ही है क्योंकि अज्ञानी लोग अधिक दुःखी किये जानेपर ही नम्रीभूत होते हैं ॥१३९।। कितने ही राजा लोग सेनाओंके द्वारा घिरकर उससे उत्पन्न हुए दुःखको सहन करनेके लिये असमर्थ हो चक्रवर्तीके शासनमें स्थित हए थे, सो ठीक ही है क्योंकि बिना पेले खल अर्थात् खलीसे स्नेह अर्थात् तेल उत्पन्न नहीं होता (पक्षमें बिना दुःखी किये हुए खल अर्थात् दुर्जनसे स्नेह अर्थात् प्रेम उत्पन्न नहीं होता) ॥१४०।। इस प्रकार उपायोंको जाननेवाले सेनापति ने अनेक उपायोंके द्वारा म्लेच्छ राजाओंको वश किया और उनसे चक्रवर्तीके उपभोगके योग्य कन्या आदि अनेक रत्न भेंटमें लिये ॥१४१।। ये लोग धर्मक्रियाओंसे रहित हैं इसलिये म्लेच्छ माने गये हैं, धर्मक्रियाओंके सिवाय अन्य आचरणोंसे आर्य खण्डमें उत्पन्न होनेवाले लोगोंके समान हैं ।।१४२।। इस प्रकार वह सेनापति, धर्म क्रियाओंसे रहित उस म्लेच्छभूमिको वश कर म्लेच्छराजाओंकी सेनाके साथ फिर वापिस लौटा ॥१४३॥ जिसने दिग्विजय कर लिया है, सबको जीतना ही जिसका स्वभाव है, और जो अश्वरत्नसे सहित है ऐसा वह राजाधिराज भरतका सेनापति ऐसा सशोभित हो रहा था मानो मतिमान प्रताप ही हो ॥१४४॥ तोरणोंसहित सिन्धु नदीके वनकी वेदीको उल्लंघन कर वह सेनापति सीढियों सहित विजया पर्वतके वनकी वेदीपर जा चढ़ा ॥१४५॥ जिसका वक्षःस्थल बहुत बड़ा है और जिसकी भुजाएँ बहुत लम्बी हैं ऐसा वह सेनापति पर्वतकी वेदिकापर चढ़कर छह महीने में जिसकी गर्मी शान्त हो गई है ऐसी गुफाके द्वारपर ठहर गया ॥१४६॥ वहाँ ठहरकर उसने अनेक विघ्नों से भरे हुए गुफाके भीतरी भागको शुद्ध (साफ) कराया और फिर अच्छी तरहसे उसकी रक्षा १ उद्गताशीर्वचना:। २ निष्कपटवृत्तयो भूत्वा । ३ अंगीकारं कृतवन्तः । ४ धाटीनिरोधनैः । 'निग्रहस्तु निरोधः स्याद्' इत्यमरः । अभ्यासाधनात्मकनिग्रहः । उक्तं च विदाधचूडामणौ 'अभ्यवस्कन्दनं त्वभ्यासाधनम्' (घेरेका नाम) । ५ अधिकं पीड़ितो भूत्वा । ६ वेष्टिताः । ७ विवाहादिभिः । ८ पुण्यभूम्या आर्याखण्डनेत्यर्थः । 'अ.र्यावर्तः पुण्यभूमिः' इत्यभिधान.त् । ६ अस्थानम् । १० प्रविष्टः । ११ विशालवक्षस्थलः । १२ तस्थौ। १३ गुहाद्वारम् । १४ स्कन्धावार प्रत्यगात् । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० महापुराणम् अथ सम्मुखमागत्य 'सानीकैन पसत्तमैः । प्रत्यगृहचत सेनानीः सजयानकनिस्वनम् ॥१४॥ विभक्ततोरणामुच्चः प्रचलत्केतुमालिकाम् । महावीथीमतिक्रम्य प्राविक्षत् स नृपालयम् ॥१४६॥ तुरङगमवरादुरात् कृतावतरणः कृती। प्रभोपासनस्थस्य प्रापदास्थानमण्डपम् ॥१५०॥ दूरानतचलन्मौलिसंवष्टकरकुटमलः । प्रणनाम प्रभु सभ्यः वीक्ष्यमाणः सविस्मितः ॥१५१॥ मुखरैर्जयकारेण म्लेच्छराजैः ससाध्वसम् । प्रणेमे प्रभुरभ्येत्य ललाटस्पृष्टभूतलैः ॥१५२॥ तदुपाहत रत्नाद्यः अर्घ्ययनुपढौकितैः । नामादेशं च 'तानस्मै प्रभवेऽसौ न्यवेदयत् ॥१५३॥ सप्रसावं च सम्मान्य सत्कृतास्ते महीभुजः। प्रभोरनुमताद् भूयः स्वमोकः प्रत्ययासिषुः ॥१५४॥ इत्थं पुण्योदयाच्चक्री बलात् प्रत्यन्तपालकान् । विजिग्ये दण्डमात्रेण जयः पुण्यादृते कुतः ॥१५॥ मालिनी अथ न पतिसमाजेनाचितः सानुरागं विजितसकलदुर्गः प्रहयन म्लेच्छनाथान् । पुनरपि विजयायायोजि सोऽग्रेसरत्वे जय इव जयचिह्नर्मानितो रत्नभा१५६।। जयति जिनवराणां शासनं यत्प्रसादात् पदमिदमधिराज्ञां प्राप्यते हेलयैव । समुचितनिधिरत्नप्राज्यभोगोपभोगप्रकटितसुखसारं भूरि संपत्प्रसारम् ॥१५७॥ का उपाय कर वह चक्रवर्ती की छावनीमें वापिस लौट अया ॥१४७॥ सेनापतिक वहां पहुंचने पर अनेक उत्तम उत्तम राजाओने अपनी सेनाओंके साथ सामने जाकर विजयसुचक नगाड़ोंके शब्दोंके साथ साथ उसका स्वागत-सत्कार किया ॥१४८॥ जिसमें अनेक तोरण लगे हुए हैं और जिसम बहुत ऊंची अनेक पताकाओक समूह फहरा रहे हैं एस राजमार्गको उल्लंघन कर वह सेनापति महाराज भरतके डेरेमें प्रविष्ट हआ।।१४९।। वह व्यवहारकुशल सेनापति दरसे ही उत्तम घोड़ेपरसे उतर पड़ा और जहाँ महाराज भरत राजसिंहासनपर बैठे हुए थे उस सभामण्डपमें जा पहुँचा ॥१५०॥ दूरसे ही झुके हुए चंचल मुकुटपर जिसने अपने दोनों हाथ जोड़कर रखे हैं और सभासद् लोग जिसे आश्चर्य के साथ देख रहे हैं ऐसा सेनापतिने महाराज भरतको नमस्कार किया ।।१५१।। जिन्होंने अपने ललाटसे पृथिवीतलका स्पर्श किया है और जो जयजय शब्द करनेसे वाचालित हो रहे हैं ऐसे म्लेच्छ राजाओंने भगसहित सामने आकर भरत को नमस्कार किया ॥१५२।। उन म्लेच्छ राजाओंके द्वारा उपहारमें लाये हए रत्न आदिको सामने रखकर सेनापतिने महाराज भरतसे नाम ले लेकर सबका परिचय कराया ।।१५३।। महाराजने प्रसन्नताके साथ सन्मान करके उन सब राजाओंका सत्कार किया, तदनन्तर वे राजा महाराजकी अनुमतिसे अपने अपने स्थान पर वापिस चले गये ।।१५४॥ इस प्रकार चक्रवर्ती ने पूण्य कर्मके उदयसे केवल दण्डरत्नके द्वारा ही विजयाध पर्वतके समीपवर्ती राजाओंको जबर्दस्ती जीत लिया था सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यके बिना विजय कहांसे हो सकती है ? ।१५५। अथानन्तर-अनेक राजाओंके समूहने प्रेमपूर्वक जिसका सत्कार किया है, जिसने सब किले जीत लिये हैं, जिसने म्लेच्छ राजाओंको नमीभत किया है. जो साक्षात विजयके समान सुशोभित हो रहा है और विजयके चिह्नोंसे जिसका सन्मान किया गया है ऐसे उस सेनापति को रत्नोंके स्वामी भरत महाराजने विजय प्राप्त करनेके लिये फिर भी प्रधान सेनापतिके पदपर नियुक्त किया ।।१५६॥ योग्य निधियाँ, रत्न तथा उत्कृष्ट भोग-उपभोगकी वस्तुओं १ ससैन्यैः । २ तन्म्लेच्छराजेभ्य आहृत । ३ पूजयन् । ४ प्रभोः समीपं नीतः। ५ नामोद्देशम् । ६ म्लेच्छराजान् । ७ निजावासं सम्प्रतिजग्मुः। ८ म्लेच्छराजान् 'प्रत्यन्तो म्लेच्छदेश: स्यादित्यभिधानात् । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ एकत्रिंशत्तम पर्व शार्दूलविक्रीडितम् छत्रं चन्द्रकरापहासि रुचिरं चामीकरप्रोज्ज्वलद् - दण्डं चामरयुग्मकं सरसरिडिण्डीरपिण्डच्छविः । रुक्माद्रेरिव संविभक्तमपरं कटं मगेन्द्रासनं लेभेऽसौ विजयार्द्धनाथविजयाद्रत्नान्यथान्यान्यपि ॥१५॥ गीर्वाणः कृतमाल इप्यभिमतः संपूज्य तं सादरं 'प्रादादाभरणानि यानि न पुनस्तेषामिहास्युन्मितिः । सम्प्राट् तरचका दलङकृततन :कल्पद्रुमः पुष्पितो मेरोः सानमिवाधितो मणिमयं सोऽध्यासितो विष्टरम् ॥१५॥ इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणश्रीमहापुराणसडग्रहे विजया गुहाद्वारोद्धाटनवर्णनं नामकत्रिंशत्तम पर्व ॥३१॥ के द्वारा जिसमें सुखोंका सार प्रकट रहता है, और जिसमें अनेक सम्पदाओंका प्रसार रहता है ऐसा यह चक्रवर्तीका पद जिसके प्रसादसे लीला मात्रमें प्राप्त हो जाता है ऐसा यह जिनेन्द्र भगवान्का शासन सदा जयवन्त रहे ॥१५७।। महाराज भरतने विजयाध पर्वतक स्वामीको जीतकर उससे चन्द्रमाकी किरणोंकी हंसी करनेवाला सुन्दर छत्र, सुवर्णमय देदीप्यमान दण्डोंसे युक्त तथा गङ्गा नदीके फेनके समान कान्तिवाले दो मनोहर चमर, सुमेरु पर्वतसे अलग किये हुए उसके शिखरके समान सिंहासन तथा और भी अन्य अनेक रत्न प्राप्त किये थे ॥१५८।। 'कृतमाल' इस नागसे प्रसिद्ध देवने सत्कार कर महाराज भरतके लिये जो आभपण दिये थे इरा भरतक्षेत्रमें उनकी उपमा देने योग्य कोई भी पदार्थ नहीं है। उन अनुपम आभूषणोंगे जिनका शरीर अलंकृत हो रहा है और जो मणियोंके बने हुए सिंहासनपर विराजमान हैं ऐसे महाराज भरतेश्वर उस समय मेरु पर्वतकी शिखरपर स्थित फूले हुए कल्प वक्षके समान अत्यन्त सशोभित हो रहे थे ॥१५९।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें बिजयार्ध पर्वतकी गुफाका द्वार उघाड़नेका वर्णन करनेवाला इकतीसवां पर्व समाप्त हुआ । १ ददौ । २ उपमा । ३ बभौ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व अथान्येारुपारूढ संभमवलनायकः । प्रत्यपाल्यत' सन्नद्धः प्रयाणसमयः पभोः ॥१॥ गजताश्वीयरथ्यानां पादातानां च सडकुलैः । न नपांजिरमेवासीत् रुद्धमद्रर्वनान्यपि ॥२॥ जयकुञ्जरमारूढ : परीतो नुपकुञ्जरैः। रेजे 'निर्यन्प्रयाणाय सम्माट शक्र इवामरैः ॥३॥ किञ्चित् पश्चान्मुखं गत्वा सेनान्या शोधिते पथि । ध्वजिनी सङकुचन्त्यासीद् ईर्याशुद्धि श्रितेव सा ॥४॥ प्रगुणस्थानसोपानां रूप्याद्रेः श्रेणिमश्रमात् । मुनेः शुद्धिरिव श्रेणीम् प्रारूढ़ा सा पताकिनी ॥५॥ तमिस्रति गुहा यासौ गिरिव्याससमायतिः । उच्छिता योजनान्यष्टौ ततोऽर्वाधिक विस्तृतिः ॥६॥ वाज़ कपाटयोयुग्मं या स्वोच्छायमितोच्छिति । दधु पृथक् स्वविष्कम्भसाधिकद्व्यंशविस्तृतिः१३ ॥ पराय॑मणिनिर्माणरुचिमद्वारबन्धना। "तदधस्तलनिस्सर्पसिन्धुस्रोतोविराजिता ॥८॥ अशक्यौद्धाटनाऽन्येषां मुक्त्वा चक्रिचमपतिम् । तन्निरर्गलितत्वाच्च५ प्रागेव कृतनिवतिः१६ ॥ला अथानन्तर--दूसरे दिन जिन्हें जल्दी हो रही है और जो हरएक प्रकारसे तैयार हैं ऐसे सेनापति लोग चक्रवर्तीके चलनेके समयकी प्रतीक्षा करने लगे ।।१॥ हाथियोंके समूह की सेना, घोड़ोक समहकी सेना और पैदल चलनेवाले सैनिक, इन सबकी भीड़से केवल महाराजका आंगन ही नहीं भर गया था किन्तु विजया पर्वतके वन भी भर गये थे ॥२॥ विजयी हाथीपर चढ़ा हुआ और अनेक श्रेष्ठ राजाओंसे घिरा हुआ चक्रवर्ती जब विजयके लिये निकला तब ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि ऐरावत हाथीपर चढ़ा हुआ और देवोंसे घिरा हुआ इन्द्र सुशोभित होता है ।।३। भरतकी वह सेना कुछ पश्चिमकी ओर जाकर सेनापतिके द्वारा शुद्ध किये हुए मार्गमें संकुचित होकर चल रही थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो वह ईर्यापथ शुद्धिको ही प्राप्त हुई हो ॥४॥ जिस प्रकार मुनियोंकी विशुद्धता उत्तम गुणस्थान (आठवें, नौवें दशवें रूपी सीढियोंसे युक्त श्रेणी (उपशम श्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी) पर चढ़ती है उसी प्रकार चक्रवर्तीकी सेना, जिसपर उत्तम सीधी सीढ़ियां बनी हुई हैं ऐसी विजयार्ध पर्वत की श्रेणीपर जा चढ़ी थी ॥५॥ वहां तमिस्रा नामकी वह गुफा थी जो कि पर्वतकी चौड़ाई के बराबर लम्बी थी, आठ योजन ऊंची थी और उससे डेवढ़ी अर्थात् बारह योजन चौड़ी थी जो अपनी ऊँचाईके बराबर ऊंचे और कुछ अधिक छह छह योजन चौड़े वज्रमयी किवाड़ोंके युगल धारण कर रही थी जिसके दरवाजेकी चौखट महामूल्य रत्नोंसे बनी हुई होनेसे अत्यन्त देदीप्यमान थी, जो अपने नीचेसे निकलते हुए सिन्धु नदीके प्रवाहसे सुशोभित थी, चक्रवर्तीके सेनापतिको छोड़कर जिसे और कोई उघाड़ नहीं सकता था, जो सेनापतिके द्वारा पहले ही उघाड़ दी जानेसे शान्त पड़ गई थी-भीतरकी गरमी निकल जानेसे ठण्डी पड़ गई थी। जो यद्यपि जगत्की सृष्टिके समान अनादि थी तथापि किसीके द्वारा बनाई हुईके समान मालूम १ प्रतीक्ष्यते स्म । २ सैन्यानाम् ल० । ३ पदातीनाम् ल० । ४ परिवृतः । ५ निर्गच्छन् । ६ पश्चिमाभिमुखम् । ७ ऋज संस्थानसोपानां प्रकृष्टगुणस्थानसोपानाञ्च। ८ सेना। ६ पञ्चाशद्योजनायामेति भावः । १० अष्टयोजनोत्सेधात्। ११ द्वादशयोजनविस्तारेत्यर्थः । १२ यमलकवाटे एकककवाटम् । १३ द्वादशयोजनविस्तारवद् गुहायाः साधिकद्वितीय विस्तारम् । यमलरूपकवाटे एकैककवाटस्य साधिकषड्योजनविस्तृतिरित्यर्थः । १४ द्वारबन्धादधस्तलनिर्गच्छत् । देहल्या अधस्तले निर्गच्छदिति भावः । १५ तेन चमूपतिना समुद्घाटितकवाटत्वात् । १६ कृतोपशान्तिः । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तम पर्व ११३ जगत्स्थितिरिवानाद्या घटितेव' च केनचित् । जैनी श्रुतिरिवोपात्तगाम्भीर्या मुनिभिर्मता ॥१०॥ व्यायता जीविताशव मूच्छेव च तमोमयी । गतेवोल्लाघतां कृच्छात मुक्तोष्मा शोधितोदरा ॥११॥ कुटीव च प्रसूताया निषिद्धान्यप्रवेशना। कृतरक्षाविधिरि धृतमङगलसंविधिः॥१२॥ तामालोक्य बलं जिष्णोः दूरादासीत्स साध्यसम् । तमसा सूचिभेद्येन कज्जलेनेव सम्भृताम् ॥१३॥ चक्रिणा ज्ञापितो भूयः सेनानीः सपुरोहितः। तत्तमोनिर्गमोपाय प्रयत्नमकरोत्ततः ॥१४॥ काकिणोमणिरत्नाभ्यां प्रतियोजनमालिखत् । गुहाभित्तिद्वये सूर्यसोमयोर्मण्डलद्वयम् ॥१५॥ तत्प्रकाशकृतोद्योतं सज्योत्स्नातमसन्निधिम् । गुहामध्यमपध्वान्तं व्यगाहत ततो बलम् ॥१६॥ चक्ररत्नज्वलद्दीपे ससेनान्या पुरः स्थिते । बलं तदनुमार्गेण प्रविभज्य द्विधा ययौ ॥१७॥ परिसिन्धु नदीस्रोतः प्राक् पश्चाच्चोभयोः पथोः । बलं प्राय ज्जलं सिन्धोः उपयुज्योपयुज्य तत्॥१८॥ पथि द्वैधे" स्थिता तस्मिन् सेनाग्रण्या नियन्त्रिता । सा चमूः संशयद्वैधं तदा प्रापद् दिगाश्रयम् ॥१६॥ ततः प्रयाणकः कश्चित् प्रभूतयवसोदकः । गुहार्द्धसम्मितां भूमि व्यतीयाय यतिविशाम् ॥२०॥ होती थी, अत्यन्त गम्भीर (गहरी) होनेके कारण जिसे मुनि लोग जिनवाणीके समान मानते थे क्योंकि जिनवाणी भी अन्त्यन्त गम्भीर (गूढ़ अर्थोसे भरी हुई) होती है। जो जीवित रहने की आशाके समान लम्बी थी, मूर्छाके समान अन्धकारमयी थी, गरमी निकल जाने तथा भीतरका प्रदेश शुद्ध हो जानस जो नीरोग अवस्थाको प्राप्त हुईक समान जान पड़ती थी, जिसम चक्रवर्तीकी सेनाको छोड़कर अन्य किसीका प्रवेश करना मना था, जिसके द्वारपर रक्षाकी सब विधि की गई थी, जिसके समीप मंगलद्रव्य रक्खे हुए थे और इसलिये जो प्रसूता (बच्चा उत्पन्न करनेवाली) स्त्रीकी कुटी (प्रसूति.गृह) के समान जान पड़ती थी ।।६-१२॥ सुई की नोकसे भी जिसका भेद नहीं हो सकता ऐसे कज्जलके समान गाढ़ अन्धकारसे भरी हुई उस गुफाको देखकर चक्रवर्तीकी सेना दूरसे ही भयभीत हो गई थी॥१३॥ तदनन्तर जिसे चक्रवर्ती ने आज्ञा दी है ऐसे सेनापतिने पुरोहितके साथ साथ, उस अन्धकारसे निकलनेका उपाय करने के लिये फिर प्रयत्न किया ॥१४॥ उन्होंने गुफाकी दोनों ओरकी दीवालोंपर काकिणी और चूड़ामणि रत्नसे एक एक योजनकी दूरीपर सूर्य और चन्द्रमाके मण्डल लिखे ॥१५॥ तदनन्तर उन मण्डलोंके प्रकाशसे जिसमें प्रकाश किया जा रहा है, चांदनी और धूप दोनों ही जिसमें मिल रहे हैं तथा जिसका सब अन्धकार नष्ट हो गया है, ऐसे गुफाके मध्य भागमें सेनाने प्रवेश किया ॥१६॥ आगे आगे सेनापतिके साथ साथ चक्ररत्नरूपी देदीप्यमान दीपक चल रहा था और उसके पीछे पीछे उसी मार्गसे दो भागोंमें विभक्त होकर सेना चल रही थी ॥१७॥ वह सेना, सिन्धु नदीके प्रवाहके पूर्व तथा पश्चिमकी ओरके दोनों मार्गोमें सिन्धु नदीके जलका उपयोग करती हुई जा रही थी ॥१८॥ उन दोनों मार्गोपर चलती हुई तथा सेनापतिके द्वारा श की हुई वह सेना उरा समय दिशाओं सम्बन्धी संशयकी द्विविधताको प्राप्त हो रही थी अर्थात् इसे इस बातका संशय हो रहा था कि पूर्व दिशा कौन है ? और पश्चिम दिशा कौन है ? ॥१९।। तदनन्तर जिनमें घास और पानी अधिक है ऐसे कितने ही मुकाम चलकर महाराज १ निमितेव। २ केनचित पूरुषेण । ३ परमागमः । ४ ऋजत्वं गतेव। उल्लाघो निर्गतो गदात् । (शोधितान्तरा ल०। ६ गुहाम्। ७ सेनापतिसमन्विते । ८ सिन्धुनदीप्रवाहं वर्जयित्वा । परिशब्दस्य जनार्थत्वात् । ६ पश्चात् पर्वापर । १० अगच्छत् । ११ द्विप्रकारवती। १२ नियमिता । १३ संशयभेदं यविनाशं वा। १४ उपदेशाधयम् वा संशयभेदं प्राप। पूर्वादिदिगभेदे सेना सन्देहवती जातेत्यर्थः । १५ तृण, घास । घासो यवसं तृणमर्जमित्यभिधानात् । १६ गुहानामर्द्धप्रमिताम् । १७ अत्यगात् । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ महापुराणम् यत्रोन्मग्नजला सिन्धुः निमग्नजलया समम् । प्रविष्टा तिर्यगुद्देशं तं प्राप बलमीशितुः ॥ २१ ॥ तयोरारात्त सैन्यं निवेश्य भरतेश्वरः । वैषम्यमुभयोर्नद्योः प्रेक्षाञ्चक्रे सकौतुकम् ॥२२॥ Perseः पातयत्यन्या दार्वाद्युत्प्लावत्यरम् । मियोविरुद्धसाङगत्ये सङगते ते कथंचन ॥२३॥ नद्योरुत्तरणोपायः को न स्यादिति तर्कयन् । द्रुतमाह्वापयामास तत्रस्थः स्थपति पतिः ॥ २४ ॥ "तयोरारात्तटे पश्यन् उत्पतन्निषतज्जलम् । दृष्टचैव तुलयामार्स' जलाञ्जलिमिव क्षणम् ॥२५॥ उपर्युच्छ्वासयत्येनां महान् वायुः स्फुरन्नधः । वायुस्तदन्यथावृत्तिः प्रमुष्यां च विजृम्भते ॥२६॥ उपनाहादृतेः कोऽन्यः प्रतीकारोऽनयोरिति । भिषग्वर इवारेभे संक्रमोपक्रम" कृती ॥२७॥ श्रमानुषेष्वरण्येषु ये केचन महाद्रुमाः । सतानानाययामास दिव्यशक्त्यनुभावतः ॥ २८ ॥ सारदारुभिरुत्तम्भ्य स्तम्भानन्तर्जलस्थितान् । स्थपतिः स्थापयामास तेषामुपरि सङक्रमम्" ॥२६॥ बलव्यसनमाशङक्य" चिरवृत्तौ स धीरधीः । क्षणानिष्पादयामास सङक्रमं प्रभुशासनात् ॥३०॥ कृतः कलकलः सैन्यैः निष्ठिते सेतुकर्मणि । तदेव च बलं कृत्स्नम् उत्ततार परं तटम् ॥३१॥ भरतने गुफाकी आधी भूमि तय की ॥ २० ॥ और जहां पर 'उन्मग्नजला' नदी 'निमग्नजला' नदी के साथ साथ दोनों तरफकी दीवालोंके कुण्डोंसे निकलकर सिन्धु नदीमें प्रविष्ट होती है उस स्थानपर चक्रवर्तीकी सेना जा पहुँची ॥ २१ ॥ महाराज भरतेश्वर उन दोनों नदियों के किनारे के समीप ही सेना ठहराकर कौतुकके साथ उन दोनों नदियोंकी विषमता देखने लगे ||२२|| इन दोनोंमेंसे एक अर्थात् निमग्नजला तो लकड़ी आदिको शीघ्र ही नीचे ले जा रही है और दूसरी अर्थात् उन्मग्नजला प्रत्येक पदार्थको शीघ्र ही ऊपर की ओर उछाल रही है । यद्यपि ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं तथापि किसी प्रकार यहाँ आकर सिन्धु नदी में मिल रही हैं। ||२३|| इन नदियोंके उतरने का उपाय क्या है ? इस प्रकार विचार करते हुए चक्रवर्तीने वहां खड़े खड़े ही शीघ्र ही अपने स्थपति ( सिलावट ) रत्नको बुलाया ||२४|| जिनका पानी ऊपर तथा नीचे की ओर जा रहा है ऐसी उन दोनों नदियोंको देखते हुए सिलावट रत्नने उन्हें अपनी दृष्टिमात्र से ही क्षणभरमें अंजलि भर जलके समान तुच्छ समझ लिया || २५ | उसने समझ लिया कि इस उन्मग्नजला नदीको इसके नीचे रहनेवाला महावायु ऊपर की ओर उछालता है और इस निमग्नजला नदीको उसके ऊपर रहनेवाला महावायु नीचेकी ओर ले जाता है ||२६|| इसलिये इन दोनोंका पुल बाँधने के सिवाय और क्या उपाय हो सकता है ऐसा विचार कर उत्तम वैद्यके समान कार्यकुशल सिलावट रत्नने उन नदियोंके पार होनेका उपाय अर्थात् पुल बाँधने का उपाय प्रारम्भ कर दिया ||२७|| उसने अपनी दिव्य शक्तिकी सामर्थ्य से निर्जन वनों में जो कुछ बड़े बड़े वृक्ष थे वे मँगवाये । भावार्थ -- अपने आश्रित देवोंके द्वारा सघन जंगलोंसे बड़े बड़े वृक्ष मँगवाये ||२८|| उसने मजबूत लकड़ियोंके द्वारा जलके भीतर मजबूत खम्भे खड़े कर उनपर पुल तैयार कर दिया ||२९|| अधिक समय लगनेपर सेनाक दुःख होगा इस बातका विचार कर उस गंभीर बुद्धिके धारक सिलावटने भरतेश्वरकी आ से क्षण भरमें ही पुल तैयार कर दिया था ||३०|| पुल तैयार होते ही सेनाओंने आनन्दसे कोलाहल किया और उसी समय चक्रवर्तीकी समस्त सेना उतरकर नदियोंके उस किनारे १ यस्मिन् प्रदेशे । २ पूर्वापरभित्तिद्वयदण्डान् निर्गत्य । ३ प्रदेशम् । ४ काष्ठादि । ५ स तनदी द्वयम् ल०, इ० अ०, प०, स० I ६ ददर्शेत्यर्थः । 13 उत्पतनिपतरूपत्वादञ्जलियुक्तजलवत् ८ अधोगमनवृत्तिः । ६ बन्धनात् । १० सेतूपक्रमम् । ११ आनयति स्म । १३ जलं स्थिरात् ब० द० । जले स्थिरात् इ० । १४ स्तम्भानाम् । १५ सेतुम् । भविष्यन्तीति विशंक्य | १७ चिरकालेऽतीते सति । १८ अपरतीरम् । १२ विन्यस्य १६ वलस्य पीड Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तम पर्व नायक: सममन्येा : प्रभुर्गजघटावृतः । महापयेन तेनैव जलदुर्ग व्यलङघयत् ॥३२॥ ततः कतिपयैरेव प्रयाणरतिवाहितः । गिरिदुर्ग विलंघ्योदग्गुहाद्वारमवासदत् ॥३३॥ निरर्गलीकृतं द्वारं 'पौरस्त्यैरिभसाधनैः। व्यतीत्य प्रभुरस्याद्रेः अध्युवास वनावनिम् ॥३४॥ अधिशय्य गुहागर्भ चिरं मातुरिवोदरम् । लब्धं जन्मान्तरं मेने' निःसृतः सैनिकर्बहिः ॥३५॥ ग हेयमतिगृध्येव गिलित्वा जनतामिमाम् । जरणाशक्तितो नूनम् उज्जगाल' बहिः पुनः ॥३६॥ व्यजनैरिव शाखाप्रैः वीजयन् वनवीरुधाम् । गुहोष्मणां चिरं खिन्नां चमूमाश्वासयन्मरुत् ॥३७॥ तदनं पवनाधूतं चलच्छाखाकरोत्करैः । प्रभोरुपागमे तोषान्ननर्तेव धृतार्तवम् ॥३८॥ पूर्ववत् पश्चिमे खण्डे बलागण्या प्रसाधिते । विजेतुं मध्यम खण्डं साधनैः प्रभुरुद्ययौ ॥३६॥ न करैः पीडितो लोको न भुवः शोषितो रसः । नार्केणेव जनस्तप्तः प्रभुणाऽभ्युद्यताप्युदक् ॥४०॥ कौबेरों दिशमास्थाय२ तपत्यकान्ततः१३ करैः । भानुर्भरतराजस्तु भुवस्तापमपाकरोत् ॥४१॥ कृतव्यूहानि" सैन्यानि संहतानि" परस्परम् । नातिभूमि यजिष्णोः न स्वरं परिबभमुः ॥४२॥ पर जा पहुंची ॥३१॥ दूसरे दिन हाथियोंके समूहसे घिरे हुए महाराज भरतने अनेक राजाओं के साथ साथ उसी जलमय महामार्गसे कठिन रास्ता तय किया ॥३२॥ तदनन्तर कितने ही मकाम चलकर और उस पर्वतरूपी दुर्ग (कठिन मार्ग)को उल्लंघन कर वे उस गफाके उत्तर द्वारपर जा पहुँचे ।।३३।। आगे चलनेवाली हाथियोंकी सेनाके द्वारा उघाड़े हुए उत्तर द्वारको उल्लंघन कर चक्रवर्तीने विजयार्ध पर्वतके वनकी भूमिमें निवास किया ॥३४॥ माताके उदर के समान गुहाके गर्भ में चिरकाल तक निवास कर वहाँसे बाहर निकले हुए सैनिकोंने ऐसा माना था मानो दूसरा जन्म ही प्राप्त हुआ हो ॥३५।। सेनाको बाहर प्रकट करती हुई वह गुफा ऐसी जान पड़ती थी मानो पहले वह बड़ी भारी तृष्णा इस मनुष्य समूहको निगल गई थी परन्तु पचानेकी शक्ति न होनेसे अब उसे फिर बाहर उगल रही हो ॥३६॥ उस समय पंखोंके समान वनलताओंकी शाखाओंके अग्रभागसे हवा करता हुआ वायु ऐसा जान पड़ता था मानो चिरकालतक गुफाकी गरमीसे दुःखी हुई सेनाको आश्वासन ही दे रहा हो ॥३७॥ जिसने ऋतु सम्बन्धी अनेक फल-फूल धारण किये हैं और जो वायुसे हिल रहा है ऐसा वह वन उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो चक्रवर्तीके आनेपर संतुष्ट होकर हिलते हुए अपने शाखा रूपी हाथोंके समूहसे नृत्य ही कर रहा हो ॥३८॥ जब सेनापति पहलेकी तरह यहांके भी पश्चिम म्लेच्छ खण्डको जीत चुका तब महाराज भरत अपनी सेनाओंके द्वारा मध्यम म्लेच्छ खण्डको जीतनेके लिये उद्यत हुए ॥३९॥ यद्यपि भरत सूर्यके समान उत्तर दिशाकी ओर निकले थे तथापि जिस प्रकार सूर्य अपने कर अर्थात् किरणोंसे लोगोंको पीड़ित करता है, पृथिवी का रस अर्थात जल सखा देता है, और मनुष्योंको संतप्त करता है उस प्रकार उन्होंने अपने कर अर्थात् टेक्ससे लोगोंको पीड़ित नहीं किया था, पृथिवीका रस अर्थात् आनन्द नहीं सुखाया था-नष्ट नहीं किया था और न मनुष्योंको संतप्त अर्थात् दुःखी ही किया था ।।४०॥ सूर्य उत्तर दिशामें पहुँचकर अपनी किरणोंसे सन्ताप करता है परन्तु महाराज भरतने पृथिवीका संताप दूर कर दिया था ॥४१॥ जिनमें अनेक व्यूहोंकी रचना की गई है और जो परस्परमें मिली हुई हैं ऐसी भरतकी सेनाएँ न तो उनसे बहुत दूर ही जाती थीं और न स्वच्छन्दतापूर्वक १ अपनीतैः । २ उत्तरगुहाद्वारम् । ३ पुरोगतैः । ४ वनभूमिम् । ५ मन्यते स्म । ६ अतिवाञ्छया। ७ निगरणं कृत्वा । ८ जीर्णशक्त्यभावात् । ६ उगिलति स्म । १० ऋतौ भवम् आर्तवम् पुष्पादि। धृतमार्तवं येन तत् । ११ उत्तरदिग्भागः । १२ उत्तरस्यां दिशि स्थित्वा । १३ नितराम् । १४ विहितरचनानि । १५ संबद्धानि मिलितानि वा । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ महापुराणम् प्रसाधितानि दुर्गाणि कृतं चाशक्यसाधनम् । परचक्रमवष्टब्ध' चक्रिणो जयसाधनैः ॥४३॥ बलवान्नाभियोक्तव्यो रक्षणीयाश्च संश्रिताः। यतितव्यं क्षितित्राणे जिगीषोत्तमीदशम् ॥४४॥ इत्यलङघ्यबलश्चक्री चक्ररत्नमनुवजन् । कियतीमपि तां भूमिम् अवाष्ट म्भीत् स्वसाधनः ॥४५॥ तावच्च परचक्रेण स्वचक्रस्य पराभवम् । चिलातावर्तनामानौ प्रभू शुश्रुवतुः किल ॥४६॥ अभूतपूर्वमेतन्नौ परचक्रमुपस्थितम् । व्यसनं प्रतिकर्तव्यम् इत्यास्तां सङगतौ मिथः ॥४७॥ ततो धनुर्धरप्रायं सहाश्वीयं सहास्तिकम् । इतोऽमुतश्च संजग्मे तत्सैन्यं म्लेच्छराजयोः ॥४८॥ कृतोच्चविग्रहारम्भौ संरम्भं प्रतिपद्य तौ। विक्रम्य' चक्रिणः सैन्यैः भेजतुविजिगीषुताम् ॥४६॥ तावच्च सुधियो धीराः कृतकार्याश्च मरित्रणः । निषिध्य तौ रणारम्भाद् वचः पथ्यमिदं जगुः ॥५०॥ न किञ्चिदप्यनालोच्य विधेयं सिद्धिकाम्यता । अनालोचितकार्याणां दवीयस्योऽर्थसिद्धयः ॥५१॥ कोऽयं प्रभुरवष्टम्भी कुतस्त्यो वा कियदलः१२ । बलवान् इत्यनालोच्य नाभिषेण्यः कथञ्चन ॥५२॥ विजयार्द्धचलोल्लङघी नैष सामान्यमानुषः । दिव्यो५ दिव्यानुभावो वा भवेदेष न संशयः ॥५३॥ --------- इधर उधर ही घूमती थीं ॥४२॥ चक्रवर्तीकी विजयी सेनाओंने अनेक किले अपने वश किये, जिन्हें कोई वश नहीं कर सकता था, ऐसे राजाओंको वश किया और शत्रुओंके देश घेरे ॥४३।। बलवान्के साथ युद्ध नहीं करना, शरणमें आये हुएकी रक्षा करना, और अपनी पृथिवीकी रक्षा करने में प्रयत्न करना यही विजयकी इच्छा करनेवाले राजाके योग्य आचरण हैं ॥४४॥ इस प्रकार जिनकी सेना अथवा पराक्रमको कोई उल्लंघन नहीं कर सकता ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके पीछे पीछे जाते हुए अपनी सेनाके द्वारा वहाँकी कितनी ही भूमिको अपने आधीन कर लिया ॥४५॥ इतने में ही चिलात और आवर्त नामके दो म्लेच्छ राजाओंने शत्रुओंकी सेनाके द्वारा अपनी सेनाका पराभव होता सुना ॥४६॥ हमारे देशमें शत्रुओंकी सेना आकर उपस्थित होना यह हम दोनोंके लिये बिलकुल नई बात है, इस आये हुए संकटका हमें प्रतिकार करना चाहिये ऐसा विचार कर वे दोनों ही म्लेच्छ राजा परस्पर मिल गये ॥४७॥ तदनन्तर जिसमें प्रायः करके धनुष धारण करनेवाले योद्धा हैं, तथा जो हाथियों और घोड़ोंके समूहसे सहित हैं ऐसी उन दोनों राजाओंकी सेना इधर उधरसे आकर इकटी मिल गई ॥४८॥ जिन्होंने भारी युद्ध करनेका उद्योग किया है ऐसे वे दोनों ही राजा क्रोधित होकर तथा परात्रम प्रकट कर चक्रवर्तीकी सेनाओंके साथ विजिगीषुपनको प्राप्त हुए अर्थात् उन्हें जीतनेकी इच्छासे उनके प्रतिद्वन्द्वी हो गये ॥४९॥ इसीके बीच, बुद्धिमान् धीरवीर तथा सफलतापूर्वक कार्य करनेवाले मंत्रियोंने उन दोनों राजाओंको युद्धके उद्योगसे रोककर नीचे लिखे अनुसार हितकारी वचन कहे ॥५०॥ हे प्रभो, सिद्धिकी इच्छा करनेवालोंको बिना विचारे कुछ भी नहीं करना चाहिये क्योंकि जो बिना विचारे कार्य करते हैं उनके कार्योंकी सिद्धि बहुत दूर हो जाती है ।।५१॥ हमारी सेनाको रोकनेवाला यह कौन राजा है ? कहांसे आया है ? इसकी सेना कितनी है और यह कितना बलवान् है इन सब बातोंका विचार किये बिना ही उसकी सेनाके सन्मुख किसी भी तरह नहीं जाना चाहिये ॥५२॥ विजयाई पर्वतको उल्लंघन करनेवाला यह कोई साधारण मनुष्य नहीं है, यह या तो कोई देव होगा या कोई दिव्य प्रभावका धारक होगा इसमें १ व्याप्तम् । २ अभिषेणनीयः । ३ महतीम् । ४ वेष्टयति स्म। ५ परसैन्येन । ६ स्वराष्ट्रस्य । ७ आवयोः । ८ संगतमभूत् । अधिकां शक्ति विधाय। १० सिद्धिमिच्छता। ११ दूरतराः । १२ कियबल अ०, स०, इ०। १३ सेनया अभियातव्यः । १४ सर्वथा । १५ देवः । १६ दिव्यसामर्थ्यः। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व तदास्तां समरारम्भः सम्भाव्यो दुर्गसंश्रयः । तदाश्रितैरनायासात् जेतुं शक्यो रिपुर्महान् ॥५४॥ स्वभावदुर्गमेतन्नः क्षेत्र केनाभिभूयते। हिमवद्विजया द्रिगङगा'सिन्धुतटावधि ॥५५॥ अन्यच्च देवताः सन्ति सत्यमस्मत्कुलोचिताः । नागा मेघमुखा नाम ते निरुन्धन्तु शात्रवान् ॥५६॥ इति तद्वचनाज्जातजयाशंसौ जनेश्वरौ । देवतान स्मृति सद्यः चक्रतुः कृतपूजनौ ॥५७॥ ततस्ते जलदाकारधारिणो घनर्गाजताः । परितो वृष्टिमातेन : सानिलामनिलाशनाः ॥५॥ तज्जलं जलदोद्गीर्ण बलमाप्लाव्य जैष्णवम् । अधस्तिर्यगथोऽवं च समन्तादभ्यदुद्रवत् ॥५६॥ न चेल क्नोपमस्यासीत् शिबिरे वृष्टिरीशितुः । बहिरेकार्णवं कृत्स्नम् अकरोद् व्याप्य रोदसी ॥६०॥ छत्ररत्नमुपर्यासीच्चर्मरत्नमयोऽभवत् । ताभ्यामावेष्टय तद्द्धं बलं स्य तमिवाभितः ॥६॥ मध्यरत्नद्वयस्यास्य स्थितमासप्तमाद् दिनात् । जलप्लव बलं भर्तुः व्यक्तमण्डायितं तदा ॥६२॥ चक्ररत्नकृतोद्योते रुद्धद्वादशयोजने। तत्राण्डके स्थितं जिष्णोः निराबाधमभूद् बलम् ॥६३॥ प्रविभक्तचतुरि सेनान्यान्तःसुरक्षितम् । बहिर्जयकुमारण ररक्षे किल तबलम् ॥६४॥ तदा पटकुटीभेदाः कीडिकाश्च विशडाकटाः । कृताः स्थपतिरत्नेन रथाश्चाम्बर गोचराः ॥६५॥ कुछ भी सन्देह नहीं है ॥५३॥ इसलिये युद्धका उद्योग दूर रहे, हम लोगोंको किसी किलेका आश्रय लेना चाहिये, क्योंकि किलेका आश्रय लेनेवाले पुरुष बड़ेसे बड़े शत्रुको सहज ही जीत सकते हैं ॥५४॥ हिमवान् पर्वतसे विजयार्ध पर्वत तक और गङ्गा नदीसे सिन्धु नदीके किनारे तक का यह हमारा क्षेत्र स्वभावसे ही किलेके समान है, इसका पराभव कौन कर सकता है ? इसे कौन जीत सकता है ? ॥५५॥ और दूसरी बात यह भी है कि हमारी कुल-परम्परासे चले आये नागमख और मेघमख नामके जो देव हैं वे अवश्य ही शत्रओंको रोक लेंगे ॥५६॥ इस प्रकार मन्त्रियोंके वचनोंसे जिन्हें विजय करनेकी इच्छा उत्पन्न हुई है ऐसे उन दोनों राजाओं ने शीघ्र ही पूजन कर देवताओंका स्मरण किया ॥५७॥ स्मरण करते ही नागमुख देव, बादलों का आकार धारण कर घनघोर गर्जना करते हुए चारों ओर झंझा वायुके साथ साथ जलकी वृष्टि करने लगे ॥५७॥ मेघोंके द्वारा बरसाया हुआ वह जल भरतेश्वरकी सेनाको डुबोकर ऊपर नीचे तथा अगल बगल चारों ओर बहने लगा ॥५८। यद्यपि वह जल इतना अधिक था कि उसने आकाश और पृथिवीके अन्तरालको व्याप्त कर बाहर एक समुद्र सा बना दिया था परन्तु चक्रवर्तीके शिबिर (छावनी) में वस्त्रका एक टुकड़ा भिगोने योग्य भी वृष्टि नहीं हुई थी ॥५९-६०।। उस समय भरतकी सेनाके ऊपर छत्ररत्न था और नीचे चर्मरत्न था, उन दोनों रत्नोंसे घिरकर रुकी हुई सेना ऐसी मालूम होती थी मानो चारों ओरसे सी ही दी गई हो अर्थात् चर्मरत्न और छत्ररत्न इन दोनोंमें चारों ओरसे टांके लगाकर बीच में ही रोक दी गई हो ॥६१॥ उस जलके प्रवाहमें भरतकी वह सेना सात दिनतक दोनों रत्नोंके भीतर ठहरी थी और उस समय वह ठीक अंडाके समान जान पड़ती थी॥६२।। जिसमें चक्ररत्नके द्वारा प्रकाश किया जा रहा है ऐसे उस बारह योजन लम्बे-चौड़े अण्डाकार तम्बूमें ठहरी हुई भरतकी सेना सब तरहकी पीड़ासे रहित थी ॥६३॥ उस बड़े तम्ब में चारों दिशाओंमें चार दरवाजे विभक्त किये गये थे, उसके भीतरकी रक्षा सेनापतिने की थी और बाहरसे जयकुमार उस सेनाकी रक्षा कर रहे थे ।।६४।। उस समय सिलावट रत्नने अनेक प्रकारके कपड़े के तम्बू, घासकी बड़ी बड़ी झोपड़ियां और आकाशमें चलने वाले रथ भी तैयार किये थे ॥६५॥ १ गाङगसिन्ध-ल०। २ नागमेघ-ल० । ३ नागाः । ४ जिष्णोश्चक्रिण: सम्बन्धि । ५ अभिधावति स्म। ६ पटमा यथा भवति । ७ ऊतम् तन्तुना सम्बद्धमित्यर्थः । ८ अण्डमिवाचरितम् । ६ पञ्जरे। १० कीटिका: कुटीराः, शालाः । किटिकाश्च ल०, द०, अ०, प०, स० । ११ विशालाः । १२ रथाः संचरगोचराः प० । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महापुराणम् बहिः कलकलं श्रुत्वा किमेतदिति पार्थिवाः। करं व्यापारयामासः ऋद्धाः कौक्षेयक' प्रति ॥६६॥ ततश्चक्रधरादिष्टा गणबद्धामरास्तदा। नागानु त्सारयामासु': प्रारुष्टा' हुङकृतः क्षणात् ॥६७॥ बलवान कुरुराजोऽपि मुक्तसिंहाजितः । दिव्यास्त्ररजयन्नागान् रथं दिव्यमधिष्ठितः ॥६॥ तदा रणाङगणे वर्षन् शरधारामनारतम् । स रेजे धृतसन्नाहः प्रावृषेण्य इवाम्बुदः ॥६६॥ तन्मक्ता विशिखा दीप्रा रेजिर समराजिरे । द्रष्टुं तिरोहितानागान् दीपिका इव बोधिताः ॥७०॥ ततो निववृते जित्वा नागान् मेघमुखानसौ । कुमारो रणसंरम्भात् प्राप्तमेघस्वरश्रुतिः ॥७१॥ कुरुराजस्तदा स्फूर्जत्पर्जन्यस्तनितोजितैः। गजितनिर्जयन् मेघमुखान् ख्यातस्तदाज्ञया ॥७२॥ तोषितैरवदानेनर घोषितोऽस्य जयोऽमरैः । दन्ध्वनदुन्दुभिध्वानबधिरीकृतदिडामुखैः ॥७३॥ ततो दृष्टापदानोऽयं तुष्टुवे चक्रिणा मुहुः । नियोजितश्च सत्कृत्य वीरो वीराग्रणीपदे ॥७४॥ इन्द्रजाल इवामुष्मिन् व्यतिक्रान्तेऽहिविप्लवे । प्रत्यापत्तिमगाद् भूयो बलमाविर्भवज्जयम् ॥७॥ विध्वस्ते पन्नगानीके विबलौ म्लेच्छनायकौ । चक्रिणश्चरणावत्य भयभ्रान्तौ प्रणेमतुः ॥७६॥ धनं यशोधनं चास्मै कृतागः परिशोधनम् । दत्वा प्रसीद देवेति तो भूत्यत्वमुपेयतुः ॥७७॥ बाहर कोलाहल सुनकर 'यह क्या है' इस प्रकार कहते हुए राजाओंने क्रोधित होकर अपना हाथ तलवारकी ओर बढ़ाया ॥६६॥ तदनन्तर, उस समय जिन्हें चक्रवर्तीने आदेश दिया है ऐसे गणबद्ध जातिके देवोंने क्रुद्ध होकर अपने हुंकार शब्दोंके द्वारा क्षणभरमें नागमुख देवोंको हटा दिया ॥६७।। अतिशय बलवान् कुरुवंशी राजा जयकुमारने भी दिव्य रथपर बैठकर सिंह-गर्जना करते हए, दिव्य शस्त्रोंके द्वारा उन नागमुख देवोंको जीता ॥६८।। उस समय युद्धके आंगनमें निरन्तर बाणोंकी वर्षा करता हुआ और शरीरपर कवच धारण किये हुए वह जयकुमार वर्षाऋतुके बादलके समान सुशोभित हो रहा था ॥६९॥ जयकुमारके द्वारा छोडे हए वे देदीप्यमान बाण यद्धके आंगनमें ऐसे सशोभित हो रहे थे मानो छिपे हए नागमखों को देखने के लिये जलाये हुए दीपक ही हों ।।७०॥ तदनन्तर वह जयकुमार नागमुख और मेघमुख देवोंको जीतकर तथा मेघेश्वर नाम पाकर उस युद्धसे वापिस लौटा ॥७१।। उस समय वह जयकुमार बिजली गिरानक पहले भयकर शब्द करते हुए बादलोकी गर्जनाक अपनी तेज गर्जनाके द्वारा मेघमख देवोंको जीतता हआ मेघश्वर नामसे प्रसिद्ध हआ था ।।७२।। बार-बार बजते हुए दुन्दुभियोंके शब्दोंसे जिन्होंने समस्त दिशाएँ बहिरी कर दी हैं ऐसे देवों ने इस जयकुमारके पराक्रमसे सन्तुष्ट होकर इसका जयजयकार किया था ।।७३।। तदनन्तर जिसका पराक्रम देख लिया गया है ऐसे इस जयकुमारकी चक्रवर्तीने भी बार-बार प्रशंसा की और उस वीरका सत्कार कर उन्होंने उसे मुख्य शूरवीरके पदपर नियुक्त किया ।।७४।। इन्द्रजालके समान वह नागमुख देवोंका उपद्रव शान्त हो जानेपर जिसकी जीत प्रकट हो रही है ऐसी वह भरतकी सेना पुनः स्वस्थताको प्राप्त हो गई अर्थात् उपद्रव टल जानेपर सुखका अनुभव करने लगी ॥७५।। नागमख देवोंकी सेनाके भाग जानेपर वे दोनों ही चिलात और आवर्त नामके म्लेच्छ राजा निर्बल हो गये और भयसे घबड़ाकर चक्रवर्तीके चरणोंके समीप आकर प्रणाम करने लगे ॥७६॥ उन्होंने अपराध क्षमा कराकर भरतके लिये बहुत सा धन तथा यशरूपी धन दिया और 'हे देव, प्रसन्न होइए' इस प्रकार कहकर उनकी दासता स्वीकार १ खड्गम् । २ आज्ञापिताः। ३ पालयितान् चक्रुः । ४ क्रुद्धाः । ५ जयकुमारः । ६ धृतकवचः । ७ प्रावृषि भवः । ८ समरांगणे । ६ न्यवृतत्। १० प्राप्तमेघस्वरसंज्ञः । ११ मेघः । १२ पराक्रमेण । १३ दृष्टावदातोऽयं स०, ल०, द० । दृष्टावदानोऽयं द०, प० । दृष्टसामर्थ्यः । १४ स्तूयते स्म। १५ पूर्वस्थितिम् । स्वरूपात् प्रच्युतस्य पुनः स्वरूपे अवस्थानम्, आश्वासमित्यर्थः । १६ कृतदोषस्य परिशोधन यस्मात् तत् । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तम पर्व ११२ निस्सपत्नां महीमेनां कुर्वन्नडिनिधीश्वरः । प्रा हिमाद्रितटाद् भूयः प्रवाणमकरोद् बलैः ॥७८॥ सिन्धुरोधोभुवः क्षुन्दन् प्रयाणे जयसिन्धुरैः । सिन्धुप्रपात मासीदन् सिन्धुदेव्या न्यषेचि सः ॥७॥ ज्ञात्वा समागतं जिष्णु देवी स्वावासगोचरम् । उपेयाय समद्धत्य रत्नार्घ सपरिच्छदा॥८॥ पुण्यः सिन्धुजलैरेनं हेमकुम्भशतोद्धृतः । साभ्यषिञ्चत् स्वहस्तेन भद्रासननिवेशितम् ॥८१॥ कृतमङगलनेपथ्यम् अभ्यनन्दज्जयाशिषा । देव त्वद्दर्शनादध पूताऽस्मीत्यवदच्च तम् ॥८२॥ तत्र भद्रासनं दिव्यं लब्ध्वा तदुपढौकितम् । कृतानुव्रजनां० किञ्चित् सिन्धुदेवों व्यसर्जयत् ॥८३॥ हिमाचलमनुप्राप्तः तत्तटानि जयं जयम् । कश्चित्प्रयाणकैः प्रापत् हिमवत्कूटसन्निधिम् ॥८४॥ पुरोहितसखस्तत्र कृतोपवसनक्रियः । अध्यशेत३ शुचि शय्यां दिव्यास्त्राण्यधिवासयन् ॥८॥ विधिरेष नचाशक्तिरिति५ सम्भावितो न पैः । स राज्यमकरोच्चापं.६ वजकाण्डमयत्नतः ॥८६॥ तत्रामोघं शरं दिव्यं °समधत्तोर्ध्वगामिनम् । वैशाखस्थानमास्थाय८ स्वनामाक्षरचिह्नितम् ॥७॥ मुक्तसिंहप्रणादेन यदा मुक्तः शरोऽमुना । तदा सुरगणैस्तुष्टः मुक्तोऽस्य कुसुमाञ्जलिः ॥८॥ की ॥७७।। इस समस्त पृथिवीको शत्रुरहित करते हुए प्रथम निधिपति-चक्रवर्तीने फिर अपनी सेनाके साथ साथ हिमवान् पर्वतके किनारे तक गमन किया ।।७८।। गमन करते समय अपने विजयी हाथियोंके द्वारा सिन्धु नदीके किनारेकी भूमिको खूदते हुए भरतेश्वर जब सिन्धुप्रपात पर पहुँचे तब सिन्धु देवीने उनका अभिषेक किया ॥७९।। वह देवी भरतको अपने निवास स्थानके समीप आया हुआ जानकर रत्नोंका अर्घ लेकर परिवारके साथ उनके पास आई थी ॥८०॥ और उसने अपने हाथसे सुवर्णके सैकड़ों कलशोंमें भरे हुए सिन्धु नदीके पवित्र जलरो भद्रासनपर बैठे हुए महाराज भरतका अभिषेक किया था ॥८१।। अभिषेक करनेके बाद उस देवीने मंगलरूप वस्त्राभूषण पहने हए महाराज भरतको विजयसचक आशीर्वादों से आनन्दित किया तथा यह भी कहा कि हे देव, आज आपके दर्शनसे में पवित्र हुई हूँ ।।८२।। वहां उस सिन्धु देवीका दिया हुआ दिव्य भद्रासन प्राप्त कर भरतने आगेके लिये प्रस्थान किया और कुछ दूर तक पीछे पीछे आती हुई सिन्धु देवीको बिदा किया ॥८३॥ हिमवान् पर्वत के समीप पहुंचकर उसके किनारोंको जीतते हुए भरत कितने ही मुकाम चलकर हिमवत् कूट के निकट जा पहुंचे ॥८४।। वहाँ उन्होंने पुरोहितके साथ साथ उपवास कर और दिव्य अस्त्रों की पूजा कर डाभकी पवित्र शय्यापर शयन किया ॥८५।। अस्त्रोंकी पूजा करना यह एक प्रकारकी विधि ही है, कुछ चक्रवर्तीका असमर्थपना नहीं है, ऐसा विचार कर राजाओंने जिनका सन्मान किया है ऐसे भरतराजने बिना प्रयत्नके ही अपना वजूकाण्ड नामका धनुष डोरीसे सहित किया ॥८६॥ और वैशाख नामका आसन लगाकर अपने नामके अक्षरोंसे चिह्नित तथा ऊपरकी ओर जानेवाला अपना अमोघ (अव्यर्थ ) दिव्य बाण उस धनुषपर रक्खा ॥८७॥ जिस समय सिंहनाद करते हुए भरतने वह बाण छोड़ा था उस समय देवोंके समूहने संतुष्ट होकर उनपर फूलोंकी अञ्जलियाँ छोड़ी थी , अर्थात् फूलोंकी वर्षा की थी ॥८८।। १ उत्कृष्टनिधिपतिः । 'वरे त्वर्वागित्यभिधानात् । २ सिन्धुनदीतीरभूमीः । ३ सञ्चूर्णयन् । ४ सिन्धुनदीपतनकुण्डम् । ५ आगच्छन् । ६ न्यषेवि द० । सेवते स्म । ७ उपाययौ । ८ सपरिकरा। ६ पवित्रः । १० विहितानुगमनाम् । ११ जयन् जयन् ल०, अ०, इ०, । जयं जयन् प०, स०। १२ हिमवन्नामकूट । १३ अधिशेते स्म । १४ मन्त्रैरभिपूजयन् । १५ शक्यभावो न। १६ मौर्वीसहितम् । १७ सन्धानमकरोत् । १८ वैशाखस्थान स्थित्वा, वितस्त्यन्तरेण स्थिते पादद्वये विशाखः, तथा चोक्तं धनुर्वेदे। वामपादप्रसार दक्षिणसंकोचे प्रत्यलीढ दक्षिणजंघाप्रसारे वामसंकोचे चालीढम् । तुल्यपादयगम् समपदम् । वितस्त्यन्तरेण स्थिते पादद्वयं विशाखः, मण्डलाकृति पादयं मण्डलम् । १६ चक्रिणा । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० महापुराणम् स शरो दूरमुत्पत्य क्वचिदप्यस्खलद्गतिः। 'संप्राप्यद्धिमवत्कूटं तद्वेश्माकम्पयन् पतन् ॥८६॥ स मागधवदाध्याय' ज्ञातचक्रधरागमः । उच्चचाल चलन्मौलिः तनिवासी सुरोत्तमः ॥१०॥ सम्प्राप्तश्च तमुद्देशं यमध्यास्ते स्म चक्रभृत् । दरोपरुद्ध संरम्भो धनुासकृत्स्पृशन् ॥१॥ तुङगोऽयं हिमवानद्रिः अलङघ्यश्च पृथग्जनैः । लङघितोऽद्य त्वया देव त्वद्वत्तमतिमानुषम् ॥२॥ वि प्रकृष्टान्तराः क्वास्मदावासाः क्व भवच्छरः । तथाप्याकम्पितास्तेन पततैकपदे० वयम् ॥३॥ त्वत्प्रतापः शरव्याजात् उत्पतन् गगनाङगणम् । गणबद्धपदे कर्तुम् अस्मान् नातवान् ध्रुवम् ॥१४॥ विजिताब्धिः समाक्रान्तविजयाचग होदरः । हिमाद्रिशिखरेष्वद्य जम्भते ते जयोद्यमः१९ ॥६५॥ जयवादोऽनुवादोऽयं सिद्धदिग्विजयस्य ते। जयतात् नन्दताज्जिष्णो वद्धिषीष्ट भवानिति ॥१६॥ समुच्चरन् जयध्वानमुखरः स सुरैः समम् । प्रभु सभाजयामास सोपचारं सुरोत्तमः ॥७॥ अभिषिच्य च राजेन्द्र राजवद्विधिना" ददौ । गोशीर्षचन्दनं.५ सोऽस्मै सममौषधिमालया ॥८॥ त्वद्भक्तिवासिनो" देव दूरानमितमौलयः। देवास्त्वामानमन्त्येते त्वत्प्रसादाभिकाडिक्षणः ॥९॥ जिसकी गति कहीं भी स्खलित नहीं होती ऐसा वह वाण ऊपर की ओर दूरतक जाकर वहाँपर रहनेवाले देवके भवनमें पड़कर उस भवनको हिलाता हुआ हिमवत्कूटपर जा पहुँचा ॥८९।। मागध देवके समान कुछ विचार कर जिसने चक्रवर्तीका आगमन समझ लिया है ऐसा वहाँका रहने वाला देव अपना मस्तक झुकाता हुआ चला ॥९०।। और जिसने अपना कुछ क्रोध रोक लिया है ऐसा वह देव धनुषकी चापका स्पर्श करता हुआ उस स्थानपर जा पहुँचा जहाँपर कि चक्रवर्ती विराजमान थे ॥९१॥ वह देव भरतसे कहने लगा कि हे देव, यह हिमवान् पर्वत अत्यन्त ऊँचा है और साधारण पुरुषोंके द्वारा उल्लंघन करने योग्य नहीं है फिर भी आज आपने उसका उल्लंघन कर दिया है इसलिये आपका चरित्र मनुष्योंको उल्लंघन करनेवाला अर्थात् लोकोत्तर है ॥९२॥ हे देव, बहुत दूर बने हुए हम लोगोंके आवास कहाँ ? और आपका बाण कहां ? तथापि पड़ते हुए इस बाणने हम सबको एक ही साथ कम्पित कर दिया ॥९३॥ हे देव, यह आपका प्रताप बाणके व्याजसे आकाशमें उछलता हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो हम लोगोंको गणबद्ध (चक्रवर्तीके आधीन रहनेवाली एक प्रकारकी देवोंकी सेना ) देवोंके स्थानपर नियुक्त होनेके लिये बुला ही रहा था ॥९४॥ जिसने समुद्रको भी जीत लिया है और विजया पर्वतकी गुफाओंके भीतर भी आक्रमण कर लिया है ऐसा यह आपका विजय करने का उद्यम आज हिमवान् पर्वतके शिखरोंपर भी फैल रहा है ॥९५॥ हे प्रभो, आपका समस्त दिग्विजय सिद्ध हो चुका है इसलिये हे जयशील, आपकी जय हो, आप समृद्धिमान् हों और सदा बढ़ते रहें इस प्रकार आपका जयजयकार बोलना पुनरुवत है ।।९६॥ इस प्रकार उच्चारण करता हआ जो जय जय शब्दोंस वाचाल हो रहा है ऐसा वह उत्तम देव अन्य अनेक उत्तम देवोंके साथ साथ सब तरहके उपचारोंसे भरतकी सेवा करने लगा ।।९७।। तथा राजाओंके योग्य विधिसे राजाधिराज भरतका अभिषेक कर उसने उनके लिये औषधियोंके समूहके साथ गोशीर्ष नामका चन्दन समर्पित किया ॥९८॥ और कहा कि हे देव, आपके क्षेत्रमें रहनेवाले ये देव आपकी प्रसन्नताकी इच्छा करते हुए दूरसे ही मस्तक झुकाकर आपके लिये नमस्कार १ सम्प्रापद्धिम- प०, ल०। २ विचार्येत्यर्थः । ३ हिमवत्कटवासी। हेमवान्नाम । ४ ईषत्पीडित । ५ सामान्यैः । ६ दिव्यमित्यर्थः । ७ दूर । ८ भवतो बाणः । ६ शरेण । १० युगपत् । ११ जयोद्योगः । १२ सार्थकं पुनर्वचनमनुवादः । १३ सम्भावयामास । १४ राजाहविधानेन । १५ हरिचन्दनम् । १६ वनपुष्पमालया। १७ तव पालनक्षेत्रवासिनः । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व १२१ धेहि देव ततोऽस्मास प्रसादतरलां दशम् । स्वामित्रसादलामो हि वृत्तिलाभोऽनुजीविनाम् ॥१०॥ निदेश चितश्चास्मान् सम्भावयितुमर्हसि । बृत्तिलाभादपि प्रायः तल्लानः५ किडकरैर्मतः ॥१०१॥ मानवनिति ताक्यं स तानमरसत्तमान् । व्यसर्जयस्वात्कृत्य यथास्वं कृतमाननान ॥१०२॥ हिमवज्जयशंसीनि मङ्गलान्यस्य किराः । जगुस्तकुञ्जदेशेषु' स्वैरमारब्धमूर्च्छना ॥१०३॥ असकृत् किन्नरस्त्रीणाम् अाधुन्धानाः स्तनावृतीः । सरोवोचिभिदो नन्दम् आवतुरतद्वनानिलाः ॥१०४॥ स्थलादिमनीवनाद्विष्वक किरन् किञ्जल्कजं रजः । हिमी हिमाद्रिकुर्जेभ्यः तं सिषेवे समीरणः॥१०॥ स्थलाम्मोहिणीवास्य कीतिः साक' जयश्रिया। हिमाचलनिकुञ्जषु पप्रथे १५ दिग्जयाजिता ॥१०६॥ हिमाचलस्थलेष्वस्य धुतिरासीत् प्रपश्यतः । कृतोपहारकृत्येषु१२ स्थलाम्भोजैविकस्वरैः ॥१०७॥ तनुत्तत्तिमाकान्तनिकचक्रं विवृतायतिम् । स्वमिवानापरलद्धि हिमाद्रि बहवभंस्त। सः ॥१०॥ कर रहे हैं ॥९९।। इसलिये हे देव, हम लोगोंपर प्रसन्नतासे चञ्चल हुई दृष्टि डालिये क्योंकि स्वामीकी प्रसन्नता प्राप्त होना ही सेवक लोगोंकी आजीविका प्राप्त होना है। भावार्थ-स्वामी लोग सेवकोंपर प्रसन्न रहें यही उनकी उचित आजीविका है ॥१००॥ हे स्वामिन्, आप उचित आज्ञाओंके द्वारा हम लोगोंको सन्मानित करनेके योग्य हैं अर्थात् आप हम लोगोंको उचित आज्ञाएँ दीजिये क्योंकि सेवक लोग स्वामीकी आज्ञा मिलनेको आजीविका (तनख्वाह)की प्राप्तिसे भी कहीं बढ़कर मानते हैं ॥१०१॥ इस प्रकारके उस देवके वचनोंकी प्रशंसा करते हुए भरतने उन सब उत्तम देवोंका सत्कार किया और सवको अपने आधीन कर विदा कर दिया ॥१०२।। उस समय अपने इच्छानसार स्वरोंका चढ़ाव-उतार करनेवाले किन्नर देव उस पर्वतके लतागृहोंके प्रदेशों में भरतने हिमवान् देवको जीत लिया है' इस बातको सूचित करनेवाले मंगलगीत गा रहे थे ।।१०३।। उस समय वहां किन्नर देवोंकी स्त्रियोंके स्तन ढकनेवाले वस्त्रोंको बार-बार हिलाता हुआ तथा तालाबकी तरंगोंको छिन्न भिन्न करता हुआ उस हिमवान् पर्वतके वनोंका वायु धीरे धीरे बह रहा था ॥१०४।। स्थल कमलिनियोंके वनके चारों ओर केशरसे उतान्न हुआ रज फैलाता हुआ तथा हिमवान् पर्वतके लतागृहोंसे आया हुआ शीतल वायु महाराज भरतकी सेवा कर रहा था ।।१०५।। दिग्विजय करनेसे प्राप्त हुई भरतकी कोति जयलक्ष्मीके साथ साथ स्थलकमलिनियोंके समान हिमवान् पर्वतके लतागृहोंमें फैल रही थी ॥१०६॥ जिन्होंने फूले हुए स्थल-कमलोंसे उपहारका काम किया है ऐसे हिमवान् पर्वतके स्थलोंम चारों ओर देखते हुए भरतको बहुत ही संतोष होता था ।।१०७॥ वह हिमवान् पर्वत ठीक भरतके समान था क्योंकि जिस प्रकार भरत उच्चैर्वृत्ति अर्थात् उत्कृष्ट व्यवहार धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह पर्वत भी उच्चैर्वृत्ति अर्थात् बहुत ऊँचा था, जिस प्रकार भरतने अपने तेजसे समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली थी उसी प्रकार उस पर्वतने भी अपने विस्तार से समस्त दिशाएं व्याप्त कर ली थीं, जिस प्रकार भरत आयति अर्थात् उत्तम भवितव्यता (भविष्यत्काल) धारण करते थे उसी प्रकार वह पर्वत भी आयति अर्थात लम्बाई धारण कर रहा था और जिस प्रकार भरतके पास अनेक रत्नरूपी सम्पदाएँ थीं उसी प्रकार उस पर्वत के पास भी अनेक रत्नरूपी सम्पदाएँ थीं। इस प्रकार अपनी समानता रखनेवाले उस हिमवान् १कर। २ जीवितलाभ: । 'आजीवो जीविका वाती वृत्तिर्वतनजीवन' इत्यभिधानात् । ३ सेवनानाम् । ८ शासनः । 'अपवादस्तु निर्देशो निदेशः शासनं च सः । शिष्टिश्चाज्ञा चे इत्यभिधानात् । ५ आज्ञालाभ: । ६ पूजयन् । ७ तद्देवस्य वचनम् । ८ हिमवन्निकुञ्जप्रदेशेष । निकुञ्जकुजौ वा क्लीवे लतादिपिहितोदरे' इत्यभिधानात् । ६ उरोजाच्छादनवस्त्राणि । १० सह । 'साकं सत्रा समं राह' इत्यभिधानात्। ११ प्रागडोऽभवत् । १२ विहितपुष्पोपहारव्यापारेप। १३ धृतधनागमम् । १८ बहुमानगात् । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ महापुराणम् अत्रान्तरे' गिरीन्द्रेऽस्मिन् व्यापारितदृशं प्रभुम्। विनोदयितुमित्युच्चः पुरोधा गिरमभ्यधात् ॥१०॥ हिमवानयमत्तङगः सङगतः सततं श्रिया। कलक्षोणीभतां धर्यो धत्ते यष्मदनक्रियाम॥११०॥ अहो महानयं शंलो दुरारोहो दुरुत्तरः । शरसन्धानमात्रेण सिद्धो युष्मन्महोदयात्॥१११॥ चित्ररलङकृता रत्नैः अस्य श्रेणी हिरण्मयी। शतयोजनमात्रोच्चा टडकच्छिन्नेव भात्यसौ ॥११२॥ स्वपूर्वापरकोटिभ्यां विगाह्य लवणार्णवम् । स्थितोऽयं गिरिराभानि मानदण्डायितो भुवः ॥११३॥ "द्विविस्तृतोऽयमद्रीन्द्रो भरता भरतर्षभ।मूले चोपरिभागे च तुल्यविस्तारसम्मतिः ॥११४॥ अस्यान सान रम्येयं वनराजी विराजते । शश्वदध्युषिता सिद्धविद्याधरमहोरगः ॥११॥ तटाभोगा० विभान्त्यस्य ज्वलन्मणिविचित्रिताः। चित्रिता इव संक्रान्तः स्वर्वधूप्रतिबिम्बकः ॥११६॥ पर्यटन्ति तटेष्वस्य सप्रेयस्यो" नभश्चराः । स्वरसंभोगयोग्येषु हारिभिर्लतिकागृहः ॥११७॥ विविक्त रमणीयेषु सानुष्वस्य धृतोत्सवाः । न धृति दधतेऽन्यत्र गीर्वाणाः साप्सरोगणाः ॥११८॥ पर्वतको भरतने बहुत कुछ माना था-आदरकी दृष्टिसे देखा था ॥१०८॥ इसी बीचमें, जब कि महाराज भरत अपनी दृष्टि हिमवान् पर्वतपर डाले हुए थे-उसकी शोभा निहार रहे थे तब पुरोहित उन्हें आनन्दित करनेके लिये नीचे लिखे अनुसार उत्कृष्ट वचन कहने लगा ॥१०९।। हे प्रभो, यह हिमवान् पर्वत बहुत ही उत्तुङ्ग अर्थात् ऊँचा है, सदा श्री अर्थात् शोभा से सहित रहता है और कुलक्षोणीभृत् अर्थात् कुलाचलोंमें श्रेष्ठ है इसलिये आपका अनुकरण करता है-आपकी समानता धारण करता है क्योंकि आप भी तो उत्तुङ्ग अर्थात् उदारमना हैं, सदा श्री अर्थात् राज्यलक्ष्मीसे सहित रहते हैं और कुलक्षोणीभृत् अर्थात् वंशपरम्परासे आये हुए राजाओंमें श्रेष्ठ हैं ॥११०॥ अहा, कितना आश्चर्य है कि यह बड़ा भारी पर्वत, जो कि कठिनाईसे चढ़ने योग्य है और जिसका पार होना अत्यन्त कठिन है, डोरीपर बाण रखते ही आपके पुण्य प्रतापसे आपके वश हो गया है ।।१११।। इसकी सुवर्णमयी श्रेणी अनेक प्रकार के रत्नोंसे सुशोभित हो रही है, सौ योजन ऊँची है और ऐसी जान पड़ती है मानो टांकीसे गढ़ कर ही बनाई गई हो ॥११२॥ अपने पूर्व और पश्चिमके कोणोंसे 'लवण समुद्रमें प्रवेश कर' पड़ा हुआ यह पर्वत ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो पृथिवीके नापनेका एक दण्ड ही हो ॥११३॥ हे भरतश्रेष्ठ, यह श्रेष्ठ पर्वत भरतक्षेत्रसे दूने विस्तारवाला है और मूल, मध्य तथा ऊपर तीनों भागोंमें इसका एक समान विस्तार है ॥११४।। जिसमें सिद्ध, विद्याधर और नागकुमार निरन्तर निवास करते हैं ऐसी यह मनोहर वनकी पंक्ति इस पर्वतके प्रत्येक शिखरपर शोभायमान हो रही है ॥११५॥ देदीप्यमान मणियोंसे चित्र विचित्र हुए इस पर्वतके किनारेके प्रदेश बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे हैं और भीतर पड़ते हुए देवांगनाओंके प्रतिबिम्बोंसे ऐसे जान पड़ते हैं मानो उनमें अनेक चित्र ही खींचे गये हों ॥११६।। सुन्दर लतागृहोंसे अपनी इच्छानुसार उपभोग करने योग्य इस पर्वतके किनारोंपर अपनी अपनी स्त्रियोंके साथ विद्याधर लोग टहल रहे हैं ॥११७॥ जो देव लोग अपनी अप्सराओंके साथ इस पर्वतके निर्जन पवित्र और रमणीय किनारोंपर क्रीड़ा कर लेते हैं फिर उन्हें किसी दूसरी जगह संतोष नहीं होता १ अस्मिन्नवसरे। २ श्रीदेव्या लक्षम्या च। ३ मुख्यः । ४ तवानुकरणम् । ५ अवतरितुमशक्यः । ६ राद्धो ल०। ७ द्विगुणविस्तारः। ८ भरतश्रेष्ठः । ६ तुल्या विस्तार-ल०, द० । १० सानुविस्ताराः। ११ प्रियतमासहिताः । १२ पवित्र । 'विविक्तौ पुतविजनौ' इत्यभिधानात् । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तम पर्व पर्यन्तेऽस्य' वनोद्देशा विकासि कसमस्मिताः । हसन्तीवामरोद्यानश्रियमात्मीयया श्रिया ॥११॥ स्वेन मूर्ना बिभत्येष श्रियं नित्यानपायिनीम् ।। स्मार्ताः स्मरन्ति यां शच्याः सौभाग्यमदषिणीम् ॥१२०॥ मूनि पद्महदोऽस्यास्ति धृतश्री'बहुवर्णनः । प्रसन्नवाररुत्फुल्लहमपङकजमण्डनः ॥१२१॥ हृदस्यास्य पुरःप्रत्यक्तोरण द्वारनिर्गते। गङगासिन्धू महानद्यौ धत्तेऽयं धरणीधरः ॥१२२॥ सरितं रोहितास्यां च दधात्यष शिलोच्चयः। तदुदक्तोरण द्वारानिःसत्योदङमुखीं गताम् ॥१२३॥ महापगाभिरित्याभिः अलङघयाभिविभात्ययम्। तिसभिः शक्तिभिः स्वं वा भूभभावं विभावयन् ॥१२४॥ शिखररेष कुत्कीलः कीलयन्निव खाङगणम् । सिद्धाध्वानं रुणद्धीद्धैः परायें रुद्धदिङमुखैः ॥१२॥ 'परश्शतमिहावीन्द्र सन्त्यावासाः सुधाशिनाम् । यऽनल्पां कल्पजां लक्ष्मी हसन्तीव स्वसंपदा ॥१२६॥ इत्यनेकगुणेऽप्यस्मिन् दोषोऽस्त्येको महानिगरौ। यत् पर्यन्तगतान्धत्ते गुरुरप्यगुरुद्रुमान् ॥१२७॥ प्रलंध्यमहिमोदनो गरिमाक्रान्तविष्टयः। जगद्गुरोः पुरोरा भाम् अयं धत्ते धराधरः ॥१२८॥ है ।।११८॥ जो फूले हुए फूलरूपी हास्यसे सहित हैं ऐसे इसके किनारेके वनके प्रदेश ऐसे जान पड़ते हैं मानो अपनी शोभासे देवोंके बगीचेकी शोभाकी हँसी ही कर रहे हों ॥११९॥ यह पर्वत अपने मस्तक (शिखर) से उस शोभाको धारण करता है, जो कि, सदा नाशरहित है और स्मृतिके जानकार पण्डित लोग जिसे इन्द्राणीके सौभाग्यका अहंकार दूर करनेवाली कहते हैं ।।१२०॥ इसके मस्तकपर पद्म नामका वह सरोवर है जिसमें कि श्री देवीका निवास है, शास्त्रकारोंने जिसका बहुत कुछ वर्णन किया है, जिसमें स्वच्छ जल भरा हुआ है, और जो कले हए सवर्ण कमलोंसे सशोभित है॥१२॥ यह पर्वत क्रमसे इस पद्मसरोवरके पूर्व तथा पश्चिम तोरणसे निकली हुई गङ्गा और सिन्धुनामकी महानदियोंको धारण करता है ।।१२२।। तथा पद्म सरोवरके उत्तर तोरणद्वारसे निकलकर उत्तरकी ओर गई हुई रोहितास्या नदीको भी यह पर्वत धारण करता है ॥१२३॥ यह पर्वत इन अलंध्य तीन महानदियोंसे ऐसा सुशोभित होता है मानो उत्साह, मन्त्र और प्रभुत्व इन तीन शक्तियोंसे अपना भूभृद्भाव अर्थात् राजा पना (पक्षमें पर्वतपना) ही प्रकट कर रहा हो ॥१२४।। देदीप्यमान तथा दिशाओंको व्याप्त करनेवाले अपने अनेक शिखरोंसे यह पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो आकाशरूपी आँगनको -यक्त कर देवोंका मार्ग ही रोक रहा हो ॥१२५।। इस पर्वतराजपर देवोंके अनेक आवास हैं जो कि अपनी शोभासे स्वर्गकी बहुत भारी शोभा की भी हंसी करते हैं ॥१२६॥ इस प्रकार इस पर्वतमें अनेक गुण होनेपर भी एक बड़ा भारी दोष है और वह यह कि यह स्वयं गुरु अर्थात् बड़ा होकर भी अपने चारों ओर लगे हुए अगुरु द्रुम अर्थात् छोटे छोटे वृक्षोंको धारण करता है (परिहार पक्षमें अगुरु द्रुमका अर्थ अगुरु चन्दनके वृक्ष लेना चाहिये) ॥१२७॥ यह पर्वत जगद्गुरु भगवान् वृषभदेवकी सदृशता धारण करता है क्योंकि जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव अपनी अलंघ्य महिमासे उदग्र अर्थात् उत्कृष्ट हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी अपनी अलंघ्य महिमासे उदग्र अर्थात् ऊँचा है और जिस प्रकार भगवान् वृषभदेवने अपनी गरिमा अर्थात् गुरुपने से समस्त विश्वको व्याप्त कर लिया था उसी प्रकार इस पर्वतने भी अपनी गरिमा अर्थात् भारीपनसे समस्त विश्वको व्याप्त कर लिया है । भावार्थ-जिस प्रकार भगवान् वृषभ देवका गुरुपना समस्त लोकमें प्रसिद्ध है उसी प्रकार इस पर्वतका भारीपना भी लोकमें प्रसिद्ध १ पर्यन्तस्य ल०। २ स्मतिवेदिनः। ३ धता श्रीः (देवी) येन स । ४ पूर्वपश्चिमदिक्स्थतोरण। ५ तत्पद्मसरोवरस्थोत्तरदिक्स्थतोरण। ६ उत्तरदिङमुखीम् । ७ देवभेदमार्गम् । ८ अपरिमिताः । 'परा संख्या शताधिकात् । ६ स्वर्गजाम् । १० कालागुरुतरून्, लघुतरूनिति ध्वनिः । ११ उपमाम् । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महापुराणम् इत्यस्याद्रः परां शोभा शंसत्युच्दर पुरोधसि । प्रशशंस तमनोन्द्रं सम्प्रीतो भरताधिपः ॥१२६॥ स्वभुक्तिक्षेत्रसीमानं सोऽभिनन्य हिमाचलम् । प्रत्याक्तत् प्रभुद्रष्टुं वृषभाद्रि कुतूहलात् ॥१३०॥ यो योजनशतोच्छायो नले तावच्च विस्तृतः। तदर्द्धविस्ततिर्मुनिं भवो मौलिरिवोद्गतः ।।१३१॥ यस्योत्संगम यो रम्याः कदली षण्डमण्डितः । सम्भोगाय नभोगानां काल्पन्ते स्म लतालयः ॥१३२॥ सनागम सनागैश्च सपुन्नागैः परिष्कृतम्। 'चतुपान्ते वनं सेन्यं मुच्यते जातु नामरैः ॥१३३॥ स्वतटस्फटिकोस्पताभादिग्वहरिनुखम् । शरदरिवारब्धवपुषं० सनभोजुषम् ॥१३४॥ तं शैलं भुवनस्यैकं ललाभेवर निरूपयन् १३ । फालयामास लक्ष्मीषान् स्वयशःप्रतिमागकाम् ॥१३॥ तमेकपाण्डुरं५ शैलम् शाकल्पान्तमनश्वरम् । स्वयशोराशिनीकाशं पश्यन्नभिननद सः ॥१३६॥ सोऽवलः प्रभुमावान्त'" मायान्तमखिलद्विषाम् । प्रत्यग्रहीदिवाभ्येत्य विध्वद्रयम्भिर्वनानिलः ॥१३७॥ तत्तटोपान्तविश्रान्तलचरोरगकिन्नरः। प्रोद्गीयमानममलं शश्रुवे स्वयशोऽमुना ।।१३८॥ जयलक्ष्मी नुखालोक मंगलादर्शविभमाः । तत्तटीभित्तयो जह: मनोऽस्य स्फटिकामलाः ॥१३६॥ है, अथवा इस पर्वतने अपने विस्तारसे लोकका बहुत कुछ अंश व्याप्त कर लिया है ।।१२८॥ इस प्रकार जब पुरोहित उस पर्वतकी उत्कृष्ट शोभाका वर्णन कर चुका तब भरतेश्वरने भी प्रसन्न होकर उस पर्वतकी प्रशंसा की ।।१२९।। अपने उपभोग करने योग्य क्षेत्रको सीमा स्वरूप हिगवान् पर्वतकी प्रशंसा कर महाराज भरत कुतूहलवश वृषभाचलको देखनेके लिये लौटे ॥१३०॥ जो सौ योजन ऊँचा है, मल तथा ऊपर कमसे सौ और पचास योजन चौड़ा है एवं ऊपर की ओर उठा हुआ होनेसे पृथिवीके मस्तकके समान जान पड़ता है। जिसके ऊपरके मनोहर प्रदेश केलोंके समूहसे सुशोभित लतागृहोंसे आवाशगामी देव तथा विद्याधरोंके उपयोग करने योग्य हैं, नाग सहजना और नागकेशरके वृक्षोंसे घिरे हुए तथा सेवन करने योग्य जिस पर्वत के समीपके वनोंको देव लोग कभी नहीं छोड़ते हैं। अपने तटपर लगे हुए स्फटिक मणियोंकी फैलती हुई प्रभासे जिलने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली हैं, जिसका शरीर शरतुके बादलों से बना हुआ-सा जान पड़ता है और जो सदा देव तथा विद्याधरोंसे सहित रहता है, ऐसे उस पर्वतको लोकके एक आभूषशके समान देखते हुए श्रीमान् भरतने अपने यशका प्रतिविम्ब माना था ॥१३१-१३५॥ जो एक सफेद रंगका है और जो कल्पान्त काल तक कभी नष्ट नहीं होता ऐसे उस वृषभाचलको अपने यशकी राशिके समान देखते हुए महाराज भरत बहुत ही आनन्दित हुए थे ।। १३६।। उस समय वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था मानो समस्त शत्रुओं की मायाको नष्ट करनेवाले चक्रवर्ती भरतको अपने सभीप आता हुआ जानकर चारों ओर बहनंबाल वनक वायुकद्वारा सामन जाकर उनका स्वागत-सत्कार ही कर रहा हो ।।१३७॥ वहांपर भरतने उस पर्वतके किनारेके सगीप विश्राम करते हुए विद्याधर नागकुमार और किन्नर देवों के द्वारा गाया हुआ अपना निर्मल यश भी सुना था ।।१३८।। स्फटिकके समान १ स्तुति कुर्वति सति । २ प्रशंस्य। ३ व्याधुटितवान् । ४ गण्ड- अ०, द०, ०, ल०। ५ सार्थी भवन्ति । ६ नागवृक्षसहितम् । सर्जकतभिः । ८ यदुपान्तवनं ल०, १०, २०, अम०, रा० । हलिप्तदिडमुखम् । १० घटित । ११ आकाशशर्शनसहितम्, देव-विद्याधर-सहितम् । १२ तिलकम्। १३ विलोकयन् । १४ सदृशम् । १५ केवलं धवलम् । १६ समानम्। १७ आ रागन्तात् अयः आयः तस्य अन्तः अन्तक: नाश इत्यर्थः । विनत्यन्तकग समन्तालण्यनाशकमित्यर्थः । 'अयः गभावलो विनि' रित्यभिधानात् । १८ समन्तात् प्रसारिभिः । विनायक विप्लगञ्चतीत्यभिधानात् । १६ शुगो स्म । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व अधितमस्यासीच्छभित्तिषु चक्रिणः । स्वनामाक्षरविन्यासे धृति विश्वक्षमाजितः ॥ १४०॥ काकिणीरत्नमादाय यदा लिलिखिषत्ययम् । तदा राजसहस्राणां नामान्यत्रैशताधिराट् ॥ १४१ ॥ असंख्यकल्पकोटी येऽतिक्रान्ता धराभुजः । तेषां नामभिराकीर्ण तं पश्यन् स सिसिध्मये ॥१४२॥ ततः किञ्चित् स्खलद्गर्यो दिलक्षीभूय चक्रिराट् । अनन्यशासनामेनां न मेने भरतावनीम् ॥ १४३ ॥ स्वयं कचिदेकस्य निरस्यलामशासनम् । स मे निखिलं लोकं प्रायः स्वार्थपरायणम् ॥१४४॥ श्रथ तत्र शिलापट्टे स्वहस्ततलनिस्तलें । प्रशस्तिमित्युदात्तार्थं व्यलिखत् स यशोधनः ॥ १४५ ॥ स्वाकुकुल व्योमतलप्रालेयदीधितिः । चातुरन्त महीभर्ता' भरतः शातमातुः ॥१४६॥ श्रीमान निःशेषणचरामरभूचरः । प्राजापत्यो" मनुमन्यः शूरः शुचिरुदारधीः ॥ १४७॥ चांगधरी धोरो धौरेयश्चक" धारिणाम् । परिक्रान्तं धराच जिष्णुना येन दिग्जये ॥ १४८ ॥ यस्यादशकोटयोऽश्वा जलस्थलविलङधिनः । लक्षाश्चतुरशीतिश्च मदेभा जयसाधने ॥१४६॥ यस्य दिग्विजय विष्वग्वल रेणुभिरुत्थितैः । सदिडामुखं खमारुद्ध कपोलगलकर्बुरैः ।। १५० ।। निर्मल और विजयलक्ष्मी के मुख देखने के लिये मंगलमय दर्पणके समान उस वृषभाचलके किनारे की दीवाले भरतका मन हरण कर रही थीं ।। १३९ || समस्त पृथिवीको जीतनेवाले चक्रवर्ती भरतको उस पर्वतके किनारेकी शिलाकी दीवालोंपर अपने नामके अक्षर लिखने में बहुत कुछ संतोष हुआ था ।। १४०॥ चक्रवर्ती भरतने काकिणी रत्न लेकर ज्योंही वहाँ कुछ लिखनेकी इच्छा की त्योंही उन्होंने वहाँ लिखे हुए हजारों चक्रवर्ती राजाओंके नाम देखे || १४१ ।। असंख्यात करोड़ कल्पोंमें जो चक्रवर्ती हुए थे उन सबके नामोंसे भरे हुए उस वृपभाचलको देखकर भरत को बहुत ही विस्मय हुआ || १४२॥ तदनन्तर जिसका कुछ अभिमान दूर हुआ है ऐसे चक्रवर्ती ने आश्चर्यचकित होकर इस भरतक्षेत्रकी पृथिवीको अनन्यशासन अर्थात् जिसपर दूसरेका शासन न चलता हो ऐसा नहीं माना था । भावार्थ- वृषभाचलकी दीवालोंपर असंख्यात चक्रवर्तियों के नाम लिखे हुए देखकर भरतका सब अभिमान नष्ट हो गया और उन्होंने स्वीकार किया कि इस भरतक्षेत्रकी पृथिवीपर मेरे समान अनेक शक्तिशाली राजा हो गये हैं ।। १४३ ॥ चक्रवर्ती भरतने किसी एक चक्रवर्तीके नामकी प्रशस्तिको स्वयं अपने हाथसे मिटाया और वैसा करते हुए उन्होंने प्रायः समस्त संसारको स्वार्थपरायण समझा ।। १४४ ।। अथानन्तर - यश ही जिसका धन है ऐसे चक्रवर्तीने अपने हाथके तलभागके समान चिकने उस शिलापट्टपर नीचे लिखे अनुसार उत्कृष्ट अर्थसे भरी हुई प्रशस्ति लिखी ।। १४५ ।। स्वस्ति श्री इक्ष्वाकु वंशरूपी आकाशका चन्द्रमा और चारों दिशाओंकी पृथिवीका स्वामी में भरत हूँ, मैं अपनी माताके सौ पुत्रों में से एक बड़ा पुत्र हूँ, श्रीमान् हूँ, मैंने समस्त विद्याधर देव और भूमिगोचरी राजाओंको नम्रीभूत किया है, प्रजापति भगवान् वृषभदेवका पुत्र हूँ, न हूं, मान्य हूँ, शूरवीर हूँ, पवित्र हूँ, उत्कृष्ट बुद्धिका धारक हूँ, चरमशरीरी हूँ, धीर वीर हूँ चक्रवर्तियों में प्रथम हूँ और इसके सिवाय जिस विजयीने दिग्विजयके समय समस्त पृथिवीमण्डल की परिक्रमा दी है अर्थात् समस्त पृथिवीमण्डलपर आक्रमण किया है, जिसके जल और स्थल में चलनेवाले अठारह करोड़ घोड़े हैं, जिसकी विजयी सेनामें चौरासी लाख मदोन्मत्त हाथी १२५ १ सन्तोषः । २ सफल महीविजयिनः । ३ लिखितुमिच्छति । ४ अपरिमितानां राज्ञामित्यर्थः । ५. विस्मयान्वितो भूत्वा । 'विक्षो विस्मयान्विते' इत्यभिधानात् । ६ वर्तुले समतले इत्यर्थः । ७ चतुरन्तो द०, प०, इ० अ० स० । त्रिसमुद्र - हिमवगिरिपर्यन्तमहीनाथः । शतस्य माता शतमाता तस्या अपत्यं शातमातुरः । १० प्रजापतेः पुरोरपत्यं पुमान् । ११ मुख्यः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ महापुराणम् प्रसाधितदिशो यस्य यशः शशिकलामलम् । सुरैरसकृदुद्गीतं कुलक्षोणीघ्रकुक्षिषु ॥१५॥ दिग्जय यस्य सैन्यानि विश्रान्तान्यधिदिक्तटम् । चक्रानुभान्तितान्तानि' क्रान्त्वा हमवतीस्थलीः॥१५२॥ नप्ता श्रीनाभिराजस्य पुत्रः श्रीवृषभेशिनः । षट्पण्डमण्डितामेनां यः स्म शास्त्यखिलां महीम् ॥१५३॥ मत्वाऽसौ गत्वरों लक्ष्मी जित्वरः सर्वभूभृताम् । जगद्विसत्वरी' कोत्तिम् अतिष्ठिपदिहाचले ॥१५४॥ इति प्रशस्तिमालीयां विलिखन् स्वयमक्षरैः। प्रसूनप्रकरैर्मुक्तः नपोऽवचकिरेऽमरः ॥१५॥ तत्रोच्चरुच्चरद्ध्वानामन्द्रदुन्दुभयोऽध्वनन् । दिवि देवा जयेत्याशी शताप्युच्चरघोषयन् ॥१५६॥ स्वर्धनीसीकरासारवाहिनो गन्धवाहिनः। मन्दं विचेरुराधूत सान्द्रमन्दारनन्दनाः ॥१५७॥ न केवल शिलाभित्तौ अस्य नामाक्षरावली । लिखितानेन चान्द्रऽपि बिम्बे तल्लाञ्छनच्छलात् ॥१५८॥ लिखितं साक्षिणे भुक्तिरित्यस्तीहापि शासने । लिखितं सोऽचलो भुक्तिः दिग्जय साक्षिणोऽमराः ॥१५॥ अहो महानुभावोऽयं चक्री दिवचक्रनिर्जये। येनाक्रान्तं महीचक्रम् प्रानक्रवसतित्रिकात् ॥१६०॥ खचरादिरलंध्योऽपि हेलयालंघितोऽमुना। कीतिः स्थलाडिजनीवास्य रूढा हमाचलस्थले ॥१६१॥ हैं, जिसकी दिग्विजयके समय चारों ओर उठी हुई कबूतरके गलेके समान कुछ कुछ मलिन सेनाकी धूलिसे समस्त दिशाओंके साथ साथ आकाश भर जाता है, समस्त दिशाओंको वश करनेवाले जिसका चन्द्रमाकी कलाओंके समान निर्मल यश कुलपर्वतोंके मध्यभागमें देव लोग बारबार गाते हैं, दिग्विजयके समय चक्रके पीछे पीछे चलनेसे थकी हुई जिसकी सेनाओंने हिमवान् पर्वतकी तराईको उल्लंघन कर दिशाओंके अन्तभागमें विश्राम लिया है, जो श्री नाभिराजका पौत्र है, श्री वृषभदेवका पुत्र है, जिसने छह खण्डोंसे सुशोभित इस समस्त पृथिवीका पालन किया जो समस्त राजाओंको जीतनेवाला है ऐसे मुझ भरतने लक्ष्मीको नश्वर समझकर जगत्में फैलनेवाली अपनी कीर्तिको इस पर्वतपर स्थापित किया है ॥१४६-१५४॥ इस प्रकार चक्रवर्तीने अपनी प्रशस्ति स्वयं अक्षरोंके द्वारा लिखी, जिस समय चक्रवर्ती उक्त प्रशस्ति लिख रहे थे उस समय देव लोग उनपर फूलोंकी वर्षा कर रहे थे ।।१५५॥ वहाँ जोर जोरसे शब्द करते हुए गम्भीर नगाड़े बज रहे थे, आकाशमें देव लोग जय जय इस प्रकार सैकड़ों आशीवर्वाद रूप शब्दोंका उच्चारण कर रहे थे ॥१५६।। और गङ्गा नदीके जलकी बूंदोंके समूह को धारण करता हुआ तथा कल्पवृक्षोंके सघन वनको हिलाता हुआ वायु धीरे धीरे बह रहा था ॥१५७॥ भरतके नामके अक्षरोंकी पंक्ति केवल शिलाकी दीवालपर ही नहीं लिखी गई थी किन्तु उन्होंने काले चिन्हके बहानेसे चन्द्रमाके मण्डलमें भी लिख दी थी। भावार्थ-चन्द्रमा के मण्डलमें जो काला काला चिह्न दिखाई देता है वह उसका चिह्न नहीं है, किन्तु भरतके नामके अक्षरोंकी पंक्ति ही है, यहां कविने अपह्नति अलंकारका आश्रय लेकर वर्णन किया है ॥१५८॥ अन्य प्रशस्तियोंके समान भरतकी इस प्रशस्तिमें भी लेख, साक्षी और उपभोग करने योग्य क्षेत्र ये तोनों ही बातें थीं क्योंकि लेख तो वृषभाचलपर लिखा ही गया था, दिग्विजय करनेसे छह खण्ड भरत उपभोग करने योग्य क्षेत्र था और देव लोग साक्षी थे ॥१५९।। अहा , यह चक्रवर्ती बड़ा प्रतापी है क्योंकि इसने समस्त दिशाओंको जीतते समय पूर्व पश्चिम और दक्षिणके तीनों समुद्रपर्यन्त समस्त भुमण्डलपर आक्रमण किया है-समस्त भरत को अपने वश कर लिया है । यद्यपि विजयार्ध पर्वत उल्लंघन करने योग्य नहीं है तथापि इसने १ चक्रानगमनेन भिन्नानि । २ गमनशीलाम । ३ जयनशीलः । ४ विसरणशीलाम् । ५ ालखत् ल०, अ०, द०, स०। ६ आकीर्णः। ७-राध्मात ल०। ८ पत्रम् । पूर्वदक्षिणपश्चिमसमुद्रपर्यन्तम् । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व १२७ इति वृष्टापदानं तं तुष्टुवुर्नाकिनायकाः । विष्टचा' स्म वर्धयन्त्येनं सागनाश्च नभश्चराः ॥ १६२॥ भूयः प्रोत्साहितो देवैः जयोद्योगमनूनयन् । गङगापातमभीयाय' व्याहूत इव तत्स्वनैः ॥१६३॥ गलद्गङगाम्बुनिष्ठ घूताः शीकरा मदशीकरैः । सम्मूर्द्ध नृपेभाणां व्यात्युक्षों वा तितांसवः ॥ १६४ ॥ पतद्गङगाजलावर्तपरिर्वाद्धतकौतुकः । प्रत्याग्राहि स तत्पाते गङगावेव्या धृतार्घया ॥ १६५॥ सिंहासने निवेश्यैनं प्राङ्मुखं सुखशीतलैः । सोऽभ्यषिञ्चज्जलैर्गाङगैः शशाङककरहासिभिः ॥ १६६ ॥ कृतमङ्गलसङगीतनान्दीतर्य रवाकुलम् । निर्वर्त्य मज्जनं जिष्णुः भेंजे मण्डनमप्यतः ॥ १६७॥ प्रथमं व्यतरत् प्रांशु रत्नांशुस्थगिताम्बरम् । सेन्द्रचापमिवाद्रीन्द्रशिखरं हरिविष्टरम् ॥१६८॥ चिरं वर्द्धस्व वद्धिष्णो जीवतान्नन्दताद् भवान् । इत्यनन्तरमाशास्य तिरोऽभूत् सा विसर्जिता ॥ १६६ ॥ अनुगगातटं सैन्यैः श्राव्रजन्विषयाधिपैः । सिषेवे पवमानैश्च गङगाम्बुकणवाहिभिः ॥ १७० ॥ गङ्गातटवनोपान्तनिवेशेषु विशाम्पतिम् । सुखयामासुरन्वीपमाया " ता बनमारुताः २ ॥ १७१ ॥ 1 उसे लीला मात्र में ही उल्लंघन कर दिया है और इसकी कीर्ति स्थल-कमलिनीके समान हिमालय पर्वतकी शिखरपर आरूढ़ हो गई है । इस प्रकार जिनका पराक्रम देख लिया गया है ऐसे उन भरत महाराजकी बड़े बड़े देव भी स्तुति कर रहे थे और अपनी अपनी स्त्रियोंसे सहित विद्याधर लोग भी भाग्यसे उन्हें बढ़ा रहे थे अर्थात् आशीर्वाद दे रहे थे ।। १६०-१६२ ॥ तदनन्तर- जिन्हें देवोंने फिर भी उत्साहित किया है ऐसे महाराज भरत अपने विजय के उद्योगको कम न करते हुए गङ्गापात ( जहाँ हिमवान् पर्वतसे गङ्गा नदी पड़ती है उसे गङ्गापात कहते हैं) के सन्मुख इस प्रकार गये मानो उसके शब्दोंके द्वारा बुलाये ही गये हों ।।१६३।। ऊपरसे गिरती हुई गङ्गा नदीके जलके समीपसे उछटे हुए छोटे छोटे जलकण राजाओंके हाथियों के मदकी बूंदोंके साथ इस प्रकार मिल रहे थे मानो वे दोनों परस्पर फाग ही खेलना चाहते हों अर्थात् एक दूसरेको सींचना ही चाहते हों ॥ १६४ ॥ पड़ते हुए गङ्गाजलकी भंवरोंसे जिसका कौतूहल बढ़ रहा है ऐसे भरतका गङ्गापातके स्थानपर अर्घ धारण करनेवाली गङ्गा देवीने सामने आकर सत्कार किया ।। १६५ ॥ गङ्गादेवीने चक्रवर्ती भरतको पूर्व दिशाकी ओर मुख कर सिंहासनपर बैठाया और फिर सुखकारी, शीतल तथा चन्द्रमाकी किरणोंकी हँसी करनेवाले गङ्गा नदीके जलसे उनका अभिषेक किया ॥ १६६ ॥ | जिसमें मंगल संगीत, आशीर्वाद वचन और तुरही आदि बाजोंके शब्द मिले हुए हैं ऐसे अभिषेकको समाप्त कर विजयशील भरतने उसी गङ्गादेवी से सब वस्त्राभूषण भी प्राप्त किये ॥ १६७ ॥ तदनन्तर देदीप्यमान रत्नोंकी किरणोंसे जिसने आकाश भी व्याप्त कर लिया है और जो इन्द्रधनुष सहित सुमेरु पर्वतकी शिखरके समान जान पड़ता है ऐसा एक सिंहासन गङ्गादेवीने भरतके लिये समर्पित किया ।। १६८ ।। और फिर 'सदा बढ़नेवाले हे महाराज भरत आप चिर कालतक बढ़ते रहिये, चिरकाल तक जीवित रहिये और चिरकाल तक आनन्दित रहिये अथवा समृद्धिमान् रहिये इस प्रकार आशीर्वाद देकर भरत महाराजके द्वारा बिदा की हुई वह गङ्गादेवी तिरोहित हो गई ।। १६९॥ अथानन्तर-सेनाके साथ साथ गङ्गा के किनारे किनारे जाते हुए भरतकी अनेक देशोंके स्वामी-राजाओंने और गङ्गा नदीके जलकी बूंदोंको धारण करनेवाले वायुने सेवा की थी ।। १७० ॥ गङ्गा किनारे के वनोंके समीपवर्ती भागों में पीछेसे आता हुआ वनका वायु चक्रवर्ती १ दृष्टसामर्थ्यम् । दृष्टावदानं प० अ० । दृष्टवदान ल० । २ सन्तोषेण । ३ अनूनं कुर्वन् संवर्द्धयन्नित्यर्थः । ४ अभिमुखमगच्छत् । ५ प्रसरन्तिस्म । ६ नृपसम्बन्धिगजानाम् । ७ परस्परसेचनम् । ८ विस्तारितुमिच्छवः । ६ ददी । १० उन्नत । ११ अनुकूलताम् । १२ वनवायवः ल० । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ महापुराणम् वने वनचरल्त्रीणाम् उवस्यशतकावलीः | मुहुस्स्खलन् कपालेषु नृत्यद्वनशिखण्डिनाम् ॥ १७२ ॥ विलोलिता रावत्फल्ला बनवल्लरीः । गिरिनिर्भरसंश्लेषशिशिरो रुदा ॥ १७३॥ प्रतिप्रयाणमानमा नृपास्तद्देशवासिनः । प्रभुनारावयाञ्चक्रुः श्राक्रान्ता जयसाधनैः ॥१७४॥ कृत्स्नामिति प्रसाध्येनाम् उत्तरां भरतावनिम् । प्रत्यासोददथो जिष्णुः विजयार्द्धचलस्थलीः ॥ १७५ ॥ तत्रावासित सैन्यं च सेनान्यं प्रभुरादिशत् । श्रपावृत गृहाद्वारः प्राच्यखण्ड जयेत्यरम् ॥ १७६ ॥ यावदभ्येति सेनानी म्लेच्छ राजजयोद्यमात् । तावत्प्रभोः किलातीयुः मासाः षट् सुखसंगिनः ॥ १७७॥ दक्षिणोत्तरयोः श्रेण्योः निवसन्तोऽम्बरेवराः । विद्याधराधिपैः सार्द्धं प्रभुं द्रष्टुमिहाययुः ॥१७८॥ विद्यावरवराधीशेरारादाननू मौलिभिः । नखांशुमालिकाव्याजादाज्ञास्य शिरसा धृता ॥ १७६॥ afra faचैव विद्यावर 'धराधिप । स्वसारपनसामग्रया विभुं प्रष्टुमुपेयतुः ॥१८०॥ विद्याधरधरासारधनोपायनसंपदा । तदुपानीतया "अन्यतभ्ययासीद्विभीतिः ॥ १८१ ॥ तदुपाकृतत्वधैः कन्यारत्नपुरःसरैः । सरिदोषैरिचोदयात् श्रापूर्यत तदा प्रशुः ॥ १८२ ॥ स्वसारं च नमेर्वन्यां सुभद्रां नामकन्यकाम् । उदवाह स लक्ष्मीवान् कल्याणैः सचरोषितैः ॥ १८३॥ को सुखी कर रहा था ॥ १७१ ॥ वहांके बनमें भीलोंकी स्त्रियोंके केशोंके समूहको उड़ाता हुआ, नृत्य करते • हुए वनमयूरोंकी पूंछपर बार-बार टकराता हुआ, भूमरोंको इधर-उधर भगाता हुआ, फूली हुई वनकी लताओंको कुछ कुछ हिलाता हुआ और पहाड़ी झरनों के स्पर्शसे शीतल हुआ वायु चारों ओर वह रहा था ।। १७२ - १७३ ।। विजय करनेवाली सेनाके द्वारा दवाय हुए उन देशों में निवास करनेवाले राजा लोग नम्र होकर प्रत्येक पड़ावपर महाराज भरतकी आराधना करते थे || १७४ | इस प्रकार उत्तर भरत क्षेत्रकी समस्त पृथिवीको वशकर विजयी महाराज भरत फिरसे विजयार्थ पर्वतकी तराईमे आ पहुँचे ॥ १७५ ॥ । वहाँ पर उन्होंने सेना ठहराकर सेनापतिके लिये आज्ञा दी कि 'गुफाका द्वार उघाड़कर शीघ्र ही पूर्व सण्डकी विजय प्राप्त करो' || १७६ || जब तक सेनापति म्लेच्छराजाओंको जीतकर वापिस आया तब तक सुखपूर्वक रहते हुए महाराज भरतके छह महीने वहींपर व्यतीत हो गये || १७७ ।। विजयार्थ पर्वतकी दक्षिण तथा उत्तर श्रेणीपर निवास करनेवाले विद्याधर लोग अपने अपने स्वामियों के साथ महाराज भरतका दर्शन करने के लिये वहीं पर आये || १७८ ।। दूरसे ही मस्तक झुकानेवाले विद्याधर राजाओंने नखोंकी किरणों के समूहके बहाने से महाराज भरतकी आज्ञा अपने शिरपर धारण की थी । भावार्थ- नमस्कार करते समय विद्याधरराजाओं के मस्तक पर जो भरत महाराजके चरणोंके नखोंकी किरणें पड़ती थीं उनसे वे ऐसे मालूम होते थे मानो भरतकी आज्ञा ही अपने मस्तकपर धारण कर रहे हों ।। १७९ ।। नमि और विनमि दोनों ही विद्याधरों के राजा अपने मुख्य धनकी सामग्री के साथ भरतके दर्शन करनेके लिये समीप आये ॥१८०॥ नमि और विनभि जो अन्य किसीको नहीं मिलनेवाली विद्याधरोंके देशकी मुख्य धनरूप सम्पत्ति भेंट में लाये थे उससे महाराज भरतको भारी संतोष हुआ था ।। १८१ ।। जिरा प्रकार नदियों के प्रवाहसे समुद्र पूर्ण हो जाता है उसी प्रकार उस समय नमि और विनमिके द्वारा उपहार में लाये हुए कन्यारत्न आदि अनेक रत्नोंके समूहसे महाराज भरतकी इच्छा पूर्ण हो गई थी || १८२|| श्रीमान् भरतने राजा नमिकी बहिन सुभद्रा नामकी उत्तम कन्याके साथ १ स्थलीम् ल०, ६०, इ० अ०, स० । २ सैन्यरच ल० | ३ विम् । ४ उद्घाटित । ५. पूर्वखण्डम् । ६ शीघ्रम् । ७ आगच्छन् । ८ क्षेत्र । ६ प्रभुं ल०, अ०, स०, ६०, ६० ॥ स्पावनीकृतया | ११ भगिनीम् । 'अमिनी स्वया' इत्यभिधानात् । १२ परिणीतवान् । १० विद्यारे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्तमं पर्व तां मनोज' रसस्येव स्रुतिं संप्राप्य चक्रभृत् । स्वं मेने सफलं जन्म परमानन्दनिर्भरः ॥ १८४ ॥ तावानिजित निःशेषम्लेच्छराजबलो बलैः । जयलक्ष्मों पुरस्कृत्य सेनानीः प्रभुमंक्षत ॥१८५॥ कृतकार्यं च सत्कृत्य तं तांश्च म्लेच्छनायकान् । विसर्ण्य सम्राट् सज्जोऽभूत् प्रत्यायातुमपाङत्महीम् ॥१८६॥ जयप्रयाणशंसिन्यः तदाभेर्यः प्रदध्वनुः । विष्वग्बलार्णवे क्षोभम् श्रातन्वन्त्यो महीभृताम् ॥ १८७॥ (तां काण्डकप्रपाताख्यां प्रागेवोद्घाटितां गुहाम् । प्रविवेश बलं जिष्णोः चक्ररत्नपुरोगमाम् ॥१८८॥ गङगापगोभयप्रान्तमहावीथीद्वयेन सा । व्यतीयाय गुहां सेना कृतद्वारां चमूभृता ॥१८६॥ मुच्यमाना गुहा संन्धेः चिरादुच्छ्वसितेव सा । चमूरपि गुहारोधान्निःसृत्योज्जीवितेव सा ॥ १६०॥ नाट्यमालामरस्तत्र रत्नार्थः प्रभुमर्धयन् । प्रत्यगृह्णाद् गुहाद्वारि पूर्णकुम्भादिमंगलः ॥ १६१ ॥ कृतोपच्छन्दनं चामुं नाट्यमालं सुरर्षभम् । व्यसर्जयद्यथोद्देशं सत्कृत्य भरतर्षभः ॥ १६२ ॥ कृतोदयमिनं ध्वान्तात्परितो गगनेचराः । परिचेरुर्नभोमार्गम् श्रारुध्य धूत सायकाः ॥ १६३॥ मालिनीवृत्तम् नमिविनभिपुरो गैरन्वितः खेचरेन्द्रः खचरगिरिगुहान्तर्ध्वान्तमुत्सार्य दूरम् । रविवि किरणोघैद्यतयन्दिग्विभागान् निधिपतिरुदियाय' प्रीणयन् जीवलोकम् ॥१६४॥ सरस किसलयान्तः स्पन्दमन्दे सुरस्त्रीस्तनतटपरिलग्न क्षौमसंक्रान्तवासे' । सरति" मरुति मन्दं कन्वरेष्वभिर्तुः निधिपतिशिबिराणां प्रादुरासन्निवेशाः ॥१६५॥ विद्याधरों के योग्य मंगलाचारपूर्वक विवाह किया ॥ १८३॥ रसकी धाराके समान मनोहर उस सुभद्राको पाकर उत्कृष्ट आनन्दसे भरे हुए चक्रवर्तीने अपना जन्म सफल माना था ॥ १८४॥ इतने में ही जिसने अपनी सेनाके द्वारा समस्त म्लेच्छ राजाओंकी सेना जीत ली है ऐसे सेनापति ने जयलक्ष्मीको आगे कर महाराज भरतके दर्शन किये || १८५ || जिसने अपना कार्य पूर्ण किया है ऐसे सेनापतिका सन्मान कर और आये हुए म्लेच्छ राजाओंको बिदाकर सम्राट् भरतेश्वर दक्षिणकी पृथिवीकी ओर आनेके लिये तैयार हुए ॥ ९८६ ॥ उस समय विजयके लिये प्रस्थान करने की सूचना 'देनेवाली भेरियाँ राजाओंकी सेनारूपी समुद्र में क्षोभ उत्पन्न करती हुई चारों ओर बज रही थीं ।। १८७।। चक्ररत्न जिसके आगे चल रहा है ऐसी भरतकी सेनाने पहलेसे ही उघाड़ी हुई काण्डकप्रपात नामकी प्रसिद्ध गुफामें प्रवेश किया ।। १८८।। उस सेनाने गङ्गा नदी के दोनों किनारोंपर की दो बड़ी बड़ी गलियोंमेंसे, सेनापतिके द्वारा जिसका द्वार पहले से ही खोल दिया गया है ऐसी उस गुफाको पार किया ।। १८९ ।। सेनाके द्वारा छोड़ी हुई वह गुफा ऐसी जान पड़ती थी मानो चिरकालसे उच्छ्वास ही ले रही हो और वह सेना भी गुफाके रोध से निकलकर ऐसी मालूम होती थी मानो फिरसे जीवित हुई हो ॥। १९० ।। वहाँ नाट्यमाल नाम के देवने दक्षिण गुफाके द्वारपर पूर्णकलश आदि मंगलद्रव्य रखकर तथा रत्नोंके अर्धसे अर्घ देकर भरत महाराजकी अगवानी की थी- सामने आकर सत्कार किया था ।। १९१।। भरत महाराजने अनेक प्रकारकी स्तुति करनेवाले उस नाट्यमाल नामके श्रेष्ठ देवका सत्कार कर उसे अपने स्थानपर जानेके लिये बिदा कर दिया ।।१९२।। धनुष बाण धारण करनेवाले विद्याधर चारों ओरसे आकाशमार्गको घेरकर, सूर्य के समान अन्धकारसे परे रहकर उदय होनेवाले चक्रवर्तीकी परिचर्या करते थे ।। १९३ ।। जिनमें नमि और विनमि मुख्य हैं ऐसे विद्याधरों सहित तथा विजयार्ध पर्वतकी गुफाके भीतरी अन्धकारको दूर हटाकर सूर्यके समान किरणोंके समूहसे दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ वह निधियोंका अधिपति चक्रवर्ती समस्त जीवलोकको आनन्दित करता हुआ उदित हुआ अर्थात् गुफाके बाहर निकला ॥ १९४ ॥ रस १२६ १ मनोज्ञां रसस्येव । २ दक्षिणभूमिम् । ३ सेनान्या । ४ कृतसान्त्वनम् । ५ सुरश्रेष्ठम् । ६ निजदेश मनतिक्रम्य । ७ पुरःसरः । ८ उदेति स्म । सुगन्धे । १० वाति सति । १७ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० महापुराणम् किसलयपुरभेदी देवदारुमाणाम् श्रसकृदमरसिन्धोः सोकरान्ध्याधुनानः । श्रमसलिलम मुष्णा 'दुष्णसम्भूष्णु जिष्णोः खचरगिरितटान्तान्निष्पतन्मातरिश्वा ॥ १६६ ॥ सपदिविजय सैन्यनिर्जितम्लेच्छखण्ड: समुपहृतजयश्रीश्चक्रिणादिष्टमात्रात् । जिनमिव जयलक्ष्मी सन्निधानं निधीनां परिवृढमुपतस्थौ नमूमौलिश्चभूभृत् ॥ १६७॥ शार्दूलविक्रीडितम् जित्वा म्लेच्छनृपौ विजित्य च सुरं प्रालेयशैलेर्शिनं देव्यौच प्रणमय्य दिव्यमुभयं स्वीकृत्य भद्रासनम् । हेलानिजितखेचराद्रिरधिराट् प्रत्यन्तपालान् जयन् सेनान्या विजयी व्यजेष्ट निखिलां षट्षण्डभूषां भुवम् १६८ पुण्यादित्ययमाहिमाह्वयगिरेरातोयधेः प्राक्तना "दाचापा व्यपयोनिधेर्जलनिधेरा च प्रतीच्यादितः । चक्रेक्ष्मामरिचत्र 'भीक रक रश्चक्रेण चत्री वशे तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियो जैने मते सुस्थिताः ॥ १६६॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण संग्रहे भरतोत्तरार्द्धविजयवर्णनं नाम द्वात्रिंशत्तमं पर्व ॥३२॥ युक्त नवीन कोमल पत्तोंके भीतर प्रवेश करनेसे मन्द हुआ तथा देवांगनाओंके स्तनतटपर लगे हुए रेशमी वस्त्रोंमें जिसकी सुगन्धि प्रवेश कर गई है ऐसा वायु जिस समय उस विजयार्ध पर्वतकी गुफाओं में धीरे धीरे बह रहा था उस समय निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीकी सेनाके डेरोंकी रचना शुरू हुई थी ॥ १९५ ॥ देवदारु वृक्षोंके कोमल पत्तोंके संपुटको भेदन करनेवाला तथा गङ्गा नदीके जलकी बूंदोंको बार-बार हिलाता हुआ और विजयार्ध पर्वतके किनारे के अन्त भागसे आता हुआ वायु गर्मी से उत्पन्न हुए महाराज भरतके पसीनेको दूर कर रहा था ॥ १९६ ॥ चक्रवर्तीके द्वारा आज्ञा प्राप्त होने मात्रसे ही जिसने अपनी विजयी सेनाओंके द्वारा बहुत शीघ्र समस्त म्लेच्छ खण्ड जीत लिये हैं और जो जयलक्ष्मीको ले आया है ऐसा सेनापति अपना मस्तक झुकाये हुए, निधियोंके स्वामी भरत महाराजके समीप आ उपस्थित हुआ । उस समय भरत ठीक जिनेन्द्रदेवके समान मालूम होते थे क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्र देवके समीप सदा जयलक्ष्मी विद्यमान रहती है उसी प्रकार उनके समीप भी जयलक्ष्मी सदा विद्यमान रहती थीं ॥१९७॥ विजयी भरतने ( चिलात और आनर्त नामके) दोनों म्लेच्छराजाओं को जीतकर हिमवान् पर्वतके स्वामी हिमवान् देवको कुछ ही समय में जीता, तथा (गङ्गा सिन्धु नामकी ) दोनों देवियों प्रणाम कराकर ( उनके द्वारा दिये हुए ) दो दिव्य भद्रासन स्वीकृत किये और विजयार्ध पर्वतको लीला मात्रमें जीतकर उसके समीपवर्ती राजाओंको जीतते हुए उन्होंने सेनापतिके साथ-साथ छह खण्डोंसे सुशोभित भरत क्षेत्रकी समस्त पृथिवी को जीता ॥१९८॥ जिनका हाथ अथवा टैक्स शत्रुओंके समहमें भय उत्पन्न करनेवाला है ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके द्वारा पुण्यसे ही हिमवान् पर्वतसे लेकर पूर्व दिशाके समुद्र तक और दक्षिण समुद्रसे लेकर पश्चिम समुद्र तक समस्त पृथिवी अपने वश की थी। इसलिये बुद्धिमान् लोगोंको जैन मतमें स्थिर रहकर सदा पुण्य उपार्जन करना चाहिये ।। ९९९ ।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें उत्तरार्ध भरतकी विजयका वर्णन करनेवाला बत्तीसवां पर्व समाप्त हुआ । १ अनाशयत् । २ उष्णसञ्जातम् । ३ आगच्छन् । ४ आज्ञातः गङ्गादेवीसिन्धुदेव्यौ । ७ सुचिरं ल०, ६० । ८ हिमवद्गिरिपतिम् । १२ भयङ्करकरः । 'भयंकरं प्रतिभयमित्यभिधानात् । । ५ नाथम् । ६ प्राप्तवानित्यर्थः । १० पूर्वात् । ११ दक्षिणसमुद्रात् । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयत्रिंशत्तमं पर्व श्रीमानानमिताशेषनु पविद्याधरामरः । सिद्धदिग्विजयश्चक्री न्यवृत्तत्स्वां पुरीं प्रति ॥ १॥ नवस्य निधयः सिद्धा रत्नान्यपि चतुर्दश । सिद्ध विद्याधरैः सार्द्धं षट्षण्डधरणीभुजः ॥२॥ जित्वा महीमिमां कृत्स्नां लवणाम्भोधिमेखलाम् । प्रयाणमकरोच्चक्री साकेतनगरं प्रति ॥३॥ प्रकीर्णकचलद्वीचिरुल्लसच्छत्रबुदबुदा । निर्ययौ विजयार्द्धाद्रितटाद् गङ्गेव सा चमूः ॥४॥ करिणीनौभिरश्वीयकल्लोलैर्ज नतोमिभिः । दिशो रुन्धन्बलाम्भोधिः प्रससर्प स्फुरद्ध्वनिः ॥५॥ चलतां रथचक्राणां चीत्कारैर्हयहेषितैः । बृहितश्च गजेन्द्राणां शब्दाद्वैतं तदाभवत् ॥ ६ ॥ भेर्यः प्रस्थानशंसिन्यो नेदुरामन्द्रनिःस्वनाः । श्रकालस्तनिताशङकाम् श्रातन्वानाः शिखण्डिनाम् ॥७॥ भूद्धमश्वीयं हास्तिकेन प्रसर्पता । न्यरोधि पत्तिवृन्दं च प्रयान्त्या रथकल्पया ॥८॥ पादातकृतसंवाधात् पथः ' पर्यन्तपातिनः । हया गजा वरूथाश्च भेजुस्तिर्यक्प्रचोदिताः ॥॥ पर्वतोदप्रमारूढो गजं विजयपर्वतम् । प्रतस्थे विचलन्मौलिः चत्री शक्रसमद्युतिः ॥१०॥ श्रनुगात देशान् विलङ्घय ससरिद् गिरीन् । कैलासशैलसान्निध्यं प्रापतच्चक्रिणो बलम् ॥११॥ अथानन्तर—जिन्होंने समस्त राजा विद्याधर और देवोंको नम्रीभूत किया है तथा समस्त दिग्विजय में सफलता प्राप्त की है ऐसे श्रीमान् चक्रवर्ती भरत अपनी अयोध्यापुरीके प्रति लौटे ॥ १॥ इन महाराज भरतको नौ निधियां और चौदह रत्न सिद्ध हुए थे तथा विद्याधरोंके साथ साथ छह खण्डों के समस्त राजा भी इनके वश हुए थे ॥ २॥ लवण समुद्र ही जिसकी मेखला है ऐसी इस समस्त पृथिवीको जीतकर चक्रवर्तीने अपने अयोध्या नगरकी ओर प्रस्थान किया ||३|| ढलते हुए चमर ही जिसकी लहरें हैं और ऊपर चमकते हुए छत्र ही जिसके बबूले हैं ऐसी वह सेना गंगा के समान विजयार्ध पर्वतके तटसे निकली ||४|| हथिनीरूपी नावोंसे, घोड़ों के समूहरूपी लहरोंसे और मनुष्यों के समूहरूपी छोटी छोटी तरङ्गोंसे दिशाओंको रोकता हुआ तथा खूब शब्द करता हुआ वह सेनारूपी समुद्र चारों ओर फैल गया ||५|| उस समय चलते हुए रथोंके पहियोंके चीत्कार शब्दसे, घोड़ोंकी हिनहिनाहटसे और हाथियोंकी गर्जनासे शब्दाद्वैत हो रहा था अर्थात् सभी ओर एक शब्द ही शब्द नजर आ रहा था || ६ || जिनका शब्द अतिशय गम्भीर है ऐसी प्रस्थान - कालको सूचित करनेवाली भेरियाँ मयूरोंको असमयमें ही बादलोंके गरजनेकी शंका बढ़ाती हुई शब्द कर रही थीं ॥ ७ ॥ उस समय दौड़ते हुए हाथियों समूहसे घोड़ों का समूह रुक गया था और चलते हुए रथोंके समूहसे पैदल चलनेवाले सिपाहियों का समूह रुक गया था ||८|| पैदल सेनाके द्वारा जिन्हें कुछ बाधा की गई है ऐसे हाथी घोड़े और रथ - थोड़ी दूरतक कुछ तिरछे चलकर ठीक रास्तेपर आ रहे थे । भावार्थं सामने पैदल मनुष्यों की भीड़ देखकर हाथी घोड़े और रथ बगलसे बरक कर आगे निकल रहे थे ॥ ९ ॥ जिनका मुकुट कुछ कुछ हिल रहा है और जिनकी कान्ति इन्द्रके समान है ऐसे चक्रवर्तीने पर्वत के समान ऊंचे विजय पर्वत नामके हाथीपर सवार होकर प्रस्थान किया || १०॥ चक्रवर्ती की वह सेना गङ्गा नदीके किनारे किनारे अनेक देश, नदी और पर्वतोंको उल्लंघन करती हुई १ सिद्धा विद्या-ल०, इ०, द०, अ०, स०, प० । २ षट्खण्डस्थितमहीपालाः । ३ मेघध्वनि । ४ मार्गान् । संवाधान्पथः अ०, प०, स०, इ०, द० । ५ मार्ग विहाय पर्यन्ते वर्तमाना भूत्वा । ६ संप्रापच्चक्रिणां बलम् ल० । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ महापुराणम् कैलासाचलमम्यम् प्रथालोक्य रथाडगभूत् । निवेश्य निकटे सैन्यं प्रययौ जिनचितुम् ॥१२॥ प्रयान्तमनुजग्मुस्तं भरतेशं महाद्युतिम् । रोचिष्णुमौलयः क्षमायाः सौधर्मेन्द्रमिवामराः ॥१३॥ अचिराच्च तमासाद्य शरदम्बरसच्छविम् । जिनस्येव यशोराशिम् अभ्यनन्दद्विशाम्पतिः ॥१४॥ निपतन्निर्भरारावैः आह्वयन्तमिवामरान् । त्रिजगद्गुरुमेत्यारात् सेवध्वमिति सादरम् ॥१५॥ मरुदान्दोलितोदग्रशाखाप्रैस्तटपादपैः । प्रतोषादिव नृत्यन्तं विकासिकुसुमस्मितः ॥१६॥ तटनिझरसम्पातः दातु पाद्यमिवोद्यतम् । वन्दारों व्यवृन्दस्य विष्वगास्कन्दतो जिनम् ॥१७॥ शिखरोल्लिखिताम्भोदपटलोद्गीवारिभिः। दावभीत्येव सिञ्चन्तं स्वपर्यन्तलतावनम् ॥१८॥ शचिग्राव विनिर्माणः शिखरः स्थगिताम्बरः । गतिप्रसरमर्कस्य न्यक्कुर्वाणमिवोच्छितः ॥१६॥ क्वचित् किन्नरसम्भोग्यः" क्वचित् पन्नगसेवितैः । क्वचिच्च 'खचराक्रीडः' वनराविष्कृतश्रियम् ॥२०॥ क्वचिद्विरलनीलांशुमिलितैः स्फटिकोपलैः । शशाङकमण्डलाशडाकाम् पातन्वन्तं० नभोजुषाम् ॥२१॥ हरिन्मणिप्रभाजालैः भाजालश्च प्रभाश्मनाम्। क्वचिदिन्द्रधनुर्लेखाम् आलिखन्तं नभोऽङगणे ॥२२॥ क्रमसे कैलास पर्वतके समीप जा पहुंची ॥११॥ तदनन्तर चक्रवर्तीने कैलास पर्वतको समीप ही देखकर सेनाओंको वहीं पासमें ठहरा दिया और स्वयं जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करनेके लिये प्रस्थान किया ॥१२।। जिस प्रकार सौधर्म इन्द्रके पीछे पीछे देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाले अनेक देव जाते हैं उसी प्रकार आगे आगे जाते हुए अतिशय कान्तिमान् महाराज भरतके पीछे पीछे देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाले अनेक राजा लोग जा रहे थे ।।१३।। जिसकी कान्ति शरद्ऋतुके बादलोंके समान है और इसीलिये जो जिनेन्द्र भगवान्के यशके समूहके समान जान पड़ता है ऐसे उस कैलास पर्वतको बहुत शीघू पाकर महाराज भरत बहुत ही प्रसन्न हुए ॥१४॥ जो पड़ते हुए झरनोंके शब्दोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो समीप आकर तीनों जगत्के गुरु भगवान् वृषभदेवकी सेवा करो इस प्रकार देव लोगोंको आदरपूर्वक बुला ही रहा हो-जिनकी ऊँची ऊँची शाखाओंके अग्रभाग वायुके द्वारा हिल रहे हैं और जिनपर फूले हुए फूल उनके मन्द हास्यके समान मालूम होते हैं ऐसे अपने किनारेपर के वृक्षोंसे जो ऐसा जान पड़ता है मानो सन्तोषसे नृत्य ही कर रहा हो-जो किनारोंपरसे झरनोंके पड़नेसे ऐसा जान पड़ता है मानो जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना करने के लिये चारों ओरसे आते हुए भव्य जीवों के समूहके लिये पैर धोनेके लिये जल देनेको ही उद्यत हुआ हो-जो शिखरोंसे विदीर्ण हुए बादलोंके समूहसे गिरते हुए जलसे ऐसा जान पड़ता है मानो दावानलके डरसे अपने समीपवर्ती लताओंके वनको सींच ही रहा हो-जो स्फटिक मणिके सफेद पत्थरोंसे बने हुए और आकाश को घेरनेवाले अपने ऊँचे ऊँचे शिखरोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो सूर्यकी गतिके फैलावको रोक ही रहा हो-जिनमें कहीं तो किन्नर जातिके देव संभोग कर रहे हैं, कहीं नागकुमार जाति के देव सेवा कर रहे हैं और कहीं विद्याधर लोग क्रीड़ा करते हैं ऐसे अनेक वनोंसे जिसकी शोभा प्रकट हो रही है जो कहींपर कुछ कुछ नीलमणियोंकी किरणोंसे मिले हुए स्फटिक मणियोंके पत्थरोंसे देवोंको चन्द्रमण्डलकी आशंका उत्पन्न करता रहता है। जो कहींपर हरे रंगके मणियों की प्रभाके समहसे और स्फटिक मणियोंकी प्रभाके समूहसे आकाशरूपी आंगनमें इन्द्रधनुष की रेखा लिख रहा था। कहींपर पद्मराग मणियोंकी किरणोंसे मिले हुए स्फटिक मणियोंकी किरणोंसे जिसके किनारे का समीपभाग कुछ कुछ लाली लिये हुए सफेद रंगका हो गया है और १ कैलासम् । २ वन्दनशीलस्य । ३ आगच्छतः । ४ विदारित । ५ उद्गत । ६ स्फटिकपाषाण । ७ सम्भोगः द०, अ०, स० । ८ खेचरा-प० । ६ खचराणाम् आसमन्तात् क्रीड़ा येषु तानि । १० मातन्वानं-द०, ल०, अ०, स०, इ० । ११ पद्मरागाणाम् । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व पद्मरागांश भिभिन्नः स्फटिकोपलरश्मिभिः। प्रारक्तश्वेतवप्रान्तं किलासिनमिव क्वचित् ॥२३॥ क्यचिद्विश्लिष्ट शैलेयपटलर्बहुदद्रुणः । मृगेन्द्रनखरोल्लेखसहर्गण्डोपलस्ततम् ॥२४॥ क्वचिद्गु हान्तराद् गुञ्जन्मृगेन्द्रप्रतिनादिनोः । तटोर्दधानमुद्व द्धमदैः परिहृतागजः ॥२५॥ क्वचित् सितोपलोत्सङग चारिणीरमराङागनाः । विभाणं शरदभान्तर्वतिनीरिव विद्युतः ॥२६॥ तमित्यद्भुतया लक्ष्म्या परीतं भूभृतां पतिम् । स्वमिवालङययमालोक्य चक्रपाणिरगान्मदम् ॥२७॥ गिरेरधस्तले दूराद् वाहनादिपरिच्छदम् । विहाय पादचारेण ययौ किल स धर्मधीः ॥२८॥ पद्भ्यामारोहतोऽस्याद्रि नासीत् खेदो मनागपि । हितार्थिनां हि खेदाय नात्मनीनः क्रियाविधिः ॥२६॥ आरुरोह स तं शैलं सुरशिल्पिविनिर्मितः । विविक्तैर्मणिसोपानस्स्वर्गस्येवाधिरोहणः ॥३०॥ अधित्यकासु' सोऽस्याद्रः प्रस्थाय वनराजिषु । लम्भितोऽतिथिसत्कारमिव शीतैर्वनानिलैः ॥३१॥ क्वचिदुत्फुल्लमन्दारवणवीथीविहारिणीः। विविक्त सुमनोभूषाः सोऽपश्यद्वनदेवताः ॥३२॥ क्वचिद्वनान्तसंसुप्तनिजशावानुशायिनीः। मृगीरपश्यदारब्ध मदुरोमन्थमन्थराः ॥३३॥ क्वचिनि कुञ्चसंसुप्तान् बहतः शयुपोतकान् । “पुरीतन्निकरानद्रेरिवापश्यत्स पुजितान् ॥३४॥ क्वचिद् गजमदामोदवासितान् गण्डशैलकान् । ददृशे" हरिरारोषाद् उल्लिखन्नखराङकुरैः ॥३॥ इसलिये जो ऐसा जान पड़ता है मानो उसे किलास (कुष्ठ) रोग ही हो गया हो। जिनपर कहीं कहीं अनेक धातुओंके टुकड़े टूट-टूटकर पड़े हैं तथा जो सिंहोंके नखोंका आघात सहनेवाली हैं और इसलिये जो ऐसी जान पड़ती हैं मानो उनपर बहुतसा दाद हो गया हो ऐसी अनेक चट्टानों से जो व्याप्त हो रहा है। कहीं कहींपर जिनमें गुफाओंके भीतर गरजते हुए सिंहोंकी प्रतिध्वनि व्याप्त हो रही है और इसीलिये जिन्हें मदोन्मत्त हाथियोंने छोड़ दिया है ऐसे अनेक किनारों जो धारण कर रहा है और जो कहीं कहींपर शरदऋतुके बादलोंके भीतर रहनेवाली बिजलियोंके समान स्फटिक मणियोंकी शिलाओंपर चलनेवाली देवांगनाओंको धारण कर रहा है -इस प्रकार अद्भुत शोभासे सहित उस कैलास पर्वतको देखकर चक्रवर्ती भरत बहुत ही आनन्दको प्राप्त हुए। और उसका खास कारण यह था कि वह चक्रवर्तीके समान ही अलंध्य था और भूभृत अर्थात् पर्वतों (पक्षमें राजाओं) का अधिपति था ॥१५-२७॥ धर्मबुद्धिको धारण करनेवाले महाराज भरत पर्वतके नीचे दूरसे ही सवारी आदि परिकरको छोड़कर पैदल चलने लगे ॥२८॥ पैदल ही पर्वतपर चढ़ते हुए भरतको थोड़ा भी खेद नहीं हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंको आत्माका हित करनेवाली क्रियाओंका करना खेद के लिये नहीं होता है ॥२९॥ स्वर्गकी सीढियोंके समान देवरूपी कारीगरोंके द्वारा बनाई हुई पवित्र मणिमयी सीढ़ियोंके द्वारा महाराज भरत उस कैलास पर्वतपर चढ़ रहे थे ॥३०॥ चढ़ते चढ़ते वे उस पर्वतके ऊपरकी भूमिपर जा पहुंचे और वहां उन्होंने वनकी पंक्तियोंमें वनकी शीतल वायुके द्वारा मानो अतिथिसत्कार ही प्राप्त किया था ॥३१॥ वहां उन्होंने कहीं तो फूले हुए मन्दार वनकी गलियोंमें घूमती हुई तथा फूलोंके पवित्र आभूषण धारण किये हुई वनदेवियोंको देखा ॥३२॥ कहीं वनके भीतर अपने बच्चोंके साथ लेटी हुई और धीरे धीरे रोमन्थ करती हई हरिणियोंको देखा ॥३३॥ कहीं लतागहोंमें सोते हए और एक जगह इकटठे हुए अजगरके उन बड़े बड़े बच्चोंको देखा जो कि उस पर्वतकी अंतड़ियोंके समहके समान जान पड़ते थे ॥३४॥ और कहींपर हाथियोंके मदसे सुवासित बड़ी बड़ी काली चट्टानोंको हाथी १ मिलितैः । २ पाटलसान्वन्तम् । 'श्वेत रक्तस्तु पाटल' इत्यभिधानात् । ३ सिध्मलम् । 'किलासी सिध्मल' इत्यभिधानात् । ४ शिथिलितकुसुमसमूहैः। ५ दद्रुरोगिसदृशैः । 'दद्रुणो दद्रुरोगी स्याद्' इत्यभिधानात् । ६ स्फटिकशिलामध्य। ७ आत्महितः । ८ ऊर्श्वभूमिषु । ६ प्रापितः । १० विभिन्न । ११ उपक्रान्त । १२ निकुञ्ज ल०, द०, अ०, प०, इ०, स० । १३ अजगरशिशून् । १४ अन्त्रसमूहान् । १५ दृश्यते स्म । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ महापुराणम् किञ्चिदन्तरमारुहय पश्यन्नद्रेः परां श्रियम् । प्राप्तावसरमित्यूचे वचनं च पुरोधसा ॥३६॥ पश्य देव गिरेरस्य प्रदेशान्बहुविस्मयान् । रमन्ते त्रिदशा यत्र स्वर्गावासेऽप्यनादराः ॥३७॥ पर्याप्तमेतदेवास्थ प्राभवं भुवनातिगम् । देवो यदेनमध्यास्ते चराचरगुरुः पुरुः ॥३८॥ महाबिरयमुत्सडागसङगिनीः सरिदङगनाः । शश्वद् बित्ति कामीव गलन्नीलजलांशुकाः ॥३६॥ क्रीडाहेतारहिंस्रोऽपि मगेन्द्रो गिरिकन्दरात् । महाहिमयमाकर्षन्दान्मुञ्चत्यपारयन् ॥४०॥ सर्वद्वन्द्व सहान्सान* जनतातापहारिणः । मुनीनिव बनाभोगानेष' धत्तेऽधिमेखलम् ॥४१॥ हरीनखरनिभिन्नमदद्विरदमस्तकान् । निर्भरैः पापभीत्येव तर्जयत्येष सारवः ॥४२॥ धत्ते सानुचरान् भद्रान् उच्च वंशान् स्ववग्रहान् । वनद्विपानयं शैलो भवानिव महीभुजः० ॥४३।। ध्वनतो घनसंघातान शरभा रभसादमी। द्विरदाशङकयोत्पत्य पतन्तो यान्ति शोच्यताम् ॥४४॥ कपोलकाषसंरुग्ण त्वचो गदजलाविलाः । द्विपानां वनसम्भोगं सूचयन्तीह" शाखिनः ॥४५॥ समझकर नखरूपी अंकुरोंसे दिदारण करता हुआ सिंह देखा ॥३५॥ भरत महाराज कुछ दूर आगे चढ़कर जब पर्वतकी शोभा देखने लगे तब पुरोहितने अवसर पाकर नीले लिखे अनुसार वचन कहे ॥३६॥ हे देव, इस पर्वतके अनेक आश्चर्योंसे भरे हुए उन प्रदेशोंको देखिये जिन पर कि देव लोग भी स्वर्गवासमें अनादर करते हुए क्रीड़ा कर रहे हैं ॥३७॥ समस्त लोकको उल्लंघन करनेवाली इस पर्वतकी महिमा इतनी ही बहुत है कि चर और अचर--सभोक गुरु भगवान् वृषभदेव इसपर विराजमान हैं ॥३८॥ यह महापर्वत अपनी गोदी अर्थात् नीचले मध्यभागमें रहनेवाली और जिनके नीले जलरूपी वरत्र छूट रहे हैं ऐसी नदीरूपी स्त्रियोंको कामी पुरुपकी तरह सदा धारण करता है ॥३९॥ यह सिह हिसक होने पर भी केनल क्रीड़ा के लिये पर्वतकी गुफामेंसे एक बड़े भारी सर्पको खींच रहा है परन्तु लम्बा होने से खींचनेके लिये असमर्थ होता हुआ उसे छोड़ भी रहा है ॥४०॥ यह पर्वत अपने तटभागपर ऐसे अनेक वनके प्रदेशों को धारण करता है जो कि ठीक मुनियोंके समान जान पड़ते हैं क्योंकि जिस प्रकार मुनि सब प्रकारके द्वन्द्व अर्थात् शीत उष्ण आदिकी बाधा सहन करते हैं उसी प्रकार वे वनके प्रदेश भी सब प्रकारके दुन्द्र अर्थात् पशुपक्षियों आदिके यगल सहन नापते हैं,-धारण करते हैं, जिस प्रकार मुनि सबका कल्याण करते हैं उसी प्रकार बनके प्रदेश भी सवका कल्याण करते हैं और जिस प्रकार मुनि जनसमूहके संताप अर्थात् मानसिक व्यथाको दूर करते हैं उसी प्रकार । वनके प्रदेश भी संताप अर्थात् सूर्यके घामसे उत्पन्न हुई गरमीको दूर करते हैं ॥४१॥ यह पर्वत शब्द करते हुए झरनोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो जिन्होंने अपने नखोंसे मदोन्मत्त हाथियों के मस्तक विदारण किये हैं ऐसे सिंहोंको पापके डरसे तर्जना ही कर रहा हो-डाट ही दिखा रहा हो ॥४२॥ हे नाथ, जिस प्रकार आप सानन्धर अर्थात सेक्कों सहित, भद्र, उच्च कलमें उत्पन्न हुए और उत्तम शरीरवाले अनेक राजाओंको धारण करते हैं--उन्हें अपने आधीन रखते हैं, उसी प्रकार यह पर्वत भी सानुचर अर्थात् शिखरोंपर चलनेवाले, पीठपरकी उच्च रीढ़से युक्त और उत्तम शरीरवाले भद्र जातिके जंगली हाथियोंको धारण करता है ॥४३॥ इधर ये अष्टापद, गरजते हुए मेघोंके समूहको हाथी समझकर उनपर उछलते हैं परन्तु फिर नीचे गिरकर शोचनीय दशाको प्राप्त हो रहे हैं ॥४४॥ कपोलोंके बिसनेसे जिनकी छाल धिस १ अघातुकोऽपि । २ समर्थो भूत्वा । ३ प्राणियगल, पक्षे दुःख । ४ सर्वहितान् । ५ गिरिः । ६ ध्वनिसहितः। ७ सानुषु चरन्तीति सानुचरास्तान्, पक्षे अनुचरैः सहितान् । ८ उन्नतपृष्ठास्थीन्, पक्षे इक्ष्वाक्वादिवंशान् । ६ स्वविग्रहान् ट० । शोभनललाटान् । 'अवग्रहो ललाट स्याद्' इत्यभिधानात् । पक्षेसुष्ठ स्वतन्त्रतानिषेधान । 'अवनह इति ख्यातो वृष्टिरोधे गजालिके । स्वतन्त्रतानिषेधेऽपि प्रतिबन्धेऽप्यवग्रह' इत्यभिधानात् । १० भूपतीन् । ११ मेघसमूहान् । १२ गण्डस्थलनिघर्षणसंभग्न । १३ आर्दाः । १४ गिरौ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व शाखामृगा' मगेन्द्राणां गजितरिह तजिताः । पुजीभूता निकुञ्जधु पश्य तिष्ठन्ति साध्वसात् ॥४६॥ मुनीन्द्रपाठनिषिरितो रम्यमिदं धनम् । तृणानकवलग्रासिकुरङगकुलसडाकुलम् ॥४७॥ इतश्च हरिगाराति कठोरारयभीषणम् । विमुक्तकवलच्छेदप्रपलायितकुञ्जरम् ॥४८॥ जरजरन्त ऋडगाग्रक्षतवल्मीफरोधसः । इतो रम्या वनोद्देशा वराहोत्खातपल्वलाः ॥४६॥ मगैः प्रविष्टवेशन्त वंशस्तम्बोपगै जैः। सूच्यते हरिणाकान्तं बनमतद् भयानकम् ॥५०॥ वनप्रवेशिभिनित्यं नित्यं स्थण्डिलशायिभिः। न मुच्यतेऽयमद्रीन्द्रो मगर्मुनिगणरपि ॥५॥ इति प्रशान्तो रोद्रश्च सदैवायं धराधरः। सन्निधानाज्जिनेन्द्रस्य शान्त एवाधुना पुनः ॥५२॥ गजः पश्य भृगेन्द्रागां संवासमिह कानने । नखरक्षतमार्गेषु स्वैरमारपशतामिमान् ॥५३॥ १°चारणाध्युषितानेते गुहोसडागानशडिकताः। विशन्त्यनु गताः शावैः पाकसत्त्वैः१२ समं मृगाः१३ ॥५४॥ अहो परममाश्चर्य तिरश्चामपि यद्गणैः । अनुयात मुनीन्द्राणाम् अज्ञातभयसम्पदाम् ॥५५॥ (सोऽयमष्टापदैर्जुष्टो५ गैरन्वर्थनामभिः । पुनरष्टापदख्याति पुरैति" स्वदुषक्रमम् ॥५६॥) "स्फरन्मणितटोपान्तं तारकाचक्रमापतत् । न याति व्यक्तिमस्यास्तद्रोचिश्छन्नमण्डलम् ॥१७॥ गई है और जो मदरूपी जलसे मलिन हो रहे हैं ऐसे इस वनके वृक्ष हाथियोंकी वनक्रीड़ाको साफ साफ सूचित कर रहे हैं ॥४५॥ इधर देखिये, सिंहोंकी गर्जनासे डरे हुए ये बन्दर भयसे इकटठे होकर लतामण्डपोंमें बैठे हए हैं॥४६॥ यह वन इधर तो बड़े बडे मनियोंके पाठ करने के शब्दोंसे रमणीय हो रहा है और इधर तृणोंके अग्रभागका ग्रास खानेवाले हरिणों के समहसे व्याप्त हो रहा है ॥४७॥ इधर सिंहोंके कठोर शब्दोंसे भयंकर हो रहा है और इधर खाना-पीना छोड़कर हाथियों के समूह भाग रहे हैं ।।४८।। इधर, जिनमें वृद्ध जंगली भैंसाओंने सींगोंकी नोकसे बामियोंके किनारे खोद दिये हैं और सूअरोंने छोटे छोटे तालाब खोद डाले हैं ऐसे ये सुन्दर सुन्दर बनके प्रदेश हैं ।।४९।। छोटे छोटे तालाबोंमें घुसे हुए हरिणों और बाँसकी झाड़ियोंके समीप छिपकर खड़े हुए हाथियोंसे साफ साफ सूचित होता है कि इस भयंकर वनपर अभी अभी सिंहने आक्रमण किया है ॥५०॥ सदा वनमें प्रवेश करनेवाले और सदा जमीनपर सोनेवाले हरिण और मुनियोंके समूह इस बनको कभी नहीं छोड़ते हैं ॥५१॥ इस प्रकार यह पर्वत सदा शान्त और भयंकर रहता है परन्तु इस समय श्री जिनेन्द्रदेवके सन्निधानसे शान्त ही है ।।५२।। इधर, इस वनमें सिंहोंका हाथियोंके साथ सहवास देखिये, ये सिंह अपने नखोंसे किये हुए हाथियोंके धावोंका इच्छानुसार स्पर्श कर रहे हैं ॥५३॥ जिनके पीछे पीछे बच्चे बल रहे हैं ऐसे हरिण, सिंह, व्याधू आदि दुष्ट जीवोंके साथ साथ चारण-मुनियोंसे अधिष्ठित गुफाओंमें निर्भय होकर प्रवेश करते हैं ॥५४।। अहा, बड़ा आश्चर्य है कि पशुओं के समह भी, जिन्हें बनके भय और शोभाका कछ भी पता नहीं है ऐसे मनियोंके पीछे पीछे फिर रहे हैं ।।५५।। सार्थक नामको धारण करनेवाले अष्टापद नामके जीवोंसे सेवित हुआ यह पर्वत आपके चढ़नेके बाद अष्टापद नामको प्राप्त होगा ॥५६॥ जिसपर अनेक मणि देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे इस पर्वतके किनारेके समीप आता हुआ नक्षत्रोंका समूह उन मणियोंकी किरणोंसे अपना मण्डल तिरोहित हो जानेसे प्रकटताको प्राप्त नहीं हो रहा है। भावार्थ १ मऊंटा: । २ सिह । ३ वृद्धमहिष । ४ वामलूरतटाः । 'वामलूरश्च नाकुश्च वल्मीक पुन्नपुंसकम्' इत्यभिधानात् । ५ अल्पसरोवराः । ६ पल्वलैः । 'वेशन्तं पल्वलञ्चाल्पसर' इत्यभिधानात् । ७ वेणुपुञ्जसमीपगैः। ८ सहवासम् । ६ नख रक्षतकीर्णपंक्तिषु । १० चारणमुनिभिराश्रितान् । ११ गृहामध्यान् । १२ सिंहशार्दूलादिक्रूरमृगैः। १३ हरिणादयः । १४ अनुगतम् । १५ सेवितः । १६ सार्थाऽभिधानः । १७ भविष्यकाले आगमिष्यति । १८ त्वया प्रथमोपक्रम यथा भवति तथा। १९ आगच्छत् । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૬ महापुराणम् ज्वलत्यौषधिजालेऽपि निशि नाभ्येति किन्नरः । तमोविशङकाऽस्याद्रेः इन्द्रनीलमयीस्तटोः ॥५८॥ हरिन्मणितटोत्सर्पन्मयूखानत्र भूधरे । तृणाङकुरधियोपेत्य मृगा यान्ति विलक्ष्यताम् ॥५६॥ सरोजराग' रत्नांशुच्छ रिता वनराजयः । तताः सःध्यातपेनेव पुष्णन्तीह परां श्रियम् ॥ ६० ॥ सूर्याशुभिः परामृष्टाः सूर्यकान्ता ज्वलन्त्यमी । प्रायस्तेजस्विसंपर्कस्तेजः पुष्णाति तादृशम् ॥ ६१ ॥ इहेन्दुक रसंस्पर्शात्प्रक्ष रन्तोऽप्यनुक्षपम्' । चन्द्रकान्ता न हीयन्ते विचित्रा पुद्गलस्थितिः ॥६२॥ सुराणामभिगम्यत्वात् सिंहासनपरिग्रहात् । महत्त्वादचलत्वाच्च गिरिरेष जिनायते ॥ ६३ ॥ शुद्धस्फटिक सङकाशनिर्मलोदारविग्रहः । शुद्धात्मेव शिवायास्तु तवायमचलाधिपः ॥ ६४॥ इति शंसति' तस्याद्रेः परां शोभां पुरोधसि । शंसाद्भूत इवानन्दं परं प्राप परन्तपः १० ॥६५॥ किञ्चिच्चान्तरमुल्लङ्घ्य प्रसन्नेनान्तरात्मना । प्रत्यासन्नजिनास्थानं विदामास विदांवरः ॥ ६६ ॥ निपतत्पुष्पवर्षेण दुन्दुभीनां च निःस्वनैः । विदाम्बभूव" लोकेशम् श्रभ्यासकृतसन्निधिम् ॥६७॥ किनारे के समीप संचार करते हुए नक्षत्रोंके समूहपर मणियोंकी कान्ति पड़ रही है जिससे वे मणियोंके समान ही जान पड़ते हैं, पृथक् रूपसे दिखाई नहीं देते हैं ।। ५७॥ यद्यपि यहाँ रात्रि के समय औषधियों का समूह प्रकाशमान रहता है तथापि किन्नर जातिके देव अंधकारकी आशंका से इन्द्रनील मणियों के बने हुए इस पर्वतके किनारोंके सन्मुख नहीं जाते हैं ।। ५८ ।। इस पर्वत पर हरित मणियों के बने हुए किनारोंकी फैलती हुई किरणोंको हरी घासके अंकुर समझकर हरिण आते हैं परन्तु घास न मिलनेसे बहुत ही आश्चर्य और लज्जाको प्राप्त होते हैं ॥ ५९ ॥ इधर पद्मराग मणियोंकी किरणोंसी व्याप्त हुई वनकी पंक्तियाँ ऐसी उत्कृष्ट शोभा धारण कर रही हैं मानो उनपर संध्याकालकी लाल लाल धूप ही फैल रही हो ॥ ६० ॥ ये सूर्यकान्त मणि सूर्यकी किरणोंका स्पर्श पाकर जल रही हैं सो ठीक ही है क्योंकि प्रायः तेजस्वी पदार्थका संबंध तेजस्वी पदार्थके तेजको पुष्ट कर देता है || ६१ || इस पर्वतपर चन्द्रमाकी किरणोंका स्पर्श होनेपर चन्द्रकान्त मणियोंसे यद्यपि प्रत्येक रात्रिको पानी झरता है तथापि ये कुछ भी कम नहीं होते सो ठीक ही है क्योंकि पुद्गलका स्वभाव बड़ा ही विचित्र है ||६२ ॥ अथवा यह पर्वत ठीक जिनेन्द्रदेवके समान जान पड़ता है क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवके समीप देव आते हैं उसी प्रकार इस पर्वतपर भी देव आते हैं, जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवने सिंहासन स्वीकार किया है उसी प्रकार इस पर्वतने भी सिंहासन अर्थात् सिंहके आसनोंको स्वीकार किया है-इसपर जहाँ-तहाँ सिंह बैठे हुए हैं अथवा सिंह और असन वृक्ष स्वीकार किये हैं, जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव महान् अर्थात् उत्कृष्ट हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी महान् अर्थात् ऊँचा है और जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार अचल अर्थात् अपने स्वरूप में स्थिर हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी अचल अर्थात् स्थिर है ॥६३॥ हे देव, जिसका उदार शरीर शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल है ऐसा यह पर्वतराज कैलास शुद्धात्माकी तरह आपका कल्याण करनेवाला हो ।। ६४ ।। इस प्रकार जब पुरोहितने उस पर्वतकी उत्कृष्ट शोभाका वर्णन किया तब शत्रुओं को संतप्त करनेवाले महाराज भरत इस प्रकार परम आनन्दको प्राप्त हुए मानो सुखरूप ही हो गये हों ॥। ६५|| विद्वानोंमें श्रेष्ठ भरत चक्रवर्ती प्रसन्न चित्तसे कुछ ही आगे बढ़े थे कि उन्हें वहाँ समीप ही जिनेन्द्रदेवका समवसरण जान पड़ा || ६६ ॥ ऊपरसे पड़ती हुई पुष्पवृष्टिसे और दुन्दुभि बाजों के शब्दोंसे उन्होंने जान १ विस्मयताम् । २ पद्मराग । ३ मिश्रिताः । ४ वर्द्धयन्ति । ५ रात्री रात्री । ६ न कृशा भवन्ति । ७ हरिविष्टरस्वीकारात्, पक्ष सिंहानामशनवृक्षाणाञ्च स्वीकारात् । ८ स्तुति कुर्वति सति । ६ सुखायत्तः । १० परं शत्रुं तापयतीति पतपश्चकी । १९ जानाति स्म । १२ समीपनिहित स्थितिम् । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व १३७ मन्दारकुसुमोद्गन्धिः अान्दोलितलतावनः । पवनस्तमभीयाय' प्रत्युद्यन्निव पावनः ॥६॥ सुमनोवृष्टिरापप्तद् आपूरितनभोडागणा। विरजीकृतभूलोकः समं शीतैरपा कणः ॥६६॥ 'शुश्रुवे ध्वनिरामन्द्रो दुन्दुभीनां नभोऽङगण । श्रुतः केकिभिरुग्रीवैः घनस्तनितशङकिभिः ॥७०॥ गुल्फदघ्न प्रसूनौघसम्मर्दमूदुना पथा। तमद्रिशेषमश्रान्तः प्रययौ स नृपापणीः ॥७१॥ ततोऽधिरुह्य तं शैलम् अपश्यत् सोऽस्य मूर्धनि । प्रागुक्तवर्णनोपेतं जैनमास्थानमण्डलम् ॥७२॥ समेत्या वसरावेक्षास्तिष्ठन्त्य स्मिन् सुरासुराः । इति तानिरुक्तं तत्सरणं समवादिकम् ॥७३॥ पाखण्डलवनुलेखाम् अखण्डपरिमण्डलाम् । जनयन्तं निजोद्योतः धूलीसालमथासदत् ॥७४॥ हेमस्तम्भाविन्यस्तरत्नतोरणभासुरम् । धुलोसालमतीत्यासौ मानस्तम्भमपूजयत् ॥७॥ मानस्तम्भस्य पर्यन्ते सरसीः ससरोरुहाः। जैनीरिव श्रुतीः स्वच्छशीतलापो ददर्श सः ॥७॥ धूलीसालपरिक्षेपस्यान्तर्भाग समन्ततः । वीथ्यन्तरेषु सोऽपश्यद् देवावासोचिता भुवः ॥७७॥ प्रतीत्य परतः किञ्चिद् ददर्श जलखातिकाम् । सुप्रसन्नामगाधां च मनोवृत्ति सतामिव ॥७॥ वल्लीवनं ततोऽद्राक्षीनानापुष्पलताततम् । पुष्पासवरसामत्तभूमद्भुमरसडाकुलम् ॥७॥ लिया था कि त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्रदेव समीप ही विराजमान हैं ॥६७॥ मन्दार वृक्षोंके फूलों से सगन्धित और लताओंके वनको कम्पित करनेवाला वायु उनके सामने इस प्रकार आया था मानो उनकी अगवानी ही कर रहा हो ॥६८॥ जिन्होंने पृथिवीको धूलि रहित कर दिया है ऐसी जलकी शीतल बूंदोंके साथ साथ आकाशरूपी आँगनको भरती हुई फूलोंकी वर्षा पड़ रही थी ॥६९॥ जिन्हें मेषोंकी गर्जना समझनेवाले मयूर, अपनी गर्दन ऊँची कर सुन रहे हैं ऐसे आकाशरूपी आँगनमें होनेवाले दुन्दुभि बाजोंके गम्भीर शब्द भी महाराज भरतने सुने थे ॥७०॥ राजाओंमें श्रेष्ठ महाराज भरत, पैरकी गाँठौं तक ऊँचे फैले हुए फूलोंके संमर्दसे जो अत्यन्त कोमल हो गया है ऐसे मार्ग के द्वारा बिना किसी परिश्रमके बाकी बचे हुए उस पर्वत पर चढ़ गये थे ॥७१।। तदनन्तर उस पर्वतपर चढ़कर भरतने उसके मस्तकपर पहले कही हुई रचनासे सहित जिनेन्द्रदेवका समवसरणमण्डल देखा ॥७२॥ इसमें समस्त सुर और असुर आकर दिव्य ध्वनिके अवसरकी प्रतीक्षा करते हुए बैठते हैं इसलिये जानकार गणधरादि देवोंने इसका समवसरण ऐसा सार्थक नाम कहा है ॥७३॥ अथानन्तर-महाराज भरत, जो अपने प्रकाशसे अखण्ड मण्डलवाले इन्द्रधनुषकी रेखा को प्रकट कर रहा है ऐसे धूलिसालके समीप जा पहुँचे ॥७४॥ सुवर्णके खंभोंके अग्रभागपर लगे हुए रत्नोंके तोरणोंसे जो अत्यन्त देदीप्यमान हो रहा है ऐसे धूलिसालको उल्लंघन कर उन्होंने मानस्तम्भकी पूजा की ॥७५।। जिनमें स्वच्छ और शीतल जल भरा हुआ है और कमल फूल रहे हैं ऐसी जिनेन्द्र भगवान्की वाणीके समान मानस्तम्भके चारों ओरकी बावड़ियाँ भी महाराज भरतने देखीं ॥७६॥ धूलिसालकी परिधिके भीतर चारों ओरसे गलियोंके बीच बीचमें उन्होंने देवोंके निवास करने योग्य पथिवी भी देखी ॥७७॥ कुछ और आगे चलकर उन्होंने जलसे भरी हुई परिखा देखी। वह परिखा सज्जन पुरुषोंके चित्तकी वृत्तिके समान स्वच्छ और गम्भीर थी ॥७८॥ तदनन्तर जो अनेक प्रकारके फूलोंकी लताओंसे व्याप्त हो रहा है और जो फूलोंके आसवरूपी रससे मत्त होकर फिरते हुए भूमरोंसे व्याप्त है ऐसा लता १ अभिमुख जगाम । २ जलानाम् । ३ भरतेन श्रूयते स्म । ४ घुण्टिकप्रमाण । 'तद् ग्रन्थी घु ण्टिके शुल्फौ' इत्यभिधानात् । ५ मार्गेण । ६ थमरहितः । ७ कैलासस्य । ८ समागत्य। ६ प्रभोरवसरमालोकपन्तः । १० समवसरणम् । ११ आगमत् । १२ पर्यन्तसरसी ल०। १३ शैत्यजला:, पक्षे शान्तिजलाः । १४ देवप्रासादभुमीः । १८ , Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ महापुराणम् ततः किञ्चित्पुरो गच्छन् सालमाद्यं व्यलोकयत् । निषधाद्रितटपधवपुषं रत्नभाजुषम् ॥८०॥ सुरदौवारिकारक्ष्यतत्प्रतोलीतलाश्रितान् । सोऽपश्यन्मङगलद्रव्यभेदांस्तत्राष्टधा स्थितान् ॥ ८१ ॥ ततोऽन्तः प्रविशन्वीक्ष्य द्वितयं नाट्यशालयोः । प्रीति प्राप परां चक्री शक्रस्त्रीवर्तनोचितम् ॥८२॥ स धूपघटयोर्युग्मं तत्र वीथ्युभयान्तयोः । सुगन्धीन्धनसन्दोहोद्गन्धिधूपं व्यलोकयत् ॥८३॥ कक्षान्तरे द्वितीयेऽस्मिन्नसौ वनचतुष्टयम् । निदध्यौ' विगलत्पुष्पैः कृतार्घमिव शाखिभिः ॥ ८४ ॥ प्रफुल्ल' वनमाशोकं साप्तपर्ण च चाम्पकम् । श्राम्र ेडितं वनं प्रेक्ष्य सोऽभूदान्र डितोत्सवः ॥८५॥ तत्र चैत्यद्रुमांस्तुङगान् जिनबिम्बैरधिष्ठितान् । पूजयामास लक्ष्मीवान् पूजिताभूसुरेशिनाम् ॥ ८६ ॥ तत्र किनरनारीणां गीतंरामन्द्रमूर्च्छनैः । लेभे परां धृतिं चक्री गायन्तीनां जिनोत्सवम् ॥८७॥ सुगन्धिपवनामोदनिःश्वासा कुसुम स्मिता । वनश्रीः कोकिलालापैः सञ्जजल्पेव चक्रिणा ॥ ८८ ॥ भृङ्गीसङगीतसम्मूर्च्छत् कोकिलानक निस्स्वनैः । श्रनङ्गविजयं जिष्णोर्वनानीवोदघोषयन् ॥5॥ त्रिजगज्जनता जत्रप्रवेशरभसोत्थितम् । तत्राशृणोन्महाघोषमपां घोषमिवोदधेः ॥ ६०॥ वनवेदीमथापश्यद् वनरुद्धावनेः परम् । वनराजीविलासिन्याः काञ्चीमिव कणन्मणिम् ॥१॥ तद्गोपुरावन क्रान्त्वा ध्वजरुद्धानि सुरान् । श्राजुहू षुमिवाऽपश्यन्महद्भूतंर्ध्वजांशुकैः ॥२ वन देखा ॥७९॥ वहाँसे कुछ आगे जाकर उन्होंने पहला कोट देखा जो कि निषध पर्वतके किनारे के साथ स्पर्धा कर रहा था और रत्नों की दीप्तिसे सुशोभित था ||८०|| देवरूप द्वारपाल जिसकी रक्षा कर रहे हैं ऐसे गोपुरद्वारके समीप रखे हुए आठ मङ्गलद्रव्य भी उन्होंने देखे ॥८१॥ तदनन्तर भीतर प्रवेश करते हुए चक्रवर्ती भरत इन्द्राणी के नृत्य करने के योग्य दोनों ओरकी दो नाट्यशालाओंको देखकर परम प्रीतिको प्राप्त हुए ।। ८२ ।। वहाँसे कुछ आगे चलकर मार्ग के दोनों ओर बगलमें रखे हुए तथा सुगन्धित ई धनके समूहके द्वारा जिनसे अत्यन्त सुगन्धित धूम निकल रहा है ऐसे दो धूपघट देखे || ८३ || इस दूसरी कक्षामें उन्होंने चार वन भी देखे जो कि झड़ते हुए फूलोंवाले वृक्षोंसे अर्घ देते हुए के समान जान पड़ते थे || ८४ ।। फूले हुए अशोक वृक्षोंका वन, सप्तपर्ण वृक्षोंका वन, चम्पक वृक्षोंका वन और आमोंका सुन्दर वन देखकर भरत महाराजका आनन्द भी दूना हो गया था ।। ८५ ।। श्रीमान् भरतने उन वनों में जिनप्रतिमाओं से अधिष्ठित और इन्द्र नरेन्द्र आदिके द्वारा पूजित बहुत ऊँचे चैत्यवृक्षोंकी भी पूजा की || ८६ ।। उन्हीं वनों में किन्नर जातिकी देवियाँ भगवान्‌का उत्सव गा रही थीं, उनके गंभीर तानवाले गीतों से चक्रवर्ती भरतने परम संतोष प्राप्त किया था ॥ ८७ ॥ सुगन्धित पवन ही जिसका सुगन्धिपूर्ण निःश्वास है और फूल ही जिसका मंद हास्य है ऐसी वह वनकी लक्ष्मी कोयलोंके मधुर शब्दों से ऐसी जान पड़ती थी मानो चक्रवर्ती के साथ वार्तालाप ही कर रही हो ॥ ८८ ॥ भूमरियों के संगीतसे मिले हुए कोकिलारूपी नगाड़ोंके शब्दोंसे वे वन ऐसे जान पड़ते थे मानो जिनेन्द्र भगवान् ने जो कामदेवको जीत लिया है उसीकी घोषणा कर रहे हों ॥। ८९ ।। वहाँपर तीनों लोकोंके जनसमूहके निरन्तर प्रवेश करनेकी उतावलीसे जो समुद्र के जलकी गर्जनाके समान बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था उसे भी भरत महाराजने सुना था ।।९०।। तदनन्तर उन वनोंसे रुकी हुई पृथिवीके आगे उन्होंने वनपंक्तिरूपी विलासिनी स्त्रीकी मणिमयी मेखलाके समान मणियोंसे जड़ी हुई वनकी वेदी देखी ॥ ९१ ॥ वनवेदी के मुख्य द्वारकी भूमिको उल्लंघन कर चक्रवर्ती भरतने ध्वजाओंसे रुकी हुई पृथिवी देखी, वह पृथिवी उस समय ऐसी मालूम हो रही थी मानो वायुसे हिलते हुए ध्वजाओंके वस्त्रोंके द्वारा १ ददर्श । २ प्रफुल्लवन - ल० । ३ आम्रेडितवनं ल० । आमूमिति स्तुतम् । ४ द्वित्रिगुणितोत्सवः । ५ जल्पति स्म । ६ संमिश्रीभवत् । ७ स्फुरद्रत्नाम् । ८ सुराट् ल, द० । ६ आह्वातुमिच्छम् । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व १३६ सावनिः 'सावनीवोद्यद् ध्वजमालातताम्बरा । सचक्रा सगजा रेजे जिनराजजयोजिता ॥३॥ केतवो हरिवस्त्राब्जवहिगभगरुत्मनाम् । स्रगुक्षहंसचक्राणां दशधोक्ता जिनेशिनः ॥४॥ तानेकशः शतं चाष्टौ ध्वजान् प्रतिदिशं स्थितान् । वरीवश्यन्न गाच्चक्री स तद्रुद्धावनेः परम् ॥६५॥ द्वितीयमार्जुनं सालं सगोपुरचतुष्टयम् । व्यतीत्य परतोऽपश्यन्नाटयशालाविपूर्ववत् ॥६॥ तत्र पश्यन्सुरस्त्रीणां न त्यं गीतं निशामयन् । धूपामोदं च सजिघन्" सुप्रीताक्षो ऽभवद् विभुः ॥१७॥ कक्षान्तरे ततस्तस्मिन् कल्पवृक्षवनावलिम् । स्रग्वस्त्राभरणादीष्टफलदां स निरूपयन् ॥६॥ सिद्धार्थपादपांस्तत्र सिद्धबिम्बैरधिष्ठितान् । परीत्य प्रणमन् प्रार्थीद् अचितानाकिनायकैः ॥६॥ बनवेदी ततोऽतीत्य चतुर्गोपुरमण्डनाम् । प्रासादरुद्धामवनी स्तूपांश्च प्रभुरक्षत ॥१०॥ प्रासादा विविधास्तत्र सुरावासाय कल्पिताः। त्रिचतुष्पञ्चभूम्याद्याः नानाच्छन्वैरलाकृताः ॥१०॥ स्तूपाश्च रत्ननिर्माणाः सान्तरा रत्नतोरणः । समन्ताज्जिनबिम्बैस्ते निचिताङगाश्चकाशिरे ॥१०२॥ तां पश्यन्नर्चयंस्तांश्च तांश्च तांश्च स कीर्तयन् । तां च कक्षा व्यतीयाय विस्मयं परमीयिवान् ॥१०३॥ उन्हें बुला ही रही हो ॥९२॥ वह ध्वजाभूमि यज्ञभूमिके समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार यज्ञभमिका आकाश अनेक फहराती हई ध्वजाओंके समहसे व्याप्त होता है उसी प्रकार उस ध्वजाभूमिका आकाश भी अनेक फहराती हुई ध्वजाओंके समूहसे व्याप्त हो रहा था, जिस प्रकार यज्ञभूमि धर्मचक्र तथा हाथी आदिके मांगलिक चिह्नोंसे सहित होती है उसी प्रकार वह ध्वजाभूमि भी चक्र और हाथीके चिह्नोंसे सहित थी, तथा जिस प्रकार यज्ञभूमि जिनेन्द्रदेवके जय अर्थात् जयजयकार शब्दोंसे व्याप्त होती है उसी प्रकार वह ध्वजाभूमि भी जिनेन्द्रदेवके जयजयकार शब्दोंसे व्याप्त थी अथवा कर्मरूपी शत्रुओंको जीत लेनेसे प्रकट हुई थी ।।९३।। जिनराजकी वे ध्वजाएं सिंह, वस्त्र, कमल, मयूर, हाथी, गरुड़, माला, बैल, हंस और चक्र इन चिह्नोंके भेदसे दश प्रकारकी थीं ॥९४। वे ध्वजाएँ प्रत्येक दिशामें एकएक प्रकारकी एक सौ आठ स्थित थीं, उन सबकी पूजा करते हुए चक्रवर्ती महाराज उस ध्वजाभूमिसे आगे गये ॥९५।। आगे चलकर उन्होंने चार गोपुर दरवाजों सहित चांदीका बना हुआ दूसरा कोट देखा और उसे उल्लंघन कर उसके आगे पहिलेके समान ही नाट्यशाला आदि देखीं ॥९६॥ वहां देवाङ्गनाओंके नृत्य देखते हुए, उनके गीत सुनते हुए और धूपकी सुगन्ध सूंघते हुए महाराज भरतकी इन्द्रियां बहुत ही संतुष्ट हुई थीं ।।९७॥ आगे चलकर उन्होंने उसी कक्षाके मध्यमें माला, वस्त्र और आभूषण आदि अभीष्ट फल देनेवाली कल्प वृक्षोंके वनकी भूमि देखी ॥९८॥ उसी . वनभूमिमें उन्होंने सिद्धोंकी प्रतिमाओंसे अधिष्ठित और इन्द्रोंके द्वारा पूजित सिद्धार्थ वृक्षोंकी प्रदक्षिणा दी, उन्हें प्रणाम किया और उनकी पूजा की ।।९९।। तदनन्तर चार गोपुर दरवाजोंसे सुशोभित वनकी वेदीको उल्लंघन कर चक्रवर्ती ने अनेक महलोंसे भरी हुई पृथिवी और स्तूप देखे ॥१००॥ वहां देवोंके रहने के लिये जो महल बने हुए थे वे तीन खण्ड, चार खण्ड, पांच खण्ड आदि अनेक प्रकारके थे तथा नाना प्रकारके उपकरणोंसे सजे हुए थे ॥१०॥ जिनके बीच बीचमें रत्नोंके तोरण लगे हुए हैं और जिनपर चारों ओरसे जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाएँ विराजमान हैं ऐसे वे रत्नमयी स्तूप भी बहुत अधिक सुशोभित हो रहे थे ॥१०२॥ उन स्तूपोंको देखते हुए, उनकी पूजा करते हुए और उन्हींका वर्णन करते हुए जिन्हें परम आश्चर्य प्राप्त हो रहा है ऐसे भरतने क्रम-क्रमसे उस कक्षाको उल्लंघन १ यज्ञसम्बन्धिनीव । सवनः यज्ञः । २ मालावृषभ । ३ एकैकस्मिन् (दिशि)। ४ पूजयन् । ५ प्रथमसालोक्तवत् । ६ शृण्वन् । ७ आघाणयन्। ८ प्रीतेन्द्रियः । ६ वनावनिम् ल०, प० । १० पश्यन् । ११ स्वस्तिक-सर्वतोभद्रनन्दयावर्तरुचकवर्द्धमानादिरचनाविशेषः। १२ व्यतीतवान् । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० महापुराणम् नभःस्फटिकनिर्माणं प्राकारवलयं ततः । प्रत्यासजिनस्व लब्धशुद्धि ददर्श सः ॥१०४॥ (तत्र कल्पोपमै देवैः महादौवारपालकैः। सादरं सोऽभ्यनुज्ञातः प्रविवेश सभां विभोः ॥१०॥ समन्ताद्योजनायामविष्कम्भपरिमण्डलम् । श्रीमण्डपं जगद्विश्वम् अपश्यन्मान्तमात्मनि ॥१०६॥ तत्रापश्यन्मुनीनिद्धबोधान्देवीश्च कल्पजाः । सापिका नपकान्ताश्च ज्योतिर्वन्योरगामरीः ॥१०७॥ भावनव्यन्तरज्योतिः कल्पेन्द्रान्पार्थिवान्मगान् । भगवत्पादसंप्रेक्षाप्रीतिप्रोत्फुल्ललोचनान् ॥१०॥ गणानिति क्रमात् पश्यन्परीयाय परन्तपः । त्रिमेखलस्य पीठस्य प्रथमां मेखलां श्रितः ॥१०६।। तत्रानचं मुदा चक्री धर्मचक्रचतुष्टयम् । यक्षेन्द्रविधृतं मूर्ना अध्नबिम्बानुकारि यत् ॥११०॥ द्वितीयमेखलायां च "प्रार्चदष्टौ महाध्वजान् । चक्रेभोक्षाजपञ्चास्यस्रग्वस्त्रगरुडाकितान् ॥१११॥ मेखलायां तृतीयस्याम् अर्थक्षिष्ट जगद्गुरुम् । वृषभं स कृती यस्यां श्रीमद्गन्धकुटीस्थिता ॥११२॥ तद्गर्भ रत्नसन्दर्भरुचिरे हरिविष्टरे। मेरुशङग इवोत्तुङगे सुनिविष्टं महातनुम् ॥११३॥ छत्रत्रयकृतच्छायमप्यच्छायमच्छिदम् । स्वतेजोमण्डलाकान्तनसुरासुरमण्डलम् ॥११४॥ अशोकशाखिचिह्नन व्यञ्जयन्तमिवाजसा । स्वपादाश्रयिणां शोकनिरासे शक्तिमात्मनः ॥११५॥ चलत्प्रकीर्णकाकीर्णपर्यन्तं कान्तविग्रहम् । रुक्माद्रिमिव वप्रान्त पतन्निर्भरसकुलम् ॥११६॥ किया ॥१०३।। आगे चलकर उन्होंने आकाशस्फटिकका बना हुआ तीसरा कोट देखा। वह कोट ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्रदेवकी समीपताके कारण उसे शुद्धि ही प्राप्त हो गई हो ।।१०४॥ वहां महाद्वारपालके रूपमें खड़े हुए कल्पवासी देवोंसे आदरसहित आज्ञा लेकर भरत महाराजने भगवान्की सभामें प्रवेश किया ॥१०५॥ वहां उन्होंने चारों ओरसे एक योजन लम्बा, चौड़ा, गोल और अपने भीतर समस्त जगत्को स्थान देनेवाला श्रीमण्डप देखा ॥१०६॥ उसी श्रीमण्डपके मध्यमें उन्होंने जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंके दर्शन करने से उत्पन्न हुई प्रीतिसे जिनके नेत्र प्रफुल्लित हो रहे हैं ऐसे क्रमसे बैठे हुए उज्ज्वल ज्ञानके धारी मुनि, कल्पवासिनी देवियां, आर्यिकाओंसे सहित रानी आदि स्त्रियां, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवोंकी देवियां, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देव, राजा आदि मनुष्य और मग आदि पशु ऐसे बारह संघ देखे तथा इन्हींको देखते हुए महाराज भरतने तीन कटनीदार पीठको प्रथम कटनीका आश्रय लेकर उसकी प्रदक्षिणा दी ।।१०७-१०९।। उस प्रथम कटनीपर चक्रवर्तीने, जिन्हें यक्षोंके इन्द्रोंने अपने मस्तकपर धारण कर रखा है और जो सूर्यके बिम्बका अनुकरण कर रहे हैं ऐसे चारों दिशाओंके चार धर्मचक्रोंकी प्रसन्नताके साथ पूजा की ।।११०॥ दूसरी कटनीपर उन्होंने चक्र, हाथी, बैल, कमल, सिंह, माला, वस्त्र और गरुड़के चिह्नोंसे चिह्नित आठ महाध्वजाओंकी पूजा की ॥१११॥ तदनन्तर विद्वान् चक्रवर्ती ने, जिसपर शोभायुक्त गन्धकुटी स्थित थी ऐसी तीसरी कटनीपर जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव को देखा ॥११२॥ उस गन्धकुटीके भीतर जो रत्नोंकी बनावटसे बहुत ही सुन्दर और मेरु पर्वतकी शिखरके समान ऊंचे सिंहासनपर बैठे हुए थे, जिनका शरीर बड़ा-जिनपर तीन छत्र छाया कर रहे थे परन्तु जो स्वयं छायारहित थे, पापोंको नष्ट करनेवाले थे, जिन्होंने अपने प्रभामण्डलसे मनुष्य, देव और धरणेन्द्र सभीके समूहको व्याप्त कर लिया था-जो अशोक वृक्षके चिह्नसे ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने चरणोंका आश्रय लेनेवाले जीवोंका शोक दूर करनेके लिये अपनी शक्ति ही प्रकट कर रहे हों-जिनके समीपका भाग चारों ओरसे ढलते हुए चामरोंसे व्याप्त हो रहा था, जो सुन्दर शरीरके धारक थे और इसीलिये जो उस सुमेरु १ सामीप्यात् । २ कल्पजैः। ३ दिव्यैः। ४ अपूजयत्। ५ समूहम् । ६ शोकविच्छेदे । ७ सानुप्रान्त । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिशत्तमं पर्व तेजसा चक्रवालेन स्फरता परितो वतम् । परिवेषवृतस्यार्कमण्डलस्यानुकारकम् ॥११७॥ वियद्'दुन्दुभिभिमन्द्र घोष रुद्धोषितोदयम् । सुमनोवर्षिभिदिव्यजी मूर्तरूजितश्रियम् ॥११॥ स्फुरद्गम्भीरनिर्घोषप्रीणितत्रिजगत्समम् । प्रावृषेण्यं' पयोवाहमिव धर्माम्बुषिणम् ॥११६॥ नानाभाषात्मिक दिव्यभाषामेकास्मिफामपि । प्रथयन्तमयत्नेन हद्ध्वान्तं नुदतीं नृणाम् ॥१२०॥ प्रमेयवीर्यमाहाविरहेऽप्यति सुन्दरम् । सुवाग्विभवमुत्सर्पत्सौरभं शुभलक्षणम् ॥१२१॥ प्रस्वेदमलमच्छायम् अपक्षमस्पन्दवन्धुरम् । सुसंस्थान मभेद्यं च दधानं वपुरूजितम् ॥१२२॥ रत्यप्रतर्यमाहात्म्यं दूरादालोकयन् जिनम् । प्रह वोऽभूत्स महीस्पृष्ट जानुरानन्दनिर्भरः ॥१२३॥ दूरानतचलन्मौलिः पालोलमणिकुण्डलः । स रेजे प्रणमन् भक्त्या जिनं रत्नरिवार्घयन् ॥१२४॥ ततो विधिवदानचं जलगन्धरगक्षतः। चरुप्रदीपपैश्च सफलैः स फलेप्सया ॥१२॥ कृतपूजाविधिर्भूयः प्रणम्य परमेष्ठिनम् । स्तोतुं स्तुतिभिरत्युच्चैः पारेभे भरताधिपः ॥१२६॥ त्वां स्तोष्ये परमात्मानम् अपारणमच्युतम् । चोदितोऽहं बलाद् भक्त्या शक्त्या मन्दोऽप्यमन्दया ॥१२७॥ पर्वतके समान जान पड़ते थे जोकि शिखरोंके समीप भागसे पड़ते हुए झरनोंसे व्या त हो रहा है-जो चारों ओरसे फैलते हुए कान्तिमण्डलसे व्याप्त हो रहे थे और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो गोल परिधिसे घिरे हुए सूर्यमण्डलका अनुकरण ही कर रहे हों-गम्भीर शब्द करनेवाले आकाशदुन्दुभियोंके द्वारा जिनका माहात्म्य प्रकट हो रहा था तथा फूलोंकी वर्षा करनेवाले दिव्य मेघोंके द्वारा जिनकी शोभा बढ़ रही थी-जिन्होंने चारों ओर फैलती हुई अपनी गंभीर गर्जनासे तीनों लोकोंके जीवोंकी सभाको संतुष्ट कर दिया था और इसीलिये जो धर्मरूपी जलकी वर्षा करते हुए वर्षाऋतुके मेघके समान जान पड़ते थे, जो उत्पत्तिस्थानकी अपेक्षा एक रूप होकर भी अतिशयवश श्रोताओंके कर्णकुहरके समीप अनेक भाषाओंरूप परिणमन करनेवाली और जीवोंके हृदयका अन्धकार दूर करनेवाली दिव्य ध्वनिको बिना किसी प्रयत्न के प्रसारित कर रहे थे-जो अनन्त वीर्यको धारण कर रहे थे, आभूषणरहित होनेपर भी अतिशय सुन्दर थे, वाणीरूपी उत्तम विभूतिके धारक थे, जिनके शरीरसे सुगन्धि निकल रही थी, जो शुभ लक्षणोंसे सहित थे, पसीना और मलसे रहित थे, जिनके शरीरकी छाया नहीं पड़ती थी, जो आंखोंके पलक न लगनेसे अतिशय सन्दर थे, समचतुरस्र संस्थानके धारक थे, और जो छेदन भेदन रहित अतिशय बलवान् शरीरको धारण कर रहे थे-ऐसे अचिन्त्य माहात्म्यके धारक श्री जिनेन्द्र भगवान्को दूरसे ही देखते हुए भरत महाराज आनन्दसे भर गये तथा उन्होंने अपने दोनों घुटने जमीनपर टेककर श्री भगवान्को नमस्कार किया ॥११३-१२३॥ दूरसे ही नम होनेके कारण जिनका मुकुट कुछ कुछ हिल रहा है और मणिमय कुण्डल चञ्चल हो रहे हैं ऐसे भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेवको प्रणाम करते हुए चक्रवर्ती भरत ऐसे जान पड़ते थे मानो उन्हें रत्नोंके द्वारा अर्घ ही दे रहा हो ॥१२४॥ तदनन्तर उन्होंने मोक्षरूपी फल प्राप्त करने की इच्छासे विधिपूर्वक जल, चन्दन, पूष्पमाला, अक्षत, नैवेद्य, दीप, धप और फलोंके द्वारा भगवान्की पूजा की ॥१२५।। पूजाकी विधि समाप्त कर चुकनेके बाद भरतेश्वरने परमेष्ठी वृषभदेवको प्रणाम किया और फिर अच्छे अच्छे स्तोत्रोंके द्वारा उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ।।१२६॥ हे भगवन्, आप परमात्मा हैं, अपार गुणोंके धारक हैं, अविनश्वर हैं और मैं शक्तिसे हीन हूँ तथापि बड़ी भारी भक्तिसे जबर्दस्ती प्रेरित होकर आपकी स्तुति करता १ विष्वग इ० । २ आकाशे ध्वनदुन्दुभिः । ३ सुरमेघैः । ४ प्रावृषि भवम् । ५ आभरणाद् विरहितेऽपि । ६ समचतुरस्र । ७ महीपृष्ट ल० । For Private &Personal Use Only . Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ महापुराणम् क्व ते गुणा गणेन्द्राणामप्यगण्या' क्व मादृशः । तथापि प्रयते' स्तोतुं भक्त्या त्वद्गुणनिघ्नया ॥ १२८ ॥ फलाय त्वद्गता भक्तिः अनरुपाय प्रकल्पते । स्वामिसंपत्प्रपुष्णाति ननु संपत्परम्पराम् ॥ १२६ ॥ घातिकर्म मलापायात् प्रादुरासन् गुणास्तव । घनावरणनिर्मुक्तमूर्त्तेर्भानोर्यथांऽशवः ॥१३०॥ यथार्थदर्शनज्ञानसुखवीर्यादिलब्धयः । क्षायिक्यस्तव निर्जाता घातिकर्मविनिर्जयात् ॥१३१॥ केवलाख्यं परं ज्योतिस्तव देव यदोदगात् । तदा लोकमलोकं च त्वमबद्धा विनावधेः ॥ १३२ ॥ सार्वज्ञयं तव वक्तीश वचः शुद्धिरशेषगा । न हि वाग्विभवो मन्दधियामस्तीह पुष्कलः ॥१३३॥ वक्तृप्रामाण्यतो देव वचःप्रामाण्यमिष्यते । न ह्यशुद्धतराद् वक्तुः प्रभवन्त्युज्ज्वला गिरः ॥ १३४ ॥ सप्तभाग्यात्मिकेयं ते भारती विश्वगोचरा । श्राप्तप्रतीति ममलां त्वय्युद्भावयितुं क्षमा ॥ १३५॥ स्यादस्त्येव हि नास्त्येव स्यादवक्तव्यमित्यपि । स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमिति" ते सार्व" भारती ॥१३६॥ हूँ ॥ १२७ ॥ हे देव, जो गणधर देवोंके द्वारा भी गम्य नहीं हैं ऐसे कहाँ तो आपके अनन्त गुण और कहां मुझ सरीखा मन्द पुरुष ? तथापि आपके गुणों के आधीन रहनेवाली भक्तिसे प्रेरित होकर आपकी स्तुति करनेका प्रयत्न करता हूँ ।। १२८ || हे भगवन्, आपके विषय में की हुईं थोड़ी भक्ति भी बहुत भारी फल देनेके लिये समर्थ रहती है सो ठीक ही है क्योंकि स्वामी की सम्पत्ति सेवक जनोंकी सम्पत्तिकी परम्पराको पुष्ट करती ही है ।। १२९ ॥ हे नाथ, जिस प्रकार मेघों के आवरण से छूटे हुए सूर्य की अनेक किरणें प्रकट हो जाती हैं उसी प्रकार घातिया कर्मरूपी मलके दूर हो जानेसे आपके अनेक गुण प्रकट हुए हैं ॥ १३० ॥ हे प्रभो, घातिया कर्मों को जीत लेनेसे आपके यथार्थ दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य आदि क्षायिक लब्धियाँ प्रकट हुई हैं | १३१|| हे देव, जिस समय आपके केवल ज्ञान नामकी उत्कृष्ट ज्योति प्रकट हुई थी उसी समय आपने मर्यादाके बिना ही समस्त लोक और अलोकको जान लिया था ॥ १३२॥ हे ईश, सब जगह जानेवाली अर्थात् संसारके सब पदार्थोंका निरूपण करनेवाली आपके वचनों की शुद्धि आपके सर्वज्ञपने को प्रकट करती है सो ठीक ही है क्योंकि इस जगत् में मन्द बुद्धिवाले जीवों के इतना अधिक वचनोंका वैभव कभी नहीं हो सकता है ।। १३३ ।। है देव, वक्ता की प्रमाणतासे ही वचनों की प्रमाणता मानी जाती है क्योंकि अत्यन्त अशुद्ध वक्तासे उज्ज्वल वाणी कभी उत्पन्न नहीं हो सकती है ॥। १३४|| हे नाथ, समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाली आपकी यह सप्तभंगरूप वाणी ही आपमें आप्तपनेकी निर्मल प्रतीति उत्पन्न करानेके लिये समर्थ है ।। १३५।। हे सबका हित करनेवाले, आपकी सप्तभङ्गरूप वाणी इस प्रकार है कि जीवादि पदार्थ कथंचित् हैं ही, कथंचित् नहीं ही हैं, कथंचित् दोनों प्रकार ही हैं, कथंचित् अवक्तव्य ही हैं, कथंचित् अस्तित्व रूप होकर अवक्तव्य हैं, कथंचित् नास्तित्व रूप होकर अवक्तव्य हैं और कथंचित् अस्तित्व तथा नास्तित्व - दोनों रूप होकर अवक्तव्य हैं । विशेषार्थजैनागममें प्रत्येक वस्तुमें एक एक धर्मके प्रतिपक्षी धर्मकी अपेक्षासे सात सात भङ्ग माने गये हैं, जो कि इस प्रकार हैं-१ स्यादस्त्येव, २ स्यान्नास्त्येव, ३ स्यादस्ति च नास्त्येव, ४ स्यादवक्तव्यमेव, ५ स्यादस्ति चावक्तव्यं च ६ स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च और ७ स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यं च । इनका स्पष्ट अर्थ यह है कि संसारका १ - मप्यगम्या ल० । २ प्रयत्नं करिष्ये । ३ त्वद्गुणाधीनतया । ४ नितरां जाता । ५ उदेति स्म । ६ सर्वज्ञताम् । ७ सर्वगा । ८ सम्पूर्णः । ६ आप्तस्य निश्चितिम् । १० स्यादस्त्येवेत्यादिना सप्तभंगी योजनीया, कथमिति चेत् । १ स्यादस्त्येव, २ स्यान्नास्त्येव, ३ द्वयमपि मिलित्वा स्यादस्ति नास्त्येव, ४ स्यादवक्तव्यमेव, ५ स्यादवक्तव्यपदेन सह स्यादस्ति नास्तीति द्वयं योजनीयम्, कथम् ? स्यादस्त्यवक्तव्यम्, ६ स्यान्नास्त्यवक्त-व्यमिति, ७ स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमिति । ११ सर्वहित । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व रवि: विरुद्धाबद्धवाग्जालरुद्धव्यामुग्धबुद्धिषु । श्रश्रद्धेयमनाप्तेषु सार्वज्ञ्यं त्वयि तिष्ठते ॥१३७॥ पयोधरोत्सगसुप्तरश्मिविकासिभिः । सूच्यतेऽब्जैर्यथा तद्वद् उद्भर्वाग्विभवैर्भवान् ॥ १३८ ॥ प्रत्येक पदार्थ स्वचतुष्टय ( द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव ) की अपेक्षा अस्तित्व रूप ही है, परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तित्व रूप ही है और एक साथ दोनों धर्म नहीं कहे जा सकनेके कारण अवक्तव्य रूप भी है, इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में मुख्यतासे अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य ये तीन धर्म पाये जाते हैं । इन्हीं मुख्य धर्मो के संयोगसे सात सात धर्म हो जाते हैं । जैसे ' जीवोऽस्ति' जीव है । यहां पर जीव और अस्तित्व क्रियामें विशेष्य विशेषण सम्बन्ध है | विशेषण विशेष्यमें ही रहता है इसलिये जीवका अस्तित्व जीवमें ही है दूसरी जगह नहीं है, इसी प्रकार 'जीवनास्ति'- जीव नहीं है यहाँपर भी जीव और नास्तित्वमें विशेष्यविशेषण सम्बन्ध है इसलिये ऊपर कहे हुए नियमसे नास्तित्व जीवमें ही है दूसरी जगह नहीं है । जीवके इन अस्तित्व और नास्तित्व रूप धर्मोंको एक साथ कह नहीं सकते इसलिये उसमें एक अवक्तव्य नामका धर्म भी है । इन तीनों धर्मोमेंसे जब जीवके केवल अस्तित्व धर्मकी विवक्षा करते हैं तब 'स्याद् अस्त्येव जीवः' ऐसा पहला भङ्ग होता है, जब नास्तित्व धर्मकी विवक्षा करते हैं तब 'नास्त्येव जीवः' ऐसा दूसरा भङ्ग होता है, जब दोनोंकी क्रम क्रमसे विवक्षा करते हैं तब 'स्यादस्ति च नास्त्येव जीवः' इस प्रकार तीसरा भङ्ग होता है, जब दोनोंकी अक्रम अर्थात् एक साथ विवक्षा करते हैं तब दो विरुद्ध धर्म एक कालमें नहीं कहे जा सकने के कारण 'स्यादवक्तव्यमेव' ऐसा चौथा भङ्ग होता है, जब अस्तित्व और अवक्तव्य इन दो धर्मोकी विवक्षा करते हैं तब 'स्यादस्ति चावक्तव्यं च' ऐसा पाँचवाँ भङ्ग होता है, जब नास्तित्व और अवक्तव्य इन दो धर्मोकी विवक्षा करते हैं तब 'स्यान्नास्ति चा वक्तव्यं च' ऐसा छठवाँ भङ्ग हो जाता है और जब अस्तित्व, नास्तित्व तथा अवक्तव्य इन धर्मोकी विवक्षा करते हैं तब 'स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यं' च ऐसा सातवाँ भङ्ग हो जाता है । संयोगकी अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ में प्रत्येक धर्म सात सात भङ्गके रूप रहता है इसलिये उन्हें कहने के लिये जिनेन्द्र भगवान् ने सप्त-भङ्गी (सात भङ्गों के समूह ) रूप वाणी के द्वारा उपदेश दिया है । जिस समय जीवके अस्तित्व धर्मका निरूपण किया जा रहा है उस समय उसके अवशिष्ट धर्मोका अभाव न समझ लिया जावे इसलिये उसके साथ विवक्षा सूचक स्याद् शब्दका भी प्रयोग किया जाता है तथा सन्देह दूर करने के लिये नियमवाचक एव याच आदि निपातों का भी प्रयोग किया जाता है जिससे सब मिलाकर 'स्यादस्त्येव जीवः ' इस वाक्यका अर्थ होता है कि जीव किसी अपेक्षासे है ही । इसी प्रकार अन्य वाक्योंका अर्थ भी समझ लेना चाहिये । जैनधर्म अपनी व्यापक दृष्टिसे पदार्थ के भीतर रहनेवाले उसके समस्त धर्मों का विवक्षानुसार कथन करता है इसलिये वह स्याद्वादरूप कहलाता है । वास्तव में इस सर्वमुखी दृष्टिके बिना वस्तुका पूर्ण स्वरूप कहा भी तो नहीं जा सकता ।। १३६ ।। हे देव, जिनकी बुद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध तथा सम्बन्धरहित वचनोंके जालमें फंसकर व्यामुग्ध हो गई है ऐसे कुदेवोंमें श्रद्धान नहीं करने योग्य सर्वज्ञता आपमें विराजमान है । भावार्थ - सर्वज्ञ ही हो सकता है जिसके वचनों में कहीं भी विरोध नहीं आता है । संसारके अन्य देवी-देवताओं के वचनों में पूर्वापर विरोध पाया जाता है और इसीसे उनकी भ्रान्त बुद्धिका पता चल जाता है इन सब कारणों को देखते हुए 'वे सर्वज्ञ थे' ऐसा विश्वास नहीं होता परन्तु आपके वचनों अर्थात् उपदेशों में कहीं भी विरोध नहीं आता तथा आपने वस्तुके समस्त धर्मों का वर्णन किया है इससे आपकी बुद्धि-ज्ञान-निर्भ्रान्त है और इसीलिये आप सर्वज्ञ हैं ।। १३७ ।। जिस प्रकार मेघोंके १ प्रमाणभूते निर्णयाय तिष्ठतीत्यर्थः । स्थेयप्रकाशने इति स्थेयविषये आत्मने पदे - विवादपदे निर्णता प्रमाणभूतः पुरुषः स्थेयः । ૪૩ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ महापुराणम् यथान्धतमसे दूरात्त ते विरुतैः शिखी' । तथा त्वमपि सुव्यक्तैः सूफ्तराप्तोक्तिमर्हसि ॥१३६॥ प्रास्तामाध्यात्मिकीयं ते ज्ञानसंपन्महोदया। बहिविभूतिरेवैषा शास्ति नः शास्तृतां त्वयि ॥१४०॥ परार्घमासनं सैहं कल्पितं सरशिल्पिभिः। रत्नरुकछरितं भाति तावक मेरुऋडगवत् ॥१४॥ 'सुरैरुच्छितमेतत्ते छत्राणां त्रयमूजितम् । त्रिजगत्प्राभ चिह्नं न प्रतीमः कथं वयम् ॥१४२॥ चामराणि तवामूनि वीज्यमानानि चामरः। शंसन्त्यनन्यसामान्यम् ऐश्वर्य भुवनातिगम् ॥१४३॥ परितस्त्वत्सभां देव वर्षन्त्येते सुराम्बुदाः । सुमनोवर्षमुद्गन्धि व्याहूतमधुपव्रजम् ॥१४४॥ सुरदुन्दुभयो मन्द्रं ध्वनन्त्येते नभोऽङगणे । सुरकिङकरहस्ताग्रताडितास्त्वज्जयोत्सवे ॥१४॥ सुरैरासेवितोपान्तो जनताशोकतापनुत् । प्रायस्त्वामयमन्वेति तवाशोकमहोरुहः ॥१४६॥ त्वदेहदीप्तयो दीप्राः प्रसरन्त्यभितः सभाम् । धृतबालातपच्छायास्तन्वाना नयनोत्सवम् ॥१४७॥ बीचमें जिसकी समस्त किरणें छिप गई हैं ऐसा सूर्य यद्यपि दिखाई नहीं देता तथापि फूले हुए कमलोंसे उसका अस्तित्व सूचित हो जाता है उसी प्रकार आपका प्रत्यक्ष रूप भी दिखाई नहीं देता तथापि आपके श्रेष्ठ वचनोंके वैभवके द्वारा आपके प्रत्यक्ष रूपका अस्तित्व सूचित हो रहा है । भावार्थ-आपके महान् उपदेश ही आपको सर्वज्ञ सिद्ध कर रहे हैं ॥१३८॥ अथवा जिस प्रकार सघन अन्धकारमें यद्यपि मयूर दिखाई नहीं देता तथापि अपने शब्दोंके द्वारा दूर से ही पहिचान लिया जाता है उसी प्रकार आपका आप्तपना यद्यपि प्रकट नहीं दिखाई देता तथापि आप अपने स्पष्ट और सत्यार्थ वचनोंसे आप्त कहलानेके योग्य हैं ॥१३९।। अथवा हे देव, जिसका बड़ा भारी अभ्युदय है ऐसी यह आपकी अध्यात्मसम्बन्धी ज्ञानरूपी सम्पत्ति दूर रहे, आपकी यह बाह्य विभूति ही हम लोगोंको आपके हितोपदेशीपनका उपदेश दे रही है । भावार्थ-आपकी बाह्य विभूति ही हमें बतला रही है कि आप मोक्षमार्गरूप हितका उपदेश देनेवाले सच्चे वक्ता और आप्त हैं ॥१४०॥ हे भगवन्, देवरूप कारीगरोंके द्वारा बनाया हुआ और रत्नोंकी किरणोंसे मिला हुआ आपका यह श्रेष्ठ सिंहासन मेरु पर्वतकी शिखर के समान सुशोभित हो रहा है ।।१४१॥ देवोंके द्वारा ऊपरकी ओर धारण किया हुआ यह आपका प्रकाशमान छत्रत्रय आपकी तीनों लोकोंकी प्रभुताका चिह्न है ऐसा हम क्यों न विश्वास करें ? भावार्थ-आपके मस्तकके ऊपर आकाशमें जो देवोंने तीन छत्र लगा रखे हैं वे ऐसे मालूम होते हैं मानो आप तीनों लोकोंके स्वामी हैं यही सूचित कर रहे हों ।।१४२॥ देवोंके द्वारा ढुलाये हुए ये चमर तीनों जगत्को उल्लंघन करनेवाले आपके असाधारण ऐश्वर्यको सूचित कर रहे है ॥१४३॥ हे देव, ये देवरूपी मेघ आपकी सभाके चारों ओर अत्यन्त सुगन्धित तथा भूमरोक समूहको बुलानेवाली फलोंकी वर्षा कर रहे हैं ।।१४४।। हे प्रभो, आपक विजयोत्सवमें देवरूप किंकरोंके हाथोंके अग्र भागसे ताड़ित हुए ये देवोंके दुन्दुभि बाजे आकाश रूप आंगनमें गम्भीर शब्द कर रहे हैं ॥१४५॥ जिसका समीप भाग देवोंके द्वारा सेवित है अर्थात् जिसके समीप देव लोग बैठे हुए हैं और जो जनसमूहके शोक तथा संतापको दूर करने वाला है ऐसा यह अशोकवृक्ष प्रायः आपका ही अनकरण कर रहा है क्योंकि आपका समीप भाग भी देवोंके द्वारा सेवित है और आप भी जनसमूहके शोक और संतापको दूर करनेवाले हैं ॥१४६॥ जिसने प्रातःकालके सूर्यकी कान्ति धारण की है और जो नेत्रोंका उत्सव बढ़ा रही है ऐसी यह आपके शरीरकी देदीप्यमान कान्ति सभाके चारों ओर फैल रही है। भावार्थ १ बहि। २ श्रुतेर्योग्यो भवसि । ३ शिक्षकत्वम् । ४ रत्नकान्तिमिश्रितम् । ५ त्वत्सम्बन्धि । ६ देवरुद्धृतम् । ७ त्रैलोक्यप्रभुत्वे । ८ कथं न विश्वासं कुर्मः। नदन्त्येते ल० । १० सन्तापहारि । ११ अनुकरोति । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयस्त्रिंशत्तम पर्व १४५ दिव्यभाषा तवाशेषभाषा भेदानकारिणी। निरस्यति मनोवान्तम् अवाचामपि देहिनाम् ॥१४८॥ प्रातिहार्यमयी भूतिः इयमष्टतयो प्रभो। महिमानं तवाचष्टे विस्पष्टं विष्टपातिगम् ॥१४॥ त्रिमेखलस्य पीठस्य मेरोरिव गरीयसः । चलिकेव विभात्य च्चैः सेव्या गन्धकुटी तव ॥१५०॥ वन्दारूणां मुनीन्द्राणां स्तोत्रप्रतिरवैमहः । स्तोतुकामेव भक्त्या त्वां सैषा भात्यतिसंमदात् ॥१५॥ परार्घ्यरत्ननिर्माणाम् एनामत्यन्तभास्वरान् । त्वामध्यासीनमानमा नाकभाजो भजन्त्यमी ॥१५२॥ सशिखामणयोऽमीषां नम्राणां भान्ति मौलयः । सदीपा इव रत्नार्धाः स्थापितास्त्वत्पदान्तिके ॥१५३॥ नतानां सुरकोटीनां वकासत्यधिमस्तकम् । प्रसादांशा इवालग्ना युष्मत्पादनखांशवः ॥१५४॥ नखदर्पणसंक्रान्तबिम्बान्यमरयोषिताम् । दधत्यसूनि वक्त्राणि त्वदुपाडयम्बु जश्रियम् ॥१५॥ वक्त्रेष्वमरनारीणां सन्धत्त कुडकुमश्रियम् । युष्मत्पादतलच्छाया प्रसरंती जयाऽरुणा ॥१५६॥ गणाध्युषित भूभागमध्यवर्ती त्रिमेखतः। पीठाद्रिरयमाभाति तवानिष्कृतमङगलः ॥१५७॥ प्रथमोऽस्य परिक्षेपो धर्मचरलङकृतः। द्वितीयोऽपि तवाऽमीभिः दिक्ष्वष्टासु महाध्वजः॥१५८।। श्रीमण्डपनिवेशस्ते योजनप्रमितोऽप्ययम् । निजगज्जनताऽजलप्रावेशोपग्रहक्षमः ॥१५॥ धूलीसालपरिक्षेपो मानस्तम्भाः सरांसि च । खातिका सलिलापूर्णा कल्लीवनपरिच्छदः ॥१६०॥ आपके भामण्डलकी प्रभा सभाके चारो ओर फैल रही है ॥१४७॥ समस्त भाषाओंके भेदोंका अनुकरण करनेवाली अर्थात् समस्त भाषाओं रूप परिणत होनेवाली आपकी यह दिव्य ध्वनि जो वचन नहीं बोल सकते ऐसे पशु पक्षी आदि तिर्यञ्चोंके भी हृदयके अन्धकारको दूर कर देती है ।।१४८।। हे प्रभो, आपकी यह प्रातिहार्यरूप आठ प्रकारकी विभूति आपकी लोकोत्तर महिमाको स्पष्ट रूपसे प्रकट कर रही है ।।१४९॥ मेरु पर्वतके समान ऊंचे तीन कटनीदार पीठपर सबके द्वारा सेवन करने योग्य आपकी यह ऊँची गन्धकुटी मेरुकी चूलिकाके समान सुशोभित हो रही है ।।१५०।। वन्दना करनेवाले उत्तम मुनियोंके स्तोत्रोंकी प्रतिध्वनिसे यह गन्धकटी ऐसी जान पड़ती है मानो भक्तिवश हर्षसे आपकी स्तुति ही करना चाहती हो ॥१५॥ हे प्रभो, जो श्रेष्ट रत्नोंसे बनी हुई और अतिशय देदीप्यमान इस गन्धकुटीमें विराजमान हैं ऐसे आपकी, स्वर्ग में रहनेवाले देव नम होकर सेवा कर रहे हैं ॥१५२।। हे देव, जो अग्रभागमें लगे हुए मणियोंसे सहित हैं ऐसे इन नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुट ऐसे जान पड़ते हैं मानो आपके चरणोंके समीप दीपकसहित रत्नोंके अर्थ ही स्थापित किये गये हों ॥१५३॥ नमस्कार करते हुए करोड़ों देवोंके मस्तकोंपर जो आपके चरणोंके नखोकी किरणें पड़ रही थीं वे ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो उनपर प्रसन्नताके अंश ही लग रहे हों ॥१५४॥ आपके नखरूपी दर्पणमें जिनका प्रतिविम्ब पड़ रहा है ऐसे ये देवांगनाओंके मुख आपके चरणोंके समीपमें कमलोंकी शोभा धारण कर रहे हैं ॥१५५॥ जवाके फुलके समान लाल वर्ण जो यह आपके पैरोंके तलवोंकी कान्ति फैल रही है वह देवांगनाओंके सुखोंपर कुडकुमकी शोभा धारण कर रही है ।।१५६।। जो बारह सभाओंसे भरी हुई पृथिवीके मध्यभागमें वर्तमान है और जिसपर अनेक मङगल द्रव्य प्रकट हो रहे हैं ऐसा यह तीन कटनीदार आपका पीठरूपी पर्वत बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा है ।। १५७।। इस पीठकी पहली परिधि धर्मचक्रोंसे अलंकृत है और दूसरी परिधि भी आठों दिशाओं में फहराती हुई आपकी इन बडी बडी ध्वजाओंसे सशोभित है ।।१५८।। यद्यपि आपके श्रीमण्डपकी रचना एक ही योजन लम्बी-चौड़ी है तथापि वह तीनों जगत्के जनसमूहके निरन्तर प्रवेश कराते रहने रूप उपकार में समर्थ हैं ॥१५९॥ हे प्रभो, यह धूलोसाल की परिधि, ये मानस्तम्भ, सरोवर, स्वच्छ जलसे भरी हुई परिखा, लता १ तिरश्चाम् । २ तव पादसमीपे। ३ द्वादशगणस्थित। ४ उपकारदक्षः। 'त्रिजगज्जनानां स्थानदाने समर्थ इत्यर्थः । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् सालत्रितयमुत्तडागचतुर्गोपुरमण्डितम् । मडागलद्रव्यसन्दोहो निधयस्तोरण.नि च ॥१६॥ नाटयशालाद्वयं दीप्तं लसद्धपघटीद्वयम् । वनराजिपरिक्षेपश्चैत्यद्रुमपरिष्कृतः ॥१६२॥ वनवेदीद्वयं प्रोच्चैर्ध्वजमालाततावनिः । कल्पद्रुमवनाभोगाः स्तूपहावलीत्यपि ॥१६३॥ सदोऽवनि रियं देव नसुरासुरपावनी । त्रिजगत्सारसन्दोह इवं कत्र निवेशितः॥१६४॥ बहिविभूतिरित्युच्चैः आविष्कृतमहोदयाः । लक्ष्मीमाध्यात्मिकी व्यक्तं व्यनक्ति जिन तावकीम् ॥१६॥ सभापरिच्छदः सोऽयं सुरैस्तव विनिमितः । वैराग्यातिशयं नाथ नोपहन्त्य प्रतकितः ॥१६६॥ इत्यत्यद्भुतमाहात्म्यः त्रिजगद्वल्लभो भवान् । स्तुत्योपतिष्ठमानं मां "पुनीतात्पूतशासः॥१६७॥ अलं स्तुतिप्रपञ्चेन तवाचिन्त्यतमा गुणाः । जयेशान नमस्तुभ्यमिति सडक्षेपतः स्तुवे ॥१६८॥ जयेश जय निर्दग्धकर्मेन्धनजयाजर । जय लोकगुरो सार्व जयताज्जय जित्वर ॥१६॥ जय लक्ष्मीपते जिष्णो जयानन्तगुणोज्ज्वल । जय विश्वजगद्बन्धो जय विश्वजगद्धित ॥१७०॥ जयाखिलजगद्वेदिन जयाखिलसुखोदय । जयाखिलजगज्ज्येष्ठ जयाखिलजगद्गुरो ॥१७१॥ जय निजितमोहारे जय जितमन्मथ । जय जन्मजरात ऊकविजयिन् विजितान्तक ॥१७२।। वनोंका समूह-ऊँचे ऊँचे चार गोपुर, दरवाजोंसे सुशोभित तीन कोट, मङगल द्रव्योंका समूह, निधियां, तोरण-दो-दो नाटयशालाएँ, दो-दो सुन्दर धूप घट, चैत्यवृक्षोंसे सुशोभित वन पंक्तियोंकी परिधि-दो वनवेदी, ऊंची ऊंची ध्वजाओंकी पंक्तिसे भरी हई पथिवी, कल्पवृक्षों के वनका विस्तार, स्तूप और मकानोंकी पंक्ति-इस प्रकार मनुष्य देव और धरणेन्द्रोंको पवित्र करनेवाली आपकी यह सभाभूमि ऐसी जान पड़ती है मानो तीनों जगत्की अच्छी अच्छी वस्तुओंका समूह ही एक जगह इकट्ठा किया गया हो ।।१६०-१६४॥ हे जिनेन्द्र, जिससे आपका महान् अभ्युदय या ऐश्वर्य प्रकट हो रहा है ऐसी यह आपकी अतिशय उत्कृष्ट बाह्य विभूति आपकी अन्तरङग लक्ष्मीको स्पष्ट रूपसे प्रकट कर रही है ।।१६५॥ हे नाथ, जिसके विषयमें कोई तर्क-वितर्क नहीं कर सकता ऐसी यह देवोंके द्वारा रची हुई आपके समवसरणकी विभूति आपके वैराग्यके अतिशयको नष्ट नहीं कर सकती है। भावार्थ-समवसरण सभाकी अनुपम विभूति देखकर आपके हृदयमें कुछ भी रागभाव उत्पन्न नहीं होता है ।।१६६।। इस प्रकार जिनकी अद्भुत महिमा है, जो तीनों लोकोंके स्वामी हैं, और जिनका शासन अतिशय पवित्र है ऐसे आप स्तुतिके द्वारा उपस्थान (पूजा) करनेवाले मुझे पवित्र कीजिये ॥१६७।। हे भगवन्, आपकी स्तुतिका प्रपञ्च करना व्यर्थ है क्योंकि आपके गुण अत्यन्त अचिन्त्य है इसलिये मैं संक्षेपसे इतनी ही स्तुति करता हूं कि हे ईशान, आपकी जय हो और आपको नमस्कार हो ॥१६८॥ हे ईश, आपकी जय हो, हे कर्मरूप ईधनको जलानेवाले, आपकी जय हो, हे जरारहित, आपकी जय हो, हे लोकोंके गुरु, आपकी जय हो, हे सबका हित करने वाले, आपकी जय हो, और हे जयशील, आपकी जय हो ॥१६९॥ हे अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीके स्वामी जयनशील, आपकी जय हो। हे अनन्तगुणोंसे उज्ज्वल, आपकी जय हो। हे समस्त जगत् के बन्धु, आपकी जय हो। हे समस्त जगत्का हित करनेवाले, आपकी जय हो ॥१७०॥ हे समस्त जगत्को जाननेवाले, आपकी जय हो। हे समस्त सुखोंको प्राप्त करनेवाले, आपकी जय हो। हे समस्त जगत्में श्रेष्ठ, आपकी जय हो। हे समस्त जगत्के गुरु, आपकी जय हो ॥१७१॥ हे मोहरूपी शत्रुको जीतनेवाले, आपकी जय हो। हे कामदेवको भर्त्सना करने १ अलकृतः ‘परिष्कारो विभूषणम्' इत्यभिधानात् । २ नवाभोग: द०, इ०,। ३ समवसरणभूमिः । ४ न नाशयति । ५ ऊहातीत: ऊहितुमशक्य इत्यर्थः । ६ स्तोत्रेणार्चयनम् । ७ पवित्र कुरु । ८ जयशील । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ प्रयस्त्रिंशत्तम पर्व जय निर्मद निर्माय जय निर्मोह निर्मम । जय निर्मल निर्द्वन्द्व जय निष्कल' पुष्कल ॥१७३॥ जय प्रबुद्ध सन्मार्ग जय दुर्मार्गरोधन । जय कर्मारिमर्माविद्धर्मचक्र जयोद्धर ॥१७४॥ जयाध्वरपते यज्वन् जय पूज्य महोदय । जयोद्धर जयाचिन्त्य' सद्धर्मरथसारथे ॥१७॥ जय निस्तीर्णसंसारपारावारगुणाकर । जय निःशेषनिष्पीतविद्यारत्नाकर प्रभो ॥१७६॥ नमस्ते परमानन्तसुखरूपाय तायिने । नमस्ते परमानन्दमयाय परमात्मने ॥१७७॥ नमस्ते भुवनोभासिज्ञानभाभारभासिने । नमस्ते नयनानन्दिपरमौदरिकत्विषे ॥१७८॥ नमस्ते मस्तकन्यस्तस्वहस्ताञ्जलिकुडमलैः। स्तुताय त्रिदशाधीशैः स्वर्गावतरणोत्सवे ॥१७६।। नमस्ते प्रचलन्मौलिघटिताञ्जलिबन्धनः । नुताय मेरुशलाग्रस्नाताय सुरसत्तमः ॥१८०॥ नमस्ते मुकुटोपापलग्नहस्तपुटोद्भटः । लौकान्तिकरधीष्टाय परिनिष्क्रमणोत्सवे ॥१८१॥ नमस्ते स्वकिरीटानरत्नप्रावान्तचुम्बिभिः । कराब्जमुकुलैः प्राप्तकेवलेज्याय नाकिनाम् ॥१८२॥ नमस्ते पारनिर्वाण कल्याणेऽपि प्रवत्स्य॑ति । पूजनीयाय वह्नीन्द्रज्वलन्मुकुटकोटिभिः ॥१८३॥ वाले, आपकी जय हो। हे जन्मजरारूपी रोगको जीतनेवाले, आपकी जय हो। हे मृत्युको जीतनेवाले, आपकी जय हो ॥१७२।। हे मदरहित, मायारहित, आपकी जय हो। हे मोह रहित, ममतारहित, आपकी जय हो। हे निर्मल और निर्द्वन्द्व, आपकी जय हो । हे शरीररहित, और पूर्ण ज्ञानसहित, आपकी जय हो ॥१७३।। हे समीचीन मार्गको जाननेवाले, आप को जय हो। हे मिथ्या मार्गको रोकनेवाले, आपकी जय हो। हे कर्मरूपी शत्रुओंके मर्मको वेधन करनेवाले, आपकी जय हो। हे धर्मचक्रके द्वारा विजय प्राप्त करने में उत्कट, आपकी जय हो ॥१७४॥ हे यज्ञके अधिपति, आपकी जय हो। हे कर्मरूप ई धनको ध्यानरूप अग्नि में होम करनेवाले, आपकी जय हो। हे पूज्य तथा महान् वैभवको धारण करनेवाले, आपकी जय हो। हे उत्कृष्ट दयारूप चिह्नसे सहित तथा हे समीचीन धर्मरूपी रथके सारथि, आपकी जय हो ।।१७५।। हे संसाररूपी समुद्रको पार करनेवाले, हे गुणोंकी खानि, आपकी जय हो । हे समस्त विद्यारूपी समुद्रका पान करनेवाले, हे प्रभो, आपकी जय हो ॥१७६।। आप उत्कृष्ट अनन्त सुखरूप हैं तथा सबकी रक्षा करनेवाले हैं इसलिये आपको नमस्कार हो। आप परम आनन्दमय और परमात्मा हैं इसलिये आपको नमस्कार हो ॥१७७॥ आप समस्त लोकको प्रकाशित करनेवाले ज्ञानकी दीप्तिके समहसे देदीप्यमान हो रहे हैं इसलिये आपको नमस्कार हो। आपके परमौदारिक शरीरकी कान्ति नेत्रोंको आनन्द देनेवाली है इसलिये आपको नमस्कार हो ॥१७८॥ हे देव, स्वर्गावतरण अर्थात् गर्भकल्याणकके उत्सवके समय इन्द्रोंने अपने हाथों की अञ्जलिरूपी बिना खिले कमल अपने मस्तकपर रखकर आपकी स्तुति की थी इसलिये आपको नमस्कार हो ।।१७९॥ अपने नम हुए मस्तकपर दोनों हाथ जोड़कर रखनेवाले उत्तम उत्तम देवोंने जिनकी स्तुति की है तथा सुमेरु पर्वतके अग्रभागपर जिनका जन्माभिषेक किया गया है ऐसे आपके लिये नमस्कार है ॥१८०॥ दीक्षाकल्याणकके उत्सवके समय अपने मकट के समीप ही हाथ जोड़कर लगा रखनेवाले लौकान्तिक देवोंने जिनका अधिष्ठान अर्थात् स्तुति की है ऐसे आपके लिये नमस्कार हो ॥१८१॥ अपने मुकुटके अग्रभागमें लगे हुए रत्नोंका चुम्बन करनेवाले देवोंके हाथरूपी मुकुलित कमलोंके द्वारा जिनके केवलज्ञानकी पूजा की गई है ऐसे आपके लिये नमस्कार हो ॥१८२।। हे भगवन्, जब आपका मोक्षकल्याणक होगा १शरीरबन्धनरहित । २ मर्म विध्यति ताडयतीति मर्मावित् तस्य सम्बुद्धिः। 'नहिव तिवृषि ध्यधिसहितनिरुचि क्वी कारकस्यति' दीर्घः। ३ उद्भट । ४ दयाचिन्ह द०, ल०, इ०, अ०, ५०, स०। ५ पालकाय । ६ ज्ञानकिरणसमूहप्रकाशिने । ७ स्तुताय । ८ भूमद्भिः समथैः वा । ६ अधिकमिष्टाय सत्कारानुमतायेत्यर्थः । १० भाविनि । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ महापुराणम् नमस्ते प्राप्तकल्याणमहेज्याय महौजसे । प्राज्यत्रैलोक्यराज्याय ज्यायसे ज्यायसामपि ॥१८४॥ नमस्ते नतनाकोन्द्रचूलारत्नाचिताङचये। नमस्ते दुर्जयारातिनिर्जयोपाजितश्रिये ॥१८॥ नमोऽस्तु तुभ्यमिद्धद्ध सपर्यामर्हते' पराम् । रहोरजोरिघाताच्च प्राप्ततनामरूढये ॥१८६॥ जितान्तक नमस्तुभ्यं जितमोह ननोऽस्तु ते । जितानडग नमस्ते स्ताद विरागाय स्वयम्भुवे ॥१८७॥ त्वां नमस्यन्' जननमर्नम्यते सुकृती पुमान् । गां जयज्जितजेत व्यस्त्वज्जयोद्घोषणात्कृती ॥१८॥ त्वत्स्तुते: पूतवागस्मि त्वत्स्मृतेः पुतमानसः । त्वन्नते: पूतदेहोऽस्मि धन्योऽस्म्यद्य त्वदीक्षणात् ॥१८६॥ अहमद्य कृतार्थोऽस्मि जन्माद्य सफलं मम । सुनिर्वृत्ते दशौ मेऽद्य सुप्रसन्नं मनोऽद्य मे ॥१०॥ त्वत्तोर्थसरसि स्वच्छ पुण्यतोयसु सम्भृते । सुस्नातोऽहं चिरादद्य पूतोऽस्मि सुखनिवृतः ॥११॥ त्वत्पादनखभाजालसलिलैरस्तकल्मषैः । अधिमस्तकमालग्नरभिषिक्त इवास्म्यहम् ॥१६२॥ एकतः सार्वभौमश्री: इयमप्रतिशासना । एकतश्च भवत्पादसेवालोकैकपावनी ॥१३॥ उस समय भी देदीप्यमान मुकुटोंको धारण करनेवाले वह्निकुमार देवोंके इन्द्र आपकी पूजा करेंगे इसलिये आपको नमस्कार हो ।।१८३॥ हे नाथ, आपको गर्भ आदि कल्याणकोंके समय बड़ी भारी पूजा प्राप्त हुई है, आप महान् तेजक धारक है, आपको तीन लोकका उत्कृष्ट राज्य प्राप्त हुआ है और आप बड़ोंमें भी बड़े अथवा श्रेष्ठोंमें भी श्रेष्ठ हैं इसलिये आपको नमस्कार हो ॥१८४।। नमस्कार करते हुए स्वर्गके इन्द्रोंके मुकुटमें लगे हुए मणियोंसे जिनके चरणोंकी पूजा की गई है ऐसे आपके लिये नमस्कार हो और जिन्होंने कर्मरूपी दुर्जेय शत्रुओंको जीतकर अनन्तचतुष्टयरूपी उत्तम लक्ष्मी प्राप्त की है ऐसे आपके लिये नमस्कार हो ॥१८५॥ हे उत्कृष्ट ऋद्धियोंको धारण करनेवाले, आप उत्कृष्ट पूजाके योग्य हैं तथा रहस् अर्थात् अन्तराय रज अर्थात ज्ञानावरण दर्शनावरण और अरि अर्थात मोहनीय कर्मके नष्ट करनेसे आपने 'अरिहन्त' ऐसा सार्थक नाम प्राप्त किया है इसलिये आपको नमस्कार हो ॥१८६।। हे मृत्युको जीतने वाले, आपको नमस्कार हो। हे मोहको जीतनेवाले, आपको नमस्कार हो। और हे कामको जीतनेवाले, आप वीतराग तथा स्वयंभू हैं इसलिये आपको नमस्कार हो ॥१८७॥ हे नाथ, जो आपको नमस्कार करता है वह पुण्यात्मा पुरुष अन्य अनेक नम् पुरुषोंके द्वारा नमस्कृत होता है और जो आपके विजयकी घोषणा करता है वह कुशल पुरुष जीतने योग्य समस्त कर्ग कप शत्रुओंको जीतकर गो अर्थात् पृथिवी या वाणीको जीतता है ।।१८८।। हे देव, आज आपकी स्तुति करनेसे मेरे वचन पवित्र हो गये हैं, आपका स्मरण करनेसे मेरा मन पवित्र हो गया है, आपको नमस्कार करनेसे मेरा शरीर पवित्र हो गया है और आपके दर्शन करनेसे मैं धन्य हो गया हूं ॥१८९।। हे भगवन्, आज मैं कृतार्थ हो गया हूं, आज मेरा जन्म सफल हो गया है, आज मेरे नेत्र संतुष्ट हो गये हैं और आज मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न हो गया है ।।१९।। हे देव, स्वच्छ और पुण्यरूप जलसे खूब भरे हुए आपके तीर्थरूपी सरोवरमें मैंने चिरकालसे अच्छी तरह स्नान किया है इसीलिये मैं आज पवित्र तथा सुखसे सन्तुष्ट हो रहा है ।।१९।। हे प्रभो, जिसने समस्त पाप नष्ट कर दिये हैं ऐसा जो यह आपके चरणोंके नखोंकी कान्तिका समूहरू प जल मेरे मस्तकपर लग रहा है उससे मैं ऐसा मालूम होता हूं मानो मेरा अभिषेक ही किया गया हो ।।१९२।। हे विभो, एक ओर तो मुझे दूसरेके शासनसे रहित यह चक्रवर्तीकी विभूति प्राप्त हुई है और एक ओर १ पूजायाः योग्याय । २ अन्तरायज्ञानावरणमोहनीयघातात। ३ अर्हन्निति नामप्रसिद्धाय । ४ भवतु। ५ नमस्कुर्वन् । ६ भोजितजेतव्यपक्ष । ७ अत्यन्तसुखवत्यौ। ८ सुखतृप्तः । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व १४६ यदिग्भ्रान्तिविमूढेन' महदेनो मयाजितम् । तत्त्वत्सन्दर्शनाल्लीन तमो नशं 'रवेर्यथा ॥१६४॥ त्वत्पदस्मुतिमात्रेण पुमानेति पवित्रताम् । किमुत त्वद्गुणस्तुत्या भक्त्यैवं सुप्रयुक्तया ॥१६॥ भगवंस्त्वद् गुणस्तोत्राद्यन्मया पुण्यमाजितम् । तेनास्तु त्वत्पदाम्भोजे परा भक्तिः सदापि मे ॥१६६॥ वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं चरावरगरुं परमादिदेव स्तुत्वाऽधिराट् धरणिपः सममिद्धबोधः । आनन्दबाष्पलवसिक्तपुरःप्रदेशो भक्त्या ननाम करकुड्मललग्नमौलिः ॥१७॥ श्रुत्वा पुराणपुरुषाच्च पुराणधर्म कर्मारिचक्रजयलब्धविशुद्धबोधात् ।। सम्प्रीतिमाप परमां भरताधिराजः प्रायो धृतिः कृतधियां स्वहितप्रवृत्तौ ॥१६॥ आमुच्छच च स्वगुरुमादिगुरुं निधीशो व्यालोलमौलितटताडितपादपीठः। भूयोऽनुगम्य च मुनीन् प्रणतेन मूर्ना स्वावासभूमिमभिगन्तुमना बभूव ॥१६॥ भक्त्यापितां सजमिवाधिपदं जिनस्य स्वां दृष्टिमन्वितलसत्सुमनोविकासाम् । शेषास्थयैव च पुविनिवर्त्य कृच्छात् चक्राधिपो जिनसभाभवनात्प्रतस्थे ॥२०॥ समस्त लोकको पवित्र करनेवाली आपके चरणोंकी सेवा प्राप्त हुई है ॥१९३॥ हे भगवन्, दिशाभम होनेसे विमूढ होकर अथवा दिग्विजयके लिये अनेक दिशाओंमें भ्रमण करनेके लिये मुग्ध होकर मैंने जो कुछ पाप उपार्जन किया था वह आपके दर्शन मात्रसे उस प्रकार विलीन हो गया है जिस प्रकार कि सूर्यके दर्शनसे रात्रिका अन्धकार विलीन हो जाता है ।।१९४।। हे देव, आपके चरणोंके स्मरणमात्रसे ही जब मनुष्य पवित्रताको प्राप्त हो जाता है तब फिर इस प्रकार भक्तिसे की हुई आपके गुणोंकी स्तुतिसे क्यों नहीं पवित्रताको प्राप्त होगा ? अर्थात् अवश्य ही होगा ॥१९५।। हे भगवन्, आपके गुणोंकी स्तुति करनेसे जो मैंने पुण्य उपार्जन किया है उससे यही चाहता हूं कि आपके चरणकमलोंमें मेरी भक्ति सदा बनी रहे ॥१९६।। इस प्रकार चर अचर जीवोंके गुरु सर्वोत्कृष्ट भगवान् वृषभदेवको नमस्कार कर जिसने आनन्द के आँसुओंको बुदोंसे सामनेका प्रदेश सींच दिया है, जिसका ज्ञान प्रकाशमान हो रहा है, और जिसने दोनों हाथ जोड़कर अपने मस्तकसे लगा रखे हैं ऐसे चक्रवर्ती भरतने भक्तिपूर्वक भगवान् को नमस्कार किया ।।१९७॥ कर्मरूपी शत्रुओंके समूहको जीतनेसे जिन्हें विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हआ है ऐसे पुराण पूरुष भगवान वषभदेवसे पूरातन धर्मका स्वरूप सनकर भरताधिपति महाराज भरत बड़ी प्रसन्नताको प्राप्त हुए सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् पुरुषोंको प्रायः अपना हित करने में ही सन्तोष होता है ॥१९८॥ तदनन्तर अपने चञ्चल मुकुटके किनारेसे जिन्होंने भगवान्के पाद पीठका स्पर्श किया है ऐसे निधियोंके स्वामी भरत महाराज अपने पिता आदिनाथ भगवान्से पूछकर तथा वहाँ विराजमान अन्य मुनियोंको नम हुए मस्तकसे नमस्कार कर अपनी निवासभूमि अयोध्याको जानेके लिये तत्पर हुए ।।१९९।। चक्राधिपति भरतने जिसमें अनुक्रमसे खिले हुए सुन्दर फूल गुधे हुए हैं और जो श्री जिनेन्द्रदेवके चरणोंमें भक्तिपूर्वक अर्पित की गई है ऐसी मालाके समान, सुन्दर मनकी प्रसन्नतासे युक्त अपनी दृष्टिको शेषाक्षत समझ बड़ी कठिनाई से हटाकर भगवान् के सभाभवन अर्थात् समवसरणसे प्रस्थान किया ॥२००। १ दिगविजयभमणमूढ़ेन । २ महत्पापम् । ३ नष्टम् । ४ आदित्यस्य। ५-मजितम् ल० । ६ शोभनमनोविकासाम्, सुपुष्पविकासाञ्च। ७ सिद्धशेषास्थया । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० महापुराणम् आलोकयन् जिनसभावनिभूतिमिद्धां विस्फारितेक्षणयुगो युगदीर्घबाहुः । पुथ्वीश्वरैरनुगतः प्रणतोत्तमाङगैः प्रत्यावृतत्स्वसदनं मनुवंशकेतुः ॥२०१॥ पुण्योदयान्निधिपतिविजिताखिलाशस्तनिजितौ' गमितषष्ठिसमा सहस्रः। प्रीत्याऽभिवन्द्य जिनमाप परं प्रमोदं तत्पुण्यसडग्रहविधौ सुधियो यतध्वम् ॥२०२॥ इत्याष भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसडग्रहे भरतराजकलासाभिगमनवर्णनं नाम त्रयस्त्रिशत्तम पर्व ॥३३॥ भगवान्के समवसरणकी प्रकाशमान विभूतिको देखनेसे जिनके दोनों नेत्र खुल रहे हैं, जिनकी भुजायें युग (जुवाँरी) के समान लम्बी हैं, मस्तक झुकाये हुए अनेक राजा लोग जिनके पीछे पीछे चल रहे हैं और जो कुलकरोंके वंशकी पताकाके समान जान पड़ते हैं ऐसे भरत महाराज अपने घरकी ओर लौटे ॥२०१।। चूंकि पुण्यके उदयसे ही चक्रवर्तीने समस्त दिशाएं जीतीं, तथा उनके जीतने में साठ हजार वर्ष लगाये और फिर प्रीतिपूर्वक जिनेन्द्रदेवको नमस्कार कर उत्कृष्ट आनन्द प्राप्त किया । इसलिये हे बुद्धिमान् जन, पुण्यके संग्रह करने में प्रयत्न करो ॥२०२॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टि लक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवादमें भरतराजका कैलाश पर्वतपर जानेका वर्णन करनेवाला तैंतीसवां पर्व समाप्त हुआ। १ निखिलदिग्जये। २ संवत्सर । ३तस्मात् कारणात । ४ प्रयत्नं कुरुध्वम् । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व श्रथावरुह्य' कैलासाद् श्रद्रोन्द्रादिव देवराट् । चत्री प्रयाणमकरोद् विनीताभिमुखं कृती ॥१॥ सैन्यैरनुगतो रेज 'प्रयांश्चकी निजालयम् । गङगौघ' इव दुर्वारः सरिदोर्घरपाम्पतिः ॥२॥ ततः कतिपयैरेव प्रयाणश्चक्रिणो बलम् । श्रयोध्यां प्रापदाबद्धतोरणां चित्रकेतनाम् ॥३॥ / चन्दनद्रवसंसिक्त सुसम्मृष्ट महीतला । पुरी स्नातानुलिप्तेव सा रेजे पत्युरागमे ॥४॥ नातिदूरे निविष्टस्य प्रवेशसमये प्रभोः । चक्रमस्तारि चक्रं च नाक्रंस्त' पुरगोपुरम् ॥५॥ सा पुरी गोपुरोपान्तस्थितचक्रांशु रञ्जिता । घृतसन्ध्यातपेवासीत् कुङकुमापिञ्जरच्छविः ॥ ६ ॥ सत्यं भरतराजोऽयं धौरेयश्चक्रिणामिति । घृतदिव्येव" सा जज्ञे ज्वलच्चत्रा पुरः पुरी ॥७॥ ततः कतिपये" देवाश्चक्ररत्नाभिरक्षिणः । स्थितमेकपदे" चक्रं वीक्ष्य विस्मयमाययुः ॥ ८ ॥ सुरा जातरुषः केचित्किं किमित्युच्चरगिरः । श्रलातचक्रवद्भ्रमः करवालापितः करेंः ॥६॥ किमम्बरमणेबम्बमम्बरात्परिलम्बते । प्रतिसूर्यः किमुद्भूत इत्यन्ये “मुमुहुर्मुहुः ॥ १० ॥ अथानन्तर-सुमेरु पर्वतसे इन्द्रकी तरह कैलास पर्वतसे उतरकर उस बुद्धिमान् चक्रवर्ती ने अयोध्याकी ओर प्रस्थान किया || १|| सेनाके साथ-साथ अपने घरकी ओर प्रस्थान करता हुआ चक्रवर्ती ऐसा सुशोभित होता था मानो नदियों के समूहके साथ किसीसे न रुकनेवाला गङ्गाका प्रवाह समुद्रकी ओर जा रहा हो ॥ २ ॥ तदनन्तर कितने ही मुकाम तय कर चक्रवर्ती की वह सेना जिसमें तोरण बंधे हुए हैं और अनेक ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसी अयोध्या नगरी के समीप जा पहुंची ||३|| जिसकी बुहारकर साफ की हुई पृथिवी घिसे हुए गीले चन्दनसे सींची गई है ऐसी वह अयोध्यानगरी उस समय इस प्रकार सुशोभित हो रही थी मानो उसने पतिके आनेपर स्नान कर चन्दनका लेप ही किया हो ||४|| महाराज भरत नगरीके समीप ही ठहरे हुए थे वहाँसे नगरीमें प्रवेश करते समय जिसने समस्त शत्रुओंके समूहको नष्ट कर दिया है ऐसा उनका चक्ररत्न नगरके गोपुरद्वारको उल्लंघन कर आगे नहीं जा सका - बाहर ही रुक गया || ५ || गोपुरके समीप रुके हुए चक्की किरणोंसे अनुरक्त होनेके कारण जिसकी कान्ति कुंकुमके समान कुछ कुछ पीली हो रही है ऐसी वह नगरी उस समय इस प्रकार जान पड़ती थी मानो उसने संध्याकी लालिमा ही धारण की हो || ६ || जिसके आगे चक्ररत्न देदीप्यमान हो रहा है ऐसी वह नगरी उस समय ऐसी जान पड़ती थी मानो यह भरतराज सचमुच ही सब चक्रवर्तियों में मुख्य है इसलिये उसने दिव्य शक्ति धारण की हो अथवा अपनी बातकी प्रामाणिकता सिद्ध करनेके लिये उसने तप्त अयोगोलक आदिको धारण किया हो ॥७॥ तदनन्तर चक्ररत्नकी रक्षा करनेवाले कितने ही देव चक्रको एक स्थानपर खड़ा हुआ देख कर आश्चर्य को प्राप्त हुए ||८|| जिन्हें क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे कितने ही देव, क्या है ? क्या है ? इस प्रकार चिल्लाते हुए हाथमें तलवार लेकर अलातचक्रकी तरह चारों ओर घूमने लगे ||९|| क्या यह आकाशसे सूर्यका बिम्ब लटक पड़ा है ? अथवा कोई दूसरा ही सूर्य उदित हुआ है ? ऐसा विचार कर कितने ही लोग बार बार मोहित हो रहे थे ॥ १०॥ ६ समीपे । १ अवतीर्य । २ मेरोः । ३ गच्छन् । ४ गाडगौघ ल०, । ५ सुष्ठुसम्मार्जित । ७ विभोः ल० द० । ८ प्रवेश नाकरोत् । ६ पुरुगोपुरे र०, ल० । १० शपथ । ११ अग्रभागे । १२ केचन । १३ युगपत् सपदि वा । १४ चक्रवत् काष्ठाग्निभूमणवत् । १५ मुहयन्ति स्म । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ महापुराणम् कस्याप्यकालचकेण' पतितव्यं विरोधिनः । रेणेव ग्रहेणाद्य यतश्चक्रेण वक्रितम् ॥११॥ अथवाद्यापि जेतव्यः पक्षः कोऽप्यस्ति चक्रिणः । चक्रस्खलनतः कैश्चिदित्थं तज्जैविकितम् ॥१२॥ सेनानीप्रमुखास्तावत् प्रभवे तन्न्यवेदयन् । तद्वार्ताऽऽकर्णनाच्चक्री किमप्यासीत्सविस्मयः ॥१३॥ अचिन्तयच्च किं नाम चक्रमप्रतिशासने । मयि स्थितेस्खलत्यद्य क्वचिदप्यस्खलद्गति ॥१४॥ सम्प्रधार्यमिदं तावदित्याहूय पुरोधसम् । धीरो धीरतरां वाचमित्युच्चैराजगी मनुः ॥१५॥ वदनोऽस्य मुखाम्भोजाद् व्यक्ताकूता सरस्वती । निर्ययौ सदलङकारा शम्फलीव जयश्रियः ॥१६॥ चक्रमाकान्तदिक्चक्रम् अरिचक्रभयडकरम् । कस्मानास्मत्पुरद्वारि क्रमते न्यक्कृतारुक ॥१७॥ विश्वदिग्विजय पूर्वदक्षिणापरवाद्धिषु । यदासीदस्खलद्वत्ति रूप्याद्रेश्च गुहाद्वये ॥१८॥ चकं तदधुना कस्मात् स्खलत्यस्मद्गृहाङगणे । प्रायोऽस्माभिविरुद्धेन भवितव्यं जिगोषणा ॥१६॥ किमसाध्यो द्विषत्कश्चिदस्त्यस्मद्भक्तिगोचरे । सनाभिः कोऽपि कि वाऽस्मान् द्वेष्टि दुष्टान्तराशयः ॥२० यः कोऽप्यकारणद्वेषी खलोऽस्मान्नाभिनन्दति । प्रायः स्खलन्ति चेतांसि महत्स्वपि दुरात्मनाम् ॥२१॥ विमत्सराणि चेतांसि महतां परवद्धिष । मत्सरीणि तु तान्येव क्षाणामन्यवृद्धिषु ॥२२॥ अथवा दुर्मदाविष्टः कश्चिदप्रणतोऽस्ति मे। स्ववर्यस्तन्मदोच्छित्य नूनं चक्रेण वक्रितम् ॥२३॥ आज यह चक्र करग्रहके समान वक्र हुआ है इसलिये अकालचक्रके समान किसी विरोधी शत्र पर अवश्य ही पड़ेगा ॥११॥ अथवा अव भी कोई चक्रवर्तीके जेतव्य पक्षमें हैं-जीतने योग्य शत्रु विद्यमान है इस प्रकार चक्रके रुक जानेसे चक्रके स्वरूपको जाननेवाले कितने ही लोग विचार कर रहे थे ।।१२।। सेनापति आदि प्रमख लोगोंने यह बात चक्रवर्तीसे कही और उसके सुनते ही वे कुछ आश्चर्य करने लगे ॥१३॥ वे विचार करने लगे कि जिसकी आज्ञा कहीं भी नहीं रुकती ऐसे मेरे रहते हुए भी, जिसकी गति कहीं भी नहीं रुकी ऐसा यह चक्ररत्न आज रुक रहा है ! ।।१४। इस बातका विचार करना चाहिये यही सोचकर धीर वीर मन ने पुरोहितको बुलाया और उससे नीचे लिखे हुए बहुत ही गम्भीर बचन कहे ।।१५।। कहते हुए भरत महाराजके मुखकमलसे स्पष्ट अभिप्रायवाली और उत्तम उत्तम अलंकारोंरो सजी हुई जो वाणी निकल रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो विजयलक्ष्मीकी दूती ही हो ।।१६।। जिसने समस्त दिशाओंके समहपर आक्रमण किया है जो शत्रओंके समहके लिये भयंकर है और जिसने सूर्यकी किरणोंका भी तिरस्कार कर दिया है ऐसा यह चक्र मेरे ही नगरके द्वारमें क्यों नहीं आगे बढ़ रहा है-प्रवेश कर रहा है ? ||१७॥ जो समरत दिशाओंको विजय करने में पूर्व-दक्षिण और पश्चिम समुद्र में कहीं नहीं रुका, तथा जो विजयाकी दोनों गफाओंमें नहीं रुका वही चक्र आज मेरे घरके आंगन में क्यों रुक रहा है ? प्रायः मेरे साथ विरोध रखनेवाला कोई विजिगीषु (जीतकी इच्छा करनेवाला) ही होना चाहिय।।१८-१९॥वया मेरे उपभोगके योग्य क्षेत्र (राज्य) में ही कोई असाध्य शत्रु मौजूद है अथवा दुष्ट हृदयवाला मेरे गोत्र का ही कोई पुरुष मुझसे द्वेष करता है ॥२०॥ अथवा बिना कारण ही द्वेष करनेवाला कोई दुष्ट पुरुष मेरा अभिनन्दन नहीं कर रहा है-मेरी वृद्धि नहीं सह रहा है सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट पुरुषोंके हृदय प्रायः कर बड़े आदमियोपर भी बिगड़ जाते हैं ।।२१।। महापुरुषोंके हृदय दूसरोंकी वृद्धि होनेपर मात्सर्यसे रहित होते हैं परन्तु क्षुद्र पुरुषों के हृदय दूसरोंकी वृद्धि होनेपर ईर्ष्या सहित होते हैं ॥२२॥ अथवा दुष्ट अहंकारसे घिरा हुआ कोई मेरे ही घरका १ अपमृत्युना । २ गन्तव्यम् मर्तव्यमित्यर्थः। ३ जेतव्यपक्षः ल०, द. । ४ चविणे। ५ विचार्यम् । ६ व्यक्ताभिप्राया। ७ कुट्टणी। ८ भुक्तिक्षेत्रे। ६ सपिण्डः । 'सपिण्डास्तु सनामयः' इत्यभिधानात् । नाभिसम्बन्धीत्यर्थः । १० आत्मवर्गे भवः । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व खलूपेक्ष्य' लघीयानप्युच्छेद्यो लघु तादृशः । क्षुद्रो रेणुरिवाक्षिस्थो रु' जत्यरिरुपेक्षितः ॥२४॥ बलादुद्धरणीयो हि क्षोबीयानपि कण्टकः । अनुद्धृतः पदस्थोऽसौ भवेत्पीडाकरो भृशम् ॥२५॥ चक्रं नाम परं देवं रत्नानामिदमग्रिमम् । गतिस्खलनमेतस्य न विना कारणाद् भवेत् ॥ २६ ॥ ततो बाल्यमिदं कार्यं यच्चक्रेणार्य सूचितम् । सूचिते' खलु राज्याङगे विकृतिर्नाल्पकारणात् ॥२७॥ तदत्र कारणं चित्यं त्वया धीमन्निदन्तया' । श्रनिरूपित कार्याणां नेह नामुत्र सिद्धयः ॥ २८ ॥ त्वयी कार्यविज्ञानं तिष्ठते" दिव्यचक्षुषि । तमसां छेदने कोऽन्यः प्रभवेदंशुमालिनः ॥२६॥ निवेद्य कार्यमित्यस्मै देवज्ञाय " मिताक्षरैः । विरराम प्रभुः प्रायः प्रभवो मितभाषिणः ॥३०॥ ततः प्रसन्नगम्भीरपदालङकार कोमलाम् । भारतीं भरतेशस्य प्रबोधायेति सोऽब्रवीत् ॥३१॥ प्रस्ति माधुर्यमस्त्योजस्तदस्ति पदसौष्ठवम् । अस्त्यर्थानुगमोऽन्यत्कि यन्नास्ति त्वद्वचोमये ॥३२॥ शास्त्रज्ञा वयमेकान्तात् नाभिज्ञाः कार्ययुक्तिषु । शास्त्रप्रयोगवित् कोऽन्यस्त्वत्समो राजनीतिषु ॥३३॥ त्वमादिराजो राजषस्तद्विद्यास्त्व "दुपक्रमम् । तद्विदस्तत्प्रयुञ्जाना न जिहीमः कथं वयम् ॥३४॥ मनुष्य नम नहीं हो रहा है, जान पड़ता है यह चक्र उसीका अहंकार दूर करनेके लिये वक्र हो रहा है ।।२३।। शत्रु अत्यन्त छोटा भी हो तो भी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, द्वेष करने वाला छोटा होनेपर भी शीघ्र ही उच्छेद करने योग्य है क्योंकि आँखमें पड़ी हुई धूलिकी कणिका के समान उपेक्षा किया हुआ छोटा शत्रु भी पीड़ा देनेवाला हो जाता है ||२४|| कांटा यदि अत्यन्त छोटा हो तो भी उसे जबरदस्ती निकाल डालना चाहिये क्योंकि पैरमें लगा हुआ काँटा यदि निकाला नहीं जावेगा तो वह अत्यन्त दुःखका देनेवाला हो सकता है ॥२५॥ | यह चक्ररत्न उत्तम देवरूप है और रत्नोंमें मुख्य रत्न है इसकी गतिका स्खलन बिना किसी कारण के नहीं हो सकता है ||२६|| इसलिये हे आर्य इस चक्रने जो कार्य सूचित किया है वह कुछ छोटा नहीं है क्योंकि यह राज्यका उत्तम अङ्ग है इसमें किसी अल्पकारणसे विकार नहीं हो सकता है ||२७|| इसलिये हे बुद्धिमान् पुरोहित, आप इस चक्ररत्नके रुकने में क्या कारण है इसका अच्छी तरह विचार कीजिये क्योंकि बिना विचार किये हुए कार्योंकी सिद्धि न तो इस लोक में होती है और न परलोक हीमें होती है ||२८|| आप दिव्य नेत्र हैं इसलिये इस कार्य का ज्ञान आपमें ही रहता है अर्थात् आप ही चक्ररत्नके रुकनेका कारण जान सकते हैं क्योंकि अन्धकारको नष्ट करने में सूर्य के सिवाय और कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ २९ ॥ इस प्रकार महाराज भरत थोड़े ही अक्षरोंके द्वारा इस निमित्तज्ञानीके लिये अपना कार्य निवेदन कर चुप हो रहे सो ठीक ही है क्योंकि प्रभु लोग प्रायः थोड़े ही बोलते हैं ||३०|| तदनन्तर निमित्तज्ञानी पुरोहित भरतेश्वरको समझाने के लिये प्रसन्न तथा गम्भीर पद और अलंकारोंसे कोमल वचन कहने लगा ||३१|| जो माधुर्य, जो ओज, जो पदोंका सुन्दर विन्यास और जो अर्थकी सरलता आपके वचनों में नहीं है वह क्या किसी दूसरी जगह है ? अर्थात् नहीं है ||३२|| हम लोग तो केवल शास्त्रको जाननेवाले हैं कार्य करनेकी युक्तियों में अभिज्ञ नहीं हैं परन्तु राजनीतिमें शास्त्रके प्रयोगको जाननेवाला आपके समान दूसरा कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है ||३३|| आप राजाओं में प्रथम राजा हैं और राजाओं में ऋषिके समान श्रेष्ठ होने से राजर्षि हैं यह राजविद्या केवल आपसे ही उत्पन्न हुई है इसलिये उसे जाननेवाले हम लोग १५३ ५ अतिशयने क्षुद्रः । १ नोपेक्षणीयः । २ अतिशयने लघुः । ३ शीघ्रम् । ४ पीडां करोति । ६ सुचिते । ७ चक्रे । ८ प्रतीयमानस्वरूपतया । ९ अविचारित । १० निश्चितं भवति । ११ नैमित्तिकाय । १२ व्यक्तं प०, ल० । १३ तव वचन-प्रपञ्चे । १४ राजविद्या: । १५ त्वदुपक्रमात् ल० । त्वया पूर्व प्रवर्तित कार्यविज्ञानम् । २० Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ महापुराणम् तथापि त्वत्कृतोऽस्मासु सत्कारोऽनन्यगोचरः । तनोति गौरवं लोके ततः स्मो वक्तुमुद्यताः ॥३५॥ इत्यनुश्रुतमस्माभिर्देव दैवज्ञशासनम् । नास्ति चक्रस्य विश्रान्तिः सावशेष दिशां जये ॥३६॥ ज्वलचिः करालं वो जैत्रमस्त्रमिदं ततः । संस्तम्भितमिवातक्यं पुरद्वारि विलम्बते ॥३७॥ अरिमित्रममित्र मित्रमित्रमिति श्रुतिः । श्रुतिमात्र स्थिता देव प्रजास्त्वय्यनुशासति ॥३८॥ तथाण्यस्त्येव जेतव्यः पक्षः कोऽपि तवाधुना । योऽन्तगृहे कृतोत्थानः कुरो रोग इवोदरे ॥३६॥ बहिर्मण्डलमवासीत् परिक्रान्तमिदं स्वया । अन्तर्मण्डलसंशुद्धिर्मनाग्नाद्यापि जायते ॥४०॥ जितजेतव्यपक्षस्य न नम्ना भातरस्तव । व्युत्थिताश्च सजातीया विघाताय न न प्रभोः ॥४१॥ स्वपक्षरेव तेजस्वी महानप्युपरुद्धयते प्रत्यर्कमर्ककान्तेन ज्वलतेदमुदाहृतम् ॥४२॥ विबलोऽपि सजातीयो लब्ध्वा तीक्ष्णं प्रतिष्कसम् । दण्डः परश्वधस्येव निबर्हयति पार्थिवम् ॥४३॥ भातरोऽमी तवाजय्या बलिनो मानशालिनः। श्यवीयांस्तेष धौरयो धीरो बाहबली बली ॥४४॥ एकान्नशत संख्यास्ते सोदर्या वीर्यशालिनः । प्रभोरादिगुरोर्नान्यं प्रणमाम इति स्थिताः ॥४५॥ आपके ही सामने उसका प्रयोग करते हुए क्यों न लज्जित हों ॥३४।। तथापि आपके द्वारा किया हुआ हमारा असाधारण सत्कार लोकमें हमारे गौरवको बढ़ा रहा है इसलिये ही मैं कुछ कहने के लिये तैयार हआ हँ॥३५॥ हे देव, हम लोगोंने निमित्तज्ञानियोंका ऐसा उपदेश सना है कि जबतक दिग्विजय करना कुछ भी बाकी रहता है तब तक चक्ररत्न विश्राम नहीं लेता अर्थात् चक्रवर्तीकी इच्छाके विरुद्ध कभी भी नहीं रुकता है ॥३६॥ जो जलती हुई ज्वालाओं से भयंकर है ऐसा वह आपका विजयी शस्त्र नगरके द्वारपर गुप्त रीतिसे रोके हुएके समान अटक कर रह गया है ॥३७॥ हे देव, आपके प्रजाका शासन करते हुए शत्रु, मित्र, शत्रुका मित्र, और मित्रका मित्र ये शब्द केवल शास्त्रमें ही रह गये हैं अर्थात् व्यवहार में न आपका कोई मित्र है और न कोई शत्रु ही है सब आपक संवक हैं ।।३८॥ तथापि अब भी कोई आपके जीतने योग्य रह गया है और वह उदरमें किसी भयंकर रोगके समान आपके घरमें ही प्रकट हुआ है ॥३९॥ आपके द्वारा यह बाह्यमण्डल ही आक्रान्त-पराजित हुआ है परन्तु अन्तर्मण्डलकी विशुद्धता तो अब भी कुछ नहीं हुई है। भावार्थ-यद्यपि आपने बाहरके लोगोंको जीत लिया है तथापि आपके घरके लोग अब भी आपके अनुकूल नहीं हैं ॥४०॥ यद्यपि आपने समस्त शत्रु पक्षको जीत लिया है तथापि आपके भाई आपके प्रति नम नहीं हैं-उन्होंने आपके लिये नमस्कार नहीं किया है। वे आपके विरुद्ध खड़े हुए हैं और सजातीय होनेके कारण आपके द्वारा विघात करने योग्य भी नहीं हैं ॥४१॥ तेजस्वी पुरुष बडा होनेपर भी अपने सजातीय लोगों के द्वारा रोका जाता है यह बात सूर्यके सन्मुख जलते हुए सूर्यकान्त मणिके उदाहरणसे स्पष्ट है ॥४२।। सजातीय पुरुष निर्बल होनेपर भी किसी बलवान् पुरुषका आश्रय पाकर राजा का उस प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार निर्वल दण्ड कल्हाड़ीका तीक्ष्ण आश्रय पाकर अपने सजातीय वृक्ष आदिको नष्ट कर देता है ॥४३।। ये आपके बलवान् तथा अभिमानी भाई अजेय हैं और इनमें भी अतिशय युवा धीर वीर तथा बलवान् बाहुबली मुख्य है ।।४४॥ आपके ये निन्यानबे भाई बड़े बलशाली हैं, हमलोग भगवान् आदिनाथको छोड़कर और १ विभिन्नशास्त्रम् । २ -मिवात्यर्थ स० इ०, अ० । -मिवाव्यक्तं प०, ल० । ३ विरुद्धाचरणाः । ४ बाध्यते । ५ सूर्यकान्तपाषाणेन । ६ उदाहरणं कृतम् । ७ प्रतिश्रयम् प०, ल० । सहायम् । ८ परशोः । 'परशुश्च परश्वधः' इत्यभिधानात् । ६ नाशयति (लूष बर्ह हिसायाम्)। १० पृथिव्यां भवम् । वृक्ष नृपञ्च । ११ कनिष्ठः। 'जघन्यजे स्युः कनिष्ठयवीयोऽवरजानुजाः' इत्यभिधानात् । १२ एकोन--ल०, द०, इ०, प० । १३ बाहुबलिना रहितेन सह इयम् । संख्या-वृषभसेनेन प्रागेव दीक्षावग्रहणात् । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व तदत्र' प्रतिकर्त्तव्यम् श्राशु चक्रधर त्वया । ऋणव्रणाग्निशत्रूणां शेषं नोपेक्षते कृती ॥४६॥ राजन् राजन्वती भूयात् त्वयैवेयं वसुन्धरा । माभूद्राजवती तेषां भूम्ना द्वैराजदुः स्थिता ॥४७॥ त्वयि राजनि राजोक्तिर्देव नान्यत्र राजते । सिंहे स्थिते मृगेन्द्रोक्ति हरिणा बिभृयुः कथम् ॥४८॥ देव त्वामनुवर्तन्तां भ्रातरो धूतमत्सराः । ज्येष्ठस्य कालमुख्यस्य शास्त्रोक्तमनुवर्तनम् ॥४६॥ तच्छासनहरा " गत्वा सोपायमुपजप्य तान् । त्वदाज्ञानुवशान् कुर्युर्विगृह्य' ब्रूयुरन्यथा ॥ ५०॥ मिथ्यादोद्धतः कोऽपि नोपेयाद्यदि ते वशम् । स नाशयेद्वतात्मानम् श्रात्मगृह्यं च राजकम् ॥५१॥ राज्यं कुलकलत्रं च नेष्टं साधारणं' द्वयम् । भुक्ते सार्द्धं परैर्यस्तम्न्न' नरः पशुरेव सः ॥५२॥ किमत्र बहुनोक्तेन त्वामेत्य प्रणमन्तु ते । यान्तु वा शरणं देवं त्रातारं जगतां जिनम् ॥ ५३ ॥ न तृतीया गतिस्तेषामेवैषां " द्वितयी गतिः " । प्रविशन्तु त्वदास्थानं वनं वामी मृगैः समम् ॥५४॥ स्वकुलान्युल्सुकानीवर दहन्त्यननुवर्तनैः । अनुवर्तीनि तान्येव नेत्रस्यानन्दथुः परम् १३ ॥ ५५॥ किसीको प्रणाम नहीं करेंगे ऐसा वे निश्चय कर बैठे हैं ||४५ ॥ इसलिये हे चक्रधर, आपको इस विषय में शीघ्र ही प्रतिकार करना चाहिये क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष ऋण, घाव, अग्नि और शत्रुके बाकी रहे हुए थोड़े भी अंशकी उपेक्षा नहीं करते हैं ॥ ४६ ॥ | हे राजन्, यह पृथिवी केवल आपके द्वारा ही राजन्वती अर्थात् उत्तम राजासे पालन की जानेवाली हो, आपके भाइयों के अधिक होने से अनेक राजाओंके सम्बन्धसे जिसकी स्थिति बिगड़ गई है ऐसी होकर राजवती अर्थात् अनेक साधारण राजाओंसे पालन की जानेवाली न हो । भावार्थ - जिस पृथिवीका शासक उत्तम हो वह राजन्वती कहलाती है और जिसका शासक अच्छा न हो, नाम मात्रका ही हो वह राजवती कहलाती है । पृथिवीपर अनेक राजाओंका राज्य होने से उसकी स्थिति छिन्न भिन्न हो जाती है इसलिये एक आप ही इस रत्नमयी वसुंधराके शासक हों, आपके अनेक भाइयों में यह विभक्त न होने पावे ॥४७॥ हे देव, आपके राजा रहते हुए राजा यह शब्द किसी दूसरी जगह सुशोभित नहीं होता सो ठीक ही है क्योंकि सिंहके रहते हुए हरिण मृगेन्द्र शब्दको किस प्रकार धारण कर सकते हैं ? ॥४८ ।। हे देव, आपके भाई ईर्ष्या छोड़कर आपके अनुकल रहें क्योंकि आप उन सबमें बड़े हैं और इस कालमें मुख्य हैं इसलिये उनका आपके अनुकूल रहना शास्त्रमें कहा हुआ है ||४९ || आपके दूत जावें और युक्तिके साथ बातचीत कर उन्हें आपके आज्ञाकारी बनावें, यदि वे इस प्रकार आज्ञाकारी न हों तो विग्रह कर ( बिगड़कर ) अन्य प्रकार भी बातचीत करें ||५० ॥ मिथ्या अभिमानसे उद्धत होकर यदि कोई आपके वश नहीं होगा तो खेद है कि वह अपने आपको तथा अपने आधीन रहनेवाले राजाओंके समूहका नाश करावेगा ॥ ५१ ॥ राज्य और कुलवती स्त्रियाँ ये दोनों ही पदार्थ साधारण नहीं हैं, इनका उपभोग एक ही पुरुष कर सकता है। जो पुरुष इन दोनोंका अन्य पुरुषोंके साथ उपभोग करता है वह पशु ही है ||५२ ।। इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है या तो वे आकर आपको प्रणाम करें या जगत्की रक्षा करनेवाले जिनेन्द्रदेवकी शरणको प्राप्त हों ॥। ५३|| आपके उन भाइयों की तीसरी गति नहीं है, इनके ये ही दो मार्ग हैं कि या तो वे आपके शिबिर में प्रवेश करें या मृगों के साथ वन में प्रवेश करें ।। ५४ ।। सजातीय लोग परस्परके विरुद्ध आचरणसे अंगारेके समान १ कारणात् । २ कुत्सितराजवती । 'सुराशि देश राजन्वान् स्यात्ततोऽन्यत्र राजवान्' इत्यभिधानात् । ३ द्वयो राज्ञो राज्येन दुःस्थिताः । ४ त्वच्छाशन - द०, ल० । दूताः । ५ उक्त्वा । ६ विवाद कृत्वा । ७ आत्मना स्वीकरणीयम् । ८ सर्वेषामनुभवनीयम् । १०- मेषैषां ल० । ११ उपायः । १२ स्वगोत्राणि । भ्रातरः इत्यर्थः । अ०, इ०, स० । द्वयम् । १३ परः तव १५५ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ महापुराणम् प्रशान्तमत्सराः शान्तास्त्वां नत्वा नम्रमौलयः । सोदर्याः सुखमेधतां त्वत्प्रसादाभिकाइक्षिणः ॥५६॥ इति शासति शास्त्रज्ञ पुरोधसि सुमेधसि । प्रतिपद्यापि तत्कार्य चक्री चुक्रोध तत्क्षणम् ॥५७॥ पारुष्टकलुषां दृष्टि क्षिपन्दिष्विव दिग्बलिम् । सधूमामिव कोपाग्नेः शिखां भृकुटिमुत्क्षिपन् ॥५८॥ भ्रातृभाण्डकृतामर्षविषवेगमिवोद्वमन् । वाक्छलेनों च्छलन् रोषाद् बभाषे परुषा गिरः ॥५६॥ कि किमात्थ दुरात्मानो भातरः प्रणतां न माम् । पश्य मद्दण्डचण्डोल्कापातात्तान् शल्कसात् कृतान् ॥६०॥ अदृष्टमश्रुतं कृत्यमिदं वैरमकारणम् । अवध्याः किल कुल्यत्वादिति तेषां मनीषितम् ॥६॥ यौवनोन्मादजस्तेषां भटवातोऽस्ति दुर्मदः । ज्वलच्चक्राभितापेन स्वेदस्तस्य प्रतिक्रिया ॥६२॥ अकरां' भोक्तुमिच्छन्ति गुरु दत्तामि मान्तके । तत्किए भटावलेपेन भुक्ति ते श्रावयन्तु मे ॥६३॥ प्रतिशय्यानिपातेन भुक्ति ते साधयन्तु वा । शितास्त्रकण्टकोत्सङगपतिताङगा रणाङ गणे ॥६४॥ क्व वयं जितजेतव्या भोक्तव्ये" सङगताः क्व ते । तथापि संविभागोऽस्तु तेषां मवन वर्तने ॥६॥ जलाते रहते हैं और वे ही लोग परस्परमें अनुकूल रहकर नेत्रोंके लिये अतिशय आनन्द रूप होते हैं ॥५५॥ इसलिये ये आपके भाई मात्सर्य छोड़कर शान्त हो मस्तक झुकाकर आपको नमस्कार करें और आपकी प्रसन्नताकी इच्छा रखते हुए सुखसे वृद्धिको प्राप्त होते रहें ।।५६।। इस प्रकार शास्त्रके जाननेवाले बुद्धिमान् पुरोहितके कह चुकनेपर चक्रवर्ती भरतने उसीके कहे अनुसार कार्य करना स्वीकार कर उसी क्षण क्रोध किया ॥५७।। जो क्रोधसे कलुषित हई अपनी दृष्टिको दिशाओंके लिये बलि देते हुएके समान सब दिशाओंमें फेंक रहे हैं, क्रोधरूपी अग्निकी धूमसहित शिखाके समान भृकुटियाँ ऊंची चढ़ा रहे हैं, भाईरूपी मूलधनपर किये हुए क्रोधरूपी विषके वेगको जो वचनोंके छलसे उगल रहे हैं और जो क्रोधसे उछल रहे हैं ऐसे महाराज भरत नीचे लिखे अनुसार कठोर वचन कहने लगे ॥५८-५९।। हे पुरोहित, क्या कहा ? क्या कहा ? वे दुष्ट भाई मुझे प्रणाम नहीं करते हैं, अच्छा तो तू उन्हें मेरे दण्ड रूपी प्रचण्ड उल्कापातसे टुकड़े किया हुआ देख ॥६०॥ उनका यह कार्य न तो कभी देखा गया है, न सुना गया है, उनका यह वैर बिना कारण ही किया हुआ है, उनका ख्याल है कि हम लोग एक कुलमें उत्पन्न होनेके कारण अवध्य हैं ॥६१॥ उन्हें यौवनके उन्मादसे उत्पन्न हआ योद्धा होनेका कठिन वायुरोग हो रहा है इसलिये जलते हुए चक्रके संतापसे पर ही उसका प्रतिकार-उपाय है ॥६२॥ वे लोग पूज्य पिताजीके द्वारा दी हुई पृथिवीको बिना कर दिये ही भोगना चाहते हैं परन्तु केवल योद्धापनेके अहंकारसे क्या होता है ? अब या तो वे लोगोंको सुनावें कि भरत ही इस पृथिवीका उपभोग करनेवाला है हम सब उसके आधीन हैं या युद्धके मैदान में तीक्ष्ण शस्त्ररूपी काँटोंके ऊपर जिनका शरीर पड़ा हुआ है ऐसे वे भाई प्रतिशय्या-दूसरी शय्या अर्थात् रणशय्यापर पड़कर उसका उपभोग प्राप्त करें। भावार्थ-जीतेजी उन्हें इस पृथिवीका उपभोग प्राप्त नहीं हो सकता ॥६३-६४॥ जिसने समस्त लोगोंको जीत लिया है ऐसा कहाँ तो मैं. और मेरे उपभोग करने योग्य क्षेत्रमें स्थित कहाँ वे लोग ? तथापि मेरे आज्ञानुसार चलनेपर उनका भी विभाग (हिस्सा) १'भाण्डं भषणमात्रेऽपि भाण्डमूला वणिग्धने । नदीमात्रे तुरङगाणां भूषणे भाजनेऽपि च । २ उत्पतन् । ३ वदसि । ४ खण्ड । ५ कुले भवाः कुल्यास्तेषां भावः तस्मात् । ६ वयं भटा इति गर्वः । ७ दुनिवारः । ८ अबलिम् । 'भागधेयः करोबलिः' इत्यभिधानात् । ६ भूमिम् । १० कुसिताः । ११ तर्हि । १२ भटगण । १३ साधयन्त्वित्यर्थः। १४ पूर्वं शय्यायाः प्रतिशय्या-अन्य शय्या तस्यां निपातेन मरणप्राप्त्या इत्यर्थः । १५ वृत्तिक्षेत्र। १६ सम्यक्षेत्रादिविभागः । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तम पर्व १५७ न भोक्तुमन्यथाकारं महीं तेभ्यो वदाम्यहम् । कथङकारमिदं चक्रं विश्रमं यात्वतज्जये ॥६६॥ इदं महदनाल्येयं यत्प्राज्ञो बन्धुवत्सलः। स बाहुबलिसाह्वोऽपि भजते विकृति कृती ॥६७॥ प्रबाहुबलिनानन राजकेन नतेन किम् । नगरेण गरेणेव भुक्तेनापोदनेन किम् ॥६॥ कि किडकरैः करालास्त्रप्रतिनिजित शात्रवः । अनाज्ञावशमेतस्मिन् नवविक्रमशालिनि ॥६६॥ कि वा सुरभटरेभिः उद्भटारभटीरसः । मयैवमसमां स्पर्द्धा तस्मिन्कर्वति गर्विते ॥७॥ इति जल्पति संरम्भाच्चक्रपाणावपक्रमम् । तस्योपचक्रमे कर्तुं पुनरित्थं पुरोहितः ॥७१॥ जितजेतव्यतां देव घोषयन्नपि कि मुधा । जितोऽसि क्रोधवेगेन प्राग्जय्यो वशिनां हि सः ॥७२॥ बालास्ते बालभावेन विलसन्त्वपथेऽप्यलम् । देवे जितारिषडवर्गे न तमः स्थातुमर्हति ॥७३॥ क्रोधान्धतमसे मग्नं यो नात्मानं समुद्धरेत् । स कृत्यसंशयद्वधानोत्तरीतुमलन्तराम् ॥७४॥ कि तरां स विजानाति कार्याकार्यमनात्मवित् । यः स्वान्तःप्रभवान् जेतुम् अरीन प्रभवेत्प्रभुः ॥७॥ तद्देव विरमामुष्मात् संरम्भादपकारिणः । जितात्मानो जयन्ति मां क्षमया हि जिगीषवः ॥७६॥ हो सकता है ॥६५।। और किसी तरह उनके उपभोगके लिये मैं उन्हें यह पृथिवी नहीं दे सकता हूं। उन्हें जीते बिना यह चक्ररत्न किस प्रकार विश्राम ले सकता है ? ॥६६॥ यह बड़ी निन्दाकी बात है कि जो अतिशय बुद्धिमान् है, भाइयोंमें प्रेम रखने वाला है, और कार्यकुशल है वह बाहुबली भी विकारको प्राप्त हो रहा है ॥६७।। बाहुबलीको छोड़कर अन्य सब राजपुत्रोंने नमस्कार भी किया तो उससे क्या लाभ है और पोदनपुरके बिना विषके समान इस नगरका उपभोग भी किया तो क्या हुआ ॥६८॥ जो नवीन पराक्रमसे शोभायमान बाहुबली हमारी आज्ञाके वश नहीं हुआ तो भयंकर शस्त्रोंसे शत्रुओंका तिरस्कार करनेवाले सेवकोंसे क्या प्रयोजन है ? ॥६९॥ अथवा अहंकारी बाहुबली जब इस प्रकार मेरे साथ अयोग्य ईर्ष्या कर रहा है तब अतिशय शूरवीरतारूप रसको धारण करनेवाले मेरे इन देवरूप योद्धाओं से क्या प्रयोजन है ? ॥७०॥ इस प्रकार जब चक्रवर्ती क्रोधसे बहुत बढ़ बढ़कर बातचीत तब पुरोहितने उन्हें शान्त कर उपायपूर्वक कार्य प्रारम्भ करनेके लिये नीचे लिखे अनुसार उद्योग किया ॥७१॥ हे देव, मैंने जीतने योग्य सबको जीत लिया है ऐसी घोषणा करते हुए भी आप क्रोधके वेगसे व्यर्थ ही क्यों जीते गये ? जितेन्द्रिय पुरुषोंको तो क्रोधका वेग पहले ही जीतना चाहिये ॥७२।। वे आपके भाई बालक हैं इसलिये अपने बालस्वभाव से कुमार्गमें भी अपने इच्छानुसार क्रीड़ा कर सकते हैं परन्तु जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छहों अन्तरङ्ग शत्रुओंको जीत लिया है ऐसे आपमें यह अन्धकार ठहरने के योग्य नहीं है अर्थात् आपको क्रोध नहीं करना चाहिये ॥७३॥ जो मनुष्य क्रोधरूपी गाढ़ अन्धकारमें डूबे हुए अपने आत्माका उद्धार नहीं करता वह कार्यके संशयरूपी द्विविधासे पार होने के लिये समर्थ नहीं है। भावार्थ-क्रोधसे कार्यकी सिद्धि होने में सदा सन्देह बना रहता है ॥७४॥ जो राजा अपने अन्तरङ्गसे उत्पन्न होनेवाले शत्रुओंको जीतनेके लिये समर्थ नहीं है वह अपने आत्माको नहीं जाननेवाला कार्य और अकार्यको कैसे जान सकता है ? ॥७५॥ इसलिये हे देव, अपकार करनेवाले इस क्रोधसे दूर रहिये क्योंकि जीतकी इच्छा रखनेवाले जिते १ अन्यथा । २ कथम् । ३ तेषां जयाभावे । ४ अवाच्यम् । ५ बाहुबलिनामा। ६ बाहुबलिकुमाररहितेन । ७ गरलेनेव । ८ पोदनपुररहितेन । ६-जित-ल० द०। १० बाहुबलिनि । ११ अधिक भयानकरसैः। १२ क्रोधात् । १३ युद्धारम्भम् । १४ बालत्वेन । १५ गविता भूत्वा वर्तन्त इत्यर्थः। १६ अज्ञानम् । १७ कार्यसन्देहद्वैविध्यात् । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ महापुराणम् विजितेन्द्रियवर्गाणां सुश्रुतश्रुतसम्पदाम् । परलोकजिगीषणां क्षमा साधनमुत्तमम् ॥७७॥ लेखसाध्ये च कार्येऽस्मिन् विफलोऽतिपरिश्रमः । तणाडकुरे नखच्छेद्य कः परश्वध मुद्धरेत् ॥७॥ ततस्तितिक्षमाणेन' साध्यो भातगणस्त्वया। सोपचारं प्रयुक्तेन वचोहरगणेन सः ॥७६॥ अद्यैव च प्रहेतव्याः समं लेखैर्वचोहराः । गत्वा ब्रूयुश्च तानेत चक्रिणं भजताग्रजम् ॥८०॥ कल्पानोकहसेवेव तत्सेवाऽभीष्टदायिनी । गरुकल्पोऽग्रजश्चक्री स मान्यः सर्वथापि वः ॥८॥ विदूरस्थैर्न युष्माभिः ऐश्वयं तस्य राजते । तारागणैरनासन्नरिव बिम्बनिशां पतेः ॥८२॥ साम्राज्यं नास्य तोषाय यद्भवद्भिविना भवेत् । सहभोग्यं हि बन्धूनाम् अधिराज्यं सतां मुदे ॥३॥ इदं वाचिकमन्यत्तु लेखादिवधार्यताम् । इति सोपायनलेखैः प्रत्याय्यास्ते मनस्विनः ॥८४॥ यशस्य मिदमेवार्य कार्य श्रेयस्यमेव च । चिन्त्यमुत्तरकार्य च साम्ना तेष्ववशेषु वै ॥८॥ बिभ्यता जन निर्वादाद् अनुष्ठेयमिदं त्वया। स्थायुक० हि यशो लोके गत्वों ननु संपदः ॥८६॥ इति तद्वचनाच्चक्री वृत्तिमारभटी जहौ । अनु वर्तनसाध्या हि महतां चित्तवृत्तयः ॥७॥ प्रास्तां भुजबली तावद् यत्नसाध्योर महाबलः । शेषैरेव परीक्षिष्ये भ्रातृभिस्तद् द्विजिह्वताम् ॥८॥ न्द्रिय पुरुष केवल क्षमाके द्वारा ही पृथिवीको जीतते हैं ॥७६॥ जिन्होंने इन्द्रियोंके समूहको जीत लिया है, शास्त्ररूपी सम्पदाका अच्छी तरह श्रवण किया है और जो परलोकको जीतने की इच्छा रखते हैं ऐसे पुरुषोंके लिये सबसे उत्कृष्ट साधन क्षमा ही है ॥७७। जो लेख लिख कर भी किया जा सकता है ऐसे इस कार्य में अधिक परिश्रम करना व्यर्थ है क्योंकि जो तृणका अंकुर नखसे तोड़ा जा सकता है उसके लिये भला कौन कुल्हाड़ी उठाता है ॥७८।। इसलिये आपको शान्त रहकर भेंटसहित भेजे हुए दूतोंके द्वारा ही यह भाइयोंका समूह वश करना चाहिये ॥७९॥ आज ही आपको पत्रसहित दूत भेजना चाहिये, वे जाकर उनसे कहें कि चलो और अपने बड़े भाइकी संवा करो ।।८०॥ उनकी संवा कल्पवृक्षको संवाक समान आपके सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली होगी। वह आपका बड़ा भाई पिताके तुल्य है, चक्रवर्ती है और सब तरहसे आप लोगोंके द्वारा पूज्य है ॥८१।। जिस प्रकार दूर रहने वाले तारागणोंसे चन्द्रमाका बिम्ब सुशोभित नहीं होता है उसी प्रकार दूर रहनेवाले आप लोगोंसे ऐश्वर्य सशोभित नहीं होता है ।।८२।। आप लोगोंके बिना यह राज्य उनके लिये संतोष देनेवाला नहीं हो सकता क्योंकि जिसका उपभोग भाइयोंके साथ साथ किया जाता है वही साम्राज्य सज्जन पुरुषोंको आनन्द देनेवाला होता है ॥८३॥ 'यह मौखिक संदेश है, बाकी समाचार पत्रसे मालूम कीजिये' इस प्रकार भेंटसहित पत्रोंके द्वारा उन प्रतापी भाइयोंको विश्वास दिलाना चाहिये ॥८४॥ हे आर्य, आपके लिये यही कार्य यश देनेवाला है और यही कल्याण करनेवाला है यदि वे इस तरह शान्तिसे वश न हों तो फिर आगेके कार्यका विचार करना चाहिये ॥८५॥ आपको लोकापवादसे डरते हुए यही कार्य करना चाहिये क्योंकि लोकमें यश ही स्थिर रहनेवाला है, सम्पत्तियाँ तो नष्ट हो जानेवाली हैं ॥८६।। इस प्रकार पुरोहितके वचनोंसे चक्रवर्तीने अपनी क्रोधपूर्ण वृत्ति छोड़ दी सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों , की चित्तकी वृत्ति अनुकूल वचन कहनेसे ही ठीक हो जाती है ।।८७।। इस समय जो प्रयत्नसे वश नहीं किया जा सकता ऐसा महाबलवान् बाहुबली दूर रहे पहले शेष भाइयोंके द्वारा ही १ परशुम् । २ सहमानेन । ३ आगच्छत । ४ पज्यः । ५ संदेशवाक् । 'संदेशवाग् वाचिकं स्यादिश्यभिधानात् । ६ विश्वास्याः । ७ यशस्करम् । ८ श्रेयस्करम् । ६ जनापवादात् । १० स्थिरतरम् । ११ गमनशीलाः । १२ यत्र साध्या महाभुजः अ०, प०, स०, इ०, ल० । १३ बाहुबलिनः कुटिलताम् । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्प्रिंशत्तम पर्व इति निर्धार्य कार्यज्ञान् कार्ययुक्तौ विविक्तधीः । प्राहिणोत्स निसृष्टार्थान्' दूताननु जसन्निधिम् ॥८६॥ गत्वा च ते यथोद्देशं दृष्ट्वा तांस्तान्यथोचितम् । जगुः सन्देशमीशस्य तेभ्यो दूता यथास्थितम् ॥१०॥ अथ ते सह सम्भूय कृतकार्य निवेदनात् । दूतानित्यूचुरारुढप्रभुत्वमदकर्कशाः ॥१॥ यदुक्तमादिराजन तत्सत्यं नोऽभिसम्मतम् । गुरोरसन्निधौ पूज्यो ज्यायान्भ्राताऽनुजैरिति ॥२॥ प्रत्यक्षो गरुरस्माकं प्रतपत्यष विश्वदृक् । स नः प्रमाणमैश्वयं तद्वितीर्णमिदं हि नः ॥१३॥ तदत्र गुरुपादाज्ञा तन्त्रा न स्वरिणो वयम् । न देयं भरतेशन नादेयमिह किञ्चन ॥४॥ यत्तु नः संविभागार्थम् इदमामन्त्रण कृतम् । चक्रिणा तेन सुप्रीता प्रीणाश्च वयमागलात् ॥५॥ इति सत्कृत्य तान्दूतान सन्मान : प्रभु वत्प्रभौ । विहितोपायनाः३० सद्यः प्रतिलेखैर्व्यसर्जयन् ॥६॥ दूतसात्कृतसन्माना:१ प्रभुसात्कृतवीचिकाः२ । गुरुसात्कृत्य तत्कार्य प्रापुस्ते गुरुसन्निधिम् ॥१७॥ गत्वा च गुरुपद्राक्षः मितोचितपरिच्छदाः । महागिरिमिवोत्तुङगं कैलासशिखरालयम५॥१८॥ प्रणिपत्य विधानेन प्रज्य च यथाविधि । व्यजिज्ञपन्निदं वाक्यं कुमारा मारविद्विषम् ॥६॥ त्वत्तः स्मो लब्धजन्मानस्त्वत्तः प्राप्ताः परां श्रियम् । त्वत्प्रसादैषिणो देव त्वत्तो नान्यमुपास्महे ॥१०॥ उनकी कुटिलताकी परीक्षा करूँगा। इस प्रकार निश्चय कर कार्य करने में जिसकी बुद्धि कभी भी मोहित नहीं होती ऐसे चक्रवर्तीने कार्यके जाननेवाले निःसृष्टार्थ दूतोंको अपने भाइयों के समीप भेजा ।।८८-८९।। उन दूतोंने भरतके आज्ञानुसार जाकर उनके योग्यरीतिसे दर्शन किये और उनके लिये चक्रवर्तीका संदेश सुनाया ।।९०॥ तदनन्तर-प्राप्त हुए ऐश्वर्यके मद से जो कठोर हो रहे हैं ऐसे वे सब भाई दूतोंके द्वारा कार्यका निवेदन हो चुकनेपर परस्परमें मिलकर उनसे इस प्रकार वचन कहने लगे ॥९१।। कि जो आदिराजा भरतने कहा है वह सच है और हम लोगोंको स्वीकार है क्योंकि पिताके न होनेपर बड़ा भाई ही छोटे भाइयोंके द्वारा पूज्य होता है ॥९२॥ परन्तु समस्त संसारको जानने देखनेवाले हमारे पिता प्रत्यक्ष विराजमान हैं वे ही हमको प्रमाण है, यह हमारा ऐश्वर्य उन्हींका दिया हुआ है ।।९३।। इसलिये हम लोग इस विषयमें पिताजीके चरणकमलोंकी आज्ञाके आधीन हैं, स्वतन्त्र नहीं है। इस संसारमें हमें भरतेश्वरसे न तो कुछ लेना है और न कुछ देना है ।।९४॥ तथा चक्रवर्तीने हिस्सा देनेके लिये जो हम सबको आमन्त्रण दिया है अर्थात् वुलाया है उससे हम लोग बहुत संतुष्ट हए हैं और गले तक तप्त हो गये हैं ॥९५।। इस प्रकार राजाओंकी तरह योग्य सन्मानोंसे उन दूतों का सत्कार कर तथा भरतके लिये उपहार देकर और बदलेके पत्र लिखकर उन राजकुमारोंने दतोंको शीघ ही बिदा कर दिया ॥९६॥ इस प्रकार जिन्होंने दूतोंका सन्मान कर भरतके लिये योग्य उत्तर दिया है ऐसे वे सब राजकुमार, पूज्य पिताजीका दिया हुआ कार्य उन्हींको सौंपने के लिये उनके समीप पहुंचे ।।९७॥ जिनके पास परिमित तथा योग्य सामग्री है ऐसे उन राजकुमारोंने किसी महापर्वतके समान ऊंचे और कैलासकी शिखरपर विद्यमान पूज्य पिता भगवान् वृषभदेवके जाकर दर्शन किये ॥९८॥ उन राजकुमारोंने विधिपूर्वक प्रणाम किया, विधिपूर्वक पूजा की और फिर कामदेवको नष्ट करनेवाले भगवान्से नीचे लिखे वचन कहे ॥९॥ हे देव, हम लोगोंने आपसे ही जन्म पाया है, आपसे ही यह उत्कृष्ट विभति पाई है और अब भी आपकी प्रसन्नताकी इच्छा रखते हैं, हम लोग आपको छोड़कर और किसीकी १ न्यस्तार्थान् । असकृत्सम्पादितप्रयोजनानित्यर्थः । २ कुमाराः । ३ अस्माकम् । ४ प्रकाशते । ५ प्रधानाः । ६ स्वेच्छाचारिणः' ७ सन्तोषिताः । ८ तृप्ता: ६ कन्धरपर्यन्तम् । १० कृतप्राभृताः । ११ दूतानामयत्तीकृत । १२ भरतायत्तीकृतसन्देशाः। १३ भरतकृतकार्यम् । १४ परिकराः । १५ कैलासशिखरमालयो यस्य । १६ आराधयामः । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० महापुराणम् गुरुप्रसाद इत्युच्चैः जनो वक्त्येष केवलम् । वयं तु तद्रसाभिज्ञास्त्वत्प्रसादाजित श्रियः ॥१०१॥ त्वत्प्रणामानुरक्तानां त्वत्प्रसादाभिकाजक्षिणाम् । त्वद्वचःकिडाकराणां नो यद्वा तद्वाऽस्तु नापरम् ॥१०२॥ इति स्थिते प्रणामार्य भरतोऽस्माजुहूषति' । तन्नात्र कारणं विनः किं मदः किन्नु मत्सरः ॥१०३॥ युमत्प्रणमनाभ्यासरसदुर्ललितं शिरः । नान्यप्रणमने देव धूति बध्नाति जातु नः ॥१०४॥ किमम्भोजरजःपुञ्जपिञ्जरं वारि मानसे । निषेव्य राजहंसोऽयं रमतेऽन्यसरोजले ॥१०॥ किमप्सरः शिरोजान्त सुमनोगन्धलालितः। तुम्बीवनान्त मभ्येति प्राणान्तेऽपि मधुव्रतः ॥१०६॥ मुक्ताफलाच्छमापार्य गगनाम्बुनवाम्बुदात् । शुष्यत्सरोऽम्बु किं वाञ्छेदुवन्यन्नपि० चातकः ॥१०७॥ इति युष्मत्पदाब्जन्म'रजोरञ्जितमस्तकाः। प्रणन्तमसदाप्तानामिहामुत्र च नेश्महे ॥१०॥ परप्रणामविमुखी भयसद्धगविजिताम् । वीरदीक्षां वयं धतु भवत्पाश्र्वमुपागताः ॥१०॥ तद्देव कययास्माकं हितं पथ्यं च वर्त्म यत् । येनेहामुत्र च स्याम त्वद्भक्तिदृढ़वासनाः ॥११०॥ परप्रणामसञ्जातमानभङगभयातिगाम् । पदवों तावकी देव भवेमहि१८ भवे भवे ॥११॥ मानखण्डनसम्भूतपरिभूति भयातिगाः। योगिनः सुखमेधन्ते वनेषु हरिभिः समम् ॥११२॥ उपासना नहीं करना चाहते ॥१००। इस संसारमें लोग यह 'पिताजीका प्रसाद है' ऐसा केवल कहते ही हैं परन्तु आपके प्रसादसे जिन्हें उत्तम सम्पत्ति प्राप्त हुई है ऐसे हम लोग इस वाक्यक रसका अनुभव हो कर चुके हैं ॥१०॥ आपको प्रणाम करनेम तत्पर, आपके प्रसन्नता को चाहनेवाले और आपके वचनोंके किंकर हम लोगोंका चाहे जो हो परन्तु हम लोग और किसीकी उपासना नहीं करना चाहते हैं ॥१०२॥ ऐसा होनेपर भी भरत हम लोगोंको प्रणाम करनेके लिये बुलाता है सो इस विषयमें उसका मद कारण है अथवा मात्सर्य यह हम लोग कुछ नहीं जानते ।।१०३।। हे देव, जो आपको प्रणाम करनेके अभ्यासके रससे मस्त हो रहा है ऐसा यह हमारा शिर किसी अन्यको प्रणाम करने में संतोष प्राप्त नहीं कर रहा है ।।१०४।। क्या यह राजहंस मानसरोवरमें कमलोंकी परागकी समूहसे पीले हुए जलकी सेवा कर किसी अन्य तालाबके जलकी सेवा करता है ? अर्थात् नहीं करता है ? ॥१०५।। क्या अप्सराओं के केशोंमें लगे हुए फूलोंकी सुगन्धसे संतुष्ट हुआ भूमर प्राण जानेपर भी तूंबीके वनमें जाता है अर्थात् नहीं जाता है ।।१०६॥ अथवा जो चातक नवीन मेघसे गिरते हुए मोतीके समान स्वच्छ आकाशगत जलको पी चुका है क्या वह प्यासा होकर भी सूखते हुए सरोवरके जलको पीना चाहेगा ? अर्थात् नहीं ॥१०७॥ इस प्रकार आपके चरणकमलोंकी परागसे जिनके मस्तक रंग रहे हैं ऐसे हम लोग इस लोक तथा परलोक-दोनों ही लोकोंमें आप्तभिन्न देव और मनुष्यों को प्रणाम करने के लिये समर्थ नहीं हैं ॥१०८॥ जिसमें किसी अन्यको प्रणाम नहीं करना पड़ता, और जो भयके सम्बन्धसे रहित है ऐसी वीरदीक्षाको धारण करनेके लिये हम लोग आपके समीप आये हुए है ॥१०९॥ इसलिये हे देव, जो मार्ग हित करनेवाला और सुख पहुंचाने वाला हो वह हम लोगोंको कहिये जिससे इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें हम लोगों की वासना आपकी भक्तिमें दृढ हो जावे ॥११०॥ हे देव, जो दूसरोंको प्रणाम करनेसे उत्पन्न हुए मानभङ्गके भयसे दूर रहती है ऐसी आपकी पदवीको हम लोग भवभवमें प्राप्त होते रहें ।।१११॥ मानभङ्गसे उत्पन्न हुए तिरस्कारके भयसे दूर रहनेवाले योगी लोग वनों १ गुरुप्रसादसामर्थ्य । २ प्रसादोजित-द०, ल०। ३ यत्किञ्चिद् भवति तदस्तु । ४ आह्वातुमिच्छति । ५ गवितम् । ६ देवस्त्रीणां केशमध्यपुष्पगन्धलालितः । ७ अलावुवनमा यम् । ८ अभिगच्छति । ६-मापीय द०, ल० । आपाय - पीत्वा । १० पिपासन्नपि । ११ पदकमल । १२ नमस्कतुम् । १३ अनाप्तानाम् । १४ समर्था न भवामः । १५ भवाम । लोट् । १६ अतिक्रान्ताम्। १७ तव सम्बन्धिनीम्। १८ प्राप्नुमः । भूप्राप्तावात्मनेपदम् । १६ परिभव । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं ब्रुवाणानिति साक्षेपं स्थापयन्पथि शाश्वते । भगवानिति तानुच्चैः अन्वशादनुशासिता ॥ ११३ ॥ महामना' वपुष्मन्तो वयस्सत्त्वगुणान्विताः । कथमन्यस्य संवाह्या यूयं भद्रा द्विपा इव ॥ ११४ ॥ भगिना' किमु राज्येन जीवितेन चलेन किम् । किञ्च भो यौवनोन्मादः ऐश्वर्यबलदूषितैः ॥११५॥ कि बलैर्बलिनां गम्यं: कि "हायर्वस्तुवाहनैः । तृष्णाग्निबोधनैरेभिः किं धनैरिन्धनैरिव ॥ ११६ ॥ भुक्त्वापि सुचिरं कालं येन तृप्तिः क्लमः परम् । विषयैस्तैरलं भुक्तविषमिवैरिवाशनैः ॥११७॥ किं च भो विषयास्वादः कोऽप्यनास्वादितोऽस्ति वः । स एव पुनरास्वादः किं तेनास्त्याशितम्भवः " ॥ ११८ ॥ यत्र शस्त्राणि मित्राणि शत्रवः पुत्रबान्धवाः । कलत्रं सर्व भोगीणा धरा राज्यं धिगीदृशम् ॥ ११६॥ भुनक्तु नृपशार्दूलो " भरतो भरतावनिम् । यावत्पुण्योदयस्तावत्तत्रालं वोऽतितिक्षया ॥१२०॥ तेनापि त्याज्यमेवेदं राज्यं भङगि" यदा तदा । हेतोरशाश्वतस्यास्य युध्वध्वं बत किं मुधा ॥ १२१ ॥ "तदलं स्पर्द्धया दध्वं यूयं धर्ममहातरोः । दयाकुसुममम्लानि यत्तन्मुक्तिफलप्रदम् ॥ १२२॥ पराराधनदैन्यानं परैराराध्यमेव यत् । तद्बो महाभिमानानां तपो मानाभिरक्षणम् ॥ १२३ ॥ दीक्षा रक्षा गुणा भूत्या दयेयं प्राणवल्लभा । इति ज्याय स्तफोराज्यमिदं श्लाध्यपरिच्छदम् ॥ १२४॥ में सिहों के साथ सुखसे बढ़ते रहते हैं ।। ११२ । इस प्रकार आक्षेपसहित कहते हुए राजकुमारों को अविनाशी मोक्षमार्ग में स्थित करते हुए हितोपदेशी भगवान् वृषभदेव इस प्रकार उपदेश देने लगे ॥११३॥ महा अभिमानी और उत्तम शरीरको धारण करनेवाले तथा तारुण्य अवस्था, बल और गुणोंसे सहित तुम लोग उत्तम हाथियोंके समान दूसरोंके संवाहय अर्थात् सेवक ( पक्ष में वाहन करने योग्य सवारी) कैसे हो सकते हो ? ॥। ११४ || हे पुत्रो, इस विनाशी राज्यसे क्या हो सकता है ? इस चंचल जीवनसे क्या हो सकता है ? और ऐश्वर्य तथा बलसे दूषित हुए इस यौनके उन्मादसे क्या हो सकता है ? ।। ११५ ।। जो बलवान् मनुष्योंके द्वारा जीती जा सकती है ऐसी सेनाओंसे क्या प्रयोजन है ? जिनकी चोरी की जा सकती है ऐसे सोना चाँदी हाथी घोड़ा आदि पदार्थोंसे क्या प्रयोजन है ? और ई धनके समान तृष्णारूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाले इस धनसे भी क्या प्रयोजन है ? ॥ ११६ ॥ चिरकाल तक भोग कर भी जिनसे तृप्ति नहीं होती, उल्टा अत्यन्त परिश्रम ही होता है ऐसे विष मिले हुए भोजन के समान इन विषयोंका उपभोग करना व्यर्थ है ।। ११७ ॥ हे पुत्रो, तुमने जिसका कभी आस्वादन नहीं किया हो ऐसा भी क्या कोई विषय बाकी है ? यह सब विषयोंका वही आस्वाद जिसका कि तुम अनेक बार आस्वादन ( अनुभव) कर चुके हो फिर भला तुम्हें इनसे संतोष कैसे हो सकता है ? ।। ११८ || जिसमें शस्त्र मित्र हो जाते हैं, पुत्र और भाई वगैरह शत्रु हो जाते हैं तथा सबके भोगने योग्य पृथिवी ही स्त्री हो जाती है ऐसे राज्यको धिवकार हो ।। ११९ ।। जब तक पुण्यका उदय है तब तक राजाओंमें श्रेष्ठ भरत इस भरत क्षेत्रकी पृथिवीका पालन करें इस विषय में तुम लोगों का क्रोध करना व्यर्थ है ।। १२० ।। यह विनश्वर राज्य भरतके द्वारा भी जब कभी छोड़ा ही जावेगा इसलिये इस अस्थिर राज्यके लिये तुम लोग व्यर्थ ही क्यों लड़ते हो ।। १२१ ।। इसलिये ईर्ष्या करना व्यर्थ है, तुम लोग धर्मरूपी महावृक्ष के उस दयारूपी फुलको धारण करो जो कभी भी म्लान नहीं होता और जिसपर मुक्तिरूपी महाफल लगता है ॥ १२२ ॥ जो दूसरोंकी आराधनासे उत्पन्न हुई दीनतासे रहित है बल्कि दूसरे पुरुष ही जिसकी आराधना करते हैं ऐसा तपश्चरण ही महाअभिमान धारण करनेवाले तुम लोगों के मानकी रक्षा करनेवाला है ।। १२३ ।। जिसमें दीक्षा ही रक्षा करनेवाली है, गुण ही सेवक १६१ १ उपदेशकः । २ महाभिमानिनः प्रमाणाश्च । ३ संवायाः । ४ विनश्वरेण । ५ हर्तुं योग्यैः । ६ ग्लानिः । ७ नप्तिः । ८ राज्ये । ६ सर्वेषां भोगेभ्यो हिता । १० नृपश्रेष्ठः । १२ भरतेनापि । १३ यस्मिन् काले विनश्वरमिति । १४ कारणात् । १५ महाफलम् ल० । २१ ११ अक्षमया । १६ श्रेष्ठम् । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महापुराणम् इत्याकर्ण्य विभोर्वाक्यं परं निर्वेदमागताः। महाप्रावाज्यमास्थाय' निष्क्रान्तास्ते गृहाद्वनम् ॥१२॥ निद्दिष्ट गुरुणा साक्षादीक्षा नववधूमिव । नवा इव वराः प्राप्य रेजुस्ते युवपार्थिवाः ॥१२६॥ या कचग्रहपूर्वेण प्रणयेनाति भूमिगा । तया पाणिगृहीत्येव दीक्षया ते धृति दधुः ॥१२७॥ तपस्तीवमथासाद्य ते चकासुन पर्षयः । स्वतेजोरुद्धविश्वाशा ग्रीष्ममा शवो यथा ॥१२८॥ तेऽतितीवैस्तपोयोगैस्तनभूतां तन दधुः। तपोलक्ष्म्या समुत्कीर्णामिव दीप्तां तपोगुणः ॥१२६।। स्थिताः सामयिके वृत्ते जिनकल्पविशेषिते । ते तेपिरे तपस्तीवं ज्ञानशुद्धयुपबहितम् ॥१३०॥ वैराग्यस्य परां० कोटीम् आरूढास्ते युगेश्वराः । स्वसाच्चक्रुस्तपोलक्ष्मी राज्यलक्ष्म्यामनुत्सुकाः ॥१३१॥ तपोलक्ष्म्या परिष्वक्ता मुक्तिलक्ष्म्यां कृतस्पृहाः। ज्ञानसंपत्प्रसक्तास्ते राजलक्ष्मी विसस्मरः ॥१३२॥ द्वादशाङगश्रुतस्कन्धमधीत्यते महाधियः । तपो भावनयात्मानमलञ्चक्रुः प्रकृष्टया ॥१३३॥ स्वाध्यायेन मनोरोधस्ततोऽक्षाणां विनिर्जयः । इत्याकलय्य ते धीराः स्वाध्यायधियमादधुः ॥१३४॥ प्राचाराङगेन निःशेषं साध्वाचारमवेदिषुः । चर्याशुद्धिमतो३ रेजुः अतिक्रम"विजिताम् ॥१३॥ है, और यह दया ही प्राणप्यारी स्त्री है इस प्रकार जिसकी सब सामग्री प्रशंसनीय है ऐसा यह तपरूपी राज्य ही उत्कृष्ट राज्य है ।।१२४। इस प्रकार भगवानके वचन सनकर बे सव राजकुमार परम वैराग्यको प्रा त हुए और महादीक्षा धारण कर घरसे वनके लिये निकल पड़े ॥१२५।। -साक्षात् भगवान् वृषभदेवके द्वारा दी हुई दीक्षाको नई स्त्रीके समान पाकर वे तरुण राजकुमार नये वरके समान बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ।।१२६॥ उनकी वह दीक्षा किसी राजकन्याके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार राजकन्या कचग्रह अर्थात केश पकडकर वडे प्रणय अर्थात प्रेमसे समीप आती है उसी प्रकार वह दीक्षा भी कचग्रह अर्थात् केश लोंचकर बड़े प्रणय अर्थात् शुद्ध नयोंसे उनके समीप आई हुई थी इस प्रकार राजकन्याके समान सुशोभित होनेवाली दीक्षाके दोनों हाथ पाकर (पक्षमें पाणिग्रहण संस्कार कर) वे राजकुमार अन्तःकरणमें सुखको प्राप्त हुए थे ।।१२७।। अथानन्तर जिन्होंने अपने तेजसे समस्त दिशाओंको रोक लिया है ऐसे वे राजर्षि तीव्र तपश्चरण धारण कर ग्रीष्म ऋतुके सूर्यको किरणोंके समान अतिशय देदीप्यमान हो रहे थे ।।१२८।। वे राजपि जिस शरीरको धारण किये हए थे वह तीव्र तपश्चरणसे कृश हानेपर भी तपक गणोस अत्यन्त देदीप्यमान होरहा था और ऐसा मालूम होता था मानो तपरूपी लक्ष्मीके द्वारा उकेरा ही गया हो ।।१२९।। वे लोग जिनकल्प नामके सामायिक चारित्रमें स्थित हए और ज्ञानकी विद्धिसे बढा हुआ तीव्र तपश्चरण करने लगे ॥१३०॥ वैराग्यकी चरम सीमाको प्राप्त हा उन तरुण राजर्षियों ने राज्यलक्ष्मीसे इच्छा छोड़कर तपरूपी लक्ष्मीको अपने वश किया था ।।१३१।। वे राजकुमार तपरूपी लक्ष्मी के द्वारा आलिङ्गित हो रहे थे, मुक्तिरूपी लक्ष्मीमें उनकी इच्छा लग रही थी और ज्ञानरूपी संपदाम आसक्त हो रहे थे। इस प्रकार के राज्यलक्ष्मीको धिलकुल ही भूल गये थे ।। १३२।। उन महाबुद्धिमानोंने द्वादशाङ्गरूप श्रुतस्कन्धका अध्ययन कर तपकी उत्कृष्ट भावनासे अपने आत्माको अलंकृत किया था ।।१३३।। स्वाध्याय करनेसे मन का निरोध होता है और मनका निरोध होनेसे इन्द्रियोंका निग्रह होता है यही समझकर उन धीरवीर मुनियोंने स्वाध्यायमें अपनी बुद्धि लगाई थी ।।१३४॥ उन्होंने आचारांगके १ आथित्य । २ वनं प्रति गृहान्निष्क्रान्ताः-निर्गताः। ३ प्रकृप्टनयेन स्नेहेन । ४ सीमातिकान्ता। ५ तस्याः पाणिद्वयीं प्राप्य सुखमन्तरुपागता: प०, ल। पत्नी । ६ सन्तोषम् । ७ सकलदियः । ८ ग्रीष्मकालं प्राप्य । ६ चारित्र। १० काष्ठा-म०, अ०, प०, द०, स०, इ०, ल० । ११ आलिदिगताः । १२ चारित्रगुद्धिम्। १३ आचाराङगपरिज्ञानात् । १४ अतीनार । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व ज्ञात्वा सूत्रकृतं सूक्तं निखिलं सूत्रतोऽर्थतः । धर्मक्रियासमाधाने ते दधुः सूत्रधारताम् ॥१३६॥ स्थानाध्ययन ेमध्यायशतैर्गम्भीरमब्धिवत् । विगाह्य तत्त्वरत्नानाम् अयुस्ते भेदमञ्जसा ॥ १३७॥ समवायाख्यमङ्गं ते समधीत्य सुमेधसः । द्रव्यादिविषयं सम्यक् समवाय' मभुत्सत ॥१३८॥ स्वभ्यस्तात्पञ्चमादङ्गाद् व्याख्याप्रज्ञप्ति संज्ञितात् । साध्ववादीधरन् ' धीराः प्रश्नार्थान् विविधानमी १३६ ज्ञातृ ' धर्मकथां सम्यक् बुद्ध्वा बोद्धृनबोधयन् । धर्म्यं कथामसंमोहात्ते यथोक्तं महर्षिणा ॥ १४० ॥ तेऽधीत्योपासकाध्यायमङगं सप्तममूजितम् । निखिलं श्रावकाचारं श्रोतृभ्यः समुपादिशन् ॥ १४१ ॥ तथान्तकृद्दशादङ्गात् मुनीनन्तकृतो दश । तीर्थ प्रति विदामासुः सोढा सोपसर्गकान् ॥ १४२ अनुतर विमानोपपादिकान्दश तादृशान् । शमिनो नवमादङ्गाद् विदाञ्चक्रुविदाम्बराः ॥ १४३ ॥ प्रश्नव्याकरणात्प्रश्नमुपादाय शरीरिणाम् । सुखदुःखादिसम्प्राप्ति व्याचक्रुस्ते समाहिताः ॥ १४४ ॥ विपाक सूत्रनिर्ज्ञातसदसत्कर्मपक्तयः । बद्धकक्षास्तदुच्छित्तौ तपश्चक्रुरतन्द्रिताः ॥ १४५ ॥ दृष्टिवादेन निर्ज्ञातदृष्टिभेदा जिनागमे । ते तेनुः परमां भक्ति परं संवेगमाश्रिताः ॥ १४६ ॥ तदन्तर्गत" निःशेषश्रुततत्त्वावधारिणः । चतुर्दशमहाविद्यास्थानान्यध्यैषत क्रमात् ॥ १४७॥ द्वारा मुनियोंका समस्त आचरण जान लिया था इसीलिये वे अतिचाररहित चर्याकी विशुद्धता को प्राप्त हुए थे ।। १३५ || वे शब्द और अर्थसहित समस्त सूत्रकृतांगको जानकर धर्मक्रियाओं के धारण करनेमें सूत्रधारपना अर्थात् मुख्यताको धारण कर रहे थे ।। १३६ ।। जो सैकड़ों अव्यावोंसे समुद्र के समान गम्भीर है ऐसे स्थानाध्ययन नामके तीसरे अंगका अध्ययन कर उन्होंने तत्त्वरूपी रत्नोंके भेद शीघ्र ही जान लिये थे ।। १३७ || समीचीन बुद्धिको धारण करनेवाले उन राजकुमारोंने समवाय नामके चौथे अंगका अच्छी तरह अध्ययन कर द्रव्य आदिके समह को जान लिया था ।। १३८|| अच्छी तरह अभ्यास किये हुए व्याख्याप्रज्ञप्ति नामके पाँचवें अङ्गसे उन वीर-वीर राजकुमारोंते अनेक प्रकारके प्रश्न-उत्तर जान लिये थे ||१३९॥ वे धर्म-कथा नासके छठवें अंगको जानकर और उसका अच्छी तरह अवगम कर महर्षि भगवान् वृषभदेव के द्वारा कही हुई धर्मकथाएं अज्ञानी लोगोंको बिना किसी त्रुटिके ठीक-ठीक बतलाते थे ।। १४० ।। अतिशय श्रेष्ठ उपासकाध्ययन नामके सातवें अङ्गका अध्ययन कर श्रोताओं के लिये समस्त श्रावकाचारका उपदेश दिया था ।। १४१ ।। उन्होंने अन्तःकृत नामके दशवें असे प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थ में असहय उपसर्गोको जीतकर मुक्त होनेवाले दश अन्तःकृत मुनियों का वृत्तान्त जान लिया था ।। १४२ || जाननेवालोंमें श्रेष्ठ उन राजकुमारोंने अनुत्तर विमा पपादिक नामके नौवें असे प्रत्येक तीर्थ करके तीर्थ में असहय उपसर्ग जीतकर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होनेवाले दश दश मुनियों का हाल जान लिया था ।। १४३ || वे स्थिर चित्तवाले मुनिराज प्रश्नव्याकरण नामके दशवें असे प्रश्न समझकर जीवोंके सुख-दुःख आदिका वर्णन करने लगे || १४४ || विपाकसूत्र नामके ग्यारहवें असे जिन्होंने कर्मोंकी शुभ-अशुभ समस्त प्रकृतियाँ जान ली हैं ऐसे वे मुनि कर्मोंका नाश करनेके लिये तत्पर हो प्रमाद छोड़कर तीव्र तपश्चरण करते थे ।। १४५ ।। दृष्टिवाद नामके बारहवें अङ्गसे जिन्होंने समस्त दृष्टिके भेद जान लिये हैं ऐसे वे राजकुमार परम संवेगको प्राप्त होकर जैनशास्त्रों में उत्कृष्ट भक्ति करने लगे थे ।। १४६ ।। उस बारहवें अङ्गके अन्तर्गत समस्त श्रुतज्ञानके रहस्यका निश्चय करनेवाले उन मुनियोंने क्रमसे चौदह महा विद्याओंके स्थान अर्थात् चौदह पूर्वोका भी अध्ययन १६३ १ अङ्गम् । २ अङ्गम् । ३ समूहम् । 'समवायश्चयो गण' इत्यभिधानात् । ४ अवधारयन्ति स्म । ५ ज्ञात्वा ल० द० । ६ यथोक्तां ल० द० । ७ संसारविनाशकारिणः । ८ दश प्रकारान् । प्रवर्तनकालमुद्दिश्य | १० तदुच्छित्यै अ०, ३०, स० । ११ द्वादशाङगान्तर्गत । तीर्थडकर Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ महापुराणम् .सतोऽमी श्रुतनिःशेषश्रुतार्थाः श्रुतचक्षुषः । श्रुतार्थभावनोत्कर्षाद् दधुः शुद्धि तपोविधौ ॥१४८॥ वाग्देव्या सममालापो मया मौनमनारतम् । इतीर्यतीव सन्तापं व्यधतैषु तपःक्रिया ॥१४६॥ तनुतापमसह्यं ते सहमानाः मनस्विनः । बाह्यमाध्यात्मिकं चोग्रं तपः सुचिरमाचरन् ॥१५०॥ ग्रीष्मेऽर्ककरसन्तापं सहमानाः सुदुःसहम् । ते भेजुरातपस्थानम् प्रारूढगिरिमस्तकाः ॥१५१॥ शिलातलेषु तप्तेषु निवेशितपदद्वयाः । प्रलम्बितभुजास्तस्थुगिर्यग्रगावगोचरे ॥१५२॥ तप्तपांशुचिता भूमिः दावदग्धा वनस्थली । याता जलाशयाः शोषं दिशो धूमान्धकारिताः ॥१५३॥ इत्यत्युग्रतर ग्रीष्मे संप्लुष्ट गिरिकानने । तस्थुरातपयोगेन ते सोढजरठातपाः ॥१५४॥ मेघान्धकारिता शेषदिक्चक्रे जलदागमे । योगिनो गमयन्ति स्म तरुमलेषु शर्वरीः ॥१५॥ मुसलस्थूलधाराभिः वर्षत्सु जलवाहिषु' । निशामनेषुर"व्यथ्या वार्षिकी ते महर्षयः ॥१५६॥ ध्यानगर्भ गहान्तःस्था धृतिप्रावारसंवृताः । सहन्ते स्म महासत्त्वास्ते घनाघनदिनम् ॥१५७॥ ४ ते हिमानी परिक्लिष्टां तनुष्टि हिमागमे । दधुरभ्यवकाशेषु शयाना मौनमास्थिताः ॥१५८॥ "अनग्नमुषिता एव नग्नास्तेऽनग्निसेविनः। धृतिसंमित रङगैः सेहिरे हिममारुतान् ॥१५॥ किया था ॥१४७।। तदनन्तर जिन्होंने समस्त श्रुतके अर्थोंका श्रवण किया है और श्रुतज्ञान ही जिनके नेत्र हैं ऐसे वे मुनि श्रुतज्ञानकी भावनाके उत्कर्षसे तपश्चरणमें विशुद्धता धारण करने लगे ॥१४८। ये लोग सरस्वती देवीके साथ तो बातचीत करते हैं और मेरे साथ निरन्तर मौन धारण करते हैं इस प्रकार ईर्ष्या करती हुईके समान तपश्चरणकी क्रिया उन्हें बहुत संताप देती थी ॥१४९॥ असहय कायक्लेश सहन करते हुए वे तेजस्वी मुनि अतिशय कठिन अन्तरङ्ग और बाहय दोनों प्रकारका तप चिरकाल तक करते रहे ।।१५। ग्रीष्मऋतुम पर्वतोंके शिखरपर आरूढ़ होकर अत्यन्त असह्य सूर्य की किरणोंके संतापको सहन करते हुए वे आतापन योगको प्राप्त हुए थे अर्थात् धूपमें बैठकर तपस्या करते थे ।।१५१।। पर्वतोंके अग्रभागकी चट्टानोंकी तपी हुई शिलाओंपर दोनों पैर रखकर तथा दोनों भुजाएं लटका कर खड़े होते थे ॥१५२॥ जिस ग्रीष्मऋतुमें पृथिवी तपी हुई लिसे व्याप्त हो रही है, वनके सब प्रदेश दावानलसे जल गये हैं, तालाब सूख गये हैं और दिशाएं धांसे अन्धकारपूर्ण हो रही है इस प्रकारके अत्यन्त कठिन और जिसमें पर्वतोंके वन जल गये हैं ऐसी ग्रीष्मऋतुमें तीव्र संताप सहन करते हए वे मनिराज आतापन योग धारण कर खड़े होते थे ॥१५३-१५४।। जिसमें समस्त दिशाओंका समूह बादलोंके छा जानेसे अन्धकारयुक्त हो गया है ऐसी वर्षाऋतु में वे योगी वृक्षों के नीचे ही अपनी रात्रियाँ बिता देते थे ॥१५५।। जब बादल मूसलके समान मोटी मोटी धाराओंसे पानी बरसाते थे तब वे महर्षि वर्षाऋतुकी उन रात्रियोंको निश्चल होकर व्यतीत करते थे ।।१५६॥ ध्यानरूपी गर्भगृहके भीतर स्थित और धैर्यरूपी ओढ़नी को ओढे हुए वे महाबलवान् मुनि बादलोंसे ढके हुए दुर्दिनोंको सहन करते थे ।।१५७।। शीतऋतुके दिनोंमें मौन धारण कर खुले आकाशमें शयन करते हुए वे मुनि बहुत भारी बर्फसे अत्यन्त दुःखी हुई अपने शरीरको लकड़ीके समान निश्चल धारण करते थे ॥१५८॥ वे मुनि नग्न होकर भी कभी अग्निसेवन नहीं करते थे, वस्त्रोंसे सहित हुए के समान सदा निर्द्वन्द्व रहते थे १ पर्वतशिखरपाषाणप्रदेशे। २ सन्दग्ध। ३ प्रवृहातपाः । ४ मेघेषु । ५ नयन्ति स्म । ६ निश्चला निर्भया इत्यर्थः । ७ वर्षाकालसम्बन्धिनीम् । ८ वासगृहम् । धैर्यकम्बलपरिवेष्टिताः । १० हिमसंहतिः । ११ -रभाव-प०, ल०। १२ तरुलतागुल्मगुहादिरहितप्रबलवायसहितप्रदेशेषु । १३ अनग्नं यथा भवति तथा सावरणमिवेत्यर्थः । १४ स्थिताः । १५ धैर्यकवचितैः । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व १६५ मनो त्रियामास स्थगितास्ते हिमोच्चयः । प्रवारित 'रिवाङ्गः स्वंर्धीराः स्वैरमशेरत ॥ १६० ॥ "त्रिकालविषयं योगमास्थायैव दुरुद्वहम् । सुचिरं धारयन्ति स्म धीरास्ते धृतियोगतः ॥ १६१॥ दधानास्ते तपस्तापमन्तर्दीप्तं दुरासदम् । रेजुस्तरङ गितैरङ्गैः प्रायोऽनु कृतवार्द्धयः ॥१६२॥ ते स्वभक्तोज्झितं भूयो नच्छन् भोगपरिच्छदम् । निर्भुक्तमाल्यनिःसारं मन्यमाना मनीषिणः ॥ १६३ ॥ फेनोमि हिमसन्ध्याभ्रचलं जीवितमङगिनाम् । मन्वाना दृढमासक्ति भेजुस्ते पथि शाश्वते ॥ १६४॥ संसारावासनिर्विण्णा गृहावासाद्विनिःसृताः । जैने मार्गे विमुक्त्यङगे ते परां धृतिमादधुः ॥ १६५ ॥ इतोऽन्यदुत्तरं नास्तीत्याख्ठदृढभावनाः । तेऽमी मनोवचः कायैः श्रद्दधुर्गुरुशासनम् ॥१६६॥ रक्ता जिनप्रोक्ते सुक्ते धर्मे सनातने । उत्तिष्ठन्ते स्म मुक्त्यर्थं बद्धकक्ष्या मुमुक्षवः ॥१६७॥ संवेगजनितश्रद्धाः शुद्धे वत्र्त्मन्यनुत्तरे । दुरायां भावयामासुस्ते महाव्रतभावनाम् ॥१६८॥ श्रहंसा सत्यमस्त्येयं ब्रह्मचर्यं विमुक्तताम् । राज्यभोजनषष्ठानि व्रतान्येतान्यभावयन् ॥१६६॥ यावज्जीवं व्रतेष्वेषु ते दृढीकृतसगङराः । त्रिविधेन प्रतिक्रान्तदोषाः शुद्धि परां दधुः ॥ १७० ॥ सर्वारम्भविनिर्मुक्ता निर्मला " निष्परिग्रहाः । मार्गमाराधयञ्जनं व्युत्सृष्टतनुयष्टयः ॥ १७१ ॥ और धैर्यरूपी कवचसे ढके हुए अंगों से शीतल पवनको सहन करते थे ।। १५९ ।। शीतऋतुकी रात्रियों बर्फ के समूहसे ढके हुए वे धीर वीर मुनिराज स्वतन्त्रतापूर्वक इस प्रकार शयन करते थे मानो उनके अंग वस्त्रसे ही ढंके हों ।। १६० ।। इस प्रकार वे धीर वीर मुनि तीनों कालसम्बन्धी कठिन योग लेकर अपने धैर्यगुणके योगसे उन्हें चिर कालतक धारण करते थे ॥१६१॥ अन्तरङ्गमें देदीप्यमान और अतिशय कठिन तपके तेजको धारण करते हुए वे मुनि तरङ्गोंके समान अपने अङ्गोंसे ऐसे जान पड़ते थे मानो समुद्रका ही अनुकरण कर रहे हों ॥ १६२॥ वे बुद्धिमान् अपने द्वारा उपभोग कर छोड़ी हुई भोगसामग्रीको भोग में आई हुई मालाके समान सारहीन मानते हुए फिर उसकी इच्छा नहीं करते थे || १६३॥ वे प्राणियों के जीवनको फेन, ओस अथवा संध्याकालके वादलों के समान चञ्चल मानते हुए अविनाशी मोक्षमार्ग में दृढ़ता के साथ आसक्ति प्राप्त हुए थे || १६४ || संसार के निवाससे विरक्त हुए और घरके आवास से छूटे हुए वे मुनिराज मोक्षके कारणभूत जिनेन्द्रदेवके मार्ग में परम संतोष धारण करते थे ।। १६५ ।। इससे बढ़कर और कोई शासन नहीं है इस प्रकारकी मजबूत भावनाएं जिन्हें प्राप्त हो रही हैं ऐसे वे राजपि मन वचन कायसे भगवान्‌ के शासनका श्रद्धान करते थे ॥ १६६ ॥ जिनेन्द्र भगवान्‌ के द्वारा कहे हुए और अनादिसे चले आये यथार्थ जैनधर्म में अनुरक्त हुए वे मोक्षाभिलाषी मुनिराज मोक्षके लिये कमर कसकर खड़े हुए थे ।। १६७ || संवेग होनेसे जिन्हें शुद्ध और सर्वश्रेष्ठ मोक्षमार्ग में श्रद्धान उत्पन्न हुआ है ऐसे वे मुनि कठिनाईसे प्राप्त होने योग्य महाव्रतकी भावनाओं का निरन्तर चितवन किया करते थे ॥ १६८ ॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग और रात्रिभोजनत्याग इन छह महाव्रतों का वे निरन्तर पालन करते थे ।।१६९ ।। जिन्होंने ऊपर कहे हुए छह व्रतोंकी जीवनपर्यन्तके लिये दृढप्रतिज्ञा धारण की है और मन, वचन तथा कायसे उन व्रतोंके समस्त दोष दूर कर दिये हैं ऐसे वे मुनिराज परम विशुद्धिको धारण कर रहे थे || १७० ।। जिन्होंने सब प्रकार के आरम्भ छोड़ दिये हैं, जो ममता रहित हैं, परिग्रहरहित हैं और शरीररूप लकड़ी से भी जिन्होंने ममत्व छोड़ दिया है ऐसे वे १ हिमानीषु ल०, प० । हेमन्तसम्बन्धिनीषु । २ आच्छादिताः । ३ हिमोच्चयस्थगितान्तत्वात् प्रावरणान्वितैरिव । ४ प्रतिज्ञां कृत्वा । ५ गुरुशासनात् । ६ अधिकम् । ७ निःपरिग्रहताम् । ८दृढ़ीकृतप्रतिज्ञाः । मनोवाक्कायेन । १० प्रतिक्रमणरूपेण निरस्त । ११ निर्ममा ल०, इ० अ०, स०, प०, ५० । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महापुराणम् सर्वोपविधिनिर्मुक्ता युक्ता धर्मे जिनोदिते । नैच्छन् बालाग्रमानं च द्विधाम्नातं परिग्रहम् ॥१७२॥ निर्मूस्तेि स्वदेहेऽपि धर्मवद्मनि सुस्थिताः । सन्तोषभावनापास्ततृष्णाः सन्तो विहिरें ॥१७३॥ वसन्ति स्मानिकेतास्ते यत्रास्तं 'भानुमानितः । तत्रैकत्र क्वचिद्देशे नैस्सङग्यं परमास्थिताः ॥१७४॥ विविक्सैकान्तसेधित्वाद१० ग्रामेष्वेकाहवासिनः । पुरेष्वपि न पञ्चाहात्परं तस्थुन पर्षयः ॥१७५॥ शून्यागारस्मशानादिविविक्तालयगोचराः१३ । ते वीरवसतीभैजुः उज्झिताः सप्तभिर्भयः ॥१७६॥ तेऽभ्यनन्दन्महासत्वाः पाकसत्वैरधिष्ठिताः। गिर्यग्रकन्दरारण्यवसतोः प्रतिवासरम् ॥१७७॥ सिंहक्षवृकशार्दूलनरक्ष्वादि"निषेविते । बनान्ते ते वसन्ति स्म तदारसितभीषणे" ॥१७॥ स्फुरत्पुरुषशार्दूलजितप्रतिनिःस्वनः। प्रागुञ्जत्पर्वतप्रान्ते१६ ते स्म तिष्ठन्त्यसाध्वसाः॥१७६॥ कण्ठीरवकिशोराणां" कठोरैः कण्ठनिस्वनैः । प्रोन्नादिनि वने ते स्म निवसन्त्यस्तभीतयः ॥१८॥ नृत्यत्कबन्धपर्यन्त सञ्चरडाकिनीगणाः । प्रबद्धकौशिक ध्वाननिरुद्धो पान्तकाननाः ॥१८१॥ २३शिवानाम शिवैनिः आरुद्धाखिलदिङमुखाः। महापितृवनोद्देशा निशास्वभिः सिविर ॥१२॥ मुनि जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए मोक्षमार्गकी आराधना करते थे ॥१७१।। सब प्रकार के परिग्रहसे रहित होकर जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे हुए धर्मका आचरण करते हुए वे राजकुमार बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारके कहे हए परिग्रहोंमेंसे बालकी नोकके बराबर भी किसी परिग्रहकी चाह नहीं करते थे ॥१७२॥ जिन्हें अपने शरीर में भी ममत्व नहीं है, जो धर्मके मार्ग स्थित हैं और संतोषकी भावनासे जिन्होंने तृष्णाको दूर कर दिया है ऐरो वे उत्तम मनिराज सब जगह विहार करते थे ।।१७३।। परिग्रह-त्याग व्रतको उत्कृष्ट रूपसे पालन करनेवाले वे गृहरहित मुनिराज जहाँ सूर्य डूब जाता था वहीं किसी एक स्थानमें ठहर जाते थे ॥१७४।। वे राजर्षि एकान्त और पवित्र स्थानमें रहना पसन्द करते थे इसलिये गाँवोंमें एक दिन रहते थे और नगरोंमें पाँच दिनसे अधिक नहीं रहते थे ॥१७५॥ वे मुनि सात भयोंसे रहित होकर शुन्यगह अथवा श्मशान आदि एकान्त-स्थानोंमें वीरताके साथ निवास करते थे ।। १७६।। वे महाबलवान् राजकुमार सिंह आदि दुष्ट जीवोंसे भरी हुई पर्वतोंकी गुफाओं और जंगलों में ही प्रतिदिन निवास करना अच्छा समझते थे ॥१७७।। सिंह, रीछ, भेड़िया, व्याघ, चीता आदिसे भरे हुए और उन्हीक शब्दोस भयंकर वनके बीचम व मनिराज निवार वारों ओर फैलते हए व्याघकी गर्जनाकी प्रतिध्वनियोंसे गंजते हए पर्वतके किनारोंपर वे मुनि निर्भय होकर निवास करते थे ॥१७९॥ सिंहोंके बच्चोंकी कठोर कंठगर्जनासे शब्दायमान वनमें मुनिराज भयरहित होकर निवास करते थे ॥१८०॥ जहाँ नाचते हुए शिररहित धड़ोंके समीप डाकिनियों के समूह फिर रहे हैं, जिनके समीपके वन उल्लुओंके प्रचण्ड शब्दोंसे भर रहे हैं और जहां शृगालोंके अमङ्गलरूप शब्दोंसे सब दिशाएं व्याप्त हो रही हैं ऐसी बड़ी बड़ी श्मशानभूमियोंमें रात्रिके समय वे मनिराज निवास करते थे ॥१८१-१८२।।। १ स्थिता प०, ल० । २ बाहयाभ्यन्तररूपेण द्विधा प्रोक्तम् । ३ निर्मोहाः । ४ विहरन्ति स्म । ५ अनगाराः । ६ आदित्यः । ७ प्रायाः । ८ क्वचिदनियतप्रदेशे । ६ आथिताः। १० विशुद्धविजनप्रदेशेष स्थातुं प्रियत्वादिति भावः । ११ एकदिवसबासिनः । १२ निवसन्ति स्म । १३ एकान्तप्रदेशो गोचरविषयो येषां ते । १४ ऋक्ष-भल्लूक-बृक-ईहामृगशार्दूलद्वीपितरक्षुमगादि। १५ तेषां सिंहादीनाम् आरावैर्भयङकरे। १६ ध्वनत्पर्वतसानुमध्य। १७ सिंहशावानाम् । १८ कठिनैः प०, ल०, द० । १६ ध्वनि कुर्वति । २० समीप । २१ प्रचण्ड ल०, द० । २२ कृतघुकनिनादव्याप्त । २३ जम्बनानाम् । २४ अमङगलैः । २५ तपोधनैः । २६ सेव्यन्ते स्म । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व १६७ सिंहा इव नसिंहास्ते तस्थुगिरिगुहाश्रयाः। जिनोक्त्यन गतः स्वान्तः अनुद्विग्नः समाहिताः ॥१८३॥ पाकसत्त्व 'शताकीर्णा वनभूमि भयानकाम् । तेऽध्यवात्सुस्त मिनासु निशासु ध्यानमास्थिताः ॥१८४॥ न्यषेवन्त वनोद्देशान् निषेव्यान्वनदन्तिभिः । ते तद्दन्ताननिभिन्नतरुस्थपुटितान्तरान् ॥१८॥ वनेषु वनमातङगबृहितप्रतिनादिनीः। दरीस्तेऽध्यष रारुष्टः अाक्रान्ताः करिशत्रुभि:१० ॥१८६॥ स्वाध्याययोगसंसक्ता न स्वपन्ति स्म रात्रिषु । सूत्रार्थभावनोद्युक्ता जागरूका:११ सदा यमी ॥१८७॥ पल्याकेन निषण्णास्ते वीरासनजुषोऽथया । शयानावैकपार्वेन शर्वरीरत्यवायन्१३ ॥१८॥ त्यक्तोपधिभरा धीरा व्युत्सृष्टाङगा निरम्बराः । नैष्किञ्चन्यविशुद्धास्ते मुक्तिमार्गममार्गयन् ॥१८६॥ निर्व्यापेक्षा निराकाडाक्षा वायुवीथ्यनुगामिनः" । व्यहरन् वसुधामेनां सग्रामनगराकराम् ॥१९॥ विहरन्तो महीं कृत्स्ना ते कस्थायनभिद्रुहः । मातृकल्पा दयालुत्वात्पुत्रकल्पेषु देहिषु ॥१६॥ जीवाजीवविभागज्ञा ज्ञानोद्योतस्फुरदृशः । सावधं परिजहू स्ते प्रासुकावसथाशनाः६ ॥१९२॥ स्याद्यत्किञ्चिच्च सावद्य तत्सर्वं त्रिविधेन ते । रत्नत्रितयशुद्ध्यर्थ यावज्जीवमवर्जयन् ॥१६३॥ त्रसान हरितकायांश्च पृथिव्यप्पवनानलान । जीवकायानपायेभ्यस्ते स्म रक्षन्ति यत्नतः॥१६४॥ सिंहके समान निर्भय, सब पुरुषोंमें श्रेष्ठ और पर्वतोंकी गुफाओंमें ठहरनेवाले वे मुनिराज जिनेन्द्रदेवके उपदेशके अनुसार चलनेवाले खेदरहित चित्तसे शान्त होकर निवास करते थे ॥१८३॥ वे मुनिराज अंधेरी रातोंके समय सैकड़ों दुष्ट जीवोंसे भरी हुई भयंकर वनकी भूमियोंमें ध्यान र निवास करते थे ॥१८४॥ जो जंगली हाथियोंके द्वारा सेवन करने योग्य है तथा जिनके मध्यभाग हाथियोंके दाँतोंके अग्रभागसे टूटे हुए वृक्षोंसे ऊंचे नीचे हो रहे हैं ऐसे वनके प्रदेशोम वे महामुनि निवास करते थे ॥१८५।। जिनमें जंगली हाथियोंकी गर्जनाकी प्रतिध्वनि हो रही है और उस प्रतिध्वनिसे कुपित हुए सिंहोंसे जो भर रही हैं ऐसी वनकी गुफाओंमें वे मुनि निवास करते थे ।।१८६।। वे मुनिराज स्वाध्याय और ध्यानमें आसक्त होकर रात्रियोंमें भी नहीं सोते थे, किन्तु सूत्रों के अर्थके चिन्तवनमें तत्पर होकर सदा जागते रहते थे ।।१८७॥ वे मुनिराज पर्यडकासनसे बैठकर, वीरासनसे बैठकर अथवा एक करवटसे ही सोकर रात्रियाँ बिता देते थे ।।१८८। जिन्होंने परिग्रहका भार छोड़ दिया है, शरीरसे ममत्व दूर कर दिया है, जो वस्त्ररहित हैं और परिग्रहत्यागसे जो अत्यन्त विशुद्ध हैं ऐसे वे धोरवीर मुनि मोक्षका मार्ग ही खोजते रहते थे ॥१८९।। किसीकी अपेक्षा न करनेवाले, आकांक्षाओंसे रहित और आकाशकी तरह निर्लेप वे मुनिराज गाँव और नगरोंके समूहसे भरी हुई इस पृथिवीपर विहार करते थे ।।१९०॥ समस्त पृथिवीपर विहार करते हुए और किसी भी जीवसे द्रोह नहीं करते हुए वे मुनि दयालु होनेसे समस्त प्राणियोंको पुत्रके तुल्य मानते थे और उनके साथ माताके समान व्यवहार करते थे ॥१९१।। वे जीव और अजीवके विभाग को जाननेवाले थे, ज्ञानके प्रकाशसे उनके नेत्र देदीप्यमान हो रहे थे अथवा ज्ञानका प्रकाश ही उनका स्फुरायमान नेत्र था, वे प्रासुक अर्थात् जीवरहित स्थानमें ही निवास करते थे और उनका भोजन भी प्रासुक ही था, इस प्रकार उन्होंने समस्त सावध भोगका परिहार कर दिया था ॥१९२।। उन मुनियोंने रत्नत्रयकी विशुद्धिके लिये, संसारमें जितने सावध (पापारम्भसहित) कार्य हैं उनका जीवन पर्यन्तके लिये त्याग कर दिया था ॥१९३॥ वे त्रसकाय, वनस्पति १ पुरुषोठाः । २ अखेदितः। ३ क्रूरमग । ४ भयंकराम्। ५ निवसन्ति स्म । ६ अन्धकारवतीषु 'तमिस्रा तामसी रात्रि' रित्यभिधानात् । ७ आश्रिताः । ८ निम्नोन्नतमध्यान् । ६ अधिवसन्ति स्म । १० सिंहैः। ११ जागरणशीलाः। १२ वा। १३ नन्ति स्म। १४ वायुवन्निःपरिग्रहा इत्यर्थः । १५ अपातुकाः । १६ निरवद्यान्तसाहारा: । १७ अपसार्य । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ महापुराणम् अदीनमनसः शान्ताः परमोपेक्षयान्विताः। मुक्तिशाठ्यास्त्रिभिर्गुप्ताः कामभोगेष्वविस्मिताः ॥१६॥ जिनाज्ञानु गताः शश्वत्संसारोद्विग्नमानसाः। गर्भवास जरामत्युपरिवर्तनभीरवः ॥१६६॥ श्रुतज्ञानदृशो दृष्टपरमार्था विचक्षणाः । ज्ञानदीपिकया साक्षाच्चक्रुस्ते पदमक्षरम् ॥१७॥ ते चिरं भावयन्ति स्म सन्मार्ग मुक्तिसाधनम् । परदत्तविशुद्धान्नभोजिनः पाण्यमत्रकाः ॥१६॥ शङकिताभिहतो द्दिष्ट क्रयक्रीतादि लक्षणम् । सूत्रे निषिद्धमाहारं नैच्छन्प्राणात्ययेऽपि ते ॥१६॥ भिक्षा नियतवेलायां गहपडक्त्यनतिक्रमात् । शुद्धामाददिरे धीरा मुनिवृत्तौ समाहिताः ॥२०॥ शीतमुष्णं विरुक्षं च स्निग्धं सलवणं न वा । तनुस्थित्यर्थमाहारमाजहस्ते० गतस्पृहाः ॥२०१॥ अक्षमक्षणमात्रं ते प्राणधृत्य' विषष्वणुः१२ । धर्मार्थमेव च प्राणान् धारयन्ति स्म केवलम् ॥२०२॥ न तुष्यन्ति स्म ते लब्धौ व्यषीदन्नाप्यलब्धितः । मन्यमानास्तपोलाभमधिकं धुतकल्मषाः ॥२०३॥ काय, पृथिवीकाय, जलकाय, वायु काय और अग्नि काय इन छह कायके जीवोंकी बड़े यत्न से रक्षा करते थे ।।१९४।। उन मुनियोंका हृदय दीनतासे रहित था, वे अत्यन्त शान्त थे, परम उपेक्षासे सहित थे, मोक्ष प्राप्त करना ही उनका उद्देश्य था, तीन गुप्तियोंके धारक थे और काम भोगोंमें कभी आश्चर्य नहीं करते थे ॥११५।। वे सदा जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाके अनुसार चला करते थे, उनका हृदय संसारसे उदासीन रहा करता था और वे गर्भ में निवास करना, बढापा और मत्य इन तीनोंके परिवर्तनसे सदा भयभीत रहते थे ।।१९६॥ श्रतज्ञान ही जिनके नेत्र हैं और जो परमार्थको अच्छी तरह जानते हैं ऐसे वे चतुर मुनिराज ज्ञानरूपी दीपिका के द्वारा अविनाशी परमात्मपदका साक्षात्कार करते थे ॥१९७।। जो दूसरेके द्वारा दिये हुए विशुद्ध अन्नका भोजन करते हैं तथा हाथ ही जिनके पात्र हैं ऐसे वे मुनिराज मोक्षके कारणस्वरूप समीचीन मार्गका निरन्तर चिन्तवन करते रहते थे ॥१९८॥ शंकित अर्थात् जिसमें ऐसी शंका हो जावे कि यह शुद्ध है अथवा अशुद्ध, अभिहत अर्थात् जो किसी दूसरेके यहांसे लाया गया हो, उद्दिष्ट अर्थात् जो खासकर अपने लिये तैयार किया गया हो, और ऋयक्रीत अर्थात् जो कीमत देकर बाजारसे खरीदा गया हो इत्यादि आहार जैन शास्त्रोंमें मुनियोंके लिये निषिद्ध बताया है। वे मुनिराज प्राण जानेपर भी ऐसा निषिद्ध आहार लेनेकी इच्छा नहीं करते थे ॥१९९॥ मुनियोंकी वृत्तिमें सदा सावधान रहनेवाले वे धीरवीर मुनि घरोंकी पंक्तियोंका उल्लंघन न करते हुए निश्चित समयमें शुद्ध भिक्षा ग्रहण करते थे ॥२००। जिनकी लालसा नष्ट हो चुकी है ऐसे वे मुनिराज शरीरकी स्थितिके लिये ठंडा, गर्म, रूखा, चिकना, नमकसहित अथवा बिना नमकका जैसा कुछ प्राप्त होता था वैसा ही आहार ग्रहण करते थे ॥२०१।। वे मुनि प्राण धारण करने के लिये अक्षमूक्षण मात्र ही आहार लेते थे और केवल धर्मसाधन करने के लिये ही प्राण धारण करते थे। भावार्थ-जिस प्रकार गाड़ी ओंगनेके लिये थोड़ी सी चिकनाईकी आवश्यकता होती है भले ही वह चिकनाई किसी भी पदार्थकी हो इसी प्रकार शरीररूपी गाडीको ठीक ठीक चलाने के लिये कुछ आहारकी आवश्यकता होती है भले ही वह सरस या नीरस कैसा ही हो । अल्प आहार लेकर मुनिराज शरीरको स्थिर रखते हैं और उससे संयम धारण कर मोक्षकी प्राप्ति करते हैं वे मुनिराज भी ऐसा ही करते थे ॥२०२।। वे पाप रहित मुनिराज, आहार मिल जानेपर संतुष्ट नहीं होते थे और नहीं मिलने पर तपश्चरण १ मक्तसाध्या अ०, प०, इ०, स० । मुक्तिसाध्या ल०। २ जन्म । ३ पाणिपालकाः द०, लक, स०. इ० । पाणिपूटभाजनाः । ४ स्थूलतण्डलाशनादिकं दत्त्वा स्वीकृत कलमौदनादिक । ५ आ ६ पणादिकं दत्वा स्त्रीकृतम् । ७ परमागमे । ८ निषेधितम् । ६ यत्याचारे। १० आददुः । ११ प्राणधारणार्थम् । १२ भुजते रम। १३ धर्म-निमित्तम् । १४ लाभे सति । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तम पर्व १६६ स्तुति निन्दा सुखं दुःख तथा मानं विमाननाम्। समभावेन तेऽपश्यन् सर्वत्र समशिनः ॥२०४॥ वाचंयमत्वमास्थाय चरन्तो गो चरार्थिनः । निर्यान्ति स्माप्यलाभेन नाभञ्जन मौनसङगरम् ॥२०॥ महोपवासम्लानाङगा यतन्ते स्म तनु स्थितौ । तत्राप्यशुद्धमाहारं नैषिषुर्मनसाऽप्यमी ॥२०६॥ गोचराग्रगता" योग्यं भक्त्वान्नमविलम्बितम् । प्रत्याख्याय पुनर्वीरा निर्ययुस्ते तपोवनम् ॥२०७॥ तपस्तापतनूभूततनवोऽपि मुनीश्वराः । अनबुद्धात्तपोयोगान्न चे लुढ'सङगराः॥२०८॥ तीवं तपस्यतां तेषां गात्रेष, श्लथताऽभवत् । प्रतिज्ञा या तु सद्ध्यानसिद्धावशिथिलैव सा ॥२०६॥ नाभूत्परिषहर्भङगस्तेषां चिरमुपोषुषाम् । गताः परिषहा एव भङगं तान् जेतुमक्षमाः ॥२१०॥ तपस्तनपातापावभूतेषां पराद्य तिः । निष्टप्तस्य सवर्णस्य दीप्तिर्नन्वतिरेकिणी" ॥२११॥ तपोऽग्नितप्तदीप्ताङगास्तेऽन्तःशुद्धि परां दधुः। तप्तायां तनमूषायां शुद्धयत्यात्मा हि हेमवत् ॥२१२॥ त्वगस्थिमात्रदेहास्ते ध्यानशु द्धिमधुस्तराम् । सर्व हि परिकर्मेदं५ बाह्यमध्यात्मशुद्धये ॥२१३॥ योगजाः सिद्धयस्तेषाम् अणिमादिगुणर्द्धयः । प्रादुरासन्विशुद्धं हि तपः सूते महत्फलम् ॥२१४॥ रूपी अधिक लाभ समझते हए विषाद नहीं करते थे ।।२०३।। सब पदार्थोंमें समान दृष्टि रखने वाले वे मुनि स्तुति, निन्दा, सुख, दुःख तथा मान-अपमान सभीको समान रूपसे देखते थे ॥२०४॥ वे मुनि मौन धारण करके ईर्यासमितिसे गमन करते हुए आहारके लिये जाते थे और आहार न मिलनेपर भी मौनव्रतकी प्रतिज्ञा भङ्ग नहीं करते थे ।।२०५॥ अनेक महोपवास करनेसे जिनका शरीर म्लान हो गया है ऐसे वे मुनिराज केवल शरीरकी स्थितिके लिये ही प्रयत्न करते थे परन्तु अशुद्ध आहारकी मनसे भी कभी इच्छा नहीं करते थे ॥२०६॥ गोचरीवृत्तिके धारण करनेवालोंमें मुख्य वे धीरवीर मुनिराज शीघ्र ही योग्य अन्नका भोजन कर तथा आगेके लिये प्रत्याख्यान कर तपोवनके लिय चले जाते थे ॥२०७।। यद्यपि तपश्चरणके संतापसे उनका शरीर कृश हो गया था तथापि दढ प्रतिज्ञाको धारण करने वाले वे मनिराज प्रारम्भ किये हए तपसे विराम नहीं लेते थे ।।२०८।। तीव्र तपस्या करनेवाले उन मुनियोंके शरीर में यद्यपि शिथिलता आ गई थी तथापि समीचीन ध्यानकी सिद्धिके लिये जो उनकी प्रतिज्ञा थी वह शिथिल नहीं हुई थी ।।२०९।। चिरकाल तक उपवास करनेवाले उन मुनियोंका परीषहोंके द्वारा पराजय नहीं हो सका था बल्कि परीषह ही उन्हें जीतने के लिये असमर्थ होकर स्वयं पराजय । गयं थे ॥२१०।। तपरूपी अग्निक संतापसे उनके शरीरकी कान्ति बहुत ही उत्कृष्ट हो गई थी सो ठीक ही है क्योंकि तपे हए सवर्णकी दीप्ति बढ ही जाती है ।।२१।। तपश्चरणरूपी अग्निसे तप्त होकर जिनके शरीर अतिशय देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे वे मुनिराज अन्तरङ्गकी परम विशुद्धिको धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि शरीररूपी मूसा (साँचा) तपाये जानेपर आत्मा सुवर्णके समान शुद्ध हो ही जाती है ॥२१२॥ यद्यपि उनके शरीरमें केवल चमड़ा और हड्डी ही रह गई थी तथापि वे ध्यानकी उत्कृष्ट विशुद्धता धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उपवास आदि समस्त बाह्य साधन केवल आत्मशुद्धिकं लिये ही है ॥२१३।। योगके प्रभावसे उत्पन्न होनेवाली अणिमा महिमा आदि ऋद्धियां उन मुनियों के प्रकट हो गई थीं सो ठीक ही है क्योंकि विशुद्ध तप बहुत बड़े बड़े फल उत्पन्न करता है ।।२१४।। १ पूजाम्। २ अवज्ञाम् । ३ मीनित्वम् । ४ गोचार। ५ मौनप्रतिज्ञाम् । ६ इच्छां न चक्रुः । ७ गोचारभिक्षायां मुख्यतां गताः । ८ शीघम् । '६ प्रत्याख्यानं गृहीत्वा । १० -नारेमु,अ०, स०, इ०, ५०, द०। ११ दृढ़प्रतिज्ञाः । १२ तपः कुर्वताम् । १३ तपोऽग्निजनितसन्तापात् । १४ न व्यतिरेकिणी ल०, द० । १५ अनशनादि । २२ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् तपोमयः प्रणीतोऽग्निः कर्माण्याहतयोऽभवन् । विधिगास्ते सयज्वानो मन्त्रः स्वायम्भुवं वचः ॥२१५|| महाध्वर'पतिर्देवो वृषभो दक्षिणा दया। फलं कामितसंसिद्धिः अपवर्गः क्रियावधिः ॥२१६॥ 'इतीमामार्षभीमिष्टि म् अभिसन्धाय तेऽञ्जसा। प्रावीत ननूचानाः तपोयज्ञमन त्तरम् ॥२१७॥ इत्यमूमनगाराणां परां सङगीर्य० भावनाम् । ते तथा निर्वहन्ति स्म निसर्गोऽयं महीयसाम् ॥२१॥ किमत्र बहना धर्मक्रिया यावत्यविप्लुता । तां कृत्स्नां ते स्वसाच्चक्रः त्यक्तराजन्यविक्रियाः ॥२१६॥ वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं पुराणपुरुषादधिगम्य बोधि तत्तीर्थमानससरःप्रियराजहंसाः । ये राज्यभूमिमवधूय३ विधूतमोहाः प्रावाजिषुर्भरतराजगनन्तुकामाः ॥२२०॥) ते पौरवा५ मुनिवराः पुरुधैर्यसारा धीरानगारचरितेषु कृतावधानाः । योगीश्वरानु"गतमार्गमन प्रपन्नाः शं८ नो दिशन्त्वखिललोकहितैकतानाः२० ॥२२॥ जिसमें तपश्चरण ही संस्कार की हुई अग्नि थी, कर्म ही आहुति अर्थात् होम करने योग्य द्रव्य थे, विधिविधानको जाननेवाले वे मुनि ही होम करनेवाले थे। श्री जिनेन्द्रदेवके वचन ही मन्त्र थं, भगवान् वृषभदव ही यज्ञक स्वामी थ, दयाही दक्षिणा थी, इच्छित वस्तुको प्राप्ति होना हो फल था और मोक्षप्राप्त होना ही कार्यकी अन्तिम अवधि थी। इस प्रकार भगवान् ऋषभदेवके द्वारा कहे हुए यज्ञका संकल्प कर उन तपस्वियोंने तपरूपी श्रेष्ठ यज्ञकी प्रवृत्ति चलाई थी ।।२१५-२१७।। इस तरह वे मुनि, मुनियोंकी उत्कृष्ट भावनाकी प्रतिज्ञा कर उसका अच्छी तरह निर्वाह करते थे सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंका यह स्वभाव ही है ।।२१८।। इस विषयमें बहुत कहने से क्या लाभ है उन सब मुनियोंने राज्यअवस्थामें होनेवाले समस्त विकार भावोंको छोड़कर अनादि कालसे जितनी भी वास्तविक क्रियाएं चली आती थीं उन सबको अपने आधीन कर लिया था ।।२१९॥ इस प्रकार पुराण पुरुष-भगवान् आदिनाथसे रत्नत्रयकी प्राप्ति कर जो उनके तीर्थरूपी मानससरोवरके प्रिय राजहंस हुए थे, जिन्होंने राज्यभुमिका परित्याग कर सब प्रकार का मोह छोड़ दिया था, जो भरतराजको नमस्कार नहीं करनेकी इच्छासे ही दीक्षित हुए थे, उत्कृष्ट धैर्य ही जिनका बल था, जो धीरवीर मुनियोंके आचरण करने में सदा सावधान रहते थे, जो योगिराज भगवान् वृषभदेवके द्वारा अंगीकार किये हुए मार्गका पालन करते थे और जो १ संस्कृताग्निः 'प्रणीतः संस्कृतानलः' इत्यभिधानात् । २ तपोधनाः । ३ महायज्ञः । होमान्ते याचकादीनां देय द्रव्यम् । ५ क्रियावसानः । ६ ऋषभसम्बन्धिनीम् । ७ यजनम् । ८ नः । ६ प्रवचने साडगे अधीतिनः । 'अनूचानः प्रवचने साङगेऽधीती' इत्यभिधानात् । १० प्रतिज्ञा कृत्वा। ११ संवहन्ति स्म स०, ल । १२ त्यक्तराजसमूहविकाराः । १३ त्यक्त्वेत्यर्थः । १४ नमस्कार न कर्तकामाः । १५ पृरो: सम्बन्धिनः । १६ यत्याचारेण । १७ अक्षीकृत्य । १८ मनम् । १६ वो प०, ग०, ल० । नः यमाकम् । २० जनहितेऽनन्यवृत्तयः । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व शार्दूलविक्रीडितम् नत्वा विश्वसृज चराचरगुरुं देवं दिवोशाचितं नान्यस्य प्रणतिं व्रजाम इति ये दीक्षां परां संश्रिताः ॥ ते नः सन्तु तपोविभूतिमुचितां स्वीकृत्य मुक्तिश्रियां बच्छावृषभात्मजा जिनजुषाम प्रेसराः श्रेयसे ॥ २२२ ॥ स श्रीमान् भरतेश्वरः प्रणिधिभिर्वान्प्रहृतां नानयत् सम्भोक्तुं निखिलां विभज्य वसुधां सार्द्ध च येनशकत् । निर्वाणाय पितृषभं जिनवृषं ये शिश्रियः श्रेयसे ते नो मानधना हरन्तु दुरितं निर्दग्धकर्मेन्धनाः ॥२२३॥ इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे भरतराजानुजदीक्षा वर्णनं नाम चतुस्त्रिशत्तमं पर्व ॥ ३४ ॥ समस्त लोकका हित करनेवाले थे ऐसे वे भगवान् वृषभदेवके पुत्र तुम सबका कल्याण करें ।।२२०-२२१।। त्रस और स्थावर जीवों के गुरु तथा इन्द्रोंके द्वारा पूज्य भगवान् वृषभदेवको नमस्कार कर अब हम किसी दूसरेको प्रणाम नहीं करेंगे ऐसा विचारकर जिन्होंने उत्कृष्ट दीक्षा धारण की थी, जिन्होंने योग्य तपश्चरणरूपी विभूतिको स्वीकार कर मोक्षरूपी लक्ष्मीके प्रति अपनी इच्छा प्रकट की थी और जिनेन्द्र भगवान् की सेवा करनेवालोंमें सबसे मुख्य हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव के पुत्र हम सबके कल्याणके लिये हों ।। २२२ ॥ | वह प्रसिद्ध श्रीमान् भरत अपने दूतों के द्वारा जिन्हें नम्रता प्राप्त नहीं करा सका और न विभाग कर जिनके साथ समस्त पृथिवीका उपभोग ही कर सका तथा जिन्होंने निर्वाणके लिये अपने पिता श्री जिनेन्द्रदेवका आश्रय लिया ऐसे अभिमानरूपी धनको धारण करनेवाले और कर्मरूपी ई धनको जलानेवाले वे मुनिराज हम सब लोगों के पापों का नाश करें ।। २२३॥ १७१ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवादमें भरतराज के छोटे भाइयोंकी दीक्षा का वर्णन करनेवाला चौंतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ 1 १ इन्द्र । २ जिनं जुषन्ते सेवन्त इति जिनजुषः तेषाम् । ३ चरैः । 'प्रणिधिः प्रार्थने चरे' इत्यभिधानात् । ४ समर्थो नाभूत् । ५ आश्रयन्ति स्म । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व अथ चक्रधरस्यासीत् किञ्चित् चिन्ताकुलं मनः । दो'बलिन्यननेतव्ये यूनि दोर्दर्पशालिनि ॥१॥ अहो भातगणोऽस्माकं नाभिनन्दति नन्दथुम्। सनाभित्वादवध्यत्वं मन्यमानोऽयमात्मनः ॥२॥ अवध्यं शतमित्यास्था नूनं भातशतस्य मे। यतः प्रणामविमुखं गतवनः प्रतीपताम् ॥३॥ न तथाऽस्मादृशां खेदो भवत्यप्रणते द्विषि । दुर्गविते यथा ज्ञातिवर्गेऽन्तर्गहतिनि ॥४॥ मुखैरनिष्टवाग्बह्रिदीपितैरतिधूमिताः। दहन्त्यलातवच्च स्वाः प्रातिकल्यानिलेरिताः ॥५॥ प्रतीपवृत्तयः२ कामं सन्तु वान्य कुमारकाः । बाल्यात् प्रभृति येऽस्माभिः स्वातन्त्र्यणोपलालिताः ॥६॥ युवा तु दोर्बली प्राज्ञः क्रमशः प्रश्रयो३ पटुः । कथं नाम गतोऽस्मासु विक्रिया सुजनोऽपि सन् ॥७॥ कथं च सोऽनु नेतव्यो५ बली मानधनोऽधुना । जयाङग यस्य दोर्दपः इलाध्यते रणमूर्द्धनि ॥८॥ सोऽयं भुजबली बाहुबलशाली मदोद्धतः । महानिव गजो माद्यन् दुर्ग्रहोऽनुनयविना ॥६॥ न स सामान्यसन्देशः प्रह्वीभवति दुर्मदी। ग्रहो दुष्ट इवाविष्टो मन्त्रविद्याचर्णविना" ॥१०॥ अथानन्तर भुजाओंके गर्वसे शोभायमान युवा बाहुबलीको वश करनेके लिये चक्रवर्तीका मन कुछ चिन्तासे आकुल हुआ ॥१॥ वह विचारने लगा कि यह हमारे भाइयोंका समूह एक ही कुलमें उत्पन्न होनेसे अपने आपको अवध्य मानता हुआ हमारे आनन्दका अभिन नहीं करता है अर्थात् हमारे आनन्द-वैभवसे ईर्ष्या रखता है ॥२॥ हमारे भाइयोंके समूहका यह विश्वास है कि हम सौ भाई अवध्य हैं इसीलिये ये प्रणाम करनेसे विमुख होकर मेरे शत्रु हो रहे हैं ॥३।। किसी शत्रुके प्रणाम न करनेपर मुझे वैसा खेद नहीं होता जैसा कि घरके भीतर रहनेवाले मिथ्याभिमानी भाइयोंके प्रणाम नहीं करनेसे हो रहा है ॥४॥ अनिष्ट वचनरूपी अग्निसे उद्दीपित हुए मुखोंसे जो अत्यन्त धूम सहित हो रहे हैं और जो प्रतिकुलतारूपी वायुसे प्रेरित हो रहे हैं ऐसे ये मेरे निजी भाई अलातचक्रकी तरह मुझे जला रहे हैं ।।५।। जिन्हें हमने बालकपनर्स ही स्वतन्त्रतापूर्वक खिला-पिलाकर बड़ा किया है ऐसे अन्य कुमार यदि मेरे विरुद्ध आचरण करनेवाले हों तो खुशीसे हों परन्तु बाहुबली तरुण, बुद्धिमान्, परिपाटीको जाननेवाला, विनयी, चतुर और सज्जन होकर भी मेरे विषयमें विकारको कैसे प्राप्त हो गया ? ॥६-७॥ जो अतिशय बलवान् है, मानरूपी धनसे युक्त है, और विजयका अङ्ग स्वरूप जिसकी भुजाओंका बल युद्धके अग्रभागमें बड़ा प्रशंसनीय गिना जाता है ऐसे इस बाहुबलीको इस समय किस प्रकार अपने अनुकूल बनाना चाहिये ॥८॥ जो भुजाओंके बलसे शोभायमान है और अभिमानरूपी मदसे उद्धत हो रहा है ऐसा यह बाहुबली किसी मदोन्मत्त बड़े हाथीके समान अनुनय अर्थात् शान्तिसूचक कोमल वचनोंके बिना वश नहीं हो सकता ।।९।। यह अहंकारी बाहुबली सामान्य संदेशोंसे वश नहीं हो सकता क्योंकि शरीरमें घुसा हुआ दुष्ट पिशाच १ बाहुबलिकुमारे। २ वशीकर्तुं योग्ये सति । ३ नाभिवर्द्धयति । ४ आनन्दम् । ५ भ्रातृगणः। ६ बहुजन एकपुरुषेणावध्य इति बुद्धया । ७ भ्रातृगणस्य प०, ल०, द० । ८ यस्मात् कारणात् । प्राप्तम् । १० प्रतिकूलत्वम् । ११ बान्धवाः। १२ प्रतिकलवर्तनाः । १३ विनयवान् । १४ विकारम् । १५ स्वीकार्यः। १६ प्रवेशितः । १७ प्रतीतः । समरित्यर्थः । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चत्रिंशत्तम पर्व १७३ शेषक्षत्रिययूनां च तस्य चास्त्यन्तरं महत् । मृगसामान्य मानायः धर्तु किं शक्यते हरिः ॥११॥ सोऽभेद्यो नीतिचुञ्चुत्वाद् दण्डसाध्यो न विक्रयी। नैष सामप्रयोगस्य विषयो विकृताशयः ॥१२॥ ज्वलत्येव स तेजस्वी स्नेहेनोपकृतोऽपि सन् । घृताहुति प्रसेकेन यथेद्धाचिर्मखानिलः ॥१३॥ स्वभावपरुष चास्मिन् प्रयुक्तं साम नार्थकृत् । वपुषि द्विरदस्येव योजितं त्वच्यमौषधम् ॥१४॥ प्रायो व्याख्यात एवास्य भावः शेषः कुमारकैः । मदाज्ञाविमुखैस्त्यक्तराज्यभोगैनोन्मुखैः ॥१५॥ भूयोऽप्यनुनयरस्य परीक्षिष्यामहे मतम् । तथाप्यप्रणते तस्मिन् विधेयं चिन्त्यमुत्तरम् ॥१६॥ ज्ञातिव्याजनिगूढान्तबिक्रियो० निष्प्रतिक्रियः। सोऽन्तर्ग्रहोत्थितो वह्निरिवाशेषं दहेत् कुलम् ॥१७॥ अन्तः प्रकृतिजः कोपो विघाताय प्रभोर्मतः । तरुशाखाग्रसंघट्टजन्मा वह्निर्यथा गिरेः ॥१८॥ तदाशु प्रतिकर्तव्यं स बली वक्रतां श्रितः। क्रूर ग्रह इवामुष्मिन् प्रशान्ते शान्तिरेव नः ॥१६॥ इति निश्चित्य कार्यज्ञं दूतं मन्त्रविशारदम्। तत्प्रान्तं प्राहिणोच्चक्री निसृष्टार्थतयाऽन्वितम् ॥२०॥ मन्त्रविद्यामें चतुर पुरुषोंके बिना वश नहीं हो सकता ॥१०॥ शेष क्षत्रिय युवाओंमें और बाहुबलीमें बड़ा भारी अन्तर है, साधारण हरिण यदि पाशसे पकड़ लिया जाता है तो क्या उससे सिंह भी पकड़ा जा सकता है ? अर्थात् नहीं। भावार्थ-हरिण और सिंहमें जितना अन्तर है उतना ही अन्तर अन्य कुमारों तथा बाहुबलीमें है ॥११॥ वह नीतिमें चतुर होनेसे अभेद्य है, अर्थात फोडा नहीं जा सकता, पराक्रमी है इसलिये यद्धमें भी वश नहीं सकता और उसका आशय अत्यन्त विकारयुक्त हो रहा है इसलिये उसके साथ शान्तिका भी प्रयोग नहीं किया जा सकता। भावार्थ-उसके साथ भेद, दण्ड और साम तीनों ही उपायोंसे काम लेना व्यर्थ है ॥१२॥ जिस प्रकार यज्ञकी अग्नि घीकी आहुति पड़नेसे और भी अधिक प्रज्वलित हो उठती है उसी प्रकार वह तेजस्वी बाहुवली स्नेह अर्थात् प्रेमसे उपकृत होकर और भी अधिक प्रज्वलित हो रहा है क्रोधित हो रहा है ।।१३। जिस प्रकार हाथीके शरीरपर लगाई हुई चमड़ाको कोमल करनेवाली औपधि कुछ काम नहीं करती उसी प्रकार स्वभावसे ही कठोर रहनेवाले इस बाहुबलीके विषयमें साम उपायका प्रयोग करना भी कुछ काम नहीं देगा ।।१४।। जो मेरी आज्ञासे विमुख हैं, जिन्होंने राज्यभोग छोड़ दिये हैं और जो वनमें जाने के लिये उन्मुख हैं ऐसे बाकी समस्त राजकुमारोंने इसका अभिप्राय प्रायः प्रकट ही कर दिया है ।।१५।। यद्यपि यह सब है तथापि फिर भी कोमल वचनोंके द्वारा उसकी परीक्षा करेंगे। यदि ऐसा करनेपर भी नम्रीभूत नहीं हुआ तो फिर आगे क्या करना चाहिये इसका विचार करना चाहिये ।।१६॥ भाईपनेके कपटसे जिसके अन्तरङ्गमें विकार छिपा हुआ है और जिसका कोई प्रतिकार नहीं है ऐसा यह बाहबली घरके भीतर उठी हई अग्नि के समान समस्त कुलको भस्म कर देगा ॥१७॥ जिस प्रकार वक्षोंकी शाखाओंके अग्रभाग की रगड़से उत्पन्न हुई अग्नि पर्वतका विघात करनेवाली होती है उसी प्रकार भाई आदि अन्तरङ्ग प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ प्रकोप राजाका विघात करनेवाला होता है ।।१८।। यह बलवान् बाहुबली इस समय प्रतिकूलताको प्राप्त हो रहा है इसलिये इसका शीघ्र ही प्रतिकार करना चाहिये क्योंकि क्रूर ग्रहके समान इसके शान्त हो जानेपर ही मुझे शान्ति हो सकती है ॥१९॥ ऐसा निश्चय कर चक्रवर्तीने कार्यको जाननेवाले मन्त्र करने में चतुर तथा निःसृष्टार्थतासे सहित १ भेदः । 'अन्तरमवकाशावधि परिधानान्तद्धि भेदतादर्थ्य' इत्यभिधानात् । २ सामान्यं कृत्वा । ३ जालैः । 'आनायं पंसि जालं स्यात्' इत्यभिधानात् । ४ यज्ञाग्निः । ५ कार्यकारी न । ६ त्वचे हितम् । ७ मम शासनम् । ८ वनाभिमुखैः । अभिप्रायः। १० अन्तर्राविकारः। ११ गहं गोत्रं च । १२ स्ववर्गे जातः । १३ असकृत् सम्पादितप्रयोजनतया । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ महापुराणम् उचितं य ग्यमारूढो वयसा नातिकर्कशः। अनु द्धतेन वेषेण प्रतस्थे स तदन्तिकम् ॥२२॥ आत्मनेव द्वितीयेन स्निग्धनानुगतो द्रुतम्। निजानु जीविलोकेन' हस्तशम्बल वाहिना ॥२२॥ सोऽन्वीपं वक्ति चेदेवम् अहं ब्रूयामकत्थनः । विगृह्य यदि स ब्रूयाद् विरहं विग्रहे घटे ॥२३॥ सन्धि च पणबन्धं च कुर्यात् सोऽन्तरमेव नः। विक्रम्य क्षिप्रमेष्यामि विजिगीषावसडागते१३ ॥२४॥ गुणयन्निति सम्पत्तिविपत्ती स्वा-यपक्षयोः । स्वयं निगूढमत्रत्वाद् अनि टोऽन्यमन्त्रिभिः ॥२५॥ मन्त्रभेदभयाद् गूढं स्वपन्नेकः" प्रयाणके । युद्धापसारभूमीश्च५ स पश्यन् दूरमत्यगात् ॥२६॥ ( क्रमेण देशान् सिन्धंश्च देशसन्धींश्च सोऽतियन् । प्रापत् साख्यातरात्रैस्तत् पुरं पोदन साह्वयम् ॥२७॥) बहिःपुरमथासाद्य रम्याः सस्यवतीर्भुवः। पक्वशालिवनोद्देशान् स पश्यन् प्राप नन्दथुम् ॥२८॥ पश्यन् स्तम्बकरिस्तम्बान प्रभूतफल शालिनः । कृतरक्षान् जनैर्यत्नात् स मेने स्वाथिनं जनम् ॥२६॥ सकटुम्बिभि"रुद्दात्रै:२५ न त्यद्भिरभिनन्दितान । केदारलाव सङ्घर्षतू घोषान्यशामयत्॥३०॥ दूतको बाहुबलीके समीप भेजा। - भावार्थ-जिस दूतके ऊपर कार्य सिद्ध करनेका सब भार सौंप दिया जाता है वह निःसृष्टार्थ दूत कहलाता है। यह दूत स्वामीके उद्देश्यको रक्षा करता हुआ प्रसङ्गानुसार कार्य करता है । चक्रवर्ती भरतने ऐसा ही दूत बाहुबलीके पास भेजा था ॥२०॥ जो उमरमें न तो बहुत छोटा था और न बहुत बड़ा ही था ऐसा वह दूत अपने योग्य रथ पर सवार होकर नमताके वेषसे बाहबलीके समीप चला ॥२१॥ जिसने माग में काम आनेवाली भोजन आदिकी समस्त सामग्री अपने साथ ले रखी है और जो प्रेम करनेवाला है ऐसे अपने ही समान एक सेवकसे अनुगत होकर वह दूत बहाँसे शीघ्र ही चला ॥२२॥ वह दुत मार्गमें विचार करता जाता था कि यदि वह अनुकल बोलेगा तो मैं भी अपनी प्रशंसा किये बिना ही अनुकूल बोलूंगा और यदि वह विरुद्ध होकर युद्धकी बात करेगा तो मैं युद्ध नहीं होने के लिये उद्योग करूँगा ॥२३॥ यदि वह सन्धि अथवा पणबन्ध (कुछ भेंट देना आदि) करना चाहेगा तो मेरा यह अन्तरङ्ग ही है अर्थात् मैं भी यही चाहता हूँ, इसके सिवाय यदि वह चक्रवर्तीको जीतनेकी इच्छा करेगा तो मैं भी कुछ पराक्रम दिखाकर शीघ वापिस लौट आऊँगा ॥२८॥ इस प्रकार जो अपने पक्षकी सम्पत्ति और दूसरेके पक्षको विपत्तिका विचार करता जाता था, जो अपने मन्त्रको छिपाकर रखनेसे दूसरे मन्त्रियोंके द्वारा कभी फोड़ा नहीं जा सकता था और जो मन्त्रभेदके डरसे पड़ावपर किसी एकान्त स्थानमें गप्त रीतिसे शयन करता था ऐसा कह दूत युद्ध करने तथा उससे निकलनेकी भूमियोंको देखता हुआ वहुत दूर निकल गया ॥२५-२६।। क्रम क्रमसे अनेक देश, नदी और देशोंकी सीमाओंका उल्लंघन करता हुआ वह दूत बाहुबली के पोदनपुर नामक नगरमें जा पहुँचा ॥२७॥ नगरके बाहर धानोंसे युक्त मनोहर पृथिवी को पाकर और पके हुए चावलोंके खेतोंको देखता हुआ वह दूत बहुत ही आनन्दको प्राप्त हुआ था ॥२८॥ जो वहतसे फलोंसे शोभायमान हैं और किसानोंके द्वारा बडे यत्नसे जिनकी रक्षा की जा रही है ऐसे धानके गुच्छोंको देखते हुए दूतने मनुष्योंको बड़ा स्वार्थी समझा था ॥२९॥ जो खेतोंको देखकर आनन्दसे नाच रहे हैं और खेत काटने के लिये जिन्होंने हँसिया ऊँचे उठा रखे १ वाहनम् । 'सर्वं स्याद् वाहनं धानं युग्यं पत्र च धोरणम्' इत्यभिधानात् । २ अनुचरजनन । ३ पाथेय । ४ अनुकूलम् । ५ अनकूलवृत्त्या । ६ अश्लाघमानः ।--मरच्छनः ल०। ७ कलहं कृत्वा । ८ नाशम् । १ करोमि । १० निष्कग्रन्थिम् । प्राभूतमित्यर्थः । ११ विक्रम कृत्वा । १२ आगन्द्रामि । १३ सन्धि न गते सति । १४ शयान:। १५ युद्धापसारणयोग्यभूमिः । १६-मभ्यगात् ल., प., अ०, स०। १७ नदीः । १८ देशसीम्नः। १६ अतीत्य गच्छन् । २० आनन्दम् । २१ व्रीहिगुच्छान् । 'धान्यं व्रीहिः स्तम्बकरिः स्तम्वो गुच्छस्तृणादितः ।' इत्यभिधानात् । २२ बहल । २३ निजप्रयोजनवन्तम् । २४ कृषीवलैः २५ उद्गतलवित्रः। २६ छेदन। २७ सम्मर्द। २८ अशुणोत् । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व क्वचिच्छ कमुखाकृष्टकणाः' कणिशमञ्जरीः । शालिवप्रेषु सोऽपश्यद् विर्भुक्ता इव स्त्रियः ॥३१॥ सुगन्धिकलमामोदसंवादिश्वसि तानिलः । वासयन्तीदिशः शालिकणिशैरवतंसिताः ॥३२॥ पीनस्तनतटोत्सङगगलधर्माम्बु बिन्दुभिः । मुक्तालडकारजां लक्ष्मी घटयन्तीनिजोरसि ॥३३॥ सरजोऽब्जरजःकीर्णसीमन्तरुचिरैः कचैः। 'चडामाबध्नतीः स्वरग्रन्थितोत्पलदामकः ॥३४॥ दधतीरातपक्लान्तमुखपर्यन्तसङगिनीः । लावण्यस्येव कणिकाः श्रमघम्बुिविपुषः ॥३५॥ शुकान शुकच्छदच्छायः रुचिराडगीस्तनांशुकैः। छोत्कुर्वतीः कलक्वाणं सोऽपश्यच्छालिगोपिकाः ॥३६॥ भमद्य कुटीयन्त्रचीत्कारैरिक्षवाटकान् । फुत्कुर्वत इवादाक्षीद् प्रतिपीडाभयेन सः ॥३७॥ उपक्षेत्रं च गोधेन : महोधोभरमन्थराः । वात्सकेनोत्सुकाः स्तन्यं क्षरतोनिचचाय सः ॥३८॥ इति रम्यान पुरस्यास्य सीमान्तान् स विलोकयन् । मेने कृतार्थमात्मानं लब्धतद्दर्शनोत्सवम् ॥३६॥ उपशल्यभुवः१२ कुल्याप्रणालीप्रसृतोदकाः । शालीक्षुजीरकक्षेत्रः वृतास्तस्य३ मनोहरन् ॥४०॥ वापोकूपतडागश्च सारामरम्बुजाकरैः । पुरस्यास्य बहिर्देशाः तेनादृश्यन्तं हारिणः ॥४॥ पुरगोपुरमुल्लङघय स निचायन वणिकपथान । लत्र "पूगीकृतान् मेने रत्नराशीन्निधोनिव ॥४२॥ है ऐसे कुटम्ब सहित किसानों के द्वारा प्रशंसनीय, खेत काटने के संघर्षके लिये बजती हुई तुरईके शब्दोंको भी वह दूत सुन रहा था ।।३०। कहीं धानके खेतोंमें वह दूत जिनके कुछ दाने तोताओं ने अपने मखसे खींच लिये हैं ऐसी बालोंके समूह इस प्रकार देखता था मानो विट पुरुषोंके द्वारा भोगी हुई स्त्रियां ही हों ॥३१॥ जो सुगन्धित धानकी सुगन्धिके समान सुवासित अपनी श्वासकी वायुसे दशों दिशाओंको सुगन्धित कर रही थीं, जिन्होंने धानकी वालोंसे अपने कानों के आभूषण बनाये थे, जो अपने वक्षःस्थलपर स्थूल स्तनतटके समीपमें गिरती हुई पसीने की बूंदोंसे मोतियोंके अलंकारसे उत्पन्न होनेवाली शोभाको धारण कर रही थीं, जो परागसहित कमलोंकी रजसे भरे हुए माँगसे सुन्दर तथा अच्छी तरह गुथी हुई नीलकमलोंकी मालाओंसे सुशोभित केशोसे चोटियाँ बाँधे हुई थीं, जो वापसे दुःखी हुए मुखपर लगी हुई सौन्दर्यके छोटे छोटे टुकड़ों के समान पसीने की बूंदों को धारण कर रही थीं, जिनके शरीर तोतेके पंखोंके समान कान्ति बाली-हरी हरी चोलियोंसे सुशोभित हो रहे थे, और जो मनोहर शब्द करती हुई छो छो करके तोतोंको उड़ा रही थी ऐसी धानकी रक्षा करनेवाली स्त्रियाँ उस दूतने देखीं ।।३२-३६।। जो चलते हुए कोल्हुओंके चीत्कार शब्दों के बहाने अत्यन्त पीड़ासे मानो रो ही रहे थे ऐसे ईखके खेत उस दूतने देखे ॥३७।। खेतोंके समीप ही, बड़े भारी स्तनके भारसे जो धीरे धीरे चल रही है, जो बछड़ों के समूहमे उत्कण्ठित हो रही हैं और जो दूध झरा रही है ऐसी नवीन प्रसूता गायें भी उसने देखी ।।३८।। इस प्रकार इस नगरके मनोहर सीमाप्रदेशों को देखता हुआ और उन्हें देखकर आनन्द प्राप्त करता हुआ वह दुत अपने आपको कृतार्थ मानने लगा ॥३९॥ जिनके चारों ओर नहरकी नालियोंसे पानी फैला हुआ है और जो धान ईख और जीरे के खेतोंसे घिरी हुई है ऐसी उस नगरके बाहरकी पृथिवियां उस दूतका मन हरण कर रही थीं ।।४०।। बावड़ी, कुएं, तालाब, बगीचे और कमलोंके समूहोंसे उस नगरके बाहरके प्रदेश उस दूतको वहत ही मनोहर दिखाई दे रहे थे ॥४१॥ नगरके गोपुरद्वारको १ धान्यांशाः । २ केदारेषु । ३ परिस्पधि । ४ उच्छवास । ५ शिखाम् । 'शिखा चूडा केशपाशः' इत्यभिधानात् । ६ इच्छयन्त्रगृह । ७ क्षेत्रसमीपे । ८ गोनवसूतिकाः । 'धेनुः स्यान्नवप्रसूतिका' इत्यभिधानात्। महापीनभारमन्दगमनाः । १० क्षीरम् । ११ ददर्श । 'चाया पूजानिशामनयोः' । १२ ग्रामानामः । 'ग्रामान्तमपशल्यं स्याद्' इत्यभिधानात् । १३ दुतस्य । १४ बन्दीकृतान् । 'पूगः मकवृन्दपोः' इत्यभिधानात् । पुजीतानित्यर्थ पुजीकृतान् ल । पुगतान अ०, प०, स०, इ० । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ महापुराणम् नपोपायनवाजीभलालामदजलाविलम्। कृतच्छटमिवालोक्य सोऽभ्यनन्दन्नृपाङ्गणम् ॥४३॥ स निवेदितवृत्तान्तो महादौवारपालकैः । नपं नपासनासीनम् उपासी'दद् वचोहरः ॥४४॥ पृथुवक्षस्त ट तुडगमुकुटोदनशृङगकम् । जयलक्ष्मीविलसिन्याः क्रीडाशैलमिवैककम् ॥४५॥ ललाटपट्टमारुढपट्टबन्ध सुविस्तृतम् । जयश्रिय इवोद्वाहपट्ट दधतमुच्चकः ॥४६॥ दधानं तुलिताशेषराजन्यकयशोधनम् । तुलादण्डमिवोदूढभूभारं भुजदण्डकम् ॥४७॥ मुखेन पङकजच्छायां नेत्राभ्यामुत्पल श्रियम् । दधानमप्यना सन्नविजातिमजलाशयम् ॥४८॥ विभ्राणमतिविस्तीर्ण मनो वक्षश्च यद्वयम् । वाग्देवीकमलावत्योः गतं नित्यावकाशताम् ॥४६॥ रक्षावृत्तिपरिक्षेपं गुणग्रामं महाफलम्। निवेशयन्तमात्माङगे मनःसु च महीयसाम् ॥५०॥ स्फुरदाभरणोद्योतच्छधना निखिला दिशः। प्रतापज्वलनेनेव लिम्पन्तमलघीयसा ॥५१॥ मुखेन चन्द्रकान्तेन पद्मरागेण चारुणा । चरणेन विराजन्तं वज़सारेण वर्मणा ॥५२॥ उल्लंघन कर बाजारके मार्गोंको देखता हुआ वह दूत वहाँ इकट्ठी की हुई रत्नोंकी राशियोंको निधियोंके समान मानने लगा ॥४२॥ जो राजाकी भेंटमें आये हुए घोड़े और हाथियोंकी लार तथा मदजलसे कीचड़सहित हो रहा था और उससे ऐसा मालूम होता था मानो उसपर जल ही छींटा गया हो ऐसे राजाके आँगनको देखकर वह दूत बहुत ही प्रसन्न हो रहा था ॥४३।। जिसने मुख्य मुख्य द्वारपालोंके द्वारा अपना वृत्तान्त कहला भेजा है ऐसा वह दूत राजसिंहासन पर बैठहए महाराज बाहुबलीक समीप जा पहुँचा ॥४४॥ वहाँ जाकर उसन महाराज बाहुबलीको देखा, उनका वक्षःस्थल किनारे के समान चौड़ा था, वे स्वयं ऊंचे थे और उनका मकट शिखरके समान उन्नत था इसलिये वे विजयलक्ष्मीरूपी स्त्रीके क्रीड़ा करनेके लिये एक अद्वितीय पर्वतके समान जान पड़ते थे-जिसपर यह बंधा हुआ है ऐसे लम्बे-चौड़े ललाटपट्टको धारण करते हुए वे ऐसे जान पड़ते थे मानो विजयलक्ष्मीका उत्कृष्ट विवाहपट्ट ही धारण कर रहे हों। वे बाहुबली स्वामी, जिसने समस्त राजाओंका यशरूपी धन तोल लि और जिसने समस्त पृथिवीका भार उठा रक्खा है ऐसे तराजूके दण्डके समान भुजदण्डको धारण कर रहे थे-यद्यपि वे मुखसे कमलकी और नेत्रोंसे उत्पलकी शोभा धारण कर रहे थे तथापि उनके समीप न तो विजाति अर्थात् पक्षियोंकी जातियाँ थीं और न वे स्वयं जलाशय अर्थात सरोवर ही थे। भावार्थ-इस श्लोकमें विरोधाभास अलंकार है इसलिय विरोधका परिहार इस प्रकार करना चाहिये कि वे यद्यपि मुख और नेत्रोंसे कमल तथा उत्पलकी शोभा धारण करते थे तथापि उनके पास विजाति अर्थात वर्णसंकर लोगोंका निवास नहीं था और न वे स्वयं जलाशय अर्थात् जड़ आशयवाले मूर्ख ही थे। वे बाहुबली जिनपर क्रमसे सरस्वती देवी और लक्ष्मीदेवीका निरन्तर निवास रहता था ऐसे अत्यन्त विस्तृत (उदार और लम्बे चौड़े) मन और वक्षःस्थलको धारण कर रहे थे-वे, प्रजाकी रक्षाके कारण तथा बड़े बड़े फल देनेवाले गुणोंके समूहको अपने शरीरमें धारण कर रहे थे और अन्य महापुरुषोंके मनमें धारण कराते थे-वे अपने देदीप्यमान आभूषणोंकी कान्तिके छलसे ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने विशाल प्रतापरूपी अग्निसे समस्त दिशाओंको लिप्त ही कर रहे हों। वे चन्द्रकान्त मणिके समान मुखसे, पद्मराग मणिके समान सुन्दर चरणोंसे और वजूके समान सुदृढ़ अपने १ परनपैः प्राभतीकृत । २ कर्दमितम् । ३ उपागमत् । ४ सानुम् । ५ अनासनहीनजातिम् । पक्षे पक्षिजातिम् । ६ अमन्दबुद्धिम् । ७ सरस्वतीलक्ष्म्योः । ८ गुणसमूहम् । निगम (गांव) मिति ध्वनिः । ६ चन्द्रवत् कान्तेन । चन्द्रकान्तशिलयेति ध्वनिः । १० पद्मवदरुणेन । पभरागरत्नेनेति ध्वनिः ११ वज़वत् स्थिरावयवेन । वज्रान्तःसारेणेति ध्वनिः । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व १७७ हरिन्मणिमयस्तम्भमिवैकं हरितत्विषम् । लोकावष्टम्भमाधातुं सृष्टमाद्येन वेधसा ॥५३॥ सर्वाङगसङगतं तेजो दधानं क्षात्रमूजितम् । नूनं तेजोमयरेव घटितं परमाणुभिः॥५४॥ समित्यालोकयन् दूराद् धाम्नः पुञ्जमिवोच्छिखम् । चचाल प्रणिधिः किञ्चित् प्रणिधाना निधीशितुः ५५ प्रणश्चरणावेत्य दधदूरानतं शिरः । ससत्कारं कुमारेण नातिदूरे न्यवेशि सः ॥५६॥ तं शासनहरं जिष्णोः निविष्टमुचितासने। कुमारो निजगादेति स्मितांशून् विष्वगाकिरन् ॥५७॥ चिराच्चक्रधरस्याद्य वयं 'चिन्त्यत्वमागताः । भद्र भद्रं जगद्भर्तुर्बहुचिन्त्यस्य चक्रिणः ॥५८॥ विश्वक्ष त्रजयोद्योगम् अद्यापि न समापयन् । स कच्चिद् भूभुजां भर्तुः कुशली दक्षिणो भुजः ॥५६॥ श्रुता विश्वदिशः सिद्धा जिताश्च निखिला नृपाः । कर्तव्यशेषमस्याद्य किमस्ति वद नास्ति वा ॥६०॥ इति प्रशान्तमोजस्वि वचःसार मिताक्षरम् । वदन् कुमारो दूतस्य वचनावसरं१३ व्यधात् ॥६॥ अथोपाचक्रमे वक्तुं वचो हारि" वचोहरः । वागर्थाविव सम्पिण्डय५ दर्शयन् दशनांशुभिः ॥६२॥ त्वद्वचः सम्मुखीनेऽस्मिन् कार्य सुव्यक्तमीक्ष्यते । असंस्कृतोऽपि यत्रार्थ प्रत्यक्षयति मादृशः२० ॥६३॥ वयं वचोहरा नाम प्रभोः शासनहारिणः। गुणदोषविचारेषु मन्दास्तच्छन्द वतिनः ॥६४॥ शरीरसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे। उनकी कान्ति हरे रङ्गकी थी इसलिये वे ऐसे जान पडते थे मानो आदि ब्रह्मा भगवान वषभदेवके द्वारा लोकको सहारा देनेके लिये बनाया हुआ हरित मणियोंका एक खम्भा ही हो। समस्त शरीरमें फैले हुए अतिशय श्रेष्ठ क्षात्रतेज को धारण करते हुए महाराज बाहुबली ऐसे जान पड़ते थे मानो तेजरूप परमाणुओंसे ही उनकी रचना हुई हो। जिसकी ज्वाला ऊपरकी ओर उठ रही है ऐसे तेजके पुंजके समान महाराज बाहुबलीको दूरसे देखता हुआ वह चक्रवर्तीका दूत अपने ध्यानसे कुछ विचलित-सा हो गया अर्थात् घबड़ा-सा गया ।।४५-५५॥ दूरसे ही झुके हुए शिरको धारण करनेवाले उस दूतने जाकर कुमारके चरणोंमें प्रणाम किया और कुमारने भी उसे सत्कारके साथ अपने समीप ही बैठाया ॥५६॥ कमार बाहबली अपने मन्द हास्यकी किरणोंको चारों ओर फैलाते हए योग्य आसनपर बैठे हुए उस भरतके दूतसे इस प्रकार कहने लगे ।।५७।। कि आज चक्रवर्ती ने बहुत दिनमें हम लोगोंका स्मरण किया, हे भद्र, जो समस्त पृथिवीके स्वामी हैं और जिन्हें बहुत लोगोंको चिन्ता रहती है ऐसे चक्रवर्तीकी कुशल तो है न ? ॥५८।। जिसने समस्त क्षत्रियोंको जीतनेका उद्योग आज तक भी समाप्त नहीं किया है ऐसे राजाधिराज भरतेश्वर की वह प्रसिद्ध दाहिनी भुजा कुशल है न ? ||५९।। सुना है कि भरतने समस्त दिशाएँ वश कर ली हैं और समस्त राजाओंको जीत लिया है। हे दूत, कहो अब भी उनको कुछ कार्य बाकी रहा है या नहीं ? ॥६०॥ इस प्रकार जो अत्यन्त शान्त हैं, तेजस्वी हैं, साररूप हैं, और जिनमें थोड़े अक्षर हैं ऐसे वचन कहकर कुमारने दूतको कहने के लिये अवसर दिया ।।६१॥ तदनन्तर दाँतोंकी किरणोंसे शब्द और अर्थ दोनोंको मिलाकर दिखलाता हुआ दूत मनोहर वचन कहने के लिये तैयार हुआ ॥६२॥ वह कहने लगा कि हे प्रभो, आपके इस वचनरूपी दर्पणमें आगेका कार्य स्पष्ट रूपसे दिखाई देता है क्योंकि उसका अर्थ मुझ जैसा मूर्ख भी प्रत्यक्ष जान लेता है ॥६३॥ हे नाथ, हम लोग तो दूत हैं केवल स्वामीका समाचार ले जाने १ आधारम् । २ आदिब्रह्मणेत्यर्थः । ३ सप्ताङग अथवा सर्वशरीर। ४ इव । ५ धाम्नां तेजसाम् । ६ चरः। ७ गुणदोषविचारानुस्मरणं प्रणिधानम्, तस्मात् । अभिप्रायादित्यर्थः । ८ चिन्तित योग्याश्चिन्त्याः तेषां भावः चिन्त्यत्वम् । ६ कुशलम् । १० क्षेत्र-इ० । ११ सम्पूर्ण न कुर्वन् । १२ किम् । १३ वचनस्यावसरम् । १४ मनोज्ञम् । १५ पिण्डीकृत्य । १६ दन्तकान्तिभिः । १७ तव वागदर्पण। १८ संस्काररहितः । १६ प्रत्यक्षं करोति । २० मविधः । २१ चक्रिवशवतिनः । -च्छन्दचारिणः ल०, द० । २३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८८ महापुराणम् ततश्चक्रेणायं यदादिष्ट प्रियोचितम्। प्रयोक्तृगौरवादेव तद्ग्राह्यं साध्वसाधु वा ॥ ६५॥ गुरोर्वचनमादेयम् श्रविकल्पयेति' या श्रुतिः । तत्प्रामाण्यादमुष्याज्ञा संविधेया त्वयाधुना ॥ ६६ ॥ ऐक्ष्वाकः प्रथमो रातां भरतो भववप्रजः परिक्रान्ता मही कृत्स्ना येन नामयताऽमरान् ॥ ६७॥ गाद्वारं समुहलाच यो रथेनाप्रतिष्कशः । चलदाविद्धकल्लोल म् अकरोन्मकरालयम् ॥६८॥ शरव्याजः प्रतापाग्निः ज्वलत्यस्य जलेऽम्बुधः । पप न केवलं वाडि मानं च त्रिदिवौकसाम् ॥६६॥ मा नाम प्रणति यस्य 'ब्राजिषुर्मुसदः कथम् । प्राकृष्टाः शरपाशेन प्राप्वंकृत्य गले बलात् ॥७०॥ 'शरव्यमकरोद् यस्य शरपातो महाम्बुधौ । प्रसभं मगधावासं क्रान्तद्वादशयोजनः ॥ ७१ ॥ विजयार्द्धाचल यस्य विजयो घोषितोऽमरैः । जयतो विजयार्द्धशं शरेणामोघपातिना ॥ ७२ ॥ कृतमालादयो देवा गता यस्य विधेयताम्' । "कृतमस्योभयश्रेणीन" भोगजयवर्णनः ॥७३॥ गुहामुखमपध्वान्तं व्यतीत्य जयसाधनंः । उत्तरां विजयार्द्धाद्रिः यो व्यगाहत तां महीम् ॥७४॥ म्लेच्छाननिच्छतोऽप्याज्ञां प्रच्छाद्य र जयसाधनैः । सेनान्या यो जयं प्राप बलादाच्छिद्य " तद्धनम् ॥७५॥ वाले हैं हम लोग सदा स्वामीके अभिप्रायके अनुसार चलते हैं तथा गुण और दोषोंका विचार करनेमें भी असमर्थ हैं ।। ६४ ।। इसलिये हे आर्य, चक्रवर्तीने जो प्रिय और उचित आज्ञा दी है वह अच्छी हो या बुरी, केवल कहनेवालेके गौरवसे ही स्वीकार करने योग्य है ||६५॥ गुरुके वचन बिना किसी तर्क-वितर्कके मान लेना चाहिये यह जो शास्त्रका वचन है उसे प्रमाण मानकर इस समय आपको चक्रवर्तीकी आज्ञा स्वीकार कर लेनी चाहिये ॥ ६६ ॥ वह भरत इक्ष्वाकुवंशम उत्पन्न हुआ है अथवा इक्ष्वाकु अर्थात् भगवान् वृषभदेवका पुत्र है, राजाओं में प्रथम है, आपका बड़ा भाई है और इसके सिवाय देवोंसे भी नमस्कार कराते हुए उसने समस्त पृथिवी अपने वश कर ली है ॥६७॥ उसने गंगाद्वारको उल्लंघन कर अकेले ही रथपर बैठकर समुद्रको जिसकी चञ्चल लहरें एक दूसरे से टकरा रही हैं ऐसा कर दिया ।। ६८ ।। बाणके बहाने से इसकी प्रतापरूपी अग्नि समुद्रके जलमें भी प्रज्वलित रहती है, उस अग्निने केवल समुद्र को ही नहीं पिया है किन्तु देवोंका मान भी पी डाला है ॥ ६९ ॥ भला, देव लोग उसे कैसे न नमस्कार करेंगे ? क्योंकि उसने बाणरूपी जालसे गलेमें बांधकर उन्हें जबर्दस्ती अपनी ओर खींच लिया था ||७०|| बारह योजन दूरतक जानेवाले उसके बाणने महासागर में रहने वाले मागधदेव के निवासस्थानको भी जबर्दस्ती अपना निशाना बनाया था ॥ ७१ ॥ व्यर्थ न जानेवाले बाणके द्वारा विजयार्थ पर्वतके स्वामी विजयार्थदेवको जीतनेवाले उस भरतको विजय घोषणा देवोंने भी की थी ||७२॥ कृतमाल आदि देव उसकी आधीनता प्राप्त कर चुके हैं और उत्तर दक्षिण दोनों श्रेणियोंके विद्याधरोंने भी उसकी जयघोषणा की है ॥७३॥ जिसका अन्धकार दूर कर दिया गया है ऐसे गुफाके दरवाजेको अपनी विजयी सेनाके साथ उल्लंघन कर उसने विजयार्ध पर्वतकी उत्तर दिशाकी भूमिपर भी अपना अधिकार कर लिया है ॥७४॥ म्लेच्छ लोग यद्यपि उसकी आज्ञा नहीं मानना चाहते थे तथापि उसने सेनापतिके द्वारा अपनी १ उपदेशितम | २ भेदमकृत्वा । ३ इक्ष्वाकोः सकाशात् संजातः । ४ असहायः । ५ परस्परताडित । अथवा कुटिल । 'आविद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं वमित्यभिधानात् । ६ अगः । माध्योगादडभावः । ७] बन्धनं कृत्वा । 'प्राध्वं बन्धे' इति सुषेण तिसंज्ञायां "तिदुस्वत्यान्यस्त सत्पुरुषः इति समासः समासे को नव्नः प्यः इति क्त्वाप्रत्ययस्य' प्यादेशः । ८ लक्ष्यम् । विनयप्राहिताम | 'विनेयो विनयग्राही' इत्यभिधानात् । १० पर्याप्तम् । ११ श्रेणीनभोगैर्जयवर्णनम् ० ० । श्रेणिनभोजयवर्णने ल० । १२ अपगतान्धकारं कृत्वा । १३ संवेष्टय | १४ बलादाकृष्य । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व कृतोऽभिषेको यस्याराद् अभ्यत्य सुरसत्तमैः । यस्याचलेन्द्रकूटेषु स्थलपदायितं यशः ॥७६॥ रत्नाधैः पर्युपासातां यं स्वर्धन्यधिदेवते । वृषभाद्रितटे येन टङकोत्कीणं कृतं यशः ॥७७॥ घटदासीकृता लक्ष्मीः सुराः किङकरतां गताः । यस्य स्वाधीनरत्नस्य निधयः सुवते धनम् ॥७८॥ स यस्य जयसैन्यानि निजित्य निखिला दिशः । भमन्ति स्माखिलाम्भोधितटान्तवनभूमिषु ॥७॥ त्वामायुष्मन् जगन्मान्यो मानयन कुशलाशिषा । समादिशन्ति चक्राङका प्रथयन्नधिराजताम् ॥८॥ मदीयं राज्यमाक्रान्तनिखिलद्वीपसागरम् । राजतेऽस्मत्प्रियभात्रा न बाहुबलिना विना ॥१॥ ताः सम्पदस्तदैश्वयं ते भोगाः स परिच्छदः । ये समं बन्धुभिर्भुक्ताः संविभक्तसुखोदयः ॥८२॥ अन्यच्च नमिताशेषनसुरासुरखेचरम् । नाधिराज्यं विभात्यस्य प्रणामविमुखे त्वयि ॥३॥ न दुनोति मनस्तीवं रिपुरप्रणतस्तथा । बन्धुरप्रणमन् गर्वाद दुविदग्धो यथा प्रभुम् ॥८४॥ 'तदुपेत्य प्रणामेन पूज्यतां प्रभुरक्षमी । प्रभुप्रणतिरेवेष्टा प्रसूतिर्ननु सम्पदाम् ॥८॥ अवन्ध्यशासनस्यास्य शासनं ये विमन्वते । शासनं द्विषतां तेषां चक्रमप्रतिशासनम् ॥८६॥ प्रचण्डदण्डनिर्घात निपातपरिखण्डितान् । तदाज्ञाखण्डनव्यग्रान् पश्यनान्० मण्डलाधिपान् ॥८७॥ सेनासे हराकर और जबरदस्ती उनका धन छीनकर उनपर विजय प्राप्त की है ।।७५।। अच्छे अच्छे देवोंने आकर उसका अभिषेक किया है और उसका निर्मल यश बड़े बड़े पर्वतोंकी शिखरों पर स्थलकमलोंके समान सुशोभित हो रहा है ॥७६॥ गङ्गा-सिन्धु दोनों नदियोंके देवताओं ने रत्नोंके अर्थोके द्वारा उसकी पूजा की है तथा वृषभाचलके तटपर उसने अपना यश टांकीसे उघेर कर लिखा है ॥७७॥ उसने लक्ष्मीको घटदासी अर्थात् पानी भरनेवाली दासीके समान किया है, देव उसके सेवक हो रहे हैं, समस्त रत्न उसके स्वाधीन हैं और निधियाँ उसे धन प्रदान करती रहती हैं।७८।। और उसकी विजयी सेनाओंने समस्त दिशाओंको जीतकर सब समुद्रों के किनारे के वनोंकी भूमिमें भूमण किया है ॥७९॥ हे आयुष्मन्, जगत्में माननीय वही महाराज भरत अपने चक्रवर्तीपनको प्रसिद्ध करते हए कल्याण करनेवाले आशीर्वादसे आपका सन्मान कर आज्ञा कर रहे हैं ॥८०॥ कि समस्त द्वीप और समुद्रों तक फैला हुआ, यह हमारा राज्य हमारे प्रिय भाई बाहुबलीके बिना शोभा नहीं देता है ।।८१।। सम्पत्तियाँ वही हैं, ऐश्वर्य बही है, भोग वही है और सामग्री वही है जिसे भाई लोग सुखके उदयको बाँटते हुए साथ साथ उपभोग करें ॥८२॥ दूसरी एक बात यह है कि आपके प्रणाम करनेसे विमुख रहनेपर जिसमें समस्त मनुष्य, देव, धरणेन्द्र और विद्याधर नमस्कार करते हैं ऐसा उनका चक्रवर्तीपना भी सुशोभित नहीं होता है ।।८३॥ प्रणाम नहीं करनेवाला शत्रु स्वामीके मन को उतना अधिक दुखी नहीं करता है जितना कि अपनेको झूठमूठ चतुर माननेवाला और अभिमानसे प्रणाम नहीं करनेवाला भाई करता है ॥८४॥ इसलिये आप किसी अपराधकी क्षमा नहीं करनेवाले महाराज भरतके समीप जाकर प्रणामके द्वारा उनका सत्कार कीजिये क्योंकि स्वामीको प्रणाम करना अनेक सम्पदाओंको उत्पन्न करनेवाला है और यही सबको इष्ट है ॥८५॥ जिसकी आज्ञा कभी व्यर्थ नहीं जाती ऐसे उस भरतकी आज्ञाका जो कोई भी उल्लंघन करते हैं उन शत्रुओंका शासन करनेवाला उसका वह चक्ररत्न है जिसपर स्वयं किसीका शासन नहीं चल सकता ।।८६।। आप भरतकी आज्ञाका खण्डन करनेसे व्याकुल हुए इन मण्डलाधिपति राजाओंको देखिये जो भयंकर दण्डरूपी वजके गिरनेसे खण्ड खण्ड १ अपूजयताम् । २ गङगासिन्धू देव्यौ। ३ पूजयन् । ४ चक्रिणः । ५ तत्कारणात् । ६ आज्ञाम् । ७ अवज्ञां कुर्वन्ति । ८ शिक्षकम् । दण्डरत्नाशनि। १० पश्यैतान् ब०, अ०, ५०, द०, स०, इ० । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० महापुराणम् 'तदेत्य द्रुतमायुष्मन् पूरयास्य मनोरथम् । युवयोरस्तु साङगत्यात् सङगतं निखिलं जगत् ॥८॥ इति तद्वचनस्यान्ते कृतमन्दस्मितो युवा । धीरं वचो गभीरार्थम् प्राचचक्षे विचक्षणः ॥८६॥ साधूक्तं साधु वृत्तत्वं त्वया घटयता प्रभोः । वाचस्पत्यं तदेवेष्टं पोषकं स्वमतस्य यत् ॥१०॥ साम दर्शयता नाम भेददण्डौ विशेषतः। प्रयजानेन साध्यऽर्थे' स्वातन्त्र्यं दर्शितं त्वया ॥१॥ स्वतन्त्रस्य प्रभोः सत्यं स त्वमन्तश्च रश्चरः । अन्यथा कथमेवास्य व्यनंक्ष्यन्तर्गतं गतम् ॥२॥ निसृष्टार्थतयाऽस्मासु' 'निदिष्टस्त्वं निधीशिना । विशिष्टोऽसि न वैशिष्टयं परमर्मस्पृगीदृशम् ॥३॥ अयं खल खलाचारो यबलात्कारदर्शनम् । स्वगुणोत्कीर्तनं दोषोद्भावनं च परेषु यत् ॥१४॥ विवृणोति खलोऽन्येषां दोषान् स्वांश्च गुणान् स्वयम् । संवणोति च दोषान् स्वान् परकीयान् गुणानपि ॥६५॥ अनिराकृतसन्तापा समनोभि:१० समुज्झिताम् । फलहीनां श्रयत्यज्ञः१ खलतां२ खलतामिव३ ॥६६॥ सतामसम्मतां विष्वग आचितां विरसैः फलैः । मन्ये दुःखलतामेनां खलतां लोकतापिनीम् ॥७॥ सोपप्रदान" सामादौ प्रयुक्तमपि बाध्यते । पराभ्यां भेददण्डाभ्यां न्याय्ये५ विप्रतिषेधिनि ॥८॥ हो रहे हैं ।।८७॥ इसलिये हे दीर्घायु कुमार, आप शीघ्र ही चलकर इसके मनोरथ पूर्ण कीजिये आप दोनों भाइयोंके मिलापसे यह समस्त संसार मिलकर रहेगा ।।८८।। इस प्रकार उस दूतके कह चुकने के बाद चतुर और जवान बाहुबली कुमार कुछ मन्दमन्द हँसकर गंभीर अर्थसे भरे हुए धीर वीर वचन कहने लगे ॥८९।। वे बोले कि हे दूत, अपने स्वामी की साधु वृत्तिको प्रकट करते हुए तूने सब सच कहा है क्योंकि जो अपने मतकी पुष्टि करनेवाला हो वही कहना ठीक होता है ॥९०॥ साम अर्थात् शान्ति दिखलाते हुए तुने विशेषकर भेद और दण्ड भी दिखला दिये हैं तथा उनका प्रयोग करते हुए तूने यह भी बतला दिया कि तूं अपना अर्थ सिद्ध करने में कितना स्वतन्त्र है ? ॥९१।। इस प्रकार कहनेवाला तूं सचमुच ही अपने स्वतन्त्र स्वामीका अन्तरङ्ग दूत है, यदि ऐसा न होता तो तूं उसके हृदयगत अभिप्रायको कैसे प्रकट कर सकता था ॥९२॥ चक्रवर्तीने तुझपर समस्त कार्यभार सौंपकर मेरे पास भेजा है, यद्यपि तु चतुर है तथापि इस प्रकार दूसरेका मर्मछेदन करना चतुराई नहीं है ।।९३।। अपनी जबर्दस्ती दिखलाना वास्तवमें दुष्टोंका काम है तथा अपने गुणों का वर्णन करना और दूसरोम दोष प्रकट करना भी दुष्टोका ही काम है ।।९४॥ दुष्ट पुरुष, दूसरक दोष और अपने गणोंका स्वयं वर्णन किया करते हैं तथा अपने दोष और दुसरेके गणोंको छिपाते रहते हैं ॥९५॥ खलता अर्थात् दुष्टता खलता अर्थात् आकाशकी बेलके समान है क्योंकि जिस प्रकार आकाशकी बेलसे किसीका संताप दूर नहीं होता उसी प्रकार दुष्टतासे किसी का संताप दूर नहीं होता, जिस प्रकार आकाशकी बेल सुमन अर्थात् फूलोंसे शून्य होती है उसी प्रकार दुष्टता भी सुमन अर्थात् विद्वान् पुरुषोंसे शून्य होती है और जिस प्रकार आकाशकी बेल फलरहित होती है उसी प्रकार दुष्टता भी फलरहित होती है अर्थात् उससे किसीको कुछ लाभ नहीं होता, ऐसी इस दुष्टताका केवल मूर्ख लोग ही आश्रय लेते हैं ॥९६।। जो सज्जन पुरुषोंको इष्ट नहीं है, जो सब ओरसे विरस अर्थात् नीरस अथवा विद्वेषरूपी फलोंसे व्याप्त है तथा लोगोंको संताप देनेवाली है ऐसी इस खलता-दुष्टताको मैं दुःखलता अर्थात् दुःखकी बेल ही समझता हूँ ॥९७।। यदि न्यायपूर्ण विरोध करनेवाले पुरुषके विषय १तत् कारणात् । २ वचः । ३ शान्तिम् । ४ परब्रह्मकरणादिप्रयोजने। ५ हृदय वर्तमानः । ६ व्यक्तं करोषि । ७ बुद्धिम् । ८ असकृत् सम्पादितप्रयोजनतया । ६ नियुक्तः । १० कुसुमैः । शोभनहृदयश्च । ११ श्रयन्त्यज्ञाः ल०, द०। १२ दुर्जनत्वम् । १३ आकाशलतामिव । १४ दानसहितम् । १५ न्यायान्विते पुरुषे । १६ भेददण्डाभ्यां विकारं गच्छति सति । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व १८१ यथा' विषयमेवैषाम् उपायानां नियोजनम । सिद्धयङगं तद्विपर्यासः फलिष्यति पराभयम् ॥ नेकान्तशमनं साम समाम्नातं सहोष्मणि । स्निग्धेऽपि हि जने तप्ते सपिषीवाम्बुसेचनम् ॥१०॥ उपप्रदानमप्येवं प्रायं मन्ये महौजसि । “समित्सहस्रदानेऽपि वीप्तस्याग्नेः कुतः शमः ॥१०१॥ लोहस्येवोपतप्तस्य मृदुता न मनस्विनः । दण्डोऽप्यनुनयग्राह्ये सामजे न मृगद्विषि ॥१०२॥ ततो व्यत्यासयन्ने नानुपायाननु पायवित् । स्वयं प्रयोगवगुण्यात् सीदत्येव न मादृशः ॥१०३॥ में पहले कुछ देनेके विधानके साथ सामका प्रयोग किया जावे और बादमें भेद तथा दण्ड उपाय कामम लाये जावें तो उनके द्वारा पहले प्रयोगमें लाया हुआ साम उपाय बाधित हो जाता है । भावार्थ-यदि न्यायवान् विरोधोके लिये पहले कुछ देनेका प्रलोभन देकर साम अर्थात् शान्ति का प्रयोग किया जावे और बादमें उसीके लिये भेद तथा दण्डकी धमकी दी जावे तो ऐसा करने से उसका पहले प्रयोग किया हआ साम उपाय व्यर्थ हो जाता है क्योंकि न्यायवान विरोधी उसकी कटनीतिको सहज ही समझ जाता है ।।९८॥ साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारों उपायोंका यथायोग्य स्थानमें नियोग करना कार्य सिद्धिका कारण है और विपरीत नियोग करना पराभवका कारण है। भावार्थ-जो जिसके योग्य है उसके साथ वही उपाय काममें लानेसे सफलता प्राप्त होती है और विरुद्ध उपाय काममें लानेसे तिरस्कार प्राप्त होता हे ॥९९।। प्रतापशाली पुरुषके साथ साम अर्थात् शान्तिका प्रयोग करना एकान्तरूपसे शान्ति रनेवाला नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रतापशाली मनष्य स्निग्ध अर्थात स्नेही होनेपर भी यदि कोधसे उत्तप्त हो जावे तो उसके साथ शान्तिका प्रयोग करना स्निग्ध अर्थात् चिकने किन्तु गर्म घीमें पानी सींचनेके समान है। भावार्थ-जिस प्रकार गर्म घीमें पानी डालनेसे वह शान्त नहीं होता बल्कि और भी अधिक चटपटाने लगता है उसी प्रकार क्रोधी मनुष्य शान्तिके व्यवहारसे शान्त नहीं होता बल्कि और भी अधिक बड़बड़ाने लगता है ॥१००।। इसी प्रकार अतिशय प्रतापशाली पुरुषको कुछ देनेका विधान करना भी मैं निःसार समझता हूँ क्योंकि हजारों समिधाएँ (लकड़ियां) देनेपर भी प्रज्वलित अग्नि कैसे शान्त हो सकती है । ।।१०१।। जिस प्रकार लोहा तपानेसे नर्म नहीं होता उसी प्रकार तेजस्वी मनुष्य कष्ट देनेसे नहीं होता इसलिय उसके साथ दण्डका प्रयोग करना निरर्थक है क्योंकि अनुनय विनय कर पकडने योग्य हाथीपर ही दण्ड चल सकता है सिंहपर नहीं। विशेष-लोहा गर्म अवस्था में नर्म हो जाता है इसलिये यहाँ लोहाका उदाहरण व्यतिरेकरूपसे मानकर ऐसा भी अर्थ किया जा सकता है कि जिस प्रकार तपा हुआ लोहा नर्म हो जाता है उस प्रकार तेजस्वी मनुष्य कष्ट में पड़कर नर्म नहीं होता इसलिये उसपर दण्डका प्रयोग करना व्यर्थ है । अरे, दण्ड भी प्रेम पुचकार कर पकड़ने योग्य हाथीपर ही चल सकता है न कि सिंहपर भी ।।१०२।। इसलिये इन साम दान आदि उपायोंका विपरीत प्रयोग करनेवाले और इसलिये ही उपाय न जाननेवाले आप जैसे लोग इन चारों उपायोंके प्रयोगका ज्ञान न होनेसे स्वयं दुःखी होते हैं ॥१०३॥ १ सामभेदादियोग्यपुरुषमनतिक्रम्य । २ वचननियोजनम् । ३ सप्रतापे । ४ एतत्सदृशम् । ५ इन्धनसमूह। ६ उपतप्तस्य लोहस्य यथा मृदुतास्ति तथा उपतप्तस्य मनस्विनो मृदुता नास्तीत्यर्थः। ७ सिंहे। ८ वैपरीत्येन योजयन् । -नेतानु--ल०, द०, अ०, ५०, स०। समाधीन् । १० भवादृशः द०, ल०, अ०, प०, स०, इ० । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ महापुराणम् साम्नाऽपि दुष्करं साध्या बयमित्युपसंहृते । तत्रोत्सेकं प्रयुञ्जानो व्यक्तं मुग्धायते भवान् ॥१०४॥ वयसाधिक इत्येव न श्लाघ्यो भरताधिपः । जरनपि गजः कक्षा गाहते कि हरेः शिशोः ॥१०॥ प्रणयः'प्रश्रयश्चेति सङगतेष सनाभिषु । तेष्वेवासङगतेष्वङग तवयस्य हता गतिः ॥१०६॥ ज्येष्ठः प्रणम्य इत्येतत्काममस्त्वन्यदा सदा । मुारोपितखड्गस्य प्रणाम इति कः क्रमः ॥१०७॥ दूत नों दूयते चित्तम् अन्योत्सेकानुवर्णनैः। तेजस्वी भान रेवैकः किमन्योऽप्यस्त्यतः परम् ॥१०॥ राजोक्तिर्मयि तस्मिश्च संविभक्ताऽदिवेधसा३ । राजराजः स इत्यद्य "स्फोटो गण्डस्य मूर्धनि ॥१०॥ कामं स राजराजोऽस्तु" रत्नर्यातोऽतिग ध्नुताम् । वयं राजा न इत्येव सौराज्ये स्वे° व्यवस्थिताः।११०॥ बालानिव श्छलादस्मान् पाहूय प्रणमय्य च । पिण्डीखण्ड" इवाभाति महीखण्डस्तदर्पितः५॥११॥ स्वदो मफलं इलाध्यं यत्किञ्चन मनस्विनाम् । नचातुरन्तमप्यश्यं पर लतिकाफलम् ॥११२॥ हे दूत, हम लोग शान्तिसे भी वश नहीं किये जा सकते यह निश्चय होनेपर भी आप हमारे साथ अहंकारका प्रयोग कर रहे हैं, इससे स्पष्ट मालूम होता है कि आप मूर्ख हैं ॥१०॥ भरतश्वर उमरम बड़े हैं इतने ही से वे प्रशंसनीय नहीं कहे जा सकत क्योकि हाथी बूढ़ा हानपर भी क्या सिंहके बच्चेकी बराबरी कर सकता है ? ।।१०५।। हे दूत, प्रेम और विनय ये दोनों परस्पर मिले हुए कुटुम्बी लोगोंमें ही संभव हो सकते हैं, यदि उन्हीं कुटुम्बियोंमें विरोध हो जावे तो उन दोनों हीकी गति नष्ट हो जाती है। भावार्थ-जब तक कुटुम्बियोंमें परस्पर मेल रहता है तब तक प्रेम और विनय दोनों ही रहते हैं और ज्योंही उनमें परस्पर विरोध हुआ त्यों ही दोनों नष्ट हो जाते हैं ॥१०६॥ बड़ा भाई नमस्कार करने योग्य है यह बात अन्य समयमें अच्छी तरह हमेशा हो सकती है परन्तु जिसने मस्तकपर तलवार रख छोड़ी है उराको प्रणाम करना यह कौन-सी रीति है ? ॥१०७॥ हे दूत, दूसरे के अहंकारके अनुसार प्रवृत्ति करनेसे हमारा चित्त दुःखी होता है, क्योंकि संसारमें एक सूर्य ही तेजस्वी है। क्या उससे अधिक और भी कोई तेजस्वी है ।।१०८॥ आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने 'राजा' यह शब्द मेरे लिये और भरतके लिय-दोनोक लिय दिया है, परन्तु आज भरत 'राजराज' हो गया है सोयह कपोल के ऊपर उठे हए गमडे के समान व्यर्थ है ॥१०९।। अथवा रत्नोंके द्वारा अत्यन्त लोभको प्राप्त हआ वह भरत अपने इच्छानुसार भले ही 'राजराज' रहा आवे, हम अपने धर्मराज्यमें स्थिर रहकर राजा ही बने रहेंगे ।।११०॥ वह भरत बालकोंके समान छलसे हम लोगोंको बुलाकर और प्रणाम कराकर कुछ पृथिवी देना चाहता है तो उसका दिया हुआ पृथिवीका टुकड़ा खलीके टकडेके समान तुच्छ मालम होता है ॥११तेजस्वी मनष्योंके लिये जो क कछ थोड़ाबहुत अपनी भुजारूपी वृक्षका फल प्राप्त होता है वही प्रशंसनीय है, उनके लिये दूसरेकी भौंहरूपी लताका फल अर्थात् भौंहके इशारेसे प्राप्त हुआ चार समुद्रपर्यन्त पृथिवीका ऐश्वर्य भी १ विरतिं गते सति । २ तत्र तूष्णी स्थिते पुंसि । उत्सेकं साहसम्, गर्वमित्यर्थः । ३ समानताम् । ४ प्राप्नोति। ५ स्नेहः । ६ विनयः । ७ भोः । ८ प्रणयप्रश्रयस्य । ६ अस्माकम् । १० वर्तनैः ल०, द०, अ०, ५०, स०। ११ भानोः सकाशादन्यः । १२ भरते । १३ आदिब्रह्मणा । १४ भरतेश्वरपक्ष राज्ञां प्रभूणां राजा राजराजः, राज्ञां यक्षाणां राजा राजराजः लोजित इति ध्वनिः । भुजबलिपक्ष तिस्रः शक्तयः षड्गुणाः चतुरोपायाः सप्ताङगराज्यानि एतंर्गुणं राजन्त इति राजानः । १५ पिट कः । विस्फोट: पिटकस्त्रिषु' इत्यभिधानात् । १६ गलगण्डस्य। 'गलगण्डो गण्डमाला' इत्यभिधानात् । १७ उपरीत्यर्थः । १८ कुबेर इति ध्वनिः । १६ सुराज्यव्यापारे। २० आत्मीये । २१ बलादिव द० । २२ व्याजात् । २३ नमस्कारयित्वा । २४ पिण्याकशकलः । २५ भरतेन दत्तः । २६ चत्वारो दिगन्तो यस्य तत् । २७ प्रभुत्वम् । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व १८३ पराजोपहता लक्ष्मी यो वाञ्छत् पार्थिवोऽपि सन् । सोऽपार्थयति तामुक्तिं सर्पोक्तिमिव डुण्डभः ॥११३॥ परावमानमलिनां भूति' धत्ते न पोऽपि यः । नृपशोस्तस्य नन्वेष भारो राज्यपरिच्छदः ॥११४॥ मानभागाजित गैः यः प्राणान्धर्तुमीहते । तस्य भग्नरहस्येव द्विरदस्य कुतो भिदा ॥११५॥ छमभङगादिनाप्यस्य छायाभङगोऽभिलक्ष्यते । यो मानभङगाभारेण बिभयंपनतं शिरः॥११६॥ मनयोऽपि 'समानाश्चेत् त्यक्तभोगपरिच्छदाः । को नाम राज्यभोगार्थी पुमानुज्झेत् समानताम् ॥११७॥ बरं बनाधिवासोऽपि वरं प्राणविसर्जनम् । कुलाभिमानिनः पुंसो न पराज्ञाविधेयता ॥११॥ मानवाभिरक्षन्तु धीराः प्राणः प्रणश्वरैः। नन्वलङकुरुते विश्वं शश्वन्मानाजितं यशः ॥११॥ ११चारु चक्रधरस्यायं त्वयाऽत्युक्तः पराक्रमः । कुतो यतोऽर्थवादोऽयं१३ स्तुतिनिन्दापरायणः ॥१२०॥ वचोलि: पोषयन्त्येव पण्डिताः परिफलवपि प्रक्रान्तायां स्तुताविष्टः सिंहो ग्राममृगो ननु ॥१२१॥ इदं वाचनिकं कृत्स्नं त्वदुक्तं प्रतिभाति नः । क्वास्य दिग्विजयारम्भः क्व धनोंच्छन चुञ्चुता ॥१२२॥ -- - प्रशंसनीय नहीं है ।।११२।। जिस प्रकार पनया साँप 'सर्प' इस शब्दको व्यर्थ ही धारण करता है उसी प्रकार जो मनुष्य राजा होकर भी दूसरेकी आज्ञासे उपहृत हुई लक्ष्मीको धारण करता है वह 'राजा' इस शब्दको व्यर्थ ही धारण करता है ॥११३॥ जो पुरुष राजा होकर भी दूसरे के आगमानसे मलिन हुई विभूतिको धारण करता है निश्चयसे उस मनुष्यरूपी पशके लिये यह राज्यकी समस्त सामग्री भारके समान है ॥११४॥ जिसके दाँत टूट गये हैं ऐसे हाथीके समान जो पुरुष मानभग होनपर प्राप्त हुए भोगोपभोगोंसे प्राण धारण करना चाहता है उस पुरुषमें और पशम भेद कैसे हो सकता है ? ॥११५॥ जो राजा मानभंगके भारसे झके हए शिरको धारण करता है उसकी छायाका नाश छत्रभंग होनेके बिना ही हो जाता है। भावार्थयहाँ छाया शब्दके दो अर्थ हैं अनातप और कान्ति । जब छत्रभंग होता है तभी छाया अर्थात् अनातप का नाश होता है परन्तु यहांपर छत्रभंगके बिना ही छायाके नाशका वर्णन किया गया है इसलिये विरोध मालूम होता है परन्तु छत्र भंगके बिना ही उनकी छाया अर्थात् कान्तिका नाश हो जाता है, ऐसा अर्थ करनेसे उसका परिहार हो जाता है ।।११६।। जिन्होंने भोगोपभोग की सब सामग्री छोड़ दी है ऐसे मुनि भी जब अभिमान (आत्मगौरव) से सहित होते हैं तब फिर राज्य भोगनेकी इच्छा करनेवाला ऐसा कौन पुरुष होगा जो अभिमानको छोड़ देगा ? ॥११७।। वनमें निवास करना अच्छा है और प्राणोंको छोड़ देना भी अच्छा है किन्तु अपने कुलका अभिमान रखनेवाले पुरुषको दूसरेकी आज्ञाके आधीन रहना अच्छा नहीं है ।।११८॥ धीर वीर पुरुषोंको चाहिये कि वे इन नश्वर प्राणोंके द्वारा अभिमानकी ही रक्षा करें क्योंकि अभिमान के शाा कमाया हुआ यश इस संसारको सदा सुशोभित करता रहता है !!११९।। तूने जो बहुत कुछ बढ़ाकर चक्रवर्तीके पराक्रमका वर्णन किया है सो ठीक है क्योंकि तेरा यह सब कहना स्तुति निन्दा में तत्पर है अर्थात् स्तुतिरूप होकर भी निन्दाको सूचित करने वाला है ॥१२०।। पण्डित लोग निःसार वस्तुको भी अपने वचनोंसे पुष्ट किया ही करते हैं सो ठीक ही है क्योंकि स्तुति प्रारम्भ करनेपर कुत्तेको भी सिंह कहना पड़ता है ॥१२१॥ हे दूत, तेरे द्वारा कहा १ अपगतार्थ करोति । २ पार्थिवास्याम् । ३ राजिलः । 'समौ राजिलडुण्डभौ" इत्यभिधानात् । ४ सम्पदम् । ५ मनुजानडुहः । ६ भेदः । ७ तेजोहानिः । ८ अभिमानान्विताः । ६ साभिमानिताम् । १० अधीनता। ११ वर ल०, द., अ०, ५०, स०, इ०। १२ अतिक्रम्योक्तः । १३ सत्यवादः अथवा असत्यारोपमर्थवादः । १४ स्तुतिरूपोऽर्थवादो निन्दारूपोऽर्थवादश्चेति द्वये तत्परः । १५ अतिनि:स्सारवस्त्वपि । १६ प्रारम्भितायां सत्याम् । १७ सारमेयः । १८ धनापनयन । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ महापुराणम् दधच्चाकचरों वृत्ति बलि भिक्षामिवाहरन् । दीनतायाः परां कोटि प्रभुरारोपितस्त्वया ॥१२३॥ सत्यं दिग्विजय चक्री जितवानमरानिति । 'प्रत्ययमिदमेतत्तु चिन्त्यमत्र' ननु त्वया ॥१२४॥ स कि न दर्भशय्यायां सप्तो नोपोषितोऽथवा । प्रवृत्तो जलमायायां शरपातं समाचरन् ॥१२॥ कृतचक्रपरिभ्रान्तिः ‘दण्डेनायतिशालिना । घटयन् 'पार्थिवानेष सकुलालायते वत ॥१२६॥ प्राग:३० परागमातन्वन् स्वयमेष कलङकितः। चिरं कलङकयत्येष कुलं "कुलभूतामपि ॥१२७॥ न पानाकर्षतो दूरान्मन्त्रः तन्त्रैश्च योजितः । श्लाघ्यते कियदेतस्य पौरुषं लज्जया विना ॥१२८॥ दुनोति नो भूशं दूत इलाध्यतेऽस्य यदाहवः । दोलायित जले यस्य बलं म्लेच्छबलैस्तदा ॥१२॥ यशोधनमसंहार्य क्षत्रपुत्रेण रक्ष्यताम् । निखनन्तो२ निधीन भूमौ बहवो निधनं१३ गताः ॥१३०॥ रत्न: किमस्ति वा कृत्यं यान्यरत्निमिता" भवम् । “न यान्ति यत्कृते यान्ति केवलं निधनं नृपाः ॥१३॥ हुआ यह समस्त कार्य हम लोगोंको केवल वचनाडम्बर ही जान पड़ता है क्योंकि कहां तो इसका दिग्विजयका प्रारम्भ करना और कहां धन इकट्ठा करने में तत्पर होना ? ॥१२२। जिस प्रकार भिक्षुक चक्र धारण कर भिक्षा मांगता हुआ अतिशय दीनताको प्राप्त होता है उसी प्रकार चक्रवर्तीकी वृत्ति धारण कर भिक्षाके समान कर वसूल करता हुआ तेरा स्वामी भरत तेरे द्वारा दीनताकी परम सीमाको प्राप्त करा दिया गया है ॥१२३॥ यह ठीक है कि चत्रवर्तीने दिग्विजयके समय देवोंको भी जीत लिया है परन्तु यह बात केवल विश्वास करने योग्य है अन्यथा तू यहां इतना तो विचार कर कि जलस्तम्भन करने में प्रवृत्त हुए तेरे स्वामी भरतने जब बाण छोड़ा था तब वह क्या दर्भकी शय्यापर नहीं सोया था अथवा उसने उपवास नहीं किया था ।।१२४-१२५॥ जिस प्रकार कुम्हार आयति अर्थात् लम्बाईसे शोभायमान डंड़े के द्वारा चक्रको घुमाता हुआ पार्थिव अर्थात् मिट्टीके घट बनाता है उसी प्रकार भरत भी आयति अर्थात् सुन्दर भविष्यसे शोभायमान डंड़े (दण्ड रत्न) से चक्र (चक्ररत्न) को घुमाता हआ पार्थिव अर्थात् पथिवीके स्वामी राजाओंको वश करता फिरता है, इसलिये कहना पड़ता है कि तुम्हारा यह राजा कुम्हारके समान आचरण करता है ।।१२६।। वह भरत पापकी धुलिको उड़ाता हुआ स्वयं कलंकित हुआ है और कुलीन मनुष्योंके कुलको भी सदाके लिये कलंकित कर रहा है ॥१२७।। हे दूत, प्रयोगमें लाये हुए मंत्र-तंत्रोंके द्वारा दुरसे ही अनेक राजाओंको बलानेवाले इस भरतका पराक्रम त लज्जाके बिना कितना वर्णन कर रहा ॥१२८॥ हे दूत, जिस समय तू इसके युद्धकी प्रशंसा करता है उस समय हम लोगोंको बहुत दुःख होता है क्योंकि उस समय म्लेच्छोंकी सेनाके द्वारा भरतकी सेना पानी में हिंडोले झल रही थी अर्थात् हिंडोलेके समान कैंप रही थी ॥१२९॥ क्षत्रियपुत्रको तो जिसे कोई हरण न कर सके ऐसे यशरूपी धनकी ही रक्षा करनी चाहिये क्योंकि इस पृथिवीमें निधियों को गाड़ कर रखनेवाले अनेक लोग मर चुके हैं। भावार्थ-अमरता यशसे ही प्राप्त होती है ॥१३०॥ अथवा जो रत्न एक हाथ पथिवी तक भी साथ नहीं जाते और जिनके लिये राजा लोग केवल मत्यको ही प्राप्त होते हैं ऐसे रत्नोंसे क्या कार्य निकल सकता है ? ॥१३॥ १ चक्रस्येयं चाकी सा चासौ चरी च चाक्रचरी ताम् । चक्रचरसम्बन्धिनीम् । चाक्रधरी ल०, द०, अ०, प०, स०, इ० । २ करम्। ३ परमप्रकर्षम् । ४ शपथं कृत्वा विश्वास्यम् । ५ वक्ष्यमाणम् । ६ अमरजये। ७ समुद्रजलस्तम्भनरूपमायायाम् । ८ दण्डरत्नेन सैन्येन वा। नृपान् । पृथिवीविकारांश्च । मृत्पिण्डान् । । १० परागः । अपराधरेणुम् । 'पापापराधयोरागः' इत्यभिधानात् । ११ मनूनाम् । कुलधृतामपि ट० । १२ निक्षिपन्तः । १३ विनाशम् । १४ हस्तप्रमिताम् । 'अरत्निस्तु निष्कनिष्ठेन मुष्ठिना' इत्यभिधानात् । १५ गत्यन्तरगमनेन सह न यान्ति । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व तुलापुरुष एवायं यो नाम निखिलै पैः । तुलितो रत्न'पुजेन बत नैश्वर्यमीदृशम् ॥१३२॥ घवं स्वगुरुणा दत्ताम् प्राचिच्छित्सति नो भुवम् । प्रत्याख्येयत्वमुत्सृज्य गृध्नोरस्य किमौषधम् ॥१३३॥ दूत तातवितीर्णा नो महीमेनां कुलोचिताम् ।"भ्रातृजायामिवाऽऽदित्सोः नास्य लज्जा भवत्पतेः॥१३४॥ देयमन्यत् स्वतन्त्रेण यथाकामं जिगीषुणा । मुक्त्वा कुलकलत्रं च मातलं च भुजाजितम् ॥१३॥ भूयस्त दलमालप्य स वा भुक्तां महीतलम् । चिरमेकातपत्राऊकम् अहं वा भुजविक्रमी ॥१३६॥ कृतं वथा भटालापः अर्थसिद्धिबहिष्कृतः । सङग्रामनिकषे व्यक्तिः पौरुषस्य ममास्य च ॥१३७॥ ततः समरसंघट्टे यद्वा तद्वाऽस्तु नौ द्वयोः । नीरे कमिदमेकं नो वचो हर वचोहर" ॥१३॥ इत्याविष्कृतमानेन कुमारेण वचोहरः । द्रुतं विजितोऽगच्छत्१२ पति सन्नाहयेत्१३ परम् ॥१३॥ तदा मकटसंघट्टाद् उच्छलन्मणिकोटिभिः । कृतोल्मुक शतक्षेपः इवोत्तस्थे महीशिभिः ॥१४०॥ क्षणं समरसंघट्टपिशनो भटसङकटः । श्रयते स्म भटालापो बले भुजबलोशितुः ॥१४॥ चिरात् समरसम्मदः स्वामिनोऽयमभूदिह । किं वयं स्वामिसत्काराद् अनृणीभवितुं क्षमाः ॥१४२॥ जो समस्त राजाओंके द्वारा रत्नोंकी राशिसे तोला गया है ऐसा यह भरत एक प्रकारका तुलापुरुष है खेद है कि ऐसा ऐश्वर्य नहीं होता ।।१३२।। अवश्य ही वह भरत अपने पूज्य पिता श्री भगवान् वृषभदेवके द्वारा दी हुई हमारी पृथिवीको छीनना चाहता है सो इस लोभीका प्रत्याख्यान अर्थात् तिरस्कार करनेके सिवाय और कुछ उपाय नहीं है ।।१३३॥ हे दूत, पिताजीके द्वारा दी हुई यह हमारे ही कुलकी पृथिवी भरतके लिये भाईकी स्त्रीके समान है अब वह उसे ही लेना चाहता है सो तेरे ऐसे स्वामीको क्या लज्जा नहीं आती ? ।।१३४।। जो मनुष्य स्वतन्त्र हैं और इच्छानुसार शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा रखते हैं वे अपने कुलकी स्त्रियों और भुजाओंसे कमाई हुई पृथिवीको छोड़कर बाकी सब कुछ दे सकते हैं ।।१३५।। इसलिये बार-बार कहना व्यर्थ है, एक छत्रसे चिह्नित इस पृथिवीको वह भरत ही चिरकालतक उपभोग करे अथवा भुजाओंमें पराक्रम रखनेवाला में ही उपभोग करूं। भावार्थ-मुझे पराजित किये बिना वह इस पृथिवीका उपभोग नहीं कर सकता ।।१३६॥ जो प्रयोजनकी सिद्धिसे रहित हैं ऐसे शूरवीरताके इन व्यर्थ वचनोंसे क्या लाभ है? अब तो युद्धरूपी कसौटी पर ही मेरा और भरतका पराक्रम प्रकट होना चाहिये ॥१३७॥ इसलिये हे दूत, तू यह हमारा संदेहरहित एक वचन ले जा अर्थात् जाकर भरतसे कह दे कि अब तो हम दोनोंका जो कुछ होना होगा वह युद्धकी भीड़में ही होगा ॥१३८॥ इस प्रकार अभिमान प्रकट करनेवाले कुमार बाहुबलीने उस दूतको यह कहकर शीघ्र ही बिदा कर दिया कि जा और अपने स्वामी को युद्ध के लिये जल्दी तैयार कर ॥१३९।। उस समय जिनके मुकुटोंके संघर्षणसे करोड़ों मणि उछल-उछलकर इधर-उधर पड़ रहे हैं और उन मणियोंसे जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो अग्नि के सैकड़ों फुलिङ्गोंको ही इधर उधर फैला रहे हों ऐसे राजा लोग उठ खड़े हुए ॥१४०।। उसी क्षण अनेक योद्धाओंसे भरी हुई महाराज बाहुबलीकी सेनामें युद्धकी भीड़को सूचित करनेवाला योद्धा लोगोंका परस्परका आलाप सुनाई देने लगा था ॥१४१।। इस समय स्वामीके यह युद्धकी तैयारी बहुत दिनमें हुई है, क्या अब हम लोग स्वामीके सत्कारसे ऊऋण (ऋणमुक्त) हो सकेंगे ? भावार्थ-स्वामीने आजतक पालन-पोषण कर जो हम लोगोंका महान् १ रत्नार्थम् । २ छेत्तुमिच्छति । ३ निराकरणीयत्वम् । 'प्रत्याख्यातो निराकृतः' इत्यभिधानात । हेयत्वमित्यर्थः (हेयत्वमेव औषधमित्यर्थः) । ४ लुब्धस्य । ५ अनुजकलत्रम् । ६ आदातुमिच्छोः । ७ तत् कारणात् । ८ बहुप्रलापरलम् । निःसन्देहम्। १० स्वीकुरु। ११ भो दूत । १२ गच्छ पति द०, ल०, । १३ सन्नद्धं कुरु । १४ रत्नसमूहैः । १५ अलातः। १६ भटसमूहैः । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् पोषयन्ति महीपाला भूत्यानवसरं प्रति । न चेदवसरः सार्यः किमेभिस्तृणमानुषः ॥१४३॥ कलेवरमिदं त्याज्यम् अर्जनीयं यशोधनम् । जयश्रीविजय लभ्या नाल्पोवर्को रणोत्सवः ॥१४४॥ मन्दातपशरच्छाये प्रत्यङगैर्बाणजर्जरैः । लप्स्यामहे कदा नाम विश्रमं रणमण्डपे ॥१४॥ प्रत्यनीककृतानेकव्यूह निभिद्य सायकैः। शरशय्यामसम्बाधम् अध्याशिष्ये कदा न्वहम् ॥१४६॥ कर्णतालानिलाधूति विधूतसमरश्रमः । गजस्कन्धे निषीदामि कदाहं क्षणमूछितः ॥१४७॥ दन्तिदन्ता र्गलप्रोतोद्गलदन्त्र स्खलद्वचाः । जयलक्ष्मीकटाक्षाणां कदाऽहं लक्ष्यतां भजे ॥१४८।। गजदन्तान्तरालम्बिस्वान्त्रमालावरत्रया । कहि दोलामिवारोप्य तुलयामि जयश्रियम् ॥१४६॥ ब्रुवाणैरिति सङग्रामरसिकरुद्भटर्भटः । शस्त्राणि सशिरस्त्राणि सज्जान्यासन् बले बले ॥१५०॥ ततः कृतभयं भूयो भटभ कुटिजितः। पलायितमिव क्वाऽपि परिच्छित्तिमगादहः ॥१५१॥ अथोरुष्यद्भटानीकनेत्रच्छायापितां रुचम् । दधान इव तिग्मांशुः प्रासीदारक्तमण्डलः ॥१५२॥ क्षणमस्ताचलप्रस्थकाननक्ष्माजपल्लवैः। सदगालोहितच्छायो ददृशेऽकाशसंस्तरः ॥१५३॥ सत्कार किया है क्या उसका बदला हम कुछ दे सकेंगे ? ॥१४२॥ राजा लोग समयके लिये ही सेवक लोगोंका पालनपोषण करते हैं, यदि समय नहीं साधा गया अर्थात् अबसर पड़ने पर स्वामीका कार्य सिद्ध नहीं किया गया तो फिर तणसे बने हुए इन पुरुषोंसे क्या लाभ है ? भावार्थ-जो पुरुष अवसर पड़नेपर स्वामीका साथ नहीं देते वे घास-फसके बने हा पुरुषों के समान सर्वथा सारहीन हैं ॥१४३।। अब यह शरीर छोड़ना चाहिये, यशरूपी धन कमाना चाहिये और विजय लाभकर जयलक्ष्मी प्राप्त करनी चाहिये, यह यद्वका उत्सव कूछ थोड़ा फल देने वाला नहीं है ॥१४४॥ हम लोग, घावोंसे जर्जर हुए शरीरके प्रत्येक अंगोंसे, जिसमें घामको मन्द करनेवाली बाणोंकी छाया पड़ रही है ऐसे युद्धके मण्डपमें कब विश्राम करेंगे? ।।१४५॥ कोई कहता था कि मैं कब अपने बाणोंसे शत्रुओंकी सेनाके द्वारा किये हए अनेक व्यहोंको छेदकर विना किसी उपद्रवके बाणोंकी शय्यापर शयन करूँगा ॥१४६॥ कोई कहता था कि मैं कब युद्धमें क्षण भरके लिये मूछित होकर हाथीके कानरूपी ताड़पत्रकी वायके चलने से जिसके युद्धका सब परिश्रम दूर हो गया है ऐसा होता हुआ हाथीके कंधेपर बैठगा ? ॥१४७।। हाथीके दांतरूपी अर्गलोंमें पिरोये जानेसे जिसकी अंतड़ियां निकल रही हैं तथा जिसके मुग्बसे टूट-फट शब्द निकल रहे हैं ऐसा होता हआ में कब जयलक्ष्मीक कटाक्षोका निशाना बन सकंगा! भावार्थ-वह दिन कब होगा जब कि मैं मरता हुआ भी विजय प्राप्त करूँगा? ॥१४८।। कोई कहता था कि हाथियोंके दांतोंके बीच में लटकती हुई अपनी अंतड़ियोंके समूहरूपी मजबूत रस्सीपर झूलाके समान विजयलक्ष्मीको बैठाकर मैं कब उसे तोलूगा ? ॥१४९।। इस प्रकार कहते हुए युद्धके प्रेमी बड़े बड़े योद्धाओंने प्रत्येक सेनामें अपने अपने शस्त्र तथा गिरकी रक्षा करनेवाली टोपियां सँभाल लीं ॥१५०॥ तदनन्तर दिन समाप्त हो गया सो ऐसा मालूम होता था मानो योद्धाओंकी भौंहोंके तिरस्कारसे भयभीत होकर कहीं भाग ही गया हो ॥१५१।। अथानन्तर सूर्यका मंडल लाल हो गया मानो उसने क्रोधित हुए योद्धाओंकी सेनाके नेत्रोंकी छायाके द्वारा दी हुई लाल कान्ति ही धारण की हो ॥१५२॥ उस समय क्षण भरके लिये सूर्यको किरणोंका समूह अस्ताचल १ न गम्यश्चेत् । २ विश्राम ल०, द०, अ०, ५०, स० । ३ शत्रुकृतसेनारचनाम् । ४ अवधनन । ५ निषण्णो भवामि । 'कदाकोर्वा' इति भविष्यदर्थे लट् । ६ परिघ । ७ -तोदगलदस्रट० । निर्यद्रक्तः । ८ निजपुरीतमालदुष्यया । 'दूष्या कक्ष्या वरत्रा स्याद्' इत्यभिधानात्। हकदा। १० विनाशम् । ११ दिवसः । १२ अथारुष्य-ल० । १३ सानु । १४ रविकिरणसमूहः । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व १८७ करगिर्यग्रसंलग्न : भानुरालक्ष्यत क्षणम् । पातभीत्या करालाः करालम्बमिवाश्रयन् ॥१५४॥ पतन्त वारुणी सङगात् परिलुप्तविभावसुम् । नालम्बत बतास्ताद्रिः भानु बिभ्यदिवैनसः ॥१५॥ गतो नु दिनमन्वेष्टुं प्रविष्टोन रसातलम् । तिरोहितो न शृङगाप्रैः अस्तादेक्षि भानुमान् ॥१५६॥ विघटय्य तमो नशं करैराक्रम्य भूभृतः । दिनावसाने पर्यास्थद् अहो रविरनंशुकः ॥१५७॥ तिर्थडमण्डलगत्यैव शश्वद् भानुरयं भूमन् । विप्रकर्षाज्जनः अग्राहीव' पतन्नधः ॥१५॥ व्यसनेऽस्मिन् दिनेशस्य शुचेव परिपीडिताः । विच्छायानि मुखान्यूहः तमोरुद्धा दिगङगनाः ॥१५॥ की शिखरपर लगे हुए वनके वृक्षोंकी कोपलोंके समान कुछ कुछ लाल रंगका दिखाई दे रहा था ॥१५३॥ उस समय वह सूर्य अस्ताचलकी शिखरपर लगे हुए किरणोंसे क्षणभरके लिये ऐसा जान पड़ता था मानो नीचे गिरनेके भयसे अपने किरणरूपी हाथोंसे किसीके हाथका सहारा ही ले रहा हो ॥१५४॥ जो सूर्य वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा (पक्षमें मदिरा) के समागमसे पतित हो रहा है और जिसका कान्तिरूपी धन नष्ट हो गया है ऐसे सूर्यको मानो पापसे डरते हुए ही अस्ताचलने आलम्बन नहीं दिया था। · भावार्थ--वारुणी शब्दके दो अर्थ होते हैं मदिरा और पश्चिम दिशा। पश्चिम दिशामें पहुँचकर सूर्य प्राकृतिक रूपसे नीचे की ओर ढलने लगता है। यहां कविने इसी प्राकृतिक दृश्यमें श्लेषमूलक उत्प्रेक्षा अलंकारकी पुट देकर उसे और भी सुन्दर बना दिया है। वारुणी अर्थात् मदिराके समागमसे मनुष्य अपवित्र हो जाता है उसका स्पर्श करना भी पाप समझा जाने लगता है , सूर्य भी वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा (पक्षमें मदिरा) के समागमसे मानो अपवित्र हो गया था। उसका स्पर्श करनेसे कहीं में भी पापी न हो जाऊँ इस भयसे अस्ताचलने उसे सहारा नहीं दिया-गिरते हए को हस्तालम्बन देकर गिरनेसे नहीं बचाया । सूर्य डूब गया ॥१५५।। उस समय सूर्य दिखाई नहीं देता था सो ऐसा जान पड़ता था मानो बीते हुए दिनको खोजने के लिये गया हो, अथवा पाताललोकमें घुस गया हो अथवा अस्ताचलकी शिखरोंके अग्रभागसे छिप गया हो ॥१५६॥ जिस प्रकार कोई वीर पुरुष दारिद्रयरूपी अन्धकारको नष्ट कर और अपने कर अर्थात् टैक्स द्वारा भूभत् अर्थात् राजाओंपर आक्रमण कर दिन अर्थात् भाग्यके अन्तमें अनंशुक अर्थात् बिना वस्त्रके यों ही चला जाता है उसी प्रकार सूर्य रात्रिसम्बन्धी अन्धकारको नष्ट कर तथा कर अर्थात् किरणोंसे भूभुत् अर्थात् पर्वतोंपर आक्रमण कर दिनके अन्तमें अनंशुक अर्थात् किरणोंके बिना यों ही चला गया-अस्त हो गया, यह कितने दुःखकी बात है। ॥१५७॥ यह सूर्य तो मेरु पर्वतके चारों ओर गोलाकार तिरछी गतिसे निरन्तर घूमता रहता है तथापि दूर होनेसे दिखाई नहीं देता इसलिये मूर्ख पुरुषोंको नीचे गिरता हुआ सा जान पड़ता है ।।१५८॥ सर्यको इस विपत्तिके समय मानो शोकसे पीड़ित हुई दिशारूपी स्त्रियां अन्धकारसे भर जाने के कारण कान्तिरहित मुख धारण कर रही थीं। भावार्थ-पतिकी विपत्तिके समय जिस प्रकार कुलवती स्त्रियों के मुख शोकसे कान्तिहीन हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्यकी विपत्तिके समय दिशारूपो स्त्रियोंके मुख शोकसे कान्तिहीन हो गये थे। अन्धकार छा जानेसे दिशाओंकी १ विस्तृताः । 'करालो दन्तुरे तुङगे विशाले विकृतेऽपि च' इत्यभिधानात् । २ वरुणसम्बन्धिदिकसङ्गात् । मद्यसङगादिति ध्वनिः । ३ कान्तिरेव धनं यस्य । पक्षे विभा च वस् च विभावसुनी, परिप्लुते विभावसुनी यस्य तम् । ४ न धरति स्म । ५ पापात् । ६ गवेषणाय । ७ निशासम्बन्धि । ८ पर्वतानाम् । नपांश्च । ६ दिवसान्ते । भाग्यावसाने च । दिवाव-ल०, द०। १० पतितवान् । ११ कान्तिरहितः, वस्त्ररहित इति ध्वनिः । १२ मेरुप्रदक्षिणरूपतिर्यगबिम्बगमनेन । १३ दूरात् । १४ स्वीकृतः । १५ विपदि। १६ धरन्ति स्म । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ महापुराणम् पद्मिन्यो म्लानपद्मास्या द्विरे फकरुणारुतः । शोचन्त्य इव संवृत्ता वियोगादहिमत्विषः ॥१६०॥ सन्ध्यातपततान्यासन् वनान्यस्तमहीभूतः । परोतानीव दावाग्निशिखयातिकरालया ॥१६॥ अनुरक्तापि सन्ध्येयं परित्यक्ता विवस्वता । प्रविष्टेवाग्निमारक्तच्छविरालक्ष्यताम्बरे ॥१६२॥ ( शनैराकाशवाराशिविमोद्यानराजिवित् । रुरुचे दिशि वारुण्यां सन्ध्यासिन्दूरसच्छविः ॥१६३॥ चक्रवाकीमनस्तापदीपनो' न हुताशनः । पप्रथे पश्चिमाशान्ते सन्ध्यारागो जपारुणः ॥१६४॥ *सान्ध्यो रागः स्फुरन दिक्षु क्षणमैक्षि प्रियागमे । मानिनीनां मनोरागः कृत्स्नो मछनिवकतः ॥१६॥ धतरक्तांशुका सन्ध्याम् अनुयान्ती दिनाधिपम् । बहमेने सती लोकः कृतानुमरणामिव ॥१६६॥ चक्रवाकी धृतोत्कण्ठम् अनुयान्तीं कृतस्वनाम् । 'विजहावेव चक्रावो निर्यात को नु लङ्घयेत् ॥१६७॥ रवेः किमपुराधोऽयं कालस्य नियतेः किम् । रथाङ्गमिथुनान्यासन् वियुक्तानि यतो मिथः ॥१६॥ घनं तमो विनार्केण व्यानशे निखिला दिशः। विना तेजस्विना प्रायस्तमो रुन्धे न सन्ततम् ॥१६६।। तमोऽवगुण्ठिता रेज रजनी तारकातता । विनीलवसना भास्वन्मौक्तिकेवाभिसारिका ॥१७०॥ शोभा जाती रही थी॥१५९।। कमलिनियोंके कमलरूपी मुख मुरझा गये थे जिससे वे ऐसी जान पडती थीं मानो सर्यका वियोग होनेसे भमरोंके करुणाजनक शब्दोंके बहाने रुदन करती हई शोक ही कर रही हों ।।१६०॥ सायंकालके लाल लाल प्रकाशसे व्याप्त हए अस्ताचल के वन ऐसे जान पड़ते थे मानो अत्यन्त भयंकर दावानलकी शिखासे ही घिर गये हों ॥१६१।। यद्यपि यह संध्या अनुरक्त अर्थात् प्रेम करनेवाली (पक्षमें लाल) थी तथापि सूर्यने उसे छोड़ दिया था इसलिये ही वह लाल रंगकी संध्या आकाशमें ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने अग्निमें ही प्रवेश किया हो। भावार्थ-पतिव्रता स्त्रियां पतियोंके द्वारा अपमानित होनेपर अपनी विशुद्धताका परिचय देनेके लिये सीताके समान अग्निमें प्रवेश करती हैं यहांपर कविने भी समासोक्ति अलंकारका आश्रय लेकर संध्यारूपी स्त्रीको सूर्यरूपी पतिके द्वारा अपमानित होनेपर अपनी विशद्धता-सच्चरित्रताका परिचय देनेके लिये संध्या कालकी लालिमा रूपी अग्निमें प्रवेश कराया है ।।१६२।। सिन्दूरके समान श्रेष्ठ कान्तिको धारण करनेवाली वह संध्या धीरे धीरे पश्चिम दिशामें ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो आकाशरूपी समुद्र में मूंगोंके बगीचोंकी पंक्ति ही हो ।। १६३।। जवाके फूलके समान लाल लाल वह संध्याकाल की लाली पश्चिम दिशाके अन्तमें ऐसी फैल रही थी मानो चकवियोंके मनके संतापको बढ़ाने वाली अग्नि ही हो ॥१६४॥ समस्त दिशाओंमें फैलती हुई संध्याकालकी लाली क्षण भरके लिये ऐसी दिखाई देती थी मानो पतियोंके आनेपर मान करनेवाली स्त्रियोंके मनका समस्त अनराग ही एक जगह इकट्ठा हआ हो ॥१६५॥ लाल किरणरूपी वस्त्र धारणकर सर्यरूपी पतिके पीछे पीछे जाती हुई संध्याको लोग पतिके साथ मरनेवाली सतीके समान बहुत कुछ मानते थे ॥१६६॥ चकवाने बड़ी उत्कंठासे अपने पीछे पीछे आती हुई और शब्द करती हुई चकवीको आखिर छोड़ ही दिया था सो ठीक ही है क्योंकि नियति अर्थात् दैविक नियमका उल्लंघन कौन कर सकता है ? ॥१६७। उस समय चकवा चकवियोंके जोड़े परस्परमें बिछड़ गये थे-अलग अलग हो गये थे, सो यह क्या सूर्यका अपराध है ? अथवा कालका अपराध है ? अथवा भाग्यका ही अपराध है ? ॥१ बना सब दिशाओंमें गाढ़ अन्धकार फैल गया था सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वीके बिना प्रायः सब ओर अन्धकार ही भर जाता है ॥१६९॥ अन्धकारसे घिरी हुई और ताराओंसे व्याप्त हुई वह रात्रि ऐसी सुशोभित हो रही १ उद्दीपनकारी। २ सन्ध्यारागः ल०, द०। ३ प्रसर्पन् । ४ सममरणाम् । अग्निप्रवेश कुर्वतीमित्यर्थः । ५ मुमुचे । ६ चक्राड को ल०, द०, अ०, स०, इ० । ७ च्याप्नोति । ८ तमसाच्छादिता। वेश्या । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व ततान्धतमसे लोके जनरुन्मीलितेक्षणः। नादृश्यत पुरः किञ्चित् मिथ्यात्वेनेव दूषितः ॥१७॥ प्रसह्य तमसा रुद्धो लोकोऽन्ताकुलीभवन् । दृष्टिवैफल्य दृष्टेर्नु बहु मेने शयालुताम् ॥१७२॥ दीपिका रचिता रेजुः प्रतिवेश्म स्फुरत्त्विषः । 'घनान्धतमसोभेदे प्रकलप्ता इव सूचिकाः ॥१७३॥ तमो विधूय दूरेण जगदानन्दिभिः करैः। उदियाय शशी लोकं क्षीरेण क्षालयन्निव ॥१७४॥ प्रखण्डमनुरागेण निजं मण्डलमुद्वहन् । सुराजेव कृतानन्दम् उदगाद् विधुरत्करः ॥१७॥ दृष्ट्वेवाकृष्टहरिणं हरि हरिणलाञ्छनम् । तिमिरौघः प्रदुद्राव करियूथसदृग् महान् ॥१७६॥ तततारावली रेज ज्योत्स्नापूरः सुधाछवः । सबुबुद इवाकाशसिन्धोरोधः परिक्षरन् ॥१७७॥ हंसपोत इवान्विच्छन् शशी तिमिरशैवलम् । तारा सहचरीकान्तं विजगाहे नभःसरः ॥१७८॥ तमो निःशेषमुद्धय जगदाप्लावयन् करैः। प्रालेयांशस्तदा विश्वं सुधामयमिवातनोत् ॥१७६॥ तमो दूरं विधूयाऽपि विधुरासीत् कलङकवान् । निसर्गजं तमो नूनं महताऽपि सुदुस्त्यजम् ॥१८०॥ थी मानो नील वस्त्र पहिने हुई और चमकीले मोतियोंके आभूषण धारण किये हुई कोई अभिसारिणी स्त्री ही हो ॥१७०॥ जिस प्रकार मिथ्या दर्शनसे दूषित पुरुषोंको कुछ भी दिखाई नहीं देता-पदार्थके स्वरूपका ठीक ठीक ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार गाढ अन्धकारसे भरे हुए लोकमें पुरुषोंको आंख खोलनेपर भी सामनेकी कुछ भी वस्तु दिखाई नहीं देती थी ॥१७१।। जबर्दस्ती अन्धकारसे घिरे हुए लोग भीतर ही भीतर व्याकुल हो रहे थे और उनकी दृष्टि भी कुछ काम नहीं देती थी इसलिये उन्होंने सोना ही अच्छा समझा था ॥१७२।। घर घर में लगाये हुए प्रकाशमान दीपक ऐसे अच्छे सुशोभित हो रहे थे मानो अत्यन्त गाढ़ अन्धकारको भेदन करने के लिये बहुत सी सुइयां ही तैयार की गई हों ॥१७३॥ इतने ही में जगत्को आनन्दित करनेवाली किरणोंसे अन्धकारको दूरसे ही नष्ट कर चन्द्रमा इस प्रकार उदय हुआ मानो लोकको दूधसे नहला ही रहा हो ॥१७४॥ वह चन्द्रमा किसी उत्तम राजाके समान संसारको आनन्दित करता हुआ उदय हुआ था, क्योंकि जिस प्रकार उत्तम राजा अनुराग अर्थात् प्रेमसे अपने अखण्ड (संपूर्ण) मण्डल अर्थात् देशको धारण करता है उसी प्रकार वह चन्द्रमा भी अनुराग अर्थात् लालिमासे अपने अखण्डमण्डल अर्थात् प्रतिबिम्बको धारण कर रहा था और उत्तम राजा जिस प्रकार चारों ओर अपना कर अर्थात् टैक्स फैलाता है उसी प्रकार वह चन्द्रमा भी चारों ओर अपने कर अर्थात् किरणें फैला रहा था ॥१७५॥ हरिणके चिह्न वाले चन्द्रमाको देखकर अन्धकारका समूह बड़ा होनेपर भी इस प्रकार भाग गया था जिस प्रकार कि हरिणको पकड़े हुए सिंहको देखकर हाथियोंका बड़ा भारी झुण्ड भाग जाता है । ।।१७६।। जिसमें ताराओंकी पङक्ति फैली हुई है ऐसा चन्द्रमाकी चांदनीका समूह उस समय ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो बुबुदों सहित ऊपरसे पड़ता हुआ आकाशरूपी समुद्रका प्रवाह ही हो।।१७७॥ हंसके बच्चे के समान वह चन्द्रमा अन्धकाररूपी शैवालको खोजता हआ तारे रूपी हंसियोंसे भरे हुए आकाशरूपी सरोवरमें अवगाहन कर रहा था-इधर-उधर घूम रहा था ॥१७८।। समस्त अन्धकारको नष्ट कर जगत्को किरणोंसे भरते हुए चन्द्रमाने उस समय यह समस्त संसार अमृतमय बना दिया था ॥१७९॥ अन्धकारको दूर करके भी वह चन्द्रमा कलंकी बन रहा था सो ठीक ही है क्योंकि स्वाभाविक अन्धकार बड़े पुरुषोंसे छुटना १ हठात् । २ नेत्रविफलत्वदर्शनात् । ३ शयनशीलताम् । ४ धनावतमसोद्देदे ट० । निविडान्धकारभेदने । ५ कृताः । ६ इवान्विष्टान् ल०, द०, प० । ७ विवेश । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० महापुराणम् .. भिषजेव करें: स्पृष्टा दिशस्तिमिरभेदिभिः । शनैर्दृश इवालोकम् आतेनुः शिशिरत्विषा ॥ १८१ ॥ इति प्रदोषसमये जाते प्रस्पष्टतारके । सौधोत्सङ्गभुवो भेजुः पुरन्धयः सह कामिभिः ।। १८२ ॥ चन्दनद्रवसिक्ताग्यः त्रग्विण्यः सावतंसिकाः । लसदाभरणा रेजुस्तन्व्यः कल्पलता इव ॥ १८३॥ इन्दुपादः समुत्कर्षम् श्रगान्मकरकेतनः । तदोदन्वानिवोद्वेलो मनोवृत्तिषु कामिनाम् ॥ १८४ ॥ रमणा' रमणीयाश्च चन्द्रपादाः सचन्दनाः । मदांश्च मदनारम्भम् श्रातन्वन् रमणीजने ॥ १८५ ॥ शशाङ्ककरजैत्रास्त्रेः तर्जयन्निखिलं जगत् । नृपवल्लभिकावासान्मनोभूरभ्यषेणयन् ॥१८६॥ नास्वादि मदिरा स्वैरं नाज न करेsपिता । केवलं मदनावेशात्तरुण्यो भेजुरुत्कताम् ॥ १८७॥ उत्सङ्गसङगिनी भर्तुः काचिन्मदविघूर्णिता । कामिनी मोहनास्त्रेण बतानङ्गेन तर्जिता ॥ १८८ ॥ सखीवचनमुल्लङध्य भक्त्वा मानं निरर्गला' । प्रयान्ती रमणावासं काप्यनङ्गेन धीरिता ॥ १८६॥ शंफलीवचनैर्दूना काचित् पर्यश्रुलोचना । चक्रा ह्वेव भृशं तेपे नायाति प्राणवल्लभे ॥ १६०॥ शून्यगानस्वनं: ' स्त्रीणाम् अलिज्याकल झङ्कृतैः । पूर्व रङ्गमिवानङगो रचयामास कामिनाम् ॥ १६९॥ भी कठिन है ।। १८० ।। जिस प्रकार वैद्यके द्वारा तिभिर रोगको नष्ट करनेवाले हाथोंसे स्पर्श की हुई आंखें धीरे धीरे अपना प्रकाश फैलाने लगती है उसी प्रकार चन्द्रमाके द्वारा अन्धकारको नष्ट करनेवाली किरणोंसे स्पर्श की हुई दिशाएँ धीरे धीरे अपना प्रकाश फैलाने लगी थीं ॥। १८१ ॥ इस प्रकार जिसमें तारागण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं ऐसा सायंकालका समय होनेपर सब स्त्रियां अपने अपने पतियों के साथ महलोंकी छतोंपर जा पहुँचीं ।। १८२ ॥ जिनके समस्त शरीरपर घिसे हुए चन्दनका लेप लगा हुआ है, जो मालाएँ धारण किये हुई हैं, कानों में आभूषण पहने हैं और जिनके समस्त आभरण देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसी वे स्त्रियां कल्पलताओं के समान सुशोभित हो रही थीं ॥ १८३॥ | उस समय चन्द्रमाकी किरणोंसे जिस प्रकार समुद्र लहराता हुआ वृद्धिको प्राप्त होने लगता है उसी प्रकार कामी मनुष्यों के मनमें काम उद्वेलित होता हुआ बढ़ रहा था ।। १८४ ।। सुन्दर पति चन्द्रमाकी किरणें और चन्दन सहित मद ये सब मिलकर स्त्रियों में कामकी उत्पत्ति कर रहे थे ।। १८५ ॥ चन्द्रमाकी किरणेंरूपी विजयी शस्त्रोंके द्वारा समस्त जगत्को तिरस्कृत करता हुआ कामदेव राजाकी स्त्रियोंके निवासस्थानमें भी सेना सहित जा पहुँचा था ।। १८६ ॥ तरुण स्त्रियोंने न तो मदिराका स्वाद लिया, न इच्छा नुसार उसे सूंघा और न हाथमें ही लिया, केवल कामदेवके आवेशसे ही उत्कण्ठाको प्राप्त हो गई, अर्थात् कामसे विह्वल हो उठीं ॥ १८७॥ पतिकी गोद में बैठी हुई और मदसे झूमती हुई कोई स्त्री कामदेवके द्वारा मोहन अस्त्रसे ताड़ित की गई थी ।। १८८।। कामदेव से प्रेरित हुई कोई स्त्री सखीके वचन उल्लंघन कर तथा मान छोड़कर स्वतंत्र हो अपने पतिके निवासस्थान को जा रही थी ।। १८९ ।। कोई स्त्री पतिके न आनेपर वापिस लौटी हुई दूतीके वचनोंसे दुखी होकर आंखों से आंसू छोड़ रही थी और चकवीके समान अत्यन्त विह्वल हो रही थी - तड़प रही थी ॥ १९०॥ शून्य हृदयसे गाये हुए स्त्रियोंके सुन्दर गीतोंसे तथा भ्रमरपंक्तिके मनोहर भंकारोंसे कामदेव कामी पुरुषोंके लिये पूर्व रङ्ग अर्थात् नाटकके प्रारम्भमें होनेवाला एक अंग विशेष ही मानो बना रहा था । भावार्थ-उस समय स्त्रियां पतियोंकी प्राप्तिके लिये बेसुध होकर गा रही थीं और उड़ते हुए भूमरोंकी गुंजार फैल रही थी जिससे ऐसा मालूम होता था मानो कामदेवरूपी नट कामक्रीड़ारूप नाटकके पहले होनेवाले संगीत विशेष ही दिखला रहा हो । नाटकके पहले जो मंगल-संगीत होता है उसे पूर्व रङ्ग कहते हैं ॥। १९१॥ १ मालभारिणः । २ प्रियतमाः । ३ मदाश्च ल० । ६ प्रतिबन्धरहिता । ७ धैर्य नीता । ८ चित्तसंमोहन हेतुगीतविशेषः । & कलध्वनिभेदः । सेनया सहाभ्यगमयन् । ५ उत्कण्टताम् । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व १६१ 'गोत्रस्खलनसंवृद्ध मन्युमन्यामनन्यजः । नोपैक्षिष्ट प्रियोत्सङ्गम् अनयन्नवसङगताम् ॥१२॥ नेन्दुपादति लेभे नोशारेन' जलाया । खण्डिता मानिनी काचिद् अन्तस्ता बलीयसि ॥१६३॥ काचिदुत्तापिभिर्बाणः तापिताऽपि मनोभुवा । नितम्बिनी प्रतीकारं नैच्छद्धर्यावलम्बिनी ॥१६४॥ अनुरक्ततया दूरं नोतया प्रणयोचिताम् । भूमि यूनाऽन्यया सोढः सन्देशः परुषाक्षरः ॥१६॥ प्रालि त्वं नालिकर ब्रूहि गतः किन्नु विलक्षताम् । प्रियानामाक्षरः क्षीणैः मोहान्मप्यवतारितैः ।१६६। यथा तव हृतं चेतः तया लज्जाऽप्यहारि किम् । येन निस्त्रपर" भयोऽपि प्रणयोऽस्मासु तन्यते ॥१७॥ सैवानुवर्तनीया ते सुभगं मन्यमानिनी। अस्याने योजिता प्रीतिः जायतेऽनुशयाय ते ॥१८॥ इति प्राणप्रियां काञ्चित् सन्दिशन्ती" सखोजने । युवा सादरमभ्येत्य नानुनिन्येन मानिनीम् ॥१६॥ चन्द्रपादास्तपन्तीव चन्दन दहतीव माम् । सन्धुक्ष्यत इवाऽमीभिः कामाग्निर्व्यजनानिलः ॥२०॥ गोत्रस्खलन अर्थात भलसे किसी दुसरी स्त्रीका नाम ले देनेसे जिसका क्रोध बढ़ रहा है ऐसी किसी अन्य नवीन ब्याही हुई स्त्रीकी भी कामदेवने उपेक्षा नहीं की थी किन्तु उसे भी पतिके समीप पहुँचा दिया था। भावार्थ-प्रौढ़ा स्त्रियों की अपेक्षा नवोढ़ा स्त्रियोंमें अधिक मान और लज्जा रहा करती है परन्तु उस चन्द्रोदयके समय वे भी कामसे उन्मत्त हो सब मान और लज्जा भूलकर पतियोंके पास जा पहुंची थीं ॥१९२॥ जिस किसी स्त्रीका पति वचन देकर भी अन्य स्त्रीके पास चला गया था ऐसी अभिमानिनी खण्डिता स्त्रीके मनका संताप इतना अधिक बढ़ गया था कि उसे न तो चन्द्रमाकी किरणोंसे संतोष मिलता था, न उशीर (खस) से और न पंखेसे ही ॥१९३॥ धीरज धारण करनेवाली कोई स्त्री कामदेवके द्वारा अत्यन्त पीड़ा देनेवाले बाणोंसे दुखी होकर भी उसका प्रतीकार नहीं करना चाहती थी। भावार्थअपने धैर्यगुणसे कामपीड़ाको चुपचाप सहन कर रही थी ॥१९४॥ कोई तरुण पुरुष प्रेमसे भरी हुई अपनी अन्य स्त्रीको प्रेम करने योग्य किसी दूर स्थानमें ले गया था, वहां वह उसके कठोर अक्षरोंसे भरे हए संदेशको चुपचाप सहन कर रही थी ॥१९५॥ कोई स्त्री अपनी सखीसे कह रही थी कि हे सखि, सच कह कि क्या वह भूमसे मेरे विषयमें कहे हुए और अत्यन्त क्षीण अपनी प्रियाक नामके अक्षरोंसे कुछ चकित हुआ था ? ॥१९६॥ कोई स्त्री अपने अपराधी पतिसे कह रही थी कि हे निर्लज्ज, जिसने तेरा चित्त हरण किया है क्या उसने तेरी लज्जा भी छीन ली है ? क्योंकि तू फिर भी मुझपर प्रेम करना चाहता है ।।१९७।। कोई स्त्री पतिको ताना दे रही थी कि आप अपने आपको बड़ा सौभाग्यशाली समझते हैं इसलिये जाइये उसी मान करनेवाली स्त्रीकी सेवा कीजिये क्योंकि अयोग्य स्थानमें की गई प्रीति आपके संतापके लिये ही होगी। भावार्थ-मुझसे प्रेम करनेपर आपको संताप होगा इसलिये अपनी उसी प्रेयसीके पास जाइये ।।१९८।। इस प्रकार सखियोंके लिये संदेश देती हुई किसी अहंकार करनेवाली प्यारी स्त्रीको उसका तरुण पति आकर बड़े आदरके साथ नहीं मना रहा था क्या? अर्थात् अवश्य ही मना रहा था ।।१९९।। कोई स्त्री अपनी सखीसे कह रही थी कि ये चन्द्रमा की किरण मुझे संताप दे रही है, यह चन्दन जला सा रहा है और यह पंखोंकी हवा मेरी कामाग्नि १ नामस्खलन । २ प्रवद्वक्रोधाम् । ३ कामः । ४ नववधूमित्यर्थः । ५ लामज्जकैः । 'मूलेऽस्योशीरमस्त्रियाम्' । 'अभयं नलदं सेव्यममृणाल जलाशयम् । लामज्जकं लघुलयमवदाहेष्टकापथे।" इत्यभिधानात् । ६ व्यजनेन । ७ वियुक्ता । ८ संधानम् (शय्यागृहम्) । ६ वाचिकम् । १० भो सखि । ११ अनृतम् । १२ विस्मयान्विताम् । १३ दिव्यः । १४ निर्लज्ज । १५ अहं सुभगेति मन्यमाना गमा। १६ पश्चात्तापाय । १७ तव । १८ सजल्पन्तीम् । वचनं प्रेषयन्तीम् । १६-न्येऽथ ल०, द० । अनुनय नाकरोदिति न । (अपि तु करोत्येव) । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महापुराणम् तमानयानुनीयेह नय मां वा तदन्तिकम् । त्वदधीना मम प्राणाः प्राणेशे बहुवल्लभे ॥२०१॥ इत्यनङगातुरा काचित् सन्दिशन्ती सखीं मियः । भुजोपरोधमाश्लेषि पत्या प्रत्यग्रखण्डिता ॥२०२॥ राज्ये मनोभवस्यास्मिन् स्वैरं रंरम्यतामिति । कामिनीकलकाञ्चीभिः उदघोषीव घोषणा ॥२०३॥ कर्णोत्पलनिलीनालिकुलकोलाहलस्वनैः। उपजे किमु स्त्रीणां कर्णजाहे' मनोभुवा ॥२०४॥ स्तनागरागसम्मी परिरम्भोऽतिनिर्दयः । ववृधे कामिवृत्देषु रभसश्च कचग्रहः ॥२०॥ (आरक्तकलुषा दृष्टिः मुखमापाट'लाधरम् । रतान्ते कामिनामासीत् सीत्कृतं वाऽसकृत्कृतम् ॥२०६॥ पुष्प सम्मर्दसुरभिः प्रास्त्रस्तजघनांशुका। सम्भोगावसतौ शय्या मिथुनान्यधिशेरत ॥२०७॥ कश्चिद् वीरभटै विरणारम्भकृतोत्सवैः । प्रियोपरोधान्मन्देच्छरप्यासेवि रतोत्सवः ॥२०८॥ केचित् कोर्त्यङगनासङगमुखसङगकृतस्पहाः । प्रियाङगनापरिष्वङ्गम् अङगीचकुर्न मानिनः ॥२०६॥ निजितारिभटै ग्या प्रिया मास्माभिरन्यथा । इति जातिभटाः केचिन्न भेजु शयनान्यपि ॥२१०॥ शरतल्पगतानल्पसुखसङकल्पतः परे । नाभ्यनन्दन् प्रियातल्पम् अनल्पेच्छा भटोत्तमाः ॥२११॥ स्वकामिनीभिरारब्धवीरालापर्भटः परः। विभावरी विभाताऽपि सा नावेदि रणोन्मुखैः ॥२१२॥ को बढ़ा सी रही है ॥२००। इसलिये मनाकर या तो उन्हें यहां ले आ या मुझे ही उनके पास ले चल, यह ठीक है कि प्राणपतिके अनेक स्त्रियां हैं इसलिये उन्हें मेरी परवाह नहीं है किन्तु मेरे प्राण तो उन्हीं के अधीन हैं ॥२०१।। इस प्रकार कामदेवसे पीड़ित होकर कोई स्त्री अपनी सखीसे संदेश कह ही रही थी कि इतने में उस नवीन विरहिणी स्त्रीको पास ही छिपे हुए उसके पतिने दोनों भुजाओंसे पकड़कर परस्पर आलिंगन किया ॥२०२॥ उस समय मनोहर शब्द करती हुई स्त्रियोंकी करधनियां मानो यही घोषणा कर रही थीं कि आप लोग कामदेवके इस राज्यमें इच्छानुसार क्रीड़ा करो ॥२०३।। उन स्त्रियोंके कर्णफूलके कमलोंमें छिपे हुए भूमरोंके समूह कोलाहल कर रहे थे और उससे ऐसा जान पड़ता था कि कामदेव स्त्रियोंके कानों के समीप लगकर कुछ गुप्त बातें ही कर रहा हो ॥२०४॥ उस समय कामी लोगोंके समूहमें स्त्रियोंके स्तनोंपर लगे हुए लेपको मर्दन करनेवाला और अत्यन्त निर्दय आलिंगन बढ़ रहा था तथा वेगपूर्वक केशोंकी पकड़ा-पकड़ी भी बढ़ रही थी ॥२०५।। संभोगके बाद कामी लोगोंके नेत्र कुछ कुछ लाल और कलुषित हो गये थे, मुख कुछ कुछ गुलाबी अधरोंसे युक्त हो गया था तथा उससे सी सी शब्द भी बार बार हो रहा था ।।२०६।। संभोग-क्रियाके समाप्त होनेपर स्त्री और पुरुष दोनों ही उस शय्यापर सो गये जो कि फूलोंके संमर्दसे सुगन्धित हो रही थी और जिसपर खुलकर अधोवस्त्र पड़े हुए थे ॥२०७॥ जिन्हें होनेवाले युद्धके प्रारम्भमें बड़ा आनन्द आ रहा था ऐसे कितने ही शूरवीर योद्धाओंने इच्छा न रहते हुए भी अपनी प्यारी स्त्रियोंके आग्रहसे संभोग सुखका अनुभव किया था ॥२०८॥ कीर्तिरूपी स्त्री के समागमसे उत्पन्न होनेवाले सखमें जिनकी इच्छा लग रही है ऐसे कितने ही मानी योद्धाओं ने अपनी प्यारी स्त्रियोंका आलिंगन स्वीकार नहीं किया था ॥२०९॥ 'जब हम लोग शत्रके योद्धाओंको जीत लेंगे तभी प्रियाका उपभोग करेंगे अन्यथा नहीं' ऐसी प्रतिज्ञा कर कितने ही स्वाभाविक शूरवीर शय्याओंपर ही नहीं गये थे ॥२१०॥ बड़ी बड़ी इच्छाओंको धारण करनेवाले कितने ही उत्तम शूरवीरोंने बाणोंकी शय्यापर सोनेसे प्राप्त हुए भारी सुखका संकल्प किया था इसलिये ही उन्होंने प्यारी स्त्रियोंकी शय्यापर सोना अच्छा नहीं समझा था ॥२१॥ जिन्होंने अपनी स्त्रियोंके साथ अनेक शूरवीरोंकी कथाएँ कहना प्रारम्भ किया है ऐसे युद्ध के १ बहुस्त्रीके सति । २ रहसि । ३ नूतनवियुक्ता। ४ रहो बभाषे। भेदकुमन्त्रः सूचितः । ५ कर्णमूले। ६ ईषदरुण । ७ सुरतावसाने । ८ नास्माभि-ल०, द०, अ०, प०, स०, इ०। ६ प्रभातापि । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व केचिद्रणरसासक्तमनसोऽपि पुरः स्थितम् । कान्तासडागरसं स्वरं भेजुः समरसा भटाः ॥२१३॥ प्रहारकर्कशो दष्टदशनच्छदनिष्ठुरः । रतारम्भो रणारम्भनिविशेषो न्यषेवि तैः ॥२१४॥ रतानुवर्तन ढिपरिरम्भर्मुखार्पणः । मनांसि कामिनां ज ह्रः कामिन्यस्ताः स्मरातुराः ॥२१॥ गर्द्धवोक्षितः सान्तहाँसमन्मनजल्पितः । अकाण्डरुषितैश्चण्डैः विवृतैरसमध भिः ॥२१६॥ तासामकृतकस्नेहगर्भः कृतककैतदैः । रसिकोऽभूद् रतारम्भः सम्भोगान्तेषु कामिनाम् ॥२१७॥ तेषां निधुवनारम्भतिभूमिगतं तदा । संद्रष्टुमसहन्तीव पर्यवर्तत सा निशा ॥२१॥ प्रलं बत चिरं रत्वा दम्पती ताम्ययों य वाम् । लम्बितेन्दुमखी तस्थौ इतीवापरदिग्वधूः ॥२१॥ विघट्थ्य रथाङगानां मिथुनानि मियोंऽशुमान् । तापेन तत्कृतेनेव परितोऽभ्युदियाय सः ॥२२०॥ तावदासीद् दिनारम्भो गतं नशं तमो लयम् । सहस्रांशुदिशं प्राचों परिरभे करोत्करैः ॥२२१॥ किरणस्तरुणीव तमः शावरमद्धतम् । तरणेः करणीयं तु दिनश्रीपरिरम्भणम् ॥२२२॥ कोककान्तानुरामेण सम एघाकरे श्रियम् । पुष्णनुमांशुरुषच्छन्२० अमुष्णात्कौमुदों श्रियम् ॥२२३॥ सन्मख हए अन्य योद्धा लोगोंको सबेरा होते हुए भी वह रात जान नहीं पड़ी थी। भावार्थस्थाएं कहते कहते रात्रि समाप्त हो गई, सबेरा हो गया फिर भी उन्हें मालूम नहीं हुआ ।।२१२॥ युद्ध और संभोगमें एकसा आनन्द माननेवाले कितने ही योद्धाओंका चित्त यद्यपि युद्धक रसमें आसक्त हो रहा था तथापि उन्होंने सामने प्राप्त हुए स्त्रीसंभोगके रसका भी इच्छानसार उपभोग किया था ।।२१३॥ उन योद्धाओंने रणके प्रारम्भके समान ही संभोगका प्रारंभ किया था, क्योंकि जिस प्रकार रणका प्रारम्भ परस्परके प्रहारों (चोटों) से कठोर होता है उसी प्रकार संभोगका प्रारम्भ भी परस्परके प्रहारों अर्थात कचग्रह, नखक्षत आदिसे कठोर था, और जिस प्रकार रणका प्रारम्भ ओठ चबाये जानेसे निर्दय होता है उसी प्रकार संभोगका प्रारम्भ भी ओठों के चुम्बन आदिसे निर्दय था ।।२१४।। कामसे पीड़ित हुई कितनी ही स्त्रियां पतियोंका गाढ आलिंगन कर, चम्बनके लिये उन्हें अपना मुख देकर और उनके साथ संभोग कर उनका मन हरण कर रही थीं ॥२१५।। आधी नजरसे देखना, भीतर ही भीतर हंसते हए अव्यात शब्द कहना, असमयमें रूस जाना, बड़ी तेजीके साथ करवट बदलना भौंहोंको आड़ी तिरछी चलाना और स्वाभाविक स्नेहसे भरा हुआ झूठा छल-कपट दिखाना आदि स्त्रियों के अनेक व्यापारोंसे संभोगका एक दौर समाप्त हो जानेपर भी कामी पुरुषोंका पुनः संभोग प्रारम्भ हो रहा था और वह बडा ही रसीला था ॥२१६-२१७॥ उस समय वह रात्रि पोदनपुरके स्त्री-पुरुषों के उस बढ़े हुए संभोगको देख नहीं सकी थी इसलिये ही मानो उलट पड़ी थी अर्थात् समाप्त हो चुकी थी-प्रातःकालके रूपमें बदल गई थी ॥२१८॥ जिसका चन्द्रमाको मुख नीचे की ओर लटक रहा है ऐसी पश्चिम दिशारूपी स्त्री मानो यही कहती हुई खड़ी थी कि हे स्त्री पुरुषो, रहने दो, बहुत देरतक क्रीड़ा कर चुके, नहीं तो तुम दोनों ही दुःख पाओगे ॥२१९॥ सर्यने सायंकालके समय चकवा-चकवियोंको परस्पर अलग-अलग किया था इसी संतापसे व्याप्त हुआ मानो वह फिरसे उदय होने लगा ॥२२०।। इतने में ही दिनका प्रारम्भ हआ, रात्रिका अन्धकार विलीन हो गया और सर्यने अपनी किरणोंक समहसे पूर्वदिशाका आलिंगन किया ।।२२१॥ रात्रिका अन्धकार तो सूर्यकी लाल किरणोंसे ही नष्ट हो गया था अब तो सूर्यको केवल दिनरूपी लक्ष्मीका आलिंगन करना बाकी रह गया था ॥२२२।। सर्य चकवियों के अनुरागके साथ ही साथ कमलोंकी शोभा बढ़ा रहा था और उदय १ गाहं परिला । २ अव्यक्तभाषणः । ३ विषमभ भिः । ४ प्रलयं गता । ५ ताम्यता ल० । ६ विघटनकृतेन । ७ व्याप्तः । ८ आलिङ्गनं चकार । ९ आलिङ्गनम् । १० -रद्गच्छन् ल०, द० । २५ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ महापुराणम् तमः कवाटमुद्घाटय दिङमुखानि प्रकाशयन् । जगदुद्धाटिताक्षं वा व्यधादुष्णकरः करैः ॥२२४॥ 'प्रातस्तरामथोत्थाय पद्माकरपरिग्रहम् । तन्वन् भानुः प्रतापेन जिगीषोवृत्तिमन्वगात् ॥२२॥ सुकण्ठा पेठुरत्युच्चः प्रभोः प्राबोधिकास्तदा । स्वयं प्रबुद्धमप्येनं प्रबोधेन युयुक्षवः ॥२२६॥ हरिणीच्छन्दः अशिशिरकरो लोकानन्दी जनैरभिनन्दितो बहुमतकरं तेजस्तन्वग्नितोऽयमुदेष्यति । नवर जगतामुद्योताय त्वमप्युदयोचितम् विधिमनुसरन् शय्योत्सङगं जहीहि मुदे श्रियः ॥२२७॥ कतरकतमें नाकान्तास्ते बलैर्बलशालिनो भुजबलमिदं लोकः प्रायो न वेत्ति तवाल्पकः । भरतपतिना सार्द्ध युद्ध जयाय कृतोद्यमो न पवर भवान् भूयाद् भर्ता नवीरजयश्रियः ॥२२८॥ रविरविरलानधन जातानिवाश्रमशाखिना तुहिनकणिकपातानाशु प्रमृज्य करोत्करैः। अयमुदयति प्राप्तानन्दरितोऽम्बुजिनीवनः उदयसमय प्रत्युद्यातोर धृतार्घमिवाऽम्बुजः ॥२२६॥ होते ही चांदनीकी शोभाको भी चुराता जाता था-नष्ट करता जाता था ॥२२३॥ सूर्यने अपने किरणरूपी हाथोंसे अन्धकाररूपी किवाड खोलकर दिशाओंके मह प्रकाशित कर दिये थे और समस्त जगत्के नेत्र खोल दिये थे ॥२२४।। वह सर्य विजयकी इच्छा करनेवाले किसी राजाकी वृत्तिका अनुकरण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार विजयकी इच्छा करनेवाला राजा बड़े सबेरे उठकर अपने प्रतापसे पद्माकर अर्थात् लक्ष्मीका हाथ स्वीकार करता है उसी प्रकार सूर्य भी बड़े सबेरे उदय होकर अपने प्रतापसे पद्माकर अर्थात् कमलोंके समुहको स्वीकार कर रहा था-अपने तेजसे उन्हें विकसित कर रहा था ॥२२५॥ यद्यपि उस समय महाराज बाहुबली स्वयं जाग गये थे तथापि उन्हें जगानेका उद्योग करते हुए सुन्दर कण्ठवाले बंदीजन जोर जोरसे नीचे लिखे हुए मंगलपाठ पढ़ रहे थे ॥२२६।। हे पुरुषोत्तम, जो लोगोंको आनन्द देनेवाला है और लोग जिसकी प्रशंसा कर रहे हैं ऐसा यह सूर्य सब लोगोंको अच्छा लगनेवाले तेजको फैलाता हुआ इधर पूर्व दिशासे उदय हो रहा है इसलिये आप भी जगत्को प्रकाशित और लक्ष्मीको आनन्दित करनेके लिये सर्योदयके समय होनेवाली योग्य क्रियाओंको करते हए शय्याका मध्यभाग छोड़िये ॥२२७॥ हे राजाओंमें श्रेष्ठ, आपकी सेनाओंने कितने कितने बलशाली राजाओंपर आक्रमण नहीं किया है, ये छोटे छोटे लोग प्रायः आपकी भुजाओंके बलको जानते भी नहीं हैं। हे नरवीर, आपने भरतेश्वरके साथ युद्धमें विजय प्राप्त करनेके लिये उद्यम किया है इसलिये विजयलक्ष्मीके स्वामी आप ही हों ।।२२८॥ हे देव, बगीचेके वृक्षोंपर पड़ी हुई ओसकी बूदोंको निरन्तर पड़ते हुए आंसुओंके समान अपनी किरणोंके समूहसे शीघ्र ही पोंछता हुआ यह सूर्य उदय हो रहा है और उदय होते समय ऐसा जान पड़ता है मानो कमलिनियोंके वन जिन्हें आनन्द प्राप्त हो रहा है ऐसे कमलोंके द्वारा अर्घ्य लेकर उसकी १ विवृतनेत्रम् । २ अतिशयप्रातःकाले। ३ अनुकरोति स्म । ४ प्रबोधन-द०, ल० । ५ योक्तुमिच्छवः । ६ अनुगच्छन् । ७ के के। ८ तव। ६ -नथुवाता-द० । १० -कापाता-ल०, द० । ११ प्रतिगृहीतः । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिंशत्तम पर्व १९५ अयमनुसरन कोकः कान्तां तटान्तरशायिनीम् अविरलगलद्वाष्पव्याजादिवोत्सृजतीं शुचम् । विशति बिसिनीपत्रच्छन्नां सरोजसरस्तटों सरसिजरजःकीणों पक्षौ विध्य शनैः शनैः ॥२३०॥ जरठबिसिनीकन्दच्छायामुषस्तरलास्त्विष स्तुहिनकिरणो दिक्पर्यन्तादयं प्रतिसंहरन् । अनुकुमुदिनीषण्डं तन्वन् करानमृतश्च्यतो बढयति परिष्वङगासंङगं वियोगभयादिव ॥२३॥ तिमिरकरिणां यथं भित्वा तदरपरिप्लुता मिव तनु मयं बिभच्छोणां निशाकरकेसरी। वनमिव नभः क्रान्त्वाऽस्ताद्रेर्गुहागहनान्यतः श्रयति नियतं 'निद्रासङगाद् विजिह्मिततारकः ॥२३२॥ सरति सरसीतीरं हंसः ससारसकूजितं ___झटिति घटते कोकद्वन्द्वं विशापमिवाधुना । पतति' पततां वन्दं विष्वक् द्रुमेषु कृतारुतं गतमिव जगत्प्रत्यापत्तिं समुद्यति भास्वति ॥२३३॥ उदयशिखरिणावश्रेणीसरोरुहरागिणी गगनजलधेरातन्वाना प्रवालवनश्रियम् । दिगिभवदन सिन्दूरश्रीरलक्तकपाटला ___ प्रसरतितरां सन्ध्यादीप्तिदिगाननमण्डनी ॥२३४॥ अगवानी ही कर रहे हों ॥२२९।। इधर देखिये, जो दूसरे किनारेपर सो रही है और निरन्तर बहते हुए आँसुओंके बहानेसे जो मानो शोक ही छोड़ रही है ऐसी अपनी स्त्री चकवीके पीछे पीछे जाता हुआ यह चकवा कमलोंके परागसे भरे हुए अपने दोनों पंखोंको झटकाकर कमलिनियोंके पत्तोंसे ढके हुए कमलसरोवरके तटपर धीरे धीरे प्रवेश कर रहा है ॥२३०। यह चन्द्रमा पके हुए मृणालकी कान्तिको चुरानेवाली अपनी कान्तिको सब दिशाओंके अन्तसे खींच रहा है तथा अमृत बरसानेवाली अपनी किरणोंको प्रत्येक कुमुदिनियोंके समूहपर फैलाता हुआ वियोगके डरसे ही मानो उनके साथ आलिङ्गनके सम्बन्धको दृढ़ कर रहा है ॥२३॥ जो अन्धकाररूपी हाथियोंके समूहको भेदन कर उनके रक्तसे ही तर हुएके समान लाल लाल दिखनेवाले शरीर (मण्डल) को धारण कर रहा है तथा नींद आ जानेसे जिसकी नक्षत्ररूपी आंखोंकी पुतलियां तिरोहित अथवा कुटिल हो रही हैं ऐसा यह चन्द्रमारूपी सिंह वनके समान आकाशको उल्लंघन कर अब अस्ताचलकी गहारूप एकान्त स्थानका निश्चित रूपसे आश्रय ले रहा है ।।२३२।। सूर्य उदय होते ही हंस, सारस पक्षियोंकी बोलीसे सहित सरोवरके किनारे पर जा रहे हैं, चकवा चकवियोंके जोड़े परस्परमें इस प्रकार मिल रहे हैं मानो अब उनका शाप ही दूर हो गया हो, पक्षियोंके समूह चारों ओर शब्द करते हुए वृक्षोंपर पड़ रहे हैं और यह जगत् फिरसे अपने पहले रूपको प्राप्त हुआ सा जान पड़ता है ॥२३३॥ उदयाचलकी चट्टानोंपर पैदा होनेवाले कमलोंके समान लाल तथा आकाशरूपी समुद्रमें मूंगाके वनकी १ अभिनिवेशात् । २ वक्रिततारकः । अक्षःकनीनिकेति ध्वनिः । ३ विगतशापम् । आक्रोशमित्यर्थः। ५ आश्रयति । ५ पक्षिणाम् । ६ कृतसमन्ताद् ध्वनिः। कृतारवं ल०। ७पूर्वस्थितिम् । ८ उदिते सति । ६ आदित्यं । १० विद्रुमं । ११ मण्डयतीति मण्डनी। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ महापुराणम् कमलमलिनी नालं' वेष्ट बत प्रविकस्वरं गतमरुणतां बालार्कस्य प्रसारिभिरंशभिः । परिगत मिवर प्रादुष्यद्भिः कणैरनिलाचिषां नियतविपदं धिग् व्यामूर्हि थियेकपराडमुखीम् ॥२३५॥ उपनततरूनाधुन्वाना विलोलितषट्पदाः कृतपरिचया वीचीचकैः सरस्सु सरोरुहाम् । "रतिपरिमलानाकर्षन्तः सरोजरजो जडाः' प्रतिदिशममी मन्दं वान्ति प्रगेतनमारुताः ॥२३६॥ कृतपा मालिनीच्छन्दः न पवर जिनभर्तुर्मङगलरेभिरिष्टः . प्रकटितजयघोषस्त्वं विबुध्यस्व भूयः । भवति निखिलविघ्नप्रप्रशान्तिर्यतस्ते रणशिरसि जयश्रीकामिनी कामुकस्य ॥२३७।। जयति दिदिजनाथैः प्राप्तपूर्जाद्धरहन् धुतदुरितपरागो वीतरागोऽपरागः । कृतनतिशतयज्व' प्रज्वलन्यौलिरत्न "च्छरितरुचिररोचिर्मञ्जरीपिजराङधिः ॥२३॥ शोभा फैलाती हुई, दिशारूपी हाथियों के मुखपर सिन्दूरके समान दिखनेवाली, महावरके समान गुलाबी और दिशाओंके मुखोंको अलंकृत करने वाली यह प्रभात-संध्याकी कान्ति चारों ओर बड़ी तेजीसे फैल रही है ॥२३४।। हे नाथ, यह खिला हुआ काल लाल नर्यकी फैलनेवाली किरणोंसे लाल लाल हो रहा है और ऐसा मालम होता है मानो अग्निके फैलते हा फलिगोंसे व्याप्त ही हो रहा हो तथा इसी भयसे यह भूमरी उसमें प्रवेश करने के लिये समर्थ नहीं हो रही है । आचार्य कहते हैं कि जिसमें आपत्ति सदा निश्चित रहती है और जो भिवेकसे पराङमुख है ऐसी मूर्खताको धिक्कार है ॥२३५।। हे राजन् , जो उपवनके वृक्षोंको हिला रहा है, भमरोंको चंचल कर रहा है, जिसने कमलोंके तालाबमें लहरों के साथ परिचय प्राप्त किया है, जो स्त्री-पुरुषोंके संभोगकी सुगन्धिको खींच रहा है और जो कमलोंके परागसे भारी हो रहा है ऐसा यह प्रातःकालका वायु सब दिशाओंमें धीरे धीरे बह रहा है ॥२३६॥ हे राजाओंमें श्रेष्ठ, जिनमें जय जयकी घोषणा प्रकट रूपसे की गई है ऐसे जिनेन्द्र भगवान्के इन इष्ट मंगलोंसे आप फिरसे जग जाइये क्योंकि इन्हीं मंगलोंके द्वारा रणके अग्रभागम विजयलक्ष्मी रूपी स्त्रीको चाहनेवाले आपके समस्त विघ्नोंकी अच्छी तरह शान्ति होगी ।।२३७।। ___ अनेक इन्द्रोंके द्वारा जिन्हें पूजाकी ऋद्धि प्राप्त हुई है, जिन्होंने पापरूपी धूल नष्ट कर डाली है, जो वीतराग है-जिन्होंने रागद्वेष नष्ट कर दिये हैं और नमस्कार करते हुए इन्द्रों के देदीप्यमान मुकुटके रत्नोंसे मिली हुई सुन्दर किरणोंकी मंजरीले जिनके चरण कुछ कुछ पीले हो १ असमर्थः । २ प्रवेशाय । ३ व्याप्तम् । ४ सुरतसमये दम्पत्यनुभक्तकस्तूरीकर्परादिपरिमलान् । ५ मन्दाः । ६ प्रातःकाले भव । ७ वीतरागद्वेषः । ८ इन्द्र । ६ व्याप्त । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर पञ्चत्रिंशत्तम पर्व ११७ जयति जयविलासः स च्यते यस्य पौष्पैः अलिकलतरुगनिजितानडगमुक्तः । सादगमस्त्रैर्भङगशोकादिवावि कृतकरुणनिनादैः सोऽयमाद्यो जिनेन्द्रः ॥२३६॥ जयति जितमनोभरिधामा स्वयम्भः जिनपतिरपरागः क्षालितागः परागः । सुरमुटविटडाकोदूढ पादाम्बुजश्री: जगद जगदगारप्रान्तविश्रान्तबोधः ॥२४०।। जयति मदनबाण रक्षतात्मापि योऽधात त्रिभ वनजयलक्ष्मीकामिनी वक्षसि स्वे। स्वयमवत च मुक्तिप्रेयसी यं विरूपा प्यनवम सुखताति तन्वती सोऽयमहन् ॥२४१॥ जयति समरभेरीभैरवारावभीम बलमरचि न कूजच्चण्डकोदण्डकाण्डम् । भ्र कटिकटिलमास्यं येन नाकारि वोच्चैः मनसिजरिपुघाते सोऽयमाद्यो जिनेशः ॥२४२॥ स जयति जिनराजो दुविभाव प्रभावः प्रभुरभिभवितुं यं नाशकन्मारवीरः । दिविजविजयदुरा रूढगर्वोऽपि गर्व न हृदि हृदिक्षयोऽधाद् यत्र३ १"कुण्ठास्त्रवीर्यः ॥२४३॥ रहे हैं ऐसे श्री अर्हन्तदेव सदा जयवन्त रहें ॥२३८॥ जिनके भीतर भमरोंके समह गंजार कर रहे हैं और उनसे जो ऐसे मालूम होते हैं मानो अपनी पराजयके शोकसे रोते हुए कामदेवके करुण कन्दनको ही प्रकट कर रहे हों तथा उसी हारे हुए कामदेवने अपने पुष्परूपी शस्त्र भगवान्के चरण-युगल के सामने डाल रक्खे हों ऐसे पुष्पोंके समूहसे जिनके विजयकी लीला सूचित होती है वे प्रथन जिनेन्द्र श्री वृषभदेव जयवन्त हों ।।२३९॥ जिन्होंने कामदेवको जीत लिया है, जिनका तेज अपार है, जो स्वयंभू हैं, जिनपति हैं, वीतराग हैं, जिन्होंने पाप रूपी धूलि धो डाली है, जिनके चरणकमलोंकी शोभा देव लोगोंने अपने मुकुटके अग्रभागपर धारण कर रक्खी है और जिनका ज्ञान लोक अलोक रूपी घरके अन्त तक फैला हुआ है ऐसे श्री प्रथम जिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें ॥२४०। जिनकी आत्मा कामदेवके बाणोंसे घायल नहीं हुई है तथापि जिन्होंने तीनों लोकोंकी जयलक्ष्मीरूपी स्त्रीको अपने वक्षःस्थलपर धारण किया है और मुक्तिरूपी स्त्रीने जिन्हें स्वयं वर बनाया इसके सिवाय वह मुक्तिरूपी स्त्री विरूपा अर्थात कुरूपा (पक्षमें आकाररहित) होकर भी जिनके लिये उत्कृष्ट सख-समहको बढ़ा रही है वे अर्हन्तदेव सदा जयवन्त हों ।।२४१॥ जिन्होंने जगद्विजयी कामदेवरूपी शत्रुको नष्ट करने के लिये न तो युद्धके नगाड़ोंके भयंकर शब्दोंसे भीषण तथा शब्द करते हुए धनुषोंसे यक्त सेना ही रची और न अपना मह ही भौंहोंसे टेढा किया वे प्रथम जिनेन्द्र भगवान वषभदेव सदा जयवन्त रहें ।।२४२।। जो सब जगत्के स्वामी हैं, कामदेवरूपी योद्धा भी जिन्हें जीतने १ पदयुगसमीपे । २ बलतेजाः । ३ अपगतरागः । ४ वलभ्या धृत । ५ लोकालोकालयप्रान्त । ६ धारयति स्म । ७ अमूर्तापि, कुरूपापीति ध्वनिः । ८ अप्रमितसुखपरम्पराम् । ६ जिनेन्द्रः ल०, द०। १० अचिन्त्य । ११ समर्थी ना भूत् । १२ अत्यर्थ । १३ सर्वज्ञे । १४ मन्द । 'कुण्ठो मन्दः क्रियासु च' इत्यभिधानात् । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ महापुराणम् जयति तरुरशोको दुन्दुभिः पुष्पवर्ष चमरिरुहसमेतं विष्टरं सहमुद्धम्' । वचनमसममुच्चै रातपत्रं च तेजः त्रिभुवनजयचिह्नं यस्य सार्वो जिनोऽसौ ॥ २४४ ॥ जयति जननतापच्छेदि यस्य क्रमाब्जं विपुलफलदमारान्नमूनाकीन्द्रभृङ्गम् । समुपनतजनानां प्रीणनं कल्पवृक्ष स्थितिमतनु महिम्ना सोऽवतात्तीर्थ कृद्रः ॥ २४५॥ नवर भरतराज्योऽप्यू जितस्यास्य युष्म द्भुजपरिघयुगस्य प्राप्नुयान्नैव कक्षाम् । भुजबलमिदमास्तां दृष्टिमात्रेऽपि कस्ते रणनिषकगतस्य स्थातुमीशः क्षितीशः ॥ २४६॥ तदलमधिप कालक्षेपयोगेन निद्रां जहिहि महति कृत्ये 'जागरूक स्त्वमेधि । सपदि च जयलक्ष्मीं प्राप्य भूयोऽपि देवं जिनम' वनम भक्त्या शासितारं जयाय ॥ २४७ ॥ हरिणीच्छन्दः इति समुचित रुच्चै रुच्चाव चर्जयमङगलैः सुघटितपदैर्भूयोऽमीभिर्जयाय विबोधितः । शयनममुचनिद्रापायात् स पार्थिवकुञ्जरः सुरगज इवोत्सङगं गङगाप्रतीरभुवः शनैः ॥ २४८ ॥ के लिये समर्थ नहीं हो सका तथा जिनके सामने देवोंको जीतनेसे जिसका अहंकार बढ़ गया है ऐसा कामदेव भी शस्त्र और सामर्थ्य के कुण्ठित हो जानेसे हृदयमें अहंकार धारण नहीं कर सका ऐसे अचिन्त्य प्रभावके धारक वे प्रसिद्ध जिनेन्द्रदेव सदा जयवन्त रहें ।। २४३|| अशोक वृक्ष, दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, चमर, उत्तम सिंहासन, अनुपम वचन, ऊंचा छत्र और भामण्डल ये आठ प्रातिहार्य जिनके तीनों लोकोंको जीतने के चिह्न हैं वे सबका हित करनेवाले श्री वृषभजिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें || २४४ || जिनके चरणकमल जन्मरूप संतापको नष्ट करनेवाले हैं, स्वर्ग मोक्ष आदि बड़े बड़े फल देनेवाले हैं, दूरसे नमस्कार करते हुए इन्द्र ही जिनके भूमर हैं और जो शरण में आये हुए लोगोंको कल्पवृक्ष के समान संतुष्ट करनेवाले हैं ऐसे वे तीर्थ कर भगवान् सदा विजयी हों और अपने विशाल माहात्म्यसे तुम सबकी रक्षा करें ॥ २४५ ॥ हे पुरुषोत्तम, महाराज भरत भी आपके दोनों भुजारूपी अर्गलदण्डोंकी तुलना नहीं प्राप्त कर सकते हैं, अथवा भुजाओं का बल तो दूर रहे, जब आप युद्धके निकट जा पहुँचते हैं तब आपके देखने मात्र से ही ऐसा कौन राजा है जो आपके सामने खड़ा रहने के लिये समर्थ हो सके ॥ २४६॥ इसलिये हे अधीश्वर, समय व्यतीत करना व्यर्थ है, निद्रा छोड़िये, इस महान् कार्य में सदा जागरूक रहिये और शीघ्र ही विजयलक्ष्मीको पाकर अन्य सब जगह विजय प्राप्त करनेके लिये सबपर शासन करनेवाले देवाधिदेव जिनेन्द्रदेवको भक्तिपूर्वक फिरसे नमस्कार कीजिये || २४७॥ इस प्रकार जिनमें अच्छे अच्छे पदोंकी योजना की गई है ऐसे अनेक प्रकारके १ प्रशस्तम् । २ प्रभामण्डलम् । ३ सर्वहितः । ४ समानताम् । ५ तत् कारणात् । ६ जागरणशीलः । ८ नमस्कुरु । ६ नानाप्रकारैः | ७ भव । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिशत्तम पर्व १९९ जयकरिघटाबन्ध'रुन्धन दिशो मदविह्वलः बलपरिवृढ रारूढश्रीरुदूढपराक्रमः। "नपकतिपयरारादेत्य प्रणम्य दिक्षितो भुजबलि युवा भेजे सैन्यैर्भुव समरोचिताम् ॥२४६॥ इत्यारे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षण श्रीमहापुराणसङग्रहे कुमारबाहुबलिरणोद्योग वर्णन नाम पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व॥ ३५ ॥ उत्कृष्ट तथा राजाओंके योग्य, विजय करानेवाले मंगल-गीतोंके द्वारा बाहुबली महाराज विजय प्राप्त करनेके लिये जगे और जिस प्रकार ऐरावत हाथी निद्रा छट जानेसे गंगाके किनारेकी भूमिका साथ धीरे धीरे छोड़ता है उसी प्रकार उन्होंने भी निद्रा छूट जानेसे धीरे धीरे शय्याका साथ छोड़ दिया ॥२४८।। सेनाके मुख्य मुख्य लोगों के द्वारा जिसकी शोभा बढ़ रही है, जो स्वयं विशाल पराक्रम धारण किये हुए हैं और कितने ही राजा लोग दूर दूरसे आकर प्रणाम करते हुए जिसे देखना चाहते हैं ऐसा वह तरुण बाहुबली मदोन्मत्त विजयी हाथियोंकी घटाओंसे दिशाओंको रोकता हुआ सेनाके साथ साथ युद्धके योग्य भूमिमें जा पहुँचा ॥२४९।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत तिरसठशलाकापुरुषोंका वर्णन करनेवाले महापुराणसंग्रहमें कुमार बाहुबलीके युद्धका उचोग वर्णन करनेवाला पैतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ । १ समहैः। २ व्याप्नुवन् । ३ सेनामहत्तरैः । ४ कतिपयन पैः । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षत्रिंशत्तम पर्व अथ दूतवचश्चण्डमरुदाघातघुणितः । प्रचचाल बलाम्भोधिः जिष्णोरारुध्य रोदसी ॥१॥ साङग्रामिक्यों महाभेर्यः तदा धीरं प्रदध्वनः। यद्धवानः साध्वसं भेजः खड्गव्यग्रा नभश्चराः ॥२॥ बलानि प्रविभक्तानि निधीशस्य विनिर्ययः । पुरः पादातमश्वीयम् पारादाराच्च' हास्तिकम् ॥३॥ रथकट्यापरिक्षेपो बलस्योभयपक्षयोः । अग्रतः पृष्ठतश्चासीद् ऊवं च खचरामराः ॥४॥ षडङगबलसामग्रया सम्पन्नः पाथिदेरमा । प्रतस्थे भरताधीशो निजानजजिगीषया ॥५॥ महान गजधलाबन्धोरजे सजयकेलनः । गिरीणामिव संघातः सञ्चारी सह शाखिभिः ॥६॥ १२३च्योतन्मदजलासारसिक्तभाभिमदाधिपः । प्रतस्थे रद्धदिकचकैः शैलरिव सनिर्भरः ॥७॥ जयस्तम्बरमा रेजुः तुङगाः शङगारिताडगकाः। सान्द्रसन्ध्यातपकान्ताः चलन्त इव भूधराः ॥८॥ चमभतङगजा रेज सज्जाः५ सजयकेतनाः । कुलशैला इवायाताः प्रमो: स्वब्बल दर्शने ॥६॥ गजस्कन्ध गता रेजः धर्गता विधताकशाः । प्रदीप्तोदभटनेपथ्या" दपः सम्पिण्डिता इव ॥१०॥ अथानन्तर-दूतके वचनरूपी तेज वायुके आघातसे प्रेरित हुआ चक्रवर्तीका सेना रूपी समुद्र आकाश और पृथिवीको रोकता हुआ चलने लगा ॥१॥ उस समय यद्धकी सुचना करनेवाले बड़े बड़े नगाड़े गम्भीर शब्दोंसे बज रहे थे और उनके शब्दोंसे तलवार उठाने में व्यग्र हुए विद्याधर भयभीत हो रहे थे ॥२॥ चक्रवर्तीकी सेलाएँ अलग अलग विभागोंमें विभवत होकर चल रही थीं, सबसे आगे पैदल सैनिकोंका समूह था, उससे कुछ दूरपर घोड़ोंका समूह था और उससे कुछ दूर हटकर हाथियों का समूह था ॥३॥ सेनाके दोनों ओर रथोंके समूह थे तथा आगे पीछे और ऊपर विद्याधर तथा देव चल रहे थे ॥४॥ इस प्रकार छह प्रकारकी सेना-सामग्रीसे सम्पन्न हए महाराज भरतेश्वरने अपने छोटे भाईको जीतनेकी इच्छासे अनेक राजाओंके साथ प्रस्थान किया ॥५॥ उस समय विजय-पताकाओंसे राहित बड़े बड़े हाथियोंके समह ऐसे सशोभित हो रहे थे मानो वक्षोंके साथ साथ चलते हा पर्वतोंकेसमह ही हो ॥६॥ जिनसे झरते हुए मदजल की वृष्टि से समस्त भूमि सोंची गई है और जिन्होंने सब दिशाएँ रोक ली हैं ऐसे मदोन्मत्त हाथियोंके साथ सावर्ती भरत चल रहे थे, उस समय वे हाथी एस मालमहोत थे मानो झरनोस सहित पर्वत ही हों ।।७। जिनक समस्त शरीरपर शृङ्गार किया गया हो और जो बहुत ऊँचे हैं ऐसे बे विजयके हाथी ऐरो सशोभित होते थे मानो संध्याकालको सघन धूपसे व्याप्त हुए चलते-फिरते पर्वत ही हों ।।८। जो सब प्रकारसे सजाये गये हैं और जिनपर बिजय-पताकाएँ फहरा रही हैं ऐसे वे सेनाके हाथी इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो महाराज भरतको अपना बल दिखाने के लिये कुलाचल ही आये हों ।।९।। जिन्होंने देदीप्यमान तथा वीररसके योग्य वेष धारण किया है, और जिन्होंने अंकुश हाथमें ले रखा है ऐसे हाथियों के कंधोंपर वैठे हुए महाबत लोग ऐसे जान पड़ते थे मानो एक जगह १ द्यावापृथिव्यौ। २ युद्धहेतवः । ३ सुध्वानैः ल०। ४ आयुधरवीकारख्याकुलाः । ५ संकरमकृत्वा प्रविभाजितानि । ६ समीपे । ७ रथसमूहपरिवृत्तिः । ८ उभयपाश्वयोरित्यर्थः, मौलवैतनिकयोः, मलं कारणं पुरुष प्राप्ताः मौलाः। वेतनेन जीवन्तो वैतनिकाः । सह। १० आसमहः ११ वृक्षः । १२ स्रवत् । १३ वेगवद्वर्ष । 'धारासम्पात आसारः । १४ सन्नद्धीकृताः। १५ निजबलदर्शने । १६ गजारोहकाः । १७ वीररसालडकाराः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षत्रिंशत्तम पर्व २०१ कोक्षयकैनिशाता'ग्रधाराणः सादिनो बभः । मौभय भुजोपानलग्नर्वाः स्वः पराक्रमः ॥११॥ धन्विनः शरनाराच सन्धृतेषुधयों बभुः । वनक्ष्माजा महाशाखाः कोटरस्थैरिवाहिभिः ॥१२॥ रथिनो रथकट यासु सम्भृतोचितहेतयः । सङग्रामवाधि तरणे प्रस्थिता नाविका इव ॥१३॥ भटा हस्त्रसं भेजुः सशिरस्त्रतनुत्रकाः । समुत्खातनिशातासिपाणयः पादरक्षणे ॥१४॥ पुस्फुर: स्फुरदस्त्रोवा भटाः सदशिताः परे । प्रोत्पातिका' इवानीलाः सोल्का मेघाः समुत्थिताः॥११॥ करवालं करालाग्रं करे कृत्वा भटोऽपरः। पश्यन् मुखरसं तस्मिन् स्वशौर्य परिजज्ञिवान्१५ ॥१६॥ कराग्रविधतं खङग तुलयन कोऽप्यभाद् भरः । प्रमिमित्सुरिवानेन' स्वामिसत्कारगौरवम् ॥१७॥ महामकटबद्धानां साधनानि.८ प्रतस्थिरे । पादातहास्तिकाश्वीयरथकट्यापरिच्छदैः ॥१८॥ बभुमकुटबद्धास्ते रत्नांशूदग्रमौलयः । सलीलालोकपालानाम अंशा भुवभिवागताः ॥१६॥ परिवेष्टय निरैयन्त पार्थिवाः पथिवीश्वरम् । दूरात स्वबलसामग्री दर्शयन्तो यथायथम् ॥२०॥ २२प्रत्यग्रसमरारम्भसंश्रवोद्भान्तचेतसः । २३भटीराश्वासयामासुः भटाः "प्रत्याय्यधीरितैः५ ॥२१॥ इकट्ठा हुआ अभिमान ही हो ॥१०॥ घुड़सवार लोग, जिनकी आगेकी धारका अग्रभाग बहुत तेज है ऐसी तलवारोंसे ऐसे जान पड़ते थे मानो उनके पराक्रम ही मूर्तिमान् होकर उनकी भजाओंके अग्रभाग अर्थात हाथोंमें आ लगे हों ।।१।। जिनके तरकस अनेक प्रक से भरे हुए हैं ऐसे धनुर्धारी लोग इस प्रकार जान पड़ते थे मानो बड़ी बड़ी शाखावाले वनके वृक्ष कोटरोंमें रहनेवाले सोसे ही सुशोभित हो रहे हों ॥१२॥ जिन्होंने रथोंके समूहमें युद्ध के योग्य सब शस्त्र भर लिये हैं ऐसे रथोंपर बैठनेवाले योद्धा लोग इस प्रकार चल रहे थे मानो युद्धरूपी समुद्रको पार करने के लिये नाव चलानेवाले खेवटिया ही हों ।।१३।। जिन्होंने शिरपर टोप और शरीरपर कवच धारण किया है तथा हाथमें पैनी तलवार ऊँची उठा रक्खी है ऐसे कितने ही योद्धा लोग हाथियोंके पैरोकी रक्षा करने के लिय उनके सामने चल रहे थे ।।१४।। जिनके हाथोंम शस्त्रोंके समूह चमक रहे हैं और जो लोहेके कवच पहने हुए हैं ऐसे कितने ही योद्धा ऐसे देदीप्यमान हो रहे थे मानो किसी उत्पातको सूचित करनेवाले उल्कासहित काले काले मेव ही उठ रहे हों ।।१५।। कोई अन्य योद्धा पैनी धारवाली तलवार हाथमें लेकर उसमें अपने मुखका रङ्ग देखता हुआ अपने पराक्रमका परिज्ञान प्राप्त कर रहा था ।।१६।। कोई अन्य योद्धा हाथके अग्र भागपर रखी हुई तलवारको तोलता हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो वह उससे अपने स्वामीके आदर-सत्कारका गौरव ही तोलना चाहता हो ॥१७।। पैदल सेना, हाथियोंक समह, घड़सवार और रथोके समह आदि सामग्रीके साथ साथ महामकूटबद्ध राजाओंकी सेनाएँ भी चल रही थीं ॥१८॥ रत्नोंकी किरणोंसे जिनके मकुट ऊँचे उठ रहे हैं ऐसे वे म कुटबद्ध राजा इस प्रकार सशोभित हो रहे थे मानो लीला सहित लोकपालोंके अंश ही पृथ्वीपर आ गये हों ।।१९।। अनेक राजा लोग महाराज भरतको घेरकर चल रहे थे और दरसे ही अपनी सेनाकी सामग्री यथायोग्यरूपसे दिखलाते जाते थे ॥२०॥ नवीन १निशित। २ अश्वारोहाः । अश्वारोहस्तु सादिनः' इत्यभिधानात् । ३ इव । ४ प्रक्ष्वेडनास्तु नाराचाः । ५ इषुधिः तूणीरः । 'तुणोपासङगतूणीरनिषङगा इषुधियोः । तूण्यामित्यभिधानात् । सम्भूतेषुधयः ल०, द०, अ०, प०, स०, इ०। ६ समरसमुद्रोत्तरणार्थम् । ७ कर्णधाराः । 'कर्णधारस्तु नाविकः' इत्यभिधानात् । ८ हस्तिमुख्यम् । ६ कवच । १० पादरक्षार्थम् । ११ स्फुरन्ति स्म । १२ कवचिताः । 'सन्नद्धो वमितः सज्जो दंशितो व्यूहकण्टकः' इत्यभिधानात् । १३ उत्पातहेतवः । १४ स्वं शौर्यम् ल० । १५ बुबुधे। १६ प्रमातुमिच्छ: । प्रतिमित्सु-द०, ल०, प०, इ०, अ०, स० । १७ खड्गेन सह । १८ बलानि । १६ परिकरैः । २० केचिल्लोकपाला इत्यर्थः । २१ निर्ययुः। २२ नुतनरणाम्भसंश्रवणादुद्भान्तचेतो यासां तास्ता: । २३ भटयोषितः । २४ विश्वास्य । २५ धीरवचनैः । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ महापुराणम् भूरेणवस्तदाश्वीयखुरोद्धृताः खलङघिनः । क्षणविनितसंप्रेक्षाः प्रचारमराङगनाः ॥२२॥ रजः सन्तमसे रुद्धदिक्चक्र व्योमलङधिनि । चक्रोद्योतो नणां चके दृशः स्वविषयोन्मुखीः ॥२३॥ समुद्भटरसप्रायः' भटालापमहीश्वराः । प्रयाणके ति प्रापुः जनजल्परपीदर्शः ॥२४॥ रणभूमि "प्रसाध्यारात् स्थितो बाहुबली न पः । अयं च तपशार्दूलः प्रस्थितो निनियन्त्रणः ॥२५॥ न विघ्नः किन्नु खल्वत्र स्याद् भ्रात्रोरनयोरिति । प्रायो न शान्तये युद्धम् एनयोरनुजीविनाम् ॥२६॥ विरूपकमिदं युद्धम् आरब्धं भरतेशिना । ऐश्वर्यमददुर्वाराः स्वैरिणः प्रभवोऽथवा ॥२७॥ इमे मकुटबद्धाः किं नैनौ वारयित क्षमाः । येऽमी समग्रसामग्रया सङग्रामयितुमागताः ॥२८॥ अहो महानुभावोऽयं कुमारो भुजविक्रमी। क्रुद्ध चक्रधरेऽप्येवं यो योद्ध सम्मुखं स्थितः ॥२६॥ १३अथवा तन्त्रभूयस्त्वं न जयाङगं मनस्विनः। नन सिंहो जयत्येकः संहितानपि दन्तिनः ॥३०॥ अयं च चक्रभृद् देवो नेष्टः सामान्यमानुषः । योऽभिरक्ष्यः सहस्रेण प्रणम्राणां सधाभुजाम् ॥३१॥ "तन्मा भूदनयोर्युद्धं जनसङक्षयकारणम् । कुर्वन्तु देवताः शान्ति यदि सन्निहिता इमाः ॥३२॥ इति माध्यस्थ्यवृत्त्यैके८ जनाः श्लाघ्यं वचो जगुः । पक्षपातहताः केचित् स्वपक्षोत्कर्षगुज्जगुः ॥३३॥ युद्धका प्रारम्भ सुनकर जिनके चित्त व्याकुल हो रहे हैं ऐसी स्त्रियोंको वीर योद्धा बड़ी धीरताके साथ समझाकर आश्वासन दे रहे थे ॥२१॥ उस समय घोड़ोंके खुरोंसे उठी हुई और आकाशको उल्लंघन करनेवाली पृथिवीकी धूल क्षण भरके लिये देवांगनाओंके देखने में भी बाधा कर रही थी ॥२२॥ समस्त दिशाओंको व्याप्त करनेवाले और आकाशको उल्लंघन करनेवाले उस धूलिसे उत्पन्न हुए अन्धकारमें चक्ररत्नका प्रकाश ही मनुष्योंके नेत्रोंको अपना अपना विषय ग्रहण करने के सन्मुख कर रहा था ॥२३॥ राजा लोग रास्ते में अत्यन्त उत्कट वीररससे भरे हुए योद्धाओंके परस्परके वातलिापसे तथा इसी प्रकारके अन्य लोगोंकी बातचीतसे ही उत्साहित हो रहे थे ।।२४।। उधर राजा बाहुबली रणभूमिको दूरसे ही युद्धके योग्य बनाकर ठहरे हुए हैं और इधर राजाओंमें सिंहके समान तेजस्वी महाराज भरत भी यन्त्रणारहित (उच्छङखल) होकर उनके सन्मुख जा रहे हैं ॥२५॥ नहीं मालम इस यद्धमें इन दोनों भाइयोंका क्या होगा ? प्रायः कर इनका यह युद्ध सेवकोंकी शान्तिके लिये नहीं है । भावार्थइस युद्ध में सेवकोंका कल्याण दिखाई नहीं देता है ॥२६॥ भरतेश्वरने यह युद्ध बहुत ही अयोग्य प्रारम्भ किया हे सो ठीक ही है क्योंकि जो ऐश्वर्य के मदसे रोक नहीं जा सकते ऐसे प्रभ लोग स्वेच्छाचारी ही होते हैं ॥२७।। जो ये मुकुटबद्ध राजा समस्त सामग्रीके साथ युद्ध करनेके लिये आये हुए हैं वे क्या इन दोनोंको नहीं रोक सकते हैं ? ॥२८॥ अहो, भुजाओंका पराक्रम रखनेवाला यह कुमार वाहुबली भी महाप्रतापी है जो कि चक्रवर्तीके कुपित होनेपर भी इस प्रकार यद्धके लिये सन्मख खडा हआ है ॥२९॥ अथवा शरवीर लोगोंको सामग्रीकी अधिकता विजयका कारण नहीं है क्योंकि एक ही सिंह झुण्डके झुण्ड हाथियोंको जीत लेता है ॥३०॥ नमस्कार करते हुए हजारों देव जिसकी रक्षा करते हैं ऐसा यह चक्रको धारण करनेवाला भरत भी साधारण पुरुष नहीं है ।।३१।। इसलिये जो अनेक लोगों के विनाशका कारण है ऐसा इन दोनोंका युद्ध नहीं हो तो अच्छा है, यदि देव लोग यहां समीपमें हों तो वे इस युद्धकी शान्ति करें॥३२।। इस प्रकार कितने ही लोग मध्यस्थ भावसे प्रशंगनीय वचन कह रहे थे १ आकाशलङघिनः । २ आलोकनाः। ३ रजोऽन्धकार। ४ वीररसवहुलैः । ५ अलङ्कृत्वा । ६ समीपे । ७ नृपयेष्ठः भरत इत्यर्थः । ८ निरङकुशः । ६ भटानाम् । १० कष्टम् । ११ –बो यतः ल० । १२ युद्ध कारयितुम् । १३ तथाहि । १४ सेनाबाहुल्यम् । १५ संयुक्तान् १६ देवानाम् । १७ तत् कारणात् । १८ अन्ये । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्त्रिंशत्तमं पर्व एवं प्रायेजनालापैः महीनाथा विनोदिताः । द्रुतं प्रापुस्तमुद्देशं यत्र वीराग्रणीरसौ ॥ ३४ ॥ दोदपं विगणय्यास्य दुर्विलङ्घयमरातिभिः । त्रेसुः प्रतिभटाः प्रायः 'तस्मिन्नासन्नसन्निधौ ॥३५॥ इत्यभ्यर्णे बले जिष्णोः " बलं भुजबलीशिनः । जलमब्धेरिवाक्षुभ्यद् वीरध्वाननिरुद्धदिक् ॥ ३६ ॥ प्रयोभयबल धीराः सन्नद्धगजवाजयः । बलान्यारचयामासुः अन्योऽन्यं प्रयुयुत्सया ॥३७॥ ( तावच्च मन्त्रिणो मुख्याः सम्प्रधार्यावदन्निति । शान्तये नैनयोर्युद्ध" ग्रहयोः क्रूरयोरिव ||३८|| 'चरमागन्धरावेतौ नानयोः काचन क्षतिः । क्षयो जनस्य पक्षस्य र व्याजेनानेन जृम्भितः ॥३६॥ इति निश्चित्य मन्त्रज्ञा भीत्वा भूयो जनक्षयात् । तयोरनुमतिं लब्ध्वा धर्म्यं रणमघोषयन् ॥४०॥ कारणरणेनालं जनसंहारकारिणा । महानेव "मधर्मश्व गरीयांश्च यशोवधः ॥४१॥ बलोत्कर्ष परीक्षेयम् अन्यथाऽप्युपपद्यते । तदस्तु युवयोरेव मिथो युद्धं त्रिधात्मकम् ॥४२॥ भ्रूभङगेन" विना भङ्गः सोढव्यो युवयोरिह । विजयश्च विनोत्सेकात्" धर्मो ह्येष सनाभिषु ॥ ४३ ॥ ५ इत्युक्तt पार्थिवः सर्वः सोपरोधश्च मन्त्रिभिः । तौ कृच्छ्रात् प्रत्यपत्सातां तादृशं युद्धमुद्धतौ ॥४४॥ और कितने ही पक्षपातसे प्रेरित होकर अपने ही पक्षकी प्रशंसा कर रहे थे ||३३|| प्राय : लोगों के इसी प्रकारके वचनोंसे मन बहलाते हुए राजा लोग शीघ्र ही उस स्थानपर जा पहुंचे जहां वीर शिरोमणि कुमार बाहुबली पहले से विराजमान था || ३४|| बाहुबली के समीप पहुंचते ही भरत के योद्धा, जिसका शत्रु कभी उल्लंघन नहीं कर सकते ऐसा बाहुबलीकी भुजाओंका दर्प देखकर प्रायः कुछ डर गये ।। ३५ ।। इस प्रकार चक्रवर्ती भरतकी सेनाके समीप पहुँचनेपर वीरोंके शब्दोंसे दिशाओं को भरनेवाली बाहुबलीकी सेना समुद्रके जलके समान क्षोभको प्राप्त हुई ||३६|| २०३ अथानन्तर - दोनों ही सेनाओं में जो शूरवीर लोग वे परस्पर युद्ध करनेकी इच्छासे अपने हाथी घोड़े आदि सजाकर सेनाकी रचना करने लगे- अनेक प्रकारके व्यूह आदि बनाने लगे ||३७|| इतने ही दोनों ओरके मुख्य मुख्य मंत्री विचार कर इस प्रकार कहने लगे कि क्रूर ग्रहों के समान इन दोनों का युद्ध शान्तिके लिये नहीं है ||३८|| क्योंकि ये दोनों ही चरम शरीरी हैं, इनकी कुछ भी क्षति नहीं होगी, केवल इनके युद्धके बहाने से दोनों ही पक्षके लोगोंका क्षय होगा ||३९|| इस प्रकार निश्चय कर तथा भारी मनुष्योंके संहारसे डरकर मंत्रियोंने दोनोंकी आज्ञा लेकर धर्मयुद्ध करनेकी घोषणा कर दी ||४०|| उन्होंने कहा कि मनुष्यों का संहार करनेवाले इस कारणहीन युद्धसे कोई लाभ नहीं है क्योंकि इसके करनेसे बड़ा भारी अधर्म होगा और यशका भी बहुत विघात होगा ||४१ ॥ | यह बलके उत्कर्षकी परीक्षा अन्य प्रकार से भी हो सकती है इसलिये तुम दोनोंका ही परस्पर तीन प्रकारका युद्ध हो ॥४२॥ इस युद्ध में जो पराजय हो वह तुम दोनोको भौंहके चढ़ाये बिना ही सरलतासे सहन कर लेना चाहिये तथा जो विजय हो वह भी अहंकारके बिना तुम दोनोंको सहन करना चाहिये क्योंकि भाई भाइयों का यही धर्म है ||४३|| इस प्रकार जब समस्त राजाओं और मंत्रियोंने बड़े आग्रहके साथ कहा तब कहीं बड़ी कठिनतासे उद्धत हुए उन दोनों भाइयोंने वैसा युद्ध करना स्वीकार १ एवमाद्यैः । २ प्राप्ता ल०, प० द० । ३ भुजबली स्थितः । ४ विचार्य । ५ बाहुबलिनि । ६ अत्यासन्ने सति । ७ भरतस्य । ८ वीराः ल० द० अ०, प०, स०, इ० । ६ वाजिनः अ०, स०, द० । १० प्रकर्षेण योद्धुमिच्छया । ११ नावयो- ल० । १२ सहायस्य । १४ एवं सति । युद्धे सतीत्यर्थः । १५ कीर्तिनाश: । १६ घटते इत्यर्थः । १८ क्रोधाभावेनेत्यर्थः । १६ गर्वाभावादित्यर्थः । २० अनुमेनाते । १३ युद्धच्छलेन । १७ तत् कारणात् । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ महापुराणम् जलदष्टिनियुद्धेषु' योऽनयोर्जयमाप्स्यति । स जयश्रीविलासिन्याः पतिरस्तु स्वयंवृतः ॥४५॥ इत्युद्घोष्य कृतानन्दम् आनन्दिन्या गभीरया । भेर्या चमूप्रधानानां न्यधुरेकत्र सन्निधिम् ॥४६॥ नृपा भरतगृह्या ये तानेका न्यवेशयन् । ये बाहुबलिगृह्याश्च पार्थिवांस्तानतोऽन्यतः ॥४७॥ मध्ये महीभृतां तेषां रेजतुस्तौ नृपौ स्थितौ । गतौ निषधनीलाद्री कुतश्चिदिव सन्निधिम् ॥४८॥ "तयोर्भुजबली रेजे गरुडग्रावसच्छविः। जम्बूद्रम इवोत्तुङगः समृङगोऽशित मुद्धजः ॥४६॥ रराज राजराजोऽपि तिरीटोदनविग्रहः। सचलिक इवादीन्द्रः तप्तचामीकरच्छविः ॥५०॥ दघद्धीरतरां दृष्टि निनिमेषामनुद्भटाम् । इष्टियुद्ध जयं प्राप प्रसभं भजविक्रमी ॥५१॥ . विनिवार्य कृतक्षोभम् अनिवार्य बलार्णवम् । मर्यादया यवीयांसं जयेनायोजयन्नाः ॥५२॥ /सरसीजलमागाढौ० जलयुद्ध मदोद्धतौ। दिग्गजाविव तो दीर्धेः व्यात्युपक्षीमासतुर्भुजैः ॥५३॥ अधिवक्षस्तरं जिष्णो रेजरच्छा जलच्छटाः । शैलभर्तुरिवोत्सङगसगिन्यः सतयोम्भसाम् ॥५४॥ जलौघो भरतेशेन मुक्तो दोर्बलशालिनः । प्रांशोरप्राप्य दूरेण मुखमारात् समापतत् ॥५५॥ किया ॥४४॥ ‘इन दोनोंके बीच जल युद्ध, दृष्टि युद्ध और बाहु युद्ध में जो विजय प्राप्त करेगा वही विजय-लक्ष्मीका स्वयं स्वीकार किया हुआ पति हो, इस प्रकार सबको आनन्द देनेवाली गंभीर भेरियोंके द्वारा जिसमें सबको हर्ष हो इस रीतिसे घोषणा कर मंत्री लोगोंने सेनाके मुख्य मुख्य पूरुषोंको एक जगह इकट्ठा किया ।।४५-४६।। जो भरतके पक्षवाले राजा थे उन्हें एक ओर बैठाया और जो बाहुबलीके पक्ष के थे उन्हें दूसरी ओर बैठाया ।।४७।। उन सब राजाओं के बीच में बैठे हुए भरत और बाहुबली ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो किसी कारणसे निषध और नीलपर्वत ही पास पास आ गये हों ॥४८॥ उन दोनोंमें नीलमणिके समान सुन्दर छविको धारण करता हुआ और काले काले केशोंसे सुशोभित कुमार बाहुबली ऐसा जान पड़ता था मानो भमरोंसे सहित ऊँचा जम्बवक्ष ही हो ॥४९॥ इसी प्रकार मकुटसे जिसका शरीर ऊँचा हो रहा है और जो तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिको धारण करनेवाला है ऐसा राज-राजेश्वर भरत भी इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानो चूलिकासहित गिरिराजसुमेरु ही हो ।।५०।। अत्यन्त धीर तथा पलकोंके संचारसे रहित शान्त दृष्टिको धारण करते हुए कुमार बाहुबलीने दृष्टियुद्धमें बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर ली ।।५१।। हर्षरो क्षोभ मचाते हुए बाहुबलीके दुनिवार सेनारूपी समुद्रको रोककर राजाओंने बड़ी मर्यादाके साथ कुमार बाहुबलीको विजयसे युक्त किया अर्थात दृष्टियुद्धमें उनकी विजय स्वीकार की ॥५२।। तदनन्तर मदोन्मत्त दिग्गजोंके समान अभिमानसे उद्धत हुए वे दोनों भाई जलयुद्ध करने के लिये सरोवरके जलमें प्रविष्ट हुए और अपनी लम्बी लम्बी भुजाओंसे एक दूसरेपर पानी उछालन लग ।।५३।। चक्रवता भरतकं वक्षःस्थलपर बाहुबलोक द्वारा छोड़ी हुई जलको उज्ज्वल छ टाएं ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो सुमेरुपर्वतके मध्यभागमें जलका प्रवाह ही पड़ रहा हो ।।५४।। भरतेश्वर के द्वारा छोड़ा हुआ जलका प्रवाह अत्यन्त ऊँचे बाहुबलीके मुखको दूर छोड़कर दूरसे ही नीचे जा पड़ा ।। भावार्थ-भरतेश्वरने भी बाहुबलीके ऊपर पानी फेंका था परन्तु बाहबलीके ऊँचे होने के कारण वह पानी उनके मवतक नहीं पहँच सका, दरसे ही नीचे जा पड़ा । भरतका शरीर पाँचसौ धनुष ऊँचा था और बाहुबलीका पाँचसौ पच्चीस १ जलयुद्धदृष्टियुद्धबाहुयुद्धेषु । 'नियुद्धं बाहुयुद्धे' इत्यभिधानात् । २ चक्रुः । ३ कारणात् । ४ सम्मेलनमित्यर्थः । ५ तयोर्मध्य। ६ नीलकेशः। 'शितः कृष्ण सिते भर्जे' इति विश्वलोचनः । ७ शान्ताम् । ८ शीघम् । ६ अनुजम् । 'जघन्यजे स्युः कनिष्टयवीयोऽवरजानुजाः' इत्यभिधानात् । १० प्रविष्टौ। ११ परस्पर जलसेचन चक्रतुः । १२ प्रवाहाः। १३ उन्नतस्य । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तमं पर्व २०५ भरतेशः किलात्रापि न यदाप जयं तदा। बलैर्भुजबलीशस्य भूयोऽप्युद्योषितो जयः ॥५६॥ निय द्धमथ' सङगोर्य न सिंहौ सिंहविक्रमी । धारावाविष्कृतस्पद्धौ तौ रङगमवतेरतुः ॥५७॥ 'वल्गितास्फोटितश्चित्रः करणबन्ध पीलितः। दोर्दर्पशालिनोरासीद् बाहयुद्धं तयोर्महत् ॥५८) ज्वलन्मकटभाचको हेलयोझामितोऽमुना । लीलामलातचक्रस्य' चक्री भेजे क्षणं भूमन् ॥५६॥ यवोयान्न पशार्दुलं ज्यायांसं जितभारतम् । जित्वाऽपि नानयद् भूमि प्रभुरित्येव गौरवात् ॥६०॥ भुजोपरोधमुद्धत्य स तं धत्ते स्म दोर्बली । हिमाद्रिमिव नीलाद्रिः महाकटकभास्वरम् ॥६॥ (तदा कलकलश्च पक्ष्यैर्भुजबली शिवः । नृपैर्भरतगृहयैस्तु लज्जया नमितं शिरः ॥६२॥ समक्षमीक्षमाणेषु पाथिवेषभयेष्वपि । परां विमानतां प्राप्य ययौ चक्री विलक्षताम् ॥६३॥ बद्ध कटिरुझान्तरुधिरारुणलोचनः । क्षणं दुरीक्षता भेजे चक्री प्रज्वलितः धा ॥६४॥ क्रोधान्धेन तदा दध्ये कर्तुमस्य पराजयम् । चक्रमत्कृत्तनिःशेषद्विषच्चकं निधीशिना ॥६५॥ "प्राध्यानमात्रमेत्याराद् अद:" कृत्वा प्रदक्षिणाम् । अवध्यस्यास्य पर्यन्तं तस्थौ मन्दीकृतातपम् ॥६६॥ धनुष । इसलिये बाहुबलीके द्वारा छोड़ा हुआ पानी भरतके मुख तथा वक्षःस्थलपर पड़ता था परन्तु भरतके द्वारा छोड़ा हुआ पानी बीच में ही रह जाता था-बाहुबलीके मुखतक नहीं पहुँच पाता था ।।५५।। इस प्रकार जब भरतेश्वरने इस जलयुद्धमें भी विजय प्राप्त नहीं की तब वाहबलीकी सेनाओंने फिरसे अपनी विजयकी घोषणा कर दी ॥५६॥ अथानन्तर सिंहके समान पराक्रमको धारण करनेवाले धीरवीर तथा परस्पर स्पर्धा करनेवाले वे दोनों नरशार्दूल-श्रेष्ठ पुरुष बाहुयुद्धकी प्रतिज्ञा कर रंगभूमिमें आ उतरे ॥५७॥ अपनी अपनी भुजाओंके अहंकारसे सुशोभित उन दोनों भाइयोंका, अनेक प्रकारसे हाथ हिलाने, ताल ठोकने, पैतरा बदलने और भुजाओंके व्यायाम आदिसे बड़ा भारी बाहु युद्ध (मल्ल युद्ध) हुआ ॥५८।। जिसके मुकुटको दीप्तिका समुह अतिशय देदीप्यमान हो रहा है ऐसे भरतको बाहुबलीने लीला मात्रमें ही घुमा दिया और उस समय घूमते हुए चक्रवर्तीने क्षण भरके लिये अलातचक्रकी लीला धारण की थी ॥५९।। बाहुबलीने राजाओंमें श्रेष्ठ, बड़े तथा भरत क्षेत्रको जीतनेवाले भरतको जीतकर भी थे बड़े हैं' इसी गौरवसे उन्हें पृथिवीपर नहीं पटका ।।।।६०॥ किन्तु भुजाओंसे पकड़कर ऊंचा उठाकर कन्धपर धारण कर लिया। उस समय भरतेश्वरको कन्धेपर धारण करते हुए बाहुबली ऐसे जान पड़ते थे मानो नील गिरिने बड़े बड़े शिखरोंसे देदीप्यमान ि पर्वतको ही धारण कर रक्खा हो ॥६१।। उस समय बाहुबलीके पक्षवाले राजाओंने बड़ा कोलाहल मचाया और भरतके पक्षके लोगोंने लज्जासे अपना शिर झुका लिया ॥६२। दोनों पक्षके राजाओंके साक्षात् देखते हुए चक्रवर्ती भरतका अत्यन्त अपमान हुआ था इसलिये वे भारी लज्जा और आश्चर्यको प्राप्त हए ।।६३॥ जिसने भौंह चढ़ा ली हैं, जिसकी रक्तके समान लाल लाल आंखें इधर उधर फिर रही हैं और जो क्रोधसे जल रहा है ऐसा वह चक्रवर्ती क्षण भरके लिये भी निरीक्ष्य हो गया अर्थात वह कोधसे ऐसा जलने लगा कि उसे कोई क्षणभर नहीं देख सकता था ।।६४॥ उस समय क्रोधसे अन्धे हुए निधियोंके स्वामी भरतने बाहुबलीका पराजय करने के लिये समस्त शत्रुओंके समूहको उखाड़कर फेंकनेवाले चक्ररत्नका स्मरण किया ॥६५॥ स्मरण करते ही वह चक्ररत्न भरतके समीप आया, भरतने बाहुबलीपर चलाया १ बाहृयुद्धम् । २ प्रतिज्ञां कृत्वा । ३ प्रविष्टावित्यर्थः । ४ वल्गनभुजास्फालनः । वलिता-५०, ६० । ५ पदचारिभिः । ६ बाहुबन्ध । ७ काष्ठाग्निभ्रमणस्य। ८ अनुजः । ६ ज्येष्ठम् । १० बाहुपीड़नं यथा भवति तथा । ११ परिभवम् । १२ विस्मयान्वितम् । १३ उच्छिन्न ।-मुक्षिप्त-ल०, द० । १४ स्मृत । १५ एतच्चतम् । १६ भुजवलिनः । १७ समीपे । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२०६ महापुराणम् कृतं कृतं बतानेन साहसेनेति धिक्कृतः। तदा महत्तमश्चक्री जगामानशयं परम् ॥६७॥ (कृतापदान इत्युच्चैः करेण तुलयन्नुपम् । सोऽवतीर्यांशतों धीरोऽनिकृष्टां भूमिमापिपत् ॥६॥ सत्कृतः स जयाशंसम् अभ्यत्य न पसत्तमैः । मेने सोत्कर्षमात्मानं तदा भुजबली प्रभुः ॥६६॥ अचिन्तयच्च किन्नाम कृते राज्यस्य भङगिनः । लज्जाकरो विधिर्भात्रा ज्येष्ठेनायमन ष्ठितः ॥७०॥ "विपाककटुसाम्राज्यं क्षणध्वंसि धिगस्त्विदम् । दुस्त्यजं त्यजदप्येतद् अङगिभिर्दुष्कलत्रवत् ॥७१) अहो विषयसौख्यानां वैरूप्यमापकारिता। भडग रत्वमरुच्यत्वं सक्तैर्नान्विष्यते" जनैः ॥७२॥ को नाम मतिमानीप्सेद् विषयान् वेषदारुणान् । येषां वशगतो जन्तुः यात्यनर्थपरम्पराम् ॥७३॥ वरं विषं यदेकस्मिन् भवे हन्ति न हन्ति वा । विषयास्तु पुनर्नन्ति हन्त जन्तूननन्तशः ॥७४॥ आपातमात्र"रम्याणां विपाककटुकात्मनाम् । विषयाणां कृते नाज्ञो" यात्यनानपार्थकम् ॥७॥ परन्तु उनके अवध्य होनेसे वह उनकी प्रदक्षिणा देकर तेजरहित हो उन्हींके पास जा ठहरा । भावार्थ-देवोपनीत शस्त्र कुटुम्बके लोगोंपर सफल नहीं होते, बाहबली भरतेश्वरके एक पितक भाई थे इसलिये भरतका चक्र बाहुबलीपर सफल नहीं हो सका, उसका तेज फीका पड़ गया और वह प्रदक्षिणा देकर बाहुबलीके समीप ही ठहर गया ।।६६। उस समय बड़े बड़े राजाओंने चक्रवर्तीको धिक्कार दिया और दुःखके साथ कहा कि 'बस बस' 'यह साहस रहने दो'-बन्द करो, यह सुनकर चक्रवर्ती और भी अधिक संतापको प्राप्त हुए ॥६७।। आपने खूब पराक्रम दिखाया, इस प्रकार उच्च स्वरसे कहकर धीर वीर बाहबलीने पहले तो भरतराजको हाथोंसे तोला और फिर कन्धसे उतारकर नीच जमीनपर रख दिया अथवा (धीरो अनिकृष्टां एस पदच्छे द करनेपर) उच्च स्थानपर विराजमान किया ॥६८।। अनेक अच्छे अच्छे राजाओंने समीप आकर महाराज बाहुबलीके विजयकी प्रशंसा करते हए उनका सत्कार किया और बाहुबलीने भी उस समय अपने आपको उत्कृष्ट अनुभव किया ।।६९। साथ ही साथ वे यह भी चिन्तवन करने लगे कि देखो, हमारे बड़े भाई ने इस नश्वर राज्य के लिये यह कैसा लज्जाजनक कार्य किया है ।।७०।। यह सामाज्य फलकालमें बहुत दुख देनेवाला है, और क्षणभंगुर है इसलिये इसे धिक्कार हो, यह व्यभिचारिणी स्त्रीके समान है क्योंकि जिस प्रकार व्यभिचारिणी स्त्री एक पतिको छोड़कर अन्य पतिके पास चली जाती है उसी प्रकार यह सामाज्य भी एक पतिको छोड़कर अन्य पतिके पास चला जाता है। यह राज्य प्राणियोंको छोड़ देता है परन्तु अविवेकी प्राणी इसे नहीं छोड़ते यह दुःखकी बात है ॥७१॥ अहा, विषयोंमें आसक्त हुए पुरुष, इन विषयजनित सुखोंका निन्द्यपना, अपकार, क्षणभंगुरता और नीरसपने को कभी नहीं सोचते हैं ।।७२।। जिनके वशमें पड़े हुए प्राणी अनेक दुःखोंकी परम्पराको प्राप्त होते हैं ऐसे विष के समान भयंकर विषयोंको कौन बुद्धिमान् पुरुष प्राप्त करना चाहेगा ? ॥७३॥ विष खा लेना कहीं अच्छा है क्योंकि वह एक ही भवमें प्राणीको मारता है अथवा नहीं भी मारता है परन्तु विषय सेवन करना अच्छा नहीं है क्योंकि ये विषय प्राणियोंको अनन्तबार फिर फिरसे मारते हैं ।।७४।। जो प्रारम्भ काल में तो मनोहर मालूम होते हैं परन्तु फलकाल--------- १ अलमलम् । २ पश्चात्तापम् । ३ कृतपरात्रमस्त्वमिति । कृतोपादान-अ०, ल० । ४ भुजनिखरात् । 'स्कन्धो भुजशिरोंऽसोऽस्त्री' इत्यभिधानात् । -तीसितो-ल० । ५ अवस्थाम् । ६-मापपत प०, ल० । ७ निमित्तम् । ८ विनश्वरस्य । -मधिष्ठितः प०, ल० । १० परिणमन। ११ कुत्मितत्वम् । १२ विनश्वरत्वम् । १३ आसक्तैः। १४ न म ग्यते। न विचार्यत इत्यर्थः । १५ अनुभवनकाल । १६ निमित्तम् । १७ पुमान् । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रिंशत्तमं पर्व २०७ अत्यन्तरसिकानादौ पर्यन्ते प्राणहारिणः । कम्पाकपाकविषमान् विषयान् कः कृती भजेत् ॥७६॥ शस्त्रप्रहारदीप्ताग्निवजाशनि महोरगाः। न तथोद्वेजकाः पुंसां यथाऽमी विषयद्विषः ॥७७॥ महाब्धिरौद्रसङग्रामभीमारण्यसरिगिरीन् । भोगाथिनो भजन्त्यज्ञा धनलाभ धनायया ॥७८।। दीर्घदोर्धातनिर्घात नि?षविषमीकृते । यादसां यादसांपत्यौ चरन्ति विषयार्थिनः ॥७॥ समापतच्छरवातनिरुद्धगगनाङगणम् । रणाङगणं विशन्त्यस्तभियो भोगविलोभिताः ॥८॥ चरन्ति वनमानुष्या' यत्र सत्रासलोचनाः । ताः पर्यटन्त्यरण्यानीः भोगाशोपहता जडाः ॥१॥ सरितो विषमावर्तभोषणा ग्राहसकुलाः । 'तितीर्षन्ति बताविष्टा विषमविषयग्रहः ॥८२॥ प्रारोहन्ति दुरारोहान् गिरीनप्यभियोगिनः । रसायनरसज्ञान बलवादविमोहिताः ॥८३॥ अनिष्टवनितेवेयम् प्रालिङगति बलाज्जरा । कुर्वती पलितव्याजाद् रभसेन कचग्रहम् ॥८४॥ १३भोगेष्वत्युत्सुकः प्रायो न च वेद" हिताहितम् । भुक्तस्य जरसा जन्तोः मृतस्य च किमन्तरम् ॥८॥ र प्रसह्य पातयन् भूमौ गात्रेषु कृतवेपथुः । जरापातो८ नृणां कष्टो ज्वरः शीत इवोद्भवन् ॥८६॥ में कड़वे (दुःख देनेवाले) जान पड़ते हैं ऐसे विषयोंके लिये यह अज्ञ प्राणी क्या व्यर्थ ही अनेक दुःखोंको प्राप्त नहीं होता है ? ॥७५।। जो प्रारम्भ कालमें तो अत्यन्त आनन्द देनेवाले हैं और अन्तमे प्राणोंका अपहरण करते हैं ऐसे किपाक फल (विषफल) के समान विषम इन विषयों को कौन बुद्धिमान् पुरुष सेवन करेगा? ॥७६॥ ये विषयरूपी शत्रु प्राणियोंको जैसा उद्वेग करते हैं वैसा उद्वेग शस्त्रोंका प्रहार, प्रज्वलित अग्नि, वज, बिजली और बड़े बड़े सर्प भी नहीं कर सकते हैं ।।७७॥ भोगोंकी इच्छा करनेवाले मूर्ख पुरुष धन पानेकी इच्छासे बड़े बड़े समुद्र, प्रचण्ड युद्ध, भयंकर वन, नदी और पर्वतोंमें प्रवेश करते हैं ॥७८।। विषयोंकी चाह रखनेवाले पुरुष जलचर जीवोंकी लम्बी लम्बी भुजाओंके आघातसे उत्पन्न हुए वज्रपात जैसे कठोर शब्दोंसे क्षुब्ध हुए समुद्र में भी जाकर संचार करते हैं ॥७९॥ भोगोंसे लुभाये हुए पुरुष, चारों ओरसे पड़ते हुए वाणों के समूहसे जहां आकाशरूपी आंगन भर गया है ऐसे युद्धके मैदानमें भी निर्भय होकर प्रवेश कर जाते हैं।८०॥ जिनमें वनचर लोग भी भय सहित नेत्रोंसे संचार करते हैं ऐसे भयंकर बड़े-बड़े वनोम भी भोगोको आशासपीड़ित हुए मुखं मनुष्य घूमा करत ह ॥८॥ कितने दुःख की बात है कि विषयरूपी विषम ग्रहोंसे जकड़े हुए कितने ही लोग, ऊंची-नीची भंवरोंसे भयंकर और मगरमच्छोंसे भरी हुई नदियोंको भी पार करना चाहते हैं ।।८२।। रसायन तथा रस आदिक ज्ञानका उपदेश देनेवाले धर्तीके द्वारा मोहित होकर उद्योग करनेवाले कितने ही पुरुष कठिनाईसे चढने योग्य पर्वतोंपर भी चढ़ जाते हैं ।।८३॥ यह जरा सफेद बालोंके बहानेसे वेगपूर्वक केशोंको पकड़ती हुई अनिष्ट स्त्रीके समान जबर्दस्ती आलिंगन करती है ।।८४॥ जो प्राणी भोगोंमें अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहा है वह हित और अहितको नहीं जानता तथा जिसे वृद्धावस्थाने घेर लिया है उसमें और मरे हुएमें क्या अन्तर है ? अर्थात् बेकार होनेसे वृद्ध मनुष्य भी मरे हुएके समान है ॥८५।। यह बुढापा भनुष्यको शीतज्वरके समान अनेक कष्ट देने वाला है क्योंकि जिस प्रकार शीतज्वर उत्पन्न होते ही जबर्दस्ती जमीन १ अम्बीरपक्वफल । २ वज़रूपाशनि। ३ भयङकराः । ४ धनलाभवाञ्छया। ५ अशनि । ६ जलजन्तुनाम् । 'यादांसि जलजन्तवः' इत्यभिधानात् । यादसां पत्यौ समुद्र । 'रत्नाकरो जलनिधिर्याद:पतिरपां पतिः' इत्यभिधानात् । ७ वनेचराः । ८ भयसहिताः । ६ तरीतुमिच्छन्ति । १० ग्रस्ता इत्यर्थः । ११-प्यभियोगिनः ल०, प०, अ०, इ०। १२ पलितस्तम्भौषधसिद्धरसज्ञानाज्जातबलवादान्मोहिताः । १३ भोक्तु योग्यवस्तुषु । १४ न जानाति । १५ भेदः । १६ बलात्कारेण । १७ कम्पः । १८ प्राप्तिः । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ महापुराणम् अडसाद' मतिभब वाचामस्फुटतामपि । जरा सुरा च निविष्टा घटयत्याशु देहिनाम ॥७॥ कालव्यालगजेनेदमायुरालानक बलात् । चाल्यते यदलाधानं जीवितालम्बनं नृणाम् ॥८॥ शरीरबलमेतच्च गजकर्णवदस्थिरम् । रोगा खूपहतं चेदं "जरद्देहकुटीरकम् ॥८६॥ इत्यशाश्वतमप्येतद् राज्यादि भरतेश्वरः । शाश्वतं मन्यते कष्टं मोहोपहतचेतनः ॥१०॥ चिरमाकलयनेवम् अग्रजस्यानुदात्तताम् । व्याजहारनमुद्दिश्य गिरः प्रपरुषाक्षराः ॥१॥ शणु भो नपशार्दुल क्षणं "लक्ष्यमुत्सृज । मुह्यतेदं त्वयाऽलम्बि दुरोहमतिसाहसम् ॥१२॥ अभेद्ये मम देहाद्रौ त्वया चक्रं नियोजितम् । विद्धयकिञ्चित्कर वाज शैले वमिवापतत् ॥१३॥ अन्यत्र भातृभाण्डानि भडक्त्वा राज्यं यदीप्सितम् । त्वया धर्मो यशश्चैव० तेन एपेशलजितम् ॥१४॥ चक्रभृद्भरतः स्पष्टुः सूनुः आद्यस्य योऽग्रणीः । कुलस्योद्धारकः सोऽभूदितो डाऽस्थापि च त्वया ॥६५॥ जितां च भवतवाद्य यत्पापोपहतामिमाम् । मन्यसेऽनन्यभोगीना" नपश्रियमनश्वरीम ॥६६॥ प्रेयसीयं तवैवास्तु राज्यश्रीर्या त्वयाऽदृता । नोचितैषा ममायुष्मन् बन्धो न हि सतां भुदे ॥६॥ पर पटक देता है उसी प्रकार बुढापा भी जबर्दस्ती जमीनपर पटक देता है और जिस प्रकार शीतज्वर शरीरमें कम्पन पैदा कर देता है उसी प्रकार बुढापा भी शरीर में कम्पन पैदा कर देता है ।।८६।। शरीरमें प्रविष्ट हुई तथा उपभोगमें आई हुई जरा और मदिरा दोनों ही लोगोंके शरीरको शिथिल कर देती हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट कर देती हैं और वचनोंमें अस्पष्टता ला देती हैं ॥८७॥ जिसके बलका सहारा मनुष्यों के जीवनका आलम्बन है ऐसा यह आयुरूपी खंभा कालरूपी दुष्ट हाथीके द्वारा जबर्दस्ती उखाड़ दिया जाता है ॥८८॥ यह शरीरका बल हाथीके कानके समान चंचल है और यह जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी झोंपड़ा रोगरूपी चुहोंके द्वारा नष्ट किया हुआ है ॥८९॥ इस प्रकार यह राज्यादि सब विनश्वर हैं फिर भी मोहके उदयसे जिसकी चेतना नष्ट हो गई है ऐसा भरत इन्हें नित्य मानता है यह कितने दुःवकी बात है ? ॥९०॥ इस प्रकार बड़े भाई की नीचताका चिरकाल तक विचार करते हुए बाहुबलीने भरतको उद्देश्य कर नीचे लिखे अनुसार कठोर अक्षरोंवाली वाणी कही ।।९।। हे राजाओंमें श्रेष्ठ, क्षणभरके लिये अपनी लज्जा या भैग छोड़, मैं कहता हसो सुन । तुने मोहित होकर ही इस न करने योग्य बड़े भारी साहसका सहारा लिया है ॥१२॥ जो कभी भिद नहीं सकता। ऐसे मेरे शरीररूपी पर्वतपर तूने चक्र चलाया है सो तेरा यह चक्र वजूके बने हुए पर्वतपर पड़ते हुए वजूके समान व्यर्थ है ऐसा निश्चयसे समझ ।।९३।। दूसरी बात यह है कि जो तंने भाइयोंकी सामग्री नष्ट कर राज्य प्राप्त करना चाहा है सो उसरो तुने बहुत ही अच्छा यशका उपार्जन किया है ॥१४॥ तुने अपनी यह स्तुति भी स्थापित कर दी कि चक्रवर्ती भरत आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवका ज्येष्ठ पुत्र था तथा वह अपने कुलका उद्धारक हुआ था ॥९५।। हे भरत, आज तूने जिसे जीता है और जो पापसे भरी हुई है ऐसी इस राज्यलक्ष्मीको तू एक अपने ही द्वारा उपभोग करने योग्य तथा अविनाशी समझता है ।।९६।। जिसका तूने आदर किया है ऐसी यह राज्यलक्ष्मी अब तुझे ही प्रिय रहे, हे आयुप्मन्, अब यह मेरे योग्य नहीं है क्योंकि बन्धन सज्जन पुरुषोंके आनन्दके लिये नहीं होता है । भावार्थ-यह लक्ष्मी स्वयं एक प्रकारका बन्धन है अथवा कर्म बन्धका कारण हैं इसलिय सज्जन पुरुष इस १ श्रमम् । २ भूशम् । ३ अनुभुक्तः । ४ मूषिक। ५ जीर्ण। ६ निकृष्टताम् । ७ विस्मयावित्वम् । ८ मुहयतीति मुहयन् तेन । न किञ्चित्कृत । किमपि कर्तमसमर्थ इत्यर्थः । १० राज्याभिलाषण । ११ प्रशस्तम् । १२ स्तुति । १३ यस्मात् कारणात् । १४ अनन्यभोगायिताम् । १५ बन्धकारणपरिग्रहः । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तम पर्व २०६ दूषितां कटकैरेनां फलिनीमपि ते श्रियम् । करेणापि स्पृशेद धीमान् लतां कण्टकिनी च कः ॥८॥ विषकण्टकजालीव त्याज्यषा सर्वथाऽपि नः । निष्कण्टकां तपोलक्ष्मी स्वाधीनां कर्तुमिच्छताम् ॥९॥ मष्यतां च तदस्माभिः कृतमागों यदीदृशम् । प्रच्युतो विनयात् सोऽहं स्वं चापलमदीदृशम् ॥१००॥ इत्युच्चर गिरामोधो मुखाद् बाहुबलीशितुः। ध्वनिरब्दादिवाऽऽतप्तं जिष्णोराह्लादयन्मनः ॥१०॥ हा दुष्ट कृतमित्युच्चैः प्रात्मानं स विगर्हयन् । अन्ववातप्त पापेन कर्मणा स्वेन चक्रराट् ॥१०२॥ प्रयुक्तानुनयं भूयो मनुमन्त्यं स धीरयन् । न्यवृतन्न स्वसङ्कल्पाद् अहो स्थैर्य मनस्विनाम् ॥१०३॥ महाबलिनि निक्षिप्तरााद्धः स स्वनन्दने । दीक्षामुपादधे जैनी गुरोराराधयन् पदम् ॥१०४॥ दीक्षावल्ल्या परिष्वक्तः त्यक्ताशेषपरिच्छदः । स रेजे सलतः पत्रमोक्षक्षाम० इव द्रुमः ॥१०॥ गुरोरनुमतेऽधीतीर दधदेकविहारिताम् । प्रतिमायोगमावर्षम्१२ प्रातस्थे किल संवृतः ॥१०६॥ सशंसितव्रतोऽनाश्वान्१५ वनवल्लीततान्तिकः । वल्मीकरन्धनिःसर्पत सरासीद् भयानकः ॥१०७॥ १"श्वसदाविर्भवद्भोग भुजङ्गशिशुजम्भितः । विषाङकुरैरिवोपाङघिस रेजे वेष्टितोऽभितः ॥१०॥ कभी नहीं चाहते ॥९७।। यद्यपि यह तेरी लक्ष्मी फलवती है तथापि अनेक प्रकारके कांटोंसेविपत्तियोंसे दूषित है। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो कांटेवाली लताको हाथसे छ एगा भी ॥९८।। अब हम कंटक रहित तपरूपी लक्ष्मीको अपने आधीन करना चाहते हैं इसलिये यह राज्यलक्ष्मी हम लोगोंके लिये विषके कांटोंकी श्रेणीके समान सर्वथा त्याज्य है ॥९९॥ अतएव जो मैंने यह ऐसा अपराध किया है उसे क्षमा कर दीजिये। मैं विनयसे च्युत हो गया था अर्थात् मैंने आपकी विनय नहीं की सो इसे मैं अपनी चंचलता ही समझता हूँ ।।१००। जिस प्रकार मेघसे निकलती हुई गर्जना संतप्त मनुष्योंको आनन्दित कर देती है उसी प्रकार महाराज बाहुबली के मुखसे निकलते हुए वाणीके समूहने चक्रवर्ती भरतके संतप्त मनको कुछ-कुछ आनन्दित कर दिया था ।।१०१॥ 'हा मैंने बहुत ही दुष्टताका कार्य किया है' इस प्रकार जोर जोरसे अपनी निन्दा करता हुआ चक्रवर्ती अपने पाप कर्मसे बहुत ही संतप्त हआ ॥१०२।। जिसमें अनेक प्रकारके अननय विनयका प्रयोग किया गया है इस रीतिसे अन्तिम कुलकर महाराज भरतको बार-बार प्रसन्न करता हआ बाहुबली अपने संकल्पसे पीछे नहीं हटा सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी पुरुषों की स्थिरता भी आश्चर्यजनक होती है ॥१०३।। उसने अपने पुत्र महाबलीको राज्यलक्ष्मी सौंप दी और स्वयं गुरुदेवके चरणोंकी आराधना करते हुए जैनी दीक्षा धारण कर ली ॥१०४॥ जिसने समस्त परिग्रह छोड़ दिया है तथा जो दीक्षा रूपी लतासे आलिङ्गित हो रहा है ऐसा वह बाहुबली उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो पत्तों के गिर जानेसे कुश लतायुक्त कोई वृक्ष ही हो ॥१०५।। गुरुकी आज्ञामें रहकर शास्त्रों का अध्ययन करनेम कुशल तथा एक विहारीपन धारण करनेवाले जितेन्द्रिय बाहुबलीने एक वर्षतक प्रतिमा योग धारण किया अर्थात् एक ही जगह एक ही आसनसे खड़े रहने का नियम लिया ।।१०६॥ जिन्होंने प्रशंसनीय व्रत धारण किये हैं, जो कभी भोजन नहीं करते, और जिनके समीपका प्रदेश वनकी लताओंसे व्याप्त हो रहा है ऐसे वे बाहुबली वामीके छिद्रोंसे ते हए सर्कोसे बहत ही भयानक हो रहे थे ॥१०७।। जिनके फणा प्रकट हो रहे हैं ऐसे फुकारते हुए सर्पके बच्चोंकी उछल-कूदसे चारों ओरसे घिरे हुए वे बाहुबली ऐसे सुशोभित निकलते १ क्षम्यताम् । २ अपराधः । ३ भृशमपश्यम् । ४ प्रवाहः । ५ भरतस्य । ६ दुष्ठु ट० । गिन्दा । 'निन्दायां दुष्टु सुष्ठ प्रशंसने।' इत्यभिधानात् । ७निजवैराग्यादित्यर्थः । ८ आलिडिगतः । ६ लतया सहितः । १० पर्णमोचनकृशः । ११ अधीतवान् । १२ वर्षावधि । १३ निभृतः । १४ स्तुत । १५ उपवासी। १६ भयङ्करः । १७ उच्छवसत् । १८ फरण। १६ अडिनसमीप । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० महापुराणम् दधानः स्कन्ध'पर्यन्तलम्बिनीः केशवल्लरीः। सोऽन्वगादूढकृष्णाहिमण्डलं हरिचन्दनम् ॥१०॥ माधवीलतया गाढम् उपगढः प्रफुल्लया। शाखाबाहभिरावेष्टय सवीच्येव सहासया ॥११०॥ विद्याधरी करालून पल्लवा सा किलाशुषत् । पादयोः कामिनीवास्य "सामि नमाऽनुनेष्यती ॥११॥ रेजे स तदवस्थोऽपि तपो दुश्चरमाचरन् । कामोव मुक्तिकामिन्यां स्पृहयालुः कृशीभवन् ॥११२॥ तपस्तनूनपात्ताप सन्तप्तस्यास्य केवलम् । शरीरमशषन्नोवंशोषं० कर्माप्यशर्मदम् ॥११३॥ तीनं तपस्यतोऽप्यस्य नासीत् काश्चिदुपप्लवः । अचिन्त्यं महतां धैर्यम् येना यान्ति न विक्रियाम् ॥११४॥ सर्वसहः१२ २३क्षमाभारं प्रशान्तः शीतलं जलम् । निःसङगः पवनं दीप्तः स जिगाय हुताशनम् ॥११॥ क्षुध पिपासां शीतोष्णं सदंशमशकद्वयम् । मार्गाच्यवनसंसिद्धय द्वन्द्वानि सहते स्म सः ॥११६।। स नाग्न्यं परमं बिभन्नाभेदीन्द्रियधूर्तकः । ब्रह्मचर्यस्य "सा "गुप्तिः नाग्न्यं नाम परं तपः ॥११७॥ रति चारितमप्येष द्वितयं स्म तितिक्षते । न रत्यरतिबाधा हि विषयानभिषङगिणः ॥११८॥ हो रहे थे मानो उनके चरणोंके समीप विषके अंकूरे ही लग रहे हों ॥१०८॥ कन्धों पर्यन्त लटकती हई केशरूपी लताओंको धारण करनेवाले वे बाहबली मनिराज अनेक काले सोके समहको धारण करनेवाले हरिचन्दन वृक्षका अनुकरण कर रहे थे ॥१०९।। फूली हुई वासंतीलता अपनी शाखारूपी भुजाओंके द्वारा उनका गाढ आलिंगन कर रही थी और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो हार लिये हए कोई सखी ही अपनी भजाओंसे उनका आलिंगन कर रही हो ।।११०॥ जिसके कोमल पत्ते विद्याधरियोंने अपने हायसे तोड़ लिये हैं ऐसी वह वासन्ती लता उनके चरणोंपर पड़कर सूख गई थी और ऐसी मालूम होती थी मानो कुछ नम होकर अनुनय करती हुई कोई स्त्री ही पैरोंपर पड़ी हो ॥१११।। ऐसी अवस्था होने पर भी वे कठिन तपश्चरण करते थे जिससे उनका शरीर कृश हो गया था और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो मक्तिरूपी स्त्रीकी इच्छा करता हुआ कोई कामी ही हो ॥११२॥ तपरूपी अग्निके संतापसे संतप्त हए बाहबलीका केवल शरीर ही खड़े-खड़े नहीं सख गया था किन्तु दुःख देने वाले कर्म भी सख गये थे अर्थात् नष्ट हो गये थे ॥११३।। तीव्र तपस्या करते हुए बाहुबलीके कभी कोई उपद्रव नहीं हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि बड़े पुरुषोंका धैर्य अचिन्त्य होता है जिससे कि वे कभी विकारको प्राप्त नहीं होते ॥११४॥ वे सब बाधाओंको सहन कर लेते थे, अत्यन्त शान्त थे, परिग्रह रहित थे और अतिशय देदीप्यमान थे इसलिये उन्होंने अपने गुणोंरो पृथ्वी, जल, वायु और ग्निको जीत लिया था ॥११५॥ वे मार्गसे च्यत न होने के लिये भख, प्यास, शीत, गर्मी तथा डांस मच्छर आदि परीषहोंके दुःख सहन करते थे ॥११६॥ उत्कृष्ट नाग्न्य व्रतको धारण करते हुए बाहुबली इन्द्रियरूपी धूर्तों के द्वारा नहीं भेदन किये जा सके थे। ब्रह्मचर्य की उत्कृष्ट रूपसे रक्षा करना ही नाग्न्य व्रत है और यही उत्तम तप है । भावार्थ-वे यद्यपि नग्न रहते थे तथापि इन्द्रियरूप धूर्त उन्हें विकृत नहीं कर सके थे ॥११७॥ वे रति और अरति इन दोनों परिषहोंको भी सहन करते थे अर्थात् रागके कारण उपस्थित होनेपर किसीसे राग नहीं करते थे और द्वेष के कारण उपस्थित होने पर किसीसे देश नहीं करते थे सो ठीक ही है क्योंकि विषयों १ भुजशिखर । २ अनुकरोति स्म। ३ आलिङ्गितः । ४ सख्या। ५ सहारया अ०, स., इ०, ल०। ६ छेदित । ७ ईषद् । ८ अनुनयं कुर्वती। अग्नि । १० ' ऊ र्ध्वात् पुः शुषः' इति णम् प्रत्ययान्तः । ऊर्श्वभूतं शरीरमित्यर्थः । ११ धैयरेण । १२ सकलपरीषहोपसर्ग सहमानः । १३ भूभारमित्यर्थः। १४ तपोविशेषेण दीप्तः । १५ परीषहान् । १६ नग्नत्वम् । १७ प्रसिद्धा । १८ रक्षा । १६ सहते स्म । २० विषयवाञ्छारहितस्य । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्त्रिंशत्तम पर्व २११ नास्यासीत् स्त्रीकृता बाधा भोगनिवेदमायुषः । शरीरमशुचि स्त्रैणं पश्यतश्चर्मपुत्रिकाम् ॥११६॥ स्थितश्चर्या निषद्यां च शय्यां चासोढ हेलया । मनसाऽनभिसन्धित्सन्नुपानच्छयनासनम् ॥१२०॥ स सेहे वधमाकोश परमार्थविदां वरः। शरीरके स्वयं त्याज्य निःस्पृहोऽनभिनन्दथः ॥१२१॥ 'याचित्रियेण नास्पष्टा विष्वाणेन तनस्थितिः । तेन वाचंयमो भूत्वा याञ्चाबाधामसोढ सः॥१२२॥ जल्लं मलं तणस्पर्श सोऽसोढो ढोत्तमक्षमः। व्युत्सृष्टतनुसंस्कारो निविशेषसुखासुखः११ ॥१२३॥ रोगस्यायतनं२ देहम् प्राध्यायन्१३ धीरधीरसौ। विविधातडकजा बाधां सहते स्म सुदुःसहाम् ॥१२४॥ प्रज्ञा परिषहं प्राज्ञो ज्ञानजं गर्वमुत्सृजन् । आसर्वशं तदुत्कर्षात् स ससाह"ससाहसः ॥१२॥ स सत्कारपुरस्कारे नासीज्जातु समुत्सुकः । पुरस्कृतो मुदं नागात् सत्कृतो न स्म तुष्यति ॥१२६॥ परीषहमलाभं च सन्तुष्टो जयति स्म सः। अज्ञानादर्शनोद्भूता बाधासीन्नास्य योगिनः ॥१२७॥ ------ की इच्छा न रखनेवाले पुरुषको रति तथा अरतिकी बाधा नहीं होती ॥११८॥ भोगोंस विरक्त हुए तथा स्त्रियों के अपवित्र शरीरको चमड़ेकी पुतलीके समान देखते हुए उन बाहुबली महाराजको स्त्रियों के द्वारा की हुई कोई बाधा नहीं हुई थी अर्थात् वे अच्छी तरह स्त्रीपरिषह सहन करते थे ॥११९॥ वे हमेशा खड़े रहते थे और जूता तथा शयन आसन आदिकी मनसे भी इच्छा नहीं करते थे इसलिये उन्होंने चर्या, निषद्या और शय्या परिषहको लीला मात्रमें ही जीत लिया था ॥१२०॥ जो स्वयं नष्ट हो जानेवाले शरीरमें निःस्पृह रहते हैं और न उसमें कोई आनन्द ही मानते हैं ऐसे परमार्थ के जाननेवालोंम श्रेष्ठ बाहुबलो महाराज बध और आक्रोश परिषहको भी सहन करते थे ॥१२१॥ याचनासे प्राप्त हुए भोजनके द्वारा शरीरकी स्थिति रखना उन्हें इष्ट नहीं था इसलिये वे मौन रहकर याचना परिषहकी बाधाको सहन करते थे ॥१२२।। जिन्होंने उत्तम क्षमा धारण की है, शरीरका संस्कार छोड़ दिया है और जिन्हें सख तथा दुःख दोनों ही समान हैं ऐसे उन मनिराजने स्वेद मल तथा तण स्पर्श परिषहको भी सहन किया था ॥१२३।। 'यह शरीर रोगोंका घर है' इस प्रकार चिन्तवन करते ही व धीरवीर बद्धिके धारक बाहबली बड़ी कठिनतासे सहन करने के योग्य उत्पन्न हुई बाधाको भी सहन करते थे ॥१२४॥ ज्ञानका उत्कर्ष सर्वज्ञ होने तक है अर्थात् जबतक सर्वज्ञ न हो जावे तबतक ज्ञान घटता बढ़ता रहता है इसलिये ज्ञानसे उत्पन्न हुए अहंकारका त्याग करते हुए अतिशय बुद्धिमान और साहसी वे मुनिराज प्रज्ञा परिषहको सहन करते थे। भावार्थ केवलज्ञान होनेके पहले सभीका ज्ञान अपूर्ण रहता है ऐसा विचार कर वे कभी ज्ञानका गर्व नहीं करते थे ॥१२५॥ वे अपने सत्कार पुरस्कारमें कभी उत्कण्ठित नहीं होते थे। यदि किसीने उन्हें अपने कार्य में अगुआ बनाया तो वे हर्षित नहीं होते थे और किसीने उनका सत्कार किया तो संतुष्ट नहीं होते थे। भावार्थ-अपने कार्य में किसीको अगुआ बनाना पुरस्कार कहलाता है तथा स्वयं आये हुएका सम्मान करना सत्कार कहलाता है वे मुनिराज सत्कार पुरस्कार दोनोंम ही निरुत्सुक रहते थे-उन्होंने सत्कार पुरस्कार परिषह अच्छी तरह सहन किया था ।।१२६॥ सदा सन्तुष्ट रहनेवाले बाहबलीजीने अलाभ परिषहको जीता था तथा अज्ञान और अदर्शनसे उत्पन्न होनेवाली बाधाएं भी उन मुनिराजको नहीं हुई थीं ॥१२७।। १ निवंदं गतस्य । -मीयुषः प०, इ०, द० । २ स्त्रीसम्बन्धि । ३ अभिसंधानमकुर्वन् । ४ पादत्राणः । 'पादुरुपानत् स्वी' इत्यभिधानात् । ५ आनन्दरहितः । ६ याचनया निवृत्तेन । ७ भोजनेन । ८ तेन कारणेन। ६ मौनी भूत्वा । १० धृतः। ११ समानसुखदुःखः । १२ गृहम् । १३ स्मरन् । १४ ज्ञानोत्कर्षात् । उपर्युपरि केवलज्ञानादित्यर्थः । १५ राहते स्म । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ महापुराणम् परोषहजयादस्य विपुला निर्जराऽभवत् । कर्मणां निर्जरोपायः परीषहजयः परः ॥१२८॥ क्रोधं तितिक्षया' मानम् उत्सेक परिवर्जनैः । मायामजुतया लोभं सन्तोषेण जिगाय सः ॥१२६॥ पञ्चेन्द्रियाण्यनायासात् सोऽजयज्जितमन्मथः । विषयेन्धनदीप्तस्य कामाग्नेः शमनं तपः ॥१३०॥ आहारभयसंज्ञे च समैथुनपरिग्रहे। अनङगविजयादेताः संज्ञाः क्षपयतिस्म सः ॥१३॥ इत्यन्तरङगशत्रूणां स भजन प्रसरं मुहुः । जयति स्माऽऽत्मनाऽऽत्मानम् प्रात्मविद् विदिताखिलः ॥१३२॥ व्रतं च समितीः सर्वाः सम्यगिन्द्रियरोधनम्। अचेलतां च केशानां प्रतिलञ्चनसङग रम् ॥१३३॥ आवश्यकेष्वसम्बाधम् अस्नानं क्षितिशायिताम् । अदन्तधावनं स्थित्वा भुक्ति भक्तं च नासकृत् ॥१३४॥ प्राहर्मूलगुणानेतान् तथोत्तरगुणा: पर। तेषा माराधने यत्नं सोऽतनिष्टातनमनिः १३५ १°एतेष्वहापयन्' काञ्चिद् व्रतशुद्धि परां श्रितः। सोऽदीपि किरण स्वानिव दीप्तैस्तपोऽशभिः ॥१३६॥ गौरवैस्त्रिभिरुन्मुक्तः परां निःशल्यतां गतः । धमर्दशभिरारुढदाढ्योऽभून्मुक्तिवर्त्मनि ॥१३७॥ गुप्तित्रयमयी गुप्ति श्रितो ज्ञानासिभासुरः। संवमितः समितिभिः स भेजे विजिगीषुताम् ॥१३८॥ इस प्रकार परिषहोंके जीतनेसे उनके बहुत बड़ी कर्मोकी निर्जरा हो गई थी सो ठीक ही है क्योंकि परिषहोंको जीतना ही कर्मोंकी निर्जरा करनेका श्रेष्ठ उपाय है ।।१२८।। उन्होंने क्षमासे क्रोध को, अहंकारके त्यागसे मानको, सरलतास मायाको और संतोषसे लोभको जीता था ॥१२९॥ काम देवको जीतने वाले उन मुनिराजने पांच इन्द्रियोंको अनायास ही जीत लिया था सो ठीक ही है क्योंकि विषयरूपी ईधन जलती हुई कामरूपी अग्निको शमन करनेवाला तपश्चरण ही है । भावार्थ-इन्द्रियोंको वश करना तप है और यह तभी हो सकता है जब कामरूपी अग्निको जीत लिया जावे ॥१३०॥ उन्होंने कामको जीत लेनेस आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन संज्ञाओं को नष्ट किया था ॥१३१॥ इस प्रकार अन्तरङ्ग शत्रुओंके प्रसारको बार बार नष्ट करते हुए उन आत्मज्ञानी तथा समस्त पदार्थोको जानने वाले मुनिराजने अपने आत्माके द्वारा ही अपने आत्माको जीत लिया था ।।१३२॥ पांच महावत, पांच समितियां, पांच इन्द्रियदमन, वस्त्र परित्याग, केशोंका लोंच करना, छह आवश्यकोंम कभी बाधा नहीं होना, स्नान नहीं करना, पृथिवीपर सोना, दांतोन नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना और दिनमें एक बार आहार लेना, इन्हें अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं इनके सिवाय चौरासी लाख उत्तर गुण भी हैं, वे महाम नि उन सबके पालन करने में प्रयत्न करते थे ॥१३३-१३५।। इनमें कुछ भी नहीं छोड़ते हुए अर्थात् सबका पूर्ण रीतिसे पालन करते हुए वे मुनिराज व्रतोंकी उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुए थे तथा जिस प्रकार देदीप्यमान किरणोंसे सूर्य प्रकाशमान होता है उसी प्रकार वे भी तपकी देदीप्यमान किरणोंसे प्रकाशमान हो रहे थे ॥१३६॥ वे रसगौरव, शब्द गौरव, और ऋद्धिगौरव इन तीनोंसे रहित थे, अत्यन्त निःशल्य थे और दशधर्मोके द्वारा उन्हें मोक्ष मार्गमें अत्यन्त दृढ़ता प्राप्त हो गई थी॥१३७।। वे मुनिराज किसी विजिगीषु अर्थात् शत्रुओंको जीतने की इच्छा करनेवाले राजाके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार विजिगीष राजा किसी दुर्ग आदि सुरक्षित स्थानका आश्रय लेता है, तलवारसे देदीप्यमान होता है और कवच पहने रहता है उसी प्रकार उन मनिराजने भी तीन गप्तियोंरूपी दुर्गोका आश्रय ले रक्खा था, वे भी ज्ञानरूपी तलवारसे देदीप्यमान हो रहे थे और पांच समितियांरूप कवच पहिन रक्खा था। भावार्थ-यथार्थमें वे कर्मरूप शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा रखते थे १क्षमया । २ गर्व । ३ त०, व०, अ०, स०, इ०, ५०, द० पुस्तकसम्मतोऽयं क्रमः । ल. पुस्तके १२६-१३० श्लोकयोर्व्यतिक्रमोऽस्ति। ४ समहम् । ५ ज्ञातसकलपदार्थः । ६ प्रतिज्ञाम् । ७ एकभुक्तमित्यर्थः । ८ मूलोत्तरगुरणानाम्। महान् । १० प्रोक्तगगणेष । ११ हानिमकुर्वन् । १२ उत्तमक्षमादिभिः । १३ रक्षाम् । १४ कवचितः । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तमं पर्व २१३ कषायतस्करस्य हतं रत्नत्रयं धनम्। सततं जागरूकस्य भूयो भूयोऽप्रमाद्यतः ॥१३॥ वाचंयमस्य तस्यासीन जातु विकथादरः। नाभिद्यतेन्द्रियैरस्य मनोदुर्ग सुसंवृतम् ॥१४०॥ मनोऽगार महत्यस्य बोधिता ज्ञानदीपिका। व्यदीपि तत एवासन् विश्वेऽर्था ध्येयतापदे ॥१४॥ मतिश्रुताभ्यां निःशेषम् अर्थतत्वं विचिन्वतः । करामलकवद् विश्वं तस्य विस्पष्टतामगात् ॥१४२॥ परीषहजर्वीप्तो विजितेन्द्रियशात्रवः । कषायशत्रनुच्छेद्य स तपो राज्यमन्वभूत् ॥१४३॥ योगजाश्चर्द्ध यस्तस्य प्रादुरासंस्तपोबलात् । यतोऽस्याविरभूच्छक्तिः त्रैलोक्यक्षोभणं प्रति ॥१४४॥ चतुर्भदेऽपि बोधेऽस्य समुत्कर्षस्तदोदभूत् । तत्तदावरणीयानां क्षयोपशमजम्भितः ॥१४॥ मतिज्ञानसमुत्कर्षात् कोष्ठबुद्ध्यादयोऽभवन् । श्रुतज्ञानेन 'विश्वाङगपूर्ववित्त्वादिविस्तरः ॥१४६॥ परमावधिमल्लङघयस सर्वावधिमासदत् । मनःपर्ययबोधे च सम्प्रापद् विपुलां मतिम् ।।१४७॥ ज्ञानशुद्ध्या तपःशुद्धिः अस्यासीदतिरेकिणी । ज्ञानं हि तपसो मूलं यद्वन्मूले महातरोः ॥१४॥ ॥१३८।। कषायरूपी चोरोंके द्वारा उनका रत्नत्रयरूपी धन नहीं चुराया गया था क्योंकि वे सदा जागते रहते थे और बार बार प्रमादरहित होते रहते थे। भावार्थ-लोकमें भी देखा जाता है कि जो मनुष्य सदा जागता रहता है और कभी प्रमाद नहीं करता उसकी चोरी नहीं होती। भगवान् बाहुबली अपने परिणामोंके शोधमें निरन्तर लवलीन रहते थे और प्रमादको पासम भी नहीं आने दतं थे इसलिय कषायरूपी चोर उनक रत्नत्रयरूपी धनको नहीं चु सके थे ॥१३९॥ वे सदा मौन रहते थे इसलिये कभी उनका विकथाओंम आदर नहीं होता था। और उनका मनरूपी दुर्ग अत्यन्त स रक्षित था इसलिये वह इन्द्रियोंके द्वारा नहीं तोड़ा जा सका था। भावार्थ-वे कभी विकथाएं नहीं करते थे और पांचों इन्द्रियों तथा मनको वशम रखते थे ।।१४०।। उनक मनरूपी विशाल घरमें सदा ज्ञानरूपी दीपक प्रकाशमान रहता था इसलिये ही समस्त पदार्थ उनके ध्येयकोटिम थे अर्थात् ध्यान करने योग्य थे। भावार्थपदार्थोका ध्यान करने के लिये उनका ज्ञान होना आवश्यक है, मुनिराज बाहुबलीको सब पदार्थों ज्ञान था इसलिय सभी पदार्थ उनके ध्यान करने योग्य थे ॥१४१॥ व मति और श्रुत ज्ञानके द्वारा संसारके समस्त पदार्थोका चिन्तवन करते रहते थे इसलिये उन्हें यह जगत् हाथपर रक्खे हुए आंवले के समान अत्यन्त स्पष्ट था ॥१४२॥ जो परिषहोंको जीत लेनेसे देदीप्यमान हो रहे हैं और जिन्होंने इन्द्रियरूपी शत्रुओंको जीत लिया है ऐसे वे बाहुबली कषायरूपी शत्रुओंको छेदकर तपरूपी राज्यका अनुभव कर रहे थे ॥१४३।। तपश्चरण का बल पाकर उन मुनिराजके योगके निमित्तसे होनेवाली ऐसी अनेक ऋद्धियां प्रकट हुई थीं जिनसे कि उनके तीनों लोकोंमें क्षोभ पैदा करनेकी शक्ति प्रकट हो गई थी ।।१४४॥ उस समय उनके मतिज्ञानावरण आदि काँक क्षमोपशमस मतिज्ञान आदि चारो प्रकारक ज्ञानोमवृद्धि हो गई थी ।।१४५।। मतिज्ञानकी वद्धि होनेसे उनके कोष्ठबद्धि आदि ऋद्धियां प्रकट हो गई थीं और श्रत ज्ञानके बढ़नेसे समस्त अंगों तथा पूर्वोक जानने आदिकी शक्तिका विस्तार हो गया था ।।१४६।। वे अवधिज्ञानमें परमावधिको उल्लंघन कर सर्वावधिको प्राप्त हुए थे तथा मनःपर्यय ज्ञानमें विपलमति मनःपर्यय ज्ञानको प्राप्त हए थे ॥१४७।। उन मुनिराजके ज्ञानकी शुद्धि होनेसे तपकी शुद्धि भी बहुत अधिक हो गई थी सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार किसी बड़े वृक्षके ठहरने में मूल कारण उसकी जड़ है उसी प्रकार तपके ठहरने आदिमें मूल कारण ज्ञान है ॥१४८।। १ मौनिवतिनः । २ ज्ञानदीपिकायाः सकाशात् । ३ चिन्तयतः । ४ उदेति स्म । ५ द्वादशागचतुर्दशपूर्ववेदित्वतनिरूपणादिविस्तरः। ६ बोधि प०, ल०। ७विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानम् । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २१४ महापुराणम् तपसोऽग्रेण चोग्रोग्रतपसा चातिकशितः। स दीप्ततपसाऽत्यन्तं दिदीपे'दीप्तिमानिव ॥१४६॥ सोऽतप्यत तपस्तप्तं तपो घोरं महच्च यत् । तथोत्तराण्यपि प्राप्तसमुत्कर्षाप्यनुक्रमात् ॥१५०॥ तपोभिरकृशेरेभिःस बभौ मुनिसत्तमः। घनोपरोधनिर्मुक्तः करैरिव गभस्तिमान् ॥१५॥ विक्रियाऽष्टतयी चित्रं प्रादुरासीत्तपोबलात् । 'विक्रियां निखिला हित्वा तीवमस्य तपस्यतः ॥१५२॥ प्राप्तौषधढेरस्यासीत् सन्निधिर्जगत हितः। 'ग्रामर्शवल जल्लाद्यः° प्राणिनामपकारिणः॥१५३॥ अना"शुषोऽपि तस्यासीद् ११रसद्धिः शक्तिमात्रतः। तपोबलसमुद्भता बद्धिरपि पप्रथे ॥१५४॥ अक्षीणावसथ:१३ सोऽभत्तथाऽक्षीण"महाशनः (नसः) सूते हि फलमक्षोणं तपोऽक्षणमुपासितम् ॥१५॥ निर्द्वन्द्ववृत्तिरध्यात्मम् इति निजित्य जित्वरः । ध्यानाभ्यासे मनश्चक्रे योगी योगविदां वरः ॥१५६।। क्षमामथोत्तमां भेजे परं मार्दवमार्जवम् । सत्यं शौचं तपस्त्यागावाकिञ्चन्यं च संयमम् ॥१५७॥ ब्रह्मचर्य च धर्म्यस्य ध्यानस्यता हि भावनाः। योग सिद्धौ परां सिद्धिम" प्रामनन्तीह योगिनः॥१५८॥ वे महामुनि उग्र, और महाउग्र तपसे अत्यन्त कृश हो गये थे तथा दीप्त नामक तपसे सूर्य के समान अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे थे ।।१४९।। उन्होंने तप्तघोर और महाघोर नामके तपश्चरण किये थे तथा इनके सिवाय उत्तर तप भी उनके खूब बढ़ गये थे ।।१५०॥ इन बड़े बड़े तपोंसे वे उत्तम मुनिराज ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो मेघोंके आवरणसे निकला हुआ सूर्य ही अपनी किरणोंसे सुशोभित हो रहा हो ॥१५१।। यद्यपि वे मुनिराज समस्त प्रकारकी विक्रिया अर्थात् विकार भावोंको छोड़कर कठिन तपस्या करते थे तथापि आश्चर्यकी बात है कि उनके तपके वलसे आठ प्रकारकी विक्रिया प्रकट हो गई थी। भावार्थ-रागद्वेष आदि विकार भावोंको छोड़कर कठिन तपस्या करनेवाले उन बाहुबली महाराजक अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, और वशित्व यह आठ प्रकारकी विक्रिया ऋद्धि प्रकट हुई थीं ॥१५२।। जिन्हें अनेक प्रकारकी औषध ऋद्धि प्राप्त है और जो आमर्श, श्वेल तथा जल्ल आदिके द्वारा प्राणियोंका उपकार करते हैं ऐसे उन मनिराजकी समीपता जगतका कल्याण करनेवाली थी। भावार्थ-उनके समीप रहनेवाले लोगोंके समस्त रोग नष्ट हो जाते थे ।।१५३।। यद्यपि वे आहार नहीं लेते थे तथापि शक्ति मात्रसे ही उनके रसऋद्धि प्रकट हुई थी और तपश्चरणके बलसे प्रकट हुई उनकी बल ऋद्धि भी विस्तार पा रही थी। भावार्थ-भोजन करनेवाले मुनिराजके ही रसऋद्धिका उपयोग हो सकता है परन्तु वे भोजन नहीं करते थे इसलिये उनके शक्तिमात्र से रसऋद्धिका सद्भाव बतलाया है ॥१५४॥ व मुनिराज अक्षीणसंवास तथा अक्षीणमहानस ऋद्धिको भी धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि पूर्ण रीतिसे पालन किया हुआ तप अक्षीण फल उत्पन्न करता है ॥१५५॥ विकल्प रहित चित्तकी वृत्ति धारण करना ही अध्यात्म है ऐसा निश्चयकर योगके जाननेवालोंम श्रेष्ठ उन जितेन्द्रिय योगिराजने मनको जीतकर उसे ध्यानके अभ्यासम लगाया ॥१५६॥ उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तमआर्जव, उत्तमसत्य, उत्तमशौच, उत्तमसंयम, उत्तमतप, उत्तमत्याग, उत्तमआकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये दश धर्मध्यानकी भावनाएं हैं। इस लोकमें योगकी सिद्धि होनेपर ही उत्कृष्ट सिद्धि -सफलता-मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है ऐसा योगी लोग मानते हैं ॥१५७-१५८॥ १ कृशीकृतः । २ रविः । ३ मेघ। ४ तरणिः । ५ अष्टप्रकारा। ६ विकारम् । ७ तपः कुर्वतः । ८ दिः । ह निष्ठीवन । १० स्वेदोत्थमलायैः । ११ अनशनवतिनः । १२ अमतनवादि । १३ आलय। १४ महत् । १५ 'त०' पुस्तके 'महानसः' पाठः सुपाठः इति टिपणे लिखितम् । १६ अन्योन्यम् । १७ ध्याननिष्पन्ने सति । १८ मुक्तिम् । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तमं पर्व अनित्यात्राणसंसारकत्वाऽन्यत्वान्यशौचताम् । निर्जरास्त्रवसंरोधलोकस्थित्यनुचिन्तनम् ॥१५॥ धर्मस्याख्याततां बोधेः दुर्लभत्वं च लक्षयन् । सोऽनुप्रेक्षाविधि दध्यो विशुद्धं द्वादशात्मकम् ॥१६०॥ प्राज्ञापायौ विपाकं च संस्थानं चानुचिन्तयन् । सध्यानमभजद् धयं कर्माशान् परिशातयन् ॥१६॥ दीपिकायामिवामण्यां ध्यानदीप्तौ निरीक्षिताः। क्षणं विशीर्णाः कर्माशाः कज्जलांशा इवाभितः ॥१६२॥ तद्देहदीप्तिप्रसरो दिङमुखेषु परिस्फुरन् । तद्वनं गारुड़ग्रावच्छण्यातत मिवातनोत् ॥१६३॥ तत्पदोपान्तविश्रान्ता विस्त्र बधा मृगजातयः । बबाधिरे मृगैर्नान्यः क्रूरैरक्रूरतां शितैः ॥१६४॥ विरोधिनोऽप्यमी मुक्तविरोध स्वरमासिताः। तस्योपाधोसिंहाद्याः शशंसुवैभवं मुनेः ॥१६॥ जरज्जम्बकमाधाय मस्तके 'व्याघ्रधेनुका। स्वशावनिविशेष ताम् पीप्यत् स्तन्यमात्मनः॥१६६॥ करिणो हरिणारातीनन्वीयु : सह यूथपैः ।. स्तनपानोत्सुका भेजुः करिणीः सिंहपोतकाः ॥१६७॥ कलभान् कलभाङतारमुखरान् नखरैः खरैः। कण्ठोरवःस्पृशन् कण्ठे नाभ्यनन्दि" न यूथपैः ॥१६॥ करिण्यो विसिनीपुत्रपुट: पानीयमानयत् । तद्योगपीठपर्यन्तभुवः सम्माजनेच्छया ॥१६॥ "पुष्करैः "पुष्करोदस्तैः यस्तरधिपदद्वयम्। स्तम्बरमा मुनि भेजुः अहो शमकरं तपः ॥१७०॥ उपाधि भोगिनां भोगः विनीलैर्यरुचन्मुनिः। विन्यस्तैरर्चनायेव नीलरुत्पलदामकैः ॥१७१॥ अनित्य , अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्माख्यातत्त्व इन बारह भावनाओंका उन्होंने विशद्ध चित्तसे चिन्तवन किया था ॥१५९-१६०॥ व आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानका चिन्तवन करते हए तथा कर्मोंके अंशोंको क्षीण करते हए धर्मध्यान धारण करते थे ॥१६॥ जिस प्रकार दीपिकाक प्रज्वलित होने पर उसके चारों ओर कज्जलके अंश दिखाई देते हैं उसी प्रकार उनकी ध्यानरूपी दीपिकाके प्रज्वलित होने पर उसके चारों ओर क्षणभर नष्ट हुए कर्मो के अंश दिखाई देते थे ॥१६२।। सब दिशाओं में फैलता हुआ उनके शरीरकी दीप्तिका समूह उस वनको नीलमणिकी कान्तिसे व्याप्त हआ सा बना रहा था ।।१६३॥ उनके चरणोंके समीप विश्राम करनेवाले मृग आदि पशु सदा विश्वस्त अर्थात् निर्भय रहते थे, उन्हें सिंह आदि दुष्ट जीव' कभी बाधा नहीं पहुँचाते थे क्योंकि वे स्वयं वहां आकर अक्रूर अर्थात् शान्त हो जाते थे ॥१६४।। उनके चरणोंके समीप हाथी, सिंह आदि विरोधी जीव भी परस्परका वैर-भाव छोड़कर इच्छानसार उठते बैठते थे और इस प्रकार वे मुनिराजके ऐश्वर्यको सूचित करते थे ।।१६५॥ हालकी व्याई हुई सिंही भैसेके बच्चेका मस्तक सूंघकर उसे अपने बच्चे के समान अपना दूध पिला रही थी ॥१६६॥ हाथी अपने झण्डके मखियों के साथ साय सिंहोंके पीछे पीछे जा रहे थे और स्तनके पीते में उत्सुक हुए सिंहके बच्चे हथिनियोंके समीप पहुँच रहे थे ।।१६७॥ बालकपनके कारण मधुर शब्द करते हुए हाथियों के बच्चों को सिंह अपने पैने नाखूनोंसे उनकी गर्दनपर स्पर्श कर रहा था और ऐसा करते हुए उस सिंहको हाथियोंके सरदार बहुत ही अच्छा समझ रहे थे-उसका अभिनन्दन कर रहे थे ॥१६८॥ उन मुनिराजके ध्यान करने के आसनके समीपकी भमिको साफ करने की इच्छासे हथिनियां कमलिनीके पत्तोंका दोना बनाकर उनमें भर भरकर पानी ला रही थीं ॥१६९।। हायी अपनी सूड के अग्रभागसे उठाकर लाये हुए कमल उनके दोनों चरणोंपर रख देते थे और इस तरह वे उनकी उपासना करते थे। अहा, १ संवर। २ ध्यायति स्म। ३ आज्ञाविचयापायविचयौ। ४ कृशीकुर्वन् । ५ व्याप्तम् । ६ निश्चलाः । ७ विरोधाः ल०, प०, अ०, स०, द०,। ८ जरज्जन्तुक ल०, इ० । जरत् वृद्ध । ६ नवप्रसूतव्याधी। १० समानम् । ११ पाययति स्म । १२ स्तनक्षीरम् । १३ मनोज्ञ-ध्वनिनिर्विशेषान । १४ द्वौ नौ पूर्वमर्थ गमयतः, अभ्यनन्दीदित्यर्थः । १५ कमलैः । १६ कराग्रोद्धतः । १७ सर्पाणां शरीरैः । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ महापुराणम् फणमात्रोद्गता रन्धात्' फणिनः सित योऽद्युतन् । कृताः कुवलयैरर्धा मुनेरिव पदान्तिक॥१७२॥ रेजुर्वनलता नमः शाखाप्रैः कुसुमोज्ज्वलैः। मुनि भजन्त्यो भक्त्येव पुष्पाघुर्नतिपूर्वकम् ॥१७३॥ शश्वद्विकासिकुसुमैः शाखारनि लाहत:। बभुर्वनद्रुमास्तोषान्निनृत्सव' इवासकृत् ॥१७४॥ कलैरलिरुतोद्गातः फणिनो नन्तः किल । उत्फणा: फणरत्नांशुदी गै'विवर्तितः ॥१७॥ पुंस्कोकिलकलालापडिण्डिमानुगतलयः । चक्षुःश्रवस्सु पश्यत्सु तद्विषोऽनटिषुहुः ॥१७६॥ महिम्ना शमिनः शान्तमित्यभूत्तच्च काननम् । धत्ते हि महतां योगः१२ शममप्यशमात्मसु ॥१७७॥ शान्तस्वदन्ति स्म वनान्तेऽस्मिन् शकुन्तयः । घोषयन्त इवात्यन्तं शान्तमेतत्तपोवनम् ॥१७॥ तपोऽनुभावादस्यैवं प्रशान्तेऽस्मिन् वनाश्रये। विनिपातः५ कुतोऽप्यासीत् कस्यापि न कथञ्चन ॥१७॥ "महसास्य तपोयोगजु म्भितेन महीयसा। बभूवुर्हतहृद्ध्वान्ताः तिर्य-चोऽप्यनभिद्रुहः ॥१८०॥ गतिस्खलनतो ज्ञात्वा योगस्थं तं मुनीश्वरम् । असकृत्पूजयामासुः अवतीर्य नभश्चराः॥१८१॥ महिम्नाऽस्य तपोवीर्य जनितेनालघीयसा । मुहुरासनकम्पोऽभून्नतमूनां सुधाशिनाम् ॥१८२॥ तपश्चरण कैसी शान्ति उत्पन्न करनेवाला है, ॥१७०॥ वे मुनिराज चरणोंके सभीप आये हुए सोके काले फणाओंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पूजाके लिये नीलकमलोंकी मालाएँ ही बनाकर रक्खी हों ॥१७१॥ बामीके छिद्रोंसे जिन्होंने केवल फणा ही बाहर निकाले हैं ऐसे काले सर्प उस समय ऐसे जान पड़ते थे मानो मुनिराजके चरणोंके समीप किसीने नीलकमलोंका अर्व ही बनाकर रक्खा हो ।।१७२॥ वनको लताएं फूलोंसे उज्ज्वल तथा नीचेको झुकी हुई छोटी छोटी डालियोंसे ऐसी अच्छी सुशोभित हो रही थीं मानो फूलोंका अर्घ लेकर भक्तिसे नमस्कार करती हुई मुनिराजकी सेवा ही कर रही हों ॥१७३॥ वनके वृक्ष, जिनपर सदा फूल खिले रहते हैं और जो वायुसे हिल रहे हैं ऐसे शाखाओंके अग्रभागोंसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो संतोषसे बार बार नृत्य ही करना चाहते हों ॥१७४।। जिनके फणा ऊंचे उठ रहे हैं ऐसे सर्प, भमरोंके शब्दरूपी सुन्दर गाने के साथ साथ फणाओंपर लगे हुए रत्नोंकी किरणोंसे देदीप्यमान अपने फणाओंको घमा घमाकर नत्य कर रहे थे ।।१७५।। मोर, कोकिलोंके सुन्दर शब्दरूपी डिण्डिम बाजेके अनुसार होनेवाले लयके साथ साथ सर्पोके देखते रहते भी बार बार नत्य कर रहे थे ॥१७६॥ इस प्रकार अतिशय शान्त रहनेवाले उन मनिराजक माहात्म्यसे वह वन भी शान्त हो गया था सो ठीक ही है, क्योंकि महापुरुषोंका संयोग कर जीवा में भी शान्ति उत्पन्न कर देता है ॥१७७॥ इस वनमें अनेक पक्षी शान्त शब्दोंसे चहक रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो इस बातकी घोषणा ही कर रहे हों कि यह तपोवन अत्यन्त शान्त है ॥१७८॥ उन मुनिराजके तपके प्रभावसे यह वनका आश्रम ऐसा शान्त हो गया था कि यहांके किसी भी जीवको किसोके भी द्वारा कुछ भी उपद्रव नहीं होता था ।।१७९।। तपके सम्बन्धसे बड़े हुए मुनिराजके बड़े भारी ते जसे तिर्य चोंक भी हृदयका अन्धकार दूर हो गया था और अब वे परस्परमें किसीसे द्रोह नहीं करते थे-अहिंसक हो गये थे ।।१८०।। विद्याधर लोग गति भंग हो जानेसे उनका सद्भाव जान लेते थे और विमानसे उतरकर ध्यान में बैठे हए उन म निराजकी बार बार पूजा करते थे ।।१८१॥ तपकी शक्तिसे उत्पन्न हए मनिराजके बड़े भारी माहात्म्यसे जिनके मस्तक झके हुए हैं ऐसे देवोंके आसन भी बार बार कम्पाय १वल्मीकविलात् । २ कृष्णाः । ३ नतितुमिच्छवः । ४-दगीतैः ल०। ५दीप्तै-इ०, ल० । ६ शरीरैः । ७ तालनिबद्धैः । ८ सर्पेषु। कुण्डली गूढपाच्चक्षुःश्रवाः काकोदरः फरणी' इत्यभिधानात् । ६ सर्पद्विषः । मयूरा इत्यर्थः । १० नटन्ति स्म । ११ यतेः । १२ संयोगः । १३ क्रूरस्वरूपेषु । १४ अत्यन्तं प्रसन्नम् । १५ बाधेत्यर्थः । १६ तेजसा । १७ अहिंसका: । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तमं पर्व २१७ विद्याधर्यः कदाचिच्च क्रीडाहेतोरुपागताः। वल्लीरुद्धष्टयामासुः मुनेः सर्वाङ्गसङगिनीः ॥१८॥ इत्युपारूढ सध्यानबलोद्भूततपोबलः। स लेश्याशुद्धिमास्कन्दन् शुक्लध्यानोन्मुखोऽभवत् ॥१८४॥ । वत्सरानशनस्यान्त भरते शेन पूजितः। स भेजे परमज्योतिः केवलाख्यं यदक्षरम् ॥१८शा संक्लिष्टो भरताधीशः सोऽस्मत्त' इति यत्किल। हृद्यस्य हार्द "तेनासीत् तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् ॥१८६॥ केवलार्कोदयात् प्राक्च पश्चाच्च विधिवद् व्यधात् । सपर्यां भरताधीशो योगिनोऽस्य प्रसन्नधीः ॥१८७॥ १"स्वागःप्रमार्जनार्थेज्या "प्राक्तनी भरतेशिनः । पाश्चात्याऽत्यायताऽपोज्या केवलोत्पत्तिमन्वभत् ।१८८। या कृता भरतेशेन महेज्या स्वानुजन्मनः । प्राप्तकेवलबोधस्य को हि तद्वर्णने क्षमः ॥१८६॥ १"स्वाजन्यानु गमोऽस्त्येको धर्मरागस्तयाऽपरः। जन्मान्तरानुबन्धश्च प्रेमबन्धोऽतिनिर्भरः ॥१६॥ १"इत्येकशोऽप्यमी भक्तिप्रकर्षस्य प्रयोजकाः। तेषां न सर्वसामग्री कां न पुष्णाति सत्क्रियाम् ॥१६॥ सामात्यः समहीपाल:१८ सान्तःपुरपुरोहितः। तंबाहुबलियोगीन्द्रं प्रणनामाधिराट् मुदा ॥१६२॥ मान होने लगते थे ॥१८२॥ कभी कभी क्रीडाक हेतुसे आई हई विद्याधरियां उनके सर्व शरीरपर लगी हुई लताओंको हटा जाती थीं ॥१८३।। इस प्रकार धारण किये हुए समीचीनधर्मध्यानके बलसे जिनके तपकी शक्ति उत्पन्न हुई है ऐसे वे मुनि लेश्याकी विशुद्धिको प्राप्त होते हुए शुक्लध्यानके सन्मुख हुए ।।१८४॥ एक वर्षका उपवास समाप्त होनेपर भरतेश्वरने आकर जिनकी पूजा की है ऐसे महामुनि बाहुबली कभी नष्ट नहीं होनेवाली केवलज्ञानरूपी उत्कृष्ट ज्योतिको प्राप्त हुए। भावार्थ-दीक्षा लेते समय बाहुबलीने एक वर्षका उपवास किया था। जिस दिन उनका वह उपवास पूर्णहु आ उसी दिन भरतने आकर उनकी पूजा की और पूजा करते ही उन्हें अविनाशी उत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त हो गया ॥१८५॥ वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेशको प्राप्त हुआ है अर्थात् मेरे निमित्तसे उसे दुःख पहुंचा है यह विचार बाहुबलीके हृदयमें विद्यमान रहता था, इसलिये केवलज्ञानने भरतकी पूजा की अपेक्षा की थी। भावार्थभरतके पूजा करते ही बाहुबलीका हृदय शल्यरहित हो गया और उसी समय उन्हें केवलज्ञान भी प्राप्त हो गया ॥१८६।। प्रसन्न है बुद्धि जिसकी ऐसे समाट भरतने केवलज्ञानरूपी सूर्यके उदय होनेके पहले और पीछे-दोनों ही समय विधिपूर्वक उन मुनिराजकी पूजा की थी॥१८७॥ भरतेश्वरने केवलज्ञान उत्पन्न होनेके पहले जो पूजा की थी वह अपना अपराध नष्ट करनेके लिये की थी और केवलज्ञान होने के बाद जो बडी भारी पूजा की थी वह केवलज्ञानकी उत्पति का अनुभव करनेके लिये की थी ।।१८८॥ जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे अपने छोटे भाई बाहुबलीकी भरतेश्वरने जो बड़ी भारी पूजा की थी उसका वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है ? ॥१८९।। प्रथम तो बाहुबली भरतके छोटे भाई थे, दूसरे भरतको धर्मका प्रेम बहत था, तीसरे उन दोनोंका अन्य अनेक जन्मोंसे सम्बन्ध था, और चौथे उन दोनोंमें बड़ा भारी प्रेम था इस प्रकार इन चारोंमेंसे एक एक भी भक्तिकी अधिकताको बढ़ानेवाले हैं, यदि यह सब सामग्री एक साथ मिल जाए तो वह कौन-सी उत्तम क्रियाको पुष्ट नहीं कर सकती अर्थात् उससे कौन सा अच्छा कार्य नहीं हो सकता ? ||१९०-१९१॥ समाट भरतेश्वरने १ मोचयामासुः । २ प्रकटीभूत । ३ गच्छन् । ४ मत् । ५ भुजबलिनः । ६ स्नेहः । 'प्रेमा ना प्रियता हार्द प्रेम स्नेहः' इत्यभिधानात् । ७ हार्देन । ८ भरतपूजापेक्षि। केवलज्ञानम् । १० निजापराधनिवारगार्था । ११ प्राग्भवा । १२ पश्चाद्भवा । १३ अत्यधिका। १४ निजजवनेन । १५ अनुगमनम् । सहोत्पत्तिरित्यर्थः । १६ -नुबद्धश्च ब०, अ०, स०, प०, इ० । १७ एककमपि। १८ महीपालैः सहितः । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ महापुराणम् किमत्र बहना रत्नैः कृतोऽर्घः स्वर्णदोजलम् । पाद्यं रत्नाचिषो दीपास्तण्डुलेज्या च मौक्तिकः ॥१६॥ हविः पीयूषपिण्डेन धूपो देवदुमांशक: । पुष्पा, पारिजातादिसुरागसुमनश्चयः ॥१६४॥ सरत्ना निधयः सर्वे फलस्थाने नियोजिताः। पूजां रत्नमयोमित्यं रत्नेशो निरवर्तयत् ॥१६॥ सुराश्चासनकम्पेन ज्ञाततत्केवलोदयाः। चक्रुरस्य परामिज्यां शता ध्वरपुरःसराः ॥१६६॥ 'वर्मन्दं स्वरुद्यानतरुधूननचुञ्चवः। तदा सुगन्धयो वाताः स्वर्धनोशीकराहराः ॥१७॥ मन्द्रं पयोमुचा मार्गे दध्वनुश्च सुरानकाः। पुष्पोत्करो दिवोऽपतत् कल्पानोकहसंभवः ॥१६॥ रत्नातपत्रमस्योच्चैःनिमितं सुरशिल्पिभिः। पराय॑मणि निर्माणम् अभाद् दिव्यं च विष्टरम् ।। १६६ ॥ स्वयं व्ययतास्योच्चैः प्रान्तयोश्चामरोत्करः। सभावनिश्च तद्योग्या पप्रथे प्रथितोदया ॥२००) सुरैरियचितः प्राप्तकेवद्धिः स योगिराट् । व्यधुतन्मनिभिर्जुष्टः शशीवोडुभिराश्रितः ॥२०१॥ घातिकर्मक्षयोद्भूताम् उद्वहन् परमेष्ठिताम् । विजहार महीं कृत्स्नां सोऽभिगम्यः सुधाशिनाम् ॥२०२॥ इत्थं स विश्वविद्विश्वं प्रोणयन् स्ववचोऽमृतः । कैलासमचलं प्रापत् पूतं सन्निधिना गुरोः ॥२०३॥ मंत्रियोंके साथ, राजाओंके साथ और अन्तःपुरकी समस्त स्त्रियों तथा पुरोहितके साथ उन बाहुबली मुनिराजको बड़े हर्षसे नमस्कार किया था ॥१९२।। इस विषय में अधिक कहां तक कहा जावे, संक्षेपमें इतना ही कहा जा सकता है कि उसने रत्नोंका अर्थ बनाया था, गंगाके जलकी जलधारा दी थी, रत्नोंकी ज्योतिके दीपक चढ़ाये थे, मोतियोंसे अक्षतकी पूजा की थी, अमृतके पिण्डसे नैवेद्य अर्पित किया था, कल्पवृक्षके टुकड़ों (चूर्गों) से धूपकी पूजा की थी, पारिजात आदि देववृक्षों के फूलों के समूहसे पुष्पोंकी अर्चा की थी, और फलोंके स्थानपर रत्नोंसहित समस्त निधियां चढ़ा दी थीं इस प्रकार उसने रत्नमयी पूजा की थी ।।१९३-१९५।। आसन कम्पायमान होनेसे जिन्हें बाहुबलीके केवलज्ञान उत्पन्न होनेका बोध हुआ है ऐसे इन्द्र आदि देवोंने आकर उनकी उत्कृष्ट पूजा की ॥१९६।। उस समय स्वर्गके बगीचे के वृक्षोंको हिलानेमें चतुर तथा गंगा नदीकी बंदोंको हरण करनेवाला सुगन्धित वायु धीरे धीरे बह रहा था ॥१९७।। देवोंके नगाड़े आकाशमें गंभीरतासे बज रहे थे और कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुआ फूलोंका समूह आकाशसे पड़ रहा था ॥१९८॥ उनके ऊपर देवरूपी कारीगरोंके द्वारा बनाया हुआ रत्नोंका छत्र सुशोभित हो रहा था और नीचे बहुमूल्य मणियोंका बना हुआ दिव्य सिंहासन देदीप्यमान हो रहा था ।।१९९।। उनके दोनों ओर ऊंचाई पर चमरोंका समूह स्वयं ढुल रहा था तथा जिसका ऐश्वर्य प्रसिद्ध है ऐसी उनके योग्य सभाभूमि अर्थात् गन्धकुटी भी बनाई गई थी ।।२००। इस प्रकार देवोंने जिनकी पूजा की है और जिन्हें केवलज्ञानरूपी ऋद्धि प्राप्त हुई है ऐसे वे योगिराज अनेक मुनियोंसे घिरे हुए इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो नक्षत्रोंसे घिरा हुआ चन्द्रमा ही हो ॥२०१।। जो घातियाकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुई अर्हन्त परमेष्ठी की अवस्थाको धारण कर रहे हैं तथा इसीलिये देव लोग जिनकी उपासना करते हैं ऐसे भगवान् बाहुबलीने समस्त पृथिवीमें विहार किया ॥२०२।। इस प्रकार समस्त पदार्थोंको जाननेवाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृतके द्वारा समस्त संसारको संतुष्ट करते हुए, पूज्य पिता भगवान् वृषभदेवके सामीप्यसे पवित्र हुए कैलास पर्वतपर जा पहुंचे ॥२०३।। १ चरुः । २ हरिचन्दनशकलैः। ३ इन्द्र । ४ उभयपाश्र्वयोः । ५ सेवितः । ६ आराध्यः । ७ वृषभस्य। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्रिंशत्तम पर्व मालिनी सकलनुपसमाजे' दृष्टिमल्लाम्ब युद्धः विजितभरतकोतिर्यः प्रवव्राज मक्त्यै । तणमिव विगणय्य प्राज्यसाम्राज्यभारं चरमतनुधराणामग्रणीः सोऽवताद् वः ॥२०४॥ भरतविजयलक्ष्मीर्जाज्य लच्चक्रमा यमिनमभिसरन्ती क्षत्रियाणां समक्षम् । चिरतरमवधूतापत्रपापा त्रमासीद् अधिगतगुरुमार्गः सोऽवताद् दोर्बली वः ॥२०॥ स जयति जयलक्ष्मीसङग माशामवन्ध्यां विदधदधिकधामा सन्निधौ पार्थिवानाम् । सकलजगदगारव्याप्तकीर्तिस्तपस्याम् प्रभजत यशस यः सूनुराद्यस्य धातुः ॥२०६॥ जयति भुजबलीशो बाहुवीर्य स यस्य प्रथितमभवद क्षत्रियाणां नियुद्ध । भरतनपतिनामा यस्य नामाक्षराणि स्मृतिपथमुपयान्ति प्राणिवृन्दं पुनन्ति ॥२०७॥ जयति भुजगवक्त्रोद्वान्तनिर्यद्गराग्निः प्रशममसकृदापत् प्राप्य पादौ यदीयौ । सकलभुवनमान्यः खेचरस्त्रीकराग्रो ग्रथितविततवीरुद्वेष्टितो दोर्बलीशः ॥२०॥ जिन्होंने समस्त राजाओंकी सभामें दृष्टियुद्ध, मल्लयुद्ध और जलयुद्धके द्वारा भरतकी समस्त कीति जीत ली थी, जिन्होंने बड़े भारी राज्यके भारको तणके समान तुच्छ समझ कर मुक्ति प्राप्त करने के लिये दीक्षा धारण की थी और जो चरम शरीरियोंमें सबसे मुख्य थे ऐसे भगवान बाहुबली तुम सबकी रक्षा करें ॥२०४॥ सब क्षत्रियोंके सामने भरतकी विजयलक्ष्मी देदीप्यमान चक्रकी मूर्ति के बहानेसे जिन बाहुबलीके समीप गई थी परन्तु जिनके द्वारा सदाके लिये तिरस्कृत होकर लज्जाका पात्र हुई थी और जिन्होंने अपने पिताका मार्ग (मुनिमार्ग) स्वीकृत किया था वे भगवान् बाहुबली तुम सबकी रक्षा करें ॥२०५।। जो अनेक राजाओंके सामने सफल हुई जयलक्ष्मीके समागमकी आशाको धारण कर रहे थे, सबसे अधिक तेजस्वी थे, जिनकी कीर्ति समस्त जगतरूपी घरमें व्याप्त थी और जिन्होंने वास्तविक यशके लिये तप धारण किया था वे आदिब्रह्मा भगवान वषभदेवके पुत्र सदा जयवन्त हों ॥२०६॥ जिन भुजाओंका बल क्षत्रियोंके सामने भरतराजके साथ हुए मल्लयुद्धमें प्रसिद्ध हुआ था, और जिनके नामके अक्षर स्मरणमें आते ही प्राणियोंके समूहको पवित्र कर देते हैं वे बाहुबली स्वामी सदा जयवन्त हों ॥२०७॥ जिनके चरणोंको पाकर सोके मुंहके उच्छ्वाससे निकलती हुई विषकी अग्नि बार बार शान्त हो जाती थी, जो समस्त लोकमें मान्य हैं, और जिनके शरीरपर फैली हुई लताओंको विद्याधरियां अपने हाथोंके अग्रभागसे हटा देती थीं वे बाहुबली स्वामी ५ सङग १ समक्षे। २ भृशं ज्वलत् । ३ भुजबलिना अवधीरिता । ४ लज्जाभाजनम् । वाञ्छाम्। ६ तप इत्यर्थः । ७ सह । ८ उपगतानि भूत्वा। विषाग्निः । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० महापुराणम् जयति भरतराजप्रांशुमौल्यवरलो पललुलितनखेन्दुः सष्टुराद्यस्य सूनुः । भुजगकुलकलापैराकुलैनाकुलत्वं धृतिबलकलितो यो योगभन्नव भेजे ॥२०॥ 'शितिभिरलिकुलाभैराभुजं लम्बमानः पिहितभुजविटड्को मूर्धल्लि ताः । जलधरपरिरोधध्याममूर्द्धव भूधः श्रियमयुषदनमा दोर्बली यः स नोऽव्यात् ॥२१०॥ स जयति हिमकाले यो हिमानीपरीसं' वपुरचल इवोच्चविभ्रदाविर्षभूध । नवघनसलिलौघेर्यश्च धौतोऽसदकालें खरघृणिफिरणानप्युष्णकाले विषेहे ॥२११॥ जगति जयिनमेनं योगिनं योगिवर्यः अधिगतमहिमामं मानितं माननीयः। स्मरति हृदि नितान्त यः स शान्तान्तरात्मा० भजति बिजयलक्ष्मीमाशु जैनीमजय्याम् ॥२१२॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसहग्रहे भुजबलिजल मल्लदृष्टियुद्धविजयदीक्षाकेवलोत्पत्तिवर्णनं नाम त्रिशत्तम पर्व ॥३६॥ सदा जयवन्त हों ।।२०८॥ भरतराजके ऊंचे मुकुटके अग्र भागमें लगे हुए रत्नोंसे जिनके चरण के नखरूपी चन्द्रमा अत्यन्त चमक रहे थे, जो धैर्य और बलसे सहित थे तथा जो इसलिये ही क्षोभको प्राप्त हुए सोके समृहसे कभी आकुलताको प्राप्त नहीं हुए थे वे आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवके पुत्र बाहुबली योगिराज सदा जयवन्त रहें ॥२०९।। भमरोंके समूहके समान काले, भुजाओं तक लटकते हुए तथा जिनका अग्रभाग टेढ़ा हो रहा है ऐसे मस्तकके बालोंसे जिनकी भुजाओंका अग्रभाग ढक गया है और इसलिये ही जो मेघोंके आवरणसे मलिन शिखरवाले पर्वतकी पूर्ण शोभाको पुष्ट कर रहे हैं वे भगवान् बाहुबली हम सबकी रक्षा करें ॥२१०॥ जो शीतकालमें बर्फसे ढके हुए ऊंचे शरीरको धारण करते हुए पर्वतके समान प्रकट होते थे, वर्षाऋतुमें नवीन मेवोंके जलके समूहसे प्रक्षालित होते थे-भीगते रहते थे और ग्रीष्मकालमें सूर्य की किरणोंको सहन करते थे वे बाहुबली स्वामी सदा जयवन्त हों ॥२११॥ जिन्होंने अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली है, बड़े बड़े योगिराज ही जिनकी महिमा जान सकते हैं, और जो पूज्य पुरुषोंके द्वारा भी पूजनीय हैं ऐसे इन योगिराज बाहुबलीको जो पुरुष अपने हृदयमें स्मरण करता है उसका अन्तरात्मा शान्त हो जाता है और वह शीघू ही जिनेन्द्रभगवान्की अजय्य (जिसे कोई जीत न सके) विजयलक्ष्मी-मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त होता है ।।२१२॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवादमें बाहुबलीका जल-युद्ध, मल्ल-युद्ध और नेत्र-युद्ध में विजय प्राप्त करना, दीक्षा धारण करना, और केवलज्ञान उत्पन्न होनेका वर्णन करनेवाला-छत्तीसवां पर्व समाप्त हुआ। १ कृष्णैः। २ आच्छादितबाहुवलभीः । ३ वक्र । 'अविरुद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं वऋमित्यपि' इत्यभिधानात् । ४ हिमसंहतिवेष्टितम् । 'हिमानी हिमसंहतिः' इत्यभिधानात् । ५ प्रावटकाले। ६ सूर्यः । ७ सहति स्म । ८ जयशीलम् । पजितम् । १० उपशान्तचित्तः । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व ३ ॥ ४ ॥ अथ निर्वर्तिताशेषदिग्जयो भरतेश्वरः । पुरं साकेतमुत्केत् प्राविक्षत् परया श्रिया ॥ १ ॥ 'तत्रास्य' सुपशार्दूलः अभिषेकः कृतो मुदा । चातुरन्तजय श्रीस्ते प्रथतां भुवनेष्विति ॥ २ ॥ तमभ्यषिञ्चन् पौराश्च सान्तःपुरपुरोधसः । चिरायुः पृथिवीराज्यं "क्रियाद् देव भवानिति ॥ राज्याभिषेचने भर्तुर्यो विधिवृषभेशिनः । स सर्वोऽत्रापि तीर्थाम्बुसम्भारादिः कृतो नृपः ॥ तथाऽभिषिक्तस्तेनैव विधिनाऽलङ्कृतोऽधिराट् । तथैव जयघोषादिः प्रयुक्तः सामरैन्पैः ॥ तथैव सत्कृता विश्वे पार्थिवाः ससनाभयः । तथैव तर्पितो लोकः परया दानसम्पदा ॥ ६ ॥ " तथाध्वनन् महाघोषा" नान्दीघोषा महानकाः । प्रक्षुभ्यदब्धिनिर्घोषो येषां घोषैरधः कृतः ॥ ७ ॥ श्रानन्दिन्यो महाभेर्यः तथैवाभिहता मुहुः । सङ्योतविधिरारब्धः तथा प्रमदमण्डये ॥ ८ ॥ मूर्धाभिषिक्तैः प्राप्ताभिषेकस्यास्याजनि द्युतिः । मेराविवाभिषिक्तस्य नाकीन्द्रेरादिवेधसः ॥ ६ ॥ ५ ॥ सिन्धू सरिद्देव्यौ साक्षतं स्तीर्थवारिभिः । श्रभ्योक्षिष्टां तमभ्येत्य रत्नभृङ्गारसम्भूतैः ॥ १० ॥ कृताभिषेकमेनं व नृपासनमधिष्ठितम् । 'गणबद्धामरा भेजुः प्रणम् मंणि मौलिभिः ॥ ११ ॥ अथानन्तर जिसने समस्त दिग्विजय समाप्त कर लिया है ऐसे भरतेश्वरने जिसमें अनेक ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे अयोध्यानगरमें बड़े वैभवके साथ प्रवेश किया ॥ १ ॥ चतुरंग विजयसे उत्पन्न हुई आपकी लक्ष्मी संसार में अतिशय वृद्धि और प्रसिद्धिको प्राप्त होती रहे यही विचार कर बड़े बड़े राजाओंने उस अयोध्या नगरमें हर्ष के साथ महाराज भरतका अभिषेक . किया था ||२|| हे देव, आप दीर्घजीवी होते हुए चिरकालतक पृथिवीका राज्य करें, इस प्रकार कहते हुए अन्तःपुर तथा पुरोहितोंके साथ नगरके लोगोंने उनका अभिषेक किया था ॥३॥ जो विधि भगवान् वृषभदेवके राज्याभिषेकके समय हुई थी, तीर्थोंका जल इकट्ठा करना आदि वह सब विधि महाराज भरतके अभिषेकके समय भी राजाओंने की थी ||४|| देवोंके साथ साथ राजाओंने भगवान् वृषभदेवके समान ही भरतेश्वरका अभिषेक किया था, उसी प्रकार आभूषण पहनाये थे और उसी प्रकार जयघोषणा आदि की ॥५॥ उसीप्रकार परिवार के लोगों के साथ साथ राजाओं का सत्कार किया गया था, और उसीप्रकार दानमें दी हुई सम्पत्ति से सब लोग संतुष्ट किये गये थे || ६ | जिनके शब्दोंने क्षोभित हुए समुद्र के शब्दको भी तिरकृत कर दिया था. ऐसे बड़े बड़े शब्दोंवाले मांगलिक नगाड़े उसीप्रकार बजाये गये थे ||७|| उसी प्रकार आनन्दकी महाभेरियां बार बार बजाई जा रही थीं और आनन्दमण्डपमें संगीतकी विधि भी उसी प्रकार प्रारम्भ की गई थी ॥८॥ मेरु पर्वतपर इन्द्रोंके द्वारा अभिषेक किये हुए आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवकी जैसी कान्ति हुई थी उसी प्रकार राजाओं के द्वारा अभिषेकको प्राप्त हुए महाराज भरतकी भी हुई थी ॥ ९ ॥ गंगा-सिन्धु नदियोंकी अधिष्ठात्री गंगा-सिन्धु नामकी देवियोंने आकर रत्नोंके भृङ्गारोंमें भरे हुए अक्षत सहित तीर्थजलसे भरतका अभिषेक किया था ।। १० ।। जिनका अभिषेक समाप्त हो चुका है और जो राजसिंहासनपर बैठे हुए हैं ऐसे महाराज भरतकी अनेक गणबद्धदेव अपने मणिमयी मुकुटोंको नवा-नवाकर १ साकेतपुर्याम् । २ चक्रिणः ४ कुरु । स०, इ० । ५ समूह । मङगलरवाः । ८ अभिषेकं चक्रतुः । । ३ चतुर्दिक्षु भवा जयलक्ष्मीः । चातुरङग - ल०, अ०, प०, ६ यथा वृषभोऽभिषिक्तः । ६ अङ्गरक्षदेवाः । एवमुत्तरत्रापि योज्यम् । ७ प्रथम Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ महापुराणम् हिमवद्विजयाधेशौ मागधाद्याश्च देवताः। खेचराश्चोभयश्रेण्योः तं नमर्नम्रमौलयः॥१२॥ सोऽभिषिक्तोऽपि नोत्सिक्तो बभूव नपसत्तमः। महता हि मनोवृत्तिः नोत्सेक'परिरम्भिणी ॥१३॥ चामरैरुज्यमानोऽपि न निवृत्तिमगाद् विभुः। भ्रातृष्वसंविभक्ता श्रीः इतीहानुशयानुगः ॥१४॥ दोर्बलिभ्रातृसङघर्षात् नास्य तेजो विकषितम् । प्रत्युतोत्कषिहेम्नो वा घुष्टस्य निकषोपले ॥१५॥ निष्कण्टकमिति प्राप्य साम्राज्यं भरताधिपः। बभौ भास्वानिवोद्रिक्तप्रतापः शुद्धमण्डलः ॥ १६ ॥ क्षेमकतानतां भेजुःप्रजास्तस्मिन् सुराजनि। योगक्षेमौ वितन्वाने मन्वानाः स्वां सनाथताम् ॥१७॥ यथास्वं संविभज्यामी सम्भुक्ता निधयोऽमुना। सम्भोगः संविभागश्च फलमर्थार्जने द्वयम् ॥१८॥ रत्नान्यपि यथाकामं निविष्टानि निधीशिना। रत्लानि नन तान्येव यानि यान्त्युपयोगिताम् ॥१६॥ मनुश्चक्रभतामाद्यः षट्खण्डभरताधिपः। राजराजोऽधिराट् सम्राजित्यस्योद्धोषितं यशः ॥ २० ॥ नन्दनो वृषभेशस्य भरतः शातमातुरः। इत्यस्य रोदसी व्याप शुभ्रा कीतिरनश्वरी ॥ २१॥ कीदक परिच्छदस्तस्य विभवश्चक्रवतिनः। इति 'प्रश्नवशादस्य विभवोद्देशकीर्तनम् ॥ २२ ॥ गलन्मदजलास्तस्य गजाः सुरगजोपमाः। लक्षाश्चतुरशीतिस्ते 'रदैर्बद्धैः सुकल्पितैः॥२३॥ सेवा कर रहे थे ॥११॥ हिमवान् और विजयाई पर्वतके अधीश्वर हिमवान् तथा विजयार्धदेव, मागध आदि अन्य अनेक देव, और उत्तर-दक्षिण श्रेणीके विद्याधर अपने मस्तक झका झुकाकर उन्हें नमस्कार कर रहे थे ॥१२॥ अनेक अन्छे अच्छे राजाओंके द्वारा अभिषिक्त होनेपर भी उन्हें कुछ भी अहंकार नहीं हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंकी मनोवृत्ति अहंकारका स्पर्श नहीं करती ॥१३॥ यद्यपि उनके ऊपर चमर ढुलाये जा रहे थे तथापि वे उससे संतोषको प्राप्त नहीं हए थे क्योंकि उन्हें निरन्तर इस बातका पछतावा हो रहा था कि मैंने अपनी विभूति भाइयोंकी नहीं बांट पाई ॥१४॥ भाई बाहुबलीके संघर्षसे उनका तेज कुछ कम नहीं हुआ था किन्तु कसौटीपर घिसे हुए सोनेके समान अधिक ही हो गया था ॥१५।। इस प्रकार निष्कण्टक राज्यको पाकर महाराज भरत उस सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहे थे जिसका कि प्रताप बढ़ रहा है और मण्डल अत्यन्त शुद्ध है ॥१६॥ योग (अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करना) और क्षेम (प्राप्त हुई वस्तुकी रक्षा करना) को फैलानेवाले उन उत्तम राजा भरतके विद्यमान रहते हुए प्रजा अपने आपको सनाथ समझती हुई कुशल मंगलको प्राप्त होती रहती थी ॥१७॥ महाराज भरतने निधियोंका यथायोग्य विभागकर उनका उपभोग किया था सो ठीक ही है क्योंकि स्वयं संभोग करना और दूसरेको विभाग कर देना ये दो ही धन कमानेके मुख्य फल हैं ॥१८॥ निधियोंके स्वामी भरतने रत्नोंका भी इच्छानुसार उपभोग किया था सो ठीक ही है क्योंकि वास्तवमें रत्न वही हैं जो उपयोगमें आवें ॥१९॥ यह सोलहवां मनु है, चक्रवर्तियोंमें प्रथम चक्रवर्ती है, षट् खण्ड भरतका स्वामी है, राजराजेश्वर है, अधिराट् है और समान है इस प्रकार उसका यश उद्घोषित हो रहा था ।।२०। यह भरत भगवान् वृषभदेवका पुत्र है और इसकी माताके सौ पुत्र हैं इस प्रकार इसकी कभी नष्ट नहीं होनेवाली उज्वल कीति आकाश तथा पृथिवीमें व्याप्त हो रही थी ॥२१॥ उस चक्रवर्तीका परिवार कितना था ? और विभूति कितनी थी ? राजा श्रेणिकके इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये गौतमस्वामी उसकी विभूतिका इस प्रकार वर्णन करने लगे ॥२२॥ महाराज भरतके, जिनके गण्डस्थलसे मदरूपी जल झर रहा है, और जो जड़े हुए सुसज्जित दांतोंसे सुशो १ उत्सेकः अहङ्कारवान् । गर्वालिङगिनी । २ सुखम् । ३ अनुभुक्तानि । ४ श्रेणिप्रश्नषशात् । ५ रदैः उपलक्षिताः। ६ स्वर्णकटकखण्डैः । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व दिव्यरत्नविनिर्माण रथास्तावन्त एव हि । मनोवायुजवाः सूर्यरथप्रस्पधिरंहसः ॥ २४ ॥ कोटयोऽष्टादशाश्वानां भूजलाम्बरचारिणाम् । यत्खुराग्राणि धौतानि पूर्तस्त्रिपथगा जलः ।। २५ ।। चतुभिरधिकाशीतिः कोटयोऽस्य पदातयः । येषां सुभट सम्मर्वे निरूढं" पुरुषव्रतम् ।। २६ ।। वास्थिबन्धनं वज्रं वलयं वेष्टितं वपुः । वज्रनाराचनिभिन्नम् श्रभेद्यमभवत् प्रभोः ॥ २७ ॥ समसुप्रविभक्ताङ्गं चतुरस्रं' सुसंहति । वपुः सुन्दरमस्यासीत् संस्थानेनादिना विभोः ॥ २८ ॥ निष्टतकनकच्छायं सच्चतुःषष्टिलक्षणम् । रुरुचे व्यञ्जनैस्तस्य निसर्गसुभगं वयुः ।। २६ ।। शारीरं यच्च यावच्च बलं षट्खण्ड भूभुजाम् । ततोऽधिकतरं तस्य बलमासीद् बलीयसः ॥ ३० ॥ शासनं तस्य चक्राङकम् आसिन्धोरनिवारितम् । शिरोभिरूड मारूढविक्रमैः पृथिवीश्वरैः ॥ ३१ ॥ द्वात्रिंशन्मौलिबद्धानां सहस्राणि महीक्षिताम् । कुलाचलं रिवाद्रीन्द्रः स रेजे यैः परिष्कृतः ॥ ३२ ॥ तावन्त्येव सहस्राणि देशानां सुनिवेशिनाम् । यैरलङ्कृतमाभाति चक्रभृत्क्षेत्रमायतम् ॥ ३३ ॥ "कलाभिजात्यसम्पन्ना देव्यस्तावत्प्रमास्स्मृताः । रूपलावण्य कान्तीनां याः शुद्धाकरभूमयः ॥ ३४ ॥ म्लेच्छराजादिभिर्दत्ताः तावन्त्यो नृपवल्लभाः । अप्सरः संकथाः क्षोणों यकाभिरवतारिताः ३५ ॥ प्रवरुद्धाश्च तावन्त्यः तन्व्यः कोमल विग्रहाः । मदनोद्दीपनैर्यासां दृष्टिबाणैजितं जगत् ।। ३६ ।। भित हैं ऐसे ऐरावत हाथीके समान चौरासी लाख हाथी थे ||२३|| जिनका वेग मन और वायुके समान है अथवा जिनकी तेज चाल सूर्य के साथ स्पर्धा करनेवाली है ऐसे दिव्य रत्नोंके वने हुए उतने ही अर्थात् चौरासी लाख ही रथ थे || २४|| जिनके खुरोंके अग्रभाग पवित्र गंगाजलसे धुले हुए हैं और जो पृथिवी, जल तथा आकाशमें समान रूपसे चल सकते हैं ऐसे अठारह करोड़ घोड़े हैं ||२५|| अनेक योद्धाओंके मर्दन करने में जिनका पुरुषार्थ प्रसिद्ध है ऐसे चौरासी करोड़ पैदल सिपाही थे ||२६|| महाराज भरतका शरीर वज की हड्डियों के बन्धन और वजू के ही वेष्टनोंसे वेष्टित था, वज्रमय कीलोंसे कीलित था और अभेद्य अर्थात् भेदन करने योग्य नहीं था । भावार्थ- उनका शरीर वज्रवृषभनाराचसंहननका धारक था ॥२७॥ उनका शरीर चतुरस्र था- चारों ओरसे मनोहर था, उसके अंगोपांगों का विभाग समानरूपसे हुआ था अंगों की मिलावट भी ठीक थी और समचतुरस्र नामके प्रथम संहननसे अत्यन्त सुन्दर था ||२८|| जिसकी कान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान थी और जिसपर चौंसठ लक्षण थे ऐसा उसका स्वभावसे ही सुन्दर शरीर तिल आदि व्यञ्जनोंस बहुत ही सुशोभित हो रहा था ॥२९॥ छहों खण्डक राजाओं का जो और जितना कुछ शारीरिक बल था उससे कहीं अधिक बल उस बलवान् भरतके शरीरमें था ॥३०॥ जिसका चक्र ही चिह्न है और समुद्रपर्यन्त जिसे कोई नहीं रोक सकता ऐसे उसके शासनको बड़े बड़े पराक्रमको धारण करनेवाले राजालोग अपने शिरपर धारण करते थे ।। ३१ ।। उनके बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा थे, उन राजाओंसे वेष्टित हुए महाराज भरत कुलाचलोंसे घिरे हुए सुमेरु पर्वत के समान सुशोभित होते थे ||३२|| महाराज भरतके अच्छी अच्छी रचनावाले बत्तीस हजार ही देश थे और उन सबसे सुशोभित हुआ चक्रवर्तीका लम्बा चौड़ा क्षेत्र बहुत ही अच्छा जान पड़ता था ।। ३३ । उनके उतनी ही अर्थात् बत्तीस हजार ही देवियां थीं जो कि उच्च कुल और जाति सम्पन्न थीं तथा जो रूप लावण्य और कान्तिकी शुद्ध खानिके समान जान पड़ती थीं ||३४|| इनके सिवाय जिन्होंने पृथिवीपर अप्सराओंकी कथाओं को उतार लिया था ऐसी म्लेच्छ राजा आदिकों के द्वारा दी हुई बत्तीस हजार प्रियरानियां थीं ।। ।। ३५ ।। इसी प्रकार जिनका शरीर अत्यन्त कोमल था और कामको उत्तेजित करने १ चतुरशीतिलक्षा एव । २ वेगाः । -ल० । ७ कीलितम् । ८ मनोज्ञम् । ३ गंगा । ४ प्रसिद्धम् । ६ सुसम्बद्धम् । १० भूभुजाम् । २२३ ५ पौरुषम् । ६ बन्धनैर्वा ११ कुलजात्यभि -ल० । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ মধু नखांश कसुमो दैः पारक्तः पाणिपल्लवैः। तास्तव्यो भुजशाखाभिः भेजुः कल्पलताश्रियम् ॥ ३७॥ स्तनाब्जकुटमलैरास्यपडाकजैश्च विकासिमिः। अब्जिन्य इव तारेजुः मदनावासभूमिकाः ॥ ३८॥ मन्य पात्राणि गात्राणि तासां कामग्रहोच्छितौ। पदावेशवशादेष दशां प्राप्तोऽतिवतिनीम् ॥ ३९ ॥ शडक निशातपाषाणानखानासां मनोभुवः। यत्रोपारूतुतेक्षण्यैः स्वः अविष्यत् कामिनः शरैः ॥४०॥ सत्यं महेषुधी जङघे तासां मदनबन्विनः । कामस्यारोहनिःश्रेणी स्थानीयावरुदण्डकौ ॥४१॥ कटो कुटी मनोजस्य काञ्चीसालकृतावृतिः। नाभिरासां गभीरका कूपिका चित्तजन्मनः ॥ ४२ ॥ मनोभुवोऽतिवृद्धस्य मयेऽवष्ट म्भ यष्टिका। रोमराजिः स्तनौ चासां कामरत्नकरण्डकौ ॥४३॥ कामपाशायतौ बाहू शिरीषोद्गमकोमलौ । कामस्योच्छ वसितं कण्ठः सुकण्ठीनां मनोहरः ॥ ४४ ॥ मुखं रतिसुखागारप्रमुखं मुखबन्धनम् । वैराग्यरससङगस्य तासां च दशनच्छदः ॥४५॥ दृग्विलासाः शरास्तासां कर्गान्तौ लक्ष्यतां गतौ । भ्रूवल्लरी धनुर्यष्टिः जिगीषोः पुष्पधन्विनः ॥ ४६ ।। ललाटाभोगमतासां मन्य बाह्यालिकास्थलम्। अनङगनपतरिष्ट भोगकन्दुकचारिणः ॥४७॥ १२अलकाः कामकृष्णाह: शिशवः१५ परिपुञ्जिताः। कुञ्चिताः केशवल्लयों मदनस्येव बागराः ॥४८॥ वाले जिनके नेत्ररूपी बाणोंसे यह समस्त संसार जीता गया था ऐसी बत्तीस हजार रानियां और भी उनके अन्तःपुरमे थों ॥३६।। वे छियानबे हजार रानियां नखोंकी किरण रूपी फूलोंके खिलनेसे, कुछ कुछ लाल हथेलीरूपी पल्लवोंसे और भजारूपी शाखाओंस कल्पलताकी शोभा धारण कर रहीं थीं ॥३७॥ कामदेवके निवास करनेकी भूमिस्वरूप वे रानियां स्तनरूपी कमलोंकी बोड़ियोंसे और खिले हुए मुखरूपी कमलोंसे कमलिनियोंके समान सशोभित हो रही थों ॥३८॥ मैं समझता हूँ कि उन रानियोंके शरीर कामरूपी पिशाचकी उन्नतिक पात्र थे क्योंकि उनके आवेशके वशसे ही यह कामदेव सबको उल्लंघन करनेवाली विशाल अवस्थाको प्राप्त हुआ था ॥३९।। अथवा मुझे यह भी शंका होती है कि उन रानियोंके नख, कामदेवके बाण पैने करने के पाषाण थे क्योंकि वह उन्हींपर घिसकर पैने किये हुए बाणोंसे कामी लोगोंपर प्रहार किया करता था ॥४०॥ यह भी सच है कि उनकी जंघाएँ कामदेवरूपी धनुर्धारीके बडे बडे तरकस थे और ऊरुदण्ड (घटनोंसे ऊपरका भाग) कामदेवके चढनेकी के समान थे ॥४१॥ करधनीरूपी कोटसे घिरी हुई उनकी कमर कामदेवकी कुटीके समान थी और उनकी नाभि कामदेवकी गहरी कुपिका (कुइयाँ) के समान जान पड़ती थी ॥४२॥ मैं मानता हूँ कि उनकी रोमराजि कामदेवरूपी अत्यन्त वृद्ध पुरुषके सहारेकी लकड़ी थी और उनके स्तन कामदेवके रत्न रखनेके पिटारे थे ॥४३॥ शिरीषके फूलके समान कोमल उनकी दोनों भुजाएँ कामदेवके पाशके समान लम्बी थीं और अच्छे कण्ठवाली उन रानियोंका मनोहर कण्ठ कामदेवके उच्छ्वासके समान था ॥४४॥ उनका मुख रति (प्रीति) रूपी सखका प्रधान भवन था और उनके ओंठ वैराग्यरसकी प्राप्तिके मुखबन्धन अर्थात् द्वार बन्द करनेवाले कपाट ५॥ उन रानियोंके नेत्रोंके कटाक्ष विजयकी इच्छा करनेवाले कामदेवके बाणोंके समान थे, कानके अन्तभाग उसके लक्ष्य अर्थात् निशानोंके समान थे और भीहरू पी लता धनुषकी लकड़ीक समान थी ॥४६॥ में समझता हूँ कि उन रानियोंके ललाटका विस्तार इष्टभोग रूपी गेंदसे खेलनेवाले कामदेवरूपी राजाके खेलनेका मानो मैदान ही हो ॥४७॥ उनके १ चक्री। २ शङकां करोमि । ३ प्राप्त । ४ सदृशौ इत्यर्थः । ५ आधार । ६ जीवितम् । ७ प्रकृष्टद्वारम् । ८ पीनाहः । 'पीनाहो मुखबन्धनमस्य यत्' इत्यभिधानात् । ६ रदनच्छदः -ल० । १० सेतुः । 'सेतुरालौ स्त्रियां पुमान्'। ११ इष्टभोगा एव कन्दुक । १२ चूर्णकुन्तला । 'अलकाश्चूर्णकुन्तला' इत्यभिधानात् । १३ शावकाः । 'पृथुकः शाबकः शिशुः' इत्यभिधानात् । १४ मृगबन्धनी । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व इत्यनङगमयों सृष्टि तन्वानाः स्वागसडिगनीम् । मनोऽस्य जगहः कान्ताः कान्तः स्वैःकामचेष्टितैः तासां मकरस्पर्शः प्रेमस्निग्धश्च वीक्षितः । महती धु तिरस्यासीज्जल्पितरपि मन्मनैः ॥ ५० ॥ स्मितेष्वासां दरोभिन्नो हसितेषु विकस्वरः । फलितः परिरम्भेषु रसिकोऽभूद्रतद्रुमः ॥ ५१ ॥ (भ्रूक्षेपयन्त्रपाषाणैः दृक्क्षेपक्षेपणीकृतः। 'बहुदुर्गरणस्तासां स्मरोऽभूत् सकचग्रहः ॥ ५२ ॥ खरः प्रणयगर्भेषु कोरेष्वनुनये मदुः। स्तब्धो व्यलोकमानेषु मुन्धः प्रणयकतवे ॥ ५३॥ निर्दयः परिरम्भेष सान ज्ञानो मुखार्पण। प्रतिपत्तिषु सम्मूढः पटुः करणचेष्टिते ॥ ५४ ॥ संकल्पेष्वाहितोत्कर्षो मन्दः "प्रत्यग्रसङगम। प्रारम्भ रसिको दीप्तः प्रान्त करुणकातरः ॥ ५५ ॥ इत्युच्चावचतां भेजे तासां दीप्तः स मन्मथः। प्रायो भिन्नरसः कामः कामिनां हृदयङगमः ॥ ५६ ॥ प्रकाममधुरानित्यं कामान् कामातिरेकिणः। स ताभिनिविशन् रेमे ११वपुष्मानिव मन्मथः ॥ ५७ ॥ ताश्च तच्चित्तहारिण्यः तरुण्यः प्रणयोद्धराः। बभूवुःप्राप्तसाम्राज्या इव "रत्युत्सवश्रियः ॥ ५८ ॥ इकटठे हए आगक सन्दर बाल कामदेवरूपी काले सर्पके बच्चोंके समान जान पड़ते थे तथा कुछ कुछ टेढ़ी हुई केशरूपी लताएँ कामदेवके जालके समान जान पड़ती थीं ॥४८॥ इस प्रकार अपने शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाली काममयी रचनाको प्रकट करती हुई वे रानियाँ अपनी सुन्दर कामकी चेष्टाओं से महाराज भरतका मन हरण करती थीं ॥४९।। उनके कोमल हाथोंक स्पर्शसे, प्रेमपूर्ण सरस अवलोकनसे, और अव्यक्त मधुर शब्दोंसे इसे बहुत ही संतोष होता था ॥५०॥ रससे भरा हुआ सुरतरूपी वृक्ष इन रानियोंके मन्द मन्द हँसनेपर कुछ खिल जाता था, जोरसे हँसनेपर पूर्णरूपसे खिल जाता था और आलिंगन करनपर फलोंसे युक्त हो जाता था ॥५१॥ भौंहोंके चलाने रूप यन्त्रोंसे फेंके हुए पत्थरोंके द्वारा तथा दृष्टियोंके फेंकनेरू पी यन्त्र विशेषों (गुथनों) के द्वारा उन स्त्रियोंका बहुत प्रकारका किलेबन्दीका युद्ध होता था और कामदेव उसमें सबकी चोटी पकड़नेवाला था। भावार्थ-कामदेव उन स्त्रियोंसे अनेक प्रकारकी चेष्टा कराता था ॥५२।। कामदेव इनके प्रेमपूर्ण क्रोधके समय कठोर हो जाता था, अनुनय करने अर्थात् पतिके द्वारा मनाये जानेपर कोमल हो जाता था, झूठा अभिमान करनेपर उद्दण्ड हो जाता था, प्रेमपूर्ण कपट करते समय भोला या अनजान हो जाता था, आलिंगनके समय निर्दय हो जाता था, चुम्बनके लिये मुख प्रदान करते समय आज्ञा देनेवाला हो जाता है, स्वीकार करते समय विचार मढ़ हो जाता है, हाव-भाव आदि चेष्टाओंके समय अत्यन्त चतुर हो जाता है, संकल्प करते समय उत्कर्षको धारण करने वाला हो जाता है, नवीन समागमके समय लज्जासे कुछ मन्द हो जाता है, संभोग प्रारम्भ करते समय अत्यन्त रसिक हो जाता था और संभोगके अन्त में करुणासे कातर हो जाता था। इस प्रकार उन रानियोंका अत्यन्त प्रज्वलित हुआ कामदेव ऊंची-नीची अवस्थाको प्राप्त होता था अर्थात घटता-बढ़ता रहता था सो ठीक ही है जो काम प्रायः भिन्न भिन्न रसोंसे भरा रहता है वही कामी पुरुषोंको सुन्दर मालूम होता है ॥५३-५६।। इस प्रकार वह चक्रवर्ती उन रानियोंके साथ अत्यन्त मधुर तथा इच्छाओंसे भी अधिक भोगोंको भोगता हुआ शरीरधारी कामदेवके समान क्रीड़ा करता था ॥५७।। भरतके चित्तको हरण करनेवाली और प्रेमसे भरी हुई वे तरुण स्त्रियां ऐसी जान पड़ती थीं मानो सामाज्यको प्राप्त हुई रत्युत्सवरूपी लक्ष्मी ही हों ॥५८।। १ भरतस्य । २ अव्यक्तैः । ३ ईषद्विकसित । ४ फलिनः ल । ५ आलिङगनेषु । ६ दुर्गयुद्धसदृशः । ७ नव । ८ करुणरसातुरः । नानालंकारताम् । १० मनोरथवृद्धि करान् । ११ मूर्तिमान् । १२ रत्युत्सबे थियः ल० । २६ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् नाटकानां सहस्राणि द्वात्रिंशत्प्रमितानि वै। सातोद्यानि सगेयानि यानि रम्याणि भूमिभिः ॥५६॥ द्वासप्ततिः सहस्राणि पुरामिन्द्र पुरश्रियम्। स्वर्गलोक इवाभाति नलोको यैरलडाकृतः॥६०॥ ग्रामकोटयश्च विज्ञेया विभोः षण्णवतिप्रमाः। नन्दनोद्देश जित्वर्यो यासाभारामभूमयः ॥ ६१ ॥ द्रोणामुखसहस्राणि 'नवतिनव चैव हि । धनधान्यसमृद्धीनाम् अधिष्ठानानि यानि वै॥ ६२ ॥ पत्तनानां सहस्राणि चत्वारिंशत्तथाऽष्ट च । रत्नाकरा इवाभान्ति येषामुद्घा वणिकपथाः ॥ ६३ । (पोडशैव सहस्त्राणि खटानां पुरिमा मता। प्राकारगोपुरट्टाल खातवप्रादिशोभिनाम् ॥ ६४॥ भवेयुरन्तरद्वीपाः षट्पञ्चाशत्प्रमामिताः। कुमानुषजनाकीर्णा येऽर्णवस्य खिलायिताः ॥६५॥ संवाहानां सहस्राणि संख्यातानि चतर्दश। वहन्ति यानि लोकस्य योगक्षेमविधाविधिम् ॥६६॥ स्थालीनां कोटिरेकोक्ता रन्धने या नियोजिता ।पक्वी स्थालीबिलीयानां तण्डुलानां महानसे ॥६७॥ १३कोटीशतसहस्रं स्याद्धलानां कुटिबैः समम् । १"कर्मान्तकर्षणे यस्य विनियोगो निरन्तरः ॥ ६८ ॥ तिस्रोऽस्य वजकोटयः स्थ:गोकुलः शश्वदाकुलाः। यत्र मन्थरवाकृष्टाः तिष्ठन्ति स्माध्वगाः क्षणम् । ६६॥ "कुक्षिवासशतान्यस्य सप्तैवोक्तानि कोविदः। "प्रत्यन्तवासिनो यत्र न्यवात्सुः१९ कृतसंश्रयाः ॥७॥ उनकी विभूतिमें बत्तीस हजार नाटक थे जो कि भूमियोंसे मनोहर थे और अच्छे अच्छे बाजों तथा गानोंसे सहित थे ॥५९॥ इन्द्र के नगर समान शोभा धारण करनेवाले ऐसे बहत्तर हजार नगर थे जिनसे अलंकृत हआ यह नरलोक स्वर्गलोकके समान जान पड़ता था ।।६।। उस चक्रवर्ती ऐसे छियानबे करोड़ गांव थे कि जिनके बगीचोंकी शोभा नन्दन वनको भी जीत रही थी ॥६१।। जो धन-धान्यकी समृद्धियोंके स्थान थे ऐसे निन्यानवे हजार द्रोणामुख अर्थात् बन्दरगाह. थे ॥६२॥ जिनके प्रशंसनीय बाजार रत्नाकर अर्थात् समुद्रोंके समान सुशोभित हो रहे थे ऐसे अड़तालीस हजार पत्तन थे ॥६३।। जो कोट, कोटक प्रमुख दरवाजे, अटारियां, परिखाएं और परकोटा आदिसे शोभायमान हैं ऐसे सोलह हजार खेट थे ।।६४।। जो कुभोगभूमि या मनुष्योंसे व्याप्त थे तथा समुद्रके सारभूत पदार्थ के समान जान पड़ते थे ऐसे छप्पन अन्तरद्वीप थे ॥६५॥ जो लोगोंके योग अर्थात् नवीन वस्तुओं की प्राप्ति और क्षेम अर्थात् प्राप्त हुई वस्तुओंकी रक्षा करना आदिकी समस्त व्यवस्थाओंको धारण करते थे तथा जिनके चारों ओर परिखा थी ऐसे चौदह हजार संवाह थे * ॥ ६६ ॥ पकाने के काम आनेवाले एक करोड़ हंडे थे जो कि पाकशालामें अपने भीतर डाले हुए बहुतसे चावलोंको पकानेवाले थे ॥६७।। फसल आनेके बाद जो निरन्तर खेतोंको जोतने में लगाये जाते हैं और जिनके साथ बीज बोने की नाली लगी हुई है ऐसे एक लाख करोड़ हल थे ॥६८॥ दही मथनेके शब्दोंसे आकर्षित हुए पथिक लोग जहां क्षणभरके लिये ठहर जाते हैं और जो निरन्तर गायों के समूहसे भरी रहती हैं ऐसी तीन करोड़ ब्रज अर्थात् गौशालाएँ थीं।।६९।। जहां आश्रय पाकर समीपवर्ती लोग आकर ठहरते थे ऐसे कुक्षिवासों की संख्या पण्डित लोगोंने सातसौ १ वेषैः । २ पुराणाम् । ३ जयशीला: । ४ नवाधिकनवतिः । ५ प्रशस्ताः । ६ धुलिकुटिम । ७ अप्रतिहतस्थानायिताः । 'द्वे खिलाप्रहते समे' इत्यभिधानात् । ८ सखातानि-ल० । ६ विधानप्रकारम् । १० पचने। ११ पचनकरी। १२ स्थालीबिलमहन्तीति स्थालीबिलीयास्तेषाम् । पचनार्हताम् इत्यर्थः । १३ कोटीनां लक्षम् । १४ कुलिपैः द०, अ०, प०, स०, इ० । कुलिभैः ल० । कुटिभैः ट० । १५ आसन्नफलविषयक्षेत्रकर्षणे। १६ गोस्थानकम् । 'वजो ग्रोष्ठाध्ववृन्देषु' इत्यभिधानात् । १७ रत्नानां क्रयविक्रयस्थान । १८ म्लेच्छाः । १६ निवसन्ति स्म। * पहाड़ोंपर बसनेवाले नगर संवाह कहलाते है। + जहां रत्नों का व्यापार होता है उन्हें कुक्षिवास कहते हैं। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व दर्गाटवी सहस्राणि तस्याष्टाविशतिर्मता। 'वनधन्वाननिम्नादिविभागैर्या विभागिताः ॥७॥ म्लेच्छराजसहस्राणि तस्याष्टदशसंख्यया। रत्नानामुद्भवक्षेत्रं यः समन्तादधिष्ठितम् ॥७२॥ कालाख्यश्च महाकालो नैस्स lः पाण्डुकाह्वया । पद्ममाणवपिङगाब्ज सर्वरत्नपदादिकाः ॥७३॥ निधयो नव तस्यासन प्रतीतैरिति नामभिः। यैरयं गृहवार्तायां निश्चिन्तोऽभूनिधीश्वरः ॥५४॥) निधि : पुण्यनिधेरस्य कालाख्यः प्रथमो मतः । यतो लौकिकशब्दादिवार्तानां प्रभवोऽन्वहम् ॥ इन्द्रियार्था मनोज्ञा ये वीणावंशानकादयः । तान् प्रसूते यथाकालं निधिरेष विशेषतः ॥७६॥ असिमष्यादिषट्कर्मसाधनद्रव्यसम्पदः । यतः शश्वत् प्रसूयन्ते महाकालो निधिः स वै ॥७७॥ शय्यासनालयादीनां नै:सात् प्रभवो निधेः। पाण्डुकाद्धान्यसम्भूतिः षड्रसोत्पत्तिरप्यतः ॥७॥ पट्टांशुकदुकूलादिवस्त्राणां प्रभवो यतः। स पद्माख्यो निधिः पद्मागर्भाविर्भावितोऽद्युतत् ॥७॥ दिव्याभरणभेदानाम् उद्भवः पिङगलानिधेः। माणवानीतिशास्त्राणां शस्त्राणां च समुद्भवः ॥८॥ शङखात् प्रदक्षिणावर्तात् सौवर्णी सृष्टिमुत्सृजन् । स शङखनिधिरुत्प्रेडखदुक्मरोचिजितारुक् ॥८॥ सर्वरत्नान्महानोलनीलस्थूलो पलादयः। प्रादुःसन्ति। मणिच्छायारचितेन्द्रायुधत्विषः॥८२॥ रत्नानि द्वितयान्यस्य जीवाजीवविभागतः । ९क्ष्मात्रागैश्वर्यसम्भोगसाधनानि चतुर्दश ॥८३॥ बतलाई है ॥७०॥ अट्ठाईस हजार ऐसे सघन वन थे जो कि निर्जल प्रदेश और ऊंचे ऊंचे पहाड़ी विभागोंमें विभक्त थे ॥७१॥ जिनके चारों ओर रत्नोंके उत्पन्न होनेके क्षेत्र अर्थात खाने विद्यमान हैं ऐसे अटारह हजार म्लेच्छ राजा थे ॥७२॥ महाराज भरतके काल, महाकाल, नैस्सl, पाडुण्क, पद्म, माणव, पिङ्ग, शंख और सर्वरत्न इन प्रसिद्ध नामोंसे युक्त ऐसी नौ निधियां थीं कि जिनसे चक्रवर्ती घरकी आजीविकाके विषयमें बिलकुल निश्चिन्त रहते थे ॥७३-७४॥ पुण्यकी निधिस्वरूप महाराज भरतके पहली काल नामकी निधि थी जिससे प्रत्येक दिन लौकिक शब्द अर्थात् व्याकरण आदिके शास्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती थी ॥७५।। तथा वीणा, बाँसुरी, नगाड़े आदि जो जो इन्द्रियोंके मनोज्ञ विषय थे उन्हें भी यह निधि समयानसार विशेष रीतिसे उत्पन्न करती रहती थी ॥७६। जिससे असि, मषी आदि छह कोक साधनभूत द्रव्य और संपदाएं निरन्तर उत्पन्न होती रहती थीं वह महाकाल नामकी दूसरी निधि थी ॥७७॥ शय्या, आसन तथा मकान आदिकी उत्पत्ति नैसर्ग्य नामकी निधिसे होती थी। पाण्डुक निधिसे धान्योंकी उत्पत्ति होती थी इसके सिवाय छह रसोंकी उत्पत्ति भी इसी निधिसे होती थी ॥७८॥ जिससे रेशमी सूती आदि सब तरहके वस्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती है और जो कमलके भीतरी भागोंसे उत्पन्न हुएके समान प्रकाशमान है ऐसी पद्म नामकी निधि अत्यन्त देदीप्यमान थी ॥७९॥ पिङ्गल नामकी निधिसे अनेक प्रकारके दिव्य आभरण उत्पन्न होते रहते थे और माणव नामकी निधिसे नीतिशास्त्र तथा अनेक प्रकारके शस्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती थी ॥८०॥ जो अपने प्रदक्षिणावर्त नामके शंखसे सुवर्णकी सृष्टि उत्पन्न करती थी और जिसने उछलती हुई सुवर्ण जैसी कान्तिसे सर्यकी किरणोंको जीत लिया है ऐसी शंख नामकी निधि थी॥८१॥ जिसके मणियोंकी कान्तिसे इन्द्रधनुषकी शोभा प्रकट हो रही है ऐसी सर्वरत्न नामकी निधिसे महानील, नील तथा पद्मराग आदि अनेक तरहके रत्न प्रकट होते थे ॥८२।। इनके सिवाय भरत महाराजके जीव और अजीवके भेदसे दो विभागोंमें बंटे हए चौदह रत्न भी थे जो कि पथिवीकी रक्षा और ऐश्वर्यके उपभोग करनेके साधन थे ।।८।। १ मरुभूमि। 'समानो मरुधन्वानौ' इत्यभिधानात् । २ धन्वन्निम्नानिम्नाद्रि-द०। वनधन्वननम्रादि-ल० । ३ कुक्षिवासम् । ४ म्लेच्छराजैः। ५ पिङग पिङगल। अब्ज कमल । ६ व्यापारे । ७ कालनिधेः । ८ जनयन् । ६ उच्चलत्। १० पद्मरागः । ११ प्रकटीभवन्ति । १२ पृथ्वीरक्षा । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ महापुराणम् चक्रातपत्रदण्डासिमणयश्चर्म काकिणी । चमूगृहपतीभाश्वयोषित्तक्षपुरोधसः ॥८४॥ 'चकासिदण्डरत्नानि सच्छत्राण्यायुधालयात । जातानि मणिचर्माभ्यां काकिणी श्रीगृहोदरे ॥८५॥ स्त्रीरत्नगजवाजीनां प्रभवो रौप्यशैलतः । रत्नान्यन्यानि साकेताज्जज्ञिरे निधिभिः समम् ॥ ८६ ॥ निधीनां सह रत्नानां गुणान् को नाम वर्णयेत् । 'यैरावजितमूर्जस्वि' हृदयं चक्रवर्तिनः ॥८७॥ भेजे षट्ऋतुजानिष्टान् भोगान् पञ्चेन्द्रियोचितान् । स्त्रीरत्नसार' थिस्तद्धि निधानं सुखसम्पदाम् ॥ ८८ ॥ कान्तारत्नमभूत्तस्य सुभद्रेत्यनुपद्रुतम्' । भद्रिकाऽसौ प्रकृत्येव" जात्या विद्याधरान्वया ॥5॥ शिरीषकुमाराङगी चम्प" कच्छदसच्छविः । बकुलामोदनिःश्वासा पाटला पाटलाधराः ॥ ६०॥ प्रबुद्धपद्म सौम्यास्या नीलोत्पलदलेक्षणा । सुभू रलिकुलानीलमृदुकुञ्चितमूर्द्धजा ॥१॥ तनूदरी वरारोहा १५ वामोरूनिविडस्तनी । मृदुबाहूलता साऽभून्मदनाग्नेरिवारणिः तत्क्रमौ" नूपुरामञ्जुगुज्जितैर्मुखरीकृतौ । मदनद्विरदस्येव तेनतुर्जयडिण्डिमम् ॥ ६३ ॥ निःश्रेणीकृत्य तज्जङधे सदूरुद्वारबन्धनाम् । वासगेहास्थयाऽनङ्गस्तच्छ्रोणीं" नूनमासदत् ॥ ६४॥ ॥६२॥ चक्र, छत्र, दण्ड, असि, मणि, चर्म और काकिणी ये सात अजीव रत्न थे और सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, सिलावट और पुरोहित ये सात सजीव रत्न थे ॥ ८४ ॥ चक्र, दण्ड, अि और छत्र ये चार रत्न आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे तथा मणि, चर्म और काकिणी ये तीन रत्न में प्रकट हुए थे ॥८५॥ स्त्री, हाथी और घोड़ाकी उत्पत्ति विजयार्ध शैलपर हुई थी तथा अन्य रत्न निधियों के साथ साथ अयोध्या में ही उत्पन्न हुए थे ॥ ८६ ॥ जिनके द्वारा सेवन किया हुआ चक्रवर्तीका हृदय अतिशय बलिष्ठ हो रहा था उन निधियों और रत्नोंका वर्णन कौन कर सकता है ? ॥८७॥ | वह चक्रवर्ती स्त्रीरत्न के साथ साथ छहों ऋतुओं में उत्पन्न होनेवाले पञ्चेन्द्रियों के योग्य भोगोंका उपभोग करता था सो ठीक ही है क्योंकि स्त्री ही समस्त सुख सम्पदाओं का भण्डार है ॥८८॥ महाराज भरतके रोगादि उपद्रवोंसे रहित सुभद्रा नामकी स्त्रीरत्न थी, वह सुभद्रा स्वभावसे ही भद्रा अर्थात् कल्याणरूप थी और जातिसे विद्याधरोंके वंशकी थी ॥ ८९ ॥ उसके समस्त अंग शिरीषके फूलके समान कोमल थे, कान्ति चम्पाकी कलीके समान थी, श्वासोच्छ्वास बकौली ( मौलश्री) के फूलके समान सुगन्धित था, अधर गुलाब के फूल के समान कुछ कुछ लाल थे, मुख प्रफुल्लित कमलके समान सुन्दर था, नेत्र नील कमलके दलके समान थे, भौंहें अच्छी थीं, केश भ्रमरोंके समूहके समान काले, कोमल और कुछ कुछ टेढ़े थे, उदर कृश था, नितम्ब सुन्दर थे, जाँचें मनोहर थीं, स्तन कठोर थे और भुजारूपी लताएँ कोमल थीं, इस प्रकार वह सुभद्रा कामरूपी अग्निको उत्पन्न करनेके लिये अरणिके समान थी । भावार्थ- जिस प्रकार अरणि नामकी लकड़ीसे अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार उस सुभद्रा से दर्शकों के मनमें कामाग्नि उत्पन्न हो उठती थी ॥९० - ९२ ॥ नूपुरोंकी मनोहर कारसे वाचालित हुए उसके दोनों चरण ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेवरूपी हाथी के विजय के नगाड़े ही बजा रहे हों ।। ९३ ।। ऐसा मालूम होता था मानो कामदेव अपने निवासगृहपर पहुंचने की इच्छासे उस सुभद्राकी दोनों जंबाओंको नसैनी बनाकर जिसमें उत्तम ऊरु ही १ चक्रदण्डासि - ल० द० अ०, प०, स०, इ० । २ ४ रत्ननिधिभिः । ५ वशीकृतम् । ६ सहाय: । ७ स्त्रीरत्नम् । ८ १० मङ्गलमूर्तिः । ११ स्वभावेन । १२ चम्पककुसुमदल । १५ उत्तमनितम्बा । "वरारोहा मत्तकाशिन्युत्तमा वरवरिगनी" १७ अग्निमन्थनकाष्ठम् । १८ सुभद्राचरणौ । १६ कटिम् । 'कटो ना श्रोणिफलकं कटिः श्रोणिः ककुद्मती' इत्यभिधानात् । उत्पत्तिः । ३ रत्नसहितानाम् । स्थानम् । ९ रोगादिभिरपीडितम् । १३ कुबेराक्षी । १४ ईषदरुण | इत्यभिधानात् । १६ मनोहर । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व २२६ निःसत्य नाभिवल्मीकात् कामकृष्णभुजङगमः। रोमावलीछलेनास्या ययौ कुचकरण्डकौ ॥५॥) निर्मोकमिव कामाहेः दधानोद्धं स्तनांशुकम् । भुजगीमिव तद्धृत्यै सै कामेकावलीमधात् ॥६६॥ बभ्रे हारलतां कण्ठलग्नां सा नाभिलम्बिनीम् । मन्त्ररक्षामिवानङगग्रथितां कामदीपिनीम् ॥१७॥ हाराकान्तस्तनाभोगा सा स्म धत्ते परां श्रियम् । सीतेव यमकाद्रिस्पृक्प्रवाहा सरिदुत्तमा ॥६॥ बाहू तस्या जितानङगपाशौ लक्ष्मीमुदूहतुः । कामकल्पद्रुमस्येव प्ररोहौ दीप्तभूषणौ ॥६६॥ रेजे करतल तस्याः सूक्ष्मरेखाभिराततम् । जयरेखा इवाबिभदन्यस्त्रीनिर्जयाजिताः ॥१०॥ मुखमुद्भ, तनूदर्याः तरलापाडगमाबभौ । सशरं समहेष्वासं 'जयागारमिवातनोः ॥१०॥ वक्रमस्याः शशाङाकस्य कान्ति जित्वा स्वशोभया । दधे नु० भ पताकाऊकं कर्णाभ्यां जयपत्रकम् ॥१०२॥ हेमपत्राङकितौ तन्व्याः१२ कगौ लीलामवापतुः । स्वर्वनिर्जयायेव कृतपत्रावलम्बनौ ॥१०३॥ कपोलावुज्ज्वलौ तस्या दधतुर्दपर्णश्रियम् । द्रष्टकामस्य कामस्य स्वा दशा दशधा स्थिताः ॥१०४॥ "मध्येचारधीराक्ष्या नासिकाभान्मखोन्मखी५ । तदामोदमिवाघात कृतयत्ना कुतूहलात् ॥१०॥ कृत्वा श्रोतृपदे६ कणौ तन्नेत्र बिभमैमिथः । कृतस्पर्ध इवाभातां पुष्पबाणे सभापतौ ॥१०६॥ दरवाजे के बन्धन हैं ऐसे उसके नितम्बोंपर जा पहंचा हो ॥९४॥ रोमावलीके छलसे कामदेवरूपी काला सर्प उसकी नाभिरूपी बामीसे निकलकर उसके स्तनरूपी पिटारेके समीप जा पहंचा था ।।९५।। वह सभद्रा कामरूपी सर्पकी कांचलीके समान सन्दर स्तनपरका वस्त्र (चोली) धारण करती थी और उस कामरूप सर्पको सन्तुष्ट करने के लिये सर्पिणीके समान श्रेष्ठ एकावली हारको धारण करती थी ।।९६॥ वह कण्ठ में पड़ी हुई, नाभि तक लटकती हुई और कामको उद्दीपित करनेवाली जिस हाररूपी लताको धारण कर रही थी वह ऐसी मालूम होती थी मानो कामदेवके द्वारा गूंथा हुआ और मन्त्रोंसे मंत्रित हुआ रक्षाका डोरा ही हो ॥९७।। जिसके स्तनोंका मध्यभाग हारसे व्याप्त हो रहा है ऐसी वह सुभद्रा इस प्रकारकी उत्कृष्ट शोभा धारण कर रही थी मानो जिसका प्रवाह दोनों ओरके यमक पर्वतोंको स्पर्श कर रहा है ऐसी उत्तम सीता नदी ही हो ॥९८॥ कामदेवके पाशको जीतनेवाली तथा देदीप्यमान आभूषणोंसे सुशोभित उसकी दोनों भुजाएं ऐसी शोभा धारण कर रही थीं मानो कामरूपी कल्पवृक्षके दो अंकूरे ही हों ॥९९।। सूक्ष्म रेखाओंसे व्याप्त हुआ उसका करतल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अन्य स्त्रियोंके पराजयसे उत्पन्न हुई विजयकी रेखाएं ही धारण कर रहा हो ॥१००। जिसकी भौंहें ऊपरको उठी हई हैं और जिसमें चंचल कटाक्ष हो रहे है ऐसा उस कृशोदरीका मुख ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बाण और महाधनुषसे सहित कामदेवकी आयुधशाला ही हो ॥१०१।। उसका मुख अपनी शोभाके द्वारा चन्द्रमाकी कान्तिको जीतकर क्या कानोंके बहानेले भौंहरूपी पताकाके चिह्न सहित विजयपत्र (जीतका प्रमाणपत्र) ही धारण कर रहा था ।।१०२।। सोनेके पत्रोंसे चिह्नित उसके दोनों कान ऐसी शोभा धारण कर रहे थे मानो उन्होंने देवांगनाओंको जीतने के लिये कागज-पत्र ही ले रक्खे हों ॥१०३।। उसके दोनों उज्ज्वल कपोल ऐसे जान पड़ते थे मानो अपनी दश प्रकारकी अवस्थाओं को देखने की इच्छा करनेवाले कामदेवके दर्पणकी शोभा ही धारण कर रहे हों ।।१०४॥ उस : चञ्चल लोचनवाली सुभद्राकी नाक आँखोंके बीचमें मुंहकी ओर झुकी हुई थी और उससे १-करण्डकम् द०, ल०, इ०, अ०, प०, स० । २ प्रशस्तम् । ३ कामाहेः सन्तोषाय । ४ मुख्याम् । ५ सीतानदी। ६ ददाते स्म । ७ महाचापसहितम् । ८ शस्त्रशालाम् । ६ अनङगस्य । १० इव । ११ कर्णपत्र । १२ तस्याः ल०, द०। १३ आत्मीयाः । १४ चक्षुषोर्मध्ये। १५ मुखस्याभिमुखी। १६ श्रोतृजनस्थाने । १७ कामे सभापतौ सति । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० महापुराणम् प्रभत कान्तिश्चकोराक्ष्या ललाट लुलितालके ।हेमपट्टान्तसंलग्ननीलोत्पलविडम्बिनी ॥१०७॥ तस्या विनीलविसस्तकबरीबन्धबन्धुरम् । केशपाशमनङगस्य मन्ये पाशं प्रसारितम् ॥१०॥ इत्यस्या रूपमुद्भूतसौष्ठवं त्रिजगज्जयि । मत्वाऽनङगस्तदडगेषु सन्निधानं व्यधात ध्रवम् ॥१०॥ तपालोकनोच्चक्षुः तद्गात्रस्पर्शनोत्सुकः । तन्मुखामोदमाजिघन् रसयंश्चासकृन्मुखम् ॥११०॥ तदायकलनिक्वाणश्रुतिसंसक्तकर्णकः । तद्गात्रविपुलारामे स रेमे सुखनिर्वृतः ॥११॥ पञ्च बाणाननङ गस्य वदन्त्येतान कुण्ठितान् । पुष्पेषुसंकथालोक प्रसिद्ध्यैव गता प्रथाम् ॥११२॥ धनुर्लतां मनोजस्य प्राहुः पुष्पमधीं जडाः । सुकुभारतरं स्त्रैणं वपुरेवातनोर्धनुः ॥११३॥ पञ्च बाणाननङगस्य नियच्छन्ति कुतो' जडाः । यदेव कामिनां हारि तदस्त्रं कामदीपनम् ॥११४॥ स्मितमालोकितं हासो जल्पितं मदमन्मनम् । कामाङगमिदमेवान्यत् कैतवं तस्य पोषकम् ॥११॥ प्रारूढयौवनोष्माणौ स्तनावस्या हिमागमे । रोम्णां हृषितमस्याडगे शिशिरोत्थं विनिन्यतुः११ ॥११६॥ हिमानिलैः कुचोत्कम्पम् आहितंर सा हृतक्लमैः । प्रेयस्करतलस्पर्शः अपनिन्ये ऽङकशायिनी ॥११७॥ वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कौतूहलसे मुंहका सुगन्ध सूंघने के लिये प्रयत्न ही कर रही हो ॥१०५।। उसके दोनों नेत्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो कामदेवके सभापति रहते हुए कानोंको साक्षी बनाकर परस्परमें हाव-भावके द्वारा स्पर्धा ही कर रहे हों ॥१०६॥ जिसपर काली काली अलकें बिखर रही हैं ऐसे चकोरके समान नेत्रवाली उस सुभद्राके ललाटपर जो कान्ति थी वह सुवर्णके पटियेपर लटकती हुई नीलकमलको मालाके समान बहुत ही सुन्दर जान पड़ती थी ॥१०७॥ अत्यन्त काले और नीचेकी ओर लटकते हुए कबरीके बन्धनसे सुशोभित उसके केशपाश ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो फैला हुआ कामदेवका पाश ही हो ॥१०८। इस प्रकार जिसकी उत्तमता प्रकट है ऐसे उस सुभद्राके रूपको तीनों जगत्का जीतनेवाला जानकर ही मानो कामदेवने उसके प्रत्येक अंगोंमें अपना निवासस्थान बनाया था ॥१०९॥ उसका रूप देखने के लिये जो सदा चक्षुओंको ऊपर उठाये रहता है, उसके शरीरका स्पर्श करनेके लिये जो सदा उत्कण्ठित बना रहता है, जो बार बार उसके मुखकी सुगन्ध सूंघा करता है, बार बार उसके मखका स्वाद लिया करता है और उसके संगीतक सन्दर शब्दोंके सननमें जिसके कान सदा तल्लीन रहते हैं ऐसा वह चक्रवर्ती उस सुभद्राके शरीररूपी बड़े बगीचे में सुखसे सन्तुष्ट होकर क्रीड़ा किया करता था ॥११०-१११॥ कविलोग, जिनका कहीं प्रतिबन्ध नहीं होता ऐसा सुभद्राका रूप, कोमल स्पर्श, मुखकी सुगन्ध, ओठोंका रस और संगीतमय सुन्दर शब्द इन पाँचको ही कामदेवके पाँच बाण बतलाते हैं। लोकमें जो कामदेवके पांचो बाणोंकी चर्चा है वह रूढ़ि मात्रसे ही प्रसिद्ध हो गई है ॥११२॥ मूर्ख लोग कहते हैं कि कामदेवका धनुष फूलोंका है परन्तु वास्तव में स्त्रियोंका अत्यन्त कोमल शरीर ही उसका धनुष है ।।११३।। न जाने क्यों मूर्ख लोग कामदेवको पांच बाण ही प्रदान करते हैं अर्थात् उसके पांच बाण बतलाते हैं क्योंकि जो कुछ भी कामीलोगोंके चित्तको हरण करनेवाला है वह सभी कामको उत्तेजित करनेवाला कामदेवका बाण है । भावार्थ-कामदेवके अनेक बाण है ।।११४।। स्त्रियोंका मन्द हास्य, तिरछी चितवन, जोरसे हंसना और कामके आवेशसे अस्पष्ट बोलना यही सब कामदेवके अङ्ग हैं इनके सिवाय जो उनका कपट है वह इन्हीं सबका पोषण करने वाला है ॥११५॥ जो जवानीके कारण गर्म हो रहे हैं ऐसे सुभद्राके दोनों स्तन हेमन्त ऋतुमें ठण्डसे उठे हुए भरत के शरीर के रोमांचोंको दूर करते थे ॥११६॥ गोदमें शयन करने वाली सुभद्रा शीतलवायुके १ गलित। २ सुखतृप्तः। ३ तद्रूपादीन् । ४ अमन्दान् । ५ स्त्रिया इदम् । ६ नियमयन्ति । ७ किं कारणम् । ८ मदेनाव्यक्तभाषिणम् । कामस्य । १० रोमाञ्चम् । 'रोमाञ्चो रोमहर्षणम्' इत्यभिधानात् । ११ नाशं चरित्यर्थः । १२ कृतम् । १३ प्रियतत्महस्ततल । १४ अपहरति स्म। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तम पर्व साशोककलिकां चूतमञ्जरी कर्णसङगिनीम् । दधती' चम्पकप्रोत्तः केशान्तः साऽरुचन्मधौ ॥११॥ मधौ' मधुमदारक्तलोचनामास्खलद्गतिम् । बहु मेने प्रियः कान्तां मूर्तामिव मदश्रियम् ॥११॥ कलैरलिकुलक्वाणः सान्यपुष्ट विकूजितः । मधुरं मधुरभ्यष्टोत् तुष्टोवामुं विशाम्पतिम् ॥१२०॥ कलकण्ठीकलक्वाण छितरलिझडकृतः । व्यज्यते स्म स्मराकाण्डावस्कन्दो डिण्डिमायितः ॥१२॥ पुष्पच्चूतवनोद्गन्धिः० उत्फुल्लकमलाकरः । पप्रथं सुरभिर्मासः१ सुरभीकृतदिग्मुखः ॥१२२॥ हृतालिकुलझडकारः सञ्चरन्मलयानिलः । अनङगनपतेरासीद् घोषयन्निव शासनम् ॥१२३॥ सन्ध्यारुणां कलामिन्दोः मेने लोको जगद्ग्रस:१३ । करालामिव रक्ताक्तां" दंष्ट्रां मदनरक्षसः ॥१२४॥ उन्मत्तकोकिल काल तस्मिन्मत्तषट्पदे । नानुन्मत्तो जनः कोऽपि मुक्त्वानडग"हो मुनीन् ॥१२५॥ सायमुदगाहनिणिक्तः प्रस्तुहिनशीतलः । ग्रीष्मे मदनतापात सास्याङग निरवापयत् ॥१२६।। चन्दनद्रवसंसिक्तसुन्दराऊगलतां प्रियाम् । परिरभ्य८ दृढं दोभ्यां स लेभे गात्रनिर्वृतिम् ॥१२७॥ मदनज्वरतापार्ता तीवग्रीष्मोष्मनिःसहाम० । स तां निर्वापयामास स्वाङगस्पर्शसुखाम्बुभिः ॥१२८॥ द्वारा उत्पन्न हुई स्तनोंकी कँपकँपीको क्लेश दूर करनेवाले प्रिय पतिके करतलके स्पर्शसे दूर करती थी ॥११७।। अशोकवृक्षकी कलीके साथ साथ कानोंमें लगी हुई आमकी मंजरीको धारण करती हुई वह सुभद्रा वसन्तऋतुमें चम्पाके फूलोंसे गुंथी हुई चोटीसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी ॥११८॥ वसन्तऋतुमें मधुके मदसे जिसकी आंखें कुछ कुछ लाल हो रही हैं और जिसकी गति कुछ कुछ लड़खड़ा रही है-स्खलित हो रही है ऐसी उस सुभद्राको भरत महाराज मतिमती मदकी शोभाके समान बहत कुछ मानते थे ।।११९।। वह वसन्तऋतु सन्तुष्ट होकर भूमरोंकी सुन्दर झंकार और कोकिलाओंकी कमनीय कूकसे मानो राजा भरतकी सुन्दर स्तुति ही करता था ॥१२०॥ कोयलोंके सुन्दर शब्दोंसे मिली हुई भूमरोंकी झंकारसे ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवने नगाड़ोंके साथ अकस्मात् आक्रमण ही किया होछापा ही मारा हो ।।१२१॥ फूले हुए आमके वनोंसे जो अत्यन्त सुगन्धित हो रहा है, जिसमें कमलोंके समह फूले हुए हैं और जिसने समस्त दिशाएं सुगन्धित कर दी हैं ऐसा वह वसन्तका चैत्र मास चारों ओर फैल रहा था ॥१२२।। भूमरसमूहकी झंकारको हरण करनेवाला, चारों ओर फिरता हुआ मलयसमीर ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवरूपी राजाके शासनकी घोषणा ही कर रहा हो ॥१२३॥ उस समय सन्ध्याकालकी लालीसे कुछ कुछ लाल हई चन्द्रमा की. कलाको लोग ऐसा मानते थे मानो जगत्को निगलनेवाले कामदेवरूपी राक्षसकी रक्तसे भीगी हुई भयंकर डांढ़ ही हो ॥१२४।। जिसमें कोयल और भूमर सभी उन्मत्त हो जाते हैं ऐसे उस वसन्तके समय कामदेवके साथ द्रोह करनेवाले मुनियोंको छोड़कर और कोई ऐसा मनष्य नहीं था जो उन्मत्त न हआ हो ॥१२५॥ सायंकालके समय जलमें अवगाहन करनेसे जो स्वच्छ किये गये हैं और जो बर्फके समान शीतल हैं ऐसे अपने समस्त अंगोंसे वह सभद्रा ग्रीष्मकालमें कामके संतापसे संतप्त हुए भरतके शरीरको शान्त करती थी ॥१२६।। जिसकी । सुन्दर लतापर घिस हुए चन्दनका लप किया गया है एसो अपनी प्रिया सुभद्राको भरत महाराज दोनों हाथोंसे गाढ आलिंगन कर अपना शरीर शान्त करते थे ॥१२७॥ जो कामज्वरके संतापसे पीड़ित हो रही है और जिसे ग्रीष्मकालकी तीव्र गर्मी बिलकुल ही सहन १ बध्नन्ती ल०। २ खचितैः । ३ वसन्ते । ४ स्तौति स्म । ५ तोषगव । ६ कोकिला । ७ मिश्रितैः ।' ८ प्रकटीक्रियते स्म। ६ कामकालधाटीः। १० पुष्पीभवत् । पुष्पचूत-इ०, १०, प०, स०, द०, ल० । ११ वसन्तः । १२ आज्ञाम् । १३ लोकभक्षकस्य । १४ रुधिरलिप्ताम् । १५ कामघातकान् । १६ संध्याकालजलप्रवेशशुद्धः । १७ उष्णं परिहृत्य शैत्यं चकारेत्यर्थः । १८ आलिङ ग्य । १६ शरीरसुखम् । २० असहमानाम् ।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् उत्फुल्लमल्लिकामोदवाहिभिर्गन्ध'बाहिभिः। स सायंप्रातिभेंज धुति रतिसुखाहरैः ॥१२॥ उत्फुल्लपाटलोद्गन्धि मल्लिकामालभारिणीम् । उपगृह्य प्रियां प्रेम्णा नैदाघी सोऽनयन्निशाम् ॥१३०॥ सा घनस्तनितव्याजात् जितेव मनोभुवा । भुजोपपीडमाश्लिष्य शिश्य पत्या तपात्यये ॥१३॥ नवाम्बुकलुषाः परा ध्वनिरुन्मदके किनाम् । कदम्बामोदिनो वाताः कामिनां धुतयेऽभवन् ॥१३२॥ प्रारूढकालिकां पश्यन् बलाकामालभारिणीम् । घनाली पथिकः साश्रुः दिशो मेनेन्धकारिताः॥१३३॥ धारारज्जुभिरानद्धा वागुरेव प्रसारिता । रोधाय पथिकैणानां लुब्धकेनेव हृद्भवा ॥१३४॥ कृतावधिः प्रियो नागाद् अगाच्च जलदागमः । इत्यु दीक्ष्य घनात् काचिद् हृदि शून्याऽभवत् सती ॥१३५॥ विभिन्दन् केतकोसूचीः तत्पांसूनाकिरन्मरुत् । पान्थानां दृष्टिरोधाय धूलिक्षेपमिवाकरोत् ॥१३६॥ इत्यभर्णतमे तस्मिन् काले जलदमालिनि । स वासभवने रम्ये प्रियामरमयन्मुहुः ॥१३७॥ आकृष्टनिचुलामोदं तद्वक्त्रामोदमाहरन् । तस्याः स्तनतटोत्सङगे सोऽनषीद् वाषिकी निशाम् ॥१३॥ स रेमे शरदारम्भे विहरन् कान्तया समम् । वनेष्वभिनवोद्भिन्नसप्तच्छदसुगन्धिषु ॥१३॥ नहीं हो सकती ऐसी उस सुभद्राको महाराज भरत अपने शरीरके स्पर्शसे उत्पन्न हुए सुखरूपी जलसे शान्त करते थे ॥१२८॥ खिली हुई मालतीकी सुगंधको धारण करनेवाले तथा रतिसमयमें सुख पहुंचानेवाले सायंकाल और प्रातःकालकी वायुके द्वारा चक्रवर्ती भरत बहुत ही अधिक संतोष प्राप्त करते थे ॥१२९॥ फूले हुए गुलाबकी सुगन्धयुक्त मालतीकी मालाओंको धारण करनेवाली उस सुभद्राको आलिंगन कर महाराज भरत बड़े प्रेमसे ग्रीष्मकालकी रात व्यतीत करते थे ॥१३०॥ वर्षाऋतुमें मेघोंकी गर्जनाके बहानेसे मानो कामदेवने जिसे घुड़की दिखाकर भयभीत किया है ऐसी वह सुभद्रा भुजाओंसे आलिंगनकर पतिके साथ शयन करती थी ॥१३१॥ उस वर्षाऋतुमें नये जलसे मलिन हुए नदियोंके प्रवाह, उन्मत्त मयूरों के शब्द और कदंबके फूलोंकी सुगन्धिसे युक्त वायु ये सब कामी लोगोंके संतोषके लिये थे ॥१३२।। जिसपर कालिमा छाई हुई है और जो बगुलाओंकी पंक्तिको धारण कर रही है ऐसी मेघमालाको देखते हुए पथिक आंसू डालते हुए दिशाओंको अन्धकारपूर्ण मानते थे ।।१३३॥ उस वर्षाऋतुमें जो जलकी धाराएं पड़ती थीं उनसे रस्सियोंके समान व्याप्त हुई यह पृथिवी ऐसी जान पड़ती थी मानो कामदेवरूपी शिकारीने पथिकरूपी हिरणोंको रोकने के लिये जाल ही फैलाया हो ॥१३४॥ जो आनेकी अवधि करके गया था ऐसा पति अब तक नहीं आया और यह वर्षा ऋतु आ गई इस प्रकार बादलोंको देखकर कोई पतिव्रता स्त्री अपने हृदयमें शून्य हो रही थी अर्थात् चिन्तासे उसकी विचारशक्ति नष्ट हो गई थी।।१३५॥केतकीकी बौंडियोंको भेदन करता हुआ और उनकी धूल को चारों ओर बिखेरता हुआ वायु ऐसा जान पड़ता था मानो पथिकोंकी दृष्टि रोकने के लिये धूलि ही उड़ा रहा हो ॥१३६। इस प्रकार उस वर्षाकालमें जब बादलों के समूह अत्यन्त निकट आ जाते थे तब चक्रवर्ती भरत अपने मनोहर महलमें प्रिया सुभद्राको बार बार प्रसन्न करता था-उसके साथ क्रीड़ा करता था ।।१३७।। जिसने पानी में उत्पन्न होनेवाले बेंतकी सुगन्धि खींच ली है ऐसे उस सभद्राके मुखकी सुगन्धको ग्रहण करता हुआ चक्रवर्ती उसके स्तनतट के समीप ही वर्षाऋतुकी रात्रि व्यतीत करता था ॥१३८॥ शरदऋतु ' १ पवनैः । २ सन्ध्याकालप्रभातकालभेदैः । ३ रतिसुखकरैरित्यर्थः । ४ बिभतीम् । ५ आलिंग्य । उपगुह्य ब०, ५०, द० । उपगृह्य अ०, ल०, स० । ६ निदाघसम्बन्धिनीम् । ७ भजाभ्यां पीडयित्वा । १८ वर्षाकाले । । सन्तोषाय । १० मगबन्धिनी। ११ पान्थमगारगाम् । १२ आलोक्य । १३ घनानन्तस्तेपे प्रोषितभर्तृ का द० । १४ अग्नान् । १५ हिज्जुल । 'निचुलो हिज्जुलोऽम्बुजः' इत्यभिधानात् । १६ वर्षाकालसम्बन्धिनीम् । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व २३३ सकान्तां रमयामास हारज्योत्स्नाञ्चित स्तनीम् । शारदीं निविशन् ज्योत्स्नां सौधोत्सङ्गेषु हारिषु ॥ १४०॥ सोत्पलां 'कुब्ज ब्धा मालां चूडान्तलम्बिनीम् । बाला पत्युरुरः सङगान्मेने बहुरतिश्रियम् ॥ १४१ ॥ इति सोत्कर्षमेवास्यां प्रथयन् प्रेमनिघ्नताम् । स रेमे रतिसाद्भूतो' भोगाङ्गैर्दशधोदितैः ॥ १४२ ॥ सरत्ना निधयो दिव्याः पुरं शय्यासने चमूः । नाटयं सभाजनं भोज्यं वाहनं चेति तानि वै ॥ १४३ ॥ दशाङ्गमिति भोगाङ्गं निविशन् स्वाशितं ' भवम् । स चिरं पालयामास भुवमेकोष्णवारणाम् ॥ १४४ ॥ षोडशास्य सहस्राणि गणबद्धामराः प्रभोः । ये युक्ता धृतनिस्त्रिशा निधिरत्नात्मरक्षणे ॥ १४५ ॥ क्षितिसार " इति ख्यातः प्राकारोऽस्य गृहावृतिः । गोपुरं सर्वतोभद्रं प्रोल्लसद्रत्नतोरणम् ॥१४६॥ नन्द्यावर्तो निवेशोऽस्य शिबिरस्यालघीयसः । प्रासादो वैजयन्ताख्यो यः सर्वत्र सुखावहः ॥ १४७॥ दिक्स्वस्तिका सभाभूमिः परार्द्धमणिकुट्टिमा । तस्य चङक्रमणी यष्टिः सुविधिर्मणिनिर्मिता ॥ १४८ ॥ गिरिकूटकमित्यासीत् सौधं दिगवलोकने" । वर्धमानक मित्यन्यत् १५ प्रेक्षागृहमभूद् विभोः ॥१४६॥ धर्मान्तोऽस्य " महानासीद् धारागृहसमा ह्वयः । गृहकूटकमित्युच्चैः वर्षावासः प्रभोरभूत् ॥ १५०॥ पुष्करावर्त्यभिख्यं च हर्म्यमस्य सुधासितम् । कुबेरकान्तमित्यासीद् भाण्डागारं यदक्षयम् ॥ १५१ ॥ के प्रारम्भमें वह चक्रवर्ती, जिनमें नवीन खिले हुए सप्तच्छद वृक्षोंकी सुगन्ध फैल रही है ऐसे वनोंमें अपनी स्त्रीके साथ विहार करता हुआ क्रीडा करता था || १३९ ।। राजभवनकी मनोहर छतोंपर शरद् ऋतुकी चांदनीका उपभोग करता हुआ वह चक्रवर्ती हारकी कान्तिसे जिसके स्तन सुशोभित हो रहे हैं ऐसी प्रिया सुभद्राको प्रसन्न करता था उसके साथ क्रीडा करता था ॥ १४० ।। जब कभी रानी सुभद्रा पतिके वक्षःस्थलपर लेट जाती थी उस समय उसके मस्तकपर कंचुकियों के द्वारा गुंथी हुई भरतकी कमलों सहित माला लटकने लगती थी और उसे वह बड़े प्रेमसे सूंघती थी ।। १४१ ।। इस प्रकार इस सुभद्रादेवी में प्रेमकी परवशताको अच्छी तरह प्रकट करता हुआ और रतिसुखके आधीन हुआ वह चक्रवर्ती दश प्रकारके कहे हुए भोगोंके साधनोंसे क्रीडा करता था ।। १४२ ।। रत्नसहित नौ निधियां, रानियां, नगर, शय्या, आसन, सेना नाट्यशाला, वर्तन, भोजन और सवारी ये दश भोगके साधन कहलाते हैं ॥ १४३ ॥ इस प्रकार अपनेको तृप्त करने वाले दश प्रकारके भोगके साधनों का उपभोग करते हुए महाराज भरतने चिरकालतक जिसपर एक ही छत्र है ऐसी पृथिवीका पालन किया ॥ १४४॥ चक्रवर्ती भरतके ऐसे सोलह हजार गणबद्ध देव थे जो कि तलवार धारणकर निधि, रत्न और स्वयं उनकी रक्षा करने में सदा तत्पर रहते थे ।। १४५ || उनके घरको घेरे हुए क्षितिसार नामका कोट था और देदीप्यमान रत्नोंके तोरणोंसे युक्त सर्वतोभद्र नामका गोपुर था ।। १४६ । उनकी बड़ी भारी छावनीके ठहरनेका स्थान नन्द्यावर्त नामका था और जो सब ऋतुओं में सुख देनेवाला है ऐसा वैजयन्त नामका महल था ॥ १४७ ॥ बहुमूल्य मणियोंसे जड़ी हुई दिकस्वस्तिका नामकी सभाभूमि थी और टहलने के समय हाथ में लेनेके लिये मणियोंकी बनी हुई सुविधि नामकी लकड़ी थी ।। १४८।। सब दिशाएं देखने के लिये गिरिकूटक नामंका राजमहल था और उन्हीं चक्रवर्तीके नृत्य देखने के लिये वर्धमानक नामकी नृत्यशाला थी || १४९ ॥ | उन चक्रवर्तीके गर्मीको नष्ट करनेवाला धारागृह नामका बड़ा भारी स्थान था और वर्षाऋतुमें निवास करने के लिये बहुत ऊंचा गृहकूटक नामका महल था ।। १५० ।। चूनासे सफेद हुआ पुष्करावर्त नामका १ 'कुब्जिका भद्रतरणी बृहत्पत्रातिकेशरा | महासहा' इति धन्वन्तरिः । २ रचिताम् । ३ रतिश्रीसमानामिति । पत्युरुरस्यस्य स्थिता संजिघूति स्म सा प०, ल० । ४ स्नेहाधीनताम् । ५ रत्यधीनः । ६ देव्यः द०, ल०, प० । ७ भाजनसहितम् । ८ स्वस्य तृप्तिजनकम् । सुचिरं ल० । ११ क्षितिसार इति नामा | १२ आलिङ्गभूमिः, आन्दोलनभूमिरित्यर्थः । १४ दिशा लोकार्थम् । १५ नृत्तदर्शनगृहम् । १६ घर्मान्तसंज्ञाम् । १० एकच्छत्राम् । १३ सुविधिनामा | ३० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् वसुधारकमित्यासीत् कोष्ठागारं महाव्ययम् । जीमूतनामधेयं च मज्जनागारमूजितम् ॥१५२॥ रत्नमालातिरोचिष्णुः बभूवास्यावतंसिका । देवरम्येति रम्या सा मता दूष्यकुटी' पृथः ॥१५३॥ सिंहवाहिन्यभूच्छय्या सिंहरूढा भयानकैः । सिंहासनमथोऽस्योच्चः गुण म्नाऽप्यनुत्तरम् ॥१५४॥ चामराज्युपमामानं व्यतीत्यानुपमा यभान् । विजयार्द्धकुमारण वितीर्णानि निधीशिने ॥१५॥ भास्वत्सूर्यप्रभं तस्य बभूवातपवारणम् । परार्ध्यरत्ननिर्माणं जितसूर्यशतप्रभम् ॥१५६॥ नाम्ना विद्युतप्रभे चास्य रुचिरे मणिक ण्डले । जित्वा ये वैद्युती' दीप्ति रुरुचाते स्फुरत्विषी ॥१५७॥ रत्नांशुजटिलास्तस्य पादुका विषमोचिकाः । परेषां पदसंस्पर्शाद् मुञ्चन्त्यो विषमुल्बणम् ॥१५८॥ अभेद्याख्यमभूत्तस्य तनुत्राणं प्रभास्वरम् । द्विषतां शरनाराचैः यदभेद्यं महाहवे ॥१५॥ रथोऽजितजयो नाम्ना जयलक्ष्मीभरोद्वहः । यत्र शस्त्राणि जैत्राणि दिव्यान्यासन्ननेकशः ॥१६०॥ चण्डाकाण्डाशनिप्रख्यज्याघाताऽकम्पिताखिलम् । जितदैत्यामरं तस्य बजूकाण्डममूखनुः॥१६१॥ अमोघपातास्तस्यासन् नामोघाख्या महेषवः। "यरसाध्यजये चक्री कृतश्लाघो रणागणे ॥१६२॥ प्रचण्डा वजुतुण्डाख्या शक्तिरस्यारिखण्डिनी। बभूव बजनिर्माणाश्लाध्या वजिजयेऽपि या ॥१६३॥ कुन्तः सिंहाटको नाम यः सिंहनखराङकुरैः। स्पर्धते स्म निशाताग्रो मणिदण्डाग्रमण्डनः ॥१६॥ खास महल था और कुबेरकान्त नामका भाण्डारगृह था जो कभी खाली नहीं होता था ॥१५१॥ वसुधारक नामका बड़ा भारी अटूट कोठार था और जीमूत नामका बड़ा भारी स्नानगृह था ॥१५२॥ उस चक्रवर्तीके अवतंसिका नामकी अत्यन्त देदीप्यमान रत्नोंकी माला थी और देवरम्या नामकी बहुत बड़ी सुन्दर चांदनी थी॥१५३॥ भयंकर सिंहोंके द्वारा धारण की हुई सिंहवाहिनी नामकी शय्या थी और गण तथा नाम दोनोंसे अनत्तर अर्थात उत्कृ अर्थात् उत्कृष्ट बहुत ऊंचा सिंहासन था ॥१५४।। जो विजयाकुमारके द्वारा निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीके लिये समर्पित किये गये थे ऐसे अनुपमान नामके उनके चमर उपमाको उल्लंघन कर अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ॥१५५।। उस चक्रवर्तीके बहुमूल्य रत्नोंसे बना हुआ और सैकड़ों सूर्यकी प्रभाको जीतनेवाला सूर्यप्रभ नामका अतिशय देदीप्यमान छत्र था ।।१५६॥ उनके देदीप्यमान कान्तिके .धारक विद्युत्प्रभ नामके दो ऐसे सुन्दर कुण्डल थे जो कि बिजलीकी दीप्तिको पराजित कर सुशोभित हो रहे थे ।।१५७।। महाराज भरतके रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त हुई विषमोचिका नामकी ऐसी खड़ाऊं थीं जो कि दूसरेके पैरका स्पर्श होते ही भयंकर विष छोड़ने लगती थीं ।। ॥१५८॥ उनके अभेद्य नामका कवच था जो कि अत्यन्त देदीप्यमान था और महायुद्ध में शत्रुओके तीक्ष्ण वाणोंसे भी भेदन नहीं किया जा सकता था ।।१५९॥ विजयलक्ष्मीके भारको धारण करनेवाला अजितंजय नामका रथ था जिसपर शत्रओंको जीतनेवाले अनेक दिव्य शस्त्र रक्खे रहते थे ॥१६०॥ असमयमें होनेवाले प्रचण्ड वजपातके समान जिसकी प्रत्यंचाके आघातसे समस्त संसार कंप जाता था और जिसने देव, दानव-सभीको जीत लिया था ऐसा वजूकाण्ड नामका धनुष उस चक्रवर्तीके पास था ॥१६१॥ जो कभी व्यर्थ नहीं पड़ते ऐसे उसके अमोघ नामके बड़े बड़े बाण थे। इन बाणोंके द्वारा ही चक्रवर्ती जिसमें विजय पाना असाध्य हो ऐसे युद्धस्थलमें प्रशंसा प्राप्त करता था ॥१६२॥ राजा भरतके शत्रुओंको खण्डित करनेवाली वजतुण्डा नामकी शक्ति थी, जो कि वजकी बनी हई थी और इन्द्रको भी जीतने में प्रशंसनीय थी॥१६३। जिसकी नोक बहत तेज थी, जो मणियोंके बने हए डंडेके अग्रभागपर सशोभित १ पटकुटी। २ उपमाप्रमारणम् । ३ भान्ति स्म । ४ कुण्डले। ५ विद्युत्सम्बन्धिनीम । ६ विषमोचिकासंज्ञाः । ७ महाशरैः। ८ मणिमयदण्डाग्रं मण्डनम् अलंकारो यस्य । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व तस्यासि पुत्रिका दीप्रा रत्नानद्वस्फुरत्सरुः २ । लोहवाहिन्यभूनाम्ना जयश्रीदर्पणायिता ॥ १६५॥ कपोsस्य' मनोवेगो जयश्री प्रणयावहः । द्विषत्कलकुलक्ष्मा' धूदलने योऽशनीयितः ॥ १६६॥ सौनन्दकाव्यमस्याभूद् असिरत्नं स्फुरद्युति । यस्मिन् करतलारूढ दोलारूढमिवाखिलम् ॥१६७॥ प्राहुर्भुतमुखं खेटं विभोर्भूतमुखाङकितम् । स्फुरताऽऽजीमुखे येन द्विषां मृत्युमुखायितम् ॥ १६८ ॥ चक्ररत्नमभूज्जिष्णोः दिक्चक्राक्रमणक्षमम् । नाम्ना सुदर्शनं दीप्रं यदुर्दर्शमरातिभिः ॥ १६६॥ प्रचण्डश्चण्डवेगाख्यो दण्डोऽभूच्चक्रिणः पृथुः । स यस्य विनियोगोऽभूद् बिलकण्टकशोधने ॥ १७० ॥ नाम्ना वज्रमयं दिव्यं चर्मरत्नमभूद् विभोः । तद्बलं यद्बलाधानान्निस्तीर्णं' जलविप्लवात् ॥ १७१ ॥ मणिचूडामणिर्नाम चिन्तारत्नमनुत्तरम् । जगच्चूडामणेरस्य चित्तं येनानुरञ्जितम ॥ १७२ ॥ सा चिन्ताजननीत्यस्य काकिणी भास्वराऽभवत् । या रूप्याद्रिगुहाध्वान्तविनिर्भेवैकदीपिका ॥ १७३॥ चमूपतिरयोध्याख्यो नृरत्नमभवत् प्रभोः । समरेऽरिजयाद्यस्य रोदसी व्यानशे यशः ।। १७४ ॥ बुद्धिसागरनामास्य पुरोधाः पुरुधोरभूत् । धर्म्या क्रिया यदायत्ता प्रतीकारोऽपि दैविके ॥ १७५ ॥ सुधीगृहपतिर्नाम्ना कामवृष्टिरभीष्टदः । व्ययोप व्ययचिन्तायां नियुक्तो यो निधीशिनः ॥१७६॥ हो रहा था और जो सिंहके नाखूनों के साथ स्पर्धा करता था ऐसा उनका सिंहाटक नामका भाला था ।।१६४।। जो अत्यन्त देदीप्यमान थी, जिसकी रत्नोंसे जड़ी हुई मूठ बहुत ही चमक रही थी, और जो विजयलक्ष्मी के दर्पण के समान जान पड़ती थी ऐसी लोहवाहिनी नामकी उनकी छुरी थी || १६५ ।। मनोवेग नामका एक कणप ( अस्त्रविशेष ) था जो कि विजयलक्ष्मीपर प्रेम करनेवाला था और शत्रुओंके वंशरूपी कुलाचलोंको खण्डित करनेके लिये वजूके समान था ।। १६६ ।। भरतके सौनन्दक नामकी श्रेष्ठ तलवार थी जिसकी कान्ति अत्यन्त देदीप्यमान हो रही थी और जिसे हाथ में लेते ही यह समस्त जगत् भूलामें बैठे हुएके समान कांप उठता था ॥ १६७ ॥। उनके भूतोंके मुखोंसे चिह्नित भूतमुख नामका खेट ( अस्त्र विशेष ) था, जो कि युद्धके प्रारम्भमें चमकता हुआ शत्रुओंके लिये मृत्यके मुखके समान जान पड़ता था ।। १६८ ।। उन विजयी चक्रवर्तीके सुदर्शन नामका चक्र था, जो कि समस्त दिशाओंपर आक्रमण करनेमें समर्थ था, देदीप्यमान था और जो शत्रुओंके द्वारा देखा भी नहीं जा सकता था ।। १६९ ।। जिसका नियोग गुफाके कांटे वगैरह शोधने में था ऐसा चण्डवेग नामका बहुत भारी प्रचण्ड ( भयंकर) दण्ड उस चक्रवर्तीक था ॥ १७० ॥ भरतेश्वर महाराजके वज्रमय चर्मरत्न था, वह चर्मरत्न, कि जिसके बलसे उनकी सेना जलके उपद्रवसे पार हुई थी - बची थी ॥ १७१ ॥ उनके चूड़ामणि नामका वह उत्तम चिन्तामणि रत्न था जिसने कि जगत् के चूड़ामणि- स्वरूप महाराज भरतका चित्त अनुरक्त कर लिया था ।।। १७२ ॥ चिन्ताजननी नामकी वह काकिणी थी जो कि अत्यन्त देदीप्यमान हो रही थी और जो विजयार्ध पर्वतकी गुफाओं का अन्धकार दूर करने के लिये मुख्य दीपिकाके समान थी ॥ १७३॥ उन प्रभुके अयोध्य नामका सेनापति था जो कि मनुष्यों में रत्न था और युद्ध में शत्रुओंको जीतनेसे जिसका यश आकाश और पृथिवीके बीच व्याप्त हो गया था ।। १७४ ।। समस्त धार्मिक क्रियाएं जिसके आधीन थीं और दैविक उपद्रव होनेपर उनका प्रतिकार करना भी जिसके आश्रित था ऐसा बुद्धिसागर नामका महाबुद्धिमान् पुरोहित था ।। १७५ ।। उनके कामवृष्टि नामका गृहपति रत्न था, जो कि अत्यन्त बुद्धिमान् था, इच्छानुसार सामग्री देनेवाला था तथा जो चक्रवर्तीके छोटे बड़े सभी खर्चों २३५ १ क्षुरिका । 'स्याच्छस्त्री चासिपुत्री च क्षुरिका चासिधेनुका ।' इत्यभिधानात् । २ मुष्टि: । ' त्सरुः खड्गादिमुष्टिः स्याद्' इत्यभिधानात् । ३ करणवोsस्य ल० । ४ पर्वत । ५ निस्तरणमकरोत् । ६ आय । ७ चक्रिणः । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् रत्नं स्थपतिरप्यस्य वास्तु विद्यापदात्तधीः । नाम्ना भद्रमुखोऽनेकप्रासादघटने पटुः ॥१७७॥ शैलोदनो महानस्य या गहस्तीक्षरन्मदः । भद्रो गिरिचरः शुभ्रो नाम्ना विजयपर्वतः ॥१७॥ पवनस्य जयन् वेगं हयोऽस्य पवनञ्जयः। विजयार्द्धगुहोत्सङग हेलया यो व्यलङघयत् ॥१७॥ प्रागुक्तवर्णनं चास्य स्त्रीरत्नं रूढनामकम् । स्वभावमधुरं हृद्यं रसायनमिवापरम् ॥१८०॥ रत्नान्येतानि दिव्यानि बभूवुश्चक्रवर्तिनः । देवताकृतरक्षाणि यान्यलड्ययानि विद्विषाम् ॥१८॥ आनन्दिन्योऽब्धिनिर्घोषा भेर्योऽस्य द्वादशाभवन् । द्विषड्योजनमापूर्य स्वनिर्याः प्रदध्वनुः ॥१८२॥ आसन् विजयघोषाख्याः पटहा द्वादशापर। गृहकेकिभिरुग्रीवैः सानन्दं श्रुतनिःस्वनाः ॥१८३॥ गम्भीरावर्तनामानः शङखा गम्भीरनिःस्वनाः । चतुविशतिरस्यासन् शुभाः पुण्याब्धिसम्भवाः॥१८४॥ कटका रत्ननिर्माणा विभोर्वीराङगदाह्वयाः। रेजुः प्रकोष्ठमावेष्टय तडिबलयविभमाः ॥१८॥ पताकाकोटयोऽस्याष्टचत्वारिंशत्प्रमा मताः। मरुत्प्रेडखोलि तोत्प्रेडखदंशुकोन्मष्टखाङगणाः ॥१८६॥ महाकल्याणकं नाम दिव्याशनमभूद् विभोः। कल्याणाङगस्य येनास्य तृप्तिपुष्टीबलान्विते ॥१८७॥ भक्षाश्चामृतगर्भाख्या रुच्यास्वादाःसुगन्धयः । नान्ये जरयित शक्ता यान् ‘गरिष्ठरसोत्कटान् ॥१८॥ स्वायं चामृतकल्पाख्यं हृद्यास्वादं सुसंस्कृतम् । रसायनरसं दिव्यं पानकं चामृताह्वयम् ॥१८६॥ चिन्तामें नियुक्त था। ॥१७६॥ मकान बनानेकी विद्यामें जिसकी बुद्धि प्रवेश पाये हुई है और जो अनेक राजभवनोंके बनाने में चतुर है ऐसा भद्रमुख नामका उनका शिलावटरत्न (इंजीनियर) था ॥१७७। जो पर्वतके समान ऊंचा था, बहत बडा था, पूज्य था, जिससे मद झर रहा था, भद्र जातिका था और जिसका गर्जन-उत्तम था ऐसा विजयपर्वत नामका सफेद हाथी था ।।१७८॥ जिसने विजयार्धपर्वतकी गफाक मध्यभागको लीलामात्रमें उल्लंघन कर दिया था ऐसा वायुके वेगको जीतनेवाला पवनंजय नामका घोड़ा था ।।१७९॥ और जिसका वर्णन पहले कर चुके हैं, जिसका नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है, जो स्वभावसे ही मधुर है और जो किसी अन्य रसायनक समान हृदयको आनन्द देनेवाला है ऐसा सुभद्रा नामका स्त्रीरत्न था ॥१८०। इस प्रकार चक्रवर्तीके ये दिव्य रत्न थे जिनकी देव लोग रक्षा किया करते थे, और जिन्हें शत्रु कभी उल्लंघन नहीं कर सकते थे ॥१८॥ उस चक्रवर्तीकि समद्रके समान गंभीर आवाजवाली आनन्दिनी नामकी बारह भेरियां थीं जो अपनी आवाजको बारह योजन दूर तक फैलाकर बजती थीं ॥१८२॥ इनके सिवाय बारह नगाड़े और थे जिनकी आवाज घरके मय र ऊंची गर्दन कर बड़े आनन्दके साथ सुना करते थे ।।१८३।। जिनकी आवाज अतिशय गंभीर है, जो शुभ हैं, और पुण्यरूपी समुद्रसे उत्पन्न हुए हैं ऐसे गम्भीरावर्त नामके चौबीस शंख थे ॥१८४॥ उस प्रभुके रत्नोंके बने हुए वीरांगद नामके कड़े थे जो कि हाथकी कलाईको घेरकर सुशोभित हो रहे थे और जिनकी कान्ति बिजलीक कड़ोंके समान थी ॥१८५।। वायुके मकोरेसे उड़ते हुए कपड़ोंसे जिन्होंने आकाशरूपी आंगनको झाड़कर साफ कर दिया है ऐसी उसकी अड़तालीस करोड़ पताकाएं थीं ॥१८६॥ महाराज भरतके महाकल्याण नाम का दिव्य भोजन था जिससे कि कल्याणमय शरीरको धारण करनेवाले उनके बलसहित तृप्ति और पुष्टि दोनों ही होती थीं ॥१८७।। जो अत्यन्त गरिष्ठ रससे उत्कट है, जिन्हें कोई अन्य पचा नहीं सकता तथा जो रुचिकर, स्वादिष्ट और सुगन्धित है ऐसे उसके अमृतगर्भ नामके भक्ष्य अर्थात् खाने योग्य मोदक आदि पदार्थ थे ॥१८८॥ जिनका स्वाद हृदयको अच्छा १ वास्तुविद्यास्थाने स्वीकृतबुद्धिः । २ पूज्य । ३ गिरिवरः ल०, प०। ४ चलनेनोच्चलत् । ५ आहारेण । ६ पुरुषाः । ७ जीर्णीकर्तुम् । ८ अतिगुरु । ६ क्रमुकदाडिमादि। ओदनाघशनं स्वाद्यं ताम्बूलादि जलादिकम् । पेयं स्वाद्यमप्पाचं त्याज्यान्येतानि शक्तिकैः ।" Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तमं पर्व पुण्यकल्पतरोरासन फलान्यतानि चक्रिणः। यान्यनन्योपभोग्यानि भोगाडागान्यतुलानि वै ॥१०॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृगरूपसंपदनीदृशी । पुण्याद् विना कुतस्तादृग अभेद्यं गात्रबन्धनम् ॥१६॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृडनिधिरद्धिरूजिता । पुण्याद् विना कुतस्तादृग् इभाश्वादिपरिच्छदः॥१६॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृग् अन्तःपुरमहोदयः। पुण्याद् विना कुतस्तादृग् दशाङ्गो भोगसम्भवः ॥१९३॥ पुण्याद विना कुतस्तादग प्राज्ञाद्वीपाब्धिलङ्गिनी । पुण्याद् विना कुतस्तादृग् जयश्रीजित्वरी दिशाम् ॥१९४॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृक्प्रतापः प्रणतामरः । पुण्याद् विना कुतस्तादृग् उद्योगो लङ्घितार्णवः ॥१६॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृग् प्राभवं त्रिजगज्जयि । पुण्याद् विना कुतस्तादृक् 'नगराजजयोत्सवः ॥१६६॥ पुण्याद् विना कुतस्तादृक् सत्कार स्तत्कृतोऽधिकः। पुण्याद् विना कुतस्तादक सरिद्देव्यभिषेचनम् ॥१६७। पुण्याद् विना कुतस्तादृक् खचराचलनिर्जयः। पुण्याद् विना कुतस्तादृग्रत्नलाभोऽन्यदुर्लभः ॥१९॥ पुण्याद् विना कुतस्ताद ग 'पायतिर्भरतेऽखिले। पुण्याद् विना कुतस्तादृक कीििदक्तट लङधिनी ॥१६६।। ततः पुण्योदयोद्भूतां मत्वा चक्रभृतः श्रियम् । चिनुध्वं भो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसम्पदाम् ॥२०॥ लगनेवाला है और मसाले बगैरहसे जिनका संस्कार किया गया है ऐसे अमृतकल्प नामके उनके स्वाद्य पदार्थ थे तथा रसायनके समान रसीला अमृत नामका दिव्य पानक अर्थात् पीने योग्य पदार्थ था ।।१८९।। चक्रवर्तीके ये सब भोगोपभोगके साधन उसके पुण्यरूपी कल्पवृक्षके फल थे, उन्हें अन्य कोई नहीं भोग सकता था और वे संसारमें अपनी बराबरी नहीं रखते थे ॥१९०॥ पुण्यके बिना चक्रवर्तीके समान अनुपम रूपसम्पदा कैसे मिल सकती है ? पुण्यके बिना वैसा अभेद्य शरीरका बंधन कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना अतिशय उत्कृष्ट निधि और रत्नोंकी ऋद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ? पुण्यके बिना वैसे हाथी घोड़े आदिका परिवार कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना वैसे अन्तःपुरका वैभव कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना दस प्रकारके भोगोपभोग कहां मिल सकते हैं ? पुण्यके बिना द्वीप और समुद्रोंको उल्लंघन. करनेवाली वैसी आज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ? पुण्यके बिना दिशाओंको जीतनेवाली वैसी विजयलक्ष्मी कहां मिल सकती है ? पुण्यके बिना देवताओंको भी नम करनेवाला वैसा प्रताप कहां प्राप्त हो सकता है ? पुण्यके बिना समुद्रको उल्लंघन करनेवाला वैसा उद्योग कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना तीनों लोकोंको जीतने वाला वैसा प्रभाव कहां हो सकता है ? पुण्यके बिना वैसा हिमवान् पर्वतको विजय करनेका उत्सव कैसे मिल सकता है ? पुण्यके बिना हिमवान देवके द्वारा किया हुआ वैसा अधिक सत्कार कहां मिल सकता है ? बिना पुण्यके नदियोंकी अधिष्ठात्री देवियोंके द्वारा किया हआ वैसा अभिषेक कहां हो सकता है ? पुण्यके बिना विजयाध पर्वतको जीतना कैसे हो सकता है ? पुण्यके बिना अन्य मनुष्योंको दुर्लभ वैसे रत्नोंका लाभ कहां हो सकता है ? पुण्यके बिना समस्त भरतक्षेत्रमें वैसा सुन्दर विस्तार कैसे हो सकता है ? और पुण्यके बिना दिशाओंके किनारेको उल्लंघन करनेवाली वैसी कीर्ति कैसे हो सकती है ? इसलिये हे पण्डित जन, चक्रवर्तीकी विभूतिको पुण्यके उदयसे उत्पन्न हुई मानकर उस पुण्यका संचय करो जो कि समस्त सुख और सम्पदाओंकी दुकानके समान ३ गङगासिन्धुदेवी। ४ धनागमः प्रभावो वा । १ हिमवगिरि। २ हिमवन्नगस्थसुरकृतः । ५ लम्भिनी इ०। ६ ततः कारणात् । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ संजर महापुराणम् शार्दूलविक्रीडितम् इत्याविष्कृतसम्पदो विजयिनस्तस्याखिलक्ष्माभताम् स्फीतामप्रतिशासनां प्रथयतः षट्खण्डराज्यश्रियम् । कालोऽनल्पतरोऽप्यगात् क्षण इव प्राकपुण्यकर्मोदयाद् उद्भूतः प्रमदावहः षड्ऋतुजैर्भोगैरतिस्वादुभिः ॥२०१॥ -नानारत्न निधानदेशविलसत्सम्पत्तिगुर्वीमिमां सामाज्यश्रियमेकभोगनियतां कृत्वाऽखिलां पालयन । योऽभूनैव किलाकुलः कुलवधूमेकामिवाडकस्थिता सोऽयं चक्रधरोऽभुनक भुवमममेकातपत्रां चिरम् ॥२०२॥ यन्नाम्ना भरतावनित्वमगमत् षट्क्ष ण्डभूषा मही येनासेतुहिमादिरक्षितमिदं क्षेत्रं कृतारिक्षयम् । यस्याविनिधिरत्नसम्पदुचिता लक्ष्मीरुरःशायिनी स श्रीमान् भरतेश्वरो निधिभुजामप्रेसरोऽभूत् प्रभुः ॥२०३॥ यः स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुनः स्तोता स्वयं कस्यचिंद ध्येयो योगिजनस्य यश्च न तरां ध्याता स्वयं कस्यचित् । नेतुमुन्नतिमलं नन्तव्यपक्षे स्थितः स श्रीमान् जयताज्जगत्त्रयगुरुर्देवः पुरुः पावनः ॥२०४॥ यो नन्तृ नपिन है ॥१९१-२००॥ इस प्रकार जिसने सम्पदाएं प्रकट की हैं, जिसने समस्त राजाओंको जीत लिया है, और जो दूसरेके शासनसे रहित अपने छह खण्डकी विस्तृत राज्यलक्ष्मीको निरन्तर फैलाता रहता है ऐसे उस चक्रवर्ती भरतका बड़ा भारी समय पूर्व पुण्यकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए, सब तरहका आनन्द देनेवाले और अत्यन्त स्वादिष्ट छहों ऋतुओंके भोगोंके द्वारा क्षण•भरके समान व्यतीत हो गया था ॥२०१॥ अनेकों रत्नों, निधियों और देशोंसे सुशोभित हुई सम्पत्तिके द्वारा जो भारी गौरवको प्राप्त हो रही है ऐसी इस समस्त साम्राज्यलक्ष्मीको एक अपने ही उपभोग करने के योग्य बनाकर उसका पालन करता हुआ जो चक्रवर्ती गोदमें बैठी हुई कुलवधूकी रक्षा करते हुएके समान कभी व्याकुल नहीं हुआ वह भरत एक छत्रवाली इस पृथिवीका चिरकाल तक पालन करता रहा था ।।२०२।। छह खण्डोंसे विभूषित पृथिवी जिसके नामसे भरतभमि नामको प्राप्त हई, जिसने दक्षिण समद्रसे लेकर हिमवान पर्वततकके इस क्षेत्रमें शत्रुओंका क्षय कर उसकी रक्षा की, तथा प्रकट हुई निधि और रत्न आदि सम्पदाओंसे योग्य लक्ष्मी जिसके वक्षःस्थलपर शयन करती थी वह प्रभु श्रीमान् भरतेश्वर निधियोंके स्वामी अर्थात् चक्रवर्तियोंमें प्रथम और मुख्य चक्रवर्ती हुआ था ॥२०३॥ जो तीनों जगत के जीवों के द्वारा स्तुति करने के योग्य हैं परन्तु जो स्वयं किसीकी स्तुति नहीं करते, बड़े बड़े योगी लोग जिनका ध्यान करते हैं परन्तु जो किसीका ध्यान नहीं करते, जो नमस्कार करनेवालोंको भी उन्नत स्थानपर ले जाने के लिये समर्थ हैं परन्तु स्वयं नमस्कार करने योग्य पक्षमें स्थित हैं अर्थात् किसीको नमस्कार नहीं करते, वे तीनों जगत्के गुरु अत्यन्त पवित्र श्रीमान् भगवान् १निधि । २ आत्मनः एकस्यैव भोगनियताम् । ३ पालयति स्म। ४ षट्खण्डालङकारा । ५ दक्षिणसमुद्रात् प्रारभ्य हिमवगिरिपर्यन्तम् । ६ नमनशीलान् । ७ समर्थः । ८ नमनयोग्यपक्षे । स्वयं कस्यापि नन्ता नेत्यर्थः । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तत्रिंशत्तम पर्व यं नत्वा पुनरानमन्ति न परं स्तुत्वा च यं नापरं भव्याः संस्तुवते श्रयन्ति न परं यं संश्रिताः श्रेयसे । ये सत्कृत्य कृतादरं कृतधियः सत्कुर्वते नापरम् स श्रीमान् वषभो जिनो भवभयान्नस्त्रायतां तीर्थकृत् ।।२०५॥ इत्याष भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण सङग्रहे भरतेश्वराभ्युदयवर्णनं नाम सप्तत्रिशत्तमं पर्व ॥३७॥ वृषभदेव सदा जयवन्त रहें ।।२०४॥ भव्य लोग जिन्हें नमस्कार कर फिर किसी अन्यको नमस्कार नहीं करते, जिनकी स्तुति कर फिर किसी अन्यकी स्तुति नहीं करते, जिनका आश्रय लेकर कल्याणके लिये फिर किसी अन्यका आश्रय नहीं लेते, और बुद्धिमान् लोग जिनका सबने आदर किया है ऐसे जिनका सत्कार कर फिर किसी अन्यका सत्कार नहीं करते वे श्रीमान् वृषभ जिनेन्द्र तीर्थ कर हम सबकी संसारके भयसे रक्षा करें ॥२०५।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतेश्वरके वैभवका वर्णन करनेवाला यह सैतीसवां पर्व समाप्त हुआ। १ संसारभीतेरपसार्य। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व जयन्त्यखिल वाङमार्गगामिन्यः सूक्तयोऽर्हताम् । धूतान्धतमसा दीप्रा यास्त्विषोंऽशुमतामिव ॥१॥ स जीयात् वृषभो मोहविषसुप्तमिदं जवात् । पटविद्येव यद्विद्या सद्यः समदतिष्ठपत् ॥२॥ तं नत्वा परमं ज्योतिः वृषभं वीरमन्वतः। द्विजन्मनामयोत्पत्ति वक्ष्य श्रेणिक भोः शृणु ॥३॥ भरतो भारतं वर्ष निजित्य सह पार्थिवैः । षष्टया वर्षसहस्रेस्तु दिशां निववृते जयात् ॥४॥ कृतकृत्यस्य तस्यान्तश्चिन्तेयमुदपद्यत । परार्थे सम्पदास्माकी सोपयोगा कथं भवेत् ॥५॥ महामहमहं कृत्वा जिनेन्द्रस्य महोदयम् । प्रोणयामि जगद्विश्वं विष्वक् "विश्राणयन् धनम् ॥६॥ नानगारा वसून्यस्मत् प्रतिगृलन्ति निःस्पृहाः । सागारः कतमः पूज्यो धनधान्यसमृद्धिभिः ॥७॥ 'येऽणुवतधरा धीरा धौरेया गृहमेधिनाम् । तर्पणीया हि तेऽस्माभिः ईप्सितर्वसुवाहनः ॥८॥ इति निश्चित्य राजेन्द्रः सत्कर्तुमचितानिमान् । 'परीचिक्षिषुराह्वास्त तदा सर्वान् महीभुजः ॥६॥ सदाचारनिरिष्टः अनुजीविभि रन्विताः। अद्यास्मदुत्सवे यूयम् पायातेति पृथक् पृथक् ॥१०॥ हरितैरङकुरैः पुष्पैः फलैश्चाकीर्णमङगणम् । सम्माडचीकरतेषां परीक्षायै स्ववेश्मनि ॥११॥ तेष्वव्रता विना सङगात् प्राविक्षन् नृपमन्दिरम् । तानेकतः समुत्सार्य शेषानाह्वययत् प्रभुः॥१२॥ जो समस्त' भाषाओंमें परिणत होनेवाली है, जिसने अज्ञानरूपी गाढ अन्धकारको नष्ट कर दिया है और जो सूर्यको किरणोंके समान देदीप्यमान है वह अरहन्त भगवान्की सुन्दर वाणी सदा जयवन्त हो ।।१।। गारुड़ी विद्याके समान जिनकी विद्याने मोहरूपी विषसे सोये हुए इस समस्त संसारको बहुत शीघू जगा दिया वे भगवान् वृषभदेव सदा जयवन्त रहें ।।२।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे श्रेणिक, मैं उन परमज्योति-स्वरूप भगवान् वृषभदेव तथा भगवान् महावीर स्वामीको नमस्कारकर अब यहांसे द्विजोंकी उत्पत्ति कहता हूं सो सुनो॥३॥ भरत चक्रवर्ती अनेक राजाओंके साथ भारतवर्षको जीतकर साठ हजार वर्ष में दिग्विजयसे वापिस लौटे ॥४॥ जब वे सब कार्य कर चुके तब उनके चित्तमें यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि दूसरेके उपकारमें मेरी इस संपदाका उपयोग किस प्रकार हो सकता है ? ॥५॥ मैं श्री जिनेन्द्रदेवका बड़े ऐश्वर्यके साथ महामह नामका यज्ञ कर धन वितरण करता हुआ समस्त संसारको संतुष्ट करूं ? ॥६॥ सदा निःस्पृह रहनेवाले मुनि तो हम लोगोंसे धन लेते नहीं हैं परन्तु ऐसा गृहस्थ भी कौन है जो धन-धान्य आदि सम्पत्तिके द्वारा पूजा करनेके योग्य है ॥७॥ जो अण व्रतको धारण करनेवाले हैं, धीर वीर हैं और गृहस्थोंमें मुख्य हैं ऐसे पुरुष ही हम लोगोंके द्वारा इच्छित धन तथा सवारी आदिक वाहनोंके द्वारा तर्पण करने के योग्य हैं ।।८।। इस प्रकार निश्चय कर सत्कार करने के योग्य व्यक्तियोंकी परीक्षा करनेकी इच्छासे राजराजेश्वर भरतने उस समय समस्त राजाओंको बुलाया ॥९॥ और सबके पास खबर भेज दी कि आप लोग अपने अपने सदाचारी इष्ट मित्र तथा नौकर चाकर आदिके साथ आज हमारे उत्सवमें अलग अलग आवें ॥१०॥ इधर चक्रवर्तीने उन सबकी परीक्षा करने के लिये अपने घरके आंगनमें हरे हरे अंकुर, पुष्प और फल खूब भरवा दिये ।।११।। उन लोगोंमें जो अव्रती थे वे १ सर्वभावात्मिका इत्यर्थः । २ गारुडविद्या। ३ क्षेत्रम् । ४ वितरन् । ५ कश्चन । ६ अरगवता- ल० । ७ धुरीणाः । ८ परीक्षितुमिच्छः । ६ भृत्यैः । १० आगच्छत । ११ विचारात् प्रतिबन्धाद् वा। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व ते तु स्वव्रतसिद्धयर्थम् ईहमाना' महान्वयाः। नैषुः प्रवेशनं तावद् यावदााडाकुराः पथि ॥१३॥ सधान्यहरितैः कीर्णम् अनाक्रम्य नृपाडागणम् । निश्चक्रमुः कृपालुत्वात् केचित् सावधभीरवः ॥१४॥ कृतानुबन्धना' भूयश्चक्रिणः किल तेऽन्तिकम् । प्रासुकेन "पथाऽन्येन भेजुः क्रान्त्वा नुपाङगणम् ॥१५॥ प्राक् केश हेतुना यूयं नायाताः पुनरागताः । केन ब्रूतेति पृष्टास्ते प्रत्यभाषन्त चक्रिणम् ॥१६॥ प्रवालपत्रपुष्पादेः पर्वणि व्यपरोपणम् । न कल्पतेऽद्य तज्जानां जन्तूनां नोऽनभिद्रुहाम् ॥१७॥ सस्यवानन्तशो जीवा हरितेष्वङकुरादिषु । निगोता इति सार्वज्ञ१० देवास्माभिः श्रुतं वचः ॥१८॥ तस्मानास्माभिराकान्तम् अद्यत्वे त्वद्गहाङगणम् । कृतोपहारमाद्रिः१२ फलपुष्पाङकुरादिभिः ॥१६॥ इति तद्वचनात् सर्वान् सोभिनन्ध दृढव्रतान् । पूजयामास लक्ष्मीवान् दानमानादिसत्कृतः ॥२०॥ तेषां कृतानि चिह्नानि सूत्रैः पद्माह्वयानिधेः । "उपात्तैब्रह्मसूत्राहः एकाग्रेकादशान्तकः ॥२१॥ गुणभूमिकृताद् भेदात्"क्लप्त यज्ञोपवीतिनाम् । सत्कारः क्रियते स्मैषाम् अवताश्च बहिः कृताः॥२२॥ अथ ते कृतसन्मानाः चक्रिणा व्रतधारिणः । भजन्ति स्म परं दाढचं "लोकश्चनानपूजयत् ॥२३॥ इज्यां वार्ता च दत्ति च स्वाध्यायं संयमं तपः। श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥२४॥ बिना किसी सोच-विचारके राजमन्दिरमें घुस आये । राजा भरतने उन्हें एक ओर हटाकर बाकी बचे हुए लोगोंको बुलाया ॥१२॥ परन्तु बड़े बड़े कुलमें उत्पन्न हुए और अपने व्रतकी लिये चेष्टा करनेवाले उन लोगोंने जब तक मार्गमें हरे अंकरे हैं तब तक उसमें प्रवेश करनेकी इच्छा नहीं की ॥१३॥ पापसे डरनेवाले कितने ही लोग दयालु होने के कारण हरे धान्योंसे भरे हुए राजाके आंगनको उल्लंघन किये बिना ही वापिस लौटने लगे ॥१४॥ परन्तु जब चक्रवर्तीने उनसे बहुत ही आग्रह किया तब वे दूसरे प्रासुक मार्गसे राजाके आंगनको लांघकर उनके पास पहुंचे ।।१५।। आप लोग पहले किस कारण से नहीं आये थे, और अब किस कारणसे आये हैं, ऐसा जब चक्रवर्तीने उनसे पूछा तब उन्होंने नीचे लिखे अनुसार उत्तर दिया ॥१६॥ आज पर्वके दिन कोंपल, पत्ते तथा पुष्प आदिका विधात नहीं किया जाता और न जो अपना कुछ बिगाड़ करते हैं ऐसे उन कोंपल आदिमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका भी विनाश किया जाता है ॥१७॥ हे देव, हरे अंकुर आदिमें अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं, ऐसे सर्वज्ञदेवके वचन हमलोगोंने सुने हैं ॥१८॥ इसलिये जिसमें गीले गीले फल, पुष्प और अंकुर आदिसे शोभा की गई है ऐसा आपके घरका आंगन आज हम लोगोंने नहीं खूदा है ।।१९।। इस प्रकार उनके वचनोंसे प्रभावित हुए सम्पत्तिशाली भरतने व्रतोंमें दृढ़ रहनेवाले उन सबकी प्रशंसा कर उन्हें दान मान आदि सत्कारसे सन्मानित किया ॥२०॥ पद्म नामकी निधि से प्राप्त हुए एकसे लेकर ग्यारह तककी संख्यावाले ब्रह्मसूत्र नामके सूत्रसे (व्रतसूत्रसे) उन सबके चिह्न किये ।।२१।। प्रतिमाओंके द्वारा किये हुए भेदके अनुसार जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किये हैं ऐसे इन सबका भरतने सत्कार किया तथा जो व्रती नहीं थे उन्हें वैसे ही जाने दिया ॥२२॥ अथानन्तर चक्रवर्तीने जिनका सन्मान किया है ऐसे व्रत धारण करनेवाले वे लोग अपने अपने व्रतोंमें और भी दृढ़ताको प्राप्त हो गये तथा अन्य लोग भी उनकी पूजा आदि करने लगे ॥२३॥ भरतने उन्हें उपाराकाध्ययनांगसे इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और १चेष्टमानाः । २ नेच्छन्ति स्म । ३ निर्गताः । ४ निर्बन्धाः । ५ मार्गेण । ६ हिंसनम् । ७ प्रवालपत्रपुष्पादिजातानाम् । ८ अस्माकम् । ६ अहिंसकानाम् । १० सर्वज्ञस्येदम् । ११ इदानीम् । १२ नितरामाः । १३ वस्त्रादिदानसद्वचनादिपूजासत्कारैः । १४ स्वीकृतः । १५ दार्शनिकादिगुणनिलयविहितात् । १६ कृत। १७ जनः । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् कुलधर्मोऽयमित्येषाम् श्रर्हत्पूजादिवर्णनम् । तदा भरतराजर्षिः प्रन्ववोचदनुक्रमात् ॥२५॥ प्रोक्ता पूजार्हता' मिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च ॥ २६ ॥ -तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति । स्वगृहानीयमानाऽर्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका ॥२७॥ चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मार्पणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सवार्चनम् ||२८|| या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङगिणी । स च नित्यमहो ज्ञेयो यथा शक्त्युपकल्पितः ॥२६॥ महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः । चतुर्मुखः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि ॥ ३० ॥ दत्वा forच्छकं दानं सम्राभिर्यः प्रवर्त्यते । कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः ॥३१॥ प्राह्निको महः सार्वजनिको' रूढ एव सः । महानंन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो महः ॥३२॥ बलिस्नपनमित्यन्यः त्रिसन्ध्यासेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम् ॥३३॥ एवंविधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम् । विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्ति प्राथमकल्पिकीम् ||३४|| वार्ता विशुद्धवृत्त्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठितिः । चतुर्धा वर्णिता दत्तिः दया पात्रसमान्वये ||३५|| सानुकम्पमनुग्राह्यं प्राणिवृन्देऽभयप्रदा । त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ॥३६॥ महातपोधनायाच प्रतिग्रहपुरःसरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते ॥३७॥ २४२ तपका उपदेश दिया || २४|| यह इनका कुलधर्म है ऐसा विचार कर राजर्षि भरतने उस समय अनुक्रमसे अर्हत्पूजा आदिका वर्णन किया ॥ २५ ॥ वे कहने लगे कि अर्हन्त भगवान्‌की पूजा नित्य करनी चाहिये, वह पूजा चार प्रकारकी है सदार्चन, चतुर्मुख, कल्पद्रुम और आष्टाह्निक ॥२६॥ इन चारों पूजाओंमेंसे प्रतिदिन अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत इत्यादि ले जाकर जिनालय में श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह कहलाता है ॥२७॥ अथवा भक्तिपूर्वक अर्हन्तदेवकी प्रतिमा और मन्दिरका निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम खेत आदिका दान देना भी सदार्चन ( नित्यमह) कहलाता है ||२८|| इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्य दान देते हुए महामुनियोंकी जो पूजा की जाती है उसे भी नित्यमह समझना चाहिये ||२९|| महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है। उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिये । इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है ||३०|| जो चक्रवर्तियोंके द्वारा किमिच्छक (मुंहमांगा) दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के समस्त जीवोंकी आशाएं पूर्ण की जाती हैं वह कल्पद्रुम नामका यज्ञ कहलाता है । भावार्थ - जिस यज्ञमें कल्पवृक्षके समान सबकी इच्छाएं पूर्ण की जावें उसे कल्पद्रुम यज्ञ कहते हैं, यह यज्ञ चक्रवर्ती ही कर सकते हैं ||३१|| चौथा आष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते हैं और जो जगत् में अत्यन्त प्रसिद्ध है । इनके सिवाय एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इन्द्र किया करता है ॥ ३२ ॥ बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीनों संध्याओं में उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजाके प्रकार हैं वे सब उन्हीं भेदों में अन्तर्भूत हैं ||३३|| इस प्रकारकी विधिसे जो जिनेन्द्रदेवकी महापूजा की जाती है उसे विधिके जाननेवाले आचार्य इज्या नामकी प्रथम वृत्ति कहते हैं ||३४|| विशुद्ध आचरणपूर्वक खेती आदिका करना वार्ता कहलाती है तथा दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ये चार प्रकारको दत्ति कही गई हैं ||३५|| अनुग्रह करने योग्य प्राणियों के समूहपर दयापूर्वक मन वचन कायकी शुद्धिके साथ उनके भय दूर करनेको पण्डित लोग दयादत्ति मानते हैं ||३६|| महातपस्वी मुनियोंके लिये १ - तां नित्या सा ल० । २ नित्यमहः । 'अर्चा पूजा च नित्यमहः । ३ भवतः किमिष्टमिति प्रश्नपूर्वकं तदभिवाञ्छितस्य दानम् । ४ सर्वजने भवः । ५ प्रथमकल्पे भवाम् । षट्कर्मसु प्रथमोक्तामित्यर्थः । ६ अनुष्ठानम् । ७ पूजास्थानविधिपूर्वकम् 1 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व २४३ समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रियामन्त्रवतादिभिः । निस्तारकोत्तमायह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ॥३८॥ समानवत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता' श्रद्धयाऽन्विता ॥३६॥ प्रात्मान्वयप्रतिष्ठार्थ सूनवे यवशेषतः। समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥४०॥ सैषा सकलदत्तिः स्यात् स्वाध्यायः श्रुतभावना। तपोऽनशनवृत्त्यादि संयमो व्रतधारणम् ॥४१॥ विशुद्धा वृत्तिरेषां षट्तयोष्टा द्विजन्मनाम् । योऽतिक्रामेदिमां सोऽज्ञो नाम्न व न गुद्धिजः ॥४२॥ तपः श्रुतञ्च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् । तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः॥४३॥ अपापोपहतां वृत्तिः स्यादेषां जातिरुत्तमा । दत्तीज्याधीति मुख्यत्वाद् व्रतशुद्धचा सुसंस्कृता ॥४४॥ मनुष्यजातिरकव जातिनामोदयोद्धवा । 'वृत्तिभेदाहिताद्धदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥४५॥ ब्राह्मणा वतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥४६॥ तप:श्रुताभ्यामेवातो जातिसंस्कार इष्यते । असंस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विजः ॥४७॥ द्विजातो हि द्विजन्मेष्टः क्रियातो गर्भतश्च यः । क्रियामन्त्रविहीनस्तु केवलं नामधारकः ॥४८॥ तवेषां जातिसंस्कारं द्रढयन्निति सोऽधिराट् । स प्रोवाच द्विजन्मेभ्यः क्रियाभेदानशेषतः॥४६॥ सत्कारपूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्रदान कहते हैं ।।३७।। क्रिया, मंत्र और व्रत आदिसे जो अपने समान है तथा जो संसारसमुद्रसे पार कर देनेवाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिये पृथिवी सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्रके लिये समान बुद्धिसे श्रद्धाके साथ जो दान दिया जाता है वह समानदत्ति कहलाता है ॥३८-३९॥ अपने वंशकी प्रतिष्ठाके लिये पुत्रको समस्त कुलपद्धति तथा धनके साथ अपना कुटुम्ब समर्पण करनेको सकलदत्ति कहते हैं। शास्त्रोंकी भावना (चिन्तवन) करना स्वाध्याय है, उपवास आदि करना तप है और व्रत धारण करना संयम है ॥४०-४१॥ यह ऊपर कही हुई छह प्रकारकी विशुद्ध वृत्ति इन द्विजोक करने योग्य है। जो इनका उल्लंघन करता है वह मूर्ख नाममात्रसे ही द्विज है, गुणसे द्विज नहीं है ॥४२॥ तप, शास्त्रज्ञान और जाति ये तीन ब्राह्मण होनेके कारण हैं, जो मनुष्य तप और शास्त्रज्ञानसे रहित है वह केवल जातिसे ही ब्राह्मण है ॥४३॥ इन लोगोंकी आजीविका पापरहित है इसलिये इनकी जाति उत्तम कहलाती है तथा दान, पूजा, अध्ययन आदि कार्य मुख्य होनेके कारण व्रतोंकी शुद्धि होनेसे वह उत्तम जाति और भी सुसंस्कृत हो गई है ॥४४॥ यद्यपि जाति नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है तथापि आजीविकाके भेदसे होनेवाले भेदके कारण वह चार प्रकारकी हो गई है ॥४५॥ व्रतोंके संस्कारसे ब्राह्मण, शस्त्र धारण करनेसे क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमानेसे वैश्य और नीच वृत्तिका आश्रय लेनेसे मनुष्य शूद्र कहलाते हैं ॥४६॥ इसलिये द्विज जातिका संस्कार तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे ही माना जाता है परन्तु तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे जिसका संस्कार नहीं हुआ है वह जातिमात्रसे द्विज' कहलाता है ॥४७।। जो एक बार गर्भसे और दूसरी बार क्रियासे इस प्रकार दो बार उत्पन्न हुआ हो उसे द्विजन्मा अथवा द्विज कहते हैं परन्तु जो क्रिया और मंत्र दोनोंसे ही रहित है वह केवल नामको धारण करनेवाला द्विज है ॥४८॥ इसलिये इन द्विजोंकी जातिके संस्कारको दृढ करते हुए समाट भरतेश्वरने द्विजोंके लिये नीचे लिखे अनुसार क्रियाओंके समस्त भेद कहे ॥४९॥ १ संसारसागरोत्तारक। २ दानम् । ३ मध्यमत्वं गते। ४ प्रवृत्त्या ल०। ५ सद्धर्मधनाभ्याम् । ६ गुणैद्विजः ल०, अ०, १०, स०, इ० । ७ स्वाध्याय । ८ सुसंस्कृता सती। ६ वर्तन । १० नीचवृत्ति । ११ अतः कारणात् । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ महापुराणम् ताश्च क्रियास्त्रिधाऽऽम्नाताः श्रावकाध्यायसङग्रहे । सदृष्टिभिरनुष्ठेया महोदः शुभावहाः ॥५०॥ गर्भान्वयक्रियाश्चैव तथा दीक्षान्वयक्रियाः । कञन्वयक्रियाश्चेति तास्त्रिधवं बुधर्मताः॥५१॥ प्राधानाधास्त्रिपञ्चाशत् ज्ञेया गर्भान्वयक्रियाः। चत्वारिंशदथाष्टौ च स्मृता दीक्षान्वयक्रियाः ॥५२॥ कञन्वयक्रियाश्चैव सप्त तज्जैः समुच्चिताः । तासां यथाक्रम नामनिर्देशोऽयमनद्यते ॥५३॥ अङगानां सप्तमादङगाद् दुस्तरादर्णवादपि । श्लोकरष्टाभिरुन्नेष्य प्राप्तं ज्ञानलवं मया ॥५४॥ प्राधानं प्रीतिसप्रीती धृतिर्मोदः प्रियोद्भवः । नामकर्मबहिर्याननिषद्याः प्राशनं तथा ॥५५॥ व्युष्टिश्च केशवापश्च लिपिसङखचानसङग्रहः । उपनीतिर्वतं चर्या वतावतरणं तथा ॥५६॥ विवाहो वर्णलाभश्च कुलचर्या गृहीशिता । प्रशान्तिश्च गृहत्यागो दीक्षाद्यं जिनरूपता ॥५७॥ मौनाध्ययनवृत्तत्वं तीर्यकृस्वस्य भावना । गुरुस्थानाभ्युपगमो गणोपग्रहणं तथा ॥५॥ स्वगुरुस्थानसंक्रान्तिः निस्सडागत्वात्मभावना। योगनिर्वाणसम्प्राप्तिः योगनिर्वाणसाधनम् ॥५६॥ इन्द्रोपपादाभिषेकौ विधिदानं सुखोदयः । इन्द्रत्यागावतारौ च हिरण्योत्कृष्ट जन्मता ॥६०॥ मन्दरेन्द्राभिषेकश्च गुरुपूजोपलम्भनम् । यौवराज्यं स्वराज्यं च चक्रलाभो दिशाञ्जयः ॥६॥ चक्राभिषेकसामाज्य निष्क्रान्तिर्योगसम्महः । पार्हन्त्यं तद्विहारश्च योगत्यागोऽननिर्वृतिः ॥६२॥ त्रयः पञ्चाशदेता हि मता गर्भान्वयक्रियाः। गर्भाधानादिनिर्वाणपर्यन्ताः परमागमे ॥६३॥ अवतारो वृत्तलाभः स्थानलाभो गणग्रहः । पूजाराध्यपुण्ययज्ञौ दृढचर्योपयोगिता ॥६४॥ इत्युद्दिष्टाभिरष्टाभिः उपनीत्यादयः क्रियाः । चत्वारिंशत्प्रमायुक्ताः ताः स्युर्दीक्षान्वयक्रियाः ॥६५॥ उन्होंने कहा कि श्रावकाध्याय संग्रहमें वे क्रियाएं तीन प्रकारकी कही गई हैं, सम्यग्दृष्टि पूरुषोंको उन क्रियाओंका पालन अवश्य करना चाहिये क्योंकि वे सभी उत्तम फल देनेवाली और शुभ करनेवाली हैं ॥५०॥ गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कर्बन्वय क्रिया इस प्रकार विद्वान् लोगोंने तीन प्रकारकी क्रियाएं मानी हैं ॥५१॥ गर्भान्वय क्रियाएं, आधान आदि तिरेपन जानना चाहिये और दीक्षान्वय क्रियाएं अड़तालीस समझना चाहिये ॥५२॥ इनके सिवाय उस विषयके जानकार विद्वानोंने कत्रन्वय क्रियाएं सात संग्रह की है। अब आगे यथाक्रमसे उन क्रियाओंका नाम निर्देश किया जाता है ॥५३।। जो समुद्रसे भी दुस्तर है ऐसे बारह अंगोंमें सातवें अंग (उपासकाध्ययनांग) से जो कुछ मुझे ज्ञानका अंश प्राप्त हुआ है उसे मैं नीचे लिखे हुए आठ श्लोकोंसे प्रकट करता हूँ ॥५४॥ १ आधान, २ प्रीति, ३ सुप्रीति, ४ धृति, ५ मोद, ६ प्रियोदभव,७ नामकर्म,८ बहिनि,९ निषद्या,१०प्राशन, ११ व्यष्टि, १२. केशवाप, १३लिपि संख्यानसंग्रह, १४ उपनीति, १५ व्रतचर्या, १६ व्रतावतरण, १७ विवाह, १८ वर्णलाभ,१९ कुलचर्या, २० गृहीशिता, २१ प्रशान्ति, २२ गृहत्याग, २३ दीक्षाद्य, २४ जिनरूपता, ३५ मौनाध्ययनवृत्तत्व, २६ तीर्थकृत्भावना, २७ गुरुस्थानाभ्युपगम, २८ गणोपग्रहण, २९ स्वगुरुस्थानसंक्रान्ति, ३० निःसंगत्वात्मभावना, ३१ योगनिर्वाणसंप्राप्ति, ३२ योगनिवणि साधन, ३३ इन्द्रोपपाद, ३४ अभिषेक, ३५ विधिदान, ३६ सुखोदय, ३७ इन्द्रत्याग, ३८ अवतार, ३९ हिरण्योत्कृष्टजन्मता, ४० मन्दरेन्द्राभिषेक, ४१ गुरुपूजोपलम्भन, ४२ यौवराज्य, ४३ स्वराज्य, ४४ चक्रलाभ,४५ दिग्विजय, ४६ चक्राभिषेक, ४७ साम्राज्य, ४८ निष्क्रान्ति, ४९ योगसन्मह, ५० आर्हन्त्य, ५१ तद्विहार, ५२ योगत्याग और ५३ अग्रनिर्वृति । परमागम में ये गर्भसे लेकर निर्वाणपर्यन्त तिरपन क्रियाएं मानी गई हैं ।।५५-६३॥ १ अवतार, २ वृत्तलाभ, ३ स्थानलाभ, ४ गणग्रह, ५ पूजाराध्य, ६ पुण्ययज्ञ, ७ दृढचर्या और ८ उपयोगिता १ नामसंकीर्तनम्। २ अनुवादयते । ३ -द्वादशाङगानाम् मध्ये। ४ उपासकाध्ययनात् । ५ उद्देशं करिष्ये इत्यर्थः। ६ अभ्युपगमः। ७ गर्भान्वयक्रियास आदौ त्रयोदशक्रियाः मुक्त्वा शेषा उपनीत्यादयः । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व २४५ तास्तु कर्जन्वया ज्ञेया याः प्राप्याः पुण्यकर्तृभिः । फलरूपतया वृत्ताः सन्मार्गाराधनस्य वै ॥६६॥ सज्जातिः सद्गृहित्वं च पारिवाज्यं सुरेन्द्रता । सामाज्यं परमार्हन्त्यं परनिर्वाणमित्यपि ॥६७॥ स्थानान्येतानि सप्त स्युः परमाणि जगत्त्रये । अर्हद्वागमृतास्वादात् प्रतिलभ्याति देहिनाम् ॥६॥ क्रियाकल्पोऽयमाम्नातो बहुभेदो महर्षिभिः । सडाक्षेपतस्तु तल्लक्ष्म वक्ष्ये सञ्चय' विस्तरम् ॥६ही प्राधानं नाम गर्भादौ संस्कारो मन्त्रपूर्वकः । पत्नीमतुमतों स्नातां पुरस्कृत्याहदिज्यया ॥७॥ "तत्रार्चनाविधौ चक्रत्रयं छत्रत्रयान्वितम । जिना मभितः स्थाप्य समं पुण्याग्निभिस्त्रिभिः ॥७१॥ त्रयोऽग्नयोर्हदगणभृच्छेषकेवलिनिर्वृतौ । ये हुतास्ते प्रणेतव्याः सिद्धाविद्युपाश्रयाः ॥७२॥ 'तेष्वर्हदिज्याशेषांशः पाहुतिर्मन्त्रविका । विधेया शुचिभिव्यः पुस्पुत्रोत्पत्तिकाम्यया ॥७३॥ तन्मन्त्रास्तु यथाम्नायं वक्ष्यन्तेऽन्यत्र पर्वणि । सप्तधा पीठिकाजातिमन्त्रादिप्रविभागतः ॥७४॥ विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनः । अव्यामोहादतस्तज्जः प्रयोज्यास्त उपासकैः ॥७॥ गर्भाधानक्रियामेनां प्रयुज्यादौ यथाविधि । सन्तानार्थ विना रागाद् दम्पतिभ्यां न्यवेयताम् ॥७६॥ इति गर्भाधानम् । इन कही हुई आठ क्रियाओंके साथ उपनीति नामकी चौदहवीं क्रियासे तिरपनवीं निर्वाण (अग्रनिवति) क्रिया तककी चालीस क्रियाएं मिलाकर कुल अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएं का हैं ।।६४-६५॥ कन्वय क्रियाएं वे हैं जो कि पुण्य करनेवाले लोगोंको प्राप्त हो सकती हैं और जो समीचीन मार्गकी आराधना करनेके फल स्वरूप प्रवृत्त होती हैं ॥६६॥ १ सज्जाति, २ सद्गृहित्व, ३ पारिवाज्य, ४ सुरेन्द्रता, ५ सामाज्य, ६ परमार्हन्त्य और ७ परमनिवणि ये सात स्थान तीनों लोकोंमें उत्कृष्ट माने गये हैं और ये सातों ही अर्हन्त भगवान्के वचनरूपी अमृत के आस्वादनसे जीवोंको प्राप्त हो सकते हैं ॥६७-६८॥ महर्षियोंने इन क्रियाओंका समूह अनेक प्रकारका माना अनेक प्रकारसे क्रियाओंका वर्णन किया है परन्तु मैं यहां विस्तार छोड़कर संक्षेपसे ही उनके लक्षण कहता हूँ ॥६९॥ चतुर्थ स्नानके द्वारा शुद्ध हुई रजस्वला पत्नी को आगे कर गर्भाधानके पहले अहेन्तदेवको पूजाक द्वारा मंत्रपूर्वक जो संस्कार किया जाता है उसे आधान क्रिया कहते हैं ॥७०। इस आधान क्रियाकी पूजामें जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमाके दाहिनी ओर तीन चक्र, बांई ओर तीन छत्र और सामने तीन पवित्र अग्नि स्थापित करे।।७।। अर्हन्त भगवान् (तीर्थ कर) के निर्वाणके समय, गणधरदेवोंके निर्वाणके समय और सामान्य केवलियोंके निर्वाणके समय जिन अग्नियोंमें होम किया गया था ऐसी तीन प्रकारकी पवित्र अग्नियां सिद्ध प्रतिमाकी वेदीके समीप ही तैयार करनी चाहिये ॥७२॥प्रथम ही अर्हन्त देवकी पूजा कर चुकनेके बाद शेष बचे हुए पवित्र द्रव्यसे पुत्र उत्पन्न होनेकी इच्छा कर मंत्रपूर्वक उन तीन अग्नियोंमें आहुति करनी चाहिये ॥७३॥ उन आहुतियोंके मंत्र आगेके पर्वमें शास्त्रानुसार कहे जावेंगे। वे पीठिका मंत्र, जातिमंत्र आदिके भेदसे सात प्रकारके हैं ॥७४॥ श्रीजिनेन्द्रदेवने इन्हीं मंत्रोंका प्रयोग समस्त क्रियाओंमें बतलाया है इसलिये उस विषयके जानकार श्रावकोंको व्यामोह (प्रमाद) छोड़कर उन मंत्रोंका प्रयोग करना चाहिये ॥७५।। इस प्रकार कही हुई इस गर्भाधानकी क्रियाको पहले विधिपूर्वक करके फिर स्त्री-पुरुष दोनों को विषयानरागके बिना केवल सन्तानके लिये समागम करना चाहिये ॥७६॥ इस प्रकार यह गर्भाधान क्रियाकी विधि समाप्त हुई। १ प्रवर्तिताः । २ क्रियालक्षणम् । ३ वर्जयित्वा । ४ तत्र आदानक्रियायाम् । तत्रार्चन विधौ ल०। ५ जिनविम्वस्य समन्ततः । ६ संस्कार्याः । ७ सिद्धप्रतिमाश्रिततिर्यग्वेदिसमीपाश्रिताः । ८ अग्निष । वाञ्छया। १० सर्गे। ११ मन्त्राणाम्। १२ मन्त्राः । १३ विधीयताम् ल० । व्यवीयताम् द० । अभिगम्यताम् । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ महापुराणम् गर्भाधानात परं मासे तृतीय सम्प्रवर्तते । प्रीति म क्रिया प्रीतः याऽनष्ठेया द्विजन्मभिः ॥७७॥ तत्रापि पूर्ववन्मन्त्रपूर्वा पूजा जिनेशिनाम । द्वारि तोरणविन्यासः पूर्णकुम्भौ च सम्मतौ ॥७८॥ तदादि प्रत्यहं भेरीशब्दो घण्टाध्वनान्वितः । यथाविभवमेवैतैः प्रयोज्यो गृहमेधिभिः ॥७९॥ इति प्रीतिः। प्राधानात पञ्चमे मासि क्रिया सुप्रीतिरिष्यते । या सुप्रीतैः प्रयोक्तव्या परमोपासकवतः ॥५०॥ तत्राप्य क्तो विधिः पूर्वः सर्वोऽर्हद्विशसन्निधौ । कार्यों मन्त्रविधान ः साक्षीकृत्याग्निदेवताः ॥८॥ इति सुप्रीतिः । धृतिस्तु सप्तमे मासि कार्या तद्वत्क्रियादरैः । गृहमेधिभिरव्यग्रमनोभिर्गर्भवृद्धये ॥२॥ इति धुतिः। नवमे मास्यतोऽभ्यणे मोदो नाम क्रियाविधिः । तद्वदेवादतः कार्यो गर्भपुष्टच द्विजोत्तमः ॥८३॥ तष्टो गात्रिकाबन्धों मङगल्यं च प्रसाधनम् । रक्षासूत्रविधानं च भिण्या द्विजसत्तमः ॥४॥ इति मोदः । प्रियोद्धवः प्रसूताया जातकर्मविधिः स्मृतः। जिनजातकमाध्याय प्रवयों यो यथाविधि ॥५॥ अवान्तरविशेषोऽत्र क्रियामन्त्रादिलक्षणः । भूयान् समस्त्यसौ ज्ञेयो मूलोपासकसूत्रतः ॥८६॥ इति प्रियोद्भवः । गर्भाधानके बाद तीसरे माहमें प्रीति नामकी क्रिया होती है जिसे संतुष्ट हुए द्विज लोग करते हैं ॥७७।। इस क्रियामें भी पहलेकी क्रियाके समान मन्त्रपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनी चाहिये, दरवाजेपर तोरण बांधना चाहिये तथा दो पूर्ण कलश स्थापन करना चाहिये ॥७८॥ उस दिनसे लेकर गृहस्थोंको प्रतिदिन अपने वैभवके अनुसार घंटा और नगाड़े बजवाने चाहिये।।७९।। यह दूसरी प्रीति क्रिया है । गर्भाधानसे पांचवें माहमें सुप्रीति क्रिया की जाती है जो कि प्रसन्न हुए उत्तम श्रावकोंके द्वारा की जाती है।।८०॥ इस क्रियामें भी मंत्र और क्रियाओंको जाननेवाले श्रावकोंको अग्नि तथा देवताकी साक्षी कर अर्हन्त भगवान्की प्रतिमाके समीप पहले कही हुई समस्त विधि करनी चाहिये ।।८१॥ यह तीसरी सुप्रीति नामकी क्रिया है। जिनका आदर किया गया है और जिनका चित्त व्याकुल नहीं है ऐसे गृहस्थोंको की वटिके लिये गर्भसे सातवें महीने में पिछली क्रियाओं के समान ही धति नामकी क्रिया करनी चाहिये ॥८२॥ यह चौथी धृति नामकी क्रिया है । तदनन्तर नौवें महीनेके निकट रहनेपर मोद नामकी क्रिया की जाती है यह क्रिया भी पिछली क्रियाओंके समान आदरयुक्त उत्तम द्विजोंके द्वारा गर्भकी पुष्टिके लिये की जाती है ।।८३॥ इस क्रियामें उत्तम द्विजोंको भिणीके शरीरपर गात्रिकाबन्ध करना चाहिये अर्थात् मंत्रपूर्वक बीजाक्षर लिखना चाहिये, मङ्गलमय आभूषणादि पहिनाना चाहिये और रक्षाके लिये कंकण सूत्र आदि बांधने की विधि करनी चाहिये ॥८४।। यह पांचवीं मोदक्रिया है । तदनन्तर प्रसूति होनेपर प्रियोद्भव नामकी क्रिया की जाती है, इसका दूसरा नाम जातकर्म विधि भी है। यह क्रिया जिनेन्द्र भगवान्का स्मरण कर विधिपूर्वक करनी चाहिये ॥८५।। इस क्रिया में क्रिया मंत्र आदि अवान्तर विशेष कार्य बहुत भारी हैं इसलिये इसका पूर्ण ज्ञान मूलभूत उपासकाध्ययनाङ्गसे प्राप्त करना चाहिये ॥८६॥ यह छठवीं प्रियोद्भव क्रिया है। १ स्वनान्वित: ल० । २ गात्रेषु बीजाक्षराणां मन्त्रपूर्वकं न्यासः । ३ शोभनम् । ४ अलङ्कारः । ५ रक्षार्थ कङ्कणसूत्रबन्धनविधानम् । ६ प्रसूतायां सत्याम् । ७ महान् । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व ૨૪૭ द्वादशाहात् परं नामकर्म जन्मदिनान्मतम । अनुकले सुतस्यास्य पित्रोरपि सुखावहे ॥८७॥ ययाविभवमष्टं देवविद्विजपूजनम् । शस्तं च नामधेयं तत् स्थाप्यमन्वयवृद्धिकृत् ॥८॥ "अष्टोत्तरसहस्राद् वा जिननामकदम्बकान् । घटपत्रविधानेन ग्राह्यमन्यतमं शुभम् ॥८६) इति नामकर्म । बहिर्यानं ततो द्वित्रैः मासस्त्रिचतुरैरुत । यथानकलमिष्टेऽह्नि कार्य तूर्यादिमङगलैः ॥६॥ ततः प्रभुत्यभीष्टं हि शिशोः प्रसववेश्मनः । बहिःप्रणयनं मात्रा धात्र्युत्सङगगतस्य वा ॥१॥ तत्र बन्धुजनादर्थलाभो यः पारितोषिकः । स तस्योत्तरकालेऽर्यो धनं पित्र्यं यदाप्स्यति ॥१२॥ इति बहिर्यानम् । ततः परं निषद्यास्य क्रिया बालस्य कल्प्यते । तद्योग्ये तल्प प्रास्तीर्ण कृतमडगलसन्निधौ ॥३॥ सिद्धार्चनादिकः सर्वो विधिः पूर्ववदत्र" च । यतो दिव्यासनाह त्वम् अस्य स्यादुत्तरोत्तरम् ॥१४॥ इति निषद्या। ___ जन्मदिनसे बारह दिनके बाद, जो दिन माता पिता और पुत्र के अनुकूल हो, सुख देनेवाला हो उस दिन नामकर्मकी क्रिया की जाती है ॥८७॥ इस क्रियामें अपने वैभवके अनुसार अर्हन्तदेव और ऋषियोंकी पूजा करनी चाहिये, द्विजोंका भी यथायोग्य सत्कार करना चाहिये तथा जो वंशकी वृद्धि करनेवाला हो ऐसा कोई उत्तम नाम बालकका रखना चाहिये ।।८८॥ अथवा जिनेन्द्रदेवके एक हजार आठ नामोंके समूहसे घटपत्र की विधिसे कोई एक शुभ नाम ग्रहण कर लेना चाहिये। भावार्थ-भगवान् के एक हजार आठ नामोंको एक हजार आठ कागजके टुकड़ोंपर अष्टगंधसे सुवर्ण अथवा अनार की कलमसे लिख कर उनकी गोली बना लेवे और पीले वस्त्र तथा नारियल आदिसे ढके हुए घडे में भर देवे, कागजके एक टकडेपर 'नाम' ऐसा शब्द लिखकर उसकी गोली बना लेवे इसी प्रकार एक हजार सात कोरे टुकड़ोंकी गोलियां बनाकर इन सबको एक दूसरे घड़े में भर देवे, अनन्तर किसी अबोध कन्या या बालकसे दोनों घड़ोंमेसें एक एक गोली निकलवाता जावे। जिस नामकी गोलीके साथ नाम ऐसा लिखी हुई गोली निकले वही नाम बालकका रखना चाहिये। यह घटपत्र विधि कहलाती है ॥८९॥ यह सातवीं नामकर्म क्रिया है। तदनन्तर दो-तीन अथवा तीन-चार माहके बाद किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजोंके साथ साथ अपनी अनुकूलताके अनुसार बािन क्रिया करनी चाहिये ॥९०॥ जिस दिन यह क्रिया की जावे उसी दिनसे माता अथवा धायकी गोदमें बैठे हुए बालकका प्रसूतिगृहसे बाहर ले जाना शास्त्रसम्मत है ॥९१॥ उस क्रियाक करते समय बालकको भाई बान्धव आदिसे पारितोषिक-भेंटरूपसे जो कुछ धनकी प्राप्ति हो उसे इकट्ठा कर, जब वह पुत्र पिताके धनका अधिकारी हो तब उसके लिये सौंप देवे ॥९२॥ यह आठवीं बहिर्यान किया है। तदनन्तर, जिसके समीप मङ्गलद्रव्य रक्खे हुए हैं और जो बालकके योग्य हैं ऐसे बिछाये हुए आसनपर उस बालककी निषद्या क्रिया की जाती है अर्थात् उसे उत्तम आसनपर बैठालते हैं ॥९३॥ इस क्रिया में सिद्ध भगवान की पूजा करना आदि सब विधि पहले के समान ही करनी चाहिये जिससे इस बालककी उत्तरोत्तर दिव्य आसनपर बैठने की योग्यता होती रहे ॥९४॥ यह नौंवी निषद्या क्रिया है । १ द्वौ वा त्रयो वा द्विवास्तैः। २ अथवा। ३ प्रसववेश्मनः सकाशात् । ४ परितोषे भवः । ५ शय्यायाम्। ६ विस्तीर्णे। ७ निषद्याक्रियायाम् । ८ निषद्याक्रियायाः । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ महापुराणम् गते मासपृथक्त्ये च जन्माद्यस्य यथाक्रमम् । अन्नप्राशनमाम्नातं पूजाविधिपुरःसरम् ॥६५॥ इति अन्नप्राशनम् । ततोऽस्य हायने पूर्णे ठघुष्टिनम क्रिया मता। वर्षवर्धनपर्यायशब्दवाच्या यथाश्रुतम् ॥६६॥ "अत्रापि पूर्ववद्दानं जैनी पूजा च पूर्ववत् । इष्टबन्धसमा ह्वानं समाशादिश्च लक्ष्यताम् ॥१७॥ इति व्युष्टिः ।। केशवापस्तु केशानां शुभेऽह्नि व्यपरोपणम् । क्षौरेण कर्मणा देवगुरुपूजापुरःसरम् ॥१८॥ गन्धोदकाद्रितान् कृत्वा केशान् शेषाक्षतोचितान् । मौण्डयमस्य विधेयं स्यात् सचूलं स्वाऽन्वयोचितम् स्नपनोदकधौताङगम् अनुलिप्तं सभूषणम् । प्रणमय्यर मुनीन् पश्चाद् योजयेद् बन्धुनाशिषा ॥१०॥ चौलाख्यया प्रतीतेयं कृतपुण्याहमडागला । क्रियास्यामादृतो लोको यतते परया मुदा ॥१०१॥ इति केशवापः । (ततोऽस्य पञ्चमे वर्षे प्रथमाक्षरदर्शने । ज्ञेयः क्रियाविधिर्नाम्ना लिपिसङखचानसङग्रहः ॥१०२॥ ययाविभवमत्रापि ज्ञेयः पूजापरिच्छदः । उपाध्यायपदे चास्य मतोऽधीती१३ गृहवती ॥१०३॥ इति लिपिसअखचानसङग्रहः । क्रियोपनीति मास्य वर्षे गर्भाष्टमे मता । यत्रापनीतकेशस्य मौजी सव्रतबन्धना ॥१०४॥ जब क्रम क्रमसे सात आठ माह व्यतीत हो जाये तब अर्हन्त भगवानको पूजा आदि कर बालकको अन्न खिलाना चाहिये ॥९५॥ यह दसवीं अन्नप्राशन क्रिया है। तदनन्तर एक वर्ष पूर्ण होनेपर व्युष्टि नामकी क्रिया की जाती है इस क्रियाका दूसरा नाम शास्त्रानुसार वर्षवर्धन है ॥९६।। इस क्रिया में भी पहले ही के समान दान देना • चाहिये, जिनेन्द्र भगवान की पूजा करनी चाहिये, इष्टबन्धुओंको बुलाना चाहिये और सबको भोजन कराना चाहिये ॥९७॥ यह ग्यारहवीं व्युष्टि क्रिया है। तदनन्तर, किसी शुभ दिन देव और गुरुको पूजाके साथ साथ क्षौरकर्म अर्थात् उस्तरासे बालकके बाल बनवाना केशवाप क्रिया कहलाती है ॥९८॥ प्रथम ही बालोंको गन्धोदकसे गीला कर उनपर पूजाके बचे हुए शेष अक्षत रखे और फिर चोटी सहित अथवा अपनी कुलपद्धतिके अनसार उसका मुंडन करना चाहिये ।।९९|| फिर स्नान कराने के लिये लाये हुए जलसे जिसका समस्त शरीर साफ कर दिया गया है, जिस पर लेप लगाया गया है और जिसे उत्तम आभूषण पहिनाये गये हैं ऐसे उस बालकसे मुनियोंको नमस्कार करावे, पश्चात् सब भाई, बन्धु उसे आशीर्वादस युक्त करें ॥१००। इस क्रि याम पुण्याहमंगल किया जाता है और यह चौल क्रिया नामसे प्रसिद्ध है इस शियामें आदरको प्राप्त हुए लोग बड़े हर्षसे प्रवृत्त होते हैं ।।१०१॥ यह केशवाप नामकी वारहवीं क्रिया है। तदनन्तर पांचवें वर्ष में बालकको सर्वप्रथम अक्षरोंका दर्शन करानेके लिये लिपिसंख्यान नामकी क्रियाकी विधि की जाती है ।।१०।। इस क्रियामें भी अपने वैसबके अनसार पूजा आदिकी सामग्री जुटानी चाहिये और अध्ययन कराने में कुशल व्रती गृहस्थको ही उस बालकके अध्यापकक पदपर नियुक्त करना चाहिये ॥१०३॥ यह तेरहवीं लिपिसंख्यान क्रिया है । गर्भसे आठवें वर्ष में बालककी उपनीति (यज्ञोपवीत धारण) क्रिया होती है। इस क्रियामें केशोंका मुण्डन, व्रतबन्धन तथा मौजीबन्धनकी क्रियाएं की १ सप्ताष्टमासे । २ जन्मदिनात् प्रारभ्य। ३ संवत्सरे । 'संवत्सरो वत्सरोऽब्दो हायनोऽस्त्री शरत् समा' इत्यभिधानात् । ४ शास्त्रानुसारेण । ५ तत्रापि ल० । ६ सहभोजनादिः । ७ अपनयनम् । ८ चूडासहितम् । शिखासहितमित्यर्थः। ६ वान्वयोचितम् ल । चान्वयोचितम् द० । १० अलङ्कारयुक्तशिश म् । ११ मुनिभ्यो नमनं कारयित्वा । १२ बन्धुसमूहकुताशीर्वचनेन । १३ अधीतवान् । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व कृतार्हत्पूजनस्यास्य मौजीबन्धो जिनालये। गरुसाक्षिविधातव्यो व्रतार्पणपुरस्सरम् ॥१०॥ शिखी सितांशुकः सान्तर्वासा' निर्वेषविक्रियः । व्रतचिह्नं दधत्सूत्रं तदोक्तो ब्रह्मचार्यसौ॥१०६) चरणोचितमन्यच्च नामधेयं तदस्य वै। वक्तिश्च भिक्षयाऽन्यत्र राजन्यादुद्धवैभवात् ॥१०॥ 'सोऽन्तःपुर चरेत् पात्र्यां" नियोग इति केवलम् । तदनं देवसात्कृत्य ततोऽन्नं योग्यमाहरेत् ॥१०८ . इत्युपनीतिः। व्रतचर्यामतो वक्ष्य क्रियामस्योपबिभतः। कटयरूरःशिरोलिङगम् मनूचानव्रतोचितम् ॥१०॥ कटीलिडरगं भवेवस्य मौजीबन्धात्त्रिभिर्गणः। रत्नत्रितयशुदध्यङ्ग तद्धि चिह्न द्विजात्मनाम् ॥११०॥ तस्पेष्टमूरुलिङागं च सुधौतसितशाटकम् । पार्हतानां कुलं पूतं विशालं चेति सूचने ॥१११॥ उरोलिङगमथास्य स्याद् ग्रथितं सप्तभिर्गुणः। यज्ञोपवीतकं सप्तपरमस्थानसूचकम् ॥११२॥ शिरोलिडगं च तस्यष्टं परं मौण्डघमनाविलम् । मौण्डचं मनोवच:कायगतमस्योपबृहयत् ॥११३॥ एवंप्रायेण५ लिडगेन विशुद्धं धारयेद व्रतम् । स्थूहिंसाविरस्यादि ब्रह्मचर्योपबृहितम् ॥११४॥ दन्तकाष्ठग्रहो नास्य न ताम्बूलं न चाञ्जनम् । न हरिद्रादिभिः स्नानं शुद्धस्नानं दिन प्रति ॥११॥ जाती हैं ॥१०४॥ प्रथम ही जिनालयमें जाकर जिसने अर्हन्तदेवकी पूजा की है ऐसे उस बालकको व्रत देकर उसका मौजीबन्धन करना चाहिये अर्थात् उसकी कमरमें मूंजकी रस्सी बांधनी चाहिये ॥१०५।। जो चोटी रखाये हुए है, जिसकी सफेद धोती और सफेद दुपट्टा है, जो वेष और विकारोंसे रहित है, तथा जो व्रतके चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीत सूत्रको धारण कर रहा है ऐसा वह बालक उस समय ब्रह्मचारी कहलाता है ॥१०६॥ उस समय उसके आचरणके योग्य और भी नाम रक्खे जा सकते हैं। उस समय बड़े वैभवशाली राजपुत्रको छोड़कर सबको भिक्षावृत्तिसे ही निर्वाह करना चाहिये और राजपुत्रको भी अन्त:पुरमें जाकर माता आदिसे किसी पात्रमें भिक्षा मांगनी चाहिये, क्योंकि उस समय भिक्षा लेनेका यह नियोग ही है। भिक्षामें जो कुछ प्राप्त हो उसका अग्रभाग श्री अरहन्तदेवको समर्पण कर बाकी बचे हुए योग्य अन्नका स्वयं भोजन करना चाहिये ॥१०७-१०८॥ यह चौदहवीं उपनीति क्रिया है। ___ अथानन्तर ब्रह्मचर्य व्रतके योग्य कमर, जांघ, वक्षःस्थल और शिरके चिह्नको धारण करनेवाले इस ब्रह्मचारी बालककी व्रतचर्या नामकी क्रियाका वर्णन करते हैं ॥१०९॥ तीन लरकी मजकी रस्सी बांधनेसे कमरका चिह्न होता है, यह मौंजीबन्धन रत्नत्रयकी विशुद्धिका अंग है और द्विज लोगोंका एक चिह्न है ॥११०॥ अन्त्यन्त धुली हुई सफेद धोती उसकी जांघ का चिह्न है, वह धोती यह सूचित करती है कि अरहन्त भगवान् का कुल पवित्र और विशाल है ॥१११।। उसके वक्षःस्थलका चिह्न सात लरका गुंथा हुआ यज्ञोपवीत है, यह यज्ञोपवीत सात परमस्थानोंका सूचक है ॥११२। उसके शिरका चिह्न स्वच्छ और उत्कृष्ट मुण्डन है जो कि उसके मन, वचन, कायके मुण्डनको बढ़ानेवाला है । भावार्थ-शिर मुण्डनसे मन, वचन, काय पवित्र रहते हैं ॥११३॥ प्रायः इस प्रकारके चिह्नोंसे विशुद्ध और ब्रह्मचर्य से बढ़े हुए स्थूल हिंसाका त्याग (अहिंसाणु व्रत)आदि व्रत उसे धारण करना चाहिये ।।११४।। इस ब्रह्मचारीको वृक्षकी दातौन नहीं करनी चाहिये, न पान खाना चाहिये, न अंजन लगाना चाहिये और न हल्दी आदि लगाकर स्नान करना चाहिये, उसे प्रतिदिन केवल १ अन्तर्वस्त्रेण सहितः । २ वेषविकाररहितः। ३ यज्ञसूत्रम् । ४ वर्तनायोग्यम् । ५ तदास्य ल०। ६ राजन्यः । ७ पात्रे भिक्षां प्रार्थयेदित्यर्थः । ८ भिक्षान्नम्। ६ देवस्य चरुं समर्प्य । १० शेषान्नं भुजीत । ११ -महं ल०। १२ ब्रह्मचर्यव्रत । १३ धवलवस्त्रम् । १४ उष्णीषादिरहितम् । १५ एवं प्रकारेण । ३२ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० महापुराणम् न खट्वाशयनं तस्य नान्याडागपरिघट्टनम् । भूमौ केवलमेकाकी शयीत व्रतशुद्धये ॥११६॥ यावद् विद्यासमाप्तिः स्यात् तावदस्यदृशं व्रतम् । ततोऽप्यूवं वतं तत् स्याद् तन्मूलं गृहमेधिनाम् ॥११७॥ सूत्रमौपासिकं चास्य स्यादध्येयं गुरोर्मुखात् । विनयेन ततोऽन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ॥११॥ शब्दविद्याऽर्थशास्त्रादिर चाध्ययं नास्य दुष्यति । सुसंस्कारप्रबोधाय "वयात्यख्यातयेऽपि च ॥११॥. "ज्योतिर्मानमथच्छन्दोज्ञानं ज्ञानं च शाकुनम् । सङख्याज्ञानमितीदं च तेनाध्ययं विशेषतः ॥१२०॥ इति वतचर्या । ततोऽस्याधीतविद्यस्य व्रत त्यवतारणम् । विशेषविषयं तच्च स्थितस्यौत्सर्गिके' व्रते ॥१२१॥ मधुमांसपरित्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् ॥१२२॥ व्रतावतरणं चेदं गुरुसाक्षिकृतार्चनम् । वत्सराद् द्वादशादूर्ध्वम् अथवा षोडशात् परम् ॥१२३॥ कृतद्विजार्चनस्यास्य व्रतावतरणोचितम् । वस्त्राभरणमाल्यादिग्रहणं गुर्वन ज्ञया ॥१२४॥ शस्त्रोपजीविवर्यश्चेद्र धारयेच्छस्त्रमप्यदः । स्ववृत्तिपरिरक्षार्थ शोभायं चास्य तद्ग्रहः ॥१२॥ भोगब्रह्मवतादेवम् अवतीर्णो भवेत्तदा । कामब्रह्मवत १३त्वस्य तावद्यावतिक्रयोत्तरा ॥१२६॥ इति व्रतावतरणम् । जलसे शुद्ध स्नान करना चाहिये ॥११५॥ उसे खाट अथवा पलंगपर नहीं सोना चाहिये, दूसरेके शरीरसे अपना शरीर नहीं रगड़ना चाहिये, और व्रतोंको विशुद्ध रखने के लिये अकेला पृथिवीपर सोना चाहिये ।।११६। जब तक विद्या समाप्त न हो तब तक उसे यह व्रत धारण करना चाहिये और विद्या समाप्त होनेपर वे व्रत धारण करना चाहिये जो कि गृहस्थोंके मूलगुण कहलाते हैं ॥११७॥ सबसे पहले इस ब्रह्मचारीको गुरुके मुखसे श्रावकाचार पढ़ना चाहिये और फिर विनयपूर्वक अध्यात्मशास्त्र पढना चाहिये ॥११८॥ उत्तम संस्कारोको जागृत करने के लिये और विद्वत्ता प्राप्त करने के लिये इस व्याकरण आदि शब्दशास्त्र औ अर्थशास्त्र का भी अभ्यास करना चाहिये क्योंकि आचार-विषयक ज्ञान होनेपर इनके अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है ॥११९॥ इसके बाद ज्योतिष शास्त्र, छन्दशास्त्र, शकुनशास्त्र और गणितशास्त्र आदिका भी उसे विशेषरूपसे अध्ययन करना चाहिये ॥१२०।। यह पन्द्रहवीं व्रतचर्या क्रिया है तदनन्तर जिसने समस्त विद्याओंका अध्ययन कर लिया है ऐसे उस ब्रह्मचारीकी व्रतावतरण क्रिया होती है। इस क्रियामें वह साधारण ब्रतोंका तो पालन करता ही है परन्तु अध्ययनके समय जो विशेष व्रत ले रक्खेथे उनका परित्याग कर देता है। ॥१२१।। इस क्रियाके बाद उसके मधुत्याग, मांसत्याग, पांच उदुम्बर फलोंका त्याग और सा आदि पांच स्थल पापोंका त्याग. ये सदा काल अर्थात जीवन पर्यन्त रहनेवाले व्रत रह जाते हैं ।।१२२॥ यह व्रतावतरण क्रिया गुरुकी साक्षीपूर्वक जिनेन्द्र भगवान्की पूजा कर बारह अथवा सोलह वर्ष बाद करनी चाहिये ॥१२३॥ पहले द्विजोंका सत्कार कर फिर व्रतावतरण करना उचित है और व्रतावतरण के बाद गुरुकी आज्ञासे वस्त्र, आभूषण और माला आदिका करना उचित है ॥१२४। इसके बाद यदि वह शस्त्रोपजीवी अर्थात क्षत्रिय वर्गका है तो वह अपनी आजीविकाकी रक्षाके लिये शस्त्र भी धारण कर सकता है अथवा केवल शोभाके लिये भी शस्त्र ग्रहण किया जा सकता है ॥१२५॥ इस प्रकार इस क्रिया में यद्यपि वह भोगोपभोगोंके ब्रह्मव्रतका अर्थात् ताम्बूल आदिके त्यागका अवतरण (परित्याग) कर देता है तथापि १ मञ्चक । २ नीतिशास्त्र । ३ दूष्यते ल०, द०। ४ धाष्टर्य । ५ ज्योतिःशास्त्रम् । ६ छन्दःशास्त्रम् । ७ गणितशास्त्रम् । ८ वृत्ति जीवन । ह साधारणे । १० कृताराधनम् । ११ वर्गे भवः । १२ निजजीवन । १३ चास्य ल० । १४ वक्ष्यमारणा, वैवाहिकी । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व ततोऽस्य गुर्वनुज्ञानाद् इष्टा वैवाहिकी क्रिया । वैवाहिके कुले कन्याम् उचितां परिणेष्यतः॥१२७॥ सिद्धार्चनविधि सम्यक् निर्वयं द्विजसत्तमाः । कृतान्नित्रयसम्पूजाः कुर्युस्तत्साक्षिता क्रियाम् ॥१२८॥ पुण्याश्रमे क्वचित् सिद्धप्रतिमाभिमुखं तयोः । दम्पत्योः परया भूत्या. कार्यः पाणिग्रहोत्सवः ॥१२६॥ वेद्यां "प्रणीतमग्नीनां त्रयं द्वयमर्थककम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रसज्य विनिवेशनम् ॥१३०॥ पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्तं तद्वधूवरम् । पासप्ताहं चरेद् ब्रह्मवतं देवाग्निसाक्षिकम् ॥१३१॥ क्रान्त्वा स्वस्योचितां भूमि तीर्थभूमीविहृत्य च । स्वगृहं प्रविशेद् भूत्या परया तद्वधूवरम् ॥१३२॥ विमुक्तकङकणं पश्चात् स्वगृहे शयनीयकम् । अधिशय्य यथाकालं भोगाडगैरुपलालितम् ॥१३३॥ सन्तानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत् । शक्तिकालव्यपेक्षोऽयं क्रमोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ॥१३४॥ इति विवाहक्रिया। एवं कृतविवाहस्य गार्हस्थ्यमनु तिष्ठतः । स्वधर्मानतिवृत्त्यर्थं वर्णलाभमथो ब्रुवे ॥१३॥ 'ऊढभार्योऽप्ययं तावद् अस्वतन्त्रो गरोगहे। ततः स्वातन्त्र्यसिद्धयर्थ वर्णलाभोऽस्य वणितः॥१३६॥ गुरोरनुज्ञया लब्धधनधान्यादिसम्पदः । पृथक्कृतालयस्यास्य वृत्तिर्वर्णाप्तिरिष्यते ॥१३७॥ तदापि पूर्ववत्सिद्धप्रतिमानर्चमग्रतः । कृत्वाऽस्योपासकान् मुख्यान् साक्षीकृत्यायेद् धनम् ॥१३॥ जब तक उसके आगेकी क्रिया नहीं होती तब तक वह काम परित्यागरूप ब्रह्मवतका पालन करता रहता है ।।१२६।। यह सोलहवीं व्रतावतरण क्रिया है। तदनन्तर विवाहके योग्य कुलमें उत्पन्न हुई कन्याके साथ जो विवाह करना चाहता है ऐसे उस पुरुषकी गुरुकी आज्ञासे वैवाहिकी क्रिया की जाती है ।।१२७।। उत्तम द्विजोंको चाहिये कि वे सबसे पहले अच्छी तरह सिद्ध भगवान्की पूजा करें और फिर तीनों अग्नियोंकी पूजा कर उनकी साक्षीपूर्वक उस वैवाहिकी (विवाह सम्बन्धी) क्रियाको करें ।।१२८॥ किसी पवित्र स्थानमें बड़ी विभूतिके साथ सिद्ध भगवान्की प्रतिमाके सामने वधू-वरका विवाहोत्सव करना चाहिये ॥१२९॥ वेदीमें जो तीन, दो अथवा एक अग्नि उत्पन्न की थी उसकी प्रदक्षिणाएं देकर वधू-वरको समीप ही बैठना चाहिये ॥१३०॥ विवाहकी दीक्षामें नियुक्त हुए वधू और वरको देव और अग्निकी साक्षीपूर्वक सात दिन तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिये ॥१३१॥ फिर अपने योग्य किसी देशमें भूमण कर अथवा तीर्थभूमिमें विहारकर वर और वधू बड़ी विभूतिके साथ अपने घरमें प्रवेश करें ॥१३२।। तदनन्तर जिनका कंकण छोड़ दिया है, ऐसे वर और वधू अपने घरमें समयानसार भोगोपभोगके साधनोंसे सशोभित शय्यापर शयन कर केवल संतान उत्पन्न करनेकी इच्छासे ऋतुकालमें ही परस्पर काम-सेवन करें। काम-सेवनका यह क्रम काल तथा शक्ति की अपेक्षा रखता है इसलिये शक्तिहीन पुरुषोंके लिये इससे विपरीत क्रम समझना चाहिये अर्थात् उन्हें ब्रह्मचर्यसे रहना चाहिये ॥१३३-१३४॥ यह सत्रहवीं विवाह-क्रिया है। __ इस प्रकार जिसका विवाह किया जा चुका है और जो गार्हस्थ्यधर्मका पालन कर रहा है ऐसा पुरुष अपने धर्मका उल्लंघन न करे इसलिये उसके अर्थ वर्णलाभ क्रियाको कहते हैं ॥१३५॥ यद्यपि उसका विवाह हो चुका है तथापि वह जबतक पिताके घर रहता है तबतक अस्वतन्त्र ही है इसलिये उसको स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिये यह वर्णलाभकी क्रिया कही गई है ॥१३६॥ पिताकी आज्ञासे जिसे धनधान्य आदि सम्पदाएं प्राप्त हो चुकी हैं और मकान भी जिसे अलग मिल चुका है ऐसे पुरुषकी स्वतन्त्र आजीविका करने लगनेको वर्णलाभ कहते हैं ॥१३७॥ इस क्रियाके समय १ पितुरनुमतात् । २ विवाहोचिते। ३ साक्षि तां ल०। ४ पवित्रप्रदेशे। ५ संस्कृतम् । ६ सप्तदिवसपर्यन्तम् । ७ सन्तानार्थम् ऋतुकाले कामसेवाक्रमः । ८-मतो ल० । ६ विवाहित । १० आदौ। ११ कृत्वान्योप-ल० । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ महापुराणम् धनमेतदुपादाय स्थित्वाऽस्मिन् स्वगृहे पृथक् । गृहिधर्मस्त्वया धार्यः कृत्स्नो दानादिलक्षणः ॥१३९॥ यथाऽस्मत्पितृदत्तेन धनेनास्माभिराजितम् । यशो धर्मश्च तद्वत्त्वं यशोधर्मानुपार्जय ॥ १४० ॥ इत्येवमनुशिष्यनं' वर्णलाभे नियोजयेत् । 'सदारः सोऽपि तं धर्मं तथानुष्ठातुमर्हति ॥ १४१ ॥ इति वर्णलाभक्रिया । लब्धवर्णस्य तस्येति कुलचर्याऽनुकीर्त्यते । सां त्विज्यादत्तिवार्तादिलक्षणा प्राक् प्रपञ्चिता ॥ १४२॥ विशुद्धा वृत्तिरस्यार्यषट्कर्मानुप्रवर्तनम् । गृहिणां कुलचर्येष्टा कुलधर्मोऽप्यसौ मतः ॥ १४३॥ इति कुलचर्या क्रिया । कुलचर्यामनुप्राप्तो धर्म दाढर्चमथोद्वहन् । गृहस्थाचार्य भावेन संश्रयेत् स गृहीशिनाम् ॥ १४४॥ ततो वर्णोत्तमत्वेन स्थापयेत् स्वां गृहीशिताम् । शुभवृत्तिक्रियामन्त्रविवाहैः सोत्तरक्रियैः ॥ १४५॥ अनन्यसदृशैरेभिः श्रुतवृत्तिक्रियादिभि: । स्वमुन्नतिं नयन्नेष तदाऽर्हति गृहीशिताम् ॥ १४६॥ वर्णोत्तमो महादेवः सुश्रुतो द्विजसत्तमः । निस्तारको ग्रामयतिः मानाहंश्चेति मानितः ॥ १४७ ॥ इति गृही शिता । सोऽनुरूपं ततो लब्ध्वा सूनुमात्मभरक्षमम् । तत्रारोपितगार्हस्थ्यः सन् प्रशान्तिमतः श्रयेत् ॥ १४८ ॥ भी पहले के समान सिद्ध प्रतिमाओं का पूजन कर पिता अन्य मुख्य श्रावकोंको साक्षी कर उनके सामने पुत्रको धन अर्पण करे तथा यह कहे कि यह धन लेकर तुम इस अपने घरमें पृथक् रूपसे रहो। तुम्हें दान पूजा आदि समस्त गृहस्थधर्म पालन करते रहना चाहिये। जिस प्रकार हमारे पिताके द्वारा दिये हुए धनसे मैंने यश और धर्मका अर्जन किया है उसी प्रकार तुम भी यश और धर्मका अर्जन करो। इस प्रकार पुत्रको समझाकर पिता उसे वर्णलाभ में नियुक्त करे और सदाचारका पालन करता हुआ वह पुत्र भी पिताके धर्मका पालन करनेके लिये समर्थ होता है। ।।१३८-१४१।। यह अठारहवीं वर्णलाभ क्रिया है । जिसे वर्णलाभ प्राप्त हो चुका है ऐसे पुत्रके लिये कुलचर्या क्रिया कही जाती है और पूजा, दत्ति तथा आजीविका करना आदि सब जिसके लक्षण हैं ऐसी कुलचर्या क्रियाका पहले विस्तार के साथ वर्णन कर चुके ॥ १४२ ॥ निर्दोष रूप से आजीविका करना तथा आर्य पुरुषोंके करने योग्य देवपूजा आदि छह कार्य करना यही गृहस्थोंकी कुलचर्या कहलाती है और यही उनका कुलधर्म माना जाता है ।। १४३ ॥ | यह उन्नीसवीं कुलचर्या क्रिया है । तदनन्तर कुलचर्याको प्राप्त हुआ वह पुरुष धर्म में दृढताको धारण करता हुआ गृहस्थाचार्यरूपसे गृहीशिताको स्वीकार करे अर्थात् गृहस्थोंका स्वामी बने ॥ १४४॥ फिर उसे आपको उत्तमवर्ण मानकर आपमें गृहीशिता स्थापित करनी चाहिये । जो दूसरे गृहस्थोंमें न पाई जावे ऐसी शुभ वृत्ति, क्रिया, मन्त्र, विवाह तथा आगे कही जानेवाली क्रियाएं, शास्त्रज्ञान और चारित्र आदिकी क्रियाओंसे अपने आपको उन्नत करता हुआ वह गृहीश अर्थात् गृहस्थोंके स्वामी होनेके योग्य होता है ।। १४५ - १४६ ।। उस समय वर्णोत्तम, महीदेव, सुश्रुत, द्विजसत्तम, निस्तारक, ग्रामपति और मानार्ह इत्यादि कहकर लोगोंको उसका सत्कार करना चाहिये || १४७ || यह बीसवीं गृहीशिता क्रिया है। तदनन्तर वह गृहस्थाचार्य अपना भार संभालने में समर्थ योग्य पुत्रको पाकर उसे अपनी प०, १ उपशिष्य । २ सदाचारः स तद्धर्मं ल० द० । ल० । ३ गृहस्थाचार्यस्वरूपेण । ४ ग्रामपतिः Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ अष्टत्रिंशत्तम पर्व विषयेष्वनभिष्वडगो' नित्यस्वाध्यायशीलता। नानाविधोपवासश्च वृत्तिरिष्टा प्रशान्तता ॥१४६॥ इति प्रशान्तिः । ततः कृतार्थमात्मानं मन्यमानो गहाश्रमे । यदोद्यतो गृहत्यागे तदाऽस्यैष क्रियाविधिः ॥१५०॥ सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य सर्वानाहूय सम्मतान् । तत्साक्षि सूनवे सर्व निवेद्यातो गृहं त्यजेत् ॥१५॥ (कलक्रमस्त्वया तात सम्पाल्योऽस्मत्परोक्षतः । त्रिधा कृतं च नो द्रव्यं त्वयेत्थं विनियोज्यताम् ॥१५२॥ एकोऽशो धर्मकार्येऽतो द्वितीयः स्वगृहव्यये । तृतीयः संविभागाय भवेत्त्वत्सहजन्मनाम् ॥१५३॥ पुण्यश्च संविभागार्हाः समं पुत्रैः समांशकैः। त्वं तु भूत्वा कुलज्येष्ठः सन्ततिं नोऽनुपालय ॥१५४॥ श्रुतवृत्तक्रियामन्त्रविधिज्ञस्त्वमतन्द्रितः। प्रपालय कुलाम्नायं गुरुं देवांश्च पूजयन् ॥१५॥ इत्येवमनुशिष्य स्वं ज्येष्ठं सूनुमनाकुलः । ततो दीक्षामुपादातुं द्विजः स्वं गृहमुत्सृजेत् ॥१५६॥ _ इति गृहत्यागः । त्यक्तागारस्य सदृष्टः प्रशान्तस्य गृहीशिनः । प्राग्दीक्षौपयिकात् कालाद् एकशाटकधारिणः ॥१५७॥ 'यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रति धार्यते । दीक्षाद्यं नाम तज्ज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः ॥१५८॥ इति दीक्षाद्यम् । त्यक्तचेलादिसडगस्य जैनी दीक्षामयुषः । धारणं जातरूपस्य यत्तत् स्याज्जिनरूपता ॥१५॥ गृहस्थीका भार सौंप दे और आप स्वयं उत्तम शान्तिका आश्रय ले॥१४८॥ विषयोंमें आसक्त नहीं होना, नित्य स्वाध्याय करने में तत्पर रहना तथा नाना प्रकारके उपवास आदि करते रहना प्रशान्त वृत्ति कहलाती है ॥१४९॥ यह इक्कीसवीं प्रशान्ति क्रिया है। तदनन्तर गृहस्थाश्रममें अपने आपको कृतार्थ मानता हुआ जब वह गृहत्याग करनेके लिये उद्यत होता है तब उसके यह गृहत्याग नामकी क्रियाकी विधि की जाती है ॥१५०॥ इस क्रियामें सबसे पहले सिद्ध भगवानका पूजन कर समस्त इष्टजनोंको बुलाना चाहिये और फिर उनकी साक्षीपूर्वक पुत्रके लिये सब कुछ सौंपकर गृहत्याग कर देना चाहिये ।।१५१।। गृहत्याग करते समय ज्येष्ठ पुत्रको बुलाकर उससे इस प्रकार कहना चाहिये कि पुत्र, हमारे पीछे यह कुलक्रम तुम्हारे द्वारा पालन करने योग्य है। मैंने जो अपने धनके तीन भाग किये हैं उनका तुम्हें इस प्रकार विनियोग करना चाहिये कि उनमेंसे एक भाग तो धर्मकार्य में खर्च करना चाहिये, दूसरा भाग अपने घर खर्चके लिये रखना चाहिये और तीसरा भाग अपने भाइयोंमें बांट देनेके लिये है। पुत्रोंके समान पुत्रियोंके लिये भी बराबर भाग देना चाहिये। हे पुत्र, तू कुलका बड़ा होकर मेरी सब संतानका पालन कर। तू शास्त्र, सदाचार, क्रिया, मन्त्र और विधिको जाननेवाला है इसलिये आलस्यरहित होकर देव और गुरुओंकी पूजा करता हुआ अपने कुलधर्मका पालन कर । इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्रको उपदेश देकर वह द्विज निराकुल होवे और फिर दीक्षा ग्रहण करनेके लिये अपना घर छोड़ दे ॥१५२-१५६॥ यह बाईसवीं गृहत्याग नामकी क्रिया है। जिसने घर छोड़ दिया है, जो सम्यग्दृष्टि है, प्रशान्त है, गृहस्थोंका स्वामी है और दीक्षाधारण करनेके समयके कुछ पहले जिसने एक वस्त्र धारण किया है उसके दीक्षाग्रहण करनेके पहले जो कुछ आचरण किये जाते हैं उन आचरणों अथवा क्रियाओंके समूहको द्विजकी दीक्षाद्य क्रिया कहते हैं ॥१५७-१५८॥ यह तेईसवीं दीक्षाद्य क्रिया है। जिसने वस्त्र आदि सब परिग्रह छोड़ दिये हैं और जो जिनदीक्षाको प्राप्त करना चाहता है ऐसे पुरुषका दिगम्बररूप धारण करना जिनरूपता नामकी क्रिया कहलाती है ॥१५९॥ १ निष्प्रभः । २ अस्माकम् । ३ कुलपरम्पराम् । ४ दीक्षास्वीकारात् प्राक् । ५ क्रियासमूहः । ६ गतस्य। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ महापुराणम् अशक्यधारणं चेदं जन्तूनां कातरात्मनाम् । जैनं निस्सङगतामुख्यं रूपं धीरैनिषेव्यते ॥१६०॥) इति जिनरूपता। कृतवीक्षोपवासस्य प्रवृत्तः, पारणाविधौ । मौनाध्ययनवृत्तत्वम् इष्टमाश्रुतनिष्ठितेः ॥१६॥ वाचं यमो विनीतात्मा विशद्धकरणत्रयः । सोऽधीयीत श्रुतं कृत्स्नम् मामला गुरुसन्निधौ ॥१६२॥ श्रुतं हि विधिनानेन भव्यात्मभिरुपासितम् । योग्यतामिह पुष्णाति परत्रापि प्रसीदति ॥१६३॥ इति मौनाध्ययनवृत्तत्वम् । ततोऽधीताखिलाचारः शास्त्रादिश्रुतविस्तरः। विशुद्धाचरणोऽभ्यस्यत् तीर्थकृत्त्वस्य भावनाम् ॥१६४॥ सा तु षोडशधाम्नाता महाभ्युदयसाधिनी । सम्यग्दर्शनशुद्धयादिलक्षणा प्राक्प्रपञ्चिता ॥१६॥ इति तीर्थकृद्भावना। ततोऽस्य विदिताशेष वेद्यस्य विजितात्मनः । गुरुस्थानाभ्युपगमः सम्मतो गुर्वनुग्रहात् ॥१६६॥ "ज्ञानविज्ञानसम्पन्न : स्वगुरोरभिसम्मतः। विनीतो धर्मशीलश्च यः सोऽर्हति गुरोः पदम् ॥१६७॥ गुरुस्थानाभ्युपगमः । ततः सुविहितस्यास्य युक्तस्य गणपोषणो । गणोपग्रहणं नाम क्रियाम्नाता महर्षिभिः ॥१६८॥ जिनका आत्मा कातर है ऐसे पुरुषोंको जिनरूप (दिगम्बररूप) का धारण करना कठिन है इसलिये जिसमें परिग्रह त्यागकी मुख्यता है ऐसा यह जिनेन्द्रदेवका रूप धीरवीर मनुष्योंके द्वारा ही धारण किया जाता है ॥१६०॥ यह चौबीसवीं जिनरूपता क्रिया है। जिसने दीक्षा लेकर उपवास किया है और जो पारणकी विधिमें अर्थात् विधिपूर्वक आहार लेने में प्रवृत्त होता है ऐसे साधुका शास्त्रकी समाप्ति पर्यन्त जो मौन ध्ययन करने में प्रवृत्ति होती है उसे मौनाध्ययनवृत्तत्व कहते हैं ॥१६१॥ जिसने मौन धारण किया है, जिसका आत्मा विनय युक्त है, और मन वचन काय शुद्ध हैं ऐसे साधुको गुरुके समीपमें प्रारम्भसे लेकर समस्त शास्त्रोंका अध्ययन करना चाहिये ॥१६२।। क्योंकि इस विधिसे भव्यजीवोंके द्वारा उपासना किया हुआ शास्त्र इस लोकमें उनकी योग्यता बढ़ाता है और परलोकमें प्रसन्न रखता है ॥१६३॥ यह पच्चीसवीं मौनाध्ययनवृत्तित्व क्रिया है। __ तदनन्तर जिसने समस्त आचार शास्त्रका अध्ययन किया है, तथा अन्य शास्त्रोंके अध्ययनसे जिसने समस्त श्रुतज्ञानका विस्तार प्राप्त किया है और जिसका आचरण विशुद्ध है ऐसा साधु तीर्थङ्कर पदकी भावनाओंका अभ्यास करे ॥१६४।। सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि रखना आदि जिसके लक्षण हैं जो महान ऐश्वर्यको देनेवाली हैं तथा पहले जिनका विस्तारके साथ वर्णन किया जा चुका है ऐसी वे भावनाएँ सोलह मानी गई हैं ।।१६५।। यह छब्बीसवीं तीर्थकृद्भावना नामकी क्रिया है। तदनन्तर जिसने समस्त विद्याएं जान ली हैं और जिसने अपने अन्तःकरणको वश कर लिया है ऐसे साधुका गुरुके अनुग्रहसे गुरुका स्थान स्वीकार करना शास्त्रसंमत है ॥१६६॥ जो ज्ञान विज्ञान करके सम्पन्न है, अपने गुरुको इष्ट है अर्थात् जिसे गुरु अपना पद प्रदान करना योग्य समझते हैं, जो विनयवान् और धर्मात्मा है वह साधु गुरुका पद प्राप्त करनेके योग्य है ॥१६७॥ यह सत्ताईसवीं गुरुस्थानाभ्युपगम क्रिया है। तदनन्तर जो सदाचारका पालन करता है गण अर्थात् समस्त मुनिसंघके पोषण १ श्रुतसमाप्तिपर्यन्तम् । २ मौनी। ३ अध्ययनं कुर्यात् । लिङ् । ४ -विद्यस्य ल०, द०, प०। ५ ज्ञान मोक्षशास्त्र । विज्ञान शिल्पशास्त्र । ६ सदाचारस्य । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व २५५ श्रावकानायिकासघं श्राविकाः संयतानपि । सन्मार्गे वर्तयनेष गणपोषणमाचरेत् ॥१६॥ श्रुताथिभ्यः श्रुतं दद्याद् दीक्षार्थिभ्यश्च वीक्षणम् । धर्माथिभ्योऽपि सद्धर्म स शश्वत् प्रतिपादयेत् ॥१७०॥ सवृत्तान् धारयन् सूरिरसद्वृत्तानिवारयन् । शोधयंश्च कृतादागोमलात् स 'बिभूयाद् गणम् ॥१७१॥ इति गणोपग्रहणम् । गणपोषणमित्याविष्कुर्वन्नाचार्यसत्तमः। ततोऽयं स्वगुरुस्थानसंक्रान्तो यत्नवान् भवेत् ॥१७२।। अधीतविद्यं तद्विद्यौः पादुतं मुनिसत्तमैः । योग्यं शिष्यमथाहूय तस्मै स्वं भारमर्पयेत् ॥१७शा गुरोरनुमतात् सोऽपि गुरुस्थानमधिष्ठितः । गुरुवृत्तौ स्वयं तिष्ठन् वर्तयेदखिले गणम् ॥१७४॥ इति स्वगुरुस्थानावाप्तिः। तत्रारोप्य भरं कृत्स्नं काले कस्मिश्चिदव्यथः । कर्यादेकविहारी स निःसडगत्वात्मभावनाम् ॥१७॥ निःसङगवृत्तिरकाको विहरन् स महातपाः। चिकीर्षुरात्मसंस्कारं नान्यं संस्कर्तुमर्हति ॥१७६॥ अपि रागं समुत्सृज्य शिष्यप्रवचनादिष । निर्ममत्वैकतानः संश्चर्याशद्धि तदाऽश्रयेत् ॥१७७॥ इति निःसङगत्वात्मभावना। कृत्वैवमात्मसंस्कारं ततः सल्लेखनोद्यतः । कृतात्मशुद्धिरध्यात्म योगनिर्वाणमाप्नुयात् ॥१७॥ करने में जो तत्पर रहता है उसके महर्षियोंने गणोपग्रहण नामकी क्रिया मानी है ॥१६८॥ इस आचार्यको चाहिये कि वह मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओंको समीचीन मार्गमे लगाता हुआ अच्छी तरह संघका पोषण करे ।।१६९॥ उसे यह भी चाहिये कि वह शास्त्र अध्ययनकी इच्छा करनेवालोंको दीक्षा देवे और धर्मात्मा जीवोंके लिये धर्मका प्रतिपादन करे ॥१७०॥ वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोंको प्रेरित करे, दुराचारियोंको दूर हटावे और किये हुए स्वकीय अपराधरूपी मलको शोधता हुआ अपने आश्रितगणकी रक्षा करे ।।१७१॥ यह अट्ठाईसवीं गणोपग्रहण क्रिया है। ___ तदनन्तर इस प्रकार संघका पालन करता हुआ वह उत्तम आचार्य अपने गुरुका स्थान प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न सहित हो ॥१७२॥ जिसने समस्त विद्याएं पढ ली हैं और उन विद्याओंके जानकार उत्तम उत्तम मुनि जिसका आदर करते हैं ऐसे योग्य शिष्यको बुलाकर उसके लिये अपना भार सौंप दे ॥१७३॥ गुरुकी अनुमतिसे वह शिष्य भी गुरुके स्थानपर अधिष्ठित होता हुआ उनके समस्त आचरणोंका स्वयं पालन करे और समस्तसंघको पालन करावे ॥१७४।। यह उन्तीसवीं स्वगुरु-स्थानावाप्ति क्रिया है। इस प्रकार सुयोग्य शिष्यपर समस्त भार सौंपकर जो किसी कालमें दुःखी नहीं होता है ऐसा साधु अकेला विहार करता हुआ 'मेरा आत्मा सब प्रकारके परिग्रहसे रहित है' इस प्रकारकी भावना करे ॥१७५।। जिसकी वृत्ति समस्त परिग्रहसे रहित है, जो अकेला ही विहार करता है, महातपस्वी है और जो केवल अपने आत्माका ही संस्कार करना चाहता है उसे किसी अन्य पदार्थका संस्कार नहीं करना चाहिये अर्थात् अपने आत्माको छोड़कर किसी अन्य साधु या गृहस्थके सुधारकी चिन्तामें नहीं पड़ना चाहिये ।।१७६॥ शिष्य पुस्तक आदि सब पदार्थों में राग छोड़कर और निर्ममत्वभावनामें एकाग्र बुद्धि लगाकर उस समय उसे चारित्रकी शुद्धि धारण करनी चाहिये ॥१७७॥ यह तीसवीं निःसङगत्वात्मभावना क्रिया है । तदनन्तर इस प्रकार अपने आत्माका संस्कार कर जो सल्लेखना धारण करनेके लिये उद्यत हुआ है और जिसने सब प्रकारसे आत्माकी शुद्धि कर ली है ऐसा १ सारयन अ०, प०, इ०, स०, ल०, द०। २ पोषयेद् । ३ तिष्ठेद् वर्तयेत् सकलं गणम् ल० । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ महापुराणम् योगो ध्यानं तदर्थों यो यत्नः संवेगपूर्वकः । तमाहुर्योगनिर्वाणसम्प्राप्तं परमं तपः ॥१७॥ कृत्वा परिकरं योग्यं तनुशोधनपूर्वकम् । शरीरं कर्शयेद्दोषः समं रागादिभिस्तदा ॥१८॥ तदेतद्योगनिर्वाणं संन्यासे पूर्वभावना' । जीविताशां मृतीच्छां च हित्वा भव्यात्मलब्धये ॥१८॥ रागद्वेषौ समुत्सृज्य श्रेयोऽवाप्तौ च संशयम् । अनात्मीयेषु चात्मीयसडकल्पाद विरमेत्तदा ॥१८२॥ माहं देहो मनो नास्मि न वाणी न च कारणम् । 'तत्त्रयस्यत्यनुद्विग्नो भजेदन्यत्वभावनाम् ॥१८॥ अहमेको न मे कश्चिन्नवाहमपि कस्यचित् । इत्यदीनमनाः सम्यगेकत्वमपि भावयेत् ॥१८४॥ यतिमाधाय लोकाग्रे नित्यानन्तसुखास्पदे । भावयेद् योगनिर्वाणं स योगी योगसिद्धये ॥१८॥ इति निवार्णसम्प्राप्तिः । ततो निःशेषमाहारं शरीरं च समत्सुजन् । योगीन्द्रो योगनिर्वाणसाधनायोधतो भवेत् ॥१८६॥ उत्तमार्थे'कृतास्थानः सन्यस्ततनुरुद्धधीः । ध्यायन् मनोवचः कायान बहिर्भतान स्वकान स्वतः ॥१८७॥ प्रणिधाय' मनोवृत्ति पदेषु परमेष्ठिनाम् । जीवितान्ते स्वसाकुर्याद् योगनिर्वाणसाधनम् ॥१८८॥ योगः समाधिनिर्वाणं तत्कृता चित्तनिर्वृतिः । तेनेष्टं साधनं यत्तद् योगनिर्वाणसाधनम् ॥१८६॥ इति योगनिर्वाणसाधनम् । पुरुष योगनिर्वाण क्रियाको प्राप्त हो ॥१७८।। योग नाम ध्यानका है उसके लिये जो संवेगपूर्वक प्रयत्न किया जाता है उस परम तपको योगनिर्वाण संप्राप्ति कहते हैं ॥१७९।। प्रथम ही शरीरको शद्ध कर सल्लेखनाके योग्य आचरण करना चाहिये और फिर रागादि दोषोंके साथ शरीरको कृश करना चाहिये ।।१८०।। जीवित रहने आशा और मरनेकी इच्छा छोड़कर 'यह भव्य है' इस प्रकारका सुयश प्राप्त करनेके लिये संन्यास धारण करनेके पहले भावना की जाती है वह योगनिर्वाण कहलाता है ॥१८१॥ उस समय रागद्वेष छोड़कर कल्याणकी प्राप्ति में प्रयत्न करना चाहिये और जो पदार्थ आत्माके नहीं हैं उनमें 'यह मेरे है। इस संकल्पका त्याग कर देना चाहिये ॥१८२।। न मैं शरीर ह, न मन ह, न वाणी है और न इन तीनोंका कारण ही हैं । इस प्रकार तीनोंके विषयमें उद्विग्न न होकर अन्यत्व भावनाका चिन्तवन करना चाहिये ॥१८३॥ इस संसारमें मैं अकेला हं न मेरा कोई है और न मैं भी किसीका है, इस प्रकार उदार चित्त होकर एकत्वभावनाका अच्छी तरह चिन्तवन करना चाहिये ॥१८४॥ जो नित्य और अनन्त सुख का स्थान है ऐसे लोकके अग्रभाग अर्थात मोक्षस्थानमें बुद्धि लगाकर उस योगीको योग (ध्यान) की सिद्धिके लिये योग निर्वाण क्रियाकी भावना करनी चाहिये । भावार्थसल्लेखनामें बैठे हुए साधुको संसारके अन्य पदार्थोंका चिन्तवन न कर एक मोक्षका ही चिन्तवन करना चाहिये ॥१८५॥ यह इकतीसवीं योगनिर्वाणसंप्राप्ति किया है। तदनन्तर-समस्त आहार और शरीरको छोड़ता हुआ वह योगिराज योगनिर्वाण साधनके लिये उद्यत हो ॥१८६॥ जिसने उत्तम अर्थात् मोक्षपदार्थमें आदर बुद्धि की है, शरीरसे ममत्व छोड़ दिया है और जिसकी बुद्धि उत्तम है ऐसा वह साधु अपने मन, वचन, कायको अपने भिन्न अनभव करता हआ अपने मनकी प्रवत्ति पञ्चपरमेष्ठियोंके चरणोंमें लगावे और इस प्रकार जीवनके अन्तमें योगनिर्वाण साधनको अपने आधीन करे-स्वीकार करे ॥१८७-१८८॥ योग नाम समाधिका है उस समाधिके द्वारा चित्तको जो आनन्द होता है उसे निर्वाण कहते हैं, चूंकि यह योगनिर्वाण इष्ट पदार्थोका साधन है-इसलिये इसे योगनिर्वाण साधन कहते हैं ॥१८९॥ यह बत्तीसवीं योगनिर्वाण साधनक्रिया है। १ तद् ध्यानम् अर्थप्रयोजनं यस्य । २ प्रथम भावना। ३ भव्याङकल-ल०, द०। ४ संश्रयेद् अ०, प०, स०। देहमनोवाक्त्रयस्य । ५ संन्यासे । ६ कृतादरः । ७हिरुग्भतात्मकान् स्वतः ट० । पृथग्भूतस्वरूपकान् । ८ एकाग्रं कृत्वा । ६ पञ्चपदेषु । १० चित्ताहादः । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व २५७ तथा योगं समाधाय कृतप्राणविसर्जनः । इन्द्रोपपादमाप्नोति गते पुण्य पुरोगताम् ॥१६॥ इन्द्राः स्युस्त्रिदशाधीशाः तेजूत्पादस्तपोबलात् । यः स इन्द्रोपपादः स्यात् क्रियाऽर्हन्मार्गसेविनाम् ॥१६॥ ततोऽसौ दिव्यशय्यायां क्षणादापूर्णयौवनः। परमानन्दसाभतो दीप्तो दिव्य तेजसा ॥१६२॥ अणिमादिभिरष्टाभिः युतोऽसाधारणर्गुणः । सहजाम्बरदिव्यनङमणिभूषणभूषितः ॥१९३॥ दिव्यानुभावसम्भूतप्रभावं परमुद्वहन् । बोबुध्यते तदाऽत्मीयम् ऐन्द्रं दिव्यावधित्विषा ॥१६४॥ इति इन्द्रोपपादक्रिया। पर्याप्तमात्र एवायं प्राप्तजन्मावबोधनः । पुनरिन्द्राभिषेकेण योज्यतेऽमरसत्तमः ॥१६॥ दिव्यसङगीतवादित्रमङगलोद्गीतिनिःस्वनः। विचित्रैश्चाप्सरोनत्तैः निवृत्तेन्द्राभिषेचनः ॥१६॥ ति (कि)रीटमुद्वहन् दीप्रं स्वसामाज्यकलाञ्छनम् । सुरकोटिभिरारूढप्रमदैर्जयकारितः ॥१७॥ स्रग्वी सदंशुको दीप्रः भूषितो दिव्यभूषणः। ऐन्द्रविष्टरमारूढो महानष महीपते ॥१६॥ इति इन्द्राभिषेकः । ततोऽयमानतानेतान् सत्कृत्य सुरसत्तमान् । पदेष स्थापयन् स्वेषु विधिदाने प्रवर्तते ॥१६६॥ "स्वविमान द्धदानेन प्रोणितविबुधैर्वृतः। सोऽनुभुङक्ते चिरं कालं सुकृती सुखमामरम् ॥२०॥ तदेतद्विधिदानेन्द्रसुखोदयविकल्पितम् । क्रियाद्वयं समाम्नातं स्वर्लोकप्रभवोचितम् ॥२०१॥ ___ इति विधिदानसुखोदयौ। ऊपर लिखे अनसार योगोंका समाधान कर अर्थात मन, वचन, कायको स्थिरकर जिसने प्राणोंका परित्याग किया है ऐसा साधु पुण्यके आगे आगे चलनेपर इन्द्रोपपाद क्रियाको प्राप्त होता है ॥१९०॥ देवोंके स्वामी इन्द्र कहलाते हैं, तपश्चरणके बलसे उन इन्द्रोंमें जन्म लेना इन्द्रोपपाद कहलाता है। वह इन्द्रोपपादक्रि या अर्हत्प्रणीत मोक्षमार्ग का सेवन करनेवाले जीवोंके ही होती है ॥१९१॥ तदनन्तर वह इन्द्र उसी उपपाद शय्यापर क्षणभरमें पूर्णयौवन हो जाता है और दिव्य तेजसे देदीप्यमान होता हुआ परमानन्दमें निमग्न हो जाता है ॥१९२।। वह अणिमा महिमा आदि आठ असाधारण गुणोंसे सहित होता है और साथ साथ उत्पन्न हुए वस्त्र, दिव्यमाला, तथा मणिमय आभूषणोंसे सुशोभित होता है । दिव्य माहात्म्यसे उत्पन्न हुए उत्कृष्ट प्रभावको धारण करता हुआ वह इन्द्र दिव्य अवधिज्ञानरूपी ज्योतिके द्वारा जान लेता है कि मैं इन्द्रपदमें उत्पन्न हुआ हं ॥१९३-१९४।। यह इन्द्रोपपाद नामकी तैतीसवीं क्रिया है। पर्याप्तक होते ही जिसे अपने जन्मका ज्ञान हो गया है ऐसे इन्द्रका फिर उत्तमदेव लोग इन्द्राभिषेक करते हैं ॥१९५।। दिव्य संगीत, दिव्य बाजे, दिव्य मंगलगीतोंके शब्द और अप्सराओंके विचित्र नृत्योंसे जिसका इन्द्राभिषेक सम्पन्न हुआ है, जो अपने सामाज्यके मुख्य चिह्नस्वरूप देदीप्यमान मुकुटको धारण कर रहा है, हर्षको प्राप्त हुए करोड़ों देव जिसका जयजयकार कर रहे हैं जो उत्तम मालाएं और वस्त्र धारण किये हुए है तथा देदीप्यमान वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित है ऐसा वह इन्द्र इन्द्र के पदपर आरूढ़ होकर अत्यन्त पूजाको प्राप्त होता है ॥१९६-१९८॥ यह चौंतीसवीं इन्द्राभिषेक क्रिया है। तदनन्तर नम्रीभूत हुए इन उत्तम उत्तम देवोंको अपने अपने पदपर नियुक्त करता हुआ वह इन्द्र विधिदान क्रियामें प्रवृत्त होता है ॥१९९॥ अपने अपने विमानोंकी ऋद्धि देनेसे संतुष्ट हुए देवोंसे घिरा हुआ वह पुण्यात्मा इन्द्र चिरकालतक देवोंके सुखोंका अनुभव करता है ॥२०॥ ५ निजविमानैश्वर्यवितरणेन । १ गते सति । २ अग्रेसरत्वम् । ३ सम्भूतं ल०, द०। ४ इन्द्रः । ६ अमरसम्बन्धि । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ महापुराणम् प्रोक्तास्त्विन्द्रोपपादाभिषेकदान सुखोदयाः। इन्द्र त्यागाख्यमधुना संप्रवक्ष्ये क्रियान्तरम् ॥२०२॥ किञ्चिन्मात्रावशिष्टायां स्वस्यामायुःस्थितौ सुरेटर । बुद्ध्वा स्वर्गावतारं स्वं सोऽनुशास्त्यमरानिति ।२०३। भो भोःसुधाशना ययम्ब्यस्माभिः पालिताश्चिरम् । केचित् पित्रीयिताः केचित् पुत्रप्रीत्योपलालिताः॥२०४॥ पुरोधोमन्त्र्यमात्यानां पदे केचिनियोजिताः । वयस्यपीठ मदीयस्थाने दृष्टाश्च केचन ॥२०॥ स्वप्राणनिविशेषञ्च केचित् त्राणाय सम्मताः । केचिन्मान्यपदे दृष्टाः पालकाः स्वनिवासिनाम् ॥२०६॥ केचिच्चमूचरस्थाने' केचिच्च स्वजनास्थया । प्रजासामान्यमन्ये च केचिच्चानुचराः पृथक् ॥२०७॥ केचित् परिजनस्थाने केचिच्चान्तःपुरे चराः। काश्चिद् वल्लभिका देव्यो महादेव्यश्च काश्चन ॥२०८॥ इत्यसाधारणा प्रीतिर्मया युष्मास दर्शिता। स्वामिभक्तिश्च युष्माभिः मय्यसाधारणी धुता ॥२०६॥ साम्प्रतं स्वर्गभोगेषु गतो मन्देच्छतामहम् । प्रत्यासना हि मे लक्ष्मीः अद्य भूलोकगोचरा ॥२१०॥ युष्मत्साक्षि ततः कृत्स्नं स्वःसामाज्यं मयोज्झितम्। यश्चान्यो मत्समो भावी तस्मै सर्व समर्पितम्॥२११॥ इत्यनुत्सुकतां तेषु भावयन्ननु शिष्य तान् । कुर्वन्निन्द्रपदत्यागं स व्यथां नैति० धीरधीः ॥२१२॥ इन्द्रत्यागक्रिया सैषा तत्स्व गातिसर्जनम् । धीरास्त्यजन्त्यनायासादैश्यं तादृशमप्यहो ॥२१३॥ इति इन्द्र त्यागः । इस प्रकार स्वर्गलोकमें उत्पन्न होने के योग्य ये विधिदान और इन्द्र सुखोदय नामकी दो क्रियाएं मानी गई हैं ॥२०१॥ ये पैंतीसवीं और छत्तीसवीं विधिदान तथा सुखोदय क्रियाएं हैं। इस प्रकार इन्द्रोपपाद, इन्द्राभिषेक, विधिदान और सुखोदय ये इन्द्र सम्बन्धी चार क्रियाएं कहीं । अब इन्द्रत्याग नामकी पृथक क्रियाका निरूपण करता है ।।२०२।। इन्द्र जब अपनी आयुकी स्थिति थोड़ी रहने पर अपना स्वर्गसे च्युत होना जान लेता है तब वह देवोंको इस प्रकार उपदेश देता है ॥२०३।। कि भो देवो, मैंने चिरकालसे आपका पालन किया है, कितने ही देवोंको मैंने पिताके समान माना है, कितने ही देवोंको पुत्रके समान बड़े प्रेमसे खिलाया है, कितने हीको पुरोहित, मन्त्री और अमात्यके स्थानपर नियुक्त किया है, कितने हीको मैंने मित्र और पीठमर्दके समान देखा है। कितने ही देवोंको अपने प्राणों के समान मानकर उन्हें अपनी रक्षाके लिये नियक्त किया है, कितने हीको देवोंकी रक्षाके लिये सम्मानयोग्य पदपर देखा है, कितने हीको सेनापतिके स्थानपर नियुक्त किया है, कितने हीको अपने परिवारके लोग समझा है, कितने हीको सामान्य प्रजाजन माना है, कितने हीको सेवक माना है, कितने हीको परिजनके स्थानपर और कितने हीको अन्तःपुरमें रहनेवाले प्रतीहारी आदिके स्थानपर नियुक्त किया है। कितने ही दौवयोंको वल्लभिका बनाया है और कितनी ही देवियोंको महादेवी पदपर नियुक्त किया है, इस प्रकार मैंने आप लोगोंपर असाधारण प्रेम दिखलाया है और आप लोगोंने भी हमपर असाधारण प्रेम धारण किया है ॥२०४-२०९।। इस समय स्वर्गके भोगोंमें मेरी इच्छा मन्द हो गई है और निश्चय ही पृथिवी लोककी लक्ष्मी आज मेरे निकट आ रही है ॥२१०॥ इसलिये आज तुम सबकी साद की साक्षीपूर्वक मैं स्वर्गका यह समस्त सामाज्य छोड रहा हैं और मेरे पीछे मेरे समान जो दूसरा इन्द्र होनेवाला है उसके लिये यह समस्त सामग्री समर्पित करता हं ॥२११॥ इस प्रकार उन सब देवोंमें अपनी अनुत्कण्ठा अर्थात् उदासीनताका अनुभव करता हुआ इन्द्र उन सबके लिये शिक्षा दे और धीरवीर बुद्धिका धारक हो, इन्द्र पदका त्याग कर दुःखी न हो ॥२१२।। इस तरह जो स्वर्गके भोगोंका त्याग करता है वह इन्द्रत्याग क्रिया है । यह भी एक -- १ विधिदान । २ स्वराट् प०, ल० । ३ पिता इवाचरिताः । ४ कामाचार्य । ५ रामानं यथा भवति तथा । ६ लोकपाला इत्यर्थः । ७ सेनापति । ८ ततः कारणात् । ६ उपशिष्य । १० न गच्छति । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तमं पर्व अवतारक्रियास्यान्या ततः संपरिवर्तते । कृतार्हत्पूजनस्यान्ते स्वर्गादवतरिष्यतः ॥ २१४॥ सोऽयं नृजन्मसंप्राप्त्या सिद्धि 'द्रागभिलाषुकः । चेतः सिद्धनमस्यायां समाधत्ते सुराधिराट् ॥ २१५ ॥ शुभैः षोडशभिः स्वप्नैः संसूचितमहोदयः । तदा स्वर्गावताराख्यां कल्याणीमश्नुते क्रियाम् ॥ २१६ ॥ इति इन्द्रावतारः । ततोऽवतीर्णो गर्भेऽसौ रत्नगर्भगृहोपमे । जनयित्र्या महादेव्या श्रीदेवीभिविशोधिते ॥ २१७॥ हिरण्यवृष्टि धनदे प्राक् षण्मासान् प्रवर्षति । 'अन्वायान्त्यामिवानन्दात् स्वर्गसंपदि भूतलम् ॥२१८॥ अमृतश्वसने मन्दम् श्रावाति व्याप्तसौरभे । भूदेव्या इव निःश्वासे प्रक्लृप्ते पवनामरैः ॥२१६॥ दुन्दुभिध्वनिते मन्द्रम् उत्थिते पथि वार्मुचाम् । श्रकालस्तनिताशङ्काम् श्रातन्वति शिखण्डिनाम् ॥ २२०॥ मन्दारत्रजमम्लानिम् श्रामोदाहृतषट्पदाम् । मुञ्चत्स गुह्यकाख्येषु १२ निकायेष्वमृताशिनाम् ॥२२१॥ देवीषूपचरन्तीषु देवीं भुवनमातरम् । लक्ष्म्या समः समागत्य श्रीहीधीधृतिकोर्तिषु ॥ २२२॥ कस्मिँश्चित् सुकृतावासे" पुण्ये राजर्षिमन्दिरे । हिरण्यगर्भो धत्तेऽसौ हिरण्योत्कृष्टजन्मताम् ॥२२३॥ हिरण्य सूचितोत्कृष्टजन्यत्वात् स तथा श्रुतिम् " । बिभ्राणां तां क्रियां धते गर्भस्थोऽपि त्रिबोधभृत् ॥ २२४ ॥ इति हिरण्यजन्मता । आश्चर्य की बात है कि धीरवीर पुरुष स्वर्गके वैसे ऐश्वर्यको भी बिना किसी कष्टके छोड़ देते हैं ।। २१३ || इस प्रकार यह सैंतीसवीं इन्द्रत्याग क्रिया है । २५९ तदनन्तर- जो इन्द्र आयुके अन्तमें अरहन्तदेवका पूजन कर स्वर्गसे अवतार लेना चाहता है उसके आगेकी अवतार नामकी क्रिया होती है || २१४ || मैं मनुष्य जन्म पाकर बहुत शीघ्र मोक्ष प्राप्त किया चाहता हूं यही विचार कर वह इन्द्र अपना चित्त सिद्ध भगवान्‌को नमस्कार करने में लगाता है ।। २१५ ॥ शुभ सोलह स्वप्नोंके द्वारा जिसने अपना बड़ा भारी अभ्युदय - माहात्म्य सूचित किया है ऐसा वह इन्द्र उस समय कल्याण करनेवाली स्वगतार नामकी क्रियाको प्राप्त होता है ।। २१६ ॥ | यह अड़तीसवीं इन्द्रावतार किया है । तदनन्तर- वे माता महादेवीके श्री आदि देवियोंके द्वारा शुद्ध किये हुए रत्नमय गर्भागार के समान गर्भ में अवतार लेते हैं ।। २१७ || गर्भ में आनेके छह महीने पहलेसे जब कुबेर घरपर रत्नों की वर्षा करने लगता है और वह रत्नोंकी वर्षा ऐसी जान पड़ती है मानो आनन्दसे स्वर्गकी सम्पदा ही भगवान् के साथ साथ पृथिवीतलपर आ रही हो ॥ जब अमृत के समान सुख देनेवाली वायु मन्द मन्द बहकर सब दिशाओं में फैल रही हो तथा ऐसी जान पड़ती हो मानो पवनकुमार देवोंके द्वारा निर्माण किया हुआ पृथिवीरूपी देवीका निःश्वास ही हो । जब आकाशमें उठी हुई- फैली हुई दुन्दुभि बाजोंकी गंभीर आवाज मयूरोंको असमय में होनेवाली मेघगर्जनाकी शंका उत्पन्न कर रही हो । जब गुहचक नाम के देवोंके समूह कभी म्लान न होनेवाली और सुगन्धिके कारण भूमरोंको अपनी ओर खींचने वाली कल्पवृक्षके फूलों की मालाओंको बरसा रहे हों। और जब श्री, ही, बुद्धि, धृति और कीर्ति नामकी देवियां लक्ष्मी के साथ आकर स्वयं जगन्माता महादेवीकी सेवा कर रही हों उस समय पुण्यके निवासभूत किसी पवित्र राजमन्दिर में वे हिरण्यगर्भ भगवान् हिरण्योत्कृष्ट जन्म धारण करते हैं ।२१८२२३|| जो गर्भ में स्थित रहते हुए भी तीन ज्ञानको धारण करनेवाले हैं ऐसे भगवान्, हिरण्य १ सोऽहं ल० । २ झटिति । ३ नमस्कारे । ४ समाहितं कुरुते । ५ गच्छति । ६ जनन्याः । 'जनयित्री प्रसूर्माता जननी' इत्यभिधानात् । ७ श्रीह्रीत्यादिभिः । ८ सहागच्छन्त्याम् । ६ अमृतवदाह्लादकरमारुते । १० व्याप्तमारुते ल० । ११ वायुकुमारैः । १३ देवभेदेषु । १३ स्वयं ल० । १४ पुण्यस्थाने । १५ हिरण्योत्कृष्टजन्मताभिधानम् । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० महापुराणम् 'विश्वेश्वरा जगन्माता महादेवी महासती । पूज्या सुमङगला चेति धत्ते रूढि जिनाम्बिका ॥२२५॥ कुलाद्रिनिलया देव्यः श्रीह्रोधो धृतिकीर्तयः । समं लक्ष्म्या षडेताश्च सम्मता जिनमातृकाः ॥२२६॥ जन्मानन्तरमायातैः सुरेन्द्रेर्मेरुमूर्द्धनि । योऽभिषेकविधिः क्षीरपयोधेः शुचिभिर्जलैः ॥ २२७॥ मन्दरेन्द्राभिषेकोऽसौ क्रियाऽस्य परमेष्ठिनः । सा पुनः सुप्रतीतत्वात् भूयो नेह प्रतन्यते ॥ २२८ ॥ इति मन्दरेन्द्राभिषेकः । ततो विद्योपदेशोऽस्य स्वतन्त्रस्य स्वयम्भुवः । शिष्यभावव्यतिक्रान्तिः गुरुपूजोपलम्भनम् ॥२२६॥ तदेन्द्राः पूजयन्त्य ेनं त्रातारं त्रिजगद्गुरुम् । श्रशिक्षितोऽपि देवत्व सम्मतोऽसीति विस्मिताः ॥ २३०॥ इति गुरुपूजनम् । ततः कुमारकालेऽस्य यौवराज्योपलम्भनम् । पट्टबन्धोऽभिषे कश्च तदास्य स्यान्महौजसः ॥२३१॥ इति यौवराज्यम् । स्वराज्यमधि राज्येऽभिषिक्तस्यास्य क्षितीश्वरः । शासतः सार्णवामेनां क्षितिमप्रतिशासनाम् ॥ २३२ ॥ इति स्वराज्यम् । चक्रलाभो भवेदस्य निधिरत्नसमुद्भवे । निजप्रकृतिभिः पूजा साभिषेकाऽधिराडिति ॥२३३॥ इति चक्रलाभः अर्थात् सुवर्णकी वर्षासे जन्मकी उत्कृष्टता सूचित होनेके कारण हिरण्योत्कृष्ट जन्म इस सार्थक नामको धारण करनेवाली क्रियाको धारण करते हैं ||२२४ || यह उनतालीसवीं हिरण्योत्कृष्ट जन्मता क्रिया है । उस समय वह भगवान्‌की माता विश्वेश्वरी, जगन्माता, महादेवी, महासती, पूज्या और सुमंगला इत्यादि नामोंको धारण करती है ।। २२५ ॥ कुलाचलोंपर रहनेवाली श्री, ही, बुद्धि, धृति, कीर्ति और लक्ष्मी ये छह देवियां जिनमातृका अर्थात् जिनमाताकी सेवा करनेवाली कहलाती हैं ॥ २२६ ॥ जन्मके अनन्तर आये हुए इन्द्रोंके द्वारा मेरु पर्वतके मस्तक पर क्षीरसागर के पवित्र जलसे भगवान् का जो अभिषेक किया जाता है वह उन परमेष्ठीकी मन्दराभिषेक क्रिया है । वह क्रिया अत्यन्त प्रसिद्ध है इसलिये यहां उसका फिरसे विस्तार नहीं किया जाता है ॥२२७ - २२८ ॥ यह चालीसवीं मन्दराभिषेक क्रिया है । तदनन्तर स्वतंत्र और स्वयंभू रहने वाले भगवान्‌के विद्याओंको उपदेश होता है वे शिष्यभावके बिना ही गुरुकी पूजाको प्राप्त होते हैं अर्थात् किसीके शिष्य हुए बिना ही सबके गुरु कहलाने लगते हैं ॥ २२९ ॥ | उस समय इन्द्र लोग आकर हे देव, आप अशिक्षित होनेपर भी सबको मान्य हैं इस प्रकार आश्चर्यको प्राप्त होते हुए सबकी रक्षा करनेवाले और तीनों जगत् के गुरु भगवान् की पूजा करते हैं ॥ २३०॥ यह इकतालीसवीं गुरुपूजन क्रिया है । तदनन्तर कुमारकाल आनेपर उन्हें युवराजपदकी प्राप्ति होती है, उस समय महाप्रतापवान् उन भगवान् के राज्यपट्ट बांधा जाता है और अभिषेक किया जाता है ॥२३१॥ यह बियालीसवीं यौवराज्य क्रिया है । तत्पश्चात् समस्त राजाओंने राजाधिराज ( सम्राट् ) के पदपर जिनका अभिषेक किया है और जो दूसरे के शासनसे रहित इस समुद्र पर्यन्तकी पृथिवीका शासन करते हैं ऐसे उन भगवान् के स्वराज्यकी प्राप्ति होती है ॥२३२॥ | यह तैतालीसवीं स्वराज्य क्रिया है । इसके बाद निधियों और रत्नोंकी प्राप्ति होनेपर उन्हें चक्रकी प्राप्ति होती है उस समय १ विश्वेश्वरी ल० । २ शिष्यत्वाभावः । ३ गुरुपूजाप्राप्तिः । स्वस्य स्वयमेव गुरुरिति भावः । ४ पूजयन्त्येतं ल०, द० । ५ रक्षतः । ६ आत्मीयप्रजापरिवारैः । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व २६१ दिशाञ्जयः स विज्ञ यो योऽस्य दिग्विजयोद्यमः। चक्ररत्न पुरस्कृत्य जयतः सार्णवां महीम् ॥२३४॥ इति दिशाञ्जयः । सिद्धदिग्विजयस्यास्य स्वपुरानुप्रवेशन। क्रिया चक्राभिषेकाहा साऽधुना सम्प्रकीर्त्यते ॥२३॥ चक्ररत्नं पुरोधाय प्रविष्टः स्वं निकेतनम् । परायविभवोपेतं स्वविमानापहासि यत् ॥२३६॥ तत्र क्षणमिवासीने रम्ये प्रमदमण्डपे । चामर:ज्यमानोऽयं सनिर्भर इवाद्रिराट् ॥२३७॥ संपूज्य निधिरनानि कृतचक्रमहोत्सवः । दत्वा किमिच्छकं दानं मान्यान् सम्मान्य पार्थिवान् ॥२३॥ ततोऽभिषेकमाप्नोति पार्थिवैर्महितान्वयः। नान्दीतूर्येषु गम्भीरं प्रध्वनत्सु सहस्रशः ॥२३६॥ यथावदभिषिक्तस्य तिरीटारोपणं ततः। क्रियते पार्थिवैर्मुख्यैः चतुभिः प्रथितान्वयैः ॥२४०॥ महाभिषेकसामग्रचा कृतचक्राभिषेचनः । कृतमङगलनेपथ्यः पार्थिवैः प्रणतोऽभिताः ॥२४१॥ तिरोटं स्फुटरत्नांश जटिलीकृतदिग्मुखम् । दधानश्चक्रसामाज्यककुदं" नृपपुडगवाः ॥२४२॥ रत्नांशुच्छुरितं बिभूत् कर्णाभ्यां कुण्डलद्वयम् । यद्वाग्देव्याः समाक्रीडारथ चक्रद्वयायितम् ॥२४३॥ तारालितरलस्थलमुक्ताफलमुरोगहे। धारयन् हारमाबद्धमिव मङगलतोरणम् ॥२४४॥ समस्त प्रजा उन्हें राजाधिराज मानकर उनकी अभिषेक सहित पूजा करती है ॥२३३॥ यह चक्र लाभ नामकी चवालीसवीं क्रिया है। तदनन्तर चक्ररत्नको आगे कर समुद्रसहित समस्त पथिवीको जीतने वाले उन भगवान्का जो दिशाओंको जीतने के लिये उद्योग करना है वह दिशांजय कहलाता है ॥२३४॥ यह दिशांजय नामकी पैंतालीसवीं क्रिया है। जब भगवान दिग्विजय पूर्णकर अपने नगरमें प्रवेश करने लगते हैं तब उनके चक्राभिषेक नामकी क्रिया होती है। अब इस समय उसी क्रियाका वर्णन किया जाता है ॥२३५।। वे भगवान् चक्र रत्नको आग कर अपने उस राजभवन में प्रवेश करते हैं जो कि बहुमल्य वैभवसे सहित होता है और स्वर्गके विमानोंकी हँसी करता है ॥२३६॥ वहांपर वे मनोहर आनन्दमण्डपमें क्षणभर विराजमान होते हैं उस समय उनपर चमर ढुलाये जाते हैं जिससे वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो निर्भरनोसहित सुमेरु पर्वत ही हो ॥२३७।। उस समय वे निधियों और रत्नोंकी पूजाकर चक्र प्राप्त होनेका बड़ा भारी उत्सव करते हैं, किमिच्छक दान देते हैं और माननीय राजाओंका सन्मान करते हैं ।।२३८।। तदनन्तर तुरही आदि हजारों मांगलिक बाजोक गभोर शब्द करत रहन पर व उत्तम उत्तम कु हुए राजाओंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त होते हैं ॥२३९॥ तदनन्तर-विधिपूर्वक जिनका अभिषेक किया गया है ऐसे उन भगवान्के मस्तकपर प्रसिद्ध प्रसिद्ध कुलमें उत्पन्न हुए मुख्य चार राजाओंके द्वारा मुकुट रक्खा जाता है ॥२४०॥ इस प्रकार महाभिषेककी सामग्री से जिनका चक्राभिषेक किया गया है, जिन्होंने माङ्गलिक वेष धारण किया है, जिन्हें चारों ओर से राजा लोग नमस्कार कर रहे हैं, जो देदीप्यमान रत्नोंकी किरणोंसे समस्त दिशाओंको व्याप्त करनेवाले तथा चक्रवर्तीके सामाज्यके चिह्नस्वरूप मुकुटको धारण कर रहे हैं, राजाओंमें श्रेष्ठ हैं, जो अपने दोनों कानोंमें रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त तथा सरस्वतीके क्रीड़ारथके पहियोंकी शोभा देनेवाले दो कुण्डलोंको धारण कर रहे हैं, जो वक्षःस्थलरूपी घरके सामने खड़े किये हए मांगलिकतोरणके समान सशोभित होनेवाले और ताराओंकी पंक्तिके समान चंचल तथा १क्षणपर्यन्तमेव । २ विहितचक्रपूजनः। ३ सम्पूज्य । ४ अलङ्कारः। ५ चिह्न प्रधानं वा । 'प्रधाने राजलिङ्गे च वृषाङ्गे कुमुदोऽस्त्रियामित्यभिधानात् । ६ मिश्रितम् । ७ क्रीडानिमित्तस्पन्दन । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ महापुराणम् विलसद्ब्रह्मसूत्रेण प्रविभक्ततनन्नतिः । तटनिर्भरसम्पातरम्यतिरिवाद्रिपः ॥२४॥ सद्रत्नकटकं प्रोच्चैः शिखरं भुजयोर्युगम् । द्वाघिमश्लाघि बिभाण: कुलक्ष्माधद्वयायितम् ॥२४६॥ कटिमण्डलसंसक्तलसत्काञ्चीपरिच्छदः । महाद्वीप इवोपान्तरत्नवेदीपरिष्कृतः ॥२४७॥ मन्दारक समामोदलग्नालिकुलझंकृतः। किमप्यारब्धसङगीतमिव शेखरमद्वहन् ॥२४८॥ तत्कालोचितमन्यच्च दधन्मङगलभूषणम् । स तदा लक्ष्यते साक्षाल्लक्ष्म्याः पुञ्ज इवोच्छिखः ॥२४६॥ प्रीताश्चाभिष्टुवन्त्येनं तदामी नृपसत्तमाः। विश्वञ्जयो दिशाजेता दिव्यमूतिर्भवानिति ॥२५०।। पौराः प्रकृतिमुख्याश्च कृतपादाभिषेचनाः। तत्क्रमार्चनमादाय कुर्वन्ति स्वशिरोधतम् ॥२५॥ श्रीदेव्यश्च सरिदेव्यों देव्यो विश्वेश्वरा अपि । समुपेत्य नियोगः स्वस्तदैनं पर्युपासते ॥२५२॥ इति चक्राभिषेकः । चक्राभिषेक इत्येकः समाख्यातः क्रियाविधिः। तदनन्तरमस्य स्यात् सामाज्याख्यं क्रियान्तरम् ॥२५३॥ अपरेधुदिनारम्भे धृतपुण्यप्रसाधनः । मध्ये महानृपसभं नृपासनमधिष्ठितः ।।२५४॥ दीप्रैः प्रकीर्णकवातः स्वधुनीसीकरोज्ज्वलः। वारनारीकराधूतः बीज्यमानः समन्ततः ॥२५॥ सेवागतः पृथिव्यादिदेवतांशः परिष्कृतः । धृतिप्रशान्तदीप्त्योजो निर्मलत्वोपमा दिभिः ॥२५६॥ बड़े बड़े मोतियोंसे युक्त हार धारण किये हुए हैं, शोभायमान यज्ञोपवीतसे जिनके शरीरकी उच्चता प्रकट हो रही है और इसी कारण जो तटपर पड़ते हुए निर्भरनोंसे सन्दर आकारवाले समेरु पर्वतके समान जान पड़ते हैं, जो रत्नोंके कटक अर्थात कडों (पक्ष में रत्नमय मध्यभागों) से सहित, ऊंचे ऊंचे शिखरों अर्थात् कन्धों (पक्ष में चोटियों) से युक्त, लम्बाईसे सुशोभित और इसलिये ही दो कुलाचलोंके समान आचरण करनेवाली दो भुजाओंको धारण कर रहे हैं, जिनकी कमरपर देदीप्यमान करधनी सटी हुई है और उससे जो ऐसे जान पड़ते हैं मानो चारों ओरसे रत्नमयी वेदीके द्वारा घिरा हुआ कोई महाद्वीप ही हो, जो मन्दार वृक्षके फूलोंकी सुगन्धिके कारण आकर लगे हुए भमरोंके समूहकी झंकारोंसे कुछ गाते हुएके समान सुशोभित होनेवाले शेखरको धारण कर रहे हैं तथा उस कालके योग्य अन्य अन्य मांगलिक आभूषण धारण किये हुए हैं ऐसे वे भगवान् उस समय ऐसे जान पड़ते हैं मानो जिसकी शिखा ऊंची उठ रही हैं ऐसा साक्षात् लक्ष्मीका पुञ्ज ही हो ।।२४१-२४९।। उस समय अन्य उत्तम उत्तम राजा लोग संतुष्ट होकर उनकी इस प्रकार स्तुति करते हैं कि आपने समस्त संसारको जीत लिया है, आप दिशाओंको जीतनेवाले हैं और दिव्यमूर्ति हैं ॥२५०॥ नगरनिवासी लोग तथा मंत्री आदि मुख्य मुख्य पुरुष उनके चरणोंके अभिषेक करते हैं और उनका चरणोदक लेकर अपने अपने मस्तकपर धारण करते हैं ॥२५१॥ श्री ह्री आदि देवियां, गङ्गा सिन्धु आदि देवियां तथा विश्वेश्वरा आदि देवियां अपने अपने नियोगोंक अनसार आकर उस समय उनकी उपासना करती हैं ॥२५२॥ यह चक्राभिषेक नामकी छियालीसवी क्रिया है । ___ इस प्रकार उनकी यह एक चक्राभिषेक नामकी क्रिया कही। अब इसके बाद साम्राज्य नामकी दूसरी क्रिया कहते हैं ।।२५३।। दूसरे दिन प्रातःकालके समय जिन्होंने पवित्र आभूषण धारण किये हैं जो बड़े बड़े राजाओंकी सभाके बीच में राजसिहासनपर विराजमान हैं, जिनपर देदीप्यमान, गङ्गा नदीक जलक छोटोक समान उज्ज्वल और गणिकाओक हायसं हिलाय हए चमर चारों ओरसे ढलाये जा रहे हैं, जो धति, शान्ति, दीप्ति, ओज और निर्मलताको उत्पन्न करनेवाले १दैन श्लाघि। २ परिवेष्टितः। ३ ईषद् । ४ गंगादेव्यादयः । ५ पवित्रालङ्कारः । ६ महानृपसभायाः मध्ये । ७पृथिव्यप्तेजोवायु गगनाधिदेवताविक्रियाशरीरैः इत्यर्थः । ८ भूषितः । ६ बलम् । 'ओजो दीप्तौ बले' इत्यभिधानात् । १० उत्पादकैः । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व २६३ तान् प्रजानुग्रहे नित्यं समाधानेन योजयन् । सम्मानदानविश्रम्भैः२ प्रकृतीरनुरञ्जयन् ॥२५७॥ पार्थिवान् प्रणतान् यूयं न्यायैः पालयत प्रजाः । अन्यायषु प्रवृत्ताश्चेद् वृत्तिलोपो' ध्रुवं हि वः ॥२५८।। न्यायश्च द्वितयो दुष्टनिग्रहः शिष्टपालनम् । सोऽयं सनातनः क्षात्रो धर्मो रक्ष्यः प्रजेश्वरैः ॥२५॥ दिव्यास्त्रदेवताश्चामूराराध्याः स्युविधानतः । ताभिस्तु सुप्रसन्नाभिः अवश्यं भावुको जयः ॥२६०॥ राजवृत्तिमिमां सम्यक् पालयद्भिरतन्द्रितः। प्रजासु वर्तितव्यं भो भवद्भिायवर्त्मना ॥२६॥ पालयेच इम धर्म स धर्मविजयी भवेत् । मां जयेद् विजितात्मा हि क्षत्रियो न्यायजीविकः ॥२६२॥ इहैव स्याद् यशोलाभो भलाभश्च महोदयः। प्रमुत्राभ्युदयावाप्तिः कमात् त्रैलोक्यनिर्जयः ॥२६३॥ इति भूयोऽनुशिष्यैतान् प्रजापालनसंविधौ । स्वयं च 'पालयत्येनान् योगक्षेमानुचिन्तनः ॥२६४॥ तदिदं तस्य सामाज्यं नाम धर्य क्रियान्तरम् । येनानुपालितेनायमिहामुत्र च नन्दति ॥२६॥ इति सामाज्यम् । एवं प्रजाः प्रजापालानपि पालयतश्चिरम् । काले कस्मिंश्चिदुत्पन्नबोधे दीक्षोद्यमो भवेत् ॥२६६॥ पृथिवी आदि देवताओंके अंशोंसे अर्थात् उनके वैक्रियिक शरीरोंसे हैं,जो उन देवताओंको समाधानपूर्वक निरन्तर प्रजाके उपकार करने में लगा रहे हैं और आदर सत्कार, दान तथा विश्वास आदि से जो मंत्री आदि प्रमुख कार्यकर्ताओंको आनन्दित कर रहे हैं ऐसे वे महाराज नमस्कार करते हुए राजाओंको इस प्रकार शिक्षा देते हैं कि तुम लोग न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करो, यदि अन्यायमें प्रवृत्ति रक्खोगे तो अवश्य ही तुम्हारी वृत्तिका लोप हो जावेगा ॥२५४-२५८।। न्याय दो प्रकारका है-एक दुष्टोंका निग्रह करना और दूसरा शिष्ट पुरुषोंका पालन करना । यहक्षत्रियोंका सनातन धर्म है। राजाओंको इसकी रक्षा अच्छी तरह करनी चाहिये ॥२५९॥ ये दिव्य अस्त्रोंके अधिष्ठाता देव भी विधिपूर्वक आराधना करने योग्य हैं क्योंकि इनके प्रसन्न होनेपर युद्धमें विजय अवश्य ही होती है ।।२६०॥ इस राजवृत्तिका अच्छी तरह पालन करते हुए आप लोग आलस्य छोड़कर प्रजाके साथ न्याय-मार्गसे बर्ताव करो ॥२६१।। जो राजा इस धर्मका पालन करता है वह धर्मविजयी होता है क्योंकि जिसने अपना आत्मा जीत लिया है तथा न्यायपूर्वक जिसकी आजीविका है ऐसा क्षत्रिय ही पृथिवीको जीत सकता है ॥२६२।। इस प्रकार न्यायपूर्वक बर्ताव करने से इस संसारमें यशका लाभ होता है, महान् वैभवके साथ साथ पृथिवीकी प्राप्ति होती है, और परलोकमें अभ्युदय अर्थात् स्वर्गकी प्राप्ति होती है और अनुक्रमसे वह तीनों लोकोंको जीत लेता है अर्थात् मोक्ष अवस्था प्राप्त कर लेता है ।।२६३।। इस प्रकार वे महाराज प्रजापालनकी रीतियोंके विषयमें उन राजाओंको बार-बार शिक्षा देते हैं तथा योग और क्षेमका बार बार चिन्तवन करते हुए उनका स्वयं पालन करते हैं ॥२६४॥ इस प्रकार यह उनकी धर्मसहित सामाज्य नामकी वह क्रिया है जिसके कि पालन करनेसे यह जीव इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें समृद्धिको प्राप्त होता है ॥२६५॥ यह सैंतालीसवीं सामाज्य क्रिया है । ___ इस प्रकार बहुत दिन तक प्रजा और राजाओंका पालन करते हुए उन महाराजके किसी समय भेदविज्ञान उत्पन्न होनेपर दीक्षा ग्रहण करनेके लिये उद्यम होने १पृथिव्यादिदेवतांशान् । २ स्नेहैः विश्वासैर्वा । ३ प्रवृत्तिश्चेत् प०, ल०, द०। ४ निजनिजराज्यलोपो भवति । ५ नियमेन भवति । ६ एवं सति । ७ शिक्षां कृत्वा । ८ पालयत्येतान् ल०, १०, द०। ६ सामाज्यनामक्रियान्तरेण । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ महापुराणम् far निष्क्रान्तिरस्येष्टा क्रिया राज्याद् विरज्यतः । लौकान्तिकामरैर्भूयो बोधितस्य समागतैः ॥ २६७॥ कृतराज्यार्पणो ज्येष्ठे सूनौ' पार्थिवसाक्षिकम् । सन्तानपालने चास्य करोतीत्यनुशासनम् ॥२६८ ॥ त्वया न्यायधनेनाङ्ग भवितव्यं प्रजाधूतौ । प्रजा कामदुघा धेनुः मता न्यायेन योजिता ॥ २६६ ॥ राजवृत्तमिदं विद्धि यन्न्यायेन धनार्जनम् । वर्धनं रक्षणं चास्य' 'तीर्थे च प्रतिपादनम् ॥२७०॥ प्रजानां पालनार्थ च मतं मत्यनुपालनम् । मतिर्हिताहितज्ञानम् श्रात्रिकामुत्रिकार्थयोः ॥ २७१ ॥ ततः कृतेन्द्रियजयो वृद्धसंयोगसम्पदा । धर्मार्थ' शास्त्रविज्ञानात् प्रज्ञां संस्कर्तुमर्हसि ॥ २७२ ॥ श्रन्यथा विमतिर्भूपो युक्तायुक्तानभिज्ञकः । श्रन्यथाऽन्यैः प्रणेयः' स्यान्मिथ्याज्ञान लवोद्धितैः ॥ २७३॥ कुलानुपालने चायं महान्तं यत्नमाचरेत् । अज्ञातकुलधर्मो हि दुर्व् तदूषयेत् कुलम् ॥२७४॥ तथायमात्मरक्षायां सदा यत्नपरो भवेत् । रक्षितं हि भवेत् सर्वं नृपेणात्मनि रक्षिते ॥ २७५॥ श्रपायो हि सपत्नेभ्यो नृपस्यारक्षितात्मनः । आत्मानुजीविवग्र्गाच्च क्रुद्धलुब्धविमानितात् ॥२७६॥ "तस्माद् रसदतीक्ष्णादीन् श्रपायानरियोजितान् । परिहृत्य निर्जरिष्टः स्वं प्रयत्नेन पालयेत् ॥ २७७॥ स्यात् समञ्जसवृत्तित्वमप्यस्यात्माभिरक्षणे । श्रसमञ्जसवृत्तौ हि निजैरप्यभिभूयते ॥ २७८ ॥ लगता है ॥२६६ ॥ जो राज्यसे विरक्त हो रहे हैं और आये हुए लौकान्तिक देव जिन्हें बार बार प्रबोधित कर रहे हैं ऐसे उन भगवान् की यह निष्क्रान्ति नामकी क्रिया कही जाती है ॥ २६७॥ वे समस्त राजाओं की साक्षीपूर्वक अपने बड़े पुत्रके लिये राज्य सौंप देते हैं और संतान- पालन करने के लिये उसे इस प्रकार शिक्षा देते हैं ॥ २६८ ॥ हे पुत्र, तुझे प्रजाके पालन करने में न्यायरूप धनसे मुक्त होना चाहिये अर्थात् तू न्यायको ही धन समझ, क्योंकि न्यायपूर्वक पालन की हुई प्रजा मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली कामधेनु गायके समान मानी गई है || २६९ || हे पुत्र, तू इसे ही राजवृत्त अर्थात् राजाओंका कर्तव्य समझ कि न्यायपूर्वक धन कमाना, उसकी वृद्धि करना, रक्षा करना तथा तीर्थस्थान अथवा योग्य पात्रोंका देना ॥ २७० ॥ प्रजाका पालन करनेके लिये सबसे अपनी बुद्धिकी रक्षा करनी चाहिये, इस लोक और परलोक दोनों लोकसम्बन्धी पदार्थों के विषय में हित तथा अहितका ज्ञान होना ही मति कहलाती है || २७१ ॥ इसलिये वृद्ध मनुष्योंकी संगति रूपी सम्पदासे इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर तुम धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के ज्ञानसे अपनी बुद्धिको सुसंस्कृत बनाने के योग्य हो अर्थात् बुद्धिके अच्छे संस्कार बनाओ ।। २७२ ।। यदि राजा इससे विपरीत प्रवृत्ति करेगा तो वह हित तथा अहितका जानकार न होने से बुद्धिभूष्ट हो जावेगा और ऐसी दशा में वह मिथ्याज्ञानके अंश मात्रसे उद्धत हुए अन्य कुमार्गगामियोंके वश हो जावेगा ॥ २७३॥ राजाओं को अपने कुलकी मर्यादा पालन करने के लिये बहुत भारी प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि जिसे अपनी कुलमर्यादाका ज्ञान नहीं है वह अपने दुराचारोंसे कुलको दूषित कर सकता है || २७४ || इसके सिवाय राजाको अपनी रक्षा करने में भी सदा यत्न करते रहना चाहिये क्योंकि अपने आपके सुरक्षित रहनेपर ही अन्य सब कुछ सुरक्षित रह सकता है || २७५ ॥ जिसने अपने आपकी रक्षा नहीं की है ऐसे राजाका शत्रुओंसे तथा क्रोधी, लोभी और अपमानित हुए अपने ही सेवकोंसे विनाश हो जाता है ॥२७६॥ इसलिये शत्रुओंके द्वारा किये हुए प्रारम्भ में सरल किन्तु फलकालमें कठिन अपायोंका परिहार कर अपने इष्ट वर्गोंके द्वारा प्रयत्नपूर्वक अपनी रक्षा करनी चाहिये || २७७ || इसके सिवाय १ प्रजापती निमित्तम् । २ धनस्य । ३ पात्रे | ६ नीतिशास्त्र | ७ भूयो इ०, प०, स० । ८ वश्यः । ११ तस्मात् कारणात् । १२ रसतामास्वादं कुर्वतामकटुकादीन् रसनकाले अनुभवनकाले स्वादुरसप्रदान् विपाककाले कटुकानित्यर्थः । १३ आत्मरक्षानिमित्तम् । - त्मादिरक्षणे अ०, प०, द० । ४ निजबुद्धिरक्षणम् । ५ ततः कारणात् । दायादेभ्यः शत्रुभ्यो वा । १० तिरस्कृतात् । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व २६५ समञ्जसत्वमस्येष्टं प्रजास्वविषमेक्षिता' । 'पानशंस्यमवाग्दण्डपारुष्यादिविशेषितम् ॥२७६।। ततो जितारिषड्वर्गः स्वां वृत्ति पालयन्निमाम् । स्वराज्य सुस्थितो राजा प्रेत्य चेह च नन्दति ॥२८०॥ समं समञ्जसत्वेन कुलमत्यात्मपालनम् । प्रजानुपालनं चेति प्रोक्ता वृत्तिर्महीक्षिताम् ॥२८॥ "ततः क्षात्रमिमं धर्म यथोक्तमनुपालयन् । स्थितो राज्य यशोधर्म विजयं च "त्वमाप्नुहि ॥२८२॥ प्रशान्तधीः समुत्पन्नबोधिरित्यनुशिष्य तम् । परिनिष्क्रान्तिकल्याण सुरेन्द्ररभिपूजितः ॥२८३॥ महादानमयो दत्वा सामाज्यपदमुत्सृजन् । स राजराजो राजर्षिनिष्कामति गृहाद् वनम् ॥२८४॥ धौरेयः पाथि वैः किञ्चित् समुत्क्षिप्तां महीतलात् । स्कन्धाधिरोपितां भयः सुरेन्द्रर्भक्तिनिर्भरैः ॥२८॥ प्रारूढः शिबिकां दिव्यां दीप्तरत्नविनिमिताम। विमानवसति भानोरिवाऽऽयातां महीतलम् ॥२८६॥ पुरस्सरषु निःशेषनिरुद्धव्योमवोथिषु । सुरासरेष तन्वत्स संदिग्धार्कप्रभ नभः ॥२८७॥ 'अनस्थितेष सम्प्रीत्या पार्थिवष ससंभमम् । कमारमग्रतः कृत्वा प्राप्तराज्यं नवोदयम् ॥२८॥ अनुयायिनि तत्यागादिव मन्दीभवद्युतौ । निधीनां सह रत्नानां सन्दोहेऽभ्यर्णसंक्षये ॥२८॥ राजाको अपनी तथा प्रजाकी रक्षा करने में समंजसवृत्ति अर्थात् पक्षपातरहित होना चाहिये क्योंकि जो राजा असमंजसवृत्ति होता है, वह अपने ही लोगोंके द्वारा अपमानित होने लगता है ॥२७८॥ समस्त प्रजाको समान रूपसे देखना अर्थात किसीके साथ पक्षपात नहीं करना हा राजाका समजसत्व गुण कहलाता है। उस समजसत्व गुणम क्रूरता या घातकपना नहीं होना चाहिये और न कठोर वचन तथा दण्डकी कठिनता ही होनी चाहिये ।।२७९।। इस प्रकार जो राजा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अन्तरङ्ग शत्रुओंको जीतकर अपनी इस वृत्तिका पालन करता हुआ स्वकीय राज्यमें स्थिर रहता है वह इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें समृद्धिवान् होता है ।।२८०॥ पक्षपातरहित होकर सबको एक समान देखना, कुलकी मर्यादाकी रक्षा करना, बद्धिकी रक्षा करना, अपनी रक्षा करना और प्रजाका पालन करना यह सब राजाओंकी वृत्ति कहलाती है ॥२८१।। इसलिये हे पुत्र, ऊपर कहे हुए इस क्षात्रधर्मकी रक्षा करता हुआ तू राज्यमें स्थिर रहकर अपना यश, धर्म और विजय प्राप्त कर ।।२८२।। जिनकी बुद्धि अत्यन्त शान्त है और जिन्हें भेदविज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे वे भगवान् ऊपर लिखे अनुसार पुत्रको शिक्षा देकर दीक्षाकल्याणके लिये इन्द्रोंके द्वारा पूजित होते हैं ॥२८३॥ अथानन्तर महादान देकर सामाज्यपदको छोड़ते हुए वे राजाधिराज राजर्षि घरसे वनके लिये निकलते हैं ॥२८४॥ प्रथम ही मुख्य मुख्य राजा लोग जिसे पृथिवीतलसे उठाकर कंधेपर रखकर कुछ दूर ले जाते हैं और फिर भक्तिसे भरे हुए देव लोग जिसे अपने कंधोंपर रखते हैं, जो देदीप्यमान रत्नोंसे बनी हुई है और जो पृथिवीतलपर आये हुए सूर्यके विमानके समान जान पड़ती है ऐसी दिव्य पालकीपर वे भगवान् सवार होते हैं ।।२८५-२८६॥ जिस समय समस्त आकाश-मार्गको रोकते हुए और अपनी कान्तिसे आकाशमें सूर्य की प्रभाका संदेह फैलाते हुए सुर और असुर आगे चलते हैं, जिसे राज्य प्राप्त हुआ है और जिसका नवीन उदय प्रकट हुआ है ऐसे कुमारको आगे कर बड़े प्रेम और संभमके साथ जब समस्त राजा लोग भगवान्के समीप खड़े होते हैं, जिनका भगवान्के समीप रहना छूट चुका है और भगवान्के छोड़ देनेसे ही मानो जिनकी कान्ति मन्द पड़ गई है ऐसे निधि और रत्नोंका समूह जब उनके पीछे पीछे आता है, जिसने वायुके वेगसे उड़ती हुई ध्वजाओंके समूहस आकाशको व्याप्त १ समदर्शित्वम्। २ अनुशंसस्य भावः। अघातुकत्वमित्यर्थः । ३ भवान्तरे। ४ ततः कारणात् । ५ स्वमाप्नुहि प०, इ०। ६ पुत्रम् । ७ दीक्षावनम् । ८ अन्तःस्थितेषु ल० । ३४ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ महापुराणम् सैन्ये च कृतसन्नाहे शनैः समनुगच्छति । मरुद्धृतध्वजवातनिरुद्धपवनाध्वनि ॥२६॥ ध्वनत्सु सु रतूर्येषु नृत्यत्यम्सरसा गणे। गायन्तीषु कलक्वाणं किन्नरीषु च मङगलम् ॥२६॥ भगवानभिनिष्क्रान्तः पुण्य' कस्मिंश्चिदाश्रमे । स्थितः शिलातले स्वस्मिश्चेतसीवातिविस्तुते ॥२६२॥ निर्वाणदीक्षयात्मानं योजयन्नद्धतोदयः । सुराधिपः कृतानन्दचितः परयेज्यया ॥२६३॥ योऽत्र शेषो प्रविधियुक्तः केशपूजादिलक्षणः। प्रागेव स तु निर्णीतो निष्क्रान्तौ वृषभेशिनः ॥२६४॥ इति निष्क्रान्तिः । (परिनिष्क्रान्तिरेषा स्यात् क्रिया निर्वाणदायिनी । अतः परं भवेदस्य मुमुक्षोर्योगसम्महः ॥२६॥ यदायं त्यक्तबाह्यान्तस्सङगो "निःसङगमाचरेत् । "सदुश्चरं तपोयोगं जिनकल्पमनुत्तरम् ॥२६६।। तदाऽस्य क्षपकश्रेणीम् आरुढस्योचिते पदे । शुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धघातिकर्मघनाटवेः ॥२६॥ प्रादुर्भवति निःशेषबहिरन्तर्मलक्षयात् । केवलाख्यं परं ज्योतिर्लोकालोकप्रकाशकम् ॥२६८॥.. तदेतत्सिद्धसाध्यस्य प्रापुषः परमं महः। योगसम्मह इत्याख्याम् अनुधत्ते क्रियान्तरम् ॥२६६) ज्ञानध्यानसमायोगो योगो यस्तत्कृतो महः । महिमातिशयः सोऽयम् प्राम्नातो योगसम्महः ॥३०॥ इति योगसम्महः । ततोऽस्य केवलोत्पत्तौ पूजितस्यामरेश्वरैः। बहिविभूतिरुद्भूता प्रातिहार्यादिलक्षणा ॥३०१॥ कर लिया है ऐसी सेना अपनी विशेष रचना बनाकर जिस समय धीरे धीरे उनके पीछे चलने लगती है तथा जिस समय देवोंके तुरही आदि बाजे बजते हैं, अप्सराओंका समूह नृत्य करता है और किन्नरी देवियां मनोहर शब्दोंसे मंगलगीत गाती हैं, उस समय वे भगवान् किसी पवित्र आश्रममें अपने चित्तके समान विस्तृत शिलातलपर विराजमान होकर दीक्षा लेते हैं। इस प्रकार जिनका उदय आश्चर्य करनेवाला है और जो निर्वाणदीक्षाके द्वारा अपने आपको युक्त कर रहे हैं ऐसे भगवान्की इन्द्र लोग उत्कृष्ट सामग्रीके द्वारा आनन्दके साथ पूजा करते हैं ॥२८७-२९३॥ इस क्रियामें केश लोंच करना, भगवान की पूजा करना आदि जो भी कार्य अवशिष्ट रह गया है उस सबका भगवान् वृषभदेवकी दीक्षाके समय वर्णन किया जा चुका है।।२९४।। इस प्रकार यह अड़तालीसवीं निष्क्रान्ति क्रिया है ।। यह निर्वाणको देनेवाली परिनिष्क्रान्ति नाम की क्रिया है । अब इसके आगे मोक्षकी इच्छा करनेवाले उन भगवान्के योगसंमह नामकी क्रिया होती है ॥२९५।। जब वे भगवान् बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहको छोड़कर निष्परिग्रह अवस्थाको प्राप्त होते हैं और अत्यन्त कठिन तथा सर्वश्रेष्ठ जिनकल्प नामके तपोयोगको धारण करते हैं तब क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ हुए और योग्य पद अर्थात गुणस्थानमें जाकर शुक्लध्यानरूपी अग्निसे घातियाकर्मरूपी सघन वनको जला देनेवाले उन भगवान्के समस्त बाह्य और अन्तरङ्ग मलके नष्ट हो जानेसे लोक तथा अलोकको प्रकाशित करनेवाली केवलज्ञान नामकी उत्कृष्ट ज्योति प्रकट होती है ॥२९६२९८॥ इस प्रकार जिनके समस्त कार्य सिद्ध हो चुके हैं और जिन्हें उत्कृष्ट तेज प्राप्त हुआ है नके यह एक भिन्न क्रिया होती है जो कि 'योगसम्मह' इस नामको धारण करती है ॥२९९॥ ज्ञान और ध्यानके संयोगको योग कहते हैं और उस योगसे जो अतिशय तेज उत्पन्न होता है वह योगसम्मह कहलाता है ।।३००। यह योगसम्मह नामकी उनंचासवी क्रिया है । तदनन्तर केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर इन्द्रोंने जिनकी पूजा की है ऐसे उन भगवान्के ५ मुदुर्धरं १ पवित्रे। २ प्रदेशे। ३ विधिर्मुक्त-द०, ल०। ४ नैःसङग्य-द०, ल०,प० । प०,ल०, द०। ६ गुणस्थाने । ७ गतवतः । प्राप्तुषः द० । प्रायुषः ल० । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टत्रिंशत्तम पर्व २६७ प्रातिहार्याष्टकं दिव्यं गणो द्वादशधोदितः। स्तूपहावली सालवलयः केतुमालिका ॥३०२॥ इत्यादिकामिमां भूतिम् अद्भुतामुपबिभतः । स्यादाहन्त्यमिति ख्यातं क्रियान्तरमनन्तरम् ॥३०३॥ इति आर्हन्त्यक्रिया। विहारस्तु प्रतीतार्थो धर्मचक्रपुरस्सरः। प्रपञ्चितश्च प्रागेव ततो न पुनरुच्यते ॥३०४॥ इति विहारक्रिया। ततः परार्थसम्पत्त्यै 'धर्ममार्गोपदेशने । कृततीर्थविहारस्य योगत्यागः परा क्रिया ॥३०॥ विहारस्योपसंहारः संहृतिश्च सभावनेः । वृत्तिश्च योगरोधार्था योगत्यागः स उच्यते ॥३०६॥ यच्च दण्डकपाटादिप्रतीतार्थ क्रियान्तरम् । तदन्तर्भूतमेवादस्ततो न पृथगुच्यते ॥३०७॥ इति योगत्यागक्रिया । ततो निरुद्धनिःशेषयोगस्यास्य जिनेशिनः। प्राप्तशैलेश्यवस्थस्य' प्रक्षीणा घातिकर्मणः ॥३०॥ क्रियाग्रनिर्व तिर्नाम परनिर्वाणमापुषः । स्वभावनितामूवं व्रज्यामास्कन्दतों मता ॥३०६॥ इति अग्रनिर्वृतिः। इति निर्वाणपर्यन्ताः क्रिया गर्भादिकाः सदा । भव्यात्मभिरनुष्ठयाः त्रिपञ्चाशत्समुच्चयात् ॥३१०॥ यथोक्तविधिनैताः स्युः अनुष्ठेया द्विजन्मभिः। योऽप्यत्रान्तर्गतों भेदस्तं वच्म्युत्तरपर्वणि ॥३१॥ प्रातिहार्य आदि बाहय विभूति प्रकट होती है ॥३०१॥ इस प्रकार आठ प्रातिहार्य, बारह दिव्य सभा, स्तूप, मकानोंकी पंक्तियां, कोटका घेरा और पताकाओंकी पंक्ति इत्यादि अद्भुत विभूतिको धारण करनेवाले उन भगवान के आर्हन्त्य नामकी एक भिन्न क्रिया कही गई है ॥३०२-३०३।। यह आर्हन्त्य नामकी पचासवी क्रिया है। __धर्मचक्रको आगे कर जो भगवान्का विहार होता है वह विहार नामकी क्रिया है। यह क्रिया अत्यन्त प्रसिद्ध है और पहले ही इसका विस्तारके साथ निरूपण किया जा चुका है इसलिये फिरसे यहां नहीं कहते हैं ॥३०४॥ यह इक्यावनवीं विहारक्रिया है। तदनन्तर धर्ममार्गके उपदेशके द्वारा परोपकार करनेके लिये जिन्होंने तीर्थ विहार किया है ऐसे भगवान्के योगत्याग नामकी उत्कृष्ट क्रिया होती है ॥३०५॥ जिसम विहार करना समाप्त हो जावे, सभाभूमि (समवसरण) विघट जावे, और योगनिरोध करनेके लिये अपनी वृत्ति करनी पड़े उसे योगत्याग कहते हैं ॥३०६॥ दण्ड, कपाट आदि रूपसे प्रसिद्ध जो केवलिसमुद्घात नामकी क्रिया है वह इसी योगत्याग क्रिया में अन्तर्भूत हो जाती है इसलिये अलगसे उसका वर्णन नहीं किया है ॥३०७॥ यह बावनवीं योगत्याग नामकी क्रिया है। ___ तदनन्तर जिनके समस्त योगोंका निरोध हो चुका है, जो जिनोंके स्वामी हैं, जिन्हें शीलके ईश्वरपनेकी अवस्था प्राप्त हुई है, जिनके अघातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं जो स्वभावसे उत्पन्न हुई ऊर्ध्वगतिको प्राप्त हुए हैं और जो उत्कृष्ट मोक्षस्थानपर पहुंच गये हैं ऐसे भगवान के अग्रनिर्वति नामकी क्रिया मानी गई है ॥३०८-३०९॥ यह तिरेपनवीं अग्रनिर्वृति नामकी क्रिया है। इस प्रकार गर्भसे लेकर निर्वाण पर्यन्त जो सब मिलाकर तिरेपन क्रियाएं हैं भव्य पुरुषोंको सदा उनका पालन करना चाहिये ॥३१०॥ द्विज लोगोंको ऊपर कही हुई विधिके अनुसार इन क्रियाओंका पालन करना चाहिये । इन क्रियाओंके जो भी अन्तर्गत भेद १ धुतमार्गोप-प० । २ यत्र दण्ड-प०, ल० । ३ योगत्यागानन्तर्भतम् । ४ शैलेशितावस्थस्य। ५-मायुषः अ०, इ०, १०, स०, द०। ६ ऊर्ध्वगमनम् । ७ गच्छतः । ८ समुच्चयाः ल०। ६ त्रिपञ्चाशक्रियासु। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ महापुराणम् शार्दूलविक्रीडितम् इत्युच्चैर्भरताधिपः स्वसमय संस्थापयन् तान् द्विजान् सम्प्रोवाच कृती सतां बहुमता गर्भान्वयोत्थाः क्रियाः। गर्भाद्याः परिनिर्व तिप्रगमनप्रान्तास्त्रिपञ्चाशतं प्रारभेऽथ पुनः प्रवक्तुमुचिता दीक्षान्वयाख्याः क्रियाः ॥३१२॥ यस्त्वताः द्विजसत्तमैरभिमता गर्भादिकाः सत्क्रियाः श्रुत्वा सम्यगधीत्यभावितमतिजैनेश्वर दर्शने । सामग्रीमुचितां स्वतश्च परतः सम्पादयन्नाचरेद् __ भव्यात्मा स समग्रधोस्त्रिजगति चूडामणित्वं भजेत् ॥३१३॥ इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे द्विजोत्पत्तौ गर्भान्वयक्रियावर्णनं नाम अष्टत्रिंशत्तमं पर्व । हैं उनका आगेके पर्वमें निरूपण करेंगे ॥३११॥ इस प्रकार पुण्यवान भरत महाराजने उन द्विजोंको अपने धर्ममें स्थापित करते हुए गर्भसे लेकर निर्वाणगमन पर्यन्तकी तिरेपन गर्भान्वय क्रियाएं कहीं और उनके बाद कहने योग्य जो दीक्षान्वय क्रियाएं थीं उनका कहना प्रारम्भ किया ॥३१२॥ उत्तम उत्तम द्विजोंको माननीय इन गर्भाधानादि समीचीन क्रियाओंको सुनकर तथा अच्छी तरह पढ़कर जो जिनेन्द्र भगवान्के दर्शनमें अपनी बुद्धि लगाता है और योग्य सामग्री प्राप्त कर दूसरोंसे आचरण कराता हुआ स्वयं भी इनका आचरण करता है वह भव्य पुरुष पूर्ण ज्ञानी होकर तीनों लोकोंक चूडामणिपनको प्राप्त होता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर तीनों लोकोंके अग्रभागपर विराजमान होता है ॥३१३॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें द्विजोंकी उत्पत्ति तथा गर्भान्वय क्रियाओंका वर्णन करनेवाला अड़तीसवां पर्व समाप्त हुआ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व अथाब्रवीद् द्विजन्मभ्यो 'मनुर्वीक्षान्वयक्रियाः । यास्ता निःश्रेयसोदर्काश्चत्वारिंशदथाष्ट च ॥ श्रूयतां भो द्विजन्मानो वक्ष्य नैःश्रेयसी: क्रियाः। अवतारादिनिर्वाणपर्यन्ता वीक्षितोचिताः ॥२॥ व्रता विष्करणं दीक्षा द्विधाम्नातं च तद्वतम् । महच्चाणु च दोषाणां कृत्स्नदेशनिवृत्तितः ॥३॥ महाव्रतं भवेत् कृत्स्नहिंसाद्यागोविजितम् । विरतिः स्थूलहिंसादिदोषेभ्योऽणुव्रतं मतम् ॥४॥ तदुन्मुखस्य' या वृत्तिः पुंसो दीक्षेत्यसो मता। तामन्विता क्रिया या तु सा स्याद् दीक्षान्वया क्रिया ॥१॥ तस्यास्तु भेदसडाख्यानं प्राग्निर्णीतं षडष्टकम् । क्रियते तद्विकल्पानाम् अधुना लक्ष्मवर्णनम् ॥६॥ तत्रावतारसंज्ञा स्याद् प्राद्या दीक्षान्वयक्रिया। मिथ्यात्वदूषिते भव्य सन्मार्गग्रहणोन्मुखे ॥७॥ . स तु संसृत्य योगीन्द्रं युक्ताचारं महाधियम् । गृहस्थाचार्यमथवा पृच्छतीति विचक्षणः ॥८॥ वूत यूयं महाप्रज्ञा मह्यं धर्ममनाविलम्" । प्रायो मतानि तीर्थ्यानां हेयानि प्रतिभान्ति मेला १३ौतान्यपि हि वाक्यानि सम्मतानि क्रियाविधौ । न विचारसहिष्णूनि "दुःप्रणीतानि तान्यपि१५ ॥१०॥ अथानन्तर-सोलहवें मनु महाराज भरत उन द्विजोंके लिये मोक्ष फल देनेवाली अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएं कहने लगे ॥१॥ वे बोले कि हे द्विजो, मैं अवतारसे लेकर निर्वाण पर्यन्तकी मोक्ष देनेवाली दीक्षान्वय क्रियाओंको कहता है सो तुम लोग सुनो ॥२॥ व्रतोंका धारण करना दीक्षा है और वे व्रत हिंसादि दोषोंके पूर्ण तथा एकदेश त्याग करनेकी अपेक्षा महाव्रत और अणुव्रतके भेदसे दो प्रकारके माने गये हैं ।।३।। सूक्ष्म अथवा स्थूलसभी प्रकारके हिंसादि पापोंका त्याग करना महावत कहलाता है और स्थूल हिंसादि दोषोंसे निवत्त होनेको अणव्रत कहते हैं ॥४॥ उन व्रतोंके ग्रहण करने के लिये सन्मख पुरु प्रवृत्ति है उसे दीक्षा कहते हैं और उस दीक्षासे सम्बन्ध रखनेवाली जो क्रियाएं हैं वे दीक्षान्वय क्रियाएं कहलाती हैं ।।५।। उस दीक्षान्वय क्रियाके भेद अड़तालीस हैं जिनका कि निर्णय पहले किया जा चुका है। अब इस समय उन भेदोंके लक्षणोंका वर्णन किया जाता है ॥६।। उन दीक्षान्वय क्रियाओंमें पहली अवतार नामकी क्रिया है जब मिथ्यात्वसे दूषित हुआ कोई भव्य पुरुष समीचीन मार्गको ग्रहण करनेके सन्मुख होता है तब यह क्रिया की जाती है ॥७।। प्रथम ही वह चतुर भव्य पुरुष योग्य आचरणवाले महाबुद्धिमान् मुनिराजके समीप जाकर अथवा किसी गृहस्थाचार्य के समीप पहुंचकर उनसे इस प्रकार पूछता है कि ।।८॥ महाबुद्धिमन्, आप मेरे लिये निर्दोष धर्म कहिये क्योंकि मुझे अन्य लोगोंके मत प्रायः दुष्ट मालूम होते हैं ॥९॥ धार्मिक क्रियाओंके करने में जो वेदोंके वाक्य माने गये हैं वे भी विचारको सहन नहीं कर सकते अर्थात् विचार करनेपर वे निःसार जान पड़ते हैं, वास्तवमें वे वाक्य दुष्ट पुरुषोंके बनाये हुए १ भरतः । २ निःश्रेयसं मोक्ष उदर्कम् उत्तरफलं यासु ताः । ३ मोक्षहेतुन् । निःश्रेयसीः ल० । ४ व्रताधिकरणं प०, द०, ल०। ५ सकलनिवृत्त्येकदेशनिवृत्तितः। ६ तन्महारगव्रताभिमुखस्य । ७ दीक्षाम् । ८ अनुगता। ६षण्णामष्टकं षडष्टकम् अष्टोत्तरचत्वारिंशत् इत्यर्थः। १० महाप्राज्ञा ल०, द० । ११ निर्दोषम् । १२ हेयानि प्रतिभाति माम् इ०, स०, अ०। हतानि प्रतिभाति माम् ल०, द०। १३ वेदसम्बन्धीनि । 'श्रुतिः स्त्री वेद आम्नातः' इत्यभिधानात् । १४ दुष्ट: कथितानि । १५ प्रसिद्धान्यपि । तानि वै ल०। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् इति पृष्टवते तस्मं व्याचष्टे स' विदांवरः । तथ्यं मुक्तिपथं धर्मं विचारपरिनिष्ठितम् ॥११॥ विद्धि सत्योद्यमाप्तीयं वचः श्रेयोऽनुशासनम् । श्रनाप्तोपज्ञमन्यत्तु वचो वाङ्मलमेव तत् ॥१२॥ विरागः सर्ववित् सार्वः सूक्तसूनृतपूतवाक् । प्राप्तः सन्मार्गदेशी यस्तदाभासास्ततोऽपरे ॥१३॥ रूपतेजोगुणस्थानध्यानलक्ष्म्यनुवतिभिः ' । 'काक्ष्यता विजयज्ञानदृष्टिवीर्यसुखामृतैः ॥१४॥ प्रकृष्टो यो गुणैरेभिः चक्रिकल्पा 'धिपादिषु । स प्राप्तः स च सर्वज्ञः स लोकपरमेश्वरः ॥ १५ ॥ ततः श्रेयोऽर्थिना श्रेयं मतमाप्तप्रणेतृकम् । श्रव्याहतमनालीढपूर्व' सर्वज्ञमानिभिः ॥ १६॥ 'हेत्वाज्ञायुक्तमद्वैतं दीप्तं गम्भीरशासनम् । श्रल्पाक्षरमसन्दिग्धं वाक्यं स्वायम्भुवं विदुः ॥ १७॥ इतश्च तत्प्रमाणं स्यात् श्रुतमन्त्रक्रियादयः । पदार्थाः सुस्थितास्तत्र यतो नान्यमतोचिता ॥ १८ ॥ यथाक्रममतो ब्रूमः तान्पदार्थान् " प्रपञ्चतः । यैः सनिः कृष्यमाणाः " स्युः दुःस्थिताः परसूक्तयः ॥१६॥ वेदः पुराणं स्मृतयः चारित्रं च क्रियाविधिः । मन्त्राश्च देवतालिङगम् श्राहाराद्याश्च शुद्धयः ॥२०॥ "एते" यत्र तत्त्वेन प्रणीताः परमर्षिणा । स धर्मः स च सन्मार्गः तदाभासाः स्युरन्यथा ॥२१॥ २७० हैं ||१०|| इस प्रकार पूछनेवाले उस भव्य पुरुष के लिये महाज्ञानी मुनिराज अथवा गृहस्थाचार्य सत्य, विचारसे परिपूर्ण तथा मोक्षके मार्गस्वरूप धर्मका व्याख्यान करते हैं ॥। ११॥ वे कहते हैं - हे भव्य, मोक्षका उपदेश देनेवाले आप्तके वचनको ही तू सत्य वचन मान और इसके विपरीत जो वचन आप्तका कहा हुआ नहीं है उसे केवल वाणीका मल ही समझ ॥ १२॥ जो वीतराग है, सर्वज्ञ है, सबका कल्याण करनेवाला है, जिसके वचन समीचीन, सत्य और पवित्र हैं, तथा जो उत्कृष्ट - मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाला है वह आप्त कहलाता है, इनसे भिन्न सभी आप्ताभास हैं अर्थात् आप्त न होनेपर भी आप्तके समान मालूम होते हैं ॥ १३॥ जो रूप, तेज, गुणस्थान, ध्यान, लक्षण, ऋद्धि, दान, सुन्दरता, विजय, ज्ञान, दृष्टि, वीर्य और सुखामृत इन गुणोंसे चक्रवर्ती तथा इन्द्रादिकोंसे भी उत्कृष्ट है वही आप्त है, सर्वज्ञ है और समस्त लोकोंका परमेश्वर है ।। १४-१५ ।। इसलिये जो आप्तका कहा हुआ है, जिसका कोई खण्डन नहीं कर सकता और अपने आपको सर्वज्ञ माननेवाले पुरुष जिसका स्पर्श भी नहीं कर सके हैं ऐसा जैन मत है । कल्याणकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंके लिये कल्याणकारण है ।। १६ ।। जो युक्ति तथा आगमसे युक्त है, अनुपम है, देदीप्यमान है, जिसका शासन गंभीर है, जो अल्पाक्षर वाला है और जिसके पढ़ने से किसी प्रकारका संदेह नहीं होता ऐसा वाक्य ही अरहन्त भगवान् का कहा हुआ कहलाता है ||१७|| चूंकि अरहन्तदेव के मत में अन्य मतोंमें नहीं पाये जानेवाले शास्त्र, मंत्र तथा क्रिया आदि पदार्थोंका अच्छी तरह निरूपण किया गया है इसलिये वह प्रमाणभूत है || १८ || हे वत्स, यथाक्रम से विस्तार के साथ अपदार्थों का निरूपण करता हूं क्योंकि उन पदार्थों के समीप आनेपर अन्य मतोंके वचन दुष्ट जान पड़ते हैं ||१९|| जिसमें वेद, पुराण, स्मृति, चारित्र, क्रियाओंकी विधि, मन्त्र, देवता, लिङ्ग और आहार आदिकी शुद्धि इन पदार्थों का यथार्थ रीतिसे परमर्षियोंने निरूपण किया है वही धर्म है और वही समीचीन मार्ग है । इसके १ योगीन्द्रः । २ सत्यवचनम् । ३ एवंविधलक्षरणादन्ये । ४ लक्ष्मद्धिदत्तिभिः अ०, प०, ५०, ७ ततः स०, इ०, ल० । ५. कान्तता अ०, प०, इ०, स०, द०, ल० । आदरणीयता | कारणात् । पूर्वस्मिन्ननालीढमस्पृष्टम् । ६ युक्त्यागमपरमागमाभ्यां कलितः । ११ आप्तवचनतः । १२ मतम् । १३ मते । १४ विस्तरतः । १५ पदार्थैः । क्रियमाणाः । समीपं गम्यमाना बा । १७ कुतीर्ध्यसूचकाः । १८ पदार्थाः । ६ इन्द्र १० अद्वितीयम् । १६ निघर्षणं ८ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व २७१ श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाडगमकल्मषम् । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तवाक् ॥२२॥ पुराणं धर्मशास्त्रं च 'तत्स्याद् वधनिषेधि यत् । वधोपदेशि यत्तत्तु ज्ञेयं धूर्तप्रणेतकम् ॥२३॥) सावधविरतिवृत्तम् आर्यषट्कर्मलक्षणम् । 'चातुराश्रम्यवृत्तं तु परोक्तमसदञ्जसा ॥२४॥ क्रियागर्भादिका यास्ता निर्वाणान्ताः परोदिताः । प्रधानादिश्मशानान्ता न ताः सम्यक्रिया मताः ॥२५॥ मन्त्रास्त एव धाः स्युः ये क्रियास नियोजिताः । दुर्मन्त्रास्तेऽत्र विज्ञेया ये युक्ताः प्राणिमारणे ॥२६॥ विश्वेश्वरादयो ज्ञेया देवताः शान्तिहेतवः । रास्तु देवता हेया यासां स्याद् वृत्तिरामिषैः ॥२७॥ निर्वाणसाधनं यत् स्यात्तल्लिडगं जिनदेशितम् । "एणाजिनादिचिह्न तु कुलिङ्गं तद्धि वैकृतम् ॥२८॥ स्यान्निरामिषभोजित्वं शुद्धिराहारगोचरा । सर्वडकषास्तु' ते ज्ञेया ये स्युरामिषभोजिनः ॥२६॥ अहिंसाशुद्धिरेषां स्याद् ये निःसङगा दयालवः । रताः पशुवधे ये तु न ते शुद्धा दुराशयाः ॥३०॥ कामशुद्धिर्मता तेषां विकामा ये जितेन्द्रियाः । सन्तुष्टाश्च स्वदारेषु शेषाः सर्वे विडम्बकाः ॥३१॥ इति शुद्धं मतं यस्य विचारपरिनिष्ठितम् । स एवाप्तस्तदुन्नीतो० धर्मः श्रेयो हिताथिनाम ॥३२॥ सिवाय सब धर्माभास तथा मार्गाभास हैं ॥२०-२१॥ जिसके बारह अंग हैं, जो निर्दोष है और जिसमें श्रेष्ठ आचरणोंका विधान है ऐसा शास्त्र ही वेद कहलाता है, जो हिंसाका उपदेश देनेवाला वाक्य है वह वेद नहीं है उसे तो यमराजका वाक्य ही समझना चाहिये ॥२२।। पुराण और धर्मशास्त्र भी वही हो सकता है जो हिंसाका निषेध करनेवाला है। इस । इसके विपरीत जो पुराण अथवा धर्मशास्त्र हिंसाका उपदेश देते हैं उन्हें धूर्तोंका बनाया हुआ समझना चाहिये ॥२३॥ पापारम्भके कार्योंसे विरक्त होना चारित्र कहलाता है। वह चारित्र आर्य पुरुषोंके करने योग्य देवपूजा आदि छह कर्मरूप है। इसके सिवाय अन्य लोगोंने जो ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों का चारित्र निरूपण किया है वह वास्तवमें बुरा है ॥२४॥ क्रियाएं जो गर्भाधानसे लेकर निर्वाणपर्यन्त पहले कही जा चुकी हैं वे ही समझनी चाहिये, इनके सिवाय गर्भसे मरणपर्यन्त जो क्रियाएं अन्य लोगोंने कही हैं वे ठीक नहीं मानी जा सकतीं ॥२५॥ जो गर्भाधानादि क्रियाओं में उपयुक्त होते हैं वे ही मन्त्र धार्मिक मन्त्र कहलाते हैं किन्तु जो प्राणियोंकी हिंसा करने में प्रयुक्त होते हैं उन्हें यहां दुर्मन्त्र अर्थात खोटे मन्त्र समझना चाहिये ॥२६॥ शान्तिको करनेवाले तीर्थकर आदि ही देवता हैं। इनके सिवाय जिनकी मांससे वृत्ति है वे दुष्ट देवता छोड़ने योग्य हैं।।२७॥ जो साक्षात् मोक्षका कारण है ऐसा जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ निर्ग्रन्थपना ही सच्चा लिङग है। इसके सिवाय मृगचर्म आदिको चिह्न बनाना यह कुलिङगियोंका बनाया हुआ कुलिङग है ॥२८॥ मांसरहित भोजन करना आहार-विषयक शुद्धि कहलाती है। जो मांसभोजी हैं उन्हें सर्वघाती समझना चाहिये ॥२९॥ अहिंसा शुद्धि उनके होती है जो परिग्रहरहित हैं और दयालु हैं, परन्तु जो पशुओंकी हिंसा करने में तत्पर रहते हैं वे दुष्ट अभिप्रायवाले शुद्ध नहीं हैं ।।३०।। जो कामरहित जितेन्द्रिय मुनि हैं उन्हींके कामशुद्धि मानी जाती है अथवा जो गहस्थ अपनी स्त्रियों में संतोष रखते हैं उनके भी कामशद्धि मानी जाती है परन्तु इनके सिवाय जो अन्य लोग हैं वे केवल विडम्बना करनेवाले हैं।॥३१॥ इस प्रकार विचार करनेपर जिसका मत शुद्ध हो वही आप्त कहला सकता है और उसीके द्वारा कहा हुआ धर्म हित चाहनेवाले लोगोंको कल्याणकारी हो सकता है ॥३२॥ वह भव्य उन उत्तम उपदेशकसे इस प्रकारका उपदेश १ यमस्य वचनम् । २ धर्मशास्त्रम् । ३ इज्यावार्तादत्तिस्वाध्यायसंयमतपोरूप । ४ ब्रह्मचर्यादिचतुराश्रमे भव । ५ निश्चयेन। ६ पुरोदिताः द०, ल०, १०, प०, इ० । ७ कृष्णाजिन । ८ तद्विधैः कृतम् प०, ल०, द०। ६ सकलविनाशका इत्यर्थः। १० तत्प्रोक्तः । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भालोडितेन विधिना नियमिति " २७२ महापुराणम् श्रत्वेति देशनां तस्माद् भव्योऽसौ देशिकोत्तमात् । सन्मार्गे मतिमाधत्ते दुर्गिरतिमुत्सृजन् ॥३३॥ गुरुर्जनयिता' तत्त्वज्ञानं गर्भः सुसंस्कृतः । तदा तत्रावतीर्णोऽसौ भव्यात्मा धर्मजन्मना ॥३४॥ अवतारक्रियाऽस्यैषा गर्भाधानवदिष्यते । यतो जन्मपरिप्राप्तिः उभयत्र न विद्यते ॥३५॥ इत्यवतारक्रिया। ततोऽस्य वृत्तलाभः स्यात् तदेव गुरुपादयोः। प्रणतस्य व्रतवातं 'विधानेनोपसेदुषः ॥३६॥ इति वृत्तलाभः । ततः कृतोपवासस्य पूजाविधिपुरःसरः । स्थानलाभो भवेदस्य "तत्रायमुचितो विधिः ॥३७॥ जिनालये शुचौ रङगे पद्ममष्टदलं लिखेत् । विलिखेद् वा जिनास्थानमण्डलं समवृत्तकम् ॥३८॥ श्लक्षेण पिष्टचूर्णेन 'सलिलालोडितेन वा। वर्तन मण्डलस्यष्टं चन्द्रनादिद्रवेण वा ॥३६॥ तस्मिन्नष्टदले पद्मे जैने वाऽऽस्थानमण्डले। विधिना लिखिते तज्ज्ञविष्वग्विरचितार्चने ॥४०॥ जिना भिमुखं सूरिः विधिनैनं निवेशयेत् । तवोपासकदीक्षेयमिति मनि मुहुः स्पृशन् ॥४१॥ १०पञ्चमुष्टिविधानेन स्पृष्ट्वैनमधिमस्तकम् । पूतोऽसि दीक्षयेत्युक्त्वा सिद्धशेषा च लम्भयेत् ॥४२॥ ततः पञ्चनमस्कारपदान्यस्मा उपादिशेत् । मन्त्रोऽयमखिलात् १"पापात्त्वां पुनीता"दितीरयन् ॥४३॥ कृत्वाविधिमिमं पश्चात् पारणाय विसर्जयेत् । गुरोरनुग्रहात सोऽपि सम्प्रीतः स्वगृहं ब्रजेत् ॥४४॥ इति स्थानलाभः ।। सुनकर मिथ्यामार्गमें प्रेम छोड़ता हुआ समीचीन मार्गमें अपनी बुद्धि लगाता है ॥३३॥ उस समय गुरु ही उसका पिता है और तत्त्वज्ञान ही संस्कार किया हुआ गर्भ है। वह भव्य पुरुष धर्म रूप जन्मके द्वारा उस तत्त्वज्ञानरूपी गर्भमें अवतीर्ण होता है ॥३४॥ इसकी यह क्रिया गर्भाधानक्रियाके समान मानी जाती है क्योंकि जन्मकी प्राप्ति दोनों ही क्रियाओंमें नहीं है ॥३५।। इस प्रकार यह पहली अवतारक्रिया है ।। तदनन्तर-उसी समय गुरुके चरणकमलोंको नमस्कार करते हुए और विधिपूर्वक व्रतोंके समहको प्राप्त होते हए उस भव्यके वृत्तलाभ नामकी दूसरी क्रिया होती है ॥३६।। यह वृत्तलाभ नामकी दूसरी क्रिया है। । तत्पश्चात् जिसने उपवास किया है ऐसे उस भव्यके पूजाकी विधिपूर्वक स्थानलाभ नामकी तीसरी क्रिया होती है। इस क्रियामें यह विधि करना उचित है ॥३७॥ जिनालयमें किसी पवित्र स्थानपर आठ पांखुरीका कमल बनावे अथवा गोलाकार समवसरणके मंडलकी रचना करे ॥३८॥ इस कमल अथवा समवसरणके मण्डलकी रचना पानी मिले हुए महीन चूर्णसे अथवा घिसे हुए चन्दन आदिसे करनी चाहिये ॥३९।। उस विषयके जानकार विद्वानोंके द्वारा लिखे हुए उस अष्टदलकमल अथवा जिनेन्द्र भगवान्के मण्डलकी जब सम्पूर्ण पूजा हो चके तब आचार्य उस भव्य पुरुषको जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाके सन्मुख बैठावे और बार बार उसके मस्तकको स्पर्श करता हुआ कहे कि यह तेरी श्रावककी दीक्षा है ॥४०-४१॥ पञ्चमुष्टिकी रीतिसे उसके मस्तकका स्पर्श करे तथा 'तू इस दीक्षासे पवित्र हुआ' इस प्रकार कहकर उससे पूजाके बचे हुए शेषाक्षत ग्रहण करावे ॥४२॥ तत्पश्चात् 'यह मन्त्र तुझे समस्त पापोंसे पवित्र करे' इस प्रकार कहता हुआ उसे पञ्च नमस्कार मन्त्रका उपदेश करे ॥४३॥ यह विधि करके आचार्य उसे १ पिता । २ धर्म एव जन्म तेन । ३ यस्मात् कारणात् । ४ गर्भाधानावतारयोः । ५ व्रतविचरणशास्त्रोक्तविधिना । ६ उपगतस्य । ७ स्थानलाभे । ८ जलमिश्रितेन वा । ६ उद्धरणम् । १० पञ्चगुरुमुद्राविधानेन । ११ मूनि । १२ प्रापयेत् । १३ अस्मै उपदेशं कुर्यात् । १४ दुष्कृतात् अपसार्य। १५ पवित्र कुर्यात् । १६ ब्रुवन् । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व २७३ 'निर्दिष्टस्थानलाभस्य पुनरस्य गणग्रहः । स्यान्मिथ्यादेवताः स्वस्माद् विनिःसारयतो गृहात् ॥ ४५॥ "इयन्तं कालमज्ञानात् पूजिताः स्थ' कृतादरम् । पूज्यास्त्विदानीमस्माभिः श्रस्मत्समयदेवताः ॥४६॥ ततोऽपम्' षितेनालम् अन्यत्र स्वैरमास्यताम् । इति 'प्रकाशमेवैतान् नीत्वाऽन्यत्र क्वचित्त्यजेत् ॥४७॥ गणग्रहः स एष स्यात् प्राक्तनं देवताङगणम् । विसृज्यार्चयतः शान्ता देवताः 'समयोचिताः ॥ ४६ ॥ इति ग्रहणक्रिया । पूजाराध्याख्यया ख्याता क्रियाऽस्य स्यादतः परा । पूजोपवाससम्पत्त्या श्रृण्वतोऽङ्गार्थसङ्ग्रहम् ॥४६॥ इति पूजाराध्यक्रिया । ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुबन्धिनी । शृण्वतः पूर्व' विद्यानाम् श्रर्थं स ब्रह्मचारिणः ॥५०॥ इंति पुण्ययज्ञक्रिया । तथाऽस्य वुढचर्या स्यात् क्रिया स्वसमयश्रुतम् । निष्ठाप्यः शृण्वतो ग्रन्थान् बाह्यानन्यांश्च कांचन ॥५१॥ इति दृढचर्याक्रिया | दृढव्रतस्य तस्यान्या क्रिया स्यादुपयोगिता । "पर्वोपवासपर्यन्ते प्रतिमायोगधारणम् ॥५२॥ इति उपयोगिताक्रिया । पारणा के लिये विदा करे और वह भव्य भी गुरुके अनुग्रहसे संतुष्ट होता हुआ अपने घर जावे ॥ ४४ ॥ | यह तीसरी स्थानलाभ क्रिया है । जिसके लिये स्थानलाभकी क्रियाका वर्णन ऊपर किया जा चुका है ऐसा भव्य पुरुष जब मिथ्यादेवताओंको अपने घर से बाहर निकालता है तब उसके गणग्रह नामकी क्रिया होती है ॥४५ ॥ उस समय वह उन देवताओंसे कहता है कि 'मैंने अपने अज्ञानसे इतने दिनतक आदर के साथ आपकी पूजा की परन्तु अब अपने ही मतके देवताओंकी पूजा करूंगा इसलिये क्रोध करना व्यर्थ है । आप अपनी इच्छानुसार किसी दूसरी जगह रहिये ।' इस प्रकार प्रकट रूपसे उन देवताओं को ले जाकर किसी अन्य स्थानपर छोड़ दे ॥४६-४७॥ इस प्रकार पहले देवताओंका विसर्जन कर अपने मतके शान्त देवताओं की पूजा करते हुए उस भाव्यके यह गणग्रह नामकी चौथी क्रिया होती है ॥४८॥ यह चौथी गणग्रह क्रिया है । तदनन्तर पूजा और उपवासरूप सम्पत्तिके साथ साथ अंगोंके अर्थसमूहको सुननेवाले उस भव्य के पूजाराध्या नामकी प्रसिद्ध क्रिया होती है । भावार्थ - जिनेन्द्रदेव की पूजा तथा उपवास आदि करते हुए द्वादशाङ्गका अर्थ सुनना पूजाराध्य क्रिया कहलाती है ॥ ४९॥ यह पांचवीं पूजाराध्य क्रिया है । तदनन्तर साधर्मी पुरुषोंके साथ साथ चौदह पूर्वविद्याओंका अर्थ सुननेवाले उस भव्य के पुण्यको बढ़ाने वाली पुण्ययज्ञा नामकी भिन्न क्रिया होती है ॥ ५० ॥ यह छठवीं पुण्ययज्ञा क्रिया है । इस प्रकार अपने मत के शास्त्र समाप्त कर अन्य मतके ग्रन्थों अथवा अन्य किन्हीं दूसरे विषयों को सुननेवाले उस भव्य के दृढ़चर्या नामकी क्रिया होती है ॥ ५१ ॥ | यह दृढ़चर्या नामकी सातवीं क्रिया है । तदनन्तर जिसके व्रत दृढ़ हो चुके हैं ऐसे पुरुषके उपयोगिता नामकी क्रिया होती है । १ उपदेशित । २ भवथ । ३ ततः कारणात् । ४ ईर्षया क्रोधेन वा । ५ प्रकटं यथा भवति तथा । ६ निजमत । ७ द्वादशाङगसम्बन्धिद्रव्यसंग्रहादिकम् । चतुर्दशविद्यानां सम्बन्धिनम् । ६ सहाध्यायिसहितस्य । 'एकब्रह्मव्रताचारा मिथः सब्रह्मचारिणः । इत्यभिधानात् । १० सम्पूर्णमधीत्य । ११ पर्वोपवासरात्रावित्यर्थः । ३५ ८ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ महापुराणम् रक्रियाकलापेनोक्तेन शुद्धिमस्योपविभूतः। उपनीतिरनू चानयोग्यलिङगग्रहो भवेत् ॥५३॥ उपनीतिहि वेषस्य वृत्तस्य समयस्य च । देवतागुरुसाक्षि स्याद् विधिवत्प्रतिपालनम् ॥५४॥ शक्लवस्त्रोपवीतादिधारणं बेष उच्यते । प्रार्यषटकर्मजीवित्वं वृत्तमस्य प्रचक्षते ॥५॥ जैनोपासकदीक्षा स्यात् समयः समयोचितम् । दधतो गोत्रजात्यादि नामान्तरमतः परम् ॥५६॥ इत्युपनीतिक्रिया । १ (ततोऽयमुपनीतः सन् वतचर्या समाश्रयेत् । सूत्रमौपासकं सम्यग् अभ्यस्य ग्रन्थतोऽर्थतः ॥५७॥) इति वतचर्याक्रिया । "व्रतावतारणं तस्य भूयो भूषादिसङग्रहः । भवेदधीतविद्यस्य यथावद्गुरुसन्निधौ ॥५॥ इति वतावतरणक्रिया। विवाहस्तु भवेदस्य नियुञ्जानस्य दीक्षया । सुव्रतोचितया सम्यक् स्वां 'धर्मसहचारिणीम् ॥५६॥ पुनविवाहसंस्कारः पूर्वः सर्वोऽस्य सम्मतः । सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य पत्न्याः संस्कारमिच्छतः ॥६०॥ इति विवाहक्रिया। पर्वके दिन उपवासके अन्तमें अर्थात् रात्रिके समय प्रतिमायोग धारण करना उपयोगिता क्रिया कहलाती है ॥५२।। यह उपयोगिता नामकी आठवीं क्रिया है। ऊपर कहे हुए क्रियाओंके समूहसे शुद्धिको धारण करनेवाले उस भव्यके उत्कृष्ट परुषोंके योग्य चिह्नको धारण करने रूप उपनीति क्रिया होती है॥५३॥ देवता और मुरुकी साक्षीपूर्वक विधिके अनुसार अपने वेष, सदाचार और समयकी रक्षा करना. उपनीति क्रिया कहलाती है ॥५४॥ सफेद वस्त्र और यज्ञोपवीत आदि धारण करना वेष कहलाता है, आर्योंके करने योग्य देवपूजा आदि छह कर्मोके करनेको वृत्त कहते हैं और इसके बाद अपने शास्त्रके अनुसार गोत्र जाति आदिके दूसरे नाम धारण करनेवाले पुरुषके जो जैन श्रावककी दीक्षा है उसे समय कहते हैं ॥५५-५६॥ यह उपनीति नामकी नौवीं क्रिया है । तदनन्तर यज्ञोपवीतसे युक्त हुआ भव्य पुरुष शब्द और अर्थ दोनोंसे अच्छी तरह उपासकाध्ययनके सूत्रोंका अभ्यास कर व्रतचर्या नामकी क्रियाको धारण करे । भावार्थ-यज्ञोपवीत धारण कर उपासकाध्ययनाङग (श्रावकाचार) का अच्छी तरहसे अभ्यास क धारण करना व्रतचर्या नामकी क्रिया है ॥५७।। यह दसवीं व्रत'चर्या क्रिया है। जिसने समस्त विद्याएं पढ़ ली हैं ऐसा श्रावक जब गुरुके समीप विधिके अनुसार फिरसे आभूषण आदि ग्रहण करता है तब उसके व्रतावतरण नामकी क्रिया होती है ॥५८।। यह व्रतावतरण नामकी ग्यारहवीं क्रिया है । जब वह भव्य अपनी पत्नीको उत्तम व्रतोंके योग्य श्रावककी दीक्षासे युक्त करता है तब उसके विवाह नामकी क्रिया होती है ॥५९॥ अपनी पत्नीके संस्कार चाहने वाले उस भव्यके उसी स्त्रीके साथ फिरसे विवाह संस्कार होता है और उस संस्कारमें सिद्ध भगवान्की पूजाको आदि लेकर पहले कही हुई समस्त विधि करनी चाहिये ॥६०॥ यह वारहवीं विवाहक्रिया है। १क्रियासम हेन । २ प्रवचने साङगेऽधीती। ३ यज्ञोपवीत । 'उपवीतं यज्ञसूत्रं प्रोदधृतं दक्षिणे करे'। ४ व्रतावतरणम् ल०। ५ धर्मपत्नीम्। ६ गर्भान्वयक्रियास प्रोक्तः। ७ जिनदर्शनस्वीकारात् प्रागविवाहितभार्यायाः । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व २७५ वर्णलाभस्ततोऽस्य स्यात् सम्बन्ध' संविधित्सतः । समानाजीविभिलब्ध वर्णैरन्यरुपासकैः ॥६॥ चतुरः श्रावकज्येष्ठान् पाहूय कृतसत्क्रियान् । तान् ब्रूयादरम्यनुग्राह्यो भवद्भिः स्वसमीकृतः ॥६२॥ यूयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकपूजिताः । अहं च कृतदीक्षोऽस्मि गृहीतोपासकवतः ॥६३॥ मया तु चरितो धर्मः पुष्कलो गृहमेधिनाम् । दत्तान्यपि च दानानि कृतं च गुरुपूजनम् ॥६४॥ अयोनिसम्भवं जन्म लब्ध्वाहं गुर्वनुग्रहात् । 'चिरभावितमुत्स ज्य प्राप्तो वृत्तमभावितम् ॥६॥ वतसिद्ध्यर्थमेवाहम् उपनीतोऽस्मि साम्प्रतम् । कृतविद्यश्च जातोऽस्मि १ स्वधीतोपासकश्रुतः१ ॥६६॥ वतावतरणस्यान्ते२ स्वीकृताभरणोऽस्म्यहम् । पत्नी च संस्कृताऽऽत्मीया कृतपाणिग्रहा पुनः ॥६७॥ एवं कृतवतस्याच वर्णलाभो ममोचितः। सुलभः सोऽपि युष्माकम् अनुज्ञानात् सधर्मणाम् ॥६॥ इत्युक्तास्ते च तं सत्यम् एवमस्तु समञ्जसम्३ । त्वयोक्तं श्लाघ्यमेवैतत् कोऽन्यस्त्वत्सदृशो द्विजः ॥६६॥ युष्मादृशामलाभे तु मिथ्यादृष्टिभिरप्यमा । समानाजीविभिः कर्तु सम्बन्धोऽभिमतो हि नः ॥७०॥ इत्युक्त्वनं समाश्वास्य वर्णलाभेन युञ्जते । विधिवत् सोऽपि तं लब्ध्वा याति तत्समकक्षताम् ॥७॥ इति वर्णलाभक्रिया । वर्णलाभोऽयमुद्दिष्टः कुलचर्याऽधुनोच्यते । आर्यषट्कर्मवृत्तिः स्यात् कुलचर्याऽस्य पुष्कला ॥७२॥ इति कुलचर्या । तदनन्तर-जिन्हें वर्णलाभ हो चुका है और जो अपने समान ही आजीविका करते हैं ऐसे अन्य श्रावकोंके साथ सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छा करनेवाले उस भव्य पुरुषके वर्णलाभ नामकी क्रिया होती है ॥६१॥ इस क्रियाके करते समय वह भव्य चार बड़े बड़े श्रावकोंको आदर सत्कार कर बुलावे और उनसे कहे कि आप लोग मुझे अपने समान बनाकर मेरा अनुग्रह कीजिये ।।६२।। आप लोग संसारसे पार करनेवाले देव ब्राह्मण हैं, संसारमें पूज्य हैं और मैंने भी दीक्षा लेकर श्रावकके व्रत ग्रहण किये हैं ॥६३॥ मैंने गृहस्थोंके संपूर्ण धर्मका आचरण किया है, दान भी दिये हैं और गुरुओंका पूजन भी किया है ॥६४॥ मैंने गुरुके अनुग्रहसे योनिके बिना ही उत्पन्न होनेवाला जन्म धारण किया है, और चिर कालसे पालन किये हुए मिथ्याधर्मको छोड़कर जिसका पहले कभी चिन्तवन भी नहीं किया था ऐसा सम्यक् चारित्र धारण किया है ॥६५॥ व्रतोंकी सिद्धिके लिये ही मैंने इस समय यज्ञोपवीत धारण किया है और श्रावकाचारका अच्छी तरह अध्ययन कर विद्वान् भी हो गया ह ॥६६॥ व्रतावतरण क्रिया के बाद ही मैंने आभूषण स्वीकार किये हुए हैं, मैंने अपनी पत्नीके भी संस्कार किये हैं और उसके साथ दुबारा विवाहसंस्कार भी किया है ॥६७।। इस प्रकार व्रत धारण करनेवाले मुझको वर्णलाभकी प्राप्ति होना उचित है और वह भी आप साधर्मी पुरुषोंकी आज्ञासे सहज ही प्राप्त हो सकती है ॥६८॥ इस प्रकार कह चुकनेपर वे श्रावक कहें कि ठीक है, ऐसा ही होगा, तुमने जो कुछ कहा है वह सब प्रशंसनीय है, तुम्हारे समान और दूसरा द्विज कौन है ? ॥६९॥ आप जैसे पुरुषोंके न मिलनेपर हम लोगोंको समान जीविका करनेवाले मिथ्यादृष्टियों के साथ भी सम्बन्ध करना पड़ता है ॥७०॥ इस प्रकार कहकर वे श्रावक उसे आश्वासन दें और वर्णलाभसे युक्त करावें तथा वह भव्य भी विधिपूर्वक वर्णलाभको पाकर उन सब श्रावकोंकी समानताको प्राप्त होता है ॥७१॥ यह तेरहवीं वर्णलाभ नामकी क्रिया है ।। यह वर्णलाभ क्रिया कह चुके । अब कुलचर्या क्रिया कही जाती है । आर्य पुरुषोंके करने १ कन्याप्रदानादानादिसम्बन्धम्। २ संविधातुमिच्छतः। ३ सदृशार्यषट्कर्मादिवृत्तिभिः । ४ विचक्षणः। ५ चतुःसंख्यान् । ६ युष्मत्सदृशीकृतः ।। ७ चिरकालसंस्कारितम् । मिथ्यात्ववृत्तमित्यर्थः। ८पूर्वस्मिन्नभावितम् । सद्वत्तमित्यर्थः । सम्पूर्णविद्यः । १० सुष्ठ्वधीतः । ११ -सकव्रतः ल०, द०। १२ सावधीकृतकतिचिद्वतावतारणावसाने। १३ इष्टम् । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ महापुराणम् विशुद्धस्तेन वृत्तन ततोऽभ्येति गृहोशिताम् । वृत्ताध्ययनसम्पत्त्या परानुग्रहणक्षमः ॥७३॥ प्रायश्चित्तविधानज्ञः 'श्रुतिस्मृति पुराणवित् । गृहस्थाचार्यतां प्राप्तः तदा धत्ते गृहीशिताम् ॥७४॥ इति गृहीशिताक्रिया। ततः पूर्ववदेवास्य भवेदिष्टा प्रशान्तता । नानाविधोपवासादिभावनाः समुपेयुषः ॥७॥ इति प्रशान्तताक्रिया। गृहत्यागस्ततोऽस्य स्याद् गृहवासाद् विरज्यतः । योग्यं सून यथान्यायम् अनुशिष्य गृहोज्झनम् ॥७६॥ इति गृहत्यागक्रिया। . त्यक्तागारस्य तस्यातः तपोवनमुपेयुषः । एकशाटकधारित्वं प्राग्वद्दीक्षामिष्यते ॥७७॥ इति दीक्षायक्रिया। ततोऽस्य जिनरूपत्वम् इष्यते त्यक्तवाससः । धारणं जातरूपस्य युक्ताचाराद् गणेशिनः ॥७८॥ इति जिनरूपता। क्रियाशेषास्तु निःशेषाः प्रोक्ता गर्भान्वये यथा । तथैव प्रतिपाद्याः स्यः न भेदोऽस्त्यत्र कश्चन ॥७९॥ यस्त्वेतास्तत्त्वतो ज्ञात्वा भव्यः समनुतिष्ठति । सोऽधिगच्छति निर्वाणम् अचिरात्सुखसावन् ॥८॥ इति दीक्षान्वयक्रिया। योग्य देवपूजा आदि छह कार्यों में पूर्ण प्रवृत्ति रखना कुलचर्या कहलाती है ॥७२॥ यह कुलचर्या नामकी चौदहवीं किया है। ऊपर कहे हुए चारित्रसे विशुद्ध हुआ श्रावक गृहीशिता क्रियाको प्राप्त होता है । जो सम्यक्चारित्र और अध्ययनरूपी सम्पत्तिसे परपुरुषोंका उपकार करने में समर्थ है, जो प्रायश्चित्तकी विधिका जानकार है,श्रुति, स्मृति और पुराणका जानने वाला है ऐसा भव्य गृहस्थाचार्य पदको प्राप्त होकर गृहीशिता नामकी क्रियाको धारण करता है ॥७३-७४॥ यह गृहीशिता नामकी पन्द्रहवीं क्रिया है। तदनन्तर नाना प्रकारके उपवास आदिकी भावनाओंको प्राप्त होनेवाले उस भव्यके पहलेके समान ही प्रशान्तता नामकी क्रिया मानी जाती है ॥७५॥ यह सोलहवीं प्रशान्तता क्रिया है। तत्पश्चात् जब वह घरके निवाससे विरक्त होकर योग्य पुत्रको नीतिके अनुसार शिक्षा देकर घर छोड़ देता है तब उसके गृहत्याग नामकी क्रिया होती है ।।७६।। यह सत्रहवीं गृहत्याग क्रिया है। तदनन्तर जो घर छोड़कर तपोवन में चला गया है ऐसे भव्य पुरुषका पहलेके समान एक वस्त्र धारण करना यह दीक्षाद्य नामकी क्रिया मानी जाती है ॥७७॥ यह दीक्षाद्य नामकी अठारहवीं क्रिया है। - इसके बाद जब वह गृहस्थ वस्त्र छोड़कर किन्हीं योग्य आचरणवाले मुनिराजसे दिगम्बर रूप धारण करता है तब उसके जिनरूपता नामकी क्रिया कही जाती है ॥७८॥ यह उन्नीसवीं जिनरूपता क्रिया है। ___इनके सिवाय जो कुछ क्रियाएं बाकी रह गई हैं वे सब जिस प्रकार गर्भान्वय क्रियाओंमें कहीं गई हैं उसी प्रकार प्रतिपादन करने योग्य हैं। इनमें और उनमें कोई भेद नहीं है ॥७९॥ जो भव्य इन क्रियाओंको यथार्थरूपसे जानकर उनका पालन करता है वह सुखके आधीन होता हुआ बहुत शीधू निर्वाणको प्राप्त होता है ।।८०॥ इस प्रकार यह दीक्षान्वय क्रियाओंका वर्णन पूर्ण हुआ। १ द्वादशाङ्गश्रुतिरूपवेदः । २ धर्मशास्त्रम् । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व अथातः सम्प्रवक्ष्यामि द्विजाः कर्बन्वयक्रियाः । याः 'प्रत्यासन्नमिष्ठस्य भवेयुभव्यदेहिनः॥१॥ तत्र सज्जातिरित्याद्या क्रिया श्रेयोऽनुबन्धिनी। या सा वासन्नभव्यस्य नजन्मोपगमे भवेत् ॥२॥ स नजन्मपरिप्राप्ती दीक्षायोग्ये सदन्वये। विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते ॥३॥ विशुद्धकुलजात्यादिसंपत्सज्जातिरुच्यते। "उदितोदितवंशत्वं यतोऽभ्येति पुमान् कृती ॥४॥ पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कलं परिभाष्यते । मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ॥८॥ विशुद्धिरुभयस्यास्य सज्जातिरनुणिता । यत्प्राप्तौ सुलभा बोधिः प्रयत्नोपनतंर्गुणैः ॥८६॥ 'सज्जन्मप्रतिलम्भोऽयम् आर्यावर्त विशेषतः । सत्यां देहादिसामग्रयां श्रेयः सूते हि देहिनाम् ॥८॥ शरीरजन्मना सैषा सज्जातिरुपर्वाणता । एतन्मूला यतः सर्वाः पुंसामिष्टार्थसिद्धयः ॥८॥ संस्कारजन्मना चान्या सज्जातिरत कीर्त्यते । यामासाद्य द्विजन्मत्वं भव्यात्मा समपाश्नुते ॥८६॥ विशुद्धाकरसम्भूतो मणिः संस्कारयोगतः। यात्युत्कर्ष यथाऽऽत्मवं१३ क्रियामन्त्रैः सुसंस्कृतः॥१०॥ १"सुवर्णधातुरथवा शुद्ध्येदासाद्य संस्क्रियाम् । यथा तथैव भव्यात्मा शुद्ध्यत्यासादितक्रियः ॥६॥ ज्ञानजः स तु संस्कारः सम्यग्ज्ञानमनुत्तरम् । यदाथ लभते साक्षात् सर्वविन्मुखतः कृती ॥२॥ अथानन्तर-हे द्विजो, मैं आगे उन कर्ज़न्वय क्रियाओंको कहता ह जो कि अल्पसंसारी भव्य प्राणी हीके हो सकती हैं ॥८१॥ उन कन्वयक्रियाओंमें कल्याण करनेवाली सबसे पहली क्रिया सज्जाति है जो कि किसी निकट भव्यको मनुष्यजन्मकी प्राप्ति होनेपर होती है ।।८२।। मनुष्यजन्मकी प्राप्ति होनेपर जब वह दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंशमें विशुद्ध जन्म धारण करता है तब उसके यह सज्जाति नामकी क्रिया होती है ॥८३॥ विशद्ध कूल और विशुद्ध जातिरूपी संपदा सज्जाति कहलाती है। इस सज्जातिसे ही पुण्यवान् मनुष्य उत्तरोत्तर उत्तम उत्तम वंशोंको प्राप्त होता है ॥८४॥ पिताके वंशकी जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माताके वंशकी शुद्धि जाति कहलाती है ॥८५।। कुल और जाति इन दोनोंकी विशुद्धिको सज्जाति कहते हैं, इस सज्जातिके प्राप्त होनेपर बिना प्रयत्नके सहज ही प्राप्त हुए गुणोंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति सुलभ हो जाती है ॥८६॥ आर्यखण्डकी विशेषतासे सज्जातित्वकी प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्री मिलनेपर प्राणियोंके अनेक प्रकारके कल्याण उत्पन्न करती है । भावार्थ-यदि आर्यखण्डके विशुद्ध वंशोंमें जन्म हो और शरीर आदि योग्य सामग्रीका सुयोग प्राप्त हो तो अनेक कल्याणोंकी प्राप्ति सहज ही हो जाती है ॥८७॥ यह सज्जाति उत्तम शरीर के जन्मसे ही वर्णन की गई है क्योंकि पुरुषोंके समस्त इष्ट पदार्थोंकी सिद्धिका मूलकारण यही एक सज्जाति है ।।८८॥ संस्काररूप जन्मसे जो सज्जातिका वर्णन किया जाता है वह दूसरी ही सज्जाति है उसे पाकर भव्य जीव द्विजन्मपनेको प्राप्त होता है ॥८९।। जिस प्रकार विशुद्ध खानमें उत्पन्न हुआ रत्न संस्कारके योगसे उत्कर्षको प्राप्त होता है उसी प्रकार क्रियाओं और मंत्रोंसे सुसंस्कारको प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यन्त उत्कर्षको प्राप्त हो जाता है ॥९०॥ अथवा जिस प्रकार सुवर्ण पाषाण उत्तम संस्कारको पाकर शुद्ध हो जाता है.उसी प्रकार भव्य जीव उत्तम क्रियाओंको पाकर शुद्ध हो जाता है ॥९१॥ वह संस्कार ज्ञानसे उत्पन्न होता है, सबसे उत्कृष्ट ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, जिस समय वह पुण्यवान् भव्य साक्षात् सर्वज्ञ देवके मुखसे उस उत्तम ज्ञान १ भो विप्राः। २ प्रत्यासन्नमोक्षस्य । ३ सा चासन्न-ल०। ४ उत्तरोत्तराभ्युदयवदन्वयत्वम् । ५ यत् सज्जाती प्राप्तौ सत्याम् । ६ रत्नत्रयप्राप्तिः । ७ उपागतः । ८ सज्जातिपरिप्राप्तिः । ६ आर्याखण्ड । 'आर्यावर्तः पुण्यभूमिरित्यभिधानात् । १० एषा सज्जातिमूलं कारणं यासां ताः । ११ यतः कारणात् । १२ संस्कारजन्मसज्जातिम् । १३ उत्कर्ष याति। १४ सुवर्णपाषाणः । - Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ महापुराणम् तदेष परमज्ञानगर्भात् संस्कारजन्मना । जातो भवेद् द्विजन्मेति वतैः शीलैश्च भूषितः ॥१३॥ व्रतचिह्नं भवेदस्य सूत्र मन्त्रपुरःसरम् । सर्वज्ञाशाप्रधानस्य द्रव्यभावविकल्पितम् ॥१४॥ यज्ञोपवीतमस्य स्याद् द्रव्यतस्त्रिगुणात्मकम् । सूत्रमौपासिकं तु स्याद् भावारूढस्त्रिभिर्गुणः ॥५॥ यदैव लब्धसंस्कारः परं ब्रह्माधिगच्छति । तदैनमभिनन्द्याशीर्वचोभिर्गणनायकाः ॥६६॥ 'लम्भयन्त्पचितां शेषां जैनी पुष्परथाक्षतैः । स्थिरीकरणमेतद्धि धर्मप्रोत्साहनं परम् ॥७॥ अयोनिसम्भवं दिव्यज्ञानगर्भसमुद्भवम् । सोऽधिगम्य परं जन्म तदा सज्जातिभाग्भवेत् ॥८॥ ततोऽधिगतसज्जातिः सद्गहित्वमसौ भजेत् । गहमेधीभवनाषट्कर्माण्यनुपालयन् ॥९॥ यदुक्तं गृहचर्यायाम् अनुष्ठानं विशुद्धिमत् । तदाप्तविहितं कृत्स्नम् अतन्द्रालुः समाचरेत् ॥१०॥ जिनेन्द्राल्लब्धसज्जन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षितः । स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं० द्विजसत्तमः ॥१०॥ तमेनं धर्मसाद्ध तं श्लाघन्ते धामिकाः जनाः। परं तेज इव ब्राह्मम् अवतीर्ण महीतलम् ॥१०२॥ स यजयाजयन्१३ धीमान् यजमान रुपासितः५ । अध्यापयन्नधीयानो६१ वेदवेदाङ्गविस्तरम् ॥१०३॥ को प्राप्त करता है उस समय वह उत्कृष्ट ज्ञानरूपी गर्भसे संस्काररूपी जन्म लेकर उत्पन्न होता है और व्रत तथा शीलसे विभूषित होकर द्विज कहलाता है ॥९२-९३॥ सर्वज्ञ देवकी आज्ञाको प्रधान माननेवाला वह द्विज जो मंत्रपूर्वक सूत्र धारण करता है वही उसके व्रतोंका चिह्न है, वह सूत्र द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है ॥९४।। तीन लरका जो यज्ञोपवीत है वह उसका द्रव्यसूत्र है और हृदयमें उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी गुणोंसे बना हुआ जो श्रावकका सूत्र है वह उसका भावसूत्र है ॥९५॥ जिस समय वह भव्य जीव संस्कारोंको पाकर परम ब्रह्मको प्राप्त होता है उस समय आचार्य लोग आशीर्वादरूप वचनोंसे उसकी प्रशंसा कर उसे पुष्प अथवा अक्षतोंसे जिनेन्द्र भगवानकी आशिषिका ग्रहण कराते हैं अर्थात् जिनेन्द्रदेवकी पूजासे बचे हुए पुष्प अथवा अक्षत उसके शिर आदि अंगोंपर रखवाते हैं क्योंकि यह एक प्रकारका स्थिरीकरण है और धर्ममें अत्यन्त उत्साह बढ़ानेवाला है ॥९६-९७।। इस प्रकार जब यह भव्य जीव बिना योनिके प्राप्त हुए दिव्यज्ञानरूपी गर्भसे उत्पन्न होनेवाले उत्कृष्ट जन्मको प्राप्त होता है तब वह सज्जातिको धारण करनेवाला समझा जाता है ॥९८॥ यह सज्जाति नामकी पहली क्रिया है। तदनन्तर जिसे सज्जाति क्रिया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सद्गृहित्व क्रियाको प्राप्त होता है इस प्रकार जो सद्गृहस्थ होता हुआ आर्य पुरुषोंके करने योग्य छह कर्मोका पालन करता है, गृहस्थ अवस्थामें करने योग्य जो जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहन्त भगवान्के द्वारा कहे हुए उन उन समस्त आचरणोंका जो आलस्यरहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्रदेवसे उत्तम जन्म प्राप्त किया है और गणधरदेवने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेजको धारण करता है ।।९९-१०१॥ उस समय धर्मस्वरूप हुए उस भव्यकी अन्य धर्मात्मा लोग यह कहते हुए प्रशंसा करते हैं कि तू पृथिवीतलपर अवतीर्ण हुआ उत्कृष्ट ब्रह्मतेजके समान है ।।१०२।। पूजा करनेवाले यजमान जिसकी पूजा करते हैं, जो स्वयं पूजन करता है, और दूसरोंसे भी कराता १ यज्ञसूत्रम् । २ उपासकाचारसम्बन्धि । ३ मनसा विकल्पितः । ४ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैः । उपलब्धि-उपयोगसंस्कारैर्वा । ५ परमज्ञानम्, परमतपो वा। ६ आचार्याः। ७ प्रापयन्ति । ८ प्रवर्तनम् । ६ समाचरन् द०, अ०, ल०, प०, इ०, स० । १० वृत्ताध्ययनसम्पत्तिम् । 'स्याद् ब्रह्मवर्चसं वृत्ताध्ययर्नाद्धः' इत्यभिधानात् । ११ ज्ञानसम्बन्ध्युत्कृष्टतेज इव । १२ यजनं कुर्वन् । १३ यजनं कारयन् । १४ पूजाकारकैः । १५ आराधितः । १६ अध्ययनं कारयन् । १७ आगम-आगमाङ्ग । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व स्पृशपि महीं नैव स्पृष्टो दोषैर्महीगतैः । देवत्वमात्मसात्कुर्याद् इहैवाभ्यचतैर्गुणैः ॥ १०४॥ नाणिमा महिमेवास्य गरिमेव न लाघवन् । 'प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चेति तद्गुणाः ॥ १०५ ॥ गुणैरेभिरुपारूढमहिमा देवसाद्भवम् । बिभुल्लोकातिगं धाम मयामेष महीयते ॥ १०६॥ धराचरितः सत्यशौचक्षान्तिदमादिभिः । देवब्राह्मणतां श्लाघ्यां स्वस्मिन् सम्भावयत्यसौ ॥१०७॥ अथ जातिमदावेशात् कश्चिदेनं द्विजब्रुवः । ब्रूयादेवं किमद्यैव देवभूयं गतो भवान् ॥१०८॥ त्वामुष्यायणः " किन किन्ते ऽम्बाऽमुष्य पुत्रिका । 'येनं वमन्नसो' भूत्वा यास्यसत्कृत्य मद्विधान् ॥१०६ ॥ जातिः सैव कुलं तच्च सोऽसि योऽसि प्रगेतनः । तथापि देवतात्मानम् आत्मानं मन्यते भवान् ॥११०॥ देवतातिथिपित्रग्निकार्येष्वप्रयतो भवान् । गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामाच्च पराङ्मुखः ॥१११॥ दीक्षां जैनीं प्रपन्नस्य जातः कोऽतिशयस्तव । यतोऽद्यापि मनुष्यस्त्वं पादचारी महीं स्पृशन् ॥११२॥ इत्युपारूढसंरम्भम् उपालब्धः १ स केनचित् । ददात्युत्तरमित्यस्मं वचोभिर्युक्तिपेशलैः ४ ॥११३॥ श्रूयतां भो द्विजम्मन्य त्वयाऽस्मद्दिव्यसम्भवः १५ । जिनो "जनयिताऽस्माकं ज्ञानं गर्भोऽतिनिर्मलः ॥ ११४ ॥ है, जो वेद और वेदाङ्गके विस्तारको स्वयं पढ़ता है तथा दूसरोंको भी पढ़ाता है, जो यद्यपि पृथिवीका स्पर्श करता है तथापि पृथिवीसम्बन्धी दोष जिसका स्पर्श नहीं कर सकते हैं, जो अपने प्रशंसनीय गुणोंसे इसी पर्याय में देवपर्यायको प्राप्त होता है, जिसके अणिमा ऋद्धि अर्थात् छोटापन नहीं है किन्तु महिमा अर्थात् बड़प्पन है, जिसके गरिमाऋद्धि है परन्तु लघिमा नहीं हैं, जिसमें प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आदि देवताओंके गुण विद्यमान हैं, उपर्युक्त गुणोंसे जिसकी महिमा बढ़ रही है, जो देवरूप हो रहा है और लोकको उल्लंघन करनेवाला उत्कृष्ट तेज धारण करता है ऐसा यह भव्य पृथिवीपर पूजित होता है ॥१०३-१०६॥ सत्य, शौच, क्षमा और दम आदि धर्मसम्बन्धी आचरणोंसे वह अपने में प्रशंसनीय देवब्राह्मणपनेकी संभावना करता है अर्थात् उत्तम आचरणोंसे अपने आपको देवब्राह्मणके समान उत्तम बना देता है ॥ १०७॥ २७६ ? यदि अपने को झूठमूठ ही द्विज माननेवाला कोई पुरुष अपनी जाति के अहंकार के आवेश से इस देवब्राह्मणसे कहे कि आप क्या आज ही देवपनेको प्राप्त हो गये हैं ? ॥ १०८ ॥ क्या तू अमुक पुरुषका पुत्र नहीं है ? और क्या तेरी माता अमुक पुरुषकी पुत्री नहीं है ? जिससे कि तू इस तरह नाक ऊंची कर मेरे ऐसे पुरुषोंका सत्कार किये बिना ही जाता है। ॥१०९॥ यद्यपि तेरी जाति वही है, कुल वही है और तू भी वही है जो कि सबेरे के समय था तथापि तू अपने आपको देवतारूप मानता है ॥ ११०॥ यद्यपि तू देवता, अतिथि, पितृगण और अग्निके कार्यों में निपुण है तथापि गुरु, द्विज और देवोंको प्रणाम करनेसे विमुख है ॥ १११ ॥ जैनी दीक्षा धारण करनेसे तुझे कौनसा अतिशय प्राप्त हो गया है ? क्योंकि तू अब भी मनुष्य ही है और पृथिवीको स्पर्श करता हुआ पैरोंसे ही चलता है ॥ ११२ ॥ इस प्रकार क्रोध धारणकर यदि कोई उलाहना दे तो उसके लिये युक्तिसे भरे हुए वचनोंसे इस प्रकार उत्तर दे ।। ११३ ॥ अपने आपको द्विज माननेवाले, तू मेरा दिव्य जन्म सुन, श्री जिनेन्द्रदेव ही मेरा पिता है और १ रत्नत्रयादिगुणलाभः । २ प्रकर्षेरणासमन्तात् सकलाभिलषरणीयत्वम् । ३ देवाधीनम् । देवसाद्भवन् ल०, द०, इ० । देवसाद्भवेत् अ०, प०, स० । ४ देवत्वम् । ५ कुलीनः । 'प्रसिद्धपितुरुत्पन्न आमुष्यायरण उच्यते ।' ६ तव । ७ कुलीना पुत्री । ८ येन कारणेन । ६ उद्गतनासिकः । १० प्राग्भवः । ११ - ष्वप्राकृतो ल०, द० । १२ स्वीकृतक्रोधं यथा भवति तथा १३ दूषितः । १४ पटुभिः । १५ अस्माकं देवोत्पत्तिः । १६ पिता । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० महापुराणम् 'तत्राहतीं त्रिधा' भिन्नां शक्ति त्रैगुण्यसंश्रिताम् । स्वसात्कृत्य समुद्भूता वयं संस्कारजन्मना ॥११॥ अयोनिसम्भवास्तेन देवा एव न मानुषाः । वयं वयमिवान्येऽपि सन्ति चेद् ब्रूहि तद्विधान् ॥११६॥ स्वायम्भुवानमुखाज्जाताः ततो देवद्विजा वयम् । व्रतचिह्न च नः सूत्रं पवित्रं सूत्रदर्शितम् ॥११७॥ पापसूत्रानुगा यूय न द्विजा सूत्रकण्ठकाः । सन्मार्गकण्टकास्तीक्ष्णाः केवलं मलदूषिताः ॥११८॥ शारीरजन्म संस्कारजन्म चेति द्विधा मतम् । जन्माङगिनां मतिश्चैवं द्विधाम्नाता जिनागमे ॥११॥ देहान्तरपरिप्राप्तिः पूर्वदेहपरिक्षयात् । शरीरजन्म विज्ञेयं देहभाजां भवान्तरे ॥१२०॥) तथालब्धात्मलाभस्य पुनः संस्कारयोगतः। द्विजन्मतापरिप्राप्तिर्जन्म संस्कारजं स्मृतम् ॥१२॥ प्ररीरमरणं स्वायुरन्ते देहविसर्जनम् । संस्कारमरणं प्राप्तवतस्यागःसमुज्झनम् ॥१२२) ('यतोऽयं लब्धसंस्कारो विजहाति प्रगेतनम् । मिथ्यादर्शनपर्यायं ततस्तेन मृतो भवत् ॥१२३) तत्र संस्कारजन्मेदम् अपापोपहतं परम् । जातं नो गुर्वनज्ञानाद प्रतो देवद्विजा वयम् ॥२४॥ इत्यात्मनो गुणोत्कर्ष ख्यापयन्यायवर्मना । गृहमेधी भवेत् प्राप्य सद्गृहित्वमनुत्तरम् ॥१२॥ भूयोऽपि संप्रवक्ष्यामि ब्राह्मणान् सक्रियोचितान् । जातिवादावलेपस्य "निरासार्थमतः परम् ॥१२६॥ ज्ञान ही अत्यन्त निर्मल गर्भ है ।।११४।। उस गर्भमें उपलब्धि, उपयोग और संस्कार इन तीन गुणोंके आश्रित रहनेवाली जो अरहन्तदेवसम्बन्धिनी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीन भिन्न भिन्न शक्तियां हैं उन्हें अपने अधीन कर हम संस्काररूपी जन्मसे उत्पन्न हुए हैं ॥११५।। हम लोग बिना योनिसे उत्पन्न हुए हैं इसलिये देव ही हैं मनुष्य नहीं हैं, हमारे समान जो और भी हैं उन्हें भी तू देवब्राह्मण कह ॥११६॥ हम लोग स्वयभूक मुखसं उत्पन्न हए हैं इसलिये देवब्राह्मण हैं और हमारे व्रतोंका चिह्न शास्त्रोंमें कहा यह पवित्र सत्र अ यज्ञोपवीत है ॥११७॥ आप लोग तो गले में सूत्र धारणकर समीचीन मार्गमें तीक्ष्ण कण्टक बनते हुए पापरूप सूत्रके अनुसार चलनेवाले हैं, केवल मलसे दूषित हैं, द्विज नहीं हैं ॥११८॥ जीवोंका जन्म दो प्रकारका है एक तो शरीरजन्म और दूसरा संस्कार-जन्म। इसी प्रकार जैनशास्त्रोंमें जीवोंका मरण भी दो प्रकारका माना गया है ।।११९।। पहले शरीरका क्षय हो जानेसे दूसरी पर्यायमें जो दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है उसे जीवोंका शरीरजन्म जानना चाहिये। ॥१२०॥ इसी प्रकार संस्कारयोगसे जिसे पुनः आत्मलाभ प्राप्त हुआ है ऐसे पुरुषको जो द्विजपनेकी प्राप्ति होना है वह संस्कारज अर्थात् संस्कारसे उत्पन्न हुआ जन्म कहलाता है ॥१२१॥ अपनी आयुके अन्तमें शरीरका परित्याग करना शरीरमरण है तथा व्रती पुरुषका पापोंका परित्याग करना संस्कारमरण है ॥१२२।। इस प्रकार जिसे सब संस्कार प्राप्त हुए हैं ऐसा जीव मिथ्यादर्शनरूप पहलेके पर्यायको छोड़ देता है इसलिये वह एक तरहसे मरा हुआ ही कहलाता है ॥१२३॥ उन दोनों जन्मोंमेंसे जो पापसे दूषित नहीं है ऐसा संस्कारसे उत्पन्न हुआ यह उत्कृष्ट जन्म गुरुकी आज्ञानुसार मुझे प्राप्त हुआ है इसलिये मैं देवद्विज या देवब्राह्मण कहलाता हं ॥१२४॥ इस प्रकार न्यायमार्गसे अपने आत्माके गुणोंका उत्कर्ष प्रकट करता हुआ वह पुरुष सर्वश्रेष्ठ सद्गृहित्व अवस्थाको पाकर सद्गृहस्थ होता है ।।१२५।। उत्तम क्रियाओंके करने योग्य ब्राह्मणोंसे उनके जातिवादका अहंकार दूर करनेके लिये इसके १ज्ञानगर्थे। २ सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राणीति त्रिप्रकारैः।। ३ उपलब्ध्यपयोगसंस्कारात्मतां गताम् । ४ अयोनिसम्भवप्रकारान् । अयोनिसम्भवसदृशानित्यर्थः। ५ आगमप्रोक्तम् । ६ सूत्रमात्रमेव कण्ठे येषां ते। ७ यस्मात् कारणात् । ८ प्राकतनम् । 8 मिथ्यादर्शनत्यजनरूपेरणेत्यर्थः । १० शरीरजन्मसंस्कारजन्मनोः । ११ अस्माकम् । १२ गुरोरनुज्ञायाः । १३ गर्वस्य । १४ निराकरणाय । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व २८१ ब्राह्मणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः। ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवान् परमेष्ठी' जिनोत्तमः ॥१२७॥ स हपाविपरमब्रह्मा जिनेन्द्रो गुणब्रहणात् । परं ब्रह्म यदायत्तम् प्रामनन्ति मुनीश्वराः ॥१२॥ नैणाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः। यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात् ॥१२६॥ दिव्यमूर्ते जिनेन्द्रस्य ज्ञानगर्भादनाविलात् । समासादितजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥१३०॥ पवन्तःपातिनो नेते मन्तव्या द्विजसत्तमाः । व्रतमन्त्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ॥१३१॥ वर्णोत्तमानिमान विद्मः क्षान्तिशौचपरायणान् । सन्तुष्टान् प्राप्तवैशिष्टयान् अक्लिष्टाचारभूषणान ॥१३२॥ 'क्लिष्टाचाराः परे नैव बाह्मणा द्विजमानिनः । पापारम्भरता शश्वत् पाहत्य पशुधातिनः ॥१३३॥ सर्वमेधमयं धर्मम् अभ्युपेत्य पशुघ्नताम् । का नाम गतिरेषां स्यात् पापशास्त्रोपजीविनाम् ॥१३४॥ चोदनालक्षणं० धर्सम अधर्म प्रतिजानते। ये तेभ्यः कर्मचाण्डालान् पश्यामो नापरान् भुवि ॥१३५॥ पार्थिवैर्वण्डनीयाश्च लुण्टाकाः पापपण्डिताः। तेऽमी धर्मजुषां बाह्या ये निघ्नन्त्यघृणाः१३ पशून् ॥१३६॥ "पशुहत्यासमारम्भात् क्रव्यादेभ्योऽपि५ निष्कृपाः । यद्यच्छिति मुशन्त्येते हन्तवं धामिका हताः॥१३७॥ आगे फिर भी कुछ कहता हूं ।।१२६॥ जो ब्रह्माकी संतान हैं, उन्हें ब्राह्मण कहते हैं और स्वयंभ, भगवान, परमेष्ठी तथा जिनेन्द्रदेव ब्रह्मा कहलाते हैं। भावार्थ-जो जिनेन्द्र भगवान का उपदेश सुनकर उनकी शिष्य-परम्परामें प्रविष्ट हुए हैं वे ब्राह्मण कहलाते हैं ॥१२७।। श्रीजिनेन्द्रदेव ही आदि परम ब्रह्मा हैं क्योंकि वे ही गुणोंको बढ़ानेवाले हैं और उत्कृष्ट ब्रह्म अर्थात् ज्ञान भी उन्हीं के अधीन है ऐसा मुनियोंके ईश्वर मानते हैं ॥१२८॥ जो मृगचर्म धारण करता है, जटा , डाढ़ी आदि चिह्नोंसे युक्त है तथा कामके वश गधा होकर जो ब्रह्मतेज अर्थात् ब्रह्मचर्यसे भ्रष्ट हुआ वह कभी ब्रह्मा नहीं हो सकता ॥१२९॥ इसलिये जिन्होंने दिव्य मूर्तिके धारक श्री जिनेन्द्रदेवके निर्मल ज्ञानरूपी गर्भसे जन्म प्राप्त किया है वे ही द्विज कहलाते हैं ॥१३०।। व्रत, मन्त्र तथा संस्कारों से जिन्हें गौरव प्राप्त हुआ है ऐसे इन उत्तम द्विजोंको वर्णों के अन्तर्गत हिये अर्थात ये वर्णोत्तम हैं।॥१३॥ जो क्षमा और शौच गणके धारण करने में सदा तत्पर हैं, संतुष्ट रहते हैं, जिन्हें विशेषता प्राप्त हुई है और निर्दोष आचरण ही जिनका आभूषण है ऐसे इन द्विजोंको सब वर्गों में उत्तम मानते हैं ॥१३२।। इनके सिवाय जो मलिन आचारके धारक हैं, अपनेको झूठमूठ द्विज मानते हैं, पापका आरम्भ करने में सदा तत्पर रहते हैं और हठपूर्वक पशुओंका घात करते हैं वे ब्राह्मण नहीं हो सकते ॥१३३॥ जो समस्त हिंसामय धर्म स्वीकार कर पशुओंका घात करते हैं ऐसे पापशास्त्रोंसे आजीविका करनेवाले इन ब्राह्मणोंकी न जाने कौन सी गति होगी ? ॥१३४॥ जो अधर्म स्वरूप वेदमें कहे हुए प्रेरणात्मक धर्मको धर्म मानते हैं मैं उनके सिवाय इस पृथिवीपर और किसीको कर्म चाण्डाल नहीं देखता है अर्थात.वेदमें कहे हए धर्मको माननेवाले सबसे बढकर कर्म चाण्डाल हैं ।।१३५॥ जो निर्दय होकर पशुओंका घात करते हैं वे पापरूप कार्यों में पंडित हैं, लुटेरे हैं, और धर्मात्मा लोगोंसे बाहय हैं; ऐसे पुरुष राजाओंके द्वारा दण्डनीय होते हैं ॥१३६।। पशुओंकी हिंसा करनेके उद्योगसे जो राक्षसोंसे भी अधिक निर्दय हैं यदि ऐसे पुरुष ही उत्कृष्टताको प्राप्त होते हों तब १ परमपदे स्थितः । २ कामाद् गर्दभाकारमुख इत्यर्थः । ३ अध्ययनसम्पत्तेः । ४ अकलुषात् । ५ वर्णमात्रवर्तिन इत्यर्थः । ६ दुष्ट । ७ हठात्, साक्षात् वा। ८ हिंसामयम् । ६ हिंसां कुर्वताम् । १० वेदोक्तलक्षणम् । ११ प्रतिज्ञां कुर्वते । १२ चौराः। १३ निःकृपा। १४ पशुहननप्रारम्भात् । १५ राक्षसेभ्यः । 'राक्षसः कोणपः क्रव्यात ऋव्यादोऽस्रप आशरः' इत्यभिधानात् । १६ उन्नतिम् । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ महापुराणम् मलिनाचरिता ह्येते 'कृष्णवर्गे द्विजब्रुवा: । जैनास्तु निर्मलाचाराः 'शुक्लवर्गे मता बुधैः ॥ १३८ ॥ श्रुतिस्मृति पुरावृत्त' वृत्तमन्त्र क्रियाश्रिता । देवतालिङगकामान्तकृता शुद्धिर्द्विजन्मनाम् ॥१३६॥ ये विशुद्धतरां वृत्तिं तत्कृतां' समुपाश्रिताः । ते शुक्लवर्गे बोधव्याः शेषाः शुद्धेः बहिः कृता ॥ १४०॥ तच्छुद्धयशुद्धी बोधव्य न्यायान्यायप्रवृत्तितः । न्यायो दयार्द्रवृत्तित्वम् श्रन्यायः प्राणिमारणम् ॥ १४१ ॥ विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा द्विजाः । ' वर्णान्तःपातिनो नैते जगन्मान्या इति स्थितम् ॥ १४२ ॥ स्यादाका' च षट्कर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुसङगी स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ॥१४३॥ इत्यत्र ब्रूमहे सत्यम् अल्पसावद्यसङ्गतिः । तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ॥ १४४ ॥ श्रपि चैषां विशुद्धयङ्गं पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानीं विवृण्महे ॥ १४५ ॥ तत्र पक्षो हि जनानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम् । मंत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृ ंहितम् ॥१४६॥ चर्या तु देवतार्थं वा मन्त्रसिद्धयर्थमेव वा । श्रौषधाहारक्लृप्त्यं वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ॥ १४७ ॥ तत्राकामकृतेः शुद्धिः प्रायश्चित्तविधीयते । पश्चाच्चात्मालयं " सूनौ व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ॥ १४८ ॥ तो दुःखके साथ कहना पड़ेगा कि बेचारे धर्मात्मा लोग व्यर्थ ही नष्ट हुए || १३७॥ ये द्विज लोग मलिन आचारका पालन करते हैं और झूठमूठ ही अपनेको द्विज कहते हैं इसलिये विद्वान् लोग इन्हें कृष्णवर्ग अर्थात् पापियों के समूहमें गर्भित करते हैं और जैन लोग निर्मल आचारका पालन करते हैं इसलिये इन्हें शुक्लवर्ग अर्थात् पुण्यवानों के समूहमें शामिल करते हैं ॥ १३८ ॥ द्विज लोगों की शुद्धि श्रुति, स्मृति, पुराण, सदाचार, मन्त्र और क्रियाओंके आश्रित है तथा देवताओंके चिह्न धारण करने और कामका नाश करनेसे भी होती है ।। १३९ ।। जो श्रुत स्मृति आदिके द्वारा की हुई अत्यन्त विशुद्ध वृत्तिको धारण करते हैं उन्हें शुक्लवर्ग अर्थात पुण्यवानों के समूहमें समझना चाहिये और जो इनसे शेष बचते हैं उन्हें शुद्धिसे बाहर समझना चाहिये अर्थात् वे महा अशुद्ध हैं ।। १४० ।। उनकी शुद्धि और अशुद्धि, न्याय और अन्यायरूप प्रवृत्तिसे जाननी चाहिये । दयासे कोमल परिणाम होना न्याय है और प्राणियों का मारना अन्याय है ॥ १४१ ॥ इससे यह बात निश्चित हो चुकी कि विशुद्ध वृत्तिको धारण करनेवाले जैन लोग ही सब वर्णों में उत्तम हैं । वे ही द्विज हैं । ये ब्राह्मण आदि वर्णोंके अन्तर्गत न होकर वर्णोत्तम हैं और जगत्पूज्य हैं ।। १४२ ।। अब यहाँ यह शंका हो सकती है कि जो असि मषी आदि छह कर्मोसे आजीविका करनेवाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसाका दोष लग सकता है परन्तु इस विषय में हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है, आजीविकाके लिये छह कर्म करनेवाले जैन गृहस्थोंके थोड़ी सी हिंसाकी संगति अवश्य होती है परन्तु शास्त्रोंमें उन दोषोंकी शुद्धि भी तो दिखलाई गई है ।।१४३-१४४|| उनकी विशुद्धिके अङ्ग तीन हैं पक्ष, चर्या और साधन । अब मैं यहाँ इन्हीं तीनका वर्णन करता हूं || १४५ ॥ उन तीनोंमेंसे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिंसाका त्याग करना जैनियोंका पक्ष कहलाता है ॥ १४६ ॥ किसी देवता के लिये, किसी मंत्रकी सिद्धिके लिये अथवा किसी औषधि या भोजन बनवानेके लिये मैं किसी जीवकी हिंसा नहीं करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है ।।१४७।। इस प्रतिज्ञामें यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमादसे दोष लग जावे तो प्रायश्चित्तसे उसकी शुद्धि १ पाप । २ पुण्य । ३ आगम | ४ धर्मसंहिता । ५ पुराण । ६ श्रुतिस्मृत्यादिकृताम् ७ जैन द्विजोत्तरयोः शुद्धयशुद्धिः । ८ वर्णमात्रवर्तिनः। शङ्का । १० 'हिंसादोषोनुसङ्गी स्याद्' इत्यत्र । ११ सत्यमित्यङ्गीकारे । १२ चेष्टिते । व्यापारे इत्यर्थः । १३ प्रमादजनिते दोषे । १४ - चात्मान्वयं 1 द०, ल०, इ०, अ०, प०, स० । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व २८३ · चयैषा गहिणां प्रोक्ता जीवितान्ते तु साधनम् । देहाहारहितत्यागात् ध्यानशुद्धात्मशोधनम् ॥१४६।। त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शी वधेनाहद्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यानिराकृतिः ॥१५०॥ चतुर्णामाश्रमाणां च शुद्धिः स्यावाहते मते। चातुराश्रम्यमन्येषाम् अविचारितसुन्दरम् ॥१५॥ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽय भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानाम् उत्तरोत्तरशद्धितः ॥१५२॥) ज्ञातव्याः स्युः प्रपञ्चेन सान्तर्भेदाः पृथग्विधाः । ग्रन्थगौरवभीत्या तु नात्रतेषां प्रपञ्चना ॥१५३॥ सद्गृहित्वमिदं ज्ञेयं गुणैरात्मोपबृहणम् । पारिवाज्यमितो वक्ष्ये सुविशुद्धं क्रियान्तरम् ॥१५४॥ इति सद्गहित्वम् । गार्हस्थ्यमनुपाल्पवं गृहवासाद विरज्यतः' । यद्दीक्षाग्रहणं तद्धि पारिवाज्यं प्रचक्षते ॥१५॥ पारिवाज्यं परिव्राजो भावो निर्वाणवीक्षणम् । तत्र निर्ममता वृत्त्या जातरूपस्य धारणम् ॥१५६॥ प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगलग्न ग्रहांशके। निर्ग्रन्थाचार्यमाश्रित्य दीक्षा प्राह्या मुमुक्षुणा ॥१५७।) विशुद्धकलगोत्रस्य सदवृत्तस्य वपुष्मतः। दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं समुखस्य सुमेधसः॥१५८।। "ग्रहोपरागग्रहणे परिवेषेन्द्रचापयोः । वक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽम्बरे ॥१५॥ की जाती है तथा अन्तमें अपना सब कुटुम्ब पुत्रके लिये सौंपकर घरका परित्याग किया जाता है ॥१४८।। यह गृहस्थ लोगोंकी चर्या कही, अब आगे साधन कहते हैं। आयुके अन्द अन्त समयमें शरीर आहार और समस्त प्रकारकी चेष्टाओंका परित्याग कर ध्यानकी शुद्धिसे जो आत्माको शुद्ध करना है उसे साधन कहते हैं ।।१४९।। अरहन्तदेवको माननेवाले द्विजोंका पक्ष, चर्या और साधन इन तीनोंमें हिंसाके साथ स्पर्श भी नहीं होता, इस प्रकार अपने ऊपर ठहराये हुए दोषोंका निराकरण हो सकता है ॥१५०।। चारों आश्रमोंकी शुद्धता भी श्री अर्हन्तदेवके मतमें ही है । अन्य लोगोंने जो चार आश्रम माने हैं वे विचार किये बिना ही सुन्दर हैं अर्थात् जब तक उनका विचार नहीं किया गया है तभी तक सुन्दर हैं ॥१५१॥ ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियोंके चार आश्रम हैं जो कि उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि होनेसे प्राप्त होते ये चारा हा आश्रम अपने अपने अन्तभदोस सहित होकर अनेक प्रकारक हो जातं हैं, उनका विस्तारके साथ ज्ञान प्राप्त करना चाहिये परन्तु ग्रन्थ बढ जानेके भयसे यहाँ उनका विस्तार नहीं लिखा है ।।१५३।। इस प्रकार गुणोंके द्वारा अपने आत्माकी वृद्धि करना यह सद्गुहित्व क्रिया है । अब इसके आगे अत्यन्त विशुद्ध पारिव्रज्य नामकी तीसरी क्रियाका निरूपण करेंगे ॥१५४॥ यह दूसरी सद्गृहित्व क्रिया है। इस प्रकार गृहस्थधर्मका पालन कर घरके निवाससे विरक्त होते हुए पुरुषका जो दीक्षा ग्रहण करना है उसे पारिव्रज्य कहते हैं ॥१५५।। परिव्राट्का जो निर्वाणदीक्षारूप भाव है उसे पारिव्रज्य कहते हैं, इस पारिव्रज्य क्रियामें ममत्व भाव छोड़कर दिगम्बररूप धारण करना पड़ता है ॥१५६॥ मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषको शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहोंके अंशमें निर्ग्रन्थ आचार्यके पास जाकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये ॥१५७।। जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चरित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है ॥१५८॥ जिस दिन ग्रहोंका उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य-चन्द्रमापर परिवेष (मण्डल) हो, इन्द्रधनुष उठा हो, दुष्ट ग्रहोंका उदय हो, आकाश मेघपटलसे ढका हुआ हो, नष्ट मास ५ मुहूर्तः । १ चेष्टा। २ चतुराश्रमत्वम्। ३ नानाप्रकाराः। ४ विरक्ति गच्छतः । ६ ग्रहांशकैः ल०, द०, अ०, प०, इ०, स० । ७ चन्द्रादिग्रहणे । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ महापुराणम् नष्टाधिमासदिनयोः संक्रान्तौ हानिमत्तिथौ । दीक्षाविधि मुमुक्षणां नेच्छन्ति कृतबुद्धयः ॥१६॥ "सम्प्रदायमनावृत्य यस्त्विमं वीक्षयवधीः । स साधुभिर्बहिः कार्यो वृद्धात्यासादनारतः ॥१६॥ "तत्र सुत्रपटान्याहः योगीन्द्राः सप्तविंशतिम । निणीत भवेत्साक्षात् पारिवाज्यस्य लक्षणम् ॥१६२॥ जातिर्मतिश्च तत्रस्य लक्षणं सुन्दराङगता । प्रभामण्डलचक्राणि तथाभिषवनाथते ॥१६३॥ सिंहासनोपधान च छत्रचामरघोषणः । प्रशोकवृक्षनिधयो गृहशोभावगाहने ॥१६॥ क्षेत्रज्ञाऽऽज्ञा सभाः कोतिर्वन्धता वाहनानि च । भाषाहारसुखानीति जात्यादिः सप्तविंशतिः ॥१६॥ जात्यादिकानिमान् सप्तविंशति परमेष्ठिनाम् । गणानाहर्भजेद्दीक्षा स्वष२ एतेष्वकृतादरः ॥१६६॥ जातिमानप्यनुत्सिक्तः" सम्भजेदहतां क्रमौ५। यतो जात्यन्तरे जात्यां याति जाति"चतुष्टयोम्॥१६७। जातिरेन्द्री भवेदिव्या चक्रिणां विजयाश्रिता । परमा जातिरार्हन्त्य स्वात्मोत्था सिद्धिमीयुषाम् ॥१६८॥ अथवा अधिक मासका दिन हो, संक्रान्ति हो अथवा क्षयतिथिका दिन हो उस दिन बुद्धिमान् आचार्य मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्योंके लिये दीक्षाकी विधि नहीं करना चाहते हैं अर्थात् उस दिन किसी शिष्यको नवीन दीक्षा नहीं देते हैं ॥१५९-१६०॥ जो मन्दबद्धि आचार्य इस सम्प्रदायका अनादर कर नवीन शिष्यको दीक्षा दे देता है वह वृद्ध पुरुषोंके उल्लंघन करने में तत्पर होनेसे अन्य साधुओंके द्वारा बहिष्कार कर देने योग्य है । भावार्थ-जो आचार्य असमयमें ही शिष्योंको दीक्षा दे देता है वह वृद्ध आचार्योंकी मान्यताको उल्लंघन करता है इसलिये साधुओंको चाहिये कि वे ऐसे आचार्यको अपने संघसे बाहर कर दे ।।१६१।। मुनिराज इस पारिव्रज्य क्रियामें उन सताईस सूत्र पदोंका निरूपण करते हैं जिनका कि निर्णय होनेपर पारिव्रज्यका साक्षात् लक्षण प्रकट होता है ॥१६२॥ जाति, मूर्ति, उसमें रहनेवाले लक्षण, शरीरकी सुन्दरता, प्रभा, मण्डल, चक्र, अभिषेक, नाथता, सिंहासन, उपधान, छत्र, चामर, घोषणा, अशोक वृक्ष, निधि, गृहशोभा, अवगाहन, क्षेत्रज्ञ, आज्ञा, सभा, कीर्ति, वन्दनीयता, वाहन, भाषा, आहार और सुख ये जाति आदि सत्ताईस सूत्रपद कहलाते हैं ॥१६३-१६५।। ये जाति आदि सत्ताईस सूत्रपद परमेष्ठियोंके गुण कहलाते हैं । उस भव्य पुरुषको अपने जाति आदि गुणोंसे आदर न करते हुए दीक्षा धारण करना चाहिये । भावार्थ-ये जाति आदि गुण जिस प्रकार परमेष्ठियोंमें होते हैं उसी प्रकार दीक्षा लेनेवाले शिष्यमें भी यथासंभव रूपसे होते हैं परन्तु शिष्यको अपने जाति आदि गुणोंका सन्मान नहीं कर परमेष्ठियोंके ही जाति आदि गुणोंका सन्मान करना चाहिये । क्योंकि ऐसा करनेसे वह शिष्य अहंकार आदि दुर्गुणोंसे बचकर अपने आपका उत्थान शीघ्र ही कर सकता है ।।१६६॥ स्वयं उत्तम जातिवाला होनेपर भी अहंकाररहित होकर अरहन्तदेवके चरणोंकी सेवा करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करनेसे वह भव्य दसरे जन्म में उत्पन्न होनेपर दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार जातियोंको प्राप्त होता है ॥१६७।। इन्द्र के दिव्या जाति होती है, चक्रवतियोंके विजयाश्रिता, अरहन्तदेवके परम। और मोक्षको प्राप्त हुए जीवोंके अपने आत्मासे उत्पन्न होनेवाली स्वा १ नष्टमासस्याधिकमासस्य दिनयोः । २ असम्पर्णतिथौ। ३ सम्पूर्णमतयः । ४ आम्नायम् (परम्पराम्)। ५ दीक्षां स्वीकुर्यात् । ६ वृद्धातिक्रमणे तत्परः । ७ परिव्राज्यः । ८ निश्चितैः । ६ प्रत्यक्षम् । १० मूर्तिस्थितम् । तत्रत्यं ल०। ११ अभिषवश्च अभिषेको नाथता च स्वामित्वं च । १२ आत्मीयेषु । १३ जात्यादिषु । १४ अगर्वित । १५ चरणौ। १६ जन्मान्तरे । १७ उत्पत्तौ सत्याम् । १८ दिव्यजातिविजयजातिः परमजातिः स्वामोत्थजातिरिति । १६ इन्द्रस्य इयम् । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व २८५ माविष्वपि नेतव्या कल्पनेयं चतुष्टयो। पुराण रसम्मोहात् क्वचिच्च त्रितयी मता ॥१६॥ कर्शयन्मूत्तिमात्मीयां रसन्मूर्तीः शरीरिणाम् । तपोधितिष्ठेद् दिव्यादिमूर्तीराप्तुमना मुनिः॥१७०॥ स्वलक्षणमनिर्देश्यं मन्यमानो जिनेशिनाम् । लक्षणान्यभिसन्धाय तपस्येत् कृतलक्षणः ॥१७१॥ मलापयन् स्वारगसौन्दर्य मुनिरुग्रं तपश्चरेत् । वाञ्छन्दिव्यादिसौन्दर्यम् अनिवार्यपरम्परम् ॥१७२॥ मनोमसाङगो पुत्सृष्टस्वकायप्रभवप्रभः। प्रभोः प्रभां मुनिया॑यन् भवेत् क्षिप्रं प्रभास्वरः ॥१७३॥ स्पं मणिस्नेह वीपादितेजोऽपास्य जिनं भजन । तेजोमयमयं योगी स्यात्तेजोवलयोज्ज्वलः ॥१७४॥ त्वक्त्वाऽस्त्र वस्त्र शस्त्राणि प्राक्तनानि प्रशान्तिभाक् । जिनमाराध्य योगीन्द्रो धर्मचक्राधिपो भवेत् ॥ त्यक्तस्नानादिसंस्कारः संश्रित्य स्नातकर२ जिनम् । मूनि मेरोरवाप्नोति परं जन्माभिषेचनम् ॥१७६॥ स्वं स्वाम्यमैहिकं त्यक्त्वा परमस्वामिनं जिनम् । तेवित्वा सेवनीयत्वम् एष्यत्येष जगज्जनः ॥१७७॥ स्वोचितासनभेदानां त्यागात्त्यक्ताम्बरो मुनिः । संह विष्टरमध्यास्य तीर्थप्रख्यापको भवेत् ॥१७८॥ "स्वोपधानावनात्य योऽभूनिरुपणधिभुवि । शयानः स्थण्डिले बाहुमात्रापितशिरस्तटः ॥१७॥ जाति होती है ॥१६८॥ इन चारोंकी कल्पना मूर्ति आदिमें कर लेनी चाहिये, अर्थात् जिस प्रकार जातिके दिव्या आदि चार भेद हैं उसी प्रकार मूर्ति आदिके भी समझ लेना चाहिये। परन्तु पुराणोंको जाननेवाले आचार्य मोहरहित होनेसे किसी किसी जगह तीन ही भेदोंकी कल्पना करते हैं । भावार्थ -सिद्धोंमें स्वा मूर्ति नहीं मानते हैं ॥१६९।। जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियोंको प्राप्त करना चाहता है उसे अपना शरीर कृश करना चाहिये तथा अन्य जीवोंके शरीरोंकी रक्षा करते हुए तपश्चरण करना चाहिये ।।१७०॥ इसी प्रकार अनेक लक्षण धारण करनेवाला वह पुरुष अपने लक्षणोंको निर्देश करनेके अयोग्य मानता हुआ जिनेन्द्रदेवके लक्षणोंका चिन्तवनकर तपश्चरण करे ।।१७१।। जिनकी परम्परा अनिवार्य है ऐसे दिव्य आदि सौन्दर्योकी इच्छा करता हुआ वह मुनि अपने शरीरके सौन्दर्यको मलिन करता हुआ कठिन तपश्चरण करे ॥१७२॥ जिसका शरीर मलिन हो गया है, जिसने अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाली प्रभा का त्याग कर दिया है और जो अर्हन्तदेवकी प्रभाका ध्यान करता है ऐसा साधु शीघ्र ही देदीप्यमान हो जाता है अर्थात् दिव्यप्रभा आदि प्रभाओंको प्राप्त करता है ॥१७३॥ जो मुनि अपने मणि और तेलके दीपक आदिका तेज छोड़कर तेजोमय जिनेन्द्र भगवान्की आराधना करता है वह प्रभामण्डलसे उज्ज्वल हो उठता है ।।१७४॥ जो पहलेके अस्त्र, वस्त्र और शस्त्र आदि को छोड़कर अत्यन्त शान्त होता हुआ जिनेन्द्रभगवान्की आराधना करता है वह योगिराज धर्मचक्रका अधिपति होता है ॥१७५॥ जो मनि स्नान आदिका संस्कार छोडकर केवली जिनेन्द्रका आश्रय लेता है अर्थात् उनका चिन्तवन करता है वह मेरुपर्वतके मस्तकपर उत्कृष्ट जन्माभिषेकको प्राप्त होता है ॥१७६॥ जो मुनि अपने इस लोक-सम्बन्धी स्वामीपनेको छोड़कर परमस्वामी श्रीजिनेन्द्रदेवकी सेवा करता है वह जगत्के जीवोंके द्वारा सेवनीय होता है अर्थात् जगत्के सब जीव उसकी सेवा करते हैं ।।१७७।। जो मुनि अपने योग्य अनेक आसनों के भेदोंका त्यागकर दिगम्बर हो जाता है वह सिंहासनपर आरूढ़ होकर तीर्थको प्रसिद्ध करनेवाला अर्थात् तीर्थकर होता है ।।१७८।। जो मुनि अपने तकिया आदिका अनादर कर परिग्रह १ दिव्यमूर्तिविजयमूतिः परममूर्तिः स्वात्मोत्थमूर्तिरिति एवमुत्तरत्रापि योजनीयम् । २ सिद्धादौ । ३ नामसंकीर्तनं कर्तुमयोग्यमिति । ४ ध्यात्वा । ५ गुणैः प्रतीतः । 'गुणैः प्रतीते तु कृतलक्षणाहितलक्षणो'इत्यभिधानात् । ६ म्लानि कुर्वन् । ७जिनस्य। ८ तैलाभ्यङगन । ६ दिव्यास्त्र । १० -व्यस्त्रट०। करमुक्तः । ११ सामान्यास्त्र । १२ प्रकृष्टज्ञानातिशयम् । १३ स्वामित्वम्। १४ निजोपवर्हासनादि । 'उपधानं तूपवर्हम्' इत्यभिधानात् । १५ निःपरिग्रहः । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ महापुराणम् स महाभ्युदगं प्राप्य जिमो भूत्वाऽऽप्तसक्रियः । देवैविरचितं वीप्रम् प्रास्कन्वत्युपधानकम् ॥१८॥ त्यक्तशीतातपत्राण सकलात्मपरिच्छदः । त्रिभिश्छत्रः समुद्भासिरत्नरुद्भासते स्वयम् ॥१५॥ विविधव्यजन त्यागाद् अनुष्ठिततपोविधिः । चामराणां चतुःषष्ठया वीज्यते जिनपर्यये ॥१८२॥ उज्झितानकसङगीतघोषः कृत्वा तपोविधिम् । स्याद्'धुदुन्दुभिनिर्घोषैः घुष्यमाणजयोदयः ॥१८३॥ उद्यानादिकृतां छायाम् अपास्य स्वां तपो व्यधात् । यतोऽयमत एवास्य स्यादशोकमहाद्रुमः ॥१८४॥ स्वं 'स्वापतेयमुचितं त्यक्त्वा निर्ममतामितः । स्वयं निधिभिरभ्येत्य सेव्यते द्वारि दूरतः॥१८॥ गहशोभां कृतारक्षां दूरीकृत्य तपस्यतः । श्रीमण्डपादिशोभास्य स्वतोऽभ्येति पुरोगताम् ॥१८६॥ तपोऽवगाहनादस्य गहनाम्यधितिष्ठतः। त्रिजगज्जनतास्थानसहं स्यादवगाहनम् ॥१८७॥ क्षेत्रवास्तुसमुत्सर्गात् क्षेत्रज्ञत्वमुपेयुषः। स्वाधीनत्रिजगत्क्षेत्रम् ऐश्यमस्योपजायते ॥१८॥ प्राज्ञाभिमानमुत्सृज्य मौनमास्थितवानयम् । प्राप्नोति परमामाज्ञां सुरासुरशिरोधृताम् ॥१८६॥ स्वामिष्टभृत्यबन्ध्वादिसभामुत्सृष्टवानयम् । परमाप्तपदप्राप्तौ अध्यास्ते त्रिजगत्सभाम् ॥१०॥ रहित हो जाता है और केवल अपनी भुजापर शिरका किनारा रखकर पृथिवीके ऊंचे-नीचे प्रदेशपर शयन करता है वह महाअभ्युदय (स्वर्गादिकी विभूति) को पाकर जिन हो जाता है, उस समय सब लोग उसका आदर-सत्कार करते हैं और वह देवोंके द्वारा बने हुए देदीप्यमान तकियाको प्राप्त ह प्त होता है ।।१७९-१८०।। जो मुनि शीतल छत्र आदि अपने समस्त परिग्रह का त्याग कर देता है वह स्वयं देदीप्यमान रत्नोंसे युक्त तीन छत्रोंसे सुशोभित होता है ॥१८१॥ अनेक प्रकारके पंखाओंके त्यागसे जिसने तपश्चरणकी विधिका पालन किया है ऐसा मुनि जिनेन्द्र पर्यायमें चौंसठ चमरोंसे वीजित होता है अर्थात् उसपर चौंसठ चमर ढुलाये जाते हैं ॥१८२।। जो मुनि नगाड़े तथा संगीत आदिकी घोषणाका त्याग कर तपश्चरण करता है उसके विजयका उदय स्वर्गके दुन्दुभियोंके गम्भीर शब्दोंसे घोषित किया जाता है ॥१८३॥ चकि पहले उसने अपने उद्यान आदिके द्वारा की हुई छायाका परित्याग कर तपश्चरण किया था इसलिये ही अब उसे (अरहन्तअवस्थामें) महाअशोक वृक्षकी प्राप्ति होती है ।।१८४॥ जो अपना योग्य धन छोड़कर निर्ममत्वभावको प्राप्त होता है वह स्वयं आकर दूर दरवाजेपर खड़ी हुई निधियोंसे सेवित होता है अर्थात् समवसरण भूमिमें निधियाँ दरवाजेपर खड़े रहकर उसकी सेवा करती हैं ॥१८५॥ जिसकी रक्षा सब ओरसे की गई थी ऐसी घरकी शोभाको छोड़कर इसने तपश्चरण किया था इसीलिये श्रीमण्डपकी शोभा अपने आप इसके सामने आती है ॥१८६॥ जो तप करने के लिये सघन वनमें निवास करता है उसे तीनों जगत्के जीवोंके लिये स्थान दे सकनेवाली अवगाहन शक्ति प्राप्त हो जाती है अर्थात् उसका ऐसा समवसरण रचा जाता है जिसमें तीनों लोकोंके समस्त जीव सुखसे स्थान पा सकते हैं ।।१८७।। जो क्षेत्र मकान आदिका परित्याग कर शुद्ध आत्माको प्राप्त होता है उसे तीनों जगत्के क्षेत्रको अपने आधीन रखनेवाला ऐश्वर्य प्राप्त होता है ॥१८८॥ जो मुनि आज्ञा देनेका अभिमान छोडकर मौन धारण करता है उसे सर और असरोंके द्वारा शिरपर धारण की हई उत्कृष्ट आज्ञा प्राप्त होती है अर्थात् उसकी आज्ञा सब जीव मानते हैं ॥१८९।। जो यह मुनि अपने इष्ट सेवक तथा भाई आदिको सभाका परित्याग करता है इसलिये उत्कृष्ट अरहन्त पदकी प्राप्ति होनेपर १ उपवर्हम् । २ छत्र । ३ चामर। ४ अर्हपर्याये सति । ५ स्वर्दुन्दुभिभिः । ६ धनम् । 'ट्रव्यं वत्तं स्वापतेयं रिक्थं दृक्थं धनं वसुः' इत्यभिधानात् । ७ निर्गमत्वं गतः । ८ अग्रेसरताम् । है प्रवेशनात् । १० आत्मस्वरूपत्वम् । 'क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः' इत्यभिधानात् । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व स्वगुणोत्कीर्तनं त्यक्त्वा त्यक्तकामो महातपाः । स्तुतिनिन्दासमो भूयः कीर्त्यते भुवनेश्वरैः ॥११॥ वन्दित्वा वन्द्यमर्हन्तं 'यतोऽनुष्ठितवांस्तपः । ततोऽयं वन्द्यते वन्यैः श्रनिन्द्यगुणसन्निधिः ॥ १६२ ॥ तपोऽयमनुपानत्कः पादचारी विवाहनः । कृतवान् पद्मगर्भेषु चरणन्यासमर्हति ॥ १६३॥ गुप्तोहितवाग्वृत्त्या यतोऽयं तपसि स्थितः । ततोऽस्य दिव्यभाषा स्यात् प्रीणयन्त्यखिलां सभाम् ॥ १६४ ॥ अनाश्वान्नियताहारपारणोऽतप्त यत्तपः । तदस्य दिव्य विजय परमामृततृप्तयः ॥१६५॥ त्यक्तकामसुखो भूत्वा तपस्यस्थाच्चिरं यतः । ततोऽयं सुखसाद्भूत्वा परमानन्दथुं भजेत् ॥ १६६॥ किमत्र बहुनोक्तेन यद्यदिष्टं यथाविधम् । त्यजेन्मुनिरसंकल्पः तत्तत्सूतेऽस्य तत्तपः ॥१६७॥ प्राप्तोत्कर्षं तदस्य स्यात्तपश्चिन्तामणेः फलम् । यतोऽर्हज्जातिमूर्त्यादिप्राप्तिः सैषाऽनुवर्णिता ॥ १६८ ॥ जैनेश्वरीं परामाज्ञां सूत्रोद्दिष्टां प्रमाणयन् । तपस्यां यदुपाधत्ते पारिव्राज्यं तदाञ्जसम् ॥१६६॥ श्रन्यच्च बहुवाग्जाले निबद्धं युक्तिबाधितम् । पारिव्राज्य परित्यज्य ग्राह्यं चेदमनुत्तरम् ॥२००॥ इति पारिव्राज्यम् । वह तीनों लोकों की सभा अर्थात् समवसरण भूमिमें विराजमान होता है ॥ १९०॥ जो सब प्रकारकी इच्छाओंका परित्याग कर अपने गुणोंकी प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति तथा निन्दामें समान भाव रखता है वह तीनों लोकोंके इन्द्रोंके द्वारा प्रशंसित होता है अर्थात् सब लोग उसकी स्तुति करते हैं ॥। १९१ || इस मुनिने वन्दना करने योग्य अर्हन्तदेवकी बन्दना कर तपश्चरण किया था इसीलिये यह वन्दना करने योग्यपूज्य पुरुषोंके द्वारा वन्दना किया जाता है तथा प्रशंसनीय उत्तम गुणोंका भाण्डार हुआ है ।। १९२॥ जो जूता और सवारीका परित्याग कर पैदल चलता हुआ तपश्चरण करता है वह कमलों के मध्यमें चरण रखनेके योग्य होता है अर्थात् अर्हन्त अवस्थामें देवलोग उसके चरणोंके नीचे कमलोंकी रचना करते हैं ॥१९३॥ | चूँकि यह मुनि वचनगुप्तिको धारण कर अथवा हित मित वचनरूप भाषासमितिका पालन कर तपश्चरण में स्थित हुआ था इसलिये ही इसे समस्त सभाको संतुष्ट करनेवाली दिव्य ध्वनि प्राप्त हुई है ।। १९४ ।। इस मुनिने पहले उपवास धारण कर अथवा नियमित आहार और पारणाएं कर तप तपा था इसलिये ही इसे दिव्यतृप्ति, विजयतृप्ति, परमतृप्ति और अमृततृप्ति ये चारों ही तृप्तियाँ प्राप्त हुई हैं ।। १९५ ।। यह मुनि काम जति सुखको छोड़कर चिरकाल तक तपश्चरण में स्थिर रहा था इसलिये ही यह सुखस्वरूप होकर परमानन्दको प्राप्त हुआ है ।। १९६ ॥ इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? संक्षेप में इतना ही कह देना ठीक है कि मुनि संकल्परहित होकर जिस प्रकारकी जिस जिस वस्तुका परित्याग करता है उसका तपश्चरण उसके लिये वही वही वस्तु उत्पन्न कर देता है ॥ १९७॥ जिस तपश्चरणरूपी चिन्तामणिका फल उत्कृष्ट पदकी प्राप्ति आदि मिलता है और जिससे अर्हन्तदेवकी जाति तथा मूर्ति आदिकी प्राप्ति होती है ऐसी इस पारिव्रज्य नामकी क्रियाका वर्णन किया ।। १९८ ।। जो आगममें कही हुई जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको प्रमाण मानता हुआ तपस्या धारण करता है अर्थात् दीक्षा ग्रहण करता है उसीके वास्तविक पारिव्रज्य होता है ।।१९९॥ अनेक प्रकारके वचनों के जालमें निबद्ध तथा युक्तिसे बाधित अन्य लोगोंके पारिव्रज्य १ यस्मात् कारणात् । भवति । ५ अनशनव्रती । मृततृप्तयः । ६ आनन्दम् । १३ - मनुत्तमम् ल० । २८७ २ गणधरादिभिः । ३ पादत्राणरहितः । ४ पादन्यासस्य योग्यो ६ अकरोत् । ७ यत् कारणात् । ८ दिव्यतृप्तिविजयतृप्तिपरमतृप्त्य१० प्रसिद्धं तपः । ११ पारमार्थिकम् । १२ अर्हत्सम्बन्धि पारिव्राज्यम् । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ महापुराणम् या सुरेन्द्रपदप्राप्तिः पारिवाज्यफलोदयात् । सैषा सुरेन्द्रता नाम क्रिया प्रागनुवर्णिता ॥२०१॥ इति सुरेन्द्रता। साम्राज्यमाधिराज्यं स्याच्चक्ररत्नपुरःसरम् । निधिरत्नसमुद्भूतं भोगसम्पत्परम्परम् ॥२०२॥ इति सामाज्यम् । आर्हन्त्यमहतो भावो कर्म वेति परा क्रिया। यत्र स्वर्गावतारादिमहाकल्याणसम्पदः ॥२०३।। याऽसौ दिवोऽवतीर्णस्य प्राप्तिः कल्याणसम्पदाम् । तदाहन्त्यमिति ज्ञेयं त्रैलोक्यक्षोभकारणम् ॥२०४॥ इत्यार्हन्त्यम् । भवबन्धनमुक्तस्य यावस्था परमात्मनः। परिनिर्वृत्तिरिष्टा सा परं निर्वाणमित्यपि ॥२०॥ कृत्स्नकर्ममलापायात संशद्धिर्याऽन्तरात्मनः । सिद्धिःस्वात्मोपलब्धिः सानाभावो न गुणोच्छिवा ॥२०६॥ इति निर्वतिः। ( इत्यागमानुसारेण प्रोक्ताः कर्बन्वयक्रियाः । सप्तैताः परमस्थानसङगतिर्यत्र योगिनाम् ॥२०७॥ योऽनुतिष्ठत्यतन्द्राल: क्रिया ह्येतास्त्रिघोदिताः। सोऽधिगच्छेत् परं धाम यत्सम्प्राप्तो परं शिवम् ॥२०८॥ पुष्पिताग्रावृत्तम् (जिनमतविहितं पुराणधर्म य इममनुस्मरति क्रियानिबद्धम् । अनुचरति च पुण्यधीः स भव्यो भवभयबन्धनमाशु निर्धनाति ॥२०६॥ को छोड़कर इसी सर्वोत्कृष्ट पारिव्रज्यको ग्रहण करना चाहिये ।।२००॥ यह तीसरी पारिव्रज्य क्रिया है। पारिव्रज्यके फलका उदय होनेसे जो सुरेन्द्र पदकी प्राप्ति होती है वही यह सुरेन्द्रता 'क्रया है इसका वर्णन पहले किया जा चुका है ॥२०१॥ यह चौथी सरेन्द्रता क्रिया है। _ जिसमें चक्ररत्नके साथ साथ निधियों और रत्नोंसे उत्पन्न हुए भोगोपभोगरूपी संपदाओं की परम्परा प्राप्त होती है ऐसा चक्रवर्तीका बड़ा भारी राज्य साम्राज्य कहलाता है ॥२०२॥ यह पाँचवीं साम्राज्यक्रिया है। अर्हत् परमेष्ठीका भाव अथवा कर्मरूप जो उत्कृष्ट क्रिया है उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते हैं। इस क्रिया में स्वर्गावतार आदि महाकल्याणकरूप सम्पदाओंकी प्राप्ति होती है ॥२०३।। स्वर्गसे अवतीर्ण हुए अर्हन्त परमेष्ठीको जो पञ्चकल्याणकरूप सम्पदाओंकी प्राप्ति होती है उसे आर्हन्त्य क्रिया जानना चाहिये, यह आर्हन्त्यक्रिया तीनों लोकोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाली है ॥२०४॥ यह छठवों आर्हन्त्यक्रिया है। संसारके बन्धनसे मुक्त हुए परमात्माकी जो अवस्था होती है उसे परिनिर्वृति कहते हैं । इसका दूसरा नाम परनिर्वाण भी है ।।२०५।। समस्त कर्मरूपी मलके नष्ट हो जानेसे जो अन्तरात्माकी शुद्धि होती है उसे सिद्धि कहते हैं. यह सिद्धि अपने आत्मतत्त्वकी प्राप्तिरूप है अभावरूप नहीं है और न ज्ञान आदि गुणोंके नाशरूप ही है ।।२०६।। यह सातवीं परिनिर्वृति क्रिया है । इस प्रकार आगमके अनुसार ये सात कन्वय क्रियाएं कही गई हैं, इन क्रियाओंका पालन करनेसे योगियोंको परम स्थानकी प्राप्ति होती है ॥२०७।। जो भव्य आलस्य छोड़कर निरूपण की हुई इन तीन प्रकारकी क्रियाओंका अनुष्ठान करता है वह उस परम धाम (मोक्ष) को प्राप्त होता है जिसके प्राप्त होनेपर उसे उत्कृष्ट सुख मिल जाता है ॥२०८॥ पवित्र बुद्धिको धारण करने ३ 'बुद्धिसुखदुःखादिनवानामात्मगुणानामत्यन्तोच्छि १ फलोदय प० । २ तुच्छाभावरूपो न। त्तिर्मोक्ष' इति मतप्रोक्तो मोक्षो न । ४ सुखम् । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व २८९ परमजिनपदानुरक्तधीः भजति पुमान् य इमं क्रियाविधिम् । स धुतनिखिलकर्मबन्धनो जननजरामरणान्तकृद् भवेत् ॥२१०॥ शार्दूलविक्रीडितम् भव्यात्मा समवाप्य जातिमुचितां जातस्ततः सद्गृही पारिवाज्यमनुत्तरं गुरुमतादासाद्य यातो दिवम् । तत्रैन्त्रीं श्रियमाप्तवान् पुनरतश्च्युत्वा गतश्चक्रिताम् प्राप्ताहन्त्यपदः समग्रमहिमा प्राप्नोत्यतो नि तिम् ॥२११॥ इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे दीक्षाकर्बन्वयक्रियावर्णनं नाम एकोनचत्वारिंशत्तम पर्व ॥३६॥ वाला जो भव्य पुरुष उक्त क्रियाओंसहित जिनमतमें कहे हुए इस पुराणके धर्मका अथवा प्राचीन धर्मका स्मरण करता है और उसीके अनुसार आचरण करता है वह संसारसम्बन्धी भयके बन्धनोंको शीघ्र ही तोड़ देता है-नष्ट कर देता है ॥२०९॥ जिसकी बुद्धि अत्यन्त उत्कृष्ट जिनेन्द्रभगवान्के चरणकमलोंमें अनुरागको प्राप्त हो रही है ऐसा जो पुरुष इन क्रियाओंकी विधिका सेवन करता है वह समस्त कर्मवन्धनको नष्ट करता हुआ जन्म, बुढापा और मरणका अन्त करनेवाला होता है ।।२१०॥ यह भव्य पुरुष प्रथम ही योग्य जातिको पाकर सद्गृहस्थ होता है फिर गुरुकी आज्ञासे उत्कृष्ट पारिव्रज्यको प्राप्तकर स्वर्ग जाता है, वहां उसे इन्द्रकी लक्ष्मी प्राप्त होती है, तदनन्तर वहांसे च्युत होकर चक्रवर्ती पदको प्राप्त होता है, फिर अरहन्त पदको प्राप्त होकर उत्कृष्ट महिमाका धारक होता है और इसके बाद निर्वाणको प्राप्त होता है ॥२११॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवादमें दीक्षान्वय और कन्वय क्रियाओं का वर्णन करनेवाला उनतालीसवां पर्व समाप्त हुआ। १ विनाशकारी। २ स्वर्गात् । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व अथातः सम्प्रवक्ष्यामि क्रियासूत्तरचूलिकाम् । विशेषनिर्णयो यत्र क्रियाणां तिसृणामपि ॥१॥ तत्रादौ तावदुन्नेष्य क्रियाकल्पप्रक्लप्तये । मन्त्रोद्धारंक्रियासिद्धिः मन्त्राधीना हि योगिनाम् ॥२॥ प्राधानादि क्रियारम्भ पूर्वमेव निवेशयत । त्रीणिच्छत्राणि चक्राणां त्रयं त्रीश्च हविर्भुजः ॥३॥ 'मध्येवेदि जिनेन्द्रार्चाः स्थापयेच्च यथाविधि । मन्त्रकल्पोऽयमाम्नातस्तत्र तत्पूजनाविधौ ॥४॥ नमोऽन्तो नीरजश्शब्दश्चतुर्थ्यन्तोऽत्र पठ्यताम् । जलेन भूमिबन्धार्थ परा शुद्धिस्तु तत्फलम् ॥५॥ (नीरजसे नमः) दर्भास्तरणसम्बन्धस्ततः पश्चादुदीर्यताम् । विघ्नोपशान्तये दर्पमथनाय नमः पदम् ॥६॥ (दर्पमथनाय नमः) गन्धप्रदानमन्त्रश्च शीलगन्धाय वै नमः । (शीलगन्धाय नमः) पुष्पप्रदानमन्त्रोऽपि विमलाय नमः पदम् ॥७॥ (विमलाय नमः) __ अथानन्तर-आगे इन क्रियाओंकी उत्तरचूलिकाका कथन करेंगे जिसमें कि इन तीनों क्रियाओंका विशेष निर्णय किया गया है ॥१॥ इस उत्तरचूलिकामें भी सबसे पहले क्रियाकल्प अर्थात् क्रियाओं के समूहकी सिद्धिके लिये मन्त्रोंका उद्धार करूंगा अर्थात् मंत्रोंकी रचना आदि का निरूपण करूंगा सो ठीक ही है क्योंकि मुनियों के कार्यकी सिद्धि भी मंत्रोंके ही आधीन होती है ॥२॥ आधानादि क्रियाओंके प्रारम्भ में सबसे पहले तीन छत्र, तीन चक्र और तीन अग्नियां स्थापित करना चाहिये ॥३॥ और वेदीके मध्य भागमें विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा विराजमान करनी चाहिये। उक्त क्रियाओंके प्रारम्भमें उन छत्र, चक्र, अग्नि तथा जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाकी जो पूजा की जाती है वह मन्त्रकल्प कहलाता है ॥४।। इन क्रियाओंके करते समय जलसे भमि शद्ध करने के लिये जिसके अन्त में नमः शब्द लगा हआ है ऐसे नीरजस शब्दको चतुर्थीके एकवचनका रूप पढ़ना चाहिये अर्थात् 'नीरजसे नमः' (कर्मरूप धूलिसे रहित जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार हो) यह मंत्र बोलना चाहिये । इस मन्त्रका फल उत्कृष्ट विशुद्धि होना है ॥५॥ तदनन्तर डाभका आसन ग्रहण करना चाहिये और उसके बाद विघ्नोंको शान्त करने के लिये 'दर्पमथनाय नमः' (अहंकारको नष्ट करनेवाले भगवान्को नमस्कार हो) इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये ॥६॥ गन्ध समर्पण करनेका मन्त्र है 'शीलगन्धाय नमः' (शील रूप सुगन्ध धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो) । तथा पुष्प देनेका मन्त्र है 'विमलाय १ उपरितनांशं यत् चूलिकायाम् । २ गर्भान्वयादीनाम् । ३ वक्ष्ये। ४ क्रियाकलापकरणार्थम् । ५ अग्नीन् । ६ वेदिमध्ये। ७ गर्भाधानादिक्रियारम्भे। ८ छत्रत्रयादिपूजन । ह भूमिसंयोगार्थ भूमिसेचनार्थमित्यर्थः । १० जलरोचनफलम। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम पर्व कुर्यादक्षतपूजार्थम् अक्षताय नमः पदम् । (अक्षताय नमः) धूपाचे श्रुतधूपाय नमः पदमुदाहरेत् ॥ (श्रुतधूपाय नमः) ज्ञानोद्योताय पूर्व च दीपदाने नमः पदम्। (ज्ञानोद्योताय नमः) मन्त्रः परमसिद्धाय नमः इत्यामृतोद्धृतौ ॥६॥ (परमसिद्धायनमः) मन्त्ररेभिस्तु संस्कृत्य यथावज्जगतीतलम । ततोऽन्वक पीठिकामन्त्रः पठनीयो द्विजोत्तमैः ॥१०॥ पीठिकामन्त्रः-- सत्यजातपदं पूर्व चतुर्थ्यन्तं नमः परम् । ततोऽर्हज्जातशब्दश्च तदन्तस्तत्परों मतः ॥११॥ ततः परमजाताय नम इत्यपरं पदम् । ततोऽनुपमजाताय नम इत्युत्तरं पदम् ॥१२॥ ततश्च स्वप्रधानाय नम इत्युत्तरो ध्वनिः । अचलाय नमः शब्दाद् अक्षयाय नमः परम् ॥१३॥ अव्याबाधपदं चान्यद् अनन्तज्ञानशब्दनम् । अनन्तदर्शनानन्तवीर्यशब्दौ ततः पृथक् ॥१४॥ अनन्तसुखशब्दश्च नीरजःशब्द एव च । निर्मलाच्छेद्यशब्दौ च तथाऽभेद्याजरश्रुती ॥१५॥ नमः (कर्ममलसे रहित जिनेन्द्रभगवान्के लिये नमस्कार हो) ॥७॥ अक्षतसे पूजा करने के लिये 'अक्षताय नमः' (क्षयरहित जिनेन्द्रभगवान्को नमस्कार हो) यह मन्त्र बोले और धूपसे पूजा करते समय 'श्रुतधूपाय नमः' (प्रसिद्ध वासनावाले भगवान्को नमस्कार हो) इस मन्त्रका उच्चारण करे ॥८॥ दीप चढ़ाते समय 'ज्ञानोद्योताय नमः' (ज्ञानरूप उद्योत-प्रकाश) को धारण करनेवाले जिनेन्द्रभगवानको नमस्कार हो) यह मन्त्र पढे और अमत अर्थात् नैवेद्य चढ़ाते समय 'परमसिद्धाय नमः' (उकृष्ट सिद्धभगवान्को नमस्कार हो) ऐसा मन्त्र बोले ॥९॥ इस प्रकार इन मन्त्रोंसे विधिपूर्वक भूमिका संस्कार कर उसके बाद उन उत्तम द्विजोंको पीठिका मन्त्र पढ़ना चाहिये ॥१०॥ पीठिका मन्त्र इस प्रकार है-सबसे पहले, जिसके आगे 'नम' शब्द लगा हआ है और चतुर्थी विभक्ति अन्तमें है ऐसे सत्यजात शब्दका उच्चारण करना चाहिये अर्थात् 'सत्यजाताय नमः' (सत्यरूप जन्मको धारण करनेवाले जिनेन्द्रभगवान्को नमस्कार हो) बोलना चाहिये, उसके बाद चतुर्थ्यन्त अर्हज्जात शब्दके आगे 'नमः' पद लगा कर 'अहज्जाताय नमः' (प्रशसनीय जन्मको धारण करनेवाल जिनेन्द्रभगवानको नमस्कार हो) यह मन्त्र बोले ॥१॥ तदनन्तर 'परमजाताय नमः' (उत्कृष्ट जन्मग्रहण करनेवाले अर्हन्तदेवको नमस्कार हो) बोलना चाहिये और उसके बाद 'अनुपमजाताय नमः' (उपमारहित जन्म धारण करनेवाले जिनेन्द्रको नमस्कार हो) यह मन्त्र पढ़ना चाहिये ।।१२।। इसके बाद 'स्वप्रधानाय नमः' (अपने आप ही प्रधान अवस्थाको प्राप्त होनेवाले जिनराजको नमस्कार हो) यह मन्त्र बोले और उसके पश्चात् 'अचलाय नमः' (स्वरूपमें निश्चल रहनेवाले वीतराग को नमस्कार हो) तथा 'अक्षयाय नमः' (कभी नष्ट न होनेवाले भगवान्को नमस्कार हो) यह मन्त्र पढना चाहिये ॥१३॥ इसी प्रकार 'अव्यावाधाय नमः' (बाधाओंसे रहित परमेश्वर को नमस्कार हो), 'अनन्तज्ञानाय नमः' (अनन्त ज्ञानको धारण करनेवाल जिनराजको नमस्कार हो), 'अनन्तदर्शनाय नमः' (अनन्तदर्शन-केवल दर्शनको धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो), 'अनन्तवीर्याय नमः' (अनन्त बलके धारक अर्हन्तदेवको नमस्कार हो), 'अनन्तसुखाय नमः' (अनन्तसुखके भाण्डार जिनेन्द्रभगवान्को नमस्कार हो), 'नीरजसे १ धूपार्चने । २ चरुसमर्पगे। ३ तस्मात् परम् । ४ चतुर्थ्यन्तः । ५ नमः परः । ६ शब्दः । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ महापुराणम् ततोऽमराप्रमेयोक्ती सागर्भावासशब्दने । ततोऽक्षोभ्यायिलीनोक्ती परमादिर्घनध्वनिः ॥१६॥ पृथक्पृथगिमे शब्दास्त दन्तास्तत्परा मताः। उत्तराण्यनुसन्धाय पवान्येभिः पदैर्वदेत् ॥१७॥ प्रादौ परमकाष्ठति योगरूपायवाक्परम् । नमः शब्दमदीर्यान्ते मन्त्रविन्मन्त्रमुद्धरेत् ॥१८॥ लोकाग्रवासिनशब्दात्परः कार्यो नमो नमः। एवं परमसिद्धेभ्योऽर्हसिद्धेभ्य इत्यपि ॥१६॥ एवं केवलिसिद्धेभ्यः पदाद् भूयोऽन्तकृत्पदात् । सिद्धभ्य इत्यमुष्माच्च परम्परपदादपि ॥२०॥ अनादिपदपूर्वाच्च तस्मादेव' पदात्परस । अनाद्यनुपमादिभ्यः सिद्धेभ्यश्च नमो नमः ॥२१॥ नमः' (कर्मरूपी धूलिसे रहित जिनराजको नमस्कार हो), 'निर्मलाय नमः' (कर्मरूप मलसे रहित जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार हो) 'अच्छेद्याय नमः' (जिनका कोई छेदन नहीं कर सके ऐसे जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो), 'अभेद्याय नमः' (जो किसी तरह भिद नहीं सके ऐसे अरहन्त को नमस्कार हो), 'अजराय नमः' (जो बुढापासे रहित है उसे नमस्कार हो,) 'अमराय नमः' (जो मरणसे रहित है उसे नमस्कार हो), 'अप्रमेयाय नमः' (जो प्रमाणसे रहित है-छद्मस्थ पुरुषके ज्ञानसे अगम्य है, उसे नमस्कार हो) 'अगर्भवासाय नमः' (जो जन्म-मरणसे रहित होने के कारण किसीके गर्भ में निवास नहीं करते ऐसे जिनराजको नमस्कार हो), 'अक्षोभ्याय, नमः' (जिन्हें कोई क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता ऐसे भगवान्को नमस्कार हो), 'अविलीनाय नमः' (जो कभी विलीन-नष्ट नहीं होते उन परमात्माको नमस्कार हो) और 'परमघनाय नमः' (जो उत्कृष्ट धनरूप हैं-उन्हें नमस्कार हो) इन अव्यावाद्य आदि शब्दोंके आगे चतुर्थीविभक्ति तथा नमः शब्द लगाकर ऊपर लिखे अनुसार अव्यावाधाय नमः आदि मन्त्र पदोंका उच्चारण करना चाहिये ॥१४-१७।। तदनन्तर मन्त्रको जाननेवाला द्विज जिसके आदिमें 'परमकाष्ठा है और अन्तमें योगरूपाय है ऐसे शब्दका उच्चारण कर उसके आगे 'नमः' पद लगाता हुआ 'परमकाष्ठयोगाय नमः' (जिनका योग उत्कृष्ट सीमाको प्राप्त हो रहा है ऐसे जिनेन्द्रको नमस्कार हो) इस मन्त्रका उद्धार करे ॥१८॥ फिर लोकाग्रवासिने शब्दके आगे 'नमो नमः' लगाना चाहिये इसी प्रकार परम सिद्धेभ्यः और अर्हत्सिद्धेभ्यः शब्दोंके आगे भी नमो नमः शब्दका प्रयोग करना चाहिये अर्थात् क्रमसे 'लोकाग्रवासिने नमो नमः' (लोकके अग्रभाग पर निवास करनेवाले सिद्ध परमेष्ठीको बार बार नमस्कार हो), 'परमसिद्धेभ्यो नमो नमः' (परम सिद्धभगवान्को बार बार नमस्कार हो) और 'अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नमः' (जिन्होंने अरहन्त अवस्थाके बाद सिद्ध अवस्था प्राप्त की है ऐसे सिद्ध महाराजको बार बार नमस्कार हो) इन मन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिये ।।१९।। इसी प्रकार 'केवलिसिद्धेभ्यो नमो नमः' (केवली सिद्धोंको नमस्कार हो) 'अन्तःकृत्सिद्धेभ्यो नमो नमः' (अन्तकृत् केवली होकर सिद्ध होनेवालोंको नमस्कार हो), 'परम्परसिद्धेभ्यो नमः' (परम्परासे हए सिद्धोंको नम 'अनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नमः' (अनादि कालसे हुए परम सिद्धोंको नमस्कार हो) और 'अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नमः' (अनादिकालसे हुए उपमारहित सिद्धोंको नमस्कार हो,) इन मन्त्रपदों का उच्चारण कर नीचे लिखे पद पढ़ना चाहिये। इन नीचे लिखे शब्दोंको सम्बोधनरूपसे दो दो बार बोलना चाहिये। प्रथम ही हे सम्यग्दृष्टे हे सम्यग्दृष्टे, हे आसन्नभव्य १ अमराप्रमेयशब्दौ । २ सागर्भावासशब्दसहिते। ३ परमघनशब्दः । ४ अव्याबाधपदमित्यादयः । ५ चतुर्थ्यन्ताः । ६ नमःशब्दपराः । ७ परम्परशब्दात् । ८ सिद्धेभ्य इति पदात् । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व २६३. इति मन्त्रपदान्युक्त्वा पदानीमान्यतः पठेत् । द्विरुक्त्वाऽऽमन्त्रय वक्तव्यं सम्यग्दृष्टिपदं ततः ॥ २२॥ श्रासनभव्यशब्दश्च द्विर्याच्यस्तद्वदेव हि । निर्वाणादिश्च पूजार्हः स्वाहान्तोऽग्नीन्द्र इत्यपि ॥२३॥ काम्यमन्त्रः- ततः स्वकाम्यसिद्ध्यर्थमिदं पदमुदाहरेत् । सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु तत्परम् ॥२४॥ अपमृत्युविनाशनं भवत्वन्तं पदं भवेत् । भवत्वन्तमतो वाच्यं समाधिमरणाक्षरम् ॥२५॥ चूर्णि:- 'सत्यजाताय नमः, अर्हज्जातायनमः, परमजाताय नमः, अनुपमजाताय नमः, स्वप्रधानाय नमः, श्रचलाय नमः, अक्षयाय नमः, श्रव्याबाधाय नमः, अनन्तज्ञानाय नमः, श्रनन्तदर्शनाय नमः, अनन्तवीर्याय नमः, अनन्तसुखाय नमः, नीरजसे नमः, निर्मलाय नमः, श्रच्छेद्याय नमः, श्रभेद्याय नमः, श्रजराय नमः, श्रमराय नमः, अप्रमेयाय नमः, श्रगर्भवासाय नमः, श्रक्षोभ्याय नमः, श्रविलीनाय नमः, परमघनाय नमः, परकाष्ठायोगरूपाय नमः, लोकाग्रवासिने नमो नमः, परमसिद्धेभ्यो नमो नमः, अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नमः, केवलिसिद्धेभ्यो नमो नमः, श्रन्तकृत्सिद्धेभ्यो नमो नमः, परम्परसिद्धेभ्यो नमः, श्रनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नमो नमः अनाद्यनुपम सिद्धेभ्यो नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्ट प्रासन्नभव्य आसन्नभव्य निर्वाणपूजार्ह निर्वाणपूजार्ह श्रग्नीन्द्र स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । पीठिका मन्त्र एव स्यात् पर्वरेभिः समुच्चितः । जातिमन्त्रमितो वक्ष्ये यथाश्रुतमनुक्रमात् ॥२६॥ सत्यजन्मपदं तान्तमादौ शरणमप्यतः । प्रपद्यामीति व्याच्यं स्यादर्हज्जन्मपदं तथा ॥२७॥ हे आसन्नभव्य, हे निर्वाणपूजार्ह हे निर्वाणपूजार्ह, और फिर अग्नीन्द्र स्वाहा इस प्रकार उच्चारण करना चाहिये ( इन सबका अर्थ यह है कि हे सम्यग्दृष्टि, हे निकटभव्य, हे निर्वाण कल्याणकी पूजा करने योग्य, अग्निकुमार देवोंके इन्द्र, तेरे लिये यह हवि समपित करता हूं ) ॥ २० - २३ || ( अब इसके आगे काम्य मन्त्र लिखते हैं ) । तदनन्तर अपनी इष्टसिद्धिके लिये नीचे लिखे पदका उच्चारण करना चाहिये 'सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु' अर्थात् मुझे सेवाके फलस्वरूप छह परम स्थानोंकी प्राप्ति हो, अपमृत्युका नाश हो और समाधिमरण प्राप्त हो । २४-२५ ।। ऊपर कहे हुए सब मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है- सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, परमजाताय नमः, अनुपमजाताय नमः, स्वप्रधानाय नमः, अचलाय नमः, अक्षयाय नमः, अव्याबाधाय नमः, अनन्तज्ञानाय नमः, अनन्त दर्शनाय नमः, अनन्तवीर्याय नमः, अनन्तसुखाय नमः, नीरजसे नमः, निर्मलाय नमः, अच्छेद्याय नमः, अभेद्याय नमः, अजराय नमः, अमराय नमः, अप्रमेयाय नमः, अगर्भवासाय नमः, अक्षोभ्याय नमः, अविलीनाय नमः, परमघनाय नमः, परमकाष्ठायोगरूपाय नमः, लोकाग्रवासिने नमो नमः, परमसिद्धेभ्यो नमो नमः, अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नमः, केवलिसिद्धेभ्यो नमो नमः, अन्तकृत्सिद्धेभ्यो नमो नमः, परम्परसिद्धेभ्यो नमो नमः, अनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नमो नमः, अनाद्यनुमसिद्धेभ्यो नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्न भव्य आसन्नभव्य निर्वाणपूजार्ह निर्वाणपूजार्ह अग्नीन्द्र स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । इस प्रकार इन समस्त पदोंके द्वारा यह पीठिका मन्त्र कहा, अब इसके आगे शास्त्रोंके अनुसार अनुक्रमसे जातिमन्त्र कहते हैं ||२६|| तान्त अर्थात् षष्ठीविभक्त्यन्त सत्यजन्म पदके आगे शरण और उसके आगे प्रपद्यामि शब्द कहना अर्थात् 'सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि' ( मैं १ सम्बोधनं कृत्वा । २ आमन्त्रणं कृत्वेत्यर्थः । ३ अभीष्टम् । ४ तस्मादुपरि । ५ भवतुशब्दोऽन्ते यस्य तत् । ६ पठेत् द०, ल०, अ०, प०, स०, इ० । ७ समाधिमरणपदम् । ८ आगमानतिक्रमेण । ६ नान्तमिति पाठः, नकारः अन्ते यस्य तत् । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ महापुराणम् अर्हनमातृपदं तद्वत्त्वन्तमहत्सुताक्षरम् । अनादिगमनस्येति तथाऽनुपमजन्मनः ॥२८॥ रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामीत्यतः परम् । बोद्ध्यन्तं च ततः सम्यग्दष्टि द्वित्वेन योजयेत् ॥२६॥ ज्ञानमूतिपदं तद्वत्सरस्वतिपदं तथा। स्वाहान्तमन्ते वक्तव्यं काम्यमन्त्रश्च' पूर्ववत् ॥३०॥ चूणिः-सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अहंन्मातुः शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि, अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि, हे सम्यग्दृष्टे हे सम्यग्दृष्टे, हे ज्ञानमूर्ते, ज्ञानमूर्ते, हे सरस्वति, हे सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु । जातिमन्त्रोऽयमाम्नातो जातिसंस्कारकारणम् । मन्त्रं निस्तारकादि च यथाम्नायमितो वे ॥३१॥ निस्तारकमन्त्र:-- स्वाहान्तं सत्यजाताय पदमादावनुस्मृतम् । तदन्तमहज्जातायपदं स्यात्तदनन्तरम् ॥३२॥ ततः षट्कर्मणे स्वाहा पदमुच्चारयेत् द्विजः । स्याद्ग्रामयतये स्वाहा पदं तस्मादनन्तरम् ॥३३॥ अनादिश्रोत्रियायेति ब्रूयात् स्वाहापदं ततः। तच्च स्नातकायेति थावकायेति च द्वयम् ॥३४॥ सत्यरूप जन्मको धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेवका शरण लेता हूं), इस प्रकार कहना चाहिये । इसके बाद 'अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि' (मैं अरहन्त पदके योग्य जन्म धारण करनेवाले का शरण लेता हूं) 'अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्यामि' (अर्हन्तदेवकी माताका शरण लेता हूं,) 'अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि' (अरहन्तदेवके पुत्रका शरण लेता हूं), 'अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि' (अनादि ज्ञानको धारण करनेवालेका शरण लेता हूं), 'अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि' (उपमारहित जन्मको धारण करनेवालंका शरण लेता हं) और 'रत्नत्रयस्य शरण प्रपद्यामि' (रत्नत्रयका शरण ग्रहण करता हूं) ये मन्त्र बोलना चाहिये । तदनन्तर सम्बोधन विभक्त्यन्त सम्यग्दृष्टि, ज्ञानमूर्ति और सरस्वती पदका दो दो बार उच्चारणकर अन्तमें स्वाहा शब्द बोलना चाहिये अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, ज्ञानमूर्ते, ज्ञानमूर्ते, सरस्वति सरस्वति, स्वाहा (हे सम्यग्दृष्टे हे सम्यग्दृष्टे, हे ज्ञानमूर्ते हे ज्ञानमूर्ते, हे सरस्वति, हे सरस्वति, मैं तेरे लिये हवि समर्पण करता हं) यह मन्त्र कहना चाहिये और फिर काम्य मन्त्र पहलेके समान ही पढ़ना चाहिये ॥२७-३०।। ऊपर कहे हुए पीठिका मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है 'सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि, अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि, सम्यग्दष्टे सम्यग्दष्टे ज्ञानमर्ते ज्ञानमतें, सरस्वति सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु ।' . ये मन्त्र जातिसंस्कारका कारण होनेसे जाति मन्त्र कहलाते हैं अब इसके आगे निस्तारक मन्त्र कहते हैं ॥३१॥ सबसे पहले 'सत्यजाताय स्वाहा' (सत्यरूप जन्मको धारण करने वालेके लिये मैं हवि समर्पण करता हूं) इस मन्त्रका स्मरण किया गया है फिर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' (अरहन्तरूप जन्मको धारण करनेवालेके लिये मैं हवि समर्पित करता हूं) यह मन्त्र बोलना चाहिये और इसके बाद षट्कर्मणे स्वाहा (देवपूजा आदि छह कर्म करनेवाले के लिये हवि समर्पित करता हूं), इस मन्त्रका द्विजको उच्चारण करना चाहिये। फिर 'ग्रामयतये स्वाहा' (ग्रामयतिके लिये समर्पण करता हैं), यह मन्त्र बोलना चाहिये ।।३२-३३॥ ४ द्विः कृत्वा योज १तु शब्दः अन्ते यस्य तत् । २ सम्बुद्धयन्तम् । ३ सम्यग्दृष्टिपदम्। येदित्यर्थः। ५ पट्परमस्थानेत्यादि । ६ प्रोक्तः । ७ स्वाहान्तम् । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व स्याद्देवब्राह्मणायेति स्वाहेत्यन्तमतः पदम् । सुब्राह्मणाय स्वाहान्तः स्वाहान्ताऽनुपमाय गीः ॥ ३५ ॥ सम्यग्दृष्टिपदं चैव तथा निधिपतिश्रुतिम् । ब्रूयाद् वैश्रवणोक्ति च द्विः स्वाहेति ततः परम् ॥३६॥ काम्यमन्त्रमतो ब्रूयात् पूर्ववन्मन्त्रविद् द्विजः । ऋषिमन्त्रमितो वक्ष्ये यथाऽऽहोपासकश्रुतिः ॥ ३७ ॥ चूणिः - सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, षट्कर्मणे स्वाहा, ग्रामयतये स्वाहा, अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा, स्नातकाय स्वाहा, श्रावकाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशनं भक्तु, समाधिमरणं भवतु । ऋषिमन्त्रः- प्रथमं सत्यजाताय नमः पदमुदीरयेत् । गृह्णीयादर्हज्जाताय नमः शब्दं ततः परम् ॥ ३८ ॥ निर्ग्रन्थाय नमो वीतरागाय नम इत्यपि । महाव्रताय पूर्वं च नमः पदमनन्तरम् ॥३६॥ त्रिगुप्ताय नमो महायोगाय नम इत्यतः । ततो विविधयोगाय नम इत्यनुपठ्यताम् ॥४०॥ विविधद्धपदं चास्मान्नमः शब्देन योजितम् । ततोऽङ्गधरपूर्वञ्च पठेत् पूर्वधरध्वनिम् ॥४१॥ 'अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा' (अनादिकालीन श्रुतके अध्येताको समर्पण करता हूं ), यह मन्त्रपद बोलना चाहिये तदनन्तर इसी प्रकार 'स्नातकाय स्वाहा' और श्रावकाय स्वाहा' ये दो मन्त्र पढ़ना चाहिये (केवली अरहन्त और श्रावकके लिये समर्पण करता हूं ) ||३४|| इसके बाद 'देवब्राह्मणाय स्वाहा' (देवब्राह्मणके लिये समर्पण करता हूं), 'सुब्राह्मणाय स्वाहा' (सुब्राह्मणके लिये समर्पण करता हूं), और 'अनुपमाय स्वाहा' ( उपमारहिंत भगवान् के लिये हवि समर्पित करता हूं ), ये शब्द बोलना चाहिये || ३५ ॥ तदनन्तर सम्यग्दृष्टि, निधिपति और वैश्रवण शब्दको दो दो बार कहकर अन्तमें स्वाहा शब्दका प्रयोग करना चाहिये अर्थात, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा' (हे सम्यग्दृष्टि हे निधियोंके अधिपति, हे कुबेर, मैं तुम्हें हवि समर्पित करता हूं ) यह मन्त्र बोलना चाहिये ॥ ३६ ॥ इसके बाद मन्त्रोंको जाननेवाला द्विज पहले के समान काम्यमन्त्र बोले । अब इसके आगे उपासकाध्ययन-शास्त्र के अनुसार ऋषि मन्त्र कहता हूं ||३७|| जातिमन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है २९५ 'सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, षट्कर्मणे स्वाहा, ग्रामयतये स्वाहा, अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा, स्नातकाय स्वाहा, श्रावकाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधियरणं भवतु । तदनन्तर ऋषिमन्त्र - प्रथम ही 'सत्यजाताय नमः' (सत्यजन्मको धारण करनेवाले को नमस्कार हो) यह पद बोलना चाहिये और उसके बाद 'अर्हज्जाताय नम': ( अरहन्त रूप जन्मको धारण करनेवालेके लिये नमस्कार हो ) इस पदका उच्चारण करना चाहिये ॥ ३८ ॥ 'निर्ग्रन्थाय नमः' (परिग्रहरहित के लिये नमस्कार हो), 'वीतरागाय नमः' ( रागद्वेषरहित जिनेन्द्र देवको नमस्कार हो), 'महाव्रताय नमः' ( महाव्रत धारण करनेवालोंके लिये नमस्कार हो ), 'त्रिगुप्ताय नमः' (तीनों गुप्तियोंको धारण करनेवाले के लिये नमस्कार हो ) 'महायोगाय नमः' ( महायोगको धारण करनेवाले ध्यानियोंको नमस्कार हो) और 'विविधयोगाय नमः' ( अनेक प्रकारके योगोंको धारण करनेवालोंके लिये नमस्कार हो ) ये मन्त्र पढ़ना चाहिये || ३९-४०॥ फिर नमः शब्दके साथ चतुर्थी विभक्त्यन्त विविधद्ध शब्दका पाठ करना चाहिये अर्थात् ' विवि १ पदम् ल० । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ महापुराणम् नमः शब्दपरौ चेतौ चतुर्यन्त्यावनुस्मृतौ । ततो गणधरायति पदं युक्तनमः पवम् ॥४२॥ परषिभ्य इत्यस्मात्परं वाच्यं नमो नमः । ततोऽनुपमजाताय नमो नम इतीरयेत् ॥४३॥ सम्यग्दृष्टिपदं चान्ते बोध्यन्तं द्विरुदाहरेत् । ततो भूपतिशब्दश्च नगरोपपदः पतिः ॥४४॥ द्विर्वाच्यौ ताविमौ शब्दो बोध्यन्तौ मन्त्रवेदिभिः । मन्त्रशेषोऽव्ययं तस्मादनन्तरमुदीर्यताम् ॥४॥ कालश्रमगशब्दं च द्विरुक्त्वाऽऽमन्त्रणे ततः । स्वाहेति पदमच्चार्य प्राग्वत्काम्यानि चोद्धरेत ॥४६॥ चूणिः-सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, निर्ग्रन्थाय नमः, वीतरागाय नमः, महाव्रताय नमः, त्रिगुप्ताय नमः, महायोगाय नमः, विविधयोगाय नमः, विविधर्धये नमः, अडगधराय नमः, पूर्वधराय नमः, गणधराय नमः, परमषिभ्यो नमो नमः, अनुपमजाताय नमो नमः, सम्यग्दष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते कालश्रमण कालश्रमग स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिरणं भवतु । (मनिमन्त्रोऽयमाम्नातो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । वक्ष्ये सुरेन्द्रमन्त्रं च यथा स्माहार्षभी श्रुतिः ॥४७॥ प्रथमं सत्यजाताय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् । ततः स्यादर्हज्जाताय स्वाहेत्येतत्परं पदम् ॥४८॥ धर्द्धये नमः' (अनेक ऋद्धियोंको धारण करनेवालेके लिये नमस्कार हो) ऐसा उच्चारण करना चाहिये । इसी प्रकार जिनके आगे नमः शब्द लगा हुआ है ऐसे चतुर्थ्यन्त अङ्गधर और पूर्वधर शब्दोंका पाठ करना चाहिये अर्थात् 'अङ्गवराय नमः' (अङ्गोंके जाननेवालेको नमस्कार हो) और 'पूर्वधराय नमः' (पूर्वो के जाननेवालोंको नमस्कार हो) ये मन्त्र बोलना चाहिये । तदनन्तर 'गणधराय नमः' (गणवरको नमस्कार हो) इस पदका उच्चारण करना चाहिये ॥४१-४२।। फिर परमर्षिभ्यः शब्दके आगे नमो नमः का उच्चारण करना चाहिये अर्थात् 'परमर्षिभ्यो नमो नमः' (परम ऋषियोंको बार बार नमस्कार हो) यह मन्त्र बोलना चाहिये और इसके बाद 'अनुपमजाताय नमो नमः' (उपमारहित जन्मधारण करनेवालेको बार बार नमस्का र हो) इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये ॥४३॥ फिर अन्तमें सम्बोधन विभक्त्यन्त सम्यग्दृष्टि पदका दो बार उच्चारण करना चाहिये और इसी प्रकार मन्त्रोंको जाननेवाले द्विजों को सम्बोधनान्त भूपति और नगरपति शब्दका भी दो दो बार उच्चारण करना चाहिये । तर आगे कहा जानेवाला मन्त्रका अवशिष्ट अंश भी बोलना चाहिये । कालश्रमण शब्दको सम्बोधन विभक्तिमें दो बार कहकर उसके आगे स्वाहा शब्दका उच्चारण करना चाहिये और फिर यह सब कह चुकने के बाद पहले के समान काम्यमन्त्र पढ़ना चाहिये ॥४४-४६।। इन सब ऋषिमन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है ____ 'सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, निर्ग्रन्याय नमः, वीतरागाय नमः, महाव्रताय नमः, त्रिगुप्ताय नमः, महायोगाय नमः, विविधयोगाय नमः, विविधर्द्धये नमः' अङ्गधराय नमः, पूर्वधराय नमः, गणवराय नमः, परमर्षिभ्यो नमो नमः, अनुपमजाताय नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरपते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा, सेवाफलं षट् रमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । तत्त्वोंके जाननेवाले मुनियों के द्वारा ये ऊपर लिखे हुए मन्त्र मुनिमन्त्र अथवा ऋषिमन्त्र माने गये हैं । अब इनके आगे भगवान् ऋषभदेवकी श्रुतिने जिस प्रकार कहा है उसी प्रकार में सुरेन्द्र मन्त्रोंको कहता हूं ॥४७॥ प्रथम ही मैं 'सत्यजाताय स्वाहा' (सत्यजन्म लेनेवालेको हवि समर्पण करता हूं) यह पद पढ़ना चाहिये, फिर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' (अरहन्तके योग्य जन्म लेनेवालेको हवि १ वदन्ति स्म । २ ऋषभप्रोक्ता। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व ततश्च दिव्यजाताय स्वाहेत्येवमुदाहरेत् । ततो दिव्यार्च्यजाताय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् ॥४६॥ ब्रूपाच्च नेमिनाथाय स्वाहेत्येतदनन्तरम् । सौधर्माय पदं चास्मात्स्वाहोक्त्यन्तमनुस्मरेत् ॥५०॥ कल्पाधिपतये स्वाहापदं वाच्यमतः परम् । भूयोऽप्यनुचरायादि स्वाहाशब्दमुदीरयेत् ॥५१॥ ततः परम्परेन्द्राय स्वाहेत्युच्चारयेत्पदम् । सम्पठेदहमिन्द्राय स्वाहेत्येतदनन्तरम् ॥५२॥ ततः परमार्हताय स्वाहेत्येतत् पदं पठेत् । ततोऽप्यनुपमायेति पदं स्वाहापदान्वितम् ॥ ५३ ॥ सम्यग्दृष्टिपदं चास्माद् बोध्यन्तं द्विरुदीरयेत् । तथा कल्पतं चापि दिव्यमूर्ति च सम्पठेत् ॥ ५४ ॥ द्विर्वाच्यं वज्रनामेति ततः स्वाहेति संहरेत्' । पूर्ववत् काम्यमन्त्रोऽपि पाठ्योऽस्यान्ते त्रिभिः पदैः ॥ ५५ ॥ चूणिः- सत्यजाताय स्वाहा, श्रर्हज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, दिव्याच्यजाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परम्परेन्द्राय स्वाहा, अहमिन्द्राय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्त दिव्यमूर्ते वजूनामन् वज्रनामन् स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । समर्पण करता हूँ ) यह उत्कृष्ट पद पढ़ना चाहिये ||४८ || फिर 'दिव्यजाताय स्वाहा' (जिसका जन्म दिव्यरूप है उसे हवि समर्पण करता हूँ ) ऐसा उच्चारण करना चाहिये और फिर 'दिव्याचिर्जाताय स्वाहा' (दिव्य तेजःस्वरूप जन्म धारण करनेवालेके लिये हवि समर्पण करता हूँ ) यह पद पढ़ना चाहिये ॥ ४९ ॥ तदनन्तर 'नेमिनाथाय स्वाहा' (धर्मचक्रको धुरी के स्वामी जिनेन्द्रदेवको समर्पण करता हूँ ) यह पद बोलना चाहिये और इसके बाद 'सौधर्माय स्वाहा' (सौधर्मेन्द्रके लिये समर्पण करता हूँ) इस मन्त्रका स्मरण करना चाहिये ॥ ५० ॥ फिर 'कल्पाधिपतये स्वाहा (स्वर्गके अधिपतिके लिये समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र कहना चाहिये और उसके बाद 'अनुचराय स्वाहा' (इन्द्रके अनुचरोंके लिये समर्पण करता हूँ ) यह शब्द बोलना चाहिये ॥५१॥ फिर ‘परम्परेन्द्राय स्वाहा' (परम्परासे होनेवाले इन्द्रोंके लिये समर्पण करता हूँ ) इस पदका उच्चारण करे और उसके अनन्तर 'अहमिन्द्राय स्वाहा' (अहमिन्द्रके लिये समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र अच्छी तरह पढ़े ॥ ५२ ॥ | फिर परार्हताय स्वाहा' (अरहन्तदेवके परमउत्कृष्ट उपासकको समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिये और उसके पश्चात् ‘अनुपमाय स्वाहा' (उपमारहित के लिये समर्पण करता हूँ ) यह पद बोलना चाहिये ॥ ५३ ॥ तदनन्तर सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदका दो बार उच्चारण करना चाहिये तथा सम्बोधनान्त कल्पपति और दिव्यमूर्ति शब्दको भी दो दो बार पढ़ना चाहिये इसी प्रकार सम्बोधनान्त वज्रनामन् शब्द को भी दो बार बोलकर स्वाहा शब्दका उच्चारण करना चाहिये और अन्तमें तीन तीन पदों के द्वारा पहले के समान काम्य मन्त्र पढ़ना चाहिये अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन् स्वाहा ( हे सम्यग्दृष्टि, हे स्वर्गके अधिपति, हे दिव्यमूर्तिको धारण करनेवाले, हे वज्रनाम, मैं तेरे लिये हवि समर्पण करता हूँ ) यह बोलकर काम्य मन्त्र पढ़ना चाहिये ।।५४-५५ ॥ २६७ ऊपर कहे हुए सुरेन्द्र मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है 'सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, दिव्याचिर्जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परम्परेन्द्राय स्वाहा, अहमिन्द्राय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन् स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु १ सम्यग् ब्रूयात् । २ षट् परमस्थानेत्यादिभिः । ३८ . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ महापुराणम् सुरेन्द्रमन्त्र एषः स्यात् सुरेन्द्रस्यानुतपर्णम् । मन्त्रं परमराजारि वक्ष्यामीतो यथाश्रुतम् ॥५६॥ प्रागत्र' सत्यजाताय स्वाहेत्येतत् पदं पठेत् । ततः स्यावहज्जाताय स्वाहेत्येतत्परं पदम् ॥५७॥ ततश्चानुपमेन्द्राय स्वाहेत्येतत्पदं मतम् । विजयाादिजाताय पदं स्वाहान्तमन्वतः ॥५८॥ ततोऽपि नेमिनाथाय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् । ततः परमराजाय स्वाहेत्येतदुदाहरेत् ॥५६॥ परमार्हताय स्वाहा पदमस्मात्परं पठेत् । स्वाहान्तमनुपायोक्तिरतो वाच्या द्विजन्मभिः ॥६०॥ सम्यग्दृष्टिपदं चास्माद् बोध्यन्तं द्विरुदीरयेत् । उग्रतेजः पदं चैव दिशाञ्जयपदं तथा ॥६१॥ नेम्यादिविजयं चैव कुर्यात् स्वाहापदोत्तरम् । काम्यमन्त्रं च तं ब्रूयात् प्राग्वदन्ते पदैस्त्रिभिः ॥६२॥ चुणिः-सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयाय॑जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमराजाय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेजः उग्रतेजः दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । मन्त्रः परमराजादितोऽयं परमेष्ठिनाम् । परं मन्त्रमितो वक्ष्ये यथाऽह परमा श्रुतिः ॥६३॥ अपमत्यविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । __ यह सुरेन्द्रको संतुष्ट करनेवाला सुरेन्द्र मन्त्र कहा। अब आगे शास्त्रोंके अनुसार परमराजादि मन्त्र कहते हैं ॥५६।। इन मन्त्रों में सर्वप्रथम 'सत्यजाताय स्वाहा' (सत्य जन्म धारण करनेवालेको हवि समर्पण करता हूँ) यह पद पढ़ना चाहिये, फिर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' (अरहन्त पदके योग्य जन्म लेनेवालेको समर्पण करता हूँ) यह उत्कृष्ट पद पढ़ना चाहिये ॥५७। इसके बाद 'अनुपमेन्द्राय स्वाहा' (उपमारहित इन्द्र अर्थात् चक्रवर्ती के लिये समर्पण करता हूँ) यह पद कहना चाहिये। तदनन्तर विजयार्चजाताय स्वाहा' (विजयरूप तथा तेजःपूर्ण जन्मको धारण करनेवालेके लिये समर्पण करता हँ) इस पदका उच्चारण करना चाहिये ॥५८॥ इसके पश्चात् 'नेमिनाथाय स्वाहा' (धर्मरूप रथके प्रवर्तकको समर्पण करता हूँ) यह पद पढ़ना चाहिये और उसके बाद 'परमजाताय स्वाहा' (उत्कृष्ट जन्म लेनेवालेको समर्पण करता हैं) यह पद बोलना चाहिये ।।५९॥ फिर 'परमाईताय स्वाहा' (उत्कृष्ट उपासकको समर्पण करता हूँ ) यह पद पढ़ना चाहिये और इसके बाद द्विजोंको 'अनुपमाय स्वाहा' (उपमारहित के लिये समर्पण करता हूँ) यह मन्त्र बोलना चाहिये ॥६०।। तदनन्तर सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदका दो बार उच्चारण करना चाहिये तथा इसी प्रकार सम्बोधनान्त उग्रतेजः पद, दिशाजय पद और नमिविजय पदको दो दो बार बोलकर अन्तमें स्वाहा शब्दका उच्चारण करना चाहिये और अन्त में पहलेके समान तीन तीन पदोंसे काम्य मन्त्र बोलना चाहिये अर्थात् सम्यग्दष्टे सम्यग्दष्टे उग्रतेजः उग्रतेज: दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा (हे सम्यग्दृष्टि, हे प्रचण्ड प्रतापके धारक, हे दिशाओंको जीतनेवाले, हे नेमिविजय, मैं तुम्हें हवि समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र बोलकर कास्थमन्त्र पढ़ना चाहिये ॥६१-६२॥ परमराजादि मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है 'सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयार्चजाय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमजाताय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दष्ट, उग्रतेजः, उग्रतेजः, दिशांजय दिशांजय, नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा, सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । ये मन्त्र परमराजादि मन्त्र माने गये हैं। अब यहांसे आगे जिस प्रकार परम शास्त्रमें १ परमराजादिमन्त्रे। २ परमजाताय प०, ल०, अ०, ५०, स० । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व तत्रादौ सत्यजाताय नमः पदमुदीरयेत् । वाच्यं ततोऽर्हज्जाताय नम इत्युत्तरं पदम् ॥६४॥ ततः परमजाताय नमः पदमुदाहरेत् । परमार्हतशब्दं च चतुर्थ्यन्तं नमः परम् ॥ ६५ ॥ ततः परमरूपाय नमः परमतेजसे । नम इत्युभयं वाच्यं पदमध्यात्मदशभिः ॥६६॥ परमादिगुणायेति पदं चान्यन्नमोबुतम् । परमस्थानशब्दश्च चतुथ्यन्तो नमोऽन्वितः ॥६७॥ उदाहार्य क्रमं ज्ञात्वा ततः परमयोगिने । नमः परमभाग्याय नम इत्युभयं पदम् ॥ ६८ ॥ परमद्विपदं चान्यच्च तुथ्यंन्तं नमः परम् । स्यात्परमप्रसादाय नम इत्युत्तरं पदम् ॥६६॥ स्यात्परमकाअक्षिताय नम इत्यत उत्तरम् । स्यात्परमविजयाय नमः इत्युत्तरं वचः ॥७०॥ स्यात्परमविज्ञानाय नमो वाक्तदनन्तरम् । स्यात्परमदर्शनाय नमः पदमतः परम् ॥७१॥ ततः परमवीर्याय पदं चास्मानमः परम् । परमादिसुखायेति पदमस्मादनन्तरम् ॥७२॥ सर्वज्ञाय नमोवाक्यमर्हते नम इत्यपि । नमो नमः पदं चास्मात्स्यात्परं परमेष्ठिने ॥७३॥ परमादिपदान्त्र इत्यस्माच्च नमो नमः । सम्यग्दृष्टिपदं चान्ते बोध्यन्तं द्विः प्रयुज्यताम् ॥७४॥ कहा है उसी प्रकार परमेष्ठियोंके उत्कृष्ट मन्त्र कहता हूँ || ६३ || उन परमेष्ठी मन्त्रोंमें सबसे पहले 'सत्यजाताय नमः' (सत्यरूप जन्म लेनेवालेके लिये नमस्कार हो ) यह पद बोलना चाहिये और उसके बाद 'अर्हज्जाताय नमः' (अरहन्तके योग्य जन्म लेनेवालेके लिये नमस्कार हो ) यह पद पढ़ना चाहिये || ६४ ॥ तदनन्तर 'परमजाताय नमः' (उत्कृष्ट जन्म लेनेवाले के लिये नमस्कार हो ) यह पद कहना चाहिये और इसके बाद चतुर्थी विभक्त्यन्त परमार्हत शब्दके आगे नमः पद लगाकर परमार्हताय नमः' (उत्कृष्ट जिनधर्मके धारकके लिये नमस्कार हो ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिये ॥ ६५ ॥ तत्पश्चात् अध्यात्म शास्त्रको जाननेवाले द्विजोंको 'परमरूपाय नमः' (उत्कृष्ट निर्ग्रन्थरूपको धारण करनेवालेके लिये नमस्कार हो) और परमतेजसे नमः ( उत्तम तेजको धारण करनेवालेके लिये नमस्कार हो ) दो मन्त्र बोलना चाहिये ||६६ || फिर नमः शब्दके साथ परमगुणाय यह पद अर्थात् 'परमगुणाय नमः' (उत्कृष्ट गुण वालेके लिये नमस्कार हो ) यह मन्त्र बोलना चाहिये और उसके अनन्तर नमः शब्दसे सहित चतुर्थी विभक्त्यन्त परमस्थान शब्द अर्थात् 'परमस्थानाय नमः' (मोक्षरूप उत्तमस्थानवाले के लिये नमस्कार हो ) यह पद पढ़ना चाहिये ||६७ || इसके पश्चात् क्रमको जानकर 'परमयोगिने नमः' (परम योगी के लिये नमस्कार हो) और 'परमभाग्याय नमः' (उत्कृष्ट भाग्यशालीको नमस्कार हो ) ये दोनों पद बोलना चाहिये ॥ ६८ ।। तदनन्तर जिसके आगे नमः शब्द लगा हुआ है और चतुर्थी विभक्ति जिसके अन्तमें है ऐसा परमर्द्धि पद अर्थात् 'परमर्द्धये नमः' (उत्तम ऋद्धियोंके धारकके लिये नमस्कार हो) और 'परमप्रसादाय नमः' (उत्कृष्ट प्रसन्नताको धारण करनेवालेके लिये नमस्कार हो) ये दो मन्त्र पढ़ना चाहिये ॥ ६९ ॥ फिर 'परमकाक्षिताय नमः' (उत्कृष्ट आत्मानन्दकी इच्छा करनेवालेके लिये नमस्कार हो ) और परमविजयाय नमः ( कर्मरूप शत्रुओंपर उत्कृष्ट विजय पानेवालेके लिये नमस्कार हो ) ये दो मन्त्र बोलना चाहिये ॥७०॥ तदनन्तर 'परमविज्ञानाय नमः' (उत्कृष्ट ज्ञानवाले के लिये नमस्कार हो) और उसके बाद 'परमदर्शनाय नमः' (परम दर्शनके धारकके लिये नमस्कार हो ) यह पद पढ़ना चाहिये ॥ ७१ ॥ इसके पश्चात् 'परमवीर्याय नमः' (अनन्त बल शाली के लिये नमस्कार हो) और फिर परमसुखाय नमः' (परम सुखके धारकको नमस्कार हो ) ये मन्त्र कहना चाहिये ॥ ७२ ॥ इसके अनन्तर सर्वज्ञाय नमः ( संसारके समस्त पदार्थों को जाननेवालेके लिये नमस्कार हो ) 'अर्हते नमः' ( अरहन्तदेवके लिये नमस्कार हो), और फिर 'परमेष्ठिने नमो नमः' (परमेष्ठीके लिये बार बार नमस्कार हो ) ये मन्त्र बोलना चाहिये ॥७३॥ तदनन्तर 'परमनेत्रे नमो नमः' (उत्कृष्ट नेताके लिये नमस्कार हो ) यह मन्त्र २९९ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० महापुराणम् द्विः स्तां' त्रिलोकविजयधर्ममूर्तिपदे ततः । धर्मनेमिपदं वाच्यं द्विः स्वाहेति ततः परम् ॥७५॥ काम्यमन्त्रमतो ब्रूयात्पूर्ववद्विधिवद्विजः । काम्यसिद्धिप्रधाना हि सर्वे मन्त्राः स्मृता बुधैः ॥ ७६ ॥ चूणिः - सत्यजाताय नमः, श्रर्हज्जाताय नमः, परमजाताय नमः, परमार्हताय नमः, परमरूपाय नमः, परमतेजसे नमः, परमगुणाय नमः, परमस्थानाय नमः, परमयोगिने नमः, परमभाग्याय नमः, परमर्द्धये नमः परमप्रसादाय नमः, परमकाअक्षिताय नमः, परमविजयाय नमः, परमविज्ञानाय नमः, परमदर्शनाय नमः, परमवीर्याय नमः परमसुखाय नमः, सर्वज्ञाय नमः, श्रहंते नमः, परमेष्ठिने नमो नमः परमनेत्रे नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय धर्ममूर्त धर्ममूर्ते धर्मनेमे धर्मन मे स्वाहा, सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । एते तु पीठिकामन्त्राः सप्त ज्ञेया द्विजोत्तमैः । एतैः सिद्धार्चनं कुर्यादाधानादिक्रियाविधौ ॥७७॥ क्रियामन्त्रस्त एते स्युराधानादिक्रियाविधौ । सूत्रे गणधरोद्वायें यान्ति साधनमन्त्रताम् ॥ ७८ ॥ सन्ध्यास्वग्नित्रये देवपूजने नित्यकर्मणि । भवन्त्याहुतिमन्त्राश्च त एते विधिसाधिताः ॥७६॥ सिद्धाचर्चासन्निधौ मन्त्रान् जपेदष्टोत्तरं शतम् । गन्धपुष्पाक्षतार्घादि निवेदनपुरःसरम् ॥८०॥ सिद्धविद्यस्ततो मन्त्रैरेभिः कर्म समाचरेत् । शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः ॥ ८१ ॥ कहना चाहिये और उसके बाद सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदका दो बार प्रयोग करना चाहिये ||७४ || तथा इसी प्रकार त्रिलोकविजय, धर्ममूर्ति और धर्मनेमि शब्दको भी दो दो बार उच्चारण कर अन्तमें स्वाहा पद बोलना चाहिये अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय, धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा ( हे सम्यग्दृष्टि, हे तीनों लोकोंको विजय करनेवाले, हे धर्ममूर्ति और हे धर्म के प्रवर्तक, मैं तेरे लिये हवि समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्र बोलना चाहिये ||७५ || तत्पश्चात् द्विजोंको पहले के समान विधिपूर्वक काम्यमन्त्र पढ़ना चाहिये क्योंकि विद्वान् लोग सब मन्त्रोंसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होना ही मुख्य फल मानते हैं ||७६ || परमेष्ठी मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, परमजाताय नमः, परमार्हताय नमः, परमरूपाय नमः, परमतेजसे नमः, परमगुणाय नमः, परमस्थानातय नमः, परमयोगिने नमः, परमभाग्याय नमः, परमर्द्धये नमः, परमप्रसादाय नमः, परमकाक्षिताय नमः, परमविजयाय नमः, परमविज्ञानाय नमः, परमदर्शनाय नमः परमवीर्याय नमः, परमसुखाय नमः, सर्वज्ञाय नमः, अर्हते नमः, परमेष्ठिने नमो नमः, परमनेत्रे नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय, धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते, धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । ब्राह्मणों को ये ऊपर लिखे हुए सात पीठिका मन्त्र जानना चाहिये और गर्भाधानादि क्रियाओंको विधि करनेमें इनसे सिद्धपूजन करना चाहिये ||७७ || गर्भाधानादि क्रियाओंकी विधि करनेमें ये मन्त्र क्रियामन्त्र कहलाते हैं और गणधरोंके द्वारा कहे हुए सूत्रमें ये ही साधन मन्त्रपनेको प्राप्त हो जाते हैं || ७८ || विधिपूर्वक सिद्ध किये हुए ये ही मन्त्र संध्याओंके समय तीनों अग्नियोंमें देवपूजनरूप नित्य कर्म करते समय आहुति मन्त्र कहलाते हैं || ७९ ॥ सिद्ध भगवान् की प्रतिमाके सामने पहले गन्ध, पुष्प, अक्षत और अर्ध आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार उक्त मन्त्रों का जप करना चाहिये ॥८०॥ तदनन्तर जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गई हैं, जो १ द्वौ वारौ । २ भवेताम् | ३ सत्यजातायेत्यादयः । ४ गर्भाधानादि । ५ समर्पण | Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व ३०१ प्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारम्भे द्विजोत्तमैः । रत्नत्रितयसङकल्पादग्नीन्द्रमुकुटोद्भवाः ॥२॥ तीर्थकृद्गणच्छेषकेवल्यन्तमहोत्सवे । पूजाडगत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ॥३॥ कण्डत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः। गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निप्रसिद्धयः ॥८४॥) अस्मिन्नग्नित्रय पूजां मन्त्रः कुर्वन् द्विजोत्तमः । प्राहिताग्निरिति शेयो नित्यज्या यस्य सद्मनि ॥८॥ पहविष्पाके च धुपे च दीयोद्बोधनसंविधौ । वह्नीनां विनियोगः स्याद् अमीषां नित्यपूजने ॥८६॥ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्याद् इदमग्नित्रयं गहे । नव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ॥८७) न स्वतोऽग्ने : पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा। किन्त्वहद्दिव्यमूर्तीज्यासम्बन्धात् पावनोऽनलः ॥८॥ ततः पूजाङ्गतामस्य मत्वार्चन्ति द्विजोत्तमाः। निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजा तो न दुष्यति ॥८६॥ व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः । जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मनः ॥६॥ साधारणास्त्विमे मन्त्राः सर्वत्रव क्रियाविधौ । यथा सम्भवमुन्नेष्ये'२ विशेषविषयाश्च तान् ॥१॥ सफेद वस्त्र पहने हुए हैं, पवित्र हैं, यज्ञोपवीत धारण किये हुए हैं और जिसका चित्त आकुलतासे रहित है ऐसा द्विज इन मन्त्रोंके द्वारा समस्त क्रियाएँ करें।८।। क्रियाओंके प्रारम्भ में उत्तम द्विजोंको रत्नत्रयका संकल्प कर अग्निकुमार देवोंके इन्द्र के मुकुटसे उत्पन्न हुई तीन प्रकारकी अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिये ॥८२॥ ये तीनों ही अग्नियाँ तीर्थङ्कर, गणधर और सामान्य केवलीके अन्तिम अर्थात् निर्वाणमहोत्सवमें पूजाका अंग होकर अत्यन्त पवित्रताको प्राप्त हुई मानी जाती हैं ॥८३।। गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नामसे प्रसिद्ध इन तीनों महाअग्नियोंको तीन कुण्डोंमें स्थापित करना चाहिये ।।८४।। इन तीनों प्रकारको अग्नियोंमें मंत्रोंके द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है और जिसके घर इस प्रकारकी पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि अथवा अग्निहोत्री कहलाता है ॥८५।। नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकारकी अग्तियोंका विनियोग नैवेद्यके पकानेमें, धपखने में और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्निसे नैवेद्य पकाया जाता है, आहवनीय अग्नि में धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्निसे दीपक जलाया जाता है ॥८६॥ घरमें बड़े प्रयत्नके साथ इन तीनों अग्नियोंकी रक्षा करनी चाहिये और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगोंको कभी नहीं देनी चाहिये ॥८७।। अग्निमें स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवतारूप ही है किन्तु अरहन्तदेवकी दिव्य मूर्तिकी पूजाके सम्बन्धसे वह अग्नि पवित्र हो जाती है ॥८८॥ इसलिये ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजाका अंग मानकर इसकी पूजा करते हैं अतएव निर्वाणक्षेत्रकी पूजाके समान अग्निकी पूजा करने में कोई दोष नहीं है। भावार्थ-जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवके सम्बन्धसे क्षेत्र भी पूज्य हो जाते हैं उसी प्रकार उनके सम्बन्धसे अग्नि भी पूज्य हो जाती है अतएव जिस प्रकार निर्वाण आदि क्षेत्रोंकी पूजा करने में दोष नहीं है उसी प्रकार अग्निकी पूजा करने में भी कोई दोष नहीं है ॥८९॥ ब्राह्मणोंको व्यवहार नयकी अपेक्षा ही अग्निकी पूज्यता इष्ट है इसलिये जैन ब्राह्मणोंको भी आज यह व्यवहारनय उपयोगमें लाना चाहिये ॥९०।। ये ऊपर कहे हुए मन्त्र साधारण मन्त्र हैं, सभी क्रियाओंमें काम आते हैं अब विशेष क्रियाओंसे सम्बन्ध रखनेवाले विशेष मन्त्रोंको यथासम्भव कहता हूँ ॥९१॥ १ संस्कार्याः । २ केवली। ३ परिनिर्वाणमहोत्सवे । ४ कारणत्वम् । ५ चरुपचने । ६ गार्हपत्यादीनाम् अग्नित्रयाणं । यथासंख्येन हविःपाकादिषु त्रिषु विनियोगः स्यात् । ७ गर्भाधानादिसंस्काररहिताः। ८ अग्नित्रयपूजा । ६ कारणात् । १० व्यवहतु योग्यः । ११ विप्रस्य ।-जन्मभिः ६०, ल०, अ०, प०, स०, इ० । १२ लृट् । वक्ष्ये । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ महापुराणम् गर्भाधान मन्त्रः -- सज्जातिभागी भव सद्गृहिभागी भवेति च । पदद्वयमुदीर्यादौ पदानीमान्यतः पठेत् ॥६२॥ आदौ मुनीन्द्रभागीति भवेत्यन्ते पदं वदेत् । सुरेन्द्रभागी परमराज्यभागीति च द्वयम् ॥३॥ आर्हन्त्यभागी भवेति पदमस्मादनन्तरम् । ततः परमनिर्वाणभागी भव पदं भवेत् ॥ ६४॥ श्राधाने' मन्त्र एष स्यात् पूर्वमन्त्रपुरःसरः । विनियोगश्च मन्त्राणां यथाम्नायं प्रदर्शितः ॥६५॥ चूर्णि:- सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव, ( प्रधानमन्त्रः ) स्यात्प्रीतिमन्त्रस्त्रैलोक्यनाथो भवपदादिकः । त्रैकाल्यज्ञानी भव त्रिरत्नस्वामी भवेत्ययम् ॥ ६६ ॥ चूणिः -लोक्यनाथो भव, त्रैलोक्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव, ( प्रीतिमन्त्रः ) ? मन्त्रोऽवतार कल्याणभागी भवपदादिकः । सुप्रीतौ मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणवाक्परः ॥६७॥ भागीभव पदोपेतस्ततो निष्क्रान्तिवाक्परः । कल्याणमध्यमो भागो भवत्येतेन योजितः ॥ ६८ ॥ ततश्चार्हन्त्यकल्याणभागी भव पदान्वितः । ततः परमनिर्वाणकल्याणपद सङ्गतः ॥६॥ गर्भाधानके मन्त्र - प्रथम ही 'सज्जातिभागी भव' ( उत्तम जातिको धारण करनेवाला हो) और 'सद्गृहिभागी भव' (उत्तम गृहस्थ अवस्थाको प्राप्त होओ) इन दो पदोंका उच्चारण कर पश्चात् नीचे लिखे पद पढ़ना चाहिये ॥ ९२ ॥ पहले 'मुनीन्द्रभागी भव' ( महामुनिका पद प्राप्त करनेवाला हो ) यह पद बोलना चाहिये और फिर 'सुरेन्द्रभागी भव' (इन्द्र पदका भोक्ता हो ) तथा 'परमराज्यभागी भव' (उत्कृष्ट राज्यका उपभोग करनेवाला हो ) इन दो पदों का उच्चारण करना चाहिये ॥ ९३ ॥ तदनन्तर 'आर्हन्त्यभागी भव' ( अरहन्त पदका प्राप्त करनेवाला हो ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिये और फिर परमनिर्वाणभागी भव' (परम निर्वाण पदको प्राप्त करनेवाला हो), यह पद कहना चाहिये || १४ || गर्भाधानकी क्रियामें पहले के मन्त्रों के साथ साथ यह मन्त्र काममें लाना चाहिये इस प्रकार यह आम्नायके अनुसार मन्त्रोंका विनियोगका क्रम दिखलाया है ॥ ९५ ॥ गर्भाधानके समय काम आनेवाले विशेष मन्त्रोंका संग्रह इस प्रकार है सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव । अब प्रीतिमन्त्र कहते हैं- ' त्रैलोक्यनाथो भव' (तीनों लोकों के अधिपति होओ ) ' त्रैकाल्यज्ञानी भव' (तीनों कालका जाननेवाला हो) और 'त्रिरत्नस्वामी भव' (रत्नत्रयका स्वामी हो) ये तीन प्रीतिक्रिया के मन्त्र हैं ॥९६॥ संग्रह - ' त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव' । अब सुप्रीति क्रियाके मन्त्र कहते हैं- सुप्रीति क्रिया में 'अवतारकल्याणभागी भव' (गर्भकल्याकको प्राप्त करनेवाला हो), 'मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव' (सुमेरु पर्वतपर इन्द्रके द्वारा जन्माभिषेक के कल्याणको प्राप्त हो), 'निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव' (निष्क्रमण कल्याणको प्राप्त करनेवाला हो), 'आर्हन्त्यकल्याणभागी भव' (अरहन्त अवस्था - केवलज्ञानकल्याणकको प्राप्त करनेवाला हो), और 'परमनिर्वाणकल्याणभागी भव' (उत्कृष्ट निर्वाण कल्याणकको १ गर्भाधाने । २ पीठिकामन्त्रादिपुरःसरः । ३ अवतारादिकल्यारणादिपरमनिर्वाणपदान्तानां सर्वपदानाम् । मन्त्र इति पदं विशेष्यपदं भवति । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व ३०३ भागी भवपदान्तश्च क्रमाद्वाच्यो मनीषिभिः । धृतिमन्त्रमितो' वक्ष्ये प्रीत्या शृणुत भो द्विजाः ॥ १०० ॥ चूणिः - श्रवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागो भव, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, श्रर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाण कल्याणभागी भव, (सुप्रीति मन्त्रः ) । धृतिक्रियामन्त्रः- प्रधानमन्त्र एवात्र सर्वत्राहितदातृवाक् । मध्ये यथाक्रमं वाच्यो नान्यो भेदोऽत्र कश्चन ॥ १०१ ॥ चूर्णिः - सज्जातिदातृभागी भव, सद्गृहिदातृभागी भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातुभागी भव श्रार्हन्त्यपददातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागो भव, ( धृतिक्रिया मन्त्रः ) । मोदक्रियामन्त्रः -- मन्त्रो मोदक्रियायां च मतोऽयं मुनिसत्तमैः । पूर्वं सज्जातिकल्याणभागी भव पदं वदेत् ॥१०२॥ ततः सद्गृहिकल्याणभागी भव पदं पठेत् । ततो वैवाहकल्याणभागी भव पदं मतम् ॥१०३॥ ततो मुनीन्द्रकल्याणभागी भव पदं स्मृतम् । पुनः सुरेन्द्रकल्याणभागी भव पदात्परम् ॥ १०४॥ मन्दराभिषेककल्याणभागोति च भवेति च । तस्माच्च यौवराज्यादिकल्याणपदसंयुतम् ॥ १०५॥ प्राप्त करनेवाला हो) ये मन्त्र विद्वानोंको अनुक्रमसे बोलना चाहिये । अब आगे धृतिमन्त्र कहते हैं सो हे द्विजो, उन्हें तुम प्रीतिपूर्वक सुनो ।।९७-१००॥ संग्रह - 'अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाणकल्याणभागी भव' । धृति क्रियाके मन्त्र-गर्भाधान क्रियाके मंत्रों में सब जगह दातृ शब्द लगा देनेसे धृति क्रियाके मन्त्र हो जाते हैं, विद्वानोंको अनुक्रमसे उन्हींका प्रयोग करना चाहिये, आधान क्रिया के मंत्रोंसे इन मन्त्रों में और कुछ भेद नहीं है । भावार्थ - ' सज्जातिदातृभागी भव' (सज्जातिउत्तम जातिको देनेवाला हो), 'सद्गृहिदातृभागी भव' (सद्गृहस्थपदका देनेवाला हो ), 'मुनीन्द्रदातृभागी भव' ( महामुनिपदका देनेवाला हो), 'सुरेन्द्रदातृभागी भव' ( सरेन्द्रपदको देनेवाला हो), ‘परमराज्यदातृभागी भव' ( उत्तमराज्य - चक्रवर्ती के पदका देनेवाला हो), 'आर्हन्त्यदातृभागी भव' (अरहन्त पदका देनेवाला हो ) तथा 'परम निर्वाणदातृभागी भव' ( उत्कृष्ट निर्वाण पदका देनेवाला हो ) धृति क्रियामें इन मन्त्रोंका पाठ करना चाहिये ॥ १०१ ॥ संग्रह - 'सज्जातिदातृभागी भव, सद्गृहिदातृभागी भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातृभागी भव, आर्हन्त्यदातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागी भव' । अब मोदक्रियाके मन्त्र कहते हैं - उत्तम मुनियोंने मोदक्रियाके मन्त्र इस प्रकार माने हैं सबसे पहले 'सज्जातिकल्याणभागी भव' (सज्जातिके कल्याणको धारण करनेवाला हो ) यह पद बोलना चाहिये, फिर सद्गृहिकल्याणभागी भव ( उत्तम गृहस्थके कल्याणका धारण करनेवाला हो ) यह पद पढ़ना चाहिये, तदनन्तर 'वैवाहकल्याणभागी भव' ( विवाह के कल्याण को प्राप्त करनेवाला हो ) इस पदका उच्चारण करना चाहिये, फिर 'मुनीन्द्रकल्याणभागी भव' ( महामुनि पदके कल्याणको प्राप्त करनेवाला हो ) यह मन्त्र बोलना चाहिये, इसके बाद 'सुरेन्द्र कल्याणभागी भव' (इन्द्र पदके कल्याणका उपभोग करनेवाला हो), यह पद कहना चाहिये, फिर ' मन्दराभिषेककल्याणभागी भव' (सुमेरु पर्वतपर अभिषेकके कल्याणको प्राप्त हो ) यह मन्त्र पढ़ना चाहिये, अनन्तर 'यौवराज्य कल्याणभागी भव' (युवराज पदके कल्याणका उपभोग करनेवाला हो ) यह पद कहना चाहिये, तत्पश्चात् मन्त्रोंके प्रयोग करनेमें विद्वान् लोगोंको 'महाराज्यकल्याणभागी भव' ( महाराज पदके कल्याणका उपभोक्ता हो ) यह १ मतो ल० । मथो द० । २ धृतिक्रियायाम् । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् भागीभवपदं वाच्यं मन्त्रयोगविशारदः। स्यान्महाराज्यकल्याणभागी भव पदं परम् ॥१०६।। भूयः परमराज्यादिकल्याणोपहितं मतम् । भागी भवेत्यथार्हन्त्यकल्याणेन च योजितम् ॥१०७॥ चूणि:-सज्जातिकल्याणभागी भव, सद्गहिकल्याणभागी भव, वैवाहकल्याणभागी भव, मुनीन्द्रकल्याणभागी भव, सुरेन्द्र कल्याणभागी भव, मन्दराभिषेककल्याणभागी भव, यौवराज्यकल्याणभागी भव, महाराज्यकल्याणभागी भव, परमराज्यकल्याणभागी भव, प्रार्हन्त्यकल्याणभागी भव, (मोदक्रिया मन्त्रः) । प्रियोद्भ वमन्त्रः-- प्रियोद्भव च मन्त्रोऽयं सिद्धार्चनपुरःसरम् । दिव्यनेमिविजयाय पदात्परममिवाक् ॥१०॥ विजयायेत्ययार्हन्त्यनेम्यादिविजयाय च । युक्तो मन्त्राक्षररेभिः स्वाहान्तः सम्मतो द्विजः ॥१०॥ चणिः-दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा, परमनेमिविजयाय स्वाहा, प्रार्हन्त्यनेमिविजयाय स्वाहा । (प्रियोद्भवमन्त्रः)। जन्मसंस्कारमन्त्रोऽयम् एतेनार्भकमादितः। सिद्धाभिषेकगन्धाम्बुसंसिक्तं शिरसि स्थितम् ॥११०॥ कुलजातिवयोरूपगुणैः शीलप्रजान्वयः। भाग्याविषवतासौम्यमूतित्वैः समधिष्ठिता ॥११॥ सम्यग्दृष्टिस्तवाम्बयमतस्त्वमपि पुत्रकः । सम्प्रीतिमाप्नुहि त्रीणि प्राप्य चक्राण्यनुक्रमात् ॥११२॥ इत्यङगानि स्पृशेदस्य प्रायः सारूप्ययोगतः । तत्राधा यात्मसङकल्पं ततः सूक्तमिदं पठेत् ॥११३॥ मन्त्र बोलना चाहिये, फिर 'परमराज्यकल्याणभागी भव' (परमराज्यके कल्याणको प्राप्त हो) यह पद पढ़ना चाहिये और उसके बाद 'आर्हन्त्यकल्याणभागी भव' (अरहन्त पदके कल्याणका उपभोग करने वाला हो) यह मन्त्र बोलना चाहिये ।।१०३-१०७॥ संग्रह--'सज्जातिकल्याणभागी भव, सद्गहिकल्याणभागी भव, वैवाहकल्याणभागी भव, मुनीन्द्र कल्याणभागी भव, सुरेन्द्र कल्याणभागी भव, मन्दराभिषेककल्याणभागी भव, यौवराज्यकल्याणभागी भव, महाराज्यकल्याणभागी भव, परमराज्यकल्याणभागी भव, आईन्त्यकल्याणभागी भव' ।। अब प्रियोद्भव मन्त्र कहते हैं-प्रियोद्भव क्रियामें सिद्ध भगवान्की पूजा करनेके बाद नीचे लिखे मन्त्रोंका पाठ करना चाहिये 'दिव्यनेमिविजयाय', 'परमनेमिविजयाय', और 'आर्हन्त्यनेमिविजयाय' इन मन्त्राक्षरोंके साथ द्विजोंको अन्तमें स्वाहा शब्दका प्रयोग करना अभीष्ट है अर्थात 'दिव्यने मिविजयाय स्वाहा' (दिव्यनेमिके द्वारा कर्मरूप शत्रुओंपर विजय प्राप्त करनेवालेके लिये हवि समर्पण करता हूँ), 'परमनेमिविजयाय स्वाहा' (परमनेमिके द्वारा विजय प्राप्त करनेवालेके लिये समर्पण करता हूँ) और 'आर्हन्त्यनेमिविजयाय स्वाहा' (अरहन्त अवस्थारूप नेमिके द्वारा कर्म शत्रुओं को जीतनेवाले जिनेन्द्रदेवके लिये समर्पण करता हूँ) ये तीन मन्त्र बोलना चाहिये ॥१०८-१०९॥ संग्रह 'दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा, परमनेमिविजयाय स्वाहा, आर्हन्त्यनेमिविजयाय स्वाहा'। अब जन्म संस्कारके मन्त्र कहते हैं-प्रथम ही सिद्ध भगवान्के अभिषेकके गन्धोदकसे सिंचन किये हुए बालकको यह मन्त्र पढ़कर शिरपर स्पर्श करना चाहिये और कहना चाहिये कि यह तेरी माता कुल, जाति, अवस्था, रूप आदि गुणोंसे सहित है, शीलवती है, सन्तानवती है, भाग्यवती है, अवैधव्यसे युक्त है, सौम्यशान्तमूर्तिसे सहित है और सम्यग्दृष्टि है इसलिये हे पूत्र, इस माताके सम्बन्धसे तू भी अनुक्रमसे दिव्य चक्र, विजयचक्र और परमचक्र तीनों चक्रोंको पाकर सत्प्रीतिको प्राप्त हो ।।११०-११२॥ इस प्रकार आशीर्वाद देकर पिता १ सहितम् । २ कुलजात्यादियथायोग्यगुरोरधिष्ठितः । ३ दिव्यचक्रविजयचक्रपरमचक्राणि । ४ समानरूपत्वसम्बन्धात् । ५ बालके। ६ विधाय । ७ निजसङकल्पम् । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व ३०५ अडगावडरगात्सम्भवसि हृदयादपि जायसे । आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम् ॥११४॥ क्षीराज्यममृतं पूतं नाभावावय' युक्तिभिः' । घातिञ्जयो भवेत्यस्य' ह्रासयन्नाभिनालकम् ॥११॥ श्रीदेव्यो जात ते जात क्रियां कुर्वन्त्विति ब्रयन् । तत्तन चूर्णवासेन शनैरुद्वयं यत्नतः ॥११६॥ त्वं मन्दराभिषेकाहॊ भवेति स्नपयेत्ततः। गन्धाम्बुभिश्चिरं जीव्या इत्याशास्याक्षतं क्षिपेत् ॥११७॥ नश्यात्कर्ममलं कृत्स्नमित्यास्येऽस्य सनासिके । घृतमौषधसंसिद्धमाव पेन्मात्रया द्विजः ॥११८॥ ततो विश्वेश्वरास्तन्यभागी" भूया इतीरयन्५ । मातुस्तनभुपामन्त्र्य वदनेऽस्य समासजेत् ॥११॥ प्राग्वर्णितमयानन्दं प्रीतिदानपुरःसरम् । विधाय विधिवत्तस्य जातकर्म समापयेत् ॥१२०॥ (जरायुपटलं चास्य नाभिनालसमायुतम् । शुचौ भूमौ निखातायां विक्षिपेन्मन्त्रमापठन् ॥१२॥ सम्यग्दृष्टिपदं बोध्ये सर्वमातेति चापरम् । वसुन्धरापदं चैव स्वाहान्तं द्विरुदाहरेत् ॥१२२॥ चूणिः-सम्यग्दृष्टे सम्यग्दष्ट सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा । मन्त्रेणानेन सम्मन्त्र्य भूमौ सोदकमक्षतम् । क्षिप्त्वा गर्भमलं न्यस्तपञ्चरत्नतले क्षिपेत् ॥१२३॥ उसके समस्त अंगोंका स्पर्श करे और फिर प्रायः अपने समान होनेसे उसमें अपना संकल्पकर अर्थात् यह मैं ही हूँ ऐसा आरोपकर नीचे लिखे हुए सुभाषित पढ़े ॥११३॥ हे पुत्र, तू मेरे अङ्ग अङ्गसे उत्पन्न हुआ है और मेरे हृदयसे भी उत्पन्न हुआ है इसलिये तू पुत्र नामको धारण करनेवाला मेरा आत्मा ही है। तू सैकड़ों वर्षों तक जीवित रह ॥११४॥ तदनन्तर दूध और घीरूपी पवित्र अमृत उसकी नाभिपर डालकर 'घार्तिजयो भव' (तू घातिया कर्मोको जीतनेवाला हो) यह मन्त्र पढ़कर युक्तिसे उसकी नाभिका नाल काटना चाहिये ॥११५॥ तत्पश्चात् 'हे जात, श्रीदेव्यः ते जातक्रियां' कुर्वन्तु अर्थात् हे पुत्र, श्री, ह्री आदि देवियाँ तेरी जन्मक्रियाका उत्सव करें यह कहते हुए धीरे धीरे यत्नपूर्वक सुगन्धित चूर्णसे उस बालकके शरीरपर उबटन करे फिर 'त्वं मन्दराभिषेकाो भव' अर्थात् तू मेरु पर्वतपर अभिषेक करने योग्य हो यह मन्त्र पढ़कर सुगन्धित जलसे उसे स्नान करावे और फिर 'चिरं जीव्याः' अर्थात् तू चिरकालतक जीवित रह इस प्रकार आशीर्वाद देकर उसपर अक्षत डाले ॥११६-११७॥ इसके अनन्तर द्विज, 'नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नम्'-अर्थात् तेरे समस्त कर्ममल नष्ट हो जावें यह मन्त्र पढ़ करउसके मुख और नाकमें, औषधि मिलाकर तैयार किया हुआ घी मात्राके अनुसार छोड़े ॥११८।। तत्पश्चात् विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूयाः' अर्थात् तू तीर्थ करकी माताके स्तनका पान करने वाला हो ऐसा कहता हुआ माताके स्तनको मन्त्रितकर उसे बालकके मुहमें लगा दे ।।११९।। तदनन्तर जिस प्रकार पहले वर्णन कर चुके हैं उसी प्रकार प्रीतिपूर्वक दान देते हुए उत्सव कर विधिपूर्वक जातकर्म अथवा जन्मकालकी क्रिया समाप्त करनी चाहिये ।।१२०।। उसके जरायु पटलको नाभिकी नालके साथ साथ किसी पवित्र जमीनको खोदकर मन्त्र पढ़ते हुए गाड़ देना चाहिये ।।१२१।। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है कि सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद, सर्वमाता पद और वसुन्धरा पदको दो दो बार कहकर अन्तमें स्वाहा शब्द कहना चाहिये। अर्थात् सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा (सम्यग्दृष्टि, सर्वकी माता पृथ्वी में यह समर्पण करता हूँ) इस मन्त्रसे मन्त्रितकर उस भूमिमें जल और अक्षत डालकर पाँच प्रकारके रत्नोंके नीचे गर्भका वह मल रख देना चाहिये और फिर कभी 'त्वत्पुत्रा इव १ बहुसंवत्सरमित्यर्थः । २ क्षीराज्यरूपममतम् । ३ सिक्त्वा । ४ युक्तितः ल० । भक्तितः द० । ५ बालस्य । ६ ह्रस्वं कुर्यात् । छिन्द्यादित्यर्थः । ७ पुत्र । ८ जातकर्म । ६ परिमलचूर्णेन। १० जीव । ११ वक्त्रे। १२ आवर्जयेद्, क्षिपेद् वा। १३ किञ्चित् परिमाणेन । १४ जिनजननीस्तन्यपानभागी भव । १५ ब्रुवन् । १६ संयोजयेत् । १७ सम्प्रापयेत् । १८ जरायुपटलम् । ३९ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ महापुराणम् त्वत्पुत्रा' इव मत्पुत्रा भूयासुश्चिरजीविनः। इत्युदाहृत्य सस्याहें तत्क्षप्तव्यं महीतले ॥१२४॥ क्षीरवृक्षोपशाखाभिः उपहृत्य च भूतलम् । स्नाप्या तत्रास्य माताऽसौ सुखोष्णमन्त्रितर्जलः ॥१२॥ सम्यग्दृष्टिपदं बोध्यविषयं द्विरुदीरयेत् । पदमासन्नभव्येति तद्वद विश्वेश्वरेत्यपि ॥१२६॥ तत जितपुण्यति जिनमातृपदं तथा । स्वाहान्तो मन्त्र एषः स्यान्मातुः स्नानसंविधौ ॥१२७॥ चूणिः-सम्यग्दष्टे सम्यग्दृष्टे पासनभव्ये आसन्नभव्ये विश्वश्वर विश्वेश्वरे अजितपुण्ये जितपुण्ये जिनमातः जिनमातः स्वाहा । यथा जिनाम्बिका पुत्रकल्याणान्यभिपश्यति । तथेयमपि मत्पत्नीत्यास्थयेयं विधि भजेत् ॥१२८॥ तृतीयेऽहनि चानन्तज्ञानदी भवेत्यमुम्। पालोकयेत्समुत्क्षिप्य निशि ताराडाकितं नभः ॥१२६॥ पुण्याहघोषणापूर्व कर्याद दानं च शक्तितः। यथायोग्यं विदध्याच्च सर्वस्याभयघोषणाम् ॥१३०॥ जातकर्मविधिः सोऽयम् अाम्नातः पूर्वसूरिभिः। यथायोगमनष्ठेयः सोऽद्यत्वेऽपि द्विजोत्तमैः ॥१३॥ नामकर्मविधाने च मन्त्रोऽयमनु कीय॑ते । सिद्धार्चनविधौ सप्त मन्त्राः प्रागनुवणिताः ॥१३२॥ ततो दिव्याष्टसहस्रनामभागी भवादिकम् । पदत्रितयमुच्चार्य मन्त्रोऽत्र परिवर्त्यताम् ॥१३३॥ चूणिः-'दिव्यास्त्रसहस्रनामभागी भव, विजयाष्टसहस्त्रनामभागी भव, परमाष्ट सहस्रनामभागी भव' । मत पुत्राः चिरंजीविनी भूयासुः' (हे पृथ्वी तेरे पुत्र-कुलपर्वतोंके समान मेरे पुत्र भी चिरंजीवी हों) यह कहकर घान्य उत्पन्न होनेके योग्य खेतमें जमीनपर वह मल डाल देना चाहिये • ॥१२२-१२४॥ तदनन्तर क्षीर वृक्षकी डालियोंसे पृथिवीको सुशोभित कर उसपर उस पूत्रकी माताको बिठाकर मंत्रित किये हुए सहाते गर्म जलसे स्नान कराना चाहिये ।।१२५।। माताको स्नान करानेका मन्त्र यह है-प्रथम ही सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पदको दो बार कहना चाहिये फिर आसन्नभव्या, विश्वेश्वरी, अजितपुण्या, और जिन माता इन पदोंको भी सम्बोध. नान्त कर दो दो बार बोलना चाहिये और अन्तमें स्वाहा शब्द पढ़ना चाहिये । भावार्थसम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्ये आसन्नभव्ये विश्वेश्वरि विश्वेश्वरि ऊजितपुप्ये अजितपुण्ये जिनमातः जिनमातः स्वाहा (हे सम्यग्दृष्टि, हे निकटभव्य, हे सबकी स्वामिनी, हे अत्यन्त पुण्य संचय करनेवाली, जिन माता तू कल्याण करनेवाली हो) यह मन्त्र पुत्रकी माताको स्नान कराते समय बोलना चाहिये ।।१२६-१२७॥ जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवकी माता पुत्रके कल्याणोंको देखती है उसी प्रकार यह मेरी पत्नी भी देखे ऐसी श्रद्धासे यह स्नानकी विधि करनी चाहिये ॥१२८॥ तीसरे दिन रातके समय 'अनन्तज्ञानदी भव' (तू अनन्तज्ञानको देखनेवाला हो) यह मन्त्र पढ़कर उस पुत्रको गोदीमें उठाकर ताराओंसे सुशोभित आकाश दिखाना चाहिये ॥१२९॥ उसी दिन पुण्याहवाचनके साथ साथ शक्तिके अनुसार दान करना चाहिये और जितना बन सके उतना सब जीवोंके अभयकी घोषणा करनी चाहिये ॥१३०।। इस प्रकार पूर्वाचार्योने यह जन्मोत्सवकी विधि मानी है-कही है। उत्तम द्विजको आज भी इसका यथायोग्य रीतिसे अनुष्ठान करना चाहिये ।।१३१॥ ___ अब आगे नामकर्म करते समय जिन मंत्रोंका प्रयोग होता है उन्हें कहते हैं-इस विधिमें सिद्ध भगवान्की पूजा करनेके लिये जिन सात पीठिका मंत्रोंका प्रयोग होता है उन्हें पहले ही कह चुके हैं। उनके आगे 'दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव' आदि तीनों पदोंका उच्चारण कर मन्त्र परिवर्तित कर लेना चाहिये अर्थात् 'दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव' (एक हजार आठ दिव्य नामोंका पानेवाला हो), 'विजयाष्टसहस्रनामभागी भव' (विजयरूप एक हजार आठ १ कुलपर्वता इव । २ अलङकृत्येत्यर्थः । ३ विश्वेश्वरीत्यपि ल० १ ४ एवं बुद्ध्या। ५ पुत्रम् । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम पर्व ३०७ शेषो विधिस्तु निःशेषः प्रागुक्तो नोच्यते पुनः। बहिर्यानक्रियामन्त्रः ततोऽयमनु गम्यताम् ॥१३४॥ बहिर्यानक्रियातत्रोपनयनिष्क्रान्तिभागी भव पदात्परम् । भवेद् वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव पदं ततः॥ १३॥ क्रमामुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव पदं वदेत् । ततः सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव पदं स्मृतम् ॥१३६॥ मन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिभागीभव पदं ततः। यौवराज्यमहाराज्यपदे भागी भवान्विते ॥१३७॥ निष्क्रान्तिपदमध्ये स्तां परराज्यपदं तथा । पार्हन्त्यराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव शिखापदम् ॥१३॥ पवैरेभिरयं मन्त्रस्तद्विद्भिरनुजप्यताम् । प्रागुक्तो विधिरन्यस्तु निषद्यामन्त्र उत्तरः ॥१३॥ चूणिः-उपनयनिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रातिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, मन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्कान्तिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, परमराज्यनिष्कान्तिभागी भव, प्रार्हन्त्यनिष्क्रान्तिभागी भव, (बहिर्यानमन्त्रः) निषद्यादियसिंहासनपदाद् भागी भव पदं भवेत् । एवं विजयपरमसिंहासनपदद्वयात् ॥१४०॥ नामोंका धारक हो और 'परमाष्टसहस्रनामभागी भव' (अत्यन्त उत्तम एक हजार आठ नामोंका पानेवाला हो) ये मन्त्र पढ़ना चाहिये। संग्रह-'दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव, विजयाष्टसहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनामभागी भव' ॥१३२-१३३।। बाकीकी समस्त विधि पहले कही जा चुकी है इसलिये दुबारा नहीं कहते हैं अब आगे बहिर्यान क्रियाके मन्त्र नीचे लिखे अनुसार जानना चाहिये ॥१३४॥ सबसे पहले 'उपनयनिष्क्रान्तिभागी भव', (तू यज्ञोपवीतके लिये निकलनेवाला हो) यह पद बोलना चाहिये और फिर 'वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव' (विवाहके लिये बाहर निकलने वाला हो) यह मन्त्र पढ़ना चाहिये ॥१३५॥ तदनन्तर अनुक्रमसे 'मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव' (मुनिपदके लिये निकलनेवाला हो) यह मन्त्र कहना चाहिये और उसके बाद 'सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव' (सुरेन्द्र पदकी प्राप्तिके लिये निकलनेवाला हो) यह पद बोलना चाहिये ॥१३६।। तत्पश्चात् 'मन्दरेन्द्राभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव' (समेरुपर्वतपर अभिषेकके लिये निकलनेवाला हो) इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये और फिर 'यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' (युवराज पदके लिये निकलनेवाला हो) यह मन्त्र कहना चाहिये ॥१३७॥ तदनन्तर 'महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' (महाराज पदकी प्राप्तिके लिये निकलनेवाला हो) यह पद बोलना चाहिये और उसके बाद 'परमराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' (चक्रवर्तीका उत्कृष्ट राज्य पानेके लिये निकलनेवाला हो) यह मंत्र पढ़ना चाहिये और इसके अनन्तर 'आर्हन्त्यराज्यभागी भव' (अरहन्त पदकी प्राप्तिके लिये निकलनेवाला हो) यह मन्त्र कहना चाहिये ॥१३८॥ इस प्रकार मन्त्रोंको जाननेवाले द्विजोंको इन उपर्युक्त पदोंके द्वारा मंत्रोंका जाप करना चाहिये। बाकी समस्त विधि पहले कह चुके हैं अब आगे निषद्या मन्त्र कहते हैं ॥१३९॥ ___ संग्रह-'उपनयनिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, मन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, परमराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, आर्हन्त्यनिष्क्रान्तिभागी भव'। निषद्यामन्त्र:-'दिव्यसिंहासनभागी भव' (दिव्य सिंहासनका भोक्ता हो-इन्द्रके १ ज्ञायताम् । २ स्याताम्। ३ अन्त्यपदम् । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ महापुराणम् चूणिः-दियसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी (भव इति निषद्यामन्त्रः)। अन्नप्राशनक्रिया'प्राशनेऽपि तथा मन्त्रं पदैस्त्रिभिरुदाहरेत् । तानि स्युदिव्यविजयाक्षीणामृतपदानि वै ॥१४॥ भागी भव पदेनान्ते युक्तेनान गतानि तु । पदैरेभिरयं मन्त्रः प्रयोज्यः प्राशने बुधैः ॥१४२॥ __चूणिः--दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव, अक्षीणामतभागी भव । व्यष्टि:घुष्टिक्रियाश्रितं मन्त्रम इतो वक्ष्य यथाश्रुतम् । तत्रोपनयनं जन्मवर्षवर्द्धनवाग्युतम् ॥१४३॥ भागी भव पदं ज्ञेयम् प्रादौ शेषपदाष्टके । वैवाहनिष्ठशब्देन मनिजन्मपदेन च ॥१४४॥ सुरेन्द्रजन्मना मन्दराभिषेकपदेन च । यौवराज्यमहाराज्यपदाभ्यामप्यनुक्रमात् ॥१४॥ परमार्हन्त्यराज्याभ्यां वर्षवर्धनसंयुतम् । भागी भव पदं योज्यं ततो मन्त्रोऽयमुद्भवेत् ॥१४६॥ चूणिः-उपनयनजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, ववाहनिष्ठवर्षवर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, महराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, प्रार्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव, (व्यु ष्टिक्रियामन्त्रः) आसनपर बैठनेवाला हो), 'विजयसिंहासनभागी भव' (चक्रवर्तीके विजयोल्लसित सिहासन पर बैठनेवाला हो) और 'परमसिंहासनभागी भव' (तीर्थ करके उत्कृष्ट सिंहासनपर बैटने वाला हो) ये तीन मन्त्र कहना चाहिये । ॥१४०॥ संग्रह-'दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी भव' । अब अन्नप्राशन क्रियाके मन्त्र कहते हैं-अन्नप्राशन क्रियाके समय तीन पदोंके द्वारा मन्त्र कहने चाहिये और वे पद दिव्यामृत, विजयामृत और अक्षीणामृत इनके अन्तमें भागी भव ये योग्य पद लगाकर बनाने चाहिये । विद्वानोंको अन्नप्राशन क्रिया में इन पदोंके द्वारा मन्त्रका प्रयोग करना चाहिये। भावार्थ-इस क्रियामें निम्नलिखित मन्त्र पढ़ने चाहिये-'दिव्यामृतभागी भव' (दिव्य अमृतका भोग करने वाला हो), 'विजयामृतभागी भव' (विजयरूप अमृतका उपभोक्ता हो) और 'अक्षीणामृतभागी भव' (अक्षीण अमृतका भोक्ता हो) ॥१४१-१४२॥ संग्रहः-'दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव, अक्षीणामृतभागी भव'। अब यहाँसे आगे शास्त्रानुसार व्युष्टि क्रियाके मंत्र कहते हैं-सबसे पहले 'उपनयन' के आगे 'जन्मवर्षवर्द्धन' पद लगाकर 'भागी भव' पद लगाना चाहिये और फिर अनुक्रमसे वैवाहनिष्ठ, मुनीन्द्रजन्म, सुरेन्द्रजन्म, मन्दराभिषेक, यौवराज्य, महाराज्य, परमराज्य और आर्हन्त्यराज्य इन शेष आठ पदोंके साथ 'वर्षवर्द्धन' पद लगाकर 'भागी भव' यह पद लगाना चाहिये। ऐसा करनेसे व्यष्टिक्रियाके सब मन्त्र बन जावेंगे। भावार्थ-व्यष्टिक्रिया में निम्नलिखित मंत्रोंका प्रयोग करना चाहिये-'उपनयनजन्मवर्षवर्धनभागी भव' (यज्ञोपवीतरूप जन्मके वर्षका बढ़ानेवाला हो), 'वैवाहिनिष्ठवर्षवर्धनभागी भव' (विवाह क्रियाके वर्षका वर्धक हो), 'मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागी भव' (मुनि पद धारण करनेवाले वर्षकी वृद्धिसे युक्त हो), 'सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागी भव' (इन्द्र जन्मके वर्षका बढ़ानेवाला हो), 'मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागी भव' (सुमेरु पर्वतपर होनेवाले अभिषेककी वर्ष वृद्धि करनेवाला हो), यौवराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (युवराज पदकी वर्ष वृद्धि करनेवाला हो), 'महाराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (महाराज पदकी वर्षवृद्धिका उपभोक्ता हो) 'परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (चक्रवर्तीके उत्कृष्ट राज्य १ अन्नप्राशने । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व चौलकर्म- चौलकर्मण्यथो मन्त्रः स्याच्चोपनयनादिकम । मुण्डभागी भवान्तं च पदमादावनुस्मृतम् ॥ १४७॥ ततो निर्ग्रन्थमुण्डादिभागी भवपदं परम् । ततो निष्क्रान्तिमुण्डादिभागी भव पदं परम् ॥ १४८ ॥ स्यात्परमनिस्तारक केशभागी भवेत्यतः । परमेन्द्रपदादिश्च केशभागी भवध्वनिः ॥ १४६ ॥ परमार्हन्त्यराज्यादिकेशभागीति वाग्द्वयम् । भवेत्यन्तपदोपेतं मन्त्रोऽस्मिन्स्याच्छिखापदम् ॥ १५०॥ शिखामेतेन मन्त्रेण स्थापयेद्विधिवद् द्विजः । ततो मन्त्रोऽयमाम्नातो लिपिसङख्यान सङग्रहे ॥ १५१ ॥ चूर्णि: - उपनयनमुण्डभागी भव, निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्र केशभावी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव । ( इति चौलक्रियामन्त्रः ) शब्दपरभागी भव श्रर्थपारभागी भव । पदं शब्दार्थ सम्बन्धपारभागी भवेत्यपि ॥ १५२ ॥ ३०९ चूर्णिः - शब्दपारगामी ( भागी) भव, अर्थपारगामी ( भागी) भव, शब्दार्थपारगामी ( भागी) भव, ( लिपिसंख्यानमंन्त्रः ) उपनीतिक्रियामन्त्रं स्मरन्तीमं द्विजोत्तमाः । परमनिस्तारकादिलिङ्गभागी भवेत्यतः ॥ १५३ ॥ की वर्षवृद्धि करनेवाला हो) और 'आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (अरहन्त पदवीरूपी राज्यके वर्षका बढ़ानेवाला हो ) || १४३-१४६॥ संग्रह-'उपनयनजन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्षवर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्ष वर्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्ष वर्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, महाराज्यवर्ष वर्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्ष वर्धनभागी भव' । अब चौलक्रिया के मन्त्र कहते हैं - जिसके आदिमें उपनयन शब्द है और अन्त में 'मुण्डभागी भव' शब्द है ऐसा पहला मन्त्र जानना चाहिये अर्थात् 'उपनयन मुण्डभागी भव' (उपनयन क्रियामें मुण्डन करनेवाला हो ) यह चौलक्रियाका पहला मन्त्र है || १४७ || फिर 'निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव' (निर्ग्रन्थ दीक्षा लेते समय मुण्डन करनेवाला हो ) यह दूसरा मन्त्र है और उसके बाद 'निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव' (मुनि अवस्थामें केशलोंच करनेवाला हो ) यह तीसरा मन्त्र है ।। १४८ ।। तदनन्तर 'परमनिस्तारककेशभागी भव' (संसारसे पार उतारनेवाले आचार्य के केशों को प्राप्त हो ) यह चौथा मन्त्र है और उसके पश्चात् परमेन्द्रकेशभागी भव ( इन्द्र पदके केशोंको धारण करनेवाला हो ) यह पाँचवाँ मन्त्र बोलना चाहिये ॥ १४९ ॥ इसके बाद ‘परमराज्यक्रेशभागी भव' (चक्रवर्तीके केशोंको प्राप्त हो) यह छठवाँ मन्त्र है और 'आईन्त्यराज्यकेशभागी भव' (अरहंत अवस्थाके केशोंको धारण करनेवाला हो ) यह सातवाँ मन्त्र बोलना चाहिये । द्विजोंको इन मन्त्रोंसे विधिपूर्वक चोटी रखवाना चाहिये । अब आगे लिपि - संख्यानके मन्त्र कहते हैं ।। १५० - १५१॥ संग्रह - 'उपनयनमुण्डभागी भव, निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव, निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्य राज्यकेशभागी भव' | लिपिसंख्यानके मन्त्र– ' शब्दपारभागी भव' ( शब्दोंका पारगामी हो), 'अर्थपारगामी भागी भव' (सम्पूर्ण अर्थका जाननेवाला हो ) और 'शब्दार्थ सम्बन्धपारभागी भव' (शब्द तथा अर्थ दोनोंके सम्बन्धका पारगामी हो) पद लिपिसंख्यान के समय कहने चाहिये ॥ १५२॥ संग्रह - 'शब्दपारगामी भव, अर्थपारगामी भव, शब्दार्थपारगामी भव' । उत्तम द्विज नीचे लिखे हुए मन्त्रोंको उपनीति क्रियाके मन्त्ररूपसे स्मरण करते हैं Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० महापुराणम् युक्तं परमपिलिङगेन भागीभवपदं भवेत । परमेन्द्रादिलिङगादिभागी भवपदं परम ॥१५४॥ एवं परमराज्यादि परमार्हन्त्यादि च क्रमात् । युक्तं परमनिर्वाणपदेन च शिखापवम् ॥१५॥ चूणिः-परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परषि लिङगभागी भव, परमेन्द्र लिङ्गभागी भव, परमराज्यलिङगभागी भव, परमाहंन्त्यलिङगभागी भव, परमनिर्वाणलिङगभागी भव, (इत्यपनीतिक्रियामन्त्रः) मन्त्रणानेन शिष्यस्य कृत्वा संस्कारमादितः । निविकारेण वस्त्रेण कुदिनं सवाससम् ॥१५६॥ कौपीनाच्छादनं चैनम् अन्तर्वासे न कारयेत् । मौजीबन्धमतः कुर्याद् अनुबद्धत्रिमेलकम् ॥१५७॥ सूत्र गणधरैब्ध व्रतचिह्न नियोजयत् । मन्त्रपूतमतो यज्ञोपवीती स्यादसौ द्विजः ॥१५॥ जात्येव ब्राह्मणः पवम् इदानों व्रतसंस्कृतः । द्विर्जातो द्विज इत्येवं रूढिमास्तिनुते' गुणः ॥१५॥ देयान्यणुवतान्यस्म गुरुसाक्षि यथाविधिः । गुणशीलानुगैश्चैनं संस्कुर्याद् व्रतजातकः ॥१६॥ ततोऽतिबालविद्यादीनि योगादस्य निर्दिशेत् । दत्वोपासकाध्ययनं नामापि चरणोचितम् ॥१६॥ ततोऽयं कृतसंस्कारः सिद्धार्चनपुरःसरम् । यथाविधानमाचार्यपूजां कर्यादतः परम् ॥१६२॥ तस्मिन्दिने प्रविष्टस्य भिक्षार्थ जातिवेश्मसु । योऽर्थलाभः स देयः स्याद् उपाध्यायाय सावरम् ॥१६३॥ सबसे पहले 'परमनिस्तारकलिङगभागी भव' (तू उत्कृष्ट आचार्यके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो), फिर 'परमर्षिलिङगभागी भव' (परमऋषियोंके चिह्नको धारण करनेवाला हो) और 'परमेन्द्रलिङ्गभागी भव' (परम इन्द्रपदके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो) ये मन्त्र बोलना चाहिये । इसी प्रकार अनुक्रमसे परम राज्य, परमार्हन्त्य और परम निर्वाण पदको 'लिङगभागी भव' पदसे युक्तकर परमराज्यलिङगभागी भव' (परमराज्यके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो), 'परमार्हन्त्यलिङगभागी भव' (उत्कृष्ट अरहन्तदेवके चिह्नोंको धारण करनेवाला हो) और 'परमनिर्वाणलिङगभागी भव' (परमनिर्वाणके चिह्नोंका धारक हो) ये मन्त्र बना लेना चाहिये। __ संग्रह-'परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङगभागी भव, परमेन्द्र लिङगभागी भव, परमराज्यलिङगभागी भव, परमार्हन्त्यलिङगभागी भव, परमनिर्वाणलिङगभागी भव' । इन मन्त्रोंसे प्रथम ही शिष्यका संस्कार कर उसे विकाररहित वस्त्रके द्वारा वस्त्रसहित करना चाहिये अर्थात साधारण वस्त्र पहिनाना चाहिये ।।१५६॥ इसे वस्त्रके भीतर लँगोटी देनी चाहिये और उसपर तीन लड़की बनी हुई मूंजकी रस्सी बाँधनी चाहिये ॥१५७॥ तदनन्तर गणधरदेवके द्वारा कहा हुआ, व्रतोंका चिह्नस्वरूप और मन्त्रोंसे पवित्र किया हुआ सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत धारण कराना चाहिये । यज्ञोपवीत धारण करनेपर वह बालक द्विज कहलाने लगता है ॥१५८॥ पहले तो वह केवल जन्मसे ही ब्राह्मण था और अब व्रतोंसे संस्कृत होकर दूसरी बार उत्पन्न हुआ है इसलिये दो बार उत्पन्न होनेरूप गुणोंसे वह द्विज ऐसी रूढ़िको प्राप्त होता है ॥१५९॥ उस समय उस पुत्रके लिये विधिके अनुसार गुरुकी साक्षीपूर्वक अणुव्रत देना चाहिये और गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत रूपशीलसे सहित व्रतोंके समुहसे उसका संस्कार करना चाहिये । भावार्थ-उसे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत इस प्रकार व्रत और शील देकर उसके संस्कार अच्छे बनाना चाहिये ॥१६०।। तदनन्तर गुरु उसे उपासकाध्ययन पढ़ाकर और चारित्रके योग्य उसका नाम रखकर अतिबाल विद्या आदिका नियोगरूपसे उपदेश दे ॥१६१। इसके बाद जिसका संस्कार किया जा चुका है ऐसा वह पुत्र सिद्ध भगवान् की पूजा कर फिर विधिके अनुसार अपने आचार्यकी पूजा करे ॥१६२॥ उस दिन उस पुत्रको १ वस्त्रस्यान्तः । २ त्रिगुणात्मकम् । ३ ब्रह्मसूत्रम् । ४ प्राप्नोति। ५ समूहैः। ६ वक्ष्यमारणान्। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तम पर्व ३११ शेषो विधिस्तु प्राक्त्रोक्तः तमन्नं समाचरेत् । यावत्सोऽधीतविद्यः सन् भजेत् सब्रह्मचारिताम् ॥१६४॥ अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि व्रतचर्यामनुक्रमात् । स्याद्यत्रोपासकाध्यायः समासेनानुसंहृतः ॥१६॥ शिरोलिङगमरोलिडाग लिङगकट्यूरुसंश्रितम् । लिङगमस्योपनीतस्य प्राग्निर्णीतं चतुर्विधम् ॥१६६॥) तत्त स्यादसिवृत्त्या वा मष्या कृष्या वणिज्यया। ययास्वं वर्तमानानां सदृष्टीनां द्विजन्मनाम् ॥१६७॥ कुतश्चित् कारणान् यस्य कुलं सम्प्राप्तदूषणम् । सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत् स्वं यदा कुलम् ॥१६॥ तदास्योपनयाहत्वं पुत्रपौत्रादिसन्ततौ। न निषिद्धं हि दीक्षाहें कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥१६॥ प्रदीक्षा] कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः । एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारो नाभिसम्मतः ॥१७०।) तेषां स्यादुचितं लिखगं स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ॥१७शा स्यानिरामिषभोजित्वं कुलस्त्रीसेवनव्रतम् । अनारम्भवधोत्सर्गो ह्यभक्ष्यापेयवर्जनम् ॥१७२॥ इति शुद्धतरां वृत्ति व्रतपूतामुपेयिवान् । यो द्विजस्तस्य सम्पूर्णो व्रतचर्याविधिः स्मृतः ॥१७३॥ दशाधिकारास्तस्योक्ताः सूत्रेणोपासिकेन हि । तान्यथाक्रममुद्देशमात्रेणानुप्रचक्ष्महे ॥१७४॥ अपनी जाति या कुटुम्बके लोगोंके घरमें प्रवेश कर भिक्षा माँगना चाहिये और उस भिक्षामें जो कुछ अर्थका लाभ हो उसे आदर सहित उपाध्यायके लिये सौंप देना चाहिये ॥१६३॥ बाकीकी सब विधि पहले कही जा चुकी है। उसे पूर्णरूपसे करना चाहिये। इसके सिवाय वह जबतक विद्या पढ़ता रहे तब तक उसे ब्रह्मचर्यव्रत पालन करना चाहिये ।।१६४।। अथानन्तर जिसमें उपासकाध्ययनका संक्षेपसे संग्रह किया है ऐसी इसकी व्रतचर्याको अनुक्रमसे कहता हूँ ॥१६५।। जिसका यज्ञोपवीत हो चुका है ऐसे बालकके लिये शिरका चिह्न (मण्डन), वक्षःस्थलका चिह्न-यज्ञोपवीत, कमरका चिन्ह-मुंजकी रस्सी और चिह्न-सफेद धोती ये चार प्रकारके चिह्न धारण करना चाहिये। इनका निर्णय पहले हो चुका है ॥१६६।। जो लोग अपनी योग्यताके अनुसार तलवार आदि शस्त्रोंके द्वारा, स्याही अर्थात् लेखनकलाके द्वारा, खेती और व्यापारके द्वारा अपनी आजीविका करते हैं ऐसे सदृष्टि द्विजों को वह यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये ॥१६७॥ जिसके कुलमें किसी कारणसे दोष लग गया हो ऐसा पुरुष भी जब राजा आदिकी संमतिसे अपने कुलको शुद्ध कर लेता है तब यदि उसके पूर्वज दीक्षा धारण करनेके योग्य कुलमें उत्पन्न हुए हों तो उसके पुत्र पौत्र आदि संततिके लिये यज्ञोपवीत धारण करने की योग्यताका कहीं निषेध नहीं है। भावार्थ-यदि दीक्षा धारण करने ग्य कुलमें किसी कारणसे दोष लग जावे तो राजा आदिकी संमतिसे उसकी शुद्धि हो सकती है और उस कूलके पूरुषको यज्ञोपवीत भी दिया जा सकता है। न केवल उसी पुरुषको किन्तु उसके पुत्र पौत्र आदि संतानके लिये भी यज्ञोपवीत देनेका कहीं निषेध नहीं है ।।१६८-१६९।। जो दीक्षाके अयोग्य कुलमें उत्पन्न हुए हैं तथा नाचना गाना आदि विद्या और शिल्पसे अपनी आजीविका करते हैं ऐसे पुरुषोंको यज्ञोपवीत आदि संस्कारोंकी आज्ञा नहीं है ॥१७०॥ किन्तु ऐसे लोग यदि अपनी योग्यतानसार व्रत धारण करें तो उनके योग्य यह चिह्न हो सकता है कि वे संन्यासमरण पर्यन्त एक धोती पहनें ॥१७१॥ यज्ञोपवीत धारण करनेवाले पुरुषोंको माँसरहित भोजन करना चाहिये, अपनी विवाहिता कुलस्त्रीका सेवन करना चाहिये, अनारम्भी हिंसाका त्याग करना चाहिये और अभक्ष्य तथा अपेय पदार्थका परित्याग करना चाहिये ।।१७२॥ इस प्रकार जो द्विज व्रतोंसे पवित्र हुई अत्यन्त शुद्ध वृत्तिको धारण करता है उसके व्रतचर्याकी पूर्ण विधि समझनी चाहिमे ॥१७३॥ अब उन द्विजोंके लिये उपासकाध्ययन सूत्रमें जो दश १संगृहीतः । २ जीवताम् । ३ कांक्षारहितभोजित्वम् । ४ आरम्भजनितवधं विहायान्यवधत्यागः । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ महापुराणम् तत्रातिबालविद्याद्या कुलावधिरनन्तरम् । वर्णोत्तमत्वपात्रत्वे तथा सृष्ट्यधिकारिणा ॥ १७५ ॥ व्यवहारेशितान्या स्याद् श्रवध्यत्वमदण्डयता । मानार्हता प्रजासम्बन्धान्तरं चेत्यनुक्रमात् ॥ १७६ ॥ दशाधिकारि वास्तुनि स्वरुपासक सग्रहे । तानीमानि यथोद्देश सङ्क्षेपेण विवृण्महे ॥ १७७॥ बाल्यात्प्रभृति 'या विद्याशिक्षोद्योगाद् द्विजन्मनः । प्रोक्तातिबालविद्येति सा क्रिया द्विजसम्मता ॥१७८॥ तस्यामसत्यां महात्मा हेयादेयानभिज्ञकः । मिथ्याश्रुतिं प्रपद्येत द्विजन्मान्यैः प्रतारितः ॥ १७६ ॥ बाल्य एव ततोऽभ्यस्येद् द्विजन्मौपासिकीं श्रुतिम् । स तथा प्राप्तसंस्कारः स्वपरोत्तारको भवेत् ॥ १८०॥ कुलावधिः कुलाचाररक्षणं स्यात् द्विजन्मनः । तस्मिन्नसत्यसौ नष्टक्रियोऽन्यंकुलतां भजेत् ॥ १८१ ॥ वर्णोत्तमत्वं वर्णेषु सर्वेष्वाधिक्यमस्य वै । तेनायं श्लाध्यतामेति स्वपरोद्धारणक्षमः ॥ १८२ ॥ वर्णोत्तमत्वं यद्यस्य न स्यान्न स्यात्प्रकृष्टता । अप्रकृष्टश्च नात्मानं शोधयेत्र परानपि ॥ १८३॥ ततोऽयं शुद्धिकामः सन् सेवेतान्यं कुलिङगिनन् । 'कुब्रह्म वा "ततस्तज्जान् दोषान् प्राप्नोत्यसंशयम् ॥ १८४॥ प्रदानात्वमस्येष्टं पात्रत्वं गुणगौरवात् । गुणधिकोऽहि लोकेऽस्मिन् पूज्यः स्यात्लोकपूजितैः ॥ १६५॥ ततोगुणकृतां स्वस्मिन् पात्रतां द्रढयेद्विजः । तदभावे दिमान्यत्वाद् ह्रियतेऽस्य धनं नृपः ॥ १८६॥ अधिकार कहे हैं उन्हें यथाक्रमसे नामके अनुसार कहता हूँ ॥ १७४॥ उन दश अधिकारों में पहला अतिबाल विद्या, दूसरा कुलावधि, तीसरा वर्णोत्तमत्व, चौथा पात्रत्व, पाँचवाँ सृष्टयधिकारिता, छठवाँ व्यवहारेशिता, सातवाँ अवध्यत्व, आठवाँ अदण्डयता, नौवाँ मानार्हता और दशवाँ प्रजा सम्बन्धान्तर है । उपासकसंग्रहमें अनुक्रमसे ये दश अधिकारवस्तुएँ बतलाई गई हैं । उन्हीं अधिकार वस्तुओं का उनके नामके अनुसार यहाँ संक्षेपसे कुछ विवरण करता हूँ । ।।१७५-१७७।। द्विजोंको जो बाल्य अवस्थासे ही लेकर विद्या सिखलानेका उद्योग किया जाता है उसे अतिबालविद्या कहते हैं, यह विद्या द्विजोंको अत्यन्त इष्ट है ॥ १७८ ॥ इस अतिबाल विद्याके अभावमें द्विज मूर्ख रह जाता है उसे हेय उपादेयका ज्ञान नहीं हो पाता और वह अपने को झूठमूठ द्विज माननेवाले पुरुषोंके द्वारा ठगाया जाकर मिथ्या शास्त्रके अध्ययन में लग जाता है ।। १७९ ।। इसलिये द्विजोंको उचित है कि वे बाल्य अवस्थामें ही श्रावकाचारके शास्त्रोंका अभ्यास करें क्योंकि उपासकाचारके शास्त्रोंके द्वारा जिसे अच्छे संस्कार प्राप्त हो जाते हैं वह निज और परको तारनेवाला हो जाता है ।। १८० ।। अपने कुलके आचारकी रक्षा करना -द्विजोंकी कुलावधि क्रिया कहलाती है । कुलके आचारकी रक्षा न होनेपर पुरुषकी समस्त क्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह अन्य कुलको प्राप्त हो जाता है ।। १८१|| समस्त वर्णों में श्रेष्ठ होना ही इसकी वर्णोत्तम क्रिया है, इस वर्णोत्तम क्रियासे ही यह प्रशंसाको प्राप्त होता है और निज तथा परका उद्धार करने में समर्थ होता है ।। १८२ ॥ यदि इसके वर्णोत्तम क्रिया नहीं है अर्थात् इसका वर्ण उत्तम नहीं है तो इसके उत्कृष्टता नहीं हो सकती और जो उत्कृष्ट नहीं है वह न तो अपने आपको शुद्ध कर सकता है और न दूसरेको ही शुद्ध कर सकता है || १८३ || जो स्वयं उत्कृष्ट नहीं है ऐसे द्विजको अपनी शुद्धिकी इच्छासे अन्य कुलिङगियों अथवा कुब्रह्मकी सेवा करनी पड़ती है और ऐसी दशा में वह निःसन्देह उन लोगों में उत्पन्न हुए दोषों को प्राप्त होता है । भावार्थ- सदा ऐसे ही कार्य करना चाहिये जिससे वर्णकी उत्तमता में बाधा न आवे || १८४|| गुणोंका गौरव होनेसे दान देने के योग्य पात्रता भी इन्हीं द्विजों में होती है क्योंकि जो गुणोंसे अधिक होता है वह संसारमें सब लोगों के द्वारा पूजित होनेवाले लोगों के द्वारा भी पूजा जाता है ॥ १८५ ॥ । इसलिये द्विजों को चाहिये कि वे अपने आपमें गुणों १ यो विद्याशिक्षोद्योगो द्विजन्मनः द०, ल०, अ०, स०, इ० | २ द्विजम्मन्यैः द० । ३ व्रजेत् द०, ल० । ४ कुत्सितब्रह्माणम् । ५ कुलिंगकुब्रह्मसेवनात् । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व ३१३ रक्ष्यः सृष्टयधिकारोऽपि द्विजैरुत्तमसृष्टिभिः। असदृष्टिकृतां सृष्टि परिहृत्य विदूरतः ॥१८७॥ अन्यया सृष्टिवादेन दुर्दष्टेन' कुदृष्टयः। लोकं नपांश्च सम्मोह्य नयन्त्युत्पथगामिताम् ॥१८८॥ सृष्टयन्तरमतो दूरम् अपास्य नयतत्त्ववित् । अनादिक्षत्रियः सृष्टां धर्मसृष्टि प्रभावयेत् ॥१८६॥ तोर्यकृद्धिरियं सुष्टा धर्मसृष्टिः सनातनी । तां संश्रितान्नुपानव सृष्टिहेतून प्रकाशयेत् ॥१०॥ अन्ययाऽन्यकृतां सृष्टि प्रपन्नाः स्पन पोत्तमाः। ततो नश्वर्य मेषां स्यात्तत्रस्थाश्च स्यु राहताः॥१९॥ व्यवहारेशितां प्राहुः प्रायश्चित्तादिकर्मणि । स्वतन्त्रतां द्विजस्यास्य श्रितस्य परमां श्रुतिम् ॥१६२॥ तदभावे स्वमन्यांश्च न शोधयितुमर्हति । अशुद्धः परतः शुद्धिम् अभीप्सन्न्यक्कृतो भवेत् ॥१३॥ स्यादवध्याधिकारेऽपि स्थिरात्मा द्विजसत्तमः। ब्राह्मणो हि गुणोत्कर्षान्नान्यतो वधमहति ॥१६४॥ सर्वः प्राणी न हन्तव्यो ब्राह्मगस्तु विशेषतः । गुणोत्कर्षापकर्षाभ्यां वधेऽपि द्वयात्मता मता ॥१६॥) (तस्मादवध्यतामेष पोषयेद् धार्मिके जन । धर्मस्य तद्धि माहात्म्यं तत्स्थो यन्नाभिभूयते ॥१९६॥ तदभावे च वध्यत्वम अयमच्छति सर्वतः। एवं च सति धर्मस्य नश्यत् प्रामाण्यमहताम् ॥१७॥ के द्वारा की हुई पात्रताको दढ करें अर्थात् गुणी पात्र बनें क्योंकि पात्रताके अभावमें मान्यता नहीं रहती और मान्यताके न होनेसे राजा लोग भी धन हरण कर लेते हैं ।।१८६।। जिनकी सृष्टि उत्तम है ऐसे द्विजोंको मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा की हुई सृष्टिको दूरसे ही छोड़कर अपनी सृष्टिके अधिकारोंकी रक्षा करनी चाहिये ॥१८७।। अन्यथा मिथ्यादृष्टि लोग अपने दूषित सृष्टिवादसे लोगोंको और राजाओंको मोहित कर कुमार्गगामी बना देंगे ।।१८८। इसलिये नय और तत्त्वोंको जाननेवाले द्विजको चाहिये कि वह मिथ्यादृष्टियोंकी अन्यसृष्टिको दूरसे ही छोड़कर अनादिक्षत्रियोंके द्वारा रची हुई धर्मसृष्टिकी ही प्रभावना करे ॥१८९।। तथा इस धर्मसृष्टिका आश्रय लेनेवाले राजाओंसे ऐसा कहे कि तीर्थङ्करोंके द्वारा रची हुई यह सृष्टि अनादिकालसे चली आई है। भावार्थ-यह धर्मसृष्टि तीर्थङ्करोंके द्वारा रची हुई है और अनादि कालसे चली आ रही है इसलिये आप भी इसकी रक्षा कीजिये ॥१९०॥ यदि द्विज राजाओंसे ऐसा नहीं कहेंगे तो वे अन्य लोगोंके द्वारा की हुई सष्टिको मानने लगेंगे जिससे उनका ऐश्वर्य नहीं रह सकेगा तथा अरहन्तके मतको माननेवाले लोग भी उसी धर्मको मानने लगेंगे ॥१९१॥ परमागमका आश्रय लेनेवाले द्विजोंको जो प्रायश्चित्त आदि कार्यों में स्वतन्त्रता है उसे हो व्यवहारेशिता कहते हैं ।।१९२॥ व्यवहारेशिताके अभावमें द्विज न अपने आपको शद्ध कर सकेगा और न दूसरेको ही शद्ध कर सकेगा तथा स्वय अशुद्ध होनेपर यदि दूसरेसे अपनी शुद्धि करना चाहे तो वह कभी कृती नहीं हो सकेगा ॥१९३॥ जिसका अन्तःकरण स्थिर है ऐसा उत्तम द्विज अवध्याधिकारमें भी स्थित रहता है अर्थात् अवध्य है क्योंकि ब्राह्मण गुणोंकी अधिकताके कारण किसी दूसरेके द्वारा वध करने योग्य नहीं होता ॥१९४।। सब प्राणियोंको नहीं मारना चाहिये और विशेषकर ब्राह्मणोंको नहीं मारना चाहिये। इस प्रकार गुणोंकी अधिकता और हीनतासे हिंसामें भी दो भेद माने गये हैं ॥१९५।। इसलिये यह धार्मिक जनोंमें अपनी अवध्यताको पुष्ट करे । यथार्थमें वह धर्मका ही माहात्म्य है कि जो इस धर्ममें स्थित रहकर किसी [पाता ॥१९६॥ यदि वह अपनी अवध्यताको पूष्ट न करेगा तो सब लोगों से वध्य हो जावेगा अर्थात् सब लोग उसे मारने लगेंगे और ऐसा होनेपर अर्हन्तदेवके धर्मकी १ असमीक्षितेन कुदष्टान्तेन बा। २ तां धर्मसृष्टि प्रकाशयेदित्यर्थः । ३ आत्मानमाश्रिता । अथवा पूर्व तां संश्रितां बोधयेत् तद्ववत्यर्थम् । ४-नकृतो ल०। -नकृती द० । ५ नृपादेः सकाशात्। ६ द्विरूपता (दुष्टनिग्रहशिष्टप्रतिपालनता)। ४० Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ महापुराणम् ततः सर्वप्रयत्नेन रक्ष्यो धर्मः सनातनः। स हि संरक्षितो रक्षा करोति सचराचर ॥१९॥ स्यादृण्डयत्वमप्येवम् अस्य धर्मे स्थिरात्मनः । धर्मस्थो हि जनोऽन्यस्य दण्डप्रस्थापने प्रभुः ॥१६॥ 'तद्धर्मस्थी यमाम्नायं भावयन् धर्मदशिभिः' । अधर्मस्थेषु दण्डस्य प्रणेता धार्मिको नृपः ॥२००॥ परिहार्य यथा देवगुरुद्रव्यं हिताथिभिः । ब्रह्मस्वं च तथाभूतं न दण्डाहस्ततो द्विजः ॥२०॥ युक्त्यानया गणाधिक्यमात्मन्यारोपयन वशी। प्रदण्डयपक्षे स्वात्मानं स्थापयेद्दण्डधारिणाम ॥२०२॥ अधिकार ह्यसत्यस्मिन् स्याद्दण्डयोऽयं यथेतरः । ततश्च निस्स्वतां प्राप्तो नेहामुत्र च नन्दति ॥२०३॥ मान्यत्वमस्य सन्धत्ते मानार्हत्वं सुभावितम । गुणाधिको हि मान्यः स्याद् वन्द्यः पूज्यश्च सत्तमः ॥२०४॥ असत्यस्मिन्नमान्यत्वम अस्य स्यात सम्मतर्जनः। ततश्च स्थानमानादिलाभाभावात् पदच्युतिः ॥२०॥ तस्मादयं गुणैर्यत्नाद् आत्मन्यारोप्यतां द्विजैः । यत्नश्च ज्ञानवृत्तादिसम्पत्तिः सोऽर्यतां नृपः॥२०६॥ स्यात् प्रजान्तरसम्बन्धे स्वोन्नतेरपरिच्युतिः। याऽस्य सोक्ता प्रजासम्बन्धान्तरं नामतो गुणः ॥२०७॥ यथा कालायसाविद्धं२ स्वर्ण याति विवर्णताम् । न तथाऽस्यान्यसम्बन्धे स्वगुणोत्कर्षविप्लवः ॥२०८।। प्रामाणिकता नष्ट हो जावेगी ।।१९७।। इसलिये सब प्रकारके प्रयत्नोंसे सनातनधर्मकी रक्षा करनी चाहिये । क्योंकि अच्छी तरह रक्षा किया हुआ धर्म ही चराचर पदार्थोसे भरे हुए संसारमें उसकी रक्षा कर सकता है ॥१९८। इसी प्रकार धर्ममें जिसका अन्तःकरण स्थिर है ऐसे इस द्विजको अपने अदण्ड्यत्वका भी अधिकार है क्योंकि धर्म में स्थिर रहनेवाला मनुष्य ही दूसरे के लिये दण्ड देने में समर्थ हो सकता है ॥१९९॥ इसलिये धर्मदर्शी लोगोंके द्वारा दिखलाई हुई धर्मात्मा जनोंकी आम्नायका विचार करता हुआ ही धार्मिक राजा अधर्मी जनोंको दण्ड देता है ॥२००॥ जिस प्रकार अपना हित चाहनेवाले पुरुषोंके द्वारा देव द्रव्य और गरुद्रव्य त्याग करने योग्य है उसी प्रकार ब्राह्मणका धन भी त्याग करने योग्य है। इसलिये ही द्विज दण्ड देनेके योग्य नहीं है ॥२०१॥ इस युक्तिसे अपने में अधिक गुणोंका आरोप करता हुआ वह जितेन्द्रिय दण्ड देनेवाले राजा आदिके समक्ष अपने आपको अदण्ड्य अर्थात् दण्ड न देने योग्य पक्षमें ही स्थापित करता है। भावार्थ-वह अपने आपमें इतने अधिक गण प्राप्त कर लेत है कि जिससे उसे कोई दण्ड नहीं दे सकते ॥२०२।। इस अधिकारके अभावमें अन्य पुरुषोंके समान ब्राह्मण भी दण्डित किया जाने लगेगा जिससे वह दरिद्र हो जावेगा और दरिद्र होनेसे न तो इस लोक में सुखी हो सकेगा और न परलोकमें ही ॥२०३।। यह ब्राह्मण जो अच्छी तरह सन्मानके योग्य होता है वही इसका मान्यत्व अधिकार है सो ठीक ही है क्योंकि जो गुणोंसे अधिक होता है अर्थात् जिसमें अधिक गुण पाये जाते हैं वही सत्पुरुषोंके द्वारा सन्मान करने योग्य, वन्दना करने योग्य और पूजा करने योग्य होता है ॥२०४॥ इस अधिकारके न होनेसे उत्तम पुरुष इसका सन्मान नहीं करेंगे और उससे स्थान मान लाभ आदिका अभाव होने के कारण वह अपने पदसे च्यत हो जावेगा। इसलिये द्विजको चाहिये कि वह यह गुण (मान्यत्व गुण) बड़े यत्नसे अपने आपमें आरोपित करे क्योंकि ज्ञान चारित्र आदि सम्पदाए ही उसका यत्न हैं इसलिये राजाओंको उसकी पूजा करनी चाहिये ॥२०५-२०६॥ प्रजान्तर अर्थात् अन्य धर्मावलम्बियोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी जो अपनी उन्नतिसे च्युत नहीं होना है वह इसका प्रजासंबन्धान्तर नामका गण है ॥२०७॥ जिस प्रकार काले लोहके साथ मिला हुआ सवर्ण १ तत्कारणात् । २ धर्मसम्बन्धिनम् । ३ आगमम् । ४ धर्माचार्यमतात् दण्डं करोतीति तात्पर्यम् । ५-धारिणम् अ०, प०, इ०, स० । ६ अमान्यत्वात् । ७ पूर्वस्थितस्य स्थानमानादिलाभस्याभावात् । ८ गुणो द०। ६ द्विजः ल०। १० सोज्झतां न तैः द०। ११ सम्बन्धे सति । १२ अयोयुक्तम् । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व किन्तु प्रजान्तरं स्वेन सम्बद्धं स्वगुणानयम् । प्रापयत्यचिरादेव लोहधातुं यथा रसः ॥ २०६॥ ततो महानयं धर्मप्रभावोद्योतको गुणः । येनायं स्वगुणैरन्यान् श्रात्मसात्कर्तुमर्हति ॥२१०॥ श्रसत्यस्मिन् गुणेऽन्यस्मात् प्राप्नुयात् स्वगुणच्युतिम् । सत्येवं गुणवत्तास्य निष्कृष्येत' द्विजन्मनः ॥ २११ ॥ श्रतोऽतिबलविद्यादीन्नियोगान्" दशधोदितान् । यथार्हमात्मसात्कुर्वन् द्विजः स्याल्लोकसम्मतः ॥२१२॥ गुणेष्वेष विशेषोऽन्यो यो वाच्यो बहुविस्तरः । स उपासकसिद्धान्ताद् अधिगम्यः प्रपञ्चतः ॥२९३॥ "क्रियामन्त्रानुषङ्गेण व्रतचर्याक्रियाविधौ । दशाधिकारा व्याख्याताः सद्वृत्तैराहृता द्विजैः ॥ २१४॥ क्रियामन्त्रास्त्विह ज्ञेया ये पूर्वमनुवणिताः । सामान्यविषयाः सप्त पीठिकामन्त्ररूढयः ॥ २१५ ॥ ते हि साधारणाः सर्वक्रियासु विनियोगिनः । तत प्रोत्सगिकानेतान् मन्त्रान् मन्त्रविदो विदुः ॥ २१६ ॥ विशेषविषया मन्त्राः क्रियासूक्तास् दर्शिताः । इतः प्रभृति चाभ्युह्यास्ते यथाम्नायमग्रजः ॥ २१७॥ मन्त्रानिमान् यथायोगं यः क्रियासु नियोजयेत् । स लोके सम्मतिं याति युक्ताचारो द्विजोत्तमः ॥२१८॥ क्रियामन्त्रविहीनास्तु प्रयोक्तणां न सिद्धये । यथा सुकृतसन्नाहाः" सेनाध्यक्षा विनायकाः ॥ २१६ ॥ € विवर्णताको प्राप्त हो जाता है उस प्रकार अन्य पुरुषोंके साथ सम्बन्ध होनेपर इस ब्राह्मणके अपने गुणों के उत्कर्ष में कुछ बाधा नहीं आती है । भावार्थ-लोहे के सम्बन्धसे सुवर्ण में तो खराबी आ जाती है परन्तु उत्तम द्विजमें अन्य लोगों के सम्बन्धसे खराबी नहीं आती ॥ २०८ ॥ किन्तु जिस प्रकार रसायन अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले लोहेको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देती है उसी प्रकार यह ब्राह्मण भी अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले पुरुषोंको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देता है || २०९ || इसलिये कहना चाहिये कि यह प्रजासम्बन्धान्तर गुण, धर्मकी प्रभावनाको बढ़ानेवाला सबसे बड़ा गुण है क्योंकि इसीके द्वारा यह द्विज़ अपने गुणोंसे अन्य लोगोंको अपने आधीन कर सकता है ॥२१० | इस गुणके न रहनेपर ब्राह्मण अन्य लोगों के सम्बन्धसे अपने गुणोंकी हानि कर सकता है और ऐसा होनेपर इसकी गुणवत्ता ही नष्ट हो जावेगी || २११ | इसलिये जो अतिबालविद्या आदि दश प्रकारके नियोग निरूपण किये हैं उन्हें यथायोग्य रीतिसे स्वीकार करनेवाला द्विज ही सब लोगोंको मान्य हो सकता है ॥२१२॥ इन गुणोंमें जो अन्य विशेष गुण बहुत विस्तारके साथ विवेचन करनेके योग्य हैं उन्हें उपासकाध्ययनशास्त्रसे विस्तारपूर्वक समझ लेना चाहिये ॥ २१३|| इस प्रकार व्रतचर्या क्रियाकी विधि का वर्णन करते समय उस क्रिया के योग्य मंत्रोंके प्रसंगसे उत्तम आचरणवाले द्विजोंके द्वारा माननीय दश अधिकारोंका निरूपण किया || २१४ ॥ इस प्रकरणमें जिनका वर्णन पहले कर चुके हैं उन्हें क्रियामन्त्र जानना चाहिये और जो सात पीठिकामन्त्र इस नामसे प्रसिद्ध हैं उन्हें सामान्यविषयक समझना चाहिये अर्थात् वे मन्त्र सभी क्रियाओंमें काम आते हैं ॥ २१५ ॥ वे साधारण मन्त्र सभी क्रियाओं में काम आते हैं इसलिये मंत्रोंके जाननेवाले विद्वान् उन्हें औत्सगिक अर्थात् सामान्य मन्त्र कहते हैं ॥ २१६ ।। इनके सिवाय जो विशेष मन्त्र हैं वे ऊपर कही हुई क्रियाओं में दिखला दिये गये हैं । अब व्रतचर्यासे आगेके जो मन्त्र हैं वे द्विजोंको अपनी आम्नाय ( शास्त्र परम्परा) के अनुसार समझ लेना चाहियें ॥ २१७ ॥ जो इन मन्त्रोंको क्रियाओं में यथायोग्य रूपसे काममें लाता है वह योग्य आचरण करनेवाला उत्तम द्विज लोकमें सन्मान को प्राप्त होता है ॥२१८॥ जिस प्रकार अस्त्र-शस्त्र धारण कर तैयार हुए मुख्य मुख्य योद्धा ३१५ १ प्रजान्तरसम्बन्धेन । २ द्विजः । ३ सम्बन्ध्येत । नश्येदित्यर्थः । ४ अधिकारान् । ५ क्रियाणां मन्त्राः क्रियामन्त्रास्तेषामनुषङ्गो योगस्तेन । ६ पूर्वोक्तव्रतचर्याक्रियाविधाने । ७ साधारणान् । ८ यथायुक्ति । 'योगस्सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु' इत्यभिधानात् । ६ सुविहितकवचाः । १० स्वामिरहिताः । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ महापुराणम् ततो विधिमम सम्यग अवगम्य कृतागमैः । विधानेन प्रयोक्तव्याः क्रियामन्त्रपुरस्कृताः॥२२०॥ वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं स धर्मविजयी भरताधिराजो धर्मक्रियासु 'कृतधी पलोकसाक्षि । तान् सुव्रतान् द्विजवरान् विनियम्य सम्यक् धर्मप्रियः समसृजत् द्विजलोकसर्गम् ॥२२१॥ मालिनी इति भरतनरेन्द्रात् प्राप्तसत्कारयोगा वितपरिचयचारूदारवृत्ताः श्रुताढयाः । जिनवृषभमतानु"वज्यया पूज्यमानाः जगति बहुमतास्ते ब्राह्मणाः ख्यातिमीय :॥२२२॥ वृत्तस्थानथ तान् विधाय सभवानियाकुचूडामणिः" जैने वर्त्मनि सुस्थितान् द्विजवरान् सम्मानयन् प्रत्यहम् । स्वं मेने कृतिनं मुदा परिगतां स्वां सृष्टिमुच्चः कृतां पश्यन् कः सुकृती कृतार्थपदवी नात्मानमारोपयेत् ॥२२३॥ इत्या भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसडाग्रहे द्विजोत्पत्ती क्रियामन्त्रानुवर्णनं नाम चत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४०॥ सेनापतिके बिना कुछ भी नहीं कर सकते उसी प्रकार मंत्रोंसे रहित क्रियाएं भी प्रयोग करनेवाले पुरुषोंकी कुछ भी सिद्धि नहीं कर सकतीं ॥२१९।। इसलिये शास्त्रोंका अभ्यास करने वाले द्विजोंको यह सब विधि अच्छी तरह जानकर मन्त्रोच्चारणके साथ साथ सब क्रियाएं विधिपूर्वक करनी चाहिये ।।२२०। इस प्रकार जिसने धर्मके द्वारा विजय प्राप्त की है, जो धार्मिक क्रियाओंमें निपुण है और जिसे धर्म प्रिय है ऐसे भरतक्षेत्रके अधिपति महाराज भरतने राजा लोगोंकी साक्षीपूर्वक अच्छे अच्छे व्रत धारण करनेवाले उन उत्तम द्विजोंको अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मणवर्णकी सृष्टि की अर्थात् ब्राह्मणवर्णकी स्थापना की ॥२२१॥ इस प्रकार महाराज भरतसे जिन्हें सत्कारका योग प्राप्त हुआ है, व्रतोंके परिचयसे जिनका चारित्र सुन्दर और उदार हो गया है, जो शास्त्रोंके अर्थोको जाननेवाले हैं और श्रीवृषभ जिनेन्द्रके मतानुसार धारण की हुई दीक्षासे जो पूजित हो रहे हैं ऐसे वे ब्राह्मण संसारमें बहुत ही प्रसिद्धिको प्राप्त हुए और खूब ही उनका आदर-सन्मान किया गया ।।२२२॥ तदनन्तर इक्ष्वाकुकुलचूड़ामणि महाराज भरत जैनमार्गमें अच्छी तरह स्थित रहनेवाले उन ब्राह्मणोंको सदाचारमें स्थिर कर प्रतिदिन उनका सन्मान करते हुए अपने आपको धन्य मानने लगे सो ठीक ही है क्योंकि आनन्दसे युक्त तथा उत्कृष्टताको प्राप्त हुई अपनी सृष्टिको देखता हुआ ऐसा कौन पुण्यवान् पुरुष है जो अपने आपको कृतकृत्य न माने ।।२२३॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें द्विजोंकी उत्पत्तिमें क्रियामन्त्रोंका वर्णन करनेवाला यह चालीसवां पर्व समाप्त हुआ। १ सम्पूर्णशास्त्रैः । २ सम्पूर्णबुद्धिः। ३ वताभ्यास। ४ श्रुतार्थाः द०, ल०। ५ मतानुगमनेन। ६ चारित्रपदं गतान् । ७ पूज्यः । ८ सन्तोषेण सह । ६ समन्वितामित्यर्थः । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तमं पर्व अथ चक्रधरः काले व्यतिक्रान्ते कियत्यपि। स्वप्नान्यशामयत्' कांश्चिद् एकदाऽद्भुतदर्शनात् ॥१॥ तत्स्वप्नदर्शनात् किञ्चिद् उत्त्रस्त इव चेतसा । प्रबुद्धः सहसा तेषां फलानीति व्यतर्कयन ॥२॥ असत्फला इमे स्वप्नाः प्रायेण प्रतिभान्ति माम् । मन्ये दूरफलांश्चैतान् पुराकल्पे 'फलप्रदान् ॥३॥ कतश्चिद् भगवत्यद्य "प्रतपत्यादिभर्तरि । प्रजानां कथमेवैवंविधोपप्लवसम्भवः॥४॥ ततः कृतयुगस्यास्य व्यतिक्रान्तो कदाचन । फलमेते प्रदास्यन्ति नुनमेनः प्रकर्षतः॥५॥ 'युगान्तविप्लवोदस्ति एतेऽनिष्टशंसिनः । स्वप्नाः प्रजाप्रजापालसाधारणफलोदयाः॥६॥ यवच्चन्द्रार्कविम्बोत्थविक्रियाजनितं फलम । जगत्साधारणं तद्वत् सदसच्चास्मदीक्षितम् ॥७॥ इतीदमनुमानं नः स्थूलार्थानुप्रचिन्तनम् । सूक्ष्मतत्त्वप्रतीतिस्तु प्रत्यक्षज्ञान गोचरा॥॥ केवलार्कादृते नान्यः संशयध्वान्तभेदकृत । को हि नाम तमो नशं हन्यादन्यत्र भास्करात् ॥६॥ तत्त्वादर्श स्थिते देव को नामास्मन्मतिभ्रमः। सत्यादर्श करामात कः पश्यन्मुखसौष्ठवम् ॥१०॥ तदत्र भगवद्वक्त्रमङगलादर्शदर्शनात् । युक्ता नस्तत्त्वनिर्णीतिः" स्वप्नानां शान्तिकर्म च ॥११॥ अपि चास्मदुप©२५ यद् द्विजलोकस्य सर्जनम् । गत्वा तवपि विज्ञाप्यं भगवत्पावसन्निधौ ॥१२॥ अथानन्तर-कितना ही काल बीत जानेपर एक दिन चक्रवर्ती भरतने अद्भ त फल दिखानेवाले कुछ स्वप्न देखे ॥१॥ उन स्वप्नोंके देखनेसे जिन्हें चित्त में कुछ खेद-सा उत्पन्न हुआ है ऐसे वे भरत अचानक जाग पड़े और उन स्वप्नोंके फलका इस प्रकार विचार करने लगे ॥२॥ कि ये स्वप्न मुझे प्रायः बुरे फल देनेवाले जान पड़ते हैं तथा साथमें यह भी जान पड़ता है कि ये स्वप्न कुछ दूर आगेके पंचम कालमें फल देनेवाले होंगे ॥३॥ क्योंकि इस समय भगवान् वृषभदेवके प्रकाशमान रहते हुए प्रजाको इस प्रकारका उपद्रव होना कैसे संभव हो सकता है? ।४।। इसलिये कदाचित् इस कृतयुग (चतुर्थकाल)के व्यतीत हो जानेपर जब पापकी अधिकता होने लगेगी तब ये स्वप्न अपना फल देंगे ॥५॥ यगके अन्त में विप्लव फैलाना ही जिनका फल है ऐसे ये स्वप्न अनिष्टको सूचित करनेवाले हैं और राजा तथा प्रजा दोनोंको समान फल देनेवाले हैं ।।६।। जिस प्रकार चन्द्रमा और सूर्यके बिम्बसे उत्पन्न होनेवाली विक्रिया से प्रकट हुआ फल जगत्के जीवोंको समानरूपसे उठाने पड़ते हैं उसी प्रकार मेरे द्वारा देखे हुए स्वप्नोंके फल भी समस्त जीवोंको सामान्यरूपसे उठाने पड़ेंगे ॥७।। इस प्रकार हमारा यह अनुमान केवल स्थूल पदार्थका चिन्तवन करनेवाला है, सूक्ष्म तत्त्वको प्रतीति प्रत्यक्ष ज्ञानसे ही हो सकती है ॥८॥ केवलज्ञानरूपी सूर्यको छोड़कर और कोई पदार्थ संशयरूपी अन्धकार को भेदन करनेवाला नहीं है सो ठीक ही है क्योंकि सूर्यको छोड़कर ऐसा कौन है जो रात्रिका नष्ट कर सके ॥९॥ तत्त्वोंका वास्तविक स्वरूप दिखलानेवाले भगवान् वृषभदेवके रहते हुए मुझे बुद्धिका भ्रम क्यों होना चाहिये, भला दर्पणके रहते हुए ऐसा कौन पुरुष है जो हाथके स्पर्शसे मुखकी सुन्दरता देखे ॥१०-११।। इसलिये इस विषयमें भगवान्के मुखरूपी मङ्गल १ ददर्श। २ मम प्रकाशन्ते। ३ पश्चाद्भाविकाले। पञ्चमकाले इत्यर्थः । ४ प्रकाशमाने सति । ५ तस्मात् कारणात् । ६ चतुर्थकालस्य । ७ पाप। ८ युगस्य चतुर्थकालस्यान्ते विप्लव एब उदर्क उत्तरफलं येषां ते। ६ मयेक्षितम् । १० केवलज्ञानविषया। ११ निशासम्बन्धि । १२ दर्पणे विद्यमाने सति । १३ तत् कारणात् । १४ स्वरूपनिर्णयः । १५ मया प्रथमोपक्रान्तम् । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ महापुराणम् द्रष्टव्या गरवो नित्यं प्रष्टव्याश्च हिताहितम् । महेज्यया च यष्टव्याः शिष्टानामिष्टमीदृशम् ॥१३॥ इत्यात्मगतमालोच्य शय्योत्सङगात् परार्द्धचतः । प्रातस्तरां समुत्थाय कृतप्राभातिकक्रियः ॥१४॥ ततः क्षणमिव स्थित्वा महास्थान नृपैर्वृतः। वन्दनाभक्तये गन्तुम् उद्यतोऽभूद् विशाम्पतिः ॥१५॥ वतः परिमितैरव मौलिबद्धरन त्थितः । प्रतस्थ वन्दनाहेतोः विभूत्या परयान्वितः॥१६॥ ततः क्षेपीय एवासौ गत्वा सैन्यैः परिष्कृतः । सम्राट प्रापतमुद्देश" यत्रास्ते स्म जगद्गुरुः ॥१७॥ दूरादेव जिनास्थानभूमि पश्यनिधीश्वरः। प्रणनाम चलन्मौलिघटिताञ्जलिकमलः ॥१८॥ स तां प्रदक्षिणीकृत्य बहिर्भागे सदोऽवनिम् । प्रविवेश विशामीशः क्रान्त्वा कक्षाः पृथग्विधाः ॥१६॥ मानस्तम्भमहाचैत्यद्रुमसिद्धार्थपादपान् ।प्रेक्षमाणो व्यतीयाय स्तूपांश्चाचितपूजितान् ॥२०॥ चतुष्टयीं वनश्रेणी ध्वजान हावलीमपि । तत्र तत्रेक्षमाणोऽसौ तां तां कक्षामलङघयत् ॥२१॥ प्रतिकक्ष सुरस्त्रीणां गीतै तश्च हारिभिः। रज्यमानमनोवृत्तिः तत्रास्यासीत् परा धृतिः॥२२॥ ततः प्राविक्षदुत्तुङगगोपुरद्वारवर्त्मना । गणरध्यषितां भूमि श्रीमण्डपपरिष्कृताम् ॥२३॥ त्रिमेखलस्य पीठस्य प्रथमां मेखलामतः। सोऽधिरुह्य परीयाय धर्मचक्राणि पूजयन् ॥२४॥ दर्पणको देखकर ही मुझे स्वप्नोंके यथार्थ रहस्यका निर्णय करना उचित है और वहीं खोटे स्वप्नोंका शान्तिकमे करना भी उचित है ॥१२॥ इसके सिवाय मैंने जो ब्राह्मण लोगोंकी नवीन सृष्टि की है उसे भी भगवान्के चरणोंके समीप जाकर निवेदन करना चाहिये ॥१३॥ फिर अच्छे पुरुषोंका यह कर्तव्य भी है कि वे प्रतिदिन गुरुओंके दर्शन करें, उनसे अपना हित अहित पूछा करें और बड़े वैभवसे उनकी पूजा किया करें ।।१४।। इस प्रकार मनमें विचारकर महाराज भरतने बड़े सबेरे बहुमूल्य शय्यासे उठकर प्रातःकालकी समस्त क्रियाएं की और फिर थोड़ी देरतक सभामें बैठकर अनेक राजाओंके साथ भगवान्की वन्दना तथा भक्तिके अर्थ जानेके लिये उद्यम किया ॥१५॥ जो साथ ही साथ उठकर खड़े हुए कुछ परिमित मुकुटबद्ध राजाओंसे घिरे हुए हैं और उत्कृष्ट विभूतिसे सहित हैं ऐसे महाराज भरतने वन्दनाके लिये प्रस्थान किया ॥१६।। तदनन्तर सेना सहित सम्राट भरत शीघ्र ही वहां पहुंच गये जहां जगद्गुरु भगवान् विराजमान थे ॥१७॥ दूरसे ही भगवान्के समवसरणकी भूमिको देखते हुए निधियों के स्वामी भरतने नम्रीभूत मस्तकपर कमलकी बौंडीके समान जोड़े हुए दोनों हाथ रखकर नमस्कार किया ॥१८॥ उन महाराजने पहले उस समवस बाहरी भागकी प्रदक्षिणा दी और फिर अनेक प्रकारकी कक्षाओंका उल्लंघन कर भीतर प्रवेश किया ॥१९॥ मानस्तम्भ, महाचैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष और पूजाकी सामग्रीसे पूजित स्तूपोंको देखते हुए उन सबको उल्लंघन करते गये ॥२०॥ अपने अपने निश्चित स्थानोंपर चारों प्रकारकी वनकी पंक्तियों, ध्वजाओं और हावलीको देखते हुए उन्होंने उन कक्षाओंका उल्लंघन किया ॥२१॥ समवसरण की प्रत्येक कक्षामें होनेवाले देवांगनाओंके मनोहर गीत और नृत्योंसे जिनके चित्तकी वृत्ति अनुरक्त हो रही है ऐसे महाराज भरतको बहुत ही संतोष हो रहा था ॥२२।। तदनन्तर बहुत ऊंचे गोपुर दरवाजों के मार्गसे उन्होंने जहां गणधरदेव विराजमान थे और जो श्रीमंडपसे सुशोभित हो रही थी एसी सभाभूमिमें प्रवेश किया ॥२३॥ वहांपर तीन कटनीवाले पीठकी प्रथम कटनीपर चढ़कर धर्मचक्रकी पूजा करते हुए प्रदक्षिणा दी ॥२४॥ तदनन्तर चक्रवर्ती दूसरी कटनीपर महाध्वजाओंकी पूजा कर तीनों जगत्की लक्ष्मीको तिरस्कृत करनेवाली गन्ध १.यजनीयाः। २ क्षणपर्यन्तम् । ३ सहोत्थितः । ४ अतिशयेन क्षिप्रम् । ५ प्रदेशम् । ६ सभाभूमिम् । ७ नानाप्रकाराः । ८ -पार्थिवान् ल०, म०। ६ प्रदक्षिणां चक्रे । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा एकचत्वारिंशत्तम पर्व ३१६ मेखलायां द्वितीयस्यां वरिवस्यन महाध्वजाम् । प्रापद् गन्धकुटी चको न्य'क्कृतत्रिजगच्छियम् ॥२५॥ देवदानवगन्धर्वसिद्धविद्याधरेडितम् । भगवन्तमथालोक्य प्राणमद् भक्तिनिर्भरः ॥२६॥ स्तुत्वा स्तुतिभिरीशानम् अभ्यर्य च यथाविधि । निषसाद' यथास्थानं धर्मामृतपिपासितः ॥२७॥ भक्त्या प्रणमतस्तस्य भगवत्पादपकजे। विशुद्धिपरिणामाङगमवधिज्ञानमुदबभौ ॥२८॥ पीत्वाऽयो धर्मपीयूष परां तृप्तिमवापिवान् । स्वमनोगतमित्युच्चः भगवन्तं व्यजिज्ञपत् ॥२६॥ मया सुष्टा द्विजन्मानः श्रावकाचारचुञ्चवः । त्वद्गीतोपासकाध्यायसूत्रमार्गानुगामिनः ॥३०॥ एकाद्यकादशान्तानि दत्तान्येभ्यो मया विभो। व्रतचिह्नानि सूत्राणि गुणभूमिविभागतः ॥३॥ विश्वस्य धर्मसर्गस्य त्वयि साक्षात्प्रणेतरि । स्थिते मयातिबालिश्याद० इदमाचरितं विभो ॥३२॥ दोषः कोऽत्र गणः कोऽत्र किमेतत साम्प्रतं न वा। दोलायमानमिति मे मनः स्थापय निश्चितौ ॥३३॥ अपि चाद्य मया स्वप्ना निशान्ते षोडशेक्षिताः । प्रायोऽनिष्टफलाश्चैते मया देवाभिलक्षिताः ॥३४॥ यथादृष्टमुपन्यस्ये१३ तानिमान परमेश्वरः । यथास्वं तत्फलान्यस्मत्प्रतीतिविषय नय ॥३५॥ सिंहो मृगेन्द्रपोतश्च तुरगः करिभारभृत्१५ । छागा वृक्षलतागुल्मशुष्कपत्रोपभोगिनः ॥३६॥ शाखामृगा द्विपस्कन्धम आरूढाः कौशिकाः खगैः। विहितोपद्रवा ध्वाङः८ प्रमथाश्च प्रमोदिनः॥३७॥ कुटीके पास जा पहुंचे ॥२५॥ वहांपर भक्तिसे भरे हुए भरतने देव, दानव, गन्धर्व, सिद्ध और विद्याधर आदिके द्वारा पूज्य भगवान् वृषभदेवको देखकर उन्हें नमस्कार किया ।।२६॥ महाराज भरत उन भगवान्की अनेक स्तोत्रोंके द्वारा स्तुति कर और विधिपूर्वक पूजा कर धर्मरूप अमृतके पीनेकी इच्छा करते हुए योग्य स्थानपर जा बैठे ॥२७॥ भक्तिपूर्वक भगवान्के चरणकमलोंको प्रणाम करते हए भरतके परिणाम इतने अधिक विशुद्ध हो गये थे कि उनके उसी समय अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया ॥२८॥ तदनन्तर धर्मरूपी अमृतका पान कर वे बहुत ही संतुष्ट हुए और उच्च स्वरसे अपने हृदयका अभिप्राय भगवान्से इस प्रकार निवेदन करने लगे ॥२९।। कि हे भगवन्, मैंने आपके द्वारा कहे हुए उपासकाध्याय सूत्रके मार्गपर चलनेवाले तथा श्रावकाचारमें निपूण ब्राह्मण निर्माण किये हैं अर्थात ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की है ॥३०॥ हे विभो, मैंने इन्हें ग्यारह प्रतिमाओंके विभागसे व्रतोंके चिह्न स्वरूप एकसे लेकर ग्यारह तक यज्ञोपवीत दिये हैं ॥३१॥ हे प्रभो, समस्त धर्मरूपी सृष्टिको साक्षात् उत्पन्न करनेवाले आपके विद्यमान रहते हुए भी मैंने अपनी बड़ी मूर्खतासे यह काम किया है ॥३२॥ हे देव, इन ब्राह्मणों की रचनामें दोष क्या है ? गुण क्या है ? और इनकी यह रचना योग्य हुई अथवा नहीं ? इस प्रकार झूलाके समान झूलते हुए मेरे चित्तको किसी निश्चयमें स्थिर कीजिये अर्थात् गुण, दोष, योग्य अथवा अयोग्यका निश्चयकर मेरा मन स्थिर कीजिये ॥३३॥ इसके सिवाय हे देव, आज मैंने रात्रिके अन्तिमभागमें सोलह स्वप्न देखे हैं और मुझे ऐसा जान पड़ता है कि ये स्वप्न प्रायः अनिष्ट फल देनेवाले हैं ॥३४॥ हे परमेश्वर, वे स्वप्न मैंने जिस प्रकार देखे हैं उसी प्रकार उपस्थित करता हूं। उनका जैसा कुछ फल हो उसे मेरी प्रतीतिका विषय करा दीजिए ॥३५।। (१) सिंह, (२) सिंहका बच्चा, (३) हाथीके भारको धारण करनेवाला घोड़ा, (४) वृक्ष, लता और झाड़ियोंके सूखे पत्ते खानेवाले बकरे, (५) हाथीके स्कन्धपर बैठे १ पूजयन् । २ अध:कृत। ३ नमस्करोति स्म। ४ निविष्टवान् । ५ पातुमिच्छामितः सन्। ६ कारणम् । ७ प्रतीताः । ८ -दशाङ्गानि ल०, म०। ६ सृष्टेः । १० मूर्खत्वेन । 'अज्ञे मूढयथाजातमूर्खवैधेयबालिशाः' इत्यमरः । ११ युक्तम्। १२ निश्चये। १३ विज्ञापयामि । १४ ज्ञानम् । १५ करिणो भारं बिभर्ति । १६ भक्षिणः। १७ उलूकाः । १८ काकैः। काके तु करटारिष्टबलिपुष्टसकृत्प्रजाः । ध्वाङ क्षात्मघोषपरभृद्बलिभुगवायसा अपि ॥' इत्यभिधानात् । १६ भूताः । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० 3. महापुराणम् शुष्कमध्यं तडागं च पर्यन्तप्रचुरोदकम् । पांशुधूसरितो' रत्नराशिः श्वार्थ माहितः ॥३८॥ तारुण्यशाली ॠषभः शीतांशुः परिवेषयुक् । मिथोऽङ्गीकृतसाङ्गयौ पुङ्गवौ सङगलच्छियौ ॥३६॥ रविराशावधू रत्नवतं सोऽब्दै स्तिरोहितः । संशुष्कस्तरुरच्छायो जीर्णपर्णसमुच्चयः ॥४०॥ षोडशैतेऽद्य यामिन्यां दुष्टाः स्वप्ना विदां वर । फलविप्रतिपत्त मे तद्गतां त्वमपाकुरु ॥४१॥ इति तत्फलविज्ञाननिपुणोऽप्यववित्विषा । सभाजनप्रबोधार्थ पप्रच्छ निधिराट् जिनम् ॥४२॥ "तत्प्रश्नावसितावित्थं व्याचष्टे स्म जगद्गुरुः । वचनामृतसं सेकंः प्रीणयन्निखिलं सदः ॥ ४३ ॥ भगवद्दिव्यवागर्थ शुश्रूषावहितं तदा । ध्यानोपगमिवाभू तत्सदश्चित्रगतं नु वा ॥४४॥ साधु वत्स कृतं साधु धार्मिकद्विजपूजनम् । किन्तु दोषानुषङगोऽत्र कोऽप्यस्ति स निशम्यताम् ॥४५॥ श्रायुष्मन् भवता सृष्टा य एते गृहमेधिनः । ते तावदुचिताचारा यावत्कृत 'युगस्थितिः ॥ ४६ ॥ ततः कलियुगेऽभ्य में जातिवादावलेपतः । भ्रष्टाचाराः प्रपत्स्यन्ते सन्मार्गप्रत्यनीकताम् ॥४७॥ मी जातिमदाविष्टा वयं लोकाधिका इति । "पुरा बुरागमैर्लोकं मोहयन्ति" धनाशया ॥४८॥ सत्कारलाभसंवृद्धगर्वा मिथ्यामबोद्धताः । जनान् प्रतारयिष्यन्ति" स्वयमुत्पाद्य दुःश्रुतीः ॥४६॥ १० हुए वानर, (६) कौआ आदि पक्षियोंके द्वारा उपद्रव किये हुए उलूक, (७) आनन्द करते हुए भूत, (८) जिसका मध्यभाग सूखा हुआ है और किनारोंपर खूब पानी भरा हुआ है ऐसा तालाब, (९) धूलिसे धूसरित रत्नोंकी राशि, (१०) जिसकी पूजा की जा रही है ऐसा नैवेद्यको खानेवाला कुत्ता, (११) जवान बैल, (१२) मण्डलसे युक्त चन्द्रमा, (१३) जो परस्परमें मिल रहे हैं और जिनकी शोभा नष्ट हो रही है ऐसे दो बैल, (१४) जो दिशारूपी स्त्रीरत्नोंके से बने हुए आभूषण के समान है तथा जो मेघोंसे आच्छादित हो रहा है ऐसा सूर्य, (१५) छायारहित सूखा वृक्ष और (१६) पुराने पत्तोंका समूह। हे ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ, आज मैंने रात्रिके समय ये सोलह स्वप्न देखे हैं । हे नाथ, इनके फलके विषय में जो मुझे संदेह है, उसे दूर कर दीजिये || ३६-४१ ।। यद्यपि निधियोंके अधिपति महाराज भरत अपने अवधिज्ञानके द्वारा उन स्वप्नोंका फल जानने में निपुण थे तथापि सभाके लोगों को समझानेके लिये उन्होंने भगवान् से इस प्रकार पूछा था ॥ ४२ ॥ भरतका प्रश्न समाप्त होनेपर जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव अपने वचनरूपी अमृतके सिंचनसे समस्त सभाको संतुष्ट करते हुए इस प्रकार व्याख्यान करने लगे ।।४३।। उस समय भगवान्‌को दिव्य ध्वनिके अर्थको सुननेकी इच्छा से सावधान हुई वह सभा ऐसी जान पड़ती थी मानो ध्यानमें मग्न हो रही हो अथवा चित्रकी बनी हुई हो ॥ ४४ ॥ वे कहने लगे कि हे वत्स, तूने जो धर्मात्मा द्विजोंकी पूजा की है सो बहुत अच्छा किया है परन्तु इसमें कुछ दोष है उसे तू सुन || ४५ || हे आयुष्मन्, तूने जो गृहस्थोंकी रचना की है सो जबतक कृतयुग अर्थात् चतुर्थकालकी स्थिति रहेगी तबतक तो ये उचित आचारका पालन करते रहेंगे परन्तु जब कलियुग निकट आ जायगा तब ये जातिवाद के अभिमानसे सदाचारसे भ्रष्ट होकर समीचीन मोक्ष मार्गके विरोधी बन जायेंगे ||४६ || पंचम कालमें ये लोग, हम सब लोगों में बड़े हैं, इस प्रकार जातिके मदसे युक्त होकर केवल धनकी आशासे खोटे खोटे शास्त्रोंके द्वारा लोगों को मोहित करते रहेंगे ||४७॥ सत्कारके लाभसे जिनका गर्व बढ़ रहा है और जो मिथ्या मदसे उद्धत हो रहे हैं ऐसे ये ब्राह्मण लोग स्वयं मिथ्या शास्त्रोंको बना बनाकर लोगोंको ठगा करेंगे ||४८ || जिनकी चेतना पापसे दूषित हो रही है ऐसे ये मिथ्यादृष्टि लोग इतने समय १ ईषत्पाण्डुरितः । २ चरुभुक् । ३ पूजितः । ४ सन्देहम् । ५ तस्य प्रश्नावसाने । ६ अवधानपरम् । ७ योगः । ८ चतुर्थकाल । ६ पञ्चमकाले । १० समीपे सति । ११ गर्वतः । १२ यास्यन्ति १४ पञ्चमकाले । १५ ' पुरायावतोडिति भविष्यत्यर्थे लड् । १६ वञ्चयिष्यन्ति । । १३ प्रतिकूलताम् । १७ दुःशास्त्राणि । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तमं पर्व ३२१ त इमे कालपर्यन्ते विक्रियां प्राप्य दुर्दशः। धर्मद्र हो' भविष्यन्ति पापोपहतचेतनाः॥५०॥ सत्वोपघातनिरता ममांसाशनप्रियाः। प्रवृत्तिलक्षणं धर्म घोषयिष्यन्त्यधामिकाः ॥५१॥ अहिंसालक्षणं धर्म दूषयित्वा दुराशयाः। चोदनालक्षणं धर्म पोषयिष्यन्त्यमी बत ॥५२॥ पापसूत्रधरा धूर्ताः प्राणिमारणतत्पराः । वत्र्ययुगे प्रवय॑न्ति सन्मार्गपरिपन्थिनः ॥५३॥ द्विजातिसर्जनं तस्मान्नाद्य यद्यपि दोषकृत् । स्याद्दोषबीजमायत्यां कुपाखण्डप्रवर्तनात् ॥५४॥ इति कालान्तरे दोषबीजमप्येतदञ्जसा । नाधुना परिहर्तव्यं धर्मसृष्टयनतिक्रमात् ॥५५॥ यथानमुपयुक्तं सत् क्वचित्कस्यापि दोषकृत । तथाऽप्यपरिहार्य तद् बुधैर्बहुगुणास्थया ॥५६॥ तथेदमपि मन्तव्यम अद्यत्वे गुणदत्तया । सामाशयवैषम्यात् पश्चाद् यद्यपि दोषकृत् ॥५७॥ इदमेवं गतं हन्त यच्च ते स्वप्नदर्शनम् । तदप्येष्यद् युगे धर्मस्थितिहासस्य सूचनम् ॥५८ ॥ ते च स्वप्ना द्विधाऽऽम्नाताः स्वस्थास्वस्थात्मगोचराः। समस्तु धातुभिः स्वस्था विषमरितरे मताः ॥५६॥ तथ्याः स्यः स्वस्य सन्दृष्टाः मिथ्यास्वप्ना विपयर्यात् । जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम्॥६०॥ स्वप्नानां द्वैतमस्त्यन्यदोषदेवसमुद्भवम् । दोषप्रकोपजा मिथ्या तथ्याः स्यवसम्भवाः ॥६१॥ तक विकारभावको प्रा त होकर धर्मके द्रोही बन जायँगे ॥५०॥ जो प्राणियोंकी हिंसा करने में तत्पर हैं तथा मधु और मांसका भोजन जिन्हें प्रिय है ऐसे ये अधर्मी ब्राह्मण हिसारूप धर्मकी घोषणा करेगे ॥५१॥ खेद है कि दुष्ट आशयवाले ये ब्राह्मण अहिंसारूप धर्मको दूषित कर वेदमें कहे हुए हिसारूप धर्मको पुष्ट करेंगे ॥५२॥ पापका समर्थन करनेवाले, शास्त्रको जानने वाले अथवा पापके चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीतको धारण करनेवाले और प्राणियोंके मारनेमें सदा तत्पर रहनेवाले ये धुर्त ब्राह्मण आगामी युग अर्थात् पंचम कालमें समीचीन मार्गके विरोधी हो जावेंगे ।।५३।। इसलिये यह ब्राह्मणोंकी रचना यद्यपि आज दोष उत्पन्न करनेवाली नहीं है तथापि आगामी कालमें खोटे पाखण्ड मतोंकी प्रवृत्ति करनेसे दोषका बीजरूप है ॥५४॥ इस प्रकार यद्यपि यह ब्राह्मगोंकी सृष्टि कालान्तरमें दोषका बीजरूप है तथापि धर्म सृष्टिका उल्लंघन न हो इसलिये इस समय इसका परिहार करना भी अच्छा नहीं है ॥५५॥ जिस प्रकार खाया हुआ अन्न यद्यपि कहीं किसीको दोष उत्पन्न कर देता है तथापि अनेक गुणोंकी आस्थासे विद्वान् लोग उसे छोड़ नहीं सकते उसी प्रकार यद्यपि ये पुरुषोंके अभिप्रायोंकी विषमतासे आगामी कालमें दोष उत्पन्न करनेवाले हो जावेंगे तथापि इस समय इन्हें गुणवान् ही मानना चाहिये ॥५६-५७।। इस प्रकार यह तेरी ब्राह्मण रचनाका उत्तर तो हो चुका, अब तूने जो स्वप्न देखे हैं, खेद है, कि वे भी आगामी युग (पंचम काल) में धर्मकी स्थितिके हासको सूचित करनेवाले हैं ॥५८॥ वे स्वप्न दो प्रकारके माने गये हैं एक अपनी स्वस्थ अवस्था में दिखनेवाले और दूसरे अस्वस्थ अवस्थामें दिखनेवाले। जो धातुओंकी समानता रहते हुए दिखते हैं वे स्वस्थ अवस्थाके कहलाते हैं और जो धातुओंकी विषमता-न्यूनाधिकता रहते हुए दिखते हैं वे अस्वस्थ अवस्थाके कहलाते हैं ॥५९॥ स्वस्थ अवस्थामें दिखनेवाले स्वप्न सत्य होते हैं और अस्वस्थ अवस्था में दिखनेवाले स्वप्न असत्य हुआ करते हैं इस प्रकार स्वप्नोंके फलका विचार करने में यह जगत्प्रसिद्ध बात है ऐसा तू समझ ॥६०॥ स्वप्नोंके और भी दो भेद है एक दोषसे उत्पन्न होनेवाले और दूसरे देवसे उत्पन्न होनेवाले । उनमें दोषोंके प्रकोप १ धर्मघातिनः । २ चोदनालक्षणम्। ३ भावि । ४ प्रतिकूले। ५ सृष्टिः । ६ उत्तरकाले। "उत्तरः काल आयतिः' इत्यभिधानात् । ७ भविष्ययुगे । ८ विचारणम। ४१ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ महापुराणम् कल्याणाङगस्त्वमेकान्ताद् देवताधिष्ठितश्च यत् । न मिथ्या तदिमे स्वप्नाः फलमेषां निबोध मे ॥६२॥ दृष्टाः स्वप्ने मृगाधीशा ये त्रयोविंशतिप्रमाः। निस्सपत्नां विहृत्यमा क्षमा क्ष्माभृत्कूटमाश्रिताः ॥६३॥ तत्फलं सन्मति मुक्त्वा शेषतीर्थकरोदये। दुर्नयानामनुभूतिख्यापनं लक्ष्यतां स्फुटम् ॥६४॥ पुनरकाकिनः सिंहपोतस्यान्वक् मृगेक्षणात् । भवेयुः सन्मतेस्तीर्थे सानुषङगाः कुलिङगिनः ॥६॥ करीन्द्रभारनिर्भुग्नपुष्टस्याश्वस्य वीक्षणात् । कृत्स्नान् तपोगुणान्वोढुं नालं दुष्षमसाधवः ॥६६॥ मूलोत्तरगुणेष्वात्तसङगराः केचनालसाः । भक्ष्यन्ते मूलतः केचित्तष यास्यन्ति मन्दताम् ॥६७॥ "निध्यानादजयूथस्य शुष्कपत्रोपयोगिनः। यान्त्यसवृत्ततां त्यक्तसदाचाराः पुरा नराः ॥६८॥ करीन्द्रकन्धरारूढशाखामगविलोकनात् । प्रादिक्षत्रान्वयोच्छित्तौ आमा 'पास्यन्त्यकलोनकाः ॥६६॥ काकैरुलूकसम्बाधदर्शनाद्धर्मकाम्यया। मुक्त्वा जनान्मुनीनन्यमतस्थानन्वियुर्जनाः ॥७०॥ प्रनृत्यतां प्रभूतानां भूतानामीक्षणात् प्रजाः । भजेयुर्नामकर्माद्यः व्यन्तरान् देवतास्थया ॥७॥ शुष्कमध्यतडागस्य पर्यन्तेऽम्बुस्थितीक्षणात । प्रच्युत्यार्यनिवासात् स्याद्धर्मः प्रत्यन्तवासिषु५ ॥७२॥ पांसुधूसररत्नौधनिध्यानाद्धिसत्तमाः। नैव प्रादुर्भविष्यन्ति मुनयः पञ्चमे युगे ॥७३॥ शनोऽचितस्य सत्कारैश्चरभाजनदर्शनात् । गुणवत्पात्रसत्कारमाप्स्यन्त्यवतिनो द्विजाः ॥७४॥ से उत्पन्न होनेवाले झूठ होते हैं और दैवसे उत्पन्न होनेवाले सच्चे होते हैं ॥६१॥ हे कल्याणरूप, चूँकि तू अवश्य ही देवताओंसे अधिष्ठित है इसलिये तेरे ये स्वप्न मिथ्या नहीं हैं। तू इनका फल मुझसे समझ ॥६२।। तूने जो स्वप्नमें इस पृथ्वीपर अकेले विहार कर पर्वतकी शिखरपर चढ़े हुए तेईस सिंह देखे हैं उसका स्पष्ट फल यही समझ कि श्रीमहावीर स्वामीको छोड़कर शेष तइस तीर्थङ्करोंके समयम दुष्ट नयोकी उत्पत्ति नहीं होगी। इस स्वप्नका फल यही बतलाता है ॥६३-६४॥ तदनन्तर दूसरे स्वप्नमें अकेले सिंहके बच्चे के पीछे चलते हुए हरिणोंका समह देखनेसे यह प्रकट होता है कि श्री महावीर स्वामीके तीर्थमें परिग्रहको धारण करनेवाले बहुतसे कुलिङ्गी हो जावेंगे ॥६५॥ बड़े हाथीके उठाने योग्य बोझसे जिसकी पीठ झुक गई है ऐसे घोड़ेके देखनेसे यह मालूम होता है कि पंचम कालके साधु तपश्चरणके समस्त गुणोंको धारण करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे ॥६६॥ कोई मूलगुण और उत्तरगुणोंके पालन करनेकी प्रतिज्ञा लेकर उनके पालन करने में आलसी हो जायँगे, कोई उन्हें मूलसे ही भंग कर देंगे और कोई उनमें मन्दता या उदासीनताको प्राप्त हो जायेंगे ॥६७॥ सूखे पत्ते खानेवाले बकरोंका समूह देखनेसे यह मालूम होता है कि आगामी कालमें मनुष्य सदाचारको छोड़कर दुराचारी हो जायँगे ॥६८॥ गजेन्द्र के कंधेपर चढ़ हुए वानरोंके देखनेसे जान पड़ता है कि आगे चलकर प्राचीन क्षत्रिय वंश नष्ट हो जायँगे और नीच कुलवाले पथ्वीका पालन करेंगे ॥६९।। कौवोंके द्वारा उलूकको त्रास दिया जाना देखनेसे प्रकट होता है कि मनुष्य धर्मकी इच्छासे जैनमनियोंको छोड़कर अन्य मतके साधुओंके समीप जायँगे ॥७०॥ नाचते हुए बहुतसे भूतोंके देखनेसे मालूम होता है कि प्रजाके लोग नामकर्म आदि कारणोंसे व्यन्तरोंको देव समझकर उनकी उपासना करने लगेंगे ॥७१॥ जिसका मध्यभाग सूखा हुआ है ऐसे तालाबके चारों ओर पानी भरा हआ देखनेसे प्रकट होता है कि धर्म आर्यखण्डसे हटकर प्रत्यन्तवासी-म्लेच्छ खण्डोंमें ही रह जायगा ॥७२॥ धूलिसे मलिन हुए रत्नोंकी राशिके देखनेसे यह जान पड़ता है कि पंचमकालमें ऋद्धिधारी उत्तम मनि नहीं होंगे ॥७३॥ आदर-सत्कारसे जिसकी पूजा की १ यस्मात् कारणात् । २ जानीहि । ३ मम सकाशात् । ४-मास्थिताः ट० । ५ अनुगच्छत् । ६ सपरिग्रहाः । ७ दर्शनात् । ८ पालयिष्यन्ति । ६ भूरीणाम् । . १० देवबुद्ध्या। ११ म्लेच्छदेशेषु । 'प्रत्यन्तो म्लेच्छदेशः स्यात् ।' Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशतमं पर्व ३२३ तरुणस्य वृषस्योच्चः नदतो' विहृतीक्षणात् । तारुण्य एव श्रामण्य स्थास्यन्ति न दशान्तरे ॥७॥ परिवेषोपरक्तस्य श्वेतभानोनिशामनात् । नोत्पत्स्यते' तपोभत्स समनःपर्ययोऽवधिः ॥७६॥ अन्योन्यं सह सम्भूय वृषयोर्गमनेक्षणात् । वय॑न्ति मुनयः साहचर्यान्नकविहारिणः ॥७७॥ घनावरणरुद्धस्य दर्शनादंशुमालिनः । केवलार्कोदयः प्रायो न भवेत् पञ्चमे युगे ॥७८॥ . पुंसां स्त्रीगां च चारित्रच्युतिः शुष्कब्रुमेक्षणात्। महौषधिरसोच्छेदो जीर्णपर्णावलोकनात् ॥७९॥ स्वप्नानेवंफलानेतान् विद्धि दूरविपाकिनः । नाद्य दोषस्ततः कोऽपि फलमेषां युगान्तरे ॥८९) इति स्वप्नफलान्यस्माद् बुध्वा वत्स यथा तथा । धर्मे मतिं दृढं धत्स्व विश्वविघ्नोपशान्तये ॥८॥ इत्याकर्ण्य गुरोर्वाक्यं स वर्गाश्रमपालकः । सन्देहकर्दमापायात् स प्रसन्नमधान्मनः ॥८२॥ भूयो भूयः प्रणम्येशं समापृच्छच पुनः पुनः। पुनराववृते कृच्छ्रात् स प्रीतो गुर्वनुग्रहात् ॥८३॥ ततः प्रविश्य साकेतपुरमाबद्धतोरणम् । केतुमालाकुलं पौरैः सानन्दमभिनन्दिनः ॥४॥ शान्तिक्रियामतश्चक्रे दुःस्वप्नानिष्ट शान्तये। जिनाभिषेकसत्पात्रदानाद्यः पुण्यचेष्टितः ॥८॥ गोदोहः प्लाविता धात्री पूजिताश्च महर्षयः। महादानानि दत्तानि प्रीणितः प्रणयी जनः ॥६) निर्मापितास्ततो घण्टा जिनबिम्बैरलडकृताः । परार्ध्यरत्ननिर्माणाः सम्बद्धा हेमरज्जुभिः ॥७॥ गई है ऐसे कुत्तेको नैवेद्य खाते हुए देखनेसे मालूम होता है कि व्रतरहित ब्राह्मण गुणी पात्रोंके समान सत्कार पायेंगे ।।७४॥ ऊंचे स्वरसे शब्द करते हुए तरुण बैलका विहार देखनेसे सूचित है कि लोग तरुण अवस्थामें ही मुनिपदमें ठहर सकेंगे, अन्य अवस्थामें नहीं ॥७५॥ परिमण्डलसे घिरे हुए चन्द्रमाके देखनेसे यह जान पड़ता है कि पंचमकालके मुनियोंमें अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान नहीं होगा ।।७६॥ परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलोंके देखनेसे यह सूचित होता है कि पंचमकालमें मुनिजन साथ साथ रहेंगे, अकेले विहार करनेवाले नहीं होंगे ॥७७॥ मेवोंके आवरणसे रुके हुए सूर्यके देखनेसे यह मालूम होता है कि पंचमकालमें प्रायः केवलज्ञानरूपी सूर्यका उदय नहीं होगा ॥७८॥ सूखा वृक्ष देखनेसे सूचित होता है कि स्त्री-पुरुषोंका चारित्र भ्रष्ट हो जायगा और जीर्ण पत्तोंके देखनेसे मालूम होता है कि महाऔषधियोंका रस नष्ट हो जायगा ॥७९॥ ऐसा फल देनेवाले इन स्वप्नोंको तू दूरविपाकी अर्थात् बहुत समय बाद फल देनेवाले समझ इसलिये इनसे इस समय कोई दोष नहीं होगा,इनका फल पञ्चमकालमें होगा ।।८०॥ हे वत्स, इस प्रकार मुझसे इन स्वप्नोंका यथार्थ फल जानकर तू समस्त विघ्नोंकी शान्तिके लिये धर्म में अपनी बुद्धि कर ॥८१।। वर्णाश्रमकी रक्षा करनेवाले भरतने गुरुदेवके उपर्युक्त वचन सुनकर संदेहरूपी कीचड़के नाश होनेसे अपना चित्त निर्मल किया ।।८२।। वे भगवान्को बार बार प्रणाम कर तथा बार बार उनसे पूछकर गुरुदेवके अनुग्रहसे प्रसन्न होते हुए बड़ी कठिनाईसे वहाँसे लौटे ॥८३॥ तदनन्तर नगरके लोग आनन्दके साथ जिनका अभिनन्दन कर रहे हैं ऐसे उन महाराज भरतने जिसमें जगह जगह तोरण बाँधे गये हैं और जो पताकाओंकी पंक्तियोंसे भरा हुआ है ऐसे अयोध्या नगरमें प्रवेश कर खोटे स्वप्नोंसे होनेवाले अनिष्टकी शान्तिके लिये जिनेन्द्रदेवका अभिषेक करना, उत्तम पात्रको दान देना आदि पुण्य क्रियाओंसे शान्ति कर्म किया ॥८४-८५॥ उन्होंने गायके दूधसे पृथिवीका सिंचन किया, महर्षियोंकी पूजा की, बड़े बड़े दान दिये और प्रेमीजनोंको संतुष्ट किया ॥८६॥ तदनन्तर उन्होंने बहुमूल्य रत्नोंसे बने हुए, सुवर्णकी रस्सियोंसे बँधे हुए और जिनेन्द्रदेवकी प्रति १ ध्वनतः । २ विहरण । ३ चन्द्रस्य । ४ दर्शनात् । ५ नोदेष्यति । ६ भृशम् । ७दूरोदयात् । ८ गोक्षीरैः। ६ बन्धुः । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् लम्बिताश्च पुरद्वारि ताश्चतुविशतिप्रमाः । राजवेश्ममहाद्वारगोपुरेष्वप्यनुक्रमात् ॥८८॥ या किल विनिर्याति प्रविशत्यप्ययं प्रभुः । तदा मौल्यग्रलग्नाभिः श्रस्य स्यादर्हतां स्मृतिः ॥८॥ स्मृत्वा ततोऽर्हदर्चानां भक्त्या कृत्वाभिनन्दनाम् । पूजयत्यभिनिष्क्रामन् प्रविशेश्च स पुण्यधीः ॥ ६०॥ रेजः सूत्रेषु सम्प्रोक्ता घण्टास्ताः परमेष्ठिनाम् । सदर्थघटिताष्टीका ग्रन्थानामिव पेशलाः ॥ ६१ ॥ लोकचूडामणेस्तस्य मौलिलग्ना विरेजिरे । पादच्छाया जिनस्येव घण्टास्ता लोकसम्मताः ॥६२॥ रत्नतोरणविन्यासे स्थापितास्ता निधीशिता । दृष्टवार्हद्वन्दना हेतोः लोकोऽप्यासीत्तदादरः ॥६३॥ पोरंजनंरतः स्वषु वेश्मतोरणदामसु । यथाविभवमाबद्धा घण्टास्ता सपरिच्छदाः ॥६४॥ श्रादिराजकृतां सृष्टि प्रजास्तां बहुमेनिरे । प्रत्यगारं यतोऽद्यापि लक्ष्या वन्दनमालिकाः ॥६५॥ वन्दनार्थं कृता माला यतस्ता भरतेशिना । ततो वन्दनमालाख्यां प्राप्य रूढिं गताः क्षितौ ॥६६॥ धर्मशीले महीपाले यान्ति तच्छीलतां प्रजाः । श्रताच्छील्यमतच्छीले यथा राजा तथा प्रजाः ॥६७॥ तदा कालानुभावेन प्रायो धर्मप्रिया नराः । साधीयः साधुवृत्तेऽस्मिन् स्वामिन्यासन् हिते रताः ॥ ६८ ॥ सुकालश्च सुराजा च समं सन्निहितं द्वयम् । ततो धर्मप्रिया जाताः प्रजास्तदनुरोधतः ॥६६॥ ३२४ मासे सजे हुए बहुतसे घंटे बनवायें तथा ऐसे ऐसे चौबीस घंटे बाहरके दरवाजेपर, राजभवन के महाद्वारपर और गोपुर दरवाजोंपर अनुक्रमसे रँगवा दिये ।। ८७-८८ ।। जब वे चक्रवर्ती उन दरवाजों से बाहर निकलते अथवा भीतर प्रवेश करते तब मुकुटके अग्रभागपर लगे हुए घंटाओंसे उन्हें चौबीस तीर्थ करोंका स्मरण हो आता था । तदनन्तर स्मरणकर उन देवकी प्रतिमाओंको वे नमस्कार करते थे इस प्रकार पुण्यरूप बुद्धिको धारण करनेवाले महाराज भरत निकलते और प्रवेश करते समय अरहन्तदेवकी पूजा करते थे ।।८९-९० ।। सूत्र अर्थात् रस्सियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले वे परमेष्ठियों के घंटा ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो उत्तम उत्तम अर्थोंसे भरी हुई और सूत्र अर्थात् आगम वाक्योंसे सम्बन्ध रखने वाली ग्रन्थोंकी सुन्दर टीकाएं ही हों ||११|| महाराज भरत स्वयं तीनों लोकोंके चूड़ामणि थे उनके मस्तक पर लगे हुए वे लोकप्रिय घंटा ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनेन्द्रदेवके चरणोंकी छाया ही हो ||१२|| निधियों के स्वामी भरतने अर्हन्तदेवकी वन्दनाके लिये जो घंटा रत्नोंके तोरणोंकी रचना में स्थापित किये थे उन्हें देखकर अन्य लोग भी उनका आदर करने लगे थे अर्थात् अपने अपने दरवाजेके तोरणोंकी रचना में घंटा लगवाने लगे थे । उसी समयसे नगरवासी लोगोंने भी अपने अपने घरकी तोरणमालाओं में अपने अपने वैभवके अनुसार जिनप्रतिमा आदि सामग्री से युक्त घंटा बाँधे थे ॥९३ - ९४ ।। उस समय प्रथमराजा भरतकी बनाई हुई इस सृष्टिको प्रजाके लोगोंने बहुत माना था, यही कारण है कि आज भी प्रत्येक घरपर बन्दन मालाएं दिखाई देती हैं ॥ ९५ ॥ | चूँकि भरतेश्वरने वे मालाएं अरहन्तदेवकी बन्दनाके लिये बनवाई थीं इसलिये ही वे वन्दनमाला नाम पाकर पृथिवी में प्रसिद्धिको प्राप्त हुई हैं ॥९६॥ यदि राजा धर्मात्मा होता है तो प्रजा भी धर्मात्मा होती है और राजा धर्मात्मा नहीं होता है। तो प्रजा भी धर्मात्मा नहीं होती है, यह नियम है कि जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है ।। ९७ ।। उस समय कालके प्रभावसे प्रायः सभी लोग धर्मप्रिय थे सो ठीक ही है क्योंकि सदाचारी भरत के राजा रहते हुए सब लोग अपना हित करनेमें लगे हुए थे || १८ || उस समय अच्छा राजा और अच्छी प्रजा दोनों ही एक साथ मिल गये थे इसलिये राजाके अनुरोधसे प्रजा १ बहिर्द्वारि ल०, म०, द० । २ रत्नादिसम्यगर्थः । ३ तोरणमालासु । ४ जिनबिम्बादिपरिकरसहिताः । ५ धर्मशीलताम् । ६ अधर्मत्वम् । ७ अधर्मशीले सति । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तमं पर्व ३२५ एष धर्मप्रियः सम्राट् धर्मस्थानभिनन्दति । मत्वेति निखिलो लोकः तदा धर्मे रतिं व्यधात् ॥ १०० ॥ स धर्मविजयी सम्राट् सद्वृत्तः शुचिरूजितः । ' प्रकृतिष्वनुरक्तासु व्यधाद् धर्मक्रियादरम् ॥१०१॥ भरतोऽभिरतो' धर्मे वयं तदनुजीविनः । इति तद्वृत्तमन्वीय मौलिबद्धा महीक्षितः ॥१०२॥ सोऽयं साबित कामार्थश्चक्री चक्रानुभावतः । चरितार्थद्वये तस्मिन् भेजे धर्मैकतानताम् ॥१०३॥ (दानं पूजां च शीलं च दिने पर्व पोषितम् । धर्मश्चतुर्विधः सोऽयम् ग्राम्नातो' गृहमेधिनाम् ॥ १०४ ॥ ददौ दानमसौ सद्भ्यो मुनिभ्यो विहितादरम् । समेतो नवभिः पुण्यैः गुणः सप्तभिरन्वितः ॥ १०५ ॥ सोऽदाद् विशुद्धमाहारं यथायोगं च भेषजम् । प्राणिभ्योऽभयदानं च दानस्यैतावती गतिः ॥ १०६॥ जिनेषु भक्तिमातन्वन तत्पूजायां श्रुति दधौ । पूज्यानां पूजनाल्लोके पूज्यत्वमिति भावयन् ॥१०७॥ चैत्य चैत्यालयादीनां निर्मार्पणपुरस्सरम् । स चक्रे परमामिज्यां कल्पवृक्षपृथुप्रथाम् ॥१०८॥ शीलानु पालने यत्नो मनस्यस्य विभोरभूत् । शीलं हि रक्षितं यत्नाद् आत्मानमनुरक्षति ॥ १०६ ॥ व्रतानुपालनं शीलव्रतायुक्तान्यगारिणाम् । स्थूलहिंसाविरत्यादिलक्षणानि च लक्षणः ॥ ११०॥ 'सभावनानि तान्येव यथायोगं प्रपालयन् । प्रजानां पालकः सोऽभूद् धौरेयो गृहमेधिनाम् ॥१११॥ पर्वोपवासमास्थाय जिनागारे समाहितः । कुर्वन सामयिकं सोऽधान्मुनिवृत्तं च तत्क्षणम् " ॥ ११२ ॥ धर्मप्रिय हो गई थी ।। ९९ ।। यह सम्राट् स्वयं धर्मप्रिय है और धर्मात्मा लोगों का सन्मान करता है यही मानकर उस समय लोग धर्म में प्रीति करने लगे थे ॥ १००॥ वह चक्रवर्ती धर्मविजयी था, सदाचारी था, पवित्र था और बलिष्ठ था इसलिये ही वह अपनेपर प्रेम रखनेवाली प्रजामें धार्मिक क्रियाओं का आदर करता था अर्थात् प्रजाको धार्मिक क्रियाएं करनेका उपदेश देता था ॥ १०१ ॥ 'भरत धर्म में तत्पर है और हम लोग उसके सेवक हैं' यही समझकर मुकुटबद्ध राजा उनके आचरणका अनुसरण करते थे । भावार्थ - अपने राजाको धर्मात्मा जानकर आश्रित राजा भी धर्मात्मा बन गये थे ।। १०२ ।। चत्रके प्रभाव से अर्थ और काम दोनों ही जिनके स्वाधीन हो रहे हैं ऐसे चक्रवर्ती भरत अर्थ और कामकी सफलता होनेपर केवल धर्ममें ही एकाग्रता . को प्राप्त हो रहे थे ।। १०३ || दान देना, पूजा करना, शील पालन करना और पर्वके दिन उपवास करना यह गृहस्थोंका चार प्रकारका धर्म माना गया है ।। १०४ || नव प्रकारके पुण्य और सात गुणोंसे सहित भरत उत्तम मुनियोंके लिये बड़े आदर के साथ दान देते थे ॥ १०५ ॥ वे विशुद्ध आहार, योग्यतानुसार औषधि और समस्त प्राणियोंके लिये अभय दान देते थे सो ठीक ही है क्योंकि दानकी यही तीन गति हैं ।। १०६ ।। संसारमें पूज्य पुरुषोंकी पूजा करने से पूज्यपना स्वयं प्राप्त हो जाता है ऐसा विचार करते हुए महाराज भरत जिनेन्द्रदेवमें अपनी भक्ति बढ़ाते हुए उनकी पूजा करने में बहुत ही संतोष धारण करते थे ॥ १०७॥ उन्होंने अनेक जिनविम्बं और जिनमन्दिरोंकी रचना कराकर कल्पवृक्ष नामका बहुत बड़ा यज्ञ ( पूजन ) किया था ॥१०८॥ उनके मनमें शीलकी रक्षा करनेका प्रयत्न सदा विद्यमान रहता था सो ठीक ही है क्योंकि प्रयत्नपूर्वक रक्षा किया हुआ शील आत्माकी रक्षा करता है ।। १०९ ।। व्रतोंका पालन करना शील कहलाता है और स्थूलहिंसाका त्याग करना (अहिंसाणु व्रत ) आदि जो गृहस्थों के व्रत हैं वे लक्षणोंके साथ पहले कहे जा चुके हैं ॥। ११० ।। उन व्रतोंको भावनाओं सहित यथायोग्य रीतिसे पालन करते हुए प्रजापालक महाराज भरत गृहस्थों में मुख्य गिने जाते थे ।। १११ ।। वे पर्वके दिन उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर चित्तको स्थिर कर सामायिक करते १ प्रजापरिवारेषु । २ भरतो निरतो ल०, म० । ईशनोऽभिरतो अ०, स० । ३ अनुगच्छन्ति स्म । ४ नृपाः । ५ स्वाधीन -ल०, म०, स०, अ०, प० । ६ धर्मे अनन्यवर्तिताम् । 'एकतान अनन्यवृत्तिः' इत्यभिधानात् । ७ उपवासः । ८ कथितः । ६ मैत्रीप्रमोदादिभावनासहितानि । १० प्रतिज्ञां कृत्वा । - माध्याय ल०, प० । ११ सामायिककालपर्यन्तम् । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ महापुराणम् जिनानुस्मरणे तस्य समाधानमुपेयुषः । शैथिल्याद् गात्रबन्धस्य 'लस्तान्याभरणान्यहो ॥११३॥ तथापि बहुचिन्तस्य धर्मचिन्ताऽभवद् दृढा । धर्मो हि चिन्तिते सर्व चिन्त्यं स्यादनुचिन्तितम् ॥ ११४ ॥ तस्याखिलाः क्रियारम्भा धर्मचिन्तापुरस्सराः । जाता जातमहोद के पुण्यपाकोत्य सम्पदः ॥११५॥ प्रातरुन्मीलिताक्षः सन् सन्ध्यारागारुणा दिशः । स मेनेऽर्हत्पदाम्भोजरागणे वानुरञ्जिताः ॥ ११६॥ प्रातरुद्यन्तनद्धूतनैशान्धतमसं' रविम् । भगवत्केवलार्कस्य प्रतिबिम्बममंस्त सः ॥ ११७॥ प्रभातमरुतोद्धूतप्रबुद्ध कमलाकरात् । हृदि सोऽधाज्जिनालापकलापानिव शीतलान् ॥ ११८ ॥ धार्मिकस्यास्य कामार्थचिन्ताऽभूदानुषङ्गिकी" । तात्पर्य त्वभवद्धर्मे कृत्स्नश्रेयोऽनुबन्धिनि ॥ ११६ ॥ प्रातरुत्थाय धर्मस्यैः " कृतधर्मानु चिन्तनः । ततोऽकामसम्पत्ति सहामात्यैन्यं रूपयत् ' ॥ १२० ॥ तत्पादुत्थितमात्रोऽसौ सम्पूज्य गुरुदैवतम् । कृतमङगलनेपथ्यो' 'धर्मासनमधिष्ठितः ॥ १२१ ॥ प्रजानां सदसद्वृत्तचिन्तनैः क्षणमासितः । तत आयुक्तकान् स्वेषु नियोगेष्वन्वशाद् विभुः ॥ १२२ ॥ नृपासनमयाध्यास्य महादर्शन" मध्यगः । नृपान् सम्भावयामास सेवावसरकाङक्षिणः ॥ १२३ ॥ कांश्चिदालोकनैः कांश्चित्स्मितैराभाषणैः परान् । कांश्चित्समानदानाद्यैः तर्पयामास पार्थिवान् ॥ १२४॥ हुए जिनमन्दिरमें ही रहते थे और उस समय ठीक मुनियोंका आचरण धारण करते थे ।।११२ ॥ जिनेन्द्रदेवका स्मरण करने में वे समाधानको प्राप्त हो रहे थे उनका चित्त स्थिर हो रहा था और आश्चर्य है कि शरीरके बन्धन शिथिल होनेसे उनके आभूषण भी निकल पड़े थे ।। ११३।। यद्यपि उन्हें बहुत पदार्थों की चिन्ता करनी पड़ती थी तथापि उनके धर्मकी चिन्ता अत्यन्त दृढ़ सो ठीक ही है क्योंकि धर्मकी चिन्ता करनेपर चिन्ता करने योग्य समस्त पदार्थोंका चिन्तवन अपने आप हो जाता हैं ।। ११४ ।। बड़े भारी फल देनेवाले पुण्यकर्मके उदयसे जिन्हें अनेक संपदाएं प्राप्त हुई हैं ऐसे भरतकी समस्त क्रियाओं का प्रारम्भ धर्मके चिन्तवनपूर्वक ही होता था अर्थात् महाराज भरत समस्त कार्योंके प्रारम्भमें धर्मका चिन्तवन करते थे ॥ ११५ ॥ वे प्रातःकाल आंख खोलकर जब समस्त दिशाओंको सबेरेकी लालिमासे लाल लाल देखते थे तब ऐसा मानते थे मानों ये दिशाएं जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों की लालिमासे ही लाल लाल हो गई हैं ॥ ११६ ॥ जिसने रात्रिका गाढ़ अन्धकार नष्ट कर दिया है ऐसे सूर्यको प्रातःकालके समय उदय होता हुआ देखकर वे ऐसा समझकर उठते थे मानो यह भगवान्‌के केवलज्ञानका प्रतिविम्ब ही हो ॥११७॥ प्रातःकालकी वायुके चलनेसे खिले हुए कमलोंके समूहको वे अपने हृदयमें जिनेन्द्र भगवान्की दिव्यध्वनिके समूह के समान शीतल समझते थे ।। ११८ ।। वे बहुत ही धर्मात्मा थे, उनके काम और अर्थकी चिन्ता गौण रहती थी तथा उनका मुख्य तात्पर्य सब प्रकारका कल्याण करनेवाले धर्म में ही रहता था ॥ ११९ ।। वे सबेरे उठकर पहले धर्मात्मा पुरुषोंके साथ धर्मका चिन्तवन करते थे और फिर मंत्रियोंके साथ अर्थ तथा कामरूप संपदाओंका विचार करते थे ॥१२०॥ वे शय्यासे उठते ही देव और गुरुओंकी पूजा करते थे और फिर माङ्गलिक वेष धारणकर धर्मासनपर आरूढ़ होते थे ।। १२१ ॥ | वहां प्रजाके सदाचार और असदाचारका विचार करते हुए वे क्षणभर ठहरते थे तदनन्तर अधिकारियोंको अपने अपने कामपर नियुक्त करते थे अर्थात् अपना अपना कार्य करनेकी आज्ञा देते थे ॥ १२२ ॥ इसके बाद सभाभवनके बीच में जाकर राजसिंहासनपर विराजमान होते तथा सेवाके लिये अवसर चाहनेवाले राजाओं का सन्मान करते थे ।। १२३ ।। वे कितने ही राजाओंको दर्शनसे, कितनोंहीको मुसकानसे, १ गलितानि । २ निशासम्बन्धि | ३ विकसित । ४ अमुख्या । ५ धर्मस्थैः सह । ६ विचारमकरोत् । ७ मङ्गलालङ्कारः । ८ आसनमण्डलविशेषम् । ६ तत्परान् । १० सभादर्शन - अ०, स० । प०, ल०, म० । महद्दर्शनं येषां ते महादर्शनास्तेषां मध्यगः । सभ्यजनमध्यवर्ती सन्नित्यर्थः । सभासदन Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तमं पर्व ३२७ तत्रोपायनसम्पत्त्या समायातान् महत्तमान् । वचोहरांश्च सम्मान्य कृतकार्यान् व्यसर्जयत् ॥१२॥ कलाविदश्च नृत्यादिदर्शनैः समुपस्थितान । पारितोषिकदानेन महता समतर्पयत् ॥१२६॥ ततो विजितास्थानः प्रोत्थाय नपविष्टरात । स्वेच्छाविहारमकरोद् विनोदैः सुकमारकः ॥१२७॥ ततो "मध्यविनेऽभ्यणे कृतमज्जनसंविधिः । तनस्थिति स निर्वत्यं निरविक्षत् प्रसाधनम् ॥१२॥ चामरोत्क्षेपताम्बूलदानसं वाहनादिभिः । 'परिचेरुरुत्यैनं परिवाराङगनाः स्वतः ॥१२॥ ततो भुक्तोत्तरास्थाने स्थितः कतिपयन पैः। समं विदग्ध मण्डल्या विद्यागोष्ठीरभावयत् ॥१३०॥ तत्र वारविलासिन्यो त पवल्लभिकाश्च तम् । परिवव्ररुपारूढ तारुण्यमदकर्कशाः ॥१३॥ तासामालापसंल्लापपरिहास कयादिभिः। १३सुखासिकामसौ भेजे भोगाङनैश्च मुहर्तकम् ॥१३२॥ ततस्तुविशेषेऽह्नि पर्यटन्मणिकुट्टिमे । वीक्षते स्म परां शोभाम् अभितो राजवेश्मनः ॥१३३॥ सनर्मसचिव कञ्चित् समालम्ब्यांसपीठ के५ । परिक्रामन्नितश्चेतो रेजे सुरकुमारवत् ॥१३४॥ रजन्यामपि यत्कृत्यम् उचितं चक्रवतिनः । तदाचरन् सुखेनैष त्रियामा मत्यवाहयत् ॥१३॥ कदाचिदुचितां८ वेलां नियोग इति केवलम् । मन्त्रयामास मन्त्रज्ञैः कृतकार्योऽपि चक्रभृत् ॥१३६॥ तन्त्रावायगता चिन्ता नास्यासीद् विजितक्षितेः। तन्त्र चिन्तैव नन्वस्य स्वतन्त्रस्यह भारते ॥१३७॥ कितनोंहीको वार्तालापसे, कितनोंहीको सन्मानसे और कितनोंहीको दान आदिसे संतुष्ट करते थे ॥१२४॥ वे वहांपर भेंट ले लेकर आये हुए बड़े बड़े पुरुषों तथा दूतोंको सन्मानित कर और उनका कार्य पूराकर उन्हें बिदा करते थे ॥१२५।। नृत्य आदि दिखानेके लिये आये हुए कलाओंके जाननेवाले पुरुषोंको बड़े बड़े पारितोषिक देकर संतुष्ट करते थे ॥१२६।। तदनन्तर सभा विसर्जन करते और राजसिंहासनसे उठकर कोमल क्रीड़ाओंके साथ साथ अपनी इच्छानुसार विहार करते थे ॥१२७।। तत्पश्चात् दोपहरका समय निकट आनेपर स्नान आदि करके भोजन करते और फिर अलंकार धारण करते थे ॥१२८॥ उस समय परिवारकी स्त्रियां स्वयं आकर चमर ढोलना, पान देना और पैर दाबना आदिके द्वारा उनकी सेवा करती थीं। ॥१२९।। तदनन्तर भोजन के बाद बैठने योग्य भवनमें कुछ राजाओंके साथ बैठकर चतर लोगों की मंडलीके साथ साथ विद्याकी चर्चा करते थे ॥१३०॥ वहां जवानीके मदसे जिन्हें उद्दण्डता प्राप्त हो रही है ऐसी वेश्याएं और प्रियरानियां आकर उन्हें चारों ओरसे घेर लेती थीं ॥१३१॥ पण, परस्परकी बातचीत और हास्यपूर्ण कथा आदि भोगोंके साधनोंसे वे वहाँ कुछ देरतक सुखसे बैठते थे ॥१३२॥ इसके बाद जब दिनका चौथाई भाग शेष रह जाता था तब मणियोंसे जड़ी हुई जमीनपर टहलते हुए वे चारों ओर राजमहलकी उत्तम शोभा देखते थे ।। १३३।। कभी वे क्रीड़ासचिव अर्थात् क्रीड़ामें सहायता देने वाले लोगोंके कंधोंपर हाथ कर इधर उधर घूमतं हुए दंवकुमारोक समान सशोभित हात थ ।।१३४॥ रातमें भी चक्रवर्ती के योग्य जो कार्य थे उन्हें करते हुए वे सुखसे रात्रि व्यतीत करते थे ।।१३५।। यद्यपि वे चक्रवर्ती कृतकृत्य हो चुके थे अर्थात् विजय आदिका समस्त कार्य पूर्ण कर चुके थे तथापि केवल नियोग समझकर कभी कभी उचित समयपर मंत्रियों के साथ सलाह करते थे॥१३६॥ जिन्होंने १ महत्तरान् । २ दूतान् । ३ परितोषे भवः । ४ मृदुभिः । ५ मध्याह्न। ६ अन्वभवत् । ७ अनुलेपनम् । वस्त्रमाल्याभरणादि । 'आकल्पवेशी नेपथ्यं प्रतिकर्म प्रसाधनम् । ८ पादमर्दन । ६ परिचर्याञ्चक्रिरे। १० भोजनान्ते स्थातुं योग्यास्थाने। ११ विद्वत्समूहेन । १२ मिथोभाषण । 'सल्लापो भाषणं मिथः' इत्यभिधानात्। १३ सुखस्थलम् । १४ क्रीडासहाय। 'कीडा लीला च नर्म च' इत्यभिधानात् । १५ अंसो भुजशिर एव पीठस्तस्मिन् । १६ इतस्ततः । १७ रात्रि नयति स्म । १८ उचितकालपर्यन्तम । १६ स्वराष्ट्रचिन्ताम्, अथवा शस्त्रचिन्ताम् । 'तन्त्रप्रधाने सिद्धान्ते सूत्रवाये परिच्छदे' इत्यभिधानात् । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ महापुराणम् तेन षाडगण्यमभ्यस्तम अपरिज्ञानहानये । शासतोऽस्याविपक्षां मां कृतं सन्ध्यादिचर्चया॥१३॥ 'राजविद्याश्चतस्रोऽभूः कदाचिच्च कृतक्षणः । व्याचख्यौ राजपुत्रेभ्यः ख्यातये स विचक्षणः ॥१३॥ कदाचिनिधिरत्नानाम् अकरोत्स निरीक्षणम् । भाण्डागारपदे तानि तस्य तन्त्र पदेऽपि च ॥१४०॥ कदाचिद्धर्मशास्त्रेषयाः स्युनिप्रतिपत्तयः । निराकार ताः कृत्स्नाः ख्यापयन् विश्वविन्नतम्॥१४१॥ प्राप्तोपशेष तत्त्वेषु कश्चित् संजातसंशयान् । ततोऽपाकृत्य संशीतेस्तत्तत्त्वं निरणीनयत् ॥१४२॥ तथाऽसावर्थशास्त्रार्थ कामनीतौ च पुष्कलम् । प्रावीण्यं प्रथयामास ययात्र न परः कृती५ ॥१४३॥ "हस्तितन्त्रेऽश्वतन्त्रे च दृष्ट्वा स्वातन्त्र्यमीशितुः । मूलतन्त्रस्य कर्ताऽयमित्यास्था१८ तद्विदामभूत् ॥ १ प्रायुर्वेदे स दीर्वाधुरापुर्वेदो न मूर्तिमान । इति लोको निरारेकर० श्लाघते स्म निधीशिनम् ॥१४॥ सोऽधीतीपदविद्यायां स कृती वागलडाकृतौ । स छन्दसांप्रतिच्छन्द" इत्यासीत् सम्मतः सताम्॥१४६।। "तदुपर्श निमित्तानि शाकुनं तदुपक्रमम् । तत्सर्गो" ज्योतिषां ज्ञानं तन्मतं तेन तत्त्रयम् ॥१४७॥ समस्त पृथिवी जीत ली है और जो इस भरतक्षेत्रमें स्वतन्त्र हैं ऐसे उन भरतको अपने तथा परराष्ट्रकी कुछ भी चिन्ता नहीं थी, यदि चिन्ता थी तो केवल तन्त्र अर्थात् स्वराष्ट्र की ही चिन्ता थी ॥१३७॥ उन्होंने अपना अज्ञान नष्ट करनेके लिये ही छह गुणोंका अभ्यास किया था क्योंकि जब वे शत्रुरहित पृथिवीका पालन करते थे तब उन्हें सन्धि विग्रह आदिकी चर्चासे क्या प्रयोजन था ।।१३८॥ अतिशय विद्वान् महाराज भरत केवल प्रसिद्धिके लिये ही कभी कभी बड़े उत्साहके साथ राजपुत्रों के लिये आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति इन चार राजविद्याओंका व्याख्यान करते थे ।।१३९।। वे कभी कभी निधियों और रत्नोंका भी निरीक्षण करते थे। क्योंकि निधियों और रत्नों में से कुछ तो उनके भाण्डारमें थे और कुछ उनकी सेनामें थे ॥१४०॥ कभी कभी वे सर्वज्ञदेवका मत प्रकट करते हुए धर्मशास्त्रमें जो कुछ विवाद थे उन सबका निराकरण करते थे ॥१४१॥ भगवान् अरहन्तदेवके कहे हुए तत्त्वोंमें जिन किन्हीं को संदेह उत्पन्न होता था उन्हें वे उस संदेहसे हटाकर तत्त्वोंका यथार्थ निर्णय कराते थे ॥१४२।। इसी प्रकार वे अर्थशास्त्रके अर्थ में और कामशास्त्रमें अपना पूर्ण चातुर्य इस तरह प्रकट करते थे कि फिर इस संसारमें उनके समान दूसरा चतुर नहीं रह जाता था ॥१४३।। हस्तितन्त्र और अश्वतन्त्रमें महाराज भरतकी स्वतन्त्रता देखकर उन शास्त्रोंके जाननेवाले लोगोंको यही विश्वास हो जाता था कि इन सबके मूल शास्त्रोंके कर्ता यही हैं ॥१४४॥ आयुर्वेद के विषय में तो सब लोग निधियों के स्वामी भरतकी बिना किसी शंकाके यही प्रशंसा करते थे कि यह दीर्घायु क्या मूर्तिमान् आयुर्वेद ही है अर्थात् आयुर्वेदने ही क्या भरतका शरीर धारण किया है ॥१४५।। इसी प्रकार सज्जन लोग यह भी मानते थे कि वे व्याकरण-विद्यामें कुशल हैं, शब्दालंकारमें निपुण हैं, और छन्दशास्त्रके प्रतिविम्ब हैं ॥१४६॥ निमित्तशास्त्र सबसे पहले उन्हीं के बनाये हुए हैं, शकुनशास्त्र उन्हींके कहे हुए हैं और ज्योतिष शास्त्रका ज्ञान उन्हीं १ चक्रिणा। २ पर्याप्तम् । अलमित्यर्थः । ३ सन्धिविग्रहभावादिविचारेग । ४ आन्वीक्षिकीत्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चतस्रो राजविद्याः । ५ कृतोत्साहः । ६ वदति स्म । ७ सैन्यस्थाने परिग्रहे बभूवुरित्यर्थः । ८ विसंवादाः । ६ निराकृतवान् । १० प्रकटीकुर्वन् । ११ सर्वज्ञमतम् । १२ संशयात्। १३ निर्णयमकारयत् । १४ नीतिशास्त्रार्थे। १५ कुशलः । १६ गजशास्त्रे। १७ मूलशास्त्रस्य । १८ इति बुद्धिः । १६ वैद्यशास्त्रे। २० निःशङ्कम् । २१ व्याकरणशास्त्रमधीतवान् । २२ कुशलः । २३ शब्दालङ्कारे । २४ प्रतिनिधिः । २५ तदुपज्ञनिमित्तानि ल०, म । तेन प्रथमोक्तम् । २६ शकुनशास्त्रम् । २७ तेन प्रथममुपक्रान्तम्। २८ तस्य भरतस्य सृष्टिः । २६ ज्योतिषशास्त्रम् । ३० तेन कारणेन । ३१ निमित्तादित्रयम् । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकचत्वारिंशत्तम पर्व ३२६ स निमित्तं निमित्तानां तन्त्र मन्त्रे सशाकुने । दैवज्ञाने परं देवमित्यभूसंपतोऽधिकम् ॥१४८॥ तत्सम्भूतौ समुद्भूतम् अभूत् पुरुषलक्षणम् । उदाहरणमन्यत्र लक्षितं येन तत्तनोः ॥१४६॥ अन्येष्वपि कलाशास्त्र साहेषु कृतागमाः । तमेवादर्श मालोक्य संशयांशाद् व्यरंसिषुः ॥१५०॥ 'नास्य सहजा प्रज्ञा पूर्वजन्मानुषडगिणी। तेनषा विश्वविद्यासु जाता परिणतिः परा ॥१५॥ इत्थं सर्वेषु शास्त्रष कलासु सकलास च । लोके स सम्मति प्राप्य तद्विद्यानां मतोऽभवत् ॥१५२॥ किमत्र बहनोक्तेन प्रज्ञापारमितो मनः। कृत्स्नस्य लोकवृत्तस्य स भेजे सूत्रधारताम् ॥१५३॥ राजसिद्धान्ततत्वज्ञो" धर्मशास्त्रार्थतत्त्ववित् । परिख्यातः कलाज्ञाने सोऽभून्मूनि सुमेधसाम् ॥१५४॥ इत्यादिराजं तत्सम्राड् अहो राजर्षिनायकम् । तत्सार्वभौममित्यस्य दिशासूच्छलितं यशः ॥१५॥ मालिनी इति सकलकलानामे कमोकः५ स चक्री कृतमतिभिरजर्य६ सङगतं संविधित्सन् । बुधसदसि सदस्यान बोधयन् विश्वविद्या व्यवणुता बुधचक्रीत्युच्छलत्कीतिकेतुः ॥१५६॥ की सृष्टि है इसलिये उक्त तीनों शास्त्र उन्हींके मत हैं ऐसा समझना चाहिये ।।१४७।। वे निमित शास्त्रों के निमित्त हैं, और तन्त्र, मन्त्र, शकुन तथा ज्योतिष शास्त्रमें उत्तम अधिष्ठाता देव हैं इस प्रकार सब लोगोंमें अधिक मान्यताको प्राप्त हुए थे ॥१४८।। महाराज भरतके उत्पन्न होनेपर पुरुषके सब लक्षण उत्पन्न हुए थे इसलिये दूसरी जगह उनके शरीरके उदाहरण ही देखे जाते थे ॥१४९॥ शास्त्रोंके जाननेवाले पुरुष ऊपर कहे हुए शास्त्रोंके सिवाय अन्य कलाशास्त्रोंके संग्रहमें भी भरतको ही दर्पणके समान देखकर संशयके अंशोंसे विरत होते थे अर्थात अपने अपने संशय दूर करते थे ॥१५०॥ चूंकि उनकी स्वाभाविक बुद्धि पूर्वजन्मसे संपर्क रखमेवाली थी इसलिये ही उनकी समस्त विद्याओंमें उत्तम प्रगति हुई थी ॥१५१॥ इस प्रकार समस्त शास्त्र और समस्त कलाओंमें प्रतिष्ठा पाकर वे भरत उन विद्याओंके जाननेवालोंमें मान्य हुए थे ॥१५२॥ इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? इतना कहना ही पर्याप्त है कि बद्धि के पारगामी कुलकर भरत समस्त लोकाचारके सूत्रधार हो रहे थे ॥१५३।। वे राजशास्त्रके तत्त्वोंको जानते थे, धर्मशास्त्रके तत्त्वोंके जानकार थे, और कलाओंके ज्ञानमें प्रसिद्ध थे। इस प्रकार उत्तम विद्वानोंके मस्तकपर सुशोभित हो रहे थे अर्थात् सबमें श्रेष्ठ थे ॥१५४।। अहो, इनका प्रथम राज्य कैसा आश्चर्य करने वाला है, यह सम्राट् हैं, राजर्षियों इनका सार्वभौम पद भी आश्चर्यजनक है इस प्रकार उनका यश समस्त दिशाओंमें उछल रहा था ।।१५५।।इस प्रकार जो समस्त कलाओंका एकमात्र स्थान है, जो बुद्धिमान् पुरुषोंके साथ अविनाशी मित्रता करना चाहता है और 'यह विद्वानोंमें चक्रवर्ती है अथवा विद्वान् चक्रवर्ती है' इस प्रकार जिसकी कीर्तिरूपी पताका फहरा रही है ऐसा वह चक्रवर्ती भरत विद्वानोंकी सभामें समस्त विद्याओंका उपदेश देता हुआ समस्त विद्याओंका व्याख्यान १ कारणम्। २ निमित्तशास्त्राणाम् । ३ ज्योतिःशास्त्रे। ४ स मतोऽधिकम् इ० । स गतोऽधिकम् ल०, म०। ५ . सम्पूर्णशास्त्रम् । ६ मुकुरम् । ७ विरमन्ति स्म । ८ कारणेन । ६ अनुसम्बन्धिनी। १० नृपविद्यास्वरूपज्ञः । ११ आदिराजस्य प्रथा। १२ राजर्षिनायकस्य प्रथा । १३ सर्वभूमीशस्य प्रकाश । १४ मुख्यः । १५ गृहः । १६ अविनाशी। १७ सदसि योग्यान् । १८ विवरणमकरोत् । १६ विद्वज्जन । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० महापुराणम् जिनविहितमनूनं संस्मरन् धर्ममार्ग स्वयमधिगततत्त्वो बोधयन् मार्गमन्यान । कृतमतिरखिलां मां पालयनिःसपत्नां चिरमरमत भोगै रिसारैः स सम्राट् ॥१५७॥ शार्दूलविक्रीडितम् लक्ष्मीवाग्वनितासमागमसुखस्यकाधिपत्यं दधत् दूरोत्सारितदुर्णयः प्रशमिनीं तेजस्वितामुखहन् । न्यायोपाजितवित्तकामघटनः शस्त्रे च शास्त्रे कृती राषिः परमोदयो जिनजुषामग्रेसरः सोऽभवत् ॥१५॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे भरतराजस्वप्नदर्शनतत्फलोपवर्णन नाम एकचत्वारिंशत्तमं पर्व ॥४१॥ करता था ॥१५६॥ जिसने समस्त तत्त्वोंको जान लिया है और जिसकी बुद्धि परिपक्व है ऐसा समाट भरत, जिनेन्द्रदेवके कहे हुए न्यूनतारहित धर्ममार्गका स्मरण करता हुआ तथा वही मार्ग अन्य लोगोंको समझाता हुआ और शत्रुरहित सम्पूर्ण पृथिवीका पालन करता हुआं सारपूर्ण भोगोंके द्वारा चिरकालतक क्रीड़ा करता रहा था।।१५७।। जो लक्ष्मी और सरस्वतीके समागमसे उत्पन्न हुए सुखके एक स्वामित्वको धारण कर रहा है, जिसने समस्त दुष्ट नय दूर हटा दिये हैं, जो शान्तियुक्त तेजस्वीपनेको धारण कर रहा है, जिसने न्यायपूर्वक कमाये हुए धनसे कामका संयोग प्राप्त किया है, जो शस्त्र और शास्त्र दोनोंमें ही निपुण है, राजर्षि है और जिसका अभ्यदय अतिशय उत्कृष्ट है ऐसा वह भरत जिनेन्द्रदेवकी सेवा करनेवालोंमें अग्रेसर अर्थात् सबसे श्रेष्ठ था ॥१५८।। इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतराजके स्वप्न तथा उनके फलका वर्णन करनेवाला इकतालीसवां पर्व समाप्त हुआ । १ जिनसेवकानाम् । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व मध्ये सभमथान्येद्युः निविष्टो हरिविष्टरे । क्षात्रं वृत्तमुपादिशत्संहितान् पार्थिवान् प्रति ॥ १॥ श्रूयतां भो महात्मानः सर्वे क्षत्रियपुङ्गवाः । क्षतत्राणे नियुक्ताः स्थ' यूयमाद्येन वेधसा ॥२॥ तत्त्राणे च नियुक्तानां वृत्तं वः पञ्चधोदितम् । तनिशम्य यथाम्नायं प्रवर्तध्वं प्रजाहिते ॥ ३ ॥ तच्चेवं कुलमत्यात्मप्रजानामनुपालनम् । समञ्जसत्वं चेत्येवम् उद्दिष्टं पञ्चभेदभाक् ॥४॥ कुलानुपालन तत्र कुलाम्नायानुरक्षणम् । कुलोचितसमाचारपरिरक्षणलक्षणम् ॥५॥ क्षत्रियाणां कुलाम्नायः कीदृशश्चेन्निशम्यताम्' । श्राद्येन वेधसा सृष्टः सर्गोऽयं क्षत्रपूर्वकः ॥६॥ स चैष भारत "वर्षमवतीर्णो विवोऽग्रतः । पुरा" भवे समाराध्य रत्नत्रितयमूजितम् ॥७॥ द्विष्टौ भावनास्तत्र तीर्थकृत्त्वोपपादिनीः । भावयित्वा शुभोदर्का द्युलोकाग्रमधिष्ठितः ॥८॥ तेनास्मिन् भारते वर्षे धर्मतीर्थप्रवर्तने । ततः कृतावतारेण क्षात्रसर्गः प्रवर्तितः ॥६॥ तत्कथं कर्मभूमित्वाद् अद्यत्वं द्वितयी प्रजा । कर्तव्या "रक्षणीयेका प्रजान्या रक्षणोद्यता ॥ १०॥ रक्षणाभ्युद्यता यत्र क्षत्रियाः स्युस्तदन्वयाः । सोऽन्वयोऽनादिसन्तत्या बोजवृक्षवदिष्यते ॥ ११ ॥ अथानन्तर - किसी एक दिन सभाके बीच में सिंहासनपर बैठे हुए भरत इकट्ठे हुए राजाओं के प्रति क्षात्रधर्मका उपदेश देने लगे || १ || वे कहने लगे कि हे समस्त क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ महात्माओ, आप लोगोंको आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने दुःखी प्रजाकी रक्षा करनेमें नियुक्त किया है ||२|| दुःखी प्रजाकी रक्षा करनेमें नियुक्त हुए आप लोगोंका धर्म पाँच प्रकारका कहा है उसे सुनकर तुम लोग शास्त्र के अनुसार प्रजाका हित करने में प्रवृत्त होओ ||३|| वह तुम्हारा धर्म कुलका पालन करना, बुद्धिका पालन करना, अपनी रक्षा करना, प्रजाकी रक्षा करना और समंजसपना इस प्रकार पांच भेदवाला कहा गया है ||४|| उनमें से अपने कुलाम्नायकी रक्षा करना और कुलके योग्य आचरणकी रक्षा करना कुल-पालन कहलाता है ॥५॥ अब क्षत्रियोंका कुलाम्नाय कैसा है ? सो सुनिये । आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने क्षत्रपूर्वक ही इस सृष्टिकी रचना की है अर्थात् सबसे पहले क्षत्रियवर्णकी रचना की है || ६ || जिन्होंने पहले भवमें अतिशय श्रेष्ठ रत्नत्रयकी आराधना कर तथा तीर्थ कर पद प्राप्त करानेवाली और शुभ फल देनेवाली सोलह भावनाओंका चिन्तवनकर स्वर्गलोकके सबसे ऊपर अर्थात् सर्वार्थसिद्धि में निवास किया था वे ही भगवान् सर्वार्थसिद्धिसे आकर इस भारतवर्ष में अवतीर्ण हुए हैं ।। ७-८ || जिसमें धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करनी है ऐसे इस भारतवर्ष में सर्वार्थसिद्धिसे अवतार लेकर उन्होंने क्षत्रियोंकी सृष्टि प्रवृत्त की है || ९ || वह क्षत्रियोंकी सृष्टि किस प्रकार प्रवृत्त हुई थी ? इसका समाधान यह है कि आज कर्मभूमि होनेसे प्रजा दो प्रकारकी पाई जाती है । उनमें एक प्रजा तो वह है जिसकी रक्षा करनी चाहिये और दूसरी वह है जो रक्षा करनेमें तत्पर है ||१०|| जो प्रजा रक्षा करनेमें तत्पर है उसीकी वंशपरम्पराको क्षत्रिय कहते हैं यद्यपि यह वंश अनादिकालकी संततिसे बीज वृक्षके समान अनादि कालका है तथापि १ सभामध्ये । २ निर्विष्टो ल०, म० । ३ क्षत्रियसम्बन्धि । ४ मिलितान् । ५ सर्व - प०, ल०, म० । ६ भव प० । ७ श्रुत्वा । ८ श्रूयताम् । ९ क्षत्रशब्द । १० क्षेत्रम् । ११ पूर्वस्मिन् । १२ आश्रितः । १३ कृतावतारेण इ०, स० अ० । १४ रक्षितुं योग्या । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ महापुराणम् विशेषतस्तु तत्सर्गः क्षेत्रकालव्यपेक्षया । तेषां समुचिताचारः प्रजार्थे व्यायवृत्तिता ॥१२॥ स तु न्यायोऽनतिक्रान्त्या धर्मस्यार्थ समर्जनम् । रक्षणं वर्धनं चास्य पात्रे च विनियोजनम् ॥१३॥ संषा चतुष्टयी वृत्तिर्व्यायः सद्भिरुदीरितः । जैनधर्मानुवृत्तिश्च न्यायो लोकोत्तरो मतः ॥ १४ ॥ दिव्यमूर्त्तेरुत्पद्य जिनावुत्पादयज्जनान् । रत्नत्रयं तु तद्योनिर्नृपास्त 'स्मादयोनिजाः ॥१५॥ ततो महान्ययोत्पन्ना नृपा लोकोत्तमा मताः । पथिस्थिताः स्वयं धर्म्य स्थापयन्तः परानपि ॥ १६ ॥ तस्तु सर्वप्रयत्नेन कार्यं स्वान्वयरक्षणम् । तत्पालनं कथं कार्यमिति चेत्तदनूद्यते ॥ १७॥ स्वयं महान्वयत्वेन महिम्ति क्षत्रियाः स्थिताः । धर्मास्थयां न शेषादि ग्राह्यं तैः परलिगनाम् ॥१८॥ तच्छेषादिग्रहे दोषः कश्चेन्माहात्म्यविच्युतिः । श्रपायाः बहवश्चास्मिन् श्रतस्तत्परिवर्जनम् ॥ १६॥ माहात्म्य प्रच्युतिस्तावत् कृत्वाऽन्यस्य' शिरोनतिम् । ततः शेषाद्युपादाने स्यान्निकृष्टत्वमात्मनः ॥२०॥ प्रद्विषन् परपाषण्डी विषपुष्पाणि निक्षिपेत् । यद्यस्य मूनि नन्वेवं स्यादपायो महीपतेः ॥ २१ ॥ वशीकरणपुष्पाणि निक्षिपेद्यदि मोहने" । ततोऽयं मूढवद्वृत्तिः उपेयादन्यवश्यताम् ॥२२॥ तच्छेषाशीर्वचः " शान्तिवचनाद्यन्य लिङगिनाम्" । पार्थिवैः परिहर्तव्यं भवेन्न्यकर कुलताऽन्यथा" ॥२३॥ विशेषता इतनी है कि क्षेत्र और कालकी अपेक्षासे उसकी सृष्टि होती है । तथा प्रजाके लिये न्यायपूर्वक वृत्ति रखना ही उनका योग्य आचरण है ॥११- १२ ॥ धर्मका उल्लंघन न कर धनका कमाना, रक्षा करना, बढ़ाना और योग्य पात्र में दान देना ही उन क्षत्रियोंका न्याय कहलाता है ||१३|| इस चार प्रकारकी प्रवृत्तिको सज्जन पुरुषोंने क्षत्रियों का न्याय कहा है तथा जैनधर्म के अनुसार प्रवृत्ति करना संसारमें सबसे उत्तम न्याय माना गया है || १४ || दिव्यमूर्तिको धारण करनेवाले श्री जिनेन्द्रदेवसे उत्पन्न होकर तीर्थ करोंको उत्पन्न करनेवाला जो रत्नत्रय है वही क्षत्रियोंकी योनि है अर्थात् क्षत्रिय पदकी प्राप्ति रत्नत्रयके प्रतापसे ही होती है । यही कारण है कि क्षत्रिय लोग अयोनिज अर्थात् बिना योनिके उत्पन्न हुए कहलाते हैं ।। १५ ।। इसलिये बड़े बड़े वंशों में उत्पन्न हुए राजा लोग लोकोत्तम पुरुष माने गये हैं । ये लोग स्वयं धर्ममार्ग में स्थित रहते हैं तथा अन्य लोगों को भी स्थित रखते हैं ॥ १६ ॥ उन क्षत्रियोंको सर्वप्रकारके प्रयत्नोंसे अपने वंशकी रक्षा करनी चाहिये । वह वंशकी रक्षा किस प्रकार करनी चाहिये यदि तुम लोग यह जानना चाहते हो तो मैं आगे कहता हूं ||१७|| बड़े बड़े वंशों में उत्पन्न होनेसे क्षत्रिय लोग स्वयं बड़प्पनमें स्थिर हैं इसलिये उन्हें अन्यमतियों के धर्ममें श्रद्धा रखकर उनके शेषाक्षत आदि ग्रहण नहीं करना चाहिये || १८ || उनके शेषाक्षत आदिके ग्रहण करने में क्या दोष है ? कदाचित् कोई यह कहे तो उसका उत्तर यह है कि उससे अपने महत्त्वका नाश होता है और अनेक विघ्न या अनिष्ट आते हैं इसलिये उनका परित्याग ही कर देना चाहिये ।। १९ ।। अन्य मतावलम्बियोंको शिरोनति करनेसे अपने महत्त्वका नाश हो जाता है इसलिये उनके शेषाक्षत आदि लेनेसे अपनी निकृष्टता हो सकती है ||२०|| संभव है द्वेष करनेवाला कोई पाखण्डी राजाके शिरपर विषपुष्प रख दे तो इस प्रकार भी उसका नाश हो सकता है ||२१|| यह भी हो सकता है कि कोई वशीकरण करनेके लिये इसके शिरपर वशीकरण पुष्प रख दे तो फिर यह राजा पागलके समान आचरण करता हुआ दूसरोंकी वश्यताको प्राप्त हो जावेगा ||२२|| इसलिये राजाओं को अन्यमतियोंके शेषाक्षत, आशीर्वाद और शान्तिवचन १ भरत क्षेत्रावसर्पिण्यत्सर्पिरगीकाल । २- रुदाहृतः व०, ल०, म० । ३ क्षत्रियाणामुत्पत्तिस्थानम् । ४ तस्मात् कारणात् । ५ अनुकथ्यते । - दनूच्यते प०, ल०, म० । ६ शेषाक्षतस्नानोदकादिकम् । लिङ्गिनः । ६ शेषादिदातुः सकाशात् । १० मोहने निमित्ते । ११ तत् कारणात् । पुण्याहवाचनादि । १३ नीचकुलता । १४ तच्छेषादिस्वीकारप्रकारेण । ८ अन्य १२ शान्तिमन्त्र Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व ३३३ 'जैनास्तु पार्थिवास्तेषाम् अर्हत्पादोपसेविनाम् । तच्छेषानुमतिाय्या यतः पापक्षयो भवेत् ॥२४॥ रत्नत्रितयमूर्तित्वाद् प्रादिक्षत्रियवंशजाः । जिनाः सनाभयोऽमीषाम् अतस्तच्छेषधारणम ॥२५॥ यथा हि कुलपुत्राणां माल्यं गुरुशिरोद्धृतम् । मान्यमेव जिनेद्राङघिस्पर्शान्माल्यादिभूषितम् ॥२६॥ कथं मुनिजनादेषां शेषोपादानमित्यपि । नाशडाकचं तत्सजातीयास्ते राजपरमर्षयः ॥२७॥ अक्षत्रियाश्च वृत्तस्थाः क्षत्रिया एव दीक्षिताः। यतो रत्नत्रयायत्तजन्मना तेऽपि तद्गुणाः ॥२८॥ ततः स्थितमिदं जैनान्मतादन्यमतस्थिताः । क्षत्रियाणां न शेषाविप्रदानेऽधिकृता इति ॥२६॥ कुलानुपालन यत्नम् अतः कुर्वन्तु पार्थिवाः । अन्यथाऽन्यः प्रतार्येरन् पुराणाभासदेशनात् ॥३०॥ कुलानुपालनं प्रोक्तं वक्ष्ये मत्यनुपालनम् । मतिहिताहितज्ञानमात्रिकामुत्रिकार्थयोः ॥३१॥ तत्पालनं कथं स्याच्चेद् अविद्यापरिवर्जनात् । मिथ्याज्ञानमविद्या स्याद् अतत्त्वे तत्त्वभावना ॥३२॥ प्राप्तोपझं भवेत्तत्वम् प्राप्तो दोषावृति क्षयात् । तस्मात्तन्मतमभ्यस्येन्मनोमलमपासितुम् ॥३३॥ आदिका परित्याग कर देना चाहिये अन्यथा उनके कुलमें हीनता हो सकती है ॥२३॥ राजा लोग जैन हैं इसलिये अरहन्तदेवके चरणोंकी सेवा करनेवाले उन राजाओंको अरहन्तदेवके शेषाक्षत आदि ग्रहण करनेकी अनुमति देना न्याययुक्त ही है क्योंकि उससे उनके पापका क्षय होता है ॥२४॥ रत्नत्रयकी मूर्तिरूप होनेसे आदि क्षत्रिय श्री वृषभदेवके वंशमें उत्पन्न हुए जिनेन्द्रदेव इन राजाओंके एक ही गोत्रके भाई-बन्धु हैं इसलिये भी इन्हें उनके शेषाक्षत आदि धारण करना चाहिये । भावार्थ-रत्नत्रयकी मूर्ति होनेसे जिस प्रकार अन्य तीर्थकर भगवान् वृषभदेवके वंशज कहलाते हैं उसी प्रकार ये राजा लोग भी रत्नत्रयकी मूर्ति होनेसे भगवान् वृषभदेवके वंशज कहलाते हैं। एक वंशमें उत्पन्न होनेसे ये सब परस्परमें एक गोत्रवाले भाईबन्धु ठहरते हैं इसलिये राजाओंको अपने एकगोत्री जिनेन्द्रदेवके शेषाक्षत आदिका ग्रहण करना उचित ही है ॥२५॥ जिस प्रकार कुलपुत्रोंको गुरुदेवके शिरपर धारण की हुई माला मान्य होती है उसी प्रकार जिनेन्द्रदेवके चरणोंके स्पर्शसे सुशोभित हुई माला आदि भी राजाओंको मान्य होनी चाहिये ॥२६॥ कदाचित् कोई यह कहे कि राजाओंको मुनियोंसे शेषाक्षत प्रकार ग्रहण करना चाहियं तो उनकी यह शंका ठीक नहीं है क्योकि राजषि और परमर्षि दोनों ही सजातीय हैं ॥२७॥ जो क्षत्रिय नहीं है वे भी दीक्षा लेकर यदि सम्यक्चारित्र धारण कर लेते हैं तो क्षत्रिय ही हो जाते हैं इसलिये रत्नत्रयके आधीन जन्म होनेसे मुनिराज भी राजाओंके समान क्षत्रिय माने जाते हैं ॥२८॥ उपर्युक्त उल्लेखसे यह बात निश्चित हो चुकी कि जैन मतसे भिन्न मतवाले लोग क्षत्रियोंको शेषाक्षत आदि देनेके अधिकारी नहीं हैं ॥२९॥ इसलिये राजा लोगोंको अपने कुलकी रक्षा करने में सदा यत्न करते रहना चाहिये अन्यथा अन्य मतावलम्बी लोग झूठे पुराणोंका उपदेश देकर उन्हें टग लेंगे ॥३०॥ इस प्रकार क्षत्रियोंका कुलानुपालन (कुलके आम्नायकी रक्षा करना) नामका पहला धर्म कह चुर्क अब दूसरा मत्यनुपालन (बुद्धिकी रक्षा करना) नामका धर्म कहते हैं। इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी पदार्थोके हित-अहितका ज्ञान होना बद्धि कहलाती है॥३१॥ उस बद्धिका पालन किस प्रकार हो सकता है ? यदि यह जानना चाहो तो उसका उत्तर यह है कि अविद्या का नाश करनेसे ही उसका पालन होता है। मिथ्या ज्ञानको अविद्या कहते हैं और अतत्त्वोंमें तत्त्वबुद्धि होना मिथ्या ज्ञान कहलाता है ॥३२॥ जो अरहंतदेवका कहा हुआ हो वही तत्त्व १ ततः ल०, म० । २ क्षत्रियाणाम् । ३ भूषणम् । ४ क्षत्रियाणाम्। ५ तत्समानजातिभवाः । ६ मुनयः । ७ जिनगुणाः । ८ प्रतिष्ठितम् । ६ वञ्चेरन् । १० आवरण। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ महापुराणम् राजविद्यापरिज्ञानादैहिकेऽर्थे दृढा मतिः । धर्मशास्त्रपरिज्ञानान्मतिर्लोकद्वयाश्रिता ॥३४॥ क्षत्रियास्तीर्थमुत्पाद्य येऽभूवन् परमर्षयः । ते महादेवशब्दाभिधेया माहात्म्ययोगतः ॥ ३५॥ आदिशत्रिवृत्तस्याः पार्थिवा ये महान्वयाः । महत्त्वानु गतास्तेऽपि महादेवप्रथां गताः ॥ ३६॥ तद्देव्यश्च महादेव्यो महाभिजन 'योगतः । महद्भिः परिणीतत्वात् प्रसूतेश्च महात्मनाम् ॥३७॥ इत्येवमास्थिते' पक्ष जैनैरन्यमताश्रयी । यदि कश्चित् प्रतिब्रूयान्मिथ्यात्वोपहताशयः ॥ ३८ ॥ वयमेव महादेवा जगन्निस्तारका वयम् । नास्मदाप्तात् परोऽस्त्याप्तो मतं नास्मन्मतात्परम् ॥३६॥ इत्यत्र ब्रूमहे नेतत्सारं संसारवारिधेः । यः समुत्तरणोपायः स मार्गों जिनदेशितः ॥४०॥ प्राप्तोऽर्हन्वीत दोषत्वाद् प्राप्तम्मन्यास्ततोऽपरे । तेषु वागात्मभाग्यातिशयानामविभावनात् ' ॥ ४१ ॥ वागाद्यतिशयोपेतः सार्वः सर्वार्थदुग्जिनः । स्यादाप्तः परमेष्ठी' च परमात्मा सनातनः ॥ ४२ ॥ -स वागतिशयो ज्ञेयो येनायं विभुरऋमात् । वचसैकेन दिव्येन प्रीणयत्यखिलां सभाम् ॥४३॥ तयात्मातिशयोऽप्यस्य दोषावरण सङशयात् । अनन्तज्ञानदृग्वीर्थं सुखातिशयसन्निधिः ॥ ४४॥ प्रातिहार्यमयी भूतिः उद्भूतिश्च सभावनः । गणाश्च द्वादशेत्येष स्याद्भाग्यातिशयोऽर्हतः ॥४५॥ हो सकता है और अरहंत भी वही हो सकता है जो ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय कर्मका क्षय कर चुका हो। इसलिये अपने मनका मल दूर करनेके लिये अरहन्तदेव के मतका अभ्यास करना चाहिये ||३३|| राजविद्याका परिज्ञान होनेसे इस लोक सम्बन्धी पदार्थों में बुद्धिदृढ़ हो जाती है और धर्मशास्त्रका परिज्ञान होनेसे इस लोक तथा परलोक दोनों लोक सम्बन्धी पदार्थों में दृढ़ हो जाती है ||३४|| जो क्षत्रिय तीर्थ उत्पन्न कर परमर्षि हो गये हैं वे अपने माहात्म्यके योगसे महादेव कहलाते हैं ।। ३५ ।। बड़े बड़े वंशोंमें उत्पन्न हुए जो राजा लोग आदिक्षत्रिय-भगवान् वृषभदेवके चारित्रमें स्थिर रहते हैं वे भी माहात्म्यके योगसे महादेव इस प्रसिद्धिको प्राप्त हुए हैं || ३६ | ऐसे पुरुषोंकी स्त्रियां भी बड़े पुरुषोंके साथ सम्बन्ध होनेसे - बड़े पुरुषों द्वारा विवाहित होनेसे और महापुरुषोंको उत्पन्न करनेसे महादेवियां कहलाती हैं ||३७|| इस प्रकार जैनियोंके द्वारा अपना पक्ष स्थिर कर लेनेपर मिथ्यादर्शनसे जिसका हृदय नष्ट हो रहा है ऐसा कोई अन्यमतावलम्बी पुरुष यदि कहे कि हम ही महादेव हैं, संसारसे तारने वाले भी हम ही हैं, हमारे देवके सिवाय अन्य कोई देव नहीं हैं और हमारे धर्मके सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं है ।। ३८-३९ ।। परन्तु इस विषय में हम यही कहते हैं कि उसका यह कहना सारपूर्ण नहीं है क्योंकि संसारसमुद्र से तिरनेका जो उपाय है वह जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ मार्ग ही है ॥४०॥ रागद्वेष आदि दोषोंसे रहित होनेके कारण एक अर्हन्तदेव ही आप्त हैं उनके सिवाय जो अन्य देव हैं वे सब आप्तं मन्य हैं अर्थात् झूठमूठ ही अपनेको आप्त मानते हैं क्योंकि उनमें वाणी, आत्मा और भाग्य के अतिशय का कुछ भी निश्चय नहीं है ॥४१॥ जितेन्द्र भगवान् वाणी आदिके अतिशय से सहित हैं, सबका हित करनेवाले हैं, समस्त पदार्थोंको साक्षात् देखने वाले हैं, परमेष्ठी हैं, परमात्मा हैं और सनातन हैं इसलिये वे ही आप्त हो सकते हैं ॥४२॥ भगवान् अरहन्तदेव अपनी जिस एक दिव्य वाणीके द्वारा समस्त सभाको संतुष्ट करते हैं वही उनकी वाणीका अतिशय जानना चाहिये ||४३|| इसी प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मके अत्यन्त क्षय हो जानेसे जो उनके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बलकी समीपता प्रकट होती है वही उनके आत्माका अतिशय है ।।४४ ।। तथा आठ प्रातिहार्यरूप विभूति प्राप्त होना, समवसरणभूमिकी रचना होना १ प्रवचनम् । २ –नुगमास्तेऽपि प०, अ०, स०, इ०, ल०, म० । ३ महाकुल । ४ विवाहितत्वात । ५ प्रतिज्ञाते । ६ अस्माकमाप्तात् । ७ न्याय्यम् । ८ अनिश्चयात् । ६ परमपदस्थः । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व वागाद्यतिशयैरेभिः श्रन्वितोऽनन्यगोचरैः । भगवान्निष्ठितार्थोऽर्हन् परमेष्ठी जगद्गुरुः ॥४६॥ न च तावुग्विधः कश्चित् पुमानस्ति मतान्तरे । ततोऽन्ययोग व्यावृत्त्या सिद्धमाप्तत्वमर्हति ॥४७॥ इत्यप्तानुमतं क्षात्रम् इमं धर्ममनुस्मरन् । मतान्तरादनाप्तीयात् स्वान्वयं विनिवर्तयेत् ॥४८॥ वृत्तादनात्मनीनाद्वीः" स्यादेवमनुरक्षिता । तद्रक्षणाच्च संरक्षेत् क्षत्रियः क्षितिमक्षताम् ॥४६॥ उक्तस्यैवार्थतत्त्वस्य भूयोऽप्याविश्चिकीर्षया । निदर्शनानि त्रीण्यत्र वक्ष्यामस्तान्यनुक्रमात् ॥५०॥ व्यक्तये पुरुषार्थस्य स्यात् पुरुषनिदर्शनम् । तथा निगलदृष्टान्तः स संसारिनिदर्शनः ॥५१॥ ज्ञेयः पुरुषवृष्टान्तो नाम मुक्तेतरात्मनोः । यतिदर्शनभावेन मुक्त्यमुक्त्योः समर्थनम् ॥५२॥ संसारीन्द्रियविज्ञानदृग्वीर्यसुखचारुताः । तन्वावासौ च निर्वेष्टुं यतते सुखलिप्सया ॥५३॥ मुक्तस्तु न तथा किन्तु गुणैरुक्तैरतीन्द्रियैः । परं सौख्यं स्वसाद्भूतम् श्रनुभुङ्क्ते निरन्तरम् ॥ ५४ ॥ "न्द्रियक विज्ञानः स्वल्पज्ञानतया स्वयम् । परं शास्त्रोपयोगाय श्रयति ज्ञानंवित्तकम् ॥५५॥ तथैन्द्रियक दृक्शक्तिः श्रात्मावग्भागदर्शन: । प्रर्थानां विप्रकृष्टानां" भवेत् संदर्शनोत्सुकः ॥ ५६ ॥ तथेन्द्रियकवीर्यश्च सहायापेक्षयेप्सितस् । कार्यं घटयितुं वाञ्छेत् स्वयं तत्साधनाक्षमः ॥५७॥ तन्द्रियसुखी कामभोगरत्यन्तमुन्मनाः । वाञ्छेत् सुखं पराधीनम् इन्द्रियार्थानुतर्षतः १२ ॥५८॥ और बारह सभाएं होना यह सब अरहन्तदेवके भाग्यका अतिशय है ॥ ४५ ॥ जो किन्हीं दूसरों में न पाये जानेवाले इन वाणी आदिके अतिशयोंसे सहित हैं तथा कृतकृत्य हैं ऐसे भगवान् अरहन्त परमेष्ठी ही जगत्के गुरु हैं ||४६ | | अन्य किसी भी मत में ऐसा - अरहन्तदेव के समान कोई पुरुष - नहीं है इसलिये अन्य योगकी व्यावृत्ति होनेसे अरहन्तदेवमें ही आप्तपना सिद्ध होता है ॥४७॥ इस प्रकार आप्तके द्वारा कहे हुए इस क्षात्रधर्मका स्मरण करते हुए क्षत्रियों को अनाप्त पुरुषोंके द्वारा कहे हुए अन्य मतोंसे अपने वंशको पृथक् करना चाहिये ||४८ || इस प्रकार जिनमें आत्माका हित नहीं है ऐसे आचरण से अपनी बुद्धिकी रक्षा की जा सकती है और बुद्धिकी रक्षासे ही क्षत्रिय अखण्ड पृथिवीकी रक्षा कर सकता है ||४९ || ऊपर जो पदार्थका स्वरूप कहा है उसीको फिर भी प्रकट करनेकी इच्छासे यहांपर क्रमानुसार तीन उदाहरण कहते हैं ||५० ॥ अपना पुरुषार्थ प्रकट करने के लिये पहला पुरुषका दृष्टान्त है, दूसरा निगल अर्थात् बेड़ीका दृष्टान्त है और तीसरा संसारी जीवोंका दृष्टान्त है ॥ ५१ ॥ जिस उदाहरणसे मुक्त और कर्मबन्ध सहित जीवोंके मोक्ष और बन्ध दोनों अवस्थाओं का समर्थन किया जावे उसे पुरुषका दृष्टान्त अथवा उदाहरण जानना चाहिये || ५२ ॥ | यह संसारी जीव सुख प्राप्त करनेकी इच्छासे इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख और सुन्दरताको शरीररूपी घरमें ही अनुभव करनेका प्रयत्न करता है ॥५३॥ परन्तु मुक्त जीव ऐसा नहीं करता वह तो ऊपर कहे हुए अतीन्द्रिय गुणोंसे अपने स्वाधीन हुए परम सुखका निरन्तर अनुभव करता रहता है ||५४ || इनमेंसे ऐन्द्रियक ज्ञानवाला संसारी जीव स्वयं अल्प ज्ञानी होनेसे शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये ज्ञानका चिन्तवन करनेवाले अन्य पुरुषोंका आश्रय लेता है ।। ५५ ।। इसी प्रकार जिसके इन्द्रियोंसे देखने की शक्ति है ऐसा पुरुष अपने समीपवर्ती कुछ पदार्थों को ही देख सकता है इसलिये वह दूरवर्ती पदार्थों को देखने के लिये सदा उत्कंठित होता रहता है ॥५६॥ | जिसके इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ वीर्य है वह किसी इष्ट कार्यको स्वयं करनेमें असमर्थ होकर उसे दूसरेकी सहायताकी अपेक्षा से करना चाहता है ||५७॥ तथा जिसके इन्द्रियजनित सुख है ऐसा पुरुष काम भोगादिकोंसे १ अन्येषु वागाद्यतिशययोगाभावात् । २ जिने । ३ आप्ताभावप्रोक्तात् । ४ आत्महितादपसार्यं । ५ देहालयौ । ६ अनुभवितुम् । ७ इन्द्रियानिन्द्रियज्ञानिनोर्मध्ये । ८- चित्तकम् प० । चिन्तकम् ल०, म० । e इन्द्रियजनितदर्शन शक्तिमान् । १० वस्तुनि द्विधाप्रविभक्ते आसन्नभागदर्शन: । ११ दूरवर्तिनाम् । १२ समुत्कण्ठः । १३ विषयवाञ्छया । ३३५ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ महापुराणम् . तयन्द्रियक सौन्दर्यः स्नानमाल्यानुलेपनः । विभूषणश्च सौन्दर्य संस्कर्तुमभिलष्यति ॥५६॥ दोषधातुमलस्थानं देहवैन्द्रियकं वहन् । पुमान्विष्वाणषज्यतद्रक्षास्वाकुलो भवेत् ॥६०॥ दोवान्पश्यश्च 'जात्यादीन् देहातस्त ज्जिहासया प्रेक्षाकारी तपः कर्तु प्रयस्यति यदा कदा ॥१॥ स्वीकुर्वनिन्द्रियावासं सुखमायुश्च तद्गतम् । आवासान्तरमन्विच्छेत् प्रेक्षमाणः प्रणश्वरम् ॥६२॥ यस्त्वतीन्द्रियविज्ञानदृग्वीर्यसुखसन्ततिः । शरीरावाससौन्दर्यैः स्वात्मभूतैरधिष्ठितः ॥६३॥ तस्योक्तदोषसंस्पर्शो° भवेन्लव कदाचन । तद्वानाप्तस्ततो जयः स्यादनाप्तस्त्वतद्गुणः ॥६४॥ स्फटीकरणमस्यैव वाक्यार्थस्याधुनोच्यते । यतोऽनाविष्कृतं तत्त्वं तत्त्वतो" नावबुध्यते ॥६॥ तद्यथाऽतीन्द्रियज्ञानः शास्त्रार्थ न परं श्रयेत् । शास्ता स्वयं त्रिकालज्ञः केवलामललोचनः ॥६६॥ तथाऽतीन्द्रियदृग्नार्थी स्यादपूर्वार्थ दर्शन । तेनादृष्टं न वै किञ्चिद्युगपद्विश्वदृश्वना ॥६७॥ क्षायिकानन्तवीर्यश्च नान्यसाचिव्यमीक्षते । कृतकृत्यः स्वयं प्राप्तलोकाग्रशिखरालयः ॥६॥ अत्यन्त उत्कंठित होता हुआ इन्द्रियोंके विषयोंकी तृष्णासे पराधीन सुखकी इच्छा करता है ॥५८।। इसी प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाली सुन्दरतासे युक्त पुरुष स्नान, माला, विलेपन और आभूषण आदिसे अपनी सुन्दरताका संस्कार करना चाहता है। भावार्थ-आभूषण आदि धारणकर अपने शरीरको सुन्दरता बढ़ाना चाहता है ॥५९॥ दोष, धातु और मलके स्थान रूप इस इन्द्रियजनित शरीरको धारण करता हआ पुरुष भोजन और औषधि आदिके द्वारा उसकी रक्षा करने में सदा व्याकुल रहता है ॥६०॥ जन्म मरण आदि अनेक दोषोंको देखता हुआ और शरीरसे दुखी हुआ कोई विचारवान् पुरुष. जब उसे छोड़नेकी इच्छासे तप करनेका प्रयास करता है तब वह इन्द्रियोंके निवास स्वरूप शरीरको, उससे सम्बन्ध रखनेवाले सुख और आयको भी स्वीकार करता है और अन्तमें उसे भी नष्ट होता हआ देखकर दूसरे ऐन्द्रियिक निवासकी इच्छा करता है। भावार्थ-तपश्चरण करनेका इच्छुक पुरुष यद्यपि शरीरको हेय समझकर छोड़ना चाहता है परन्तु साधन समझकर उसे स्वीकार करता है और जब तक इष्ट-मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक प्रथम शरीरके जर्जर हो जानेपर द्वितीय शरीरकी इच्छा करता रहता है ।।६१-६२।। परन्तु जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान, अतीन्द्रिय दर्शन, अतीन्द्रिय बल और अतीन्द्रिय सुखकी संतान है और जो अपने आत्मस्वरूप शरीर, आवास तथा सुन्दरता आदिसे सहित है उसके ऊपर कहे हुए दोषोंका स्पर्श कभी नहीं होता है, इसलिये जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान, वीर्य और सुखकी संतान है उसे ही आप्त जानना चाहिये और जिसके उक्त गुण नहीं हैं उसे अनाप्त समझना चाहिये ॥६३-६४।। अब आगे इसी वावयार्थका स्पष्टीकरण करते हैं क्योंकि जबतक किसी पदार्थका स्पष्टीकरण नहीं हो जाता है तब तक उसका ठीक ठीक ज्ञान नहीं होता है ॥६५॥ जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान है ऐसा पुरुष किसी दूसरे शास्त्र के अर्थका आश्रय नहीं लेता, किन्तु केवलज्ञानरूपी निर्मल नेत्रोंको धारण करनेवाला और तीनों कालोंके सब पदार्थों को जाननेवाला वह स्वयं सवको उपदेश देता है ॥६६॥ इसी प्रकार जिसके अतीन्द्रिय दर्शन हैं ऐसा जीव कभी अपूर्व पदार्थके देखनेकी इच्छा नहीं करता क्योंकि जो एक साथ समस्त पदार्थों को देखता है उसका न देखा हुआ कोई पदार्थ भी तो नहीं है ।।६७।। जिसके क्षायिक अनन्तवीर्य है वह पुरुष भी किसी अन्य जीवकी सहायता नहीं चाहता किन्तु ... १ आहार । २ देहरक्षणम् । ३ उत्पत्त्यादीन । ४ शरीरपीडितः। ५ तत्त्यागेच्छया। ६ समीक्ष्यकारी। ७ प्रयत्न करोति। ८ इन्द्रियसुखहेतुप्रासादिकम् । ६ विचारयन्। १० स्पर्शनम् । ११ अतीन्द्रियविज्ञानादिमान् । १२ ततः कारणात् । १३ अतीन्द्रियेत्यादिश्लोकद्वयार्थस्य। १४ निश्चयेन । १५ शास्त्रनिमित्तम्। १६ अन्यसहायत्वम् । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व ३३७ अतीन्द्रिय खोऽप्यात्मा स्याद्धोगरुत्सुको न वै । भोग्यवस्तुगता चिन्ता जायते नास्य जात्वतः ॥६६॥ प्राप्तातीन्द्रियसौन्दर्यो नेच्छेत्स्नानादिसत्क्रियाम् । स्नातको नित्यशुद्धात्मा बहिरन्तर्मलक्षयात् ॥७०॥ अतीन्द्रियात्मदेहश्च नाहारादीनपेक्षते । क्षुव्याधिविषशस्त्रादिबाधातीततनुः स वै ॥७१॥ भवेच्च न तपःकामो वीतजातिजरामतिः । नावासान्तरमन्विच्छेद् प्रात्मवासे च सुस्थितः ॥७२॥ स एवमखिलोषैः मुक्तो युक्तोऽखिलैर्गुणः । परमात्मा पर ज्योतिः परमेष्ठीति गीयते ॥७३॥ कामरूपित्वमाप्तस्य लक्षणं चेन्न साम्प्रतम् । सरागः कामरूपी स्याद् अकृतार्थश्च सोऽञ्जसा ॥७४॥ प्रकृतिस्थेन रूपेण प्राप्तुं यो नालमीप्सितम् । स वैकृतेन रूपेण कामरूपी कथं सुखी ॥७॥ इति पुरुषनिदर्शनम् । निगलस्थो यथानष्ट गन्त देशमलन्तराम् । कर्मबन्धनबद्धोऽपि नष्टं धाम तथे ययात् ॥७६॥ यथेह बन्धनान्मुक्तः परं स्वातन्त्र्यमृच्छति । कर्नबन्धनमुक्तोऽपि तथोपाच्छेत् स्वतन्त्रताम् ॥७७॥ निगलस्थो विपाशश्च स एवैकः पुमान्यथा । कर्मबद्धो विमुक्तश्च स एवात्मा मतस्तथा ॥७॥ इति निगलनिदर्शनम् । मुक्तेतरात्मनोक्त्यै द्वयमेतन्निदशितम् । तदृढीकरणायेष्टं सत्संसारिनिदर्शनम् ॥७९॥ वह स्वयं कृतकृत्य होकर लोकके अग्र शिखरपर सिद्धालयमें जा पहुँचता है ॥६८॥ इसी प्रकार अतीन्द्रिय सुखको धारण करनेवाला पुरुष भी भोगोंसे उत्कंठित नहीं होता, क्योंकि उसे भोग करने योग्य वस्तुओंकी चिन्ता ही कभी नहीं होती है ॥६९॥ जिसे अतीन्द्रिय सौन्दर्य प्राप्त हुआ है वह भी कभी स्नान आदि क्रियाओंकी इच्छा नहीं करता, क्योंकि बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग मलका क्षय हो जानेसे वह स्वयं स्नातक कहलाता है और उसका आत्मा निरन्तर शुद्ध रहता है ।।७०। इसी प्रकार जिसके अतीन्द्रिय आत्मा ही शरीर है वह आहार आदिकी अपेक्षा नहीं करता क्योंकि उसका आत्मारूप शरीर क्षधा, व्याधि, विष और शस्त्र आदिकी बाधासे रहित होता है ॥७१॥ जिसके जन्म, जरा और मरण नष्ट हो चुके हैं वह कभी तपकी हों करता तथा जो आत्मारूपी घरमें सखसे स्थित रहता है वह कभी दूसरे आवासकी इच्छा नहीं करता ॥७२॥ इस प्रकार जो समस्त दोषोंसे रहित है, समस्त गुणोंसे सहित है, परमात्मा है और उत्कृष्ट ज्योति स्वरूप है वही परमेष्ठी कहलाता है ॥७३॥ कदाचित् आप यह कहें कि कामरूपित्व अर्थात् इच्छानुसार अनेक अवतार धारण करना आप्तका लक्षण है तो आपका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो कामरूपी होता है वह अवश्य ही रागसहित तथा अकृतकृत्य होता है ।।७४।। जो स्वाभाविक रूपसे अपना इष्ट प्राप्त करनेके लिये समर्थ नहीं है वह कामरूपी विकृत रूपसे कैसे सखी हो सकता है ? ॥७५।। यह पुरुषका उदाहरण कहा, अब निगलका उदाहरण कहते हैं। जिस प्रकार निगल अर्थात् बेड़ी में बंधा हुआ जीव अपने इष्ट स्थानपर जानेके लिये हीं होता है उसी प्रकार कर्मरूप बन्धनसे बंधा हआ जीव भी अपने इष्ट स्थानपर नहीं पहुंच सकता ॥७६।। जिस प्रकार इस लोकमें बन्धनसे छुटा हुआ पुरुष परम स्वतन्त्रताको प्राप्त होता है उसी प्रकार कर्मबन्धनसे छूटा हुआ पुरुष भी स्वतन्त्रताको प्राप्त होता है ॥७७॥ और जिस प्रकार बेड़ीसे बंधा हुआ तथा बेड़ीसे छूटा हुआ पुरुष एक ही माना जाता है उसी प्रकार कर्मोसे बंधा हुआ तथा कर्मोसे छूटा हुआ पुरुष भी एक ही माना जाता है ॥७८।। यह निगलका उदाहरण है, इस प्रकार मुक्त और संसारी आत्माओंको प्रकट करनेके लिये ये दो १ युक्तम् । २ स्वभावस्थेन । ३ अशक्तः । ४ विकारजेन । ५ शृंखलाबन्धनस्थः। ६ स्थानम् । ७ गच्छेत् । ८ गच्छेत् । ६ -दर्शनम् प०, ल०, म०। १० पुरुषार्थवृद्धिकरणाय । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ महापुराणम् यत्संसारिणमात्मानम् ऊरीकृत्यान्यतन्त्रताम् । तस्योपदेशे मुक्तस्य स्वातन्त्र्योपनिदर्शनम् ॥१०॥ मतः संसारिदृष्टान्तः सोऽयमाप्तीयदर्शने' । मुक्तात्मनां भवेदेवं स्वातन्त्र्यं प्रकटीकृतम् ॥१॥ तद्यथा संसृतौ देही न स्वतन्त्रः कथञ्चन । कर्मबन्धवशीभावाज्जीवत्यन्याश्रितश्च यत् ॥२॥ ततः परप्रधानत्वम् अस्यनत् प्रतिपादितम् ॥ स्याच्चलत्वं च पुंसोऽस्य बेदनासहनादिभिः ॥८३॥ वेदनाव्याकुलीभावश्चलत्वमिति लक्ष्यताम् । क्षयवत्वं च देवादिभवे० लब्र्धाद्धसंक्षयात् ॥४॥ बाध्यत्वं ताडनानिष्टवचनप्राप्रिरस्य व । अन्तवच्चास्य विज्ञानम् अक्षबोधः१२ परिक्षयी ॥८॥ अन्तवदर्शनं चास्य स्यादैन्द्रियकदर्शनम् । बीयं च तद्विधं तस्य शरीरबलमल्पकम् ॥८६॥ स्यादस्य सुखमप्येवम्प्रायमिन्द्रियगोचरम् । रजस्वलत्वम यस्य५ स्यात्कौशैः कलङकनम् ॥८७॥ भवेत् कर्ममलावेशाद् अत एव मलीमसः। छेद्यत्वं चास्य गात्राणां द्विधाभावेन खण्डनम् ॥८॥ मुद्गराचभिघातेन भेद्यत्वं स्याद् विदारणम् । जरावत्त्वं वयोहानिः प्राणत्यागो मृतिर्मता ॥८६॥ प्रमेयत्वं परिच्छिन्नदेहमात्रावरुद्धता । गर्भवासोऽर्भकत्वेन जनयुदरदुःस्थितिः ॥१०॥ उदाहरण कहे, अब उक्त कथनको दृढ़ करनेके लिये संसारी जीवोंका उदाहरण कहना चाहिये ॥७९।। संसारी जीवोंको लेकर जो उनकी परतन्त्रताका कथन करना है उनकी उसी परतन्त्रता के उपदेशमें मुक्त जीवोंकी स्वतन्त्रताका उदाहरण हो जाता है। भावार्थ-संसारी जीवोंकी परतन्त्रताका वर्णन करनेसे मुक्त जीवोंकी स्वतन्त्रताका वर्णन अपने आप हो जाता है क्योंकि संसारी जीवोंकी परतन्त्रताका अभाव होना ही मुक्त जीवोंकी स्वतन्त्रता है ॥८०॥ अरहंत देवके मतमें संसारीका उदाहरण वही माना गया है कि जिसमें मुक्त जीवोंकी स्वतन्त्रता प्रकट हो सके ॥८१।। आगे इसी उदाहरणको स्पष्ट करते हैं-संसारमें यह जीव किसी प्रकार स्वतन्त्र नहीं है क्योंकि कर्मबन्धनके वश होनेसे यह जीव अन्यके आश्रित होकर जीवित रहता है ॥८२॥ यह संसारी जीवकी परतन्त्रता बतलाई, इसी प्रकार सुख-दुःख आदिकी वेदनाओंके सहनेसे इस पुरुषमें चंचलता भी होती है ॥८३॥ सुख-दुःख आदिकी वेदनाओंसे जो व्याकुलता उत्पन्न होती है उसे चञ्चलता समझना चाहिये और देव आदिकी पर्याय में प्राप्त हुई ऋद्धियोंका जो क्षय होता है उससे इस जीवके क्षयपना (नश्वरता) जानना चाहिये ।।८४। इस जीवको जो ताड़ना तथा अनिष्ट वचनोंकी प्राप्ति होती है वही इसकी बाध्यता है और इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान क्षय होनेवाला है इसलिये वह अन्तसहित हे ॥८५। इसका दर्शन भी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है इसलिये वह भी अन्तसहित है और इसका वीर्य भी वैसा ही है अर्थात् अन्तसहित है क्योंकि इसके शरीरका बल अत्यन्त अल्प है ॥८६॥ इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला इसका सुख भी प्रायः ऐसा ही है तथा कर्मोंके अंशोंसे जो कलंकित हो रहा है वही इसका मैलापन है ।।८७।। कर्मरूपी मलके सम्बन्धसे मलिन भी है और शरीरके दो दो टुकड़े होनेसे इसमें छेद्यत्व अर्थात् छिन्नभिन्न होनेकी शक्ति भी है ॥८८॥ मुद्गर आदिके प्रहारसे इसका शरीर विदीर्ण हो जाता है इसलिये इसमें भेद्यत्व भी है, जो इसकी अवस्था कम होती जाती है वही इसका बुढापा है, और जो प्राणोंका परित्याग होता है वह इसकी मृत्य है ।।८९॥ यह जो परिमित १ पराधीनत्वमिति यत् । २ परतन्त्रस्य। ३ सर्वज्ञमते। ४ एवञ्च सति । ५ यत् कार. गात् । ६ संसारिणः । ७ वेदनाभवनादिभिः । ८ लक्षणम् इ०। ६ क्षयोऽस्यास्तीति क्षयवान् तस्य भावः क्षयवत्त्वम्। १० देवाधिभवे ट० । देवाधित्वे । ११ अन्तोऽस्यास्तीति अन्तवत् । १२ इन्द्रियज्ञानम्। १३ स्वयं परिक्षायित्वादिति हेतुगभितविशेषणमेतत् । एवमुत्तरोत्तराऽपि योज्यम् । १४ एवंविधम् । अन्तवदित्यर्थः । १५ लिवसरत्वम् । १६ प्रमातुं योग्यत्वम् । १७ परिमित । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तम पर्व ३३९ अथवा कर्मनोकर्मगर्भेऽस्य परिवर्तनम । गर्भवासो बिलीनत्वं स्याद् बेहान्तरसङक्रमः ॥२॥ क्षुभितत्वं च संक्षोभः क्रोधाद्याविष्टचेतसः। भवेद विविधयोगोऽस्य नानायोनिषु संक्रमः ॥१२॥ संसारावास एषोऽस्य चतुर्गतिविवर्तनम् । प्रतिजन्मान्यथाभावो ज्ञानादीनामसिद्धता ॥३॥ सुखासुखं बलाहारौ देहावासौ च देहिनाम् । विवर्तन्ते तथा ज्ञानं दृशक्ती च रजोजुषाम् ॥४॥ एवं'प्रायास्तु ये भावाः संसारिष विनश्वराः । मुक्तात्मनां न सन्त्यते भावास्तेषां ह्यनश्वराः ॥६॥ मुक्तात्मनां भवेद् भावः' स्वप्रधानत्वमग्रिमम् । प्रतिलब्धात्मलाभत्वात् परद्रव्यानपेक्षणम् ॥१६॥ वेदनाभिभवाभावाद् अचलत्व गभीरता । स्यादक्षयत्वमक्षय्यं क्षयिकातिशयोदयः ॥७॥ अव्याबाधत्वमस्यष्टं जीवाजीवर"बाध्यता । भवेदनन्तज्ञानत्वं विश्वार्थाक्रमबोधनम् ॥६॥ अनन्तदर्शनत्वं च विश्वतत्त्वा क्रभेक्षणम् । योऽन्यैरप्रतिघातोऽस्य सा मतानन्तवीर्यता Meen भोपेष्वर्थेष्वनौत्सुक्यमनन्तसुखता सता । नीरजस्त्वं भवेदस्य व्यपायः पुण्यपापयोः ॥१०॥ निर्मलत्वं तु तस्येष्टं बहिरन्तर्मलच्युतिः। स्वभावविमलोऽनादिसिद्धो नास्तीह कश्चन ॥१०॥ योऽस्य जीवघनाकारपरिणामों" मलक्षयात् । तदच्छेदत्वमाम्नातम् अभेद्यत्वं च तत्कृतम् ॥१०२॥ प्रक्षरत्वं च मक्तस्य क्षरणाभावतो मतम् । अप्रमेयत्वमात्मोत्थैर्गुणैरबैरमेयता ॥१०३॥ शरीरमें रुका रहता है वह इसका प्रमेयपना है और जो बालक होकर माताके पेट में दुःखसे रहता है वह इसका गर्भवास है ॥९०॥ अथवा कर्म नोकर्मरूपी गर्भमें जो इसका परिवर्तन होता रहता है वह इसका गर्भावास है और एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जो संक्रमण करना है वह विलीनता है ।।९।। क्रोध आदिसे आक्रान्त चित्तमें जो क्षोभ उत्पन्न होता है वह इसका क्षुभितपना है, और नाना योनियों में परिभ्रमण करना इसका विविध योग कहलाता है ॥९२॥ चारों गतियों में परिवर्तन करते रहना इस जीवका संसारावास कहलाता है और प्रत्येक जन्ममें ज्ञानादि गुणोंका अन्य अन्य रूप होते रहना असिद्धता कहलाती है ।।९३।। कर्मरूपी रजसे युक्त रहनेवाले इन संसारी जीवोंके जिस प्रकार सुख दुःख, बल, आहार, शरीर और घर बदलते रहते हैं उसी प्रकार उनके ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य भी बदलते रहते हैं ।।९४।। इस प्रकार संसारी जीवों के जो बिनश्वरभाव हैं वे मुक्त जीवोंके नहीं हैं, उनके सब भाव अविनश्वर हैं ॥९५।। मुक्त जीवों के उन भावोंमें आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होने से परद्रव्यकी अपेक्षासे रहित जो सर्व श्रेष्ठ स्वतन्त्रपना है वही पहला भाव है ।।९६॥ सुख दुःख आदिकी वेदनासे होनेवाले परभाव का अभाव होनेसे जो अचञ्चलता होती है वही उनकी गंभीरता है और कर्मोके क्षयसे जो अतिशयोंकी प्राप्ति होती है वही उनका अविनाशी अक्षयपना है ॥९७॥ किसी भी जीव अथवा अजीवसे इन्हें बाधा नहीं पहुंचती यही इनका अव्याबाधपना है और संसारके समस्त एक साथ जानते हैं यही इनका अनन्तज्ञानीपन है ॥९८।। समस्त तत्त्वोंको एक साथ देखना ही इनका अनन्तदर्शनपन है और अन्य पदार्थों के द्वारा प्रतिघातका न होना अनन्तवीर्यपना है ॥९९॥ भोग करने योग्य पदार्थों में उत्कंठा न होना अनन्तसुखपना माना जाता है और पुष्य तथा पापका अभाव हो जाना नीरजसपन कहलाता है ॥१००॥ बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग मलका नाश होना ही इसका निर्मलपना कहलाता है क्योंकि इस संसार में ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जो स्वभावसे ही निर्मल हो और अनादि कालसे सिद्ध हो ॥१०१॥ कर्मरूपी मलके नाश होनेसे जो जीवके प्रदेशोंका घनाकार परिणमन होता है वही इसका अच्छेद्यपना है और उसी कर्मरूपी मलके नाश होनेसे इसके अभेद्यपना माना जाता है ॥१०२॥ मुक्त जीवका १ दुक च शक्तिश्च दृकुछक्ती । २ कर्मफलभाजाम् । ३ एवमादयः । ४ स्वभावः । ५ चेतनाचेतनः । ६ युगपत् । ७ परिगमनम् । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० महापुराणम् बहिरन्त र्मलापायात् श्रगर्भवसतिर्मता । कर्मनोकमविश्लेषात् स्यादगौरवलाघवम् ॥ १०४॥ तादवस्थ्यं गुणैरुद्धः प्रक्षोभ्यत्वमतो भवेत् । श्रविलीनत्वमात्मीयैर्गुणैरप्यवपृक्तता ॥ १०५ ॥ प्राग्देहाकारमूर्तित्वं यदस्याहेयमक्षरम् । साऽभीष्टा परमा काष्ठा योगरूपत्वमात्मनः ॥ १०६ ॥ लोकाग्रवासस्त्र लोक्य शिखरे शाश्वती स्थितिः । श्रशेषपुरुषार्थानां निष्ठा' परमसिद्धता ॥ १०७ ॥ यः समप्रैर्गुणैरेभिः ज्ञानादिभिरलङ्कृतः । किं तस्य कृतकृत्यस्य परद्रव्योपसर्पणः ॥ १०८ ॥ एष संसारिदृष्टान्तो व्यतिरेकेण' साधयेत् । परमात्मानमात्मानं प्रभु मप्रतिशासनम् ॥१०६॥ त्रिभिनिदर्शनं रोभिः श्राविष्कृतमहोदयः । स प्राप्तस्तन्मते धीरैः श्राधेया मतिरात्मनः ॥ ११० ॥ * एवं हि क्षत्रियश्रेष्ठो भवेद् वृष्टपरम्परः । मतान्तरेषु दौःस्थित्यं भावयन्नुपपत्तिभिः ॥ १११ ॥ दिगन्तरेभ्यो व्यावर्त्य प्रबुद्धां मतिमात्मनः । सन्मार्गे स्थापयसेवं कुर्यान्मत्यनुपालनम् ॥ ११२ ॥ प्रत्रिकामुत्रिकापायात् परिरक्षणमात्मनः । श्रात्मानुपालनं नाम तदिदानीं विवृष्महे ॥ ११३ ॥ श्रात्रिकापायसंरक्षा सुप्रतीतैव धीमताम् । विषशस्त्राद्यपायानां परिरक्षणलक्षणा ॥ ११४ ॥ कभी क्षरण अर्थात् विनाश नहीं होता इसलिये इसमें अक्षरता अर्थात् अविनाशीपन है और आत्मासे उत्पन्न हुए श्रेष्ठ युगोंसे इसका प्रमाण नहीं किया जा सकता इसलिये इसमें अप्रमेयपना है ।। १०३ ।। बहिरंग और अन्तरंग मलका नाश हो जानेसे इसका गर्भावास नहीं माना जाता है और कर्म तथा नोकर्मका नाश हो जानेसे इसमें गुरुता और लघुता भी नहीं होती है ।। १०४।। यह आत्मासे उत्पन्न हुए प्रशंसनीय गुणोंसे अपने स्वरूप में अवस्थित रहता है इसलिये इसमें अक्षोभ्यपना है और आत्माके गुणोंसे कभी पृथक् नहीं होता इसलिये अविलीनपना है ॥ १०५ ॥ जो कभी न छूटने योग्य और कभी न नष्ट होने योग्य पहले के शरीरके आकार इसकी मूर्ति रहती है वही इसकी परम हद है और वही इसकी योगरूपता है ॥ १०६ ॥ तीनों लोकों के शिखरपर जो इसकी सदा रहनेवाली स्थिति है वही इसका लोकाग्रवास गुण है और जो समस्त पुरुषार्थों की पूर्णता है वही इसकी परमसिद्धता है ॥ १०७॥ इस प्रकार जो इन ज्ञान आदि समस्त गुणोंसे अलंकृत है उस कृतकृत्य हुए मुक्त जीवको अन्य द्रव्यों की प्राप्ति से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥ १०८ ॥ यह संसारी जीवका दृष्टान्त व्यतिरेक रूपसे आत्मा को, जिसपर किसीका शासन नहीं है और जो प्रभुरूप है ऐसा परमात्मा सिद्ध करता है । भावार्थ - इस संसारी जीवके उदाहरणसे यह सिद्ध होता है कि यह आत्मा ही परमात्मा हो जाता है ।। १०९ ।। इस प्रकार इन तीन उदाहरणोंसे जिसका महोदय प्रकट हो रहा है वही आप्त है, उसी आप्तके मतमें धीरवीर पुरुषोंको अपनी बुद्धि लगानी चाहिये ।। ११० ।। इस तरह जिसने सब परम्परा देख ली है, और जो अन्य मतों में युक्तियोंसे दुष्टताका चिन्तवन करता है वही सब क्षत्रियों में श्रेष्ठ कहलाता है ॥ १११ ॥ क्षत्रियको चाहिये कि वह अपनी जागृत बुद्धिको अन्य दिशाओं अर्थात् मतोंसे हटाकर समीचीन मार्ग में लगाता हुआ उसकी रक्षा करे ॥। ११२ ।। इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी अपायोंसे आत्माकी रक्षा करना आत्माका पालन करना कहलाता है । अब आगे इसी आत्माके पालनका वर्णन करते हैं ।। ११३ ।। विष शस्त्र आदि अपायोंसे अपनी रक्षा करना ही जिसका लक्षण है ऐसी इस लोकसम्बन्धी अपायोंसे १ अगुरुलघुत्वम् । २ स्वस्वरूपावस्थानम् । ३ न केवलं देहादिभिः । ज्ञानादिगुणैरपि । ४ अत्यक्तता । —रप्यपवृत्तता । 'अपवृत्तता' इति पाठे अपवर्तनत्वं गुणगुणीभावराहित्यम् । ५ निष्पत्तिः । परिसमाप्तिरित्यर्थः । ६ व्यतिरेकिदृष्टान्तेन । ७ एवं कृते सति । ८ -नेव इ०, ल०, म० । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तम पर्व ३४१ 'तत प्रामुत्रिकापायरक्षाविधिरनूद्यते । तद्रक्षणं च धर्मेण धर्मो ह्यापत्प्रतिक्रिया ॥११॥ धर्मो रक्षत्यपायेभ्यो धर्मोऽभीष्टफलप्रदः । धर्मः श्रेयस्करोऽमुत्र धर्मेणेहाभिनन्दथुः ॥११६॥ तस्माद्धकतानः सन कर्यादेष्यत्प्रतिक्रियाम् । एवं हि रक्षितोऽपायाद् भवेदात्मा भवान्तरे ॥११७॥ बह्वपायमिवं राज्यं त्याज्यमेव मनस्विनाम् । यत्र पुत्राः ससोदर्या वैरायन्ते निरन्तरम् ॥११॥ अपि चात्र मनःखेदबहुले का सुखासिका। मनसो निति सौख्यम् उशन्तीह विचक्षणाः ॥११॥ राज्ये न सुखलेशोऽपि दुरन्ते दुरितावहे । सर्वतः शङकमानस्य प्रत्युतानासुखं५ महत् ॥१२०॥ ततो राज्यमिदं हेयमपथ्यमिव भेषजम् । उपादेयं तु विद्वद्भिस्तपः पथ्यमिवाशनम् ॥१२१॥ इति प्रागेव निविद्या राज्य भोगं त्यजेत् सुधीः । तथा त्यक्तुमशक्तोऽन्ते त्यजेद् राज्यपरिच्छदम् ॥१२२॥ कालज्ञानिभिरादिष्टे निर्णीते स्वयमेव वा । जीवितान्ते तनु त्यागमति दध्यादतः सुधीः ॥१२३॥ त्यागो हि परमो धर्मस्त्याग एव परं तपः । त्यागादिह यशोलाभः परत्राभ्युदयो महान् ॥१२४॥ मत्वेति तनुमाहारं राज्यं च सपरिच्छदम् । त्यजेदायतन" पुण्ये पूजाविधिपुरस्सरम् ॥१२॥ होनेवाली रक्षा तो विद्वान् पुरुषोंको विदित ही है ॥११४॥ इसलिये अब परलोक सम्बन्धी अपायोंसे होनेवाली रक्षाकी विधि कहते हैं । परलोक सम्बन्धी अपायोंसे रक्षा धर्मके द्वारा ही हो सकती है क्योंकि धर्म ही समस्त आपत्तियोंका प्रतिकार है-उनसे बचनेका उपाय है ॥११५॥ धर्म ही अपायोंसे रक्षा करता है, धर्म ही मनचाहा फल देनेवाला है, धर्म ही परलोक में कल्याण करनेवाला है और धर्मसे ही इस लोकमें आनन्द प्राप्त होता है ।।११६।। इसलिये धर्ममें एकचित्त होकर भविष्यत् कालमें आनेवाली विपत्तियोंका प्रतिकार करना चाहिये क्योंकि ऐसा करनेसे ही आत्माकी दूसरे भवमें विपत्तिसे रक्षा हो सकती है ॥११७॥ जिस राज्यके लिये पुत्र तथा सगे भाई आदि भी निरन्तर शत्रुता किया करते हैं और जिसमें बहुत अपाय हैं ऐसा यह राज्य बुद्धिमान् पुरुषोंको अवश्य ही छोड़ देना चाहिये ॥११८॥ एक बात यह भी है कि जिसमें मानसिक खेदकी बहुलता है ऐसे इस राज्य में सुखपूर्वक कैसे रहा जा सकता है क्योंकि इस संसारमें पण्डितजन मनकी निराकुलताको ही सुख कहते हैं ॥११९॥ जिसका अन्त अच्छा नहीं है और जिसमें निरन्तर पाप उत्पन्न होते रहते हैं ऐसे इस राज्यमें सुखका लेश भी नहीं है बल्कि सब ओरसे शंकित रहनेवाले पुरुषको इस राज्य में बड़ा भारी दःख बना रहता है ॥१२०॥ इसलिये विद्वान् पुरुषोंको अपथ्य औषधिके समान इस राज्यका त्याग कर देना चाहिये और पथ्य भोजनके समान तप ग्रहण करना चाहिये ।।१२१।। इस तरह बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह राज्यके विषयमें पहलेसे ही विरक्त होकर भोगोपभोगका त्याग कर दे, यदि वह इस प्रकार त्याग करने के लिये समर्थ न हो तो कमसे कम अन्त समय उसे राज्यके आडम्बरका अवश्य ही त्याग कर देना चाहिये ।।१२२।। इसलिये यदि काल को जाननेवाला निमित्तज्ञानी अपने जीवनका अन्त समय बतला दे अथवा अपने आप ही उसका निर्णय हो जावे तो बुद्धिमान् क्षत्रियको चाहिये कि वह उस समयसे शरीर परित्यागकी बुद्धि धारण करे अर्थात् ल्लेखना धारण करने में बद्धि लगावे ॥१२३॥ क्योंकि त्याग ही परम धर्म है, त्याग ही परम तप है, त्यागसे ही इस लोकमें कीर्तिकी प्राप्ति होती है और त्यागसे ही परलोकमें महान् ऐश्वर्य प्राप्त होता है ॥१२४॥ ऐसा मानकर क्षत्रियको किसी पवित्र स्थानमें रहकर पूजा आदिकी विधि करके शरीर आहार और चमर छत्र आदि उपकरणोंसे सहित राज्यका परित्याग कर देना ४ सुखास्थता। १ अत अ०, स०, म०, ल० । २एकोदरे जाता। ५ पुनः किमिति चेत । ६ वैराग्यपरो भूत्वा। ७ आवासे। ३ वैरं कुर्वन्ति। ८ पवित्रे । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ महापुराणम् गुरुसाक्षि तथा त्यक्तदेहाहारस्य तस्य वै। परीषहजयायत्ता सिद्धिरिष्टा महात्मनः ॥१२६॥ ततो ध्यायेदन प्रेक्षाः कृती जत परीषहान । विनाऽनुप्रेक्षणश्चित्तसमाधानं हि दुर्लभम् ॥१२७॥ 'प्राग्गभावितमेवाहं भावयामि न भावितम् । भावयामीति भावेन भावयेत्तत्त्वभावनाम् ॥१२८॥ समुत्सृजेदनात्मीयं शरीरादिपरिग्रहम् । आत्मीयं तु स्वसाकुर्याद् रत्नत्रयमनुत्तरम् ॥१२६॥ मनोव्यापरक्षार्थ ध्यायन्निति स धोरधीः। प्राणान् विसर्जयेदन्ते संस्मरन् परमेष्ठिनाम् ॥१३०॥ तथा विजितप्राणः प्रणिधानपरायणः' । शिथिलीकृत्य कर्माणि शुभां गतिमथाश्नुते ॥१३१॥ तस्मिन्नेव भवे शक्तः कृत्वा कर्मपरिक्षयम् । सिद्धिमाप्नोत्यशक्तस्तु त्रिदिवाग्रमवाप्नुयात् ॥१३२।। ततश्च्युतः परिप्राप्तमानुष्यः परमं तपः । कृत्वान्ते निति याति निर्दू ताखिलबन्धनः ॥१३३॥ क्षत्रियो यस्त्वनात्मज्ञः कुर्यानात्मानुपालनम् । विषशस्त्रादिभिस्तस्य दुर्मतिध वभाविनी ॥१३४॥ दुम॒तश्च दुरन्तेऽस्मिन् अवावर्ते दुरुत्तरे। पतित्वाऽत्र दुःखानां दुर्गतौ भाजनं भवेत् ॥१३॥ ततो मतिमताऽऽत्तीयविनिपातानुरक्षण । विधयोऽस्मिन् महायनो लोकद्वयहितावहे ॥१३६॥ कृतात्मरक्षणश्चैव प्रजानामनुपालने। राजा यत्नं प्रकुर्वीत राज्ञां मौलो ह्ययं गुणः ॥१३७॥ चाहिये ॥१२५॥ इस प्रकार जिसने गुरुकी साक्षीपूर्वक शरीर और आहारका त्याग कर दिया है ऐसे महात्मा पुरुषकी इष्टसिद्धि परीषहोंके विजय करनेके आधीन होती है अर्थात् जो परीषह सहन करता है उसीके इष्टकी सिद्धि होती है ॥१२६।। इसलिये निपुण पुरुषको परीषह जीतने के लिये अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करना चाहिये क्योंकि अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवन किये बिना चित्तका समाधान कठिन है ।।१२७।। जिसका पहले कभी चिन्तवन नहीं किया था ऐसे सम्यक्त्व आदिका चिन्तवन करता हूं और जिसका पहले चिन्तवन किया था ऐसे मिथ्यात्व आदिका चिन्तवन नहीं करता इस प्रकारके भावोंसे तत्त्वोंकी भावनाओंकाचिन्तवन करना चाहिये ।।१२८॥ जो अत्माके नहीं है ऐसे शरीर आदि परिग्रहका त्याग कर देना चाहिये और जो आत्मा के हैं ऐसे सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रयका ग्रहण करना चाहिये ॥१२९॥ धीर वीर बुद्धिको धारण करनेवाले पुरुषको मनकी चंचलता नष्ट करने के लिये इस प्रकार ध्यान करते हुए और पंचपरमेष्ठियों का स्मरण करते हुए आयुके अन्तमें प्राणत्याग करना चाहिये ॥१३०।। जो पुरुष ध्यान में तत्पर रहकर ऊपर लिखे अनुसार प्राणत्याग करता है वह कर्मोको शिथिल कर शुभ गतिको प्राप्त होता है ॥१३१॥ जो समर्थ है वह उसी भवमें कर्मोंका क्षय कर मोक्षको प्राप्त होता है और जो असमर्थ है वह स्वर्गके अग्रभाग अर्थात् सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त होता है ।।१३२॥ वह वहांसे च्युत हो मनुष्यपर्याय प्राप्त कर और परम तपश्चरण कर आयुके अंत में समस्त कर्मबंधनको नष्ट करता हुआ निर्वाणको प्राप्त होता है ॥१३३॥ आत्माका स्वरूप न जाननेवाला जो क्षत्रिय अपने आत्माकी रक्षा नहीं करता है उसकी विष, शस्त्र आदिसे अवश्य ही अपमृत्यु होती है ॥१३४॥ और अपमृत्युसे मरा हुआ प्राणी दुःखदायी तथा कठिनाईसे पार होने योग्य इस संसाररूप आवर्तमें पड़कर परलोकमें दुर्गतियोंके दुःखका पात्र होता है ।।१३५।। इसलिये बुद्धिमान् क्षत्रियको दोनों लोकोंमें हित करनेवाले, आत्मा के इस विघ्नबाधाओंसे रक्षा करनेमें महाप्रयत्न करना चाहिये ।।१३६।। इस प्रकार जिसने आत्माकी रक्षा की है ऐसे राजाको प्रजाका पालन करने में प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि यह राजाओंका मौलिक गुण है ।।१३७।। १ सम्यक्त्वादिकम् । २ मिथ्यात्वादिकम् । ३ मानसबाधाया नाशार्थम् । ४ एकाग्रतां गतः । ५ -मुपाश्नुते अ०, प०, स०, इ०, ल०, म० । ६ प्रजापालनयत्नः । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व ३४३ कयञ्च पालनीयास्ताः प्रजाश्चेत्तनपञ्चतः । दुष्टर गोपालदृष्टान्तम् ऊरीकृत्य विवृण्महे ॥१३८॥ गोपालको यथा यत्नाद् गाः संरक्षत्यतन्द्रितः । मापालश्च प्रयत्नेन तथा रक्षेन्निजाः प्रजाः ॥१३॥ तद्यथा यदि गौः कश्चिद् अपराधी स्वगोकुले। तमङगच्छेदनाद्युग्रदण्ड स्तीबमयोजयन् ॥१४०॥ पालयेदनुरूपण दण्डेनेव नियन्त्रयन् । यथा गोपस्तथा भूपः प्रजाः स्वाः प्रतिपालयत् ॥१४॥ तीक्ष्णदण्डो हिनपतिस्तोत्रनु जाजाः । ततो विरक्तप्रकृति' जयुरेनममः प्रजाः ॥१४२॥ यथा गोपालको मौल पशुवर्ग स्वगोकुले । पोषयन्नेव पुष्टः स्याद् गोपोषं प्राज्यगोधनः१५ ॥१४३॥ तथैष नुपतिमौलतन्त्रमात्मीयनेकतः१३ । पोषयन्पुष्टिमाप्नोति स्व परस्मिश्च मण्डले ॥१४४॥ पुष्टो मौलेन तन्त्रेण यो हि पार्थिवकुञ्जरः। स जयेत् पृथिवीमेनां सागरान्तामयत्नतः ॥१४॥ प्रभग्नचरणं किञ्चिद् गोद्रव्यं चेत् प्रमादतः। गोपालस्तस्य सन्धानं कुर्याद् बन्धाद्युपक्रमः ॥१४६॥ बद्धाय च त गावस्म दत्वा दाढयें नियोजयेत् । उपद्रवान्तरेऽप्येवम् प्राशु कुर्यात् प्रतिक्रियाम् ॥१४७॥ यथा तथा नरेन्द्रोऽपि स्वबले वणितं भटम् । प्रतिकुर्याद१५ भिषग्वर्यान्नियोज्यौषधसम्पदा ॥१४८॥ बुढीकृतस्य चास्योद्ध" जीवनादि"प्रचिन्तयेत् । सत्येवं भृत्यवर्गोऽस्य शश्वदाप्नोति नन्दथुम् ॥१४६॥ उस प्रजाका किस प्रकार पालन करना चाहिये यदि आप यह जानना चाहते हैं तो हम ग्वालियेका सुदढ उदाहरण लकर विस्तारक साथ उसका वर्णन करते हैं ।।१३८॥ जिस प्रकार ग्वालिया आलस्यरहित होकर बड़े प्रयत्नसे अपनी गायोंकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको बड़े प्रयत्लस अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिये ॥१३९।। आग इसीका खुलासा करते हैं-यदि अपनी गायोंके समुहमें कोई गाय अपराध करती है तो वह ग्वालिया उसे अंगछेदन आदि कठोर दण्ड नहीं देता हुआ अनुरूप दण्डसे नियन्त्रण कर जिस प्रकार उसकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको भी अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिये ॥१४०-१४१॥ यह निश्चय है कि कठोर दण्ड देनेवाला राजा अपनी प्रजाको अधिक उद्विग्न कर देता है इसलिये प्रजा ऐसे राजाको छोड़ देती है तथा मंत्री आदि प्रकृतिजन भी ऐसे राजासे विरक्त हो जाते हैं ।।१४२।। जिस प्रकार ग्वालिया अपने गायोंके समहमें मुख्य पशुओं के समूहकी रक्षा करता हुआ पुष्ट अर्थात् सम्पत्तिशाली होता है क्योंकि गायोंकी रक्षा करके ही यह मनष्य विशाल गोधनका स्वामी हो सकता है, उसी प्रकार राजा भी अपने मुख्य वर्गकी मुख्य रूपसे रक्षा करता हुआ अपने और दूसरेके राज्यमें पुष्टिको प्राप्त होता है ।।१४३-१४४॥ जो श्रेष्ठ राजा अपने अपने मुख्य बलसे पुष्ट होता हे वह इस समुद्रान्त पृथिवीको बिना किसी यत्नके जीत लेता है ॥१४५॥ यदि कदाचित प्रमादस किसी गायका पैर टट जाय तो ग्वालिया उसे बांधना आदि उपायोंसे उस पेरको जोड़ता है, गायको बांधकर रखता है-बंधी हुई गायके लिये घास देता है और उसके पैर को मजबूत करने में प्रयत्न करता है तथा इसी प्रकार उन पशुओंपर अन्य उपद्रवोंके आनेपर भी वह शीघ्र ही उनका प्रतिकार करता है ॥१४६-१४७॥ जिस प्रकार अपने आश्रित गायों की रक्षा करने के लिये ग्वालिया प्रयत्न करता है उसी प्रकार राजाको भी चाहिये कि वह अपनी सेनामें घायल हुए योद्धाको उत्तम वैद्यसे औषधिरूप संपदा दिलाकर उसकी विपत्तिका प्रतिकार करे अर्थात् उसकी रक्षा करे ॥१४८।। और वह वीर जब अच्छा हो जावे तो राजाको उसकी उत्तम आजीविका कर देनेका विचार करना चाहिये क्योंकि ऐसा करनेसे भृत्यवर्ग सदा १ प्रपञ्चनम् ल०, म० । प्रपञ्चते अ०, स० । २ समद्धम् । ३ स्वीकृत्य । ४ अनालस्यः । ५ दोषी । ६ संयोजनमकुर्वन् । ७ नियमयन् । ८ उद्वेगं कुर्यात् । ६ त्यक्तानुरागप्रजापरिवारवन्तम् । १० गाः पोषयन्तीति गोपोषस्तम् । ११ बहुगोत्रजः । १२ बलम् । १३ एकस्मिन् स्थाने। १४ गोधनम् । १५ प्रतिकारं कुर्यात् । १६ वैद्यश्रेष्ठात् । १७ अधिकम् । १८ जीवितादिवम् । १६ आनन्दम् । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ महापुराणम् यथैव खलु गोपालो सन्ध्यस्थिचलने गवाम् । तदस्थि स्थापयन् प्राग्वत् कुर्याद द्योग्यां प्रतिक्रियाम् ॥१५०॥ तया न पोऽपि सङग्रामे भत्यमुख्य व्यसौ' सति । तत्पदे पुत्रमेवास्य भ्रातरं वा नियोजयेत् ॥१५१॥ सति चैवं कृतज्ञोऽयं नृप इत्यनुरक्तताम् । उपैति भृत्यवर्गोऽस्मिन् भवेच्च ध वयोधनः ॥१५२॥ यया खल्वपि गोपालः कृमिदष्टे गवाङगण । तद्योग्यमौषधं दत्वा करोत्यस्य प्रतिक्रियाम् ॥१५३॥ तथैव पृथिवीपालो दुर्विध स्वानुजीविनम् । विमनस्कं विदित्वनं सौचित्त्ये सन्नियोजयेत् ॥१५४॥ विरक्तो ह्यानुजीवी स्याद् अलब्धोचितजीवन प्रभोविमान नाच्चैवं तस्माननम् विरुक्षयेत् ॥१५॥ एतद्दौर्गत्यं व्रणस्थानकृमिसम्भवसन्निभम । विदित्वा तत्प्रतीकारम् आशु कुर्याद्विशाम्पतिः ॥१५६॥ बहुनापि न दत्तन सौचित्यमतुजीविनाम । उचितात स्वामिसन्मानाद् यथेषां जायते धृतिः ॥१५७॥ गोपालको यथा यूथे स्व महोतं भरक्षमम् । ज्ञात्वास्य नस्यकर्मादि विदध्याद् गात्रपुष्टये ॥१५॥ तथा नृपोऽपि सैन्य स्वे योद्धारं भटसत्तमम् । ज्ञात्वनं जीवनं प्राज्यं दत्वा सम्मानयत् कृती ॥१५॥ कृतापदानं तद्योग्यः सत्कारैः प्रीणयन प्रभुः। न मुच्यतेऽनुरक्तैः स्वैः अनुजीविभिरन्वहम् ॥१६०॥ यथा च गोपो गोयूथं कण्टकोपलवजिते । शीतातपादिबाधाभिः उज्झिते चारयन्" वने ॥१६१॥ आनन्दको प्राप्त होते रहते हैं-संतुष्ट बने रहते हैं ॥१४९॥ जिस प्रकार ग्वालिया संधिस्थान से गायोंकी हड्डीके विचलित हो जानेपर उस हड्डीको वहीं पैठालता हुआ उसका योग्य प्रतिकार करता है उसी प्रकार राजाको भी युद्धमें किसी मुख्य भृत्यके मर जानेपर उसके पदपर उसके पूत्र अथवा भाईको नियक्त करना चाहिये ॥१५०-१५॥ ऐसा करनेसे भत्य लोग 'यह राजा बड़ा कृतज्ञ है' ऐसा मानकर उसपर अनुराग करने लगेंगे और अवसर पड़नेपर निरन्तर युद्ध करनेवाले बन जायेंगे ॥१५२॥ कदाचित् गायोंके समुहको कोई कीड़ा काट लेता है तो जिस प्रकार ग्वालिया योग्य औषधि देकर उसका प्रतिकार करता है उसी प्रकार राजाको भी चाहिये कि वह अपने सेवकको दरिद्र अथवा खेदखिन्न जानकर उसके चित्तको संतुष्ट करे ॥१५३-१५४।। क्योंकि जिस सेवकको उचित आजीविका प्राप्त नहीं है वह अपने स्वामी के इस प्रकारके अपमानसे विरक्त हो जायगा इसलिये राजाको चाहिये कि वह कभी अपने सेवकको विरक्त न करे। ॥१५५।। सेवककी दरिद्रताको घावके स्थानमें कीड़े उत्पन्न होनेके नकर राजाको शीघ्र ही उसका प्रतिकार करना चाहिये ॥१५६।। सेवकोंको अपने स्वामीसे उचित सन्मान पाकर जैसा संतोष होता है वैसा संतोष बहुत धन देनेपर भी नहीं होता है ॥१५७।। जिस प्रकार ग्वाला अपने पशुओंके झुण्डमें किसी बड़े बैलको अधिक भार धारण करने में समर्थ जानकर उसके शरीरकी पुष्टिके लिये नस्य कर्म आदि करता है अर्थात् उसकी नाकमें तेल डालता है और उसे खली आदि खिलाता है उसी प्रकार चतुर राजाको भी चाहिये कि वह अपनी सेनामें किसी योद्धाको अत्यन्त उत्तम जानकर उसे अच्छी आजीविका देकर सन्मानित करे ।।१५८-१५९।। जो राजा अपना पराक्रम प्रकट करनेवाले वीर पुरुषको उसके योग्य सत्कारोंसे संतुष्ट रखता है उसके भृत्य उसपर सदा अनुरक्त रहते हैं और कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ते हैं ॥१६०॥ जिस प्रकार ग्वाला अपने पशओंके समहको कांटे और पत्थरों से रहित तथा शीत और गरमी आदिकी बाधासे शून्य वनमें चराता हुआ बड़े प्रयत्नसे उसका १ विगतप्राणे । २ नपे । ३ योद्धा । युद्धकारीत्यर्थः । ४ दरिद्रम् । ५ निजभृत्यम् । ६ शोभनचित्तत्वे । ७विरक्तोऽस्यानुजीवी। ८ जीवित । ६ अवमाननात् । १० कर्कशं न कुर्यात् । स्नेहरहितमित्यर्थः । ११ विमनस्कत्वम् । १२ महान्तमनड्वाहम् । १३ कृतपराक्रमम् । १४ भक्षणं कारयन् । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण तस्याहामुकम् (नगणनव प्रजानां द्विचत्वारिंशत्तमं पर्व पोषयत्यतिवलेन तथा भूपोऽप्यविप्लये। देश स्वान गतं लोकं स्थापयित्वाऽभिरक्षतु॥१६२॥ राज्यादि'परिवर्तेषु जनोऽयं पीडयतेऽन्यथा । चौरैडमिरकरन्यैरपि प्रत्यन्तनायकैः॥१६३॥ "प्रसह्य च तयाभूतान वृत्तिच्छेदेन योजयेत् । कण्टकोद्धरणेनैव प्रजानां क्षेमधारणम् ॥१६४॥ यथैव गोपः संजातं वत्सं मात्रासहामुकम् (नगम)। दिनमेकमवस्थाप्य ततोऽन्येद्युईयाधीः ॥१६॥ विधाय चरण तस्य शनैर्बन्धनसनिधिम् । नाभिनाल पुनर्गर्भनाले नापास्य यत्नतः॥१६६॥ जन्तुसम्भवशङ्कायां प्रतीकारं विधाय च । क्षीरोपयोगदानाद्यैर्वर्द्धयेत् प्रतिवासरम् ॥१६७॥ भूपोऽप्येवमुपासन्नं वृत्तये स्वमुपासितुम् । यथाऽनुरूपः सम्मानः स्वीकुर्यादनुजीविनम् ॥१६॥ स्वीकृतस्य च तस्योद्धजीवनादिप्रचिन्तया । योगक्षेमं प्रयुजीत कृतक्लेशस्य सावरम् ॥१६॥ यथैव खलु गोपालः पशून् केतुं समुद्यतः । क्षीरावलोकनायेस्तान् परीक्ष्य गुणवत्तमान् ॥१७०॥ कोणाति शकुनादीनाम् अवधारणतत्परः । कुलपुत्रानपोऽप्येवं कोणीयात् सुपरीक्षितान् ॥१७१॥ कोतांश्च वृत्तिमूल्येन तान यथावसरं प्रभः। कृत्यषु विनियञ्जीत भूत्यैः साध्यं फलं हि तत् ॥१७२॥ "यद्वच्च प्रतिभूः कश्चिद् यो क्रय प्रतिगृह्यते । बलवान् प्रतिभूस्तद्वग्राह्यो भृत्योपसङग्रहे ॥१७३॥ "याममात्रावशिष्टायां रात्रावुत्थाय यत्लतः। “चारयित्वोचिते देशे गाः प्रभूततृणोदके ॥१७४॥ पोषण करता है उसी प्रकार राजाको भी अपने सेवक लोगोंको किसी उपद्रवहीन स्थानमें रखकर उनकी रक्षा करनी चाहिये ॥१६१-१६२।। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो राज्य आदिका परिवर्तन होनेपर चोर, डाक तथा समीपवर्ती अन्य राजा लोग उसके इन सेवकोंको पीड़ा देने लगेंगे ।।१६३।। राजाको चाहिये कि वह ऐसे चोर डाक आदिकी आजीविका जबरन नष्ट कर दे क्योंकि कांटोंको दूर कर देनेसे ही प्रजाका कल्याण हो सकता है ॥१६४।। जिस प्रकार ग्वाला हालके उत्पन्न हुए बच्चेको एक दिन तक माताके साथ रखता है, दूसरे दिन दयाबुद्धिसे मुक्त हो उसके पैर में धीरेसे रस्सी बांधकर खंटीसे बांधता है, उसकी जरायु तथा नाभिके नालको ड़े यत्नसे दूर करता है, कीड़े उत्पन्न होनेकी शंका होने पर उसका प्रतीकार करता है, और दूध पिलाना आदि उपायोंसे उसे प्रतिदिन बढाता है ।।१६५-१६७।। उसी प्रकार राजाको भी चाहिये कि वह आजीविकाके अर्थ अपनी सेवा करने के लिये आये हुए सेवकको उसके योग्य आदर सन्मानसे स्वीकृत करे और जिन्हें स्वीकृत कर लिया है तथा जो अपने लिये क्लेश सहन करते हैं ऐसे उन सेवकोंकी प्रशस्त आजीविका आदिका विचार कर उनके साथ योग और क्षेमका प्रयोग करना चाहिये अर्थात् जो वस्तु उनके पास नहीं है वह उन्हें देनी चाहिये और जो वस्तु उनके पास है उसकी रक्षा करनी चाहिये ॥१६८-१६९। जिस प्रकार शकुन आदि के निश्चय करनेमें तत्पर रहनेवाला ग्वाला जब पशुओंको खरीदने के लिये तैयार होता है तब वह दूध देखना आदि उपायोंसे परीक्षा कर उनमेंसे अत्यन्त गुणी पशुओंको खरीदता है उसी प्रकार राजाको भी परीक्षा किये हुए उच्चकुलीन पुत्रोंको खरीदना चाहिये ।।१७०-१७१।। और आजीविकाके मूल्यसे खरीदे हुए उन सेवकोंको समयानुसार योग्य कार्य में लगा देना चाहिये क्योंकि वह कार्यरूपी फल सेवकोंके द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है ॥१७२॥ जिस प्रकार पशुओंके खरीदने में किसीको जामिनदार बनाया जाता है उसी प्रकार सेवकोंका संग्रह करने में भी किसी बलवान् पुरुषको जामिनदार बनाना चाहिये ।।१७३।। जिस प्रकार ग्वाला रात्रिके १ मूलबलम् । २-रक्षयेत् ल०, म०। ३ परिवर्तेऽस्य ल०, म० । राज्यादि मुक्त्वा राज्यान्तरप्राप्तिषु। ४ अरक्षणप्रकारेण । ५ घाटीकारैः युद्धकारिभिर्वा । ६ म्लेच्छनायकैः । ७ हठात्कारेण । ८ वत्सस्य । ६ जरायुना। १० जीवनाय। ११ सेवां कर्तुम्। १२ क्रयणाय । १३ अतिशयेन गुणवतः । १४ कार्येषु। १५ यथैव ल०, म० । १६ धरकः । १७ प्रहर। १८ भक्षयित्वा । ४४ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् प्रातस्तरामथानीय वत्सपीतावशिष्टकम् । पयो दोग्धि यथा गोपो नवनीतादिलिप्सया ॥१७॥ तथा भूपोऽप्यतन्द्रालुभक्तप्रामेषु कारयेत् । कृषि कर्मान्तिकर्बोजप्रदानाद्यैरुपक्रमः ॥१७६॥ देशेऽपि कारयेत् कृत्स्ने कृषि सम्यक्कृषीबलः। धान्यानां सङ्ग्रहार्य च न्याय्यमंशं ततो हरेत् ॥१७७॥ सत्यवं पुष्टतन्त्रः स्याद् भाण्डागारदिसम्पदा । पुष्टो देशश्च तस्यैवं स्याद् धान्यराशितम्भवः ॥१७८।। स्वदेश वाक्षरम्लेच्छान् प्रजाबाधाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानाद्यः स्वसाकुर्यादुपक्रमः ॥१७॥ विक्रियां न भजन्त्येते प्रभुणा कृतसत्कियाः। प्रभोरलब्धसम्माना विक्रियन्ते हि तेऽन्वहम् ॥१८॥ ये केचिच्चाक्षरम्लेच्छाः स्वदेशे प्रचरिष्णवः। तेऽपि कर्षकसामान्यं कर्तव्याः करदा नृपः॥१८१॥ ताप्राहुरक्षारम्लेच्छा येऽमी वेदोपजीविनःमधर्माक्षरसम्पाठर्लोकव्यामोहकारिणः ॥१८२॥ यतोऽक्षरकृतं गर्वम् 'अविद्याबलतस्तके । वहन्त्यतोऽक्षरम्लेच्छाः पापसूत्रोपजीविनः ॥१८३॥ म्लेच्छाचारो हि हिंसायां रतिर्मासाशनेऽपि च । बलात्परस्वहरणं निद्भुतत्वमिति स्मृतम् ॥१८४॥ सोऽस्त्यमीषां च यद्वेदशास्त्रार्यमधमद्विजाः। तादृशंर बहमन्यन्ते जातिवादावलेपतः ॥१८॥ प्रजासामान्यतषां मता वा स्यान्निष्कृष्टता। ततो"न मान्यताऽस्त्येषां द्विजा मान्याः स्युराहताः॥१८६॥ प्रहरमात्र शेष रहनेपर उठकर जहां बहुतसा घास और पानी होता है ऐसे किसी योग्य स्थानमें गायोंको बड़े प्रयत्नसे चराता है तथा बड़े सबेरे ही वापिस लाकर बछड़ेके पीनेसे बाकी बचे हुए दूधको मक्खन आदि प्राप्त करनेकी इच्छासे दुह लेता है उसी प्रकार राजाको भी आलस्यरहित होकर अपने आधीन ग्रामोंमें बीज देना आदि साधनों द्वारा किसानोंसे खेती कराना चाहिये ॥१७४-१७६॥ राजाको चाहिये कि वह अपने समस्त देशमें किसानों द्वारा भली भांति खेती करावे और धान्यका संग्रह करने के लिये उनसे न्यायपूर्ण उचित अंश लेवे ।।१७७॥ ऐसा होनेसे उसके भांडार आदिमें बहुत सी सम्पत्ति इकट्ठी हो जावेगी और उससे उसका बल बढ़ जावेगा तथा संतुष्ट करनेवाले उन धान्योंसे उसका देश भी पुष्ट अथवा समृद्धिशाली हो जावेगा ।।१७८॥ अपने आश्रित स्थानोंमें प्रजाको दुःख देनेवाले जो अक्षरम्लेच्छ अर्थात् वेद से आजीविका करनेवाले हों उन्हें कुलशुद्धि प्रदान करना आदि उपायोंसे अपने आधीन करना चाहिये ॥१७९॥ अपने राजासे सत्कार पाकर वे अक्षरम्लेच्छ फिर उपद्रव नहीं करेंगे। यदि राजाओंसे उन्हें सन्मान प्राप्त नहीं होगा तो वे प्रतिदिन कुछ न कुछ उपद्रव करते ही रहेंगे ॥१८०॥ और जो कितने ही अक्षरम्लेच्छ अपने ही देशमें संचार करते हों उनसे भी राजाओं न्य किसानोंकी तरह कर अवश्य लेना चाहिये ॥१८॥ जो वेद पढकर अपनी आजीविका करते हैं और अधर्म करनेवाले अक्षरोंके पाठसे लोगोंको ठगा करते हैं उन्हें अक्षरम्लेच्छ कहते हैं ॥१८२॥ चूंकि वे अज्ञानके बलसे अक्षरों द्वारा उत्पन्न हुए अहंकारको धारण करते हैं इसलिये पापसूत्रोंसे आजीविका करनेवाले वे अक्षरम्लेच्छ कहलाते हैं ॥१८३॥ हिंसा और मांस खाने में प्रेम करना, बलपूर्वक दूसरेका धन हरण करना और धूर्तता करना (स्वेच्छाचार करना) यही म्लेच्छोंका आचार माना गया है ॥१८४॥ चूंकि यह सब आचरण इनमें हैं और जातिके अभिमानसे ये नीच द्विज हिंसा आदिको प्ररूपित करनेवाले वेद शास्त्रके अर्थको बहुत कुछ मानते हैं इसलिये इन्हें सामान्य प्रजाके समान ही मानना चाहिये अथवा उससे भी कुछ निकृष्ट मानना चाहिये । इन सब कारणोंसे इनकी कुछ भी मान्यता नहीं रह जाती ...१ आरम्भग्रामेष्वित्यर्थः। २ कृषीबलभृत्यः । ३ कृषीबलेभ्यः । ४ स्वीकुर्यात् । ५ तृप्तिकरैः । ६ प्रदेश अ०, स०, ल०म० । ७ कृषीबलसामान्यं यथा भवति तथा। ८ अज्ञानबलात् । ६ कुत्सितास्ते । १० यत् कारणात्। ११ हिंसनादिप्रकारम् । १२ गतः। १३ प्रजासामान्यत्वमेव । १४ प्रजाभ्यः । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तसं पर्व ३४७ वयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकसम्मताः। धान्यभागमतो राजे न बन इति जेन्मतम् ॥१७॥ वैशिष्टपं किडकृतं शेषवर्णभ्यो भवतामिह । न जातिमात्रा वैशिष्ट्यं जातिभेदाप्रतीतितः॥१६॥ गुणतोऽपि न वैशिष्टयम् अस्ति वो नामधारकाः । वृतिनो ब्राह्मणा जैना ये त एव गुणाधिकाः ॥१८॥ निवंता निर्नमस्कारा निघुणाः पशुधातिनः। म्लेच्छाचारपरा यूयं न स्थाने' घामिका.द्विजाः॥१०॥ तस्मादन्ते कुरु म्लेच्छा इव तेऽमी महीभुजाम् । प्रजासामान्यधान्यांशदानाद्यरविशेषिताः ॥१६१॥ . किमत्र बहुनोक्तेन जैनान्मुक्त्वा द्विजोत्तमान् । नान्ये मान्या नरेन्द्राणां प्रजासामान्यजीविकाः ॥१९२॥ अन्यच्च गोषनं गोपो व्याघचोरायपक्रमात् । यथा रक्षत्यतन्द्रालुः भूपोऽप्येवं निजाः प्रजाः॥१९॥ यथा च गोकुलं गोमिन्यायाते संदिवृक्षया। सोपचारमुपेत्येनं तोषयेद् धनसम्पदा ॥१६४॥ भूपोऽप्येवं बली कश्चित् स्वराष्ट्रं यद्यभिवेत् । तवा वृद्धः समालोच्य सन्दध्यात् पणबन्धतः ॥१९॥ जनक्षयाय सङग्रामो बहपायो दुरुत्तरः। तस्मादुपप्रदानाद्यः सन्धयोऽरिबलाधिकः ॥१६६॥ इति गोपालदृष्टान्तम् ऊरीकृत्य नरेश्वरः । प्रजानां पालने यत्नं विदध्यानयवर्त्मना ॥१६॥ है, जो द्विज अरहन्त भगवान्के भक्त हैं वही मान्य गिने जाते हैं ॥१८५-१८६॥ "हम ही लोगोंको संसार-सागरसे तारनेवाले हैं, हम ही देव-ब्राह्मण हैं और हम ही लोकसम्मत हैं अर्थात् सभी लोग हम ही को मानते हैं इसलिये हम राजाको धान्यका उचित अंश नहीं देते" इस प्रकार यदि वे द्विज कहें तो उनसे पूछना चाहिये कि आप लोगोंमें अन्य वर्णवालोंसे विशेषता क्यों है ? कदाचित यह कहो कि हम जातिकी अपेक्षा विशिष्ट हैं तो आपका यह कहन नहीं है क्योंकि जातिकी अपेक्षा विशिष्टता अनुभवमें नहीं आती है, कदाचित् यह कहो कि गुणकी अपेक्षा विशिष्टता है सो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आप लोग केवल नामके धारण करनेवाले हो, जो व्रतोंको धारण करनेवाले जैन ब्राह्मण हैं वे ही गुणोंसे अधिक हैं। आप लोग व्रतरहित, नमस्कार करनेके अयोग्य, दयाहीन, पशुओंका घात करनेवाले और म्लेच्छोंके आचरण करने में तत्पर हो इसलिये आप लोग धर्मात्मा द्विज नहीं हो सकते । इन सब कारणों से राजाओंको चाहिये कि वे इन द्विजोंको म्लेच्छोंके समान समझे और उनसे सामान्य प्रजाकी तरह ही धान्यका योग्य अंश ग्रहण करें। अथवा इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ है ? जैनधर्मको धारण करनेवाले उत्तम द्विजोंको छोड़कर प्रजाके समान आजीविका करनेवाले अन्य द्विज राजाओंके पूज्य नहीं हैं ॥१८७-१९२॥ जिस प्रकार ग्वाला आलस्यरहित होकर अपने गोधनकी व्याघ्र चोर आदि उपद्रवोंसे रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको भी अपनी प्रजाकी रक्षा करनी चाहिये ॥१९३॥ जिस प्रकार ग्वाला उन पशुओंके देखने की इच्छासे राजाके आनेपर भेंट लेकर उसके समीप जाता है. और धन सम्पदाके द्वारा उसे संतुष्ट करता है उसी प्रकार यदि कोई बलवान् राजा अपने राज्यके सन्मुख आवे तो वृद्ध लोगोंके साथ विचारकर उसे कुछ देकर उसके साथ सन्धि कर लेना चाहिये। चूंकि युद्ध बहुतसे लोगोंके विनाशका कारण है, उसमें बहुत सी.हानियां होती हैं और उसका भविष्य भी बुरा होता है अतः कुछ देकर बलवान् शत्रुके साथ सन्धि कर लेना ही ठीक है ॥१९४-१९६।। इस प्रकार राजाको ग्वालाका दृष्टान्त स्वीकार कर नीति १ न भवथ । २ -द्युपद्रवात् ल०, म०, १०। ३ गोमती । गोमान् गोमीत्यभिधानात् । गोमत्या- म०, ल०, प० । ४ क्षीरतादिविक्रयाज्जातधनसमृद्ध्या । ५ अभिगच्छेत् । ६ सन्धानं कुर्यात् । ७ मिष्कप्रदानादित्यर्थः । ८ उचितवस्तुवाहनप्रदानाद्यैः । ६ सन्धि कर्तु योग्यः। १० कुर्यात् । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ महापुराणम् प्रजानपालनं प्रोक्तं पार्थिवस्य जितात्मनः। समञ्जसस्त्वमधुना वक्ष्यामस्तद्गुणान्तरम् ॥१६॥ राजा चित्तं समाधाय यत्कर्याद दुष्टनिग्रहम् । शिष्टानुपालनं चैव तत्सामञ्जस्यमुच्यते ॥१६॥ द्विषन्तमथवा पुत्रं निगुन्निग्रहोचितम् । अपक्षपतितो दुष्टम् इष्टं चेच्छन्ननागसम् ॥२०॥ मध्यस्थवृत्तिरेवं यः समदर्शी समञ्जसः। समञ्जसत्वं तडावः' प्रजास्वविषमेक्षिता ॥२०१॥ गुणेनतेन शिष्टानां पालनं न्यायजीविनाम् । दुष्टानां निग्रहं चैव नुपः कुर्यात् कृतागसाम् ॥२०२॥ दुष्टा हिंसादिदोषेषु निरताः पापकारिणः। शिष्टास्तु शान्तिशौचाविगुणधर्मपरा नराः ॥२०३॥ इत्थं मनुः सकलचक्रभूदादिराजः तान् क्षत्रियान् नियमयन् पथि सुप्रणीते। उच्चावचैर्गुरुमतरुचितैर्वचोभिः शास्ति स्म वृत्तमखिलं पृथिवीश्वराणाम् ॥२०४॥ इत्युच्चभरतेशिनानुकथितं सर्वोयमुर्वीश्वराः५ मात्रं धर्ममनुप्रपद्य मुदिताः स्वां वृत्तिमन्वयः । योगक्षेमपथेषु तेषु सहिताः सर्वे च वर्णाश्रमाः स्वे स्वे वर्त्मनि सुस्थिता धृतिमधुर्धर्मोत्सवः प्रत्यहम् ॥२०॥ मार्गसे प्रजाका पालन करने में प्रयत्न करना चाहिये ॥१९७।। इस प्रकार इन्द्रियोंको जीतनेवाले राजाका प्रजापालन नामका गुण कहा । अब समंजसत्व नामका अन्य गुण कहते हैं ॥१९८॥ राजा अपने चित्तका समाधान कर जो दुष्ट पुरुषोंका निग्रह और शिष्ट पुरुषोंका पालन करता है वही उसका समंजसत्व गुण कहलाता है ॥१९९।। जो राजा निग्रह करने योग्य शत्रु अथवा पुत्र दोनोंका निग्रह करता है, जिसे किसीका पक्षपात नहीं है, जो दुष्ट और मित्र, सभी को निरपराध बनानेकी इच्छा करता है और इस प्रकार मध्यस्थ रहकर जो सबपर समान दृष्टि रखता है वह समंजस कहलाता है तथा प्रजाओंको विषम दृष्टिसे नहीं देखना अर्थात् सबपर समान दृष्टि रखना ही राजाका समंजसत्व गुण है ॥२००-२०१॥ इस समंजसत्व गुणसे ही राजाको न्यायपूर्वक आजीविका करनेवाले शिष्ट पुरुषोंका पालन और अपराध करनेवाले दुष्ट पुरुषोंका निग्रह करना चाहिये ॥२०२॥ जो पुरुष हिंसा आदि दोषोंमें तत्पर रहकर पाप करते हैं वे दुष्ट कहलाते हैं और जो क्षमा, संतोष आदि गुणोंके द्वारा धर्म धारण करनमें तत्पर रहते हैं वे शिष्ट कहलाते हैं ॥२०३॥ इस प्रकार सोलहवें मनु तथा समस्त चक्रवतियोंमें प्रथम राजा महाराज भरतने उन क्षत्रियोंको भगवत्प्रणीत मार्गमें नियुक्त करते हुए, अपने पिता श्री वृषभदेवको इष्ट ऊंचे नीचे योग्य वचनोंसे राजाओंके समस्त आचारका उपदेश दिया ॥२०४॥ इस प्रकार भरतेश्वरने जिसका अच्छी तरह प्रतिपादन किया है ऐसे सबका हित करनेवाले, क्षत्रियोंके उत्कृष्ट धर्मको स्वीकार कर सब राजा लोग प्रसन्न हो अपने अपने आचरणोंका पालन करने लगे और उन राजाओंके योग (नवीन वस्तुकी प्राप्ति) तथा क्षेम (प्राप्त हुई वस्तुको रक्षा) में प्रवृत्त रहनेपर अपना हित चाहनेवाले सब वर्णाश्रमोंके लोग अपने अपने । १ पक्षपातरहितः । २ अपराधरहितम्। ३ समञ्जसत्वसभावः अ०, १०, स०, ल०, म० । १४ सुष्ठ प्रोक्ते । ५ सर्वेभ्यो हितम्। ६ अनुजग्मुः। 'ऋ गतौ लुङि । ह्वादित्वात् शपः श्लुपि द्विर्भावे, , अर्जुसिति उत्तरऋकारस्य अकारादेशे, पूर्वऋकारस्य इत्वे, पुनर्यादेशेऽपि च कृते, 'एयरुः' इति सिद्धिः । ७ ऊर्वीश्वरेषु । ८ हितेन सहिताः । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशत्तम पर्व जातिक्षत्रियवत्तजिततरं रत्नत्रयाविष्कृतं तीर्थक्षत्रियवृत्तमप्यनुजगौ यच्चक्रिणामप्रणीः । तत्सर्व मगधाधिपाय भगवान् वाचस्पतिगौतमो रव्याचख्यावखिलार्थतत्त्वविषयां जैनी श्रुति ख्यापयन् ॥२०६॥ वन्दारोर्भरताधिपस्य जगतां भर्तुः क्रमौ वेधसः तस्यानुस्मरतो गुणान् प्रणमतस्तं देवमाद्यं जिनम । तस्यैवोपचिति' सुरासुरगुरोर्भक्त्या मुहुस्तन्वतः कालोऽनल्पतरः सुखाद् व्यतिगतो नित्योत्सवैः सम्भूतः॥२०७॥ जैनीमिज्यां वितन्वन्नियतमनुदिनं श्रीणयन्नथिसार्थ शश्वद्विश्वम्भरशरवनितलसन्मौलिभिः सेव्यमानः। मां कृत्स्नामापयोधरपि च हिमवतः पालयन्निस्सपत्नां रम्यः स्वेच्छाविनोदैनिरविश दधिराड भोगसारं दशाडगम॥२०८॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे भरतराजवर्णाश्रमस्थितिप्रतिपादनं नाम द्विचत्वारिंशत्तम पर्व ॥४२॥* मार्गमें स्थिर रहकर प्रतिदिन धर्मोत्सव करते हुए संतोष धारण करने लगे ॥२०५।। चक्रवतियोंमें अग्रेसर महाराज भरतने जो अत्यन्त उत्कृष्ट जातिक्षत्रियोंका चरित्र तथा रत्नत्रय से प्रकट हुआ तीर्थक्षत्रियोंका चरित्र कहा था वह सब, समस्त पदार्थों के स्वरूपको विषय करनेवाले जैन शास्त्रोंको प्रकट करते हुए वाचस्पति (श्रुतकेवली) भगवान् गौतम गणधरने मगध देशके अधिपति श्रेणिकके लिये निरूपण किया ॥२०६।। तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् वृषभदेवके चरणोंकी वन्दना करनेवाले, उन्हीं परब्रह्मके गुणोंका स्मरण करनेवाले, उन्हीं प्रथम जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करनेवाले और सुर तथा असुरोंके गुरु उन्हीं भगवान् वृषभदेवकी भक्तिपूर्वक बार बार पूजा करनेवाले भरतेश्वरका निरन्तर होनेवाले उत्सवोंसे भरा हुआ भारी समय सुखसे व्यतीत हो गया ॥२०७॥ जो नियमित रूपसे प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है, जो प्रतिदिन याचकोंके समूहको संतुष्ट करता है, पृथिवीपर झुके हुए मुकुटों से सुशोभित होनेवाले राजा लोग जिसकी निरन्तर सेवा करते हैं और जो हिमवान् पर्वतसे लेकर समुद्रपर्यन्तकी शत्रुरहित समस्त पृथिवीका पालन करता है ऐसा वह सम्राट् भरत अपनी इच्छानुसार क्रीड़ाओंके द्वारा दश प्रकारके उत्तम भोगोंका उपभोग करता था ॥२०८॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें भरतराजकी वर्णाश्रमकी रीतिका प्रतिपादन करनेवाला बयालीसवां पर्व समाप्त हुआ ॥४२॥ १उवाच । २ प्रकटीकुर्वन् । ३ पूजाम् । ४ व्यतिक्रान्तः । ५ सम्पोषितः । ६ समुद्रादारभ्य हिमव. त्पर्यन्तम् । ७ अन्वभूत् । ८ दिव्यपुररत्ननिधिसेनाभाजनशयनाशनवाहननाट्यादीनी दशाङ्गानि यस्य स तम् । *ल० म० इ०प० पुस्तकेषु निम्नांकित: पाठोऽधिको दृश्यते । त० ब० अ० स० पुस्तकेष्वेष पाठो न दृश्यते। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० महापुराणम् CIT वृषभाय नमोऽशेषस्थितिप्रभवहेतवे । त्रिकालगोचरानन्तप्रमेयाक्रान्तमूर्तये ॥ १ ॥ नमः सकलकल्याणपथनिर्माणहेतवे । आदिदेवाय संसारसागरोत्तारसेतवे ॥२॥ जयन्ति जितमृत्यवो विपुलवीर्यभाजो जिना जगत्प्रमदहेतवो विपदमन्दकन्दच्छिदः ।। सुरासुरशिरस्फुरितरागरत्नावलीविलम्बिकिरणोत्करारुरिणतचारुपादद्वयाः ||३|| कृतिर्महाकवेर्भगवतः श्रीजिनसेनाचार्यस्येति । धर्मोत्र मुक्तिपदमत्र कवित्वमत्र तीर्थेशिनश्चरितमत्र महापुराणे । यद्वा कवीन्द्रजिनसेनमुखारविन्दनिर्यद्वचांसि न हरन्ति मनांसि केषाम् ॥४॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते महापुराणे आद्यं खण्डं समाप्तिमगमत् ॥ जो समस्त मर्यादाकी उत्पत्तिके कारण हैं और जिनकी केवलज्ञानरूपी मूर्ति त्रिकाल विषयक अनन्त पदार्थोंसे व्याप्त है उन वृषभदेवके लिये नमस्कार हो ॥ १ ॥ जो सब कल्याणों मार्गकी रचनामें कारण हैं और जो संसाररूपी समुद्रसे पार करनेके लिये पुलके समान हैं ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेवको नमस्कार हो || २ || जिन्होंने मृत्युको जीत लिया है, जो अनन्त बलको धारण करनेवाले हैं। जो जगत् के आनन्दके कारण हैं, जो विपत्तियोंकी बहुत भारी जड़ को काटनेवाले हैं, और सुर तथा असुरोंके मस्तकपर चमकते हुए पद्मरागमणियों की पंक्ति से निकलती हुई किरणोंके समूहसे जिनके दोनों सुन्दर चरणकमल कुछ कुछ लाल हो रहे हैं ऐसे जिनेन्द्रदेव सदा जयवन्त हों ॥३॥ ( इस प्रकार महाकवि भगवान् जिनसेनाचार्यकी कृति समाप्त हुई ) इस महापुराण में धर्मका निरूपण है, मोक्ष पद अथवा मोक्षमार्गका कथन है, उत्तम कविता है और तीर्थ कर भगवान्‌का चरित है अथवा इस प्रकार समझना चाहिये कि कवियों में श्रेष्ठ श्री जिनसेनके मुखकमलसे निकले हुए वचन किसके मनको हरण नहीं करते हैं ? ॥४॥ ( इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत महापुराणका प्रथम खण्ड समाप्त हुआ ) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् [उत्तरखण्डम्] त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व श्रियं तनोतु स श्रीमान् वृषभो वृषभध्वजः। यस्यैकस्य गतेर्मुक्तेमार्गश्चित्रं महानभूत् ॥१॥ विक्रम कर्मचक्रस्य यशकाभ्यचितक्रमः। "प्राक्रम्य धर्मचक्रण चके त्रैलोक्यचक्रिताम् ॥२॥ योऽस्मिंश्चतुर्थकालादौ दिनादौ वा दिवाकरः । जगदुद्योतयामास प्रोद्गच्छद्वाग्गभस्तिभिः॥३॥ नष्टमष्टादशाम्भोधिकोटीकोटोष कालयोः । निर्वाणमार्ग निदिश्य येन सिद्धाश्च द्धिताः ॥४॥ तोर्यकृत्सु स्वतः प्राग्यो नामादानपराभवः । यमस्मिनस्पृशन्नासौ स्वसूनुमिव चक्रिषु ॥५॥ येन प्रकाशिते मुक्तेर्गिs"स्मिन्नपरेषु तत् । प्रकाशित प्रकाशोक्तवैययं तीर्थकृत्स्वभूत् ॥६॥ अथानन्तर, जिनकी ध्वजामें वृषभका चिह्न है और सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि जिन एकके जानेसे ही बहुत बड़ा मोक्षका मार्ग बन गया ऐसे अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मीको धारण करनेवाले श्री वृषभदेव सबका कल्याण करें ॥१॥ जिनके चरणकमलकी इन्द्र स्वयं पूजा करता है और जिन्होंने धर्मचक्रके द्वारा कर्मसमूहके पराक्रमपर आक्रमणकर तीनों लोकोंका चक्रवर्तीपना प्राप्त किया है ॥२॥ दिनके प्रारम्भमें सूर्यकी तरह इस चतुर्थकालके प्रारम्भमें उदय होकर जिन्होंने फैलती हुई अपनी वाणीरूपी किरणोंसे समस्त जगत्को प्रकाशित किया है अर्थात् दिव्य ध्वनिके द्वारा समस्त तत्त्वोंका उपदेश दिया है ॥३॥ उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी काल के अठारह कोड़ी सागरतक जो मोक्षका मार्ग नष्ट हो रहा था उसका निर्देशकर जिन्होंने सिद्धों की संख्या बढ़ाई है ॥४॥ जिस प्रकार चक्रवतियोंमें अपने पुत्र भरत चक्रवर्तीको उसके पहले किसी अन्य चक्रवर्तीका नाम लेनेसे उत्पन्न हुआ पराभव नहीं छू सका था उसी प्रकार तीर्थङ्करों में अपने पहले किसी अन्य तीर्थङ्करका नाम लेनेसे उत्पन्न हुआ पराभव जिन्हें छू भी नहीं सका था। भावार्थ-जिस प्रकार भरत इस युगके समस्त चक्रवर्तियोंमें पहले चक्रवर्ती थे उसी प्रकार जो इस युगके समस्त तीथङ्करोंमें पहले तीर्थ कर थे ॥५॥ जिनके द्वारा इस मोक्षमार्गके प्रकाशित किये जानेपर अन्य तीर्थ करोंमें प्रकाशित हुए मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेके कारण उपदेशकी व्यर्थता हुई थी। भावार्थ-इस समय जो मोक्षका मार्ग चल रहा है उसका उपदेश सबसे पहले भगवान् वृषभदेवने ही दिया था उनके पीछे होनेवाले अन्य तीर्थ करोंने भी उसी मार्गका उपदेश दिया है इसलिये उनका उपदेश पुनरुक्त होनेके कारण व्यर्थ सा जान पड़ता १ गमनात् । २ मुक्तिमार्ग-प०, ल०, म० । ३ कर्मराजसैन्यस्य । ४ जित्वा । ५ चतुर्थकालस्यादौ। ६ इव । ७ उत्सर्पिण्यवसर्पियोः। ८ उपदेशं कृत्वा। ६ अजितादिषु । १० आत्मनः पुरुजिनात् । ११ पूर्वस्मिन् काले । १२ सांमदानपराभवः इति पाठस्य ल० पुस्तके संकेतः । नामदानपराभवः इति पाठस्य 'द०' पुस्तके संकेतः । अदानपराभव:-आहारादिदानाभाव इति पराभवः । नामदानपराभव इति पाठे कीर्तिदानयोरभाव इति पराभवः । १३ चतुर्थकालस्यादौ। १४ वृषभेण । १५ चतुर्थकालादौ । १६ मोक्षमार्गप्रकाशनम् । १७ प्रकाशितस्य प्रकाशने प्रोक्तव्यर्थत्वम् । * भगवान् वृषभदेव तृतीय कालके अन्तमें उत्पन्न हुए और तृतीय कालमें ही मोक्ष पधारे हैं इसलिए आचार्य गुणभद्रने चतुर्थ कालके आदिमें होना किस दृष्टिसे लिखा है यह विचारणीय है। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ महापुराणम् युगभारं' वहन्नेकश्चिरं धर्मरथं पृथुम् । व्रतशीलगुणापूर्ण चित्रं वर्तयति स्म यः ॥७॥ -तमेकमक्षरं ध्यात्वा व्यक्तमेकमिवाक्षरम् । वक्ष्ये समोठ्य लक्ष्याणि' तत्पुराणस्य चूलिकाम् ॥८॥ स्वोक्ते प्रयुक्ताः सर्वेनो रसा गुरुभिरेव ते । 'स्नेहादिह तदुत्सृष्टान्र भक्त्या तानुपयुज्महे ॥६॥ रागादीन् दूरतस्त्यक्त्वा शृङगारादिरसोक्तिभिः । पुराणकारकाः शुद्धबोधाः शुद्धा मुमुक्षवः ॥१०॥ निमितोऽस्य पुराणस्य सर्वसारो महात्मभिः। तच्छेषे यतमानानां प्रासादस्येव नः श्रमः॥११॥ पुराणे प्रौढशब्दार्थ सत्पत्रफलशालिनि । वचांसि पल्लवानीव कर्णे कुर्वन्तु मे बुधाः ॥१२॥ अचं रुभिरेवास्य पूर्व निष्पादितं परैः। परं निष्पाद्यमानं सच्छन्दोवन्नातिसुन्दरम् ॥१३॥ इक्षोरिवास्य पूर्वार्द्ध मेवाभावि० रसावहम् । यथा तथास्तु निष्पत्तिरिति प्रारभ्यते मया ॥१४॥ अनन्विष्य मयि प्रौढिं धर्मोऽयमिति गृह्यताम् । चाटुके स्वादुमिच्छन्ति न भोक्तारस्तु भोजनम् ॥१५॥ है ॥६॥ और आश्चर्य है कि जिन्होंने अकेले ही बहुत कालतक इस अवसर्पिणी युगके भारको (पक्षमें जुवारोके बोझको) धारण करते हुए व्रतशील आदि गुणोंसे भरे हुए बड़े भारी धर्मरथको चलाया था ॥७॥ ऐसे उन अद्वितीय अविनाशी भगवान् वृषभदेवको एक प्रसिद्ध ओम् अक्षरके समान ध्यान कर तथा पूर्वशास्त्रोंका विचार कर इस महापुराणकी चूलिका कहता हूं ॥८॥ हमारे गुरु जिनसेनाचार्य ने हमारे स्नेहसे अपने द्वारा कहे हुए पुराणमें सब रस कहे हैं इसलिये उनकी भक्तिसे छोड़े गये रसोंका ही हम आगे इस ग्रन्थमें उपयोग करेंगे ॥९॥ राग आदिको दूरसे ही छोड़कर शृङ्गार आदि रसोंका निरूपण कर पुराणोंकी रचना करनेवाले शुद्ध ज्ञानी, पवित्र और मोक्षकी इच्छा करनेवाले होते हैं ॥१०॥ इस पुराणका समस्त सार तो महात्मा जिनसेनाचार्य ने पूर्ण ही कर दिया है अब उसके बाकी बचे हुए अंशमें प्रयत्न करनेवाले हम लोगोंका परिश्रम ऐसा समझना चाहिये जैसा कि किसी मकानके किसी बचे हुए भागको पूर्ण करने के लिये थोड़ा सा परिश्रम करना पड़ा हो ॥११॥ यह पुराणरूपी वृक्ष शब्द और अर्थसे प्रौढ़ है तथा उत्तम उत्तम पत्ते और फलोंसे सुशोभित हो रहा है इसमें मेरे वचन नवीन पत्तोंके समान हैं इसलिये विद्वान् लोग उन्हें अवश्य ही अपने कर्णोपर धारण करें। भावार्थ-जिस प्रकार वृक्षके नये पत्तोंको लोग अपने कानोंपर धारण करते हैं उसी प्रकार विद्वान् लोग हमारे इन वचनोंको भी अपने कानोंमें धारण करें अर्थात् स्नेहसे श्रवण करें ॥१२॥ इस पुराणका पूर्व भाग गुरु अर्थात् जिनसेनाचार्य अथवा दीर्घ वर्णोसे बना हुआ है और उत्तर भाग पर अर्थात् गुरुसे भिन्न शिष्य (गुणभद्र) अथवा लघु वर्णो के द्वारा बनाया जाता है इसलिये क्या वह छन्दके समान सन्दर नहीं होगा? अर्थात अवश्य होगा। भावार्थ-जिस प्रकार गुरु और लघु वर्णो से बना हुआ छन्द अत्यन्त सुन्दर होता है उसी प्रकार गुरु और शिष्यके द्वारा बना हुआ यह पुराण भी अत्यन्त सुन्दर होगा ॥१३।। 'जिस प्रकार ईख का पूर्वार्ध भाग ही रसीला होता है उसी प्रकार इस पुराणका भी पूर्वार्ध भाग ही रसीला हो' यह विचार कर मैं इसके उत्तरभागकी रचना प्रारम्भ करता हूं ॥१४॥ मुझमें प्रौढता (योग्यता) की खोज न कर इसे केवल धर्म समझकर ही ग्रहण करना चाहिये क्योंकि भोजन करनेवाले प्रिय वचन १ चतुर्थकालधुरम् । दण्डभेदञ्च । २ अविनश्वरम् । ३ ओङकारमिव । ४ पूर्वोक्तशास्त्राणि । ५ पुरुनाथपुराणस्य । ६ अग्रम् । ७ आत्मना प्रणीते पुराणे। ८ अस्माकम् । ६ मयि प्रेम्णः । १० उत्तरपुराणे। ११ तज्जिनसेनाचार्येणावशेषितान् (प्रणीतानेव)। १२ रसान् । १३ महात्मकः ब०। १४ निर्मितप्रासादावशेषे यतमानानामिव । १५ जिनसेनाचार्यैः । छन्दःपक्षे गुर्वक्षरः । १६ पुराणस्य । १७ अस्मदादिभिः । पक्षे लघ्वक्षरः अल्पाक्षरैः। १८ अपरार्द्धम् । १६ उक्तात्युक्तादिछन्दोभेदवत् । २० निश्चितम् । २१ निष्ठा । २२ अविमृग्य। २३ प्रियवचने । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व श्रथवाऽयं भवेदस्य विरसं नेति निश्चयः । धर्मानं ननु केनापि नादशि विरसं क्वचित् ॥ १६ ॥ गुरूणामेव माहात्म्यं यद्यपि स्वादु मद्वचः । तरुणां हि प्रभावेण यत्फलं स्वादु जायते ॥ १७॥ निर्यान्ति हृदयाद् वाचो हृदि मे गुरवः स्थिताः । ते तत्र सँस्करिष्यन्ते तन्न मेऽत्र परिश्रमः ॥ १६ ॥ इवं शुश्रूषवो भव्याः कथितोऽर्यो जिनेश्वरैः । तस्याभिधायकाः शब्दास्तन्न निन्दत्र वर्तते ॥ १६॥ वोषान् गुणान् गुणी गृह्णन् गुणान् दोषांस्तु दोषवान् । सदसज्ज्ञानयोश्चित्रम् श्रत्र माहात्म्यमी दृशम् ॥२०॥ गुणिनां गुणमादाय गुणी भवतु सज्जनः । प्रसद्दोषसमादानाद् दोषवान् दुर्जनोऽद्भुतम् ॥२१॥ सज्जने दुर्जनः कोपं कामं कर्तुमिहार्हति । तद्वैरिणामनाथानां गुणानामाश्रयो यतः ॥२२॥ यथा "स्वानुगमर्हन्ति सदा स्तोतुं कवीश्वराः । तथा निन्दितुमस्वानुवृत्तं कुरुवयोऽपि माम् ॥ २३ ॥ कविरेव कत्ति कामं काव्यपरिश्रमम् । वन्ध्या स्तनन्धयोत्पत्तिवेदनाभिव नाकविः ॥२४॥ गृहाणेहास्ति चेद्दोषं स्वं धनं न निषिध्यते । खलासि प्रार्थितो भूयस्त्वं गुणान ममाग्रहीः ॥२५॥ कहने पर ही स्वादिष्ट भोजनकी इच्छा नहीं करते । भावार्थ - जिस प्रकार भोजन करनेवाले पुरुष प्रिय वचनोंकी अपेक्षा न कर स्वादिष्ट भोजनका ही विचार करते हैं उसी प्रकार धर्मात्मा लोग मेरी योग्यताकी अपेक्षा न कर केवल धर्मका ही विचार करें-धर्म समझकर ही इसे ग्रहण करें ।।१५।। अथवा इस पुराणका अग्रभाग भी नीरस नहीं होगा यह निश्चय है क्योंकि धर्मका अग्रभाग कहीं किसी पुरुषने नीरस नहीं देखा है || १६ | यदि मेरे वचन स्वादिष्ट हों तो इसमें गुरुओं का ही माहात्म्य समझना चाहिये क्योंकि जो फल मीठे होते हैं वह वृक्षोंका ही प्रभाव समझना चाहिये ।। १७ ।। चूंकि वचन हृदयसे निकलते हैं और मेरे हृदय में गुरु विद्यमान हैं इसलिये वे मेरे वचनोंमें अवश्य ही संस्कार करेंगे अर्थात् उन्हें सुधार लेंगे अतः मुझे इस ग्रन्थके बनाने में कुछ भी परिश्रम नहीं होगा || १८ || इस पुराणको सुननेकी इच्छा करनेवाले भव्य जीव हैं, इसका अर्थ जिनेन्द्रदेवने कहा है और उसके कहनेवाले शब्द हैं इसलिये इसमें निन्दा ( दोष ) नहीं है ||१९|| गुणी लोग दोषोंको भी गुणरूपसे ग्रहण करते हैं और दोषी लोग गुणों को भी दोषरूपसे ग्रहण करते हैं, इस संसारमें सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानका यह ऐसा ही विचित्र माहात्म्य है ||२०|| सज्जन पुरुष गुणी लोगों के गुण ग्रहण कर गुणी हों यह ठीक है परन्तु दुष्ट पुरुष अविद्यमान दोषों को ग्रहणकर दोषी हो जाते हैं यह आश्चर्य की बात है ॥२१॥ इस संसारमें दुर्जन पुरुष सज्जनोंपर इच्छानुसार क्रोध करनेके योग्य हैं क्योंकि वे उन दुष्टोंके शत्रु स्वरूप, अनाथ गुणोंके आश्रयभूत हैं । भावार्थ - चूंकि सज्जनोंने दुर्जनोंके शत्रुभृत, अनाथ गुणों को आश्रय दिया है इसलिये वे सज्जनोंपर यदि क्रोध करते हैं तो उचित ही है ॥२२॥ जिस प्रकार कवीश्वर लोग अपने अनुकूल चलनेवालेकी सदा स्तुति करनेके योग्य होते हैं उसी प्रकार कवि भी अपने अनुकूल नहीं चलनेवाले मेरी निन्दा करने के योग्य हैं । भावार्थ - उत्तम कवियों के मार्गपर चलनेके कारण जहां वे मेरी प्रशंसा करेंगे वहां कुकवियों के मार्गपर न चलनेके कारण वे मेरी निन्दा भी करेंगे ||२३|| कवि ही कविके काव्य करनेके परिश्रमको अच्छी तरह जान सकता है, जिस प्रकार वंध्या स्त्री पुत्र उत्पन्न करनेकी वेदनाको नहीं जानती उसी प्रकार अकवि कविके परिश्रमको नहीं जान सकता ||२४|| रे दुष्ट, यदि मेरे इस ग्रन्थमें दोष हों तो उन्हें तू ग्रहण कर, क्योंकि वह तेरा ही धन है उसके लिये तुझे रुकावट नहीं है, परन्तु । १ उत्तरार्द्धम् । २ यदपि प०, ल०, म० । ३ प्रभावोऽसौ अ०, प०, इ०, स०, ल०, म० । ५ श्रोतुमिच्छवः । ६ तत् कारणात् । ७ दुर्जनद्वेषिणाम् । ८ सज्जनः । आधारः । १० निजानुवर्तिनम् । यतः ४ गुरवः । कारणात् । ४५ ३५३ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ महापुराणम् गुणागुणानभिज्ञेन कृता निन्दाऽथवा स्तुतिः। जात्यन्धस्येव धृष्टस्य रूपे हासाय केवलम् ॥२६॥ अयवा सोऽनभिज्ञेऽपि निन्दत स्तोतु वा कृतिम् । विदग्धपरिहासानाम् अन्यथा वास्तु विश्रमः ॥२७॥ गणयन्ति महान्तः किं क्षुद्रोपद्रवमल्पवत् । दाह्यं तृगाग्निना तूलं पत्युस्तापोऽपि नाम्भसाम् ॥२८॥ काष्ठजोऽपि दहत्यग्निः काष्ठं तं तत्तु' वर्द्धयेत् । प्रदीपायितमताभ्यां सदसद्भावभासने ॥२६॥ स्तुतिनिन्दे कृति श्रुत्वा कसेतु गुणदोषयोः। ते तस्य कुरुतः कीर्तिम् अकर्तुरपि सत्कृतेः ॥३०॥ सत्कवरर्जुनस्येव शराः शब्दास्तु योजिताः । कर्ण दुस्संस्कृतं प्राप्य तुदन्ति हृदयं भृशम् ॥३१॥ प्रवृत्तयं कृतिः कृत्वा गुरून पूर्वकवीश्वरान् । भाविनोद्यतनाश्चास्या' विवध्युः शुद्ध्यनुग्रहम् ॥३२॥ मतिमें केवलं सूते कृति राजीव तत्सुताम् । धियस्ता वर्तयिष्यन्ति धात्रीकल्पाः कवीशिनाम् ॥३३॥ इदं बुधा ग्रहीष्यन्ति मा गृहीबुः पृथग्जनाः । किमतौल्यानि रत्नानि 'क्रीणन्त्यकृतपुण्यकाः ॥३४॥ हृदि धर्ममहारत्नम् आगमाम्भोधिसम्भवम् । कौस्तुभादधिकं मत्वा दधातु पुरुषोत्तमः ॥३५॥ मैं तुझसे यह फिर भी प्रार्थना करता हूं कि तू मेरे गुणोंका ग्रहण मत कर । भावार्थ-दुर्जनोंके द्वारा दोष ग्रहण किये जाने पर रचना निर्दोष हो जावेगी और निर्दोष होनेसे सबको रुचिकर होगी परन्तु गुण ग्रहण किये जानेपर वह निर्गुण हो जानेसे किसीको रुचिकर नहीं होगी अतः यहाँ आचार्यने दुर्जन पुरुषसे कहा है कि तू मेरी इस रचनाके दोष ग्रहण कर क्योंकि वह तेरा धन है परन्तु गुणोंपर हाथ नहीं लगाना ॥२५॥ जिस प्रकार जन्मके अन्धे किसी धृष्ट पुरुषके द्वारा की हुई किसीके रूपकी स्तुति या निन्दा उसकी हँसीके लिये होती है उसी प्रकार गुण और दोषों के विषय में अजानकार पुरुषके द्वारा की हुई स्तुति या निन्दा केवल उसकी हँसीके लिये होती है ॥२६॥ अथवा वह अजानकार मनुष्य भी मेरी रचनाकी निन्दा या स्तुति करे क्योंकि ऐसा न करनेसे चतुर पुरुषोंको हास्यका स्थान कहाँ प्राप्त होगा। भावार्थ-जो मनुष्य उस विषयका जानकार न होकर भी किसीकी निन्दा या स्तुति करता है चतुर मनुष्य उसकी हँसी ही करते हैं ॥२७॥ महापुरुष क्या तच्छ मनष्योंके समान छोटे छोटे उपद्रवोंको गिना करते हैं ? अर्थात् नहीं। तृगकी आगसे रुई जल सकती है परन्तु उससे समुद्र के जलको संताप नहीं हो सकता ॥२८॥ काठसे उत्पन्न हुई अग्नि काठको जला देती है परन्तु काठ उसे बढ़ाता ही है, ये दोनों उदाहरण अच्छे और बुरे भावोंको प्रकट करने के विषयमें दीपकके समान आचरण करते हैं ॥२९॥ दुष्ट पुरुष मेरी रचनाको सुनकर गुणोंकी स्तुति और दोषोंकी निन्दा करें क्योंकि यद्यपि वे उत्तम रचना करना नहीं जानते तथापि मेरी रचनाकी स्तुति अथवा निन्दा ही उनकी कीर्तिको करनेवाली होगी ॥३०॥ उत्तम कविके वचन ठीक अर्जुनके बाणोंके समान होते हैं क्योंकि जिस प्रकार अर्जुनके बाण काममें लानेपर खोटे संस्कारवाले कर्ण (कर्ण नामका राजा) को पाकर उसके हृदयको दुःख पहुँचाते थे उसी प्रकार उत्तम कबिके वचन काम में लानेपर खोटे सँस्कारवाले कर्ण (श्रवण इन्द्रिय) को पाकर हृदयको अत्यन्त दुःख पहुँचाते हैं ॥३१॥ पहले के कवीश्वरोंको गुरु मानकर ही यह रचना की गई है इसलिये जो कवि आज विद्यमान हैं अथवा आगे होंगे वे सब इसे शुद्ध करनेकी कृपा करें ॥३२॥ जिस प्रकार रानी किसी उत्तम कन्याको केवल उत्पन्न करती है उसका पालन पोषण धाय करती है उसी प्रकार मेरी बुद्धि इस रचनाको केवल उत्पन्न कर रही है इसका पालन पोषण धायके समान कवीश्वरों की बुद्धि ही करेगी॥३३॥ मेरे इस काव्यको पण्डितजन ही ग्रहण करेंगे अन्य मूर्ख लोग भले ही ग्रहण न करें क्योंकि जिन्होंने पुण्य नहीं किया है ऐसे दरिद्र पुरुष क्या अमूल्य रत्नोंको खरीद सकते हैं ? अर्थात् नहीं ॥३४॥ पुरुषोत्तम (नारायण अथवा उत्तम मनुष्य) आगमरूपी १ काष्ठम् । २ अग्निकाष्ठाभ्याम् । ३ स्तुतिनिन्दे । ४ कृतेः । ५ आददति । ६ कृष्ण इति ध्वनिः । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व श्रोत्रपात्रालि कृत्वा पीत्वा धर्मरसायनम् । अजरामरतां प्राप्तुम् उपयुध्वमिदं बुधाः ॥३६॥ नूनं पुण्यं पुराणाब्धेर्मध्यमव्यासितं मया। तत्सुभाषितरत्नानि सञ्चितानीति निश्चितिः॥३७॥ सुदूरपारगम्भीरमिति नात्र भयं मम । पुरोगा गुरवः सन्ति प्रष्ठाः सर्वत्र दुर्लभाः ॥३८॥ पुराणस्यास्य संसिद्धिर्नाम्ना स्वेनैव सूचिता । निर्वक्ष्याम्यत्र नो वेत्ति ततो नास्म्यहमाकुलः ।३६॥ पुराणं मार्गमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम् । भवाब्धेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमुच्यते ॥४०० अर्थो मनसि जिह्वाग्रे शब्दः सालकृति स्तयोः । अतः पुराणसंसिद्धर्नास्ति कालविलम्बनम् ॥४१॥ पाकरेष्विव रत्नानाम् ऊहानां नाशये क्षयः । विचित्रालङकृतीः कर्तुदौर्गत्यं कि कवेः कृतीः ॥४२॥ विचित्रपदविन्यासा रसिका सर्वसुन्दरा। कृतिः सालकृतिर्न स्यात् कस्ययं कामसिद्धये ॥४३॥ सञ्चितस्यैनसो हन्त्री नियन्त्री चागमिष्यतःप्रामन्त्रिणी० च पुण्यानां ध्यातव्ययं कृतिः शुभा ॥४४॥ समुद्रसे उत्पन्न हुए इस धर्मरूपी महारत्नको कौस्तुभ मणिसे भी अधिक मानकर अपने हृदयमें धारण करें। ॥३५।। पण्डितजन कामरूपी पात्रकी अंजलि बना इस धर्मरूपी रसायनको पीकर अजर अमरपना प्राप्त करने के लिये उद्यम करें ॥३६॥ मुझे यह निश्चय है कि मैंने अवश्य ही इस पुराणरूपी समद्रके पवित्र मध्यभागमें अधिष्ठान किया है और उससे सभाषितरूपी रत्नोंका संचय किया है ॥३७।। यह पुराणरूपी समुद्र अत्यन्त गंभीर है, इसका किनारा बहुत दूर है इस विषयका मुझे कुछ भी भय नहीं है क्योंकि सब जगह दुर्लभ और सबमें श्रेष्ठ गुरु जिनसेनाचार्य मेरे आगे हैं ॥३८।। इस पुराणकी सिद्धि अपने महापुराण इस नामसे ही सूचित है इसलिये मैं इसे कह सकूँगा अथवा इसमें निर्वाह पा सकूँगा या नहीं इसकी मुझे कुछ भी आकुलता नहीं है ॥३९॥ जिनसेनाचार्य के अनुगामी शिष्य प्रशस्त मार्गका आलम्बन कर अवश्य ही संसाररूपी समुद्रसे पार होनेकी इच्छा करते हैं फिर इस पुराणके पार होनेकी बात तो कहना ही क्या है ? भावार्थ-जिनसेनाचार्यके द्वारा बतलाये हुए मार्गका अनुसरण करनेसे जब संसाररूपी समुद्रका पार भी प्राप्त किया जा सकता है तब पुराणका पार (अन्त) प्राप्त करना क्या कठिन है ? ।।४०।। अर्थ मनमें हैं, शब्द जिह्वाके अग्रभागपर हैं और उन दोनोंके अलंकार प्रसिद्ध हैं ही अतः इस पुराणकी सिद्धि (पूर्ति) होने में समयका विलम्ब नहीं है अर्थात् इसकी रचना शीघ्र ही पूर्ण होगी ॥४१॥ जिस प्रकार खानिमें रत्नोंकी कमी नहीं है उसी प्रकार जिसके मनमें तर्क अथवा पदार्थोकी कमी नहीं है फिर भला जिसमें अनेक प्रकारके अलंकार हैं ऐसे काव्यके बनानेवाले कविको दरिद्रता किस बातकी है ? ॥४२॥ मेरी यह रचना अत्यन्त सुन्दरी स्त्रीके समान है क्योंकि जिस प्रकार सुन्दर स्त्री विचित्र पदन्यासा अर्थात् अनेक प्रकारसे चरण रखनेवाली होती है उसी प्रकार यह रचना भी विचित्र पदन्यासा अर्थात् अनेक प्रकारके सबन्त तिङन्त रूप पद रखनेवाली है, जिस प्रकार सन्दर स्त्री रसिका अर्थात रसीली होती है उसी प्रकार यह रचना भी रसिका अर्थात् अनेक रसोंसे भरी हुई है, और जिस प्रकार सुन्दर स्त्री सालंकारा अर्थात कटक कुण्डल आदि आभूषणोंसे सहित होती है उसी प्रकार यह रचना भी सालंकारा अर्थात् उपमा रूपक आदि अलंकारोंसे सहित है। इस प्रकार मेरी यह रचना सुन्दरी स्त्रीके समान भला किसके मनोरथकी सिद्धिके लिये न होगी? भावार्थइसके पढ़नेसे सबके मनोरथ पूर्ण होंगे ॥४३॥ यह शुभ रचना पहलेके संचित पापोंको नष्ट १ उपयुञ्जीध्वम् । २ प्रसिद्धा । ३ अलङ्कारश्च जिह्वाग्रे वर्तते। ४ शब्दार्थयोः । ५ -लङकृते: कर्तुदोगत्यं अ०, प०, ल०, म० । -लङ्कृ तेः कर्तु दौर्गत्यं इ०, स०। ६ कृतेः अ०, प०, ल०, म०, इ०, स०। ७ -सुन्दरी ल०, म०। ८ विनाशिनी। ६ प्रतिषेद्धी। १० आमन्त्रणी स० । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् संस्कृतान हितेप्रीतिःप्राकृताना प्रिय प्रियम् । एतद्धितं प्रियं चातः सर्वान सन्तोषयत्यलम् ॥४५॥ इवं निष्पन्नमेवात्र स्थितमेवायुगान्तरम । इत्याविर्भावितोत्साहः प्रस्तुवें प्रस्तुतां कथाम् ॥४६॥ इति पीठिका। अथातः श्रणिकः पीत्वा पुरोः सुचरितामृतम् । प्रासिस्वादयिषुः शेषं हस्तलग्नमिवोत्सुकः ॥४७॥ समुत्थाय सभामध्ये प्राञ्जलिः प्रणतो मना । पुनर्विज्ञापयामास गौतम गणनायकम् ॥४८॥ त्वत्प्रसादाच्छ तं सम्यकपुराणं परम पुरोः। निवृत्तोऽसौ यथास्यान्ते तथाहं चातिनिर्वृतः ॥४६॥ (किल तस्मिन् जयो नाम तीर्थंभूत् पार्थिवाग्रणीः । यस्याद्यापि जितार्कस्य प्रतापः प्रथते क्षितौ ॥५०॥ यस्य दिग्विजय मेघकुमारविजय स्वयम् । वीर पट्टे समुद्धृत्य बबन्ध भरतेश्वरः ॥५१॥ पुरस्तीर्थकृतां पूर्वश्चक्रिणां भरतेश्वरः । दानतीर्थकृतां श्रेयान् किलासौ" च स्वयंवर ॥५२॥ अर्ककीर्ति पुरोः पौत्रं१५ सङगरे कृतसङगरः । जित्वा निगलयामास किलकाकी सहेलया ॥५३॥ सेनान्तो वृषभः कुम्भो रथान्तो दृढसंज्ञकः । धनुरन्तः शतो देवशर्मा भावान्तदेवभाक् ॥५४॥ नन्दनः सोमदत्ताह्वः सूरदत्तो गुणैर्गुरुः । वायुशर्मा यशोबाहुर्देवाग्निश्चाग्निदेववाक् ॥५५॥ अग्निगुप्तोऽथ मित्राग्निहलभूत समहाधरः। महेन्द्री वसुदेवश्च ततः पश्चाद्वसुन्धरः ॥५६॥ करनेवाली है, आनेवाले पापोंको रोकनेवाली है और पुण्योंको बुलानेवाली है इसलिये इसका सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥४४॥ उत्तम मनुष्योंकी हितमें प्रीति होती है और साधारण मनुष्योंको जो इष्ट है वही प्रिय होता है, यह पुराण हितरूप भी है और प्रिय भी है अतः सभीको अच्छी तरह सन्तुष्ट करता है ॥४५॥ यह तैयार हुआ पुराण अवश्य ही इस संसारमे युगान्तर तक स्थिर रहेगा इस प्रकार जिसे उत्साह प्रकट हुआ है ऐसा मैं अब प्रकृत कथाका प्रारम्भ करता हूँ ॥४६।। (इस प्रकार पीठिका समाप्त हुई ।) अथानन्तर-राजा श्रेणिक भगवान् वृषभदेवके उत्तम चरितरूपी अमृतको पीकर हाथमें लगे हुए की तरह उसके शेष भागको भी आस्वादन करनेकी इच्छा करता हुआ अत्यन्त उत्कंठित हो उठा ।।४७।। उसने सभाके बीच में खड़े होकर हाथ जोड़े, कुछ शिर झुकाकर 'नमस्कार किया और फिर गौतम गणधरसे इस प्रकार प्रार्थना की कि हे भगवन्, मैंने आपके प्रसादसे श्री वृषभदेवका यह उत्कृष्ट पुराण अच्छी तरह श्रवण किया है। जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव इस पुराणके अन्तमें निर्वाणको प्राप्त होकर सुखी हुए हैं उसी प्रकार में भी इसे सुनकर अत्यन्त सुखी हुआ हूँ। ऐसा सुना जाता है कि भगवान् वृषभदेवके तीर्थमें सब राजाओंमें श्रेष्ठ जयकुमार नामका वह राजा हआ था, जिसने अर्ककीतिको भी जीता था और जिसका प्रताप आज भी पृथिवीपर प्रसिद्ध है । दिग्विजयके समय मेघकुमारको जीत लेनेपर जिसके लिये स्वयं महाराज भरतने वीरपट्ट निकालकर बाँधा था, जिस प्रकार तीर्थंकरोंमें वृषभदेव, चक्रवतियों में सम्राट् भरत और दान तीर्थकी प्रवृत्ति करनेवालोंमें राजा श्रेयांस सर्वप्रथम हुए हैं उसी प्रकार जो स्वयंवरकी विधि चलाने में सर्वप्रथम हुआ है, जिसने युद्ध में प्रतिज्ञा कर श्री वृषभदेवके पोते अर्ककीर्तिको अकेले ही लीलामात्रमें जीतकर बाँध लिया था तथा वृषभसेन १, कुम्भ २, दृढरथ ३, शतधनु ४, देवशर्मा ५, देवभाव ६, नन्दन ७, सोमदत्त ८, गुणोंसे श्रेष्ठ सूरदत्त ९, वायुशर्मा १०, यशोबाहु ११, देवाग्नि १२, अग्निदेव १३, अग्निगुप्त १४, मित्राग्नि १५, हलभृत् १६, १ उत्तमपुरुषाणाम् । २ परिणमनसुखावधे। ३ साधारणानाम् । ४ आपातरमणीयम् । अनुभवनकाले सुन्दरमित्यर्थः । ५ इष्टम् । ६ पुराणम् । ७ प्रारम्भे । ८ वृषभस्य । ६ आस्वादयितुमिच्छुः । १० हस्तालग्न-अ०, प०, ल०, म०। ११ ईषत् । १२ अतिसुखी। १३ जयस्य । १४ जयकुमारः । १५ नप्तारम् । १६ कृतप्रतिज्ञः। १७ बबन्ध । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व अचलो मेरुसंज्ञश्च ततो मेरुधनाह्वयः। मेरुभूतियशोयज्ञप्रान्तसर्वाभिधानको ॥५७॥ सर्वगुप्तः प्रियप्रान्तसर्वो देवान्तसर्ववाक् । सर्वादिविजयो गुप्तो विजयादिस्ततः परः ॥५॥ विजयमित्रो विजयिलोऽपराजितसंज्ञकः । वसुमित्रः सविश्वादिसेनः सेनान्तसाधुवाक् ॥५६॥ देवान्तसत्यः सत्यान्तदेवो गुप्तान्तसत्यवाक् । सत्यमित्रः सतां ज्येष्ठः सम्मितो निर्मलो गुणः ॥६॥ विनीतः सम्बरो गुप्तो मुन्यादिमुनिदत्तवाक् । मुनियज्ञो मुनिर्देवप्रान्तो यज्ञान्तगुप्तवाक् ॥६॥ मित्रयज्ञः स्वयम्भूश्च देवदत्तान्तगौ भगौ । भगादिफल्गुः फल्ग्वन्तगुप्तो मित्रादिफल्गुकः ॥६२॥ प्रजापतिः सर्वसन्धो वरुणो धनपालकः । मघवान् राश्यन्ततेजो महावीरो महारथः ॥६३॥ विशालाक्षो महाबालः शुचिसालस्ततः परः । वजश्च वजसारश्च चन्द्रचूलसमाह्वयः ॥६४॥ जयो महारसः कच्छमहाकच्छावतुच्छकौ । नमिविनमिरन्यौ च बलातिबलसंज्ञको ॥६५॥ बलान्तभद्रो नन्दी च महाभागी परस्ततः । मित्रान्तनन्दी देवान्तकामोऽनुपमलक्षणः ॥६६॥ चतुभिरधिकाशीतिरिति नष्टगणाधिपाः। एते सप्तद्धिसंयुक्ताः सर्वे वेद्यनुवादिनः ॥६७॥ स एवासीद् गृहत्यागाद् एतेष्वप्युदितोदितः । एकसप्तति संख्यानसम्प्राप्तगणनो गणी ॥६॥ पुराणं तस्य मे बहि महत्तत्रास्ति कौतुकम्। भव्यचातकवृन्दस्य प्रघणो भगवानिति ॥६६॥ ततः स्वस्य समालक्ष्य गणाधीशादन ग्रहम। अलञ्चकार स्वस्थानम् इङगितज्ञा हि धोधनाः ॥७०॥ यत्प्रष्ट मिष्टमस्माभिः पृष्ट शिष्ट त्वयैव तत् । चेतो जिह्वा त्वमस्माकमित्यस्तावीत् सभा च तम् ॥७॥ प्रसिद्ध महीधर १७, महेन्द्र १८, वसुदेव १९, उसके अनन्तर वसुंधर २०, अचल २१, मेरु २२, तदनन्तर मेरुधन २३, मेरुभूति २४, सर्वयश २५, सर्वयज्ञ २६, सर्वगुप्त २७, सर्वप्रिय २८. सर्वदेव २९, सर्वविजय ३०, विजयगप्त ३१, फिर विजयमित्र ३२, विजयिल ३३, अपराजित ३४, वसुमित्र ३५, प्रसिद्ध विश्वसेन ३६, साधुसेन ३७, सत्यदेव ३८, देवसत्य ३९, सत्यगुप्त ४०, सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ सत्यमित्र ४१, गुणोंसे युक्त निर्मल ४२, विनीत ४३, संवर ४४, मुनिगुप्त ४५, मुनिदत्त ४६, मुनियज्ञ ४७, मुनिदेव ४८, गुप्तयज्ञ ४९, मित्रयज्ञ ५०, स्वयंभू ५१, भगदेव ५२, भगदत्त ५३, भगफल्गु ५४, गुप्तफल्गु ५५, मित्रफल्गु ५६, प्रजापति ५७, सर्वसंघ ५८, वरुण ५९, धनपालक ६०, मघवान् ६१, तेजोराशि ६२, महावीर ६३, महारथ ६४, विशालाक्ष ६५, महाबाल ६६, शुचिशाल ६७, फिर वज्र ६८, वज्रसार ६९, चन्द्रचूल ७०, जय ७१, महारस ७२, अतिशय श्रेष्ठ कच्छ ७३, महाकच्छ ७४, नमि ७५, विनमि ७६, बल ७७, अतिबल ७८, भद्रबल ७९, नन्दी ८०, फिर महाभागी ८१, नन्दिमित्र ८२, कामदेव ८३ और अनुपम ८४ । इस प्रकार भगवान् वृषभदेवके ये ८४ गणधर थे, ये सभी सातों ऋद्धियोंसे सहित थे और सर्वज्ञ देवके अनुरूप थे। इन चौरासी गणधरोंमें जो घरका त्याग कर अत्यन्त प्रभावशाली, गुणवान् और इकहत्तरवीं संख्याको प्राप्त करनेवाला अर्थात् इकहत्तरवाँ गणधर हुआ था, उन्हीं जयकुमारका पुराण मुझे कहिये क्योंकि उसमें बहुत भारी कौतुक है। आप भव्यजीवरूपी चातक पक्षियोंके समहके लिये उत्तम मेघके समान हैं ॥४८-६९।। तदनन्तर गणधरदेवस अपना अनुग्रह जानकर राजा श्रेणिक अपने स्थानको अलंकृत करने लगा अर्थात अपने स्थानपर जा बैठा सो ठीक ही है क्योंकि बद्धिमान पूरुष संकेतको जाननेवाले होते हैं ॥७०॥ 'हे शिष्ट' जिसे हम लोग पूछना चाहते थे वही तूने पूछा है इसलिये १ सर्वयशाः सर्वयज्ञाः । २ देवदत्तभगदत्तौ। ३ सर्वज्ञसुदृशः । ४ पर्यभ्युदयवान् । प्रतिख्यात इत्यर्थः । ५ एतेषु चतुरशीतिगरगधरदेवेष्वेकसप्ततिसंख्यां प्राप्तगणनाः । ६ गुणी ल०, म० । ७ जयस्य । ८ प्रकृष्टमेध इति विज्ञापयामास । ६ ज्ञात्वेत्यर्थः । १० स्तुतिमकरोत् । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् गणी तेनति सम्पष्टःप्रवृत्तस्तदनुग्रहे। नाथिनो विमुखान् सन्तः कुर्वन्ते तद्धि तद्वतम् ॥७२॥ शण श्रेणिक संप्रश्नस्त्वयात्रावसरे कृतः । नाराधयन्ति' कान्वाते सन्तोऽवसरवेदिनः ॥७३॥ कथोमुखम् इह जम्बुमति द्वीपे दक्षिण भरते महान । वर्णाश्रमसमाकीर्णो देशोऽस्ति कुरुजाङगलः ॥७४॥ धर्मार्थकाममोक्षाणाम एको लोकेऽयमाकरः । भाति स्वर्ग इव स्वर्गे विमानं वाऽमरेशितुः ॥७॥ हास्तिनाख्यं पुरं तत्र विचित्रं सर्वसम्पदा । सम्भवं मुषयद्वाद्धौं लक्ष्म्याः कुलगृहायितम् ॥७६॥ पतिः पतिर्वा ताराणाम् अस्य सोमप्रभोऽभवत् । कुर्वन् कुवलयाह्लादं सत्करैः स्वर्बुधाश्रयः ॥७७॥ तस्य लक्ष्मीमनाक्षिप्य' वक्षःस्थलनिवासिनी । लक्ष्मीरियं द्वितीयेति प्रेक्ष्या० लक्ष्मीवती सती ॥७॥ तयोर्जयोऽभवत् सूनुः.प्रज्ञाविक्रमयोरिव । तन्वन्नाजन्मनः१२ कोति लक्ष्मोमिव गुणाजिताम् ॥७९॥) सुताश्चतुर्दशास्यान्य जज्ञिरे विजयादयः । गुणैर्मनन् व्यतिक्रान्ताः संख्यया सदशोऽपि ते ॥८॥ प्रवृद्धनिजचेतोभिस्तैः पञ्चदशभिर्भृशम् । कान्तः कलाविशेषा' राजराजो रराज सः॥१॥ तू ही हमारा मन है और तू ही मेरी जीभ है' इस प्रकार समस्त सभाने उसकी प्रशंसा की थी ॥७१॥ राजा श्रेणिकक द्वारा इस प्रकार पूछे गयं गौतम गणधर उसका अनुग्रह करनेके लियं तत्पर हए सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पूरुष याचकोंको विमख नहीं करते, निश्चयसे यही उनका व्रत है ॥७२॥ गौतम स्वामी कहने लगे कि हे श्रेणिक ! सुन, तूने यह प्रश्न अच्छे अवसरपर किया है अथवा यह ठीक है कि अवसरको जाननेवाले सत्पुरुष अन्त में किसको वश नहीं कर लेते ॥७३॥ इस जम्बू द्वीपके दक्षिण भरतक्षेत्रमें वर्ण और आश्रमोंसे भरा हुआ कुरुजांगल नामका बड़ा भारी देश है ॥७४।। संसारमें यह देश धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की एक खान है। तथा यह देश स्वर्गके समान है अथवा स्वर्गमें भी इन्द्र के विमानके समान है ॥७५॥ उस देशमें हस्तिनापुर नामका एक नगर है जो कि सब प्रकारकी सम्पदाओंसे बड़ा ही विचित्र है तथा जो समुद्र में लक्ष्मीकी उत्पत्तिको झूठा सिद्ध करता हुआ उसके कुलगृहके समान जान पड़ता है ।।७६॥ उस नगरका राजा सोमप्रभ था जो कि ठीक चन्द्रमाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा अपने उत्तम कर अर्थात् किरणोंसे कुवलय अर्थात् कुमुदोको आनन्दित-विकसित करता हुआ बुध अर्थात् बुध ग्रहके आश्रित रहता है उसी प्रकार वह राजा भी अपने उत्तम कर अर्थात् टैक्ससे कुवलय अर्थात् महीमण्डलको आनन्दित करता हआ बध अर्थात् विद्वानोंके आश्रयमें रहता था ॥७७॥ उस राजाकी लक्ष्मीवती नामकी अत्यन्त सुन्दरी पतिव्रता स्त्री थी जो कि ऐसी जान पड़ती थी मानो उसकी लक्ष्मीका तिरस्कार न कर वक्षः-स्थलपर निवास करनेवाली दूसरी ही लक्ष्मी हो ॥७८॥ जिस प्रकार बुद्धि और पराक्रम से जय अर्थात् विजय उत्पन्न होती है उसी प्रकार उन लक्ष्मीमती और सोमप्रभके जय अर्थात् जयकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ जो कि जन्मसे ही गुणों द्वारा उपार्जन की हुई लक्ष्मी और कीर्तिको विस्तृत कर रहा था ॥७९॥ राजा सोमप्रभके विजयको आदि लेकर और भी चौदह पुत्र उत्पन्न हुए थे जो कि संख्यामें समान होनेपर भी गुणोंके द्वारा कुलकरोंको उल्लंघन कर रहे थे ।।८०।। जिस प्रकार अतिशय सुन्दर विशेष कलाओंसे चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी १ स्वाधीनान् कुर्वन्ति । २ कान्वैते अ०, स० । कान्वान्ते ल०, म० । ३ इव । ४ उत्पत्तिम् । ५ अनृतं कुर्वत् । ६ अयं लक्ष्मीशब्दः सम्भवं कुलगृहायितमित्युभत्रापि योजनीयः । ७ कुवलयानन्दं करवानन्दं च । ८ विद्वज्जनाश्रयः । सोमसुताश्रयश्च । ६ तिरस्कारमकृत्वा । १० दर्शनीया। ११ पतिव्रता। १२ जननकालात् प्रारभ्य। -जन्मतः ल०,म० । १३ मनुभिः समाना अपि । १४ वा राजा राजा इत्यपि पाठः । चन्द्र इव । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३५९ राजा राजप्रभो लक्ष्मीवती देवी प्रियानुजः । श्रेयान् ज्यायान् जयः पुत्रस्तद्राज्यं पूज्यते न कः ॥ ८२॥ स पुत्रविटपाटोप: सोमकल्पाअघिपश्चिरम् । भोग्यः सम्भृतपुण्यानां स्वस्य चाभूत्तदद्भुतम् ॥८३॥ श्रयान्यदा जगत्कामभोगबन्धून् विधुप्रभः । श्रनित्याशुचिदुःखान्यान्मत्वा याथात्म्यवीक्षणः ॥८४॥ विरज्य राज्य संयोज्य 'धुर्ये शौर्योजिते जय । 'अजयदार्यवीर्यादिप्राज्यराज्यसमुत्सुकः " ॥८५॥ श्रभ्येत्य त्रुषभाभ्याशं दीक्षित्या मोक्षमन्त्रभूत् । श्रेयसा" सह नार्पत्यम्" अनुजेन यथा पुरा ॥ ८६ ॥ पितुः पदमधिष्ठाय १३ जयोऽतापि " महीं महान् । महतोऽनुभवन् भोगान् संविभज्यानुजैः समम् ॥८७॥ एकदाऽयं विहारार्थं बायोद्यानमुपागतः । तत्रासीनं समालोक्य शीलगुप्तं महामुनिम् ॥८॥ त्रिःपरीत्य नमस्कृत्य तुत्वा भक्तिभरान्वितः । श्रुत्वा धर्मं तमापृच्छ्रय प्रीत्या प्रत्यविशत् पुरीम् ॥८६॥ तस्मिन् वने वसन्नागमिथुनं सह भूभुजा । श्रुत्वा धर्मं सुधां मत्वा पपौ प्रीत्या दयारसम् ॥६०॥ कदाचित् प्रावृडारम्भ प्रचण्ड शनिताडितः । मृत्वाऽसौ शान्तिमादाय नागो नागाऽमरोऽभवत् ॥११॥ प्रकार अपने तेजको बढ़ानेवाले, अतिशय सुन्दर और विशेष कलाओंको धारण करनेवाले उन पन्द्रह पुत्रोंसे राजाधिराज सोमप्रभ सुशोभित हो रहे थे ||८१|| जिस राज्यका राजा सोमप्रभ था, लक्ष्मीमती रानी थी, प्रिय छोटा भाई श्रेयांस था और बड़ा राजपुत्र जयकुमार था भला वह राज्य किसके द्वारा पूज्य नहीं होता ? ॥ ८२ ॥ | जिसपर पुत्ररूपी शाखाओंका विस्तार है ऐसा वह राजा सोमप्रभरूपी कल्पवृक्ष, पुण्य संचय करनेवाले अन्य पुरुषोंको तथा स्वयं अपने आपको भोग्य था यह आश्चर्यकी बात है । भावार्थ- पुत्रों द्वारा वह स्वयं सुखी था तथा अन्य सब लोग भी उनसे सुख पाये थे ॥ ८३ ॥ अथानन्तर किसी समय, पदार्थों के यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले राजा सोमप्रभ संसार, शरीर, भोग और भाइयोंको क्रमशः अनित्य, अपवित्र, दुःखस्वरूप और अपने से भिन्न मानकर विरक्त हुए तथा कभी नष्ट न होनेवाले अनन्त वीर्य आदि गुणोंसे श्रेष्ठ मोक्षरूपी राज्यके पाने उत्सुक हो, शूरवीर तथा धुरंधर जयकुमारको राज्य सौंपकर भगवान् वृषभदेव के समीप गये और वहाँ अपने छोटे भाई श्रेयांसके साथ दीक्षा लेकर मोक्षसुखका अनुभव करने लगे । जिस प्रकार वे पहिले यहाँ अपने छोटे भाई के साथ राज्यसुखका उपभोग करते थे उसी प्रकार मोक्ष में भी अपने छोटे भाई के साथ वहाँका सुख उपभोग करने लगे । भावार्थ- दोनों भाई मोक्षको प्राप्त हुए ||८४-८६ ।। इधर श्रेष्ठ जयकुमार पिताके पदपर आसीन होकर पृथिवी का पालन करने लगा । और अपने बड़े भारी भोगोपभोगोंको बाँटकर छोटे भाइयोंके साथ साथ उनका अनुभव करने लगा ||८७|| एक दिन वह जयकुमार क्रीड़ा करनेके लिये नगर के बाहर किसी उद्यानमें गया उसने वहाँ विराजमान शीलगुप्त नामके महामुनिके दर्शन कर उनकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं, बड़ी भारी भक्तिके साथ साथ नमस्कार किया, स्तुति की, प्रीतिपूर्वक धर्म सुना और फिर उनसे आज्ञा लेकर नगरको वापिस लौटा ॥८८-८९ ।। उसी वनमें साँपों का एक जोड़ा रहता था उसने भी राजाके साथ साथ धर्म श्रवणकर उसे अमृत मान बड़े प्रेमसे दयारूपी रसका पान किया था ॥ ९० ॥ किसी समय वर्षाऋतुके प्रारम्भमें प्रचण्ड वज्रके पड़ने से उस जोड़े का वह सर्प शान्तिधारण कर मरा जिससे नागकुमार जातिका देव हुआ १ सोमप्रभः । २ शाखातिशयः । ७ महत्त्व । ८ प्रकृष्टराज्योत्कण्ठित इत्यर्थः । यथा । १३ आश्रित्य । १४ पालयति स्म । ३ सोमप्रभः । ४ यथात्मस्वरूपदर्शी । ५ धुरन्धरे । ६ अक्षय्य । समीपम् । १० निजानुजेन । ११ नृपतित्वम् । १२ राजकाले १५ सह ल०, म० । १६ गुप्तमहा-ल० म० । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० महापुराणम् अन्येद्युरिभमारुह्य पुनस्तद्वनमापतत् । नागी श्रुतवती धर्म राजाऽव सहात्मना ॥२॥ वीक्ष्य काकोदरेणामा जातकोपो विजातिना । लीलानीलोत्पलेनाहत दम्पती तौ धिगित्यसौ ॥३॥ पलायमानौ पाषाणैः काष्ठोष्ठ: पदातयः । अघ्नन् सर्वे न को वाऽत्र दुश्चरित्राय कुप्यति ॥१४॥ पापः स तवम त्वा वेदनाकुलधीस्तदा । नाम्नाऽजायत गङ्गायां कालीति जलदेवता ॥१५॥ सञ्जातानुशया सापि धृत्वा धर्म हृदि स्थिरम् । भूत्वा प्रिया स्वनागस्य राज्ञा 'स्वमतिमब्रवीत् ॥६६॥ नागामरोऽपि तां पश्यन् कोपरादेवममन्यत । दत्तिन खलेनैषा वराकी" हा हता वृथा ॥६॥ विधवेति विवेदाधोर्नेदक्षं मामिमं धवम् ।एन तत्प्राणान् हरे यावद् भुजङ्गा केन वाऽस्म्यहम् ॥१८॥ इत्यतोऽसौ दि"दास्तं जयं तद्गृहमासदत् । न सहन्ते ननु स्त्रीणां तिर्यञ्चोऽपि पराभवम् ॥६॥ "वासगेहे जयो रात्रौ श्रीमत्याः कौतुकं प्रिये । शृण्वकं दृष्टमित्याख्यत् तद्भजङ्गोविचेष्टितम् ॥१०॥ "प्राभिजात्यं वयो रूपं विद्यां वृत्तं यशः श्रियम् । विभुत्वं विक्रम कान्तिमहिकं पारलौकिकम् ॥१०१॥ प्रीतिमप्रीतिमादेयम् अनादेयम् कृपां त्रपाम् । हानि वृद्धि गुणान् दोषान् गणयन्ति न योषितः ॥१०२॥ धर्मः कामश्च "सञ्चयो वित्तेनायं तु सत्पथः। क्रीणन्त्यर्थ स्त्रियस्ताभ्यां धिक् तासां वृद्धगृध्नुताम् १०३ ॥९१॥ किसी दूसरे दिन वही राजा जयकुमार हाथीपर सवार होकर फिर उसी वनमें गया और वहाँ अपने साथ साथ मुनिराजसे धर्म श्रवण करनेवाली सर्पिणीको काकोदर नामके किसी विजातीय सर्पके साथ देखकर बहुत ही कुपित हुआ तथा उन दोनों सर्प सर्पिणीको धिवकार देकर क्रीड़ाके नील कमलसे उन दोनोंका ताड़न किया ॥९२-९३॥ वे दोनों वहाँसे भागे किन्तु पैदल चलनेवाले सेनाके सभी लोग भागते हुए उन दोनोंको लकड़ी तथा ढेलोंसे मारने लगे सो उचित ही है क्योंकि इस संसारमें दुराचारी पुरुषोंपर कौन क्रोध नहीं करता है ? ॥९४॥ उन घावोंके द्वारा दुःखसे व्याकुल हुआ वह पापी सर्प उसी समय मरकर गंगा नदीमें काली नामका जलदेवता हुआ ॥९५॥ जिसे भारी पश्चात्ताप हो रहा है ऐसी वह सर्पिणी हृदयमें निश्चल धर्मको धारणकर मरी और मरकर अपने पहले के पति नागकुमारदेवकी स्त्री हुई । वहाँ जाकर उसने उसे राजाके द्वारा अपने मरणकी सूचना दी ।।९६।। बह नागकुमार देव भी उसे देखकर क्रोधसे ऐसा मानने लगा कि इस दुष्ट राजाने अहंकारसे इस बेचारी सर्पिणी को व्यर्थ ही मार दिया ॥९७॥ उस मर्खने इसे विधवा जाना, यह न जाना कि इसका मेरा जैसा पति है इसलिये मैं जबतक उसका प्राण हरण न करूं तबतक सर्प (नागकुमार) कैसे कहला सकता हूँ? ऐसा सोचता हुआ वह नागकुमार जयकुमारको काटनेकी इच्छास शीघ्र ही उसके घर आया सो ठीक ही है क्योंकि तिर्यञ्च भी स्त्रियोंका पराभव सहन नहीं कर सकते हैं ॥९८-९९॥ जयकुमार रात्रिके समय शयनागारमें अपनी रानी श्रीमतीसे कह रहा था कि हे प्रिये, आज मैंने एक कौतुक देखा है उसे सुन, ऐसा कहकर उसने उस सर्पिणीकी सब कुचेष्टाएं कहीं ॥१००। इसी प्रकरणमें वह कहने लगा कि देखो स्त्रियाँ कुलीनता, अवस्था, रूप, विद्या, चारित्र, यश, लक्ष्मी, प्रभुता, पराक्रम, कान्ति, यह लोक-परलोक, प्रीति, अप्रीति, ग्रहण करने योग्य, ग्रहण न करने योग्य, दया, लज्जा, हानि, वृद्धि, गुण और दोषको कुछ भी नहीं गिनती हैं ।।१०१-१०२॥ धनके द्वारा धर्म और कामका संचय करना चाहिये यह तो १ आगच्छत् । २ सर्पिणीम् । ३ आकरिणतवतीम् । ४ अन्यजातिसरण सह कामक्रीडां कुर्वतीम् । ५ ताडयति स्म। ६ घ्नन्ति स्म। ७ कोपं करोति । ८ निजभर्तृ चरनागामरस्य। नृपेरण जातनिजमरणम् । १० जयेन । ११ अगतिका। १२ पतिम् । १३ तत्प्राणान्न हरे ल०, म०, अ० । १४ दंशितुमिच्छः। १५ शय्यागृहे। 'उषन्ति शयनस्थानं वासागारं विशारदः' इति हलायुधः । १६ निजप्रियायाः । १७ कुलजत्वम् । १८ संचेतुं योग्यः । १६ धर्मकामाभ्याम् । २० समृद्धाभिलाषिताम् । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ३६१ वृश्चिकस्य विष पश्चात् पन्नगस्य विषं पुरः। योषितां दूषितेच्छानां' विश्वतो विषमं विषम् ॥१०४॥ सत्याभासन तैः स्त्रीणां वञ्चिता ये न धोधनाः। दुःश्रुतीनामिवैताभ्यो मुक्तास्ते मुक्तिवल्लभाः॥१०५०) तासां किमुच्यते कोपःप्रसादोऽपि भयङ्करः। हन्त्यधीकान् प्रविश्यान्तः अगाधसरितां यथा ॥१०६॥ "जालकैरिन्द्रजालेन' वञ्च्या ग्राम्या हि मायया ।। ताभिः सेन्द्रो गुरुवंच्यस्त मायामातरः स्त्रियः ताः श्रयन्ते गुणानव नाशभीत्या यदि श्रिताः। तिष्ठन्ति न चिरं प्रान्ते नश्यन्त्यपि च ते स्थिताः ॥१०॥ दोषाः किं तन्मयास्तासु दोषाणां कि समुद्भवः। तासां दोषेभ्य इत्यत्र न कस्यापि विनिश्चयः॥१०॥ निगुणान् गुणिनो मन्तु गुणिनः खलु निर्गुणान् । नाशकत् परमात्माऽपि मन्यन्ते ता२ हि हेलया। मोक्षो गुणमयो नित्यो दोषमय्यःस्त्रियश्चलाः । तासां नेच्छन्ति निर्वाणम् अत एवाप्तसूक्तिषु ॥११॥ लक्ष्मीः सरस्वती कीर्तिमुक्तिस्त्वमिति विश्रुताः । दुर्लभास्तासु वल्लीषु कल्पवल्ल्य इव प्रिये ॥११२॥ इत्येतच्चाह तच्श्रुत्वा तं "जिघांसुरहिस्तदा। पापिना चिन्तितं पापं मया पापापलापतः१५ ॥११३॥ समीचीन मार्ग है परन्तु स्त्रियां धर्म और कामसे धन खरीदती हैं अतः उनकी इस बढ़ी हुई लोलुपताको धिक्कार हो ॥१०३॥ विष बिच्छूके पीछे (पूंछपर) और साँपके आगे (मुंहमें) रहता है परन्तु जिनकी इच्छाएं दुष्ट हैं ऐसी स्त्रियोंके सभी ओर विषम विष भरा रहता है ।।१०४॥ खोटी श्रुतियोंके समान इन स्त्रियोंके सत्याभास (ऊपरसे सत्य दिखनेवाले परन्तु वास्तवमें झूठे) नमस्कारोंसे जो बुद्धिमान् नहीं ठगे जाते हैं-इनसे बचे रहते हैं वे ही मुक्तिरूपी स्त्रीके वल्लभ होते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार कुशास्त्रोंसे न ठगाये जाकर उनसे सदा बचे रहने वाले पुरुष मुक्त होते हैं उसी प्रकार इन स्त्रियोंके हावभाव आदिसे न ठगाये जाकर उनसे बचे रहनेवाले-दूर रहनेवाले पुरुष ही मुक्त होते हैं ॥१०५।। जिन स्त्रियोंकी प्रसन्नता ही भयंकर है उनके क्रोधका क्या कहना है। जिस प्रकार गहरी नदियोंकी निर्मलता मूर्ख लोगोंको भीतर प्रविष्ट कर मार देती है उसी प्रकार स्त्रियोंकी प्रसन्नता भी मूर्ख पुरुषोंको अपने अधीन कर नष्ट कर देती है ॥१०६॥ इन्द्रजाल करनेवाले अपने इन्द्रजाल अथवा मायासे मूर्ख ग्रामीण पुरुषों को ही ठगा करते हैं परन्तु स्त्रियाँ इन्द्र सहित बृहस्पतिको भी ठग लेती हैं इसलिये स्त्रियाँ मायाचारकी माताएँ कही जाती हैं ॥१०७॥ प्रथम तो गुण स्त्रियोंका आश्रय लेते ही नहीं हैं यदि कदाचित् आश्रयके अभावमें अपना नाश होनेके भयसे आश्रय लेते भी हैं तो अधिक समय तक नहीं ठहरते और कदाचित् कुछ समयके लिये ठहर भी जाते हैं तो अन्तमें अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं ॥१०८॥ दोषोंका तो पूछना ही क्या है ? वे तो स्त्रीस्वरूप ही हैं अथवा दोषोंकी उत्पति स्त्रियोंमें है अथवा दोषोंसे स्त्रियोंकी उत्पत्ति होती है इस बातका निश्चय इस संसार में किसीको भी नहीं हुआ है ॥१०९॥ निर्गुणोंको गुणी और गुणियोंको निर्गुण माननेके लिये परमात्मा भी समर्थ नहीं है परन्तु स्त्रियाँ ऐसा अनायास ही मान लेती हैं ।।११०॥ मोक्ष गुण स्वरूप और नित्य है परन्तु स्त्रियाँ दोषस्वरूप और चंचल हैं मानो इसीलिये अरहन्तदेवके शास्त्रोंम उनका मोक्ष होना नहीं माना गया है ।।१११॥ हे प्रिये, जिस प्रकार लताओंमें कल्पलता दुर्लभ है उसी प्रकार स्त्रियोंमें लक्ष्मी, सरस्वती, कीर्ति, मुक्ति और तू ये प्रसिद्ध स्त्रियाँ अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥११२॥ यह सब जयकुमारने अपनी स्त्रीसे कहा, उसे सुनकर जयकुमारको १ दुष्टवाञ्छानाम् । २ दुष्टशास्त्राणाम् । ३ प्रवेशं कारयित्वा। ४ वञ्चकैः। ५ इन्द्रजालसजातया माययेति सम्बन्धः। ६ परीक्षाशास्त्रबहिर्भूताः। ७ स्त्रीभिः । ८ इन्द्रजालादिदेवताभूतेन्द्रसहितः। ६ तदिन्द्रमन्त्री बृहस्पतिः । १० तत् कारणात् । ११ नाभवत् । १२ स्त्रियः । १३ दोषवत्य-ल०, म० । १४ हन्तुमिच्छः। १५ पापिष्ठायाः निह्नवात् । 'अपलापस्तु निह्नवः' इत्यभिधानात् । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ महापुराणम् प्रार्याणामपि वाग्भूयो विचार्या कार्यवेदिभिः। वायाः किं पुनर्नार्याः कामिनां का विचारणा ॥११४॥ भवेऽस्मिन्नेव भव्योऽयं भविष्यति भवान्तकः। तन्नास्य भयमन्येभ्यो भयमेतद्धयैषिणाम् ॥११॥ अहं कुतः कुतो धर्मः संसर्गादस्य सोऽप्यभूत् । ममेह मुक्तिपर्यन्तो नान्यत् सत्सङगमाद्धितम् ॥११६॥ इत्यनु ध्याय निःकोपः कृतवेदी' जयं स्वयम् । रत्नरनयः सम्पूज्य स्वप्रपञ्चं निगद्य च ॥११७॥ मां स्वकार्य स्मरेत्युक्त्वा स्वावास प्रत्यसौ गतः । हन्ताऽत्यूजितपुण्यानां भवत्यभ्युदयावहः ॥११॥ स चक्रिणा सहाक्रम्य दिक्चक्रं व्यक्तविक्रमः । क्रमान्नियम्य व्यायाम' संयमीव शमं श्रितः ॥११॥ ज्वलत्प्रतापः सौम्योऽपि निर्गुणोऽपि गुणाकरः । सुसर्वाङगोऽप्यनङगाभः सुखेन स्वपुरे स्थितः ॥१२०॥ अथ देशोऽस्ति विस्तीर्णः काशिस्तत्रैव विश्रुतः। पिण्डीभूता भयात्काललुण्टाकादिव भोगभूः॥१२१॥ तदापि खलु विद्यन्ते कल्पवल्लीपरिष्कृताः। द्रुमाः कल्पद्रुमाभासाश्चित्रास्तत्र क्वचित् क्वचित् ॥१२२॥ तत्रैवाभीष्टमावर्य' 'यत्तत्रैवानुभूयते। सर तज्जेतेति निःशङकं शडके स्वर्गापवर्गयोः ॥१२३॥ मारनेकी इच्छा करनेवाला वह नागकुमार अपने मनमें कहने लगा कि देखो उस स्त्रीके पाप छिपानेसे ही मुझ पापीने इस पापका चिन्तवन किया है ॥११३॥ कार्य के जाननेवाले पुरुषों को सज्जनोंके वचनोंपर भी एक बार पूनः विचार करना चाहिये फिर त्याग करने योग्य स्त्रियों के वचनोंकी तो बात ही क्या है ? उनपर तो अवश्य ही विचार करना चाहिये परन्तु कामी जनोंको यह विचार कहाँ हो सकता है ? ॥११४॥ यह भव्य जीव इसी भवमें संसार का नाश करनेवाला होगा, इसलिये इसे अन्य लोगोंसे कुछ भय होनेवाला नहीं है बल्कि जो इसे भय देना चाहते हैं उन्हें ही यह भय है ॥११५।। मैं कहाँ ? और यह धर्म कहाँ ? यह धर्म भी मुझे इसीके संसर्गसे प्राप्त हुआ है इसलिये इस संसारमें मुझे मोक्ष प्राप्त होनेतक सज्जनोंके समागम के सिवाय अन्य कुछ कल्याण करनेवाला नहीं है ॥११६॥ ऐसा विचारकर वह नागकुमार क्रोधरहित हुआ, उपकारको जानकर उसने अमूल्य रत्नोंसे स्वयं जयकुमारकी पूजा की, उसे मारने आदिके जो विचार हए थे वे सब उससे कहे और अपने कार्यमें मझे स्मरण स्मरण करना इस प्रकार कहकर वह अपने स्थानको लौट गया सो ठीक ही है क्योंकि जिसका पुण्य तेज है उसका मारनेवाला भी कल्याण करनेवाला हो जाता है ॥११७-११८।। व्यक्त पराक्रमको धारण करनेवाला वह जयकुमार चक्रवर्ती भरत महाराजके साथ साथ सब दिशाओंपर आक्रमण कर और अनुक्रमसे इधर उधरका फिरना बन्द कर संयमीके समान शान्तभावका आश्रय करने लगा ॥११९॥ जो सौम्य होनेपर भी प्रज्वलित प्रतापका धारक था, निर्गुण (गुणरहित, पक्ष में सबमें मुख्य) होकर भी गुणाकर (गुणोंकी खानि) था और सुसर्वाङ्ग (जिसके सब अंग सुन्दर हैं ऐसा) होकर भी अनङ्गाभ (शरीररहित, पक्षमें कामदेवके समान कान्तिवाला) था ऐसा वह जयकुमार सखसे अपने नगरमें निवास करता था ॥१२०॥ __अथानन्तर-इसी भरतक्षेत्रमें एक प्रसिद्ध और बहुत बड़ा काशी नामका देश है जो कि ऐसा विदित होता है मानो कालरूपी लुटेरेके भयसे भोगभूमि ही आकर एक जगह एकत्रित हो गई हो ॥१२१॥ वहांपर कहीं कहीं उस समय भी कल्पलताओंसे घिरे हुए कल्पवृक्षोंके समान अनेक प्रकारके वृक्ष विद्यमान थे ॥१२२॥ चूंकि अपनी अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर उनका उपभोग उसी देशमें किया जाता था इसलिये मैं ऐसा समझता हूँ कि वह काशीदेश १ कृतज्ञः । २ घातकः । ३ निरुद्ध्य । विविधव्यापारमिति शेषः । त्यक्त्वा विविधव्यापारमित्यर्थः । ४ विविधगमनम्। ५ अप्रधानरहितोऽपि । “गणोऽप्रधाने रूपादी मौयां शूके वृकोदरे। शुभे सत्त्वादिसन्ध्यादिविद्यादिहरितादिषु" इत्यभिधानात् । ६ भरतक्षेत्र। ७ दुःकालचोरात् सञ्जातात् । ८ स्वीकृत्य। ६ यस्मात् कारणात् । १० देशे। ११ देशः । १२ तस्मात् कारणात् । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ३६३ वाराणसी पुरी तत्र जित्वा तामामरों पुरीम्। 'अमानस्तद्विमानानि स्वसौधरिव साहसीत् ॥१२४॥ प्राक समच्चितदुष्कर्मा न 'तत्रोत्पत्तुमर्हति । प्रमादादपि तज्जोऽपि स्यात् किं पापी मनस्यपि ॥१२॥ एवं भवत्रयश्रेयःसूचनी धर्मवम॑नि । विनेयान् जिनविद्येव साऽन्यस्थान प्यवीवृतत् ॥१२६॥ नाम्नव कम्पितारातिस्तस्याः पतिरकम्पनः । विनीत इव विद्यायाः स्वाभिप्रेतार्थसम्पदः ॥१२७॥ पुरोपाजितपुण्यस्य वर्द्धने रक्षण श्रियः। न नीतिः किन्न कामे च धर्म चास्योपयोगिनी ॥१२॥ न हर्ता केवलं दाता न हन्ता पाति केवलम् । सर्वास्त त्पालयामास स१३ धर्मविजयी प्रजाः ॥१२॥ पारमात्म्य पदे पूज्यो भरतेन यथा पुरुः । गृहाश्रमे तथा सोऽपि सा तस्य कुलवृद्धता ॥१३०॥ तस्यासीत्सुप्रभादेवी शीतांशोर्वा प्रभा तया । मुमुदे कुमुदाबोधं विदधत् स कलाश्रयः ॥१३१॥ न लक्ष्मीरपि तत्प्रीत्य सती सा सुप्रजा" यथा । सत्फला इव सद्वल्ल्यः पुत्रवत्यस्त्रियः प्रियाः ॥१३२॥ निःसन्देह स्वर्ग और मोक्षको जीतनेवाला था ॥१२३॥ उस काशीदेशमें एक वाराणसी (बनारस) नामकी नगरी थी जो कि अपने अपरिमित राजभवनोंसे अमरपुरीको जीतकर उसके विमानोंकी हँसी करती हुई सी जान पड़ती थी॥१२४।। जिसने पूर्वजन्ममें पापकर्मोंका संचय किया है ऐसा जीव उस वाराणसी नगरीमें उत्पन्न होने योग्य नहीं था। तथा उसमें उत्पन्न हुआ जीव प्रमादसे भी क्या कभी मनमें भी पापी हो सकता था ? अर्थात् नहीं ॥१२५॥ इस तरह भूत, भविष्यत् और वर्तमान सम्बन्धी तीनों भवोंके कल्याणको सूचित करनेवाली वह नगरी जिनवाणीके समान दूसरी जगह रहनेवाले शिष्य लोगोंको भी धर्ममार्गमें प्रवृत्त कराती थी ॥१२६॥ जिस प्रकार विनयी मनुष्य विद्याका स्वामी होता है उसी प्रकार अपने नामसे ही शत्रुओंको कम्पित कर देनेवाला राजा अकम्पन उस नगरीका स्वामी था। जिस प्रकार विद्या अपने अभिलषित पदार्थोंकी देनेवाली होती है उसी प्रकार वह नगरी भी अभिलषित पदार्थोंको देनेवाली थी ॥१२७॥ पूर्व जन्ममें पुण्य उपार्जन करनेवाले उस राजाकी नीति केवल लक्ष्मीके बढ़ाने और उसकी रक्षा करने में ही काम नहीं आती थी किन्तु धर्म और कामके विषयमें भी उसका उपयोग होता था ॥१२८। वह राजा केवल प्रजासे कर वसूल ही नहीं करता था किन्तु उसे कुछ देता भी था और केवल दण्ड ही नहीं देता था किन्तु रक्षा भी करता था इस प्रकार धर्म द्वारा विजय प्राप्त करनेवाला वह राजा समस्त प्रजाका पालन करता था ॥१२९॥ राजा अकम्पनके कुलका बड़प्पन यही था कि भरतमहाराज परमात्मपदमें जिस प्रकार भगवान् वृषभदेवको पूज्य मानते थे उसी प्रकार गृहस्थाश्रममें उसे पूज्य मानते थे ॥१३०॥ उसके सुप्रभा नामकी देवी थी जोकि चन्द्रमाकी प्रभाके समान थी। जिस प्रकार चन्द्रमा अनेक कलाओंका आश्रय हो अपनी प्रभासे कूमदाबोध अर्थात कूमदिनियों का विकास करता हुआ प्रसन्न (निर्मल) रहता है उसी प्रकार वह राजा भी अनेक कलाओंविद्याओंका आश्रय हो अपनी सुप्रभा देवीसे कुमुदाबोध अर्थात् पृथिवीके समस्त जीवोंके आनन्द का विकास करता हआ प्रसन्न रहता था ॥१३॥ उत्तम संतान उत्पन्न करनेवाली वह पतिव्रता सुप्रभादेवी जिस प्रकार राजाको आनन्दित करती थी उस प्रकार लक्ष्मी भी उसे आनन्दित नहीं कर सकी थी सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार अच्छे फल देनेवाली उत्तम लताएँ प्रिय १ प्रमाणातीतः । २ पुरी। ३ हसति स्म। ४ नगर्याम् । ५ दिव्यभाषेव। ६ नगरी । ७ देशान्तरस्थान् । ८ वर्तयति स्म। ६ विनेयपरः । १० निजाभीष्टार्थसम्पद् यस्यां सा तस्याः। ११ नयनं करणम् । १२ तत् कारणात् । १३ अकम्पनः । १४ शोभनाः प्रजा अपत्यानि यस्या सा सुप्रजाः । सत्पुत्रवतीत्यर्थः । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ महापुराणम् तस्यां तन्नाथवंशाग्रगण्यस्यवांशवो रवः। प्राच्यां दीप्त्याप्तदिक्चक्राः सहस्रमभवन् सुताः ॥१३३॥ हेमाङगदस केतुश्रीसुकान्ताद्याह्वयः स तैः। वेष्टितः संव्यदीपिष्ट शक्रः सामानिकरिव ॥१३४॥ हिमवत्पद्मयोर्गडल्गासिन्धू इव ततस्तयोः । सुते सुलोचनालक्ष्मीमती चास्तां सुलक्षणे ॥१३५॥ सुलोचनाऽसौ बालेव लक्ष्मीः सर्वमनोरमा । कलागुणरभासिष्ट चन्द्रिकेव प्रद्धिता ॥१३६॥ सुमत्याख्याऽमलाः शुक्लनिशेवावर्द्धयत् कलाः । धात्री शशाङकरेखायास्तस्याः सातिमनोहराः ॥१३७॥ अभूद् रागी स्वयं रागस्त क्रमाब्जं समाश्रितः। रागाय कस्य वा न स्यात् स्वोचितस्थानसंश्रयः॥१३८॥ नखेन्दुचन्द्रिका तस्याः शश्वत्कुवलयं किल । विश्वमालादय च्चित्रम् अनुत्या क्रमाब्जयोः ॥१३६॥ रेजुरडागलयस्तस्याः क्रमयो खरोचिषा । इयन्त इति मद्वेगाः स्मरेणेव निवेशिताः ॥१४०॥ नताशेषो जयः स्नेहाद' अमंसीत्ते ततस्तयोः।या श्रीः क्रमाब्जयोस्तस्याः सा किमस्ति सरोरुहे ॥१४१॥ होती हैं उसी प्रकार उत्तम पुत्र उत्पन्न करनेवाली स्त्रियाँ भी प्रिय होती हैं ॥१३२॥ जिस प्रकार पूर्व दिशासे अपनी कान्तिके द्वारा समस्त दिशाओंको प्रकाशित करनेवाली सूर्य की किरणें उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार उस सुप्रभादेवीसे नाथवंशके अग्रगण्य राजा अकम्पनके अपनी दीप्ति अथवा तेजके द्वारा दिशाओंको वश करनेवाले हजार पुत्र उत्पन्न हुए थे ॥१३३॥ हेमाङ्गद, सुकेतुश्री और सुकान्त आदि उन पुत्रोंसे घिरा हुआ वह राजा ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि सामानिक देवोंसे घिरा हुआ इन्द्र सुशोभित होता है ।।१३४। जिस प्रकार हिमवान् पर्वत और पद्म नामकी सरसीसे गङ्गा और सिन्धु ये दो नदियां निकलती हैं उसी प्रकार राजा अकम्पन और रानी सुप्रभाके सुलोचना तथा लक्ष्मीमती ये उत्तम लक्षणोंवाली कन्याएं उत्पन्न हुई थीं ॥१३५॥ वह बालिका सुलोचना लक्ष्मीके समान सबके मनको आनन्दित करनेवाली थी और अपने कलारूपी गुणोंके द्वारा चांदनीके समान वृद्धिको प्राप्त होती हुई सुशोभित हो रही थी ॥१३६॥ जिस प्रकार शुक्ल पक्षकी रात्रि चन्द्रमाकी रेखाओंकी अत्यन्त मनोहर कलाओंको बढ़ाती है उसी प्रकार सुमित्रा नामकी धाय उस सुलोचनाकी अतिशय मनोहर कलाओंको बढ़ाती थी-उसके शरीरका लालन पालन करती थी ॥१३७॥ राग अर्थात लालिमा उस सुलोचनाके चरण-कमलोंका आश्रय पाकर स्वयं रागी अर्थात् राग करनेवाला अथवा लाल गुणसे युक्त हो गया थो सो ठीक ही है क्योंकि अपने योग्य स्थानका आश्रय किसके रागके लिये नहीं होता ? ॥१३८॥ आश्चर्य है कि उसके नखरूपी चन्द्रमाकी चांदनी दोनों चरणकमलोंके अनुकूल रहकर भी समस्त कुवलय अर्थात् कुमुदिनियोंको अथवा पृथ्वीमण्डल के आनन्दको निरन्तर विकसित करती रहती थी। भावार्थ-चांदनी कभी कमलोंके अनुकूल नहीं रहती, वह उन्हें निमीलित कर देती है परन्तु सुलोचनाके नखरूपी चन्द्रमाकी चांदनी रणकमलोंके अनकल रहकर भी कुवलय-नीलकमल (पक्षमें महीमण्डल) को विकसित करती थी यह आश्चर्यकी बात थी ॥१३९॥ उसके दोनों पैरोंकी अंगुलियां नखोंकी किरणोंसे ऐसी अच्छी जान पड़ती थीं मानो मेरे वेग इतने ही हैं यही समझकर कामदेवने ही रथापन की हों। भावार्थ-*अभिलाषा चिन्ता आदि कामके दश वेग हैं और दोनों पैरोंकी अंगुलियां भी दश हैं इसलिये वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो कामदेवने अपने वेगोंकी संख्या बतलाने के लिये ही उन्हें स्थापित किया हो ॥१४०॥ जिसे सब लोग नमस्कार करते हैं ऐसा जयकुमार भी जिन्हें १ तेजसा । २ अकम्पनसुप्रभयोः । ३ अरुणगुणः। ४ सुलोचनाचरण । ५ मोदति स्म । ६ अनुकूलवृत्त्या । ७ मम सदृशावस्थाः । ८ जयकुमारः। ६ नमस्करोति स्म। १० क्रमाब्जे । * "अभिलाषश्चिन्तास्मृतिगुणकथनोद्वेगसंप्रलापाश्च। उन्मादोऽथ व्याधिर्जडता मतिरिति दशात्र कामदशाः ॥"-साहित्यदपणे। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व न स्थले न कृशे नर्जन वक्र न च सडकटे। विकटे न च तज्जङघे शोभाऽन्यवनयोरसौ ॥१४२॥ काञ्चीस्थान' 'तदालोच्येवोरू स्थूले सुसङगते । कायगर्भगृहद्वारस्तम्भयष्टयाकृती कृते ॥१४३॥ वेदिकेय मनोजस्य शिरो वा' स्मरदन्तिनः । सानुर्वाऽनङगशैलस्य शुशुभेऽस्याः कटीतटम् ॥१४४॥ कृत्वा कृशं भृशं मध्यं बद्धं भङगभयादिव । रज्जुभिस्तिसमिर्धात्रा' वलिभिर्गाढमाबभौ ॥१४॥ . नाभिकपप्रवृत्तास्या 'रसमार्गसमुद्गता । श्यामा शाड्वलमालेव० रोमराजिय॑राजत ॥१४६॥ भिन्नौ युक्तौ मुस्तब्धौर उष्णौ सन्तापहारिणौ । स्तनौ विरुद्धधर्माणी स्याद्वादस्थितिमहतुः॥१४७॥ सहवक्षोनिवासिन्या समाश्लिष्य जयः श्रिया । स्वीकृतो यदि चेत्ताभ्यां वये ते तद्भुजौ कथम् ॥१४॥ वीरलक्ष्मीपरिष्वक्तजयदक्षिणबाहुना । सवामेन३ परिष्वक्त"स्तत्कण्ठस्तस्य कोपमा ॥१४॥ निःकृपौ"पेशलौर श्लक्ष्णौ तत्कपोलो विलेसतुः । कान्तौ कलभदन्ताभौ जयवक्त्राब्ज"दर्पणौ ॥१५०॥ वटबिम्बप्रवालादिनोपमेयमपीष्यते। अधरस्यातिदूरत्वाद् वर्णाकाररसादिभिः ॥१५॥ बड़े स्नेहसे नमस्कार करेगा ऐसे उसके दोनों चरणकमलोंमें जो शोभा थी वह क्या कमलोंमें हो सकती है ? अर्थात् नहीं ।।१४१।। उसकी दोनों जंघाएं न स्थूल थीं, न कृश थी, न सीधी थीं, नटेढ़ी थीं, न मिली हुई थीं और न दूर दूर ही थीं। उसकी दोनों जंघाओंकी शोभा निराली ही थी ।।१४२॥ उसके करधनी पहनने के स्थान-नितम्बस्थलको देखकर ही मानो स्थूल, परस्परमें मिले हुए और कामदेवके गर्भगृह सम्बन्धी दरवाजेसे खंभोंकी लकड़ीके समान दोनों ऊरु बनाये गये थे ॥१४३॥ उसका नितम्ब प्रदेश ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो कामदेवकी वेदी ही हो अथवा कामदेवरूपी हाथीका शिर ही हो अथवा कामदेवरूपी पर्वत का शिखर ही हो ॥१४४॥ उसका मध्यभाग ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो विधाताने उसे पहले तो अत्यन्त कश बनाया हो और फिर टट जानेके भयसे त्रिवलीरूपी तीन रस्सियोंसे मजबूत बांध दिया हो ॥१४५॥ नाभिरूपी कुएंसे निकली हुई उसकी रोमराजि ऐसी अच्छी सुशोभित हो रही थी मानो जलमार्गसे निकली हुई हरी हरी छोटी घासकी पङवित ही हो ॥१४६।। उसके स्तन भिन्न भिन्न होकर भी (स्थूल होनेके कारण) एक दूसरेसे मिले हुए थे, कोमल होकर भी (उन्नत होने के कारण) कठोर थे, और उष्ण होकर भी (आह्लादजनक होनेके कारण) संतापको दूर करनेवाले थे, इस प्रकार विरुद्ध धर्मोको धारण करनेवाले उसके दोनों स्तन स्याद्वादकी स्थितिको धारण कर रहे थे ।।१४७।। चूँकि उसकी दोनों भुजाओंने वक्षःस्थलपर निवास करनेवाली लक्ष्मीके साथ आलिङगन कर जयकुमारको स्वीकृत किया है इसलिये उनका वर्णन भला कैसे किया जा सकता है ? ॥१४८॥ उसका कंठ वीर लक्ष्मीसे सुशोभित जयकुमारके दांये और बांये दोनों हाथोंसे आलिंगनको प्रात हआ था अतः उसकी उपमा क्या हो सकती है। भावार्थ-उसकी उपमा किसके साथ दी जा सकती है ? अर्थात् किसीके साथ नहीं-वह अनुपम था ॥१४९॥ हाथीके बच्चेके दांतकी आभाको धारण करनेवाले उसके निष्कृप, कोमल और चिकने दोनों कपोल ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो जयकुमारका मुखकमल देखने के लिये सुन्दर दर्पण ही हों ॥१५०॥ वटकी कोंपल, बिम्बी फल और मूंगा आदि पदार्थ, वर्ण, आकार और रस आदिमें ओंठोंसे बहुत दूर हैं अर्थात् उसके ओठोंके समान न तो १ सङकीर्णे। २ विशाले। ३ विलक्षणैव । ४ कटितटम् । ५ आलोक्य। ६ इव । ७ ब्रह्मणा । ८ सुलोचनायाः । ६ जलमार्ग। १० हरितपङक्तिः । 'शाड्बल: शादहरिते' इत्यभिधानात् । शाबलल०, म०, अ०। ११ कठिनौ । १२ सुलोचनाभुजाभ्याम् । १३ वामभुजसहितेन । १४ आलिङगितः । १५ जनसन्तापहेतुत्वात् । १६ कोमलौ। १७ रेजतुः। १८ जयकुमारमुख। १६ अपिशब्दात् केवलमुपमानं न। - Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ महापुराणम् चिताः सिताः समाः स्निग्धा दन्ताः कान्ताः प्रभान्विताः । श्रन्तः करोति तद्वक्त्रं तानेव कथमन्यथा ॥ १५२ ॥ कुतः कृता समुत्तुङगा स्वादमानास्यसौरभम् । मध्येववत्रं किमध्यास्ते न सती यदि नासिका ।। १५३ ।। कर्णान्तगामिनी नेत्रे वृद्धे' नरशरोपमे । सोमवंश्यस्य कः क्षेपः पद्मोत्पलजये तयोः ॥ १५४ ॥ तत्कर्णावेव कर्णेषु कृतपुण्यौ प्रियाज्ञया । तत्प्रेमालापगीतानां" पात्रं प्रागेव तौ यतः ॥ १५५ ॥ तद्भू शरासनः ३ कामस्तत्कटाक्षशरावलिः १४ । स्वरूपेणाजितं मत्वा जयं मन्ये व्यजेष्ट सः ॥ १५६ ॥ तस्या लालाटिको नैकः कामो वीराग्रणीः स्वयम् । जयोऽपि नोन्नतिः कस्माल्ललाटस्य श्रितश्रियः ॥ १५७॥ मृदवस्तनवः स्निग्धाः कृष्णास्तस्याः सकुञ्चिताः । कामिनां केवलं कालबालव्यालाः " शिरोरुहाः ।। १५८॥ भाति तस्याः पुरोभागो भूषितो नयनादिभिः । सुरूप" इव पाश्चात्यो" बाभाति स्वयमेव सः ।। १५ ।। ये तस्यास्तनुनिर्माण वेधसा साधनीकृता: । २२ प्रणवस्तृणवच्छेषास्त एव परमाणवः २ ॥१६०॥ इनका वर्ण है, न आकार है और न रस ही है इसलिये ही उसके ओठोंको इनमें से किसीकी भी उपमा नहीं दी जा सकती थी ॥ १५१ ॥ अवश्य ही उसके दांत एक दूसरे से मिले हुए थेछिद्ररहित थे, सफेद थे, समान थे, चिकने थे, सुन्दर थे, और चमकीले थे, यदि ऐसा न होता तो सुलोचनाका मुख उन्हें भीतर ही क्यों करता ? ॥ १५२ ॥ मुखकी सुगन्धिका स्वाद लेती हुई उसकी नाक यदि इतनी अच्छी नहीं होती तो वह इतनी ऊंची क्यों बनाई जाती ? तथा मुखके बीच में कैसे ठहर सकती ? ।। १५३ ।। अर्जनके बाणके समान कर्णके ( राजा कर्ण अथवा कानके) समीप तक जानेवाले उसके दोनों नेत्र अत्यन्त विशाल थे, उन्होंने लाल कमल और नीलकमल दोनोंको जीत लिया था फिर भला सोमवंश अर्थात् चन्द्रमापर कौनसा आक्षेप बाकी रह गया था अथवा सोमवंश अर्थात् जयकुमारपर कौन सा क्षेप अर्थात् कटाक्ष करना बाकी रह गया था ? ।। १५४ ।। उसके कान ही सब कानों में अधिक पुण्यवान् थे क्योंकि वे पहले से ही अपने प्रिय-जयकुमारकी आज्ञासे उनके प्रेमसंभाषण और गीतोंके पात्र हो गये थे ।। १५५ ।। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि कामदेवने जयकुमारको अपने रूपसे अजेय मानकर सुलोचनाकी भौंहरूपी धनुष और उसीके कटाक्षरूपी बाणोंके समूहसे ही उसे जीता था ।। १५६।। उस सुलोचनाका सेवक अकेला कामदेव ही नहीं था किन्तु वीरशिरोमणि जयकुमार भी स्वयं उसका सेवक था, फिर भला शोभाको धारण करनेवाले उसके ललाटकी उन्नति - उच्चता अथवा उत्तमता क्यों न होती ? ॥ १५७॥ कोमल, बारीक, चिकने, काले और कुछ कुछ टेढ़े उसके शिरके बाल कामी पुरुषोंको केवल काले सांपों के बच्चोंके समान जान पड़ते थे ।। १५८।। उस सुलोचनाका आगे का भाग नेत्र आदिसे विभूषित होकर सुशोभित हो रहा था और पिछला भाग किसी सुन्दर वस्तुके समान अपने आप ही सुशोभित हो रहा था ।। १५९ ।। विधाताने उसका शरीर बनाने में जिन अणुओंको साधन बनाया था यथार्थ में वे ही अणु परमाणु अर्थात् १ निश्छिद्रा इत्यर्थः । २ उक्तगुणा न सन्ति चेत् । ३ किन्निमित्तं निर्मिता इत्येवं पृच्छति । ४ यदि सती प्रशस्ता नासिका न स्यात् तर्हि मध्येवक्त्रं मुखमध्ये किं वस्तु अध्यास्ते । नासिकां मुक्त्वा न किमपि अधिवसितुं योग्यमित्यर्थः । ५ ध्वनौ कर्णराजस्य विनाशे वर्तमाने । ६ वृद्धे किं न भवतः, भवत एव । ७ - वंशस्य ल०, म०, अ० । जयकुमारस्य । ध्वनी अर्जुनस्य । ८ तिरस्कारः । ६ नेत्रयोः । १० जयकुमारप्रसिद्ध्या । ११ -लापनीतानां अ० म०, ल० । १२ भाजनम् । १३ तस्या भ्रुवावेव शरासनं यस्य । १४ -टाक्षाशुगावलिः ल० । बारणसमूहः । १५ आत्मीयस्वरूपेण । १६ भावदर्शी 'लालाटिक: प्रभोर्भावदर्शी कार्याक्षमश्च यः ।' इत्यभिधानात् । न सेवको भवति चेत् । सेवकः । १७ कृष्णबालभुजङ्गाः । १८ मनोज्ञपदार्थ इव । १६ पृष्ठभावः । २० उपादानकारणीकृताः । २१ व्यर्था इत्यर्थः । २२ उत्कृष्टारणवः । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ३६७ प्रतिवृद्धः क्षयासन्नः स्पष्टलक्ष्माहिगोचरः । पूर्णःशेषोऽप्यसम्पूर्णोन तद्वक्त्रोपमो विधुः ॥१६॥ न पश्चान्न पुरा लक्ष्मीऊध्री' पद्म क्षणे क्षणे । वक्त्यन्यां गृह्णती शोभा सा स्याद्वादं तदानने ॥१६२॥ चन्द्रे तीवकरोत्सन्ना पद्म शीतकराहता। लक्ष्मीः सान्यैव तद्वक्त्रे 'जयलक्ष्मीकरग्रहात् ॥१६३॥ रात्राविन्दुर्दिवाम्भोज क्षयीन्दुर निवारिजम् । पूर्णमेव विकास्येव तद्वक्त्रं भात्यदिवम् ॥१६४॥ लक्ष्मीस्त स्यक्षितुस्तेन वीक्षितस्यापि निश्चिता । किं पद्म तादृशं येन तद्वक्त्रमुपमीयते ॥१६॥ कुमार्या त्रिजगज्जेता जितः पुष्पशरासनः । स वीरः कः परो लोके यो न जय्योऽनतोऽनया ॥१६६॥ कमायैव जितः कामो वीरः पश्चाज्जयो जितः । स्त्रीसृष्टि: कियती नाम विजयेऽस्या. सहश्रिया ॥१६७॥ उत्कृष्ट अणु थे और उनसे बाकी बचे हुए अणु तृणके समान तुच्छ थे ॥१६०॥ चन्द्रमा उसके मुखको उपमाके योग्य नहीं था क्योंकि यदि पूर्ण चन्द्रमाकी उपमा देते हैं तो वह बहुत वृद्ध अर्थात् बड़ा है, उसका क्षय निकट है, कलंक उसका स्पष्ट दिखलाई देता है और राहु उसे दबा देता है । यदि अपूर्ण चन्द्रमाकी उपमा देते हैं तो वह स्वयं अपूर्ण है-अधूरा है । भावार्थ-उसका मुख तरुण, अविनश्वर, निष्कलंक और पूर्ण था इसलिये पूर्ण अथवा अपूर्ण कोई भी चन्द्रमा उसके मखकी उपमाके योग्य नहीं था ।।१६। यदि कमलकी उपमा दी जावं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि कमलमें विकसित होनेके पहले लक्ष्मी नहीं थी और न पीछे रहती है वह तो क्षण क्षणमें विकसित होती रहती है परन्तु उसके मुखपर की लक्ष्मी एक विलक्षण शोभाको ग्रहण करती हुई स्याद्वादका स्वरूप प्रकट करती थी। भावार्थ-उसके मुखकी शोभा सदा एक सी रहकर भी क्षण क्षणमें विलक्षण शोभा धारण करती थी इसलिये कमलकी शोभासे कहीं अच्छी थी और इस प्रकार स्याद्वादका स्वरूप प्रकट करती थी क्योंकि जिस प्रकार स्याद्वाद द्रव्याथिक नयसे एकरूप रहकर भी पर्यायार्थिक नयसे नवीन नवीन रूपको प्रकट करता है उसी प्रकार उसके मुखकी लक्ष्मी भी सामान्यतया एकरूप रहकर भी प्रतिक्षण विलक्षण शोभा धारण करती हुई अनेकरूप प्रकट करती थी ॥१६२॥ चन्द्रमाकी शोभा सूर्यसे नष्ट हो जाती है और कमलकी शोभा चन्द्रमासे नष्ट हो जाती है परन्तु उसके मुखकी शोभा जयकुमारकी लक्ष्मीका हस्त ग्रहण करनेसे विलक्षण ही हो रही थी ॥१६३॥ चन्द्रमा रातमें मुशोभित होता है और कमल दिन में प्रफुल्लित रहता है, चन्द्रमाका क्षय हो जाता है और कमल मुरझा जाता । है परन्तु उसका मुख पूर्ण ही था, विकसित ही था और रातदिन सुशोभित ही रहता था ॥१६४॥. सुलोचनाके मुखको जो देखता था उसकी शोभा बढ़ जाती थी और सुलोचनाका मुख जिसे देखता था उसकी शोभा भी निश्चित रूपसे बढ़ जाती थी। कमलमें क्या ऐसा गुण है जिससे कि उसे सुलोचनाके मुखकी उपमा दी जा सके ?॥१६५।। उसने कुमारी अवस्थामें ही तीनों जगत्को जीतनेवाला कामदेव जीत लिया था फिर भला संसारमें ऐसा दूसरा कौन वीर था जो आगे युवावस्थामें उसके द्वारा न जीता जाय ? ॥१६६।। इसने कुमारी अवस्थामें कामदेव को जीत लिया था और तरुण अवस्थामें जयकुमारको जीता था फिर भला इसके जीतनेके लिये १ राहगोचरः। (विषयः) । २ कलाशेषोऽपि । कलाहीन इत्यर्थः । बालचन्द्रोऽपि । ३ विकासशीला। ४ लक्ष्मीः । ५ हता। ६ जयस्य लक्ष्मीः । ७ -त्यहर्निशम् अ०, प०, स०, इ०, ल०, म० । ८ धर्मस्य । ६ वक्रेण। १० येन धर्मेण सह। ११ तादृशं धर्म पक्षे किमस्ति ? नास्तीत्यर्थः । वीक्षितस्यापि अपिशब्दात् तद्धर्मो न दृष्टोऽस्ति । यद्यपि दृष्टस्य तस्य पद्मस्थितधर्मस्य लक्ष्मीः शोभा तेन सह तद्वक्त्रेण सह ईक्षितुः वीक्षमारणस्य जनस्य निश्चिता स्यात् । १२ पुष्पशरासनो जितः इत्यनेन कमपि पुरुषं नेच्छति इत्यर्थः । १३ यौवने । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ महापुराणम् मुगाडाकस्य कलडाकोऽयं मन्येऽहं कन्ययाऽनया। स्वकान्त्या निजितस्याभूद् रोगराजश्च चिन्तया॥१६॥ साधं कुवलयनन्दुः सह लक्षम्या सरोरुहम् । तद्वक्त्रेण जितं व्यक्तं किमन्यन्नेह जीयते ॥१६॥ जलाब्जं जलवासेन स्थलाब्जं सूर्यरश्मिभिः । प्राप्तुं तद्वक्त्रजां शोभां मन्येऽद्यापि तपस्यति ॥१७०॥ शनैर्बालेन्दुरेखेव सा कलाभिरवर्द्धत । वृद्धास्तस्याः प्रवृद्धाया विधुभिः स्पधिनो' गुणाः ॥१७॥ इति सम्पूर्णसर्वाडगशोभां शुद्धान्ववायजाम् । स्मरो जयभयाद्वैतां न तदाऽप्यकरोत् करे ॥१७२ कारयन्ती जिनेन्द्रा_श्चित्रार मणिमयीहः। तासार हिरण्मयान्येव विश्वोपकरणान्यपि ॥१७३॥ तत्प्रतिष्ठाभिषेकान्ते महापूजाःप्रकुर्वती। मुहः स्तुतिभिराभिः१३ स्तुवती भक्तितोऽर्हतः ॥१७४॥ ददती पात्रदानानि मानयन्ती५ महामुनीन् । शृण्वती धर्ममाकर्ण्य भावयन्ती मुहुर्मुहुः ॥१७॥ प्राप्तागमपदार्थाश्च प्राप्तसम्यक्त्वशुद्धिका । अथ फाल्गुननन्दीश्वरेऽसौ भक्त्या जिनेशिनाम् ॥१७६॥ विधायाष्टाह्निकी पूजाम् अभ्यार्चा यथाविधि । कृतोपवासा तन्वागी शेषां दातुमुपागता ॥१७७॥ नृपं सिंहासनासीनं सोऽप्युत्थाय कृताञ्जलिः । तद्दत्तशेषामादाय" निधाय शिरसि स्वयम् ॥१७॥ लक्ष्मीके साथ साथ कितनी सी स्त्रियोंकी सृष्टि बाकी रही थी ? भावार्थ-इसने लक्ष्मी आदि उत्तम उत्तम स्त्रियोंको जीत लिया था ॥१६७॥ चन्द्रमाके बीच जो यह कलंक दिखता है उसे मैं ऐसा मानता हूँ कि इस कन्याने अपनी कान्तिसे चन्द्रमाको जीत लिया है इसीलिये मानो उसे चिन्ताके कारण क्षयरोग हो गया हो ॥१६८॥ उस सुलोचनाके मुखने चन्द्रमाके साथ कुवलय अर्थात् कुमदको जीत लिया था और लक्ष्मीके साथ साथ कमलको भी जीत लिया था फिर भला इस संसारमें और रह ही क्या जाता है जो उसके मुखके द्वारा जीता न जा सके ॥१६९।। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि उसके मुखकी शोभा प्राप्त करनेके लिये जलकमल जलमें रहकर और स्थल कमल सूर्य की किरणोंके द्वारा आजतक तपस्या कर रहा है ।।१७०।। वह सुलोचना द्वितीया चन्द्रमाकी रेखाके समान कलाओंके द्वारा धीरे धीरे बढती थी और ज्यों ज्यों बढ़ती जाती थी त्यों त्यों चन्द्रमाकी कान्तिके साथ स्पर्धा करनेवाले उसके गुण भी बढ़ते जाते थे ॥१७॥ इस प्रकार जो समस्त अंगोंकी शोभासे परिपूर्ण है और शुद्ध वंशमें जिसकी उत्पत्ति हुई है ऐसी उस सुलोचनाको कामदेव जयकुमारके भयसे युवावस्थामें भी अपने हाथमें नहीं कर सका था ॥१७२॥ उस सुलोचनाने श्री जिनेन्द्रदेवकी अनेक प्रकारकी रत्नमयी बहुत सी प्रतिमाएं बनवाई थों और उनके सब उपकरण भी सुवर्ण हीके बनवाये थे। प्रतिष्ठा तथा तत्सम्बन्धी अभिषेक हो जाने के बाद वह उन प्रतिमाओंकी महापूजा करती थी, अर्थपूर्ण स्तुतियोंके द्वारा श्री अर्हन्तदेवकी भक्तिपूर्वक स्तुति करती थी, पात्र दान देती थी, महामुनियोंका सन्मान करती थी, धर्मको सुनती थी तथा धर्मको सुनकर आप्त आगम और पदार्थोंका बार बार चिन्तवन करती हुई सम्यग्दर्शनकी शुद्धताको प्राप्त करती थी । अथानन्तर-फाल्गुन महीनेकी अष्टाह्निकामें उसने भक्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्रदेवकी अष्टाह्निकी पूजा की, विधिपूर्वक प्रतिमाओंकी पूजा की, उपवास किया और फिर वह कृशांगी पूजाके शेषाक्षत देनेके लिये सिंहासनपर बैठे हुए राजा अकम्पनके १ क्षयव्याधिः । २ मनोदुःखेन। ३ तपश्चरति । ४ अवयवैः । ५ विधुभास्पद्धिनो ल०, म०, अ०, ५०, इ०, स० । ६ शुद्धवंशजाताम् । ७ जयकुमारभयादिव । ८ सलोचनाम् । ६ यौवनकालेऽपि । १० करग्रहणं नाकरोत् । तस्याः कामविकारो नाभूदित्यर्थः । ११ प्रतिमाः । १२ प्रतिमानाम् । १३ सदर्थयुक्ताभिः । १४ अहंदेवान्। १५ पूजयन्ती। १६ शेषान् ल०, म०। १७ -नादाय ल०, म० । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व उपवासपरिश्रान्ता पुत्रिके त्वं प्रयाहि ते । शरणं पारणाकाल इति कन्यां व्यसर्जयत् ॥ १७६॥ तां विलोक्य महीपालो बालामापूर्णयौवनाम् । निविकारां सचिन्तः सन् तस्याः 'परिणयोत्सवे ॥ १८०॥ शुभे श्रुतार्थसिद्धार्थ सर्वार्थ सुमतिश्रुतीन् । कोष्ठादिमतिभेदान्वा' दिने व्याहूय मन्त्रिणः ॥ १८१ ॥ वृणते सर्वभूपालाः कन्यां नः कुलजीवितम् । ब्रूत कस्मै प्रदास्यामो 'विमृश्येमां सुलोचनाम् ॥ १८२ ॥ 'इत्यप्राक्षीत्तदा प्राह श्रुतार्थः श्रुतसागरः । श्रत्र सबन्धुसम्बन्धो जामाताऽत्र महान्वयः ॥ १८३॥ १० सर्वस्वस्थ व्ययोत्राथ " जन्मराज्यफलं च नः । ततः सञ्चित्यमेवैतत् कार्यं नयविशारदैः ॥ १८४ ॥ बन्धवः स्युर्नृपाः सर्वे सम्बन्वरचक्रवर्तिना । इक्ष्वाकुवंशवत्पूज्यो भवद्वंशश्च जायते ॥ १८५ ॥ कुलरूपवयोविद्यावृत्तश्रीपौरुषादिकम् । यद्वरेषु समन्वेष्यं सर्वं तत्तत्र" पिण्डितम् ॥ १८६॥ ततो नास्त्यत्र नश्चच्यं" दिगन्तव्याप्त कीर्तये । जितार्कमूर्तये देया कन्येवेत्य ककीर्तये ॥ १८७॥ सिद्धार्थोऽग्राह तत्सर्वमस्ति किञ्च पुराविदः " । कनीयसोऽपि " सम्बन्धं नेच्छन्ति ज्यायसा सह" ॥ ततः प्रतीतभूपालपुत्रा वरगुणान्विताः । प्रभञ्जनो रथवरो बलिर्वज्जायुधा ह्वयः ॥ १८६॥ ३६९ पास गई । राजाने भी उठकर और हाथ जोड़कर उसके दिये हुए शेषाक्षत लेकर स्वयं अपने मस्तकपर रखे तथा यह कहकर कन्याको विदा किया कि हे पुत्रि, तू उपवाससे खिन्न हो रही है, अब घर जा, यह तेरे पारणाका समय है ।।१७३ - १७९ ।। राजा पूर्ण यौवनको प्राप्त हुई उस विकारशून्य कन्याको देखकर उसके विवाहोत्सवकी चिन्ता करने लगा ।। १८० ।। उसने किसी शुभ दिनको कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी और संभिन्नश्रोतृ इन चारों बुद्धि ऋद्धियों के समान श्रुतार्थ, सिद्धार्थ, सर्वार्थ और सुमति नामके मंत्रियोंको बुलाया ॥ १८९॥ और पूछा कि हमारे कुलके प्राणस्वरूप इस कन्याके लिये सभी राजा लोग प्रार्थना करते हैं इसलिये तुम लोग विचार कर कहो कि यह कन्या किसको दी जाय ? ।। १८२ ॥ | इस प्रकार पूछने पर शास्त्रोंका समुद्र श्रुतार्थ नामका मंत्री बोला कि इस विवाह में सज्जन बन्धुओंका समागम होना चाहिये, जमाई बड़े कुलका होना चाहिये, इस विवाह में बहुत सा धन खर्च होगा और हम लोगों को अपने जन्म तथा राज्यका फल मिलेगा इसलिये नीतिनिपुण पुरुषों को इस कार्यका अच्छी तरह विचार करना चाहिये ।। १८३-१९८४ ॥ यदि यह सम्बन्ध चक्रवर्तीके साथ किया जाय तो सब राजा अपने बन्धु हो सकते हैं और आपका वंश भी इक्ष्वाकु वंशकी तरह पूज्य हो सकता है ।। १८५ ।। कुल, रूप, वय, विद्या, चारित्र, शोभा और पौरुष आदि जो जो गुण वरोंमें खोजना चाहिये वे सब उसमें इकट्ठे हो गये हैं । इसलिये इसमें कुछ चर्चाकी आवश्यकता नहीं है जिसकी कीर्ति सब दिशाओं में फैल रही है और जिसने अपने तेजसे सूर्य के प्रतिविम्बको भी जीत लिया है ऐसे चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीर्ति के लिये यह कन्या दी जाय ।। १८६१८७।। इसी समय सिद्धार्थ मंत्री कहने लगा कि आपका यह सब कहना ठीक है परन्तु पूर्व व्यवहारको जाननेवाले छोटे लोगोंका बड़ोंके साथ सम्बन्ध होना भी अच्छा नहीं समझते हैं। || १८८|| इसलिये बरके गुणोंसे सहित प्रभंजन, रथवर, बलि, वज्रायुध, मेघेश्वर ( जयकुमार ) और भीमभुज आदि अनेक प्रसिद्ध राजपुत्र हैं जो एकसे एक बढ़कर वैभवशाली हैं तथा चतुर ६ १ गच्छ । २ तव । ३ गृहम् । शरणं गृहरक्षित्रो:' इत्यभिधानात् । ४ विवाह । ५ नामधेयान् । कोष्ठबुद्धिबीजबुद्धिपदानुसारिसम्भिन्नश्रोतृभेदानिव । ७ वृण्वते ल०, म०, प०, स०, इ० । प्रार्थयन्ते । ८ विचार्य । ६ पृच्छति स्म । १० धनस्य । ११ अथ वा जन्मनः फलं राज्यस्य फलम् । १२ मृग्यम् । १३ अर्ककीर्तौ । १४ विचार्यम् । १५ इति प्राहेति सम्बन्धः । १६ – मस्तु ल० म०, प० । १७ पूर्ववेदिनः । १८ अल्पस्य । १६ महता सह । ज्यायसां ल०, ब० । ४७ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् मेघस्वरो भीमभुजस्तथाऽन्येऽप्युदितोदिताः । कृतिनो बहवः सन्ति तेषु यत्राशयोत्सवः ॥ १६०॥ शिष्टान् पृष्ट्वा च 'देवज्ञान्निरीक्ष्य शकुनानि च । स हितः 'समसम्बन्धस्तस्मै कन्येति दीयताम् ॥१६१ ॥ श्रुत्वा सर्वार्थवित्सर्वं सर्वार्थः प्रत्युवाच तत् । भूमिगोचरसम्बन्धः स नः प्रागपि विद्यते ॥ १६२ ॥ अपूर्व लाभः श्लाघ्यश्च विद्याधरसमाश्रयः । विचार्य तत्र कस्मैचियेयमिति निश्चितम् ॥ १६३ ॥ सुमतिस्तं निशम्यार्थ' 'युक्तानामाह युक्तवित् । न युक्तं वक्तुमप्येतत् सर्ववैरानु बन्धकृत् ॥१६४॥ किं भूमिगोचरेष्वस्या वरो नास्तीति चेतसि । चक्रिणोऽपि भवेत्किञ्चिद् वैरस्यं प्रस्तुतश्रुतेः " ॥१६५॥ दृष्टः सम्यगुपायोऽयं मयाऽत्रैकोऽविरोधकः । श्रुतः पूर्वपुराणेषु स्वयंवरविधिर्वरः ॥ १६६ ॥ सम्प्रत्यकम्पनोपक्रमं तदस्त्वायुगावधि" । १५ पुरुतत्पुत्रवत्सृष्टि " ख्यातिरस्यापि जायताम् ॥१६७॥ दीयतां कृतपुण्याय कस्मैचित् कन्यका स्वयम् । वेधसा विप्रियं" नोऽमा माभूद् भूभृत्सु " केनचित् । १६८ । इत्येवमक्तं तत्सर्वैः सम्मतं सहभूभुजा । नहि मत्सरिणः सन्तो न्यायमार्गानुसारिणः ॥ १६६॥ तान् सम्पूज्य विसर्ज्याभूद् "भूभृतत्कार्यतत्परः । स्वयमेव गृहं गत्वा सर्वं तत्संविधानकम् ॥ २००॥ हैं उनमें जिसके लिये अपना चित्त प्रसन्न हो उसके लिये शिष्ट जन तथा ज्योतिषियोंसे पूछकर और उत्तम शकुन देखकर कन्या देनी चाहिये क्योंकि बराबरीवालोंके साथ सम्बन्ध करना ही कल्याणकारी हो सकता है ।। १८९ - १९१ ।। यह सब सुनकर समस्त विषयोंको जाननेवाला सर्वार्थ नामका मंत्री बोला कि भूमिगोचरियोंके साथ तो हम लोगोंका सम्बन्ध पहले से ही विद्यमान है, हां, विद्याधरोंके साथ सम्बन्ध करना हम लोगोंके लिये अपूर्व लाभ है तथा प्रशंसनीय भी है इसलिये विचारकर विद्याधरोंमें ही किसीको यह कन्या देनी चाहिये ऐसा मेरा निश्चित मत है । १९२ - १९३ ।। तदनन्तर वहाँपर एकत्रित हुए सब लोगोंका अभिप्राय जानकर योग्य बातको जाननेवाला सुमति नामका मंत्री बोला कि यह सब कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ये सभी बातें शत्रुता उत्पन्न करनेवाली हैं ।। १९४ ।। विद्याधरको कन्या दी हैं यह सुननेसे चक्रवर्तीके चित्तमें भी क्या भूमिगोचरियोंमें इसके योग्य कोई वर नहीं है यह सोचकर कुछ बुरा लगेगा ।। ९९५ ।। इस विषय में किसीसे विरोध नहीं करनेवाला एक अच्छा उपाय मैंने सोचा है और वह यह है कि प्राचीन पुराणों में स्वयंवरकी उत्तम विधि सुनी जाती है । यदि इस समय सर्वप्रथम अकम्पन महाराजके द्वारा उस विधिका प्रारम्भ किया जाय तो भगवान् वृषभदेव और उनके पुत्र सम्राट् भरतके समान संसारमें इनकी प्रसिद्धि भी युगके अन्ततक हो जाय ।। १९६-१९७।। इसलिये यह कन्या स्वयंवरमें जिसे स्वीकार करे ऐसे किसी पुण्यशाली राजकुमारको देनी चाहिये। ऐसा करनेसे हम लोगों का आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेव अथवा युगव्यवस्थापक सम्राट् भरतसे कुछ विरोध नहीं होगा, और न राजाओंका भी परस्पर में किसी के साथ कुछ वैर होगा ।। १९८ ।। इस प्रकार सुमति नामके मंत्रीके द्वारा कही सब बातें राजाके साथ साथ सबने स्वीकृत कीं सो ठीक ही है क्योंकि नीतिमार्गपर चलनेवाले पुरुष मात्सर्य नहीं करते ।।१९९ ।। तदनन्तर राजाने सन्मानकर मंत्रियोंको विदा किया और स्वयं ३७० ५ अस्माभिः सह ८ १ उपर्युपर्यभ्युदयवन्तः । २ पुंसि । ३ चित्तोत्सवोऽस्ति । ४ ज्योतिष्कान् । सम्बन्धः सम्बन्धवान् वा । ६ तम् अ०, प०, स०, इ०, ल०, म० । ७ भूचर । अभिप्रायम् । ६ मिलितानाम् । श्रुतार्थादीनाम् । १० सर्व वैरा-प०, ल० । ११ विवाहवार्ताश्रवरणात् । १२ पूर्वस्मिन् श्रुतः । १३ अकम्पनेन प्रक्रमोपक्रान्तम् । १४ स्वयंवरनिर्माणम् । १५ पुरुजित् भरतराजवत् । १६ स्रष्टुः ट० । स्वयंवरस्य स्रष्टा इति प्रसिद्धिः । सृष्टिरिति पाठे स्वयंवरस्य सृष्टिप्रसिद्धिः । १७ ब्रह्मणा । 'स्रष्टा प्रजापतिर्वेधा विधाता विश्वसृविधिः' इत्यभिधानात् । १८ विरुद्धम् । अप्रियमित्यर्थः १६ नृपेषु । २० मन्त्रिणः । २१ अकम्पनः । २२ स्वयंवरकार्यं । २३ प्रस्तुतं कृत्य । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशतमं पर्व ३७१ निवेध 'सुप्रभायाश्च हृष्टो हेमाङ्गदस्य च । वृद्धैः कुलत्रमायातैः श्रालोच्य च सनाभिभिः ॥ २०१ ॥ अत्रैषां निसृष्टार्थान्" मितार्थानपरान् प्रति । परेषां 'प्राभूतान्तः स्थपत्रान् शासनहारिणः ॥ २०२॥ स दानमान: सम्पूज्य निवेद्येतत्प्रयोजनम्' । समानेतुं महीपालान् सर्व विक्कं समादिशत् ॥ २०३॥ ज्ञात्वा तदाशु तद्बन्धुविचित्राङगदसंज्ञकः । सौधर्मकल्पादागत्य देवोऽवधिविलोचनः ॥ २०४ ॥ प्रकम्पनमहाराजम श्रालोक्य वयमागताः । सुलोचनायाः पुण्याया: स्वयंवरमवेक्षितुम् ॥ २०५ ॥ इत्युक्त्वोपपुरे योग्ये रम्य राजाभिसम्मतः । ब्रह्मस्थानोत्तरे भागे प्रधीरे" वरवास्तुनि " ॥ २०६ ॥ प्रामुखं सर्वतोभद्रं मङगलद्रव्यसम्भूतम् । विवाहमण्डपोपेतं प्रासादं बहुभूमिकम् " ॥२०७॥ चित्रप्रतो" लोप्राकारपरिकर्मगृहावृतम् " । भास्वरं मणिभर्माभ्यां विधाय विधिवत् सुधीः ॥ २०८ ॥ तं परीत्य विशुद्धोरु सुविभक्तमहीतलम् । चतुरस्त्रं चतुर्द्वारशालगोपुरसंयुतम् ॥२०६॥ रत्न तोरणसकीर्ण केतुमालाविलासितम् । हटत्कूटाग्रनिर्मासि भर्मकुम्भाभिशोभितम् ॥२१०॥ स्थूलनीलोत्पलाबद्धस्फुरद्दीप्तिधरातलम् । विचित्रनेत्र विस्तीर्णवितानातिविराजितम् ॥२११ ॥ कार्य करनेमें जुट गया । उसने सबसे पहले घर जाकर ऊपर लिखे हुए समाचार सुप्रभादेवी और हेमांगद नामके ज्येष्ठ पुत्रको कह सुनाये तथा कुलपरम्परासे आये हुए वृद्ध पुरुषों और सगोत्री बन्धुओंके साथ पूर्वापर विचार किया |२०० - २०१|| कितने ही राजाओंके पास निसृष्टार्थ अर्थात् स्वयं विचारकर कार्य करनेवाले दूत भेजे, कितनों हीके पास मितार्थ अर्थात् कहे हुए परिमित समाचार सुनानेवाले दूत भेजे और कितनों हीके पास उपहारके भीतर रखे हुए पत्रको ले जानेवाले दूत भेजे । इस प्रकार दान और सन्मानके द्वारा पूजित कर तथा स्वयंवर का प्रयोजन बतलाकर राजाने भूपालोंको बुलानेके लिये सभी दिशाओं में अपने दूत भेजे ॥। २०२ - २०३ ।। यह सब समाचार जानकर अवधिज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाला विचित्रांगद नामका देव जो कि पूर्वभवमें राजा अकम्पनका भाई था सौधर्म स्वर्ग से आया और अकम्पन महाराजके दर्शन कर कहने लगा कि मैं पुण्यवती सुलोचनाका स्वयंवर देखनेके लिये आया हूँ ।।२०४ - २०५ ॥ ऐसा कहकर उसने राजाकी आज्ञानुसार नगरके समीप ब्रह्मस्थान से उत्तरदिशाकी ओर अत्यन्त शान्त, उत्कृष्ट, योग्य और रमणीय स्थानमें एक सर्वतोभद्र नाम का राजभवन बनाया जिसका मुख पूर्व दिशाकी ओर था, जो मङ्गलद्रव्योंसे भरा हुआ था, विवाहमण्डपसे सहित था तथा कई खण्डका था ।। २०६ - २०७ ।। वह राजभवन अनेक प्रकार की गलियों, कोटों तथा शृङ्गार करनेके घरोंसे घिरा हुआ था, देदीप्यमान था और मणियों तथा सुवर्ण से बना हुआ था। इस प्रकार उस बुद्धिमान् देवने विधिपूर्वक राजभवनकी रचना कर उसके चारों ओर स्वयंवरका महाभवन बनाया था जो कि विशुद्ध था, बड़ा था, जिसका पृथ्वीभाग अलग अलग विभागों में विभक्त था, जो चौकोर था, जिसमें चार दरवाजे थे, जो कोट तथा गोपुरद्वारोंसे सुशोभित था, रत्नोंके तोरणोंसे मिली हुई पताकाओं की पंक्तियोंसे शोभायमान हो रहा था, देदीप्यमान शिखरोंके अग्रभागपर चमकते हुए सुवर्णके कलशोंसे अलंकृत १ सुप्रजायाश्च अ०, प० । २ निजज्येष्ठपुत्रस्य । ३ केषाञ्चिन्नृपाणाम् । ४ स्वयमेव विचारितकार्यान् । ५ परिमितकार्यार्थान् । ६ उपायन । ७ वचोहरान् । - पत्रशासन-ल० । ८ स्वयंवरकार्यम् । ६ स्वयंवर - दिशाम् । १० अकम्पनस्य मित्रम् । ११ पवित्रायाः । १२ पुरसमीपे । १३ पदविन्यासान्निश्चितमध्यभागस्योत्तरे । १४ अतिगम्भीरे । १५ वरवास्तुदेशे । 'वेश्म भूर्वास्तुरस्त्रियाम् इत्यभिधानात् । १६ – भूमिपम् ल०, म० । १७ गोपुररथ्या वा । १८ शृंगारगृह । १६ 'भर्मं रुक्मं हाटकं शातकुम्भम्' इत्यभिधानपाठाददन्तः । २० सर्वतोभद्रं परिवेष्ट्य । २१ द्वारं शाल-ल०, म० अ०, प०, स०, इ० । २२ कनककलश । २३ वस्त्रविशेष । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ महापुराणम् भोगोपभोगयोग्योरुसर्ववस्तुसमाचितम् । यथास्थानगताशेषरत्नकाञ्चननिर्मितम् ॥२१२॥ मुदा निष्पादयामास स्वयंवरमहागृहम् । न साधयन्ति केऽभीष्टं पुंसां शुभविपाकतः ॥२१३॥ तं निरीक्ष्य क्षितेर्भर्त्ता लक्ष्मीलीलागृहायितम् । नासीत् स्वाङगे' स सन्तोषात् सन्मित्रात् किन्न जायते ॥ अथ प्रादुरभूत कालः "सुरभिर्मत्तमन्मथः । मुदं मदं च सञ्चिन्वन् कामिषु भमरेषु च ॥२१५॥ ववौ मन्दं गजोधृष्टचन्दनद्रवसारभृत । एलालवङगसंसर्गपङगुलो मलयानिलः ॥२१६॥ मलयानिलमाश्लेष्णु सम्बन्धिनमुपागतम् । लताद्रुमाः सुशाखाना 'प्रसारणभिवादधुः ।।२१७॥ यमसम्बन्धिदिक्त्यागं रविर्भात इवाकरोत् । मदेन कोकिलाः काले कूजन्ति स्म निरडकुशम् ॥२१८॥ १°पुष्पमार्तवमाप्ता न:१ शाखा न स्पशतेति तान् । अलीन वासं निषिध्यन्तश्चम्पकावचलपल्लवैः॥२१॥ वसन्तश्रीवियोगो वा सशोकोऽशोकभूरुहः। सपुष्पपल्लवो नाम साधं तत्सागमाद् व्यधात् ॥२२०॥ मूलस्कन्धानमध्येषु चूतायैरिव मत्सरात् । सुरभीणि प्रसूनानि सुरभिश्च३ तदा दधे ॥२२१॥ था, जिसका धरातल बड़े बड़े नीलमणियोंसे जड़ा हुआ होनेके कारण जगमगा रहा था, जो नेत्र जातिके वस्त्रोंसे बने हुए बड़े बड़े चंदोवोंसे सुशोभित था, भोग उपभोगके योग्य समस्त बड़ी बड़ी वस्तुओंसे भरा हुआ था और योग्य स्थानपर लगाये हुए सब प्रकार के रत्नों तथा सुवर्णसे बना हुआ था। इस प्रकारका स्वयंवरका यह महाभवन उस देवने बड़ी प्रसन्नतासे बनाया था सो ठीक ही है क्योंकि पुण्योदयसे पुरुषोंके अभीष्ट अर्थको कौन कौन सिद्ध नहीं करते हैं अर्थात् सभी करते हैं ॥२०८-२१३॥ लक्ष्मीके लीलागृहके समान उस स्वयंवर भवनको देखकर राजा अकंपन संतोषसे अपने शरीरमें नहीं समा रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम मित्रोंसे क्या नहीं होता है ? अर्थात् सभी कुछ होता है ॥२१४।। अथानन्तर-कामको उन्मत्त करनेवाले तथा कामी लोगों और भ्रमरोस क्रमश: आनन्द और मदको बढ़ानेवाले बसन्तऋतुका प्रारम्भ हुआ ॥२१५॥ हाथियोंके द्वारा घिसे हुए चन्दनवृक्षोंके निष्यन्दरूपी सारको धारण करनेवाला तथा इलायची और लवंगके संसर्गसे कुछ कुछ पीला हुआ मलयपर्वतका वायु धीरे धीरे बहने लगा ॥२१६।। उस समय लताओं और वृक्षोंकी जो शाखाएं फैल रही थीं उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो समीप आये हुए अपने सम्बन्धी मलयानिलका आलिंगन करने के लिये ही भुजारूप शाखाएं फैला रहे हों ॥२१७॥ उस समय सूर्यने मानो डरकर ही यम सम्बन्धी-दक्षिण दिशाका त्याग कर दिया था अर्थात् उत्तरायण हो गया था और कोयलें मदसे निरंकुश होकर मधुर शब्द कर रही थीं ॥२१८॥ 'ये हमारी शाखाएं आर्तव अर्थात् वसन्त ऋतुमें उत्पन्न होनेवाले अथवा रजस्वला अवस्थामें प्रकट होने वाले पूष्पको प्राप्त हो रही हैं-धारण कर रही हैं इसलिये इन्हें मत छओ' यही कहते हए मानो चंपाके वृक्ष अपने हिलते हुए पल्लवोंके द्वारा भ्रमरोंको वहांपर निवास करनेका निषेध कर रहे थे ॥२१९॥ जो वसन्त ऋतुरूपी लक्ष्मीके वियोगमें सशोक था अर्थात् शोक धारण कर रहा था ऐसा अशोकका वृक्ष उस वसन्त ऋतुके सम्बन्धसे फल और पल्लवोंसे सहित हो अपना अशोक नाम सार्थक कर रहा था ॥२२०॥ उस समय चमेलीने आम आदि वृक्षोंके साथ ईर्ष्या १ सम्भृतम् । २ प्रदेशमनतिक्रम्य । ३ शुभकर्मोदयात् । ४ हर्षेण निजशरीरे न ममावित्यर्थः । नामात् ल०, म०, अ०, स०, प०, इ०। ५ वसन्तः। 'वसन्ते पुष्पसमयः सुरभिीष्म उष्मकः ।' इत्यभिधानात् । ६ पदवैकल्यवान् । ७ आलिङनाय । ८ करप्रसारणमिव । चक्रिरे । १० ऋतुं पुष्पोत्पत्तिनिमित्तभूतकालविशेषं रजोत्पत्तिनिमितं कालविशेषञ्च । ११ अस्माकम् । १२ वियोगे ल० । १३ सल्लकीतरुः । “गन्धिनी गजभक्ष्या तु सुवहा सुरभी रसा। महेरुणा कुन्दुरुको सल्लकी हलादिनीति च" इत्यभिधानात् । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ३७३ आकृष्ट दिग्गजालीनि' बकुलानि वन वने। हानौ गुणाधिकान्यासंस्तुलितानि कुलोद्गतः ॥ कीडनासक्तकान्ताभिर्बाध्यमानाः सगीतिभिः । आन्दोलाः स्तम्भसम्भूतैः समाक्रोशशिव स्वनः ।।२२३॥ सुन्दरेष्वपि कुन्देष मधुपा मन्दतृप्तयः। माधवीमधुपानेन मुदा मधुरमारुवन् ॥२२४॥ भवेदन्यत्र'कामस्य रूपवित्तादि साधनम् । कालैकसाधनः सोऽस्मिन्ना वनस्पति जम्भते ॥२२५॥ नरविद्यापराधीशान् गत्वा "तत्कालसाधनात् । दूताः स्वयंवरालापं सर्वास्तान् समबोधयन् ॥२२६॥ ततो नानानकध्वानप्रोत्कर्णीकृतदिग्द्विपाः । निजाङगनाननाम्भोजपरिम्लानिविधायिनः ॥२२७॥ "वियद्विभतिमाकम्य विमानैर्गतमानकैः । सद्यो विद्याधराधीशा द्योतमानदिगाननाः ॥२२॥ सुलोचनाभिधाकृष्टि विद्याकृष्टाः समापतन् । कामिनां न पराकृष्टि विद्यागक्त्वेप्सितस्त्रियः ॥ होने के कारण ही मानो जड़, स्कन्ध, मध्यभाग और ऊपर-सभी जगह सुगन्धित फूल धारण किये थे ॥२२१।। जिन्होंने दिग्गजोंके भ्रमरोंको भी अपनी ओर खींच लिया है और जो उच्चकुलमें उत्पन्न हुए बड़े पुरुषोंके समान हैं ऐसे मौलश्रीके वृक्ष प्रत्येक वनमें अपनी हानि होनेपर भी गुणोकी अधिकता हो धारण कर रहे थे । भावार्थ-जिस प्रकार कुलीन मनुष्य हानि होनेपर भी अपना गुण नहीं छोड़ते हैं उसी प्रकार मौलश्रीके वक्ष भी भ्रमरों द्वारा रसका पान किया जाना रूप हानिके होनेपर भी अपना सुगन्धिरूप गुण नहीं छोड़ रहे थे ॥२२२॥ जो गीत गा रही हैं तथा खेलने में लगी हुई हैं ऐसी सुन्दर स्त्रियां जो झूला झूल रहीं थीं और उनके झूलने से जो उनके खंभोंसे चूं चूं शब्द हो रहा था उनसे वे झूले ऐसे जान पड़ते थे मानो उन स्त्रियोंके द्वारा पीड़ित होकर ही चिल्ला रहे हों ॥२२३॥ जिन्हें कुन्दके सुन्दर फलोंपर अच्छी तृप्ति नहीं हुई है ऐसे भ्रमर माधवी (मधुकामिनी) लताका रस पीकर आनन्दसे मधुर शब्द कर रहे थे ॥२२४॥ वसन्तको छोड़कर अन्य ऋतुओंमें अच्छा रूप होना आदि भी कामदेवके साधन हो सकते हैं परन्तु इस वसन्तऋतुमें एक समय ही जिसका साधन है ऐसा यह काम वनस्पतियों तक फैल जाता है। भावार्थ-अन्य ऋतुओंमें सौन्दर्य आदिसे भी कामकी उदभति हो सकती है परन्तु बसन्तऋतुमें कामकी उद्भतिका कारण समय ही है । उस समय सौन्दर्य आदिका अभाव होनेपर भी केवल समयकी उत्तेजनासे कामकी उद्भति देखी जाती है और उसका क्षेत्र केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं रहता किन्तु वनस्पतियों तकमें फैल जाता है ॥२२५॥ उस वसन्तऋतुकी सहायतासे उन दूतोंने भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंके पास जाकर उन सबको स्वयंवरके समाचार बतलाये ॥२२६॥ तदनन्तर अनेक नगाड़ोंके शब्दोंसे दिग्गजोंके कान खड़े करनेवाले अपनी स्त्रियोंके मुखरूपी कमलोंको म्लान करनेवाले, सब दिशाओंके मुखको प्रकाशित करनेवाले और सुलोचना इस नामरूपी आकर्षिणी विद्यासे आकर्षित हुए अनेक विद्याधरोंके अधिपति अपने अनेक विमानों से आकाशके विस्तारको कम करते हुए बहुत शीघ्र आ पहुंचे सो ठीक ही है क्योंकि कामी लोगों को अपनी अभीष्ट स्त्रियोंको छोड़कर और कोई उत्तम आकर्षिणी विद्या नहीं है ॥२२७-२२९।। १ आकृष्टा दिग्गजगण्डवर्त्यलयो यस्तानि । २ पुष्पामोदत्यागे सति । ३ गन्धगणाधिकानि । उपकारादिगुणाधिकानि । ४ सदशीकृतानि । ५ विशुद्धवंशोद्भूतैः । ६ आक्रोशं चक्रिरे । ७ ध्वनन्ति स्म। ८ अन्यस्मिन् काले। ६ स्त्रीपुंसां रूपधनभूषणादि । १० काल एक एव साधनं यस्य सः । ११ वसन्तकाले । १२ बनस्पतिपर्यन्तम् । १३ वर्धते। १४ वसन्तकाल।, १५ आकाशविस्तृतिम् । १६ अपरिच्छिन्नप्रमाणकैः । अपरिमितरित्यर्थः । -ततमानकैः ल०, म०। १७ सुलोचनानामैव आकर्षणविद्या तया आकृष्टा आकर्षिता । १८ आगच्छन्ति स्म। १६ आकर्षरगविद्या । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ महापुराणम् अभिगम्य नृपः क्षिप्रं स्वयमाविष्कृतोत्सवः। चेतःसौलोचनं वैतान प्रीतान् प्रावेशयत्पुरम् ॥२३०॥ स्वगहादिषु सम्प्रीत्या समुद्बद्धोत्सवध्वजः । प्राकम्पनिभिराविष्कृतावरैः परिवारितः ॥२३१॥ सांशु कर्ममिवोद्यन्तम् अर्ककीर्ति सहानुजम् । अकम्पननपोऽभत्य भरतं वाऽनयत्पुरम् ॥२३२॥ स्वादरेणव संसिद्धि भाविनीं तस्य सूचयन् । नाथवंशाग्रणीमघस्वरं चानेतुमभ्ययात् ॥२३३॥ ततो महीभृतः सर्वे त्रिसमद्रान्तरस्थिताः । पूरा इव पयोराशि प्रापुः 'स्फीतीकृतश्रियः ॥२३४॥ स्वयमर्थपथं गत्वा केषाञ्चित् सर्वसम्पदा । केषाञ्चिद् गमयित्वाऽन्यान् मान्यान् हेमाङगदादिकान् ॥२३॥ ये ये यथा यथा प्राप्ताः पुरीस्तां स्तांस्तथा तथा। आह्वयन्तीं पताकाभिर्वोच्छिताभिरवीविशत् ॥२३६॥ तदा तं राजगहस्थं नरविद्याधराधियः। वृत्तं सुलोचनाकार्षीत् पितरं जितचक्रिणम् ॥२३७॥ वाराणसी जितायोध्या स्वनाम्नस्तां निराकरोत् । कन्यारत्नात् परं नान्यद् इत्यत्राहुःप्रभृत्यतः।२३८॥ तान् स्वयंवरशालायाम् अर्ककीर्तिपुरस्सरान् । निवेश्य प्रीणयामास कृताभ्यागतसक्रियः ॥२३॥ अनेक उत्सवोंको प्रकट करनेवाले राजा अकंपनने स्वयं ही बहुत शीघ्र उन राजाओंकी अगवानी की और प्रसन्न हुए उन राजाओंको सुलोचनाके चित्तके समान वाराणसी नगरीमें प्रवेश कराया ॥२३०॥ जिसने बड़े प्रेमसे अपने घर आदिमें उत्सवकी ध्वजाएं बंधाई हैं और आदरको प्रकट करनेवाले हेमांगद आदि पुत्र जिसके साथ हैं ऐसे राजा अकम्पनने किरणों सहित उदय होते हुए सूर्य के समान अपने छोटे भाइयों सहित आये हुए अर्ककीर्तिकी अगवानी कर उसे महाराज भरतके समान नगरमें प्रवेश कराया ॥२३१-२३२॥ इसी प्रकार अपने आदरसे ही मानो उसकी आगे होनेवाली सिद्धिको सूचित करता हुआ नाथवंशका अग्रणी राजा अकंपन जयकुमार को लेने के लिये उसके सामने गया ॥२३३।। तदनन्तर जिस प्रकार पूर समुद्र की ओर जाता है उसी प्रकार तीनों (पूर्व, पश्चिम, दक्षिण) समुद्रोंके बीचके रहनेवाले सब राजा लोग अपनी अपनी शोभा बढ़ाते हुए बनारस आ पहुंचे ।।२३४॥ राजा अकंपन कितने ही राजाओंके सामने तो अपनी सब विभूतिके साथ स्वयं आधी दूरतक गया था और कितनों हीके सामने उसने मान्य हेमाङ्गद आदिको भेजा था ।।२३५॥ जो राजा जिस जिस प्रकारसे आ रहे थे उन्हें उसी उसी प्रकारसे उसने, अपनी फहराती हुई पताकाओंसे जो मानो बुला ही रही हों ऐसी बनारस नगरीमें प्रवेश कराया था ॥२३६।। उस समय सलोचनाने राजमहलमें विराजमान भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंसे घिरे हुए अपने पिताको चक्रवर्तीको भी जीतनेवाला बना दिया था। भावार्थ-महलमें इकट्ठे हुए अनेक राजाओंसे राजा अकंपन चक्रवर्तीके समान जान पड़ता था ।।२३७। उस समय अयोध्याको भी जीतनेवाली वाराणसी नगरी अपने नामसे ही उसका तिरस्कार कर रही थी। क्योंकि उस स्वयंवरके समय से ही लेकर इस संसारमें कन्यारत्नके सिवाय और कोई उत्तम रत्न नहीं है, यह बात प्रसिद्ध हुई है। भावार्थ-कदाचित् कोई कहे कि चक्रवर्तीकी राजधानी होनेसे चौदह रत्न अयोध्यामें ही रहते हैं इसलिये वही उत्कृष्ट नगरी हो सकती है न कि वाराणसी भी; तो इसका उत्तर यह है कि संसारमें सर्वोत्कृष्ट रत्न कन्यारत्न है जो कि उस समय वाराणसीमें ही रह रहा था अतः उत्कृष्ट रत्नका निवास होनेसे वाराणसीने अयोध्याका तिरस्कार कर दिया था ।।२३८।। अतिथियोंका सत्कार -- ----------- १ अभिमुखं गत्वा । २ अकम्पनः । ३ सुलोचनाचित्तमिव । ४ अकम्पनस्यापत्यः । ५ अभिमुखं गत्वा। ६ भरतमिव । ७ अकम्पनस्यादरेण । ८ वृद्धीकृत । ६ प्रावेशयत् । १० अयोध्याभिधानात् । ११ अयोध्योक्तिम् । अथवा योद्धमशक्या अयोध्या एतल्लक्षणं तदा तस्या अयोध्याया नास्तीति भावः । १२ उत्कृष्टम् । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व पुरोपजित सद्धर्मात् सर्वमेतत्ततः पुरा । धर्म एव समभ्यर्च्य इति सञ्चित्य विद्वरः ॥ २४० ॥ कृत्वा जैनेश्वरीं पूजां दीनानाथवनीपकान् । अनथिनः समर्थ्याशु सर्वत्यागोत्सवोद्यतः ॥२४१॥ तां लक्ष्मीमक्षयां मत्वा सफलां चाप्तसद्व्ययाम् । स तदाभूत् क्षतेरेकभोग्यः क्षितिरिवात्मनः ॥ २४२ ॥ एवं विहिततत्पूजः प्रकृतार्थं प्रचक्रमे । प्रारम्भाः सिद्धिमायान्ति पूज्यपूजा' पुरस्सराः ॥ २४३॥ श्रास्फालिता तदा भेरी विवाहोत्सवशंसिनी । व्याप्नोत् प्रमोदः प्राक् चेतः पश्चात् कर्णेषु तद्ध्वनिः । । पुष्पोपहारभूभागानुत्यत्केतुनभस्तला । निर्जिताब्धिमहात्सूर्यध्वानाध्मातदिगन्तरा ॥ २४५॥ विशोधित महावीथिदेशा प्रोद्बद्धतोरणा । पुनर्नवसुधाक्षोदधवलीकृत सौधिका १२ ॥२४६॥ रञ्जिताञ्जनक्षेत्रा मालाभारिशिरोरुहा । संस्कृतभ्भ्रूलतोपेता सविशेषललाटिका ॥२४७॥ "मणिकुण्डलभारेण प्रलम्बश्रवणोज्ज्वला । सचित्रकरविन्यस्त" पत्रचित्रकपोलिका ॥ २४८ ॥ ताम्बूलरससंसर्गाद् द्विगुणारुणिताधरा । मुक्ताभरणभाभारभासिबन्धुरकण्ठिका ॥ २४६॥ सचन्दनरसस्फारहारवक्षः कुचाञ्चिता" । महामणिमयूखा ''तिभास्वद्भुजलतातता ॥२५०॥ करनेवाले राजा अकम्पनने उन अर्ककीर्ति आदि राजाओंको स्वयंवरशालामें ठहराकर प्रसन्न किया था ॥ २३९ ॥ | यह सब पहले उपार्जन किये हुए समीचीन धर्मसे ही होता है इसलिये सबसे पहले धर्म ही पूजा करने के योग्य है ऐसा विचारकर विद्वानों में श्रेष्ठ राजा अकंपन श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजाकर तथा दीन, अनाथ और याचकोंको अयाचक बनाकर सबका त्याग करनेरूप उत्सवके लिये शीघ्र ही तयार हो गया । वह अच्छे कामों में खर्च की हुई लक्ष्मीको क्षयरहित और सफल मानने लगा तथा जिस प्रकार उसकी पृथिवी उसके उपभोग करनेके योग्य थी उसी प्रकार उस समय वह समस्त पृथिवीके उपभोग करने योग्य हो गया था । भावार्थपृथिवीके सब लोग उसके राज्यका उपभोग करने लगे थे || २४० - २४२ ।। इस प्रकार उसने जिनेन्द्रदेवकी पूजाकर अपना प्रकृत कार्य प्रारम्भ किया सो ठीक ही है क्योंकि पूज्य पुरुषोंकी पूजा पूर्वक किये हुए कार्य अवश्य ही सफलताको प्राप्त होते हैं ॥ २४३ ॥ उसी समय विवाहके उत्सवको सूचित करनेवाली भेरी बज उठी सो पहले सबके चित्तमें आनन्द छा गया और पीछे भेरीकी आवाज कानों में व्याप्त हुई ॥ २४४ ॥ । उस समय वहां पृथिवीपर जहां तहां फूलों के उपहार पड़े हुए थे, आकाशमें पताकाएं नृत्य कर रही थीं, समुद्रकी गर्जनाको जीतनेवाले बड़े बड़े नगाड़ोंसे दिशाएं शब्दायमान हो रही थीं, वहांकी बड़ी बड़ी गलियां शुद्ध की गई थीं उनमें तोरण बांधे गये थे और बड़े बड़े महल नये चूनाके चूर्ण से पुनः सफेद किये गये थे || २४५२४६॥ वहांकी स्त्रियोंके उत्तम नेत्र कज्जलसे रंगे हुए थे, शिरके केश मालाओंको धारण कर रहे थे, भौंहरूपी लताएं संस्कार की हुई थीं, उनके ललाटपर सुन्दर तिलक लगा हुआ था, उज्ज्वल कर्ण मणियों के बने हुए कुण्डलों के भारसे कुछ कुछ नीचे की ओर झुक रहे थे, कपोलोंपर हाथसे बनाई हुई पत्ररचनाके चित्र बने हुए थे, पानके रसके संबन्धसे उनके ओठोंकी लाली दूनी हो गई थी, उनके कण्ठ मोतियोंके आभूषणोंकी कान्तिके भारसे बहुत ही सुशोभित हो रहे थे, उनका वक्षःस्थल चन्दनका लेप, बड़ा हार और स्तनोंसे शोभायमान हो रहा था, उनकी भुजारूपी लताएं बड़े बड़े मणियोंकी किरणोंसे देदीप्यमान हो रही थीं, उनका विशाल नितम्बस्थल ६ प्रकाश्य । ११ प्रसरति १ ततः कारणात् । २ पूर्वम् । ३ विदां वरः । ४ याचकान् । ५ अनिच्छन् । ७ सर्वजनस्य । ८ कृतजिनपूजः । ६ प्रकृतकार्यम् । १० पूज्यानां पूजा पुरस्सरा येषु ते । स्म । १२ नूतनसुधालेपधवलीकृतहर्म्या | १३ तिलकसहितभालस्थला । १४ रत्नकर्णवेष्टन । १५ प्रशस्तचित्रिकाजनचित्रितमकरिकापत्रादिविविध रचनावद्गण्डमण्डल । १६ मनोज्ञग्रीवा । १७ प्रशस्तश्रीखण्डकर्दमकलितवक्षसास्फुररणहारान्वितकुचाभ्यां च पूजिता । १८ मयूखाभा 'त०' पुस्तकं विहाय सर्वत्र । ३७५ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिका ३७६ महापुराणम् रशनारज्जुविभाजिसुविशालकटीतटी। मणिन पुरनि?षत्सिताब्जक्रमाब्जिका ॥२५१॥ जितामरपुरीशोभा सौन्दर्यात् सा पुरी तदा । प्रसाधनमय कायम् 'अधिताचिन्त्य वैभवम् ॥२५२॥ उत्सवो राजगहस्य नगरेणव वर्णितः । अगाधो यदि पर्यन्तो मध्यमब्धः किमुच्यते ॥२५३॥ न चित्रं तत्र' मच्चित्ती सोत्सवोऽन्तर्बहिश्च तत् । तद्वत्स्वभूषया यस्मात् कुडयाद्यपि विचेतनम् ।२५४।। भोक्तृशून्यं न भोगाडगं न भोक्ता भोगजितः । तत्र सन्निहितोऽनङगो लक्ष्मीश्चाविष्कृतोदया।२५५१ पश्य पुण्यस्य माहात्म्यमिहापीति तदुत्सवम् । विलोक्य कृतधर्माणः पुरस्थान् बहु मेनिरे ॥२५६॥ उपसुन्बन फलं मत्वा धर्मस्य मुनयोऽपि तत् । धर्माधर्मफलालोकात् स्वभावः स हि तादृशाम् ॥२५७॥ कन्यागृहात्तदा कन्याम् अन्यां वा कमलालयाम्" । पुरोभूय५ "पुरन्ध्यस्तामोषल्लज्जात्तसाध्वसाम्" विवाहविधिवेदिन्यः कृततत्कालसत्कियाम् । समानीय सदैवज्ञा८ महातूर्यरवान्विताम् ॥२५॥ सर्वमङगलसम्पूर्ण मुक्तालम्बूषभूषिते । चतुःकाञ्चनसुस्तम्भे भूरिरत्नस्फुरत्त्विषि ॥२६०॥ प्रमोदात् सुप्रभादेशाद्० विवाहोत्सवमण्डप। कलधौतमये पट्टे निवेश्य प्राङमुखीं सुखम् ॥२६॥ करधनीरूपी रज्जुसे सुशोभित हो रहा था, और उनके चरणकमल मणिमयी नूपुरोंकी झनकार से कमलोंका तिरस्कार कर रहे थे ॥२४७-२५।। इस प्रकार अपनी सन्दरतासे स्वर्गपुरी शोभाको जीतनेवाली वह नगरी उस समय अचिन्त्य वैभवशाली अलंकारमय शरीरको धारण कर रही थी ॥२५२॥ राजमहलका उत्सव तो नगर ही कह रहा था क्योंकि समुद्रके किनारे का भाग ही जब अगाध है तब उसके बीचका क्या पूछना है ? भावार्थ-जब नगरमें ही भारी उत्सव हो रहा था तब राजमहलके उत्सवका क्या पूछना था ? ॥२५३॥ वहांके सचेतन प्राणी अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग सब जगह उत्सव मना रहे थे इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है क्योंकि वहांकी दीवाले आदि अचेतन पदार्थ भी तो अपने अलंकारों द्वारा सचेतन प्राणियोंके समान ही उत्सव मना रहे थे। भावार्थ-दीवालें आदि अचेतन पदार्थ भी अलंकारोंसे सुशोभित किये गये थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उल्लाससे अलंकार धारण कर स्वयं ही उत्सव मना रहे हों ॥२५४॥ वहांपर भोगोपभोगका कोई भी पदार्थ भोक्तासे रहित नहीं था और न कोई भोक्ता भी भोगोपभोगके पदार्थ से रहित था, वहांपर कामदेव सदा समीप ही रहता था और लक्ष्मी उदयरूप रहती थीं ।।२५५।। इस जन्म में ही पूण्यका माहात्म्य देखो ऐसा सोचते हुए कितने ही धर्मात्मा लोग वहांका उत्सव देखकर उस नगरके रहनेवाले लोगोंको बड़ी आदरकी दृष्टिसे देख रहे थे ॥२५६॥ मुनि लोग भी उसे धर्मका फल मानकर प्रसन्न हुए थे सो ठीक है क्योंकि धर्मका फल देखकर प्रसन्न होना धर्मात्मा लोगोंका स्वभाव है और अधर्मका फल देखकर प्रसन्न होना अधर्मात्मा लोगोंका स्वभाव है ॥२५७॥ उसी समय विवाहकी विधिको जाननेवाली सौभाग्यवती स्त्रियां, जिसने तात्कालिक सत्क्रियाएं की हैं, जो लज्जासे कुछ भयभीत हो रही हैं, जिसके आगे बड़े बड़े नगाड़ोंके शब्द हो रहे हैं ज्योतिष शास्त्रको जाननेवाले अनेक विद्वान् जिसके साथ हैं और जो दूसरी लक्ष्मीके समान जान पड़ती हैं ऐसी उस कन्याको उसके सामने जाकर उसके घरसे सब प्रकारके मंगल द्रव्योंसे भरे हुए, मोतियोंके आभूषणोंसे सुशोभित, सुवर्णके बने हुए चार उत्तम खम्भोंसे युक्त और अनेक रत्नोंकी कान्तिसे जगमगाते हुए १ अलंकारस्वरूपम् । २ बिभर्ति स्म । ३ -मब्धौ ल० । ४ पुर्याम् । ५ चेतनवान् । ६ उत्सववत् । ७ यस्मात् कारणात् । ८ स्रक्चन्दनादि । ६ नगरे । १० अस्मिन् जन्मन्यपि । किं पुनरुत्तरजन्मनीत्यपि शब्दार्थः । ११ तत्पुरोत्सवम् । १२ कृतपुण्याः । १३ उत्सवं प्राप्ताः । उदास्तन्वत् ल०। १४ लक्ष्मीम् । १५ पुरस्कृत्य । १६ कुटुम्बिन्यः । 'स्यात्तु कुटुम्बिनी पुरन्ध्री' इत्यभिधानात् । पुरं पोष्यबहुजनसमूहं धत्त इति पुरन्ध्री। पुत्रादिपोष्यवर्गशालिन्याः स्त्रिया नाम। १७ लज्जया स्वीकृत। १८ ज्योतिष्कसहिताः । १९ माला । २० सुप्रभामहादेवीनिरूपणात् । २१ फलके । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व कलशर्मुखविन्यस्तविलसत्पल्लवाधरः। अभिषिच्य विशुद्धाम्बुपूर्णः स्वर्णमयः शनैः ॥२६२॥ कृतमङगलनेपथ्यां नीत्वा नित्यमनोहरमा पूजयित्वाहतो भक्त्या सर्वकल्याणकारिणः ॥२६३॥ सिद्धशेषां समादाय क्षिप्त्वा शिरसि साशिषम् । स्थिताःप्रतीक्ष्य सल्लग्नं "तत्रावृत्याहितादरम् ॥२६४॥ इतो महीशसन्देशान् नरखेचरनायकाः । श्वास्ते प्रसाधितान् कृत्वा प्रसाधनविदस्तदा ॥२६॥ निजोचितासनारूढाः प्ररूढ श्रीसमुज्जवलाः। चलच्चामरसम्पत्त्या कान्त्या चामरसन्निभाः ॥२६६।। कुमार्या निजितः कामःप्राक् स्वमेव विकृत्य किम् । समागॅस्त पुनर्जेतुमिति शङकाविधायिनः ॥ कञ्चिदेकर वणीते साविति ज्ञात्वाऽप्यस्यवः । जेतुं सर्वेऽपि तां तस्थुः८ प्राशा हि महती नुणाम् ॥ केरलीकठिनोत्तुङगकुचकोटिविलङघन । श्रमापानीतसामर्थ्यात् परिक्षीणपरिक्रमम् ॥२६॥ माद्यन्मलयमातकटकण्डविनोदनात् । क्षतचन्दननिष्यन्दसान्द्रसौगन्ध्यबन्धुरम् ॥२७०॥ कावेरीवारिजास्वावप्रहृष्टाण्डजनिर्भर-। क्रीडोच्छलज्जलस्थूलकणमुक्तातिभूषणम् ॥२७१॥ वक्षिणानिलमापल्ल"कोत्कटानलदीपनम् । कोकिलालिकलालापर्वाचालमनुकलयन् ॥२७२३॥ विवाहोत्सव मण्डपमें बड़े हर्षके साथ महारानी सुप्रभाकी आज्ञासे आई और पूर्व दिशाकी ओर मखकर सखपूर्वक सोनेके पाटपर बिठा दिया। तदनन्तर मखपर रखे हए शोभायमान पल्लवों को धारण करनेवाले तथा विशुद्ध जलसे भरे हुए सुवर्णमय शुभ कलशोंसे उसका अभिषेक किया। फिर माङ्गलिक वस्त्राभूषणोंको धारण करनेवाली कन्याको नित्यमनोहर नामक चैत्यालयमें ले जाकर वहां उससे सबका कल्याण करनेवाले श्री अर्हन्तदेवकी पूजा कराई। उसके बाद सिद्ध शेषाक्षत लेकर आशीर्वादपूर्वक उसके शिरपर रक्खे और इतना सब कर चुकने के बाद वे स्त्रियां उसका आदर सत्कार करती हुई शुभ लग्नकी प्रतीक्षामें उसे घेरकर वहीं ठहर गई ॥२५८-२६४॥ इधर महाराज अकम्पनके संदेशसे, सजावटको जाननेवाले वे सब भूमिगोचरी और विद्याधरोंके अधिपति अपने आपको सजाकर अपने अपने योग्य आसनों पर जा बैठे। वे प्रकृष्ट शोभासे उज्ज्वल थे, ढलते हए चमरोंकी संपत्ति और कान्तिसे देवोंके समान जान पड़ते थे और ऐसी शंका उत्पन्न कर रहे थे मानो इस कुमारीने पहले ही कामदेवको जीत लिया था इसलिये वह कामदेव ही अपने बहुतसे रूप धारणकर उसे जीतनेके लिये पुनः आया हो ॥२६५-२६७॥ यह सुलोचना किसी एकको ही स्वीकार करेगी, ऐसा जानकर भी वे सब राजा लोग अहंकार करते हुए उसे जीतने के लिये वहां बैठे थे सो ठीक ही है क्योंकि मनुष्योंकी आशा बहुत ही बड़ी होती है ॥२६८॥ जो स्त्रियोंके मद्यके कुरलों तथा नूपुरोंकी झनकारसे सुशोभित बायें पैरोंके द्वारा वृक्षोंको भी कामी बना रहा है, जो बांयें हाथमें फूलोंका धनुष धारण कर दूसरे हाथसे आमकी मंजरीको खूब फिरा रहा है, जिसका पराक्रम प्रसिद्ध है और जिसने वसन्त ऋतुरूपी सेवकके द्वारा फूलरूपी समस्त शस्त्र बुला लिये हैं, ऐसा कामदेव, केरल देशकी स्त्रियोंके कठिन और ऊंचे करोड़ों कुचोंको उल्लंघन करनेसे उत्पन्न हुई थकावटके कारण जिसकी घूमने की शक्ति क्षीण हो गई है अर्थात् जो धीरे धीरे चल रहा है, मलय पर्वतके १ शुभैः अ०, प०, स०, म०, ल०, इ० । २ नित्यमनोहरनाम चैत्यालयम् । ३ -शेषं ल० । ४ प्रतीक्षा कृत्वा । ५ चैत्यालये। ६ कृतादरं यथा भवति तथा । ७ अकम्पनवाचिकात् । ८ अलङकृतान् । ६ प्रसिद्ध । १० आत्मानम् । ११ राजकुमाररूपेण वैकुर्वाणं कृत्वा । १२ सङगतवान् । १३ सुलोचनां जेतुम् । १४ प्रेक्षकाणां शङकां कुर्वाणाः। १५ अनिर्दिष्टं कञ्चिदेकं पुरुषम् । १६ स्वीकरोति । १७ अहंकारवन्तः । 'अहंकारवानहंयुः' इत्यभिधानात् । १८ निजोचितासनारूढाः सन्तस्तस्थुरिति सम्बन्धः । १६ केरलस्त्री। २० श्रमापनीतसामर्थ्य । २१ लङघनाज्जातश्रमेणापसारितसामथुन परिक्षीणगमनम् । २२ मलयाचलोत्पन्नकरिकपोलकण्डूयापनयनात् । २३ द्रवप्रस्रवण। २४ विरहतीव्राग्निसमुत्पादनम् । ४८ -- - Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ महापुराणम् योषितां मधुगण्डर्ष पुरारावरञ्जितैः। कुर्वन् वामाङघिभिश्चालम् अधिपानपि कामुकान् ॥२७३॥ कौसुमं धनु रादाय वामेनारूढविक्रमः । चतसन' करणोच्चैः परेण परिवर्तयन् ॥२७४॥ "वसन्तानु चरानीतनिःशेषकुसुमायुधः। जित्वा तदाखिलान् देशानप्यायात् कुसुमायुधः ॥२७॥ तदा पुरात् समागत्य कृती जितपुरन्दरः। समावि तसाम्राज्यो राज्यचिह्नपुरस्सरः ॥२७६॥ स्वलक्ष्मीव्याप्तसर्वांशः सुप्रभासहितः पतिः । स्वस्थात् स्वयंवरागारे स्वोचिते। स्वजन तः ॥२७७॥ चित्रं महेन्द्रदत्ताख्यो देवदत्तं रथं पृथुम । सज्जीकृतं समारोप्य कन्यामायात्तु कञ्चुकी ॥२७॥ समस्तबलसन्दोहं सम्यक् सन्नाह्य" सानुजः । हेमाङगदो जितानङगःप्रीत्याऽयात् परितो रथम् ॥२७॥ तूर्यध्वानाहतिप्रेडखदिक्कन्याकर्णपूरिका । संछनच्छत्रनिश्छिद्रच्छायाच्छादितभास्करा ॥२८॥ लक्ष्मीः पुरीभिवायोध्यां चक्रिदिग्विजयागमे । शालां प्रविश्य राजन्यलोचनाा सुलोचना ॥२८१॥ सर्वतोभद्रमारुह्य कञ्चुकीप्रेरिता नपान । न्यषिञ्चल्लोचनैर्लोलीलोत्पलदलैरिव ॥२२॥ चातका "वाऽन्दवृष्टया "ते तदृष्टया तुष्टिमागमन् । पालादः कस्य वा न स्याद् ईप्सितार्थसमागमे ॥ मदोन्मत्त हाथियोंके गण्डस्थलोंकी खाज खुजलानेसे टूटे हुए चन्दन वृक्षोंके निष्यन्दकी घनी सुगन्धिसे जो व्याप्त हो रहा है, कावेरी नदीके कमलोंके आस्वादसे हर्षित हुए पक्षियोंकी अल्हड़ क्रीड़ासे उछलती हुई जलकी बड़ी बड़ी बूंदें ही जिसके मोतियोंके आभूषण हैं, जो विरहरूपी तीव्र अग्निको प्रज्वलित करनेवाला है और कोयल तथा भ्रमरोंके मनोहर शब्दोंसे जो वाचालित हो रहा है ऐसे दक्षिणके वायुको अनुकूल करता हुआ सब देशोंको जीतकर उस समय वहां आ पहुंचा था ॥२६९-२७५।। उसी समय, जिसने अपनी शोभासे इन्द्रको भी जीत लिया है, जिसका साम्राज्य प्रकट है, ध्वजा आदि राज्यके चिह्न जिसके आगे आगे चल रहे हैं, अपनी शोभासे जिसने समस्त दिशाएं व्याप्त कर ली हैं, सुप्रभा रानी जिसके साथ हैं, और जो अपने कुटुम्बीजनोंसे घिरा हुआ अर्थात् परिवारके लोग जिसके साथ साथ चल रहे हैं ऐसा पुण्यवान् राजा अकम्पन नगरसे आकर स्वयंवर मण्डपमें अपने योग्य स्थानपर आ विराजमान हुआ ॥२७६-२७७॥ उसी समय महेन्द्रदत्त नामका कञ्चुकी चित्राङ्गददेवके द्वारा दिये हुए, आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले बहुत बड़े अलंकृत रथपर कन्याको बैठाकर लाया ॥२७८॥ कामको जीतनेवाला हेमाङ्गद अपने छोटे भाइयोसहित, समस्त सेनाके समूहको अच्छी तरह सजाकर बड़े प्रेमसे कन्याके रथके चारों ओर चल रहा था ॥२७९॥ जिसके आगे आगे बजने वाले नगाड़ोंके शब्दोंके आघातसे दिशारूपी कन्याओंके कर्णपूर हिल रहे थे, जिसपर अच्छी तरह लगे हुए छत्रकी छिद्ररहित छायासे सूर्य भी ढंक गया था, और जो राजाओंके नेत्रोंसे पूजी जा रही थी अर्थात् समस्त राजा लोग जिसे अपने नेत्रोंसे देख रहे थे ऐसी सुलोचनाने, चक्रवर्ती के दिग्विजयसे लौटनेपर जिस प्रकार लक्ष्मी अयोध्यामें प्रवेश करती हैं उसी प्रकार स्वयंवरशालामें प्रवेश किया और वहां वह सर्वतोभद्र नामक महलपर चढ़कर कञ्चकीके द्वारा प्रेरित हो नीलकमलके दलके समान अपने चञ्चल नेत्रोंके द्वारा राजाओंको सींचने लगी ॥२८०२८२॥ जिस प्रकार चातक पक्षी मेघोंके बरसनेसे संतुष्ट होती हैं उसी प्रकार सब राजा लोग सुलोचनाके देखनेसे ही संतुष्ट हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि अपने अभीष्ट पदार्थके समागम १ अत्यर्थम् । २ कुसुमनिर्मितम् । ३ वामहस्तेन। ४ माकन्दप्रसूनम् । ५ दक्षिणकरेण । ६ परिभ्रमयन् । ७ वसन्त एवानुचरो भूत्यस्तेन समानीत । ८ आजगाम । ६ अकम्पनः । १० सुखेन स्थितवतः । ११ निजोचितस्थाने। १२ आश्चर्चयुक्तम् । १३ विचित्राङ्गददेवेन वितीर्यम् । १४ सन्नद्धं कृत्वा । १५ चलत् । १६ स्वयंवरशालाम । १७ सिन्नति स्म । अयोजयदित्यर्थः ।१८ इव । १६ नृपाः। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३७६ स्वसौभाग्यवशात सर्वान् साऽप्यालोक्यातुषत्तराम् । श्लाघ्यं तद्योषितां पुंसां शौयं वा निजितद्विषाम् ॥ ततः कञ्चुकिनिर्वेशाद् बाला लीलाविलोकितः । आकृष्य हृदयं तेषां तत्सौधात् समवातरत् ॥२८॥ यस्य यत्र गता स्यादृक् सा तत्रैवेव कीलिता । 'तत्तेऽस्यामवरूढायां खिन्ना वा तदनीक्षकाः ॥२८६॥ किडकिणीकृतझकारारावरम्य रथं ततः। व्यूढं रूढ हयैः स्वर्णकर्णचामरशोभिभिः ॥२७॥ उत्पतग्निपतत्केतुबाहुं नीरूपरूपिणाम् । साक्षादपह्नवाह्वाने० कुर्वन्तमिव सन्ततम् ॥२८॥ पुनरध्यास्य हुज्जन्मविद्येव हृदयप्रिया । मुक्ताभूषाप्रभामध्ये शारदीव तडिल्लता ॥२८॥ वीज्यमाना विधुस्पद्धिहंसासामलचामरैः । जनानां दृष्टिदोषान् वा धुन्वद्भिर्दूरतो मुहुः ॥२६॥ अवधूतः पुरग्नङ्गः सम्प्रति स्वीकृतोऽनया । प्रयोजनवशात् प्राज्ञैः प्रास्तोऽपि५ परिगृह्यते ॥२६॥ अस्याग्रह इवानङ्गः सद्यः सर्वाङ्गसङ्गतः । विकारमकरोत् स्वैरं भूयो भ्रूनेत्रवक्त्रजम् ॥२६२॥ साङगो यद्येतयाऽद्य वम एकीभावं वजामि किम् । इत्यनङगोऽप्यनङगत्वं स्वं मन्ये "साध्वबुध्यत ॥२६॥ लक्ष्मीः सा सर्वभोग्याऽभूद रतिव्यंगेन' भुज्यते । जितानङगानिभानेषा न्यक्कृत्य २०जयमाप्स्यति ॥२६४॥ होनेपर किसे आनन्द नहीं होता है ? ॥२८३॥ वह सुलोचना भी अपने सौभाग्यके वशसे आये हुए समस्त राजाओंको देखकर अत्यन्त संतुष्ट हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार शत्रुओंको जीतनेवाले पुरुषोंका शूरवीरपना प्रशंसनीय होता है उसी प्रकार स्त्रियोंका सौभाग्य भी प्रशंसनीय होता है ॥२८४॥ तदनन्तर वह सुलोचना लीलापूर्वक अवलोकनके द्वारा उन राजाओंका हृदय अपनी ओर आकर्षितकर कंचुकीके कहनेसे उस महलसे नीचे उतरी ॥२८५।। जिसकी दष्टि उसके शरीरपर जहां पड़ गई थी वह मानो वहीं कीलित सी हो गई थी तथा उसके नीचे उतर आनेपर वे राजा लोग उसे न देखकर बहत ही खेदखिन्न हए थे ॥२८६॥ तदनन्तर, जो कामदेवकी विद्याके समान सबके हृदयको प्रिय है, जो मोतियोंके आभूषणोंकी कान्तिके बीचमें शरदऋतुकी बिजलीकी लताके समान जान पड़ती है और जिसपर मानो मनुष्योंकी दृष्टिके दोषोंको दूरसे ही दूर करते हुए, तथा चन्द्रमाके साथ स्पर्धा करनेवाले और हंसोंके पंखोंके समान निर्मल चमर बार बार दुराये जा रहे हैं ऐसी वह सुलोचना, जो छोटी छोटी घंटियों के रुणझुण शब्दोंसे रमणीय है, कानोंके समीप लगे हुए सोनेके चमरोंसे शोभायमान बड़ेऊंचे घोड़े जिसमें जुते हुए हैं, नीचे ऊपरको उड़ती हुई ध्वजाएं ही जिसकी भुजाएं हैं और जो उन उड़ती हुई ध्वजाओंसे ऐसा जान पड़ता है मानो कुरूप मनुष्यका साक्षात् निरन्तर निराकरण ही कर रहा हो और सुरूप (सुन्दर) मनुष्योंको साक्षात् बुला रहा ही हो' ऐसे रथपर सवार हुई ॥२८७-२९०॥ सुलोचनाने कामदेवका पहले तो तिरस्कार किया था परन्तु अब उसे फिर स्वीकृत किया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष हटाये हुएको भी अपने प्रयोजन के वश फिर स्वीकार कर लेते हैं ॥२९१॥ पिशाचके समान शीघ्र ही इसके सब अंगोंमें प्रविष्ट हुआ कामदेव अपनी इच्छानुसार बार बार भौह नेत्र और मुखमें उत्पन्न होनेवाले विकारोंको प्रकट कर रहा था ॥२९२॥ यदि मैं शरीर सहित होता तो क्या इस तरह इस सुलोचनाके साथ एकीभावको प्राप्त हो सकता ? अर्थात् इसके शरीरसें प्रवेश कर पाता? ऐसा विचार करता हुआ कामदेव मानो अपने शरीर रहितपनेको ही अच्छा समझता था ॥२९३॥ वह १ अवलोकनैः । २ अवतरन्ति स्म ३ यस्मिन्नवयवे। ४ ते तस्या-ल०। तत् कारणात् । ५ अवतरणं कुर्वन्त्यां सत्याम् । ६ तां कन्यकामीक्षमाणाः न बभूवुरित्यर्थः । ७ धृतम्। ८ प्रसिद्धैः । ६ रूपहीनानां रूपवताञ्च । १० क्रमेण निराकरण चाह्वानं च। ११ एवंविधं रथमध्यास्येति सम्बन्धः । १२ कामविद्या । १३ मरालपक्ष। १४ निराकृतः । १५ प्रतिक्षिप्तः । १६ सशरीरः। १७ शिष्टमिति । १८ अनङ्गन विकलाङ्गेनेति ध्वनिः। १६ निराकृत्य। २० विजयम् जयकुमारं च। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० महापुराणम् करग्रहेण लक्ष्मीवान स्यान्न वा वारिधर्भुवः । 'पस्या करग्रहो यस्य तस्य लक्ष्मीः करे स्थिता ।२६५॥ लावण्यमम्बुधौ पुंस स्त्रीवस्यामेव सम्भूतम् । यत्प्राप्ताः सरितः सर्वास्तमेतां सर्वपार्थिवाः॥२६६।। समस्तनेत्रसम्पीतमप्यस्या वर्धतेतराम । लावण्यमम्बुधिस्त्यक्तः श्रिया वहतु "तत्कथा ॥२६७॥ रत्नाकरत्वदुर्गर्वम् अम्बधिः श्रयते वृथा। कन्यारत्नमिदं यत्र तयोरेतद० विराजते ॥२६॥ प्रसिद्ध लक्ष्मी सबके द्वारा उपभोग करने योग्य है और रति शरीररहित कामदेवके द्वारा भोगी जाती है परन्तु यह सुलोचना कामदेवको जीतनेवाले इन सभी राजाओंका तिरस्कार कर जय अर्थात् विजय अथवा जयकुमारको प्राप्त होगी। भावार्थ-संसारमें दो ही प्रसिद्ध स्त्रियां हैं एक लक्ष्मी और दूसरी रति । इनमेंसे लक्ष्मी तो सर्वपुरुषोंके द्वारा उपभोग योग्य होनेके कारण पुंश्चलीके समान निन्द्य है और रति शरीररहित पिशाच (पक्षमें कामदेव) के द्वारा उपभोग योग्य होनेसे दूषित है परन्तु यह सुलोचना अपनी शोभासे कामदेवको जीतनेवाले इन सभी राजाओंका तिरस्कार कर जय-जीत (पक्षमें जयकुमार) को प्राप्त होगी अर्थात् यह सुलोचना लक्ष्मी और रतिसे भी श्रेष्ठ है ॥२९४॥ समुद्रपर्यन्त इस पृथिवीका करग्रह अर्थात् टैक्स वसूल करनेसे कोई पुरुष लक्ष्मीवान् हो अथवा नहीं भी हो परन्तु जिसके इस सुलोचनाका करग्रह अर्थात् पाणिग्रहण होगा लक्ष्मी उसके हाथमें ही स्थित समझनी चाहिये ।।२९५।। पुरुषोंमें लावण्य (खारापन) समुद्र में है और स्त्रियोंमें लावण्य (सौन्दर्य) इसी सुलोचनामें भरा हुआ है यही कारण है कि सब नदियां समुद्रके पास पहुंची हैं और सब राजा लोग इसके समीप आ पहुंचे हैं। भावार्थ-लावण्य शब्दके दो अर्थ हैं-एक खारापन और दूसरा सौन्दर्य । यहां कविने दोनोंमें शाब्दिक अभेद मानकर निरूपण किया है। श्लोकका भाव यह है-लावण्य पुरुषोंमें भी होता है और स्त्रियों में भी परन्तु उसके स्थान दोनोंमें नियत है । पुरुषका लावण्य समुद्र में नियत है और स्त्रीका लावण्य सुलोचनामें । पुरुषके लावण्यके प्रति स्त्रियोंका आकर्षण रहता है और स्त्रियोंके लावण्यके प्रति पुरुषका आकर्षण रहता है । यही कारण है कि नदीरूपी स्त्रियां आकर्षित होकर समुद्रके पास पहुंची हैं और सब राजा लोग (पुरुष) सुलोचनाके प्रति आकर्षित होकर उसके समीप आ पहुंचे हैं ॥२९६॥ इसका लावण्य सबके नेत्रोंके द्वारा पिया जानेपर भी बढ़ता ही जाता है परन्तु समुद्रको तो लक्ष्मीने छोड़ दिया है इसलिये वह उसे कैसे धारण कर सकता है ? भावार्थ-ऊपरके श्लोकमें लावण्यके दो स्थान बतलाये थे-एक समुद्र और दूसरा सुलोचना । परन्तु यहां लावण्य शब्दका केवल सौन्दर्य अर्थ हृदयमें रखकर कवि समुद्र में उसका अभाव बतला रहे हैं। यहां कवि लावण्य उस पदार्थको कह रहे हैं जिसकी निरन्तर वृद्धि ही होती रहे और जिसे देखकर दर्शक उसे कभी छोड़ना न चाहे । कविका मनोगत लावण्य सुलोचनामें ही था क्योंकि उसे देखकर नेत्र कभी उसे छोड़ना नहीं चाहते थे और निरन्तर उसकी वृद्धि होती रहती थी। समुद्र में लावण्यका होना कविको इष्ट नहीं है क्योंकि उसे लक्ष्मीने छोड़ दिया है यदि उसमें वास्तवमें लावण्य होता तो उसे लक्ष्मी क्यों छोड़ती ? (लक्ष्मी द्वारा समुद्रका छोड़ा जाना कवि सम्प्रदायमें प्रसिद्ध है।) ॥२९७।। समुद्र अपने रत्नाकरपनेका खोटा अहंकार व्यर्थ ही धारण करता है क्योंकि जिनके यह कन्यारूपी रत्न हैं उन्हीं राजा अकंपन और रानी सुप्रभाके यह रत्नाकरपना सुशोभित होता है ।।२९८।। १ लक्ष्म्याः । २ सुलोचनायाः । ३ पुरुषेषु। ४ परिपूर्णम् । ५ यत् कारणात् । ६ तं समुद्रम् । एताम् सुलोचनाम् । ७ लावण्यम् । ८ ययोः । ९ अकम्पनसुप्रभयोः । १० रत्नाकरत्वम् । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व ३८१ इति स्तुतात्मसौभाग्यभाग्य'रूपादिसम्भूता। जनः स्वयंवरागारम् प्रागमद् गोमिनीव सा ॥२६॥ परिभद्विधा सात्र' भाविनी केति वा तदा । प्रीतिशोकान्तरे केचिद् रसं राजकमन्वभूत् ॥३०॥ स्थित्वा महेन्द्रदत्तोऽपि रत्नमालाधरो धुरि । रथं प्रचोदयामास प्रतिविद्याधराधिपान् ॥३०॥ दक्षिणोत्तरयोः श्रेण्योर्नमेश्च विनमेः सुतौ । पतिः समतिरेषोऽयम् इतः सुविनमिः श्रियः॥३०२॥ अन्येऽमी च खगाधीशा विद्याविक्रमशालिनः। पतिं वृणीष्व त्वं चैषु 'स्वेच्छामेकत्र पूरय ॥३०३॥ इति कञ्च किनिदिष्टं नामादाय पृथक् पृथक् । कर्णकृत्यात्ययात् सर्वान् रुचिश्चित्रा हि देहिनाम् ॥३०४॥ पश्चात् सर्वानिरीक्ष्यषा कञ्चित्त विवरीषते । तथैवेति खगास्तस्थुः किं वाशानावलम्बते ॥३०॥ पश्चाजलुर्मुखाब्जानि तद्रथाद् व्यकसन्पुरः। रवैरिवोदय राज्ञां संसृतेः स्थितिरीदृशी ॥३०६॥ १२उच्चाद्वाऽदुद्रुवनिम्नम् अभिभूमि"चरं रथः । कञ्चुकी कथयामास नामभिस्तानृपस्तदा ॥३०७॥ निराकृत्यार्ककोादीन् साजेया जयमागमत् । हित्वा शेषान् द्रुमांश्चूतं मधौ मधुकरी यथा ॥३०॥ गहीतप्रग्रहस्तत्र" कञ्चुकीचित्तवित्तदा । वचो व्यापारयामास जयव्यावर्णनं प्रति ॥३०६॥ इस प्रकार लोग जिसकी स्तुति कर रहे हैं ऐसे अपने सौभाग्य, भाग्य और रूप आदिसे भरी हई वह सलोचना लक्ष्मीके समान स्वयंवर भवनमें आ पहुंची ।।२९९॥ इस संसार दो प्रकारकी है-एक पराभूति अर्थात् उत्कृष्ट सम्पद और दूसरी पराभूति अर्थात् पराभवतिरस्कार, सो इन दोनोंमें न जाने कौन सी पराभूति अथवा परा-भूति होनेवाली है ऐसा विचार करता हुआ राजाकोंका समुह उस समय प्रेम और शोकके बीच किसी अव्यक्त रसका अनुभव कर रहा था ॥३००। रत्नोंकी मालाको धारण करनेवाला महेन्द्रदत्त नामका कञ्चुकी भी धुरापर बैठकर विद्याधर राजाओंकी ओर रथ चलाने लगा ॥३०१॥ और सुलोचनासे कहने लगा कि ये विजयार्धकी दक्षिण तथा उत्तर श्रेणीके राजा नमि और विनमिके पुत्र हैं। यह लक्ष्मीका स्वामी सुनमि हैं और यह इस ओर सुविनमि हैं ॥३०२॥ विद्या और पराक्रमसे शोभायमान ये और भी अनेक विद्याधरोंके अधिपति विराजमान हैं इनमेंसे तू किसी एकको वर अर्थात् पतिरूपसे स्वीकार कर और एक ही में अपनी इच्छा पूर्ण कर ॥३०३॥ इस प्रकार कंचुकीने अलग अलग नाम लेकर जो कुछ कहा था उसे कानमें डालकर-सुनकर वह सबको छोड़ती हुई आगे चली सो ठीक ही है क्योंकि प्राणियोंकी रुचि अनेक प्रकारकी होती है ॥३०४॥ यह कन्या सबको देखकर बादमें किसीको वरना चाहती है यह विचारकर विद्याधर लोग ज्योंके त्यों बैठे रहे सो ठीक ही है क्योंकि आशा किसका आश्रय नहीं लेती है ? ॥३०५॥ जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेसे कमल विकसित हो जाते हैं और अस्त होनेसे मुरझा जाते हैं उसी प्रकार राजाओं के मुखरूपी कमल सुलोचनाके रथ सामने आनेसे पहले तो प्रफुल्लित हुए किन्तु रथके चले जानेपर बादमें मुरझा गये थे सो ठीक ही है क्योंकि संसारकी स्थिति ही ऐसी है ॥३०६॥ तदनन्तर वह रथ विद्याधरोंकी ऊंची भूमिसे नीचे भूमिगोचरियोंकी ओर उतरा, उस समय वह कञ्चुकी नाम ले लेकर राजाओंका निरूपण करता जाता था ॥३०७।। जिस प्रकार वसन्तऋतुमें कोयल सब वृक्षोंको छोड़कर आमके पास पहुंचती है उसी प्रकार वह अजेय सुलोचना अर्ककीर्ति आदि राजाओंको छोड़कर जयकुमारके पास जा पहुंची ॥३०८॥ उसी समय १ पुण्य । २ लक्ष्मीः । ३ अवज्ञा सम्पच्च । पराभूति-ल०, म०, अ०, प०, स०, इ० । ४ अवज्ञासम्पदोः । ५ भविष्यत् । ६ कञ्चुकी । ७ रथमुखे । ८ निजवाञ्छाम् । ६ अतिक्रान्तवती। १० वरितुमिच्छति । ११ म्लानान्यभवत । १२ उन्नतप्रदेशात्तु । १३ अगमत् । १४ भूचराणामभिमुखम। १५ धृताश्वरज्जुः । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ महापुराणम् प्रदीपः स्वकुलस्यायं प्रभुः सोमप्रभात्मजः । श्रीमानुत्साहभेदैर्वा ' जयोऽयमनुजैवं तः ॥ ३१०॥ न रूपमस्य व्यावण्यं तदेतदति मन्मथम् । स दर्पणोऽर्पणीयः किं करककणदर्शने ॥ ३११॥ जित्वा मेघकुमाराख्यान, उत्तर भरते सुरान् । सिंहनादः कृतोऽनेन जिततन्मेघनिस्स्वनः " ॥ ३१२ ॥ वीरपट्टे 'प्रवध्यास्य स्वभुजाभ्यां समुद्धतम् । न्यधायि निधिनाथेन हृष्ट्वा मेघस्वराभिधा ॥ ३१३॥ श्रात्मसम्यग्गुणैर्युक्तः समेतश्चाभिगामिकैः । प्रज्ञोत्साहविशेषैश्च ततोऽयमुदितोदितः ॥ ३१४॥ चित्र जगत्त्रयस्यास्य गुणाः संरज्य' साम्प्रतम् । व्यावृताः सर्वभावेन तव भावानुरञ्जनं ॥३१५॥ श्रयमेकोऽस्ति दोषोऽस्य चतस्रः सन्ति योषितः । श्रीः कीर्तिर्वीरलक्ष्मीश्च वाग्देवी चातिवल्लभाः ॥ ३१६॥ जितमेघकुमारोऽयम् एकः प्राक् त्वज्जयेऽणुना । च्युतधैर्य इवालक्ष्ये" "यत्सहायीकृतः स्मरः ॥ ३१७॥ बलिनोर्युवयोर्मध्ये वर्तमानो जिगीषतोः " । द्वैधीभावं समापन्नः षाड्गुण्यनिपुणः स्मरः ॥ ३१८ ॥ कीर्तिः कुवलयाह्लादी पद्माह्लादीप्रभाऽस्य हि । सूर्याचन्द्रमसौ तस्मादनेन हतशक्तिकौ ॥३१६ ॥ चित्तकी बातको जाननेवाला कंचुकी घोड़ोंकी रास पकड़कर जयकुमारका वर्णन करनेके लिये अपने वचनोंको व्यापृत करने लगा अर्थात् जयकुमारके गुणोंका वर्णन करने लगा ||३०९ ॥ उसने कहा कि यह श्रीमान् स्वामी जयकुमार है, यह अपने कुलका दीपक है, महाराज सोमप्रभ पुत्र है और उत्साहके भेदोंके समान अपने छोटे भाइयोंसे आवृत है - घिरा हुआ है ।। ३१० ॥ कामदेवको तिरस्कृत करनेवाला इसका यह रूप तो वर्णन करने योग्य ही नहीं है क्योंकि हाथ का कंकण देखनेके लिये क्या दर्पण दिया जाता है ? ।। ३११ ।। इसने उत्तर भरतक्षेत्रमें मेघकुमार नामके देवोंको जीतकर उन देवोंके कृत्रिम बादलोंकी गर्जनाको जीतनेवाला सिंहनाद किया था ॥३१२॥ ं उस समय निधियोंके स्वामी महाराज भरतने हर्षित होकर अपनी भुजाओं द्वारा धारण किया जानेवाला वीरपट्ट इसे बांधा था और मेघस्वर इसका नाम रक्खा था ॥३१३|| यह आत्माके समीचीन गुणोंसे युक्त है तथा आदरणीय उत्तम पुरुषोंके साथ सदा संगति रखता है इसलिये बुद्धि और विशेष विशेष उत्साहों के द्वारा यह श्रेष्ठोंमें भी श्रेष्ठ गिना जाता है ||३१४|| यह भी आश्चर्यकी बात है कि इसके गुण तीनों लोकोंको प्रसन्नकर अब तेरे अन्तःकरणको अनुरक्त करनेके लिये पूर्ण रूपसे लौटे हैं । भावार्थ - इसने अपने गुणोंसे तीनों लोकोंके जीवोंको प्रसन्न किया है और अब तुझे भी प्रसन्न करना चाहतें हैं ॥३१५॥ यदि इसमें दोष है तो यही एक, कि इसके निम्नलिखित चार स्त्रियां हैं, श्री, कीर्ति, वीरलक्ष्मी और सरस्वती । ये चारों ही स्त्रियां इसे अत्यन्त प्रिय हैं ॥ ३१६ || जिसने पहले अकेले ही मेघकुमारको जीत लिया था ऐसा यह जयकुमार इस समय तुझे जीतनेके लिये धैर्यरहित सा हो रहा है अर्थात् ऐसा जान पड़ता है मानो इसका धैर्य छूट रहा हो यही कारण है अब इसने कामदेवको अपना सहायक बनाया है ।। ३१७|| एक दूसरेको जीतनेकी इच्छा करनेवाले तुम दोनों बलवानों के बीच में पड़ा हुआ यह संधि विग्रह आदि छहों गुणों में निपुण कामदेव द्वैधीभावको प्राप्त हो रहा है अर्थात् कभी उसका आश्रय लेता है और कभी तेरा ||३१८ | इसकी कीर्ति तो कुवलय अर्थात् रात्रिमें खिलनेवाले कमलोंको ( पक्ष में मही मण्डलको ) आनन्दित करती है और प्रभा पद्म अर्थात् दिनमें खिलनेवाले कमलोंको ( पक्षमें पद्मा - लक्ष्मीको ) विकसित १ शक्तिविशेषैः । २ दृश्यमानम् । ३ अतिक्रान्तमन्मथम् । ४ प्रसिद्धः । ५ निर्जितमेघकुमारघनध्वनिः । ६ प्रयुध्वास्य ल० । ७ अभिगमार्हः । आदरणीयैरित्यर्थः । ८ ततः कारणात् । ६ आत्मन्यनुरक्तं विधाय । १० अधुना । ११ व्यापारमकुर्वन् । १२ सकलस्वरूपेण । १३ चित्तानुरञ्जने । 'भावः सत्ता स्वभावाभिप्रायभावचेष्टात्मजन्मसु' इत्यभिधानात् । १४ दर्शनीयः । १५ यत् कारणात् । १६ परस्परं जेतुमिच्छतोः । १७ उभयावलम्बनत्वम् । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३८३ कोतिबहिश्चरा लक्ष्मीरतिवृद्धा सरस्वती । जीर्णेतरापि शान्तेव' लक्ष्यते क्षतविद्विषः ॥३२०॥ ततस्त्वयि वयोरूपशीलादिगुणभाज्यलम् । प्रीतिलतेव दृकपुष्पा प्रवृद्धास्य फलिष्यति ॥३२१॥ यवाभ्यां निजितः कामः सम्प्रत्यभ्यन्तरीकृतः। स 'वामपजयायाभूदरिविश्रम्भितोऽप्यरिः॥३२२॥ निष्ठुरं जम्भतेऽमुष्मिन्नुभयारिरपि स्मरः । मत्वेव त्वां स्त्रियं भूयो भटेषु भटमत्सरः ॥३२३॥ विख्यातविजयः श्रीमान् यानमात्रेण निजितः । त्वयाऽयमत एवात्र जयो न्यायागतस्तव ॥३२४॥ प्राध्वंकृत्य गले रत्नमालया दशजितम् । जयलक्ष्मीस्तवैवास्तु तत्त्वमेनं करे कुरु ॥३२॥ इति तस्य वचः श्रुत्वा स्मरषाड्गुण्यवेदिनः। शनैविगलितव्रीडा लोललीलावलोकनः ॥३२६॥ तदा जन्मान्तरस्नेहश्चाक्षुषी० सुन्दराकृतिः। कुन्दभासार गुणास्तस्य श्रावणाः पुष्पसायकः ॥३२७॥ करती है इसलिये इसने सूर्य और चन्द्रमा दोनोंको शक्तिरहित कर दिया है ॥३१९॥ समस्त शत्रुओंको नष्ट करनेवाले इस जयकुमारकी कीति तो सदा बाहर रहती है लक्ष्मी अत्यन्त वृद्ध है, सरस्वती जीर्ण है और वीर लक्ष्मी शान्त सी दिखती है इसलिये दृष्टिरूपी पुष्पोंसे युक्त और खुब बढ़ी हुई इसकी प्रीतिरूपी लता वय, रूप, शील आदि गुणोंसे सहित तुझमें ही अच फलीभूत होगी। भावार्थ-३१६ वें श्लोकमें बतलाया था कि इसके चार प्रिय स्त्रियां हैं कीति, लक्ष्मी, सरस्वती और वीरलक्ष्मी परन्तु उनसे तुझे सपत्नीजन्य दुःखका अनुभव नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि कीति नामकी स्त्री तो सदा बाहर ही घूमती रहती है-अन्तःपुरमें उसका प्रवेश नहीं हो पाता (पक्षमें उसकी कीर्ति समस्त संसारमें फैली हुई है), लक्ष्मी अत्यन्त वृद्ध है-वृद्धावस्था युक्त है (पक्षमें बढ़ी हुई है), सरस्वती भी जीर्ण अर्थात् वृद्धावस्थाके कारण शिथिल शरीर हो रही है (पक्षमें परिपक्व हैं) इसलिये इन तीनोंपर उसका खास प्रेम नहीं रहता । अब रह जाती है वीरलक्ष्मी, यद्यपि वह तरुण है और सदा उसके पास रहती है परन्तु अत्यन्त शान्त है-शुङ्गार आदिकी ओर उसका आकर्षण नहीं है (पक्षमें क्षमायुक्त शूर वीरता है) इसलिये इन चारोंसे राजाकी प्रीति हटकर तुझपर ही आरूढ़ होगी क्योंकि त वय, रूप, शील आदि गुणोंसे सहित है ॥३२०-३२१॥ तुम दोनोंने पहले जिस कामदेवको जीतकर दूर हटाया था उसे अब अपने अन्तःकरणमें बैठा लिया है , अथवा खास विश्वासपात्र बना लिया है परन्तु अब वही कामदेव तुम दोनोंका पराजय करने के लिये तैयार हो रहा है सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुका कितना ही विश्वास क्यों न किया जाय वह अन्तमें शत्रु ही रहता है ॥३२२॥ यद्यपि यह कामदेव तुम दोनोंका शत्रु है तथापि तुझे स्त्री मानकर इसी एकपर बड़ी निष्ठुरताके साथ अपना प्रभाव बढा रहा है सो ठीक ही है क्योंकि योद्धाओंकी ईर्ष्या योद्धाओंपर ही होती है। भावार्थ-वह तुझे स्त्री समझ कायर मानकर अधिक दुःखी नहीं करता है परन्तु जयकुमार पर अपना पूरा प्रभाव डाल रहा है ॥३२३॥ जिसका विजय सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्रीमान् जयकुमारको तूने यान अर्थात् आगमन (पक्षमें युद्धके लिये किये हुए प्रस्थान) मात्रके द्वारा जीत लिया है इसलिये इस जगह न्यायसे तेरी ही विजय हुई है ॥३२४।। तू अपने दृष्टिरूपी वाणोंके द्वारा जीते हुए इस जयकुमारको रत्नोंकी मालासे गले में बांधकर अपने हाथमें कर, विजयलक्ष्मी तेरी ही हो ॥३२५॥ इस प्रकार कामदेवके सन्धि विग्रह आदि छह गुणोंको जाननेवाले कञ्चुकीके वचन सुनकर धीरे धीरे जिसकी लज्जा छूटती जा रही है, जिसकी लीलापूर्ण दृष्टि बड़ी चञ्चल है तथा उस समय जन्मान्तरका स्नेह नेत्रोंके द्वारा दे १ वीरलक्ष्मीः । २ जयकुमारस्य। ३ वां युवयोः । वामवजमाया-ल० । ४ विश्वासितः । ५ जये। ६ गमनमात्रेण । ७ बन्धहेतुकमानुकूल्यं कृत्वा, ववेत्यर्थः । ८ तत् कारणात् । ६ लज्जा। १० चक्षुषा कृष्यमाणा। ११ कुन्दवद् भासमानाः । १२ श्रवणज्ञानविषयाः । श्रवणहिता वा। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ महापुराणम् इत्येभिः स्यन्दनादेषा समरिक्षप्यावरोपिता । रत्नमालां समादाय कन्या कञ्चकिनः करात् ॥३२८।। अबध्नाद् बन्धुरां तस्य कण्ठेऽतिप्रेमनिर्भरा । सा वाचकात समध्यास्य वक्षोलक्ष्मीरिवापरा ॥३२६॥ सहसा सर्वतूर्याणाम् उदतिष्ठन्महाध्वनिः। श्रावयन्निव दिक्कन्याः कन्यासामान्यमुत्सवम् ॥३३०॥ वक्त्रवारिजवासिन्या नरविद्याधरेशिनाम् । श्रिया जयमुखाम्भोजम् प्राश्रितं वा तदात्यभात् ॥३३१॥ गताशा'बारयो म्लानमुखाब्जाक्ष्युत्पलश्रियः । खभूचरनृपाः कष्टमासन् शुष्कसरस्समाः ॥३३२॥ अभिमतफलसिद्धचा वर्द्धमानप्रमोदो निजदुहि तृसमेतं प्राक् पुरोधार्य पूज्यम् । जयममरतरं वा कल्पवल्लीसनाथ नगरमविशदुच्च थवंशाधिनाथः ॥३३३॥ आद्योऽयं महिते स्वयंवरविधौ ‘योग्यसौभाग्यभाग यस्माद्राजखगेन्द्रवक्त्रवनजश्रीवारयोषिद्वतः। मालाम्लानगुणा यतोऽस्य शरणे मन्दारमालायते "तत्कल्पावधिवी धमस्यः विपुलं विश्वर" यशो व्यश्नुते ॥३३४॥ भास्वत्प्रभाप्रसरणप्रतिबुद्धपद्मः प्राप्तोदयः प्रतिविधाय० परप्रभावम्। २२बन्धुप्रजाकुमुदबन्धुरचिन्त्यकान्ति ति स्म भानुशशिनोविजयी जयोऽयम् ॥३३५॥ हुई जयकुमारकी सुन्दर आकृति, कुन्दके फूलके समान सुने हुए उसके गुण और कामदेव इन सबने उठाकर जिसे रथसे नीचे उतारा है ऐसी कन्या सुलोचनाने कंचुकीके हाथसे रत्नमाला लेकर तथा अतिशय प्रेममें निमग्न होकर, वह मनोहरमाला उस जयकुमारके गले में डाल दी। उस समय वह माला जयकुमारके वक्षःस्थलपर अधिरूढ़ हो दूसरी लक्ष्मीके समान सुशोभित हो रही थी ॥३२६-३२९।। उस समय अकस्मात् सब बाजोंकी बड़ी भारी आवाज ऐसी उठी थी मानो दिशारूपी कन्याओंके लिये सुलोचनाका असाधारण उत्सव ही सुना रही हो ॥३३०॥ उस समय जयकुमारका मखरूपी कमल बहत ही अधिक सशोभित हो रहा था और ऐसा जान पड़ता था मानो भूभिगोचरी तथा विद्याधर राजाओंके मुखरूपी कमलोंपर निवास करनेवाली लक्ष्मी उसी एकके मुखपर आ गई हो ॥३३१॥ जिनका आशारूपी जल नष्ट हो गया है और जिनके मुखरूपी कमल तथा नेत्ररूपी उत्पलोंकी शोभा म्लान हो गई है ऐसे भूमिगोचरी और विद्याधर राजा सूखे सरोवरके समान बड़े ही दुःखी हो रहे थे ॥३३२॥ अभीष्ट फलकी सिद्धि होनेसे जिसका आनन्द बढ़ रहा है ऐसा उत्कृष्ट नाथवंशका अधिपति राजा अकंपन, कल्पलतासे सहित कल्पवृक्षके समान पुत्रीसे युक्त पूज्य जयकुमारको आगेकर अपने उत्कृष्ट नगरमं प्रविष्ट हुआ ॥३३३॥ चूंकि भाग्य और सौभाग्यको प्राप्त होनेवाला यह जयकुमार स्वयंवरकी सम्माननीय विधिमें सबसे पहला था, भमिगोचरी और विद्याधर राजाओंके मुखकमलोंकी शोभारूपी वाराङ्गनाओंसे घिरा हुआ था और अम्लान गुणोंवाली माला उसकी शरण में आकर कल्पवृक्षोंकी मालाके समान आचरण करने लगी थी, अतएव उसका बहुत बड़ा निर्मल यश कल्पान्तकाल तक समस्त संसारमें व्याप्त रहेगा ॥३३४।। जिसकी देदीप्यमान प्रभाके प्रसारसे कमल खिल उठते थे, दूसरों (शत्रुओं अथवा नक्षत्र आदिकों) के प्रभावका तिरस्कार कर जिसका उदय हुआ था और जो भाईबन्धु तथा प्रजारूपी कुमुदोंको १ समुद्धत्य। २ मुखकमलनिवासिन्या। ३ गतास्यवारण: ट०। विगतमुखरसाः । ४ पुत्री । ५ अग्ने कृत्वा। ६ इव । ७ सहितम् । ८ आद्येऽयं इ०, ५०, अ०, स०। ६ यत् कारणात् । भाग्य पुण्य । १० यस्मात् कारणात् । ११ यस्मात् कारणात् । १२ जयस्य । १३ परित्राणे, गृहे । १४ तस्मात् कारणात् । १५ कल्पपर्यन्तम् । १६ निर्मलम् । १७ जगत् । १८ व्याप्नोति । १६ प्रबुद्धलक्ष्मीः । विकसितकमलः । २० निराकृत्य। २१ शत्रसामर्थ्यम्। नक्षत्रादिसमध्यर्थं च । २२ बन्धवश्च प्रजाश्च बन्धुप्रजाः, बन्धुप्रजा एव कुमुदानि तेषां बन्धुश्चन्द्रः । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिचत्वारिंशत्तमं पर्व ३८५ प्रियदुहितरमेना' नाथवंशाम्बरेन्दोः-अममपनयति स्म स्पष्टसौभाग्यलक्ष्मीः । ज्वलितमहसमन्यां वीरलक्ष्मी च कीति कथयति नयतीति "प्रातिभज्ञानमुच्चः ॥३३६॥ एतत्पुण्यमयं सुरूपमहिमा सौभाग्यलक्ष्मीरियं जातोऽस्मिन् जनकः स योऽस्य जनिका वास्य या सुप्रजा। पूज्योऽयं जगदेकमङगल मणिश्चूडामणिः श्रीभृतामित्युक्तिर्जयभागजयं प्रति जनैर्जातोत्सवैर्जल्पिता ॥३३७। कुवलयपरिबोधं सन्दधानः समन्तात् सततविततदीप्तिः सुप्रतिष्ठः प्रसन्नः। परिणतिनिजशौर्येणार्कमाक्रम्य दिक्षु प्रथितपथुलकीा वर्द्धमानो जयः स्तात् ॥३३॥ इति समुपगता श्रीः सर्वकल्याणभाजं जिनपतिमतभाक्त्वात्पुण्यभाजं जयं तम् । तदुरुकृतमुपाध्वं हे बुधाः श्रद्दधानाः परमजिनपदाब्जद्वन्द्वमद्वरद्ववृत्या ॥३३॥ इत्या भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणश्रीमहापुराणसंडग्रहे सुलोचना स्वयंवरमालारोपणकल्याणकं नाम त्रिचत्वारिंशत्तम पर्व । प्रफुल्लित करनेके लिये बन्धुके समान था और जिसकी कान्ति अचिन्त्य थी ऐसा सूर्य और चन्द्रमाको जीतनेवाला वह जयकुमार अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥३३५॥ जिसकी सौभाग्यरूपी लक्ष्मी स्पष्ट प्रकट हो रही है ऐसे उस जयकुमारने नाथवंशरूपी आकाशके चन्द्रमा स्वरूप राजा अकंपनकी प्रिय पुत्री सुलोचनाको विवाहा था सो ठीक ही है क्योंकि प्रतिभाशाली मनुष्योंका उत्कृष्ट ज्ञान यही कहता है कि देदीप्यमान प्रतापके धारक पुरुषको ही अनोखी वीरलक्ष्मी और कोति प्राप्त होती है ॥३३६॥ उस समय जिन्हें आनन्द प्राप्त हो रहा है ऐसे लोगों के द्वारा, जयकुमारके प्रति उसकी विजयको चित करनेवाली निम्नप्रकार बातचीत हो रही थी कि इस संसारमें यही पुण्य है, यही उत्तम रूपकी महिमा है, यही सौभाग्यकी लक्ष्मी है, जिसके यह उत्पन्न हुआ है वही पिता है, जिसने इसे उत्पन्न किया है वही उत्तम सन्तानवती माता है, यही लक्ष्मीवान् पुरुषोंमें चूड़ामणि स्वरूप है और संसारका कल्याण करनेवाले रत्नके समान यही एक पूज्य है ।।३३७॥ जो चारों ओरसे कुवलय अर्थात् पृथ्वीमण्डल (पक्षमें रात्रि विकासी कमलों) को प्रसन्न अथवा प्रफुल्लित करता रहता है, जिसकी कान्ति सदा फैली रहती है, जिसकी प्रतिष्ठा उत्तम है और जो सदा प्रसन्न रहता है ऐसा यह (चन्द्रमाका सादृश्य धारण करनेवाला) जयकुमार अपने परिपक्व प्रतापसे सुर्यपर भी आक्रमण कर दिशाओंमें फैली हुई बड़ी भारी कीर्तिसे सदा बढ़ता रहे ॥३३८॥ __ इस प्रकार जिनेन्द्र भंगवानके मतकी उपासना करनेसे बहत भारी पूण्यका उपार्जन करनेवाले और सब प्रकारके कल्याणोंको प्राप्त होनेवाले जयकुमारको लक्ष्मी प्राप्त हुई थीं इसलिये हे श्रद्धावन्त विद्वान् पुरुषो, तुम लोग भी निराकुल होकर परम दयालु सर्वोत्कृष्ट जिनेन्द्रदेवके दोनों चरणकमलोंकी उपासना करो ॥३३९॥ इस प्रकार भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें सुलोचनाके स्वयंवरका वर्णन करने वाला यह तैंतालीसवां पर्व पूर्ण हुआ । १ पुत्रीम् । २ अयमुप-त०, इ०, अ०, १०, स०। ३ जयकुमारम् । ४ प्रतिभव प्रातिभं तच्च तद् ज्ञानं च। प्रतिपुरुषसमुद्भूतप्रतिभाज्ञानमित्यर्थः । ५ लोके । ६ माता। ७ सुपुत्रवती । ८ मङगलदर्पणः । ६ सुस्थैर्यवान् । १० भूयात् । ४६ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्चमं पर्व अथ दुर्मषणो नाम दुष्टस्तस्या'सहिष्णुकः । सर्वानुद्दीपयन् पापी सोऽर्ककीर्त्यनुजीवकः ॥१॥ अकम्पनः खलः क्षद्रो वथैश्वर्यमदोद्धतः। मृषा युष्मान् समाहूय श्लाघमानः स्वसम्पदम् ॥२॥ पूर्वमेव समालोच्य मालामासञ्जयज्जये। पराभूति विधित्सुर्वः स्थायिनीमायुगान्तरम् ॥३॥ इति ब्राणः सम्प्राप्य सवीर्ष चक्रिणः सुतम् । इह षट्खण्डरत्नानां स्वामिनी त्वं पिता च ते ॥४॥ रत्नं रत्नेषु कन्यैव तत्राप्येषेव' कन्यका। तां त्वां स्वगहमानीय दौष्टचं पश्यास्य दुर्मतेः॥५॥ जयो नामात्र कस्तस्मै दत्तवान् मृत्युचोदितः। तेनागतोऽस्मि दौर्व त्यं तदेतत् सोढुमक्षमः ॥६॥ 'प्राकृतोऽपि न सोढव्यःप्राकृतरपि' किं पुनः । त्वादशः स्त्रीसमुद्भुतो मानभडगो मनस्विभिः ॥७॥ "तदादिशदिशाम्यस्म पदं वैवस्वतास्पदम् । दिशाम्यादेशमात्रेण समालां तेऽपि कन्यकाम् ॥८॥ इत्यसाध्वीं५ क्रुधं भर्तुः स्ववाचैवासृजत् खलः। सदसत्कार्यनिर्वत्तो शक्तिः सदसतोः समा ॥६॥ तद्वचःपवन"प्रौढक्रोधधूमध्वजारुणः । भ्रमद्विलोचनाडगारः ०क्रुद्धाग्निसुरसन्निभः ॥१०॥ __ अथानन्तर-दुर्मर्षण नामका एक दुष्ट पुरुष राजकुमार अर्ककीतिका सेवक था वह जयकुमारके उस वैभवको नहीं सहन कर सका इसलिये उस पापीने सब राजाओंको इस प्रकार उत्तेजित किया। वह कहने लगा कि अकम्पन दृष्ट है, नीच है, झठमठके ऐश्वर्षके मदर हो रहा है, अपनी सम्पदाओंकी प्रशंसा करते हुए उसने व्यर्थ ही आप लोगोंको बुलाया है । वह तुम लोगोंका दूसरे युगतक स्थिर रहनेवाला अपमान करना चाहता है इसीलिये उसने पहलेसे सोच विचारकर जयकुमारके गले में माला डलवाई है, इस प्रकार कहता हुआ वह दुर्मर्षण लज्जित हुए चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिके पास आया और कहने लगा कि इन छहों खण्डोंमें उत्पन्न हुए रत्नोंके दो ही स्वामी हैं एक तू और दूसरा तेरा पिता ॥१-४॥ रत्नोंमें कन्या ही रत्न है और कन्याओंमें भी यह सुलोचना ही उत्तम रत्न है इसलिये ही अकम्पनने तुझे अपने घर बुलाकर तेरा तिरस्कार किया है, जरा इस दुष्टकी दुष्टताको तो देखो ॥५।। भला, जयकुमार है कौन ? जिसके लिये मृत्यसे प्रेरित हुए अकम्पनने अपनी पुत्री दी है। मैं यह दुराचार सहन करनेसे लिये असमर्थ हूँ इसलिये ही आपके पास आया हूं ॥६॥ जब कि नीच लोग भी छोटे छोटे मानभङ्गको नहीं सहन कर पाते हैं तब भला आप जैसे तेजस्वी पुरुष स्त्रीसे उत्पन्न हुआ मानभंग कैसे सहन कर सकेंगे? ॥७॥ इसलिये मुझे आज्ञा दीजिये मैं आपकी आज्ञामात्रसे ही इस अकम्पनको यमराजका स्थान दे सकता हूँ और माला सहित वह कन्या आपके लिये दे सकता हूँ ॥८॥ इस प्रकार उस दुष्टने अपने वचनोंसे ही अपने स्वामीको दुष्ट क्रोध उत्पन्न करा दिया सो ठीक ही है क्योंकि अच्छा और बुरा कार्य करने के लिये सज्जन तथा दुर्जनों की एक सी शक्ति रहती है ॥९॥ उस दुर्मर्षणके वचनरूपी वायुसे बढ़ी हुई क्रोधरूपी अग्निसे १ तमसहमाणः । २ कोपाग्नि प्रज्वलयन् । ३ परिभूतिम् । ४ कन्यारत्नेष्वपि । ५ तत्त्वा अ०, १०, स०, इ०, ल०, म०। ६ दुष्टत्वम् । ७ तेन कारणेन । ८ प्रकृते भवः पराभवोऽपि ।' अथवा तुच्छकार्यमपि । ६ नीचैरपि । नष्टान्वयप्रभवैरित्यर्थः । १० तत् कारणात् । ११ आदेशं देहि । १२ ददामि। १३ यमपुरम् । 'कालो दण्डधरः श्राद्धदेवो वैवस्वतोऽन्तकः' इत्यभिधानात्। १४ निरूपणमात्रेण । १५ अशुभाम् । १६ निष्पत्तौ । १७ सज्जनदुर्जनयोः। १८ प्रवृद्ध । 'प्रवृद्धं प्रौढमेधितमित्यभिधानात्। १६ अग्निः । ३० कुपिताग्निकुमारसदृशः । क्रुधा-ल०, म० । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व उज्जगार' ज्वलत्स्थूलविस्फुलिङगोपमा गिरः। अर्ककोतिद्विषोऽशेषान दिधक्षुरिव वाचया ॥११॥ मामधिक्षिप्य कन्येयं येन दत्ता दुरात्मना । तेन प्रागेव मूढेन दत्तः स्वस्मै जलाञ्जलिः ॥१२॥ अतिक्रान्ते रथे "तस्मिन प्रोत्थितः क्रोधपावकः । तदैव किन्नु को दाहय इत्यजानन्नहं स्थितः ॥१३॥ 'नाम्नातिसन्धि तो मूढो मन्यते स्वमकम्पनम् । 'क्रुद्ध मयि न वेत्तीति कम्पते सधरा धरा ॥१४॥ मत्खड्गवारिवाराशि'रास्तां तावदगोचरः । संहरन्त्यखिलान् शत्रून् बलवेलवर हेलया ॥१॥ प्ररूढशुष्कनायेन्दुदुवंशविपुलाटवी । मत्क्रोधप्रस्फुरद्वह्निभस्मिताऽस्मिन्न' रोक्ष्यति ॥१६॥ वीरपट्टस्तदा सोढो भवो भर्तुर्भयान्मया। कथमद्य "सहे मालां सर्वसौभाग्यलोपिनीम् ॥१७॥ "मद्यशः कुसुमाम्लानमालेवास्त्वायुगावधि । जयलक्ष्म्या सहायतां हरयं जयवक्षसः ॥१८॥ जलदान पेलवान जित्वा मरुन्मात्रविलायिनः२२ । अद्य पश्यामि दृप्तस्य जयस्य जयमाहवे ॥१६॥ इति निभिन्नमर्यादः कार्याकार्यविमूढधीः । अनिवार्यो विनिजित्य कालान्तजलधिध्वनिम् ॥२०॥ अनलस्यानिलो वाऽस्य "साहाय्यमगमस्तदा । केऽपि पापक्रियारम्भे सुलभाः सामवायिकाः२५ ॥२१॥ जो लाल लाल हो रहा है, जिसके नेत्ररूपी अंगारे घूम रहे हैं, और क्रोधसे जो अग्निकुमार देवों के समान जान पड़ता है ऐसा वह अर्ककीर्ति अपने वचनोंसे ही समस्त शत्रुओंको जलानेकी इच्छा करता हुआ ही मानो जलते हुए बड़े बड़े फुलिंगोंके समान वचन उगलने लगा ॥१०-११॥ वह बोला जिस दुष्टने मेरा अपमान कर यह कन्या दी है उस मूर्खने अपने लिये पहले ही जलांजलि दे रखी है ॥१२॥ उस समय कन्याका रथ आगे निकलते ही मेरी क्रोधरूपी अग्नि भड़क उठी थी परन्तु जलने योग्य कौन है ? यह नहीं जानता हुआ मैं चुप बैठा रहा था ॥१३॥ केवल नामसे ठगाया हुआ वह मूर्ख अपने आपको अकम्पन मानता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि मेरे कुपित होनेपर पर्वतों सहित पृथिवी भी कँपने लगती है ॥१४॥ मेरी तलवाररूपी जलकी धाराका विषय तो दूर ही रहे मेरी सेनारूपी लहर ही समस्त शत्रुओंको अनायास ही नष्ट कर देती है ॥१५॥बहुत बढ़े और सूखे हुए नाथवंश तथा चन्द्रवंशरूपी दुष्ट बांसोकी बड़ी भारी अटवी मेरे क्रोधरूपी प्रज्वलित अग्निसे भस्म हो जायगी और फिर इस संसारमें कभी नहीं उग सकेगी ॥१६॥ उस समय पृथिवीके अधिपति चक्रवर्ती महाराजने जयकुमार को जो वीरपट्ट बांधा था उसे तो मैंने उनके डरसे सह लिया था परन्तु आज अपने सब सौभाग्यको नष्ट करनेवाली इस वरमालाको कैसे सह सकता हूँ ? ॥१७॥ मेरे यशरूपी फूलोंकी अम्लान माला ही इस युगके अन्ततक विद्यमान रहे। इस मालाको तो मैं जयलक्ष्मीके साथ साथ जयकुमारके वक्षःस्थलसे आज ही हरण किये लेता हूँ ॥१८॥ केवल वायुमात्रसे विलीन हो जानेवाले कोमल मेघोंको जीतकर अहंकारको प्राप्त हुए जयकुमारकी जीत आज मैं युद्धमें देखूगा ।।१९।। इस प्रकार जिसने मर्यादा तोड़ दी है, कार्य अकार्यके करने में जिसकी बुद्धि विचाररहित हो रही है और जो किसीसे निवारण नहीं किया जा सकता ऐसे अर्ककीर्तिने उस समय अपने शब्दोंसे प्रलयकालके समुद्रकी गर्जनाको भी जीत लिया था और जिस प्रकार अग्नि को भड़काने के लिये वाय सहायक होता है उसी प्रकार उसका क्रोध भड़काने के लिये कितने १ उवाच । २ दग्धुमिच्छुः । ३ तिरस्कृत्य । ४ मामुल्लङघ्यगते । ५ कन्यारूढस्यन्दने । ६ अकम्पन इति नाम्ना । ७ वञ्चितः । ८ क्रुधे ल०।६ पर्वतसहिता भूमिः । महीधेशिखरिक्ष्माभूदहार्यधरपर्वताः' इत्यभिधानात् । १० अस्मदायुधधाराजल । ११ वारिधारासि प०, ल०। १२ सेनाबेला। १३ प्रवृद्धनिस्सारदुष्टनाथवंशसोमवंशविशालविपिन इत्यर्थः । १४ अस्मिन् लोके । १५ न जनिष्यते । १६ चक्रिणः । १७ सहामि । १८ अस्मत्कीतिः। १९ मालाम् । २० स्वीकुर्याम् । २१ मृदून् । २२ विनाशिनः । २३ इति उज्जगारेति सम्बन्धः । २४ सहायता,। २५ समवायं सहायता प्राप्ताः । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ महापुराणम् तवा सर्वोपधाशुद्धो मन्त्री जानपवादिभिः । अनवद्यमति म लक्षितो मन्त्रिलक्षणः ॥२२॥ धर्म्यमथ्यं यशस्सारं ससौष्ठवमनिष्ठुरम् । सुविचार्य वचो न्याय्यं पथ्यं प्रोक्तुं प्रचक्रमे ॥२३॥ मही व्योम शशी सूर्यः सरिदीशोऽनिलोऽनलः । त्वं त्वत्पिता घनाःकालो जगत्क्षेमविधायिनः ॥२४॥ विपर्यासे विपयतिभवतामनुवर्तनात् । वर्तते सृष्टिरेषा' हि व्यक्तं युष्मासु तिष्ठते ॥२५॥ गुणाःक्षमादयः सर्वे व्यस्तास्तेषु क्षमादिषु'। समस्तास्ते जगढवयंचक्रिणि त्वयि च स्थिताः ॥२६॥ च्यवन्ते स्वस्थितेः काले क्वचित्तेऽपि क्षमादयः । न स कालोऽस्ति यः कर्ता प्रच्यतेर्युवयोः२ स्थितेः ॥२७॥ सृष्टिः पितामहेनयं३ सृष्टनां" तत्समपिताम्"पाति सम्राट पिता तेऽद्य तस्यास्त्वमनुपालकः ॥२८॥ दैबमानुषबाधाभ्यः क्षतिः कस्यापि या क्षितौ । ममैवेयमिति स्मृत्वा समाया त्वयैव सा ॥२६॥ क्षतात् त्रायत इत्यासीत् क्षत्रोऽयं भरतेश्वरः। सुतस्तस्यौरसो० ज्येष्ठःक्षत्रियस्त्वं तदादिमः ॥३०॥ त्वत्तो न्यायाः प्रवर्तन्ते नूतना ये पुरातनाः। तेऽपि त्वत्पलिता एव भवन्त्यत्र पुरातनाः ॥३१॥ ही राजा लोग उसके सहायक हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि पापक्रियाओंके प्रारम्भमें सहायता देनेवाले सुलभ होते हैं ॥२०-२१॥ उस समय जो सब उपधाओंसे शुद्ध हैं तथा जनपद आदि मंत्रियोंके लक्षणोंसे सहित हैं ऐसा निर्दोषबुद्धिका धारक अनवद्यमति नामका मंत्री अच्छी तरह विचारकर धर्मयुक्त, अर्थपूर्ण, यशके सारभूत, उत्तम, कठोरता रहित, न्यायरूप और हितकारी वचन कहने लगा ॥२२-२३॥ उसने कहा कि पृथिवी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र, वायु, अग्नि, तू, तेरा पिता, मेघ और काल ये सब पदार्थ संसारमें कल्याण करनेवाले हैं ॥२४॥ आप लोगोंमें उलटपुलट होनेसे यह संसारकी सृष्टि उलटपुलट हो जाती है और आपके अनुकूल रहनेसे अच्छी तरह विद्यमान रहती है इससे स्पष्ट है कि यह सृष्टि आप लोगों पर ही अवलम्बित है ॥२५॥ क्षमा आदि गुण अलग अलग तो पृथिवी आदिमें भी रहते हैं परन्तु इकट्ठे होकर संसारका कल्याण करनेके लिये चक्रवर्तीमें और तुझमें ही रहते हैं ॥२६॥ पृथिवी आदि पदार्थ किसी समय अपनी मर्यादासे च्युत भी हो जाते हैं परन्तु ऐसा कोई समय नहीं है जो तुम दोनोंको अपनी मर्यादासे च्य त कर सके ॥२७॥ तुम्हारे पितामह भगवान् वृषभदेवने इस कर्मभूमिरूपी सृष्टिकी रचना की थी, उनके द्वारा सौंपी हुई इस पृथिवीका पालन इस समय तुम्हारे पिता भरत महाराज कर रहे हैं और उनके बाद इसका पालन करनेवाले तुम ही हो ॥२८॥ इस पथिवीमें यदि किसीकी भी दैव या मनष्यकृत उपद्रवोंसे कुछ हानि होती हो तो 'यह मेरी' ही है ऐसा समझकर आपको ही उसका समाधान करना चाहिये ।।२९।। जो क्षत अर्थात् संकटसे रक्षा करे उसे क्षत्र कहते हैं, भरतेश्वर सबकी रक्षा करते हैं इसलिये वे क्षत्र हैं और तुम उनके सबसे बड़े औरस पुत्र हो इसलिये तुम सबसे पहले क्षत्रिय हो ॥३०॥ इस संसारमं नवीन न्याय तुमसे ही प्रवृत्त होते हैं और जो पुरातन अर्थात् प्राचीन हैं वं तुम्हार द्वारा पालित होकर ही पुरातन कहलाते हैं । भावार्थ-आपसे नवीन न्याय मार्गकी प्रवृत्ति १ धर्मार्थकामभयेषु व्याजेन परचित्तपरीक्षणमुपधा तया शुद्धः । 'उपधा धर्माधर्यत्परीक्षणम्' इत्यभिधानात् । २ जनपदभवनृपपुरजनादिभिः । ३ लोकस्य क्षेमकारिणः । ४ विपर्यासमेति । ५ जगत्सृष्टिः । ६ युष्मासु महीप्रभृतिषु प्रकाशते। ७ क्षान्त्यवगाहनसंहानसन्तापहरणप्रकाशनादिगुणाः । ८ विकलाः । एकैकस्मिन्नेकैकश एवेत्यर्थः। ६ पृथिव्याकाशादिषु। १० जगवृद्धौ प०, ल०, म० । ११ प्रच्युता भवन्ति। १२ भरतार्ककीयोः । १३ पितृपित्रा आदिब्रह्मणा। 'पितामहः पितृपिता' इत्यभिधानात् । १४ सृष्टा तां अ०स० । सृष्टयतां इ०,१०, ल०। १५ आदिब्रह्मरणा विस्तीर्णाम् । १६ चक्री। १७ सृष्टेः । १८ निवर्तनीया । १६ क्षतिः । २० उरसि भवः। साक्षात्सुतः न दत्तपुत्रः। २१ क्षत्राज्जातः । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः । विवाहविधिभेदेषु वरिष्ठो' हि स्वयंवरः ॥ ३२॥ यदि स्यात् सर्वसम्प्रार्थ्या कन्येका पुण्यभाजनम् । अविरोधो 'व्यधाय्यत्र देवायत्तो विधिर्बुधैः ॥ ३३ ॥ मध्ये महाकुलीनेषु कञ्चिदेकमभीप्सितम् । सलक्ष्मीकमलक्ष्मीकं गुणितं गुणदुर्गतम् ॥ ३४ ॥ विरूपं रूपिणं चापि वृणीतेऽसौ विधेर्वशात् । न तत्र मत्सरः कार्यः शेषे न्ययोऽयमीदृशः ॥ ३५॥ astra यदि केनापि न्यायो रक्ष्यस्त्वयैव सः । नेदं तवोचितं क्वापि पाता स्यात्पारिपान्थिकः ॥ ३६॥ भवत्कुलाचलस्योभौ नाथसोमान्वयौ पुरा । मेरोनिषधनीलौ वा सत्यक्षौ पुरुणा कृतौ ॥३७॥ सकल क्षत्रियज्येष्ठः पूज्योऽयं राजराजवत् । श्रकम्पनमहाराजो राजेव ज्योतिषां गणैः ॥ ३८ ॥ निविशेष' पुरोरेनं मन्यते भरतेश्वरः । पूज्यातिलङ्घनं प्राहुरुभय" बाशुभावहम् ॥३६॥ पश्य तादृश एवात्र सोमवंशोऽपि कथ्यते । धर्मतीर्थं भवद्वंशाद् दानतीर्थं "ततो यतः ॥४०॥ पुरस्सरणमात्रेण इलाध्यं चक्रं विशां विभोः ३ । प्रायो दुस्साधसंसिद्धौ श्लाघते जयमेव सः ॥४१॥ १५ एतस्य दिग्जये सर्वेद् ष्टमेवेह पौरुषम् । अनेन वः कृतः प्रेषः १७ स्मर्तव्यो ननु स त्वया ॥४२॥ ज्ञात्वा " सम्भाव्यशौर्योऽपि स मान्यो भर्तभिर्भटः । दृष्टसारः स्वसाध्येऽर्थे साधितार्थः किमुच्यते ॥४३॥ चलती है और पुराने न्यायमार्गकी रक्षा होती है ॥ ३१ ॥ विवाहविधिके सब भेदों में यह स्वयंवर ही श्रेष्ठ है। श्रुतियों और स्मृतियोंमें कहा गया यह स्वयंवर ही सनातन (प्राचीन) मार्ग है ||३२|| यदि पुण्यके पात्र स्वरूप किसी एक कन्याकी याचना सब मनुष्य करने लग जायं तो उस समय परस्परका विरोध दूर करनेके लिये विद्वानोंने केवल भाग्यके आधीन होनेवाली इस स्वयंवर विधिका विधान किया है ||३३|| बड़े बड़े कुलोंमें उत्पन्न हुए पुरुषोंके मध्य में वह कन्या भाग्यवश अपनी इच्छानुसार किसी एकको स्वीकार करती है चाहे वह लक्ष्मीसहित हो या लक्ष्मी रहित, गुणवान् हो या निर्गुण, सुरूप हो या कुरूप । अन्य लोगोंको इसमें ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये क्योंकि यह ऐसा ही न्याय है || ३४-३५ ॥ यदि किसीके द्वारा इस न्याय का उल्लंघन किया जाय तो तुम्हें ही इसकी रक्षा करनी चाहिये इसलिये यह सब तुम्हारे लिये उचित नहीं है । क्या कभी रक्षक भी चोर या शत्रु होता है || ३६ || जिस प्रकार निषध और नील कुलाचल मेरुपर्वतके उत्तम पक्ष हैं उसी प्रकार भगवान् आदिनाथने पहले नाथवंश और चन्द्रवंश दोनों ही आपके कुलरूपी पर्वतके उत्तम पक्ष अर्थात् सहायक बनाये थे ||३७|| जिस प्रकार चन्द्रमा समस्त ज्योतिषी देवोंके समूहके द्वारा पूज्य है उसी प्रकार समस्त क्षत्रियोंमें बड़े महाराज अकंपन भी भरत चक्रवर्ती के समान सबके द्वारा पूज्य हैं ||३८|| महाराज भरत इन अकंपनको भगवान् वृषभदेवके समान ही मानते हैं इसलिये तुम्हें भी इनके प्रति नम्रता का व्यवहार करना चाहिये क्योंकि पूज्य पुरुषोंका उल्लंघन करना दोनों लोकोंमें अकल्याण करनेवाला कहा गया है ||३९|| और देखो यह सोमवंश भी नाथवंशके समान ही कहा जाता है । क्योंकि जिस प्रकार तुम्हारे वंशसे धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति हुई है उसी प्रकार सोमवंशसे दानतीर्थकी प्रवृत्ति हुई है ॥४०॥ चक्रवर्तीका चक्ररत्न आगे आगे चलने मात्र से प्रशंसनीय अवश्य है परन्तु कठिनाई से सिद्ध होने योग्य कार्यों में वे प्रायः जयकुमार की ही प्रशंसा करते हैं ॥४१॥ दिग्विजयके समय इसका पुरुषार्थ संसारमें सबने देखा था । उस समय इसने जो पराक्रम दिखाया था वह भी तुम्हें याद रखना चाहिये ॥ ४२ ॥ | जिस योद्धामें शूरवीरपनेकी संभावना हो राजाओं १ अतिशयेन वरः । २ कृतः । ३ - देकं समीप्सितम् ल०, म० अ०, प०, इ०, स० । ४ गुरणदरिद्रम् । ५ रक्षकः । ६ सत्सहायौ । सत्पक्षती च । ७ चक्रवत् । ८ चन्द्र इव । ६ समानम् । १० इहामुत्र च । ११ सोमवंशात् । १२ यतः कारणात् । १३ चक्रिरणः । १४ चक्री । १५ जयस्य । १६ यः ल० । १७ बलानियोगः । १८ भाविशौर्य इत्यर्थः । ३८९ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० महापुराणम् विना चक्राद् विना रत्नैर्भोग्येयं श्रीस्त्वया तदा । जयात्ते' मानुषी' सिद्धिर्देवी पुण्योदयाद्यथा ॥४४॥ तृणकल्पोऽपि संवाह्यस्तव नीतिरियं कथम् । नाथेन्दुवंशावुच्छेद्यौ लक्ष्म्याः साक्षाद्भुजायितौ ॥४५॥ बन्धुभूत्यक्षयाद्भूयस्तुभ्यं चत्र्यपि कुप्यति । श्रधर्मश्चायुगस्थायी त्वया स्यात् सम्प्रवर्तितम् ॥४६॥ परदाराभिलाषस्य प्राथम्यं' मा वृथा कृथाः । श्रवश्यमाहृताप्येषा न कन्या ते भविष्यति ॥४७॥ सप्रतापं यशः स्थास्नु जयस्य स्यादहर्यथा । तव रात्रिरिवाकीतिः स्थायिन्यत्र मलीमसा ॥४८॥ सर्वमेतन्ममैवेति मा संस्था साधनं युधः । बहवोऽप्यत्र भूपालाः सन्ति तत्पक्षपातिनः ॥४६॥ पुरुषार्थत्रयं पुम्भिर्दुष्प्रापं तत्त्वयाऽजितम् । न्यायमागं समुल्लङ्घ्य वृथा तत्कि विनाशयेः ॥ ५० ॥ श्रकम्पनस्य सेनेशो जयः प्रागिव चक्रिणः । वोरलक्ष्यास्तुलारोहं मुधा त्वं किं विधास्यसि ॥ ५१ ॥ नन न्यायेन बन्धोस्ते' बन्धुपुत्री समर्पिता । उत्सवे का पराभूतिरक्षमात्र पराभवः ॥ ५२ ॥ कन्यारत्नानि सन्त्येव बहून्यन्यानि भूभुजाम् । इह तानि सरत्नानि सर्वाण्यद्यान" यामि ते ॥ ५३ ॥ इति नीतिलतावृद्विविधाय्यपि वचः पयः । सव्यघात् तच्चेतसः क्षोभं तप्ततैलस्य वा भृशम् ॥५४॥ को जानकर उसका भी सन्मान करना चाहिये फिर भला जिसका पराक्रम देखा जा चुका है और जिसने अत्यन्त असाध्य कार्यको भी सिद्ध कर दिया है उसकी तो बात ही क्या है ? ||४३|| आगे चलकर जिस समय बिना चक्र और बिना रत्नोंके यह लक्ष्मी तुम्हारे उपभोग करने योग्य होगी उस समय तुम्हारी देवी सिद्धि जिस प्रकार पुण्य कर्मके उदयसे होगी उसी प्रकार तुम्हारी मानुषी अर्थात् मनुष्योंसे होनेवाली सिद्धि जयकुमारसे ही होगी || ४४ || जब कि तृणके समान तुच्छ पुरुषकी भी रक्षा करनी चाहिये यह आपकी नीति है तब राज्य लक्ष्मी के साक्षात् भुजाओं के समान आचरण करनेवाले नाथ वंश और सोम वंश उच्छेद करने योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥४५॥ इन भाइयोंके समान सेवकोंका नाश करनेसे चक्रवर्ती भी तुमपर अधिक क्रोध करेंगे और युग के अन्ततक टिकनेवाला यह अधर्म भी तुम्हारे द्वारा चलाया हुआ समझा जायगा ॥४६॥ तुम्हें व्यर्थ ही परस्त्रीकी अभिलाषाका प्रारम्भ नहीं करना चाहिये क्योंकि यह निश्चय है, यह कन्या जबरदस्ती हरी जाकर भी तुम्हारी नहीं होगी ॥४७॥ जयकुमारका प्रताप सहित यश दिनके समान सदा विद्यमान रहेगा और तुम्हारी मलिन अकीर्ति रात्रिके समान सदा विद्य मान रहेगी ||४८ || ये सब राजा लोग युद्ध में मेरी सहायता करेंगे ऐसा मत समझिये क्योंकि इनमें भी बहुतसे राजा लोग उनके पक्षपाती हैं ||४९ || जो धर्म अर्थ और कामरूप तीन पुरुषार्थ पुरुषोंको अत्यन्त दुर्लभ हैं वे तुझे प्राप्त हो गये हैं इसलिये अब न्याय मार्गका उल्लंघन कर उन्हें व्यर्थ ही क्यों नष्ट कर रहें हो ॥५०॥ यह जयकुमार जिस प्रकार पहले चक्रवर्तीका सेनापति बना था उसी प्रकार अब अकम्पनका सेनापति बना है तुम व्यर्थ ही वीरलक्ष्मीको तुलापर आरूढ क्यों कर रहे हो । भावार्थ- वीरलक्ष्मीको संशयमें क्यों डाल रहे हो ॥५१॥ निश्चय से तेरे एक भाईकी पुत्री तेरे दूसरे भाईके लिये न्यायपूर्वक समर्पण की गई है, ऐसे उत्सवमें तुम्हारा क्या तिरस्कार हुआ ? हां, तुम्हारी असहनशीलता ही तिरस्कार हो सकती ? भावार्थ - हितकारी होनेसे जिस प्रकार जयकुमार तुम्हारा भाई है उसी प्रकार अकंपन भी तुम्हारा भाई है । एक भाईकी पुत्री दूसरे भाईके लिये न्यायपूर्वक दी गई है इसमें तुम्हारा क्या अपमान हुआ ? हां, यदि तुम इस बातको सहन नहीं कर सकते हो तो यह तुम्हारा अपमान हो सकता है ॥५२॥ सुलोचनाके सिवाय राजाओंके और भी तो बहुतसे कन्यारत्न हैं, रत्नालंकार सहित उन सभी कन्याओंको मैं आज तुम्हारे लिये यहां ला देता हूँ ||५३ || इस प्रकार १ तद । २ पुरुषकृता । ६ मा कार्षीः । ७ युद्धस्य । ३ रक्षणीयः ४ सम्प्रवर्तितः स०, ल०, अ० प०, इ० ८ तव । ६ असहमानता । १० प्रापयामि । ११ ५ प्रथमत्वम् । व्याधात् ल० । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व सर्वमेतत् समाकर्ण्य बुद्धि कर्मानुसारिणीम् । स्पष्टयन्निव दुर्बुद्धिरिति प्रत्याह भारतीम् ॥५५॥ अस्ति स्वयंवरः पन्थाः परिणीतौ चिरन्तनः । पितामहकृतो मान्यो वयोज्येष्ठस्त्वकम्पनः ॥५६॥ किन्तु सोऽयं जयस्नेहात्तस्योत्कर्ष चिकीर्षुकः । स्वसुतायाश्च सौभाग्यप्रतीतिप्रविधित्सुकः ॥१७॥ सर्वभूपालसन्बोहसमाविर्भावितोदयात् । स्वयं चक्रीयितु चैव व्यधत्त कपट शठः ॥५८॥ प्राक्समथितमन्त्रण "प्रदायास्मै स्वचेतसा । कृतसंकेतया माला सुतयाऽऽरोपिता मृषा ॥५६॥ युगादौ कुलवृद्धन मायेय सम्प्रवतिता । मयाद्य यापेक्ष्येत कल्पान्ते नैव वार्यते ॥६०॥ न चक्रिणोऽपि कोपाय स्यादन्यायनिषेधनम् । प्रवर्तयत्यसौ दण्डं मय्यप्यन्यायतिनि ॥६॥ जयोऽप्येवं समुसिक्तस्तत्पट्टेन च मालया। प्रतिस्वं लब्धरन्धो मां करोत्यारम्भकम्पुरा ॥६२॥ समूलतूलमुच्छिद्य सर्वद्विषम युधि । अनुरागं जनिष्यामि राजन्यानां मयि स्थिरम् ॥६३॥ द्विधा भवतु वा मा वा बलं ते न किमाशुगाः । माला प्रत्यानयिष्यन्ति जयवक्षो विभिद्य मे ॥६४॥ नाहं सुलोचनार्थ्यस्मि मत्सरी मच्छरैरयम् । "परासु रधुनैव स्यात् किं मे विधवया त्वया ॥६५॥ अनवद्यमति मंत्रीका वचनरूपी जल यद्यपि नीतिरूपी लताको बढ़ानेवाला था तथापि उसने तपे हुए तेलके समान अर्ककीर्तिके चित्तको और भी अधिक क्षोभित कर दिया था ॥५४॥ यह सब सुनकर 'बुद्धि कर्मों के अनुसार ही होती है,' इस बातको स्पष्ट करता हुआ वह दुर्बुद्धि इस प्रकार वचन कहने लगा ॥५५।। मैं मानता हूँ कि विवाहकी विधियों में स्वयंवर ही पुरातन मार्ग है और यह भी स्वीकार करता हूँ कि हमारे पितामह भगवान् वृषभदेवके द्वारा स्थापित होने तथा वयमें ज्येष्ठ होने के कारण अकम्पन महाराज मेरे मान्य हैं परन्तु वह जयकुमारपर स्नेह होनेसे उसीका उत्कर्ष करना चाहता है और सबपर अपनी पुत्रीके सौभाग्यकी प्रतीति करना चाहता है। समस्त राजाओंके समहके द्वारा प्रकट हए बड़प्पनसे अपने आपको चक्रवर्ती बनानेसे लिये ही उस मूर्खने यह कपट किया है ॥५६-५८॥ 'यह कन्या जयकुमारको ही देनी है' ऐसी सलाह अकंपन पहले ही कर चुका था और उसी सलाहके अनुसार अपने हृदयसे जयकुमारके लिये कन्या दे भी चुका था परन्तु यह सब छिपानेके लिये जिसे पहले ही संकेत किया गया है ऐसी पूत्रीके द्वारा उसने यह माला झठमठ ही डलवाई है ॥५९॥ यगके आदि में उच्चकुलीन अकम्पनके द्वारा की हुई इस मायाकी यदि आज मैं उपेक्षा कर दूं तो फिर कल्पकालके अन्ततक भी इसका निवारण नहीं हो सकेगा ॥६०॥ अन्यायका निराकरण करना चक्रवतीक भी क्रोधके लिय नहीं हो सकता क्योकि जब में अन्यायम प्रवृत्ति कर बैठता ह तब वे मझे भी तो दण्ड देते हैं। भावार्थ-चक्रवर्ती अन्यायको पसन्द नहीं करते हैं, और मैं भी अन्यायका ही निराकरण कर रहा है इसलिये वे मेरे इस कार्यपर क्रोध नहीं करेंगे ॥६१।। यह जयकुमार भी पहले वीरपट्ट बांधनेसे और अब मालाके पड़ जानेसे बहुत ही अभिमानी हो रहा है। यह छिद्र पाकर पहलेसे ही मेरे लिये कुछ न कुछ आरम्भ करता ही रहता है ॥२॥ यह सबका शत्रु है इसलिये युद्ध में इसे आमूलचूल नष्टकर सब राजाओंका स्थिर प्रेम अपनेमें ही उत्पन्न करूंगा ॥६३।। सेना फूटकर दो भागोंमें विभक्त हो जाय अथवा न भी हो, उससे मझे क्या ? मेरे वाण ही जयकुमारका वक्षःस्थल भेदनकर वरमालाको ले आवेंगे। ॥६४॥ में सुलोचनाको भी नहीं चाहता क्योंकि सबसे ईर्ष्या करनेवाला यह जयकुमार मेरे वाणोंसे अभी १ विवाहे। २ अभ्युदयं प्राप्यमाश्रित्य। ३ चक्रीवाचरितुम् ॥ ४ मायावी। ५ दत्त्वा । ६ अकम्पनेन । ७ –पेक्षेत ल०। ८ --प्येनं ल०९ गर्वितः। १० वीरपट्टेन । ११ प्राप्तावसरः । १२ व्यापारम् । १३ कारणसहितम् । १४ शराः । १५ मत्सरवान् । १६ मम बाणैः । १७ गतप्राणः । 'पराशुप्राप्तपञ्चत्वपरेतप्रेतसंस्थिताः।' इत्यभिधानात् । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ महापुराणम् दुराचारनिषेधेन त्रयं धर्मादि वर्वते । कारणे सति कार्यस्य किं हानिर्दश्यते क्वचित् ॥६६॥ व्ययो मे विक्रमस्यास्ता' शरस्याप्यत्र न व्ययः । वधे प्रत्युत धर्मः स्याद् दुष्टस्यांहः कुतो भवेत् ॥६७॥ कोतिविख्यातकीर्ते, नार्ककीविनअक्ष्यति । अकीतिरनिवार्या स्यात् अन्यायस्यानिषेधनात् ॥६॥ तस्य' मेऽयशसः कीर्तेर्भवद्भिर्यदुदाहृतम् । भवेत्तत्सत्यसंवादि शीतकोऽस्म्यत्र यद्यहम् ॥६६॥ यूयमाध्वं ततस्तूष्णीम 'उष्णकोऽहमिदं प्रति । धर्नामथ्र्य यशस्यं च मा निषेधि' हितैषिभिः ॥७०॥ एवं मन्त्रिणमुल्लङ्घय कुधीर्वा दुर्ग्रहाहितः । सेनापति समाहूय प्रत्यासन्नपराभवः ॥७१॥ कथयित्वा महीशानां सर्वेषां रणनिश्चयम् । भेरीमास्फालयामास जगत्त्रयभयप्रदाम् ॥७२॥ अनुभेरीरवं सद्यः प्रत्यावासं महीभुजाम् । नटभटभुजास्फोटच 'टुलारावामिष्ठुरः ॥७३॥ करिकण्ठस्फुटोद्धोषघण्टाटङकारभैरवः । जितकण्ठीरवारावहयोषाविभीषणः ॥७४॥ चलद्धरिखुरोद्घट्टकठोरध्वाननिर्भरः। पदातिपद्धति प्रोद्यद्भरिभूरवभीवहः१५ ॥७॥ "स्पन्दत्स्यन्दनचक्रोत्थपयुचीत्कारभीकरः। धनुः सज्जीक्रियासक्तगुणास्फालनकर्कशः ॥७६॥ प्रतिध्वनितदिग्भित्तिस्सर्वानकभयानकः । बलकोलाहलः कालमिवाहातुं समुद्यतः ॥७७॥ ही मर जावेगा तब उस विधवासे मुझे क्या प्रयोजन रह जावेगा ॥६५॥ दुराचारका निषेध करनेसे धर्म आदि तीनों बढ़ते हैं, क्योंकि कारणके रहते हुए क्या कहीं कार्यकी हानि देखी जाती है ? ॥६६॥ इस काममें मेरे पराक्रमका नाश होना तो दूर रहा मेरा एक वाण भी खर्च नहीं होगा बल्कि दुष्टके मारनेमें धर्म ही होगा, पाप कहांसे होगा ? ॥६७॥ ऐसा करनेसे प्रसिद्ध कीर्तिवाले मुझ अर्ककीर्तिकी कीर्ति भी नष्ट नहीं होगी परन्तु हां, यदि इस अन्यायका निषेध नहीं करता हूँ तो किसीसे निवारण न करने योग्य मेरी अपकीर्ति अवश्य होगी ॥६८।। तुमने जो मेरी अपकीति और उसकी कीति होनेका उदाहरण किया है सो यदि में इस विषयमें ठंडा हो जाऊं तो यह आपका निरूपण सत्य हो सकता है ॥६९।। इसलिये तुम लोग चुप बैठो, में इस कार्यमें उष्ण ह-क्रोधसे उत्तेजित ह। हित चाहनेवालोंको धर्म, अर्थ तथा यश बढ़ाने वाले कार्योका कभी निषेध नहीं करना चाहिये ॥७०॥ इस प्रकार जिसका पराभव निकट है और जो खोटे हठसे युक्त है ऐसे दुर्बुद्धि अर्ककीर्तिने मंत्रीका उल्लंघन कर सेनापतिको बुलाया और सब राजाओंसे युद्धका निश्चय कहकर तीनों लोकोंको भय उत्पन्न करनेवाली भेरी बजवाई ।।७१-७२॥ जो राजाओंके प्रत्येक डेरे में भेरीके शब्दोंके साथ ही साथ बहुत शीघ्र नाचते हुए योद्धाओंकी भुजाओंकी ताड़नासे उत्पन्न होनेवाले चंचल शब्दोंसे कठोर है, जो हाथियोंके गलों में स्पष्ट रूपसे जोर जोरका शब्द करनेवाले घंटाओंकी टंकारसे भयंकर है, जो सिंहोंकी गर्जनाको जीतनेवाले घोड़ोंकी हिनहिनाहटसे भीषण है, जो चलते हुए घोड़ोंके खुरोंके संघटन से उठनेवाले कठोर शब्दोंसे भरा हुआ है, जो पैदल सेनाके पैरोंकी चोटसे उत्पन्न हुए पृथिवीके बहुत भारी शब्दोंसे भयंकर है, जो चलते हुए रथोंके पहियोंसे उत्पन्न होनेवाले बहुत भारी चीत्कार शब्दोंसे भय पैदा करनेवाला है, जो धनुष तैयार करने के लिये लगाई हुई डोरीके आस्फालन से कठोर है, जिसने दिशारूपी दीवालोंको प्रतिध्वनिसे युक्त कर दिया है और जो सब प्रकारके नगाड़ोंसे भयानक हो रहा है ऐसा बहुत भारी सेनाका कोलाहल उठा सो ऐसा जान पड़ता १ आस्तां तावदित्यध्याहारः । २ पापः । ३ विनाशमेष्यति । ४ जयस्य । ५ यदुदाहरणम् । ६ सत्येन अविपरीतप्रतिपत्तिकम् । सत्येन एकवादोपेतं वा। ७ मन्दः । ८ पटुः। 'दक्षे तु चतुरपेशलपटवः सुत्थान ओष्णश्च' इत्यभिधानात् । न निषिध्यते स्म । १० स्वीकृतः। ११ शिबिरं प्रति शिबिरं प्रति। १२ नवस्थिता। १३ ध्वनिः । १४ पादति । १५ भूमिध्वनिना भयङकरः । १६ चलत् । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ३९३ शिक्षिताः बलिनः शूराः शूरारूढाः सकेतवः । गजाः समन्तात् सन्नाहयाः प्राक्चेलुरचलोपमाः ॥७॥ तुरङगमास्तरङगाभाः सङग्रामाब्धेः सवर्मकाः । अनुदन्ति नदन्तोऽयान' विक्रामन्तः समन्ततः ॥७९॥ सचक्रं धेहि संयोज्य सवरं 'प्राज वाजिनः । इति सम्भ्रमिणोऽपप्तन् रथास्तदनु सध्वजाः ॥८॥ चण्डाः कोदण्डकुन्तासिप्रासचक्रादिभीकराः। यान्ति स्मानुरथं क्रुद्धा रुद्धदिक्काः पदातयः ॥१॥ गजं गजस्तदोद्धव्य बाहो वाहं रथं रथः । पदातयश्च पादान्तं सम्मानिर्ययुटुंधर ॥२॥ प्रारूढानेकपानेकभूपालपरिवारितः। भेरीनिष्ठुरनिर्घोषभीषिताशेषदिग्द्विपः ॥८३॥ चक्रध्वज समुत्थाप्य सम्यगाविष्कृतोन्नतिः। गजं विजयघोषाख्यम् आरुह्याद्रिवरोत्तमम् ॥८४॥ अर्ककीर्तिर्बहिर्भास्वदर"युद्यतभटावृतः । ज्योतिः कलाचलर्वार्कश्चचालाभ्यचलाधिपम्५ ॥८॥ किंवदन्ती विदित्वैतां सुपो भूत्वा कलाकुलः । स्वालोचितं च कर्तव्यं विधिना क्रियतेऽन्यथा ॥८६॥ इति स्वसचिवैः सार्धम् आलोच्य च जयादिभिः। प्रत्यर्ककीर्त्यथा दिक्षद्र दूतं सम्प्राप्य सत्वरम् ॥७॥ कुमार तव किं युक्तम् एवं सीमातिलज्धनम् । प्रसीद प्रलयोर दूरं तन्मा कार्कमषागमम् ॥८॥ था मानो कालको बुलानेके लिये ही उठा हो ॥७३-७७॥ उस समय जो शिक्षित हैं, बलवान् हैं, शूरवीर हैं, जिनपर योद्धा बैठे हुए हैं, पताकाएं फहरा रही हैं, जो सब तरहसे तैयार हैं और पर्वतोंके समान ऊंचे हैं ऐसे हाथी सब ओरसे आगे आगे चल रहे थे ।।७८॥ जो संग्रामरूपी समुद्रकी लहरोंके समान हैं, कवच पहने हुए हैं, हींस रहे हैं और कूद रहे हैं ऐसे घोड़े उन हाथियों के पीछे पीछे चारों ओर जा रहे थे ॥७९॥ पहिये जल्दी लगाओ, धराको ठीककर जल्दी लगाओ, इस प्रकार कुछ जल्दी करनेवाले, तथा जिनमें शीघ्रगामी घोड़े जुते हुए हैं और ध्वजाएँ फहरा रही हैं ऐसे रथ उन घोड़ोंके पीछे पीछे जा रहे थे ॥८०।। उन रथोंके पीछे धनुष, भाला, तलवार, प्रास और चक्र आदि शस्त्रोंसे भयंकर, फैलकर सब दिशाओंको रोकनेवाले, क्रोधी और बलवान् पैदल सेनाके लोग जा रहे थे ॥८१॥ उस समय हाथी हाथीको, घोड़ा घोड़ाको, रथ रथको और पैदल पैदलको धक्का देकर युद्ध के लिये जल्दी जल्दी जा रहे थे ॥८२॥ तदनन्तर-हाथियोंपर चढ़े हुए अनेक राजाओंसे घिरा हुआ, नगाड़ोंके कठोर शब्दोंसे समस्त दिग्गजोंको भयभीत करनेवाला, चक्रके चिह्नवाली ध्वजाको ऊंचा उठाकर अपनी ऊंचाईको अच्छी तरह प्रकट करनेवाला और चमकीली तलवार हाथमें लिये हुए योद्धाओंसे आवृत अर्ककीति, मेरु पर्वतके समान उत्तम विजयघोष नामक हाथीपर सवार हो अचलाधिप (अचला अधिप) अर्थात् पृथ्वीके अधिपति राजा अकंपनकी ओर इस प्रकार चला मानो ज्योतिर्मण्डल और कुलाचलोंके साथ साथ सूर्य ही अचलाधिप (अचल. अधिप) अर्थात् सुमेरुकी ओर चला हो ।।८३-८५।। महाराज अकंपन यह बात जानकर बहुत ही व्याकुल हुए और सोचने तरह विचारकर किया हुआ कार्य भी दैवके द्वारा उल्टा कर दि इस प्रकार उन्होंने अपने मंत्री तथा जयकुमार आदिके साथ विचारकर अर्ककीर्तिके प्रति शीघ्र ही एक शीघ्रगामी दूत भेजा ॥८६-८७।। दूतने जाकर कहा कि हे कुमार, क्या तुम्हें इस प्रकार सीमाका उल्लंघन करना उचित है ? प्रलयकाल अभी दूर है इसलिये प्रसन्न हूजिये १ संनद्धाः कृताः। २ तनुत्रसहिताः। ३ दन्तिनां पश्चात् । ४ ध्वनन्तः । ५ अगच्छन् । ६ लङघनं कुर्वन्तः । ७ चक्रेण सह किश्चिद् धेहि धारय । ८ धुरा सह किञ्चिद् धेहि। ६ प्रेरय । १० आशुप्रधावने प्रयुक्ताः । त्वरावन्तः । ११ अगच्छन् । १२ अश्वः । 'वाहोऽश्वस्तुरगो वाजी हयो धुर्यस्तुरङगमः' इति धनञ्जयः । १३ संग्रामनिमित्तम् । १४ उद्धृतासि । १५ अकम्पनं महाराज प्रति । मेरं च । १६ जनवार्ताम् । १७ अधिकाकुलः। १८ सुष्ठवालोचितम् । १६ कार्यम् । २० अर्ककीर्ति प्रति । २१ प्राहिणोत् । २२ प्रलयः षष्ठकालान्ते भवतीत्यागमम् । मृषा मा कुरु । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ महापुराणम् इति सामादिभिः 'स्वोक्तरशान्तमवगम्य तम् । प्रत्येत्य तत्तथा सर्वम् प्राश्ववाजी गमनपम् ॥६॥ काशिराजस्तवाकर्ण्य विषादचलिताशयः। महामोहाहितों' वाऽऽसीद् दुष्कार्य को न मुह्यति ॥१०॥ 'अत्र चिन्त्यं न वः किञ्चिन्यायस्तेनैव लडघितः। 'तिष्ठतेहैव संरक्ष्य सुनियुक्ताः' सुलोचनाम् ॥६१ इदानीमेव दुर्वत्तं शुद्धखलालिङगनोत्सुकम् । शाखामृगमिवानेष्ये बध्वा दाराततायिनम् ॥१२॥ इत्युदीर्य जयो मेघकुमारविजयाजिताम् । मेघघोषाभिधां भेरी १९प्रष्ठेनास्फोटयद रुषा ॥३॥ द्रोणादिप्रक्षयारम्भघनाघनघनध्वनिम् । तद्ध्वनिप्प" निजित्य निर्भिद्य हृदयं द्विषाम् ॥१४॥ तद्रवाकर्णनाद घृणितावप्रतिमे५ बले। प्रतिवेलोत्सवोऽत्रासीदुत्सवो विजय" यथा ॥५॥ तदोद्भिन्नकटप्रान्तप्रक्षरन्मदपायिनः । स्वमेदेनेव मातडगाः प्रोत्तुङगाः प्रोन्मदिष्णवः ॥१६॥ सुस्वनन्तः खनन्तः खं वाजिनो वायुरहसः" । कृतोत्साहा रणोत्साहाद् रेजुस्तेजस्विता हि सा ॥७॥ और आगमको झूठा मत कीजिये । भावार्थ-लड़कर असमयमें ही प्रलय काल न ला दीजिये। दूतने इस प्रकार बहुतसे साम, दान आदिके वचन कहे परन्तु तो भी उसे अशान्त जानकर वह लौट आया और शीघ्र ही ज्योंके त्यों सब समाचार अकंपनसे कह दिये ।।८८-८९॥ उन समाचारोंको सुनकर काशीराज अकंपनका चित्त विषादसे विचलित हो उठा और वे स्वयं महामोहसे मूच्छित हो गये सो ठीक ही है क्योंकि बुरे कामोंमें कौन मूच्छित नहीं होता ॥९०॥ जयकुमारने अकंपनको चिन्तित देखकर कहा कि इस विषयमें हम लोगोंको कुछ भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकि न्यायका उल्लंघन उसीने किया है, आप सावधान होकर सुलोचना की रक्षा करते हुए यहीं रहिये । दुराचारी, स्त्रियोंपर उपद्रव करनेवाले और इसलिये ही सांकलोंसे आलिंगन करनेकी इच्छा करनेवाले उस अर्ककीतिको बंदरके समान बांधकर मैं अभी लाता हूँ॥९१-९२॥ इस प्रकार कहकर जयकुमारने क्रोधमें आकर, यद्ध में आगे जानेवाले पुरुषके द्वारा मेघकुमारोंको जीतनेसे प्राप्त हुई मेघघोषा नामकी भेरी बजवाई ॥९३॥ प्रलयकालके प्रारम्भमें प्रकट होनेवाले द्रोण आदि मेघोंकी घोर गर्जनाको जीतकर तथा शत्रुओं का हृदय विदारणकर वह भेरीकी आवाज सब ओर फैल गई ॥९४॥ जिस प्रकार शत्रुके विजय करनेपर उत्सव होता है उसी प्रकार उस भेरीका शब्द सुनकर लहराते हुए समुद्रके समान चंचल जयकुमारकी सेनामें माला डालनेके उत्सवसे भी कहीं अधिक उत्सव होने लगा ॥९५॥ उस समय फटे हुए गण्डस्थलके समीपसे झरते हुए मदका पान करनेवाले और अपने उसी मदसे ही मानो उन्मत्त हुए ऊंचे ऊंचे हाथी युद्धके उत्साहसे सुशोभित हो रहे थे । तथा इसी प्रकार अच्छी तरह हींसते हुए, पैरोंसे आकाशको खोदते हुए और वायुके समान वेगवाले उत्साही घोड़े भी युद्धके उत्साहसे सुशोभित हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उनका तेजस्वीपना १ सोक्तैः ट० । वचनसहितः । २ शीघ्र ज्ञापितवान् । ३ अकम्पनः । ४ महामू गृहीत इव । ५ अत्र कार्ये । ६ अर्ककीर्तिनैव । ७ निवसत । ८ राजभवने । ६ सावधानाः भूत्वा । १० दाराततायनम् ट० । दारेषु कृतागमनम्। स्त्रीनिमित्तमागतमर्ककीर्तिमित्यर्थः । दाराततायिनमिति पाठे दारार्थं वधोद्यतम् । 'आततायी वधोद्यतः' इत्यभिधानात् । ११ अग्रगामिना पुरुषेण । १२ आस्फालनं कारयति स्म । प्रष्ठेनास्फालयद् ल०, अ०, प०, इ०, स० । १३ द्रोणादि द्रोणकालपुष्करादि । प्रक्षयारम्भ प्रलयकालप्रारम्भ । द्रोणादयश्च ते प्रक्षयारम्भघनाघनास्तेषां ध्वनिम् । १४ व्याप्नोति स्म । १५ समाने। "प्रतिमानं प्रतिबिम्बं प्रतिमा प्रतिमानना प्रतिच्छाया। प्रतिकृतिरर्चा पुंसि प्रतिनिधिरुपमोपमानं स्यात्।" १६ अधिकोत्सवः । 'अतिवेलभृशात्यतिमात्रं गाढ़निर्भरम्' इत्यभिधानात् । अतिमालोत्सवो ल०, १०, १०, इ०। १७ दिग्विजये । १८ पवनवेगाः। १६ कृतोद्योगाः । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व रथाः प्रागिव' पर्याप्ताः पूर्णसर्वायुधायुधः । महावाहसमायुक्ताः प्रनृत्यत्केतुबाहवः ॥ ६८ ॥ योषितोऽप्यभटायन्त' पाटवात् संयुगं प्रति । ततः ' ' प्रतिबलात्तत्र' भूयांसो वा पदातयः । ६६॥ वर्द्धमानो ध्वनिस्तु रणरङ्ग भविष्यतः । वीरलक्ष्मीप्रवृत्तस्य प्रोद्ययौ गुणयन्निव ॥१००॥ वनान्वयं वयशिक्षालक्षणैर्वीक्ष्य विग्रहम्" । सुवर्माणं सुधर्माणं कामवन्तं " क्षरन्मदम् ॥१०१॥ सामजं विजयार्द्धाख्यं विजयार्द्धमिवापरम् । बहुशो दृष्टसङग्रामं गजध्वजविराजितम् ॥१०२॥ अधिष्ठाय " जयः सर्वसाधनेन सहानुजः । निर्जगाम युगप्रान्तकाललीलां विलङ्घयन् ॥१०३॥ कुर्वन्ती शान्तिपूजां त्वं तिष्ठ मात्रेति" सादरम् । प्रवेश्य चैत्यधामायं" सुतां नित्यमनोहरम् ॥ १०४ ॥ समग्रबलसम्पत्या चचाल चलयन्निलाम् । श्रकम्पः कम्पितारातिः साकम्पनिरकम्पनः ॥ १०५ ॥ सुकेतुः सूर्य मित्राख्यः श्रीधरो जयवर्मणा । देवकीर्तिर्जयं जग्मुरिति भूपाः ससाधनाः ॥ १०६॥ इमे मुकुटबद्वेष पञ्च विख्यातकीर्तयः । परं च शूरा नाथेन्दुवंशगृहयाः " समाययुः ॥ १०७॥ मेघप्रभश्च चण्डासिप्रभाव्याप्तवियत्तलः । विद्याबलोद्धतः सार्द्धमद्धं विद्याधरैरगात् ॥ १०८ ॥ वही था ।। ९६-९७ ।। जो सब प्रकारके शस्त्रोंसे पूर्ण हैं, जिनमें बड़े बड़े घोड़े जुते हुए हैं, और जिनकी ध्वजारूपी भुजाएं नृत्य कर रही हैं ऐसे युद्धके रथ पहले के समान ही सब ओर फैल रहे थे ।। ९८ ।। जयकुमारकी सेनामें युद्धमें चतुर होनेके कारण स्त्रियां भी योद्धाओंके समान आचरण करती थीं इसलिये अन्य राजाओंकी अपेक्षा उसकी पैदल सेनाकी संख्या अधिक थी ।। ९९ ।। उस समय जो बाजोंका शब्द बढ़ रहा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो रणके मैदानमें जो वीरलक्ष्मीका उत्तम नृत्य होने वाला है उसे कई गुना करता हुआ ही बढ़ रहा हो ॥१००॥ तदनन्तर - जो वनमें उत्पन्न हुआ है, वय, शिक्षा और अच्छे अच्छे लक्षणोंसे जिसका शरीर देखने योग्य है, जिसका स्वभाव अच्छा है, शरीर अच्छा है, जो कामवान् है, जिसके मद कर रहा है, जिसने अनेक बार युद्ध देखे हैं, जो हाथीके चिह्नवाली ध्वजाओंसे सुशोभित है और दूसरे विजयार्ध पर्वतके समान जान पड़ता है ऐसे विजयार्ध नामके हाथी पर सवार होकर वह जयकुमार सब सेना और सब छोटे भाईयोंके साथ साथ युगके अन्त कालकी लोलाको उल्लंघन करता हुआ निकला ।।१०१-१०३ ।। इधर शत्रुओंको कम्पित करनेवाले और स्वयं अकंप (निश्चल) रहनेवाले महाराज अकम्पनने भी 'तू अपनी माताके साथ आदरपूर्वक शान्तिपूजा करती हुई बैठ' इस प्रकार कहकर पुत्री सुलोचनाको नित्यमनोहर नामके उत्तम चैत्यालय में पहुंचाया और स्वयं अपने पुत्रोंको साथ लेकर समस्त सेनारूपी सम्पत्तिके द्वारा पृथिवीको कपाते हुए निकले । १०४ - १०५ ।। सुकेतु, सूर्यमित्र, श्रीधर, जयवर्मा और देवकीर्ति ये सब राजा अपनी अपनी सेनाओंके साथ जयकुमारसे जा मिले ||१०६ || मुकुटबद्ध राजाओं में जिनकी कीर्ति अत्यन्त प्रसिद्ध है ऐसे ऊपर कहे हुए सुकेतु आदि पांच राजा तथा नाथवंश और सोमवंशके आश्रित रहनेवाले अन्य शूरवीर लोग, सभी जयकुमारसे आ मिले ||१०७॥ | जिसने अपनी तीक्ष्ण तलवारकी प्रभासे आकाशतलको व्याप्त कर लिया है और जो विद्याके बलसे ३९५ १ दिग्विजये यथा । २ समन्तात् प्राप्ताः । पर्यस्ताः ल० । ३ रणस्य । पूर्णसर्वायुधायुध इति समस्तपदपक्षे पूर्णसर्वायुधानि च भटाश्च येषु ते । ४ भटा इवाचरिताः । ५ युद्धं प्रति । ६ ततः कारणात् । ७ प्रतिबले विलोक्यमाने सतीत्यर्थः । ८ जयकुमारबले । ६ इव । ११ दर्शनीयमूर्तिम् । १२ सुवर्मारणं सुवर्मारणं अ०, प०, स०, इ० 1 १४ आरोहकस्य वशवर्तिगमनवन्तम् । १० अतिशयं कुर्वन्निव । सुधर्मारणं सुवर्मारणं ल० । १५ गजरूपध्वज । १६ आरुह्य | १३ शोभनस्वभावम् । १७ जनन्या सह । १८ श्रेष्ठम् । १६ भूमिम् । २० अकम्पनस्यापत्यानि आकम्पनयस्तैः सहितः । २१ नाथवंशसोमवंशश्रिताः । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् बलं विभज्य भूभागे विशाले सकलं समे । प्रकृत्य' मकरव्यह विरोधिबलघस्मरः ॥१०॥ उच्चजिततूयौं घनिर्यनिर्घोषभीषणः' । जितमेघस्वरो गर्जन रेजे मेघस्वरस्तदा ॥११०॥ चक्रव्यूह विभक्तात्मभूरिसाधनमध्यगः । अर्ककोतिश्च भाति स्म परिवेषाहितार्कवत् ॥१११॥ क्रुद्धाः खे खेचराधीशाः सुनमिप्रमुखाः पृथक् । गरुडव्यूहमापाद्य तस्थुश्चक्रिसुताज्ञया ॥११२॥ अष्टचन्द्राः खगाः ख्याताश्चक्रिणः परितः सुतम् । शरीररक्षकत्वेन भेजुविद्यामदोद्धताः ॥११३॥ अकालप्रलयारम्भजृम्भिताम्भोदर्गाजतम् । निजित्य तूर्णं तूर्याणि दध्वनुः सेनयोः समम् ॥११४॥ धानुष्कर्मार्ग णैर्मार्गः समरस्य पुरस्सरैः । प्रवर्तयितुमारेभे घोरघोषैः सबल्गितम् ॥११॥ सङग्रामनाटकारम्भ सूत्रधारा धनुर्धराः। रणरङग विशन्ति स्म गर्जत्तूर्य पुरस्सरम् ॥११६॥ प्राबध्य स्थानक० पूर्व रणरङगे धनुर्धरैः । पुष्पाञ्जलिरिव व्यस्तो मक्तः शितशरोत्करः ॥११७॥ तीक्ष्णा मर्माण्यभिघ्नन्तः पूर्व कलहकारिणः। पश्चात्प्रवेशिनः१३ शश्वत् खलकल्पा "धनुर्धतः ॥११८॥ उद्धत हो रहा है ऐसा मेवप्रभ नामका विद्याधर भी अपने आधे विद्याधरोंके साथ निकला ॥१०८॥ जो शत्रुओंकी सेनाको नष्ट करनेवाला है, बड़े बड़े बाजोंके समूहसे निकलती हुई आवाजके समान भयंकर है और जिसने अपनी आवाजसे मेघोंकी गर्जनाको भी जीत लिया है ऐसा जयकुमार उस समय विशाल और सम (ऊंची नीची रहित) पृथ्वीपर अपनी समस्त सेनाका विभागकर तथा मकरव्यूहकी रचनाकर गर्जता हुआ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ॥१०९-११०॥ उधर चक्रव्यूहकी रचनाकर अपनी बहुत भारी सेनाके बीच खड़ा हुआ अर्ककीति भी परिवेषसे युक्त सूर्यके समान सुशोभित हो रहा था ।।१११।। क्रोधित हुए सुनमि आदि विद्याधरोंके अधिपति भी गरुड़व्यहकी रचनाकर चक्रवर्तीके पुत्र-अर्ककीतिकी आज्ञासे आकाशमें अलग ही खड़े थे ॥११२।। विद्याके मदसे उद्धत हुए आट चन्द्र नामके प्रसिद्ध विद्याधर शरीररक्षकके रूपमें चारों ओरसे अर्ककीतिकी सेवा कर रहे थे ॥११३॥ उन दोनों सेनाओंमें असामयिक प्रलयकालके प्रारम्भमें बढ़ती हुई मेवोंकी गर्जनाको जीतकर शीघ्र शीघ्र एक साथ बहुतसे बाजे बज रहे थे ॥११४॥ युद्धके आगे आगे जानेवाले और भयंकर गर्जना करनेवाले धनुर्धारी योद्धाओंने वाणों द्वारा अपना मार्ग बनाना प्रारम्भ किया था। भावार्थ-धनुष चलानेवाले योद्धा वाण चलाकर भीड़को तितर बितर कर अपना मार्ग बना रहे थे ॥११५॥ जो संग्रामरूपी नाटकके प्रारम्भमें सूत्रधारके समान जान पड़ते थे ऐसे धनुष को धारण करनेवाले वीर पुरुष गर्जते हुए बाजोंको आगे कर युद्धरूपी रंगभूमिमें प्रवेश कर रहे १६॥ धनुष धारण करनेवाले पुरुषोंने रणरूपी रंगभूमिमें सबसे पहले अपना स्थान जमा कर जो तीक्ष्ण वाणोंका समह छोड़ा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो उन्होंने पूष्पाञ्जलि ही विखेरी हो ॥११७।। वे धनुषपर चढ़ाये हुए वाण सदा दुष्टोंके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार दुष्ट तीक्ष्ण अर्थात् क्रूर स्वभाववाले होते हैं उसी प्रकार वे वाण भी तीक्ष्ण अर्थात् पैने थे, जिस प्रकार दुष्ट मर्मभेदन करते हैं उसी प्रकार वाण भी मर्मभेदन करते थे, जिस प्रकार दुष्ट कलह करनेवाले होते हैं उसी प्रकार वाण भी कलह करनेवाले थे और जिस प्रकार दुष्ट पहले मधुर वचन कह कर फिर भीतर घूस जाते हैं उसी प्रकार वे वाण भी मनोहर शब्द १ कृत्वा । २ मकरसमूहरचनाविशेषम् । ३ विनाशक इत्यर्थः । ४ निर्घोषभीषणं यथा भवति तथा । ५ विभक्त्यात्म-प०, ल०। ६ प्राप्त । ७ अष्टचन्द्राख्याः । ८ वाणैः । ६ क्रियाविशेषणम्। उतलवनसहितं यथा । १० आलीढप्रत्यालीढादि । ११ क्षिप्तः । १२ निशात । १३ शरीरं प्रवेशिनः । १४ बाणाः। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ३९७ उभयोः पार्श्वयोर्बध्वा बाणधी कृतवल्गनाः । धन्विनः खेचराकारा रेजुराजी' जितश्रमाः ॥ ११६ ॥ ऋजुत्वाद् दूरदशित्वात् सद्यः कार्यप्रसाधनात् । शास्त्रमार्गानुसारित्वात् " शराः सुसचिवः समाः । १२० । कव्यास्त्रपायिनः ' पत्रवाहिनों दूरपातिनः । लक्ष्येषूड्डीय तीक्ष्णास्याः खगाः पेतुः खगोपभाः " ॥ १२१ ॥ धर्मेण तेन रिता हृदयं गता । शूरान् "शुद्धिरिवानंषीद्" गति पत्रिपरम्परा" ।। १२२ ॥ पुंसां संस्पर्शमात्रेण हृद्गता रक्तवाहिनी" । क्षिप्रं न्यमीलयत्रे वेश्येव विशिखावली " ॥ १२३॥ त्यक्त्वेशं खेचरालातिवृष्टी" गृद्धतमस्ततौ । परोऽन्विष्य शरावल्या जारयेव वशीकृतः ॥ १२४ ॥ करते हुए पीछेसे भीतर घूस जाते थे ।। ११८ ।। जो दोनों बगलोंमें तरकस बांधकर उछल कूद कर रहे हैं तथा जिन्होंने परिश्रमको जीत लिया है ऐसे धनुषधारी लोग उस युद्ध में पक्षियों के समान सुशोभित हो रहे थे ।। ११९ ।। और वाण अच्छे मंत्रियोंके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार अच्छे मंत्री ऋजु अर्थात् सरल ( मायाचार रहित ) होते हैं उसी प्रकार बाण भी सरल अर्थात् सीधे थे, जिस प्रकार अच्छे मंत्री दूरदर्शी होते हैं अर्थात् दूरतककी बातको सोचते हैं उसी प्रकार बाण भी दूरदर्शी थे अर्थात् दूरतक जाकर लक्ष्यभेदन करते थे, जिस प्रकार अच्छे मंत्री शीघ्र ही कार्य सिद्ध करनेवाले होते हैं उसी प्रकार बाण भी शीघ्र करनेवाले थे अर्थात् जल्दी से शत्रुको मारनेवाले थे और जिस प्रकार अच्छे मन्त्री शास्त्रमार्ग अर्थात् नीतिशास्त्र के अनुसार चलते हैं उसी प्रकार बाण भी शास्त्रमार्ग अर्थात् धनुषशास्त्र के अनुसार चलते थे । ॥ १२० ॥ मांस और खूनको पीनेवाले, पंख धारण करनेवाले, दूरतक जाकर पड़नेवाले और पैने मुखवाले वे बाण पक्षियोंके समान उड़कर अपने निशानोंपर जाकर पड़ते थे । भावार्थवे बाण पक्षियोंके समान मालूम होते थे, क्योंकि जिस प्रकार पक्षी मांस और खून पीते हैं उसी प्रकार बाण भी शत्रुओंका मांस और खून पीते थे, जिस प्रकार पक्षियोंके पंख लगे होते हैं उसी प्रकार बाणोंके भी पंख लगे थे, जिस प्रकार पक्षी दूर जाकर पड़ते हैं उसी प्रकार बाण भी दूर जाकर पड़ते थे और जिस प्रकार पक्षियोंका मुख तीक्ष्ण होता है उसी प्रकार बाणोंका मुख (अग्रभाग ) भी तीक्ष्ण था । इस प्रकार पक्षियोंकी समानता धारण करनेवाले बाण उड़ उड़कर अपने निशानों पर पड़ रहे थे ।। १२१ ॥ जिस प्रकार गुणयुक्त धर्मके द्वारा प्रेरणा की हुई और हृदयमें प्राप्त हुई विशुद्धि पुरुषोंको मोक्ष प्राप्त करा देती है उसी प्रकार गुणयुक्त ( डोरी सहित ) धर्म (धनुष) के द्वारा प्रेरणा की हुई और हृदयमें चुभी हुई बाणोंकी पंक्ति शूरवीर पुरुषोंको परलोक पहुंचा रही थी || १२२ || जिस प्रकार हृदयमें प्राप्त हुई और #रक्तवाहिनी अर्थात् अनुराग धारण करनेवाली अथवा रागी पुरुषोंको वश करनेवाली वेश्या स्पर्शमात्र से ही पुरुषों के नेत्र बन्द कर देती है उसी प्रकार हृदयमें लगी हुई और खतवाहिनी अर्थात् रुधिर को बहाने वाली बाणोंकी पंक्ति स्पर्शमात्रसे शीघ्र ही पुरुषोंके नेत्र बन्द कर देती थी उन्हें मार डालती थी ।। १२३ ।। जिस प्रकार बहुत वर्षा होने और अन्धकारका समूह छा जानेपर ६ निजशरीरपार्श्वयोः । २ इषुधी द्वौ । ३ पक्षे सदृशाः । ४ युद्धे । प्रयोक्तृमार्गशरणत्वात् । ६ बारणाः । ७ मन्त्रिभिः । ८ क्रव्यासृक्पायिनः ट० । पत्रैर्वहन्ति गच्छन्तीति पत्रवाहिनः । १० वारणाः । १२ धनुषा । १३ ज्यासहितेन । अतिशययुक्तेन च । स्म । १६ शरसन्ततिः । १७ रक्तं प्रापयन्ती । आत्मन्यनुरक्तं नगरात् समायातटिप्पणपुस्तकात् टिप्परणसमुद्धारः २० दाक्षाय्यतमसमूहे । 'आतापिचिल्लौ दाक्षाय्यगृद्धी' इत्यभिधानात् । ५ चापशास्त्रोक्त क्रमेण । आममांसरक्तभोजिनः । 'शरार्कविहगाः खगाः । ११ पक्षिसदृशाः । १४ विशुद्धिपरिणाम इव । १५ आनयति प्रापयन्ती च । १८ इतोऽग्रे पुनः 'आरा' क्रियते । १६ उपरिस्थितखेचररुधिरवर्षे । * भावे वतः Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ महापुराणम् प्रगुणा' मुष्टि संवाह्या दूरं दृष्ट्यनुवर्तिनः । गत्येष्टं साधयन्ति स्म सभृत्या इव सायकाः ॥ १२५ ॥ प्रयोज्याभिमुखं तीक्ष्णान् बाणान् परशरान्प्रति । तत्रैव' पातयन्ति स्म धानुष्काः सा हि धीधियाम् ॥ १२६ ॥ जाताश्चापधृताः केचिद् अन्योन्यशरखण्डने । व्याप्ताः श्लाघिताः पूर्वं रणे किञ्चित्करोपमाः ॥१२७॥ हस्त्यश्वरथपस्यौघम् उद्भिद्यास्पष्टलक्ष्यवत्' । शराः पेतुः स्व" सम्पातमेवास्ता" दृढमुष्टिभिः ॥ १२८ ॥ पूर्व विहितसन्धानाः स्थित्वा किञ्चिच्छरासने । यानमध्यास्य" मध्यस्था १५ १"द्वेषीभावमुपागता ॥ विग्रहे" हतशक्तित्वाद् श्रगत्या शत्रुसंश्रयाः । बाणा " गुणितवाड्गुण्या इव सिद्धि प्रपेदिरे ॥ १३० ॥ व्यभिचारिणी स्त्री अपना पति छोड़ किसी परपुरुषको खोजकर वश कर लेती है उसी प्रकार विद्याधरों के खूनकी बहुत वर्षा होने और गुद्ध पक्षीरूपी अन्धकारका समूह फैल जानेपर बाणोंकी पंक्ति अपने स्वामीको छोड़ खोज खोजकर शत्रुओंको वश कर रही थी ।। १२४ ।। अथवा वे बाण अच्छे नौकरोंके समान दूर दूरतक जाकर इष्ट कार्योंको सिद्ध करते थे क्योंकि जिस प्रकार अच्छे नौकर प्रगुण अर्थात् श्रेष्ठ गुणोंके धारक अथवा सीधे होते हैं उसी प्रकार बाण भी गुण अर्थात् सीधे अथवा श्रेष्ठ डोरीसे सहित थे, अच्छे नौकर जिस प्रकार मुट्ठियोंसे दिये हुए अन्नपुर निर्वाह करते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मुट्ठियों द्वारा चलाये जाते थे और अच्छे नौकर जिस प्रकार मालिककी दृष्टिके अनुसार चलते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मालिककी दृष्टिके अनुसार चल रहे थे ।। १२५ ।। धनुषको धारण करनेवाले योद्धा जहां जहां शत्रुओंके बाण थे वहीं वहीं देखकर अपने पैने बाण फेंक रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुओंकी वैसी ही बुद्धि होती है ।। १२६ ।। जो बाण एक दूसरेके बाणोंको तोड़नेके लिये चलाये गये थे, धारण किये गये थे अथवा उस व्यापारमें लगाये गये थे वे युद्धमें नौकरोंके समान सबसे पहले प्रशंसाको प्राप्त हुए थे ।। १२७|| मजबूत मुट्ठियोंवाले योद्धाओंके द्वारा छोड़े हुए बाण अस्पष्ट लक्ष्य के समान दिखाई नहीं पड़ते थे और हाथी, घोड़े, रथ तथा पियादोंके समूहको भेदनकर अपने पड़ने से स्थानपर ही जाकर पड़ते थे ।। १२८ ।। जिस प्रकार सन्धि विग्रह आदि छह गुणोंको धारण करनेवाले राजा सिद्धिको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार वे बाण भी सन्धि आदि छह गुणोंको धारण कर सिद्धिको प्राप्त हो रहे थे क्योंकि जिस प्रकार राजा पहले संधि करते हैं उसी प्रकार वे बाण भी पहले डोरी के साथ सन्धि अर्थात् मेल करते थे, जिस प्रकार राजा लोग अपनी परिस्थिति देखकर कुछ समय तक ठहरे रहते हैं उसी प्रकार वे बाण भी धनुषपर कुछ देरतक ठहरे रहते थे, जिस प्रकार राजा लोग युद्ध के लिये अपने स्थानसे चल पड़ते हैं उसी प्रकार वे बाण भी शत्रुको मारने के लिये धनुषसे चल पड़ते थे, जिस प्रकार राजा लोग मध्यस्थ बनकर द्वैधीभावको प्राप्त होते हैं अर्थात् भेदनीति द्वारा शत्रुके संगठनको छिन्नभिन्न कर डालते हैं उसी प्रकार वे बाण भी मध्यस्थ ( शत्रुके शरीर के मध्य में स्थित ) हो द्वैधीभावको प्राप्त होते थे अर्थात शत्रुके टुकड़े टुकड़े कर डालते थे और अन्तमें राजा लोग जिस प्रकार युद्ध करनेकी १ अवकाः । २ मुष्टिना संवाह्यन्ते गम्यन्ते मुष्टिसंवाह्याः । आज्ञावशवर्तिनश्च । ३ नयनैरनुवर्तमानाः । आलोकनमात्रेण प्रभोरभिप्रायं ज्ञात्वा कार्यकराश्च । ४ यत्र शत्रुशराः स्थितास्तत्रैव । ५ सैव परशरखण्डनरूपा । ६ बुद्धीनां मध्ये । धीद्विषाम् ल० । ७ बाणाः । ८ किङकरसमानाः । ६ अस्पृष्टलक्ष्यवत् । १० स्वयोग्यपतनस्थानं गत्वैवेत्यर्थः । ११ क्षिप्ताः । १२ कृतसंयोजनाः कृतसन्धयश्च । १३ चापे क्षेत्रे च । १४ गमनमध्यास्य । १५ मध्यस्थाः सन्तः । १६ द्विधाखण्डनत्वम्, पक्षे उभयत्राश्रयत्वम् । १७ वविक्रमभावे | अथवा शरीरे । १८ अभ्यस्त । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ३६६ धारा वीररसस्येव रेजे रक्तस्य कस्यचित् । पतन्ती सततं धर्याद् प्राश्वनूत्पाटिताशुगम् ॥१३१॥ 'सायकोद्भिन्नमालोक्य कान्तस्य हृदयं प्रिया । परासुरासीन्चित्तेऽस्य वदन्तीवात्मनःस्थितिम् ॥१३२॥ छिन्नवण्डः फलैः कश्चित् 'सर्वाडागीणर्भटाग्रणीः। कीलिताशुरिचाकम्प्रतस्थैव घुयुधे चिरम् ॥१३३॥ विलोक्य विलयज्वालिज्वालालोलशिखोपमैः । शिलीमुखर्बलं "छिन्नं स्वं विपक्षधनुर्धरैः॥१३४॥ गृहीत्वा वज़काण्डाख्यं सज्जीकृत्य शरासनम् । स्वयं योद्ध समारब्धं सक्रोधः सानुजो जयः ॥१३॥ 'कर्णाभ्यर्णीकृतास्तस्य गुणयुक्ताः सुयोजिताः। पत्रलघुसमुत्थानाः कालक्षेपाविधायिनः ॥१३६॥ भार्गप्रगुणसञ्चाराः प्रविश्य हृदयं द्विषाम् । कृच्छार्थ साधयन्ति स्म निस्सृष्टार्थसमाः शराः॥१३७॥ पत्रवन्तःप्रतापोग्राः समप्रा विग्रहे दूताः। अज्ञातपोतिनश्चक्रुः कूटयुद्धं शिलीमुखाः ॥१३८॥ सामर्थ्यसे रहित शत्रुको वश कर लेते हैं उसी प्रकार वे बाण भी शत्रुको वश कर लेते थे॥१२९१३०॥ निकाले हुए बाणके पीछे बहुत शीघ्र धीरतासे निरन्तर पड़ती हुई किसी पुरुषके रुधिरकी धारा वीररसकी धाराके समान सुशोभित हो रही थी ॥१३१।। कोई स्त्री अपने पतिका हृदय बाणसे विदीर्ण हुआ देखकर प्राणरहित हो गई थी मानो वह कह रही थी कि मेरा निवास इसीके हृदय में है ॥१३२।। जिनके दण्ड टूट गये हैं और जो सब शरीरमें घुस गये हैं ऐसे बाणोंकी नोकोंसे जिसके प्राण मानो कीलित कर दिये गये हैं ऐसा कोई योद्धा पहलेकी तरह ही निश्चल हो बहुत देरतक लड़ता रहा था ॥१३३।। शत्रुओंके धनुषधारी योद्धाओंने प्रलयकालकी जलती हुई अग्निकी चंचल शिखाओंके समान तेजस्वी बाणोंके द्वारा मेरी सेनाको छिन्नभिन्न कर दिया है यह देख जयकुमारने अपने छोटे भाइयों सहित क्रोधित हो वज्रकाण्ड नामका धनुष लिया और उसे सजाकर स्वयं युद्ध करना प्रारम्भ किया ॥१३४-१३५॥ उस समय जयकुमारके वाण + निःसृष्टार्थ (उत्तम) दूतके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार उत्तम दूत स्वामीके कानके पास रहते हैं अर्थात् कानसे लगकर बातचीत करते हैं उसी प्रकार बाण भी जयकुमारके कान पास रहते थे अर्थात् कानतक खींचकर छोड़े जाते थे, जिस प्रकार उत्तम दूत गुण अर्थात् रहस्य रक्षा आदिसे युक्त होते हैं उसी प्रकार बाण भी गुण अर्थात् डोरीसे युवत थे, जिस प्रकार उत्तम दूतकी योजना अच्छी तरह की जाती है उसी प्रकार बाणोंकी योजना भी अच्छी तरह की गई थी जिस प्रकार उत्तम दूत पत्र लेकर जल्दी उठ खड़े होते हैं उसी प्रकार बाण भी अपने पंखोंसे जल्दी जल्दी उठ रहे थे-जा रहे थे, जिस प्रकार उत्तम दूत व्यर्थ समय नहीं खोते हैं उसी प्रकार बाण भी व्यर्थ समय नहीं खोते थे, जिस प्रकार उत्तम दूत मार्ग में सीधे जाते हैं उसी प्रकार बाण भी मार्गमें सीधे जा रहे थे और जिस प्रकार उत्तम दूत शत्रुओं के हृदयमें प्रवेशकर कठिनसे कठिन कार्यको सिद्ध कर लेते हैं उसी प्रकार बाण भी शत्रुओंके हृदयमं घुसकर कठिनसं कठिन कार्य सिद्ध कर लंत थे ॥१३६-१३७॥ अथवा एसा जान १सायिकोद्भिन्न-ल०। २ सर्वाङगब्यापिभिः । ३ प्रलयाग्नि । ४ छन्नमित्यपि पाठः। छादितं खण्डितं वा। ५ आत्मीयम् । ६ आकर्णमाकृष्टाः । ७ कर्णसमीपे कृताश्च । ७ पक्षैः सन्देशपत्रैः । ८ आशुविधायिन इत्यर्थः । ६ हृदयम् अभिप्रायं च । १० असाध्यार्थम् । ११ असकृत् सम्पादितप्रयोजनदूतसमाः । १२ प्रकृष्टसन्तापभीकराः । भयङकराः । * राजाओंके छह गुण ये है--"सन्धिविग्रहयानानि संस्थाप्यासनमेव च । द्वैधीभावश्च विज्ञेयः षड्गुणा नीतिवे दिनम् ।" + जो दोनोंका अभिप्राय लेकर स्वयं उत्तरप्रत्युत्तर करता हुआ कार्य सिद्ध करता है उसे निःसष्टार्थ दूत कहते हैं। यह दूत उत्तम दूत कहलाता है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० महापुराणम् प्रस्फुरदभिः फलोपेतः सप्रमाणैः सकल्पितः। विरोधोभाविना विश्वगोचरविजयावहः ॥१३॥ वादिनेव जयेनोच्चैः कीति क्षिप्रं जिघृक्षणा । प्रतिपक्षः प्रतिक्षिप्तः शस्त्रः शास्त्रजिगीषणा ॥१४०॥ खगाः खगान्प्रति प्रास्ताः' प्रोभिद्य गगनं गताः । निवर्तन्ते न यावत्ते ते भियवापतन्मताः ॥१४१॥ सुतीक्ष्णा वीक्षणाभीलाः प्रज्वलन्तः समन्ततः । मुद्धस्वशनिवत्पेतुः खाद् विमुक्ताः खगैः शराः ॥१४२॥ शरसघातसञ्छन्नान् गधपक्षान्धकारितान् । अदृष्टमुद्गरापातं' नभोगा नभसो व्यधुः ॥१४३॥ चण्डेर काण्डमृत्युश्च "काण्डैरापाद्यतादिमे । युगेऽस्मिन् कि किमस्तांशुभासिभि शुभ भवेत् ॥१४४॥ दूरपाताय नो३ किन्तु वृढपाताय खेचरः। खगाः कर्णान्तमाकृष्य मुक्ता "हन्यु द्विपादिकान् ॥१४॥ अधोमुखाः खगैर्मुक्ता रक्तपानात् पलाशनात् । पुषत्काः साहसो वेयुर्नरकं वाऽवनेरधः१८ ॥१४६॥ पड़ता था मानो वे बाण कपट युद्ध कर रहे हों क्योंकि जिस प्रकार व.पट यद्ध करनेवाले पत्रवंत अर्थात् सवारी सहित और प्रतापसे उग्र होते हैं उसी प्रकार वे बाण भी पत्रवंत अर्थात् पंखों सहित और अधिक संतापसे उग्र थे, जिस प्रकार कपट युद्ध करनेवाले युद्ध में शीघ्र जाते हैं और सबसे आगे रहते हैं उसी प्रकार वे बाण भी युद्धमें शीघ्र जा रहे थे और सबसे आगे थे तथा कपट युद्ध करनेवाले जिस प्रकार बिना जाने सहसा आ पड़ते हैं उसी प्रकार वे बाण भी बिना जाने सहसा आ पड़ते थे ॥१३८॥ जिस प्रकार विजयके द्वारा उत्तम कीर्तिको शीघ्र प्राप्त करनेवाला और जीतनेकी इच्छा रखनेवाला वादी प्रकाशमान, अज्ञाननाशादि फलोंसे युक्त, उत्तम प्रमाणोस सहित, अच्छी तरह रचना किये हुए, संसारम प्रसिद्ध और विजय प्राप्त कराने वाले शास्त्रोंसे विरोधी प्रतिवादीको हराता है उसी प्रकार विजयके द्वारा शीघ्र ही उत्तम कीर्ति सम्पादन करने वाले, जीतनेकी इच्छा रखनेवाले तथा विरोधी प्रकट करनेवाले जयकुमारने देदीप्यमान, नुकीले, प्रमाणसे बने हुए, अच्छी तरह चलाये हुए, संसारमें प्रसिद्ध और विजय प्राप्त कराने वाले शस्त्रोंसे शत्रुओंकी सेना पीछे हटा दी थी ।।१३९-१४०॥ जयकुमार ने विद्याधरों के प्रति जो बाण चलाये थे वे आकाशको भेदनकर आगे चले गये थे और वहांसे वे जबतक लौटे भी नहीं थे तबतक वे विद्याधर मानो भयसे ही डरकर गिर पड़े थे ॥१४१॥ जो अत्यन्त तीक्ष्ण हैं, देखने में भयंकर हैं, और चारों ओरसे जल रहे हैं ऐसे विद्याधरोंके द्वारा आकाशसे छोड़े हुए वाण योद्धाओंके मस्तकोंपर वनके समान पड़ रहे थे ।।१४२॥ जो बाणों के समूहसे ढक गये हैं, गोधके पंखोंसे अन्धकारमय हो रहे हैं और जिन्हें मुद्गरोंके आघात तक दिखाई नहीं पड़ते हैं ऐसे योद्धाओंको विद्याधर लोग आकाशसे घायल कर रहे थे ॥१४३।। इस युगमें उन तीक्ष्ण बाणोंने सबसे पहले अकालमृत्यु उत्पन्न की थी सो ठीक ही है क्योंकि जिन्होंने सूर्यका प्रताप भी कम दिया है ऐसे लोगोंसे क्या क्या अशुभ काम नहीं होते हैं ? ॥१४४॥ दूर जानेके लिये नहीं किन्तु मजबूतीके साथ पड़नेके लिये विद्याधरोंने जो वाण कानतक खींचकर छोड़े थे उन्होंने बहुतसे हाथी आदिको मार डाला था ॥१४५॥ जिस प्रकार रक्त पीने और मांस खानेसे पापी जीव नीचा मुखकर नरकमें जाते हैं उसी प्रकार विद्याधरों १ निराकृतः । २ बाणाः। ३ विद्याधरान् । ४ मुक्ताः । ५ विद्याधराः । ६ दर्शने भयावहाः । ७ मुद्गराघातान् ल०, म०। ८ गगनमाश्रित्य । ६ अकाल। १० वाणः । ११ उत्पादित। १२ अस्त्राशुगाशिभिः इति पाठे अस्त्राण्येवाशुगाशिनः पवनाशनाः तैः सरित्यर्थः । 'आशुगो वायुविशिखौं' इत्यभिधानात् । १३ न। १४ घ्नन्ति स्म । १५ मांसाशनात् । १६ सपापाः । १७ वा इव । ईयुः गच्छन्ति स्म। १८ भूमेरधः स्थितम् । , Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ४०१ भूमिष्ठनिष्ठर क्षिप्ता द्विष्ठानत्कृष्य यष्टयः' । ययरंदिवं दूतीदेशीया दिव्ययोषिताम् ॥१४७ ।। चक्रिणश्चक्रमेकं तन्न ततः कस्यचित्क्षतिः। 'चरकालचक्राभैहवस्तत्र जनिरें ॥१४८॥ समवेग:१० समं मक्तैः शरैः खचरभूचरैः । व्योम्न्यन्योन्यम खालग्नः स्थितं कतिपयक्षणे ॥१४६।। खभूचरशरच्छन्न खे परस्पररोधिभिः। "अन्योन्यावीक्षणातेषाम् अभद रणनिषेधनम् ॥१५॥ स्वास्वैः१५ शस्त्रभोगानां शरैश्चाबाधितं भवाम् । स्वसैन्यं वीक्ष्य खोत्क्षिप्तवीक्षणोग्राशुशक्षणिः सद्यः संहारसंक्रखसमतिसमो" जयः । प्रारब्ध योद्धवजण वजकाण्डेन वजिवत ॥१५२।। निजिताशनिनिर्घोषजयज्याघोषभीलुकाः । चापसायकचेतांसि प्राक्षिपन्० सह शत्रवः ॥१५३॥ चापमाकर्णमाकृष्य ज्यानिवेशितसायकः । लधुसन्धानमोक्षः सोऽवेक्ष्य विध्यन्निवर क्षणम् ॥१५४॥ न मध्ये न शरीरेषु दृष्टास्तद्योजिताः शराः। दृष्टास्ते केवलं भूमौ सव्रणाः पतिताः परे ॥१५॥ निमीलयन्तश्चक्षूषि ज्वलयन्तः शिलीमुखाः । मुखानि ककुभां बन्नुः २३ २"खादुल्कालीविभीषणाः२५ ॥१५६॥ के द्वारा छोड़े हुए बाण शत्रुओंका रक्त पीने और मांस खानेसे पापी हो नीचा मुखकर पृथिवी के नीचे जा रहे थे-जमीनमें गड़ रहे थे ॥१४६॥ इसी प्रकार भूमिगोचरियों द्वारा निर्दयता ड़ हुए बाण शत्रुओंको भेदकर आकाशमें बहुत दूरतक इस प्रकार जा रहे थे मानो देवांगनाओंकी दासियां ही हों ।।१४७।। चक्रवर्तीका चक्र तो एक ही होता है उससे किसीकी हानि नहीं होती परन्तु उस युद्ध में अकाल चक्रके समान बहुतसे चक्रोंसे अनेक जीव मारे गये थे ॥१४८॥ विद्याधर और भूमिगोचरियोंके द्वारा एक साथ छोड़े हुए समान वेगवाले बाण आकाशमें एक दूसरेके मुखसे मुख लगाकर कुछ देरतक ठहर गये थे ॥१४९॥ परस्पर एक दूसरेको रोकनेवाले विद्याधर और भूमिगोचरियोंके बाणोंसे आकाश ढक गया था और इसीलिये एक दूसरेके न दिख सकनेके कारण उनका युद्ध बन्द हो गया था ।।१५०॥ अपने और शत्रुओंके शस्त्रों तथा विद्याधरोंके बाणोंसे अपनी सेनाको बहुत कुछ घायल हुआ देखकर नेत्ररूपी भयंकर अग्निको आकाशकी ओर फेंकनेवाला और संहार करनेके लिये कुपित हए यमराजकी समानता धारण करनेवाला जयकुमार इन्द्रकी तरह वज्रकाण्ड नामके धनुषसे युद्ध करनेके लिये तैयार हुआ ॥१५१-१५२॥ वज्रकी गर्जनाको जीतनेवाले जयकुमारके धनुषकी डोरीके शब्द मात्रसे डरे हुए कितने ही शत्रुओंने धनुष, बाण और हृदय-सब फेंक दिये । भावार्थ-भयसे उनके धनुष-बाण गिर गये थे और हृदय विक्षिप्त हो गये थे ॥१५३।। कान तक धनुष खीचकर जिसने डोरीपर बाण रक्खा है और जो बड़ी शीघ्रतासे बाणोंको रखता तथा छोड़ता है ऐसा जयकुमार क्षणभरके लिये ऐसा जान पड़ता था मानो प्रहार ही नहीं कर रहा हो अर्थात् बाण चला ही नहीं रहा हो ॥१५४॥ जयकुमारके द्वारा चलाये हुए बाण न बीचम दिखते थे, और न शरीरोम ही दिखाई दंत थं, कवल घावसहित जमीनपर पड़ हुए शत्रु ही दिखाई देते थे ॥१५५॥ जो देखनेवालोंके नेत्र बन्द कर रहे हैं, सबको जला रहे हैं और उल्काओंके समूहके समान भयंकर हैं ऐसे जयकुमारके बाणोंने दिशाओंके मुख ढक लिये थे १ भूमौ स्थितैः । २ शत्रून् । ३ उद्भिद्य। ४ बाणाः । ५ दूतीसदृशाः । ६ -मेकान्तं न ल । ७ चक्रात् । ८ समन्तात् कृतान्तसमूहसमानैः । । हताः । १० उभयत्रापि समानजवैः। ११ युगपत् । १२ खेचर-ल०, अ०, ५०, स०, इ० । १३ -क्षणात् ल०, अ०, ५०, स०, इ० । १४ परस्परावलोकनाभावात । १५ आत्मीयानात्मीयैः । स्वास्त्रैः अ० । १६ अग्निः । १७ संहारार्थ कुपितयमसदृशः । १८ उपक्रान्तवान् । १६ भीरवः । २० त्यक्तवन्तः । २१ दृष्ट: । २२ शरान्नमुच्चन्निव । २३ वेष्टयन्ति स्म । २४ गगनान्निर्गच्छन्त इत्यर्थः । २५ उल्कासमूहभीकराः । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ महापुराणम् तिर्यग्गोष्फणपाषाणः अदृष्ट्वाज्यजिराद्' बहिः । पातितान् खचरानचुः सतनन् स्वर्गतान् जडाः ॥१५७ शरसंरुग्ण विद्याधुन्मुकुटेभ्योऽगलन सुरैः । मणयो गुणगृहयी जयस्योपायनीकृताः ॥१५८॥ "पतन्मूतखगान्वीतप्रियाभिः स्वाश्रुवारिणा।'बारिवानमिवाचर्य कृपामासावितो जयः ॥१५॥ अन्तकः समवर्तीति तद्वार्तंव न चेत्तथा । कथं चक्रिसुतस्यैव बले प्रेताधिपो भवेत् ॥१६॥ वधं विधाय न्यायेन जयनान्यायवर्तिनाम् । श्यमस्तीक्ष्णोऽप्यभूद्धर्मस्तत्र दिव्यानलोपमः ॥१६॥ तावद्धेषित निर्घोषीषयन्तो द्विषो हयाः। बलमाश्वासयन्तः स्वं स्वीचक्रुश्चाक्रिसूनवः ॥१६२॥ प्रासान्प्रस्फुरतस्तीक्ष्णान् अभीक्ष्णं वाहवाहिनः । प्रावर्तयन्तः सम्प्रापन् यमस्येवाग्रगा भटाः ॥१६३॥ जयोऽपि स्वयमारुह्य जयी जयतुरङगमम् । क्रुद्धः प्रासान समुद्धत्य योद्धमश्वीयमादिकान् ॥१६४॥ अभत प्रहतगम्भीरभम्भा'दिध्वनिभीषणः । बलार्णवश्चलत्स्थलकल्लोल इव वाजिभिः ॥१६॥ ॥१५६॥ तिरछे जानेवाले गोफनोंके पत्थरोंसे युद्ध के आंगनसे बाहर पड़े हुए विद्याधरोंको न देखकर मूर्ख लोग कहने लगे थे कि देखो विद्याधर शरीर सहित ही स्वर्ग चले गये हैं ॥१५७॥ बाणोंकी चोटसे छिन्नभिन्नं हुए विद्याधरोंके मुकुटोंसे जो मणि गिर रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो गुणोंसे वश होनेवाले देवोंने जयकुमारको भेंट ही किये हों ॥१५८॥ गिर गिरकर मरे हुए विद्याधरोंके साथ आई हुई स्त्रियां अपने अश्रुरूपी जलसे जो उन्हें जलांजलि सी दे रही थीं उसे देखकर जयकुमारको दया आ गई थी ॥१५९॥ यमराज समवर्ती है अर्थात् सबको समान दृष्टिसे देखता है यह केवल कहावत ही है यदि ऐसा न होता तो वह केवल चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिकी सेनामें ही क्यों प्रेतोंका राजा होता? अर्थात् उसीकी सेनाको क्यों मारता ? ॥१६०।। जयकुमारके द्वारा अन्यायमें प्रवृत्ति करनेवाले लोगोंका वध कराकर वह तीक्ष्ण यमराज भी उस युद्ध में दिव्य अग्निके समान धर्मस्वरूप हो गया था। भावार्थ साक्षी आदिके न मिलनेपर अपराधीकी परीक्षा करनेके लिये उसे अग्निमें प्रविष्ट कराया जाता था, अथवा जलते हुए अंगार उसके हाथपर रखाये जाते थे। अपराधी मनुष्य उस अग्निमें जल जाते थे परन्तु अपराधरहित मनुष्य सीता आदिके समान नहीं जलते थे । उसी आगको दिव्य अग्नि कहते हैं सो जिस प्रकार दिव्य अग्नि दुष्ट होनेपर भी अपराधीको ही जलाती है अपराधरहितको नहीं जलाती उसी प्रकार यमराजने दुष्ट होकर भी अन्यायी मनुष्योंका ही वध कराया न कि न्यायी मनुष्योंका भी, इसलिये वह यमराज दुष्ट होनेपर भी मानो उस समय दिव्य अग्निके समान धर्मस्वरूप हो गया था ॥१६१॥ इतने में ही हिनहिनाहटके शब्दोंसे शत्रुओंको डराते हुए और अपनी सेनाको धीरज बंधाते हुए चक्रवर्तीके तिके घोडे सामने आये ॥१६२।। यमराजके अग्रगामी योद्धाओंके समान, देदीप्यमान और पैने भालोंको बार बार घुमाते हुए घुड़सवार भी सामने आये ॥१६३॥ विजय करनेवाले जयकुमारने भी क्रोधित हो, जयतुरंगम नामके घोड़ेपर सवार होकर अपनी घुड़सवार सेनाको भाला लेकर युद्ध करनेकी आज्ञा दी ॥१६४॥ घोड़ोंके द्वारा जिसमें चंचल और बड़ी बड़ी लहरें सी उठ रही हैं ऐसा वह सेनारूपी समुद्र बजते हुए गंभीर नगाड़े आदिके शब्दों १ शस्त्रविशेषः। २ रणाडगणात् । ३ पतितान् ल०, स०, अ०, म०। ४ स्वर्ग गतान् । ५ भुग्न । ६ गलन्ति स्म। ७ गतप्राणविद्याधरानुगत। ८ जलाञ्जलिम् । ६ विधाय । १० बालवृद्धादिषु हननक्रियायां समानेन वर्तमानः । ११ यमः । १२ अन्तकः । १३ जये। १४ शपथाग्निसमः । १५ अश्वनिनाद । १६ चक्रिसूनोः सम्बन्धिनः । १७ अश्वारोहाः । १८ भम्भेत्यनुकरणम् । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४०३ प्रसिसंघट्टनिष्ठ्यूतविस्फुलिङगो रणेऽनलः । भीषण शरसङ्घाते व्यदीपिष्ट' धराचिते ॥ १६६॥ वाजिनः प्राक्कशाघाताद् श्रधावन्ताभिसायकम् । प्रियन्ते न सहन्ते हि परिभूर्ति सतेजसः ॥१६७॥ स्थिताः पश्चिमपादाभ्यां बद्धामर्षाः परस्परम् । पति केचिदिवावन्तो' 'युध्यन्ते स्म चिरं हयाः ॥ १६८ ॥ सनतास सम्पुक्तलसल्लोलासिपत्रकैः । नभस्तरुरभाद् भूयस्तदा पल्लवितो यथा ॥ १६६ ॥ पतितान्यसि निर्घातात् सुदूरं स्वामिनां क्वचित् । शून्यासनाः ' शिरांस्य च्चैः अन्वेष्टुं वा भ्रमन्हयाः ॥ १७० ॥ पशून् विशुजगान्मत्वाऽश्वान् कृपया कोऽपि नावधीत्' । ते "स्वदन्तखुरंरेव क्रुद्धाः प्राध्नन् " परस्परम् ॥ वंशमात्रावशिष्टा : " मण्डलाग्रेश्चिरं क्रुधा । लोहदण्डैरिवाखण्डैः धीरा युयुधिरे धुरि ॥ १७२ ॥ शिरः "प्रहरणे नान्योऽपश्यसान्ध्यं प्रकुर्वता । सर्वरोगसिराविद्धो" दृष्ट्वा" पश्चादयुद्ध” सः ॥ १७३॥ हयान् प्रतिष्कशीकृत्य " धनुस्तत्कपिशीर्षकम् । श्रयुध्यत पुनः सुष्ठु तदा द्विगुणयद्रणम् ॥ १७४॥ जयोऽयात् सानुजस्तावदाविष्कृत्य यमाकृतिः । कण्ठीरवमिवारुह्य यमस्युद्यतः २ क्रुधा ॥ १७५ ॥ वाहयन्तं तमालोक्य कल्पान्तज्वालिभीषणम्" । विवेश २५ विद्विश्वाली वेलेव स्वबलाम्बुधि ॥ से भयंकर हो रहा था ॥ १६५ ॥ उस युद्धमें पृथिवीपर जो भयंकर बाणोंका समूह पड़ा हुआ था उसमें तलवारोंकी परस्परकी चोटसे निकले हुए फुलिंगोंसे अग्नि प्रज्वलित हो उठी थी ॥ १६६ ॥ घोड़े कोड़ोंकी चोटके पहले ही बाणों के सामने दौड़ रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी पुरुष मर जाते हैं परन्तु पराभव सहन नहीं करते ।। १६७ ॥ परस्पर एक दूसरेपर क्रोधित हो पिछले पैरोंसे खड़े हुए कितने ही घोड़े चिरकालतक इस प्रकार युद्ध कर रहे थे मानो अपने स्वामीकी रक्षा ही कर रहे हों ।। १६८ ।। उस समय ऊपर उठाई हुई और रुधिरसे रंगी हुई तलवाररूपी चंचल पत्तों से आकाशरूपी वृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उसपर फिरसे नवीन पत्ते निकल आये हों ।। १६९ ।। कहीं पर खाली पीठ लिये हुए घोड़े इस प्रकार दौड़ रह थे मानो तलवारकी चोटसे बहुत दूर पड़े हुए अपने स्वामियोंके शिर ही खोज रहे हों ॥ १७० ॥ घोड़ों को बिना सींगके पशु मानकर दयासे कोई नहीं मारता था परन्तु वे क्रोधित होकर दांत और खुरोंसे एक दूसरको मारते थे ॥ १७१ ॥ उस युद्ध में कितने ही योद्धा क्रोधित होकर अखण्ड लोहे के डंडे के समान जिनमें बांसमात्र ही शेष रह गया है ऐसी तलवारोंसे चिरकाल तक युद्ध करते रहे थे ।।१७२।। अन्य कोई योद्धा, अन्धा करनेवाली शिरकी चोटसे यद्यपि कुछ देख नहीं सक रहा था तथापि गलेकी पीछेको नसोंसे शिरको जुड़ा हुआ देखकर वह फिर भी युद्ध कर रहा था ।।१७३।। उस समय कितने ही योद्धा अपने कपिशीर्षक नामक धनुषसे घोड़ोंको तर युद्धको द्विगुणित करते हुए अच्छी तरह लड़ रहे थे ॥ १७४॥ इतनेमें ही तलवार हाथ में लिये हुए जयकुमार अपने छोटे भाइयोंके साथ साथ यमराज सरीखा आकार प्रकट कर और सिंहके समान घोड़ेपर सवार होकर क्रोधसे आगे बढ़ा ॥ १७५ ॥ कल्पान्त कालकी अग्नि के समान भयंकर जयकुमारको घोड़े पर सवार हुआ देखकर शत्रुके घोड़ोंकी पंक्ति लहर के समान अपने सेनारूपी समुद्र में जा घुसी ॥ १७६ ॥ जिनपर पताकाएं नृत्य कर रही हैं और १ ज्वलति स्म । २ भूमावुपचिते । ३ आयुधस्याभिमुखम् । ४ बद्धक्रुधः । ५ रक्षन्तः । ६ युद्धन्ते ल० । ७ -तास्त्रस - ल० । ८ स्वामिरहितपृष्ठाः । न हन्ति स्म । १० ते च दत्त-ल० । ११ घ्नन्ति स्म । १२ वेणुमात्रावशिष्टस्वरूपैः । १३ कौक्षेयकैः । 'कौक्षेयको मण्डलाग्रः करवालः कृपाणवत्' इत्यभिधानात् । १४ मस्तकघातेन । १५ किञ्चिदपि नालोकयन् । १६ गलस्य पश्चिमसिरान्तितः । १७ गलपश्चिमभागं करस्पर्शेनालोक्य । १८ युयुधे । १६ सहायीकृत्य । 'प्रतिष्कशः सहाये स्याद् वार्ताहरपरागयोः' इत्यभिधानात् । २० चापविशेषः । धन्विन इत्यर्थः । २१ यमाकृतिम् ल० । २२ उद्यतासिः सन् । २३ अश्वमारोहयन्तम् । २४ प्रलयाग्निवदभयङ्करम् । २५ शत्रुवाजिसमूहः । २६ स्वसैन्यसागरम् । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ महापुराणम् चिरात् पर्याय'मासाद्य प्रनत्यत्केतवो रथाः । जविभिाजिभियुंढा प्राधावन् विद्विषः' प्रति ॥१७७॥ निश्शेषहे तिपूर्णेषु रयेष रथनायकाः। तुला' 'जगणुरारुह्य पिजरैः कुञ्जरारिभिः ॥१७॥ चक्रसंघट्टसम्पिष्टशवासृग्मांसकर्दमे । रथकटयाश्चरन्ति स्म 'तत्राब्धौ मन्दपोतवत् ॥१७॥ क न्तासिप्रासचक्राविसङकीण वणितक्रमाः१० । अक्रामन् कृच्छकृच्छे ण रणे रथतुरङगमाः ॥१८०॥ तदा सन्नद्धसंयुक्तसर्वायुधभृतं रथम् । सङक्रम्य वृषभं३ वाऽर्कः समारूढपराक्रमः ॥१८१॥ पुरोज्वलत्समुत्सर्पच्छरतीक्षणांशु सन्ततिः । शत्रुसन्तमसं भिन्दन् बालार्कमजयज्जयः ॥१८२॥ "मण्डलानसमुत्सृष्टदुष्टास्त्रः शस्त्रकर्मवित् । जयो भिषजमन्वयः१५ शत्रुशल्यं समुद्धरन् ॥१३॥ ध्वजस्योपरि धूमो वा तेनाकृष्टो"न" सायकः । पपात तापमापाद्य सूचयनशुभं द्विषाम् ॥१८४॥ ध्वजदण्डान् समाखण्ड्य विद्विषो ऽन्वीतपौरुषान् । कुर्वन् सर्वान् सनिशान सोमवंशध्वजायते ॥१८॥ विच्छिन्नकेतवः केचित् क्षणं तस्थुमता इव । प्राणन प्राणिनः२० कित्रु मानप्राणा हि मानिनः ॥१८६॥ प्रज्वलन्तं "जयन्तं ते जयं तं सोडमक्षमाः । सह सर्वेऽपि २२सम्पेतुः अभ्यग्नि शलभा यथा ॥१८७॥ वेगशाली घोड़े जिनमें जुते हुए हैं ऐसे रथ चिरकालमें अपना नम्बर (बारी) पाकर शत्रुओंके प्रति दौड़ने लगे ॥१७७॥ रथोंके स्वामी, सम्पूर्ण शस्त्रोंसे भरे हए रथोंपर सवार हो पिंजरों में बन्द हुए सिंहोंकी तुलना धारण करते हुए गरज रहे थे ॥१७८॥ उस युद्ध में पहियोंके संघट्टन से पिसे हुए मुरदोंके खून और मांसकी कीचड़ में रथोंके समूह ऐसे चल रहे थे मानो किसी समुद्र में छोटी छोटी नावें ही चल रही हों ॥१७९॥ बरछा, तलवार, भाले और चक्र आदिसे भरे हुए युद्धक्षेत्रमें घायल पैरोंवाले रथके घोड़े बड़े कष्टसे चल रहे थे ॥१८०॥ उसी समय तैयार हुए तथा जुड़े हुए सब प्रकारके शस्त्रोंसे व्याप्त रथपर आरूढ़ होनेसे जिसका पराक्रम वृषभ राशिपर आरूढ़ हुए सूर्य के समान बढ़ रहा है, जिसके आगे चलते हुए बाणरूपी तीक्ष्ण किरणों का समूह प्रकाशमान हो रहा है और जो शत्रुरूपी अन्धकारको भेदन कर रहा है ऐसे उस जयकुमारने उदय होता हुआ बाल-सूर्य भी जीत लिया था ॥१८१-१८२॥ अथवा वह जयकुमार किसी अच्छे वैद्य या डाक्टरका अनकरण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार वैद्य शस्त्रकी नोंकसे बिगड़ा हुआ खून निकाल देता है उसी प्रकार वह जयकुमार भी तलवारकी नोंकसे दुष्टशत्रुओंका खून निकाल रहा था, जिस प्रकार वैद्य शस्त्र चलानेकी क्रियाको जानता है उसी प्रकार वह जयकुमार भी शस्त्र चलानेकी क्रिया जानता था और वैद्य जिस प्रकार शल्यको निकाल देता है उसी प्रकार जयकुमार भी शत्रुरूपी शल्यको निकाल रहा था ॥१८३॥ उसके द्वारा चलाये हुए बाण शत्रुओंको संताप उत्पन्नकर अशुभकी सूचना देते हुए धूमकेतुके समान उनकी ध्वजाओंपर पड़ रहे थे ॥१८४॥ उस समय शत्रओंकी ध्वजाओंके दंडोंको खंड खंड कर सब शत्रुओं को पौरुषहीन तथा वंशरहित करता हुआ जयकुमार सोमवंशकी ध्वजाके समान आचरण कर रहा था ॥१८५॥ जिनकी पताकाएं छिन्नभिन्न हो गई हैं ऐसे कितने ही शत्रु क्षगभरके लिये मरे हुएके समान खड़े थे सो ठीक ही ह क्योंकि प्राणोंसे ही प्राणी नहीं गिने जाते किन्तु अभिमानी मनुष्य अभिमानको ही प्राण समझते हैं ॥१८६॥ अच्छी तरह जलते हुए १ अवसरम् । 'पर्यायोऽवसरे क्रमे' इत्यभिधानात् । २ प्राप्य । ३ विद्विषं प्रति ल० । ४ आयुध । • ५ साम्यम् । ६ गर्जन्ति स्म । ७ पञ्जरैः ल०। ८ रक्षणे । ६ मन्दनौरिव । १० क्षतपादाः । ११ सज्जीकृतं । १२ सम्प्राप्य । १३ वृषभराशिमिव । १४ करवालेन समुत्सृष्टदुष्टास्रः। १५ अनुगतवान् । ऋ गतौ लङि रूपम् । मन्वीयः ल० । १६ समुत्सृष्टः । १७ इव । १८ अनुगत । १६ जयः । २० न जीवन्ति । २१ जयतीति जयन् तम् । २२ अभिमुखमागताः । २३ अग्निमभि पतङ्गाः । २४ शलभा इव ल०। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४०५ सन्नद्धस्यन्दनाश्चण्डास्तदा हेमाङगदादयः । कोदण्डास्फालनध्वाननिरुद्धहरितः क्रुधा ॥१८॥ ववर्ष वलिवष्टि वा बाणष्टि प्रति द्विषः । यावत' लक्ष्यतां "नयुस्तावदाविष्कृतोद्यमाः ॥१८॥ निरुध्यानन्तसेनादिशरजालं रणार्णवे। स्यन्दताश्चोदयामासः पोतान्या वातरंहसः ॥१०॥ बलद्वयास्त्रसंघट्टसमुत्पन्नाशुशुक्षणिम् ।"पेतुर्वाहाः परं तेजस्तेजस्वी सहने कथम् ॥१६॥ अन्योऽन्य खण्डयन्ति स्म तेषां शस्त्राणि तद्रणे । नेकमप्यपरान्प्रापुश्चित्रमस्त्रेषु कौशलम् ॥१२॥ न मुता प्रणिता नव न जयो न पराजयः । युद्धमानेष्वहो तेषु नाहवोऽप्याहवायते ॥१६३॥ युवध्वाऽप्येवं चिरं शेर्न जेतुं ते परस्परम् । जयः सेनाद्वये तस्मिन् एजयादन्येन दुर्लभः ॥१६४॥ अन्तहाँसो जयः सर्व तत्तदाऽऽलोक्य लीलया। शरैः संच्छादयामास सैन्यं पुत्रस्य चक्रिणः ॥१६॥ निष्पन्दीभूतमालोक्य चक्रिसूनुः स्वसाधनम् । रक्तोत्पलदलच्छायाम् उच्छिद्यर नयनत्विषा ॥१९६॥ जयः परस्य नो मेऽद्य जयो "जयमहं रणे । विध्वस्य५ भुवने शुद्धम् अकल्पं स्थापये यशः ॥१७॥ विदध्यामद्य नाथेन्दुप्रसरवंशवर्द्धनम् । "जयलक्ष्मीर्वशीकृत्य विधेयान्मेऽधुना सुखम् ॥१६॥ और सबको जीतते हुए उस जयकुमारको सहन करनेके लिये असमर्थ होकर वे सब शत्रु उसपर इस प्रकार टट पड़े मानो अग्निपर पतंगे ही पड़ रहे हों ।।१८७॥ इतने में ही जिनके रथ तैयार हैं, जो बड़े क्रोधी हैं, जिन्होंने क्रोधसे धनुष खींचकर उनके शब्दोंसे सब दिशाएं भर दी हैं और शत्रु जबतक अपने लक्ष्यतक पहुंचने भी न पाये थे कि तबतक ही जिन्होंने अपना सब उद्यम प्रकट कर दिखाया है ऐसे हेमांगद आदि राजकुमार शत्रुओंपर अग्नि वर्षाके समान बाणोंकी वर्षा करने लगे ॥१८८-१८९।। वे अनन्तसेन आदिके बाणोंका समह रोककर वायुके समान वेगवाले रथोंको रणरूपी समुद्र में जहाजोंके समान दौड़ाने लगे ॥१९०॥ वे रथोंके घोड़े दोनों सेनाओं सम्बन्धी शस्त्रोंके संघट्टनसे उत्पन्न हुई अग्निपर पड़ रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी मनुष्य दूसरेका तेज कैसे सह सकता है ? ॥१९१।। उस युद्ध में दोनों सेनाओंके शस्त्र एक दूसरेको खंड खंड कर देते थे, एक भी शस्त्र शत्रुओं तक नहीं पहुंचने पाता था सो ठीक ही है क्योंकि उनकी अस्त्रोंके चलानेकी कुशलता आश्चर्य करनेवाली थी ॥१९२॥ आश्चर्य है कि उन योद्धाओंके युद्ध करते हुए न तो कोई मरा था, न किसीको घाव लगा था, न किसीकी जीत हुई थी और न किसीकी हार ही हुई थी, और तो क्या उनका वह युद्ध भी युद्ध सा नहीं मालूम होता था ॥१९३॥ इस प्रकार बहुत समय तक युद्ध करके भी वे एक दूसरे को जीत नहीं सके थे सो ठीक ही है क्योंकि उन दोनों सेनाओंमें जयकुमारके सिवाय और किसी को विजय प्राप्त होना दुर्लभ था ॥१९४॥ उस समय यह सब देखकर मन ही मन हंसते हुए जयकुमारने चक्रवर्तीके पुत्र-अर्ककीर्तिकी सब सेनाको लीलापूर्वक ही बाणोंसे ढक दी थी ॥१९५।। अपनी सेनाको चेष्टा रहित देखकर चक्रवर्तीका पुत्र-अर्ककीति अपने नेत्रोंकी कान्तिसे लाल कमलके दलकी कान्तिको जीतता हुआ अर्थात् क्रोधसे लाल लाल आंखें करता हुआ कहने लगा कि आज शत्रुकी जीत नहीं हो सकती, मेरी ही जीत होगी, मैं युद्ध में जयकुमारको मारकर संसारमें कल्यान्त कालतक टिकनेवाला शुद्ध यश स्थापित करूँगा तथा आज ही बढ़ते हुए नाथ १ दिशः । 'दिशस्तु ककुबः काष्ठा आशाश्च हरितश्च ताः'। इत्यभिधानात् । २ रथिनः । ३ रणाङ्गणे अभिमुखं समागत्य मुख्यताम् । ४ न गच्छन्ति स्म। ५ वायुवेगिनः । ६ अग्निम् । ७ जग्मुः। ८ अश्वाः । ६ अन्यत् । १० एक शस्त्रमपि। ११ जयकुमारात् । १२ अभिशय्येत्यर्थः । १३ न । मे नो जयः इति दुर्ध्वनिः । १४ जयकुमारम् । १५ विनाश्य । अविनाश्यति दुर्ध्वनिः । १६ जयस्य लक्ष्मीः इति दुर्ध्वनिः । १७ सुखमिति दुर्ध्वनिः । 'आ०' प्रतौ असुखमिति दुर्ध्वनिः । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ महापुराणम् बुवन् स कल्पनादुष्टमिति स्वानिष्टसूचनम् । द्विपं प्रचोदयामास ऋधेवाजयमात्मनः ॥१६॥ "प्रतिवातसमुद्भूतपश्चाद्गतपताकिकाः। मन्दं मन्दं क्वणघण्टाः कुण्ठितस्वबलोत्सवाः ॥२०॥ संशष्यहान निष्यन्टकटदीनाननश्रियः। "निर्वाणालातनिर्भासनिःशेषास्त्रभराक्षमाः ॥२०१॥ 'आधोरणैः कृतोत्साहः कृच्छकृच्छे ण चोदिताः। प्राक्रन्दमिव कुर्वन्तः कुण्ठितः कण्ठगजितः ॥२०२॥ भीतभीता धोऽन्यैश्च चिह्ररशुभसूचिभिः । गजा गताजवाश्चेलुरचला इव जडागमाः ॥२०३॥ मन्दमन्दं प्रकृत्यैव मन्दा युद्धभयान्मृगाः । जग्मुनिहेतुकं १५भद्रास्तदत्राशुभसूचनम् ॥२०४॥ विजिगीषोविपुण्यस्य वृथा प्रणिधयो यथा। तथाऽर्ककीर्तयन्नुणां८ ते" गजेषु नियोजिताः ॥२०॥ लङधयन्नेत्रयोर्दीप्त्या २०पारिभद्रोद्गमच्छविम् । प्रकट कुटीबन्धसन्धानितशरासनः ॥२०६॥ रिपुं कुपितभोगीन्द्रस्फुटाटोप भयङकरः । कुर्वन्विलोकनातप्ततीव्रनाराचगोचरम् ॥२०७॥ गिरीन्द्रशिखराकारमारुहय हरिविक्रमः। गजेन्द्र विजया ख्यं गर्जन्मेघ स्वरस्तदा ॥२०॥ वंश और सोमवंशका छेदन करूंगा, विजयलक्ष्मी मुझे अभी वशकर सुखी करेगी, इस प्रकार अभिप्रायसे दृष्ट तथा अपना ही अनिष्ट सचित करनेवाला वचन कहते हए अर्ककीतिने क्रोधसे अपने पराजयके समान अपना हाथी आगे बढ़ाया ॥१९६-१९९॥ प्रतिकूल वायु चलनेसे जिनकी ध्वजाएं पीछेकी ओर उड़ रही हैं, जिनके घंटा धीरे धीरे बज रहे हैं, जिन्होंने अपनी सेनाके उत्सवको कुंठित कर दिया है, गण्डस्थलके मदका निष्यन्द सूख जानेसे जिनके मुख की शोभा मलिन हो गई है, जिनकी शोभा बुझे हुए अलातचक्रके समान है, जो सम्पूर्ण शस्त्रोंका भार धारण करने में असमर्थ है, उत्साह दिलाते हुए महावत जिन्हें बड़ी कठिनाईसे ले जा रहे हैं, जो कुण्ठित हुई कण्ठकी गर्जनासे मानो रुदन ही कर रहे हैं, जो युद्धसे तथा अशुभको सूचित करनेवाले अन्य अनेक चिह्नोंसे अत्यन्त भयभीत हो रहे हैं और जिनका वेग नष्ट हो गया है ऐसे हाथी चलते फिरते पर्वतोंके समान चल रहे थे ॥२००-२०३॥ मन्द हाथी स्वभावसे ही मन्द मन्द चल रहे थे, मृग जातिके हाथी युद्धके भयसे धीरे धीरे जा रहे थे और भद्र जातिके हाथी बिना ही कारण धीरे धीरे चल रहे थे परन्तु युद्ध में उनका धीरेधीरे चलना अशुभको सूचित करनेवाला था ॥२०४॥ जिस प्रकार विजयकी इच्छा करनेवाले किन्तु पुण्यहीन मनुष्यके गुप्त सेवक व्यर्थ हो जाते हैं-अपना काम करने में सफल नहीं हो पाते हैं उसी प्रकार अर्ककीर्ति के लिये उन हाथियोंसे कही हुई महावत लोगोंकी प्रार्थनाएं व्यर्थ हो रही थों ॥२०५।। उधर जो अपने दोनों नेत्रोंकी कान्तिसे कल्पवृक्षके फूलकी कान्तिको जीत रहा है, जिसने अपनी भौहोकी रचनाके समान ही प्रकटरूपसे बाण चढ़े धनुषका आकार बनाया है, क्रोधित हए महा सर्पके समान जिसका शरीर कुछ ऊपर उठा हआ है और इसीलिये जो भयंकर है, जो अपने शत्रुको अपनी दृष्टि तथा तपे हुए बाणोंका निशाना बना रहा है, एवं सिंहके समान जिसका पराक्रम है ऐसा मेघस्वर जयकुमार उस समय गर्जता हुआ मेरुकी शिखर के समान आकारवाले विजया नामके उत्तम हाथीपर सवार होकर, अनकल वायु चलनेसे १ अभिप्रायदुष्टम् । २ निजानिष्ट । ३ अपजयम् । ४ प्रतिकूलवायुः । ५ मन्दमन्द-अ०, ५०, सं०, इ०, ल०। ६ मदस्रवण । ७ नष्टोल्मकसदृशः । ८ हस्तिपकैः । ६ कृतोद्योगैः । १० रोदनम् । ११ अधिकभीताः। १२ सङग्रामात् । १३ स्वभावेनैव जडाः । मन्दा इति जातिभेदाश्च । १४ मृगसदृशाः मृगजातयश्च । १५ भद्रजातयः । १६ मन्दगमनम्। १७ वाञ्छा: चराश्च । 'प्रणिधिः प्रार्थने चरे' इत्यभिधानात् । १८ गजारोहकाणाम् ।-कीर्तये नृणां ल०। १६ मनोरथाः। २० मन्दारकुसुमच्छविम् । 'परिभद्रो निम्बतरुमन्दारः पारिजातकः।' इत्यभिधानात् । २१ टोपो भयङकरः ल, म० । २२ निजालोकनान्येव अतप्ततीक्ष्णवाणास्तेषां विषयम् । २३ जयकुमारः । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४०७ अनुकलानिलोक्षिप्तपुरःसर्पध्वजांशुकैः । क्रान्तद्विपारिविक्रान्तविख्यातारूढयोधनः ॥२०६H प्रस्फुरच्छस्त्रसङघातदीप्तिदीपितदिडामुखैः। 'धूतदुन्दुभिसद्ध्वानबृहबृहितभीषणैः ॥२१०॥ घण्टामधुरनिर्घोषनिभिन्न भुवनत्रयः । सद्यः समुत्सरद्दपैरपि सिंहान् जिगीषुभिः ॥२११॥ प्रापबुद्धोत्सकः सार्द्ध गजैविजयसूचिभिः । क्षयवेलानिलोद्भूतसिन्धवेलां विडङघयन् ॥२१२॥ महाहास्तिक विस्तारस्थूलनोलवलाहकः । समन्तात्सम्पतच्छडाकु समूहसहसानकः ॥२१३॥ प्रोत्खातासिलताविद्युत्समुल्लसितभासुरः । नानानकमहाध्वानगम्भीरघनर्गाजतः ॥२१४॥ १ नवलोहितपूराम्बनिरुद्धधरणीतलः । नितान्तनिष्ठरापातमुद्गराशनिसन्ततिः ॥२१॥ चलत्सितपताकालिबलाकाच्छादिताम्बरः। सङग्रामः प्रावृषो लक्ष्मीम् अशेषामपुरुषत्तदा ॥२१६॥ सुचिरं सर्वसन्दोहसंवृत्तसमराङगण । सेनयोः सर्वशस्त्राणां व्यत्ययो" बहुशोऽभवत् ॥२१७॥ निरुद्धमूवम् गृधौधर्मध्यमुद्यद्ध्वजांशुकैः। सेनाद्वयविनिर्मुक्तैः शस्त्रैर्धात्री च सा तता५ ॥२१॥ जयलक्ष्मी नवोढायाः सपत्नीमिच्छता नवाम् । तदार्ककीतिमुद्दिश्य जयनाचोद्यत" द्विपः ॥२१॥ अष्टचन्द्राः पुरोभूयः८ भूयः प्राग्दृष्टशक्तयः । क्षपर्क १ २२वांऽहसा भेक्षा न्यरुद्धस्तं" निनक्षवः२५ ॥ जिनकी ध्वजाओंके वस्त्र उड़कर आगेकी ओर जा रहे हैं, आक्रमण करते हुए सिंहके समान प्रसिद्ध पराक्रमवाले योद्धा जिनपर बैठे हैं, देदीप्यमान शस्त्रोंके समूहकी दीप्तिसे जिन्होंने समस्त दिशाओं के मुख प्रकाशित कर दिये हैं, बजते हुए नगाड़ोंके बड़े बड़े शब्दोंसे बढ़ती हुई गर्जनाओं से जो भयंकर हैं, घंटाओंके मधुर शब्दोंसे जिन्होंने तीनों लोक भर दिये हैं, तत्काल उठते हुए अहंकारसे जो सिंहोंको भी जीतना चाहते हैं और जो विजयकी सूचना करनेवाले हैं ऐसे हाथियों के साथ, प्रलय कालको वायुसं उठी हुई समुद्रकी लहरोको उल्लंघन करता हुआ यद्धकी उत्कंठा से आ पहुंचा ॥२०६-२१२॥ जिसमें बड़े बड़े हाथियोंके समूहका विस्तार ही बड़े बड़े काले बादल हैं, चारों ओरसे पड़ते हुए बाणोंके समूह ही मयूर हैं, ऊपर उठाई हुई तलवाररूपी बिजलियोंकी चमकसे जो प्रकाशमान हो रहा है, अनेक नगाड़ोंके बड़े बड़े शब्द ही जिसमें मेघोंकी गंभीर गर्जनाएं हैं, नवीन रुधिरके प्रवाहरूपी जलसे जिसमें पृथ्वीतल भर गया है, बड़ी निर्दयता के साथ पड़ते हुए मुद्गर ही जिसमें वजोंका समूह है और फहराती हुई सफेद पताकाओंके समूहरूप बगलाओंसे जिसमें समस्त आकाश आच्छादित हो रहा है ऐसा वह युद्ध उस समय वर्षाऋतुकी सम्पूर्ण शोभाको पुष्ट कर रहा था ॥२१३-२१६॥ बहुत देरतक सब योद्धाओं के समूहसे घिरे हुए युद्धके मैदानमें दोनों सेनाओंके सब शस्त्रोंका अनेक बार व्यत्यय (अदला बदली) हआ था ॥२१७॥ उस समय ऊपरका आकाश गीधोंके समहसे भर गया था, भाग फहराती हुई ध्वजाओंके वस्त्रोंसे भर गया था और पृथिवी दोनों सेनाओंके द्वारा छोड़े हुए शस्त्रोंसे भर गई थी ॥२१८॥ उसी समय जयलक्ष्मीको नवीन विवाहिता सुलोचना की नई सौत बनानेकी इच्छा करते हुए जयकुमारने अर्ककीर्तिको उद्देश्य कर अपना हाथी आगे बढ़ाया ॥२१९।। जिस प्रकार कर्मोके भेद क्षपकश्रेणीवाले मुनिको रोकते हैं उसी प्रकार अष्टचन्द्र नामके विद्याधर जिनकी कि शक्ति पहले देखने में आई थी फिरसे सामने आकर १ आक्रान्तसिंहपराक्रमप्रसिद्धाकारणाधोरणैः। २ ताडित । ३ व्याप्त। ४ प्रलयकाल । ५ विलडाघयन् ल०, म०, अ०, ५०, इ०, स० । ६ गजसमूह । ७ कालमेघ । ८ शय्यायुधसमूहमयूरकः । ६ स्फुरण । १० नूतनरक्त । ११ द्रुघण। १२ विषकण्ठिका। १३ पुष्णाति स्म। १४ व्यत्यय इति सम्बन्धिनः इतरेण हरणम् । ('ता०' प्रतौ व्यत्ययः इतरसम्बन्धिनः इतरेण हरणम्) १५ व्याप्ता। तदा ल०। १६ नूतनविवाहितायाः सुलोचनायाः । १७ प्रेरितः । १८ अग्रे भूत्वा । १६ पुनः पुनः। २० पूर्व दृष्टपराक्रमाः । २१ क्षपकश्रेण्यारूढम् । २२ इव । २३ कर्मणाम् । २४ जयम् । २५ नाशितुमिच्छवः । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ महापुराणम् जयोऽपि सुचिरात्प्राप्त प्रतिपक्षो व्यदीप्यलम् ।लब्धव र धनं वह्निः उत्साहाग्निसखोच्छितः ॥२२१॥ सदोभयबलख्यातगजादिशिखरस्थिताः। योद्धमारेभिरे राजराजसिंहाः परस्परम् ॥२२२॥ अन्योन्यरवनोदभिन्नौ तत्र कौचिद् व्यस' गजौ। चिरं परस्पराधारौ पायातां यमलाद्रिवत् ॥ समन्ततः शरैश्च्छना रेजराजौ गजाधिपाः। क्षुद्रवेणुगणाकीर्णसञ्चरद गिरिसनिभाः ॥२२४॥ दानिनो मानिनस्तुङगाः 'कामवन्तोऽन्तकोपमाः। महान्तः सर्वसत्त्वेभ्यो न यद्धचन्तां कथं गजाः।२२५॥ मृगर्म गरिवापात मात्रभग्नर्भयाद् द्विपैः । स्वसैन्यमेव सडक्षुण्णं धिक् स्थौल्यं भीतचेतसाम् ॥२२६॥ निःशक्तीन शक्तिभिः५ शक्ता:१६ १"शक्तांश्चक्रुरशक्तकान् । "शक्तियुक्तानशक्तांश्च निःशक्तीन दिग्धिगूनताम्० ॥२२७॥ शस्त्रनिभिन्नसडिगा निमीलितविलोचनाः। सम्यक संहतसंरम्भाः सम्भावितपराक्रमाः ॥२२८।। बुद्ध्यवर बद्धपल्यडकास्त्यक्तसर्वपरिच्छदाः । समत्याक्षरसंच्छ रा" निधाय हृदयेऽर्हतः ॥२२६॥ जयकुमारको रोकने लगे ॥२२०॥ जिस प्रकार बहुतसे इन्धनको पाकर वायुसे उद्दीपित हुई अग्नि देदीप्यमान हो उठती है उसी प्रकार उत्साहरूपी वायसे बढ़ा हआ वह जयकुमार भी बहत देर में शत्रको पाकर अत्यन्त देदीप्यमान हो रहा था ॥२२॥ उस समय दोनों से में प्रसिद्ध हाथीरूपी पर्वतोंकी शिखरपर बैठे हुए अनेक राजारूपी सिंहोंने भी परस्पर युद्ध करना प्रारम्भ कर दिया था ॥२२२॥ उस युद्ध में एक दूसरेके दांतोंके प्रहारसे विदीर्ण होकर मरे हुए कोई दो हाथी मिले हुए दो पर्वतोंके समान एक दूसरेके आधारपर ही चिरकाल तक खड़े रहे थे ॥२२३॥ चारों ओरसे बाणोंसे ढके हुए बड़े बड़े हाथी उस युद्ध में छोटे छोटे बांसों से व्याप्त और चलते हुए पर्वतों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥२२४॥ जो दानी है-जिनसे मद कर रहा है, मानी हैं, ऊंचे हैं, यमराजके समान हैं और सब जीवोंसे बड़े हैं ऐसे भद्र जातिके हाथी भला क्यों न युद्ध करते ? ॥२२५।। जिस प्रकार हरिण भयभीत होकर भागते हैं उसी प्रकार मृगजातिके हाथी भी प्रारम्भमें ही पराजित होकर भयसे भागने लगे थे और उससे उन्होंने अपनी ही सेनाका चूर्ण कर दिया था इससे कहना पड़ता है कि भीरु हृदयवाले मनुष्यों के स्थूलपनको धिक्कार हो ॥२२६॥ शक्तिशाली (सामर्थ्यवान्) योद्धा अपने शक्ति नामक शस्त्रसे, जिनके पास शक्ति नामक शस्त्र नहीं है ऐसे शक्तिशाली (सामर्थ्यवान्) योद्धाओंको शक्तिरहित-सामर्थ्य हीन कर रहे थे और जिनके पास शक्ति नामक शस्त्र था किन्तु स्वयं अशक्त-सामर्थ्य रहित थे उन्हें भी शक्तिरहित-शक्ति नामक शस्त्रसे रहित कर रहे थे-उनका शस्त्र छुड़ा रहे थे इसलिये आचार्य कहते हैं कि ऊनता अर्थात् आवश्यक सामग्रीकी कमीको धिक्कार हो ॥२२७॥ जिनके समस्त अंग शस्त्रोंसे छिन्न भिन्न हो गये हैं, नेत्र बन्द हो गये हैं, जिन्होंने यद्धकी इच्छाका अच्छी तरह संकोच कर लिया है, जो अपना पराक्रम दिखा चके हैं, जिन्होंने बुद्धिसे ही पल्यंकासन बांध लिया है और सब परिग्रह छोड़ दिये हैं ऐसे कितने ही १ रन्धनम् इन्धनम् । लब्धेर्बद्धन्धनं ल०, म०, अ०, ५०, स०, इ०, द०। २ उत्साहवायुना समृद्धः । ३ राजराजमुख्याः । सिंहाः इति ध्वनिः । ४ विगतप्राणौ। ५ अन्योन्यावलम्बनौ । ६ यमकगिरिवत् । ७ सञ्चलगिरि-ल०, अ०, ५०, स०, इ०, म०। ८ आरोहकानुकला इत्यर्थः । युद्ध्यन्ते ल०। १० मृगजातिभिः । भक्त्यान्वेषणीयैर्वा । ११ हरिणैरिव । १२ प्रथमदिशायामेव । १३ संचूर्णमभवत्। १४ शक्त्यायुधरहितम् । १५ शक्त्यायुधैः । १६ समर्थाः । १७ समर्थान् । १८ शक्त्यायुधयुक्तान्। १६ शक्त्यायुधरहितान् । २० सामग्रीविकलताम् । २१ सम्यगुत्सृष्टसमारम्भाः। २२ मनसैव कृतपर्यङकासनाः । २३ सम्यक् त्यक्तवन्तः । २४ प्राणान् । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ४०९ कस्यचिद् क्रोधसंहारः स्मृतिश्च परमेष्ठिनि। निष्ठायामायुषोऽत्रासीद् अभ्यासात् किं न जायते ॥२३॥ हृदि नाराचनिभिन्ना वक्त्रात् स्रवदसकप्लवाः। "शिवाकृष्टान्त्रतन्त्रान्ताः' पर्यन्तव्यस्तपत्कराः ॥२३१॥ गद्धपक्षानिलोच्छिन्नमूच्र्छाः सम्प्राप्तसंज्ञकाः । समाधाय हि ते शुद्धां श्रद्धां शूरगति गताः ॥२३२॥ छिौश्चक्रेण शराणां शिरोऽम्भोजैविकासिभिः। 'रणागणोऽचितो बाभात् नत्त्य० जयजयश्रियः १२३३॥ स्वामिसम्मानदानादिमहोपरकृतिनिर्भराः। प्राप्याधमर्णता प्राणः सेवां सम्पाद्य सेवकाः ॥२३४॥ स्वप्राणव्ययसन्तुष्टैस्तद्भूभृद्भिः स्वभूभृतः१५ । लब्धपूजान् विधायान्ये धन्या नैर्ऋण्यमागमन् ॥ जयमुक्ता"ब्रुतं पेतुःभविमुक्तजयाः" शराः । अष्टचन्द्रान् प्रति प्रोच्चैः प्रदीप्योल्कोपमाः समम् ॥२३६॥ एजयप्रहितशस्त्राली निषिद्धा च विद्यया । ज्वलन्ती परितश्चन्द्रान२३ परिवेषाकृतिर्बभौ ॥२३७॥ विश्वविद्याधरावीशम् "प्राविराजात्मजस्तदा । "द्विषो सनिःशेषयाशेषानित्याह सुनाम रुषा ।।२३८॥ सोऽपि सर्वैः खगैः सार्द्ध निर्द्रतारातिविक्रमः । वह्निवृष्टिमिवाकाशे ववर्ष शरसन्ततिम् ॥२३॥ शूरवीरोंने हृदयमें अर्हन्त भगवान्को स्थापन कर प्राण छोड़े थे ॥२२८-२२९॥ किसी योद्धा के आयुकी समाप्तिके समय क्रोध शान्त हो गया था और परमेष्ठियोंका स्मरण होने लगा था सो ठीक है क्योंकि अभ्याससे क्या क्या सिद्ध नहीं होता ? ॥२३०॥ जिनके हृदय बाणोंसे छिन्न भिन्न हो गये हैं, मुँहसे रुधिरका प्रवाह बह रहा है, सियारोंने जिनकी अंतड़ियोंकी तांतोंके अन्तभाग तकको खींच लिया है और जिनके हाथ पैर फट गये हैं ऐसे कितने ही योद्धा गीधोंके पंखोंकी हवासे मूर्छारहित होकर कुछ कुछ सचेत हो गये थे और शुद्ध श्रद्धा धारणकर शूरगतिस्वर्ग गतिको प्राप्त हुए थे ॥२३१-२३२॥ चक्र नामक शस्त्रसे कटे हुए शूरवीरोंके प्रफुल्लित मुखरूपी कमलोंसे भरी हुई वह युद्धकी भूमि ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जयकुमारकी विजयलक्ष्मीके नृत्योंसे ही सुशोभित हो रही हो ॥२३३॥ स्वामीके द्वारा पाये हुए आदर सत्कार आदि बड़े बड़े उपकारोंसे दबे हुए कितने ही सेवक लोग अपने प्राणों द्वारा स्वामीकी सेवाकर ऊऋण अवस्थाको प्राप्त हुए थे और कितने ही धन्य सेवक, अपने अपने प्राण देकर संतुष्ट हुए शत्रु राजाओंसे अपने स्वामियोंकी पूजा-प्रतिष्ठा कराकर कर्ज रहित हुए थे। भावार्थ-कितने ही सेवक लड़ते लड़ते मर गये थे और कितने ही शत्रुओंको मारकर कृतार्थ हुए थे ॥२३४-२३५।। जिन्होंने विजय प्राप्त करना छोड़ा नहीं है और जो अपनी बड़ी भारी कान्तिसे उल्काके समान जान पड़ते हैं ऐसे जयकुमारके छोड़े हुए बाण अष्टचन्द्र विद्याधरोंके पास बहुत शीघ्र एक साथ पड़ रहे थे ।।२३६॥ जयकुमारके द्वारा छोड़ी हुई शस्त्रोंकी पंक्तियों को उन विद्याधरोंने अपने विद्या बलसे रोक दिया था। इसलिये वे उन के चारों ओर जलती हुई खड़ी थीं और ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो चन्द्रमाओंके चारों ओर गोल परिधि ही लग रही हो ॥२३७॥ उसी समय आदि सम्राट्-भरतके पुत्र अर्ककीतिने बड़े क्रोधसे सब विद्याधरोंके अधिपति सुनमिसे कहा कि तुम समस्त शत्रुओंको नष्ट करो ॥२३८॥ और शत्रुओंके पराक्रमको नष्ट करनेवाला सुनमिकुमार भी अग्नि वर्षाके समान आकाशमें बाणोंके समूहकी १ परिसमाप्तौ सत्याम् । २ रणे। ३ साध्यते ल०। ४ जम्बुकाकृष्टपुरीतत्समूहाग्रा । अन्त्रगतशस्याग्रा वा । ५ तन्त्राग्रा-ट०। ६ विक्षिप्तपादपाणयः । ७ स्पृहाम्। ८ स्वर्गम् । इन्द्रियजयवतां गतिमित्यर्थः । ६ रणरङगोऽन्विते-ल०। १० नर्तनाय। ११ जयकुमारस्य जयलक्ष्म्याः । १२ महोपकारातिशयाः । १३ ऋणप्राप्तिताम् । १४ शत्रुभूपालैः । १५ निजनृपतीन् । १६ ऋणवृद्धधनम् । ऋणान्निष्क्रान्तत्वम् । १७ जयकुमारेणोत्सृष्टाः । १८ अत्यक्तजयाः । १६ प्रदीप्त्योल्कोपमाः ल० । २० युगपत् । २१ जयकुमारेणाविद्ध। २२ शत्रुभिः । २३ अष्टचन्द्रान् परितः, मृगाङ्कान् परितः । २४ अर्ककीर्तिः । २५ शत्रून् । २६ विनाशय । २७ सुनमिः । ५२ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० महापुराणम् भीकराः किङकराकारा' रुवन्तो रुद्धदिङमुखाः । कांस्कान् शृणाम नेतीव सुतीक्ष्णाः 'शरवोऽपतन् । "मेघप्रभो जयादेशाद् इभेन्द्रं वा मृगाधिपः । प्राक्रम्य विक्रमी शस्त्र: "अरौत्सीत्तं विहायसि ॥२४१॥ तमोऽग्निगजमेघादिविद्याः सुनमियोजिताः । तुच्छीकृत्य सविच्छिद्य (?) सहसा भास्करादिभिः१२४२ जयपुण्योदयात्सद्यो विजिग्ये खचराधिपम् । सङनामेडन गण देव१३ "क्षोदिमा बंहिमेति५ न ॥२४३॥ प्रवद्रप्रावृद्धारम्भसम्भूताम्भोधरावलिम् । "विलङघ्यानेकपानीकर" कौमारं१८ जयमारुणत् ॥२४४॥ जयोऽप्यभिमुखीकृत्य विजयाद्ध गजाधिपम् । धीरोद्धतं० रुषा प्राप्तं धीरोदात्तोऽब्रवीदिदम ॥२४॥ न्यायमार्गाः प्रवर्यन्ते सम्यक सर्वेऽपिचक्रिणा । तेषामेभिर्दुराचार:२३ कृतस्त्वं पारिपन्थिक: ॥२४६॥ बुद्धिमांस्त्वं तवाहार्य शुद्धित्वमपि"दूषणम् । कुमार नीयसे पापस्तृतीयं तद्विहितम् ॥२४७॥ अन्तःकोपोऽप्ययं "पापैर्महान स्थापितो तथा । सर्वतन्त्रक्षयो भर्तुः सहसा येन तादृशः ॥२४॥ वर्षा करने लगा ॥२३९॥ जो अत्यन्त भयंकर हैं, किंकरोंके समान काम करनेवाले हैं, वेगके कारण शब्द कर रहे हैं और जिन्होंने सब दिशाएं रोक ली हैं ऐसे वे तीक्ष्ण बाण हम किस किसको नष्ट नहीं करें? अर्थात् सभीको नष्ट करें यही सोचकर मानो सब सेना पर पड़ रहेथे॥२४०॥ जिस प्रकार सिंह हाथीपर आक्रमण करता है उसी प्रकार खब पराक्रमी मेघप्रभ नामके विद्याधर ने जयकुमारकी आज्ञासे उस सुनमिपर आक्रमण कर उसे शस्त्रोंके द्वारा आकाशमें ही रोक लिया ॥२४१॥ मेघप्रभने सुनमिके द्वारा चलाये हुए तमोबाण, अग्नि बाण, गजबाण और मेघ बाण आदि विद्यामयी वाणोंको सूर्य बाण, जल बाण, सिंह बाण और पवन बाण आदि अनेक विद्यामयी बाणोंसे तुच्छ समझकर बहुत शीघ्र नष्ट कर दिया ॥२४२।। इस प्रकार मेघप्रभ ने उस युद्ध में जयकुमारके पुण्योदयसे विद्याधरोंके अधिपति सुनमिको शीघ्र ही जीत लिया सो ठीक ही है क्योंकि दैवके अनुकूल रहनेपर छोटापन और बड़प्पनका व्यवहार नहीं होता है। भावार्थ-भाग्यके अनुकूल होनेपर छोटा भी जीत जाता है और बड़ा भी हार जाता है ॥ बढी हई वर्षाऋतके प्रारम्भमें इकटठी हई मेघमालाके समान हाथियोंकी सेनाको उल्लंबनकर अर्ककीतिके पक्षके लोगोंने जयकुमारको रोक लिया ॥२४४।। इधर धीर और उदात्त जयकुमारने भी अपना विजयार्ध नामका श्रेष्ठ हाथी क्रोधसे प्राप्त हए धीर तथा उद्धत अर्ककीर्तिके सामने चलाकर उससे इस प्रकार कहना शुरू किया ॥२४५॥ वह ने लगा कि चक्रवर्तीके द्वारा सभी न्याय मार्ग अच्छी तरह चलाये जाते हैं परन्तु इन दुराचारी लोगोंने तुझे उन न्यायमार्गोका शत्रु बना दिया है ॥२४६।। हे कुमार, यद्यपि तू बद्धिमान है परन्तु आहार्य बुद्धिवाला होना अर्थात् दूसरे के कहे अनुसार कार्य करना यह तेरा दोष भी है। इसके सिवाय तूं पाप या पापी पुरुषों के अनुकूल हो रहा है सो यह भी तेरा तीसरा दषण है ॥२४७। इन पापी लोगोंने तेरे अन्त.करणमें यह बड़ा भारी क्रोध व्यर्थ ही उत्पन्न कर दिया है जिससे भरत महाराजकी सब सेनाका ऐसा एक साथ क्षय हो रहा है ॥२४८॥ १किङकरस्वभावाः । २ ध्वनन्तः । ३ कान् शत्रुन् शृणाम कान् शत्रून् न शुणाम न हन्म इति इव । शृ कृ म हिंसायाम् । “लोट् । ४ बाणाः । ५ विद्याधरः । ६ गजाधिपम् । अनेन समबलत्वं सूचितम् । ७ रुरोध । ८ सुनमिम् । ६ असाराः कृत्वा । १० चिच्छेद त०, ब०, पुस्तके विहाय सर्वत्र । ११ सर्यजलसिंहवाय्वादिभिः। १२ अजयत् । १३ दैवे सहाये सति । १४ क्षुद्रत्वम् । १५ महत्त्वम् । १६ अतिशय्य । १७ गजबलम् । १८ अर्ककीर्तिसम्बन्धि । १६ जयकुमारं रुरोध । २० अर्ककीर्तिम् । २१ जयकुमारः । २२ मार्गाणाम् । २३ प्रतीयमानैः । २४ विरोधी भूत्वा। २५ प्रेरकोपनीतद्धित्वम् । २६ पापोपेतैः । २७ मोहनीयं कामं वा । २८ सद्भिः निन्दितम् । २६ पापिष्ठः। ३० कोपेन । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिशत्तम पर्व ४११ पाहवोऽपरिहार्योऽयं ममाद्य भवता सह । अकोतिश्चाक्यो रस्मिन्नाकल्पस्थायिनी ध वम् ॥२४६॥ चको सुतेषु राज्यस्य योग्यं त्वामेव मन्यते । स्यात्तस्यापि मनःपीडा न वेत्यन्यायवर्तनात् ॥२५०॥ 'ब्रोग्धन्यायस्य भूभस्तव चैतांस्ततः क्षणात् । दुष्टान सखेचरान् सर्वान् बध्वाद्य भवतोऽपये ॥२५॥ नागमारह "तिष्ठ त्वं काष्ठान्तं प्राथितो मया । अन्यायो हि पराभूतिर्न तत्त्यागो महीयसः ॥२५२॥ कुमार, समरे हानिस्तवैव महती मया। हन्त्यात्मानमनुन्मत्तः कः स तीक्ष्णासिना स्वयम् ॥२५३।। अभव्य इव सद्धर्मम् अपकम्यु दोरितम् । प्राघातयितुमारेभे गजेन स" गजाधिपम् ॥२५४॥ तदा जयोऽप्यतिकुद्धो गजयुद्धविशारदः। नवििवजयार्द्धन दन्तघातरपातयत् ॥२५॥ नवापि कुपितेभेन्द्रनवदन्ताहतिक्षताः । अष्टच द्रार्ककीर्तीनां प्रपेतुहंतदन्तिनः ॥२५६॥ चक्रिसूनोः पुनः सेनापरितोऽयादयुयुत्सया"। "तदा तदायुर्वा "रक्षवहः क्षयमपद्यत ॥२५७॥ सोढमर्कः खलस्तेजो जयस्याशक्नुवन्निव । जयन् जयोद्ग मच्छायां संहृताशेषदीधितिः ॥२५॥ "शरैरिवोरारक्तैविमुक्तः खचरान् प्रति । जयीयैः२ स्वाङगसंलग्नः क्षरत्क्षतजरञ्जितैः ॥२५॥ गतप्रतापः "कृच्छात्मा सर्वनेत्राप्रियस्तदा । पपात कातरीभूय करालम्बितभूधरः ॥२६०॥ मेरा आपके साथ जो युद्ध चल रहा है वह आज ही बन्द कर देने योग्य है क्योंकि इससे हम दोनोंकी कल्पान्तकाल तक टिकनेवाली अपकीर्ति अवश्य होगी ॥२४९॥ चक्रवर्ती सब पुत्रों में राज्यके योग्य आपको ही मानता है, क्या आपके इस अन्यायमें प्रवृत्ति करनेसे उसके मनको पीड़ा नहीं होगी ? ॥२५०॥ भरत महाराजके न्यायमार्गका द्रोह करनेवाले तुम्हारे इन सभी दुष्ट पुरुषोंको विद्याधरोंके साथ साथ बांधकर आज क्षणभरमें ही तुम्हें सौप देता हूँ ॥२५१।। में प्रार्थना करता हूँ कि आप हाथीपर चढ़े हुए यहां क्षण भर ठहरिये क्योंकि महापुरुषोंका अन्याय करना ही तिरस्कार करना है, अन्यायका त्याग करना तिरस्कार नहीं है ॥२५२॥ हे कुमार, मेरे साथ युद्ध करने में तुम्हारी ही सबसे बड़ी हानि है क्योंकि ऐसा कौन सावधान है जो पैनी तलवारसे अपनी आत्माका स्वयं घात करे ॥२५३।। जिस प्रकार अभव्य जीव समीचीन धर्मको नहीं सुनता उसी प्रकार जयकुमारके कहे हुए वचन अर्ककीर्तिने नहीं सुने और अपने हाथीसे जयकुमारके उत्तम हाथीपर प्रहार करवाना शुरू कर दिया ॥२५४।। उस समय हाथियोंके साथ यद्ध करने में अत्यन्त निपूण जयकुमार भी अधिक क्रोधित हो उठा, उसने अपने विजयाई हाथीके द्वारा दाँतोंके नौ प्रहारोंसे अर्ककीर्ति तथा अष्टचन्द्र विद्याधरों के नौ हाथियोंको घायल करवा दिया ॥२५५।। अर्ककीति तथा अष्ट चन्द्र विद्याधरोंके नौके नौ ही हाथी क्रोधित हुए विजयार्ध हाथीके दांतोंके नौ प्रहारोंसे घायल होकर जमीन पर गिर पड़े ॥२५६॥ जिस समय जयकुमारने युद्धकी इच्छासे अर्ककीर्तिकी सेनाको चारों ओरसे घेरा उसी समय मानो उसकी आयुकी रक्षा करता हुआ ही दिन अस्त हो गया ॥२५७॥ जो अपनी कान्तिसे जासौनके फूलकी कान्तिको जीत रहा है, जिसने अपनी सब किरणें संकोच ली हैं, जो लाल लाल किरणोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो जयकुमारने विद्याधरोंके प्रति जो बाण छोड़ थे व सब ही विद्याधरोंके निकलते हुए रुधिरसे अनुरंजित होकर उसके शरीरमें जा लगे हों, जिसका सब प्रताप नष्ट हो गया है, जो क्रूर है और सबके नेत्रोंको अप्रिय है ऐसा वह दुष्ट १ आहवः परि-ल०। २ युद्धे सति । ३ हन्तुमिच्छन् । ४ तिष्ठात्र ल०, इ०, ५०, १०, स० । ५ क्षणपर्यन्तम् । ६ अन्यायत्यागः । ७ महात्मनः । ८ बुद्धिमान् । ६ एवमुक्तवचनं श्रुत्वा । १० मारयितुम् । ११ अर्ककीर्तिः । १२-रघातयत् ल०, अ०, प०, स०, इ०। १३ अगमत् । १४ योद्धमिच्छया । १५ यदा इ०, अ०, प० । १६ इव । १७ रक्षतीति रक्षत् । १८ दिवसः । १६ जयकुमारस्य । २० कुसुम । २१ किरणः । २२ जयकुमारसम्बन्धिभिः । २३ स्रवत् । २४ दुःखकारिस्वभावः । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ महापुराणम् अर्क कीर्ति स्वकीर्ति' वा मत्वा रोषेण भास्करः । श्रस्तं 'जयजयस्यायात् कुर्वन् कालविलम्बनम् ॥२६१॥ 'स्टालोकोऽपि सद्वृत्तोऽप्यगादस्तमहर्पतिः । श्राश्रित्य वारुणीं रक्तः' को न गच्छत्यधोगतिम् ॥ उदये वतिच्छायो" व्याप्य विश्वं प्रतापवान् । "दिनेनेनोऽप्यनश्यत्" कस्तिष्ठे तीव्रकरः परः ॥ २६३ ॥ इनं स्वच्छानि विच्छायं" तापहारीणि वा भृशम् । द्रष्टुं सरांस्य निच्छन्ति" कजाक्षीणि शुचा "स्यधुः "जयनिस्त्रिशनिस्त्रिशनिपातपतितान् खगान् । " प्राविशन्निजनीडानि" वीक्षितुं विक्षमाः खगाः ० २६५ स प्रतापः प्रभा साऽस्य सा हि सर्वेकपूज्यता । पातः प्रत्यहमर्कस्याप्यतयः कर्कशो विधि ः ३ ॥२६६॥ कीय मानतां यातो यातोऽर्कश्चेदद् श्यताम् । उपमेयस्य का वार्तेत्यवादीद्विदुषां गणः ॥ २६७॥ सूर्य मानो जयकुमारके तेजको न सह सकने के कारण ही कातर हो अपने करों-किरणोंसे (हाथों से) अस्ताचलको पकड़कर नीचे गिर पड़ा ।। २५८ - २६० ।। वह सूर्य अर्ककीर्तिको अपनी कीर्ति मानकर क्रोध से जयकुमारके जीत में विलम्ब करता हुआ अस्त हो गया || २६१ ॥ जिसका आलोक प्रकाश (ज्ञान) स्पष्ट है और जो सद्वृत्त - गोल ( सदाचारी) है ऐसे सूर्यको भी अस्त होना पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा अथवा मद्यका सेवन करनेवाला ऐसा कौन है जो नीचेको न जाता हो-अस्त न होता हो- नरक न जाता हो । भावार्थ - जिस प्रकार मद्य पीनेवाला ज्ञानी और सदाचारी होकर भी नीच गतिको जाता है उसी प्रकार सूर्य भी प्रकाशमान और गोल होकर भी पश्चिम दिशामें जाकर अस्त हो जाता है ॥२६२॥ उदय कालसे लेकर निरन्तर जिसकी कान्ति बढ़ती रहती है और जो संसारमें व्याप्त होकर तपता रहता है ऐसा तीव्रकर अर्थात् तीव्र किरणोंवाला सूर्य भी जब एक ही दिनमें नष्ट हो गया तब फिर भला तीव्रकर अर्थात् अधिक टैक्स लगानेवाला और संताप देनेवाला अन्य कौन है जो संसारमें ठहर सके ॥ २६३ ॥ संतापको दूर करनेवाले स्वच्छ सरोवर अतिशय कान्तिरहित सूर्य को देखना नहीं चाहते थे इसलिये ही मानो उन्होंने शोकसे अपने कमलरूपी नेत्र बन्द कर लिये थे || २६४ || सब पक्षी अपने- अपने घोंसलोंमें इस प्रकार चले गये थे मानो वे जयकुमार की तीक्ष्ण तलवारकी चोटसे गिरे हुए विद्याधरोंको देखनेके लिये समर्थ नहीं हो सके हों ॥ २६५ ॥ सूर्यका असाधारण प्रताप है, असाधारण कान्ति है और असाधारण रूपसे ही सब उसकी पूजा करते हैं फिर भी प्रतिदिन उसका पतन हो जाता है इससे जान पड़ता है कि निष्ठुर दैव तर्कका विषय नहीं है । भावार्थ- ऐसा क्यों करता है इस प्रकारका प्रश्न दैवके विषय में नहीं हो सकता है ।। २६६ ।। उस समय विद्वानों का समूह ऐसा कह रहा था कि जब अकीर्ति के साथ उपमानताको प्राप्त हुआ सूर्य भी अदृश्य हो गया तब उपमेयकी क्या बात है ? भावार्थ - अर्ककीर्ति के लिये सूर्यकी उपमा दी जाती है परन्तु जब सूर्य ही अस्त हो गया तब अर्ककीर्तिकी तो बात ही १ निजनामधेयमिव । २ पीडया । ३ जयकुमारस्य । ४ व्यक्तोद्योतोऽपि । व्यक्तदर्शनोऽपीति ध्वनिः । 'आलोको दर्शनोद्योतौ' इत्यभिधानात् । ५ सद्वर्तुलमण्डलेऽपीति । सच्चारित्रोऽपीति ध्वनिः । ६ रविः । ७ पश्चिमाशाम् । मद्यमिति ध्वनिः । ८ अरुण: अनुरक्तश्च । ६ उद्गमे अभ्युदये च । १० कान्तिः पक्षे उत्कोचः । "छाया स्यादातपाभावे प्रतिविम्बार्कयोषितोः । पालनोत्कोचयोः कान्तिसच्छोभापंक्तिषु स्मृता" इत्यभिधानात् । ११ दिवसेन च । इनः सूर्यः प्रभुश्च । 'इनः सूर्ये प्रभौ' इत्यभिधानात् । १२ अदृश्योऽभूत् । १३ सूर्यम् । १४ विगतकान्तिम् । १६ दधति स्म । १७ जयकुमारस्य निशितास्त्रघातेन पतितान् । १६ आत्मीयकुलायान् । 'कुलायो नीडमस्त्रियाम् ।' इत्यभिधानात् । २० पक्षिणः । २२ क्रूरः । २३ नियतिः कर्म च । १५ अनिच्छूनि । १५ प्रविष्टाः । २१ पतनम् । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४१३ निरीक्ष्यः करस्तीक्ष्णः सन्तप्तनिजमण्डलः । प्रलं क वलयध्वंसी दुस्सुतो दुर्मतिस्तुतः ॥२६॥ निस्सहायो निरालम्बोऽप्यसोढा' परतेजसाम् । 'सिंहराशिश्चलः क्रूरः सहसोच्छित्य मूर्द्धगः ॥२६॥ पापरोगी परप्रेयों रविविषममार्गगः । रक्तरुक सकलद्वेषी० एधिताशोऽक्रमाग्रगः ॥२७०॥ सताधेन मित्रेण गुरुणा"ऽप्यस्तमाश्रयत् । बहुदोषो" भिषग्वय१श्चिकित्स्य इवातुरः ॥२७॥ तदा बलद्वयामात्याः श्रित्वा बद्धरुषौ नपौ। इत्यधयं निशायुद्धम् अनुवद्य न्यषेधयन् ॥२७२॥ ताभ्यां तत्रैव सा रात्रिनेत्तु मिष्टा रणाडागणे । भटतीववणासहयवेदनारावभीषणे ॥२७३॥ क्या है ? ॥२६७॥ जो बड़ी कठिनतासे देखा जाता है, अपनी किरणोंसे तीक्ष्ण-ऊष्ण है, जिसने अपना मण्डल भी संतप्त कर लिया है, जो कुवलय अर्थात् कुमुदोंका ध्वंस करनेवाला है, बड़े कष्टसे जिसका उदय होता है अथवा जिसका पुत्र-शनि दुष्ट है, दुर्बुद्धि लोग ही जिसकी स्तुति करते हैं, जो सहायरहित है, आधाररहित है, जो चन्द्र आदि ज्योतिषियोंका तेज सह नहीं सकता, सिंह राशिपर है, चंचल है, कर है, सहसा उछलकर मस्तकपर चलता है, प है, दूसरेके सहारेसे चलता है, विषममार्ग-आकाशमें चलता है, रक्तरुक्-लाल किरणोंवाला है, सकल-कलासहित-चन्द्रमाके साथ दोष करनेवाला है, दिशाओंको बढ़ानेवाला है और पैररहित-अरुण नामका सारथि जिसके आगे चलता है, ऐसा सूर्य, बुधग्रह और गुरु (बृहस्पति ग्रह) नामके सज्जन मित्रोंके साथ होनेपर भी अच्छे अच्छे वैद्य भी जिसका इलाज नहीं कर सकते ऐसे बहुदोषी-अनेक दोषवाले (पक्षमें रात्रिवाले) रोगीके समान अस्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट होने के कारण जिसकी ओर कोई देख भी नहीं सकता है, जो अधिक टैक्स वसूल करनेके कारण तीक्ष्ण है, जो अपने परिवार के लोगोंको भी संताप देनेवाला है। कुवलय अर्थात् पृथिवीमण्डलका खूब नाश करनेवाला है, जिसका पुत्र खराब है, मूर्ख ही जिसकी स्तुति करते हैं, जो सहायक मित्रोंसे रहित है, दुर्ग आदि आधारोंसे रहित है, अन्य प्रतापी राजाओंके प्रतापको सहन नहीं करता है, सिंह राशिमें जिसका जन्म हुआ है, चञ्चल है, निर्दय है, जराजरा सी बातोंमें उछलकर शिरपर सवार होता है-असहनशील है, बुरे रोगोंसे घिरा हुआ है, दूसरेके कहे अनुसार चलता है, विषम मार्ग-अन्याय मार्गमें चलता है, रक्तरुक्-जिसे खून की बीमारी है, जो सबके साथ द्वेष करता है, जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है और बिना क्रमके प्रत्येक कार्य में आगे आगे आता है, ऐसे अनेक दोषवाले राजाका लाइलाज रोगीकी तरह बुद्धिमान् मित्र और सज्जन गुरुके साथ होनेपर भी नाश होना ही है ॥२६८-२७१।। उस समय दोनों सेनाओं के मंत्रियोंने क्रोधित हुए उन दोनों राजाओंके पास जाकर रात्रिमें युद्ध करना अधर्म है ऐसा नियम कर उन्हें यद्ध करनेसे रोका ।।२७२।। उन दोनोंने योद्धाओंके तीन घावोंकी असहय वेदनाजनित चिल्लाहटसे भयंकर उसी रणके मैदानमें रात्रि व्यतीत करना अच्छा समझा १-स्तीक्ष्णाः अ०, प०, स०, इ०, ल०।२ कष्टोत्पत्तिः अशोभनपुत्रश्च । ३ व्यसोढा ट० । ४ प्रदीपानां शत्रूणां च तेजसाम् । ५ सिंहराशिस्थितः । ६ ऊर्ध्वगो भूत्वा । ७ शिरसा गच्छन् । ८ कुष्ठरोगी । ६ रक्तकिरणः । रक्तरोगी च रक्तानां घातको वा। १० चन्द्रद्वेषी सकलजनद्वेषी च । ११ वद्धितदिक् वद्धिताभिलाषश्च । १२ अनूर्वग्रगामी। 'सूरसूतोऽरुणोऽनूरुः' इत्यभिधानात् । अत्रमाग्रगामी च । १३ उत्कृष्टेन विद्यमानेनेति च । १४ सोमसुतेन । विदुषा च । १५ बृहस्पतिना, उपदेशकेन सहितोऽपीत्यर्थः । १६ प्रचुररात्रिः । वातदोषवांश्च । १७ व्याधिपीडित । १८ निर्बन्धं कृत्वा । १६ अर्ककीर्तिजयकुमाराभ्याम् । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ महापुराणम् प्रतीची येन जायेऽहम् अगिलत्तमहस्करम् । इति सन्ध्याच्छलेना हस्तत्र कोपभिवागतम् ॥२७४॥ लज्जे सम्पर्कमकॅण कर्तु लोचनगोचरें । इयं वेलेति वा सन्ध्याऽप्यन्वगादात्तविग्रहा॥२७॥ 'प्रगादहः पुरस्कृत्य मामर्को रात्रिगामिना । तेन पश्चात्कृतेऽतीव शोकात् सन्ध्या व्यलीयता ॥२७६॥ तमः सर्व३ तदा व्यापत् क्वचिल्लीनं गुहादिषु । शत्रुशेषं न कुर्वन्ति तत एव विचक्षणाः ॥२७७॥ अवकाशं प्रकाशस्य यथात्मानमधात् पुरा । तथैव तमसः पश्चाद् धिडामहत्त्वं विहायसः ॥२७८॥ १"तमोबलान् प्रदीपादिप्रकाशाः प्रदिदीपिरे । जिनेनेव विनेनेन" कलो कष्टं कुलिडागिनः ॥२७॥ तमोविमोहितं८ विश्व प्रबोधयितुमुद्धतः । विधिनेव सुधाकम्भो २०वौर्वर्णो विधुरुद्ययौ ॥२०॥ चन्द्रमाः एकरनालीभिः अपिबद् बहलं तमः । वृद्धकासं क्षयं३ हातुं धूमपानमिवाचरन् ॥२८॥ निःशेषं नाशकद्धन्तुं ध्वान्तं हरिणलाञ्च्छनः । "अशुद्धमण्डलो हन्यानिष्प्रतापः कथं रिपून् ॥२८२॥ विधं तत्करसंस्पर्शाद् भृशमासन विकासिभिः। सरस्यो ह्लादयन्त्यो' वा मुदा फमदलोचनैः ॥२८३॥ ॥२३॥ संध्याके बहानेसे दिन लाल लाल हो गया, मानो जिससे में पैदा हुआ हूँ उस सूर्यको यह पश्चिम दिशा निगल रही है यही समझकर मानो उसे क्रोध आ गया हो ॥२७४।। मैं सबके देखते हुए सूर्यके साथ सम्बन्ध करनेके लिये लज्जित होती हूँ यही समझकर मानो संध्याकी बेला भी शरीर धारणकर सूर्यके पीछे पीछे चली गई ॥२७५।। सूर्य जब दिनके पास गया था तब मुझे आगे कर गया था परन्तु अब रात्रिके पास जाते समय उसने मुझे पीछे छोड़ दिया है इस शोकसे ही मानो संध्या वहीं विलीन हो गई थी ॥२७६॥ दिनके समय जो अंधकार किन्हीं गुफा आदि स्थानोंमें छिप गया था उस समय वह सबका सब आकर फैल गया था सो ठीक ही है क्योंकि चतुर लोग इसलिये ही शत्रको बाकी नहीं छोडते हैं-उसे समल नष्ट कर देते हैं ॥२७७॥ आकाशने जिस प्रकार पहले प्रकाशके लिये अपने में स्थान दिया था उसी प्रकार पीछेसे अन्धकारके लिये भी स्थान दे दिया इसलिये आचार्य कहते हैं कि आकाशके इस बड़प्पनको धिक्कार हो। भावार्थ-बड़ा होनेपर भी यदि योग्य-अयोग्यका ज्ञान न हुआ तो उसका बड़प्पन किस कामका है ? ॥२७८। जिस प्रकार कलिकालमें जिनेन्द्रदेवके न होने से अज्ञानके कारण अनेक कुलिङ्गियोंका प्रभाव फैलने लगता है उसी प्रकार उस समय सूर्यके न होनेसे अन्धकारके कारण अनेक दीपक आदिका प्रकाश फैलने लगा था ।।२७९।। ___ इतने में चन्द्रमाका उदय हुआ जो ऐसा जान पड़ता था मानो अन्धकारसे मोहित हुए समस्त संसारको जगाने के लिये विधाताने अमतसे भरा हआ चांदीका कलश ही उठाया हो ॥२८०।। उस समय चन्द्रमा अपनी किरणरूपी नालियोंके द्वारा गाढ अन्धकारको पी रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो जिसमें खाँसी बढ़ी हुई है ऐसे क्षय रोगका नाश करनेके लिये धूम्रपान ही कर रहा हो ॥२८१॥ चन्द्रमा सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट करनेके लिये समर्थ नहीं हो सका था सो ठीक ही है क्योंकि जिसका मण्डल अशद्ध है और जो प्रतापर शत्रुओंको कैसे नष्ट कर सकता है ? ॥२८२॥ तालाबोंमें चन्द्रमाके किरणोंके स्पर्शसे कुमुद खूब फूल रहे थे और उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो खिले हुए कुमुदरूपी नेत्रों के द्वारा चन्द्रमा १ अहस्करण। २ प्रादुर्भवामि । ३ गिलति स्म। ४ दिवसः । ५ प्रतीच्याम् । ६ ह्रीवती भवानि। ७ द्वष्टिविषये प्रदेशे। बहजनप्रदेशे इत्यर्थः। ८ स्वीकृतशरीराः। आगच्छति स्म । १० दिवसम्। ११ पृष्ठे कृताहसिति । १२ विलयं गता। १३ सर्वत्र विश्वं जगत्। १४ आकाशस्य । १५ तिमिरप्राबल्यात् । पक्षे आकाशसामर्थ्यात् । १६ प्रकाशन्ते स्म । १७ रविणा। १८ मूढीकृतम् । १६ जगत् । २० सौवर्णः। २१ किरणनालीभिः। २२ कुत्सितगतिम् वृद्धप्रकाशं वा । २३ क्षयव्याधिम् । २४ कलंकयुतमण्डलः । शत्रुसहितमण्डलश्च । २५ मुदं नयन्ति वा । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व उत्थितः पिलकोऽस्माकं विधर्गण्डस्य वोपरि।का जीविकेति निविण्णाः प्रायः "प्रोषितयोषितः २८४ लब्धचन्द्रबलस्योच्च: स्मरस्य परितोषिणः । अट्टहास इवाशेषं साक्रश्चन्द्रातपोऽतत ॥२८॥ रूढो रागाङकुरश्चित्ते प्रम्लानो भान भानुभिः। तदा चन्द्रिकया "प्राच्यवृष्टयेवावर्द्धताङगिनाम् ॥२८६॥ 'खण्डितानां तथा तापो नाभूद् भास्कररश्मिभिः। यथांशुभिस्तुषारांशोविचित्रा द्रव्यशक्तयः ॥२७॥ खण्डनादेव० कान्तानां ज्वलितो मदनानलः । जाज्वलीत्ययमेतेने "त्यत्यजन्मधु"काश्चन ॥२८॥ वृथाभिमानविध्वंसी नापरं मधुना विना। कलहान्तरिताः काश्चित्सखीभिरतिपायिताः२६ ॥२८॥ प्रेम नः" कृत्रिमतत् किमनेनेति' काश्चन । दूरादेवात्यजन् स्निग्धाःश्राविका वाऽऽसवादिकम् ॥२६॥ मधु द्विगुणितस्वादु० पीतं कान्तकरापितम्। कान्ताभिः २कामदुर्वारमातङगमदवर्द्धनम् ॥२६॥ इत्याविर्भावितानगरसास्ताः प्रियसङगमात् । प्रीति वाग्गोचरातीतां स्वीचक्रुर्वकवीक्षणाः ॥२६२॥ को हर्षसे प्रसन्न ही कर रहे हों। विशेष-इस श्लोकमें सरसी शब्दके स्त्रीलिङ्ग होने तथा कर शब्दके श्लिष्ट हो जानेसे यह अर्थ ध्वनित होता है कि जिस प्रकार स्त्रियां अपने पतियोंके हाथका स्पर्श पाकर प्रसन्न हुए नेत्रोंसे उन्हें हर्षपूर्वक आनंदित करती हैं उसी प्रकार सरसियां भी चन्द्रमाके कर अर्थात् किरणोंका स्पर्श पाकर प्रफुल्लित हुए कुमुदरूपी नेत्रोंसे उसे हर्षपूर्वक आनन्दित कर रही थीं ॥२८३॥ प्रायः विरहिणी स्त्रियां यह सोच-सोचकर विरक्त हो रही थीं कि यह चन्द्रमा हमारे गालपर फोड़ेके समान उठा है अर्थात् फोड़ेके समान दुःख देनेवाला है इसलिये अब जीवित रहनेसे क्या लाभ है ? ॥२८४॥ जिसे चन्द्रमाका बल प्राप्त हुआ है और इसीलिये जो जोरसे संतोष मना रहा है ऐसे कामदेवके अद्रहासके समान चन्द्रमाका गाढ प्रकाश सब ओर फैल गया था ॥२८५॥ मनुष्योंके हृदयमें उत्पन्न हुआ जो रागका अंकूरा सूर्यकी किरणोंसे मुरझा गया था वह भारी अथवा पूर्व दिशासे आनेवाली वर्षाके समान फैली हुई चाँदनीसे उस समय खूब बढ़ने लगा था ॥२८६॥ खण्डिता स्त्रियोंको सूर्यकी किरणोंसे वैसा संताप नहीं हुआ था जैसा कि चन्द्रमाकी किरणोंके स्पर्शसे हो रहा था सो ठीक ही है क्योंकि पदार्थों की शक्तियां विचित्र प्रकारकी होती हैं ॥२८७॥ प्रिय पतिके विरहसे ही जो कामरूपी अग्नि जल रही थी वह इस मद्यसे ही जल रही है ऐसा समझकर कितनी ही विरहिणी स्त्रियोंने मद्य पीना छोड़ा दिया था ॥२८८॥ मद्यके सिवाय व्यर्थके अभिमानको नष्ट करनेवाला और कोई पदार्थ नहीं है यही सोचकर कितनी ही कलहान्तरिता स्त्रियोंको उनकी सखियोंने खूब मद्य पिलाया था ॥२८९॥ हमारा यह प्रेम बनावटी नहीं है इसलिये इस मद्यके पीनेसे क्या होगा? यही समझकर कितनी ही प्रेमिकाओंने श्राविकाओंके समान मद्य आदिको दूर से ही छोड़ दिया था ॥२९०।। कितनी ही स्त्रियां कामदेवरूपी दुनिवार हाथीके मदको बढ़ानेवाले स्वादिष्ट मद्यको पतिके हाथसे दिया जानेके कारण दूना पी गई थीं ॥२९१।। इस प्रकार जिनके कामका रस प्रकट हुआ है और जिनकी दृष्टि कुछ-कुछ तिरछी हो रही है ऐसी स्त्रियाँ १ पिटको ल०, अ०, इ०, स०, प० । पिटक: स्फोटकः । 'विस्फोट: पिटकस्त्रिषु' इत्यभि धानात् । २ गलगण्डस्य। 'गलगण्डो गण्डमाला' इत्यभिधानात् । ३ जीवितम् । ४ उद्वेगपराः । दुःखे तत्पराः इत्यर्थः । ५ विमुक्तभर्त काः स्त्रियः । ६ व्याप्नोति स्म। ७ प्रथमवृष्टया । ८ विरहिणीनां योषिताम् । ६ चन्द्रस्य । १० वियोगात् । ११ प्रियतमानां पुंसाम । १२ भृशं ज्वलति। १३ दावाग्निः । १४ मध्येन । १५ मद्यम् । १६ मद्यपानं कारिताः । १७ अस्माकम् । १८ मध्येन । १६ मद्यादिकम् । २० त्रिगुणितं स्वादु इत्यपि पाठः । २१ प्रियतमकरेण दत्तम् । २२ कामदुःपूरः-ट० । पूरयितुमशक्यः। २३ वामलोकनाः। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ महापुराणम् रितोऽप्यायस्वीकर्तुमागरम । इति स तत्र काचिद् प्रियं वीक्ष्य' कयाशेषं द्विषच्छरैः । स्वयं कामशरैरक्षताडगी चित्रमभूद् व्यसुः ॥२६३॥ 'क्षतैरनुपलक्ष्याङगं वीक्ष्य कान्तमजानती। परा परासुता' 'प्रापज्ज्ञात्वाऽऽत्मविहितवणः ॥२४॥ मया निवारितोऽप्याया' वीरलक्ष्मीप्रियः प्रिय । तत्कठोरवणरेव' जातोऽसीति मृता०परा ॥२६॥ मां निवार्य सहायान्तों कोति स्वीकर्तुमागमः । निर्मलेति विपर्यस्तो जानन्नपि बहिश्चरीम् ॥२६६॥ स्थिता तत्रैव सा कीर्तिः किं वदन्ति "नरोऽन्तरम् । इति सासू५ यमुक्त्वाऽन्या "प्रायासीत् १"प्रियपद्धतिम् न किं निवारिताऽप्यायां त्वया साद्धं विचेतना सन्निधौ मे किमेवं त्वां नयन्ति गणिकाधमाः२० ॥२६८ २९प्रस्तुकियातमद्यापि तत्र त्वां न हराणि" किम् । विलप्यवं कलालापा काचित् कान्तानुगाऽभवत् २६६ शरनिभिन्नसर्वाङगः कीलितासुरिवापरः। कान्तागमं प्रतीक्ष्यास्त लोचनस्थितजीवितः ॥३०॥ कोपदष्टविमुक्तौष्ठं कान्तमालोक्य कामिनी । वीरलक्ष्म्या कृतासूया क्षणकोपाऽसुमत्यजत् ॥३०१॥ . हृदि निभिन्ननाराचो मत्वा कान्ता हृदि स्थिताम् । हा मृतेयं बराकीतिप्राणान् कश्चिद् व्यसर्जयत् ॥३०२। पतिके समागम होनेसे वचनातीत आनन्दका अनुभव कर रही थीं ॥२९२॥ उन स्त्रियोंमेंसे कोई स्त्री अपने पतिको शत्रुओंके बाणोंसे मरा हुआ देखकर आश्चर्य है कि कामके बाणोंसे शरीर क्षत न होनेपर भी स्वयं मर गई थीं ॥२९३॥ अन्य कोई अजान स्त्री वावोंसे जिसके अंग उपांग ठीक-ठीक नहीं दिखाई देते ऐसे अपने प्रिय पतिको देखकर और उन्हें अपने द्वारा ही किये हुए घाव समझकर प्राणरहित हो गई थीं ॥२९४॥ हे प्रिय, तुम्हें वीर लक्ष्मी बहुत ही प्यारी थी इसीलिये मेरे रोकनेपर भी तुम उसके पास आये थे अब उसी वीरलक्ष्मीके कठोर घावोंसे तुम्हारी यह दशा हो रही है यह कहती हुई कोई अन्य स्त्री मर गई थी ॥२९५।। हे प्रिय, मैं उसी समय आपके साथ आ रही थी परन्तु आप मुझे रोककर कीर्तिको स्वीकार करने के लिये यहाँ आये थे, यद्यपि आप यह जानते थे कि कीति सदा बाहर घूमनेवाली (स्वैरिणीव्यभिचारिणी) है तथापि यह शुद्ध है ऐसा आपको भ्रम हो गया, अब देखिये, वह कीर्ति वहीं रह गई, हाय, क्या मनुष्य हृदय अथवा विरहको जानते हैं ? इस प्रकार ईर्ष्याके साथ कहकर अन्य कोई स्त्री अपने पतिके मार्गपर जा पहुंची थी अर्थात् पतिको मरा हुआ देखकर स्वयं भी मर गई थी ॥२९६-२९७।। हे प्रिय, रोकी जाकर भी मैं मूर्खा आपके साथ क्यों नहीं आई ? क्या मेरे समीप रहते ये नीच वेश्याएँ (स्वर्गकी अप्सराएँ) इस प्रकार तुम्हें ले जातीं? खैर, अब भी क्या गया ? क्या मैं वहाँ उनसे तुम्हें न छीन लूंगी ! इस प्रकार विलाप कर मधुर स्वरवाली कोई स्त्री अपने पतिकी अनुगामिनी हुई थी अर्थात् वह भी मर गई थी ॥२९८२९९। जिसका सब शरीर बाणोंसे छिन्न भिन्न हो गया है, और इसलिये ही जिसके प्राण कीलितसे हो गये हैं तथा नेत्रोंमें ही जिसका जीवन अटका हुआ है ऐसा कोई योद्धा अपनी स्त्री के आनेकी प्रतीक्षा कर रहा था ॥३००। जिसने क्रोधसे अपने ओठ डसकर छोड़ दिये हैं ऐसे अपने पतिको देखकर क्षणभर क्रोध करती और वीरलक्ष्मीके साथ ईर्ष्या करती हुई किसी अन्य स्त्रीने अपने प्राण छोड़ दिये थे ॥३०१।। जिसके हृदयमें बाण घुस गया है ऐसे किसी योद्धाने १ वार्तयेवावशिष्टं प्रियं श्रुत्वेत्यर्थः । २ वैरिणां बाणरुपलक्षितम् । ३ विगतप्राणः । ४ वणः । ५ पञ्चत्वम् । ६ प्राप ल०, अ०, स०, इ०, प०। ७ आत्मना नखदन्तकृतवणः । ८ आगमः । ९ वीरलक्ष्म्या निष्ठुरम् । १० ममार । ११ आगच्छः । १२ वैपरीतं नीतः । वञ्चित इत्यर्थः । १३ विदन्ति ल०। १४ नरः मनुष्याः. अन्तरं विरहम् । नरोत्तरमिति पाठे उत्तमपुरुषम् । १५ असूया सहितं यथा भवति तथा । १६ आगात् । १७ प्रियतमस्य मार्गम् । मतिमित्यर्थः । १८ आगच्छम् । १६ वराक्यहम् । २० अमुख्यदेवस्त्रियः । २१ भवतु वा। २२ गमनम्। २३ स्वर्गे। २४ अपि तु हराव । २५ प्रियतमस्यानुगामिन्यभूत् । कान्तास्मरणेन स्मरवशोऽभदित्यर्थः । २६ सद्यः प्राणान् व्यसर्जयत् ल० । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४१७ शास्त्रसंभिन्नसर्वाडागम् अन्तको नेतुमागतः । कान्ता चिन्तापरं कन्तुस्तद्धस्तावहृतापरम् ॥३०३॥ कण्ठे 'चालिङगितः प्रेमशोकाभ्यां प्रियया परः। ध्यात्वा तां त्यक्तदेहोगात् निर्वाणं सवणस्तया ॥३०४॥ श्वः स्वर्गे कि किमत्रैव सङगमो नौ न संशयः। तत्रत्वं बहकान्तोऽद्य रमेऽन्येत्याह' सव्रतम् ॥ प्रत्र वाऽमुत्र वासोऽस्तु किं तया चिन्तयावयोः । वियोगः क्वापि नास्तीति कान्ता कान्तमतर्पयत् ॥३०६॥ 'सबतो वीरलक्ष्मी च कीर्ति चहि० चिरायषा। हन्तु मामेव कामोऽयमिति कान्ताऽवदद्रुषा ॥३०७॥ जयस्य विजयः प्राणस्तवैवैतद् विनिश्चितम् । सवतावद्य यास्यावो दिवमित्यब्रवीत् परा ॥३०॥ शराः पौष्पास्तव त्वं च 'संयुक्तेष्वतिशीतलः१३ । तत्र" विज्ञातसारोऽसि पुरुषेभ्यो भयं तव ॥३०॥ प्रायसाः५ सायकाः काम त्वमप्यस्माकमन्तकः । इति कामं समुद्दिश्य खण्डिताः स्वगतं जगुः ॥३१०॥ सा रात्रिरिति सँल्लापैः१ २०प्रेमप्राणरनीयत । तावत् सन्ध्यागता रागाद् राक्षसीवेक्षितुं रणम् ॥३११॥ अपनी स्त्रीको अपने हृदयमें स्थित मानकर तथा हाय, यह बेचारी इस बाणसे व्यर्थ ही मरी जा रही है ऐसा समझकर शीघ्र ही अपने प्राण छोड़ दिये थे ॥३०२॥ जिसका सब शरीर शस्त्रों से छिन्न-भिन्न हो गया है ऐसे किसी अन्य योद्धाको यमराज लेनेके लिये आ गया था परन्तु स्त्रीकी चिन्तामें लगे हुए उसे कामदेवने यमराजके हाथसे छुड़ा लिया था ॥३०३।। प्रेम और शोकके कारण अपनी स्त्रीके द्वारा गलेसे आलिंगन किया हुआ कोई घावसहित योद्धा उसी प्रिया का ध्यान कर तथा शरीर छोड़कर उसीके साथ मर गया ॥३०४॥ किसी योद्धाने व्रत धारण कर लिये थे इसलिये उसकी स्त्री उससे कह रही थी कि कल स्वर्गमें न जाने क्या क्या होगा ? इसमें कुछ भी संशय नहीं है कि हम दोनोंका समागम यहाँ हो सकता है, चूंकि तुम्हें स्वर्ग में बहुत सी स्त्रियाँ मिल जायँगी इसलिये मैं आज यहां ही क्रीड़ा करूंगी ॥३०५॥ हम दोनोंका निवास चाहे यहां हो, चाहे परलोकमें हो, उसकी चिन्ता ही नहीं करनी चाहिये। क्योंकि हम लोगों का वियोग तो कहीं भी नहीं हो सकता है इस प्रकार कहती हुई कोई स्त्री अपने पतिको संतुष्ट कर रही थी ।।३०६।। कोई स्त्री क्रोधपूर्वक अपने पतिसे कह रही थी कि तुम तो व्रत धारण कर वीर लक्ष्मी और कीतिको प्राप्त होओ-उनके पास जाओ, दीर्घ आयु होनेके कारण यह कामदेव मुझे ही मारे ॥३०७।। कोई स्त्री अपने पतिसे कह रही थी कि यह निश्चित है कि जयकुमारकी जीत तेरे ही प्राणोंसे होगी और व्रतोंके धारण करनेवाले हम दोनों ही आज स्वर्ग जावेंगे ॥३०८।। खण्डिता स्त्रियां कामदेवको उद्देश्य कर अपने मन में कह रही थीं कि अरे काम, संयोगी पुरुषोंपर पड़ते समय तेरे बाण फूलोंके हो जाते हैं और तू भी बहुत ठंडा हो जाता है, उन पुरुषों के पास तेरे बलकी सब परख हो जाती है, वास्तवमें तू पुरुषोंसे डरता है परन्तु हम स्त्रियोंपर पड़ते समय तेरे बाण लोहेके ही रहते हैं और तू भी यमराज बन जाता है। भावार्थ-तू पुरुषोंको उतना दुखी नहीं करता जितना कि हम स्त्रियोंको करता है ॥३०९३१०॥ प्रेमरूपी प्राणोंको धारण करनेवाले स्त्री-पुरुषोंने इस प्रकारकी बातचीतके द्वारा ज्योंही वह रात्रि पूर्ण की त्योंही रागसे संग्राम देखने के लिये आई हुई राक्षसीके समान संन्ध्या (सवेरे की लाली) आ गई ॥३११॥ १ कण्ठेनालिङगितः इ०, अ०, स०, प० । २ मरणम् । ३ अनन्तरागामिदिने । ४ स्यादिति न जाने इति सम्बन्धः । ५ आवयोः। ६ स्वर्गे। ७ क्रीडामि। ८ स्वर्गे। १ सनियमः। १० गच्छ । ११ सनियमावावाम् । १२ सङगतेषु स्त्रीपुरुषेषु । १३ अतिशयेन सुखहेतुः। १४ संयुक्तस्त्रीपुरुषेषु । १५ अयस्सम्बन्धिनः । १६ पुरुषवियुक्ताः । १७ स्वाभिप्रायम् । १८ भणन्ति स्म । १६ मिथो भाषणः । २० प्रेम इव प्राणा येषां तैः । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ महापुराणम् प्राभातानक कोटोनां निःस्वनः सेनयोः समम् । श्राक्रामतिस्म दिवचक्रम् क्रमेणोच्चरंस्तदा ॥३१२॥ प्रतीच्याऽपि युतश्चन्द्रो मयैवोदेति भास्करः । इति स्नेहादिव प्राची प्रागभावुदयाद्रवेः ॥ ३१३॥ सरसां कमलाक्षिभ्यः प्रबुद्धानां तदा मुदा । निर्ययौ स्वार्थमादाय निद्रेव भ्रमरावली ॥ ३१४ ॥ गतायां स्वेन सङ्कोचं पद्मिन्यां स्वोदये रविः । लक्ष्मीं निजकरेणोच्चैविदधे सा हि मित्रता ॥३१५॥ रक्तः करैः समाश्लिष्य सन्ध्यां सद्यो व्यरज्यत" । वदन्निव रविर्भोगान् पर्यन्त' विरसान् स्फुटम् ॥३१६ ॥ "पर्यष्वञ्जीत् पुरेवैतां स्वां सन्ध्यामिति वेर्ष्यया । रवि 'रक्तमपि स्थित्यं प्राच्यक्षमत "न क्षणम् ॥ शयित्वा वीरशय्यायां निशां नीत्वा नियामिनः । स्नात्वा सन्तपिताशेष दीनानाथवनीपकाः ॥ ३१८ ॥ श्रञ्चित्वा विधिना स्तुत्वा जिनेन्द्रांस्त्रिजगन्नतान् । प्रतिष्ठनायकाः सर्वे परिच्छिद्य रणोन्मुखाः ॥३१ ॥ अरिञ्जयाख्यमारुह्य रथं श्वेताश्वयोजितम् । गृहीत्वा वज्रकाण्डं च दत्तं यच्चक्रिणा द्वयम् ५ ॥३२०॥ बन्दिमागधवृन्देन वन्द्यमानाङकमालिकः । गजध्वजं" समुत्थाप्य जयलक्ष्मीसमुत्सुकः ॥३२१॥ जयो ज्यास्फालनं कुर्वन कृतान्त विकृताकृतिः । द्विपानां "भीषणस्तस्थौ दिशामय्याहरन् मदम् ॥ ३२२ ॥ "उपोदय यशस्कीतिः अर्ककातिरच्युतच्छविः । " कारागारमिवाध्यास्य स्यन्दनं मन्दवाजिनम् ॥ ३२३॥ उसी समय दोनों सेनाओं में साथ साथ उठनेवाले प्रातःकालीन करोड़ों बाजोंके शब्दों ने एक साथ सब दिशाएं भर दीं ।। ३१२|| यद्यपि चन्द्रमा पश्चिम दिशाके साथ है तथापि सूर्य तो मेरे ही साथ उदय होगा इसी प्रेमसे मानो पूर्व दिशा सूर्योदय से पहले ही सुशोभित होने लगी थी ॥ ३१३।। उस समय भ्रमरोंकी पंक्ति तालाबों के फूले हुए ( पक्ष में जागे हुए ) कमलरूपी नेत्रोंसे अपना इष्ट पदार्थ लेकर निद्राके समान बड़ी प्रसन्नताके साथ निकल रही थी ।। ३१४ || कमलिती मेरे अस्त होते ही संकुचित हो गई थी, इसलिये सूर्यने अपना उदय होते ही अपने ही ही किरणरूपी हाथों से उसपर बहुत अच्छी शोभा की थी सो ठीक ही है क्योंकि मित्रता यही कहलाती है ॥३१५॥ रक्त अर्थात् लाल ( पक्ष में प्रेम करनेवाला) सूर्य कर अर्थात् किरणों ( पक्ष में हाथों) से संध्याका आलिंगन कर शीघ्र ही विरक्त अर्थात् लालिमारहित (पक्षमें रागहीन) हो गया था सो मानो वह यही कह रहा था कि ये भोग अन्त समयमें नीरस होते हैं । । ३१६ ॥ इस सूर्य ने पहले के समान ही अपनी संध्यारूपी स्त्रीका आलिंगन किया है इस ईष्यसेि ही मानो पूर्व दिशाने सूर्यको प्रेमपूर्ण अथवा लाल वर्ण होनेपर भी अपने पास क्षणभर भी नहीं ठहरने दिया था ।। ३१७।। व्रत नियम पालन करनेवाले सेनापतियोंने वीरशय्यापर शयन कर रात्रि व्यतीत की । सबेरे स्नानकर सब दीन, अनाथ तथा याचकों को संतुष्ट किया, त्रिजगद्वन्द्य जिनेन्द्र देवकी विधिपूर्वक पूजाकर स्तुति की और फिर वे अपनी अपनी सेनाका विभागकर युद्धके लिये उत्सुक हो खड़े हो गये ।। ३१८ - ३१९ । बन्दीजन और मागध लोगोंका समूह जिसके नाम के अक्षरों की स्तुति करते हैं, जो विजयलक्ष्मी के लिये उत्सुक हो रहा है, जिसका आकार यमराज के समान विकृत है, जो दिग्गजों के भी मदको हरण करनेवाला है और भयंकर है ऐसा जयकुमार सफेद घोड़ोंसे जुते हुए अरिंजय नामके रथपर सवार होकर और वज्रकाण्ड नामका वह धनुष जो कि पहले चक्रवर्तीने दिया था, लेकर हाथीकी ध्वजाको उड़ाता तथा धनुषकी डोरीका आस्फालन करता हुआ खड़ा हो गया ।। ३२० - ३२२ ।। जिसकी अपकीर्तिका उदय १ युगपत् । २ सरोवराणाम् । ३ वृद्धौ वृद्धिः क्षये क्षयश्च । ४ अरुणः अनुरक्तश्च । ५ विरक्तोऽभूत् । ६ अवसाने निस्साराणि इति वदन्ति वेति सम्बन्धः । ७ आलिलिङग । ८ अनुरक्तम् । निवसनाय । १० पूर्वादिक् । ११ न सहते स्म । १२ शयनं कृत्वा । १३ नियमवन्तः । १४ तिष्ठन्ति १५ रथवज्ज्रकाण्डचापद्वयम् । पुरा ल० । १६ स्तूयमान । १७ गजाङकितध्वजम् । १८ भयङ्करः । १६ उदयप्राप्तापकीर्तिः । २० बन्धनालयम् । स्म । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तमं पर्व प्रष्टचन्द्रान् सखी कर्वन नष्टचन्द्रोपमान युधः । स्वोत्पातकेतु'सडकाशचक्रकेतूपलक्षितः ॥३२४॥ 'प्रत्यायातमहावातविहतस्वजवैः शरैः। विध्यन्म ध्यंन्दिनाकं वा सुमनःक्षतहेतुभिः ॥३२५॥ जय शत्रुदुरालोकं ज्वलत्तेजोमयं स्मयात् । कलभो वाऽगमद् वारि प्रेरितः खलकर्मणा ॥३२६॥ जयोऽपि शरसन्तानघनी कृत्यघनाघनः । सहार्ककीतिमर्केण कुर्वन् विनिहतप्रभम् ॥३२७॥ 'प्रतीयायान्तरे छिन्दन 'रिपुप्रहितसायकान् । शराश्चास्य पुरो धावन् र अध्नस्येवोदयेऽशवः ॥३२॥ अच्छत्सीच्छत्रमस्त्राणि वैजयन्ती२ च दुर्जयः । जयोऽर्ककीर्तेरौद्धत्यं विहत्य विनिनीषया३ ॥३२६॥ अष्टचन्द्रास्तदाभ्येत्य" विद्याबलविजृम्भणात् । न्यषेधयन् जयस्येषून अम्भोदा वा रवेः करान् ॥३३०॥ भुजबल्यादयोऽभ्येयुर्योद्ध हेमाङगदं क्रुधा । सानुज सिंहसङघातं सिंहसङघ इवापरः ॥३३॥ सानजोऽनन्तसेनोऽपि प्राप मेधस्वरानुजान् । "प्राङगरेयो यथा यूथः कलिङगज"मतङगजान् ॥३३२॥ अन्येऽप्यन्यांश्च भूपाला भूपालान्कोपिनस्तदा । पानिपेतुः कुलाद्रीन्वा सञ्चरन्तः२० कुलाचलाः ॥३३३॥ नास्त्येषामोदशी शक्तिविद्येयमिति विद्यया । जयो युद्धाय सन्नद्धस्तदा मित्रभुजङगमः ॥३३४॥ हो रहा है, कान्ति नष्ट हो गई है, युद्धके नष्ट चन्द्रोंके समान अष्टचन्द्र विद्याधरोंको जिसने अपना मित्र बनाया है जो अपना अनिष्ट सूचित करनेवाले धूमकेतुके समान चक्रके चिह्नवाली ध्वजासे सहित है, और उल्टी चलनेवाली तेज वायुसे जिनका वेग नष्ट हो गया है ऐसे देवताओं का घात करनेवाले बाणोंसे जो दोपहरके सूर्यपर प्रहार करता हुआ सा जान पड़ता है, ऐसा अर्ककीति धीरे चलनेवाले घोड़ोंसे जुते हुए जेलखानेके समान अपने रथपर बैठकर, शत्रु जिसे देख भी नहीं सकते और जो जलते हुए तेजके समान है ऐसे जयकुमारपर बड़े अभिमानसे इस प्रकार आया जिस प्रकार कि हाथी पकड़नेवालोंके क्रूर व्यापारसे प्रेरित होता हुआ हाथीका बच्चा अपने बंधनके स्थानपर आता है ।।३२३-३२६॥ बाणोंके समहसे मेघोंको सघन करने वाला जयकुमार भी सूर्यके साथ साथ अर्ककीर्तिको प्रभारहित करता तथा शत्रुके द्वारा छोड़े हुए बाणोंको छेदन करता हुआ सामने आया और जिस प्रकार उदयकालमें सूर्यकी किरणें उसके सामने जाती हैं उसी प्रकार उसके द्वारा छोड़े हुए बाण ठीक उसके सामने जाने लगे।।३२७३२८॥ बड़ी कटिनाईसे जीते जाने योग्य जयकुमारने अर्ककीतिको हटानेकी इच्छासे उसका उद्धतपना नष्ट कर, उसका छत्र शस्त्र तथा ध्वजा सब छेद डाली ॥३२९।। जिस प्रकार मेघ सूर्यकी किरणोंको रोक लेते हैं उसी प्रकार उस समय अष्टचन्द्रोंने आकर अपनी विद्या और बलके विस्तारसे जयकुमारके बाण रोक लिये थे ॥३३०॥ जिस प्रकार एक सिंहोंका समूह दूसरे सिंहोंके समूहपर आ पड़ता है उसी प्रकार भुजबली आदि भी बड़े क्रोधसे छोटे भाइयों के साथ खड़े हुए हेमांगदसे लड़नेके लिये उसके सन्मुख आये ॥३३१॥ जिस प्रकार अंग देशमें उत्पन्न हए हाथियोंका समह कलिंग देशमें उत्पन्न हए हाथियोंपर पड़ता है उसी प्रकार अनंतसेन भी अपने छोटे भाइयोसहित जयकुमारके छोटे भाइयों के सामने जा पहुँचा ॥३३२॥ उस समय और भी राजा लोग क्रोधित होते हए अन्य राजाओंपर इस प्रकार जा टटे मानो कुलाचल कुलाचलोंपर टूट पड़ रहे हों ॥३३३॥ इन मेरे पक्षवालोंकी न तो ऐसी शक्ति है १ युद्धस्य। २ निजविनाशहेतुकजयसमान । ३ प्रतिकूलमायात । ४ मध्याह्नमिव । मध्याह्नरविमण्डलाभिमुखं मुक्ता शरा यथा स्वशरीरे पतन्ति तद्वदित्यर्थः । ५ गर्वात् । ६ गजपतनहेतुगतम् । ७ निविकृत। ८ अभिमुखं जगाम । ६ शत्रुविसर्जित । १० रवेः । ११ चिच्छेद। १२ ध्वजाम् । १३ निराकरणेच्छया। नेतुमिच्छया वा। १४ सम्मुखमागत्य । १५ अभिमुखमाजग्मुः । १६ निजानुजसहितः । १७ अङ्गरदेशे भवः । आङ्गकेयो ल०। १८ कलिङ्गदेशे भवः । १६ प्राप्नुवन्ति स्म । अभिपेतुः ल०, इ०, स०, प० । २० सञ्चलन्तः कुलाद्रयः ल० । २१ पूर्व मुनेर्धर्मश्रवणज्जातनागराजः । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० महापुराणम् विदित्वा विष्ट राकम्पाउज सम्प्राप्य सादरः । नागपाशं शरं चार्द्धचन्द्रं दत्वा ययावसौ ॥३३॥ तं सहस्रसहस्रांशस्फरदंशप्रभास्वरम् । कौरव: शरमादाय वजकाण्डे' प्रयोजयन् ॥३३६॥ हत एव सुतो भर्तुर्भुवोऽने नेति सम्म म् । नरविद्याधराधीशा महान्तमुदपादयन् ॥३३७॥ रथानव तथा दुष्टानष्टचन्द्रान ससारथीन् । स शरो भस्मयामास शस्त्राणि च यथाऽशनिः ॥३३॥ छिन्नदन्तकरो दन्तीवान्तको वा हतायुधः । भग्नमानः कुमारोऽस्थाद् धिक्कष्टं चेष्टितं विधेः ॥३३६॥ इति दत्तग्रहं वीरं गजं वा पादपाशकः । अपायुधेरपायविधिज्ञस्तम"जीग्रहत् ॥३४०॥ तच्छौयं यत्पराभूतेःप्राक् प्राप्तपरिभूतिभिः। यत्पश्चात्साहसं धाष्टर्चात् स द्वितीयः पराभवः ॥३४१॥ सोऽन्वयः स पिता तादक पदं सा सैन्यसंहतिः। तस्याप्यासीदवस्थेयमुन्मार्गः कं न पीडयेत् ॥३४२॥ वीरपट्टेन बद्धोऽयं चक्रिणानेन तत्सुतः। व्रणपट्टपदं नीतः पश्य कार्यविपर्ययम् ॥३४३॥ "पतत्पतङ्गसङकाशमर्ककोतिमनायुधम् । स्वरथे स्थापयित्वोच्चैः पारुह्यानेकपं स्वयम् ॥३४४॥ विपक्षखगभूपालान् नागपाशेन पाशिवत् । निष्पन्दं निजितारातिय॑मसीत सिंहविक्रमान् ॥३४५॥ और न यह विद्या ही है ऐसा समझकर जयकुमार स्वयं युद्धके लिये तैयार हुआ, उसी समय उसका मित्र सर्पका जीव जो कि देव हुआ था आसन कम्पित होनेसे सब समाचार जानकर बड़े के साथ जयकुमारके पास आया और नागपाश तथा अर्द्धचन्द्र नामका बाण देकर चला गया ॥३३४-३३५॥ जो हजार सूर्यकी चमकती हुई किरणोंके समान देदीप्यमान हो रहा था ऐसा वह बाण लेकर जयकुमारने अपने वज्रकाण्ड नामके धनुषपर चढ़ाया ॥३३६॥ इस बाणसे चक्रवर्तीका पुत्र अवश्य ही मारा जायगा यह जानकर भूमिगोचरी और विद्याधरोंके अधिपति राजाओंने बड़ा भारी क्षोभ उत्पन्न किया ॥३३७॥ उस बाणने नौ रथ, सारथि सहित आठो अष्टचन्द्र और सब बाण वज्रकी तरह भस्म कर दिये ॥३३८॥ जिसका मान भंग हो गया है ऐसा अर्ककीर्ति, जिसके दांत और सड़ कट गई है ऐसे हाथीके समान अथवा जिसका शस्त्र नष्ट हो गया है ऐसे यमराजकी तरह चेष्टा रहित खड़ा था इसलिये कहना पड़ता है कि देवकी इस दुःख देनेवाली चेष्टाको धिक्कार हो ॥३३९।। जिस प्रकार शस्त्ररहित किन्तु उपायको जाननेवाले पुरुष पैरोंकी फांससे दांतोंको दबोचकर वीर हाथीको पकड़ लेते हैं उसी प्रकार जयकुमारने अर्ककीर्तिको पकड़ लिया ॥३४०॥ तिरस्कार होनेके पहले पहले जो लड़ना है वह शूरवीरता है और तिरस्कार प्राप्तकर धृष्टतावश जो पीछेसे लड़ना है वह दूसरा तिरस्कार है ॥३४१।। यद्यपि उस अर्ककीर्तिका लोकोत्तर वंश था, चक्रवर्ती पिता थे, युवराज पद था और भारी सेनाका समूह उसके पास था तो भी उसकी यह दशा हुई इससे कहना पड़ता है कि दुराचार किसे पीड़ित नहीं करता है ? ॥३४२॥ चक्रवर्तीने जयकुमारको वीरपट्ट बांधा था परन्तु इसने उनके पुत्रको घावोंकी पट्टियोंका स्थान बना दिया, जरा कार्यकी इस उलट-पुलटको तो देखो ॥३४३॥ सब शत्रुओंको जीतनेवाले जयकुमारने अग्निपर पड़ते हुए पतंगके समान तथा हथियाररहित अर्ककीर्तिको अपने रथमें डालकर और स्वयं एक ऊंचे हाथीपर आरूढ़ होकर सिंहके समान पराक्रमी शत्रुभूत विद्याधर राजाओंको १ अर्द्धचन्द्रशरम् । २ सहस्ररवि । ३ जयकुमारः । ४ वज्रकाण्डकोदण्डे । ५ प्रवर्तयन् । ६ चक्रिणः । ७ जयेन । ८ सम्भ्रान्तिम् । ६ उत्पादितवान् । १० अर्द्धचन्द्रबाणः। ११ कृतग्रहणम् । दन्तग्रहं ल० । १२ गजबन्धनकुशलः । १३ अपगतशस्त्रैः । १४ अर्ककीर्तिम् । १५ ग्राह्यति स्म। १६ धृष्टत्यात् । १७ पतत्सूर्यसदृशम् । १८ पाशपाणिवत् भवन्तीत्यर्थः । 'प्रचेताः वरुणः पाशी यादसाँ पतिरप्पतिः' इत्यभिधानात् । १६ नियमितवान् । . , .. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व ४२१ इति सौलोचने य द्धे समिद्धे शमिते तदा । पपात पञ्चभूजेभ्यो वृष्टिः सुमनसा दिवः ॥३४६॥ जयश्रीवुर्जयस्वामितनूजविजयाजिता । नोत्सेकायति' नास्यैनं त्रयैव "प्रत्युताश्रयत् ॥३४७॥ 'जयेनास्थान सङग्रामजयायातेति लज्जया। दूरीकृतेव तत्कीतिदिगन्तमगमत्तवा ॥३४८॥ अकम्पनमहीशस्य यूथेशं' वा वनद्विपः । भूपः संयमितः सार्धम् अर्ककीर्ति समर्प्य सः ॥३४६॥ विजयार्द्धमहागन्धसिन्धुरस्कन्धसन्धृतः । निर्भत्सितोदयक्ष्माभन्म स्थवन मण्डलः ॥३५०॥ रणभूमि समालोक्य समन्ताद्बहुविस्मयः। मृतानां "प्रेतसंस्कारं "जीवतां जीविकाक्रियाम् ॥३५१॥ कारयित्वा पुरीं सर्वसम्मदाविष्कृतोदयाम् । प्राविशत् प्रकटैश्वर्यः सह मेघप्रभादिभिः॥३५२॥ अकम्पनोऽप्यनुप्राप्य वृतैरन्तः समाकुलः। राजकण्ठीरवैर्वामा राजपुत्रशतैः२० पुरम् ॥३५३॥ सरक्षान् धृतभूपालान् कुमारं च नियोगिभिः। प्राश्वास्याश्वासकुशलर्यथा स्थानमवापयत् ॥३५४॥ विचिन्त्य विश्वविघ्नानां विनाशोहत्प्रसादतः । इति वन्दितुमाजग्मुः सर्वे नित्य मनोहरम् ॥३५॥ दूरादेवावरुह्यात्मवाहेभ्यः२२ शान्तचेतसः। परीत्यार्थाभिरागत्य "तुष्टुवः स्तुतिभिर्भाजनान् ॥३५६॥ वरुणके समान नागपाशसे इस प्रकार बांधा जिससे वे हिल-डुल न सकें ॥३४४-३४५॥ इस प्रकार जब सुलोचना सम्बन्धी प्रचण्ड युद्ध शान्त हो गया तब स्वर्गके पांच प्रकारके कल्पवृक्षों से फूलोंकी वर्षा हुई ॥३४६।। अपने दुर्जेय स्वामी (भरत) के पुत्र अर्ककीतिके जीतनेसे उत्पन्न हुई विजयलक्ष्मी जयकुमारके अहंकारके लिये नहीं हुई थी बल्कि इसके विपरीत लज्जाने ही उसे आ घेरा था ॥३४७॥ 'यह अयोग्य समयमें किये हुए संग्रामके जीतनेसे आई है' इस लज्जा के कारण जयकुमारके द्वारा दूर की हुईके समान उसकी वह कीति उसी समय दिशाओंके अन्त तक चली गई थी ॥३४८। जिस प्रकार समर्थ पुरुष जंगली हाथियोंके समान झुण्डके मालिक बड़े हाधीको पकड़कर राजाके लिये सौंपते हैं उसी प्रकार जयकुमारने बंधे हुए अनेक राजाओं के साथ अर्ककीतिको महाराज अकंपनके लिये सौंप दिया, तदनन्तर उदयाचलके शिखरपर स्थित सूर्यमण्डलको तिरस्कृत करता हुआ विजयाई नामके बड़े भारी मदोन्मत्त हाथी के स्कंधपर सवार होकर युद्धका मैदान देखने के लिये निकला, चारो ओरसे युद्धका मैदान देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ, उसने मरे हुए लोगोंका दाह संस्कार कराया और जीवित पुरुषोंके अच्छे होनेका उपाय कराया, इस प्रकार जिसका ऐश्वर्य प्रकट हो रहा है ऐसे जयकुमारने मेघप्रभ आदिके साथ साथ सबको आनन्द मिलनेसे जिसकी शोभा खूब प्रकट की गई है ऐसी काशीनगरी में प्रवेश किया ॥३४९-३५२॥ महाराज अकंपनने भी सैकड़ों राजपुत्रों तथा सिंहके समान तेजस्वी राजाओं के साथ साथ नगरमें पहुंचकर रक्षा करनेवाले जिनके साथ हैं ऐसे बंधे हुए अनेक राजाओं तथा अर्ककीतिको समझाने में कुशल नियुक्त किये हुए पुरुषों द्वारा समझा-बुझाकर उन्हें उनके योग्य स्थानपर पहुंचाया ॥३५३-३५४॥ अरहन्तदेवके प्रसादसे ही सब विघ्नोंका नाश होता है ऐसा विचारकर सब लोग वन्दना करने के लिये नित्यमनोहर नामक वैत्यालयमें आये ॥३५५॥ उन सभीने दूरसे ही अपनी अपनी सवारियोंसे उतरकर शान्तचित्त हो मन्दिर में प्रवेश किया और प्रदक्षिणाएँ देकर अर्थसे भरी हुई स्तुतियोंसे जिनेन्द्रदेवकी स्तुति की ॥३५६॥ १ सुलोचनासम्बन्धिनि । २ उपशान्ते । ३ 'मन्दारः पारिजातकः सन्तानः कल्पवृक्षश्च पुंसि वा हरिचन्दनम्' इति पञ्चसुरभूजेभ्यः । ४ स्वर्गात् । ५ गर्वाय । ६ तस्यैनम् ल०। एनम् जयकुमारम् । ७ पुनः किमिति चेत् । ८ जयकुमारेण । ६ अनुचितस्थानकृतयुद्धविजयात् समुपागता। १० गजयथाधिपम् । ११ बर्द्धः । १२ बदर । १३ रवि । १४ शव । १५ जीवन्तीति जीवन्तस्तेषाम् । १६ जीवनोपायमित्यर्थः । १७ अभिलक्षितैः । १८ इव । १६ सह । २० सहस्रः। २१ नित्यमनोहराख्यं चैत्यालयम् । २२ निजवाहनेभ्यः । २७ स्तुति चक्रुः । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ महापुराणम् जयोऽपि जगदीशानमित्याप्त'विजयोदयः। प्रस्तावीदस्तकर्माणं भक्तिनिर्भरचेतसा ॥३५७।। शमिताखिलविघ्नसंस्तवस्त्वयि तुच्छोऽप्युपयात्यतुच्छताम् । शुचिशुक्तिपुटम्बुसन्धृतं नन मुक्ताफलतां प्रपद्यते ॥३५८॥ घटयन्ति न विघ्नकोटयो निकटे त्वत्क्रमयोनिवासिनाम् । पटवोऽपि फलं दवाग्निभि भयमस्त्य म्बुधिमध्यतिनाम् ॥३५६॥ हृदये त्वयि सन्निधापिते' रिपवः केपि भयं विधित्सवः । अमृताशिषु सत्सु सन्ततं विषमोदापितविप्लवः कुतः॥३६०॥ उपयान्ति समस्तसम्पदो विपदो विच्युतिमाप्नुवन्त्यलम् । वृषभं वृषमार्गदेशिनं झषकेतुद्विषमाप्नुषां सताम् ॥३६१॥ इत्थं भवन्तमतिभक्तिपथं निनीषोः१० प्रागेव बन्धकलयः प्रलयं व्रजन्ति । पश्चादनश्वरमयाचितमप्यवश्यं सम्पत्स्यतेऽस्य विलसद्गुणभद्रभद्रम् १२ ॥३६२॥ जिसे विजयका ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है ऐसा जयकुमार भी भक्तिसे भरे हुए हृदयसे समस्त कर्मों को नष्ट करनेवाले जगत्पति-जिनेन्द्रदेवकी इस प्रकार स्तुति करने लगा ॥३५७॥ हे समस्त विघ्नोंको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्रदेव , आपके विषयमें किया हुआ स्तवन थोड़ा होकर भी बड़े महत्त्वको प्राप्त हो जाता है सो ठीक ही है क्योंकि पवित्र सीपके संपुटमें पड़ी हुई पानी की एक बद भी मोतीपनको प्राप्त हो जाती है-मोतीका रूप धारण कर लेती है ॥३५८।। हे देव, फल देने में चतुर करोड़ों विघ्न भी आपके चरणोंके समीप निवास करनेवाले पुरुषों को कुछ फल नहीं दे सकते सो ठीक ही है क्योंकि क्या समुद्रके बीचमें रहनेवाले लोगोंको दावानलसे कभी भय होता है ? ॥३५९॥ हे प्रभो, आपको हृदयमें धारण करनेपर फिर ऐसे कौन शत्रु रह जाते हैं जो भय देनेकी इच्छा कर सकें, निरन्तर अमृतभक्षण करनेवाले पुरुषोंमें किसी विषसे उत्पन्न हुआ उपद्रव कैसे हो सकता है ? ॥३६०॥ धर्मके मार्गका उपदेश देनेवाले और कामदेवके शत्र श्रीवषभदेवकी शरण लेनेवाले सज्जन पुरुषोंको सब सम्पदाएँ अपने आप मिल जाती हैं और उनकी सब आपत्तियां अच्छी तरह नष्ट हो जाती हैं ॥३६१॥ हे शोभायमान गुणोंसे कल्याण करनेवाले जिनेन्द्र, इस प्रकार जो आपको अतिशय भक्तिके मार्गमें ले जाना चाहता है उसके कर्मबन्धके सब दोष पहले हीसे प्रलयको प्राप्त हो जाते हैं और फिर पीछेसे कभी नष्ट नहीं होनेवाला मोक्षरूपी कल्याण बिना मांगे ही अवश्य प्राप्त हो १ प्राप्त । २ स्तौति स्म । ३ अस्ति किम् । ४ सन्निधानीकृते। ५ परिभवम् । ६ विधातुमिच्छवः । ७ अमृतमश्नन्तीति अमृताशिनस्तेषु। ८ धर्ममार्गोपदेशकम् । ६ प्राप्नुवताम् । १० नेतुमिच्छोः । ११ बन्धदोषाः। १२ सम्पन्नं भविष्यति । १३ कल्याणम् । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व परिणतपरितापात्स्वेवषारी विलक्षो 'विगलितविभुभावो विह्वलीभूतचेताः। 'अधित विधिविधानं चिन्तयश्चक्रिसूनु विरहविधुरत्ति' वीरलक्ष्मीवियोग॥३६३॥ येषामयं जितसुरः समरे सहाय स्तानप्यहं कृतरतिः समुपासयामि । 'धुर्योऽयमेव यदि कात्र ‘विलम्बनेति मत्वेव मडक्ष समियाय जयं० जयश्रीः ॥३६४॥ सर बहुतरमरा जन्प्रोच्छ्रितान्शत्रुपांसून ५ द्रुतमिति शमयित्वा वृष्टिभिः सायकानाम् । उपगतहरिभूमिः" प्राप्य भूरिप्रतापं । दिनकर इव कन्या सम्प्रयोगाभिलाषी ॥३६॥ सौभाग्यन यदा स्ववक्षसि धुता माला तदैवापरं वीरो०वीधमवार्यवीर्यविभवो विभ्रश्य विश्वद्विषः। वीरश्रीविहितं२२ दधौ स शिरसाऽम्लानं यशः शेखरं लक्ष्मीवान् विदधाति साहससखः२३ किंवा न पुण्योदये ॥३६६॥ जाता है ॥३६२।। प्राप्त हुए संतापसे जिसे पसीना आ रहा है, जो लज्जित हो रहा है, 'मैं सबका स्वमी हूँ' ऐसा अभिप्राय जिसका नष्ट हो गया है, जिसका चित्त विह्वल हो रहा है, और जो भाग्यकी गतिका विचार कर रहा है ऐसे अर्ककीर्तिने वीरलक्ष्मीका वियोग होनेपर उसके विरहसे विधुर वृत्ति धारण की थी ॥३६३॥ देवोंको जीतनेवाला यह जयकुमार युद्धमें जिनकी सहायता करता है में उनकी भी बड़े प्रेमसे उपासना करती हूँ, फिर यदि यह ही सबमें मुख्य हो तो इसमें विलम्ब क्यों करना चाहिये ऐसा मानकर ही मानो विजयलक्ष्मी जयकुमार के पास बहुत शीघ्र आ गई थी ॥३६४।। इस प्रकार बाणोंकी वर्षासे ऊपर उठी हुई शत्रुरूपी धूलिको शीघ्र ही नष्ट कर पराक्रमके द्वारा सिंहका स्थान प्राप्त करनेवाला और अब कन्याके संयोगका अभिलाषी जयकुमार उस सर्यकी तरह बहत ही अधिक सशोभित हो रहा था जोकि सिंह राशिपर रहकर कन्या राशिपर आना चाहता है ॥३६५॥ जिसकी पराक्रमरूपी सम्पत्ति का कभी कोई निवारण नहीं कर सकता ऐसे शूरवीर जयकुमारने जिस समय सौभाग्यके वश से अपने वक्षःस्थलपर माला धारण की थी उसी समय सब शत्रुओंको नष्ट कर वीरलक्ष्मीका बना हुआ तथा कभी नहीं मुरझानेवाला यशरूपी दूसरा सेहरा भी उसने अपने मस्तकपर धारण किया था, सो ठीक ही है क्योंकि जो लक्ष्मीमान् है, साहसका मित्र है और जिसके पुण्यका १ विस्मयान्वितः । २ विभुत्वरहितः । ३ धरति स्म । ४ कर्मभेदम् । ५ विरविक्लवस्य वर्तनम् । ६ जयकुमारः। ७ धुरन्धरः । ८ कालक्षेपः । ६ शीघ्रम् । १० जयकुमारम् । ११ जयः । १२ अत्यधिकम् । १३ विराजति स्म । १४ उन्नतान् । १५ रेणून् । १६ शीघ्रम् । १७ प्राप्तशक्रपदः । प्राप्तसिंहराशिस्थानश्च । १८ सन्तापम्, प्रभावम् । १६ सुलोचनासङगाभिलाषी। कन्याराशिगतसम्प्रयोगाभिलाषी च। २० शुभ्रम्। २१ पातयित्वा। २२ कृतम् । २३ साहस एव सखा। २४ पुष्पोदये ल०, अ०, प०, स०, इ० । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ महापुराणम् 'जयोऽयात्सोऽयश्च प्रभवति गुणेभ्यो गुणगणः सदाचारात्सोऽपि तब विहितवृत्तिः श्रुतमपि । प्रणीतं सर्वविदितसकलास्ते खलु जिना स्ततस्तान् विद्वान् संश्रयतु जयमिच्छन् जय इव ॥३६७॥ इत्याष त्रिषष्टिलक्षणश्रीमहापुराणसङग्रहे भगवदगुणभद्राचार्यप्रणीते जयविजयवर्णनं नाम चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व । उदय है वह क्या नहीं कर सकता है ? ॥३६६॥ इस संसारमें विजय पुण्यसे होती है, वह पुण्य गुणोंसे होता है, गुणोंका समह सदाचारसे होता है, उस सदाचारका निरूपण शास्त्रोंमें है, शास्त्र सर्वज्ञ देवके कहे हुए हैं और सर्वज्ञ सब पदार्थोको जाननेवाले जिनेन्द्रदेव हैं इसलिये विजयकी इच्छा करनेवाले विद्वान् पुरुष जयकुमारके समान उन्हीं जिनेन्द्रदेवोंका आश्रय करेंउन्हीं की सेवा करें ॥३६७॥ इस प्रकार गुणभद्राचार्यविरचित त्रिषष्टिलक्षण महापूराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें जयकुमारकी विजयका वर्णन करनेवाला चवालीसवां पर्व समाप्त हआ। १ विजयः। २ पुण्यात् । ३ पुण्यञ्च । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व अथ मेघस्वरो गत्वा 'प्रथमानपराक्रमः । मथितारातिदुर्गवः पृथं स्वावासमास्थितः ॥१॥ स्वयं च सञ्चिताघानि हन्तुं स्तुत्वा जिनेशिनः। अकम्पनमहाराजः समालोक्य सुलोचनाम् ॥२॥कृताहारपरित्यागनियोगामायुधस्तदा। सुप्रभाकृतपर्युष्टि कार्योत्सर्गेण सुस्थिताम् ॥३॥ सर्वशान्तिकरी ध्याति ध्यायन्ती स्थिरचेतसा । धमिकाचनिष्पन्वां जिनेन्द्राभिमुखीं मुदा ॥४॥ समभ्यर्च्य समाश्वास्य प्रशस्य बहुशो गुणान् । भवन्माहात्म्यतः पुत्रि शान्तं सर्वममगलम् ॥५॥ प्रतिध्वस्तानि पापानि "नियाममुपसंहर । इत्यु त्क्षिप्तकरामुक्त्वा पुरस्कृत्य सुतां सुतः॥६॥ हृष्टः सुप्रभया चामा राजगह प्रविश्य सः। 'याहि पुत्रि निजागारं विसज्ये ति सुलोचनाम् ॥७॥ अन्यथा चिन्तितं कार्य बेन कृतमन्यथा । इति कर्तव्यतामहः १०सुश्रुतादिभिरिद्धधीः ॥८॥ प्रोत्पत्तिक्याविधीभेदेऽलोच्य सचिवोत्तमैः। विद्याधरधराधीशान् विपाशीकृत्य कृत्यवित् ।।६।। विश्वानाश्वास्य तद्योग्यः सामसारख्वीरितः । सम्यग्विहितसत्कारः स्नप्तवस्त्रासनादिभिः॥१०॥ "कमार वंशोपुष्माभिविहितौ'वधितौ च नः। तविषमयोऽप्यति "यतोऽभून्न ततः क्षयम् ॥११॥ . अथानन्तर-प्रसिद्ध पराक्रमका धारक और शत्रुओंके मिथ्या अभिमानको नष्ट करनेवाला जयकुमार अपने विशाल निवासस्थानमें जाकर ठहर गया ॥१॥ इधर महाराज अकपन ने स्वयं संचित किये हुए पाप नष्ट करनेके लिये श्री जिनेन्द्रदेवकी स्तुति की और फिर जिसने युद्ध समाप्त होनेतक आहारके त्याग करने का नियम ले रक्खा है, माता सुप्रभा जिसके समीप बैठी हुई है, जो कायोत्सर्गसे खड़ी हुई है, स्थिरचित्तसे सब प्रकारकी शान्ति करनेवाला धर्मध्यान कर रही है, एकाग्र मनसे निश्चल है और आनन्दसे जिनेन्द्रदेवके सन्मुख खड़ी है ऐसी . सुलोचनाको देखकर उसका सत्कार किया, आश्वासन देकर उसके गुणोंकी अनेक बार प्रशंसा की तथा इस प्रकार शब्द कहे-हे 'पुत्रि, तुम्हारे माहात्म्यसे सब अमंगल शान्त हो गये हैं, सब प्रकारके पाप नष्ट हो गये हैं, अब तू अपने नियमोंका संकोच कर ।' ऐसा कहकर उन्होंने हाथ जोड़कर खड़ी हुई सुलोचनाको आगे किया और राजपुत्रों तथा रानी सुप्रभाके साथ साथ राज श किया। फिर हे पत्रि! त अपने महलमें जा' ऐसा कहकर सलोचनाको बिदा किया ॥२-७॥ पुनः यह कार्य अन्य प्रकार सोचा गया था और दैवने अन्य प्रकार कर दिया अब क्या करना चाहिये इस विषयमें मूढताको प्राप्त हुए अतिशय बुद्धिमान् महाराज अकंपनने औत्पत्तिकी आदि ज्ञानके भेदोंके समान सुश्रुत आदि उत्तम मंत्रियोंके साथ विचारकर विद्याधर राजाओंको छोड़ दिया। फिर कार्यको जाननेवाले उन्हीं अकंपनने बड़ी शान्तिसे उनके योग्य कहे हुए वचनोंसे उन सबको आश्वासन देकर स्नान, वस्त्र, आसन आदिसे सबका अच्छी तरह सत्कार किया ॥८-१०॥ तथा अर्ककीर्तिसे कहा कि 'हे कुमार ! हमारे नाथवंश और सोम १ प्रकाशमान । २ स्वावासगृहे स्थितः। ३ युद्धावसानपर्यन्तम् । ४ निजजननीविहितरक्षाजिनपूजादिपरिचर्याम् । ५ ध्यानम्। ६ एकानत्वेन निश्चलाम् । ७ नियमम् । ८ त्यज। गच्छ । १० सुश्रुतप्रभूतिमन्त्रिभिः । ११ जन्मव्रतनियमौषधतपोभिरुत्पन्नज्ञानभेदैः । १२ नागपाशबन्धनं गोत्रयित्वा । १३ साम्नां सारैः । १४ वचनैः । १५ हे अर्ककीर्ते। १६ नाथवंशसोमवंशौ। १७ कृतौ। १८ जयस्य अस्माकं च । १६ यस्मात् पुरुषात् । २० सञ्जातम् । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ महापुराणम् पुत्रबन्धुपदातीनाम् अपराधशतान्यपि । क्षमन्ते हि महात्मानस्तद्धि तेषां विभूषणम् ॥१२॥ भवेडेवादपि स्वामिन्यपराधविधायिनाम् । प्राकल्पमयशः पापं चानुबन्धनिबन्धनम् ॥१३॥ अपराधः कृतोऽस्माभिरेकोऽयमविवेकिभिः। वयं वो बन्धुभत्यास्त कुमार क्षन्तुमर्हसि ॥१४॥ एषा कीतिरघं चैतत् प्रसादात्ते प्रशाम्यति । शापान ग्रहयोः शक्तस्त्वं विशुद्धि विधेहि नः ॥१५॥ प्रणालोकनारोधि हन्यते जगतस्तमः । अस्माकं स भवानर्कस्तस्मादन्तस्तमो हरेत् ॥१६॥ प्रातिकूल्यं तवास्मासु स्तन्यस्येव स्तनन्धये । अस्मज्जन्मान्तरा वृष्टपरिपाकविशेषतः ॥१७॥ विश्वविश्वम्भराह्लादी यदि क्षिपति वारिदः। कदाऽज्यशनिमेक स्मिस्तत्तस्यैवाशुभोदयः ॥१८॥ हयेनेव दुरारोहाज्जयेनहासि पातितः। 'स ते प्रेष्यः किमत्रास्ति वैमनस्यस्य कारणम् ॥१६॥ सुलोचनेति का वार्ता सर्वस्वं नस्तवैव तत् । निषिद्धश्चेत्त्वया पूर्व क्रियते कि स्वयंवरः ॥२०॥ लक्ष्मीवती गहाणेमाम् अक्षमालापराभिधाम् । निर्मलां वा यशोमालां कि ते पाषाणमालया ॥२१॥ वंश दोनों ही आपके द्वारा बनाये गये हैं और आपके द्वारा ही बढ़ रहे हैं । विषका वृक्ष भी जिससे उत्पन्न होता है उससे फिर नाशको प्राप्त नहीं होता ॥११॥ महात्मा लोग पुत्र, बन्धु तथा पियादे लोगोंके सैकड़ों अपराध क्षमा कर देते हैं क्योंकि उनकी शोभा इसीमें है ॥१२॥ औरोंकी बात जाने दीजिये जो देवके भी अधीन होकर स्वामीका अपराध करते हैं उनका अपयश कल्पान्त कालतक बना रहता है और उनका यह पाप भी अनेक दोषोंका बढ़ानेवाला होता है ।।१३।। हम मूोंने आपका यह एक अपराध किया है। चूंकि हम लोग आपके भाइयों और भृत्यों में से हैं इसलिये हे कुमार, यह अपराध क्षमा कर देने योग्य है ॥१४॥ यह हमारी अपकीर्ति और पाप आपके प्रसादसे शान्त हो सकता है क्योंकि आप शाप देने तथा उपकार करने-दोनोंमें समर्थ हैं इसलिये हम लोगोंकी शुद्धता अवश्य कर दीजिये ॥१५।। प्रकाशको रोकनेवाला संसारका अन्धकार सूर्य के द्वारा नष्ट किया जाता है परन्तु हमारे लिये तो आप ही सूर्य हैं इसलिये हमारे अन्तःकरणके अन्धकारको आप ही नष्ट कर सकते हैं ॥१६॥ पूर्वजन्मके पाप कर्मोंके विशेष उदयसे हम लोगोंके लिये जो आपका यह विरोध उपस्थित हुआ है वह मानो पुत्रके लिये माताके दूधका विरोध उपस्थित हुआ है। भावार्थ-जिस प्रकार माताके दूधके बिना पुत्र नहीं जीवित रह सकता है उसी प्रकार आपकी अनुकूलताके बिना हम लोग जीवित नहीं रह सकते हैं ॥१७॥ समस्त पृथिवीको आनन्दित करनेवाला बादल यदि कदाचित् किसी एकपर वज्र पटक देता है तो इसमें बादलका दोष नहीं है किन्तु जिसपर पड़ा है उसीके अशुभ कर्मका उदय होता है ।।१८॥ चढ़ना कठिन होनेसे जिस प्रकार घोड़ा किसीको गिरा देता है उसी प्रकार जयकुमारने आपको गिरा दिया है परन्तु वह तो आपका सेवक है इसमें बुरा माननेका कारण ही क्या है ? ॥१९॥ सुलोचना, यह कितनी सी बात है ? हमारा जो सर्वस्व है वह आपका ही है। यदि आप पहले ही रोक देते तो स्वयंवर ही क्यों किया जाता ? ॥२०॥ जिसका दूसरा नाम अक्षमाला है ऐसी मेरी दूसरी पुत्री लक्ष्मीमतीको आप ग्रहण कीजिये। यह लक्ष्मीमती यशकी मालाके समान निर्मल है, पाषाण (रत्नों) की मालासे आपको क्या प्रयो १ अलब्धलाभः लब्धपरिरक्षणं रक्षितविवर्द्धनं चेत्यनुबन्धः ते एव निबन्धनं कारणं यस्य । २ युष्माकम् । ३ तत् कारणात् । ते द० । ४ स्तनक्षीरस्य । ५ शिशी। यथा स्तनक्षीरस्य प्रातिकूल्यं शिशोर्जीवनाय न स्यात् तथा तव प्रातिकूल्यमपि अस्माकम् । ६ अशुभकर्म । ७ एकस्मिन् पुंसि । ८ जयः । ६ तव किङ्करः । १० स्वयंवरे क्षिप्तपाषाणमालया। सुलोचनयाक्षिप्तरत्नमालया। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व ४२७ पाहारस्य' यथा तेऽध विकारोऽयं विना त्वया । जीविकास्ति किमस्माकं प्रसीदतु विभो भवान् ॥२२॥ यद्वयं भिन्नमर्यादे त्वम्यवार्येऽम्बुधाविव । तत्तेऽवशिष्टाः पुण्यन भवत्प्रेषणकारिणः ॥२३॥ त्वं वह्निनेव केनापि पापिना विश्वजीवितः । उष्णीकृतोऽसि प्रत्यस्मान् शीतीभव हि वारि वा ॥२४॥ न चेदिमान् सुतान दारान् प्रतिग्राहय पालय । मम तावाश्रयौ यामि पुरूणां पादपादपौ ॥२५॥ इति प्रसाध संतोष्य समारोप्य गजाधिपम् । अर्ककीर्ति पुरोधाय" वृतं भूचरखेचरैः॥२६॥ शान्तिपूजां विधायाष्टौ दिनानि विविर्धाद्धकाम् । महाभिषेकपर्यन्तां सर्वपापोपशान्तये ॥२७॥ जयमानीय सन्धाय सन्धानविधिवित्तदा । नितरां प्रीतिमुत्पाद्य कृत्वैकीभाबमक्षरम् ॥२८॥ अक्षिमालां महाभूत्या दत्वा सर्वार्थसम्पदा । सम्पूज्य गमयित्वैनम् अनुगम्य यथोचितम् ॥२६॥ तथेतरांश्च सम्मान्य नरविद्याधराधिपान् । सद्यो विसर्जयामास सवनगजवाजिभिः ॥३०॥ ते स्वदुर्नयलज्जास्तवैराः स्वं" स्वमगुः१५ पुरम् । साधीवापराधस्य "प्रतिकी हि याचिरात् ॥३१॥ जन है ? ॥२१॥ आज यह आपका विकार आहारके विकारके समान है, क्या आपके बिना हम लोगोंकी जीविका रह सकती है ? इसलिये हे प्रभो, हम लोगोंपर प्रसन्न हूजिये । भावार्थजिस प्रकार भोजनके बिना कोई जीवित नहीं रह सकता उसी प्रकार आपकी प्रसन्नताके बिना हम लोग जीवित नहीं रह सकते इसलिये हम लोगोंपर अवश्य ही प्रसन्न हूजिये ॥२२॥ हम लोग तो इधर उधर भेजने योग्य सेवक हैं और आप जिसका निवारण न हो सके ऐसे समुद्रके समान हैं। हे नाथ, आपके मर्यादा छोड़नेपर भी जो हम लोग जीवित बच सके हैं सो आपके पुण्यसे ही बच सके हैं ॥२३॥ आप पानीके समान सबको जीवित करनेवाले हैं जिस प्रकार अग्नि पानीको गर्म कर देती है उसी प्रकार किसीने हम लोगोंके प्रति आपको भी गर्म अर्थात् कोधित कर दिया है इसलिये अब आप पानीके समान ही शीतल हो जाइये ॥२४॥ यदि आप शान्त नहीं होना चाहते हैं तो इन पुत्रों और स्त्रियोंको स्वीकार कीजिये, इनकी रक्षा कीजिये, मैं हम आप दोनोंके आश्रय श्रीवृषभदेवके चरणरूपी वृक्षोंके समीप जाता हूँ ।।२५।। इस प्रकार भूमिगोचरी और विद्याधरोंसे घिरे हुए अर्ककीर्तिको प्रसन्न कर, संतुष्ट कर और उत्तम हाथीपर सवार कराकर सबसे आगे किया तथा सब पापोंकी शान्तिके लिये आठ दिन तक बड़ी विभूतिके साथ महाभिषेक होने पर्यन्त शान्तिपूजा की। मेलमिलापकी विधिको जाननेवाले अकंपनने जयकुमारको भी वहां बुलाया और उसी समय संधि कराकर दोनोंमें अत्यन्त प्रेम उत्पन्न करा दिया तथा कभी न नष्ट होनेवाली एकता करा दी। तदनन्तर अर्ककीतिको बड़े वैभव और सब प्रकारकी धनरूप सम्पदाओं के साथ साथ अक्षमाला नामकी कन्या दी, अच्छा आदर-सत्कार किया और उनकी योग्यताके अनुसार थोड़ी दूर तक साथ जाकर उन्हें बिदा किया । इसी प्रकार अच्छे अच्छे रत्न, हाथी और घोड़े देकर अन्य भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंका सन्मान कर उन्हें भी शीघ्र ही बिदा किया ॥२६-३०॥ अपने अन्यायके कारण उत्पन्न हुई लज्जासे जिनका बैर दूर हो गया है ऐसे वे सब लोग अपने अपने नगरको चले गये, सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धि वही है जो भाग्यवश हुए अपराधका शीघ्र ही प्रतिकार कर लेती १ आहारो यथा विनाशयति । २ विश्वेषां जीवनं यस्मात् स विश्वजीवितः। विश्वजीवनः अ०, प०, स०, इ०, ल० । ३ जलम् । ४ इव । ५एवं न चेत् । ६ प्रतिग्रहं कुरु । ७ अग्रे कृत्वा । ८ अन्योन्यसम्बन्धं कृत्वा । ६ अविनश्वरम् । १० अक्षमालाम् अ०, स०, इ०, ल०। ११ अर्ककीर्तिम् । १२ किञ्चिदन्तरं गत्वा । १३ निरस्त । १४ स्वां स्वामगुः पुरीम् द०, अ०, स०। १५ जगुः । १६ दैवाज्जातापराधस्य । १७ प्रतिविधानं करिष्यति । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ महापुराणम् तदा पूर्वोदितो देवः समागत्य सुसम्पदा । सुलोचनाविवाहोरुकल्याणं समपादयत् ॥३२॥ मेघप्रभसुकेत्वादिसत्सहायान सहानुजः । जयोऽप्यगमयत् सर्वान् सन्तर्बिहुप्रियः ॥३३॥ "नाथवंशाग्रणीश्चामा "जामात्राऽलोच्य सत्वरम् । सुधीः स्वगृहसाराणि बध्वा रत्नाग्युपायनम् ॥३४॥ विदितप्रस्तुतार्थोऽसि यथाऽसौ नः प्रसीदति । तथा कुविति चक्रेशं सुमुखाख्यमजीगमत् ॥३५॥ प्राशु गत्वा निवेद्यासौदष्ट्वेशं धरणौ तनुम् । क्षिप्त्वा प्रणम्य दत्वा च प्राभतं निभ'ताञ्जलिः देवस्यानुचरो देव प्रणम्याकम्पनो भयात । देवं विज्ञापयत्येवं प्रसादं कुरु तच्छणु ॥३७॥ सुलोचनेति न. "क-यासारस्त्वद्विहितश्रिये५ । स्वयंवर विधानेन सम्प्रादायि जयाय सा ॥३८॥ "तत्रागत्य कुमारोऽपि प्राक् सर्वमनु"मत्य तत् । विद्याधरधराधीशैः सुप्रसन्नैः सह स्थितः ॥३६॥ पश्चात् कोऽपि ग्रहः क्रूरः स्थित्वा सह शुभग्रहम् । खलो बलाद्यथाऽस्मभ्यं वृथा कोपयति स्म तम् ॥४०॥ विज्ञातमेव देवेन सर्व तत्संविधानकम् । २२चारचक्षश्च वेत्त्येतिक पुनः सावधिर्भवान् ॥४१॥ २"कुमारो हि कुमारोऽसौ नापराधोऽस्ति कश्चन । "तत्र तस्य सदोषाः स्मो वयमेव प्रमादिनः ॥४२॥ है ॥३१॥ उसी समय पहले कहे हुए देवने आकर बड़े वैभवके साथ सुलोचनाके विवाहका उत्सव सम्पन्न किया ॥३२॥ सबके प्यारे जयकुमारने भी अपने छोटे भाइयोंके साथ साथ मेघप्रभ सुकेतु आदि अच्छे अच्छे सब सहायकोंको धन द्वारा संतुष्ट कर बिदा किया ॥३३॥ तदनन्तर नाथवंशके शिरोमणि अतिशय बुद्धिमान् अकंपनने अपने जमाई जयकुमारके साथ सलाह की और अपने घरके अच्छे अच्छे रत्न भेंटमें देनेके लिये बांधकर सुमुख नामक दूतको यह कहकर चक्रवर्ती के पास भेजा कि तू वर्तमानका सब समाचार जानता ही है, चक्रवर्ती जिस प्रकार हम लोगोंपर प्रसन्न हों वही काम कर ॥३४-३५॥ उस दूतने शीघ्र ही जाकर पहले अपने आने की खबर भेजी फिर चक्रवर्तीके दर्शन कर पृथिवीपर अपना शरीर डाल प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर साथमें लाई हुई भेंट देकर कहा कि हे देव, अकंपन नामका राजा आपका अनुचर है वह प्रणाम कर भयसे आपसे इस प्रकार प्रार्थना करता है सो प्रसन्नता कीजिये और उसे सन लीजिये ॥३६-३७॥ उसने कहा है कि सुलोचना नामकी मेरी एक उत्तम कन्या थी वह मैंने स्वयंवर-विधिसे आपने ही जिसकी लक्ष्मी अथवा शोभा बढ़ाई है ऐसे जयकुमारके लिये दी थी ॥३८॥ कुमार अर्ककी तिने भी उस स्वयंवरमें पधारकर पहले सब बात स्वीकार कर ली थी और वे प्रसन्न हुए विद्याधर राजाओंके साथ साथ वहां विराजमान थे ॥३९॥ तदनन्तर जिस प्रकार कोई दुष्ट शुभ ग्रहके साथ ठहरकर उसे भी दुष्ट कर देता है उसी प्रकार किसी दुष्टने जबर्दस्ती हम लोगोंपर व्यर्थ ही उन्हें क्रोधित कर दिया ॥४०॥ इसके बाद वहां जो कुछ भी हुआ था वह सब समाचार आपको विदित ही है क्योंकि गुप्तचर रूप नेत्रोंको धारण करनेवाला साधारण राजा भी जब यह सब जान लेता है तब फिर भला आप तो अवधिज्ञानी हैं, आपका क्या कहना है ? ॥४१॥ कुमार तो अभी कुमार (लड़का) ही है इसमें उनका कुछ भी दोष नहीं है, प्रमाद करनेवाले केवल हम लोग ही उसमें सदोष हैं १ स्वयंवरनिर्माण प्रोक्तविचित्राङगकसुरः । २ सहानुजान् प०, इ०, म०, ल०। ३ बहवः प्रियाणि मित्राणि यस्य सः । ४ अकम्पनः । ५ पुत्र्याः प्रियेण सह । ६ निजगृहे स्थितेषूत्कृष्टानि । ७ प्रामृतम् । ८ चक्री। सुमुखाह्वयदूतम् । १० गमयति स्म । ११ दूतः । १२ भूम्याम् । १३ स्थिराञ्जलिः। १४ कन्यासूत्कृष्टत्वात् । १५ त्वया कृतैश्वर्याय जयाय सम्प्रादामीति सम्बन्धः । १६ दत्ता। १७ स्वयंवरे । १८ अनुमतिं कृत्वा । १६ स्वयंवरविधानम् । २० चन्द्रादिशुभग्रहान्वितं यथा भवति तथा स्थित्वा कोपयति तं तथेति सम्बन्धः । २१ तद्वत्तान्तम् । २२ चारा गूढपुरुषा एव चक्षुर्यस्य । २३ अवधिज्ञानसहितः । २४ बालकः । २५ संविधाने । २६ सापराधाः । २७ भवामः । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ४२६ तस्मै कन्यां गहाणेति नास्माभिः सा समर्पिता । पाराधकस्य वोषोऽसौ यत् प्रकुप्यन्ति देवताः ॥४३॥ मवैव विहिताः सम्यक धिता बन्धवोऽपि नः । स्निग्धाश्च' कथमेतेषां विदधामि विनिग्रहम् ॥४४॥ इत्येतद्देव मामस्थाः स्यात् सदोषो यदि त्वया। कुमारोऽपि निगृह्येत न्यायोऽयं त्वदुपक्रमः ॥४५॥ तदादिश विधेयोऽत्रको दण्डस्त्रिविधेऽपि नः। किविधः कि परिक्लेशः कि वार्थहरणं प्रभो ॥४६॥ तवादेशविधानेन नितरां कृतिनो वयम् । इहामुत्र च तद्देव यथार्थमनुशाधि नः ॥४७॥ इति प्रश्रयणी वाणी निगद्य हवयप्रियाम् । सुमखो राजराजस्य 'व्यरंसीत् करसंज्ञया ॥४॥ सतां वचांसि चेतांसि हरन्त्यपि हि रक्षसाम् । किं पुनः सामसाराणि तादृशां समतादृशाम् ॥४६॥ इहहीति प्रसन्नोक्त्या प्रफुल्लवदनाम्बुजः । उपसिंहासनं चक्री नि"सृष्टार्थं निवेश्य तम् ॥५०॥ प्रकम्पनैः किमित्येवम् उवीर्य प्रहितो भवान् । पुरुभ्यो" निविशेषास्ते सर्वज्येष्ठाश्च सम्प्रति ॥५१॥ गहाश्रमे त एवास्तैिरेवाहं च बन्धुमान् । निषेद्धारः प्रवृत्तस्य ममाप्यन्यायवर्त्मनि ॥५२॥ पुरवो मोक्षमार्गस्य पुरवो दानसन्ततेः। श्रेयांश्च चक्रिणां वृत्तयेथेहास्म्यहमग्रणीः ॥५३॥ तथा स्वयंवरस्पेमे नाभूवन् यद्यकम्पनाः। कः प्रवर्तयिताऽन्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥५४॥ ॥४२॥ 'तुम इस कन्याको ग्रहण करो' ऐसा कहकर तो मैंने जयकुमारके लिये दी नहीं थी, तथापि देवता जो कुपित हो जाते हैं उसमें देवताका नहीं किन्तु आराधना करनेवाले हीका दोष समझा जाता है ॥४३॥ ये सब वंश मेरे ही बनाये हुए हैं, मेरे ही बढ़ाये हुए हैं, मेरे ही भाई हैं और मुझसे ही सदा स्नेह रखते हैं इसलिये इनका निग्रह कैसे करूं ऐसा आप मत मानिये क्योंकि यदि आपका पुत्र भी दोषी हो तो उसे भी आप दण्ड दते हैं, इस न्यायका प्रारम्भ आपसे ही हुआ है । इसलिये हे प्रभो, आज्ञा दीजिये कि इस अपराधके लिये हम लोगोंको तीनों प्रकारके दण्डोंमेंसे कौन सा दण्ड मिलने योग्य है ? क्या फांसी ? क्या शरीरका क्लेश अथवा क्या धन हरण कर लेना ? ॥४४-४६॥ हे देव, आपकी आज्ञा पालन करनेसे ही हम लोग इस लोक तथा परलोक में अत्यन्त धन्य हो सकेंगे इसलिये आप अपराधके अनुसार हमें अवश्य दण्ड दीजिये ॥४७॥ इस प्रकार नम्रतासे भरे हुए और हृदयको प्रिय लगनेवाले वचन कहकर वह सुमुख दूत राजराजेश्वर-चक्रवर्तीके हायके इशारेसे चुप हो गया ॥४८॥ जब कि सज्जन पुरुषों के वचन राक्षसोंके भी चित्तको मोहित कर लेते हैं तब सबको समान दृष्टिसे देखनेवाले भरत जैसे महापुरुषोंके शान्तिपूर्ण चित्तकी तो बात ही क्या है ? ॥४९॥ जिनका मुखरूपी कमल प्रफुल्लित हो रहा है ऐसे चक्रवर्तीने 'यहां आओ' इस प्रकार प्रसन्नताभरे वचनोंसे उस दूतको अपने सिंहासनके निकट बैठाकर उससे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया कि 'महाराज अकंपनने इस प्रकार कहकर आपको क्यों भेजा है ? वे तो हमारे पिता के तुल्य हैं और इस समय हम सभी में ज्येष्ठ हैं ॥५०-५१॥ गृहस्थाश्रममें तो मेरे वे ही पूज्य हैं, उन्हींसे मैं भाईबन्धुवाला हूं, औरकी क्या बात ? अन्यायमार्गमें प्रवृत्ति करनेपर वे मुझे भी रोकने वाले हैं ॥५२॥ इस युगमें मोक्षमार्ग चलाने के लिये जिस प्रकार भगवान् वृषभदेव गुरु हैं, दानकी परम्परा चलाने के लिये राजा श्रेयांस गुरु हैं और चक्रवर्तियोंकी बुत्ति चलाने में मैं मुख्य हूं उसी प्रकार स्वयंवरकी विधि चलाने के लिये वे ही गुरु हैं। यदि ये अकंपन महाराज नहीं होते तो इस स्वयंवर मार्गका चलानेवाला दूसरा कौन था ? यह मार्ग अनादि कालका है १ जयाय। २ भरतेनैव । ३ स्नेहिता। ४ त्वया प्रथमोपक्रान्तः । ५ तत् कारणात् । ६ दोषे । ७नियामय। ८ तूष्णी स्थितः। राक्षसानाम् । १० वचांसि साम्नां साराणि चेत् । ११ सताम् । १२ समत्वनेत्राणाम् । १३ अत्रागच्छति । १४ सिंहासनसमीपे । १५ दूतमुख्यम् । १६ प्रेषितः । १७ पुरुजिनेभ्यः । गुरुभ्यो अ०, प०, म०, ल०, इ०, स० । १८ अकम्पना एव । १६ स्वयंवरमार्गः । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् मार्गाश्चिरन्तनान् येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नूतनान् सन्तः सभिः पूज्यास्त एव हि ॥५५॥ न चक्रेण न रत्नश्च शेषेर्न निधिभिस्तथा। बलेन न षडडगेन नापि पुत्रर्मया च न ॥५६॥ तदेतत् सार्वभौमत्वं जयेनैकेन केवलम् । सर्वत्र शौर्यकार्येष तेनैव विजयो मम ॥५७॥ म्लेच्छराजान् विनिजित्य नाभिशैले यशोमयम् । मन्नाम स्थापितं तेन किमत्रान्येन केनचित् ॥५॥ अर्कोतिरकोतिं मे कीर्तनीयामकोतिषु । पाशशांकमिहाकार्षीन्मषीमाषमलीमसाम् ॥५६॥ प्रमुना'ऽन्यायवत्मव प्रावर्तीति न केवलम् । इह स्वयं च दण्डचानां प्रथमः परिकल्पितः ॥६॥ प्रभूदयशसो रूपं मत्प्रदीपादिवाञ्जनम् । नार्ककोतिरसौ स्पष्टम् अयशःकीतिरेव हि ॥६॥ जय एव मदादेशाद् ईवृशोऽन्यायवर्तिनः । समीकर्यात्ततस्तेन स साधु बमितो युधि ॥६२॥ सदोषो यदि निर्माह्यो ज्येष्ठपुत्रोऽपि भूभुजा । इति मार्गमहं 'तस्मिन्नद्य वर्तयितुं स्थितः ॥६३॥ अक्षिमाला' किल प्रत्ता तस्म कन्याऽवलेपिने भवद्भिरविचार्येतद् विरूपकमनुष्ठितम् ॥६४॥ पुरस्कृत्यह तामेतां१३ नीतः सोऽपि प्रतीक्ष्यताम् । सकलङकेति किं मूतिः परिह भवेद्विधोः ॥६५॥ उपेक्षितः सदोषोऽपि स्वपुत्रश्चक्रवतिना । इतीदमयशः स्थापि "व्यधायि तवकम्पनः ॥६६॥ इति सन्तोष्य विश्वेशः सौमुख्यं सुमुखं नयन् । हित्वा ज्येष्ठं तुजं तोकम् "प्रकरोन्न्यायमौरसम् ॥६७॥ ॥५३-५४॥ इस युगमें भोगभूमिसे छिपे हुए प्राचीन मार्गों को जो नवीन कर देते हैं वे सत्पुरुष ही सज्जनों द्वारा पूज्य माने जाते हैं ॥५५॥ मेरा यह प्रसिद्ध चक्रवर्तीपना न तो चक्ररत्नसे मिला है, न शेष अन्य रत्नोंसे मिला है, न निधियोंसे मिला है, न छह अंगोंवाली सेनासे मिला है, न पुत्रोंसे मिला है और न मुझसे ही मिला है, किन्तु केवल एक जयकुमारसे मिला है क्योंकि शर वीरताके सभी कार्यो में मेरी जीत उसीसे हुई है ॥५६-५७॥ म्लेच्छ राजाओंको जीतकर नाभि पर्वतपर मेरा कीर्तिमय नाम उसीने स्थापित किया था, इस विषय में और किसीने क्या किया है ? ॥५८। इस अर्ककीर्तिने तो अकीतियोंमें गिनने योग्य तथा स्याही और उड़दके समान काली मेरी अकीर्ति जब तक चन्द्रमा है तब तकके लिये संसारभरमें फैला दी ॥५९।। इसने अन्याय का मार्ग चलाया है केवल इतना ही नहीं है। किन्तु संसारसें दण्ड देने योग्य लोगों में अपने आपको मुख्य बना लिया है ॥६०॥ जिस प्रकार दीपकसे काजल उत्पन्न होता है उसी प्रकार यह अकीर्तिरूप मुझसे उत्पन्न हुआ है, यह अर्ककीर्ति नहीं है किन्तु साक्षात् अयशस्कोति है ॥६१॥ मेरी आज्ञासे जयकुमार ही अन्यायमें प्रवृत्ति करनेवाले इस प्रकारके लोगोंको दण्ड देता है इसलिये इसने युद्ध में जो उसे दण्ड दिया है वह अच्छा ही किया है ॥६२॥ और की क्या बात ? यदि बड़ा पुत्र भी अपराधी हो तो राजाको उसे भी दण्ड देना चाहिये यह नीतिका मार्ग अर्ककीर्तिपर चलानेके लिये आज मैं तैयार बैठा हूं।६३॥ आप लोगोंने विचार किये बिना ही उस अभिमानी के लिये अक्षमाला नामकी कन्या दे दी यह बुरा किया है ॥६४॥ अथवा उस प्रसिद्ध अक्षमाला कन्याकी भेंट देकर आपने उस अर्ककीतिको भी पूज्यता प्राप्त करा दी है सो ठीक ही है क्योंकि यह कलंकसहित है यह समझकर क्या चन्द्रमाकी मूर्ति छोड़ी जाती है ? ॥६५॥ परन्तु चक्रवर्तीने अपराध करनेपर भी अपने पुत्रकी उपेक्षा कर दीउसे दण्ड नहीं दिया इस मेरे अपयशको महाराज अकंपनने स्थायी बना दिया है ॥६६॥ इस १ पुरातनात् पुंसः । २ युगादौ। ३ जयेन । ४ अर्ककीर्तिना। ५ प्रवर्तितम् । ६ दण्डित योग्यानाम् । ७ समदण्डं कुर्यात् । ८ अर्ककीतौं । अक्षमाला अ०, म०, इ०, स०, ल० । १० दत्ता। ११ गर्विताय। १२ कष्टम् । १३ लक्ष्मीमालाम् । १४ पूज्यताम् । १५ अकारि । १६ पुत्रम् । १७ न्यायमेव पुत्रमकरोत् । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशवमं पर्व ४३१ सुमुखस्तइयाभारमिव वोतवाक्षमः । स जयोऽकम्पनो देव देवस्य नमति क्रमौ ॥६॥ लब्धप्रसाद इत्युक्त्वा क्षिप्त्वाऽङगानि प्रणम्य तम् । विकसददनाम्भोजः समुत्थाय कृताञ्जलिः॥६६॥ इत एवोन्मुखौ तौ त्वत्प्रतीच्छन्तौ मदागतिम् प्रास्थातां चातको वृष्टि प्रावृषो वाऽदिवाच्च ॥७० इति विज्ञाप्य चक्रेशात् कृतानुज्ञः कृतत्वरः। सम्प्राप्याकम्पनं नत्वा सजयं विहितादरम् ॥७१॥ गोभिः प्रकाश्य रक्तस्य प्रसाद चक्रवतिनः। रवेर्वा वासरारम्भस्तद्वक्त्राब्जं व्यकासयत् ॥७२॥ साधुवावः सवानैश्च सम्मानस्तौ च तं तदा । पानिन्यतुरतिप्रीति कृतज्ञा हि महीभूतः ॥७३॥ इत्यतर्कोवयावाप्तिविभासितशुभोदयः। अषिवान, जयः श्रीमान् सुखेन श्वासुरंग कुलम् ॥७४॥ . सुलोचनामुखाम्भोजषट्पदायितलोचनः । अनङगानणुबाणकतूणीरायितविग्रहः ॥७॥ तथा प्रवृत्ते सङग्रामे सायकैरक्षतः क्षतः१३ । "पेलवैः कुसुमरेभिविचित्रा विधिवृत्तयः॥७६॥ अस्मितां सस्मितां कुर्वन् प्रहसन्ती सहासिकाम् । सभयां निर्भयां बालाम् प्राकुला तामनाकुलाम् ॥७७॥ प्रकार सबके स्वामी महाराज भरतने सुमुख नामके दूतको संतुष्ट कर उसका मुख प्रसन्न किया और ज्येष्ठ पुत्रको छोड़कर न्यायको ही अपना औरस पुत्र बनाया। भावार्थ-न्यायके सामने बड़े पुत्रका भी पक्ष नहीं किया ॥६७॥ उसी समय चक्रवर्तीकी दयाका भार वहन करनेके लिये मानो असमर्थ हुआ सुमुख कहने लगा कि 'हे देव' जिन्हें आपका प्रसाद प्राप्त हो चुका है ऐसे जयकुमार और अकंपन दोनों ही आपके चरणोंको नमस्कार करते हैं, ऐसा कहकर उस दूतने अपने समस्त अंग पृथ्वीपर डालकर चक्रवर्तीको प्रणाम किया और जिसका मुखरूपी कमल विकसित हो रहा है तथा जिसने हाथ जोड़ रखे हैं ऐसा वह दूत खड़ा होकर फिर कहने लगा कि जिस प्रकार दो चातक वषो ऋतुक पहल बादलस वषो होनकी इच्छा करते हैं उसी प्रकार जयकुमार और अकंपन आपके समीपसे मेरे आनेकी इच्छा करते हुए इसी ओर उन्मुख होकर बैठे होंगे" ऐसा निवेदन कर जिसने चक्रवर्तीसे आज्ञा प्राप्त की है ऐसे उस दूतने बड़ी शीघ्रतासे जाकर आदरके साथ महाराज अकंपन और जयकुमारको नमस्कार किया तथा वचनोंके द्वारा अनुराग करनेवाले चक्रवर्तीकी प्रसन्नता प्रकट कर उन दोनोंके मुखकमल इस प्रकार प्रफुल्लित कर दिये जिस प्रकार कि दिनका प्रारम्भ समय (प्रातःकाल) किरणोंके द्वारा लाल सूर्यकी प्रसन्नता प्रकटकर कमलोंको प्रफुल्लित कर देता है ॥६८७२॥ उस समय उन दोनों राजाओंने धन्यवाद, दान और सम्मानके द्वारा उस दूतको अत्यन्त प्रसन्न किया था सो ठीक ही है क्योंकि राजा लोग किये हुए उपकार माननेवाले होते हैं ॥७३॥ इस प्रकार विचारातीत वैभवकी प्राप्तिसे जिसके शभ कर्मका उदय प्रकट हो रहा है ऐसा वह श्रीमान् जयकुमार सुखसे श्वसुरके घर रहने लगा ॥७४॥ जिसके नेत्र सुलोचनाके मुखरूपी कमलपर भ्रमरके समान आचरण करते थे और जिसका शरीर कामदेवके बड़े बड़े बाण रखनेके लिये तरकसके समान हो रहा था ऐसा वह जयकुमार युद्ध होनेपर लोहेके वाणोंसे उस प्रकार घायल नहीं हआ था जिस प्रकार कि अत्यन्त कोमल कामदेवके इन फूलोंके बाणोंसे घायल हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि देवलीला बड़ी विचित्र होती है ।।७५-७६।। वह जयकुमार मुस्कुराहटसे रहित सुलोचनाको मुस्कुराहटसे युक्त करता था, न हंसनेपर जोरसे हंसाता था, भययुक्त होनेपर निर्भय करता था, आकुल होनेपर निराकुल करता था, वार्तालाप न करनेपर १ चक्रिकृपा। २ अकम्पनजयकुमारौ। ३ त्वत्तः । ४ वाञ्छन्तौ। ५ मदागमनम् । ६ प्रथममेघात् । ७ चक्रवर्तिनः । ८ वाग्भिः किरणैश्च । दिवसारम्भः । १० नीतवन्तौ। ११ स्थितवान् । १२ मातुलसम्बन्धिनि गृहे। १३ पीडितः । १४ मृदुभिः । १५ हाससहिताम् । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ महापुराणम् अनालपन्तीमालाप्य लोकमानो विलोकिनीम् । अस्पृशन्ती समास्पृश्य व्यधान् व्रीडाविलोपनम् ॥७८॥ कृतो भवान्तराबद्ध तत्स्नेहब'लशालिना । सुलोचनायाः कौरव्यः काम कामेन कामुकः ॥७॥ सुलोचनामनोवृत्ती रागामृतकरोद्धरा' । क्रमाच्चचाल वेलेव कामनाममहाम्बुधेः॥५०॥ मुकुले वा मुखे चक्रे विकासोऽस्याः क्रमात्पदम् । 'प्राक्रान्तशूर्पकारातिग्रहानक्षरसूचनः ॥८१॥ "सखीमुखानि संवीक्ष्य जञ्जपित्वा दिशामसौ । स्वरं हसितुमारब्ध गृहीतमदनमहा ॥२॥ १०सितासितासितालोलकटाक्षेक्षणतोमरः । जयं तदा जितानडगं कृत्वानङगप्रतिष्कशम् ॥३॥ ससाध्वसा सलज्जा सा विव्याध विविधर्मनाक । अनालोकनबेलायाम् अति सन्धित्सव तम् ॥५४॥ न भुजगेन सन्दष्टा नापि संसेवितासवा । न श्रमेण समाकान्ता तथापि स्विधति स्म सा ॥८॥ स्खलन्ति स्म "कलालापाश्चकम्पे हृदयं भृशम् । चलान्यालोकितान्यासन्नवशे वात्मनश्च५ सा ॥८६॥ प्रक्षालितेव लज्जाऽगात् सुदत्याः स्वेदवारिभिः । वागिन्धनळदीपिष्ट विचित्रश्चित्तजोऽनलः ॥७॥ सावत्रपा भयं तावत्तावत्कृत्यविचारणा। तावदेव धुतिर्यावज्जम्भते न स्मरज्वरः ॥८॥ उससे वार्तालाप करता था, अपनी ओर देखनेपर उसे देखता था, और स्पर्श न करनेपर उसका था। इस प्रकार यह सब करते हए जयकुमारने सलोचनाकी लज्जा दूर की थी ॥७७-७८।। पूर्व पर्याय में बंधे हुए स्नेहरूपी बलसे शोभमान कामदेवने इच्छानुसार जयकुमारको सुलोचनाका सेवक बना लिया था ॥७९॥ रागरूपी चन्द्रमाके सम्बन्धसे बढ़ी हुई, कामदेव नामक महासागरकी वेलाके समान सुलोचनाके मनकी वृत्ति क्रम क्रमसे चंचल हो रही थी ॥८॥ सब शरीरमें घुसे हुए कामदेवरूपी पिशाचके द्वारा बिना कुछ बोले ही जिसकी सूचना हो रही है ऐसे विकासने सुलोचनाके मुखरूपी मुकुलपर धीरे धीरे अपना स्थान जमा लिया था ॥८१॥ कामरूपी पिशाचको ग्रहण करनेवाली सुलोचना सखियोंके मुख देखकर दिशाओंसे बातचीत कर अर्थात् निरर्थक वचन बोलकर इच्छानुसार हंसने लगी ॥८२।। उस समय भय और लज्जा सहित सुलोचना कामदेवको जीतनेवाले जयकुमारको न देखने योग्य समयमें मानो ठगनेकी इच्छासे ही कामदेवको अपना सहायक बनाकर सफेद काले इन दोनों रंगोंसे मिले हुए चंचल कटाक्षोंसे भरी हुई दृष्टिरूपी अनेक तोमर नामके हथियारोंसे धीरे धीरे मार रही थी ।।८३।। जब जयकुमार उसकी ओर नहीं देखता था उस समय भी वह सफेद, काले और चंचल कटाक्षोंसे भरी दृष्टिसे उसे देखती रहती थी और उससे ऐसा मालूम होता था मानो यह उसे ठगना ही चाहती है ॥८४॥ उस समय उसे न तो सर्पने काटा था, न उसने मद्य ही पिया था, और न परिश्रमसे ही वह आक्रान्त थी तथापि वह पसीनेसे तर हो रही थी ॥८५॥ उसके मधुर भाषण स्खलित हो रहे थे, हृदय अत्यन्त कँप रहा था, दृष्टि चंचल हो और वह ऐसी जान पडती थी मानो अपने वशमें ही न हो ॥८६॥ सन्दर दांतोंवाली सुलोचनाकी लज्जा इस प्रकार नष्ट हो गई थी मानो उसके पसीनारूपी जलसे धुल ही गई हो और कामदेवरूपी विचित्र अग्नि वचनरूपी ईधनसे ही मानो खूब प्रज्वलित हो रही थी ॥८७॥ जबतक कामदेवरूपी ज्वर नहीं बढ़ता है तबतक ही लज्जा रहती है तबतक ही भय रहता है, तब तक ही करने योग्य कार्यका विचार रहता है और तब तक ही धैर्य रहता है ॥८८॥ १ सामर्थ्य । २ अत्यर्थम् । ३ इच्छुः । ४ अनुरागचन्द्रेणोत्कटा। ५ स्थानम् । ६ प्राप्तकामग्रहमक्षरेण विना सूचकः । ७ सहचरी। ८ निरर्थकादिदोषदुष्टमुक्त्वा । ९ उपक्रान्तवती । १० श्वेतकृष्णसंबद्ध । ११ सहायम् । १२ वञ्चनेच्छया । १३ स्वदवती बभूव । १४ मनोज्ञवचनानि । • १५ स्वस्य पराधीनेव अथवा आत्मनः वशे अधीने न वा नासीदिति । १६ चित्तजानल: अ०, ५०, इ०, स०, ल०। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ४३३ विषयीकृत्य सर्वेषाम् इन्द्रियाणां परस्परम् । परामवापतुः प्रीति दम्पती तौ पृथक् पृथक् ॥८६॥ प्रत्यासङगात् क्रममा हिकरणस्तावपितौ । अनिन्दतामशेषककरणाकारिणं' विधिम् ।।801. अन्योन्यविषयं सौख्यं त्यक्त्वाऽशेषान्यगोचरम् । स्तोकेन सुखमप्राप्तं प्रापतुः 'परमात्मनः ॥६॥ सम्प्राप्तभावपर्यन्तौ विदतुर्न' स्वयं च तौ । मुक्त्वैकं शेष सहैवोद्यत्स्वक्रियोद्रेकसम्भवम् ॥२॥ रतावसाने निःशक्त्योढौत्सुक्यात् प्रपश्यतोः" । तयोरन्योन्यमाभातां५ नेत्रयोरिव पुत्रिके ॥३॥ अवापि या तया प्रीतिस्तस्मात्तेन च या ततः" । "तयोरन्योन्यमेवासीद् उपमानोपमेयता ॥१४॥ भुक्तमात्मम्भरित्वेन" यत्सुखं परमात्मना । ततोऽप्यधिकमासीद्वार संविभागेऽपि तत्तयोः ॥ ॥ इत्यन्योन्यसमुभूतप्रीतिस्फीतामृताम्भसि । कामाम्भोधौ निमग्नौ तौ स्वरं चिक्रीडतुश्चिरम् ॥६६॥ तदा स्वमन्त्रिप्र हितगूढपत्रार्थचोदितः । जयो जिगमिषुस्तूर्ण२५ स्वस्थानीय धियो वशः ॥१७॥ वे दोनों दम्पती परस्पर पृथक् पृथक् सब इन्द्रियोंके विषयोंका सेवनकर परम आनन्दको प्राप्त हो रहे थे ॥८९॥ अत्यन्त आसक्तिके कारण, क्रम क्रमसे एक एक विषयको ग्रहण करनेवाली इन्द्रियोंसे वे संतुष्ट नहीं होते थे इसलिये सब इन्द्रियोंको एक इन्द्रियरूप न करनेवाले विधाताकी वे निन्दा करते रहते थे। भावार्थ-उन दोनोंकी विषयासक्ति इतनी बढ़ी हुई थी कि वे एक साथ ही सब इन्द्रियोंके विषय ग्रहण करना चाहते थे परन्तु इन्द्रियां अपने प्राकृतिक नियम के अनुसार एक समयमें एक ही विषयको ग्रहण कर पाती थी अतः वे असंतुष्ट होकर सब इन्द्रियों को एक इन्द्रियरूप न बनानेवाले नामकर्मरूपी ब्रह्माकी सदा निन्दा करते रहते थे ॥९॥ उन दोनोंने सब साधारण लोगोंको मिलनेवाला परस्परका सुख छोड़कर आत्माका वह उत्कृष्ट सुख प्राप्त किया था जो कि अन्य छोटे-छोटे लोगोंको दुष्प्राप्य था ॥९१।। जिनके भावोंका अन्त आ चुका है ऐसे वे दोनों ही एक साथ उत्पन्न हुई अपनी क्रियाओंके उद्रेकसे उत्पन्न होनेवाले एक सुखको छोड़कर और कुछ नहीं जानते थे ॥९२॥ संभोग क्रीड़ाके अन्तमें अशक्त हुए तथा गाढ उत्कंठाके कारण परस्पर एक दुसरेको देखते हए उनके नेत्रोंकी पुतलियां एक दुसरेके नेत्रोंकी पुतलियोंके समान ही सुशोभित हो रही थीं। (यहां अनन्वयालंकार होनेसे उपमेय ही उपमान हो गया है) ॥९३।। सुलोचनाने जयकुमारसे जो सुख प्राप्त किया था और जयकुमारने सुलोचनासे जो सुख पाया था उन दोनोंका उपमानोपमेय भाव परस्पर-उन्हीं दोनोंमें था ॥९४॥ परमात्माने सबके स्वामी होकर जिस सुखका अनुभव किया था उन दोनोंका वह सुख परस्परमें विभक्त होनेपर भी उससे कहीं अधिक था। भावार्थ-यद्यपि उन दोनोंका सुख एक दूसरेके संयोगसे उत्पन्न होनेके कारण परस्परमें विभक्त था, तथापि परिमाणकी अपेक्षा परमात्माके पूर्ण सुखसे भी कहीं अधिक था। (यहां ऐसा अतिशयोक्ति अलंकारसे कहा गया है वास्तवमें तो वह परमात्माके सुखका अनन्तवां भाग भी नहीं था) ॥९५।। इस प्रकार परस्परमें उत्पन्न होनेवाले प्रेमामृतरूपी जलसे भरे हुए कामरूप समुद्र में डूबकर वे दोनों चिरकालतक इच्छानुसार क्रीड़ा करते रहे ॥९६॥ उसी समय एक दिन जो अपने मंत्रीके द्वारा १ अत्यासक्तितः । २ क्रमवृत्त्या पदार्थग्राहीन्द्रियैः ।। ३ निन्दा चक्रतुः । ४ सकलेन्द्रियविषयाणामेकमेवेन्द्रियमकुर्वन्तम् । ५ सामान्यपुरुषेण । ६ उत्तमम्। ७ स्वस्य। परमात्मनः परमपुरुषस्येति ध्वनिः । ८ लीला। ६ बुबुधाते। १० आत्मनौ। ११ सुखम् । १२ सहैव प्रादुर्भवन्निजचुम्बनादिसमुत्कटसम्भूतम् । १३ सुरतक्रीडावसाने। १४ परस्परमालोकमानयोः सतोः । १५ व्यराजताम् । १६ जयकुमारात् । १७ सुलोचनायाः। १८ प्रीत्योः । १६ स्वोदरपूरकत्वेन । 'उभावात्मम्भरिः स्वोदरपूरके' इत्यभिधानात् । २० परमात्मसुखात् । २१ वा अवधारेण । २२ विभजने । २३ सुखम् । २४ प्रेषित। २५ शीघ्रम् । २६ स्वां पुरीम् । स्वं स्था-ल । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् भवद्भिर्भावितश्वयं मा मदीया दिदृक्षवः । इति माम समभ्यत्य' 'प्रस्थानार्थमबबधत् ॥१८॥ तबुध्वा नाथवंशेशः किञ्चिदासीत् ससंभ्रमः । जये जिगमिषौ स्वस्मान्न स्यात् कस्याकुलं मनः ॥ विचार्य कार्यपर्यायं तथास्त्वित्याह तं न पः । स्नेहानतिनी नैति० दीपिका वा धियं सुधीः ॥१०॥ प्रादात् प्रागेव सर्वस्वं तस्मै दत्तसुलोचनः । तथापि लौकिकाचारं परिपालयितुं प्रभुः ॥१०॥ दत्वा कोशादि सर्वस्वं स्वीकृत्य प्रीतिमात्मनः। अनुगम्य स्वयं दूरं शुभेऽहनि वधूवरम् ॥१०२॥ कथं कथमपि त्यक्त्वा स "सजानिर्जनाग्रणी:५ । व्यावर्तत ततः शोकी "तुग्वियोगो हि दुःसहः ॥१०३॥ १८विजयाद्धं समारुह्य जयोऽपि ससुलोचनः । प्रारूढसामः सर्वैः स्वानुजैविजयादिभिः ॥१०४॥ हेमाङगदकुमारेण सानुजेन च सोत्सवः । प्रवर्तयन् कथाः पथ्याः परिहास मनोहराः ॥१०॥ वृतः शशीव नक्षत्रैः अनुमङग२० ययौ शनैः । इला सञ्चालयन् प्राग्वार श्रीमान् स जयसाधनः ॥१०६॥ स्कन्धावारं२ यथास्थान पारगडगं२३ न्यवोविशत् । वीक्ष्य कक्षपुटत्वेन प्रशास्ता "शास्त्रवित्तदा ॥ २५हटत्पटकटीकोटिनिकटाटोपनिर्गमः । बभासे शिबिरावासः स्वर्गवास इवापरः ॥१०॥ भेजे हुए पत्रके गूढ़ अर्थसे प्रेरित हो रहा है, बुद्धिमान् है, और शीघ्रसे शीघ्र अपने स्थानपर पहुंचनेकी इच्छा कर रहा है ऐसे जयकुमारने मामा (श्वसुर) के पास जाकर अपने जानेकी सूचना दी कि हे माम, आपने जिसका ऐश्वर्य बढ़ाया है ऐसे मुझे मेरी प्रजा देखना चाहती है। ॥९७-९८॥ यह जानकर नाथवंशका स्वामी अकंपन कुछ घबड़ाया सो ठीक ही है क्योंकि अपनेसे जय (जयकुमार अथवा विजय) के जानेकी इच्छा करनेपर किसका मन व्याकुल नहीं होता है ? ॥९९॥ तदनन्तर कार्योंका पूर्वापर विचारकर राजा अकंपनने जयकुमारसे 'तथास्तु' कहा सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् मनुष्य दीपिकाके समान स्नेह (तेल अथवा प्रेम) का अनुवर्तन करनेवाली बुद्धिको नहीं प्राप्त होते हैं। भावार्थ-बुद्धिमान् मनुष्य स्नेहके पीछे बद्धिको नहीं छोड़ते हैं ॥१००। यद्यपि महाराज अकंपन, सलोचनाको देकर पहले ही जयकुमारको सब कुछ दे चुके थे तथापि लौकिक व्यवहार पालन करने के लिये अपने प्रेमके अनुसार खजाना आदि सब कुछ देकर उन्होंने किसी शुभ दिनमें वधू-वरको बिदा किया। सब मनुष्योंमें श्रेष्ठ महाराज अकंपन अपनी पत्नी सहित कुछ दूरतक तो स्वयं उन दोनोंके साथ साथ गये फिर जिस किसी तरह छोड़कर शोक करते हुए वहांसे वापिस लौट आये सो ठीक ही है क्योंकि संतानका वियोग बड़े दुःखसे सहा जाता है ॥१०१-१०३॥ जयकुमार भी सुलोचना सहित विजया नामके हाथीपर सवार होकर अन्य अन्य हाथियोंपर बैठे हुए विजय आदि अपने सब छोटे भाइयों तथा लघु सहोदरोंसे युक्त हेमाङ्गदकुमारके साथ बड़े उत्सवसे मार्गमें कहने योग्य हंसी विनोदकी मनोहर कथाएं कहता हआ और पथिवीको हिलाता हआ नक्षत्रोंसे घिरे हए चन्द्रमाकी तरह गंगाके किनारे धीरे धीरे इस प्रकार चला जिस प्रकार कि पहले दिग्विजयके समय सेनाके साथ साथ चला था ॥१०४-१०६।। शास्त्रोंके जाननेवाले और सबपर शासन करनेवाले जयकुमारने उस समय गंगाके किनारे यथायोग्य स्थानपर घासवाली जमीन देखकर सेनाके डेरे कराये ।।१०७।। देदीप्यमान कपड़ोंके करोड़ों तम्बुओंके समीप ही जिसमें आने जानेका मार्ग १ अस्मदीयाः बन्धुमित्रादयः । २ द्रष्टुमिच्छवः । ३ श्वसुरम् । ४ सम्प्राप्य । ५ गमनप्रयोजनम् । ६ ज्ञापयति स्म । ७ अकम्पनः । ८ विजये इति ध्वनिः। ६ कार्यक्रमम् । १० न गच्छति किम् । ११ शोभना धीर्यस्य सः। १२ ददाति स्म। १३ स्वस्य प्रीतिमेकामेव स्वीकृत्य । १४ स्त्रीसहितः । १५ अकम्पनः । १६ व्याधुटितवान् । १७ पुत्रवियोगः । १८ विजयार्द्धगजम् । १६ पथि हिताः । २० गङगामनु । २१ पूर्वदिग्विजये यथा । २२ शिबिरम्। २३ गंगातीरे। २४ जयकुमारः । २५ शुम्भद्वस्त्रकुटीसमूहासन्नविस्तृतनिर्गमः । २६ रराज। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशचमं पर्व ४३५ तत् (तं ) प्राप्य सिन्धुरं रुध्वा स राजद्वारि राजकम्' । विसर्ज्योच्चैः प्रविश्यान्तः प्रवतीर्य 'निषाद्य तम् राजा सुलोचनां चावरोप्य स्वभुजलम्बिनीम् । निविश्य स्वोचिते स्थाने मृदुशय्यातले सुखम् ॥ ११०॥ तत्कालोचितवृत्तज्ञः प्रियां सन्तर्पयन् प्रियैः । स्नानभोजनवाग्वाद्यगीतनृत्यविनोदनः ॥ १११ ॥ नीत्वा रात्रि सुखं तत्र "प्रत्याय्य प्रत्ययं" स्थितेः । तां निवेश्य समाश्वास्य हेमाङ्गदपुरस्सरान् ॥ ११२ ॥ नियोज्य स्वानुजान् सर्वान् सम्यक्कटकरक्षणे । प्राप्तः कतिपयैरेव ' प्रत्ययोध्यमियाय सः ॥ ११३ ॥ अर्कीदिभिः प्रष्ठैः प्रत्यागत्य प्रतीक्षितः । सस्नेहं सावरं भूयः कुमारेणालपन् पुरीम् ॥ ११४ ॥ सानुरागान् स्वयं रागात् प्राविशद्वा विशाम्पतिः । न पूजयन्ति के वाऽन्ये पुरुषं राजपूजितम् ॥११५॥ इन्द्रो वेभाव बहिर्द्वाराज्जिनस्योत्तीर्य भूपतेः । " सभागेहं समासाद्य मणिकुट्टिमभूतलम् ॥ ११६ ॥ मध्ये तस्य स्फुरद्रत्नखचितस्तम्भसम्भूते । विचित्रनेत्र विन्यस्तसद्वितानविराजिते ॥११७॥ मणिमुक्ताफलप्रो" तलम्बलम्बूषभूषणे" । परार्ध्यरत्नभाजालजटिले मणिमण्डपे" ॥११८॥ विधुं ज्योतिर्गणेनेव राजकेन विराजितम् । स्वकीर्ति निर्मलैर्वीज्यमानं "चभर जन्मभिः ॥ ११६ ॥ बनाया गया है ऐसा वह सेनाका आवास ( पड़ाव ) इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानो स्वर्गका दूसरा आवास ही हो || १०८ || जयकुमारने अपने डेरेके पास जाकर उसके बड़े दरवाजेके समीप ही अपना हाथी रोका, वहीं सब राजाओंको विदा किया फिर ऊंचे तम्बूके भीतर प्रवेश कर हाथी को बैठाया - स्वयं उतरे, अपनी भुजाओं का सहारा लेनेवाली सुलोचनाको भी उतारा और अपने योग्य स्थान में कोमल शय्यातलपर सुखसे विराजमान हुए। फिर उस समयके योग्य समाचारोंको जाननेवाले जयकुमारने स्नान, भोजन, वार्तालाप, बाजे, गीत, नृत्य आदि मनोहर विनोदों से सुलोचनाको संतुष्ट किया, रात्रि वहीं सुखसे बिताई, वहां ठहरनेका कारण बतलाया, उसे समझा बुझाकर वहीं पर रक्खा, हेमांगद आदि सुलोचनाके भाइयोंको भी वह रक्खा, अपने सब छोटे भाइयोंको अच्छी तरह सेनाकी रक्षा करनेसें नियुक्त किया और फिर कुछ आप्त पुरुषों के साथ अयोध्याकी ओर गमन किया ।। १०९-११३॥ अयोध्या पहुंचने पर अकीर्ति आदि अच्छे अच्छे पुरुषोंने सामने आकर जिसका स्वागत किया है, तथा जो बड़े स्नेह और आदर के साथ अर्ककीर्ति से वार्तालाप कर रहा है ऐसे राजा जयकुमारने अनुराग करनेवालोंके साथ साथ बड़े प्रेमसे अयोध्यापुरी में प्रवेश किया सो ठीक ही है क्योंकि अन्य ऐसे पुरुष कौन हैं जो राजमान्य पुरुषकी पूजा न करें ।। ११४- ११५ ॥ जिस प्रकार इन्द्र समवसरणके बाह्य दरवाजेपर पहुंचकर हाथीसे उतरता है उसी प्रकार जयकुमार भी राजभवनके बाह्य दरवाजेपर पहुंचकर हाथी से उतरा और सभागृहमें पहुंचा । उस सभागृहकी जमीन मणियों जड़ी हुई थी. उसके मध्यमें एक रत्नमण्डप था जो कि देदीप्यमान रत्नोंसे जड़े हुए खंभोंसे भरा हुआ था, अनेक प्रकारके रेशमी वस्त्रोंके तने हुए चंदेवोंसे सुशोभित था, मणियों और मोतियों से गुथे हुए लम्बे लम्बे फन्नूस रूप आभूषणोंसे युक्त था, और बहुमूल्य रत्नोंकी कान्तिके जालसे व्याप्त था। जिस प्रकार उदयाचलपर सूर्य सुशोभित होता है उसी प्रकार उस रन्नमण्डपमें ऊंचे सिंहासनपर बैठे हुए महाराज भरत सुशोभित हो रहे थे। जिस प्रकार ज्योतिषी देवों के समूहसे चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी प्रकार महाराज भरत भी अनेक राजाओं से सुशोभित हो रहे थे, उनपर अपनी कीर्तिके समान निर्मल चमर ढुलाये जा रहे थे, इन्द्रके १ राजसमूहम् । २ उपविश्य । ३ तं गजम् । ४ प्रतिबोध्य । ५ कारणम् । ६ अयोध्यां प्रति । ७ मुख्यैः । पूजितः । ६ चक्रवर्तीव । १० समवसरणमिव भूपतेः सभागृहमिति सम्बन्धः | ११ सभागृहस्य । १२ पटवस्त्रकृत । १३ खचित । १४ दाम । १५ रत्नमण्डपे ल० । १६ चामरैः । ८ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् वेष्टितं वेन्द्रधनुषा नानाभरणरोचिषा । रोचिषेव कृताकारं पूज्यं पुण्यैश्चतुविधैः ॥ १२० ॥ तुङगसिंहासनासीनं भास्वन्तं वोदयाद्रिगम् । राजराजं समालोक्य बहुशो भक्तिनिर्भरः ॥१२१॥ स वा प्रणम्य तीर्थेशं स्पृष्ट्वाऽष्टाङ्गंर्धरातलम् । करं प्रसार्य सम्भाव्य 'राज्ञैवासन्नमासनम् ॥१२२॥ निजहस्तेन निर्दिष्टं दृष्ट्चालङ्कृत्य तुष्टवान् । व्यभासिष्ट" सभामध्ये स तदान्येन' तेजसा ॥ १२३॥ प्रसन्नवदनेन्द्रद्यदाह्लादिवचनांशुभिः । वधूः किमिति नानीता तां द्रष्टुं वयमुत्सुकाः ॥ १२४॥ वयं किमिति 'नाहूतास्तद्विवाहोत्सवे नवें । प्रकम्पनैरिदं युक्तं सनाभिभ्यो बहिष्कृताः ॥१२५॥ "हं त्वत्पितृस्थाने मां पुरस्कृत्य कन्यका । त्वयाऽसौ परिणतव्या त्वं तद्विस्मृतवानसि ॥ १२६ ॥ इत्यकृत्रिम सामोक्त्या तर्पितश्चक्रवर्तिना । तदा विभावयन् भक्ति स्ववक्त्रं मणिकुट्टिमे ॥१२७॥ नत्वाऽपश्यत्प्रसादीव प्रतिगृह्य प्रभोदयाम् । जयः प्राञ्जलिरुत्थाय राजराजं व्यजिज्ञपत् ॥१२८॥ काशीदेशेशिना देव देवस्याज्ञाविधायिनाम् । विवाहविधिभेदेषु प्रागप्यस्ति स्वयंवरः ॥ १२६॥ इति सर्वे: समालोच्य सचिवैः शास्त्रवेदिभिः । कल्याणं तत्समारब्धं देवेन कृतमन्यथा ॥ १३० ॥ शान्तं तत्वत्प्रसादेन मन्मूलोच्छेदकारणम् । रणं शरणमायात इत्येष भवतः क्रमौ ॥१३१॥ सुरखेचरभूपालास्त्वत्पदाम्भोरुहालिनः । चक्रेणाक्रान्तदिक्चक्र किङकरास्तत्र कोऽस्म्यहम् ॥१३२॥ धनुष समान अनेक प्रकारके आभरणोंकी कान्तिसे वेष्टित थे अतएव ऐसे जान पड़ते थे मानो कान्तिसे ही उनका शरीर बनाया गया हो, और चारों प्रकारके (शुभायु, शुभनाम, शुभगोत्र और सातावेदनीय) पुण्योंसे पूज्य थे । इस प्रकार राजराजेश्वर महाराज भरतको देखकर भक्ति से भरे हुए जयकुमारने तीर्थ करकी तरह आठों अंगों से जमीनको छूकर अनेक बार प्रणाम किया । महाराज भरतने भी हाथ फैलाकर उसका सन्मान किया तथा अपने हाथसे बतलाये हुए अपने निकटवर्ती आसनपर बैठाकर प्रसन्न दृष्टिसे अलंकृत किया । इस प्रकार संतुष्ट हुआ जयकुमार सभा के बीच एक विलक्षण तेजसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था । ।।११६-१२३।। तदनन्तर महाराज भरत अपने प्रसन्न मुखरूपी चन्द्रमासे निकलते हुए और सबको आनन्दित करनेवाले वचनरूपी किरणोंसे सबको प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहने लगे कि क्यों जयकुमार, तुम बहूको क्यों नहीं लाये ? हम तो उसे देखनेके लिये बड़े उत्सुक थे, इस नवीन विवाहके उत्सवमें तुमने हम लोगोंको क्यों नहीं बुलाया ? महाराज अकंपनने अपने भाई-बन्धुओं से हमको अलग कर दिया क्या यह ठीक किया ? अरे, मैं तो तुम्हारे पिताके तुल्य था तुम्हें मुझे आगे कर सुलोचनाके साथ विवाह करना चाहिये था, परन्तु तुम यह सब भूल गये इस प्रकार चक्रवर्तीके द्वारा स्वाभाविक शान्त वचनोंसे संतुष्ट किया हुआ जयकुमार उस समय अपनी भक्तिको प्रकट करता हुआ नमस्कार कर अपराधी के समान अपना मुँह मणियोंसे जड़ी हुई जमीनमें देखने लगा। फिर महाराज भरतसे दया प्राप्तकर हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और राजाधिराज चक्रवर्तीसे इस प्रकार निवेदन करने लगा ।।१२४ - १२८॥ हे देव, आपके आज्ञाकारी काशीनरेशने विवाहविधिके सब भेदों में एक स्वयंवरकी विधि भी पहलेसे चली आ रही है इस प्रकार शास्त्रोंको जाननेवाले सब मंत्रियोंके साथ सलाह कर यह उत्सव प्रारम्भ किया था परन्तु दैवने उसे उलटा कर दिया ।। १२९ - १३० ।। मेरा मूलसहित नाश करनेवाला वह युद्ध शान्त हो गया इसलिये ही यह सेवक आपके चरणोंमें आया है ।। १३१ || हे चक्र के द्वारा समस्त दिशाओंपर आक्रमण करनेवाले महाराज, अनेक देव, विद्याधर और राजा आपके चरणकमलोंके भ्रमर होकर सेवक बन रहे हैं फिर भला मैं उन ४३६ १ शुभायुर्नामगोत्रसद्वेद्यलक्षणैः । २ चत्रिणा । ३ दिष्ट्या ट० । प्रीत्या । ४ राजते स्म । ५ नूतनेन । ६ अनाह्वानिताः । ७ बन्धुभ्यः । ६ प्रसादवान् । प्रमादीव ल० । C अहो । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व 'देवेनानन्यसामान्यमाननां मम कुर्वता । ऋणीकृतः क्व "वाऽऽनुष्यं भवान्तरशतेष्वपि ॥ १३३ ॥ नाथेन्दुवंश संरोही' पुरुणा विहितौ त्वया । वद्धितौ पालितौ स्थापितौ च यावद्धरातलम् ॥१३४॥ इति प्रश्रयणीं वाणीं श्रुत्वा तस्य निधीश्वरः । तुष्ट्या सम्पूज्य पूजाविद्वस्त्राभरणवाहनैः ॥१३५॥ दत्वा सुलोचनाय च तद्योग्यं विससर्ज तम् । महीं प्रियामिवालिङ्ग्ग्य तं प्रणम्य ययौ जयः ॥ १३६ ॥ सम्पत्सम्पन्न पुण्यानाम् अनुबध्नाति सम्पदम् । पौरवनी 'पकानीकैः स्तूयमानस्वसाहसः ॥ १३७॥ पुराद् गजं समारुह्य निष्क्रम्येप्सु मनः प्रियाम् । सद्यो गङगां समासन्नः स्वमनोवेगचोदितः ॥ १३८ ॥ शुष्कभूरुहशाखाग्रे सम्मुखीभूय भास्वतः " । हवन्तं "ध्वाजक्षमालोक्य कान्तायाश्चिन्तयन्भयम् ॥ १३६ ॥ मूच्छितः प्रेमसद्भावात् तादृशो धिक् सुखं रतेः । समाश्वास्य तदोपायैः सुखमास्ते सुलोचना ॥ १४० ॥ जलाद् भयं भवेत् किञ्चिद् अस्माकं शकुनादितः । इत्युदीर्येङ गितज्ञेन शकुनज्ञेन सान्त्वितः ॥ १४१ ॥ सुरदेवस्य " तद्वाक्यं कृत्वा प्राणावलम्बनम् । व्रजन् स सत्वरं मोहाद् "प्रतीर्थेऽचोदयद् गजम् ॥ १४२ ॥ पोयविवेकः कः कामिनां मुग्धचेतसाम् । उत्पुष्कर स्फुरद्दन्तं प्रोद्यत्तत्प्रतिमानकम् ॥ १४३ ॥ सबमें कौन ? - मेरी गिनती ही क्या है ? ।। १३२ ।। हे देव, जो दूसरे साधारण पुरुषौंको न प्राप्त हो सके ऐसा मेरा सन्मान करते हुए आपने मुझे ऋणी बना लिया है सो क्या सैकड़ों भवों में भी कभी इस ऋण से छूट सकता हूं ? ॥१३३॥ हे स्वामिन्, ये नाथवंश और चन्द्र वंशरूपी अंकुर भगवान् आदिनाथके द्वारा उत्पन्न किये गये थे और आपके द्वारा वर्धित तथा पालित होकर जबतक पृथिवी है तबतक के लिये स्थिर कर दिये गये हैं ।। १३४ ।। आदर सत्कार को जाननेवाले महाराज भरत इस प्रकार विनयसे भरी हुई जयकुमारकी वाणी सुनकर बहुत ही संतुष्ट हुए, उन्होंने वस्त्र, आभूषण तथा सवारी आदिके द्वारा जयकुमारका सत्कार किया. तथा सुलोचनाके लिये भी उसके योग्य वस्त्र, आभूषण आदि देकर उसे विदा किया । जयकुमारने भी प्रिया के समान पृथिवीका आलिंगनकर महाराज भरतको प्रणाम किया और फिर वहां से चल दिया । इसलिये कहना पड़ता है कि पुण्य सम्पादन करनेवाले पुरुषोंकी संपदाएं सम्पदाओं को बढ़ाती हैं । इस प्रकार नगरनिवासी लोग और याचकों के 'समूह जिसके साहस की प्रशंसा कर रहे हैं ऐसा वह जयकुमार हाथी पर सवार होकर नगरसे बाहर निकला और अपनी हृदयवल्लभाको प्राप्त करनेकी इच्छा करता हुआ अपने मनके वेगसे प्रेरित हो शीघ्र ही गंगाके किनारे आ गया ।। १३५ -१३८ ।। वहांवर सूखे वृक्षकी डालीके अग्रभागपर सूर्य की ओर मुँह कर रोते हुए कौए को देखकर वह कुमार प्रियाके भयकी आशंका करता हुआ वैसा शूरवीर होनेपर भी प्रेम के वश मूच्छित हो गया । आचार्य कहते हैं कि ऐसे रागसे उत्पन्न हुए सुखको भी धिक्कार | चेष्टासे हृदयकी बातको समझनेवाले और शकुनको जाननेवाले पुरोहितने उसी समय अनेक उपायों से सचेतकर आश्वासन दिया और कहा कि सुलोचना तो अच्छी तरह है । इस शकुनसे यही सूचित होता है कि हम लोगों को जलसे कुछ भय होगा इस प्रकार कहकर पुरोहितने जयकुमारको शान्त किया ।। १३९ - १४१ ।। उस पुरोहितके वचनोंको प्राणोंका सहारा मानकर वह जयकुमार शीघ्र ही आगे चला और भूलसे उसने अघाटमें ही हाथी चला दिया सो ठीक ही है, क्योंकि विचारहीन कामी पुरुषोंको हेय उपादेयका ज्ञान कहां होता है ? १ अकम्पनेन । ऋणेन तद्वान् कृतः । ३ कस्मिन् भवान्तरे । ४ वा अवधारणे । आनृण्यम् अनृणत्वम् । ५ जन्मनी । ६ चक्रिणम् । ७ जनयति । ८ याचक । ९ प्राप्तुमिच्छुः । १० रवेः । ११ ध्वनन्तम् । १२ वायसम् । 'काके तु करटारिष्टबलिपुष्टसकृत्प्रजाः । ध्वाङ्क्षात्मघोषपरभृद्बलिभुग्वायसा अपि ।' इत्यभिधानात् । १३ सामवचनं नीतः । १४ शाकुनिकस्य । १५ अजलोत्तारप्रदेशे । 'तीर्थं प्रवचने पात्रे लब्धाम्नाये विदां परे । पुण्यारण्ये जलोत्तारे महानद्यां महामुनौ ।' १६ उपादेय । १७ प्रोद्गतकुम्भस्थलस्याधोभागप्रदेशकम् । 'अधः कुम्भस्य वाहीत्थं प्रतिमानमधोऽस्य यत् । ' इत्यभिधानम् । ४३७ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ महापुराणम् तरन्त' एकराकारं मध्येहदमिभाधिपम् । देवी कालीति पूर्वोक्ता सरय्वाः' सागमे ऽग्रहीत् ॥१४४॥ नक्राकृत्या स्वदेशस्थः क्षुद्रोऽपि महतां बली। दृष्ट्वा गजं निमज्जन्तं प्रत्यागत्य तट स्थिताः॥१४५॥. ससंभ्रमं सहापेतुः ह्रदं हेमाङगदादयः । सुलोचनाऽपि तान्वीक्ष्य कृतपञ्चनमस्कृतिः ॥१४६॥ मन्त्रमूर्तीन समाधाय हृदय भक्तितोऽर्हतः। उपसर्गापसर्गान्तं त्यक्ताहारशरीरिका ॥१४७॥ प्राविशद् बहुभिः सार्व गङगां गडगेव देवता । गङगापातप्रतिष्ठानगङगाकुटाधिदेवता ॥१४८॥ विबुध्यासनकम्पेन कृतज्ञाऽऽगत्य सत्वरम् । एतदानयत्तटं सर्वान् सन्तयं खलकालिकाम् ॥१४६।। स्वयमागत्य केनात्र रक्षन्ति कृतपुण्यकान् । गङगातटे विकृत्याशु भवनं सर्वसम्पदा ॥१५०॥ मणिपीठे समास्थाप्य पूजयित्वा सुलोचनाम् । तव दत्तनमस्काराज्जज्ञे" गङगाधिदेवता ॥१५॥ त्वत्प्रसादादिदं सर्वम् "अवरुद्धामरेशिनः । तयेत्युक्ते जयोऽप्येतत् किमित्याह सुलोचनाम् ॥१५२॥ उपविन्ध्याद्रि" विख्यातो विन्ध्यपुर्यामभूद विभः। विन्ध्यकेतुःप्रिया तस्य प्रियङमुश्रीस्तयोः सुता ॥१५३॥ वह हाथी पानीमें चलने लगा, उस समय उसकी संडका अग्रभाग ऊंचा उठा हुआ था, दांत चमक रहे थे, गंडस्थल पानीके ऊपर था और आकार मगरके समान जान पड़ता था, इस प्रकार तैरता हुआ हाथी एक गढ़ेके बीच जा पहुंचा । उसी समय दूसरे सर्पके साथ समागम करते समय जिस सर्पिणीको पहले जयकुमारके सेवकोंने मारा था और जो मरकर काली देवी हुई थी उसने मगरका रूप धरकर जहां सरय गंगा नदीसे मिलती है उस हाथीको पकड़ लिया सो ठीक ही है क्योंकि अपने देशमें रहनेवाला क्षुद्र भी बड़ों बड़ोंसे बलवान् हो जाता है। हाथी को डूबता हुआ देखकर कितने ही लोग लौटकर किनारेपर खड़े हो गये परन्तु हेमाङ्गद आदि घबड़ाकर उसी गढे में एक साथ घुसने लगे। सलोचनाने भी उन सबको गढ़ेमें घुसते देख पंच नमस्कार मंत्रका स्मरण किया, उसने मन्त्रकी मूर्तिस्वरूप अर्हन्त भगवान्को बड़ी भक्तिसे अपने हृदयमें धारण किया और उपसर्गकी समाप्ति तक आहार तथा शरीरका त्याग कर दिया ॥१४२-१४७॥ सुलोचना भी अनेक सखियोंके साथ गंगामें घुस रही थी और उस समय ऐसी जान पड़ती थी मानो गङ्गादेवी ही अनेक सखियोंके साथ गंगा नदीमें प्रवेश कर रही हो। इतने में ही गंगाप्रपात कुण्डके गंगाकूटपर रहनेवाली गंगादेवीने आसन कंपायमान होनेसे सब समाचार जान लिया और किये हुए उपकारको माननेवाली वह देवी बहुत शीघ्र आकर दुष्ट कालिका देवीको डाँटकर उन सबको किनारेपर ले आई ॥१४८-१४९॥ सो ठीक ही है क्योंकि इस संसारमें ऐसे कौन हैं जो पुण्य करनेवालोंकी स्वयं आकर रक्षा न करें। तदनन्तर उस देवीने गंगा नदी के किनारेपर बहुत शीघ्र अपनी विक्रिया द्वारा सब सम्पदाओंसे सुशोभित एक भवन बनाया, उसमें मणिमय सिंहासनपर सुलोचनाको बैठाकर उसकी पूजा की और कहा कि तुम्हारे दिये हुए नमस्कार मंत्रसे ही मैं गंगाकी अधिष्ठात्री देवी हुई हं, और सौधर्मेन्द्रकी नियोगिनी भी हूं, यह सब तेरे ही प्रसादसे हुआ है। गंगादेवीके इतना कह चुकनेपर जयकुमारने भी सुलोचनासे पूछा कि यह क्या बात है ? ॥१५०-१५२॥ सुलोचना कहने लगी कि विन्ध्याचल पर्वतके समी। विन्ध्यपुरी नामकी नगरी में विन्ध्यकेतु नामका एक प्रसिद्ध १ तरतीति तरन् तम् । २ हृदस्य मध्ये। ३ पूर्वस्मिन् भवे जयेन सह वने धर्म श्रुतवत्या नाग्या सह स्थितविजातीयसहचरी। ४ सरयूनद्याः । ५ गङ्गाप्रदेशस्थाने। ६ कुम्भीराकारेण । 'नत्रस्तु कुम्भीरः.' इत्यभिधानात् । ७ अभिमुखमागत्य। ८ ह्ररे प्रविष्टवन्तः। ६ उपसर्गावसानपर्यन्तम् । १० गङगापतनकुण्डस्थान । ११ ताना-ल०, इ०, अ०, स०, प० । १२ निर्माय । १३ त्वया वितीर्णपञ्चनमस्कारपदात् । १४ अभूवम् । १५ विलासिनी (नियोगिनीति यावत्)। १६ गङगादेव्या । १७ जयकुमारोऽप्येतत् किमिति पुष्टवान् । १८ विन्ध्याचलसमीपे । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व विन्ध्यश्रीस्तां पिता तस्याः शिक्षितुं सकलान् गुणान् । मया सह मयि स्नेहान्महीशस्य समर्पयत् ॥१५४॥ वसन्ततिलकोद्याने क्रीडन्ती सकदा दिवा। दष्टा तत्र मया दत्तनमस्कारपदान्यलम् ॥१५॥ भावयन्तो मृतात्रेयं भूत्वायात् स्नेहिनी मयि । इत्यब्रवीदसौ सोऽपि ज्ञात्वा सन्तुष्टचेतसा ॥१५६॥ तत्कालोचितसामोक्त्या गडगादेवी विसर्य ताम् । सबलाक प्रकुर्वन्तं स्वं चलत्केतुमालया ॥१५७॥ स्वावासं सम्प्रविश्योच्चैः सप्रियः सहबन्धुभिः । सस्नेहं राजराजोक्तम् उक्त्वा तत्प्रहितं' स्वयम् ॥१५८॥ पृथक्पृथक् 'प्रदायातिनु दमासाद्य वल्लभाम् । नीत्वा एतत्रैव तां रात्रि प्रातरुत्थाय भानु वत् ॥१५॥ विधातुमा रक्तानां भुक्तिमुद्योतिताखिलः । अनुगडगं प्रयान प्रेम्णा कामिन्याः कुरुवल्लभः ॥१६॥ कमनीयरतिप्रीतिम् पालाप रतनोत्तराम् । जाहनवी दर्शितावर्तनाभिः कूलनितम्बिका ॥१६१॥ "चटुलोज्ज्वलपाठीनलोचना रमणोन्मुखी । तरङगबाहुभिर्गाढमालिङ्गनसमुत्सुका ॥१६२॥ स्वभावसुभगा दृष्टहृदया स्वच्छतागुणात् । तटद्वयवनोत्फुल्लसुमनोमालभारिणी ॥१६३॥ "प्रतिवद्धरसा वेगं सन्धर्तुमसहा द्रुतम् । पश्य कान्ते प्रियं याति स्वानुरूपं पयोनिधिम् ॥१६४॥ रतेः कामाद् विना नेच्छा न नीचेवृत्तमस्पहा । सङगमे रतन्मयी जाता प्रेम नामेदशं मतम् ॥ साफल्यमेतयार नित्यम् एति लावण्यमम्बुधेः ॥१६॥ राजा रहता था। उसकी स्त्रीका नाम प्रियङगुश्री था। उन दोनोंके विन्ध्यश्री नामकी पुत्री थी। उसके पिताने मुझपर प्रेम होनेसे मेरे साथ सब गुण सीखने के लिये उसे महाराज अकंपनको सौंप दिया ॥१५३-१५४॥ वह विन्ध्यश्री किसी एक दिन उपवनमें क्रीड़ा कर रही थी, वहींपर उसे किसी सांपने काट लिया जिससे मेरे द्वारा दिये हुए पंच नमस्कार मन्त्रका चिन्तवन करती हुई मरकर यह देवी हुई है और मुझपर स्नेह होनेके कारण यहां आई है यह जानकर जयकुमारने संतुष्टचित्त हो शान्तिमय वचन कहकर गंगादेवीको विदा किया। तदनन्तर अपनी प्रिया सुलोचना और इष्ट-बन्धुओंके साथ साथ, फहराती हुई पताकाओंके द्वारा अपने आपको बगुलाओंसे सहित करते हुएके समान जान पड़नेवाले अपने ऊंचे डेरेमें प्रवेश किया। बड़े स्नेहसे महाराज भरतके कहे वचन सबको सुनाये, उनकी दी हुई भेंट सबको अलग अलग दी। सुलोचनाको अत्यन्त प्रसन्न किया, वह रात्रि वहीं बिताई और सबेरा होते ही उठकर अपने में अनुराग रखनेवाले लोगोंके भोजनके लिये सूर्य के समान समस्त दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ वह कुरुवंशियोंका प्यारा जयकुमार सुलोचनाके प्रेमसे गंगा नदीके किनारे किनारे चलने लगा ॥१५५-१६०॥ वह जाते समय मनोहर वचनोंसे सुलोचनाको बहुत ही संतुष्ट करता जाता था। वह कहता था कि हे प्रिये, देखो यह गंगा नदी अपने अनुरूप समुद्ररूपी पतिके पास बडी शीघ्रतासे जा रही है, यह अपनी नाभिरूपी भौंर दिखला रही है, दोनों किनारे ही इसके नितम्ब है, चंचल और उज्वल मछलियां ही नेत्र हैं, यह कीड़ा अथवा पतिके लिये सन्मुख है, तरंगरूपी भुजाओंके द्वारा गाढ आलिंगनके लिये उत्कण्ठित सी जान पड़ती है,स्वभावसे सुन्दर है, अपने स्वच्छतारूपी गुणोंसे सबका हृदय हरनेवाली है, दोनों किनारोंपर वनके फूले हुए पुष्पोंकी माला धारण कर रही है, इसका रस अथवा पानी सब ओरसे बढ़ रहा है और अपना वेग नहीं संभाल सक रही है ॥१६१-१६४॥ सो ठीक ही है क्योंकि कामदेवके बिना रतिकी १ अकम्पनस्य। २ विन्ध्यश्रीः । ३ आगच्छति स्म। ४ सुलोचना। ५ विसकण्ठिकासहितम् । 'बलाका विसकण्ठिका' इत्यभिधानात् । ६ चक्रिणा प्रोक्तम् । ७ भणित्वा । ८ चक्रिप्रेषितम् । ६ दत्त्वा । १० प्रापय्य । ११ स्कन्धावारे। १२ कर्तुम। १३ असिमष्यादिव्यापारविभवजम् । १४ प्रकाशितसकललोक. । १५ जयः । १६ गङगा। 'गङगाविष्णुपदी जह्न तनया सुरनिम्नगा' इत्यभिधानात् । १७ चञ्चल । १८ समुद्रेण सह रतिक्रीडोन्मुखी। निजपतिसमुद्राभिमुखी वा। १६ अभिवृद्ध-ल० । २० जलस्यासमन्ताद् वेगम् । रागोद्रेकं च । २१ समुद्रस्वरूपा। २२ गङ्गया। षट्पादोऽयं श्लोकश्चिन्त्यः । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० महापुराणम् उत्पत्ति भूता पत्युर्धरण्यां वधिता सती । वाधिरेव पतिस्तस्माद् एषाऽभूत् पापनाशिनी ॥१६६॥ धवला धामिर्मान्या सतीनामुपमानताम् । गता कवीश्वरैः सर्वैः स्तूयते देवतेति च ॥१६७॥ गणिनश्चेन्न के 'नाधाः संस्तुवन्ति गणप्रियाः। 'इति गङगागतः श्रव्यः अन्यश्चातिमनोहरैः ॥१६॥ ततः कतिपयैरेव प्रयाणः करुजाङगलम् । प्राप्य तद्वर्णनाव्याजान्मोदयन काशिपात्मजाम् ॥१६॥ "प्राप्तजानपदानीतफलपुष्पादिभिश्च सः। विकसन्नीलनौरेजसरोजातिविराजितः ॥१७०॥ प्रत्येत्येव प्रपश्यन्ती सरोनेत्रर्वधूवरम् । 'सद्वप्रजघनाभोगां वापीकूपोरुनाभिकाम् ॥१७१॥ परीतजातरूपोच्चप्राकारकटिसूत्रिकाम् । अलङकृतमहावीथिविलसद्बाहुबल्लरोम् ॥१७२॥ सौधोत्तुङगकुचां भास्वद्गोपुराननशोभिनीम् । कुडकुमागुरुकर्पूरकर्दमाद्रितगात्रिकाम् ॥१७३॥ नानाप्रसवसन्दृब्धमालाधमिल्लधारिणीम् । तोरणाबद्धरत्नादिमालालकृतविग्रहाम् ॥१७४॥ पाहयन्तीमिवोधिः पतत्केत्वग्रहस्तकः । द्वारासंवृतिविश्रम्भनेत्रां० सवासान्तरुत्सुकाम् ॥१७॥ पुरोहितः पुरन्धोभिमन्त्रिभिर्वैश्यविश्रुतैः ।दत्तशेषः पुरः स्थित्वा साशीर्वादः समुत्सुः ॥१७६॥ इच्छा नहीं होती है, उत्तम पुरुषोंकी इच्छाएं नीच पदार्थोंपर नहीं होती हैं, यह नदी समद्रमें जाकर समुद्ररूप ही हो गई हैं सो ठीक ही है क्योंकि प्रेम ऐसा ही होता है, इसके समागमसे ही समुद्रका लावण्य (सौन्दर्य अथवा खारापन) सदा सफल होता है ॥१६५॥ इस गंगा नदीकी उत्पत्ति पर्वतोंके पति-हिमवान् पर्वतसे है, पृथिवीपर यह बढ़ी है और समुद्र ही इसका पति है इसलिये ही यह संसारमें पापोंका नाश करनेवाली हुई है ॥१६६॥ यह सफेद है, धर्मात्मा लोगोंके द्वारा मान्य है, सतियोंको इसकी उपमा दी जाती है और सब कवीश्वर यदि गुगीजनोंकी स्तुति न करें तो फिर कौन किसकी स्तुति करेगा ? इस प्रकार सुननेके योग्य गङ्गा सम्बन्धी तथा अन्य अत्यन्त मनोहर कथाओं द्वारा मार्ग तय किया। ॥१६७-१६८॥ तदनन्तर कुछ ही पड़ावों द्वारा कुरुजांगल देश पहुंचकर उसके वर्णनके बहानेसे सुलोचनाको आनन्दित करते हए जयकुमारने अपनी उस हस्तिनागपूरी नामकी राजधानीमें प्रवेश किया जो कि देशके प्रधान प्रधान पुरुषों द्वारा लाये हुए फल पुष्प आदिकी भेंट तथा खिले हुए नील कमल और सफेद कमलोंसे अत्यन्त सुशोभित सरोवररूपी नेत्रोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो आगे आकर वधू वरको देख ही रही हो। उत्तम धूलीसाल ही जिसका विस्तृत जघन प्रदेश था, बावड़ी और कुएं ही जिसकी विशाल नाभि थी, चारों ओर खड़ा हुआ सुवर्णका ऊंचा परकोटा ही जिसकी करधनी थी, सजी हुई बड़ी बड़ी गलियां ही जिसकी सुशोभित बाहुलताएं थीं, राजभवन ही जिसके ऊंचे कुच थे, देदीप्यमान गोपुररूपी मुखसे जो सुशोभित हो रही थी, केशर, अगुरु और कपूरके विलेपनसे जिसका शरीर गीला हो रहा था, जो अनेक प्रकारके फूलोंसे गुंथी हुई मालारूपी केशपाशको धारण कर रही थी, तोरणों में बांधी गई रत्न आदिकी मालाओंसे जिसका शरीर सुशोभित हो रहा था, जो ऊपर नीचे उड़ती हुई पताकाओंके अग्रभागरूपी हाथोंसे बुलाती हुई सी जान पड़ती थी, खुले हुए दरवाजे ही जिसके विश्वासपूर्ण नेत्र थे, जो घरघर होनेवाले उत्सवोंसे उत्कण्ठित सी जान पड़ती थी और इस प्रकार जो दूसरी सुलोचनाके समान सुशोभित हो रही थी। महाराजके दर्शन करने के लिये उत्कण्ठित हो आशीर्वाद देने १हिमवदगिरेः। २ प्रशस्ता। ३ गुणवज्जनान् । ४ अनन्धाः । कान्वा अ०, प०, इ०, स०, ल०। ५ इति गङ्गागतरित्यनेन सह कमनीयरतिप्रीतिमालापैरिति सम्बन्धः । ६ सुलोचनाम् । ७ सम्प्राप्तजनपदजनानीत। ८ अभिमुखमागत्य । ६ प्रशस्तधूलिकुट्टिमघनविस्ताराम् । १० कवाटपिधानरहितद्वारनयनामित्यर्थः । ११ गृहमध्ये सोत्सवाम । १२ कुटुम्बिनीभिः । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व ४४१ तूर्यमङगलनि?बैः पुरन्दर इवापरः । सुलोचनामिवान्यां स्वां प्रविश्य नगरों जयः ॥१७७॥ राजगेहं महानन्दविधायि विविधिभिः। पावसत् कान्तया सार्द्ध नगर्या हृदयं मुदा ॥१७॥ तिथ्यादिपञ्चभिः शुद्धः शुद्ध लग्ने महोत्सवम् । सर्वसन्तोषणं कृत्वा जिनपूजापुरःसरम् ॥१७॥ विश्वमङगलसम्पत्त्या स्वोचितासनसुस्थिताम् । हेमाङगदादिसान्निध्ये राजा जातमहोदयः ॥१८०॥ सुलोचनां महादेवीं पट्टबन्धं 'व्यवान्मुदा । स्त्रीषु सञ्चितपुण्यासु पत्युरेतावती रतिः ॥१८॥ हेमाङगवं 'ससोदर्यम् उपचर्य ससम्भमम् । पुरोभूय स्वयं सर्वैर्भाग्यः 'प्राघूर्णकोचितैः॥१८२॥ नत्यगीतसुखालापरणारोहणादिभिः । वनवापीसरःक्रीडाकन्दुकादिविनोदनैः॥१८३॥ 'महानि स्थापयित्वैवं सखेन कतिचित्कृती। तदीप्सितगजाश्यास्त्रगणिकाभूषणाविकम् ॥१८४॥ प्रदाय परिवारं च तोषयित्वा यथोचितम् । चतुविधेन कोशेन "तत्पुरों 'तमजोगमत्३ ॥१८॥ सुखप्रमाणः सम्प्राप्य दृष्ट्वा भूपं ससुप्रभम् । प्रणम्यालादयन्नस्थात् स वधूवरवार्तया ॥१८६॥ सुखं काले गलत्येवम् अकम्पनमहीपतिः। तदा संचिन्तयामास विरक्तः कामभोगयोः॥१८७॥ अहो मया प्रमत्तेन विषयान्धेन नेक्षिता । कष्टं शरीरसंसारभोगनिस्सारता चिरम् ॥१८८॥ वाले पुरोहित, सौभाग्यवती स्त्रियां, मंत्री और प्रसिद्ध प्रसिद्ध सेठ लोग सामने खड़े होकर जिसे शेषाक्षत दे रहे हैं ऐसे उस जयकुमारने तुरही आदि माङ्गलिक बाजोंके शब्दोंके साथ साथ दूसरे इन्द्र के समान अपनी उस हस्तिनागपुरीमें प्रवेश कर अनेक प्रकारकी विभूतियोंसे बहुत भारी आनन्द देनेवाले तथा उस नगरीके हृदयके समान अपने राजभवन में प्रिया सुलोचनाके साथ साथ बड़े आनन्दसे निवास किया ॥१७०-१७८।।। तदनन्तर बड़े भारी अभ्युदयको धारण करनेवाले महाराज जयकुमारने शुद्ध तिथि, शुद्ध नक्षत्र आदि पांचों बातोंसे निर्दोष लग्नमें बड़ा भारी उत्सव कराकर सबको संतुष्ट किया और फिर जिनपूजापूर्वक सब मंगल-संपदाओंके साथ साथ हेमांगद आदि भाइयोंके सामने पोग्य आसनपर बैठी हई सलोचनाको बडे हर्षसे पदबन्ध बांधा अर्थात पदरानी बनाया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यसंचय करनेवाली स्त्रियोंमें पतिका ऐसा ही प्रेम होता है ॥१७९१८१॥ उसके बाद कुशल जयकुमारने स्वयं आगे होकर पाहुनोंके योग्य सब प्रकारके भोगोपभोगोंसे, नृत्य, गीत और सुख देनेवाले वचनोंसे, हाथी आदिकी सवारीसे, वन, वापिका, तालाब आदिकी क्रीड़ाओंसे और गेंद आदिके खेलोंसे प्रसन्नतापूर्वक हेमाङ्गद और उनके भाइयोंकी सेवा की, कुछ दिन तक उन्हें बड़े सुखसे रक्खा और फिर उनको अच्छे लगनेवाले हाथी, घोड़े, अस्त्र, गणिका तथा आभूषण आदि देकर उनके परिवारके लोगोंको यथायोग्य संतुष्ट किया और फिर रत्न, सोना, चांदी तथा रुपये-पैसे आदि चारों प्रकारका खजाना साथ देकर उन्हें उनके नगर बनारसको विदा किया। ।१८२-१८५।। सखपूर्वक कितने ही पड़ाव चलकर वे हेमांगद आदि बनारस पहुंचे और माता सुप्रभाके साथ राजा अकंपनके दर्शन कर उन्हें प्रणाम किया और जयकुमार तथा सुलोचनाकी बातचीतसे माता-पिताको आनन्दित करते हुए रहने लगे ॥१८६॥ ___ इस प्रकार सुखपूर्वक बहुत सा समय व्यतीत होनेपर एक दिन महाराज अकंपन कामभोगोंसे विरक्त होकर इस प्रकार सोचने लगे ॥१८७॥ कि मुझ प्रमादीने विषयोंसे अन्धा १ निवसति स्म। २ नगरीजनचिते इत्यर्थः । ३ तिथिग्रहनक्षत्रयोगकरणः । तिथिनक्षत्रहोरावारमुहूर्तेर्वा । ४ महोत्सवे ल०। ५ चकार । ६ ससानुजम् । ७ अग्रे भूत्वा । पुरस्कृत्य वा । ८ अतिथि । ६ दिनानि । १० रत्नसुवर्णरजतव्यवहारयोग्यनाणकम् इति चतुर्विधेन । ११ वाराणसीम् । १२ हेमाङगदम् । १३ गमयति स्म। १४ अकम्पनम् । १५ सुप्रभादेवीसहितम् । ५६ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुच्यवभिपुन्धनैः ४४२ महापुराणम् प्रादावशुच्युपादानम् प्रशुच्यवयवात्मकम् । विश्वाशुचिकरं पापं दुःखदुश्चेष्टितालयम् ॥१६॥ निरन्तरश्रवोत्कोयनवद्वारशरीरकम् । कृमिपुञ्जचिताभस्मविष्ठानिष्टं विनश्वरम् ॥१०॥ "तवध्युष्य जडो जन्तुस्तन्तः पञ्चेन्द्रियाग्निभिः । विश्वेन्धनैः कुलिङगीव भूयोऽयात् कुत्सितां गतिम्॥ साऽऽशाखनिः किलात्रैव यत्र विश्वमणूपमम् । तां पुपूर्षुः१३ किलाद्याहं धनः सङख्यातिबन्धनः ॥ "यदादाय भवेज्जन्मी यम्मुक्त्वा मुक्तिभागयम् । तद्याथात्म्यमिति ज्ञात्वा कथं पुष्णाति धीधनः॥ हा हतोऽसि चिर जन्तो मोहेनाद्यापि ते यतः। नास्ति कायाशचिज्ञानं तस्यागः क्वाति दुर्लभः॥ दुःखी सुखी सुखी दुःखी दुःखी दु:ख्येव केवलम् । धन्यधन्योऽधनो धन्यो निर्धनो निर्धनः सदा ॥१६॥ एवंविधस्त्रिभिर्जन्तुः ईप्सितानीप्सितश्चिरम्। "चतुर्थ भंगमप्राप्य बम्भमीति भवार्णवे ॥१९६॥ "यां "वष्टययमसौ वष्टि परं वष्टि स चापराम् । साऽपि वष्टयपरं कष्टमनिष्टेष्टपरम्परा ॥१९७॥ होकर इतने दिन तक शरीर, संसार और भोगोंकी असारता नहीं देखी यह बड़े खेदकी बात है ॥१८८॥ प्रथम तो यह शरीर अपवित्र उपादानों (माता-पिताके रज वीर्य) से बना है, फिर इसके सब अवयव अपवित्र हैं, यह सबको अपवित्र करनेवाला है, पापरूप है और दुःख देनेवाली खोटी खोटी चेष्टाओंका घर है ॥१८९॥ इसके नौ द्वारोंसे सदा मल-मूत्र बहा करता है और अन्त में यह विनश्वर शरीर कीड़ोंका समूह, चिताकी राख तथा विष्ठा बनकर नष्ट हो जानेवाला है ॥१९०॥ ऐसे शरीरमें रहकर यह मूर्ख प्राणी, जिनमें संसारके सब पदार्थ ईधन रूप हैं ऐसी पांचों इन्द्रियोंकी अग्नियोंसे तपाया जाकर कुलिंगी जीवके समान फिरसे नीच गतियोंमें पहुंचता है ।।१९१।। जिसमें यह सारा संसार एक परमाणुके समान है ऐसा वह प्रसिद्ध आशारूपी गढ़ा इसी शरीरमें है, इसी आशारूपी गढ़ेको मैं आज थोड़ेसे धनसे पूरा करना चाहता हूं ॥१९२॥ जिस शरीरको लेकर यह जीव जन्म धारण करता है-संसारी बन जाता है और जिसे छोड़कर यह जीव मुक्त हो जाता है इस प्रकार शरीरकी वास्तविकता कर भी बद्धिमान लोग न जाने क्यों उसका भरण-पोषण करते हैं ॥१९३॥ हे जीव, खेद है कि तू मोहकर्मके द्वारा चिरकालसे ठगा गया है, क्योंकि तुझे आजतक भी अपने शरीरकी अपवित्रताका ज्ञान नहीं हो रहा है, जब यह बात है तब अत्यन्त दुर्लभ उसका त्याग भला कहाँ मिल सकता है ॥१९४॥ इस संसारमें जो दुःखी हैं वे सुखी हो जाते हैं, जो सुखी हैं वे दुखी हो जाते हैं और कितने ही दुखी दुखी ही बने रहते हैं इसी प्रकार धनी निर्धन हो जाते हैं, निर्धन धनी हो जाते हैं और कितने ही निर्धन सदा निर्धन ही बने रहते हैं। इस तरह यह जीव जो सुखी है वह सुवी ही रहे और जो धनी है वह धनी ही बना रहे यह चौथा भंग नहीं पाकर केवल ऊपर कहे हुए तीन तरहके भंगोंसे ही संसाररूपी समुद्र में चिरकाल तक भ्रमण करता रहता है । ॥१९५-१९६॥ यह पुरुष जिस स्त्रीको चाहता है वह स्त्री किसी दूसरे पुरुषको चाहती है, जिसको वह चाहती है वह भी किसी अन्य स्त्रीको चाहता है इस प्रकार यह इष्ट अनिष्टकी १ अशुचिशुक्रशोणितमुख्यकारणम् । २ पूतिगन्धित्वम् । ३ कृमीनां पुजः चितायां भस्म विष्ठा पूरीषो निष्ठायामन्ते यस्मिन् तत् । ४ तस्मिन् शरीरे। ५ स्थित्वा । ६ सकलविषयेन्धनः । ७ गच्छेत् । ८ अभिनिवेशाकरः । ६ जन्तावेव। १० आशाखनौ। ११ सकलवस्तु। १२ आशाखनिम् । १३ पूरयितुमिच्छः । १४ गणनाविशेषैः । १५ शरीरम् । १६ तच्छरीरस्य यथास्वरूपम् । १७ पुष्टिनयति । १८ वैराग्योत्पन्नकालेऽपि। १६ शरीरत्यागः । २० कुत्रास्ति । २१ धनवान् । २२ धनरहितः । २३ सुखी सुखीति धनी धनीति चतुर्थभेदम् । २४ स्त्रियम् । २५ वष्टि इच्छति । अयम् पुमान् । २६ अन्यपुरुषम् । २७ अनिष्टवाञ्छासन्ततिः । 'वष्टि योगेच्छयोः' इत्यभिधानात् । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चचत्वारिंशत्तम पर्व ४४३ यदिष्टं सदनिष्टं स्याद् यदनिष्टं तदिष्यते। इहेष्टानिष्टयोरिष्टा नियमेन न हि स्थितिः ॥१९८॥ . 'स सासा'तत्तदेवैवा'सा स स्यात् सोऽपि तत्पुनः। तत्स स्यात्तत्तदेवात्र चक्रके' वक्रसंक्रमः ॥१६॥ अन्तमस्य विधास्यामि चिन्तयित्वा जिनोदितम् । सन्ततं जन्मकान्तारभ्रान्तौ भीतोऽहमन्तकात् ॥२०॥ भोगोऽयं भोगिनो भोगो भोगिनो भोगिनामकृत् । रतावन्मात्रोऽपिनास्माकंभोगो भोगेष्विति ध्रुवम् ॥ भुज्यते "यः स भोगः स्याद् भुक्तिर्वा भोग" इष्यते। तद्वयं नरकेऽप्यस्ति तस्माद् भोगेषु का रतिः॥२०२॥ भोगास्तुष्णाग्निसंवृद्ध्यै "वीपनीयौषधोपमाः। एभिःप्रवृद्धतृष्णाग्नेः "शान्त्यै चिन्त्यमिहापरम् ॥२०३॥ इत्यतो न सुधीः सद्यो वान्ततृष्णाविषो भृशम् । हेमाङगदं समाहृय "पूज्यपूजापुरस्सरम् ॥२०४॥ अभिषिच्य चलां मत्वा बध्वा पट्टेन वाञ्चलम् । लक्ष्मी समर्थ गत्वोच्चः अभ्यासं वृषभेशितुः ॥२०५॥ प्रवज्य बहुभिः सार्द्ध मूर्धन्यैः स ससुप्रभः । क्रमाच्छणी समारुह्य कैवल्यमुदपादयत् ॥२०६॥ अथ जन्मान्तरापातमहास्नेहातिनिर्भरः। सुलोचनाननानन्दनेन्दुबिम्बात् सुतां३ सुधाम् ॥२०७॥ २५उन्मीलनीलनीरजराजिभिर्लोकनैः पिबन् । पूरयन् श्रोत्रपात्राभ्यां "तद्गी!तरसायनम् ॥२०॥ परंपरा बहुत ही दुःख देनेवाली है ।।१९७।। जो इष्ट है वह अनिष्ट हो जाता है और जो अनिष्ट है वह इष्ट हो जाता है, इस प्रकार संसारमें इष्ट अनिष्टकी स्थिति किसी एक स्थानपर नियमित नहीं रहती ? ॥१९८॥ आजका पुरुष अगले जन्ममें स्त्री हो जाता है, स्त्री नपुंसक हो जाती है, नपुंसक स्त्री हो जाता है, वही स्त्री फिर पुरुष हो जाता है, वह पुरुष भी नपुंसक हो जाता है, वह नपुंसक फिर पुरुष हो जाता है अथवा नपुंसक नपुसक ही बना रहता है, इस प्रकार इस चक्र बड़ा टेढ़ा संक्रमण करना पड़ता है ॥१९९।। इसलिये श्रीजिनेन्द्रदेवके कहे हुए वचनोंका चिन्तवन कर मैं अवश्य ही इस संसारका अन्त करूंगा क्योंकि निरन्तर संसाररूपी वनके भीतर परिभ्रमण करने में मैं अब यमराजसे डर गया हूं ॥२००॥ भोग करनेवाले मनुष्यों के ये भोग ठीक सर्पके फणाके समान हैं और भोगनेवाले जीवको भोगी नाम देनेवाले हैं। तथा इतना सब होनेपर भी उन भोगोंमेंसे एक भोग भी हमारा नहीं है यह निश्चय है ॥२०१॥ जिसका भोग किया जाता है उसे भोग कहते हैं अथवा उपभोग किया जाना भोग कहलाता है वे दोनों प्रकारके भोग नरक में भी हैं इसलिये उन भोगोंमें क्या प्रेम करना है ? ॥२०२।। जिस प्रकार औषधसे पेटकी अग्नि प्रदीप्त हो जाती है उसी प्रकार इन भोगोंसे भी तृष्णारूपी अग्नि प्रदीप्त हो उठती है अतः इन भोगोंसे बढ़ी हुई तृष्णारूपी अग्निकी शान्तिके लिये कोई दूसरा ही उपाय सोचना चाहिये ॥२०३।। इस प्रकार तृष्णारूपी विषको उगल देनेवाले बुद्धिमान राजा अकम्पनने बहत शीघ्र हेमाङ्गदको बलाकर पूज्य-परमेष्ठियोंकी पूजापूर्वक उसका राज्याभिषेक किया, लक्ष्मी को चंचल समझ पट्टबन्धसे बांधकर उसे अचल बनाया और हेमांगदको सौंपकर श्रीभगवान् वृषभदेवके समीप जाकर अनेक राजाओं और रानी सुप्रभाके साथ दीक्षा धारण की तथा अनुक्रमसे श्रेणियां चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न किया ॥२०४-२०६॥ अयानन्तर अन्य जन्मसे आये हुए बहुत भारी स्नेहसे भरा हुआ जयकुमार खुले हुए नीलकमलोंके समान सुशोभित होनेवाले अपने नेत्रोंसे सुलोचनाके मुखरूपी आनन्ददायी १ इष्टं भवति । २ स पुमान् । ३ सा स्त्री स्यात् । ४ तत् नपुंसकम् । ५ एषा स्त्री स्यात् । ६ तत् नपुंसकम् । ७ तदेव पुनपुंसकमेव स्यात् । ८ चक्रवदावर्तमानसंसारे । ६ संसारस्य । १० सर्पस्य । ११ भोगीति नामकृत् । भोगीति नामकरः । सर्पनामकृदित्यर्थः । १२ भोगीति नामकृन्मात्रोऽपि । १३ पदार्थः । १४ पदार्थानुभवनक्रिया । १५ दीपनहेतुः । १६ भोगैः । १७ उपशान्तिकारणम् । १८ परमेष्ठीपूजापूर्वकम् । १६ निश्चलं यथा भवति तथा। पट्टेन बद्ध्वा वा निबन्धनं कृत्वेव समर्थेति सम्बन्धः । २० क्षत्रियः । २१ सुप्रभादेवीसहितः । २२ आनन्दहेतुचन्द्र । २३ निसृताम् । २४ कान्तिम् । २५ विकसन्नीलोत्पलवद्विराजमानैः । २६ नेत्रैः । -र्लोचनैः तं० विहाय सर्वत्र । २७ सुलोचनावचनरूपगीतम् । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ महापुराणम् हरन करिकराकारकरालिङगनसङगतः । 'तगात्रपिकान्त:स्थं रसं "स्पनिवेविनम् ॥२०॥ तबिम्बाधरसम्भावितामृतास्वादनोत्सुकः। तद्वक्त्रावारिजामोदान्मोवमानोऽनिशं भृशम् ॥२१॥ 'अत्रव न पुनर्वेति मम वामासमागमः । “स सुलोचनया स्वानि चक्षुरादीन्यतर्पयत् ॥२११॥ 'प्रमाणकालभावेभ्यो यद्रतेः समता तयोः । ततः सम्भोगशृङगारावारापारान्तगौ हि तौ ॥२१२॥ १ प्रतिपरिणतरत्या लोपितालेपनादिः१ स सकलकरणानां गोचरीभूय तस्याः । हितपरविषयाणां सापि५ "तस्यैवमेतौ समरतिकृतसाराण्यन्वभूतां सुखानि ॥२१३॥ मनसि मनसिजस्यावापि सौख्यं न ताभ्यां पृथगनु गतभावः८ सङगताभ्यां नितान्तम् । करणमुखसुखेस्तैस्तन्मनः प्रीतिमापत् भवति परमुखं च क्वापि सौख्यं सुतृप्त्य ॥२१४॥ शिशिरसुरभिमन्दोच्छ्वासजः स्वः समीर समदुमबरवचोभिः स्वादनीयप्रदेशः। ललिततनुलताभ्यां मार्दवैकाकराभ्याम् अखिलमनयता तौ सौख्यमात्मेन्द्रियाणि ॥२१॥ चन्द्रमासे झरते हुए अमृतको पीता था, सुलोचनाके वचन और गीतरूपी रसायनको अपने कानरूपी पात्रोंसे भरता था, हाथी की सूंडके समान आकारवाले हाथोंके आलिंगनसे युक्त हो स्पर्शन इन्द्रियसे जानने योग्य उसके शरीररूपी कुइँयाके भीतर रहनेवाले रसको ग्रहण करता था, बिम्बी फलके समान सुशोभित उसके ओठों में रहनेवाले अमृतका आस्वाद लेने में सदा उत्सुक रहता था, उसके मुखरूपी कमलकी सुगन्धिसे रातदिन अत्यन्त हर्षित होता रहता था और 'स्त्री समागम मुझे इसी भवमें है अन्यभवमें नहीं है, ऐसा मानकर ही मानो सुलोचना के द्वारा अपनी चक्षु आदि इन्द्रियोंको संतुष्ट करता रहता था ।।२०७-२११।। चूंकि प्रमाण, काल और भावसे इन दोनोंके प्रेममें समानता थी इसलिये ही वे दोनों संभोग शृङ्गाररूपी समुद्र के अन्त तक पहुंच गये थे ॥२१२॥ खूब बढ़े हुए प्रेमसे जिसने विलेपन आदि छोड़ दिया है ऐसा वह जयकुमार सुलोचनाकी सब इन्द्रियोका विषय रहता था और सलोचना भी जयकुमारके हित करनेवाले विषयोंमें तत्पर रहती थी, इस प्रकार ये दोनों ही समान प्रीति करना ही जिनका सारभाग है ऐसे सुखोंका उपभोग करते थे ॥२१३॥ पृथक् पृथक् उत्पन्न हुए परिणामोंसे खूब मिले हुए उन दोनोंने अपने मनमें कामदेवका सुख नहीं पाया था किन्तु इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए उन उन सुखोंसे उनके मन प्रीतिको अवश्य प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि दूसरेके द्वारा उत्पन्न हुआ सुख क्या कहीं उत्तम तृप्तिके लिये हो सकता है ? ॥२१४।। अपने श्वासोच्छ्वाससे उत्पन्न हुए शीतल सुगन्धित और मन्द पवनसे, कोमल और मधुर वचनोंसे, स्वाद १ स्वीकुर्वन् । २ आलिङगने हृदयङगमः 'सङगतं हृदयङगमम्'. इत्यभिधानात् । ३ सुलोचनाशरीररसकपमध्यस्थित। ४ स्पर्शजनकम् । ५ इह जन्मन्येव । ६ उत्तरभवे नास्तीति वा । ७ स्त्रीसङगः । 'प्रतीपदर्शिनी वामा वनिता महिला तथा' इत्यभिधानात् । ८ विजयः । ६ योनिपुष्पादिप्रमाणात् समरतिप्रभृतिकालात् अन्योन्यानुरागादिभावाच्च । १० अतीवप्रवृद्ध। ११ लुप्तश्रीखण्डकुङकुमचर्चामाल्याभरणादिः। १२ समस्तेन्द्रियाणाम् । १३ विषयीभूत्वा । १४ हितस्रक्चन्दनादिविषयाणाम् । १५ सुलोचनापि । १६ जयस्य। १७ न प्राप्यते स्म । १८ पदार्थैः । १६ इन्द्रियोपायजनितसुखैः। २० परम् अन्यवस्तु मुखं द्वारमुपायो यस्य तत् । परमुखं क्वापि भवति न कुत्रापीत्यर्थः । २१ आस्वादितुं योग्याधरादिप्रदेशैः । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व हृतसर सिजसारं रिष्टचेटीयमानः सततरतनिमित्तैर्जाल मार्गप्रवृत्तः । मृदुशिशिरतरैः सम्प्रापतुस्तौ समीरैः सुरत विरतिजातस्येदविच्छेद सौख्यम् ॥ २१६ ॥ तां तस्य वृत्तिरनुवर्तयति स्म तस्या वचनं "तदेव रतितृप्तिनिमित्तमासीत् । निज' भावमचिन्त्यमन्त्य' प्रेमा' पदत्र ' सातोदयश्च भवभूतिफलं तदेव ॥ २१७॥ कामोऽगमत् सुरतवृत्तिषु तस्य शिष्य भाव सुधीरिति रतिश्च सुलोचनायाः । गर्व मुद्रहति चेन्न वृथाभिमानी स्वष्टसिद्धिविषयेषु गुणाधिकेषु ॥२१८॥ को एवं सुखानि तनुजान्यनुभूय तौ च १० नं वेतुश्चिररतेऽप्यभिलाष कोटिम्" । furroट मिटविषयोत्य सुखं सुखाय तद्वीत विश्वविषयाय बुधा यतध्वम् ॥२१६॥ इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणश्रीमहापुराण सङग्रहे जयसुलोचनासुखानुभवव्यावर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमं पर्व ॥ ४५ ॥ लेने योग्य अधर आदि प्रदेशोंसे और कोमलताकी एक खान स्वरूप सुन्दर शरीररूपी लतासे वे दोनों अपनी इन्द्रियोंको समस्त सुख पहुंचाते थे ॥ २१५ ॥ जिसने कमलका सार भाग हरण कर लिया है, जो प्रिय दासके समान आचरण करता है, निरन्तर संभोगका साधन रहता है, झरोखेके मार्ग से आता है और अत्यन्त कोमल ( मन्द) तथा शीतल है ऐसे पवनसे वे दोनों ही संभोग के बाद उत्पन्न हुए पसीना सूखनेका सुख प्राप्त करते थे ॥ २१६ ॥ जयकुमारकी प्रवृत्ति सुलोचनाके अनुकूल रहती थी और सुलोचनाकी प्रवृत्ति जयकुमारके अनुकूल रहती थी । उन दोनों का परस्पर एक दूसरेके अनुकूल रहना ही उनके रतिजन्य संतोषका कारण था जो चिन्तनमें न आ सके ऐसा प्रेम इन्हीं दम्पतियों में पूर्णताको प्राप्त हुआ था, इन्हींके सातावेदनीयका अन्तिम उदय था और यही सब इनके जन्म लेनेका फल था ।। २१७ || बुद्धिमान् कामदेव, संभोग चेष्टाओं के समय जयकुमारका शिष्य बन गया था और रति सुलोचनाकी शिष्या बन गई थी सो ठीक ही है क्योंकि मनुष्य यदि व्यर्थका अभिमानी न हो तो ऐसा कौन हो जो अपने इष्ट पदार्थ की सिद्धिके विषयभूत अधिक गुणवाले पुरुषोंके साथ अभिमान करे ? ॥२१८॥ इस प्रकार शरीरसे उत्पन्न हुए सुखोंका अनुभव कर चिरकाल तक रमण करनेपर भी वे दोनों इच्छाओंकी अन्तिम अवधिको प्राप्त नहीं हुए थे उनकी इच्छाएं पूर्ण नहीं हुई थीं । इसलिये कहना पड़ता है कि इष्ट विषयोंसे उत्पन्न हुए सुखको भी धिक्कार है । हे पण्डितो तुम उसी सुखके लिये प्रयत्न करो जो कि संसारके सब विषयोंसे अतीत है ।। २१९॥ इस प्रकार भगवद्गुणभद्राचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके हिन्दी भाषानुवाद में जयकुमार और सुलोचनाके सुखभोगका वर्णन करनेवाला यह पैंतालीसवां पर्व समाप्त हुआ । ४४५ १ इष्टवयस्यायमानैः । २ गवाक्षपथ । ३ सुरतावसानजात । ४ अन्योन्यानुवर्तनमेव । ५ प्रापत् । ६ जयसुलोचनयोः । ७ निजयोर्दम्पत्योर्भावो यत्र तत् । ८ अपश्चिमसुखोदयश्च । जन्मप्राप्तिफलम् । १० नैव प्रापतुः । ११ अन्तम् । १२ कारणात् । १३ प्रयत्नं कुरुध्वम् । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्चत्वारिंशत्तमं पर्व जयः प्रासादमव्यास्य 'दन्तावलगतो मुदा । यदृच्छयाऽन्यदालोक्य गच्छन्तौ खगदम्पती ॥१॥ हा मे प्रभावतीत्येतद् श्रालपन्नतिविह्वलः । रतिमेवाहितः सद्यः सहायीकृत्य मूर्च्छया ॥ २ ॥ तथा 'पारावतद्वन्द्वं 'तत्रैवालोक्य कामिनी । हा मे रतिवरेत्युक्त्वा साऽपि मूर्च्छामुपागता ॥३॥ 'दक्ष चेटीजनक्षिप्रकृतशीतक्रिया क्रमात् । सद्यः कुमुदिनीवाप प्रबोधं शीतवीधितेः ॥४॥ 'हिमचन्दन सम्मिश्र वारिभिर्मन्दमारुतैः । सोऽप्यमूच्छ दिशः पश्यन् मन्दमन्दतनुत्रपः ॥५॥ यूयं सर्वेऽपि सायन्तनाम्भोजानु कृताननाः । किमेतदिति तत्सर्वं जानानोऽपि स नागरः ॥६॥ कानुनयोपाय गत्रस्खलन दुःखिताम् । सुलोचनां समाश्वास्य स्मरन् जन्मान्तरप्रियाम् ॥७॥ कति कृत्वा तामेवालपयत्" स्थितः । वञ्चनावुञ्चवः १५ सर्वे प्रायः कान्तासु कामिनः ॥ ८ ॥ तयोर्जातरात्मीयवृत्तान्तस्मृत्यनन्तरम् । स्वर्गादनुगतो बोधस्तृतीयो" व्यक्तिमीयिवान् ॥६॥ द्विलोक्य सपत्न्योऽस्या" श्रीमती सशिवङकरा । पराश्च मत्सरोद्रेकादित्यन्योन्यं तदावु बन्" ॥१०॥ अथानन्तर किसी अन्य समय जयकुमार अपने महलकी छतपर आनन्दसे बैठा था कि इतने में ही अपनी 'इच्छानुसार जाते हुए विद्याधर दम्पती दिखे, उन्हें देखकर 'हा मेरी प्रभावती' इस प्रकार कहता हुआ वह बहुत ही बेचैन हुआ और मूर्च्छाकी सहायता पाकर शीघ्र ही प्रेमको प्राप्त हुआ । भावार्थ- पूर्वभवका स्मरण होनेसे मूच्छित हो गया ॥ १-२ ॥ इसी प्रकार सुलोचना भी उती स्थानपर कबूतरोंका युगल देखकर 'हा मेरे रतिवर' ऐसा कहकर मूर्च्छाको प्राप्त हो गई || ३ || जिस प्रकार चन्द्रमासे कुमुदिनी शीघ्र ही प्रबोधको प्राप्त हो जाती है - खिल उठती है उसी प्रकार चनुर दासी जनोंके द्वारा किये हुए शीतलोपचारके क्रमसे वह सुलोचना शीघ्र ही प्रबोधको प्राप्त हुई थी - मूर्च्छारहित हो गई थी ||४|| कपूर और चन्दन मिले हुए जलसे तथा मन्द मन्द वायुसे कुछ लज्जित हुआ और दिशाओंकी ओर देखता हुआ वह जयकुमार भी मूर्च्छारहित हुआ || ५ || यद्यपि वह चतुर जयकुमार सब कुछ समझता था तथापि पूछने लगा कि तुम लोगों के मुँह संध्याकालके कमलोंका अनुकरण क्यों कर रहे हैं ? अर्थात् कान्तिरहित क्यों हो रहे हैं ? ॥६॥ पतिके मुँहसे दूसरी स्त्रीका नाम निकल जाने के कारण दुखी हुई सुलोचनाको जयकुमारने अनेक प्रकारके अनुनय-विनय आदि आयों से समझाया तथा दूसरे जन्मकी प्रिया प्रभावती समझकर अपने मुँहका आकार छिपा वह उसी के साथ बातचीत करने लगा सो ठीक ही है क्योंकि सभी कामी पुरुष स्त्रियों के ठगने में अत्यन्त चतुर होते हैं ||७-८ ।। उन दोनोंके जन्मान्तर सम्बन्धी अपना समाचार स्मरण होने के बाद ही स्वर्ग पर्यायसे सम्बन्ध रखनेवाला अवधिज्ञान भी प्रकट हो गया ॥ ९ ॥ | यह सब देखकर श्रीमती शिवंकरा तथा और भी जो सुलोचनाकी सौतें थीं वे उस समय ईर्ष्या के १ शोभायै विन्यस्तकृत्रिमगज । दन्तावलमनो ल० । २ विद्याधरदम्पती । ३ प्रीतिम् । ४ प्राप्तः । स्वीकृतो वा । ५ कपोत । ६ सौधाग्रे । ७ चतुर । ८ कर्पूर । ६ ईषल्लज्जावान् । १० अस्तमयकाल । ११ निपुणः । १२ प्रभावतीति नामान्तरग्रहण, सुलोचनाया अग्रे प्रभावतीति अन्यस्त्रीनामग्रहण । १३ जन्मन्तरप्रियास्मरणजात रोमाञ्चप्रभृत्याकारप्रावरणम् । १४ सम्भाषयन् । 'सम्भाषणमाभाषणमालापः कुरुकुञ्चिका' इति वैजयन्ती । १५ प्रतीताः । - चञ्चवः ल० । १६ अवधिज्ञानम् । १७ गतवान् । १२ सुलोचनायाः । १३ ऊचुः । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व स्त्रीषु मायेति या वार्ता सत्यां तामद्य कर्वती। पतिमूच्छा स्वमूर्छाया: 'प्रत्ययीकृत्य मायया ॥११॥ पश्य कृत्रिमच्छत्तिभावनाव्यक्तसंवृतिः । सन्ततान्तःस्थितप्रौढप्रेमप्रेरितचेतना ॥१२॥ कन्यावतविलोपात्तगोत्रस्खलनदूषिता। पति रतिवक्त्वाऽयान्मूच्छी कुलदूषिणी ॥१३॥ इयं शीलवतीत्येनां निस्स्वनन् वर्णयत्ययम् । प्रायो रक्तस्य दोषोऽपि गुणवत प्रतिभासते ॥१४॥ प्रभावतीति सम्मह्य कितवः 'कोपिनोमिमाम् । प्रसिसादयिषुः शोकं तत्प्रीत्या विदधाति नः ॥१५॥ "एतान् सर्वास्तवालापान जयोऽवधिविलोचनः । विदित्वा सस्मितं पश्यन् प्रियायाः रमेरमाननम् ॥१६॥ कान्ते जन्मान्तरावाप्तं विश्वं वृत्तान्तमावयोः। व्यावण्येमां सभां तुष्टिकौतुकापहृतां कुरु ॥१७॥ इति प्राचोदयत साऽपि प्रिया तद्भाववेदिनी । कयां कययितु कृत्स्नां प्राक्रस्त कलभाषिणी ॥१८॥ इह जम्बूमति द्वीपे विदेहे प्राचि" पुष्कला-वती विषयमध्यस्था नगरी पुण्डरीकिणी ॥१६॥ तत्राभवत् प्रजापालः प्रजा राजा प्रपालयत् । फलं धर्मार्थकामानां स्वीकृत्य कृतिनां वरः ॥२०॥ कुबेरमित्रस्तस्यासीद् राजश्रेष्ठी "प्रतिष्ठितः। द्वात्रिंशद्धनवत्याद्या भार्यास्तस्य मनःप्रियाः॥२१॥ गहे तस्य समुत्तुङगे नानाभवनवेष्टिते । वसन् रतिवरो नाम्ना धीमान् पारावतोत्तमः ॥२२॥ उद्रेकसे परस्परमें इस प्रकार कहने लगीं ॥१०॥ देखो, यह सुलोचना मायाचारसे पतिकी मूर्छाको अपनी मूर्छाका कारण बनाकर 'स्त्रियोंमें माया रहती है' इस कहावतको कैसा सत्य सिद्ध कर रही है । और इस प्रकार जिसने कृत्रिम मूर्छाके द्वारा प्रकट हुई भावनाओंका साफ साफ संवरण कर लिया है, जिसकी चेतना सदासे हृदयमें बैठे हुए प्रौढ़ प्रेमसे प्रेरित हो रही है जो कन्याव्रतके भंग करने से प्राप्त हुए गोत्रस्खलन (भूलसे दूसरे पतिका नाम लेने) से दूषित है तथा कुलको दूषण लगानेवाली है ऐसी यह सुलोचना अपने पहलेके पतिको 'हे रतिवर' इस प्रकार कहकर बनावटी मूर्छाको प्राप्त हुई है ॥११-१३॥ यह जयकुमार इसे 'यह बड़ी शीलवती है, इस प्रकार कहता हुआ वर्णन करता है सो ठीक ही है क्योंकि रागी पुरुषको प्रायः दोष भी गुणके समान जान पड़ते हैं ।।१४।। 'हे प्रभावति' ऐसा कहकर मूच्छित हो, क्रोध करनेवाली इस सुलोचनाको प्रसन्न करनेकी इच्छा करता हुआ यह धूर्त कुमार उसके प्रेमसे ही हम लोगोंको शोक उत्पन्न कर रहा है ॥१५॥ अवधिज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाला जयकुमार उन लोगोंकी इन सब बातोंको जानकर मन्द हंसी के साथ साथ सुलोचनाके मुस्कुराते हुए मुखको देखता हुआ कहने लगा कि 'हे प्रिये ! तू हम दोनोंके पूर्वभवका सब वृत्तान्त कहकर इस सभाको संतुष्ट तथा कौतुकके वशीभूत कर !' यह सुनकर पतिके अभिप्रायको जाननेवाली और मधुर भाषण करनेवाली सुलोचनाने भी पूर्वभवकी सब कथा कहनी प्रारम्भ की ॥१६-१८॥ ___इस जम्बू द्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्र में एक पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है जो कि पुष्कलावती देशक मध्यमें स्थित है। उस नगरीका राजा प्रजापाल था जो कि समस्त प्रजाका पालन करता हुआ धर्म, अर्थ तथा कामका फल स्वीकार कर सब पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ था ॥१९-२०॥ उस राजाका कुबेरमित्र नामका एक प्रसिद्ध राजशेठ था और उसकी हृदयको प्रिय लगनेवाली धनवती आदि बत्तीस स्त्रियां थीं ॥२१॥ अनेक भवनोंसे घिरे हुए उस शेठके अत्यन्त ऊंचे महलमें एक रतिवर नामका कबूतर रहता था जो कि अतिशय बुद्धिमान् और सब कबूतरोंमें १ कारणीकृत्य । 'प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविज्ञानहेतुषु' इत्यभिधानात् । २ रतिवरेत्युक्तपुरुषे प्रवृद्धस्नेहेन प्रेरितमनसा । ३ अगच्छत् । ४ -त्येवं ल० । -त्येतां अ०, स०, इ०, प० । ५ निस्तनन् ट० । ब्रुवन् । ६ अनुरक्तस्य । ७ मूर्छा गत्वा । ८ धूर्तः । ६ प्रभावतीनामग्रहणात् कुपिताम् । १० प्रसादयितुमिच्छुः । ११ एनान् । १२ अवादीत् । १३ उपक्रान्तवती । १४ पूर्व विदेहे । १५ श्रीमानित्यर्थः । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ महापुराणम् कदाचिद् राजगेहागतेन वैश्येशिना स्वयम् । स्नेहेन सस्मितालापैः स्वहस्तेन समुखतः ॥२३॥ कदाचित् कामिनीकान्तकराब्जापितशर्करा-सम्मिश्रितान सुशालीयतण्डुलामभिभक्षयन् ॥२४॥ कदाचिच्छे ष्ठिनोद्दिष्ट हेतुदुष्टान्तपूर्वकम् । अहंसालक्षणं धर्म भावयन् प्राणिहितम् ॥२५॥ कदाचिद् भवनायातयतिपादसरोजजम् । रेणुजाले निराकुर्वन् पक्षाभ्यो प्रत्युपागतः ॥२६॥ स' कदाचिद् गतिः का स्यात 'पापापापात्मनामिति । क तूहलेन पुष्टः सन् जनस्तुण्डेन निर्दिशन् ॥२७॥ अधोभागमयोध्वं च मौनीवागमपारगः । क्षयोपशममाहात्म्यात्तिर्यञ्चोऽपि विवेकिनः ॥२८॥ क्रीडन्नानाप्रकारेण कान्तया रतिषणया। सार्धमेवं चिरं तत्र सुखं कालमजीगमत् ॥२६॥ असौ रतिवरः कान्तस्त्वमहं सा तव प्रिया । रतिषणा भवावर्ते जन्तुः किं किं न जायते ॥३०॥ सुतः कुबेरमित्रस्य धनवत्याश्च पुण्यवान् । जातः कुबेरकान्ताख्यः कुबेरों' वा परः सुधीः ॥३१॥ द्वितीय इव तस्यासीत् प्राणः सोऽनु चराग्रणीः । प्रियसेनाह्वयो बाल्याद् प्रारभ्य कृतसङगतिः ॥३२॥ आजन्मनः५ कुमारस्य कामधेनुरनुत्तमा । मनोऽभिलषितं दुग्धे समस्तसुखसाधनम् ॥३३॥ क्षेत्रं निष्पादयत्येकं गन्धशालिमनारतम् । इक्षनमतदेशीयान्१३ अन्यत्" स्थलांस्तनुस्वचः ॥३४॥ स्वयं मनोहरं वीगा दन्ध्वनीति निरन्तरम् । तत्स्नानसमये सर्वरोगस्वेदमलापहम् ॥३५॥ श्रेष्ठ था ॥२२।। कभी तो राजभवनसे आये हुए सेठ कुवेरमित्र बड़े स्नेहसे हँस हँसकर वार्तालाप करते हुए उसे अपने हाथपर उठा लेते थे, कभी वह स्त्रियोंके सुन्दर करकमलों द्वारा दिये हुए और शक्कर मिले हुए उत्तम धानके चावलोंको खाता था, कभी सेठके द्वारा हेतु तथा दृष्टांतपूर्वक कहे हुए प्राणिहितकारी अहिंसा धर्मका चिन्तवन करता था,कभी भवनमें आये हुए मुनिराजके चरणकमलोंकी धूलिको उनके समीप जाकर अपने पंखोंसे दूर करता था, जब कभी कोई कुतूहलवश उससे पूछता था कि पापी तथा पुण्यात्मा लोगोंकी क्या गति होती है ? तब वह शास्त्रोंके जाननेवाले किसी मौनी महाशयके समान इशारेसे चोंचके द्वारा नीचेका भाग दिखाता हुआ पापी लोगोंकी गति कहता था और उसी चोंचके द्वारा ऊपरका भाग दिखलाता हुआ पुण्यात्मा लोगोंकी गति कहता था सो ठीक ही है क्योंकि क्षयोपशमके माहात्म्यसे तिर्यञ्च भी विवेकी हो जाते हैं ॥२३-२८। इस प्रकार वह कबूतर अपनी रतिषेणा नामकी कबूतरी के साथ नाना प्रकारकी क्रीड़ा करता हुआ वहां सुखसे समय बिताता था ॥२९॥ सुलोचना कह रही है कि वह रतिवर ही आप मेरे पति हैं और वह रतिषेणा ही मैं आपकी प्रिया हूं। देखो इस संसाररूपी आवर्तमें भ्रमण करता हुआ यह जीव क्या क्या नहीं होता है ? ॥३०॥ उस कुबेरदत्त सेठ के धनवती स्त्रीसे एक कुबेरकान्त नामका पुत्र हुआ था जो कि अतिशय पुण्यमान्, बुद्धिमान् तथा दूसरे कुबेरके समान जान पड़ता था ॥३१॥ उस कुबेरकान्तका एक प्रियसन नामका श्रेष्ठ मित्र था जो कि बाल्य अवस्थासे ही उसके साथ रहता था और उसके दूसरे प्राणोंके समान था ॥३२।। एक अत्यन्त उत्तम कामधेनु कुमार कुबेरकान्तके जन्मसे ही लेकर उसकी इच्छाके अनुकूल सुखके सब साधनोंको पूरा करती थी। वह कामधेनु प्रति दिन एक खेत तो सुगन्धित धान्यका उत्पन्न करती थी और एक खेत अमृतके समान मीठे, पतले छिलकेवाले बड़े बड़े ईखोंका उत्पन्न करती थी ॥३३-३४॥ इसके सिवाय वही कामधेनु कुमारके सामने निरन्तर मनोहर वीणा बजाती थी, और उसी कामधेनुके प्रतापसे उसके स्नानके १ -द्दिष्ट-ल०। २ धूलिसमूहम् । ३ अपसारयन् । ४ अभिमुखागतःसन् । ५ पारावतः । ६ अधार्मिकाणां धार्मिकाणाम् । ७ रतिषेणसंज्ञया निजभार्यया पारावत्या । ८ गमयति स्म । ६ धनद इव । १० मित्र। ११ जननकालादारभ्य। १२ न विद्यते उत्तमा यस्याः सकाशात् इत्यनुत्तमा, अनुपमेत्यर्थः । • १३ सुधासदृशान् । १४ परं द्वितीय क्षेत्रम्। १५ भूशं ध्वनति । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ४४९ सुगन्धिसलिलं गाडगं गम्भीरमधुर ध्वनन् । अम्भोघरो नभोभागाद् प्रासन्नादवमुञ्चति ॥३६॥ कल्पद्रुमद्वयं वस्त्रभूषणानि प्रयच्छति । अन्नमानं ददात्यन्यद् द्वयं कल्पमहीरहः ॥३७॥ एवमन्यच्च भोगाङगम् अशेषं देवनिर्मितम् । 'शश्वनिविशतस्तस्य पूर्ण प्राथमिकं वयः॥३८॥ तद्वीक्ष्य 'पितरावेष 'किमेकामभिलाषकः । किं बह्वीरिति चित्तेन सन्दिहानी" समाकुलौ ॥३६॥ । प्रियसेनं समाहूय तत्प्रश्नात्तन्मनोगतम् । अवादीधरता मैत्री सैव या त्वेकचित्तता ॥४०॥ ततः सनद्रदत्ताख्यो धनवत्या सहाभवत् । स्वसा कुबेरमित्रस्य तन्नामवंतयोः" सुता ॥४॥ प्रियदत्ताह्वया तस्याश्चेटिका५ रतिकारिणी । कन्यकास्तां विधायादि द्वात्रिंशत्सुन्दराकृतीः॥४२॥ श्रेष्ठी कदाचिदुद्यान यक्षपूजाविधौ सुधीः । सुपरीक्ष्य निमित्तन प्रियदत्तां गुणान्विताम् ॥४३॥ (अवधार्यास्य पुत्रस्य पञ्चताराबलान्विते । दिने महाविभूत्यना८ कल्याणविधिनाऽग्रहीत् ॥४४) तन्निमित्तपरीक्षायाम् अवलोकितुमागते । सुते गुणवती राज्ञो यशस्वत्यभिधा परा ॥४॥ भाजनं २०भक्ष्यसम्पूर्णमदत्तवतिर माकले (?) ! स्वाभ्यां३ लज्जाभरानभवदने जातनिविदे॥४६॥ समय समीपवर्ती आकाशसे आकर मधुर तथा गम्भीर गर्जना करते हुए मेघ सब प्रकारके रोग, पसीना और मलको हरण करनेवाला गंगा नदीका सुगन्धित जल बरसाते थे ॥३५-३६॥ उस कुमारके लिये एक कल्पवृक्ष वस्त्र देता था, एक आभूषण देता था, एक अन्न देता था और एक पेय पदार्थ देता था ॥३७॥ इस प्रकार इनके सिवाय देवोंके दिये हुए और भी सब प्रकारके भोगोंका निरन्तर उपभोग करते हुए उस कुमारकी पहली अवस्था पूर्ण हुई थी ॥३८॥ पहली अवस्थाको पूर्ण हआ देखकर माता पिताको चिन्ता हई कि यह एक कन्या चाहत अथवा बहुत । उसी चिन्तासे वे कुछ संदेह कर रहे थे और कुछ व्याकुल भी हो रहे थे। उन्होंने कुबेरकान्तके मित्र प्रियसेनको बुलाकर उसके मनकी बात पूछी और उसके कहनेपर उन्होंने निश्चय कर लिया कि इसके 'एक पत्नीव्रत है' यह एक ही कन्या चाहता है, सो ठीक ही है क्योंकि दोनोंका एक चित्त हो जाना ही मित्रता कहाती है ॥३९-४०॥ तदनन्तर-उसी नगरमें समुद्रदत्त नामका एक सेठ था, जो कि कुबेरमित्रकी स्त्री धनवती का भाई था और उसे कुबेरमित्रकी बहिन कुबेरमित्रा व्याही गई थी। इन दोनोंके प्रियदत्ता नामकी एक पूत्री हई थी और रतिकारिणी उसकी दासी थी। समद्रदत्त सेठके प्रियदत्ता आदि बत्तीस कन्याएं थीं। किसी एक दिन उस बुद्धिमान् सेठने एक बागमें यक्षकी पूजा करते समय सुन्दर आकारवाली उन बत्तीसों कन्याओंकी निमित्तवश परीक्षा की और उन सबमें प्रियदत्ताको ही गुणयुक्त समझा। फिर सूर्य, चन्द्र, गुरु, शुक्र और मंगल इन पांचों ताराओंके बलसे सहित किसी शुभ दिनमें बड़े वैभवके साथ कल्याण करनेवाली विधिसे उस प्रियदत्ताको अपने पुत्रके लिये स्वीकार किया ॥४१-४४॥ राजा प्रजापालकी गुणवती १ गङगासम्बन्धि । २ गम्भीरं मधुरं ब०, अ०, प०, स०, इ०, ल० । ३ कल्पवृक्षस्य । ४ अनुभवतः । ५ जननीजनको। ६ एतामित्यपि पाठः । स्त्रियम् । ७ सन्देहं कुर्वन्तौ। ८ कुबेरकान्तस्य मित्रम् । ६ कुबेरकान्तस्याभिप्रायम् । १० एकपत्नीव्रतधारणमित्यवधारितवन्तौ । ११ कुबेरमित्रस्य भार्यया धनवत्या सहोत्पन्न इत्यर्थः । १२ भगिनी। १३ कुबेरमित्रा ह्वया । १४ समुद्रदत्तकुबेरमित्रयोः । १५ सखी। १६ द्वाविंशभाजनेषु विविधभक्ष्यपायसघृतं पूरयित्वा एकस्मिन् भाजने अनर्थ्य रत्नं निक्षिप्य यक्षाग्रे संस्थाप्य द्वात्रिंशत्कन्यकानामेकैकस्यै एकैकं भाजनं दत्तं यस्या हस्ते अनर्घ्य रत्नं समागतं सा मम पुत्रस्य प्रियेति सुपरीक्ष्य । १७ तिथ्यादिपञ्चनक्षत्रबलान्विते। १८ प्रियदत्ताम् । १६ प्रजापालनृपस्य । २० भक्ष-ल०, ब०, इ०. प०, अ०, स० । २१ अददति सति । २२ मातुले अ०, ५०, म०, इ०, ल०, ट० । निज मामे श्रेष्ठिनि । २३ आत्मभ्याम् । २४ उत्पन्नवैराग्ये । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० महापुराणम् अमितानन्तमत्यायिकाभ्याशे' संयम परम् । प्राददाते स्म यात्येवं काले तस्मिन् महीपतौ ॥४७॥ लोकपालाय दत्वाऽऽत्मलक्ष्मी संयममागते । शीलगुप्तगुरोः पार्वे शिवङकरवनान्तरे ॥४॥ देव्यः कनकमालाद्याः परे चोपाययुस्तपः। दुर्गमं च वजन्त्यल्पाः प्रभुर्यदि पुरस्सरः ॥४६॥ लोकपालोऽपि सम्प्राप्तराज्यश्रीविश्रुतोदयः । कुबेरभित्रबुद्ध्यव धरित्रीं प्रत्यपालयत् ॥५०॥ मन्त्री च फल्गुमत्याख्यो बालोऽसत्यवचः प्रियः । सवयस्को' नपस्याज्ञः प्रकृत्या चपलः खलः ॥५॥ तत्समी नुपेणामा यद्वा तद्वा मुखागतः । शडाकमानो वचो वक्तुं श्रेष्ठयपायं विचिन्त्य सः॥५२॥ स्वीकृत्य' शयनाध्यक्ष सामदानस्त्वया निशि । देवतावत्तिरोभूय राजन् पितसमं गुरुम्॥५३॥ विनयाद विच्युतं राजश्रेष्ठिनं तव सन्निधौ । विधाय सर्वथा मा स्थाः२ कार्यकाले सहयताम् ॥५४॥ इति वक्तव्यमित्याख्यत् "सोऽपि सर्व तथाकरोत् । अर्थाथिभिरकर्तव्यं न लोके नाम किञ्चन ॥५॥ श्रुत्वा तद्वचनं राजा सभीरालय मातुलम । नागन्तव्यमनाहूतरित्यनालोच्य सोऽब्रवीत् ॥५६॥ पश्चाद् विषविपाकिन्यः१८ प्रागनालोचितोक्तयः । श्रेष्ठी तद्वचनात् सद्यः सोद्वगं स्वगृहं ययौ ॥५७॥ यशस्वती नामकी दो कन्याएं भी वह नैमित्तिक परीक्षा देखनेके लिये आई थीं, जब मामा कुबेरमित्रने भोजनसे भरे हुए पात्र उन्हें नहीं दिये अपने आप ही लज्जाके भारसे उनके मुख नीचे हो गये और उसी समय उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया ।।४५-४६।। उन्होंने उसी समय अमितमति और अनन्तमति आयिकाके समीप उत्तम संयम धारण कर लिया। इस प्रका कितना ही समय व्यतीत होनेपर राजा प्रजापालने भी अपनी सब लक्ष्मी लोकपाल नामक पुत्रके लिये देकर शिवंकर नामके वनमें शीलगुप्त नामक मुनिराजके समीप संयम धारण कर लिया। इसी प्रकार कनकमाला आदि रानियोंने भी कठिन तपश्चरण धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि यदि राजा आगे चलता है तो अल्प शक्तिके धारक लोग भी उसी कठिन रास्तेसे चलने लगते हैं ॥४७-४९॥ इधर जिसे राज्यलक्ष्मी प्राप्त हुई है और जिसका वैभव सब जगह प्रसिद्ध हो रहा है ऐसा राजा लोकपाल भी कुबेरमित्रकी सम्मतिके अनुसार ही पृथिवीका पालन करने लगा ॥५०॥ उस राजाका फल्गुमति नामका एक मंत्री था, जो अज्ञानी था, असत्य बोलनेवाला था, राजाकी समान उमरका था, मूर्ख था और स्वभावसे चंचल तथा दुर्जन था ॥५१॥ वह मंत्री कुबेरदत्त सेठके सामने राजाके साथ मुंहपर आये हुए यदा तद्वा वचन कहने में कुछ डरता था इसलिये वह सेठको राजाके पाससे हटाना चाहता था। उसने राजाके शयनगृहके मुख्य पहरेदारको समझा बुझाकर और कुछ धन देकर अपने वश कर लिया, उसे समझाया कि तू रातके समय देवताके समान तिरोहित होकर राजासे कहना कि हे राजन्, राजसेठ कुबेरमित्र पिताके समान बड़े हैं, सदा अपने पास रखने में उनकी विनय नहीं हो पाती इसलिये उन्हें हमेशा अपने पास नहीं रखिये, कार्यके समय ही उन्हें बुलाया जाय इस प्रकार फलामतिने शयनगृहके अध्यक्षसे कहा और उसने भी सब काम उसीके कहे अनुसार कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि धन चाहनेवाले लोगोंके द्वारा नहीं करने योग्य कार्य इरा संसारमें कुछ भी नहीं है ।।५२-५५॥ शयनगृहके अधिकारीकी बात सुनकर राजाको भी कुछ भय हुआ और उसने बिना विचारे ही मामा (कुबेरमित्र) को बुलाकर कह दिया कि आप विना बुलाये न आवें॥५६॥ जो बात पहले विना विचार किये ही कही जाती है उसका फल पीछे विपके १ समीपे । २ पुरो ल० । ३ प्राप्तवन्तः । ४ समानवयस्कः । ५ नपश्चान्यः इत्यपि पाठः । द्वितीयो नपः । मन्त्रीत्यर्थः । ६ असमर्थः । ७ कुबेरमित्रसन्निधौ। ८ यत्किञ्चित् । ६ स्ववशं कृत्वा । १० प्रियवचनसुवर्णरत्नादिदानैः । ११ पुज्यम् । १२ मा स्म तिष्ठ। १३ आहुयताम् । १४ शयनाध्यक्षः । १५ सभयः । १६ अनाहूयमान: भवद्भिः । १७ अविचार्य। १० विषपर विवाकवत्यः । १९ उगरादितम् । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटचत्वारिंशत्तमं पर्व ४५१ राजा कदाचिदवाजीद घटया ललिताख्यया। विहारार्थ वनं तत्र वाप्यामालोक्य विस्मयात् ॥५८॥ तटशुष्कांधिपासन्नशाखाग्रस्थपरिस्फुरन् । 'परार्ध्यवायसानीतपद्मरागमणिप्रभाम् ॥५६॥ मणि मत्वा प्रविश्यान्तनैषु केनाप्य लम्भ्यसौ । भान्स्या प्रवर्तमानानां कुतः क्लेशाद् विना फलम् ॥६०॥ चिरं निरीक्ष्य निविण्णाः सर्वे ते पुरमागमन् । बुद्धिर्नाग्रेसरी यस्य न निर्बन्धः फलत्यसौ ॥६॥ कदाचिद् भूपतिः श्रेष्ठिसुतया रक्तचित्तया । वसुमत्या विभावर्याम् अात्मसौभाग्यसूचिना ॥६२॥ क्रमेण कुडाकुमाद्रेण ललाटे स्फुटमडकित: । कान्ताः किं किं न कुर्वन्ति स्वभागपतिते नरे॥६३॥ पट्टबन्धात परं मत्वा तत्क्रमाङकं महीपतिः। प्रातरास्थानमध्यास्य मन्त्र्यादीनित्यबूबुधत् ॥६४॥ ललाटे यदि केनापि राजा पादेन ताडितः । कर्तव्यं तस्य किं वाच्यं ततो मन्त्र्यब्रवीदिदम् ॥६॥ पट्टात् ललाटो नान्येन स्पुश्यः स यदि ताडितः । पादेन केनचिद् वध्यः स प्राणान्तमिति स्फुटम् ॥६६॥ तदाकावधूयैनं स्मितेनाहूय मातुलम् । नृपोऽप्राक्षीत् स" चाहैतत् प्रस्तुतं प्रस्तुतार्थवित् ॥६७॥ तस्य पूजा विधातव्या सर्वालडाकारसम्पदा । इति तद्वचनात्तुष्ट्वा मणि वार्ता न्यवेदयत् ॥६॥ समान होता है । राजाके वचन सुनकर सेठ भी दुःख सहित शीघ्र ही अपने घर चला गया ॥५७॥ किसी एक दिन राजा ललितघट नामक हाथीपर बैठकर विहार करनेके लिये वनमें गया, उस बनमें एक बावड़ी थी, उसके तटपर एक सूखा वृक्ष था, उसकी एक शाखा बावड़ीके निकटसे निकली थी, उस शाखाके अग्रभागपर एक कोवेने कहींसे देदीप्यमान बहुमूल्य पद्मराग मणि लाकर रख दी। बावड़ीम उस मणिकी कान्तिपड़ रही थी, राजा तथा उसके सब साथियों ने उस कान्तिको मणि समझा और यह देखकर सबको आश्चर्य हुआ-उस मणिको लेनेके लिये सब बावड़ी के भीतर घुसे परन्तु उनमेंसे वह मणि किसीको भी नहीं मिली सो ठीक ही है क्योंकि भ्रान्तिसे प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषोंको क्लेशके सिवाय और क्या फल मिल सकता है ॥५८-६०॥ उन सब लोगोंने बावड़ी में वह मणि बहुत देरतक देखी परन्तु जब नहीं मिली तब उदास हो अपने नगरको लौट आये सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रयत्नमें बुद्धि अग्रेसर नहीं होती वह प्रयत्न कभी सफल नहीं होता ॥६१॥ किसी समय प्रेमसे भरी हुई वसुमती नामकी सेठकी पुत्रीने रात्रिके समय अपने सौभाग्यको सूचित करनेवाले तथा कुंकुमसे गीले अपने पैरसे राजाके ललाट में स्पष्ट चिह्न बना दिया सो ठीक ही है क्योंकि पुरुषके अपने आधीन होनेपर स्त्रियां क्या क्या नहीं करती हैं ? ॥६२-६३॥ राजाने उस पैरके चिह्नको पट्टबन्धसे भी अधिक माना और सबेरा होते ही सभामें बैठकर मंत्री आदिसे इस प्रकार पूछा कि यदि कोई पैरसे राजाके ललाटपर ताड़न करे तो उसका क्या करना चाहिये ? यह सुनकर फल्गुमति मंत्रीने कहा कि राजाका जो ललाट पट्टके सिवाय किसी अन्य वस्तुके द्वारा छुआ भी नहीं जा सकता उसे यदि किसीने पैरसे ताड़न किया है तो उसे प्राण निकलने तक मारना चाहिये ॥६४-६६।। यह सुनकर राजाने उस मंत्रीका तिरस्कार किया तथा मन्द मन्द हँसीके साथ मामा कुबेरमित्रको बुलाकर उनसे सब हाल पूछा। प्रकृत बातको जाननेवाला कुबेरमित्र कहने लगा कि जिसने आपके शिरपर पैरसे प्रहार किया है उसकी सब प्रकारके आभूषणरूपी संपदासे पूजा करनी चाहिये । इस प्रकार उसके वचनोंसे संतुष्ट होकर राजाने वनविहारके समय बावड़ी में दिखनेवाले मणि १ अगमत् । प्राब्राजीत् ल०। २ परार्ध्यमिति पद्मरागस्य विशेषणम् । ३ ललितघटाख्यजनेषु । ४ लब्धः । ५ मणिः । ६ पुरुषस्य । तस्य ट० । ७ अविच्छिन्नप्रवृत्ति । ८ न फलप्रदो भवति । ६ निजभार्यया । १० पादेन । ११ ताडित इत्यर्थः। १२ भवद्भिर्वक्तव्यम् । १३ परित्यज्य । १४ कुबेरमित्रः । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ महापुराणम् मणिर्न जलमध्येऽस्ति तटस्थतरुसंश्रितः । प्रभाव्याप्यामिति प्राह तद्विचिन्त्य' वणिग्वरः ॥ ६६ ॥ तदा कुबेरमित्रस्य प्रज्ञामज्ञानमात्मनः । दौष्टय च मन्त्रिणो ज्ञात्वा पश्चात्तापान्महीपतिः ॥७०॥ पश्य धूतरह मूढो वञ्चितोऽस्मीति सर्वदा । श्रेष्ठिनं प्राप्तसम्मानं प्रत्यासन्नं व्यधात् सुधीः ॥७१॥ तन्त्रावाय महाभारं ततः प्रभृति भूपतिः । तस्मिन्नारोप्य निर्व्यग्रः सधमं काममन्वभूत् ॥ ७२ ॥ कदाचित् कान्तया दृष्टपलितो निजमूर्द्धनि । श्रेष्ठी तां सत्यमद्यत्वं धर्मपत्नीत्यभिष्टुवन् ॥ ७३ ॥ दृष्ट्वा विमोच्य राजानं वरधर्मगुरोस्तपः । सार्धं समुद्रदत्ताद्यैः श्रादाय सुरभूधरे ॥७४॥ तावुभौ ब्रह्मलोकन्तेऽभूतां लौकान्तिको सुरौ । किन साध्यं यथाकालपरिस्थित्या' मनीषिभिः ॥७५॥ श्रन्येद्युः प्रियदत्ताऽसौ दत्वा दानं मुनीशिने । भक्त्या विपुलमत्याख्यचारणाय यथोचितम् ॥७६॥ सम्प्राप्य नवधा पुण्यं तपसः सन्निधिर्मम । किमस्तीत्यब्रवीद् व्यक्तविनया मुनिपुङ्गवम् ॥७७॥ पुत्रलाभार्थि तच्चित्तं विदित्वाऽवधिलोचनः । वामेतरकर धीमान् स्पष्टमङगुलिपञ्चकम् ॥७८॥ कनिष्ठामगुल वामहस्तेऽसौ समदर्शयत् । पुत्रान्कालान्तरे पञ्च साऽऽचैकामात्मजामपि ॥७६॥ ते" कदाचिज्जगत्पालचक्रेशस्य सुते समम् । श्रमितानन्तमत्याख्ये गुणज्ञे गुणभूषणे ॥८०॥ की बात निवेदन की ।। ६७-६८ ।। वैश्यों में श्रेष्ठ कुबेरमित्रने विचारकर कहा कि वह मणि पानी के भीतर नहीं थी किन्तु किनारेपर खड़े हुए वृक्षपर थी, बावड़ी में केवल उसकी कान्ति पड़ रही थी ।।६९।। यह सुनकर उस समय राजा लोकपाल कुबेरमित्रकी बुद्धिमत्ता, अपनी मूर्खता और मंत्री की दुष्टता जानकर पश्चात्ताप करता हुआ इस प्रकार कहने लगा- "देखो इन धूर्तोंने मुझ मूर्खको खूब ही ठगा ।" इस प्रकार कहकर वह बुद्धिमान् राजा सेठका आदर-सत्कार कर उसे सदा अपने पास रखने लगा ।।७०-७१ ।। उस दिनसे राजाने तन्त्र अर्थात् अपने राष्ट्रकी रक्षा करना और अवाय अर्थात् परराष्टोंसे अपने सम्बन्धका विचार करना इन दोनोंका बड़ा भारी भार सेठको सौंप दिया और आप निर्द्वन्द्व होकर धर्म तथा काम पुरुषार्थका अनुभव करने लगा ॥७२॥ किसी समय सेठकी स्त्रीने सेठके शिरमें बाल देखकर सेठसे कहा । सेठने यह कहते हुए उसकी बड़ी प्रशंसा की कि तू आज सचमुच धर्मपत्नी हुई है । उस सेठने बड़ी प्रसन्नता के साथ राजाको छोड़कर समुद्रदत्त आदि अन्य सेठोंके साथ साथ देवगिरि नामक पर्वतपर वरधर्मगुरुके समीप तप धारण किया और दोनों ही तपकर ब्रह्मलोकके अन्तमें लौकान्तिक देव हुए सो ठीक ही है क्योंकि समयके अनुकूल होनेवाली परिस्थितिसे बुद्धिमानोंको क्या क्या सिद्ध नहीं होता ? ।।७३-७५।। किसी दूसरे दिन प्रियदत्ता (समुद्रदत्तकी पुत्री और कुबेरकान्तकी स्त्री) ने विपुलमति नामके चारण ऋद्धिधारी महामुनिको नवधा भक्तिपूर्वक दान देकर पुण्य संपादन किया और फिर विनय प्रकटकर उन्हीं मुनिराजसे पूछा कि मेरे तपका समय समीप है या नहीं ! ॥७६७७ ।। अवधिज्ञान ही हैं नेत्र जिनके ऐसे बुद्धिमान् मुनिराजने यह जानकर कि इसका चित्त संतानको चाह रहा है अपने दाहिने हाथकी पांच अंगुली और बायें हाथकी छोटी अंगुली दिखाई और उससे सूचित किया कि पांच पुत्र और एक पुत्री होगी । तथा कालान्तरमें उस प्रियदत्ताने भी पांच पुत्र और एक पुत्री दिखलाई अर्थात् उत्पन्न की ॥७८-७९ ।। किसी समय गुणरूप आभूषणों को धारण करनेवाली, जगत्पाल चक्रवर्तीकी पुत्री, अमितमति और अनन्तमति नाम १ विचार्य । २ - सन्मानं अ०, प०, स०, इ०, ल० । ३ स्वराष्ट्रपरराष्ट्रमहाधुरम् । ४ आत्मानं राज्ञा मोचयित्वेत्यर्थः । ५ वरधर्मगुरोः समीपे । ६ सुरनाम्नि कस्मिंश्चिद् गिरौ । समुद्रदत्त । ८- परिच्छित्त्या ८० । कालानुरूपेण ज्ञानेन । ६ कुबेरकान्तप्रिया । ११ प्रसिद्धे । १२ गणिन्यौ अ०, प०, स०, इ० । गुणिन्यौ ल० । ७ कुबेरदत्त१० एकाँ पुत्रीम् । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व प्रजापालतनूजाभ्यां यशस्वत्या तपोभृता । गुणवत्या च सम्प्राप्ते पुरं 'तत्परमद्धिकम् ॥१॥ राजा सा-तः पुरः श्रेष्ठो चानयोनिकटे चिरम् । श्रुत्वा सद्धर्मसद्भावं दानाद्युद्योगमाययौ ॥२॥ कदाचिच्छे ष्ठिनो गेहं जल्याचारणयोर्युगम् । प्राविशद् भक्तितो स्थापयतां तौ दम्पती मुदा ॥८३॥ 'तदुष्टिमात्रविज्ञातप्राग्भवं तत्पदाम्बुजम् । कयोतमिथुनं पक्षः परिस्पृश्याभिनय तत् ॥८४॥ "गलितान्योन्यसम्प्रीति बभूवालोक्य तन्मुनी । जातसंसारनिर्वेगौ निर्गत्यापगतौ गृहात् ॥८॥ प्रियदत्तेगितजैतदवगत्यान्यदा तु ताम् । रतिषणामपुच्छत्ते नाम प्राग्जन्मनीति किम् ॥८६॥ सा तुण्डेनालिखन्नाम रतिवेगेति वीक्ष्य तत। ममैषा पूर्वभार्येति कपोतः प्रीतिमीयिदान ॥८७॥ तथा रतिवरः पष्टः स्वनाम प्रियदत्तया । सुकान्तोऽस्म्यहमित्येषोऽप्यक्षराण्यलिखद् भुवि ॥८॥ तनिरीक्ष्य ममैवायं पतिरित्यभिलाषका। रतिषणाऽप्यगात्तेन सङगमं विध्यनुग्रहात् ॥८॥ "तत्सभातिनामेतत् श्रुत्वा प्रीतिरभूदलम् । पुनः शुश्रूषवश्चासन कथाशेषं सकौतुकाः ॥१०॥ अन्यच्चाकणितं दृष्टम् प्रावाभ्यां यदि चेत्त्वया । ज्ञायते तच्च वक्तव्यमित्युक्तवति कौरवे ॥१॥ निजवागमुताम्भोभिः सिञ्चन्ती तां सभा शुभाम् । सुलोचनाऽब्रवीत् सम्यग्ज्ञायते श्रूयतामिति ॥१२॥ की गणिनी (आयिकाओंकी स्वामिनी), तप धारण करनेवाली, प्रजापालकी पुत्री यशस्वती और गुणवतीके साथ साथ उत्कृष्ट विभूतिसे सुशोभित उस पुण्डरीकिणी नगरीमें पधारी ।।८०-८१॥ सब अन्तःपुरके साथ साथ राजा लोकपाल और सेठ कुबेरकान्त भी उन आर्यिकाओंके समीप गये और चिरकालतक समीचीनधर्मका अस्तित्व सुनकर दान देना आदि उद्योगको प्राप्त हए ॥८२।। किसी एक दिन सेठ कुबेरकान्तके घर दो जंघाचारण मनि पधारे। दोनों ही दम्पतियोंने बड़ी भक्ति और आनन्दके साथ उनका पडगाहन किया ।।८३।। उन मुनियोंके दर्शन मात्रसे ही जिसने अपने पूर्वभवके सब समाचार जान लिये हैं ऐसे कबूतर कबूतरी (रतिवर-रतिषणा) के जोड़ेने अपने पंखोंसे मुनिराजके चरणकमलोंका स्पर्श कर उन्हें नमस्कार किया और परस्परकी प्रीति छोड़ दी। यह देखकर उन मनियोंको भी संसारसे वैराग्य हो गया और दोनों ही निराहार सेठके घरसे निकलकर बाहर चले गये ॥८४-८५॥ इशारोंको समझनेवाली प्रियदत्ताने यह सब जानकर किसी समय रतिषणा कबूतरीसे पूछा कि पूर्वजन्ममें तुम्हारा क्या नाम था ? ॥८६॥ उसने भी चोंचसे 'रतिवेगा' यह नाम लिख दिय देखकर यह पूर्वजन्मकी मेरी स्त्री है यह जानकर कबूतर बहुत प्रसन्न हुआ ।।८७।। इसी प्रकार प्रियदत्ताने रतिवर कबूतरसे भी उसके पूर्वजन्मका नाम पूछा तब उसने भी मैं पूर्व जन्ममें सुकान्त नामका था ऐसे अक्षर जमीनपर लिख दिये ॥८८॥ उन्हें देखकर और यह मेरा ही पति है यह जानकर उसीके साथ रहनेकी अभिलाषा करती हुई रतिषणा भी देवके अनुग्रहसे उसीके साथ समागमको प्राप्त हई-दोनों साथ साथ रहने लगे ॥८९॥ यह सब सनकर सभामें बैठे हुए सभी लोगोंको बहुत भारी प्रसन्नता हुई और कथाका शेष भाग सुननेकी इच्छा करते हुए सभी लोग बड़ी उत्कण्ठासे बैठे रहे ।।९०॥ 'इसके सिवाय हम दोनोंने और भी जो कुछ देखा या सुना है उसे यदि जानती हो तो कहो' इस प्रकार जयकुमारके कहनपर अपने 'वचनामतरूपी जलसे उस शभ सभाको सींचती हई सलोचना कहने लगी'-'हाँ, अच्छी तरह १ पुण्डरीकिणीपुरम् । २ लोकपालः। ३ कुबेरकान्तः। ४ अमितानन्तमत्योः । ५ जङघाचारणद्वयावलोकनमात्र । ६ नत्वा। ७ विगलितपरस्परात्यन्तस्नेहवदित्यर्थः । ८ कपोतमिथुनम् । ६ गलितमोहमिति ज्ञात्वा । गम्यान्य-ल०, अ०, प०, इ० । १० लिखितनामाक्षरम् । ११ निजपूर्वजन्मनाम । १२ सुकान्ताख्योऽह-ल०। १३ विधेरानुकूल्यात् । १४ जयकुमारसभावर्तिनाम् । सपत्न्यादीनाम्। १५ जातनिर्वेदात् भिक्षामगृहीत्वा निर्गत्य गतचारणादिशेषकथाम् । १६ जयकुमारे । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ महापुराणम् तदा मुनेहाद भिक्षां त्यक्त्वा गमनकारणम् । अज्ञात्वा भूपतेः प्रश्नाद् पाहामितमतिः श्रुतम् ॥६३॥ विषयेऽस्मिन् खगक्ष्मात्प्रत्यासनं वनं महत् । अस्ति धान्यकमालाख्यं तदभ्यर्णे पुरं परम् ॥४॥ शोभानगरमस्पेशः प्रजापालमहीपतिः। देवश्रीस्तस्य देव्यासीत् सुखदा श्रीरिवापरा ॥९॥ शक्तिवेगोऽस्य सामन्तस्तस्याभूत प्रीतिदायिनी । अटवीश्रीस्तयोः सत्यदेवः सूनुरिमेर समम् ॥६६॥ सर्वेऽप्यासन्नभव्यत्वाद् अस्मत्या दसमाश्रयात् । श्रुत्वा धर्म नपणामा समापन्मद्यमांसयोः ॥१७॥ त्यागं पर्वोपवासं च शक्तिषेणोऽपि भक्तिमान् । मुनिलात्यये भुक्तिम्" अग्रहीत् स गहिवतम् ॥१८॥ "तत्पत्ती शुक्लपक्षादिदिनेऽष्टम्यामथापरे । पक्षे पञ्चसमास्त्यागम् पाहारस्य समग्रहीत् ॥६॥ अनुत्रवृद्धकल्याणनामधेय नुपोषितम् । सत्यदेवश्च साधूनां स्तवनं प्रत्यपद्यत॥१००॥ इत्यभूवन्नमी श्रद्धाविहीनव्रतभूषणाः । स मृणालवती नेतुं कदाचिदटवीश्रियम् ॥१०१॥ पित्रोः२५ पुरी प्रवृत्तः सन् शक्तिर्वणः ससैन्यकः । वन धान्यकमालाख्ये प्राप्य सर्पसरोवरम् ॥१०२॥ निविष्टवानिदं चान्यत् प्रकृतं तत्र कथ्यते । पतिमणालदत्याख्यनगर्या धरणीपतिः२५ ॥१०॥ जानती हूँ, सुनिये ॥९१-९२।। उस समय वे मुनि आहार छोड़कर सेठके घरसे चले गये थे। जब राजाको उनके इस तरह चले जानेका कारण मालम नहीं हआ तब उसने अभिमति गणिनी (आर्यिका) से पूछा । अमितमतिने भी जैसा सुना था वैसा वह कहने लगी ॥९३॥ इसी पुष्कलावती देशमें विजया पर्वतके निकट एक 'धान्यकमाल' नामका बड़ा भारी बन है और उस बनके पास ही शोभानगर नामका एक बड़ा नगर है। उस नगरका स्वामी राजा प्रजापाल था और उसकी स्त्रीका नाम था देवधी। वह देवश्री द समान सुख देनेवाली थी ।।९४-९५॥ राजा प्रजापालके एक शक्तिषेण नामका सामन्त था, उसकी प्रीति उत्पन्न करनेवाली अटवीश्री नामकी स्त्री थी। उन दोनोंके सत्यदेव नामका पुत्र था। किसी समय निकटभव्य होनेके कारण इन सभीने मेरे चरणोंके आश्रयसे धर्मका उपदेश सुना। राजा भी इनके साथ था। उपदेश सुनकर सभीने मद्य-मांसका त्याग किया और पर्वके दिन उपवास करनेका नियम लिया। भक्ति करनेवाले शक्तिषणने भी गृहस्थके व्रत धारण किये और साथमें यह नियम लिया कि मैं मुनियोंके भोजन करनेका समय टालकर भोजन करूंगा ॥९६-९८॥ शक्तिषेणकी स्त्री अटवीश्रीने पांच वर्ष तक शुक्ल पक्षका प्रथम दिन और कृष्णपक्षकी अष्टमीको आहार त्याग करनेका नियम किया, अनुप्रबद्ध कल्याण नामका उपवास ब्रत ग्रहण किया तथा सत्यदेवने भी साधुओंके स्तवन करनेका नियम लिया ॥९९१००॥ इस प्रकार ये सब सम्यग्दर्शनके बिना ही व्रतरूप आभूषणको धारण करनेवाले हो गये। किसी एक दिन सेनापति शक्तिषेण अपनी सेनाके साथ अटवीश्रीको लेनेके लिये उसके माता-पिताकी नगरी मृणालवतीको गया था। वहांसे लौटते समय वह धान्यकमाल नामके वनमें सर्पसरोवरके समीप ठहरा। उसी समय एक दूसरी घटना हई जो इस प्रकार कही जाती है। १ लोकपालस्य। २ वक्ति । ३ अमितमत्यायिका। ४ स्वयं चारणमुनिनिकटे आकर्णितम् । ५ पुष्कलावत्याम् । ६ विजयार्द्धगिरिसमीपम् । ७ समीपे। ८ नगरस्य। ६ नायकः । १० सत्यदेवनामा स्वीकृतपुत्रः सञ्जातः । ११ इमे सर्वे देवश्रीदेव्यादयः समं धर्म श्रुत्वेति सम्बन्धः । १२ अमितगतिनामास्मत्पादसमाश्रयात् । १३ मुनिचर्याकाले अतिक्रान्ते राति । १४ आहारं स्वीकरोमीति व्रतम् । १५ शक्तिषेणभार्या । १६ शुक्लपक्षप्रतिपदिने । अपरे पक्षे अष्टम्यां दिने च । १७ पञ्चवर्षाणि । १८ उपवासव्रतं समग्रहीत् । १६ परमेष्ठिनां स्तोत्रम् । २० गृहीतवान् । २१ जननीजनकयोः । २२ मृणालवतीनामनगरीम्। २३ भूपतिः । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व सकेतुस्तत्र' 'वैश्यशस्तनूजो रतिवर्मणः । भवदेवोऽभवत्तस्य विपुण्यः कनकश्रियाम् ॥१०४॥ तत्रैव' दुहिता जाता श्रीदत्तस्यातिवल्लभा। विमलादिश्रियाख्याता रतिवेगाख्यया सती ॥१०॥ सुकान्तोऽशोक देवेष्टजिनदत्तासुतोऽजनि । भवदेवस्य दुर्वत्या "दुर्मखाख्योऽप्यजायत ॥१०६॥ स एष द्रव्य मावय॑ रतिवेगां जिघृक्षुक': । वाणिज्यार्थं गतस्तस्मान्नायात' इति सा तदा ॥१०७॥ मातापितृभ्यां प्रादायि सु कान्ताय सुतेजसे । देशान्तरात् समागत्य तद्वार्ताश्रवणाद् भृशम् ॥१०॥ दुर्मुखे कुपिते भीत्वा तदानीं तद्वधूवरम् । वजित्वा शक्तिषणस्य शरणं समुपागतम् ॥१०॥ तदुर्मुखोऽपि निर्बन्धाद् अनुगत्य८ वधूवरम् । शक्तिषेणभयाद बद्धवरो निववृते ततः२० ॥११०॥ तत्रैकस्मैए "वियच्चारणद्वन्द्वाय समापुष । शक्तिषेणो ददावन्नं पाथेयं परजन्मनः॥१११॥ तत्रैवागत्य सार्थेशो५ निविष्टो बहुभिः सह । विभुमेरुकदत्ताख्यः श्रेष्ठी भार्यास्य धारिणी ॥११२॥ मन्त्रिणस्तस्य३ भूतार्थः शकुनिः सबृहस्पतिः। धन्वन्तरिश्च चत्वारः सर्वे शास्त्रविशारदाः॥११३॥ एभिः परिवृतः श्रेष्ठी हीनाङगर कञ्चिदागतम् । समीक्ष्यनं कुतो हेतोर्जातोऽयमिति" तान् जगौ ॥११४॥ मृणालवती नगरीका राजा धरणीपति था। उसी नगरी में सुकेतु नामका एक सेठ रहता था जो कि रतिवर्माका पुत्र था। सुकेतुकी स्त्रीका नाम कनकधी था और उन दोनोंके एक भवदत्त नामका पुण्यहीन पुत्र था ।।१०१-१०४॥ उसी नगरमें एक श्रीदत्त सेठ थे। उनकी स्त्रीका नाम था विमलश्री और उनके दोनोंके अत्यन्त प्यारी रतिवेगा नामकी सती पुत्री थी ॥१०५।। उसी नगरके अशोकदेव सेठ और जिनदत्ता नामकी उनकी स्त्रीसे पैदा हुआ सुकान्त नामका एक पुत्र था। जिसका वर्णन ार कर आये हैं ऐसा भवदेव बड़ा दुराचारी था और उस दुराचारीपनके कारण ही उसका दूसरा नाम दुर्मुख भी हो गया था ।।१०६॥ वह भवदेव धन उपार्जनकर रतिवेगाके साथ विवाह करना चाहता था इसलिये व्यापारके निमित्त वह बाहर गया था, परन्तु जब वह विवाहके अवसर तक नहीं आया तब माता पिताने वह कन्या अत्यन्त तेजस्वी सुकान्तके लिये दे दी। जब दुर्मुख (भवदेव) देशान्तरसे लौटकर आया और रतिवेगाके विवाहकी बात सुनी तब वह बहुत ही कुपित हुआ। उसके डरसे वधू और वर दोनों ही भागकर शक्तिषेणकी शरण में पहुंचे ।।१०७-१०९।। दुर्मखने भी हठसे वधू और वरका पीछा किया परन्तु शक्तिषणके डरसे अपना वैर अपने ही मनमें रखकर वहांसे लौट गया ।।११०॥ शक्तिषणने वहां पधारे हुए दो चारण मुनियोंके लिये अपने आगामी जन्मके कलेवाके समान आहार दान दिया था ।।१११।। उसी सरोवरके समीप धनी और सब संघके स्वामी मेरुकदत्त नामका सेठ बहुत लोगों के साथ आकर ठहरा हुआ था। उसकी स्त्रीका नाम धारिणी था। उस सेठके चार मंत्री थे-१ भूतार्थ, २ शकुनि, ३ बृहस्पति और ४ धन्वन्तरि । ये चारों ही मंत्री अपने अपने शास्त्रों में पण्डित थे ।।११२-११३।। एक दिन सेठ इन सबसे घिरा हुआ १ मृणालवत्याम् । २ वणिग्मुख्यस्य। ३ कनकश्रियः । ४ श्रीदत्तविमलश्रियोः। ५ पुत्री। ६ अशोकदेवस्य प्रियतमाया जिनदत्तायाः सुतः । ७ दुर्मुख इति नामान्तरमपि। स दुर्मुखः स्वमातुलं श्रीदत्तं रतिवेगां याचितवान् । मातुलो भणितवान् त्वं व्यवसायहीनो न ददामीति । दुर्मुखोऽवोचत्-यावदहं द्वीपान्तरषु द्रव्यमावागच्छामि तावद् रतिवेगा कस्यापि न दातव्या इति द्वादशवर्षाणि कालावधि दत्वा । ८ धनमर्जयित्वा । गृहीतुमिच्छः । १० कृतद्वादशवर्षादेः सकाशात् । ११ नागतः । १२ रतिवेगा। १३ दीयते स्म। १४ सुकान्तरतिवेगाद्वयम् । १५ गत्वा। १६ समुपाश्रयत् । १७ अविच्छेदेन । १८ पृष्ठतो गत्वा । १६ व्याधुटितवान् । २० सर्पसरोबरस्थितशक्तिषणशिबिरात् । २१ सर्पसरोवरे। २२ गगनचारण । २३ आगताय । समीयुषे ल०, इ०, अ०, म०, प०, स० । २३ संवलम् । २५ वणिक्संघाधिपः । २६ मेरकदत्तस्य । २७ विकलावयवम् । २८ इति पृष्टवान् तं श्रेष्ठिनम् । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयं स्थितःत पयोऽति मन्विष्यन्य" महापुराणम् शकुनिः शकुनाद् दुष्टाद् ग्रहात्पापाद् बृहस्पतिः। धन्वन्तरिस्त्रिदोषेभ्यो जन्मनीति समादिशत् ॥११॥ भूतार्थस्त्वस्तु तत्सर्व कर्म हिंसाधुपाजितम् । प्रधानकारणं तेन' हीनाङग' इति सूक्तवान् ॥११६॥ शक्तिषेण महोपालप्रतिपन्नतुजः पिता। सत्यदेवस्य दृष्ट्वाऽस्मिस्त मन्विष्यन्य दृच्छया ॥११७॥ तदा कृत्वा महद्दुःखं 'सभ्य राकर्ण्यतामिदम् । च्युतं पयोऽतिपाकेन भाजनात्तण्डुलानपि ॥११८॥ भक्ष्यमाणान् कपोताद्यैः पश्यस्तूष्णीमयं स्थितः । क्रोधान्मातुः कनीयस्या० भर्त्सनादागतोऽसहः ॥ अधस्ताद् वक्त्रविवरं प्राणस्येति तदप्ययम् । क्षमते नेति सर्वेषां तदकर्मण्यतां अवन् ॥१२०॥ गन्तुं सहात्मना" "तस्यानभिलाषाद् विषण्णवान् । परस्मिन्नपि भूयासं भवे ते स्नेहगोचरः१८ ॥१२१॥ इति कृत्वा निदानं स द्रव्यसंयममाश्रितः। प्रपेदे लोकपालत्वं तद्गतस्नेहमोहितः ॥१२२॥ कदाचिच्छक्लपक्षस्य दिनादौ भार्यया सह । कृतोपबासया शक्तिषणो भक्तिपुरस्सरम् ॥१२३॥ मुनिभ्यां दत्तदानेन पञ्चाश्चर्यमवाप्तवान् । दृष्टवातच्छ ष्ठि धारिण्यौ प्रावयोरन्यजन्मनि ॥१२४॥ एतावपत्ये भूयास्ता ५ २६निदानं कुरुतामिति । मन्त्रिणस्तस्य चत्वारोऽप्यस्तसर्वपरिग्रहाः ॥१२५॥ बैठा था कि इतने में वहां एक हीन अंगवाला पुरुष आया। उसे देखकर सेठने सब मंत्रियोंसे कहा कि यह ऐसा किस कारणसे हुआ है ? ॥११४॥ इसके उत्तरमें शकुनि मंत्रीने कहा कि जन्मके समय बुरे शकुन होनेसे यह ऐसा हुआ है ? बृहस्पतिने कहा कि जन्मके समय दुष्ट ग्रहोंके पड़नेसे यह हीनांग हुआ है और धन्वन्तरिने कहा कि जन्मके समय वात पित्त कफ इन तीन दोषोंके कारण यह विकलांग हो गया है। यह सुनकर भूतार्थ नामक मन्त्रीने कहा कि आप यह सब रहने दीजिये, इस जीवने पूर्वभवमें हिंसा आदिके द्वारा जो कर्म उपाजन किये थे वे ही इसके हीनांग होने में प्रधान कारण हैं ॥११५-११६।। इतने में ही शक्तिषेण सेनापतिने जिसे अपना पुत्र स्वीकार किया है ऐसे उस सत्यदेवका पिता अपनी इच्छानुसार उसे खोजता हुआ आ पहुंचा। उस हीनांग पुत्रको देखकर उसे बहुत ही दुःख हुआ और वह कहने लगा कि हे सभासदो, सनो, एक दिन घरमें चावल पक रहे थे सो पानीके उफानके कारण कछ चावल बर्तनसे नी गिर गये और उन नीचे गिरे हुए चावलोंको कबूतर आदि पक्षी चुगने लगे परन्तु यह सब देखता हुआ चुपचाप खड़ा रहा-इसने उन्हें भगाया नहीं । तब इसकी मांकी छोटी बहिनने क्रोधसे इसे डांटा, उस डांटको न सह सकनेके कारण ही यह यहां चला आया है। यह इतना असहनशील है कि 'तेरी नाकके नीचे मुंहका छेद है'इस बातको भी नहीं सह सकता है। इस तरह सब सभासदोंसे उसके पिताने उसकी अकर्मण्यताका वर्णन किया। चूंकि सत्यदेव अपने पिताके साथ वापिस नहीं जाना चाहता था इसलिये उसने दुखी होकर निदान किया कि 'अगले भवमें भी मैं तेरे स्नेहका पात्र होऊ' इस प्रकार निदान कर वह द्रव्यलिङ्गी मुनि हो गया और सत्यदेवके प्रेमसे मोहित होकर मरा जिससे लोकपाल हआ ॥११७-१२२॥ किसी एक समय शुक्लपक्षकी प्रतिपदाके दिन शक्तिषणने उपवास करनेवाली अपनी स्त्री अटवीश्रीके साथ साथ भक्तिपूर्वक हो मुनियोंको आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये, उसे देखकर सेठ मेरुकदत्त और उनकी स्त्री धारिणीने निदान किया कि ये दोनों अगले जन्ममें हमारी ही संतान हों।'सेठ मेरुक १ कर्मकरणेन । २ विकलांगो जात इति । ३ सुष्ठ प्रोक्तवान् । ४ शक्तिषेणनामसामन्तेनायं मम पुत्र इति स्वीकृतसुतस्य । ५ सत्यकनामजनकः । ६ सर्पसरोवरे। ७ गवेषयन्नित्यर्थः । ८ सभाजनैः । ६ सत्यदेवजनन्याः। १० भगिन्याः । ११ असहमानः । १२ सभाजनानाम् । १३ तत् सत्यदेवस्य कर्मण्यक्षमताम् । १४ सत्यकेन स्वेन । १५ सत्यदेवस्य । १६ अनभिमतात् । १७ भवेयम् । १८ स्नेहगोचरम् इ०, अ०, स० । १६ सत्यकः । २० लोकपालनाय देवत्वम् । २१-पुरस्सर: ल० । २२ दानसञ्जाताश्चयम् । २३ मेरुकदत्ततार्याधारिण्यौ। २४ शक्तिषणाविक्रियो। २५ पुत्रौ । २६ अकुरुताम् । २७ मेरुकदत्तस्य । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व तपो विधाय कालान्ते समापन् लोकपालताम्' । वधूवरं च दानानुमोदपुण्यमवाप्तवत् ॥१२६॥ " तदाकयं महीशस्य' देवी' वसुमती तदा । स्वजन्मान्तर सम्बोधमूर्द्धानन्तरबोधित्त ॥१२७॥ श्रहं पूर्वोक्त' देवश्रीस्त्वत्प्रसादादिमां' श्रियम् । प्राप्ता तदातनो राजा" वद क्वाद्य प्रवर्तते ॥१२८ इति तस्याः परिप्रश्न स प्रजापालभूपतिः । लोकपालोऽयमित्युक्ते प्रियदत्ता स्वपूर्वजम् ॥ १२६ ॥ जन्मावबुद्ध्य वन्दित्वा साऽटवीश्रीरियं त्वहम् । शक्तिषेणो मम प्रेयान् असौ क्वाद्य प्रवर्तते ॥१३०॥ इति पृष्टाऽवदच्छक्तिषेणस्ते "ऽयं " मनोरमः । कुबेरदयितः सत्यदेवोऽभूत्तनु जस्तव ॥१३१॥ देवभूयं " गताः श्रेष्ठिसचिवास्त्वत्पते" शम् । २० आरभ्य जन्मनः स्नेहात् परिचर्यां प्रकुर्वते ॥१३२॥ कुबेरदयितस्यापि पिता प्राच्यः स सत्यकः । पाता र गत्यन्तरस्थाश्च पुण्यात् स्निह्यन्ति देहिनः ॥१३३॥ भवदेवेन र निर्दग्धं द्विजावेतौ " वधूवरम् । सार्थेशो" धारिणी चेहरा पत्युस्ते पितराविमौ ॥ १३४॥ ४५७ दत्तके चारों मंत्रियोंने सब परिग्रहका परित्याग कर तप धारण किया और आयुके अन्तमें लोकपालकी पर्याय प्राप्त की । इसी प्रकार सुकान्त और रतिवेगा नामके वधू-वरने भी दानकी अनुमोदना करने से प्राप्त हुआ बहुत भारी पुण्य प्राप्त किया ॥ १२३ - १२६ ।। यह सब सुनकर राजा लोकपालकी रानी वसुमती को अपने पूर्वजन्मकी सब बात याद आ गई जिससे वह मूच्छित हो गई और सचेत होनेपर अमितमति आर्यिकासे कहने लगी कि मैं पूर्वजन्ममें शोभानगरके राजा प्रजापालकी रानी देवश्री थी, आपके प्रसादसे ही मैं इस लक्ष्मीको प्राप्त हुई हूँ, मेरे उस जन्मके पति राजा प्रजापाल आज कहाँ हैं ? यह कहिये ।। १२७ - १२८ ।। इस प्रकार वसुमतीका प्रश्न समाप्त होनेपर अमितमति आर्यिकाने कहा कि यह लोकपाल ही पूर्वजन्मका प्रजापाल राजा है । इतना कहते ही प्रियदत्ताको भी अपने पूर्वभवकी याद आ गई। उसने आर्थिक को वन्दना कर कहा कि शक्तिषेणकी स्त्री अटवीश्री तो मैं ही हूँ, कहिये मेरा पति शक्तिषेण आज कहाँ है ? इस प्रकार पूछा जाने पर अमितमतिने कहा कि यह तेरा पति कुबेरकान्त ही उस जन्मका शक्तिषेण है और यह कुबेरदयित ही उस जन्मका सत्यदेव है जो कि तुम्हारा पुत्र हुआ है । सेठ मेरुकदत्तके जो भूतार्थ आदि चार मंत्री थे वे देवपर्यायको प्राप्त हो स्नेहके कारण जन्म से ही लेकर तुम्हारे पतिकी भारी सेवा कर रहे हैं- कामधेनु और कल्पवृक्ष बनकर सेवा कर रहें हैं ।। १२९ - १३२ ।। कुबेरदयितका पूर्व जन्मका पिता सत्यक भी देव होकर उसकी रक्षा करता है सो ठीक ही है क्योंकि पुण्य के प्रभावसे दूसरी गतिमें रहनेवाले जीव भी स्नेह करने लग जाते हैं ॥ १३३ ॥ भवदेवने पूर्वोक्त वधू-वर (रतिवेगा और सुकान्त ) को जला दिया था इसलिये वे दोनों ही मरकर ये कबूतर कबूतरी हुए हैं । सेठ मेरुकदत्त और वत्यहम् । १ लोकपालसुरत्वम् । २ सुकान्तरतिवेगेति मिथुनम् । ३ प्राप्तम् । ४ पुण्यम् । प्राप्तमित्यादिवचनम् । ५ प्रजापालपुत्रलोकपालस्य । ६ भार्या कुवेरमित्रस्य, पौत्री वसुमती । ७ निजभवान्तरपरिज्ञानजात । ८ शोभानगरपतिप्रजापाल महीपतेर्भाया देवश्रीः । हे अमितमत्यायिके, भवत्प्रसादात् । १० प्राप्त११ शोभानगरप्रतिपालप्रजापाल इत्यथः । १२ तव भर्ता लोकपालः । १३ आर्यिका । १४ तव प्रियदत्तायाः । १५ पुरावर्ती । १६ कुबेरकान्तः । १७ शक्तिषेणस्य स्वीकृतपुत्रः । कुबेरदयित इति तव पुत्रोऽभूदिति सम्बन्धः । १८ देवत्वम् । १६ तव भर्तुः कुबेरकान्तस्य । २० जननकालादारभ्य कामधेनुरुत्तमेति श्लोकोक्तसेवां कुर्वते । २१ पूर्वभवसम्बन्धिपिता सत्यकः । २२ रक्षकोऽभूत् । २३ रतिवर्मकनकश्रियोः सूनुना भवदेवेन । क्रोधात् शक्तिषेणकालान्तरेण निर्दग्धं वधूवरं सुकान्तरति - वेगेति द्वयम् । २४ कंपोतपक्षिणावभूतामिति सम्बन्धः । २५ मेरुकदत्तः । २६ अस्यां पुर्याम् । पुण्डरीकिण्याम् । २७ तव भर्तुः कुबरेकान्तस्य । २८ कुबेरमित्रधनवत्यौ । ५८ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ महापुराणम् इत्युक्त्वा सेवमप्याह खगाचलसमीपगे। वसन्तौ चारणावद्रो मनी मलयकाञ्चने ॥१३५॥ पूर्व वननिवेशे तौ भिक्षार्थ समुपागतौ । तव पुत्रसमुत्पत्तिम् उपदिश्य गतौ ततः १३६॥ अन्येधुर्वसुधारादिहेतुभूतौ कपोतको । दृष्ट्वा सकरुणौ भिक्षाम् अनादाय वनं गतौ ॥१३७॥ गुर्वोर्गुरुत्वं युवयोः उपयातौ "तयोरिदम् । उपदेशात् समाकर्ण्य सर्वमुक्तं यथाश्रुतम् ॥१३८॥ इति तेऽमितमत्युक्तकथावगमतत्पराः । स्वरूपं संसृतेः सम्यक् मुहुर्मुहुरभावयन् ॥१३॥ एवं प्रयाति कालेऽसौ प्रियदत्ता प्रसङगतः । यशस्वतीगुणवत्यौ युवाभ्यां केन हेतुना ॥१४०॥ इयं दीक्षा गृहीतेति पप्रच्छोत्पन्नकौतुका । ते च तत्कारणं स्पष्टं यथावृत्तमवोचताम् ॥१४१॥ ततो धनवती दीक्षां गणिन्याः सन्निधौ ययौ । माता कबरसेना च तयोरायिकयोर्वयोः ॥१४२॥) तावन्याः कपोतौ च ग्रामान्तरमुपाश्रितो । तण्डुला पयोगाय" समवतिप्रचोदितौ ८ ॥१४३॥ भवदेवचरणान बद्धवरेण पापिना ।दष्टमात्रोत्थकोपेन० मारितौ पुरवंशसा ॥१४४॥ तद्राष्ट्रविजयार्द्धस्य दक्षिणश्रेणिमाश्रिते । गन्धारविषयोशीरवत्याख्यनगरेऽधिपः ॥१४॥ उनकी स्त्री धारिणी यहां तेरे पति कुबेरकान्तके माता पिता हुए हैं ।।१३४।। इतना कहकर अमितमति यह भी कहने लगी कि विजया पर्वतके समीप मलयकांचन नामके पर्वतपर दो मुनिराज रहते थे, जब पूर्वजन्ममें शक्तिषेण सर्पसरोवरके समीप डेरा डालक र वनमें ठहरा हुआ था तब वे भिक्षाके लिये तेरे यहां आये थे और तेरे अंगुलियोंके इशारेसे पांच पुत्र तथा एक पुत्री होगी ऐसा कहकर चले गये थे। तदनन्तर रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्योंके कारण स्वरूप वे मुनिराज इस जन्ममें भी किसी समय तेरे घर आये थे परन्तु कबूतर-कबूतरीको देखकर दयायुक्त हो बिना भिक्षा लिये ही वनको लौट गये थे । वे ही तेरे पिता और तेरे पतिके गुरु हुए हैं। उन्हींके उपदेशसे मैंने यह सब सुनकर अनुक्रमसे कहा है ॥१३५-१३८॥ इस प्रकार जो पुरुष अमितमति आर्यिकाके द्वारा कही हुई कथाके सुनने में तल्लीन हो रहे थे वे संसारके सच्चे स्वरूप र चिन्तवन करने लगे ॥१३९॥ इस प्रकार कुछ समय व्यतीत होनेपर किसी दिन प्रियदत्ताने प्रसङ्ग पाकर यशस्वती और गुणवतीसे पूछा कि आप लोगोंने यह दीक्षा किस कारण ग्रहण की है? मुझे यह जाननेका कौतुक हो रहा है । तब उन दोनोंने स्पष्ट रूप अपनी दीक्षाका कारण बतला दिया ॥१४०-१४१।। तदनन्तर कुबेरमित्रकी स्त्री धनवतीने संघकी स्वामिनी अमितमतिके पास दीक्षा धारण कर ली और उन दोनों आयिकाओंकी माता कुबेरसेनाने भी अपनी पुत्रीके समीप दीक्षा धारण की ॥१४२।। किसी एक दिन यमराजके द्वारा प्रेरित हुए ही क्या मानो वे दोनों कबूतर-कबूतरी चावल चगनेके लिये किसी दूसरे गांव गये। वहां एक बिलाव था जो कि भवदेवकाज उस पापीको पूर्व जन्मसे बंधे हुए वैरके कारण कबूतर-कबूतरीको देखते ही पापकी भावना जागृत हो उठी और उसने उन दोनोंको मार डाला ॥१४३-१४४।। उसी पुष्कलावती देशके विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में एक गांधार नामका देश है और उसमें उशीरवती १ अमितमत्यायिका। २ विजयाचपर्वत। ३ निवसन्तौ। ४ शक्तिषेणाटवीश्रीभवे । ५ सर्पसरोवरनिवेशे। ६ कुबेरमित्रसमुद्रदत्तयोः। ७ कुबेरकान्तप्रियदत्तयोः गुरुत्वमुपयातौ यो द्वौ तयोरेव चारणयोः । ८ यथाक्रमम् ल०।६ लोकपालादायः । १० परिज्ञाने रताः। ११ यशस्वतीगुणवत्यौ । १२ मम मातुलकुबेरदत्ताद विविधभक्ष्यपूर्वभोजनालाभाज्जातलज्जया तपो गृहीतम् । १३ कुबेरमित्रस्य भार्या । १४ अमितमत्यायिकायाः। १५ जगत्पालचक्रवर्तिपुन्योरमितमत्यनन्तमत्योर्जननी। १६ जम्बूग्रामम् । १७ भक्षणाय। १८ अन्तकप्रेरितौ। १६ पूर्वस्मिन् भवदेवेन । २० प्रापेन ल० । २१ जम्बूग्रामस्य कदलीवनस्थमार्जारेण । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व ४५९ पावित्यगतिरस्यासीन्महादेवी शशिप्रभा। तयोहिरण्यवर्माख्यः सुतो रतिवरोऽभवत् ॥१४६॥ तस्मिन्नेवोत्तरश्रेण्या गौरीविषयविश्रुते । पुर भोगपुर वायुरयो विद्याधराधिपः ॥१४७॥ तस्य स्वयंप्रभादेव्यां रतिषणा प्रभावती। बभूव जैनधर्माशोऽप्यभ्युद्धरति देहिनः ॥१४८॥ माता पिताऽपि या यश्च सुकान्तरतिवेगयोः । जन्मन्यस्मिन् किलाभूतां चित्रं तावेव' संसृतिः ॥१४॥ हा मे प्रभावतीत्याह जयश्चेत ससुलोचनः । रूपादिवर्णनं तस्याः किं पुनः क्रियते पृथक् ॥१५०॥ यौवनेन समाक्रान्तां कन्यां रष्ट्वा प्रभावतीम् । कस्म देयेयमित्याह खगेशो मन्त्रिणस्तवः (ततः) ॥१५१॥ शशिप्रभा स्वसा देव्या भ्रातादित्यगतिस्तथा । पर च खचराधीशाःप्रीत्याऽयाचन्त कन्यकाम् ॥१५२॥ ततः स्वयंवरो युक्तो विरोधस्तम्न केनचित् । इत्यभाषन्त निश्चित्य 'तद्भूपोऽप्यभ्युपागमत् ॥१५३॥ ततः सर्वेऽपि तद्वार्ताकर्णनादागमन वराः । कमप्येतेषु सा कन्या नाग्रहीद रत्नमालया ॥१५४॥ मातापितुभ्यां तद् दृष्ट्वा सम्पुष्टा प्रियकारिणी । यो जयेद् गतियुद्धे मां माला संयोजयाम्यहम् ॥१५॥ कण्ठे तस्येति वक्त्येषा प्रागित्याह सखी तयोः । श्रुत्वा तत्र दिने सर्वानुचितोक्त्या व्यसर्जयत् ॥१५६॥ नामकी एक नगरी है। उसके राजा थे आदित्य गति और उनकी रानीका नाम था शशिप्रभा। रतिवर कबूतर मरकर उन दोनोंके हिरण्यवर्मा नामका पुत्र हुआ ॥१४५-१४६॥ उसी विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणी में एक गौरी नामका देश है उसके भोगपुर नामके प्रसिद्ध नगरमें विद्याधरोंका स्वामी राजा वायुरथ राज्य करता था। उसकी स्वयंप्रभा नामकी रानी थी। रतिषणा कबूतरी मरकर उन्हीं दोनोंको प्रभावती नामकी पुत्री हुई सो ठीक ही है क्योंकि जैनधर्मका एक अंश भी प्राणियोंका उद्धार कर देता है ॥१४७-१४८॥ सुकान्त और रतिवेगाके जो पहले माता-पिता थे वे ही इस जन्ममें भी माता-पिता हुए हैं सो ठीक ही है क्योंकि यह संसार बड़ा ही विचित्र है । भावार्थ-सुकान्तके पूर्वभवके माता-पिता अशोक और जिनदत्ता इस भवमें आदित्यगति और शशिप्रभा हुए हैं तथा रतिवेगाके पूर्वभवके माता-पिता विमलश्री और श्रीदत्ता इस भवमें वायुरथ तथा स्वयंप्रभा हुए हैं ॥१४९॥ जब जयकुमारने सुलोचनाके साथ बैठकर 'हा मेरी प्रभावती' ऐसा कहा तब फिर उसके रूप आदिका वर्णन अलगसे क्या किया जाय ? ।।१५०॥ प्रभावती कन्याको यौवनसे सम्पन्न देखकर विद्याधरोंके अधिपति वायुरथने अपने मंत्रियोंसे कहा कि यह कन्या किसे देनी चाहिये ? ॥१५१॥ __मंत्रियोंने परस्परमें निश्चय कर कहा कि 'शशिप्रभा आपकी बहिन है, और आदित्यगति आपकी पट्टराज्ञीका भाई है। ये दोनों तथा इनके सिवाय और भी अनेक विद्याधर राजा बड़े प्रेमसे कन्याकी याचना कर रहे हैं इसलिये स्वयंवर करना ठीक होगा क्योंकि ऐसा करनेसे किसीके साथ विरोध नहीं होगा।' मन्त्रियोंकी यह बात राजाने भी स्वीकार की ॥१५२-१५३॥ तदनन्तर स्वयंवरकी बात सुनकर सभी राजकुमार आये परन्तु कन्या प्रभावतीने इन सबमें से किसीको भी रत्नमालाके द्वारा स्वीकार नहीं किया-किसीके भी गलेमें रत्नमाला नहीं डाली ॥१५४॥ यह देखकर माता-पिताने उसकी सखी प्रियकारिणीसे इसका कारण पूछा, सखीने उन दोनोंसे कहा कि यह पहले कहती थी कि 'जो मुझे गतियुद्ध में जीतेगा मैं उसीके गलेमें माला डालुंगी' यह सुनकर राजाने उस दिन यथायोग्य कहकर सबको बिदा किया ॥१५५-१५६॥ १ रतिवरनामकपोतः । २ रतिषेणा नाम कपोती। ३ श्रीदत्तविमलश्रियौ। अशोकदेवजिनदत्ते द्वे च अभूतां वायुरथस्वयंप्रभादेव्यौ चादित्यगतिशशिप्रभे च पितरावभूतामिति । ४ सुलोचनया सहितः । ५ तव शशिप्रभेति भगिनी। ६ वायुरथस्य तव भार्यायाः। ७ स्वयंप्रभादेव्या भ्राता आदित्यगतिश्च सोऽपि स्वपुत्राय याचितवान् इत्यर्थः । ८ एवं सति। ६ तथास्त्वित्यनुमतिमकरोत् । १० कन्यायाः सखी । ११ वायुरथस्वयम्प्रभयोः । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० महापुराणम् अन्येद्यः खचराधीशो घोषयित्वा' स्वयंवरम् । सिद्धकूटाख्यचैत्यालयस्य मालां पुरःस्थिताम् ॥१५७॥ अपातयन्महामेरुं त्रिः परीत्य महीतलम् । अस्पृष्टां खेचराः केचित्तां ग्रहीतुमनीश्वराः ॥१५८॥ अपां गताः समादाय प्रभावत्या विनिजिताः । समो ननु न मृत्युश्च मानभङगेन मानिनाम् ॥१५॥ ततो हिरण्यवर्मास्याद् गतियुद्धविशारदः । मालामासञ्जयामास तत्कण्ठे तेन निजिता ॥१६०॥ तयोः जन्मान्तरस्नेहसमुद्धसुखसम्पदा । काले गच्छति कस्मिश्च (चित्) कपोतद्वयदर्शनात् ॥१६॥ ज्ञातप्राग्भवसम्बन्धा सुविरक्ता प्रभावती। स्थिताशोकाकुलकेव' चिन्तयन्ती किमप्यसौ ॥१६२॥ हिरण्यवर्मणा ज्ञातजन्मना लिखितं स्फुटम् । पट्टकं प्रियकारिण्या हस्ते समवलोक्य तम् ॥१६३॥ क्व लब्धमिदमित्याख्यत् प्राह सापि प्रियेण ते लिखितं चेटकस्तस्य सुकान्तो मे समर्पयत् ॥१६४॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा स्वयमप्यात्मवृत्तकम् । प्राक्तनं पट्टके तस्या लिखित्वाऽसौ करे ददौ ॥१६॥ तविलोक्य कुमारोऽभूत् प्रभावत्यां प्रसक्तधीः। साऽपि तस्मिन् तयोः प्रीतिः प्राक्तन्याद्विगुणाऽभवत् सम्भूय बान्धवाः सर्व कल्याणाभिषवं तयोः । अकुर्वन्निव कल्याणं द्वितीयं ते चिकीर्षवः ॥१६७॥ दशम्यां३ सिद्धकूटाने स्नानपूजाविधौ सुवित् । हिरण्यवर्मणा वीक्ष्य परमावधिचारणः ॥१६८॥ दूसरे दिन राजाने स्वयंवरकी घोषणा कराकर कहा कि 'एक माला सिद्धकूट नामक चैत्यालयके द्वारसे नीचे छोड़ी जायगी' जो कोई विद्याधर माला छोड़नेके बाद महामेरु पर्वतकी तीन प्रदक्षिणाएं देकर प्रभावतीके पहले उसे जमीनपर पड़नेके पहले ही ले लेगा वही इसका पति होगा' यह सुनकर बहुतसे विद्याधरोंने प्रयत्न किया परन्तु पूर्वोक्त प्रकारसे माला न ले सके इसलिये प्रभावतीसे हारकर लज्जित होते हुए चले गये सो ठीक ही है क्योंकि मृत्यु भी अभिमानी लोगों के मानभंग की बराबरी नहीं कर सकती है ॥१५७-१५९॥ तदनन्तर गतियुद्ध करनेमें चतुर हिरण्यवर्मा आया और उससे हारकर प्रभावतीने वह माला उसके गलेमें डाल दी ।।१०६।। पूर्व जन्मके स्नेहसे बढ़ी हुई सुखरूप सम्पत्तिसे जब उन दोनोंका कितना ही समय व्यतीत हो गया तब किसी एक दिन कबूतर-कबूतरीका जोड़ा देखनेसे प्रभावतीको पूर्वभवका सम्बन्ध याद आ गया, वह विरक्त होकर शोकसे व्याकुल होती हुई अकेली बैठकर कुछ सोचने लगी ॥१६१-१६२।। इधर हिरण्यवर्माको भी जाति स्मरण हुआ था, उसने एक पटियेपर अपने पूर्वजन्मका सब हाल साफ साफ लिखकर प्रभावतीकी सखी प्रियकारिणीको दिया था. प्रभावती ने प्रियकारिणीके हाथमें वह पटिया देखकर कहा कि यह चित्रपट तुझे कहां मिला है ? सखीने कहा कि 'यह चित्रपट तेरे पतिने लिखा है और उनके नौकर सकान्तने मुझे दिया है, इस प्रकार सखीके वचन सुनकर प्रभावतीने भी एक पटियेपर अपने पूर्वजन्मका सब वृत्तान्त लिखकर सखी के हाथमें दिया ॥१६३-१६५॥ वह चित्रपट देखकर हिरण्यवर्मा प्रभावतीपर बहुत अनुराग करने लगा और प्रभावती भी हिरण्यवर्मापर बहुत अनुराग करने लगी, उन दोनोंका प्रेम पूर्व पर्यायके प्रेमसे कहीं दूना हो गया था ॥१६६।। कुटुम्बके सब लोगोंने मिलकर उन दोनोंका मंगलाभिषेक किया मानो वे उनका दूसरा कल्याण ही करना चाहते हों ।।१६७।। किसी समय दशमी के दिन ये दोनों सिद्धकूटके चैत्यालयमें अभिषेक पूजन आदि कर रहे थे उसी समय हिरण्य १ स्वयंवरमिति घोषयित्वा तद्दिने व्यसर्जयदिति सम्बन्धः । २ भूमौ पातयति स्म । ३ मेरोस्त्रिः ल०। ४ संयोजयति स्म । ५ असहायैव । ६ प्रभावत्याः सख्याः । ७ हस्ते स्थितम् । ८ हिरण्यवर्मणः । । प्राग्भवम्, पुरातनमित्यर्थः । १० प्रभावती । ११ पुरातनी । १२ आ समन्ताद द्विगुणा । १३ विवाहदिनाद् दशमदिने । १४ अभिषेकपूजाविधौ। १५ प्रत्यक्षज्ञानम् । प्रत्यक्षज्ञानी ता० टि० । क्वचित् अ०, प०, स०, इ०, ल०। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व प्रभावत्या च पृष्टोऽसौ स्वं पूर्वभववृत्तकम् । प्रभाषत मुनेश्चैवमनुग्रहधिया तयोः ॥१६॥ ततीयजन्मनीतोऽत्र सम्भूतौ वणिजां कुले। रतिवेगा सुकान्तश्च प्राक् मृणालवतीपुरे ॥१७०॥ भर्तु भार्यामिसम्बन्ध सम्प्राप्यारिभयाद्। गतौ । कृत्वाऽनुमोदनं शक्तिषणवाने सपुण्यकौ ॥१७१॥ पारावतभवे चाप्य धर्म जातौ युवामिति । विधाय पितरौ वैश्यजन्मनोर्याविहापि तौ ॥१७२॥ तृतीयजन्मनो "युष्मद्गुरवोऽहं च सङगताः । रतिषेणगुरोः पार्वे गृहीतप्रोषधाश्चिरम् ॥१७३॥ जिनेन्द्रभवने भक्त्या नानोपकरणः सदा । विधाय पूजां समजायामहीह खगाधिपाः ॥१७४॥ पिताऽहं भवदेवस्य रतिवर्माभिधस्तदा । भूत्वा श्रीधर्मनामाऽतः संयमं प्राप्य शुद्धधीः ॥१७॥ चारणत्वं तृतीयं च ज्ञानं प्रापमिहेत्यदः । श्रुत्वा मुनिवचः प्रीतिमापद्येतान्तरां च तौर ॥१७६॥ एवं सुखेन यात्येषां काले वायुरथः पृथुम् । विशरारुं१३ समालोक्य स्तनयित्न" प्रतिक्षणम् ॥१७७॥ "विश्वं विनश्वरं पश्यन शश्वच्छाश्वतिकी मतिम् । जनः करोति सर्वत्र दुस्तरं किमिदं तमः ॥१७८॥ इति याथात्म्यमासाद्य दत्वा राज्यं विरज्य सः । मनोरथाय नैस्सङग्यं "प्रपित्सुरभवत्तदा ॥१७॥ आदित्यगतिमभ्येत्य प्रोत्या सर्वेऽपि बान्धवाः । प्रभावतीसुता देया भवतेयं रतिप्रभा ॥१८॥ वर्माने परमावधि ज्ञानको धारण करनेवाले चारणमुनि देखे, प्रभावतीने उनसे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त पूछा, मुनिराज भी अनुग्रह बुद्धिसे उन दोनोंके पूर्वभवका वृत्तान्त इस प्रकार कहने लगे ॥१६८-१६९।। कि तुम दोनों इस जन्मसे तीसरे जन्ममें मृणालवती नगरीके तवेगा तथा सकान्त हए थे ।।१७०॥ स्त्री पुरुषका सम्बन्ध पाकर तुम दोनों शत्रुके भयसे भागकर शक्तिषेणकी शरण गये थे। वहां शक्तिषणने मुनिराजके लिये जो आहार दान दिया था उसकी अनुमोदना कर तुम दोनोंने पुण्यबंध किया था, उसके बाद कबूतर-कबूतरी के भवमें धर्म लाभकर यहां विद्याधर-विद्याधरी हुए हो। तुम दोनोंके वैश्य जन्मके जो माता पिता थे वे ही इस जन्मके भी तुम्हारे माता पिता हुए हैं। तीसरे जन्मके तुम्हारे माता पिता तथा मैंने मिलकर एक साथ रतिषेण गुरुके समीप प्रोषध व्रत लिया था, और उसका चिरकाल तक पालन करते हुए श्रीजिनेन्द्रदेवके मन्दिरमें भक्तिपूर्वक अनेक उपकरणोंसे सदा पूजा की थी उसीके फलस्वरूप हम लोग यहां विद्याधर हुए हैं। मैं पूर्वभवमें रतिवर्म नामका भवदेवका पिता था, अब श्रीधर्म नामका विद्याधर हआ हँ, मैंने शद्ध हृदयमेंसे संयम धारणकर चारणऋद्धि और तीसरा अवधि ज्ञान प्राप्त किया है इस प्रकार मुनिराजके वचन सुनकर हिरण्यवर्मा और प्रभावती दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए ॥१७१-१७६।। इस तरह इन सबका समय सुखसे व्यतीत हो रहा था कि किसी एक समय प्रभावतीके पिता वायुरथ विद्याधरने प्रत्येक क्षण नष्ट होनेवाला मेघ देखकर ऐसा विचार किया कि यह समस्त संसार इसी प्रकार नष्ट हो जानेवाला है, फिर भी लोग इसे स्थिर रहनेवाला समझत हैं, यह अज्ञानरूपी घोर अंधकार सब जगह क्यों छाया हुआ है ? इस प्रकार यथार्थ स्वरूपका वारकर विरक्त हो मनोरथ नामक पत्रके लिये राज्य दे दिया और स्वयं निर्ग्रन्थ अवस्था धारण करनेकी इच्छा करने लगे ।।१७७-१७९।। उसी समय वायुरथके सभी भाई-बन्धुओंने बड़े १ स्वपूर्व-अ०, प०, इ०, स०, ल० । २ दम्पतिसम्बन्धम् । ३ भवदेवभयात् । ४ पलायिती । ५ प्राप्य । ६ श्रीदत्तविमलश्रियौ। अशोकदेवजिनदत्ते च । ७ युवयोः पितरः । श्रीदत्तविमलश्री-अशोकदेवजिनदत्ताः । ८ भवदेवस्य पिता रतिवर्मा। ६ जाताः स्म। १० श्रीधर्मखगाधिपतिः। ११ हिरण्यवर्मप्रभावत्यौ। १२ वायुरथादीनाम्। १३ विनश्वरशीलम् । १४ मेघम् । 'अभ्र मेघो वारिवाहः स्तनयित्नुर्बलाहकः' इत्यभिधानात् । १५ पुत्रमित्रकलत्रस्रक्चन्दनादिकम् । १६ अज्ञानम् । १७ विरक्तो भूत्वा। १८ प्राप्तुमिच्छुः । १६ वायुरथस्य बन्धुजनाः । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् मनोरथस्य पुत्राय कन्या चित्ररथाय सा । इत्याहुः सोऽप्यनुज्ञाय कृत्वा बन्धुविसर्जनम् ॥१८१॥ 'हिरण्यवर्भणः सर्वखगराजाभिषेचनम् । विधाय बहुभिः साधं सम्प्राप्य मुनिपुडगवम् ॥१२॥ संयम प्रतिपन्नः सन् सहवायुरथः स्वयम् । तपो द्वादशधा प्रोक्तं यथाविधि समाचरत् ॥१८३॥ इत्युक्त्वा रतिवेगाऽहं रतिषेणा प्रभावती । चाहमेवेति सभ्यानां निजगाद सुलोचना ॥१८४॥ तदाकर्ण्य जयोऽप्याह पतिस्तासामहं० क्रमात् । जाये स्मर तत्र तत्रेति विश्वविस्मयकृद्वचः ॥१८॥ पुनः प्रियां जयः प्राह प्रकृतं किञ्चिदप्यतः । अवशिष्टं तदप्युच्चस्त्वया कान्ते निगद्यताम् ॥१८६॥ इति पत्युः परिप्रश्नाद्दशन ज्योत्स्नया सभाम् । मूतिः कमवती वेन्दोविकासमुपनीयताम् ॥१८७॥ साऽब्रवीदिति तद्वत्तं स्वपुण्यपरिपाकजम् । सुखं राज्यसमुद्भुतं यथेष्टमपि निविशन्२ ॥१८॥ परेाः कान्तया सार्द्ध स्वेच्छया विहरत् वनम् । सरो धान्यकमालाख्यं वीक्ष्यादित्यगतेः सुतः ॥१८६॥ "स्वप्राच्यभवसम्बन्धं प्रत्यक्षमिव लक्षयन् । काललब्धिबलाल्लब्धनिर्वेदो विदुषां वरः ॥१०॥ भङगुरः१६ सङगमः सर्वोऽप्यगिनामभिवाञ्छितः । किं नाम सुखमत्रेदम् अल्पसडकल्पसम्भवम् ॥१६॥ आयुर्वायुचलं कायो हेय एवामयालयः । साम्राज्यं भुज्यते "लोलर्बालि"शबहुदोषलम्॥१९२॥ अदूरपारः० कायोऽयम् असारो दुरिताश्रयः । एतादात्म्यप्रात्मनोऽनेन धिगेनमशुचिप्रियम् ॥१६॥ प्रेमसे आदित्यगतिके समीप जाकर प्रार्थना की कि यह प्रभावतीकी पुत्री रतिप्रभा कन्या आप मेरे मनोरथके पुत्र चित्ररथके लिये दे दीजिये।' आदित्यगतिने भी स्वीकार कर समागत बन्धुओंको बिदा किया ॥१८०-१८१॥ महाराज आदित्यगति सब विद्याधरोंके राज्यपर हिरण्यवर्माका अभिषेक कर अनेक लोगोंके साथ किन्हीं मुनिराजके समीप पहुंचे, और वायुरथ के साथ साथ स्वयं भी संयम धारण कर विधिपूर्वक शास्त्रोंमें कहे हुए बारह प्रकारके तपश्चरण करने लगे ॥१८२-१८३॥ यह सब कहकर सुलोचनाने सब सभासदोंसे कहा कि वह रतिवेगा भी मैं ही हूँ, रतिषणा (कबूतरी) भी मैं ही हूँ और प्रभावती भी मैं ही हूँ ॥१८४॥ यह सुनकर जयकुमारने भी सबको आश्चर्य करनेवाले वचन कहे कि उन तीनों भवोंमें अनु क्रमसे मैं ही उन रतिवेगा आदिका पति हुआ हूँ॥१८५।। जयकुमार फिर अपनी प्रिया-सुलोचनासे कहने लगा कि हे प्रिये, कुछ बात बाकी और रह गई है उसे भी तू अच्छी तरह कह दे ॥१८६।। जिस प्रकार चन्द्रमाकी मूर्ति कुमुदिनीको विकसित कर देती है उसी प्रकार वह सुलोचना भी अपने पतिके पूर्वोक्त प्रश्नसे दांतोंकी कान्तिके द्वारा सभाको विकसित-हर्षित करती हुई अपने पुण्यके फलसे होनेवाले समाचारोंको इस प्रकार कहने लगी कि वह हिरण्यवर्मा राज्यसे उत्पन्न हुए सुखका इच्छानुसार उपभोग करने लगा। किसी एक दिन अपनी वल्लभाके साथ विहार करता हुआ वह आदित्यगतिका पुत्र हिरण्यवर्मा धान्यकमाल नामके वनमें जा पहुंचा। वहां ससरोवर देखकर उसे अपने पूर्वभवके सब सम्बन्ध प्रत्यक्षकी तरह दिखने लग, काललब्धिके निमित्तसे जिसे वैराग्य उत्पन्न हआ है और जो विद्वानोंमें श्रेष्ठ है ऐसा वह हिरण्यवर्मा सोचने लगा कि प्राणियोंकी इच्छाका विषयभूत यह सभी समागम क्षणभंगुर है, इस समागममें थोड़ेसे संकलसे उत्पन्न हुआ यह सुख क्या वस्तु है ? यह आयु वायुके समान चंचल है । अनेक रोगोंका घर स्वरूप यह शरीर छोड़ने योग्य ही है। अनेक दोषोंको देनेवाले राज्यको चंचल १ वायुरथस्थ वियोगादाहुः। २ तथास्त्वित्यनुमतिं कृत्वा। ३ अयं श्लोकः ल०म० पुस्तकयोनं दृश्यते। ४ वायुरथेन सहितः । ५ आदित्यगतिः। ६ रविषेणेति कपोती। ७ सुलोचना । ८ सभाजनानाम् । ६ अभाषत । १० रतिवेगादीनाम् । ११ जातोऽस्मि । १२ अनुभवन् । १३ प्रभावत्या सह । १४ हिरण्यवर्मा। १५ पूर्वभव । १६ क्षयशीलः । १७ आसक्तैः । १८ मूखैः । १६ बहुदोषप्रदम् । २० आसन्नावसानः । २१ तत्स्वरूपत्वम् । २२ कायेन । २३ आत्मानम् । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व ४६३ देहवासो भयं नास्य 'यानमस्मान्महद् भयम् । देहिनः किल मार्गस्य "विपर्यासोऽत्र निर्वृतेः॥१६४॥ नीरूपोऽयं स्वरूपेण रूपी देहररूपता । निर्वाणाप्तिरतो हेयो देह एव यथा तथा॥१६॥ बन्धः सर्वोऽपि सम्बन्धो" भोगो रोगो रिपुर्वपुः। दीर्घमायासमत्यायुः तुष्णाग्नेरिन्धनं धनम् ॥१९६॥ आदौ जन्म जरा रोगा मध्येऽन्तेऽप्यन्तकः खलः । इति चक्रकसम्भ्रान्तिः जन्तोर्मध्येभवार्णवम् ॥१७॥ भोगिनो भोगवद् भोगा न भोगा नाम भोग्यकाः । एवं भावयतो भोगान् भूयोऽभूवन् भयावहाः ॥१६॥ निषेव्यमाणा विषया विषमा विषसन्निभाः । देदीप्यन्ते१२ बुभुक्षाभिः१३ "दीपनीयरिवौषधैः ॥१९॥ न तृप्तिरे भिरित्येष एव दोषो न पोषकाः । तृषश्च विषवल्लीः संसृतेश्चावलम्बनम् ॥२००॥ वनितातनुसम्भूतकामाग्निः "स्नेहसेचनैः । कामिनं भस्मसाभावम् अनीत्वा न निवर्तते ॥२०॥ जन्तोर्नोगेष भोगान्ते सर्वत्र विरतिधवा । स्थैर्य तस्याः० प्रयत्नोऽस्य क्रियाशेषो मनीषिणः ।। प्रापितोऽप्यसकृद:खं भोगस्तानव याचते । धत्तेऽवताडितोऽप्यहि मात्रास्या एव बालकः ॥२०३॥ और मूर्ख लोग ही भोगते हैं, इस शरीरका अन्त निकट है, यह असार है, और पापका आश्रय है, इसी शरीरके साथ इस आत्माका तादात्म्य हो रहा है, इसलिय अपवित्र पदार्थास वाले इस प्राणी को धिक्कार हो, इस प्राणीको शरीरमें निवास करनेसे तो भय मालूम नहीं होता परन्तु उससे निकलने में बड़ा भय मालूम होता है, निश्चयसे इस संसारमें मोक्षमार्गसे विपरीत प्रवृत्ति ही होती हे ।।१८७-१९४॥ यह जीव स्व स्वरूपकी अपेक्षा रूपरहित है परन्तु शरीरके सम्बन्धसे रूपी हो रहा है, रूपरहित होना ही मोक्षकी प्राप्ति है इसलिये जिस प्रकार बने उसी प्रकार शरीरको अवश्य ही छोड़ना चाहिये ॥१९५॥ सब प्रकार सम्बन्ध ही बन्ध है, भोग ही रोग हे, शरीर ही शत्र है, लम्बी आय ही तो दुःख देती है और धन ही तष्णारूपी अग्निका ई धन है ।।१९६।। इस जीवको पहले तो जन्म धारण करना पड़ता है, मध्यमें बुढ़ापा तथा अनेक रोग हैं और अन्तमें दुष्ट मरण है, इस प्रकार संसाररूप समुद्रके मध्यमें इस जीवको चक्रकी तरह भ्रमण करना पड़ता है ॥१९७॥ भोग करनेवाले लोगोंको ये भोग सर्पके फणोंके समान हैं इसलिये भोग करने योग्य नहीं है इस प्रकार भोगोंका बार बार विचार करनेवाले पुरुषके लिये ये भोग बड़े भयंकर जान पड़ने लगते है ।।१९८॥ ये सेवन किये हुए विषय विषके समान हैं, जिस प्रकार उत्तेजक औषधियोंसे पेटकी आग भभक उठती है उसी प्रकार भोगकी इच्छाओंसे ये विषय भभक उठते हैं ।।१९९॥ इन विषयोंसे तृप्ति नहीं होती केवल इतना ही दोष नहीं है किन्तु तृष्णाको पुष्ट करनेवाले भी हैं और संसाररूपी विषकी बेल को सहारा देनेवाले भी हैं।२००॥ स्त्रियोंके शरीरसे उत्पन्न हुई यह कामरूपी अग्नि स्नेहरूपी तेलसे प्रज्वलित होकर कामी पूरुषोंको भस्म किये बिना नहीं लौटती है ॥२०॥ भोग करनेके बाद इन समस्त भोगोंम जीवोंको वैराग्य अवश्य होता है, बुद्धिमान् लोगोंको जो तपश्चरण आदि क्रिया करनी पड़ती है वे सब इस वैराग्यको स्थिर रखनेका उपाय ही है ॥२०२।। यद्यपि यह जीव भोगोंसे अनेक बार दुःखको प्राप्त है तथापि ये जीव उन्हीं भोगोंको चाहते हैं सो ठीक ही है क्योंकि माता बालकको जिस पैरसे ताड़ती हैं बालक उसी उसी प्रकार माताके चरणको पकड़ते हैं १ शरीरे निवसनम् । २ निर्गमनम् । ३ देहवासात् । ४ व्यत्ययः । ५ देहिनि । ६ येन केन प्रकारेण । ७ पुत्रमित्रादिसम्बन्धः । ८ भवार्णवे ल०, अ०, प० । ६ सर्पस्य। १० शरीरवत् । फणवद् वा । 'भोगः सुखे स्त्रियादिभृतावहेश्च फणकाययोः' इत्यभिधानात् । ११ भोगा नाम न भोग्यकाः ल० । १२ भृशं दहन्ति । १३ भोक्तुमिच्छाभिः । १४ दीपनहेतुभिः । १५ भोगः । १६ तृष्णायाः । १७ स्नेहः प्रीतिः तैलञ्च । स्नेहसेवनैः अ०, स० । स्नेहदीपनैः प०, ल०। १८ सर्वेषु । १६ अप्रीतिः । २० विरतेः। २१ अनुष्ठानशेषः । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ महापुराणम् अध्य वत्वं गुणं मन्ये भोगायुः 'कायसम्पदाम् । ध्रु वेष्वेषु कुतो मुक्तिविना मुक्तेः कुतः सुखम् ॥२०४॥ विस्रम्भजननैः पूर्वं पश्चात् प्राणार्थहारिभिः । पारिपन्थिक सङकाशैः विषयैः कस्य नापदः ॥२०५॥ तदुःखस्यैव माहात्म्यं स्यात् सुखं विषयैश्च यत् । 'यत्कारवल्लिका स्वादुः प्राभवं ननु तत्क्षुधः ॥ २०६ ॥ सङ्कल्पसुखसन्तोषाद् विमुखस्वात्मजात् सुखात् । गुञ्जाग्नितापसन्तुष्ट शाखामृगसमो जनः ॥२०७॥ सदास्ति निर्जरा नासौ युक्त्यै बन्धच्युतेविना । ' तच्च्युतिश्च हतेर्बन्धहेतोस्तत्तद्धतौ यते ॥२०८॥ केन मोक्षः कथं जीव्यं" कुतः सौख्यं क्व वा मतिः । परिग्रहाग्रहग्राहगृहीतस्य भवार्णवे ॥ २०६ ॥ किं भव्यः किमभव्योऽयमिति संशेरते " बुधाः । ज्ञात्वाऽप्यनित्यतां लक्ष्मीकटाक्ष" शरशायिते ॥ २१० ॥ श्रयं कायक्रमः कान्ताव्रततीत तिवेष्टितः । जरित्वा जन्मकान्तारे "कालाग्निग्रासमाप्स्यति ॥२११॥ यदि धर्मकादित्थं " निदानविषदूषितात्" । सुखं धर्मामृताम्भोधिमज्जनेन किमुच्यते ॥ २१२ ॥ ॥२०३॥ भोग, आयु, काल और सम्पदाओंमें जो अस्थिरपना है उसे मैं एक प्रकारका गुण ही मानता हूं क्योंकि यदि ये सब स्थिर हो गये तो मुक्ति कैसे प्राप्त होगी ? और मुक्तिके बिना सुख कैसे प्राप्त हो सकेगा ? || २०४ || पहले तो विश्वास उत्पन्न करनेवाले और पीछे प्राण तथा धनको अपहरण करनेवाले शत्रु तुल्य इन विषयोंसे किसे भला आपदाएं प्राप्त नहीं होती हैं ? ॥ २०५ ॥ इन विषयोंसे जो सुख होता है वह दुःखका ही माहात्म्य है क्योंकि जो करेला मीठा लगता है वह भूखका ही प्रभाव है || २०६ ।। यह जीव कल्पित सुखोंसे संतुष्ट होकर आत्मासे उत्पन्न होनेवाले वास्तविक सुखसे विमुख हो रहा है इसलिये यह जीव गुमचियों के तापनेसे संतुष्ट होनेवाले बानरके समान है । भावार्थ- जिस प्रकार गुमचियोंके तापनेसे बन्दरकी ठंड नहीं दूर होती है उसी प्रकार इन कल्पित विषयजन्य सुखोंसे प्राणियोंकी दुःखरूप परिणति दूर नहीं होती है ? ॥२०७॥ इस जीवके निर्जरा तो सदा होती रहती है परन्तु बन्धका अभाव हुए बिना वह मोक्षका कारण नहीं हो पाती है, बन्धका अभाव बन्धके कारणोंका नाश होने से हो सकता है इसलिये मैं बन्धके कारणों का नाश करनेमें ही प्रयत्नशील हूँ ।। २०८*# इस संसाररूपी समुद्र में जिन्हें परिग्रहके ग्रहण करने रूप पिशाच लग रहा है उन्हें भला मोक्ष किस प्रकार मिल सकता है ? उनका जीवन किस प्रकार रह सकता है ? उन्हें सुख कहां मिल सकता है और उन्हें बुद्धि ही कहां उत्पन्न हो सकती है ? ॥ २०९ ॥ | लक्ष्मीके कटाक्षरूपी वाणोंसे सुलाये हुए ( नष्ट हुए) पुरुष में अनित्यताको जानकर भी विद्वान् लोग 'यह भव्य है ? अथवा भव्य है ?' इस प्रकार व्यर्थ संशय करने लगते हैं ||२१०॥ स्त्रीरूपी लताओं के समूहसे घिरा हुआ यह शरीररूपी वृक्ष संसाररूपी अटवीमें जीर्ण होकर कालरूपी अग्निका ग्राप्त हो जायगा ॥२११। जब कि निदानरूपी विषसे दूषित धर्मके एक अंशसे मुझे ऐसा सुख मिला है तब धर्मरूपी अमृतके समुद्र में अवगाहन करनेसे जो सुख प्राप्त होगा उसका तो १ काल-ल० । २ विश्वासजनकैः । ३ शत्रुसदृशैः । ४ न विपत्तयः । ५ कटुकास्वादः शाकविशेषः । कारवेल्लिकं स्वादु प०, ५०, स०, अ०, ल० । ६ बुभुक्षायाः ॥ ७ विमुखश्चात्मजान् ल०, प०, इ०, अ० 1 ८ तत् कारणात् । यत्नं करोमि । १० जीवनम् । ११ परिग्रहस्वीकारनऋस्वीकृतस्य । १२ विशिष्टेष्टपरिणामेन किं भविष्यति । १३ संशयं कुर्वन्ति । १४ अपाङ्गदर्शनवाणतनूकृतशरीरे पुंसि । १५ भार्यालता । १६ जीर्णीभूत्वा । १७ यमदावाग्निः । १८ धर्मलेशात् । १६ कपोतजन्मनि कुबेरमित्रेण स्वेन कृतदानपुण्यस्यैकांशः कपोतस्य दत्तः विद्याधरविमानं विलोक्य कपोतः श्रेष्ठिदत्तपुण्यांशात् मम विद्याधरत्वं भवत्विति कृतनिदानविषदूषितत्वात् । ** मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धनके कारण हैं । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व 'प्रबोवद्वेषरागात्मा संसारस्तद्विपर्ययः । मोक्षश्चेद् वीक्षितो विद्भिः कःक्षेपो मोक्षसाधने ॥२१३॥ यदि देशादिसाकल्ये न तपस्तत्पुनः कुतः। मध्येऽर्णवं यतो वेगात् कराग्रच्युतरत्नवत् ॥२१४॥ 'आत्म स्त्वं परमात्मानम आत्मन्यात्मानमात्मना। हित्वा दुरात्मतामात्मनीने ऽध्वनि'चरन् कुर ॥२१॥ इति सञ्चिन्तयन गत्वा पुरं परमतत्त्ववित् । सुवर्णवर्मण राज्यं साभिषेकं वितीर्य सः ॥२१६॥ अवतीर्य महीं प्राप्य श्रीपुर श्रीनिकेतनम् । दीक्षां जैनेश्वरी प्राप श्रीपालगुरुसन्निधौ ॥२१७॥ परिग्रहग्रहान्मुक्तो दीक्षित्वा स तपोंऽशुभिः । हिरण्यवर्मा धर्मांशु निर्मलो व्यधुतत्तराम् ॥२१८॥ प्रभावती च तन्मात्रा" १"गुणवत्यास्तपोऽगमत् । कुतश्चन्द्रमसं मुक्त्वा चन्द्रिकायाः स्थितिः पृथक् ॥ सद्वत्तस्तपसा दीप्तो दिगम्बर विभूषणः। निस्सङगो "व्योमगाम्येकविहारी विश्ववन्दितः ॥२२०॥ नित्योदयो' बुधाधीशो विश्व दृश्वा विरोचनः२० । स कदाचित् समागच्छन्मोदयन् पुण्डरीकिणीम् ॥ कहना ही क्या है? ॥२१२।। यह संसार अज्ञान, द्वष और राग स्वरूप है तथा मोक्ष इस विपरीत है अथोत् सम्यग्ज्ञान और समता स्वरूप है। यदि विद्वान् लोग ऐसा देखते रहें तो फिर मोक्ष होने में देर ही क्या लगे ? ॥२१३। जिस प्रकार वेगसे जाते हुए पुरुषके हाथसे बीच समुद्र में छूटा हुआ रत्न फिर नहीं मिल सकता है उसी प्रकार देश काल आदिकी सामग्री मिलनेपर भी यदि तप नहीं किया तो वह तप फिर कैसे मिल सकता है ? ॥२१४॥ इसलिये हे आत्मन् , तू आत्माका हित करनेवाले मोक्षमार्गमें दुरात्मता छोड़कर अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्मामें परमात्मा रूप अपने आत्माको ही स्वीकार कर ॥२१५॥ इस प्रकार चिन्तवन करते हुए परम तत्त्वके जाननेवाले राजा हिरण्यवर्माने अपने नगरमें जाकर अपने पुत्र सुवर्णवर्मा के लिए अभिषेकपूर्वक राज्य सौंपा और फिर विजयार्द्ध पर्वतसे पृथ्वीपर उतरकर लक्ष्मीके गृहस्वरूप श्रीपुर नामके नगरमें श्रीपाल गुरुके समीप जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ॥२१६२१७॥ परिग्रहरूपी पिशाचसे मक्त हो दीक्षा धारण कर सर्यके समान निर्मल हआ वह राजा हिरण्यवर्मा तपश्चरणरूपी किरणोंसे बहुत ही देदीप्यमान हो रहा था ॥२१८॥ प्रभावतीने भी हिरण्यवर्माकी माता-शशिप्रभाके साथ गुणवती आर्यिकाके समीर तप धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि चन्द्रमाको छोड़कर चाँदनीकी पृथक स्थिति भला कहाँ हो सकती है ? ॥२१९।। वे हिरण्यवर्मा मुनिराज ठीक सूर्यके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार सूर्य सद्वृत्त अर्थात् गोल है उसी प्रकार वे मुनिराज भी सद्वृत्त अर्थात् निर्दोष चारित्रको धारण करनेवाले थे। जिस प्रकार सूर्य तप अर्थात् गर्मीसे देदीप्यमान रहता है उसी प्रकार मुनिराज भी तप अर्थात् अनशनादि तपश्चरणसे देदीप्यमान रहते थे, जिस प्रकार सूर्य दिगम्बर अर्थात् दिशा और आकाशका आभूषण है उसी प्रकार मुनिराज भी दिगम्बर अर्थात् दिशारूप वस्त्रको धारण करनेवाले निर्ग्रन्थ मुनियोंके आभूषण थे, जिस प्रकार सूर्य निःसंग अर्थात् सहायतारहित अकेला होता है उसी प्रकार मुनिराज भी निःसङ्ग अर्थात् परिग्रहरहित थे, जिस प्रकार सूर्य आकाशमें गमन करता है उसी प्रकार चारणऋद्धि होनेसे मुनिराज भी आकाशमें गमन करते थे, जिस प्रकार सूर्य अकेला ही घूमता है उसी प्रकार मुनिराज भी अकेले ही घूमते थेएकविहारी थे, जिस प्रकार सूर्यको सब वन्दना करते हैं उसी प्रकार मुनिराजको भी सब वन्दना १ अज्ञान । २ बुधैः । ३ कालयापना। ४ सुदेशकुलजात्यादिसामग्र्ये । ५ गच्छतः । ६ आत्मन् स्वं ल०। ७ आत्महिते। ८ मार्गे। ६ वरं ल०, प० । रति कुरु अ०, स०। १० धान्यकमालवनात् निजनगरं प्राप्य । ११ विजयार्द्धाचलात् भुवं प्राप्य । १२ श्रीगृहम् । १३ आदित्यः। १४ हिरण्यवर्मणो जनन्या शशिप्रभया सह। १५ गुणवत्यायिकायाः समीपे । १६ रविपक्षे दिशश्च अम्बरञ्च विभूषयतीति । १७ गगनचारिणः । १८ सर्वकालोत्कृष्टबोधः। १६ जगच्चक्षुः । २० रविरिव । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् सप्रभा चन्द्रलेखेव सह तत्र प्रभावती । गुणवत्या समागस्त सङगतिः स्याद्यदृच्छया ॥२२२॥ गुणवत्यायिक दृष्ट्वा नत्वोक्ता प्रियदत्तया । कुतोऽसौ' 'गणिनीत्याख्यत् स्वर्गतेति प्रभावती ॥२२३॥ तच्छुत्वा नेत्रभूता नौ सैवेति शुचमागता । कुतः प्रीतिस्तयेत्युक्ता साऽब्रवीत् प्रियदत्तया ॥२२४॥ न स्मरिष्यसि कि पारावतद्वन्द्वं भवद्गहे । “तत्राहं रतिषेणेति तच्छ त्वा विस्मिताऽवदत् ॥२२॥ क्वासौ रतिवरोऽयेति सोऽपि विद्याधराधिपः । हिरण्यवर्मा कर्मारियतिरत्रेति "साब्रवीत् ॥२२६॥ प्रियदत्ताऽपि तं गत्वा वन्दित्वैत्य महामुनिम् । प्रभावती परिप्रश्नात् पत्युरित्याह वृत्तकम् ॥२२७॥ विजयार्द्धगिरेरस्य गान्धारनगराविह" । विहर्त रतिषणोऽमा गान्धार्या प्रिययाऽगमत् ॥२२॥ गान्धारी सर्पदष्टाहमिति तत्र मुषा स्थिता । मन्त्रौषधीः प्रयोज्यास्याः श्रेष्ठी विद्याधरश्च सः ॥२२६॥ करते थे, जिस प्रकार सूर्यका नित्य उदय होता है उसी प्रकार मुनिराजके भी ज्ञान आदिका नित्य उदय होता रहता था, जिस प्रकार सूर्य बुध अर्थात् बुधग्रहका स्वामी होता है उसी प्रकार मुनिराज भी बुध-अर्थात् विद्वानोंके स्वामी थे, जिस प्रकार सूर्य विश्वदृश्वा अर्थात् सब पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला है उसी प्रकार मुनिराज भी विश्वदृश्वा अर्थात् सब पदार्थाको जानन वाले थे, जिस प्रकार सर्य विरोचन अर्थात अत्यन्त देदीप्यमान रहता है अथवा विरो धारण करनेवाला है उसी प्रकार मुनिराज भी विरोचन अर्थात् अत्यन्त देदीप्यमान थे अथवा रुचिरहित उदासीन थे और जिस प्रकार सूर्य पुण्डरीकिणी अर्थात् कमलिनीको प्रफुल्लित करता है उसी प्रकार मुनिराज भी पुण्डरीकिणी अर्थात् विदेह क्षेत्रकी एक विशेष नगरीको आनन्दित करते थे इस प्रकार सूर्यकी समानता रखनेवाले मुनिराज हिरण्यवर्मा किसी समय पुण्डरी किणी नगरीमें पधारे ॥२२०-२२१॥ प्रभासहित चन्द्रमाकी कलाके समान आर्यिकाप्रभावती भी वहाँ आई और गुणवती-गणिनीके साथ मिलकर रहने लगी सो ठीक ही है क्योंकि समागम अपनी इच्छानसार ही होता है ॥२२२।। गणवती-गणिनीको देखकर प्रियदत्ताने नमस्कार कर पूछा कि संघाधिकारिणी अमितमति कहां हैं ? तब उसने कहा कि 'वह तो स्वर्ग चली गई है' यह सुनकर प्रभावती कुछ शोक करने लगी और कहने लगी कि 'हम दोनोंकी आंखें वहीं थी,' तब प्रियदत्ताने पूछा कि उनके साथ तुम्हारा प्रेम कैसे हुआ ? उत्तरमें प्रभावती हने लगी कि आपको क्या स्मरण नहीं है आपके घरमें जो कबतर-कबतरीका जोडा रहता था उनमेंसे मैं रतिषणा नामकी कबूतरी हूँ, यह सुनकर प्रियदत्ता आश्चर्यसे चकित होकर कहने लगी कि 'वह रतिवर कबूतर आज कहाँ है तब प्रभावतीने कहा कि वह भी विद्याधरोंका राजा हिरण्यवर्मा हआ है और कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करनेवाला वह आज इसी पुण्डरीकिणी में विराजमान है। प्रियदत्ताने भी जाकर महामुनि-हिरण्यवर्माकी वन्दना की और फिर प्रभावतीके पूछनेपर अपने पतिका वृत्तान्त इस प्रकार कहने लगी ॥२२३-२२७।। एक रतिषेण नामका विद्याधर अपनी स्त्री गांधारीके साथ साथ इसी विजयार्ध पर्वतके गांधार नगरसे विहार करनेके लिये यहां आया था ॥२२८॥ मुझे सर्पने काट खाया है इस प्रकार झूठ झूठ बहानाकर गांधारी यहां पड़ रही, सेठ कुबेरकान्त और विद्याधरने बहुत सी औषधियोंका प्रयोग किया परन्तु गांधारीने मायाचारीसे कह दिया कि 'अभी मुझे १ पुण्डरीकिण्याम् । २ समागतवती सङगतवती वा। ३ गुणवत्यादिका ट० । गुणवती शशिप्रभावत्यायिकाः । ४ क्वास्ते। ५ यशस्वती। ६ अनन्तमतिसहिताऽमितमत्यायिका। ७ गुणवती जगाद । ८ नाकं प्राप्तेति । ६ नेत्रसदृशी। १० प्रियदत्ता। ११ पारावतद्वन्द्वे । १२ कर्मारघाति ल०, प० । १३ अस्मिन् पुरे तिष्ठतीति । १४ प्रभावती । १५ हिरण्यवर्ममुनिम् । १६ पुनरागत्य । १७ पुण्डरीकिण्याम् । १८ कबरेकान्तः । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व मायया नास्मि शान्तेति तद्वाक्यात् खेदमागतौ' । प्राह तु स्वपतौ याते वनं शक्तिमदौषधम् ॥२३०॥ गान्धारीं” बन्धकीभावम्' उपेत्य स्मरविक्रियाम् । 'दर्शयन्तीं निरीक्ष्याह वणिग्वर्यो दृढव्रतः ॥२३१॥ अहं वर्षवरो वेत्सि न कि मामित्युपायवित् । व्यधाद् विरक्तचित्तां तां तदेव हि धियः फलम् ॥२३२॥ तदानीमागते पत्यौ स्वे स्वास्थ्यमहमागता । पूर्वौ षधप्रयोगेत्युक्त्वाऽगात् सपतिः 'पुरम् ॥२३३॥ दयितान्तकुबराख्यो मित्रान्तश्च कुबेरवाक् । परः कुबेरदत्तश्च कुबेरश्चान्तदेववाक् ॥२३४॥ कुबेरादिप्रियश्चान्यः पञ्चते सञ्चितश्रुताः । कलाकौशलमापन्नाः सम्पन्ननवयौवनाः ॥ २३५ ॥ एतैः स्वसूनुभिः सार्धम् श्रारुहच शिविकां वनम् । धृत्वा कुबेरश्रीगर्भ मां विहर्तुं समागताम् ॥२३६॥ दृष्ट्वा कदाचिद् गान्धारी पृथक् पृष्टवती पुमान् । त्वच्छ्रेष्ठी नेति तत्सत्यम् उत नेत्यन्ववादिशम् ॥ २३७ तत्सत्यमेव मत्तोऽन्यां प्रत्यसौ न पुमानिति । तदाकर्ण्य विरज्यासौ" सपतिः संयमं श्रिता ॥ २३८ ॥ पुनस्तत्रागता " दृष्टा दीक्षेयं केन हेतुना । तवेति सा मया पुष्टा प्रप्रणम्य प्रियोक्तिभिः ॥२३६॥ श्रेष्ठ्येव ते तपोहेतुरिति प्रत्यब्रवीदसौ । निगूढं तद्वचः श्रेष्ठी श्रुत्वाऽऽगत्य पुरः स्थितः ॥ २४० ॥ मामजैषीत् सखाऽसौ मे" "क्वाद्येति परिपृष्टवान् । सोऽपि मत्कारणेनैव गृहीत्वेहागमत्तपः ॥२४१॥ इति तद्वचनाच्छ ेष्ठी नृपश्चाभ्येत्य तं मुनिम् । वन्दित्वाधर्ममापृच्छ्य काललब्ध्या महीपतिः ॥२४२॥ शान्ति नहीं हुई है, यह सुनकर उसके पति रतिषेणको बहुत दुःख हुआ । वह अधिक शक्तिवाली औषधि लानेके लिये वनमें चला गया, इधर उसके चले जानेपर गांधारीने कुलटापन धारण कर कामकी चेष्टाएं दिखाई, यह देखकर उपायको जाननेवाले और अपने व्रतमें दृढ रहनेवाले सेठ कुबेरकान्तने कहा कि अरे, मैं तो नपुंसक हूं- क्या तुझे मालूम नहीं ? ऐसा कहकर सेठने उसे अपनेसे विरक्तचित्त कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिका फल यही है ॥२२९२३२।। इतनेमें ही उसका पति वापिस आ गया, तब गांधारीने कह दिया कि मैं पहले दी हुई औषधिके प्रयोगसे ही स्वस्थ हो गई हूँ ऐसा कहकर वह पतिके साथ नगरमें चली गई ॥२३३॥ कुबेरदयित, कुबेरमित्र, कुबेरदत्त, कुबेरदेव और कुबेरप्रिय ये पांच मेरे पुत्र थे । ये पांचों ही समस्त शास्त्रोंको जाननेवाले, कला कौशलमें निपुण तथा नव यौवनसे सुशोभित थे । किसी एक दिन जब कि कुबेरश्री कन्या मेरे गर्भमें थी तब मैं अपने पूर्वोक्त पुत्रोंके साथ पालकीमें बैठकर वनमें विहार करनेके लिये गई थी उसी समय गांधारीने मुझे देखकर और अलग ले जाकर मुझसे पूछा कि 'आपके सेठ पुरुष नहीं हैं' क्या यह बात सच है अथवा झूठ ? तब मैंने उत्तर दिया कि बिलकुल सच है क्योंकि वे मेरे सिवाय अन्य स्त्रियोंके प्रति पुरुष नहीं हैं यह सुनकर उसने विरक्त हो अपने पतिके साथ साथ संयम धारण कर लिया ॥ २३४ - २३८ || किसी एक दिन वह गांधारी आर्यिका यहां फिर आई तब मैंने दर्शन और प्रणाम कर प्रिय वचनों द्वारा पूछा कि 'आपने यह दीक्षा किस कारणसे ली है ?' उसने उत्तर दिया था कि 'मेरे तपश्चरणका कारण तेरा सेठ ही है, सेठ भी गुप्तरूपसे यह बात सुनकर सामने आकर खड़े हो गये और पूछने लगे कि जिसने मुझे जीत लिया है ऐसा मेरा मित्र आज कहाँ है ? तब गान्धारी आर्यिकाने कहा कि ' वे भी मेरे ही कारण तप धारण कर यहाँ पधारे हैं, ॥२३९-२४१॥ यह सुनकर सेठ और राजा दोनों ही उन मुनिराजके समीप गये और दोनोंने ४६७ १ - मागते ल० 1 तो द्वौ खेदमानती अ०, स० । २ विजयार्द्धवनम् । ३ विषापहरणसामर्थ्यवन्महौषधम् । ४ गान्धारी ल० । ५ कुलटात्वम् । ६ दर्शयन्ती ल० । ७ वर्षधरः ल० । षण्डः । ८ पतिसहिता । εकुबेरदेवः । १० कुबेरश्रियः सम्बन्धि गर्भम् । ११ एकान्ते । १२ पुमान् न भवतीति । १३ असत्यं वा । १४ मत् । १५ गान्धारी । १६ पुण्डरीकिण्याम् मित्रं रतिषेणः । १६ कुत्र तिष्ठतीति । २० गतस्तपः ल०, अ०, प०, स० । । १७ जितवती । १८ मम २१ लोकपालः । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ महापुराणम् गणपालाय तद्राज्यं दत्वा संयममादधे । निकट रतिषणस्य विद्याधरमनीशितुः ॥२४३॥ पञ्चमं स्वपदे सून नियोज्यान्यः' सहात्मजः। ययौ श्रेष्ठी' च तत्रैव दीक्षां मोक्षाभिलाषुकः ॥२४४॥ तथोक्त्वा कान्तवृत्तान्तं सा समुत्पन्नसंविदा । विरज्य गृहसंवासात् कुबेरादिश्रियं सतीम् ॥२४॥ '"गुणपालाय दत्वा स्वां सुतां गुणवती' श्रिता । प्रभावत्युपदेशेन प्रियदत्ताऽप्यदीक्षत'२ ॥२४६॥ मुनि हिरण्यवर्माण कदाचित प्रेतभूतले । दिनानि सप्त सडागीर्य प्रतिमायोगधारिणम् ॥२४७॥ वन्दित्वा नागराः५ सर्वे तत्पूर्वभवस कथा । कुर्वाणा पुरमागच्छन विधुच्चोरोऽप्युदीरितात् ॥२४८॥ चेटक्याः प्रियदत्तायास्तन्मुनेः प्राक्तनं भवम् । विदित्वा तद्गतक्रोधात्तदोत्पन्नविभागकः ॥२४६॥ मुनि पृथकप्रदेशस्था प्रतिमायोगमास्थिताम् ।प्रभावती च संयोज्य चितिकायां दुराशयः ॥२५०॥ एकस्यामेव निक्षिप्याधाक्षीदधजिघृक्षया । सोढ्वा तदुपसर्ग तो विशुद्धपरिणामतः ॥२५॥ स्वर्ग समुदपद्यतां क्षमया कि न जायते । "सुवर्णवर्मा तज्ज्ञात्वा विद्युच्चोरस्य निग्रहम् ॥२५२॥ करिष्यामीति कोपेन पापिनः सङगरं व्यवात्५ । विदित्वाऽवधिबोधेन तत्तौ“ स्वर्गनिवासिनौ ॥२५३॥ प्राप्य संयमरूपेण सुतां धर्मकथादिभिः। तत्त्वं श्रद्धाप्य तं कोपा अपास्य कृपयाऽऽहितौ ॥२५४॥ ही वन्दना कर धर्मका स्वरूप पूछा । काललब्धिका निमित्त पाकर राजा लोकपालने अपने पुत्र गुणपालके लिये राज्य दिया और उन्हीं विद्याधर मुनि रतिषेणके निकट संयम धारण कर लिया ॥२४२-२४३॥ मोक्षके अभिलाषी सेठने भी अपने पांचवें पुत्र-कुबेरप्रियको अपने पदपर नियुक्त कर अन्य सब पुत्रोकं साथ साथ वहीं दीक्षा धारण की ॥२४४॥ इस प्रकार प्रियदत्ता अपने पतिका वत्तान्त कहकर उत्पन्न हए आत्मज्ञानके द्वारा गहवाससे विरक्त हो गई थी, उस सतीने अपनी कुबेरश्री पुत्री राजा गुणपालको दी और स्वयं गुणवती आर्यिकाके समीप जाकर प्रभावतीके उपदेशसे दीक्षा धारण कर ली ॥२४५-२४६। किसी समय मुनिराज हिरण्यवर्माने सात दिनका नियम लेकर श्मशानभूमिमें प्रतिमा योग धारण किया, नगरके सब लोग उनकी वन्दना करनेके लिये गये थे । वन्दना कर उनके पूर्वभवकी कथाएं कहते हुए जब सब लोग नगरको वापिस लौट आये तब एक विद्युच्चोरने भी प्रियदत्ताकी चेटीसे उन मुनिराजका वृत्तान्त सुना, सुनकर उसे उनके प्रति कुछ क्रोध उत्पन्न हुआ और उसी क्रोध के कारण उसे विभंगावधि भी प्रकट हो गया, उस विभंगावधिसे उसने मुनिराजके पूर्वभवके सब समाचार जान लिये । यद्यपि मुनिराज प्रतिमायोग धारण कर अलग ही विराजमान थे और प्रभावती भी अलग विद्यमान थी तो भी उस दृष्टने पापसंचय करनेकी इच्छासे उन दोनोंको मिलाकर और एक ही चितापर रखकर जला दिया वे दोनों विशद्ध परिणामोंसे उपसर्ग सहनकर स्वर्गमें उत्पन्न हुए सो ठीक ही है क्योंकि क्षमासे क्या क्या नहीं होता ? जब सुवर्णवर्माको इस बातका पता चला तब उसने प्रतिज्ञा की कि मैं विद्युच्चोरका निग्रह अवश्य ही करूँगाउसे अवश्य ही मारूँगा। यह प्रतिज्ञा स्वर्गमें रहनेवाले हिरण्यवर्मा और प्रभावतीके जीव देवदेवियोंने अवधिज्ञानसे जान ली, वे शीघ्र ही संयमीका रूप बनाकर पुत्रके पास पहुँचे, दया १-माददी अ०, ल०, ५०, स०, इ० । २ मुनीशिनः ल। ३ चरमपुत्रं कुबेरप्रियम् । ४ कुबेरदयितादिभिः। ५ कुबेरकान्तः । । ६ प्रियस्य वृत्तकम् । ७ प्रियदत्ता।८ समुत्पन्नज्ञानेन । १ सती ल०। १० लोकपालस्य सुताय । ११ गुणवत्यायिकाम् । १२ दीक्षामग्रहीत् । १३ चैत्यभूतले ल० । चितायोग्यमहीतले। परेतभूमावित्यर्थः । १४ प्रतिज्ञां कृत्वा। १५ नगरजनाः। १६ वचनात् । उदीरिताम् ल०, अ०, प०, स०, इ० । १७ विभङ्गतः ल०, अ०, स०, इ० । १८ नित्यमण्डितचैत्यालयस्य पुरः प्रतिमायोगस्थितामित्यर्थः । प्रदेशस्थे ल० । १६ -मास्थितम् ल० । २० शवशय्यायाम् । २१ दहति स्म। २२ पापं गृहीतुमिच्छया। २३ कनकप्रभदेवकनकप्रभदेव्यौ समुत्पन्नौ २४ हिरण्यवर्मणः सुतः । २५ प्रतिज्ञामकरोत् । २६ हिरण्यवर्मप्रभावतीचरदेवदेव्यौ । २७ विश्वासं नीत्वा । २८ दयया स्वीकृतौ । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व 'दिव्यरूपं समादाय निगद्य निजवृत्तकम् । प्रदायाभरणं तस्मै परार्ध्यं स्वपदं गतौ ॥२५५॥ कदाचिद् वत्सविषय खुसीमनगर मुनेः । शिवयोषस्य केवल्यम् 'उदपायस्तघातिनः ॥ २५६॥ शशिची मेनका च नत्वा जिनेश्वरम् । समाश्रित्य सुराधीशं स्थिते प्रश्नात्' सुरेशितुः ॥ २५७॥ त्रैव सप्तमेऽन्हि' प्राक् समाप्तश्रावकव्रते । नाम्ना 'पुष्यवती सान्त्या प्रथमा पुष्पपालिता ॥ २५८ ॥ 'कुसुमावयासक्ते वने सर्वाग्निहेतुना । मृते देव्यावजायतामित्याहा सौ स्म तीर्थकृत् ॥ २५६॥ प्रभावतीवरी देवी श्रुत्वा देवश्च तत्पतिः । स्वपूर्व भवसम्बन्धं तत्रागातां सभावनेः " ॥ २६०॥ निजान्यजन्म सौख्यानुभूतदेशान्निजेच्छ्या । श्रालोकयन्तौ तत्सर्पसरोवणसमीपगौ ॥ २६१॥ सह सार्थेन भीमाख्यं साधुं दृष्ट्वा समागतम् । विनयेनाभिवन्द्यैनं धर्म तौ समपृच्छताम् ॥२६२॥ मुनिस्तद्वचनं श्रुत्वा नाहं धर्मोपदेशन । सर्वागमार्थ वित्कार्येऽसमर्थो नवसंयतः ॥ २६३॥ प्ररूपयिष्यते किञ्चित् स मुष्मदनुरोधतः । मया तथापि श्रोतव्यं यथाशक्रस्यवधानवत् ॥२६४॥ इति सम्यक्त्व सत्पात्रदानादि श्रावकाश्रयम् । "यमादियतिसम्बन्धं धर्मं गतिचतुष्टयम् ॥ २६५ ॥ तद्धेतुफलपर्यन्तं भुक्तिमुक्ति निबन्धनम् " । जीवादिद्रव्यतत्त्वं च यथावत् प्रत्यपादयत् ॥२६६॥ ૪૬૬ १४ धारण करनेवाले उन देवदेवियोंने धर्मकथाओं आदिके द्वारा तत्त्वश्रद्धान कराकर उसका क्रोध दूर किया और अन्तमें अपना दिव्यरूप प्रकटकर अपना सब हाल कहा तथा उसे बहुमूल्य आभूषण देकर दोनों ही अपने स्थानपर चले गये ।। २४७ - २५५।। किसी एक दिन वत्स देशमें सुसीमानगरी के समीप घातिया कर्म नष्ट करनेवाले शिवघोष मुनिराजको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।। २५६ ।। उस उत्सवमें शची और मेनका नामकी देवांगनाएं भी इन्द्रके साथ आई और श्रीजिनेन्द्रदेवको नमस्कारकर इन्द्रके पास ही बैठ गई । इन्द्रने भगवान् से पूछा कि ये दोनों किस कारणसे देवियां हुई हैं ? तब तीर्थ कर देव कहने लगे कि दोनों ही पूर्वभवमें मालिनकी लड़कियां थीं, पहलीका नाम पुष्पपालिता था और दूसरीका पुष्पवती । इन दोनोंने आजसे सातवें दिन पहले श्रावकव्रत लिये थे । एक दिन ये वनमें फूल तोड़ने में लगी हुई थीं कि सर्परूपी अग्निके कारण मर गई और मरकर देवियां हुई हैं ।। २५७ - २५९ ॥ हिरण्यवर्मा और प्रभावतीके जीव जो देवदेवी हुए थे उन्होंने भी उस समय समवसरणमें अपने पूर्वभवके सम्बन्ध सुने और फिर दोनों ही सभाभूमि से निकलकर इच्छानुसार पूर्वभव सम्बन्धी सुखानुभवनके स्थानोंको देखते हुए सर्पसरोवरके समीपवाले वनमें पहुंचे ॥ २६०-२६१ ।। उस वनमें अपने संघके साथ साथ एक भीम नामके मुनि भी आये हुए थे, दोनोंने उन्हें देखकर विनयपूर्वक नमस्कार किया और धर्मका स्वरूप पूछा ॥२६२॥। उनके वचन सुनकर मुनि कहने लगे कि अभी नवदीक्षित हूँ, धर्मका उपदेश देना तो समस्त शास्त्रोंका अर्थ जाननेवाले मुनियोंका कार्य है इसलिये यद्यपि मैं धर्मोपदेश देनेमें समर्थ नहीं हूं तथापि तुम्हारे अनुरोधसे शक्तिके अनुसार कुछ कहता हूँ तुम लोगों को सावधान होकर सुनना चाहिये ।। २६३ - २६४ ॥ यह कहकर उन्होंने सम्यग्दर्शन तथा सत्पात्रदान आदि श्रावक सम्बन्धी और यम आदि मुनि सम्बन्धी धर्मका निरूपण किया । चारों गतियां, उनके कारण और फल, स्वर्ग मोक्षके निदान एवं जीवादि द्रव्य और तत्त्व इन १ दिव्यं रूपं ल०, प०, इ० । २ समुत्पन्नम् । ३ इन्द्रस्य वल्लभे । ४ इमे पूर्वजन्मनि के इति इन्द्रस्य प्रश्नवशात् तीर्थकृदाह । ५ आ सप्तदिनात् पूर्वमित्यर्थः । ६ पूर्वजन्मनि । ७ सम्यक्स्वीकृत । सान्त्या ल० । ६ पुष्पकरण्डकनाम्नि वने पुष्पवाटीकुसुमावचयार्थमासक्ते इत्यर्थः। १० अहिविषाग्निकारणेन । ११ समवसरणात् । १२ वणिक्छबिरेण । १३ धर्मः । १४ क्रियाविशेषणम् । १५ संयम । १६ मुक्तिकारणम् । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् तच्श्रुत्वा पुनरप्याभ्यां भवता केन हेतुना। प्रव्रज्येत्यनयुक्तोऽसौ वक्तुं 'प्रकान्तवान् मुनिः ॥२६७॥ विदेहे पुष्कलावत्यां नगरी पुण्डरीकिणी। तत्राहं भीमनामाऽऽसं स्वपापाद् दुर्गते' कुले ॥२६॥ अन्येद्यर्यतिमासाद्य किञ्चित्कालादिलब्धितः । श्रुत्वा धर्म ततो लेभे गहिमूलगुणाष्टकम् ॥२६॥ तज्ज्ञात्वा मत्पिता पुत्र किमेभिर्दुष्करैथा। दारिद्यकर्दमालिप्तदेहानां निष्फलैरिह ॥२७०॥ व्रतान्येतानि दास्यामस्तस्मै स्वर्लोककाङक्षिणे। ऐहिकं फलमिच्छामो भवेद्येनेह जीविका ॥२७॥ व्रतं दत्तवतः स्थानं तस्य मे दर्शयत्यसौ । मामवादीद् गृहीत्वैनम् आव्रजन्नहमन्तरे ॥२७२॥ वजकेतोर्महावीथ्यां देवतागृहकक्कुटम् । भास्वत्किरणसंशोष्यमाणधान्योपयोगिनम् ॥२७३॥ पुंसो हतवतो दण्डं जिनदेवापितं धनम् । लोभादपह्न वानस्य धनदेवस्य दुर्मतेः ॥२७४॥ रसनोत्पाटनं हारम् अनय॑मणिनिमितम् । श्रेष्ठिनः प्राप्य चौरं ण गणिकाय समर्पणात् ॥२७॥ रतिपिङगलसंज्ञस्य शूले तलवरार्पणम् । निशि मातुः कनीयस्याः कामनिर्लुप्तसंविदः" ॥२७६॥ पुत्र्या गेहं गतस्याङगच्छेदन पुररक्षिणः । क्षेत्रलोभान्निजे ज्ये ठे मते दण्डहते सति ॥२७७॥ लोलस्यान्वर्थसंज्ञस्य विलापं देशनिर्गमे । द्यूते सागरदत्तन प्रभते निजिते धने ॥२७८॥ सबका भी यथार्थ प्रतिपादन किया ॥२६५-२६६।। यह सुनकर उन देव-देवियोंने फिर पूछा कि आपने किस कारणसे दीक्षा धारण की हैं इस प्रकार पूछे जानेपर मुनिराज कहने लगे ॥२६७॥ '.. विदेहक्षेत्रके पुष्कलावती देशमें एक पुण्डरीकिणी नगरी है वहांपर मैं अपने पापोंके कारण एक अत्यन्त दरिद्र कुलमें उत्पन्न हुआ था। मेरा नाम भीम है ॥२६८।। किसी अन्य दिन थोड़ी सी काललब्धि आदिके निमित्तसे मैं एक मुनिराजके पास पहुंचा और उनसे धर्मश्रवण कर मैंने गृहस्थोंके आठ मूल गुण धारण किये ॥२६९॥ जब हमारे पिताको इस बातका पता चला तब वे कहने लगे कि 'दरिद्रतारूपी कीचड़से जिनका समस्त शरीर लिप्त हो रहा है ऐसे हम लोगोंको इन व्यर्थक कठिन व्रतोंसे क्या प्रयोजन है। इनका फल इस लोकमें तो मिलता नहीं है, इसलिये आओ, ये व्रत स्वर्गलोककी इच्छा करनेवाले उसी मुनिके लिये दे आवें। हम तो इस लोकसम्बन्धी फल चाहते हैं जिससे कि जीविका चल सके ॥२७०-२७१॥ व्रत देनेवाले गुरुका स्थान मुझे दिखा" ऐसा मेरे पिताने मुझसे कहा तब मैं उन्हें साथ लेकर चला। रास्तेमें मैंने देखा कि वज्रकेतु नामके एक पुरुषको दण्ड दिया जा रहा है। पितासे मैंने उसका कारण पूछा, तब कहने लगे कि यह सूर्य की किरणोंमें अपना अनाज सुखा रहा था और किसी मन्दिरका मुर्गा उसे खा रहा था। इसने उसे इतना मारा कि बेचारा मर गया। इसलिये ही लोग इसे दण्ड दे रहे हैं। आगे चलकर देखा कि जिनदेवके द्वारा रखी हई धरोहरको लोभसे छुपाने वाले दुर्बुद्धि धनदेवकी जीभ उखाड़ी जा रही है। कुछ आगे चलकर देखा कि एक सेठके घरसे बहुमूल्य मणियोंका हार चुराकर वेश्याको देनेके अपराधमें रतिपिङ्गलको कोतवाल शूलीपर चढ़ा रहा है, किसी जगह देखा कि कामवासनासे जिसका सब ज्ञान नष्ट हो गया है ऐसा एक कोतवाल रातमें अपनी माताकी छोटी बहिनकी पुत्रीके घर गया था इसलिये राज्यकर्मचारी उसका अंग काट रहे हैं। दूसरी जगह देखा कि सार्थक नाम धारण करनेवाले एक लोल नामके किसानने खेतके लोभसे अपने बड़े लड़केको डण्डोंसे मार मारकर मार डाला है, इसलिये उसे देशनिकालेकी सजा १ देवदेवीभ्याम् । २ पृष्टः। ३ प्रारभते स्म । ४ अभूवम् । ५ दरिद्रे कुले। ६ अस्माकम् । ७ पितरम् । ८ अदन्तम् । भक्षयन्तमित्यर्थः । ६ जिनदेवाख्यन दत्तम् । १० वञ्चयतः । ११ निरस्तज्ञानस्य । १२ तलवरस्य। १३ लोलेन हते। १४ लोल इति नाम्नः । १५ परिदेवनम् । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व दातुं समुद्रदत्तस्य निःशक्तेरातप कुधा । परिर्वाद्धतदुर्गन्धधूमान्तर्व तिनश्चिरम् ॥२७६॥ निरोधमभयोद्धो' षणायामानन्ददेशनात् । श्रडगकस्य नृपोरभ्रघातिनः करखण्डनम् ॥ २८० ॥ श्रानन्दराजपुत्रस्य तद्भुक्त्याऽवस्कराशनम्' । मद्यविक्रयणे' बालं कञ्चिदाभरणेच्छ्या ॥२८१॥ हत्वा भूमौ विनिक्षिप्तवत्यास्तत्संविधानकम् । प्रकाशितवती स्वात्मजे शुण्डायाश्च' निग्रहम् ॥ २८२॥ पापान्येतानि कर्माणि पश्यन् हिंसादिदोषतः । श्रत्रामुत्र च पापस्य परिपाकं दुरुत्तरम् ॥२८३॥ श्रवधार्यानभिप्रेतव्रतत्यागो' भवाद् भयात् । "भ्रेषमोष मृषायोषाश्लेष हिंसादिदूषिताः ॥ २८४ ॥ नात्रैव किन्त्वमुत्राऽपि ततश्चित्रवधोचिताः । श्रस्माकमपि दौर्गत्यं प्राक्तनात् पापकर्मणः ॥ २८५ ॥ इदं तस्मात् समुच्चेयं पुष्पं सच्चेष्टितैः पुरु । इति तं मोचयित्वाऽग्रहीषं दीक्षां मुमुक्षया ॥२८६॥ सद्यो गुरुप्रसादेन सर्वशास्त्राब्धिपरिंगः । विशुद्धमतिरन्येद्युः समीपे सर्ववेदिनः ॥२८७॥ मद्दृष्टपूर्वजन्मानि समश्रौषं यथाश्रुतम् । कथयिष्याम्यहं तानि कर्तुं वां" कौतुकं महत् ॥२८८॥ इहैव पुष्कलावत्यां विषये पुण्डरीकिणीम् । परिपालयति प्रीत्या वसुपालमहीभुजि ॥ २८६॥ विद्युद्वेगा ह्वयं चोरम् श्रवष्टभ्य "करस्थितम् । धनं स्वीकृत्य शेषं च भवता दीयतामिति ॥ २६० ॥ ર दी जा रही है और वह विलाप कर रहा है । आगे जानेपर देखा कि सागरदत्तने जुआमें समुद्रदत्तका बहुत सा धन जीत लिया था परन्तु समुद्रदत्त देने में असमर्थ था इसलिये उसने क्रोधसे उसे बहुत देर तक दुर्गन्धित धुआंके बीच धूपमें बैठाल रखा है, किसी जगह देखा कि आनन्द महाराजके अभय घोषणा कराये जानेपर भी उनके पुत्र अंगकने राजाका मेढ़ा मारकर खा लिया है इसलिये उसके हाथ काटकर उसे विष्ठा खिलाया जा रहा है और अन्य स्थानपर देखा कि मद्य पीनेवाली स्त्रीने मद्य खरीदनेके लिये आभूषण लेनेकी इच्छासे किसी बालकको मारकर जमीनमें गाड़ दिया था, वह यह समाचार अपने पुत्रसे कह रही थी कि किसी राज कर्मचारीने उसे सुन लिया इसलिये उसे दण्ड दिया जा रहा है। हिंसा आदि दोषोंसे उत्पन्न हुए इन पापकार्योंको देखकर मैंने निश्चय किया कि पापका फल इस लोक तथा परलोक दोनों ही जगह बुरा होता है । मैंने संसारके भयसे व्रत छोड़ना उचित नहीं समझा। मैं सोचने लगा कि हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीसेवन आदि दूषित हुए पुरुषोंको इसी जन्म में अनेक प्रकारके वध - बन्धनका दुःख भोगना पड़ता हो सो बात नहीं किन्तु परलोकमें भी वही दुःख भोगने पड़ते हैं, हमारी यह दरिद्रता भी तो पहले के पापकर्मोंसे मिली है, इसलिये सदाचारी पुरुषोंको इस पुण्यका अधिकसे अधिक संचय करना चाहिये यह सोचकर मैंने अपने पिताको छोड़कर मोक्षकी इच्छासे दीक्षा धारण कर ली है ॥२७२-२८६ | | गुरुके प्रसादसे में शीघ्र ही सब शास्त्ररूपी समुद्रका पारगामी हो गया और मेरी बुद्धि भी विशुद्ध हो गई । किसी अन्य दिन मैंने सर्वज्ञ देवके समीप दोषोंसे भरे हुए अपने पूर्वजन्म सुने थे सो उसीके अनुसार आप लोगोंका बड़ा भारी कौतुक करनेके लिये उन्हें कहता हूं । २८७ - २८८ । इसी पुष्कलावती देशकी पुण्डरीकिणी नगरीको राजा वसुपाल बड़े प्रेमसे पालन करते थे || २८९ || किसी एक दिन कोतवालने विद्यद्वेग नामका चोर पकड़ा, उसके हाथमें जो धन था उसे लेकर कहा कि बाकीका धन और दो, धन न देनेपर रक्षकोंने उसे दण्ड दिया तब उसने १ घोषणायां सत्याम् । २ आनन्दाख्यनृपस्य निदेशनात् । ३ एलक (एडक) घातकस्य । ४ तद्भुक्त्वाइत्यपि पाठः । ५ गूथभक्षणम् । ६ मद्यव्यवहारनिमित्तम् । ७ बालघातिन्याः सुते । ८ मद्यपायिन्याः । ६ अनिष्टो व्रतत्यागो यस्य अननुमतव्रतत्याग इत्यर्थः । १० हिंसाचीर्यानृतभाषाब्रह्मबहुपरिग्रहः । रोषमोषमृषायोषाहिंसादिश्लेषादि . . . ल० । ११ दारिद्र्यम् । १२ मोक्तुमिच्छया । १३ सर्वज्ञस्य । १४ शृणोमि स्म । १५ य वयोः । १६ रक्षति सति । १७ बलात्कारेण गृहीत्वा । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ महापुराणम् प्रारक्षिणों निगृह्णीयुर्वत्तं विमतये धनम् । इत्यब्रवीत् स सोऽप्याह गृहीतं न मयेति तत् ॥२६॥ विमतेरेव तद्गेहे दृष्ट्वीपायेन केनचित् । दण्डकारणिकः प्रोक्तं मृत्स्ना पात्रीत्रयोन्मितम् ॥२६२।। शकृतो भक्षणं मल्लैस्त्रिशन्मुष्ट्यभिताडनम् । सर्वस्वहरणं चैतत्त्रयं जीवितवाञ्छया ॥२६३॥ ‘स सर्वमनुभूयायात् प्राणान्ते नारकी गतिम् । विद्युच्चोरस्त्वया हन्यतामित्यारक्षको नुपात् ॥२६४॥ लब्धादेशोऽप्यहं हन्मि नैनं हिंसादिवर्जनम् । प्रतिज्ञातं मया साधोरित्याज्ञा नाकरोदसौ ॥२६॥ गहीतोत्कोच' इत्येष' चोरारक्षकयोपः। शृङखलाबन्धन रुष्ट्वा कारयामास निघृणम्॥२६६॥ त्वयाऽहं हेतुना केन हतोनेत्यनुयुक्तवान् । प्रतुष्टयारक्षकं चोरः सोऽप्येवं प्रत्यपादयत् ॥२६७॥ एतत्पुरममुष्यैव राज्ञः पितरि रक्षति । गुणपाल महाश्रेष्ठी कुबेरप्रियसंज्ञया ॥२६॥ अत्रैव नाटकाचार्यतनूजा नाट्यमालिका।"प्रास्थायिकायां भावेनं स्थायिनानृत्यदुद्रसम् ॥२६॥ तदालोक्य महीपालो बहुबिस्मयमागमत । गणिकोत्पलमालाख्यत् किमत्राश्चर्यमीश्वर ॥३००॥ श्रेष्ठिनोऽस्य "मियोऽन्येद्य:प्रतिमायोगधारिणः । सोपवासस्य पूज्यस्य गत्वा चालयितुं मनः ॥३०॥ नाशक तदिहाश्चर्यमित्याख्यद् भूभुजापि सा । गुणप्रिय वृणीष्वेति प्रोक्ता शीलाभिभरक्षणम् ॥३०२॥ अभीष्टं मम देहीति तद्दत्तं व्रतमग्रहीत् । अन्यदा तद्गृहं सर्वरक्षिताख्यः समागमत् ॥३०३॥ कहा कि मैंने बाकीका धन विमतिके लिये दे दिया है। जब विमतिसे पूछा गया तब उसने कह दिया कि मैंने नहीं लिया है, इसके बाद कोतवालने वह धन किसी उपायसे विमतिके घर ही देख लिया, उसे दण्ड देना निश्चित हआ, दण्ड देनेवालोंने कहा कि या तो मिट्टीकी तीन थाली भरकर विष्ठा खाओ, या मल्लोंके तीस मक्कोंकी चोट सहो या अपना सब धन दो। जीवित रहनेकी इच्छासे उसने पूर्वोक्त तीनों दण्ड सहे और अन्तमें मरकर नरक गतिको प्राप्त हुआ। राजाने एक चाण्डालको आज्ञा दी कि तू विद्युच्चोरको मार डाल, परन्तु आज्ञा पाकर भी उसने कहा कि मैं इसे नहीं मार सकता क्योंकि मैंने एक मुनिसे हिंसादि छोड़नेकी प्रतिज्ञा ले रखी है ऐसा कहकर उसने जब राजाकी आज्ञा नहीं मानी तब राजाने कहा कि इसने कुछ घूस खा ली है इसलिये उसने क्रोधित होकर चोर और चाण्डाल दोनोंको निर्दयतापूर्वक सांकलसे बंधवा दिया ॥२८९-२९६॥ चोरने संतुष्ट होकर चाण्डालसे पछा कि तने तने किस कारणसे मुझे नहीं मारा तब चाण्डाल इस प्रकार कहने लगा कि ॥२९७।। पहले इस नगरकी रक्षा इसी राजाके पिता गुणपाल करते थे और उनके पास कुबेरप्रिय नामका एक बड़ा सेठ रहता था ॥२९८।। इसी नगरीमें नाट्यमालिका नामकी नाटकाचार्यकी एक पुत्री थी एक दिन उसने राजसभामें रति आदि स्थायी भावों द्वारा शृङ्गारादि रस प्रकट करते हुए नृत्य किया ॥२९९॥ वह नृत्य देखकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ तब उत्पलमाला नामकी वेश्या बोली कि हे देव, इसमें क्या आश्चर्य है ? एक दिन अत्यन्त शान्त और पूज्य कुबेरप्रिय सेठने उपवासके दिन प्रतिमा योग धारण किया था, उस दिन मैं उनका मन विचलित करने के लिये गई थी परन्तु उसमें समर्थ नहीं हो सकी। इस संसारमें यही बड़े आश्चर्यकी बात है। यह सुनकर राजाने कहा कि ''हे गुणप्रिये ! तुझे गुण बहुत प्यारे लगते हैं इसलिये जो इच्छा हो सो मांग।" तव उसने कहा कि मुझे शीलव्रतको रक्षा करना इष्ट है यही वर दीजिए राजाने वह वर उसे १ तलवराः। २ निग्रहं कुर्युः । ३ विमतिनामधेयाय । ४ चोरः । विमतिरपि । ५ धनम् । ६ कारण: 'पुरोहितादिधर्मकारिभिरित्यर्थः । ७ गूथस्य । 'उच्चारावस्करौ शमलं शकृत् । पुरी उत्कोच गूथवर्चस्वमस्त्री विष्ठाविशौ स्त्रियाम् ।' इत्यभिधानात् । ८ विमतिः । ६ न वधं करोमि । १० 'लञ्च उत्कोच आमिषः, इत्यभिधानात् । ११ तलवरः । १२ निष्कृपं यथा भवति तथा । १३ प्रतुष्या अ०, स०, इ०, प० । १४ आस्थाने । १५ थेष्ठिनः शमितोऽन्येद्युः ल०, अ०, प०, इ०, स० । १६ नरामर्थोऽभवमहम्। १७ वाञ्छितं प्रार्थय। १८ उत्पलमालागृहम् । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व ४७३ रात्रौ तलवरो वृष्ट्वा तं बाहयाऽद्येति तेन तत् । 'प्रतिपादनवेलायामेवायान्मन्त्रिणः सुतः ॥३०४॥ नपतेमथनो नाम्ना पृथुधीस्तं निरीक्ष्य सा । मज्जूषायां विनिक्षिप्य गणिका सर्वरक्षितम् ॥३०॥ त्वया मवीयामरणं सत्यवत्यै समर्पितम् । त्वद्भगिन्य तदानेयमित्याह नुपमैथुनम् ॥३०६॥ सोऽपि प्राक् प्रतिपाद्येतद् व्रतग्रहणसंश्रुतेः । प्रातिकूल्यमगादीावान् द्वितीयदिने पुनः ॥३०७॥ साक्षिणं परिकल्प्यनं मञ्जूषास्थं महीपतेः । सन्निधौ याचितो वित्तम् असावुत्पलमालया ॥३०८॥ न गृहीतं मयेत्यस्मिन्मिथ्यावादिनि भूभुजा । पुष्टा सत्यवती तस्य पुरस्तान्यक्षिपद्धनम् ॥३०॥ मथनाय नपः ऋध्वा खलोऽयं हन्यतामिति । प्राज्ञापयत्पदातीन् स्वान् युक्तं तन्यायवर्तिनः ॥३१०॥ “पठन्मुनीन्द्रसद्धर्मशास्त्रसंश्रवणाद् द्रुतम् । अन्यधुः प्राक्तनं जन्म विदित्वा शममागते ॥३१॥ यागहस्तिनि मांसस्य पिण्डदानमनिच्छति । तद्वीक्ष्योपायविच्छष्ठी विबुद्धचानकपडगितम् ॥३१२॥ सपिण्डपयोमिश्रशाल्योदनसमर्पितम्। पिण्डं प्रायोजयत्सोऽपि द्विरदस्तमुपाहरत् ॥३१३॥ तदा तुष्ट्वा महीनाथो वृणीष्वष्टं तवेति तम् । प्राह पश्चाद् ग्रहीष्यामोत्यभ्युपेत्य स्थितः स तु ॥३१४॥ सचिवस्य सुतं दृष्ट्वा नीयमानं शुचा नृपात् । वरमादाय तद्घातात् दुर्वृत्तं तं व्यमोचयत् ॥३१॥ दिया और उस दिनसे उसने शील व्रत ग्रहण कर लिया। किसी दूसरे दिन सर्वरक्षित नामका कोतवाल रातके समय उसके घर गया, उसे देखकर उत्पलमालाने उससे कहा कि आज मैं बाहिर की हूं-रजस्वला हूं। इधर इन दोनोंकी यह बात चल रही थी कि इतने में ही मंत्रीका पुत्र और पृथुधी नामका राजाका साला आया, उसे देखकर उत्पलमालाने सर्वरक्षितको एक संदूकर्म छिपा दिया और राजाक सालसं कहा कि आपने जो मर आभूषण अपनी बहिन सत्यवती के लिये दिये थे वे लाइये। उसने पहले तो कह दिया कि हां अभी लाता हूं परन्तु बादमें जब उसने सुना कि उसने शील व्रत ले लिया है तब वह ईर्ष्या करता हुआ प्रतिकूल हो गया। दूसरे दिन वह वेश्या सन्दूकमें बैठे हुए कोतवालको गवाह बनाकर राजाके पास गई और वहां जाकर पृथुधीसे अपना धन मांगने लगी ॥३००-३०८।। पृथुधीने राजाके सामने भी झूठ कह दिया कि मैंने इसका धन नहीं लिया है। जब राजाने सत्यवतीसे पूछा तो उसने सब धन लाकर राजाके सामने रख दिया ॥३०९॥ यह देखकर राजा अपने सालेपर बहत क्रोधित हुआ, उसने अपने नौकरोंको आज्ञा दी कि यह दुष्ट शीघ्र ही मार डाला जाय। सो ठीक ही है क्योंकि न्याय-मार्गमें चलनेवालेको यह उचित ही है ॥३१०॥ किसी एक दिन पाठ करते हुए मनिराजसे धर्मशास्त्र सनकर राजाके मुख्य हाथीको अपने पूर्व भवका स्मरण हो आया. वह अत्यन्त शान्त हो गया और उसने मांसका पिण्ड लेना भी छोड़ दिया, यह देख उपायोंके जाननेवाले सेठने हाथोकी सब चेष्टाएं समझकर घी, गुड़ और दूध मिला हुआ शालि चावलोंका भात उसे खानेके लिये दिया और हाथीने भी वह शुद्ध भोजन खा लिया ॥३११-३१३।। उस समय संतुष्ट होकर राजाने कहा कि जो तुम्हें इष्ट हो सो मांगो। सेठने कहा-अच्छा यह वर अभी अपने पास रखिये, पीछे कभी ले लूंगा, ऐसा कहकर वह सेठ सुखसे रहने लगा ॥३१४॥ इसी समय मंत्रीका पुत्र मारनेके लिये ले जाया जा रहा था उसे देखकर सेठको बहुत शोक हुआ और उसने राजासे अपना पहिलेका रक्खा हुआ वर मांगकर उस दुराचारी मंत्रीके पुत्रको १ तलवरेण सह । २ अद्य याहीत्येतत्प्रतिपादन । ३ आनयामीत्यनुमत्य । ४ प्रसङ्गापातकथान्तरमिह ज्ञातव्यम् । ५ नीतम् । ६ भुडक्ते स्म । ७ तम् ल०, अ०, प०, स०, इ०। ८ मन्त्रिणः पुत्रम् । पुथुमतिम् । ६० Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ महापुराणम् श्रेष्ठिनैव निकारोऽयं 'ममाकारीत्यमस्त सः । पापिनामुपकारोऽपि सुभुजङ्गपयापते ॥३१६॥ अन्यधुमैथुनो राज्ञः स्वेच्छया विहरन वने । खेचरान्मुद्रिकामापत् 'कामरूपविधायिनीम् ॥३१७॥ कराडगुलौ विनिक्षिप्य तां वसोः स्वकनीयसः । सङकल्प्य श्रेष्ठिनों रूपं सत्यवत्या निकेतनम् ॥३१८॥ प्रवेश्य (प्रविश्य) पापधी राजसमीपं स्वयमास्थितः । वसुं गहीतश्रेष्ठी स्वरूपं वीक्ष्य महीपतिः ॥३१६॥ श्रेष्ठी किमर्थमायात्तोऽकाल इत्यवदत्तदा । अनात्मज्ञोऽयमायातः पापी सत्यवतीं प्रति ॥३२०॥ मदनानलसंतप्त इति युनिकोऽब्रवीत् । तद्वाक्यादपरीक्ष्यव तमेवाह प्रहन्यताम् ॥३२१॥ श्रेष्ठी तवेति श्रेष्ठी च तस्मिन्नेव दिने निशि । स्वगृहे प्रतिमायोगधारको भावयन स्थितः ॥३२२॥ पृथुधीस्तमवष्टभ्य गृहीत्वा घोषयन जने । अपराधमसन्तं च नीत्वा प्रेतमहीतलम् ॥३२३॥ प्रारक्षककरे हन्तुम् अर्पयामास पापभाक् । सोऽपि राजनिवेशोऽयमित्यहनसिना बुढम् ॥३२४॥ तस्य वक्षःस्थले तत्र प्रहारो मणिहारताम् । प्राप शीलवतो भक्तस्याहत्परमदैवते ॥३२॥ दण्डनादपरीक्ष्यास्य३ महोत्पातः पुरजनि । क्षयः स येन सर्वेषां कि नादुष्टवधाद् भवेत् ॥३२६॥ नरेशो नागराश्चैतद् आलोक्य भयविह्वलाः । तमेव शरणं गन्तुं श्मशानाभिमुखं ययुः ॥३२७॥ तदोपसर्गनिर्णाशे विस्मयनाकवासिनः। शीलप्रभावं व्यावय॑ वणिग्वर्यमपूजयन् ॥३२८॥ छुड़वा दिया ॥३१५॥ परन्तु मंत्रीके पुत्रने समझा कि मेरा यह तिरस्कार सेठने ही कराया है, सो ठीक ही है क्योंकि पापी पुरुषोंका उपकार करना भी सांपको दूध पिलानेके समान है ॥३१६॥ किसी अन्य दिन वह राजाका साला अपनी इच्छासे वनमें घूम रहा था, उसे वहां एक विद्याधरसे इच्छानुसार रूप बना देनेवाली अंगूठी मिली ॥३१७॥ उसने वह अंगूठी अपने छोटे भाई वसुके हाथकी अंगुलीमें पहना दी एवं उसका सेठका रूप बनाकर उसे सत्यवतीके घर भेज दिया। और पाप बुद्धिको धारण करनेवाला पृथुधी स्वयं राजाके पास जाकर बैठ गया। सेठका रूप धारण करनेवाले वसुको देखकर राजाने कहा कि 'यह सेठ असमयमें यहां क्यों आया है ?' उसी समय पृथुधीने कहा कि 'अपने आपको नहीं जाननेवाला यह पापी कामरूपी अग्निसे संतप्त होकर सत्यवतीके पास आया है' इस प्रकार उसके कहनेसे राजाने परीक्षा किये बिना ही उसी पृथुधीको आज्ञा दी कि तुम सेठको मार दो। सेठ उस दिन अपने घरपर ही प्रतिमायोग धारण कर वस्तुस्वरूपका चिन्तवन कर रहा था ॥३१८-३२२॥ पृथुधीने उसे वहीं कसकर बांध लिया और जो अपराध उसने किया नहीं था लोगोंमें उसकी घोषणा करता हुआ उसे श्मशानकी ओर ले गया ॥३२३॥ वहां जाकर उस पापीने उसे मारनेके लिये चाण्डालके हाथमें सौंप दिया। चाण्डालने भी यह राजाकी आज्ञा है ऐसा समझकर उसपर तलवारका मजबूत प्रहार किया ॥३२४॥ परन्तु क्या ही आश्चर्य था कि श्री अरहन्त परमदेवके भक्त और शीलवत पालन करनेवाले उस सेठके वक्षःस्थलपर वह तलवारका प्रहार मणियोंका हार बन गया ॥३२५॥ बिना परीक्षा किये उस सेठको दण्ड देनेसे नगरमें ऐसा बड़ा भारी उपद्रव हुआ कि जिससे सबका क्षय हो सकता था सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुषोंक वधसं क्या नहीं होता है ? ॥३२६।। राजा और नगरकं सब लोग यह उपद्रव देखकर भयसे घबड़ाये और उसी सेठकी शरणमें जानेके लिये श्मशानकी ओर दौडे ॥३२७।। जब सब उसकी शरणमें पहुंचे तब कहीं वह उपद्रव दूर हुआ, स्वर्गमें रहनेवाले देवोंने बड़े आश्चर्य १ तिरस्कारः वञ्चना च । २ क्रियते स्म । ३ -मुपकारोऽयं अ०, स० । ४ -माप काम-इ०, अ०, स० । ५ वसुनामधेयस्य। ६ निजानुजस्य । ७ कुबेरप्रियस्य । ८ समीपमागत्य स्थितः। ९ अवेलायाम् । १० बलात्कारेण बद्ध्वा । ११ अविद्यमानम् असत्यं वा । १२ हिनस्ति स्म। १३ श्रेष्ठिनः । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व ४७५ अपरीक्षितकार्याणाम् अस्माकं क्षन्तुमर्हसि । इति तेषु भयग्रस्तमानतेषु नुपादिषु॥३२६॥ अस्मजितदुष्कर्मपरिपाकाददिदम् । विषादस्तत्र कर्तव्यो न भवद्भिरिति ध्रुवम् ॥३३०॥ वैमनस्यं निरस्यैषां श्रेष्ठी प्रष्ठः क्षमावताम् । सर्वैः पुरस्कृतः पूज्यो विभूत्या प्राविशत् पुरम् ॥३३१॥ एवं प्रयाति कालेऽस्य वारिषेणां सुतां न पः। वसुपालाय पुत्राय स्वस्यादत्त विभूतिमत् ॥३३२॥ अथान्येद्यः सभामध्य पृष्ठवान् श्रेष्ठिनं नृपः । विरुद्धं किं न वाऽन्योन्यं धर्मादीनि चतुष्टयम् ॥३३३॥ परस्परानुकूलास्ते सम्यग्दृष्टिष साधुषु । न मिथ्याक्ष्विति प्राह श्रेष्ठी 'धर्मादितत्त्ववित् ॥३३४॥ इति तद्वचनाद् राजा तुष्टोऽभीष्टं त्वयोच्यताम् । दास्यामीत्याह सोऽप्याख्यज्जातिमृत्युक्षयाविति ॥३३॥ न मया तवयं साध्यमिति प्रत्याह भूपतिः । मां मुञ्च साधयामीति तमवोचणिग्वरः ॥३३६॥ तवाकये गृहत्यागम् अहं च सह 'तेऽधुना । करोमि किन्तु मे पुत्रा बालका इति चिन्तयन् ॥३३७॥ सद्योभिन्नाण्डकोद्भुतान् मक्षिकादानतत्परान् । क्षुधापीडाहतान् वीक्ष्य सहसा गृहकोकिलान् ॥३३८॥ सर्वेऽपि जीवनोपायं जन्तवो जानतेतराम् । स्वेषां विनोपदेशन तत्कि मे बलचिन्तया ॥३३॥ इत्यसौ वसुपालाय दत्वा राज्यं यथाविधि । विधाय यौवराज्यं च श्रीपालस्य सपट्टकम् ॥३४०॥ से शीलव्रतके प्रभावका वर्णन कर उस सेठकी पूजा की ॥३२८॥ जिनके मन भयसे उद्विग्न हो रहे हैं ऐसे राजा आदिने सेठसे कहा कि हम लोगोंने परीक्षा किये बिना ही कार्य किया ह अतः आप हम सबको क्षमा कर दीजिये, ऐसा कहनेपर क्षमा धारण करनेवालोंमें श्रेष्ठ सेठने कहा कि यह सब हमारे पूर्वोपाजित अशुभ कर्मके उदयसे ही हुआ है। निश्चयसे इस विषयमें आपको कुछ भी विषाद नहीं करना चाहिये ऐसा कहकर उसने सबका वैमनस्य दूर कर दिया। तदनन्तर सब लोगोंके द्वारा आगे किये हुए पूज्य सेठ-कुबेरप्रियने बड़ी विभूतिके साथ नगरमें प्रवेश किया ॥३२९-३३१॥ इस प्रकार समय व्यतीत होनेपर वैभवशाली राजाने वारिषेणा नामकी इसी सेठकी पुत्री अपने पुत्र वसुपालके लिये ग्रहण की ॥३३२॥ किसी अन्य दिन राजाने सभाके बीच सेठसे पूछा कि ये धर्म आदि चारों पुरुषार्थ परस्पर एक दूसरेके विरुद्ध हैं अथवा नहीं ? ॥३३३॥ तब धर्म आदिके तत्त्वको जाननेवाले सेठने कहा कि सम्यग्दृष्टि सज्जनोंके लिये तो ये चारों ही पुरुषार्थ परस्पर अनुकूल हैं परन्तु मिथ्यादृष्टियोंके लिये अनुकूल नहीं है ॥३३४॥ सेठके इन वचनोंसे राजा बहुत ही संतुष्ट हुआ, उसने सेठसे कहा कि 'जो तुम्हें इष्ट हो मांग लो मैं दूंगा' तब सेठने कहा कि मैं जन्म-मरणका क्षय चाहता हूं ॥३३५।। इसके उत्तरमें राजाने कहा कि ये दोनों तो मेरे साध्य नहीं हैं तब वैश्यवर सेठने कहा कि अच्छा मुझे छोड़ दीजिये मैं स्वयं उन दोनोंको सिद्ध कर लूंगा ॥३३६॥ यह सुनकर राजाने कहा कि तेरे साथ मैं भी घर छोड़ता परन्तु मेरे पुत्र अभी बालक हैं--छोटे छोटे हैं इस प्रकार राजा विचार कर ही रहा था कि ॥३३७॥ अचानक उसकी दृष्टि छिपकलीके उन बच्चोंपर पड़ी जो उसी समय विदीर्ण हुए अंडेसे निकले थे, भूखकी पीड़ासे छटपटा रहे थे और इसलिये ही मक्खियां पकड़नेमें तत्पर थे, उन्हें देखकर राजा सोचने लगा कि अपनी अपनी आजीविकाके उपाय तो सभी जीव बिना किसीके उपदेशके अपने आप अच्छी तरह जानते हैं इसलिये म अपने छोटे छोटे पुत्रोंकी चिन्ता करनेसे क्या लाभ है ? यही विचार कर गुणपाल महाराजने वसुपालके लिये विधिपूर्वक राज्य दिया और श्रीपालको पट्ट सहित युवराज बनाया। तदनन्तर १ अस्त-प०, ल०। २ मुख्यः । ३ पुरीम् ल०। ४ विभूतिमान् प०, ल०, इ० । ५ धर्मार्थकाममोक्षाः। ६ ते धर्मादयः । ७ सज्जनेषु । ८ मिथ्यादृष्टिषु । धर्मार्थकाममोक्षस्वरूपवेदी। १० जननमरणविनाशौ ममेष्टाविति । ११ त्वया सह । १२ तत्क्षणे स्फुटितकोशजातान्। १३ तत् कारणात् । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ महापुराणम् गुणपालमहाराजः सकुबेरप्रियोऽग्रहीत । बहुभिर्भूभुजैः साधं तपो यतिवरं श्रितः ॥३४॥ श्रेष्ठ्यहिंसाफलालोकान्मयाऽप्यग्राहि तद्वतम् । तस्मात्त्वं न हतोऽसीति ततस्तुष्टाव' 'सोऽपि तम्॥ इत्युक्त्वा सोऽब्रवीदेवं प्राक् मृणालवतीपुर। भूत्वा त्वं भवदेवाख्यो रतिवेगासुकान्तयोः ॥३४३॥ बद्धवरो निहन्ताऽभूः पारावतभवेऽप्यनु । मार्जारः सन्मति १३गत्वा पुनः "खचरजन्मनि ॥३४४॥ विद्युच्चोरत्वमासाद्य सोपसर्गा मतिं व्यधाः। तत्पापानरके दुःखम् अनुभूयागतस्ततः । ३४५॥ अत्रत्याखिलदवेद्युक्तं व्यक्तवाग् विसरः स्फुटम् । व्यधात् सुधीः स्ववृत्तान्तं भीमसाधुः सुधाशिनोः । त्रिः प्राक् त्वन्मारितावावामिति शुद्धित्रयान्वितौ । जातसद्धर्मसभावावभिवन्द्य मुनि गतौ ॥३४७॥ इति व्याहृत्य हेमाङगदानुजेदं च साऽब्रवीत् । भीम'साधुःपुर पुण्डरीकियां घातिघातनात् ॥३४॥ रम्य शिवडकरोद्याने पञ्चमज्ञानपूजितः। तस्थिवांस्तं२ समागत्य चतस्रो देवयोषितः॥३४६॥ वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य पापादस्मत्पतिमतः। त्रिलोकेश वदास्माकं पतिः कोऽन्यो भविष्यति ॥३५०॥ इत्यपुच्छन्नसौ२३ चाह पुरेऽस्मिन्नेव" भोजकः२५ । सुरदेवायस्तस्य वसुषेणा वसुन्धरा ॥३५॥ सेठ कुबेरप्रिय तथा अन्य अनेक राजाओंके साथ साथ मुनिराजके समीप जाकर तप धारण किया ॥३३८-३४१॥ वह चाण्डाल कहने लगा कि सेठके अहिंसा व्रतका फल देखकर मैंने भी अहिंसा व्रत ले लिया था यही कारण है कि मैंने तुम्हें नहीं मारा है यह सुनकर उस विद्युच्चर चोरने भी उसकी बहुत प्रशंसा की ॥३४२।।। इतना कहकर वे भीम मुनि सामने बैठे हुए देव-देवियोंसे फिर कहने लगे कि सर्वज्ञदेवने मुझसे स्पष्ट अक्षरोंमें कहा है कि 'तू पहले मृणालवती नगरीमें भवदेव नामका वैश्य हुआ था वहां तूने रतिवेगा और सुकान्तसे वैर बांधकर उन्हें मारा था, मरकर वे दोनों कबूतर कबूतरी हुए सो वहां भी तूने बिलाव होकर उन दोनोंको मारा था, वे मरकर विद्याधर विद्याधरी हुए थे सो उन्हें भी तूने विद्युच्चोर होकर उपसर्ग द्वारा मारा था, उस पापसे तू नरक गया था' और वहांके दुःख भोगकर वहांसे निकलकर यह भीम हुआ हूं इस प्रकार उन बुद्धिमान् भीम मुनिने सामने बैठे हुए देव-देवियोंके लिये अपना सब वृत्तान्त कहा ॥३४३-३४६॥ जिन्हें आपने पहले तीन बार मारा है वे दोनों हम ही हैं ऐसा कहकर जिनके मन, वचन, काय-- तीनों शुद्ध हो गये हैं और जिन्हें सद्धर्मकी सद्भावना उत्पन्न हुई है ऐसे वे दोनों देव-देवी उन भीममुनिकी वन्दना कर अपने स्थानपर चले गये ॥३४७॥ यह कहकर हेमाङ्गदकी छोटी बहिन सुलोचना फिर कहने लगी कि एक समय पुण्डरीकिणी नगरीके शिवंकर नामके सुन्दर उद्यानमें घातिया कर्म नष्ट करनेसे जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे भीममुनिराज विराजमान थे, सभी लोग उनकी पूजा कर रहे थे, उसी समय वहांपर चार देवियोंने आकर उनकी वन्दना की, धर्मका स्वरूप सुना और पूछा कि हे तीन लोकके स्वामी, हम लोगोंके पापसे हमारा पति मर गया है। कहिये--अब दूसरा पति कौन १ तस्मात् कारणात् । २ एवं तलवरोऽवादीत् । ३ तलवरवचनानन्तरम् । ४ स्तौति स्म । ५ विद्युच्चोरः। ६ अहिंसाव्रतम् । तस्मात् त्वं न हतोऽसीति श्लोकस्य सोऽप्येवं प्रत्यपादयदित्यनेन सह सम्बन्धः । ७ उक्तप्रकारेण प्रतिपाद्य। स मुनिः पुनरप्यात्मनः सर्वज्ञेन प्रतिपादितनिजवृत्तकं सुरदम्पत्योराह । ८ वक्ष्यमाणप्रकारेण । ६ पूर्वजन्मनि । १० हे भीममुने, भवान् । ११ घातुकः । १२ कपोतभवेऽपि मार्जारः सन् तयोनिहन्ताऽभूरिति सम्बन्धः। १३ कृत्वा ल०, अ०, प०, स०, इ० । १४ तद्दम्पत्योविद्याधरभवे । खेचरजन्मनि प०, इ०। १५ सर्वज्ञप्रोक्तम् । १६ हिरण्यवर्मप्रभावतीचरौ । १७ मनोवाक्कायशुद्धियुक्तौ। १८ भीममुनिम्। १६ उक्त्वा । २० सुलोचना। २१ भीमः साधुः प०, इ०, ल०। २२ आस्ते स्म । २३ भीमकेवली। २४ पुण्डरीकिण्याम् । २५ पालकः । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व धारिणी पृथिवी चेति चतस्रो योषितः प्रियाः । श्रीमती वीतशोकाख्या विमला सवसन्तिका ॥३५२॥ चतस्रश्चेटिकास्तासाम् अन्येद्युस्ता वनान्तरे । सर्वा यतिवराभ्यासे धर्मं दानादिनाऽऽददुः १ ॥ ३५३ ॥ तत्फलेनाच्युते कल्पे प्रतीन्द्रस्य प्रियाः क्रमात् । रतिषेणा सुसीमाख्या मुख्यान्या च सुखावती ॥३५४॥ सुमगेति च देव्यस्ता यूयं ताश्चेटिकाः पुनः । चित्रषेणा क्रमाच्चित्रवेगा धनवती सती ॥ ३५५॥ धनश्रीरित्यजायन्त वनदेवेषु कन्यकाः । सुरदेवेऽप्यभून्मृत्वा पिङ्गलः पुररक्षकः ॥ ३५६ ॥ स तत्र निजदोषेण प्रापनिगलबन्धनम् । मातुस्तत्सु रदेवस्य प्राप्ता या राजसूनुताम् ॥३५७॥ श्रीपालाख्यकुमारस्य ग्रहणे बन्धमोक्षणे । सर्वेषां पिङ्गलाख्योऽपि मुक्तः संन्यस्य सम्प्रति ॥ ३५८ ॥ भूत्वा बुधविमानेऽसौ इहागत्य भविष्यति । 'स्वामी युष्माकमित्येतत्तच्चेतो हरणं तदा ॥ ३५६ ॥ परमार्थं कृतं तेन' तथा 'गत्य मुनेर्वचः । पृष्ट्वानु" कन्य काश्चैनम् श्रात्मनो भाविनं पतिम् ॥३६०॥ पूर्वोक्त पिङगलाख्यस्य सूनुर्नाम्नाऽतिपिङ्गलः । सोऽपि संन्यस्य युष्माकं श्रतिदायी भविष्यति ॥ ३६१॥ इति तत्प्रोक्तमाकर्ण्य गत्वा" तत्पूजनाविधौ" । "स्वासां निरीक्षणात् "कामसम्मोहप्रकृतं महत् । ३६२ ॥ रतिकूलाभिधानस्य'" संविधानं" मुनेः श्रुतम् । तत्पितुर्मणिनागादिदत्तस्य प्रकृतं तथा ॥ ३६३॥ होगा ? तब सर्वज्ञ - भीम मुनिराज कहने लगे कि इसी नगरमें सुरदेव नामका एक राजा था उसकी वसुषेणा, वसुंधरा, धारिणी और पृथिवी ये चार रानियां थीं तथा श्रीमती, वीतशोका, विमला और वसन्तिका ये चार उन रानियोंकी दासियां थीं । किसी एक दिन उन सबने वनमें जाकर किन्हीं मुनिराजके समीप दान आदिके द्वारा धर्म करना स्वीकार किया था । उस धर्मके फलसे वे अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्रकी देवियां हुई हैं । क्रमसे उनके नाम इस प्रकार हैंरतिषेणा, सुसीमा, सुखावती और सुभगा । वह देवियां तुम्हीं सब हो, तथा तुम्हारी दासियां चित्रषेणा, चित्रवेगा, धनवती और धनश्री नामकी व्यन्तर देवोंकी कन्याएं हुई हैं । राजा सुरदेव मरकर पिङ्गल नामका कोतवाल हुआ है और वह अपने ही दोषसे कारागारको प्राप्त हुआ था, सुरदेवकी माता राजाकी पुत्री हुई है और श्रीपालकुमार के साथ उसका विवाह हुआ है । विवाहोत्सवके समय सब कैदी छोड़े गये थे उनमें पिङ्गल भी छूट गया था, अब संन्यास लेकर अच्युत स्वर्गमें उत्पन्न होगा और वही तुम सबका पति होगा ! ' इधर मुनिराज ऐसे मनोहर वचन कह रहे थे कि उधर पिङ्गल संन्यास धारणकर अच्युत स्वर्गमें उत्पन्न हुआ और वहांसे आकर उसने मुनिराजके वचन सत्य कर दिखाये । इतनेमें ही चारों व्यन्तर कन्याएँ आकर सर्वज्ञदेवसे अपने होनहार पतिको पूछने लगीं ॥। ३४८ - ३६० ॥ मुनिराज कहने लगे कि पूर्वोक्त पिङ्गल नामक कोतवालके एक अतिपिङ्गल नामका पुत्र है वही संन्यास धारणकर तुम्हारा पति होगा ॥ ३६१|| भीम केवलीके ये वचन सुनकर चारों ही देवियां जाकर अतिपिङ्गलकी पूजा करने लगीं, उसे देखनेसे उन देवियोंको कामका अधिक विकार हुआ था ॥ ३६२॥ उन देवियोंने रतिकूल नामके मुनिका चरित्र सुना, उनके पिता मणिनागदत्तका चरित्र सुना, ४७७ १ स्वीकुर्वन्ति स्म । २ व्यन्तरदेवेषु । ३ तलवरः । ४ विवाहसमये । ५ - • च्युतविमानेऽसौ इ०, प०, ल० । बुधविमानेशः इत्यपि पाठः । बुधविमानाधिपतिः । ६ स्वामी युष्माकमित्यसौ चाहेत्यनेन सह सम्बन्धः । ७ पिङ्गलचरदेवेन । ८ केवल्युक्तप्रकारेण । ( क्रमेण ) 2 सर्वज्ञस्य । १० अनन्तरम् । ११ व्यन्तरकन्याः | १२ भीमकेवलिनम् । १३ पुरुषः । १४ अतिपिङ्गलस्य समीपं प्राप्य । १५ अतिपिङ्गलस्य परिचर्याविधौ । १६ चित्रसेनादिव्यन्तरकन्यकानाम् । तासाम् ल०, प०, द० । १७ कामसम्मोहेन प्रकर्षेण कृतम् । १८ रतिकूलाभिधानस्य पुरुषस्य । १६ व्यापारम् । २० भीमकेवलिनः सकाशात् । २१ आकणितम् । २२ रतिकूलस्य जनकस्य । २३ चेष्टितम् । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ महापुराणम् सुकेतोश्चाखिले तस्मिन्सत्यभूते' मुनीश्वरम् । ताः सर्वाः परितोषेण गताः समभिवन्द्य तम् ॥३६४। श्रावामपि तदा वन्दनाय तत्र गताविदम् । श्रुत्वा दृष्ट्वा गतौ प्रीतिपरीत हृदयौ दिवम् ॥ ३६५॥ इत्यात्मीयभवावलीमनुगतैर्मान्य मनोरञ्जनैः स्पष्टैरस्खलितं : "कलैरविरलंरव्याकुलैर्जल्पितैः । श्रात्मोपात्तशुभाशुभोदयवशोद्भूतोच्च नीच स्थितिम् ' संसर्पदशनांशु भूषितसभासभ्यान' सावभ्यधात् ' ॥ ३६६ ॥ श्रुत्वा तां हृदयप्रियोक्तिमतुषत्कान्तो' रतान्ते यया संसच्च" व्यकसत्तरां शरदि वा लक्ष्मीः सरःसंश्रया । कान्तानां वदनेन्दुकान्तिरगलत्तद्वाग्दिनेशोद्गतेः १२ प्रस्थान कृतमत्सरोऽसुखक रस्त्या" ज्यस्ततोऽसौ" बुधैः ॥ ३६७॥ कान्तोऽभूद् रतिषेणया वणिगसौ पूर्व सुकान्तस्ततः सञ्जातो रतिवेणया रतिवरो गेहे कपोतो विशाम्" । सुकेतुका चरित्र सुना और सबके सत्य सिद्ध होनेपर बड़े संतोषके साथ मुनिराजकी वन्दना कर अपने अपने स्थानोंकी ओर प्रस्थान किया ।। ३६३ - ३६४ ।। उस समय हम दोनों भी मुनिराज की वन्दना करनेके लिये वहां गये और यह सब देख सुनकर प्रसन्नचित्त होते हुए स्वर्ग चले गये थे ॥ ३६५॥ इस प्रकार अपने द्वारा उपार्जन किये हुए शुभ अशुभ कर्मोंके उदयवश जिसे ऊंची नीची अवस्था प्राप्त हुई है और जिसने अपने दांतोंकी फैलती हुई किरणोंसे समस्त सभाको सुशोभित कर दिया है ऐसी सुलोचनाने सब सभासदोंको क्रमबद्ध मान्य, मनोहर, स्पष्ट, अस्खलित, मधुर, अविरल और आकुलता रहित वचनों द्वारा अपने पूर्वभवकी परम्परा कह सुनाई ॥३६६॥ हृदयको प्रिय लगनेवाले सुलोचनाके वचन सुनकर जयकुमार उस प्रकार संतुष्ट हुए जिस प्रकार कि संभोगके बादमें सन्तुष्ट होते । वह सभा उस तरह विकसित हो उठी जिस तरह की शरद् ऋतु में सरोवरकी शोभा विकसित हो उठती है । और सुलोचनाके वचनरूपी सूर्यके . उदय होनेसे अन्य स्त्रियों के मुखरूपी चन्द्रमाओंकी कान्ति नष्ट हो गई थी सो ठीक ही है क्योंकि अयोग्य स्थानपर की हुई ईर्ष्या दुःख करनेवाली होती है इसलिये विद्वानोंको ऐसी ईर्ष्या अवश्य ही छोड़ देनी चाहिये || ३६७ || सुलोचनाने जयकुमारसे कहा कि मैं पहले रतिवेगा थी और आप मेरे ही साथ मेरे पति सुकान्त वैश्य हुए, फिर में सेठ के घर रतिषेणा कबूतरी हुई और आप मेरे ही साथ रतिवर नामक कबूतर हुए, फिर मैं प्रभावती विद्याधरी हुई और आप मेरे ही साथ हिरण्यवर्मा विद्यावर हुए उसके बाद मैं स्वर्ग में महादेवी हुई और आप मेरे ही साथ अतिशय १ मृणालवतीपुरपतेः सुकेतोरपि चेष्टितं मुनेः सकाशाच्च्युतमिति सम्बन्धः । एतत् कथात्रयं ग्रन्थान्तरे द्रष्टव्यम् । २ सत्यीभूते ल०, प०, इ०, स० । ३ प्रभावतीचरी हिरण्यवमंचरसुरदम्पती । ४ सुन्दरैः । ५ सम्पूर्णैः । ६ स्थितिः ल० । ७ सुलोचना । ५ उवाच । ६ जयः । ११ जयस्य श्रीमतीशिवशङ्करादियोषिताम् । १२ सुलोचनावचनादित्योदये सति । १४ मत्सरः । १५ वैश्यानाम् । १० सभा च । १३ दुःखकरः । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चत्वारिंशत्तम पर्व 'यत्यन्तप्रभयाऽभवत्खगपति वर्मा हिरण्यादिवाकर देवः कल्पगतो मया' सह महादेव्याऽजनीडयो भवान् ॥३६८॥ सकलमविकलं तत्सप्रपञ्चं रमण्या मुखकमलरसाक्तं श्रोत्रपात्रे निधाय । तदुदितमपरञ्च श्रोतुकामो जयोऽभू नरसिक दयितोक्तः कामुकास्तप्नुवन्ति ॥३६६॥ इत्या भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्ठिलक्षणमहापुराणसडग्रहे जयसुलोचनाभवान्तरवर्णनं नाम षट्चत्वारिंशत्तमं पर्व ॥॥४६॥ पूज्य देव हए ।।३६८॥ इस प्रकार जयकुमार प्रियाके मखरूपी कमलके रससे भीगे हए मनोहर, पूर्ण और विस्तारयुक्त वचनोंको अपने कर्णरूपी पात्रमें रखकर उसके द्वारा कहे हुए अन्य वृत्तान्त को सुननेकी इच्छा करने लगा सो ठीक ही है क्योंकि कामी पुरुष स्त्रियोंके रसीले वचनोंसे कभी तृप्त नहीं होते हैं ॥३६९॥ इस प्रकार भगवद्गुणभद्राचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें जयकुमार और सुलोचनाके भवान्तर वर्णन करनेवाला छियालीसवां पर्व समाप्त हुआ। १ प्रभावत्या सहेत्यर्थः। २ विद्याधरपतिः। ३ हिरण्यवर्मा । ४ सुलोचनया सह । ५ जयः । ६ रससम्बद्धम् । ७ रसनप्रियदयितावचनैः । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व कान्ते तत्रान्यदप्यस्ति प्रस्तुतं स्मर्यते त्वया। श्रीपालचक्रिसम्बन्धमित्यप्राक्षीत् स तां पुनः॥१॥ बाढं स्मरामि सौभाग्यभागिनस्तस्य वृत्तकम् । 'तवैवाद्येक्षितं वेति सा प्रवक्तुं प्रचक्रमे ॥२॥ जम्बूद्वीपे विदेहेऽस्मिन् पूर्वस्मिन्युण्डरीकिणी । नगरी नगरीवासौ वासवस्यातिविश्रुता ॥३॥ श्रीपालवसुपालाख्यौ सूर्याचन्द्रमसौ च तौ। जित्वा महीं सहैवावतः स्मेव नयविक्रमौ ॥४॥ जननी वसुपालस्य कुबेरश्रीदिनेऽन्यदा । वनपाले समागत्य केवलावगमोऽभवत् ॥५॥ गणपालमनीशोऽस्मत्पतेः 'सरगिराविति । निवेदितवति क्रान्त्वा पुरः सप्तपदान्तरम् ॥६॥ प्रणम्य वनपालाय दत्वाऽसौ पारितोषिकम् । पौराः सपर्यया सर्वेऽप्याययुरिति घोषणाम् ॥७॥ विधाय प्राक् स्वयं प्राप्य भगवन्तमवन्दत । श्रीपालवसुपालौ च ततोऽनु समुदौ गतौ ॥८॥ प्रमदाख्यं वनं प्राप्य सद्रुमैरम्यमन्तरे । प्राग्जगत्पालचक्रेशो यस्मिन्न्यग्रोध पादपे ॥६॥ देवताप्रतिमालक्ष्ये स्थित्वा जग्राह संयमम् । तस्याधस्तात् समीक्ष्यक्ष्यं" प्रवृत्तां नृत्तमावरात् ॥१०॥ तयोः५ कुमारः श्रीपालः पुरुषो नर्तयत्ययम् । अस्तु स्त्रीवेषधार्यत्र स्त्री चेत्पुंरूपधारिणी ॥११॥ स्यादेव स्त्री प्रनृत्यन्ती नृत्तं युक्तमिदं भवेत् । इत्याह तद्वचः श्रुत्वा नटी मूर्छामुपागता ॥१२॥ यह सुनकर जयकुमारने सुलोचनासे फिर पूछा कि हे प्रिये, इस कही हुई कथामें श्रीपाल चक्रवर्तीसे सम्बन्ध रखनेवाली एक कथा और भी है, वह तुझे याद सुलोचनाने कहा हां, सौभाग्यशाली श्रीपाल चक्रवर्तीकी कथा तो मुझे ऐसी याद है मानो मैंने आज ही देखी हो, यह कहकर वह उसकी कथा कहने लगी ॥१-२॥ इस जम्बू द्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें एक पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है जो कि इन्द्रकी नगरी-अमरावतीके समान अत्यन्त प्रसिद्ध है।॥३॥ सर्य और चन्द्रमा अथवा नय और पराक्रमके समान श्रीपाल चन्द्रमा अथवा नय और पराक्रमके समान श्रीपाल और वसपाल नामके दो भाई समस्त पृथिवीको जीतकर साथ ही साथ उसका पालन करते थे ॥४॥ किसी एक दिन मालीने आकर वसुपालकी माता कुबेरश्रीसे कहा कि सुरगिरि नामक पर्वतपर आपके स्वामी गुणपाल मुनिराजको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, यह सुनकर उसने सामने सात पेंड चलकर नमस्कार किया, मालीको पारितोषिक दिया और नगरमें घोषणा कराई कि सब लोग पूजाकी सामग्री साथ लेकर भगवान्के दर्शन करनेके लिये चलें , उसने स्वयं सबसे पहले जाकर भगवान्की वन्दना की। माताके पीछे ही श्रीपाल और वसुपाल भी बड़ी प्रसन्नतासे चले ॥५-८॥ मार्गमें वे एक उत्तम वनमें पहुंचे जो कि अच्छे अच्छे वृक्षोंसे सुन्दर था और जिसमें देवताकी प्रतिमासे युक्त किसी वट वृक्षके नीचे खड़े होकर महाराज जगत्पाल चक्रवर्तीने संयम धारण किया था। उसी वृक्षके नीचे एक दर्शनीय नृत्य हो रहा था, उसे दोनों भाई बड़े आदरसे देखने लगे ॥९-१०॥ देखते देखते कुमार श्रीपालने कहा कि यह स्त्रीका वेष धारण कर पुरुष नाच रहा है और पुरुषका रूप धारण कर स्त्री नाच रही है। यदि यह स्त्री स्त्रीके ही वेषमें नृत्य करती तो बहुत ही अच्छा नृत्य होता। श्रीपालकी यह बात सुनकर नटी मूच्छित १तत्रैवा-अ०, स० । यथैवा- ल०, प०, इ०। २ प्रत्यक्षं दृष्टमिव । ३ चितो ट० । संयोजितौ। ४ अवारक्षताम्। ५ मुनीशस्य । ६ सुरगिरिनाम्नि पर्वते । ७ कुबेरश्रीः। ८ पूजया । ९ आगच्छेयुः। १० शुभवृक्षैः। ११ वट । 'न्यग्रोधो बहुपाद् वटः' इत्यभिधानात् । १२ वटस्य । १३ आलोच्य। १४ दर्शनीयम्। १५ वसुपालश्रीपालयोः । १६ चेत् । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व उपायः प्रतिबोयनां तदा प्रश्रयपूर्वकम् । इति विज्ञापयामास काचित्तं भाविचक्रिणम् ॥१३॥ सुरभ्यविषये श्रीपुराधिपः श्रोषराह्वयः । तद्देवी श्रीमती तस्याः सुता जयवतीत्यभूत् ॥१४॥ तज्जातो चकिगो देवी आविनीत्यादिशन्विदः । अभिज्ञानं च तस्यैतत् नटनट्योविवेत्ति' यः॥१५॥ भेदं स चक्रवर्तीति तत्परीक्षितुमागताः । पुण्याद् दुष्टस्त्वमस्माभिनिधिकल्पो यदृच्छया ॥१६॥ अहं प्रियरति मा सुतेयं नर्तकी मम । ज्ञेया मदनवेगाख्या पुरुषाकारधारिणी ॥१७॥ नटोऽयं बासबो नाम ख्यातः स्त्रोवेषधारकः। तच्छ त्वा नपतिस्तुष्ट्वा तां सन्तर्प्य यथोचितम् ॥१८॥ गुरु वन्दितुमात्मीयं गच्छन् सुरगिरि ततः । अश्वं केनचिदानीतम् आरुहयासक्तचेतसा ॥१६॥ "प्रधावयदसौ किञ्चिद् अन्तरं धरणीतले । गत्वा गगनमारुह्य व्यक्तीकृतखगाकृतिः ॥२०॥ न्यग्रोधपादपावःस्थप्रतिमावासिना अशम् । देवेन तजितो भीत्वाऽशनिवेगोऽमुचत् खगः ॥२१॥ कुमारं पर्णलव्याख्यविद्यया स्वनियुक्तया। रत्नावर्तगिरेनध्नि स्थितं तं सन्ति भाविनः ॥२२॥ बड्वोऽप्यस्य जम्मा इत्याहीत्वा निवृत्तवान् । देवः सरसि कस्निश्चित् स्नानादिविधिना श्रमम् ॥२३॥ मार्ग स्थितनुदय तमेकस्पात सुधागृहात् । आगत्य राजपुत्रोऽयमिति ज्ञात्वा यथोचितम् ॥२४॥ दृष्ट्वा षड्राजकन्यास्ताः स्ववृत्तान्तं न्यवेदयन् । स्वगोत्रकुलनामादि निदिश्य खचरेशिना ॥२५॥ बलादशनियोन वपनस्पिनिवेशिताः । इति तत्प्रोक्तमाकर्ण कुमारस्थानुकम्पिनः ॥२६॥ हो गई ॥११-१२॥ उसी समय अनेक उपायोंसे नटीको सचेत कर कोई स्त्री उस होनहार चक्रवर्ती श्रीपालसे विनयपूर्वक इस प्रकार कहने लगी ॥१३॥ कि सुरम्य देशके श्रीपुर नगरके राजाका नाम श्रीधर है उसकी रानीका नाम श्रीमती है और उसके जयवती नामकी पुत्री है ॥१४॥ उसके जन्मके समय ही निमित्तज्ञानियोंने कहा था कि यह चक्रवर्तीकी पट्टरानी होगी और उस चक्रवर्तीको पहिचान यही है कि जो नट और नटीके भेदको जानता हो वही चक्रवर्ती है, हम लोग उसीकी परीक्षा करनेके लिये आये हैं, पुण्योदयसे हम लोगोंने निधिके समान इच्छानुसार आपके दर्शन किये हैं ।।१५-१६।। मेरा नाम प्रियरति है, यह पुरुषका आकार धारण कर नृत्य करनेवाली मदनवेगा नामकी मेरी पुत्री है और स्त्रीका वेष धारण करनेवाला यह वासव नामका नट है यह सुनकर राजाने संतुष्ट होकर उस स्त्रीको योग्यतानुसार संतोषित किया और स्वयं अपने पिताकी वन्दना करनेके लिये सुरगिरि नामक पर्वतकी ओर चला, मार्गमें कोई पुरुष घोड़ा लाया उसपर आसक्तचित्त हो श्रीपालने सवारी की और दौड़ाया। कुछ दूरतक तो वह घोड़ा पथिवीपर दौडाया परन्तु फिर अपना विद्याधरका आकार प्रकट कर उसे आकाशमें ले उड़ा। उस वट वृक्षके नीचे स्थित प्रतिमाके समीप रहनेवाले देवने उस विद्याधरको ललकारा, देवकी ललकारसे डरे हुए अशनिवेग नामके विद्याधरने अपनी भेजी हुई पर्णलधु विद्यासे उस कुमार श्रीपालको रत्नावर्त नामके पर्वतकी शिखरपर छोड़ दिया । देवने देखा कि उस पर्वतपर रहकर ही उसे बहुत लाभ होनेवाला है इसलिये वह कुमारको साथ लिये बिना ही लौट गया। कुमार भी किसी तालाबमें स्नान आदि कर मार्गमें उत्पन्न हुए परिश्रमको दूर कर बैठे ही थे कि इतने में एक सफेद महलसे छह राजकन्याएं निकलकर आई और कुमारको 'यह राजाका पुत्र है' ऐसा समझकर यथायोग्य रीतिसे दर्शन कर अपना समाचार निवेदन करने लगीं। उन्होंने अपने गोत्र-कूल और नाम आदि बतलाकर कहा कि 'अशनिवेग नामके विद्याधरने हम लोगोंको यहां जबर्दस्ती लाकर पटक दिया है' कन्याओंकी यह बात १ जयवत्या जननसमये। ५ नाम्ना ल०, अ०, ५०, स०, इ० । ६ विद्याधराकारः । ६१ २ विद्वांसः। ३ परिचायक चिह्नम् । ४ विशेषेण जानाति । ६ वनात् (प्रमथवनात्) । ७ गमयति स्म। ८ मायाश्वः । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ महापुराणम् निजागमनवृत्तान्तकथनावसरे परा । विद्युद्धगाभिधा विद्याधरी तत्र समागता ॥२७॥ पापिनाऽशनिवेगेन हन्तुमेन' प्रयोजिता । समीक्य मदनाकान्ताऽभूच्चित्राश्चित्सवृत्तयः ॥२८॥ सूनुः स्तनितवेगस्य राज्ञो राजपुरेशितुः । खगेशोऽशनिवेगाख्यो 'ज्योतिर्वेगास्यमातकः ॥२६॥ त्वमत्र तेन सौहार्दाद् आनीतः स ममाग्रजः । विद्युद्वेगाह्वयाऽहं च प्रेषिता ते स मैथुनः ॥३०॥ रत्नावर्तगिरि याहि स्थितस्तत्रेति सादरम् । भवत्समीपं प्राप्तवमिति रक्तविचेष्टितम् ॥३१॥ दर्शयन्ती समीपस्थं यावत् सौधगृहान्तरम् । इत्युक्त्वाऽनभिलाषं च ज्ञात्वा तस्य महात्मनः ॥३२॥ तत्रैव विद्यया सौधरोहं निर्माप्य निस्त्रपा । स्थिता तद्राजकन्याभिः सह का कामिनां पा ॥३३॥ एत्यानडापताकाऽस्यास्त सखोत्थमवोचत । त्वरिपतुर्गुणपालस्य सन्निधाने जिनेशितुः ॥३४॥ "ज्योतिर्वेगागरुं प्रीत्या कबेरश्रीः समादिशत । निजजामातरं क्वापि श्रीपालस्वामिनं मम ॥३५॥ स्वयं स्तनितवेगोऽसौ सुतमन्षयेदिति । प्रतिपन्नः स तत्प्रोक्तं भवन्तं मैथुनस्तव ॥३६॥ पानीतवानिहेत्येतद् अवबुध्यात्मनो द्विषम् । पति मत्वोत्तरश्रेणेः पाशडाक्यानलवेगकम् ॥३७॥ स्वयं तदा समालोच्य निवार्य खचराधिपम् । उदीर्यान्वेषणोपायं त्वत्स्नेहाहितचेतसः ॥३८॥ आनीयतां प्रयत्नेन कुमार इति बान्धवाः। आवां प्रियसकाशं ते प्राहेषुस्त दिहागते ॥३६॥ सुनकर कुमारको उनपर दया आई और वह भी अपने आनेका वृतान्त कहनेके लिये उद्यत हुआ। वह जिस समय अपने आनेका समाचार कह रहा था उसी समय विद्युद्वेगा नामकी एक दूसरी विद्याधरी वहां आई। पापी अशनिवेगने कुमारको मारनेके लिये इसे भेजा था परन्तु वह कुमारको देखकर कामसे पीड़ित हो गई सो ठीक ही है क्योंकि चित्तकी वृत्ति विचित्र होती है ॥१७-२८॥ वह कहने लगी कि अशनिवेग नामका विद्याधर राजपुरके स्वामी राजा स्तनितवेगका पुत्र है, उसकी माताका नाम ज्योतिर्वेगा है ॥२९॥ वह अशनिवेग मित्रताके रण आपको यहां लाया है. वह मेरा बड़ा भाई है, मेरा नाम विद्यद्वेगा है और उसीने मझे आपके पास भेजा है, अब वह आपका साला होता है ॥३०॥ उसने मुझसे कहा था कि तू रत्नावर्त पर्वतपर जा, वे वहां विराजमान हैं इसलिये ही मैं आदर सहित आपके पास आई हूं' ऐसा कहकर उसने रागपूर्ण चेष्टाएं दिखलाई और कहा कि यह समीप ही चूनेका बना हुआ पक्का मकान है परन्तु इतना कहनेपर भी जब उसने उन महात्माकी इच्छा नहीं देखी तब वहींपर विद्याके द्वारा मकान बना लिया और निर्लज्ज होकर उन्हीं राजकन्याओंके साथ बैठ गई सो ठीक ही है क्योंकि कामी पुरुषोंको लज्जा कहांसे हो सकती है ? ॥३१-३३।। इतने में विद्युद्वेगा की सखी अनंगपताका आकर कुमारसे इस प्रकार कहने लगी कि 'आपकी माता कुबेरश्री आपके पिता श्रीगुणपाल जिनेन्द्रके समीप गई हुई थी वहां उसने बड़े प्रेमसे ज्योतिर्वेगाके पितासे कहा कि मेरा पुत्र श्रीपाल कहीं गया है उसे ले आओ। ज्योतिर्वेगाके पिताने अपने जामाता स्तनितवेगसे कहा कि मेरे स्वामी श्रीपाल कहीं गये हैं उन्हें ले आओ। स्तनितवेगने स्वयं अपने पुत्र अशनिवेगको भेजा, पिताके कहनेसे ही अशनिवेग आपको यहां लाया है, वह आपका साला है। उत्तरश्रेणीका राजा अनलवेग इनका शत्रु है उसकी आशंका कर तुम्हारे स्नेहसे जिनका चित्त भर रहा है ऐसे सब भाईबन्धओंने स्वयं विचार कर आपके खोजनेका उपाय बतलाया और कहा कि कुमारको बड़े प्रयत्नसे यहां लाया जाय । वे सब विद्याधरोंके अधिपति अनलवेगको रोकनेके लिये गये हैं और हम दोनोंको आपके पास भेजा है। यहां आनेपर यह विद्युद्वेगा १ श्रीपालम् । २ पुरेशिनः अ०, प०, स०, ल० । ३ ज्योतिर्वेगाख्या माता यस्यासौ। ४ विद्युद्वेगायाः । ५ श्रीपालम् । ६ जिनेशिनः ल०, प० । ७ अशनिवेगस्य मातुर्योतिर्वेगायाः पितरम् । कुबेरश्री: समादिशदिति सम्बन्धः । ८ स्तनितवेगजामातरम् । ज्योतिर्वेगापिता । १० अशनिवेगम् ।११ तत्कारणात । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ४८३ fararisवलोक्य त्वाम् अनुरक्ताऽभवत्त्वया । न त्याज्येति तदाकयं स विचिन्त्योचितं वचः ॥ ४० ॥ मोपनयनेऽग्राह व्रतं गुरुभिरर्पितम् । मुक्त्वा गुरुजनानीतां स्वीकरोमि न चापराम् ॥४१॥ इत्यवोचत्ततस्ताश्च शृङगाररसचेष्टितैः । नानाविधं रञ्जयितुं प्रवृत्ता नाशकंस्तदा ॥ ४२ ॥ विद्युद्वेगा ततो गच्छत स्वमातृपितृसन्निधौ । पिधाय द्वारमारोप्य सौधाग्रं प्राणवल्लभम् ॥४३॥ तावाने तुं कुमारोऽपि सुप्तवान् रक्तकम्बलम् । प्रावृत्य' तं समालोक्य मेरुण्डः पिशितोच्चयम् ॥४४॥ मत्वा नीत्वा द्विजः सिद्धकूटाग्रे खादितुं स्थितः । चलन्तं वीक्ष्य सोऽत्याक्षीत् स" तेषां " जातिजो गुणः ॥४५॥ "ततोऽवतीर्थ श्रीपालः स्नात्वा सरसि भक्तिमान् । सुपुष्पाणि सुगन्धीनि समादाय जिनालयम् ॥ ४६ ॥ परीत्य स्तोतुमारेभ विवृत्त" द्वास्तदा" स्वयम् । तन्निरीक्ष्य प्रसन्नस्सन्नभ्यर्च्य जिनपुङ्गवान् ॥४७॥ अभिवन्द्य यथाकामं विधिवत्तत्र सुस्थितः । तमभ्येत्य खगः कश्चित् समुद्धृत्य नभःपथे ॥ ४८ ॥ गच्छन्मनोरमे राष्ट्र शिवंकरपुरेशिनः । नृपस्यानिलवेगस्य कान्ता कान्तवतीत्यभूत् ॥४६॥ तयोः सुतां भोगवतीम् श्राकाशस्फटिकालय । मृदुशय्यातले सुप्तां का कुमारीयमित्यसौ" ॥५०॥ अपृच्छत् सोऽब्रवीदेषा भुजङगी विषमेति च । तदुक्तेः स क्रुधा कृत्वा कन्यापितुसमीपगम् ॥५१॥ आपको देखकर आपमें अत्यन्त अनुरक्त हो गई है अतः आपको यह छोड़नी नहीं चाहिये । कुमारने ये सब बातें सुनकर और अच्छी तरह विचारकर उचित उत्तर दिया कि मैंने यज्ञोपवीत संस्कारके समय गुरुजनोंके द्वारा दिया हुआ एक व्रत ग्रहण किया था और वह यह है कि मैं माता-पिता आदि गुरुजनोंके द्वारा दी हुई कन्याको छोड़कर और किसी कन्याको स्वीकार नहीं करूंगा । जब कुमारने यह उत्तर दिया तब वे सब कन्याएं अनेक प्रकारकी शृङ्गाररसकी चेष्टाओंसे कुमारको अनुरक्त करनेके लिये तैयार हुई परन्तु जब उसे अनुरक्त नहीं कर सकीं तब विद्युद्वेगा प्राणपति श्रीपालको मकानकी छतपर छोड़कर और बाहरसे दरवाजा बन्दकर माता-पिताको बुलानेके लिये उनके पास गई । इधर कुमार श्रीपाल भी लाल कम्बल ओढ़कर सो गये, इतने एक भेरुण्ड पक्षीकी दृष्टि उनपर पड़ी, वह उन्हें मांसका पिण्ड समझकर उठा ले गया और सिद्धकूट- चैत्यालयके अग्रभागपर रखकर खानेके लिये तैयार हुआ परन्तु कुमारको हिलता डुलता देखकर उसने उन्हें छोड़ दिया सो ठीक ही है क्योंकि यह उन पक्षियोंका जन्मजात गुण है ||३४-४५ ॥ तदनन्तर श्रीपालने सिद्धकूटकी शिखरसे नीचे उतरकर सरोवरमें स्नान किया और अच्छे अच्छे सुगन्धित फूल लेकर भक्तिपूर्वक श्री जिनालयकी प्रदक्षिणा दी और स्तुति करना प्रारम्भ किया, उसी समय चैत्यालयका द्वार अपने आप खुल गया, यह देखकर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ और विधिपूर्वक इच्छानुसार श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा वन्दनाकर सुखसे वहींपर बैठ गया । इतनेमें ही एक विद्याधर सामने आया और कुमारको उठाकर आकाशमार्ग में ले चला, चलते चलते वे मनोरम देशके शिवंकरपुर नगर में पहुंचे, वहांके राजाका नाम अनिलवेग था, और उसकी स्त्रीका नाम था कान्तवती, उन दोनोंके भोगवती नामकी पुत्री थी, वह भोगवती आकाशमें बने हुए स्फटिकके महलमें कोमल शय्यापर सो रही थी उसे देखकर उस विद्याधरने श्रीपालकुमारसे पूछा कि यह कुमारी कौन ? कुमारने उत्तर दिया कि ४ तैरदत्ताम् । प्रच्छाद्य । १ संविचि-ल०, प०, अ० । २ स्वीकृतः । ३ कन्यकाजननीजनकानुमतेन दत्ताम् । ५ शक्ताः न बभूवुः । ६ रत्नावर्तगिरेः । ७ निजमातापितरौ । ९ पक्षिविशेषः । १० मांसपिण्डम् । ११ मेरुण्ड: । १२ मुमोच । १३ सजीवस्य त्यागः | १४ पक्षिणाम् । १५ सिद्धकूटाग्रात् । १६ उद्घाटितम् । १७ द्वारम् । १८ विद्याधरः । १६ श्रीपालः । २० श्रीपालवचनात् । २१ भोगवतीजनकस्य समीपस्थं कृत्वा तेन अनिलवेगेन सह विद्याधरो वदति । किमिति ? अस्मत्कन्यकां भोगवतीमेव खलः श्रीपालः विषमभुजङ्गीति अब्रवीदिति । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ महापुराणम् तमस्मत्कन्यकामेष भुजडागीति खलोऽब्रवीत् । इत्यवोचत्ततः ऋद्ध्वा दुर्धी निक्षिप्यतामयम् ॥५२॥ दुर्द्धरोरुतपोभारधारियोग्य घने वने । इत्यभ्यधान्नुपस्तस्य वचनानुगमादसौ" ॥५३॥ विजयाोत्तरश्रेणिमनोहरपुरान्तिके। स्मशान शीतवैतालीविद्यया तं शुभाकृतिम् ॥५४॥ कृत्वा व्यत्यक्षिपत पापी जरतीरूपधारिणम् । तत्रास्पृश्यकल जाता काऽपि जामातरं स्वयम् ॥५५॥ स्वग्राममगरूपेण स्वसुताचरणद्वय। समन्ताल्लुठितं कृत्वा तां प्रसाद्य' भृशं ततः ॥५६॥ १०तं पुरातनरूण समवस्थापयत खला। एतद्विलोक्य कमारोऽसौ खगाः स्वाभिमताकृतिम् ॥५७॥ विनिवर्तयितुं शक्ता इत्याशडाक्य विचिन्तयन् । "यमाप्रयायिसडदाशकाशप्रसवहासिभिः ॥५८॥ शिरोरुहुँ जराम्भोधित रङगाभतनुत्वचा। समेतमात्मनो रूपं दृष्ट्वा दुष्टविभावितम् ॥५६॥ लज्जाशोकाभिभूतःसन् मडागच्छंस्ततः परम् । तत्र" भोगवती भातुर्हरिकेतोः सुसिद्धया ॥६०॥ विद्यया शवरूपेण सद्यः प्राथितया करे। कुमारस्य समुद्वम्य' निर्वान्तमविचारयन् ॥६१॥ उद्धृत्येदं विशडकस्त्वं पिबेत्युक्तं प्रपीतवान् । ३तं दृष्ट्वा हरिकेतुस्त्वां सर्वव्याधिविनाशिनी ॥६२॥ विद्याश्रितेति सम्प्रीतः प्रयुज्य वचनं गतः। ततः स्वरूपमापन्नः" कुमारो वटभूरुहः२५ ॥६३॥ गच्छन् स्थितमधोभाग दृष्ट्वा कञ्चिन्नभश्चरम् । प्रदेशः कोऽयमित्येतद् अपृच्छत् सोऽब्रवीदिदम् ॥६४॥ यह विषम सर्पिणी है। श्रीपालके ऐसा कहनेपर वह विद्याधर क्रुद्ध होकर उन्हें उस कन्याके पिताके पास ले गया और कहने लगा कि यह दुष्ट हम लोगोंकी कन्याको सर्पिणी कह रहा है । यह सुनकर कन्याके पिताने भी क्रुद्ध होकर कहा कि 'इस दुष्टको कठिन तपका भार धारण करनेके योग्य किसी सघन वनमें छुड़वा दो।' राजाके कहे अनुसार उस पापी विद्याधरने शीत वैताली विद्याके द्वारा सुन्दर आकारवाले श्रीपालकुमारको वृद्धका रूप धारण करनेवाला बनाकर विजयार्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणिके मनोहर नगरके समीपवाले श्मशानमें पटक दिया। वहां अस्पृश्य कुलमें उत्पन्न हुई किसी स्त्रीने अपने जमाईको कुत्ता बनाकर अपनी पुत्रीके दोनों चरणोंपर खूब लोटाया और इस तरह अपनी पुत्रीको अत्यन्त प्रसन्नकर फिर उस दुष्टा चाण्डालिनीने उसका पुराना रूप कर दिया। यह देखकर कुमार कुछ भयभीत हो चिन्ता करने लगा कि ये विद्याधर लोग इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ हैं। उस समय वह मानो यमराजके सामने जानेवालेके समान ही था-अत्यन्त वद्ध था. उसके बाल काशके फले हए फलोंके हूँ कर रहे थे, और शरीरमें बुढाफारूपी समुद्रकी तरंगोंके समान सिकुड़नें उठ रही थीं। इस प्रकार दुष्ट विद्याधरके द्वारा किया हुआ अपना रूप देखकर वह लज्जा और शोकसे दब रहा था। इसी अवस्थामें वह शीघ्र ही आगे चला । वहां भोगवतीके भाई हरिकेतुको विद्या सिद्ध हुई थी उससे उसने प्रार्थना की तब विद्याने मुरदेका रूप धारणकर श्रीपाल कुमारके हाथपर कुछ उगल दिया और कहा कि तू बिना किसी विचारके निशङक हो इसे उठाकर पी जा, कुमार भी उसे शीघ्र ही पी गया। यह देखकर हरिकेतुने कुमारसे कहा कि तुझे सर्वव्याधिविनाशिनी विद्या प्राप्त हुई है, यह कहकर और विद्या देकर हरिकेतु प्रसन्न होता हुआ वहां चला गया। इधर कुमार भी अपने असली रूपको प्राप्त हो गया। कुमार आगे बढ़ा तो उसने एक वट वृक्षके १ इत्युवाच ततः क्रुध्वा दुष्टो अ०, प०, इ०, स०, ल० । २ तद्वचनाकर्णनानन्तरम् । ३ अनिलवेगः प्रकुप्य । ४ श्रीपालः । ५ खगः । ६ श्रीपालम् । ७ स्मशाने । ८ सारमेयरूपेण । प्रसन्नता नीत्वा । १० जामातरम् । ११ मायास्वरूपम् । १२ विनिर्मातुम् । १३ कृतान्तस्य पुरोगामिसदृशः । १४ हारिभिः ल०। १५ जराम्भोधेस्तरङ्गाभ इत्यपि पाठः । १६ दुष्टविद्याधरेण समुत्पादितम् । १७ तस्मादन्यप्रदेशम् । १८ स्मशाने। १६ पूर्वोक्तभोगवतीकन्याग्रजस्य । २० श्रीपालकुमारस्य । २१ वमनं कृत्वा । २२ पिबति स्म। २३ श्रीपालम् । २४ निजरूपं प्राप्तः। २५ न्यग्रोधवृक्षस्य । वटभूरुहम् ल० । २६ वक्ष्यमाणामित्येवम्-ल०, प०, अ०, स०, इ० । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व खगाद्रेः पूर्वदिग्भागे नीलादेरपि पश्चिमे । सुसीमाख्योऽस्ति देशोऽत्र महानपरमप्यदः ॥ ६५॥ तद्भूतवनमेतत्त्वं सम्यक् चित्तेऽवधारय । श्रस्मिन्नेताः शिलाः सप्त परस्परधृताः कृताः ॥६६॥ येनाsaौ चक्रतत्वं प्राप्तेत्यादेश" ईदृशः । इति तद्वचनादेष 'तास्तथा कृतवांस्तदा ॥६७॥ दृष्ट्वा तत्साहसं वक्तुं सोऽगम नगरेशिनः । कुमारोऽपि विनिर्गत्य ततो निर्विण्णचेतसा ॥ ६८ ॥ काञ्चिज्जरावतीं 'कुत्स्यशरीरां कस्यचित्तरोः । श्रवस्थितामधोभागे विषयं पुष्कलावतीम् ॥६६॥ वद प्रयाति कः पन्था इत्यप्राक्षीत् प्रियं वहन् " । विना गगनमार्गेण प्रयातुं नैव शक्यते ॥७०॥ स गव्पू" तिदशतोत्सेध विजयार्द्ध गिरेरपि । परस्मिनित्यसावाह" तदाकर्ण्य नृपात्मजः ॥७१॥ ब्रूहि तत्प्रापणोपायमिति तां प्रत्यभाषत । इह जम्बूमति द्वीपे विषयो वत्सकावती ॥७२॥ तत्खेचरगिरौ राजपुर खेचरचक्रिणः । देवी धरणिकम्पस्य सुप्रभा" वा प्रभाकरी ॥७३॥ तयोरहं तनूजास्मि विख्याताख्या सुखावती । "त्रिप्रकारोरविद्यानां पारगाऽन्येद्युरागता ॥७४॥ विषये वत्सकावत्यां विजयार्धमहीधर । श्रकम्पनसुतां पिप्पलाख्यां प्राणसमां सुखीम् ॥७५॥ गाभिवीक्षित् तत्र" चित्रमालोक्य कम्बलम् । कथयायं कुतस्त्यस्ते तन्वीति प्रश्नतो मम ॥७६॥ । नीचे बैठे हुए किसी विद्याधरको देखकर उससे पूछा कि यह कौन सा देश है ? तब वह विद्याधर कहने लगा कि ॥४६ - ६४ ॥ विजयार्ध पर्वतकी पूर्व दिशा और नीलगिरिकी पश्चिमकी ओर यह सुसीमा नामका देश है, इसमें यह महानगर नामका नगर है और यह भूतारण्य वन है, यह तू अपने मनमें अच्छी तरह निश्चय कर ले, इधर इस वनमें ये सात शिलाएं पड़ी हैं जो कोई इन्हें परस्पर मिलाकर एकपर एक रख देगा वह चक्रवर्ती पदको प्राप्त होगा ऐसी सर्वज्ञ देवकी आज्ञा है' विद्याधरके यह वचन सुनकर श्रीपालकुमारने उन शिलाओंको उसी समय एकके ऊपर एक करके रख दिया ।।६५ - ६७ ॥ कुमारका यह साहस देखकर वह विद्याधर नगरके राजाको खबर देनेके लिये चला गया और इधर कुमार भी कुछ उदासचित्त हो वहाँ से निकलकर आगे चला। आगे किसी वृक्षके नीचे निन्द्य शरीरको धारण करनेवाली एक बुढ़ियाको देखकर मधुर वचन बोलनेवाले कुमारने, उससे पूछा कि पुष्कलावती देशको कौन सा मार्ग जाता है, बताओ, तब बुढ़ियाने कहा कि वहां आकाश मार्गके बिना नहीं जाया जा सकता क्योंकि वह देश पच्चीस योजन ऊंचे विजयार्धं पर्वतसे भी उस ओर है, यह सुनकर राजपुत्र श्रीपालने उससे फिर कहा कि वहां जानेका कुछ भी तो मार्ग बतलाओ । तब वह कहने लगी इस जम्बू द्वीपमें एक वत्सकावती नामका देश है, उसके विजयार्ध पर्वतपर एक राजपुर नामका नगर है उसमें विद्याधरों का चक्रवर्ती राजा धरणीकंप रहता है, उसकी कान्तिको फैलानेवाली सुप्रभा नामकी रानी है, मैं उन्हीं दोनोंकी प्रसिद्ध पुत्री हूं, सुखावती मेरा नाम है और मैं जाति विद्या, कुल विद्या तथा सिद्ध की हुई विद्या इन तीनों प्रकारकी बड़ी बड़ी विद्याओंकी पारगामिनी हूं । किसी एक दिन मैं वत्सकावती देशके विजयार्ध पर्वतपर अपने प्राणोंके समान प्यारी सखी, राजा अकंप की पुत्री पिप्पलाको देखनेके लिए गई थी। वहां मैंने एक विचित्र कम्बल देखकर उससे पूछा कि हे सखि, कह, यह कम्बल तुझे कहांसे प्राप्त हुआ है ? उसने कहा कि 'यह कम्बल मेरी ही आज्ञासे प्राप्त हुआ है' । कम्बल प्राप्तिके समयसे ही कम्बलवालेका ध्यान करती हुई वह अत्यन्त विह्वल हो रही है ऐसा सुनकर उसकी सखी मदनवती उसे देखनेके लिये उसी १ वने । २ एकैकस्याः उपर्युपरिस्थिताः । ३ विहिता । ४ प्राप्स्यति । ५ शीतलाः । ६ नगरेशितुः ६ अधः- ल० । १० प्रियं वदः ल० । अपरभागे । १४ जरती । १५ चन्द्रिकेव । १८ पिप्पलायाम् । ७ वनात् । निन्द्य । १२ पञ्चविंशतियोजन | १३ १७ महीतले ल०, प० । ल०, प०, अ०, स०, इ० ११ पुष्कलावतीविषयः । १६ नातिकुलसाधितविद्यानाम् । ४८५ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ महापुराणम् जगाद साऽपि मामेष' प्रायादेशवशादिति । 'कम्बलावाप्तितस्तद्वन्तं समाध्याय विह्वलाम् ॥७७॥ एतां तस्याः सखी श्रुत्वा समन्वेष्ट समागता । काञ्चनाख्यपुरान्नाम्ना मदनादिवती तदा ॥७८॥ दृष्ट्वा तत्कम्बलस्यान्ते निबद्धां रत्नमुद्रिकाम् । तत्र श्रीपालनामाक्षराणि चादेशसंस्मृतेः ॥७६॥ 'काय सायकोद्भिन्नहृदयाऽभूदहं ततः । कथं वंद्याधरं लोकमिमं श्रीपालनामभूत् ॥ ८०॥ समागतः स इत्येतनिश्चेत् पुण्डरीकिणीम । उपगत्य जिनागारे वन्दित्वा समुपस्थिता ॥ ८१ ॥ त्वत्प्रवासकथां" सर्वां तव मातुः प्रजल्पनात् । विदित्वा विस्तरेण त्वाम् आनेष्यामीति निश्चयात् ॥८२॥ आगच्छन्ती भवद्वार्ता विद्युद्वेगामुखोद्गताम् । श्रवगत्य त्वया सार्द्धं योजयिष्यामि ते प्रियम् ॥८३॥ न विषादो विधातव्य इत्याश्वास्य भवत्प्रियाम् । विनिर्गत्य ततोऽभ्येत्य सिद्धकूट जिनालयम् ॥ ८४ ॥ अभिवन्द्यागताऽस्म्ये हि मयाऽमा पुण्डरीकिणीम् । मातरं भ्रातरं चान्यांस्त्वद्वधूश्च समीक्षितुम् ॥ ८५ ॥ यदीच्छास्ति तवेत्याह सा तच्छू त्वा" पुनः कुतः । त्वमेव जरती जातेत्यब्रवीत् स" सुखावतीम् ॥८६॥ कुमारवचनाकर्णनेन" वार्द्धक्यमागतम् । भवतश्च न किं वेत्सीत्यपहस्य तयोदितम् ॥८७॥ जराभिभूतमालोक्य स्वशरीरमिदं त्वया । कृतमेवंविधं केन हेतुनेत्यनुयुक्तवान् ॥८८॥ तच्छ्रुत्वा साऽब्रवीदेवं पिप्पले त्याख्ययोदिता । मदनादिवती या च मैथुनौ विश्रुतौ तयोः ॥८॥ बलवान् धूमवेगाख्यस्तादृग्ध रिवरोऽपि च । तद्भयात्वां" तिरोधाय पुरं प्रापयितुं मया ॥६०॥ मायारूपद्वयं विद्याप्रभावात् प्रकटीकृतम् । कुमार, मत्करस्थामृतास्वाद फलभक्षणात् ॥१॥ समय कांचनपुर नगरसे आई । उसने वह कम्बल देखा, कम्बलके छोरमें बंधी हुई रत्नोंकी अंगूठी और उसपर खुदे हुए श्रीपालके नामाक्षर देखकर मुझे अपने गुरुकी आज्ञाका स्मरण हो आया, उसी समय मेरा हृदय कामदेवके बाणोंसे भिन्न हो गया, मैं सोचने लगी कि श्रीपाल नामको धारण करनेवाला यह भूमिगोचरी विद्याधरोंके इस लोकमें कैसे आया ? इसी बातका निश्चय करनेके लिये में पुण्डरीकिणी पुरी पहुंची, वहां जिनालयमें भगवान्‌की वन्दनाकर बैठी ही थी कि इतने में वहां आपकी माता आ पहुंची, उनके कहनेसे मैंने विस्तारपूर्वक आपके प्रवासकी कथा मालूम की और निश्चय किया कि मैं आपको अवश्य ही ढूंढकर लाऊंगी । उसी निश्चयके अनुसार मैं आ रही थी, रास्ते में विद्युद्वेगाके मुखसे आपका सब समाचार जानकर मैंने उससे कहा कि 'तू अभी विवाह मत कर मैं तेरे इष्टपतिको तुझसे अवश्य मिला दूंगी' इस प्रकार आपकी भावी प्रियाको विश्वास दिलाकर वहांसे निकली और सिद्धकूट चैत्यालयमें पहुंची। वहांकी वन्दना कर आई हूं, यदि माता भाई तथा अन्य बन्धुओंको देखनेकी तुम्हारी इच्छा हो तो मेरे साथ पुण्डरीकिणी पुरीको चलो, यह सब सुनकर मैंने सुखावतीसे फिर कहा कि अच्छा, यह बतला तू इतनी बूढ़ी क्यों हो गई है ? कुमारके वचन सुनकर उस बुढ़ियाने हँसते हँसते कहा कि क्या आप अपने शरीरमें आये हुए बुढ़ापेको नहीं जानते -- आप भी तो बूढ़े हो रहे हैं । कुमारने अपने शरीरको बूढ़ा देखकर उससे पूछा कि तूने मेरा शरीर इस प्रकार बूढ़ा क्यों कर दिया है ।' कुमारकी यह बात सुनकर वह इस तरह कहने लगी कि जिनका कथन पहले कर आई हूं ऐसी पिप्पला और मदनवती नामकी दो कन्याएं हैं, उन्हें दो प्रसिद्ध काम १ कम्बलः । २ कम्बलप्राप्तिमादि कृत्वेत्यर्थः । कम्बलप्राप्तिस्त - अ०, स०, ल० । ३ कम्बलवन्तं पुरुषम् । ४ पिप्पलाम् । ५ पिप्पलायाः । ६ मुद्रिकायाम् । ७ संस्मृतौ इ० अ०, स०, प० । बाण । ६ सुखावती । १० भवद्देशान्तरगमनकथाम् । ११ विवाहो ल० । विदोषों अ०, स० । १२ अत्रागताहम् । १३ आगच्छ । १४ सुखावतीवचनमाकर्ण्य । १५ श्रीपालः । १६ कुमारवाचमाकर्ण्य इ०, अ०, स० । कुमारवचनाकर्ण्य ल० । १७ धूमवेगहरिवरभयात् । १८ पुण्डरीकिणीम् । १६ मम जरतीरूपम् भवतश्च वार्द्धक्यमिति द्वयम् । I Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व विगतक्षुच्छ्रमः शीघ्रं मामारहय पुरं प्रति । व्रजेति सोऽपि तच्छ्रुत्वा स्त्रियो रूपममामकम् ॥२॥ न स्पृशामि कथं चाहम् श्रारोहामि पुरा गुरोः । सन्निधावाददामीदृग्यतमित्यब्रवीदिदम् ॥१३॥ सा तदाकर्ण्य सञ्चिन्त्य किं जातमिति विद्यया । गृहीत्वा पुरुषाकारम् उद्वहन्ती 'तमित्वरी ॥१४॥ वन्दित्वा सिद्धकूटाख्यं तत्र विश्रान्तय स्थिता । तस्मिन्नेव दिन भोगवती शशिनमात्मनः ॥६५॥ प्रविश्य भवनं कान्त्या कलाभिश्चाभिर्वाद्धितम् । निर्वर्तमानमालोक्य स्वप्ने मागल्यशान्तये ॥६६॥ तत्सिद्धकूटपूजार्थं कान्ता कान्तवती सती । रत्नवेगा सुवेगाऽमितमती रतिकान्तया ॥६७॥ सहिता चित्तवेगाख्या पिप्पला मदनावती । विद्युद्वेगा तथैवान्यास्ताभिः सा परिवारिता ॥६८॥ समागत्य महाभक्त्या परीत्य जिनमन्दिरम् । यथाविधि प्रणम्येशं सम्पूज्य स्तोतुमुद्यता ॥६॥ ताश्च' तासां तदा व्याकुलीभावमपि चेतसः । तस्मिन् शिवकुमारस्य वक्रताक्रान्तमाननम् ॥१००॥ श्राविष्टसन्निधानेन विलोक्य प्रकृतिं गतम् । सुखावती तदुद्देशाद् " अपनीय कुमारकम् ॥१०१॥ स्थानेऽन्यस्मिन्न्यवादेनं तत्राप्यम्बुनि॥ मुद्रया" । स्वरूपं कामरूपिण्या "प्रेक्षमाणं यदुच्छ्या ॥१०२॥ वृष्ट्वा "हरिवरस्तस्मानीत्वा कोपात् स पापभाक् । निचिक्षेप" महाकालगुहायां "विहितायकम् ॥१०३॥ विद्याधर चाहते हैं, एकका नाम धूमवेग है और दूसरेका नाम हरिवर । ये दोनों ही अत्यन्त बलवान् हैं, उन दोनोंके भयसे ही मैंने आपको छिपाकर नगर में पहुंचानेके लिये विद्याके प्रभाव 'मायामय दो रूप बनाये हैं । हे कुमार, मेरे हाथमें रखे हुए इस अमृतके समान स्वादिष्ट फलको खाकर आप अपनी भूख तथा थकावटको दूर कीजिये और मुझपर सवार होकर शीघ्र ही नगरकी ओर चलिये' यह सुनकर कुमारने कहा कि मेरे सवार होनेके लिये स्त्रीका रूप अयोग्य है, मैं तो उसका स्पर्श भी नहीं करता हूं, सवार कैसे होऊं ? क्योंकि मैंने पहले गुरुके समीप ऐसा ही व्रत लिया है यह सुनकर उसने सोचा और कहा कि अब भी क्या हुआ ? वह विद्याके द्वारा उसी समय पुरुषका आकार धारण कर कुमारको बड़ी शीघ्रतासे ले चली | चलते चलते वह सिद्धकूट चैत्यालयमें पहुंची और वन्दना कर विश्राम करनेके लिये वहीं बैठ गई । उसी दिन भोगवतीने स्वप्नमें देखा कि कान्ति और कलाओंसे बढ़ा हुआ चन्द्रमा हमारे भवनमें प्रवेशकर लौट गया है इस स्वप्नको देखकर वह अमंगलकी शान्तिके लिये सिद्धकूट चैत्यालयमें पूजा करनेके लिये आई थी । वह सुन्दरी कान्तवती, सती रत्नवेगा, सुवेगा, अमितमती, रतिकान्ता, चित्तवेगा, पिप्पला, मदनावती, विद्युद्वेगा तथा और भी अनेक राजकन्याओं से घिरी हुई थी । उन सभी कन्याओंने आकर बड़ी भक्तिसे जिन मन्दिरकी प्रदक्षिणा दी, विधिपूर्वक नमस्कार किया, पूजा की और फिर सबकी सब स्तुति करनेके लिये उद्यत हुई । स्तुति करते समय भी उनका चित्त व्याकुल हो रहा था । उसी चैत्यालयमें एक शिवकुमार नामका राजपुत्र भी खड़ा था, उसका मुँह टेढ़ा था परन्तु श्रीपालकुमार के समीप आते ही वह ठीक हो गया, यह देखकर सुखावतीने उसे उसके स्थानसे हटाकर दूसरी जगह रख दिया । उस चैत्यालय में श्रीपालकुमार अपनी कामरूपिणी मुद्रासे इच्छानुसार जलमें अपना खास रूप देख रहा था । उसे ऐसा करते पापी हरिवर विद्याधरने देख लिया और पूर्व जन्ममें पुण्य करनेवाले कुमारको ૪૮૭ १ मम सम्बन्धिस्त्रीरूपं मुक्त्वा अन्यस्त्रीरूपम् । २ पूर्वस्मिन् । ३ गुरोः समीपे ४ स्वीकरोमि । ५ श्रीपालम् । ६ गमनशीला | ७ पुरा कुमारेण भुजङ गीत्युक्ता भोगवती । ८ सहागताः कन्यकाः । e आदेशपुरुषसामीप्येन । १० पूर्वस्वरूपम् । ११ तत्प्रदेशात् । १४ मुद्रिकया । १५ प्रेक्ष्यमाणं इ० । १६ मदनावतीमैथुनः । श्रीपालम् । १३ जले । १८ कृतपुण्यं १२ स्थापयामास । १७ निक्षिप्तवान् । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ महापुराणम् वसंस्तत्र महाकालस्तं गृहीतुमुपागतः । तस्य पुण्यप्रभावेन सोऽप्यकिञ्चित्करो गतः ॥१०४॥ तत्र शय्यातले सुप्त्वा शुचौ दुनि विस्तृते । परेधुनिर्गतं तस्याः संप्रयुक्तः परीक्षितुम् ॥१०॥ आदिष्टपुरुषं भूत्यैत्विाऽभ्येत्य निवेदितम् । गृहीत्वा स्थविराकारं कोपपावकदीपितः ॥१०६॥ तं वीक्ष्य धूमवेगाख्यः' खगश्चन्द्रपुरान् बहिः । स्मशानमध्ये पाषाणनिशातविविधायुधः ॥१०७॥ 'न्यगृह्णात्तानि चास्यासन् पतन्ति कुसुमानि वा । परोऽपि खेचरस्तत्र नरेशोऽतिबलाह्वयः ॥१०॥ स्वदेव्यां चित्रसेनायां भृत्य दुष्टतरे सति । तं निह त्यादहत्तस्मिन् धूमवेगो निधाय तम् ॥१०६॥ कुमारं चागमतत्र महौषधजशक्तितः । निराकृतज्वलद्वह्निशक्तिस्तस्मात् स निर्गतः ॥११०॥ हतानुचरभार्यात्र काचिन्निरपराधकः । हतो नृपेण मद्भर्तेत्यस्य शुद्धिप्रकाशिनी ॥१११॥ तत्कुमारस्य संस्पर्शानिशक्ति सा हुताशनम् । विदित्वा प्राविशद् दृष्ट्वा कुमारस्तां सकौतुकः ॥११२॥ अभेद्यमपि वजण स्त्रीणां मायाविनिमितम् । कवचं दिविजेशा३ च नोरन्ध्यमिति निर्भयः ॥११३॥ स्थितस्तत्र स्मरनेवं सुता तन्नगरेशिनः । राज्ञो विमलसेनस्य वत्यन्तकमलावया ॥११४॥ कामग्रहाहिता तस्यास्तद्ग्रहापजिहीर्षया" । जन समुदिते५ सद्यः कुमारस्तमपाहरत् ॥११॥ क्रोधसे उस स्थानसे ले जाकर महाकाल नामकी गुफामें गिरा दिया। उस गुफामें एक महाकाल नामका व्यन्तर रहता था वह उसे पकड़नेके लिये आया परन्तु कुमारके पुण्यके प्रभावसे अकिंचित्कर हो चला गया--उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। वह कुमार उस दिन उसी गुफामें पवित्र, कोमल और बड़ी शय्यापर सोकर दूसरे दिन वहांसे बाहिर निकला, यद्यपि उसने अपना बूढेका रूप बना लिया था तथापि धूमवेगके द्वारा परीक्षाके लिये नियुक्त किये हुए पुरुषोंने उसे पहिचान लिया, स्वामीके पास जाकर उन्होंने सब खबर दी और पकड़कर श्रीपालकुमारको सामने उपस्थित किया। क्रोधरूपी अग्निसे प्रज्वलित हुए धूमवेग विद्याधरने कुमारको देखकर आज्ञा दी कि इसे नगरके बाहिर श्मशानके बीच पत्थरपर घिसकर तेज किये हुए अनेक शस्त्रोंसे मार डालो। सेवक लोग मारने लगे परन्तु वे सब शस्त्र उसपर फूल होकर पड़ते थे। इसीसे सम्बन्ध रखनेवाली एक कथा और लिखी जाती है जो इस प्रकार है उसी नगरमें एक अतिबल नामका दूसरा विद्याधर राजा रहता था ॥६८-१०८॥ उसकी चित्रसेना नामकी रानीसे कोई दुष्ट नौकर फँस गया था, इसलिये राजा उसे मारकर जला रहा था। धूमवेग विद्याधर श्रीपालकुमारको उसी अग्निकुंडमें रखकर चला गया परन्तु कुमारकी महौषधिकी शक्तिसे वह अग्नि निस्तेज हो गई इसलिये वह उससे बाहर निकल आया। उस मारकर जलाये हुए सेवककी स्त्रीको जब इस बातका पता चला कि कुमारके स्पर्शसे अग्नि शक्तिरहित हो गई है तब वह स्वयं उस अग्निमें घुस पड़ी और उससे निकलकर यह कहती हुई अपनी शुद्धि प्रकट करने लगी कि 'मेरा पति निरपराध था राजाने उसे व्यर्थ ही मार डाला है।' कुमारको यह सब चरित्र देखकर बड़ा कौतुक हुआ, वह सोचने लगा कि स्त्रियोंकी मायासे बने हुए इस कवचको इन्द्र भी अपने वज्रसे नहीं भेद सकता है, यह छिद्ररहित है' इस प्रकार सोचता हुआ वह निर्भय होकर वहीं बैठा था। इधर उस नगरके स्वामी राजा विमलसेनकी पुत्री कमलावती कामरूप पिशाचसे आक्रान्त हो रही थी, उसके उस पिशाचको दूर करनेकी इच्छा से बहुत आदमी इकट्ठे हुए थे, श्रीपालकुमार भी वहां गया था और उसने उस पिशाचको दूर १ मुक्षितुमित्यर्थः । २ गुहायाः सकाशात् । ३ सप्रयुक्तः ब०। सुप्रयुक्तैः ल०, अ०, प० । ४ पिप्पलायाः मैथुनः । ५ निशित। ६ निग्रहं चकार। ७ पाषाणायुधानि। ८ हत्वा । ६ चिताग्नौ । १० पुरा स्मशाने हरिकेतोविद्यया निर्वान्तं पीत्वा जातमहौषधिशक्तितः । ११ स्वभर्तुः। १२ कपटमित्यर्थः । १३ इन्द्रेण। १४ कामग्रहमहर्तुमिच्छया। १५ एकत्र मिलिते सति । १६ कामग्रहमपसारितवानित्यर्थः । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व सत्योऽभूत् प्राक्तनादेश इति तस्मै महीपतिः। तुष्ट्वा तां कन्यका दित्सुस्तस्यानिच्छां विबुध्य सः ॥११६॥ अभ्यर्ण बन्धुवर्गस्य नेयोऽयं भवता द्रुतम् । यत्नेनेत्यात्मजं स्वस्य वरसेनं समादिशत् ॥११७॥ नीत्वा सोऽपि कुमारं तं विमलादिपुरो बहिः । वने तृष्णोपसन्तप्तं स्थापयित्वा गतोऽम्बुनें ॥११॥ तवा सुखावती कुब्जा भूत्वा कुसुममालया। परिस्पृश्य तृषां नीत्वा कन्यकां तं चकार सा ॥११६॥ धूमवेगो हरिवरश्चंता वीक्ष्याभिलाषिणौ । अभूतां बद्धमात्सयौं तस्याः स्वीकरणं प्रति ॥१२०॥ द्वेषवन्तौ तदाऽऽलोक्य यु वयोविग्रहो वृथा। पतिर्भवत्वसावस्या यमेषाभिलषिष्यति ॥१२॥ इति बन्धुजनार्यमाणौ वैराद् विरमतुः । स्त्रीहेतोः कस्य वा न स्यात् प्रतिघातः परस्परम् ॥१२२॥ कन्याकृत्यैव० गत्वाऽतः कान्तया स सुकान्तया। रतिकान्ताख्यया कान्तवत्या च सहितः पुनः॥१२३॥ स्थितं प्राक्तनरूपेण काचित्तं वीक्ष्य लज्जिता । रति समागमत् काचिनकभावाहि योषितः ॥१२४॥ प्रसुप्तवन्तं तं तत्र प्रत्यूषच सुखावती। यत्नेनोद्धृत्य गच्छन्ती तेनोन्मीलितचक्षुषा ॥१२॥ विहाय मामिहेकाकिनं त्वं क्व प्रस्थितेति सा । पृष्टा न क्वापि याताऽहं त्वत्समीपगता सदा ॥१२६॥ प्रादिष्ट वनितारत्नलाभो नैवात्र ते भयम् । इत्यहित"मापाद्य स्वरूपण समागमः५ ॥१२७॥ कर दिया था। 'निमित्तज्ञानियोंने जो पहले आदेश दिया था वह आज सत्य सिद्ध हुआ।' यह देख राजाने संतुष्ट होकर वह पुत्री कुमारको देनी चाही परन्तु जब कुमारकी इच्छा न देखी तब उसने अपने पुत्र वरसेनको आज्ञा दी कि इन्हें शीघ्र ही बड़े यत्नके साथ इनके बन्धु वर्गके समीप भेज आओ ।।१०८-११७॥ वह वरसेन भी कुमारको लेकर चला और विमलपुर नामक नगरके बाहर प्याससे पीड़ित कुमारको बैठाकर पानी लेनेके लिये गया ॥११८॥ उसी समय कूबड़ीका रूप बनाकर सुखावती वहां आ गई, उसने अपने फूलोंकी मालाके स्पर्शसे कुमार की प्यास दूर कर दी और उसे कन्या बना दिया ॥११९॥ उस कन्याको देखकर धूमवेग और हरिवर दोनों ही उसकी इच्छा करने लगे। उसे स्वीकार करनेके लिये दोनों ईर्ष्यालु हो उठे और दोनों ही परस्पर द्वेष करने लगे। यह देखकर उनके भाई बन्धुओंने रोका और कहा कि 'तुम दोनोंका लड़ना व्यर्थ है इसका पति वही हो जिसे यह चाहे' इस प्रकार बन्धुजनोंके द्वारा रोके जानेपर वे दोनों वैरसे विरत हुए। देखो ! स्त्रीके कारण परस्पर किस किसका प्रेम भंग नहीं हो जाता है ? ॥१२०-१२२॥ उस कन्याने उन दोनोंमेंसे किसीको नहीं चाहा इसलिये सुखावती उसे कन्याके आकारमें ही वहां ले गई जहां कान्ता, सुकान्ता, रतिकान्ता और कान्तवती थी ॥१२३॥ पहलेके समान असली रूपमें बैठ हुए कुमारको देखकर कोई कन्या लज्जित हो गई और कोई प्रीति करने लगी सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियोंके भाव अनेक प्रकारके होते हैं ॥१२४॥ श्रीपाल रातको वहीं सोया, सोते सोते ही सवेरेके समय सुखावती बड़े प्रयत्नसे उठा ले चली, कुमारने आंख खुलनेपर उससे पूछा कि तू मुझे यहां अकेला छोड़कर कहां चली गई थी ? तब सुखावतीने कहा कि मैं कहीं नहीं गई थी, मैं सदा आपके पास ही रही हूं, यहां आपको स्त्रीरत्न प्राप्त होगा ऐसा निमित्तज्ञानीने बतलाया है, यहां आपको कोई भय नहीं है। आज तक मैं अपने रूपको छिपाये रहती थी परन्तु आज असली रूपमें आपसे मिल १ दातुमिच्छः । २ श्रीपालस्य। ३ कन्यकायामनभिलाषम् । ४ बिमलसेनः । ५ जलाय । जलमानेतुमित्यर्थः । ६ गमयित्वा । अपसार्येत्यर्थः । ७ श्रीपालम् । ८ कृतकन्यकाम् । ६ प्रीतिघातः ल०, अ०, १०, स० । १० कन्यकाकारेणैव। ११ पूर्वस्वरूपेण (निजकुमारस्वरूपेण)। १२ अनेकपरिणामाः । १३ आदिष्टो ल०, ५०, इ०। १४ इत्यन्तहितरूपाद्य-ल० । अन्तर्हितमाच्छादितं यथा भवति तथा । १५ समागममित्यपि पाठः । समागतास्मि । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० महापुराणम् इत्याह तद्वचः श्रुत्वा प्रमुद्येत्य खगाचले । पुरं दक्षिणभागस्थं गजादि तत्समीपगम् ॥ १२८ ॥ कञ्चिद् गजपति स्तम्भमुन्मूल्यारूढदर्पकम् । द्वात्रिंशदुक्त क्रीडाभिः क्रीडित्वा वशमानयत् ॥ १२६ ॥ ततः समुदिते' चण्डदीधितौ' निर्जिताद् गजात् । कुमारागमनं पौरा बुद्ध्वा संतुष्टचेतसः ॥ १३० ॥ 'प्रतिकेतन मुद्बद्धचलत् केतुपताककाः । 'प्रत्युद्गममकुवंस्ते 'तत्पुण्योदय चोदिताः ॥ १३१॥ ततो नभस्यऽसौ गच्छन् कञ्चिद्वयपुरे हयम् । स्थितं प्रदक्षिणीकृत्य त्वं पश्यन्नात्तविस्मयः ॥१३२॥ तत्रापि विदितादेश नगरैः प्राप्तपूजनः । पुनस्ततोऽपि निष्क्रम्य समागच्छनिजेच्छ्या ॥ १३३॥ २० चतुर्जनपदाभ्यन्तरस्थसीममहाचले " । जने महति सम्भूयर स्थिते केनापि हेतुना ॥ १३४॥ कस्यचित् कोशतः खड्गं कस्मिंश्चिदपि यत्नतः । सत्यशक्ते समु खातं तं " समुद्गीर्य " हेलया ॥१३५॥ कुमारः प्रा" हरद् वंशस्तम्बं सम्भूत" वंशकम् । तदालोक्य जनः सर्वः प्रमोदादारवं " व्यधात् ॥१३६॥ तत्र कश्चित् समागत्य मूकः समुपविष्टवान् । प्रप्रणम्य कुमारं तं जयशब्दपुरस्सरम् ॥१३७॥ २० कुण्डश्च कश्चिदङ्गुल्या प्रसारितकराङ्गुलिः । श्रञ्जलि मुकुलीकृत्य समीपे समुपस्थितः ॥ १३८ ॥ यो वज्रमणिपाकाय समुद्युक्तस्तदा मुदा । तेषां पाके व्यलोकिष्ट कुमारं विनयेन सः ॥१३६॥ रही हूं" ॥१२५ - १२७ ॥ उसके यह वचन सुनकर श्रीपाल बहुत ही हर्षित हुआ और वहांसे आगे चलकर विजयार्ध पर्वतके दक्षिण भाग में स्थित गजपुर नगरके समीप जा पहुंचा ॥ १२८॥ वहां कोई एक गजराज खंभा उखाड़कर मदोन्मत्त हो रहा था । उसे कुमारने शास्त्रोक्त बत्तीस क्रीड़ाओंसे कीड़ा कराकर वश किया ॥ १२९ ॥ तदनन्तर सूर्योदय होते होते नगरके सब लोगों ने गजराजको जीत लेनेसे कुमारका आना जान लिया, सबने संतुष्ट चित्त होकर घर घर चञ्चल पताकाएं फहराई और कुमारके पुण्योदयसे प्रेरित होकर सब लोगोंने उसकी अगवानी की ॥१३०-१३१॥ कुमार वहांसे भी आकाशमें चला, चलता चलता हयपुर नगरमें पहुंचा वहां एक घोड़ा कुमारकी प्रदक्षिणा देकर समीपही में खड़ा हो गया, कुमारने यह सब स्वयं देखा परन्तु उसे कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ ।। १३२ || जब नगरनिवासियोंको इस बातका पता चला तब सबने कुमारका सत्कार किया, कुमार वहांसे भी निकल कर अपनी इच्छानुसार आगे चला ।।१३३॥ चलता चलता चार देशोंके बीचमें स्थित सुसीमा नामक पर्वतपर पहुंचा । वहां किसी कारण बहुतसे लोग इकट्ठे हो रहे थे, वे प्रयत्नकर म्यानसे तलवार निकाल रहे थे परन्तु उनमें से कोई भी उक्त कार्यके लिये समर्थ नहीं हो सका परन्तु कुमारने उसे लीलामात्र में निकाल दिया जिसमें बहुतसे बांस उलझे हुए खड़े थे ऐसे बांसके विड़ेपर उसे चलाया यह देखकर सब लोगोंने बड़े हर्षसे कुमारका आदर सत्कार किया ।। १३४ - १३६ ॥ इतनेमें ही वहां एक गूँगा मनुष्य आया और जय जय शब्दका उच्चारण करता हुआ कुमारको प्रणाम कर बैठ गया ॥१३७॥ वहीं पर एक टेढ़ी अंगुलीका मनुष्य आया, कुमारको देखते ही उसकी अंगुली ठीक हो गई, उसने हाथकी अंगुली फैलाकर हाथ जोड़े और नमस्कार कर पास ही खड़ा हो गया ।। १३८। वहींपर एक मनुष्य हीराओंकी भस्म बना रहा था, वह बनती नहीं थी परन्तु कुमारके सन्निधानसे वह बन गई इसलिये उसने भी बड़ी विनयसे कुमारके दर्शन किये * १ सन्तुष्य । २ गजपुरम् । ३ उदयं गते सति । ४ सूर्ये । ५ प्रतिगृहम् । ६ सम्मुखागमनम् । ७ चक्रिरे । ८ श्रीपालपुण्य । स्वयं पश्यन्नविस्मयः ल०, इ० अ०, स० । १० चतुर्देशमध्यस्थितसीमाख्यमहागिरौ । ११ महागिरौ ट० । १२ मिलित्वा । १३ खड्गपिधानतः । १४ खड्गम् । १५ उत्खातं कृत्वा । १६ प्रहरति स्म । १७ वेणुगुल्मम् । १८ परिवेष्टितवेणुकम् | १६ - दादरं ल०, प० । २० कुब्जश्च अ०, स० । कुणिश्च ल० । विनालः । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व प्रागुक्तकरवालेशः पुरोऽभूद् विजया ह्वये । सोऽस्य' सेनापतिर्भावी भविष्यच्चक्रवर्तिनः ॥ १४०॥ तत्पुरे वर कीर्तीष्टकीर्तिमत्यात्मजापने । खड्गोत्पाटनमादेशस्तस्य श्रीपालचक्रिणः ॥ १४१ ॥ मूकः श्रेयः पुरे जातस्तस्य भावी पुरोहितः । शिवसेनमहीपालः श्रीमांस्तन्नगरेश्वरः ॥ १४२॥ शोका या तस्य तनूजा वनजे क्षणा । मूकभाषणमादेशः कुमारस्य तदापने" ॥१४३॥ "कुण्डः शिल्पपुरोत्पन्नः स्थपतिस्तस्य भाव्यसौ । नाम्ना नरपतिस्तत्पुरेशो नरपतेः सुता ॥ १४४ ॥ रत्यादिविमलासार्द्धं तथैतस्य समागमः । श्रङ्गुलिप्रसरादेशात् स्मरव्यपदया' चिरम् ॥ १४५ ॥ स वज्रमणिपाकस्य प्रधानपुरुषो भवेत । तस्य' धान्यपुरे "जातिविशालस्तत्पुराधिपः ॥ १४६ ॥ सुता विमलसेनास्य श्रीपालस्य तदाप्तये । श्रावेशस्तस्य तद्वज्जमणिपाको महौजसः ॥ १४७ ॥ इत्यादेश" वरं ज्ञात्वा सर्वे स्वं स्वं पुरं ययः । तदा कुमारमूद्वाऽयान्नभोभागे सुखावती ॥ १४८ ॥ धूमवेगो विलोक्यैनं विद्विषो भीवणारवः । श्रभितर्ज्या स्थितो रुध्वा खे खेटकयुतासिभृत् ॥ १४६॥ तदा "पूर्वोदिताचार्य देवता याऽस्य" पालिका " । सा विद्याधररूपेण समुपेत्य सुखावतीम् ॥ १५०॥ ॥ १३९ ॥ श्रीपालने जो तलवार म्यानसे निकाली थी उसका स्वामी विजयपुर नगरका रहने वाला था और होनहार इसी श्रीपाल चक्रवर्तीका भावी सेनापति था ।। १४०॥ उसी विजयपुर नगरके राजा वरकीर्तीष्टकी रानी कीर्तिमतीकी एक पुत्री थी, उसके वरके विषयमें निमित्तज्ञानियोंने बतलाया था कि इसका वर श्रीपाल चक्रवर्ती होगा और उसकी पहिचान म्यानमेंसे तलवार निकाल लेना होगी || १४१ ॥ | वह गूंगा श्रेयस्पुरमें उत्पन्न हुआ था और इसका भावी पुरोहित था, उसी श्रेयस्पुर नगरका स्वामी राजा शिवसेन था, उसके कमलके समान नेत्रवाली वीतशोका नामकी पुत्री थी उसके वरके विषयमें निमित्तज्ञानियोंने आदेश दिया था कि जिसके समागमसे यह गूँगा बोलने लगेगा, वही इसका वर होगा ।। १४२ - १४३ || जिसकी अंगुली टेढ़ी थी वह शिल्पपुरमें उत्पन्न हुआ था और इसका होनहार स्थपति रत्न था । उसी शिल्पपुर के राजाका नाम नरपति था उसके रतिविमला नामकी पुत्री थी, निमित्तज्ञानियोंने बताया था कि जिसके देखनेसे इसकी टेढ़ी अंगुली फैलने लगेगी उसीके साथ कामक्रीड़ा करनेवाली इस कन्याका चिरकाल तक समागम रहेगा ।। १४४ - १४५ ।। जो हीराओं का भस्म बना रहा था वह इसका मंत्री होनेवाला था और धान्यपुर नगरमें पैदा हुआ था, उसी धान्यपुर नगरके राजाका नाम विशाल था उसकी एक विमलसेना नामकी कन्या थी, निमित्तज्ञानियोंने बतलाया था कि जिसके आनेपर हीराओंका भस्म बन जायगा वही महा तेजस्वी श्रीपाल इसका पति होगा ।।१४६-१४७।। इस प्रकार निमित्तज्ञानियोंके आदेशानुसार उस पुरुषको पहिचान कर वे सब अपने अपने नगरको चले गये और उसी समय सुखावती श्री कुमारको लेकर आकाशमार्गसे चलने लगी ॥ १४८ ॥ | चलते चलते इसे धूमवेग शत्रु मिला, वह कुमारको देखकर भयंकर शब्द करने लगा, और डांट दिखाकर रास्ता रोक आकाशमें खड़ा हो गया, उस समय खेटक और तलवार दोनों शस्त्र उसके पास थे || १४९ ।। उसी समय पहले कही १ श्रीपालस्य । २ वरकीर्तिनृपतेः प्रियायाः कीर्तिमत्याः सुतायाः आपने परिणयने । ३ 'पन व्यवहारे स्तुतौ च' पुत्रीव्यवहारे त० टि० । -त्यात्मजापतेः इ० । जायते अ०, स०, ल० । ४ वीतशोकायाः परिणयने । ५ कुणिः ल० । ६ कामविशिष्टधर्मप्रदया अथवा कामविविधगमनप्रदया । ७ वज्रमणिपाक्यस्य ल०, ८० । वज्रमणिपाकी वज्ज्ररत्नपाकवान् । अस्य श्रीपालस्य । ८ मन्त्रिमुख्यः । ६ वज्रमणिपाकिनः । १० उत्पत्तिः । ११ विमलसेनायाः प्राप्त्यै । १२ आदेशजामातरम् । –देशनरं ल०, प० । - देशान्तरं अ०, स० । १३ शत्रोर्भयङकरध्वनिः । तद्विषो भीषणारवम् इ०, अ०, स० । १४ पूर्वोक्तप्रमदवनस्थवटतरोरवस्थितप्रतिमायाम् । १५ श्रीपालस्य । १६ रक्षिका । ४६१ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ महापुराणम् मुक्त्वा कुमारमभ्येत्य विभीविद्याधराधमम । नियुध्य विजयस्वेति निजगाव निराकुलम् ॥ १५१ ॥ साऽपि मुक्त्वा कुमारं तं धूमवेगं रणाङगणं । चिरं युध्वा स्वविद्याभिर्न्य रौत्सी' च्छोर्यशालिनी ॥ १५२॥ कुमारोऽपि समीपस्थशिलायां धरणीधरे । शनैः समापतत्तस्य देवश्री जननी पुरा ॥ १५३॥ यक्षीभूता तदागत्य संस्पृशन्ती करेण तम् । अपास्यास्य श्रमं मङक्ष कुमार* प्रविश हृदम् ॥ १५४ ॥ जगादनमिति श्रुत्वा सोऽपि विश्वस्य तद्वचः । प्रविश्य तं शिलास्तम्भस्योपरिस्थितवान्निशि ॥ १५५ ॥ कुर्वन् पञ्चनमस्कारपदानां परिवर्तनम् । प्रभाते तदुदग्भागे जिनेन्द्रप्रतिबिम्बकम् ॥१५६॥ विलोक्य कृतपुष्पादि सम्पूजननमस्त्रियः । सहस्रपत्रमम्भोजं चक्ररत्नं सकूर्मकम् ॥१५७॥ आतपत्रं सहस्रोरु फणं च फणिनां पतिम् । दण्डरत्नं समण्डूकं नकं 'चूडामहामणिम् ॥ १५८ ॥ चर्मरत्नं स्फुरद्रक्त वृश्चिकं काकिणीमणिम् । ईक्षाञ्चक्रे स पुण्यात्मा तत्र' यक्ष्युपदेशतः ॥ १५६ ॥ तदा मुदितचित्तः सन् छत्रमुद्यम्य दण्डभृत् । प्रद्योतमानरत्नोपातत्को यक्षीसमर्पितैः ॥ १६०॥ सर्वरत्नमयैदिव्यैर्भूषाभेदैविभूषितः । निर्जगाम गुहातोऽसौ " तदैवेत्य सुखावती ॥१६१॥ धूमवेगं विनिर्जित्य प्रतिपद्वा" हिमद्युतिम् । वृद्ध्यं कुमारमापन्ना सकलाऽसिलतान्विता ॥ १६२॥ एतया सह गत्वातः सम्प्राप्तसुरभूधरम् । गुणपालजिनाधीश सभामण्डलमाप्तवान् ॥ १६३ ॥ तंत्र तं सुचिरं स्तुत्वा मनोवाक्कायशुद्धिभाक् । मातरं भ्रातरं चोचितोपचारो विलोक्य तौ ॥ १६४॥ हुई प्रतिमापर जो इसकी रक्षा करनेवाली देवी रहती थी वह विद्याधरका रूप धारण कर आई और सुखावतीको छोड़कर कुमारको ले गई तथा सुखावती से कह गई कि तू निर्भय हो निराकुलतापूर्वक इस नीच विद्याधरसे लड़ना और इसे जीतना ॥ १५० - १५१ ॥ शूरवीरता से शोभायमान रहनेवाली सुखावती भी कुमारको छोड़कर धूमवेगसे लड़ने लगी और रणके मैदानमें बहुत समय तक युद्धकर उसने उसे अपनी विद्याओं द्वारा रोक लिया ।।१५२।। कुमार भी समीपवती पर्वतकी एक शिलापर धीरे धीरे जा पड़ा । वहां उसकी पूर्वभवकी माता देवश्री जो कि यक्षी हुई थी आई । उसने हाथसे स्पर्शकर श्रीपालका सब परिश्रम दूर कर दिया और कहा कि तू शीघ्र ही इस तालाब में घुस जा । कुमार भी उसके वचनोंका विश्वास कर तालाबमें घुस गया और वहीं रातभर पत्थरके खंभेपर बैठा रहा ।। १५३-१५५।। सबेरे पञ्च नमस्कार मंत्रका पाठ करता हुआ उठा, तालाबके उत्तरकी ओर श्रीजिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा देखकर पुष्प आदि सामग्रीसे पूजन और नमस्कार किया । तदनन्तर उसी यक्षीके उपदेशसे उस पुण्यात्माने सहस्र पत्रवाले कमलको चक्ररत्नरूप होते देखा, कछुवेको छत्र होते देखा, बड़ी बड़ी हजार फणाओंको धारण करनेवाले नागराजको दण्डरत्न होते देखा, मेंडकको चूड़ामणि, मगरको चर्मरत्न और देदीप्यमान लाल रंगके विच्छूको काकिणी मणि रूप होते देखा ॥१५६-१५९।। उस समय उसने प्रसन्नचित्त होकर छत्र धारण किया, दण्ड उठाया, चमकीले रत्नोंके जूते पहिने और फिर वह यक्षीके द्वारा दिये हुए मणिमय दिव्य आभूषणोंसे सुशोभित होकर गुहासे बाहर निकला । उसी समय जिस प्रकार चन्द्रमाकी वृद्धिके लिये शुक्लपक्षकी प्रतिपदा आती है उसी प्रकार धूमवेगको जीतकर तलवार लिये हुए चतुर सुखावती कुमारकी वृद्धिके लिये उसके पास आ पहुँची । श्रीपाल यहांसे उसके साथ साथ चला और चलता चलता सुरगिरि पर्वतपर गुणपाल जिनेन्द्रके समवसरण में जा पहुंचा ॥१६० - १६३ ॥ वहां मन, १ रुरोध । २ सम्प्राप्तः । ३ श्रीपालस्य । ४ कुमारं ल० । ५ ह्रदम् । ६ मुहुर्मुहुरनुचिन्तनम् । ७ हृदस्योत्तरदिग्भागे । ८ चूडामणि तथा ल०, प०, अ०, स०, इ० e हृदे । वक्त्राण्येव रूपाणि सहस्रपत्राम्भोजादीनि ईक्षाञ्चक्रे इति सम्बन्धः । १० मणिमयपादत्राणः । ११ गुहायाः सकाशात् । १२ प्रतिपद्दिनश्रीरिव । १३ चन्द्रम् | १४ चन्द्रकलान्विताः । १५ सुखावत्या । १६ सुरगिरिनामगिरिम् । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व 'तवाशीर्वादसन्तुष्टः संविष्टो मातृसन्निधौ । सुखावतीप्रभावेण युष्मदन्तिकमाप्तवान् ॥ १६५॥ क्षेमेति तयोर प्राशंसत्तां नृपानुजः । सतां स सहजो भावो यत्स्तुवन्त्युपकारिणः ॥ १६६ ॥ वसुपालमहीपालप्रश्नाद् भगवतोदितः । स्थित्वा विद्याधरश्रेण्यां बहुलम्भान् समापिवान् ॥ १६७॥ ततः सप्तदिनैरेव सुखेन प्राविशत् पुरम् । सञ्चितोजितपुण्यानां भवेदापच्च सम्पदे ॥ १६८ ॥ 'वसुपाल कुमारस्य वारिषेणादिभिः समम् । कन्याभिरभवत् कल्याणविधिविविधद्धिकः ॥ १६२ ॥ स श्रीपाल कुमारश्च 'जयावत्यादिभिः कृती । तदा चतुरशीतीष्टः कन्यकाभिरलङकृतः ॥ १७० ॥ सूर्याचन्द्रमसौ वा तौ स्वप्रभाव्याप्तदिक्तटौ । पालयन्तौ धराचकं चिरं निविशतः स्म शम् ॥ १७१ ॥ जात्यां समुत्पन्नो गुणपालो गुणोज्ज्वलः । श्रीपालस्यायुधागारे चक्रं च समजायत ॥ १७२॥ स सर्वोश्चर्युक्त भोगाननुभवन् भृशम् । शकलीलां व्यडम्विष्ट लक्ष्म्या " लक्षितविग्रहः ॥१७३॥ प्रभू ज्जयावती भ्रातुस्तनूजा जयवर्मणः । जयसेना ह्वया कान्तेस्सा" सेनेव" विजित्वरी ॥१७४॥ मनोवेगोशनिवर: शिवाख्योऽशनिवेगवाक् । हरिकेतुः परे चोच्चैः क्ष्माभुजः खगनायकाः ॥ १७५ ॥ १" जयसेनाख्य मुख्याभिस्तेषां " तुग्भिः " सहाभवत् । विवाहो गुणपालस्य स ताभिः प्राप्तसम्मदः ॥ १७६ ॥ वचन, कायकी शुद्धि धारण करनेवाले श्रीपालने बहुत देरतक गुणपाल जिनेन्द्रकी स्तुति की, माता और भाईको देखकर उनका योग्य विनय किया और फिर उन दोनोंके आशीर्वादसे संतुष्ट होकर वह माताके पास बैठ गया । उसने माता और भाईके सामने यह कहकर सुखावतीकी प्रशंसा की कि मैं इसके प्रभावसे ही कुशलतापूर्वक आपलोगोंके समीप आ सका हूं सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुषोंका जन्मंसे ही ऐसा स्वभाव होता है कि जिससे वे उपकार करनेबालोंकी स्तुति किया करते हैं ।।१६४ - १६६ ।। महाराज वसुपालके प्रश्नके उत्तरमें भगवान् ने जैसा कुछ कहा था उसीके अनुसार उस श्रीपालने विद्याधरोंकी श्रेणीमें रहकर अनेक लाभ प्राप्त किये थे ।। १६७ ।। तदनन्तर वह सात दिनमें ही सुखसे अपने नगर में प्रविष्ट हो गया सो ठीक ही है क्योंकि प्रबल पुण्यका संचय करनेवाले पुरुषोंको आपत्तियां भी सम्पत्ति के लिये हो जाती हैं ॥१६८॥ नगरमें जाकर वसुपाल कुमारका वारिषेणा आदि कन्याओंके साथ विवाहोत्सव हुआ, वह विवाहोत्सव अनेक प्रकारकी विभूतियोंसे युक्त था ।। १६९ ।। उसी समय चतुर श्रीपाल कुमार भी जयावती आदि चौरासी इष्ट कन्याओंसे अलंकृत - सुशोभित हुए ।। १७० ॥ अपनी क्रान्ति दिग्दिगन्तको व्याप्त करनेवाले सूर्य और चन्द्रमाके समान पृथिवीका पालन करते हुए दोनों भाई चिरकाल तक सुखका उपभोग करते रहे ।। १७१ ।। कुछ दिन बाद श्रीपालकी जयावती रानीके गुणोंसे उज्ज्वल गुणपाल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ और इधर आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ ॥ १७२ ॥ | जिसका शरीर लक्ष्मीसे सुशोभित हो रहा है ऐसा वह श्रीपाल चक्रवर्तीके कहे हुए सब भोगोंका अत्यन्त अनुभव करता हुआ इन्द्रकी लीलाको भी उल्लंघन कर रहा था ।।१७३ || जयावतीके भाई जयवर्माके जयसेना नामकी पुत्री थी जो अपनी कान्ति से सेना के समान सबको जीतनेवाली थी ।। १७४ ।। इसके सिवाय मनोवेग, अशनिवर, शिव, अशनिवेग, हरिकेतु तथा और भी अनेक अच्छे अच्छे विद्याधर राजा थे, जयसेनाको आदि लेकर १ कुबेरश्रीवसुपालयोराशीर्वचन । २ सुखावत्याः सामर्थ्येन । ३ स्तौति स्म । ४ श्रीपालः । ५ कन्यादिप्राप्तिः । ६ प्राप्तः सन् । ७ सप्तदिनानन्तरमेव । ८ आत्मीयपुण्डरीकिणीपुरम् । ६ वटवृक्षाधो नृत्यसम्बन्धिनी । १० प्रियतरुणीभिः, पट्टाभिरित्यर्थः । ११ सुखमन्वभूताम् । १२ तिरस्करोति स्म । व्यलघिष्ट ल० । १३ लक्ष्म्यालिङगित अ० स० । लक्ष्मीलक्षित प०, ल० । १४ कान्त्या इ०, प०, अ०, स०, ल० | १५ चमूरिव । १६ जयशीला । १७ जयसेनादिप्रधानाभिः । १८ मनोवेगादीनाम् । १६ पुत्रीमिः । ४९३ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ महापुराणम् कदाचित् काललब्ध्यादिचोदितोऽभ्यर्णनिवृतिः । विलोकयन्नभोभागम् श्रकस्मादन्धकारितम् ॥ १७७॥ चन्द्रग्रहणमालोक्य धिगत' स्यापि चेदियम् । अवस्था संसृतौ पापग्रस्तस्यान्यस्य का गतिः ॥ १७८ ॥ इति निर्विद्य सञ्जातजातिस्मृतिरुदात्तधीः । स्वपूर्वभवसम्बन्धं प्रत्यक्षमिव संस्मर ॥ १७६ ॥ पुष्कराsपरे भागे विदेहे पद्मकाह्वये । विषये विश्रुते कान्त पुराधीशोऽवनीश्वरः ॥ १८०॥ रथान्तकनकस्तस्थ वल्लभा कनकप्रभा । तयोर्भूत्वा 'प्रभापास्तभास्करः कनकप्रभः ॥ १८१ ॥ तस्मिन्नन्येद्युरुद्यान दष्टा सर्पेण मत्प्रिया । विद्युत्प्रभा ह्वया तस्या वियोगेन विषण्णवान् ॥ १८२ ॥ सार्धं समाधिगुप्तस्य समीपे संयमं परम् । सम्प्राप्तवानतिस्निग्धः पितृमातृसनाभिभिः ॥ १८३॥ तत्र सम्यक्त्वशुद्धयादिषोडश प्रत्ययान् भृशम् । भावयित्वा भवस्यान्ते" जयन्ताख्यविमानजः ' ।। १८४ ॥ प्रान्ते ततोऽहमागत्य' जातोऽत्रैवमिति स्फुटम् । समुद्रदत्तेनादित्य" गतिर्वायुरथा ह्वयः २ ॥१८५॥ श्रेष्ठी कुबेरकान्तश्च लौकान्तिकपदं गताः । बोधितस्तैः समागत्य गुणपालः प्रबुद्धवान् ॥ १८६॥ मोहपाशं समुच्छिद्य तप्तवांश्च तपस्ततः । घातिकर्माणि निर्मूल्य सयोगिपदमागमत् ॥ १८७॥ यशःपालः सुखावत्यास्तनू जस्तेन संयमम् । गृहीत्वा सह तस्यैव गणभृत्प्रथमोऽभवत् ॥ १८८॥ उन सब राजाओं की पुत्रियोंके साथ गुणपालका विवाह हुआ । इस प्रकार वह गुणपाल उन कन्याओंके मिलने से बहुत ही हर्षित हुआ ।। १७५-१७६॥ अथानन्तर - किसी समय जिसका मोक्ष जाना अत्यन्त निकट रह गया है ऐसा गुणपाल काललब्धि आदिसे प्रेरित होकर आकाशकी ओर देख रहा था कि इतनेमें उसकी दृष्टि अकस्मात् अन्धकारसे भरे हुए चन्द्रग्रहणकी ओर पड़ी, उसे देखकर वह सोचने लगा कि इस संसारको धिक्कार हो, जब इस चन्द्रमाकी भी यह दशा है तब संसारके अन्य पापग्रसित जीवोंकी क्या दशा होती होगी ? इस प्रकार वैराग्य आते ही उस उत्कृष्ट बुद्धिवाले गुणपालको जाति स्मरण उत्पन्न हो गया जिससे उसे अपने पूर्वभवके सम्बन्धका प्रत्यक्षकी तरह स्मरण होने लगा ॥१७७ - १७९ ।। उसे स्मरण हुआ कि पुष्करार्ध द्वीपके पश्चिम विदेहमें पद्मक नामका एक प्रसिद्ध देश है, उसके कान्तपुर नगरका स्वामी राजा कनकरथ था । उसकी रानीका नाम कनकप्रभा था, उन दोनोंके मैं अपनी प्रभासे सूर्यको तिरस्कृत करनेवाला कनकप्रभ नामका पुत्र हुआ था । किसी दिन एक बगीचेमें विद्युत्प्रभा नामकी मेरी स्त्रीको सांपने काट खाया, उसके वियोगसे मैं विरक्त हुआ और अपने ऊपर अत्यन्त स्नेह रखनेवाले पिता माता तथा भाइयोंके साथ साथ मैंने समाधिगुप्त मुनिराजके समीप उत्कृष्ट संयम धारण किया था ।। १८० - १८३ ।। वहां मैं दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका अच्छी तरह चिन्तवन कर आयुके अन्तमें जयन्त नामके विमान में अहमिन्द्र उत्पन्न हुआ था ।। १८४|| और अन्तमें वहांसे चयकर यहां श्रीपालका पुत्र गुणपाल हुआ हूं । वह इस प्रकार विचार ही रहा था कि इतनेमें ही *समुद्रदत्त, +आदित्यगति, कुवायुरथ और सेठ कुबेरकान्त जो कि तपश्चरण कर लौकान्तिक देव हुए थे उन्होंने आकर समझाया । इस प्रकार प्रबोधको प्राप्त हुए गुणपाल मोहजालको नष्ट कर तपश्चरण करने लगे और घातिया कर्मोंको नष्ट कर सयोगिपद - तेरहवें गुण स्थानको प्राप्त हुए ।। १८५-१८७।। सुखावतीका पुत्र यशपाल भी उन्हीं गुणपाल जिनेन्द्रके पास दीक्षा धारण कर १ चन्द्रस्य । २ - रुदारधीः अ०, स०, ल० । ३ कान्त्या निराकृत । ४ कारणानि । ५ आयुषस्यान्ते । ६ अहमिन्द्रः । ७ स्वर्गापुरते । ८ स्वर्गात् । पूर्वभवसम्बन्धं प्रत्यक्षमिव संस्मरन्निति सम्बन्धः । १० प्रियकान्ताया: जनकेन सह । ११ हिरण्यवर्मणो जनकः । १३ उक्तलौकान्तिकामरैः । १२ प्रभावन्त्याः पिता । * प्रियदत्ताका पिता, हिरण्यवर्माका पिता, प्रभावतीका पिता, 8 कुबेरमित्रका पिता । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व राजराजस्तदा भूरिविभूत्याऽभ्यत्य तं मुदा । श्रीपालः पूजयित्वा तु श्रुत्वा धर्म द्वयात्मकम् ॥१८६॥ ततः स्वभावसम्बन्धम् अप्राक्षीत् प्रश्रयाश्रयः । भगवांश्चेत्युवाचेति कुरुराज सुलोचना ॥१६॥ निवेदितवती पृष्टा मृष्टवाक्सौष्ठवान्विता । विदेहे पुण्डरीकिण्यां यशःपालो महीपतिः ॥१६॥ तत्र सर्वसमृद्धाख्यो वणिक तस्य मनःप्रिया। धनञ्जयानुजाताऽसौ धनश्रीर्धनद्धिनी ॥१६२॥ तयोस्तुक' सर्वदयितः श्रेष्ठी तद्भगिनी सती । संज्ञया सर्वदयिता श्रेष्ठिनश्चित्तवल्लभे ॥१३॥ सुता सागरसेनस्य जयसेना समाह्वया । धनञ्जयवणीशस्य जयदत्ताभिधाऽपरा ॥१६४॥ देवश्रीरनुजा श्रेष्ठ पितुस्तस्यां तनूभवौं । जातौ सागरसेनस्य सागरो दत्तवाक्परः ॥१६॥ ततः समुद्रदत्तश्च सह सागरदत्तया। सुतौ "सागरसेनानुजायां जातमहोदयौ ॥१६६॥ जातौ सागर सेनायां दत्तो वैश्रवणादिवाक् । दत्ता वैश्रवणादिश्च दायादः श्रेष्ठिनः५ स तु॥१६७॥ भार्या "सागरदत्तस्य दत्ता८ वैश्रवणादिका । सती समुद्रदत्तस्य सा सर्वदयिता० प्रिया ॥१६॥ सा वैश्रवणदत्तेष्टा दत्तान्ता सागरावया । तेषां२२ सुख ३ सुखेनैवं काले गच्छति सन्ततम् ॥१६॥ यशःपालमहीपालमाजित "महाधनः। वणिग्धनञ्जयोऽन्येद्युः सद्रत्नदर्शनीकृतैः२५ ॥२०॥ उन्हींका पहला गणधर हुआ ॥१८८॥ उसी समय राजाधिराज श्रीपालने बड़ी विभूतिके साथ आकर गुणपाल तीथ करकी पूजा की और गृहस्थ तथा मुनि सम्बन्धी-दोनों प्रकारका धर्म सुना । तदनन्तर बड़ी विनयके साथ अपने पूर्वभवका संबंध पूछा, तब भगवान् इस प्रकार कहने लगे-यह सब बातें मधुर वचन बोलनेवाली सुन्दरी सुलोचना महाराज जयकुमारके पूछनेपर उनसे कह रही थी। उसने कहा कि विदेह क्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरीमें यशपाल नामका राजा रहता था ॥१८९-१९१॥ उसी नगरमें सर्वसमृद्ध नामका एक वैश्य रहता था। उसकी स्त्रीका नाम धनश्री था जो कि धनको बढ़ानेवाली थी और धनंजयकी छोटी बहिन थी। उन दोनोंका पुत्र सर्वदयित सेठ था, उसकी बहिनका नाम सर्वदयिता था जो कि बड़ी ही सती थी। सेठ सर्वदयितकी दो स्त्रियां थीं, एक तो सागरसेनकी पुत्री जयसेना और दूसरी धनंजय सेठकी पुत्री जयदत्ता ॥१९२१९४॥ संठ सर्वदयितकं पिताकी एक छोटी बहिन थी जिसका नाम देवश्री था और वह संठ सागरसेनको ब्याही थी। उसके सागरदत्त और समद्रदत्त नामके दो पुत्र थे तथा सागरदत्ता नामकी एक पुत्री थी। सागरसेनकी छोटी बहिन सागरसेनाके दो संतानें हुई थीं-एक वैश्रवणदत्ता नामकी पुत्री और दूसरा वैश्रवणदत्त नामका पुत्र । वैश्रवणदत्त सेठ सर्वदयितका हिस्सेदार था ।।१९५-१९७॥ वैश्रवणदत्ता सेठ सागरदत्तकी स्त्री हुई थी, सेठ समुद्रदत्तकी स्त्रीका नाम सर्वदयिता था और सागरदत्ता सेठ वैश्रवणदत्तको ब्याही गई थी। इस प्रकार उन सबका समय निरन्तर बड़े प्रेमसे व्यतीत हो रहा था ॥१९८-१९९।। जिसने बहुत धन उपार्जन किया है ऐसे सेठ धनंजयने किसी दिन अच्छे अच्छे रत्न भेंट देकर राजा यशपालके दर्शन किये १ गुणपालकेवलिनम् । २ जयकुमारम् । ३ भगिनी। ४ पुत्रः । ५ राजश्रेष्ठी। ६ धनञ्जयनामवैश्यस्य। ७ द्वितीया। ८ सर्वदयितश्रेष्ठिजनकसर्वसमृद्धस्य । ६ पुत्रौ। १० देवश्रियोर्भर्तुर्भगिन्याम् । ११ सर्वसमृद्धस्य भार्यायाम् । १२ दत्ता अ०, प०, इ०, स०, ल०। १३ दत्तो ल०, ५०, इ०, अ०, स० । १४ ज्ञातिः । १५ सर्वदयितश्रेष्ठिनः । १६ वैश्रवणदत्तः । १७ सागरसेनस्य ज्येष्ठपुत्रस्य। १८ वैश्रवणदत्ता। भार्याभूदिति सम्बन्धः । १६ सागरसेनस्य कनिष्ठपुत्रस्य। २० सर्वदयितवेष्ठिनो भगिनीप्रिया । भार्या जातेति सम्बन्धः । २१ समुद्रदत्तस्यानुजा सागरदत्ताह्वया । वैश्रवणदत्तस्येष्टा बभूवेति सम्बन्धः । २२ समुद्रादीनाम् । २३ अकृच्छ ण, अत्यन्तसुखेनेत्यर्थः । २४ आनीत । २५ उपायनीकृतैः । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ महापुराणम् व्यलोकिष्ट स भूयोऽपि तस्मै सन्मानपूर्वकम् । प्रीत्या धनं हिरण्यादि प्रभूतमदिलोचितम् ॥२०१॥ विलोक्य तं वणिक्पुत्राः सर्वेऽपि धनमाजितुम् । ग्रामे पुरोपकण्ठस्थे सम्भूय विनिवेशिरे ॥२०२॥ 'तन्निवेशादयाऽन्येधुः स "समुद्रादिदत्तकः । रात्रौ स्वगृहमागत्य भार्यासम्पर्कपूर्वकम् ॥२०३॥ केनाप्यविदितो रात्रावेव सार्थमुपागतः । काले गर्भ विदित्वाऽस्याः पापो दुश्चरितोऽभवत् ॥२०४॥ इति सागरदत्ताख्यस्तयार भर्तु समागमम् । “बोधितोऽप्पपरीक्ष्यासौ स्वगेहात्ता"मपाकरो ॥२०॥ ततः श्रेष्ठिगहर" याता तेनापि .वं दुराचरा। नास्मद्गेहं समागच्छेत्यज्ञानात् सा निवारिता ॥२०६॥ समीपतिन्यकस्मिन् केतने० विहितस्थितिः। नवमासावधौ पुत्रम् अलब्धानल्पपुण्यकम् ॥२०७॥ तद्विदित्वा कुलस्यैवर समपन्नः पराभवः । यत्र२ क्वचन नीत्वैनं निक्षिपेत्यनुजीविकः ॥२०॥ प्रत्ययः२५ श्रेष्ठिना प्रोक्तः श्रेष्ठिमित्रस्य बुद्धिमान् । स्मशाने साधितुं विद्याम् प्रागतस्य खयायिनः ॥ बालं समर्पयामास विचित्रो दुरितोदयः। खगोऽसौ जयधामाख्यो जयभामास्य वल्लभा ॥२१०॥ तौ" भोगपुरवास्तव्यौ८ जितशत्रुसमा ह्वयम्"। कृत्वा वर्धयता पुत्रमिव मत्वौरसं मुढा ॥२१॥ राजाने भी उसका सन्मान किया और बड़े प्रेमसे उसके लिये यथायोग्य बहुत सा सुवर्ण आदि वापिस दिया ॥२००-२०१॥ यह देखकर सब वैश्यपुत्र धन कमानेके लिये बाहिर निकले और सब मिलकर नगरके समीप ही एक गांवमें जाकर ठहर गये ॥२०२॥ दूसरे दिन समद्रदत्त रात्रिम उन डेरोंसे अपने घर आया और अपनी स्त्रीसे संभोग कर किसीके जाने बिना ही रात्रिमें ही अपने झुण्डमें जा मिला। इधर समयानुसार उसका गर्भ बढ़ने लगा। जब इस बात का पता समुद्रदत्तके बड़े भाई सागरदत्तको चला तब उसने समझा कि यह अवश्य ही इसका पापरूप दुराचरण है। समुद्रदत्तकी स्त्री सर्वदयिताने पतिके साथ समागम होनेका सब समाचार यद्यपि बतलाया तथापि उसने परीक्षा किये बिना ही उसे घरसे निकाल दिया ॥२०३२०५॥ तब सर्वदयिता अपने भाई सेठ सर्वदयितके घर गई परन्तु उसने भी अज्ञानतासे यही कहकर उसे भीतर जानेसे रोक दिया कि तू दुराचारिणी है, मेरे घरमें मत आ' ॥२०६॥ तदनन्तर वह पासके ही एक दूसरे घरमें रहने लगी, नौ महीनेकी अवधि पूर्ण होनेपर उसने एक अतिशय पुण्यवान् पुत्र प्राप्त किया ।।२०७।। जब सेठ सर्वदयितको यह खबर लगी तो उसने समझा यह पुत्र क्या ? हमारे कुलका कलंक उत्पन्न हुआ है, इसलिये उसने एक नौकरको यह कहकर भेजा कि 'इसे ले जाकर किसी दूसरी जगह रख आ'। वह सेवक बुद्धिमान् था और सेठका विश्वासपात्र भी था, वह बालकको ले गया और सेठके एक विद्याधर मित्रको जो कि विद्या सिद्ध करनेके लिये श्मशानमें आया था, सौंप आया सो ठीक ही है क्योंकि पापका उदय बड़ा विचित्र होता है । सेठके उस मित्रका नाम जयधाम था और उसकी स्त्रीका नाम जयभामा था। वे दोनों भोगपुरके रहनेवाले थे उन्होंने उस पुत्रका नाम जितशत्रु रक्खा और उसे औरस पुत्रके समान मानकर वे बड़ी प्रसन्नतासे उसका पालन-पोषण करने लगे ॥२०८ १ ददर्श । २ धनञ्जयाय। ३ ददौ । ४ धनञ्जयं राज्ञा पूजितोऽयं दृष्ट्वा ५ -मजितुम् ल । ६ तच्छिबिरात् । ७ देवश्रीसागरसेनयोः पुत्रः समुद्रदत्तः। ८ शिबिरम्। सर्वदत्तायाः । १० अशोभनव्यवहारः। ११ दुर्वृत्तः कश्चिज्जारोऽभवदिति । १२ सर्वदयितया । १३ निजपुरुषागमनम् । १४ मम भर्ती शिबिरादागत्य मया सह सम्पर्क कृतवानिति निवेदितोऽपि । १५ सर्वदयिताम्। १६ निष्कासितवान् । १७ निजाग्रसर्वदयितष्ठिगृहम् । १८ दुष्टमाचरसि स्म। १६ नास्मद्गहं ल०, अ०, प०, स०, इ० । २० गृहे। २१ शिशुः । २२ यत्र कुत्रापि । २३ स्थापय । २४ भृत्यः । २५ विश्वास्यः । २६ विद्याधरस्य। २७ जयधामजयभामेति द्वौ। २८ भोगपुरनिवासिनौ। २६ शिशोजितशत्रुरित्याख्यां कृत्वा । ३० वर्धयत: स्म। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व तदा पुत्रवियोगेन सा सर्वदयिताऽचिरात् । स्त्रीवेदनिन्दनान्मृत्वा सम्प्रापज्जन्म पौरुषम् ॥ २१२ ॥ ततः समुद्रदत्तोऽपि सार्थेनामा समागतः । श्रुत्वा स्वभार्यावृत्तान्तं निन्दित्वा भ्भ्रातरं निजम् ॥२१३॥ श्रेष्ठिनेऽनपराधाया गृहवेशनिवारणात् । प्रकुप्यन्नितरां कृत्यं कः सहेताविचारितम् ॥ २१४॥ ज्येष्ठे न्यायगतं योग्य मयि स्थितवति स्वयम् । श्रेष्ठित्वमयमध्यास्त इति श्रेष्ठिनि कोपवान् ॥ २१५॥ 'वैश्रवणदत्तोऽपि स ससागरदत्तकः " । सार्द्धं समुद्रदत्तेन मात्सर्याच्छे ष्ठिनि स्थिताः ॥२१६॥ दुस्सहे तपसि श्रेयो मत्सरोऽपि क्वचित् नृणाम् । श्रन्येद्युजितशत्रुं तं दृष्ट्वा श्रेष्ठी कुतो भवान् ॥ २१७॥ 'समुद्रदत्तसारूप्यं दधत्संसद मागतः । इति पप्रच्छ सोऽप्यात्मागमन क्रममब्रवीत् ॥२१८॥ नान्यो मद्भागिनेयोऽयमिति तद्धस्तसंस्थिताम् । मुद्रिकां वीक्ष्य निश्चित्य निःपरीक्षकतां " निजाम् ॥ मैथुनस्य" च संस्मृत्य तस्मै सर्वश्रियं सुताम् । धनं श्रेष्ठिपदं चासौ दत्वा निर्विण्णमानसः ॥ २२० ॥ जयधामा " जयभामा जयसेना" तथाऽपरा । जयदत्ताभिधाना च परा सागरदत्तिका ॥२२१॥ सा वैश्रवणदत्ता" च पर चोत्पन्नबोधकाः । संजातास्तंः सह श्रेष्ठी संयमं प्रत्यपद्यत ॥२२२॥ मुनिरतिवरं प्राप्य चिरं विहितसंयमाः । एते सर्वेऽपि कालान्ते स्वर्गलोकं समागमन् ॥२२३॥ २११|| सर्वदयिताने पुत्रके वियोगसे बहुत दिनतक स्त्रीवेदकी निन्दा की और मरकर पुरुषका जन्म पाया ।।२१२ ॥ तदनन्तर समुद्रदत्त भी अपने झुण्डके साथ वापिस आ गया और अपनी स्त्रीका वृत्तान्त सुनकर अपने भाईकी निन्दा करने लगा । सेठने अपराधके बिना ही उसकी स्त्रीको घरमें प्रवेश करनेसे रोका था इसलिये वह सेठपर अत्यन्त क्रोध करता रहता था सो ठीक ही है क्योंकि जो कार्य बिना विचारे किया जाता है उसे भला कौन सहन कर सकता है ? ॥२१३ - २१४ ।। कुछ दिन बाद वैश्रवण सेठ सागरदत्तसे यह कहकर क्रोध करने लगा कि 'जब मैं बड़ा हूं, और योग्य हूं तो न्यायसे मुझे सेठ पद मिलना चाहिये, मेरे रहते हुए यह सेठ क्यों बन बैठा है' । इसी प्रकार सागरदत्त और समुद्रदत्त भी सेठक साथ ईर्ष्या करने लगे ।।२१५–२१६ ॥ आचार्य कहते हैं कि कठिन तपश्चरणके विषयमें की हुई मनुष्यों की ईर्ष्या भी कहीं कहीं अच्छी होती है परन्तु अन्य सब जगह अच्छी नहीं होती । किसी एक दिन सेठ सर्वद्धितने जितशत्रुसे पूछा कि तू समुद्रदत्तकी समानता क्यों धारण कर रहा है-तेरा रूप उसके समान क्यों है ? और तू सभामें किसलिये आया है ? तब जितशत्रुने भी अनुक्रमसे अपने आनेका सब समाचार कह दिया ।। २१७ - २१८ ।। उसी समय सेठकी दृष्टि उसके हाथ में पहनी हुई अंगूठीपर पड़ी, उसे देखकर उसने निश्चय कर लिया कि 'यह मेरा भानजा ही है, दूसरा कोई नहीं है । उसे अपनी और अपने बहनोईकी अपरीक्षकता ( बिना विचारे कार्य करने) की याद आ गई और उसे सर्वश्री नामकी पुत्री, बहुत सा धन और सेठका पद देकर स्वयं विरक्तचित्त हो गया ।। २१९ - २२० ।। उसी समय जितशत्रुको पालनेवाला जयधाम विद्याधर, उसकी स्त्री जयभामा, जयसेना और जयदत्ता नामकी अपनी स्त्रियां, वैश्रवणदत्तकी स्त्री सागरदत्ता और वैश्रवणदत्तकी बहिन वैश्रवणदत्ता तथा और भी अनेक लोगोंको आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ। उन सबके साथ साथ सेठने रतिवर मुनिके समीप जाकर संयम धारण. ४९७ १ वणिक्समूहेन सह । २ सर्वदयिताय । ३ चुकोप । ४ सर्वदयिते । ५ स वै -ल०, अ०, स०, इ० । ६ सागरदत्तसहितः । ७ श्रेष्ठिनः ल०, प०, इ०, स० अ० । ८ समुद्रदत्तस्य समानरूपताम् । सभाम् । १० विचारशून्यताम् । ११ सागरदत्तस्य विचारशून्यताम् । १२ निजभागिनेयजितशत्रवे । १३ सर्वदयितश्रेष्ठी । १४ जितशत्रुवर्धनविद्याधरदम्पती । १५ सर्वदयितस्य भायें । १६ वैश्रवणदत्तस्य भार्या । १७ सागरदत्तस्य भार्या । ६३ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ महापुराणम् प्रान्ते स्वर्गादिहागत्य जयधामा तदातनः । वसुपालोऽत्र सञ्जातो जयभामाऽप्यजायत ॥ २२४॥ 'जयवत्यात्तसौन्दर्या जयसेनाऽजनिष्ट सा । पिप्पला जयदत्ता तु वत्यन्तमदनाऽभवत् ॥२२५॥ विद्युद्वेगाऽभवद् वैश्रवणदत्ता कलाखिला' । जाता सागरदत्तापि स्वर्गादेत्य सुखावती ॥२२६॥ तदा सागरदत्ताख्यः स्वर्गलोकात समागतः । पुत्रो हरिवरो जातः स पुरुरवसः प्रियः ॥ २२७॥ समुद्रदत्तो ज्वलन वेगस्याजनि विश्रुतः । तनूजो धूमवेगाख्यो विद्याविहितपौरुषः ॥ २२८ ॥ स वैश्रवणदत्तोऽपि भूतोऽत्राशनि वेगकः । श्रेष्ठी स सर्वदयितः श्रीपालस्त्वभिहाभवः ॥ २२६॥ त्वं जामातुर्निराकृत्या' सनाभिभ्यो वियोजितः । तदा त्वद्द्द्वेषिणोऽस्मिँश्च तव द्वेषिण एव ते ॥ २३०॥ तदा प्रियास्तवात्राऽपि सञ्जाता नितरां प्रियाः । श्रहिंसयाऽर्भक' स्यासीद् बन्धुभिस्तव " सङ्गमः ॥२३१॥ तत्तपःफलतो जातं चत्रित्वं सकलक्षितेः । सर्वसङ्गपरित्यागान्मक्षु मोक्षं गमिष्यसि ॥२३२॥ श्रथोदीरिततीर्येशवचनाकर्णनेन ते । सर्वे परस्परद्वेषाद् विरमन्ति स्म विस्मयात् ॥२३३॥ जन्म रोगजरामृत्यू निहन्तु सन्त तानुगान् । सन्निधाय धियं धन्योऽधासीद्धर्मामृतं ततः ॥२३४॥ धिगिदं चत्रिसाम्राज्यं कुलालस्येव जीवितम् । भुक्तिरचक्रं परिभ्राम्य मृदुत्पन्नफलाप्तितः ॥ २३५॥ कर लिया । वे सभी लोग चिरकालतक संयमका साधन कर आयुके अन्तमें स्वर्ग गये ॥२२१२२३|| वहांकी आयु पूरी होनेपर स्वर्गसे आकर पहलेका जयधाम विद्याधर यहां राजा वसुपाल हुआ है, जयभामा वसुपालकी सुन्दरी रानी जयावती हुई है, जयसेना पिप्पली हुई है, जयदत्ता मदनावती हुई है, वैश्रवणदत्ता सब कलाओंमें निपुण विद्युद्वेगा हुई है, सागरदत्ता स्वर्गसे आकर सुखावती हुई है, उस समयका सागरदत्त स्वर्गसे आकर पुरूरवाका प्यारा पुत्र हरिवर हुआ है, समुद्रदत्त ज्वलनवेगका प्रसिद्ध पुत्र हुआ है जो कि अपनी विद्याओंसे ही अपना पौरुष प्रकट कर रहा है, वैश्रवणदत्त अशनिवेग हुआ है और सर्वदयित सेठ यहां श्रीपाल हुआ है जो कि तू ही है ।।२२४-२२९ ॥ तूने पूर्वभवमें अपने जंमाई ( भानेज जितशत्रु) को उसकी मातासे अलग कर दिया था इसलिये तुझे भी इस भवमें अपने भाई बन्धुओंसे अलग होना पड़ा है, पूर्वभवमें जो वैश्रवणदत्त, सागरदत्त तथा समुद्रदत्त तेरे द्वेषी थे वे इस भवमें भी तुझसे द्वेष करनेवाले धूमवेग, अशनिवेग और हरिवर हुए हैं । उस भवमें जो तुम्हारी स्त्रियां थीं वे इस भवमें भी तुम्हारी अत्यन्त प्यारी स्त्रियां हुई हैं । तुमने अपनी बहिन के बालककी हिंसा नहीं की थी इसलिये ही तेरा इस भवमें अपने भाई बन्धुओंके साथ फिरसे समागम हुआ है। तूने उस भवमें जो तपश्चरण किया था उसीके फलसे सम्पूर्ण पृथिवीका चक्रवर्ती हुआ है और अन्तमें सब परिग्रहों का त्याग कर देनेसे तू शीघ्र ही मोक्ष पा जायगा || २३० - २३२ ॥ | इस प्रकार तीर्थंकर भगवान् गुणपालके कहे हुए वचनोंको सुनकर सब लोगोंने आश्चर्यपूर्वक अपना परस्पर का सब वैर छोड़ दिया ॥२३३॥ तदनन्तर पुण्यात्मा श्रीपालने सदासे पीछे लगे हुए जन्म, रोग, जरा और मृत्युको नष्ट करनेके लिये बुद्धि स्थिर कर धर्मरूपी अमृतका पान किया ॥ २३४ ॥ | वह सोचने लगा कि यह चक्रवर्तीका साम्राज्य कुम्हारकी जीवनीके समान है क्योंकि जिस प्रकार कुम्हार अपना चक्र (चाक) घुमाकर मिट्टी से बने हुए घड़े आदि बर्तनोंसे अपनी आजीविका चलाता है १ तत्कालभवः । २ श्रीपालस्याग्रमहिषी जाता । ३ पिप्पली ल०, प०, इ० अ०, स० । ४ सम्पूर्णकला । ५ पुरुरवस इति विद्याधरस्य । ६ भगिनीपुत्रस्य निराकरणेन । ७ तत्काले । अहिंसनेन । ६ तव भगिनीशिशोः । १० पुनर्बान्धवैः सह संयोगः । ११ निरन्तरानुगमनशीलान् । १२ पपौ । धेट् पाने इति धातुः । १३ भोजन किया । १४ चक्ररत्नम् घटक्रियायन्त्री च । १५ क्षेत्रोत्पन्नफलप्राप्तितः । मृत्पिण्डोत्पन्नप्राप्तितश्च । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व प्रायुर्वायुरयं' मोहो भोगो भागी' हि सङगमः । वपुः पापस्य दुष्पात्रं विद्युल्लोला विभूतयः ॥२३६॥ "मार्गविध शहेतुत्वाद् यौवनं गहनं वनम् । या रतिविषयेष्वषा गवेषयति साऽरतिम् ॥२३७॥ सर्वमेतत्सुखाय स्याद् यावन्मतिविपर्ययः' । प्रगुणायां मतौ सत्यां किं तत्त्याज्यमतः परम् ॥२३८॥ चित्तद्रुमस्य चेद् वृद्धिः अभिलाषविषाङकुरैः । कथं दुःखफलानि स्युः सम्भोगविटपेषु नः ॥२३॥ भुक्तो भोगो दशाङगोऽपि यथेष्टं सुचिरं मया। मात्रामात्रेऽपि नात्रासीत्तृप्तिस्तुष्णाविघातिनी ॥२४०॥ अस्तु वास्तु समस्तं च सडकल्पविषयीकृतम् । इष्टमेव तथाप्यस्मान्नास्ति व्यस्ताऽपि नि तिः ॥२४१॥ किल स्त्रीभ्यः सुखावाप्तिः पौरुष किमतः परम् । दैन्यमात्मनि सम्भाव्यसौख्यं स्यां परमः पुमान् । इति श्रीपालचक्रेशः सन्त्यजन वक्रतां धियः । अक्रमेणाखिलं त्यक्त सचक्रं मतिमातनोत् ॥२४३॥ ततः सुखावतीपुत्रं नरपालाभिधानकम् । कृताभिषेकमारोप्य समुत्तुङगं निजासनम् ॥२४४॥ जयवत्यादिभिः स्वाभिर्देवीभिर्धरणीश्वरैः। वसुपालादिभिश्चामा संयमं प्रत्यपद्यत ॥२४॥ स बाहयमन्तरडगं च तपस्तत्वा यथाविधि । क्षपकणिमारहय "मासेन (?) हतमोहकः ॥२४६॥ ययाख्यातमवाप्योरुचारित्रनिष्कषायकम् । ध्यायन् द्वितीयशुक्लेन वीचाररहितात्मना ॥२४७॥ उसी प्रकार चक्रवर्ती भी अपना चक्र (चक्ररत्न) घुमाकर मिट्टीसे उत्पन्न हुए रत्न या कर आदिसे अपनी आजीविका चलाता है-भोगोपभोगकी सामग्री जुटाता है इसलिये इस चक्रवर्ती के साम्राज्यको धिक्कार है ॥२३५।। यह आयु वायुके समान है, भोग मेघके समान हैं, इष्टजनोंका संयोग नष्ट हो जानेवाला है, शरीर पापोंका खोटा पात्र है और विभूतियां बिजलीके समान चंचल हैं ॥२३६।। यह यौवन समीचीन मार्गसे भ्रष्ट करानेका कारण होनेसे सघन वनके समान है और जो यह विषयों में प्रीति है वह द्वषको ढूँढ़नेवाली है ॥२३७॥ इन सब वस्तुओं से सुख तभी तक मालूम होता है जब तक कि बुद्धिमें विपर्ययपना रहता है। और जब बुद्धि सीधी हो जाती है तब ऐसा जान पड़ने लगता है कि इन वस्तुओंके सिवाय छोड़ने योग्य और क्या होगा? ॥२३८॥ जब कि अभिलाषारूपी विषके अंकुरोंसे इस चित्तरूपी वृक्षकी सदा वृद्धि होती रहती है तब उसकी संभोगरूपी डालियोंपर भला दुःखरूपी फल क्यों नहीं लगेंगे ? ।।२३९॥ मैंने इच्छानुसार चिरकालतक दसों प्रकारके भोग भोगे परन्तु इस भवमें तृष्णाको नष्ट करनेवाली तृप्ति मुझे रंचमात्र भी नहीं हुई ॥२४०॥ यदि हमारी इच्छाके विषयभूत सभी इष्ट पदार्थ एक साथ मिल जाये तो भी उनसे थोड़ा सा भी सुख नहीं मिलता है ॥२४१॥ स्त्रियोंसे सुखकी प्राप्ति होना ही पुरुषत्व है ऐसा प्रसिद्ध है परन्तु इससे बढ़कर और दीनता क्या होगी? इसलिये अपने आत्मामें ही सच्चे सुखका निश्चय कर पुरुष हो सकता हूंपुरुषत्वका धनी बन सकता हूं ॥२४२॥ इस प्रकार बुद्धिकी वक्रताको छोड़ते हुए श्रीपाल चक्रवर्तीने चक्ररत्न सहित समस्त परिग्रहको एक साथ छोड़नेका विचार किया ॥२४३॥ तदनन्तर उसने नरपाल नामक सुखावतीक पुत्रका राज्याभिषेक कर उस अपने ब सिंहासनपर बैठाया और स्वयं जयवती आदि रानियों तथा वसुपाल आदि राजाओंके साथ दीक्षा धारण कर ली ॥२४४-२४५। उन्होंने विधिपूर्वक वाह्य और अन्तरङ्ग तप तपा, क्षपक श्रेणीमें चढ़कर मोहरूपी शत्रुको नाश करनेसे प्राप्त होनेवाला कषायरहित यथाख्यात नामका उत्कृष्ट चारित्र प्राप्त किया, वीचाररहित द्वितीय शुक्ल ध्यानके द्वारा आत्मस्वरूपका १ वायुवेगी। २ मेघोल । ३ विनाशी। ४ इष्टसंयोगः । ५ सन्मार्गच्युतिकारणत्वात् । ६ स्रक्चन्दनादि । ७ मतेायामः, मोहः । ८ इष्टस्रक्कामिन्यादिकादन्यत्। ६ अत्यल्पकालेऽपि। १० अल्पापि। ११ सुखम् । १२ कुशलाकुशलसमाचरणलक्षणं पौरुषम् । १३ सङ्कल्पसुखम्। १४ अहं परमपुरुषो भवेयम्। १५ मोहारातिजयार्जितम् ल०, प०, अ०, स०, इ० । १६ एकत्ववितर्कवीचाररूपद्वितीयशुक्लध्यानेन । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० महापुराणम् (घातिकमंत्रयं हत्वा सम्प्राप्तनवकेवलः । सयोगस्थानमाक्रम्य वियोगो वीतकल्मषः ॥२४॥) 'शरीरत्रितयापायाद् आविष्कृतगुणोत्करः। अनन्तशान्तमप्रायमवाप सुखमुत्तमम् ॥२४॥ तस्य राज्यश्च ताः सर्वा विधाय विविधं तपः । स्वर्गलोके स्वयोग्योरुविमानेष्वभवन् सुराः ॥२५०॥ पावां चाकण्यं तं नत्वा गत्वा नाकं निजोचितम्' । अनुभूय सुखं प्रान्ते' शेषपुण्यविशेषतः ॥२५॥ इहागताविति व्यक्तं व्याजहार सुलोचना। जयोऽपि स्वप्रियाप्रज्ञाप्रभावादतुषत्तदा ॥२५२॥ तदा सदस्सदः सर्वे प्रतीय 'स्तदुदाहृतम्। कः प्रत्यतिन दुष्टश्चेत् सदभिनिगदितं वचः॥२५३॥ एवं सुखन साम्राज्यभोगसार निरन्तरम । भुञ्जानौ रञ्जितान्योन्यौ कालं गमयतः स्म तौ ॥२५४॥ तदा खगभवावाप्तप्रज्ञप्तिप्रमुखाः श्रिताः। विद्यास्तां च महीशं च सम्प्रीत्या तौ ननन्दतुः ॥२५॥ तद् बलात् कान्तया सार्द्ध विहतु सुरगोचरान् । वाञ्छन् देशान् निजं राज्यं नियोज्य विजयेऽनुजे ॥२५६॥ यथेष्टं सप्रियो विद्यावाहनः सरितां पतीन् ।कलशलान्नदीरम्यवनानि विविधान्यपि ॥२५७॥ विहरनन्यदा मेघस्वरः कैलासशैलजे। वने सुलोचनाभ्यर्णाद् असौ किञ्चिदपासरत् ॥२५८॥ चिन्तवन करते हुए ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोंको नष्ट कर नौ केवललब्धियां प्राप्त की, सयोगकेवली गुणस्थानमें पहुंचकर क्रमसे योगरहित होकर सब कर्म नष्ट किये और अन्त में औदारिक, तैजस, कार्माण-तीनों शरीरोंके नाशसे गणोंका समूह प्रकट कर अनन्त, शान्त, नवीन और उत्तम सुख प्राप्त किया ॥२४६-२४९।। श्रीपाल चक्रवर्तीकी सब रानियां भी अनेक प्रकारका तप तपकर स्वर्गलोकमें अपने अपने योग्य बड़े बड़े विमानोंमें देव हुई ॥२५०॥ सुलोचना जयकुमारसे कह रही है कि हम दोनों भी ये सब कथाएं सुनकर एवं गुणपाल तीर्थङ्कर को नमस्कार कर स्वर्ग चले गये थे और वहां यथायोग्य सुख भोगकर आयुके अन्तमें बाकी बचे हुए पुण्यविशेषसे यहां उत्पन्न हुए हैं। ये सब कथाएं सुलोचनाने स्पष्ट शब्दोंमें कही थीं और जयकुमार भी अपनी प्रियाकी बुद्धिके प्रभावसे उस समय अत्यन्त संतुष्ट हुआ था ॥२५१-२५२॥ उस समय सभामें बैठे हुए सभी लोगोंने सलोचना के कहनेपर विश्वास किया सो ठीक ही है, क्योंकि जो दुष्ट नहीं है वह ऐसा कौन है जो सज्जनों के द्वारा कहे हुए वचनोंपर विश्वास न करे ॥२५३॥ इस प्रकार साम्राज्य तथा श्रेष्ठ भोगोंका निरन्तर उपभोग करते और परस्पर एक दूसरेको प्रसन्न करते हुए वे दोनों सुखसे समय बिताने लगे ॥२५४॥ उसी समय पहले विद्याधरके भवमें लक्ष्मीको बढ़ानेवाली जो प्रज्ञप्ति आदि विद्याएं थीं वे भी बड़े प्रेमसे जयकुमार और सुलोचना दोनोंको प्राप्त हो गई ॥२५५।। उन विद्याओंके बलसे महाराज जयकुमारने अपनी प्रिया-सुलोचनाके साथ देवोंके योग्य देशोंमें विहार करनेकी इच्छा की और इसलिये ही अपने छोटे भाई विजयकुमारको राज्यकार्यमें नियक्त कर दिया ॥२५६॥ तदनन्तर जिसकी सवारियां विद्याके द्वारा बनी हुई हैं ऐसा वह जयकुमार अपनी प्रिया-सुलोचनाके साथ साथ समुद्र, कुलाचल और अनेक प्रकारके-मनोहर वनोंमें विहार करता १ संप्राप्तक्षायिकज्ञानदर्शनसम्यक्त्वचारित्रदानलाभभोगोपभोगवीर्याणीतिनवकेवललब्धिः। २ औदारिकशारीरकार्मणमिति शरीरत्रयविनाशात् । ३ अनन्तं शान्तमप्राप्तमवाप्तः इ०, अ०, स०, ल०, प० । अप्रायमनुपमम् । 'प्रायश्चानशने मृत्यौ तुल्यबाहुल्ययोरपि' इत्यभिधानात् । ४ यथोचितम् ल०, प०, अ०, स०, इ० । ५ आयुरन्ते । ६ उवाच। ७ सदः सीदन्तीति सदस्सदः । सभां प्राप्ता इत्यर्थः । ८ विश्वस्तवन्तः । ६ सुलोचनावचनम्। १० न श्रद्दधाति । ११ हिरण्यवर्मप्रभावतीभवे प्राप्त । १२ सुलोचनाम् । १३ जयम् । १४ बधितश्रियः ला०, प०, इ०, स० । १५ प्रज्ञप्त्यादिविद्याबलात् । १६ पतिम् ल०, प०, इ०, स०। १७ अपसरति स्म । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ५०१ अमरेन्द्र सभामध्ये शोलमाहात्म्यशंसनम् । जयस्य तत्प्रियायाश्च प्रकर्वति कदाचन ॥२५॥ श्रुत्वा तदादिमे कल्पे रविप्रभविमानजः। श्रीशा' रविप्रभास्येन तच्छीलान्वेषणं प्रति ॥२६॥ प्रेषिता काञ्चना नाम देवी प्राप्य जयं सधीः । क्षेत्रेऽस्मिन् भारते खेचरानेरुत्तरदिकतटे ॥२६॥ मनोहराख्यविषये राजारत्नपुराधिपः । अभूत् पिडल्गलगान्धारी सुखवा तस्य सुप्रभा ॥२६२॥ तयोविद्युत्प्रभा पुत्री नमेर्भार्या यदृच्छया । त्वां नन्दन महामेरौ क्रीडन्तं वीक्ष्य सोत्सुकाः ॥२६३॥ तदा प्रभृति मच्चित्तेऽभवस्त्व लिखिताकृतिः । त्वत्समागममेवाहं ध्यायन्ती दैवयोगतः ॥२६४॥ दष्टवत्यस्मि कान्ताभिनिवेग सोद मक्षमा । इत्यपास्तोपकण्ठस्थान स्वकीयान् स्मरावह्वला ॥२६५॥ स्वानुरागं जये व्यक्तम् अकरोद् विकृतेक्षणा । तद्दष्टचेष्टितं दृष्ट्वा मा मंस्थाः पापमीदृशम् ॥२६६॥ सोदर्या त्वं ममादायि मया मुनिवराद् व्रतम् । पराजगनाडाग संसङगसुखं मे विषभक्षणम् ॥२६७॥ महीशेनेति सम्प्रोक्ता मिथ्या सा कोपवेपिनी। उपात्तराक्षसीवेषा तं२ समुद्धत्य गत्वरी३ ॥२६॥ पुष्पावचयसंसक्तनुपकान्ताभिजिता । भीत्वा तच्छोलमाहात्म्यात् काञ्च"नाऽदृश्यतां गता ॥२६॥ अबिभ्यद्देवता चैवं शीलवत्याः परे न के। ज्ञात्वा तच्छोलमाहात्म्यं गत्वा स्वस्वामिनं प्रति ॥२७०॥ हुआ किसी समय कैलाश पर्वतके वनमें पहुंचा और किसी कारणवश सुलोचनासे कुछ दूर चला गया ॥२५७-२५८॥ उसी समय इन्द्र अपनी सभाके बीचमें जयकुमार और उसकी प्रिया सलोचनाके शीलकी महिमाका वर्णन कर रहा था उसे सनकर पहले स्वर्गके रविप्रभ विमानमें उत्पन्न हुए लक्ष्मीके अधिपति रविप्रभ नामके देवने उनके शीलकी परीक्षा करने के लिये एक काञ्चना नामकी देवी भेजी, वह बुद्धिमती देवी जयकुमारके पास आकर कहने लगी कि 'इसी भरतक्षेत्रके विजया पर्वतकी उत्तरश्रेणीमें एक मनोहर नामका देश है, उसके रत्नपुर नगरके अधिपति राजा पिङ्गल गांधार हैं, उनके सुख देनेवाली रानी सुप्रभा है, उन दोनोंकी में विद्युत्प्रभा नामकी पुत्री हूं और राजा नमिकी भार्या हूं। महामेरु पर्वतपर नन्दन वनमें क्रीड़ा करते हुए आपको देखकर मैं अत्यन्त उत्सुक हो उठी हूं। उसी समयसे मेरे चित्तमें आपकी आकृति लिख सी गई है, मैं सदा आपके समागम का ही ध्यान करती रहती हूं। दैवयोगसे आज आपको देखकर आनन्दके वेगको रोकनेके लिये असमर्थ हो गई हूं।' यह कहकर उसने समीपमें बैठे हुए अपने सब लोगोंको दूर कर दिया और कामसे विह्वल होकर तिरछी आंखें चलाती हुई वह देवी जयकुमारमें अपना अनुराग स्पष्ट रूपसे प्रकट करने लगी। उसकी दुष्ट चेष्टा देखकर जयकुमारने कहा कि तू इस तरह पापका विचार मत कर, तू मेरी बहिन है, मैंने मुनिराजसे व्रत लिया है कि मुझे परस्त्रियोंके शरीरके संसर्गसे उत्पन्न होनेवाला सुख विष खानेके समान है। महाराज जयकुमारके इस प्रकार कहनेपर वह देवी झूठमूठके क्रोधसे कांपने लगी और राक्षसीका वेष धारणकर जयकुमारको उठाकर जाने लगी। फूल तोड़नेमें लगी हुई सुलोचनाने यह देखकर उसे ललकार लगाई जिससे वह उसके शीलके माहात्म्यसे डरकर अदृश्य हो गई। देखो, शीलवती स्त्रीसे जब देवता भी डर जाते हैं तब औरोंकी तो बात ही क्या है ? वह कांचना देवी उन दोनोंके शीलका माहात्म्य जानकर अपने स्वामीके पास गई, वहां उसने उन दोनोंके उस माहात्म्यकी प्रशंसा की जिसे सुनकर वह रविप्रभ देव भी आश्चर्यसे उनके गुणोंमें प्रेम करता हुआ उन दोनोंके पास आया। उसने अपना सब १ रविप्रभविमानोत्पन्नलक्ष्मीपतिना। २ श्रीशो ल० । ३ निरूपिता। ४ भो प्रिय । ५ एतस्मिन् प्रदेशे। ६ कामवेगम्। ७ स्वजनान् । ८ स्वीकृतम् । ६ संसर्ग-ल०, ५०, इ०, स० । १० सम्प्रोक्तं ल०। ११ पापवेपनी ट० । अशोभनं कम्पयन्ती। १२ जयम् । १३ गमनशीला। १४ सुलोचनातजिता । १५ काञ्चनाख्यामराङगना। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५०२ महापुराणम् प्राशंसत्' सा' तयोस्ताङमाहात्म्यं सोऽपि विस्मयात् । रविप्रभः समागत्य तावुभौ तद्गुणप्रियः ॥ २७१ ॥ स्ववृत्तान्तं समाख्याय युवाभ्यां क्षम्यतामिति । पूजयित्वा महारत्नैर्नाकलोकं समीयिवान् ॥२७२॥ तथा चिरं विहृत्यात्तसम्प्रीतिः कान्तया समम् । निवृत्य पुरमागत्य सुखसारं समन्वभूत् ॥ २७३॥ अथान्यदा समुत्पन्नबोधिर्मेघस्वराधिपः । तीर्थाधिनाथ' मासाद्य वन्दित्वाऽऽनन्दभाजनम् ॥ २७४ ॥ कृत्वा धर्मपरिप्रश्नं श्रुत्वा तस्माद्यथोचितम् । प्राक्षेपिण्यादिकाः सम्यक्' कथाबन्धोदयादिकम् ॥ २७५॥ कर्मनिर्मुक्तम्प्राप्यं शर्मसारं प्रबुद्धधीः । शिवङकरमहादेव्यास्तनूजो 'जगतां प्रियः ॥२७६॥ प्रवार्योऽनन्तवीर्याख्यः शत्रुभिः शस्त्रशास्त्रवित् । श्राकुमारं यशस्तस्य" शौयं शत्रुजयावधि ॥ २७७॥ त्यागः सर्वार्थसन्तर्पी सत्यं स्वप्नेऽप्यविप्लुतम् । विधायाभिषवं तस्मै प्रदायात्मीयसम्पदम् ॥२७८॥ पदं परं परिप्राप्तुमव्यग्रमभिलाषुकः । विसर्जितसगोत्रा दिविनिर्जितनिजेन्द्रियः ॥२७६॥ विजतमहामोहः समजित शुभाशयः १३ । विजयेन जयन्तेन सञ्जयन्तेन सानुजैः ॥ २८०॥ श्रश्च निश्चितत्यागं रागद्वेषाविदूषितैः । रविकीर्ती" रिपु" जयोऽरिन्दमोऽरिञ्जया ह्वयः ॥२८१ ॥ सुजयश्च सुकान्तश्च सप्तमश्चाजितञ्जयः । महाजयोऽतिवीर्यश्च "वीरञ्जयसमा ह्वयः ॥ २८२ ॥ रविवीर्यस्तथाऽन्ये च ततूजाश्चक्रवर्तिनः । तैश्च सार्द्धं सुनिर्विण्णैश्चरमाङगो विशुद्धिभाक् ॥ २८३ ॥ वृत्तान्त कहकर उन दोनोंसे क्षमा मांगी और फिर बड़े बड़े रत्नोंसे पूजा कर वह स्वर्गको चला गया । इधर जयकुमार भी प्रिया - सुलोचनाके साथ चिरकाल तक बड़े प्रेमसे विहारकर वापिस लौटे और नगरमें आकर श्रेष्ठ सुखोंका अनुभव करने लगा ।। २५९-२७३॥ अथानन्तर - जिसे आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे जयकुमारने किसी एक दिन आनन्दके पात्र श्री आदिनाथ तीर्थ करके पास जाकर उनकी वन्दना की, धर्मविषयक प्रश्न कर उनका यथा योग्य उत्तर सुना, आक्षेपिणी आदि कथाएं कहीं और कर्मोंके बन्ध उदय आदिकी चर्चा की ।।२७४ - २७५ ।। इस प्रकार प्रबुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाले जयकुमारने कर्मों के नाशसे प्राप्त होने योग्य श्रेष्ठ सुखको प्राप्त किया । तदनन्तर उसने जो लोगोंको बहुत ही, प्रिय है, जिसे शत्रु नहीं रोक सकते हैं, जो शस्त्र और शास्त्र दोनोंका जाननेवाला है, जिसका यश कुमार अवस्थासे ही फैल रहा है, जिसकी शूरवीरता शत्रुओंके जीतने तक है, जिसका दान सब याचकोंको संतुष्ट करनेवाला है, और जिसका सत्य कभी स्वप्न में भी खण्डित नहीं हुआ है ऐसे शिवंकर महादेवीके पुत्र अनन्तवीर्यका राज्याभिषेक कर उसे अपनी सब राज्य संपदा दे दी ।। २७६ - २७८ ।। तदनन्तर जो आकुलता रहित परम पद प्राप्त करनेकी इच्छा कर रहा है, जिसने अपने सब कुटुम्बका परित्याग कर दिया है, अपनी इन्द्रियोंको वश कर लिया है, महामोहको डांट दिखा दी है और शुभास्रवका संचय किया है ऐसे चरमशरीरी तथा विशुद्धि को धारण करनेवाले जयकुमारने विजय, जयंत, संजयन्त तथा परिग्रहके त्यागका निश्चय करनेवाले और राग द्वेषसे अदूषित अन्य छोटे भाइयों एवं रविकीर्ति, रविजय, अरिंदम, अरिंजय, सुजय, सुकान्त, सातवां अजितंजय, महाजय, अतिवीर्य, वरंजय, रविवीर्य तथा इनके सिवाय और भी वैराग्यको प्राप्त हुए चक्रवर्तीके पुत्रोंके साथ साथ दीक्षा धारण की ।। २७९ - २८३॥ १ प्रशंसां चकार । २ जयसुलोचनयोः । ३ तया ल० । ४ मण्डभाजनं कल्याणभाजनं वा । तीर्थादि-ल० । ५ आक्षेपणी विक्षेपणी संवेजनी निर्वेजनीति चेति चतस्रः । “आक्षेपणीं स्वमतसंग्रहणीं समेक्षी विक्षेपणीं कुमतनिग्रह्णीं यथार्हम् । संवेजनीं प्रथयितुं सुकृतानुभावं निर्वेजनीं वदतु धर्मकथाविरक्त्यै ।” ६ कृत्वा कथा बन्धोदयादिकाः ल०, प०, इ०, स० । ७ कर्मबन्धविमुक्तैः प्राप्तुं योग्यम् । ८ जनताप्रियः ल०, प०, अ०, स०, इ० । ६ कुमारकालादारभ्य । १० अनन्तवीर्यस्य । ११ अविच्युतम् । निर्बाधं वा । १२ बान्धवादि । सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः ' इत्यभिधानात् । १३ शुभास्रवः ल० । १४ रविकीर्तिनामा । १५ रविजयो ल०, प०, स०, इ० 1 १६ वरञ्जय ल०, अ०, प०, स० । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व एष पात्रविशेषस्ते संवोढ़ शासनं महत् । इति विश्वमहीशन' देवदेवस्य सोऽपितः ॥२८४॥ कृतग्रन्थपरित्यागः प्राप्तग्रन्थार्थसङग्रहः । प्रकृष्टं संयमं प्राप्य सिद्धसद्धिद्धितः ॥२८॥ चतुर्ज्ञानीमलज्योतिर्हताततमनस्तमाः। अभूद गणधरो भर्तुः एकसप्ततिपूरकः ॥२८६॥ सलोचनाप्यसंहार्यशोका पतिवियोगतः । गलिताकल्पवल्लीव "प्रम्लानामरभूरुहात् ॥२८७॥ शमिता चक्रवर्तीष्टकान्तयाऽशु सुभद्रया । ब्राह्मीसमीपे प्रव्रज्य भाविसिद्धिश्चिरं तपः ॥२८॥ कृत्वा विमाने साऽनुत्तरेऽभूत कल्पेऽच्युतेऽमरः। आदितीर्थाधिनाथोऽपि मोक्षमार्ग प्रवर्तयन् ॥२८६॥ चतुरुत्तरयाऽशीत्या विविद्धिविभूषितः। चिरं वृषभसेनादिगणेशैः परिवेष्टितः ॥२६॥ खपञ्चसप्तवा शिमितपूर्वधरान्वितः । खपञ्चैकचतुर्मे शिक्षकर्म निभिर्युतः ॥२६॥ तुतीयज्ञानसत्रैः सहस्रनवभिवतः । केवलावगमविंशतिसहस्रः समन्वितः ॥२२॥ खद्वय खपक्षोरुविक्रिद्धि विद्धितः । खपञ्चसप्तपक्षकमिततुर्यविदन्वितः ॥२६॥ तावद्भिर्वादिभिर्वन्धो निरस्तपरवादिभिः । चतुरष्टखवार्द्धचष्टमितः सर्वश्च पिण्डितः ॥२६४॥ संयमस्थानसम्प्राप्तसम्पद्भिस्सद्भिरचितः। खचतुष्केन्द्रियाग्न्युक्तपूज्यब्राह्मचायिकादिभिः ॥२६॥ प्रायिकाभिरभिष्ट्रयमाननानागुणोदयः। दृढवतादिभिर्लक्षत्रयोक्तः श्रावकः श्रितः ॥२६६॥ श्राविकाभिः स्तुतः पञ्चलक्षाभिः सुव्रतादिभिः। भावनादिचतुर्भेददेवदेवीडितक्रमः ॥२६७॥ उस समय भगवान् ऋषभदेवके समीप जयकुमार ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो आपके बड़े भारी शासनको धारण करनेके लिये यह एक विशेष पात्र है यही समझकर महाराज भरतने उसे भगवान्के लिये सौंपा हो ॥२८४। इस प्रकार जिसने सब परिग्रहका त्याग कर दिया पूर्ण श्रतका अर्थसंग्रह प्राप्त किया है, जो उत्कृष्ट संयम धारणकर सात ऋद्धियोंसे निरन्तर बढ़ रहा है, और चार ज्ञानरूपी निर्मल ज्योतिसे जिसने मनका विस्तीर्ण अंधकार नष्ट कर दिया है ऐसा वह जयकुमार भगवान्का इकहत्तरवां गणधर हुआ ॥२८५-२८६॥ इधर पतिके वियोगसे जिसे बड़ा भारी शोक रहा है और जो पड़े हुए कल्पवृक्षसे नीचे गिरी हुई कल्पलताके समान निष्प्रभ हो गई है ऐसी सुलोचनाने भी चक्रवर्तीकी पट्टरानी सुभद्राके समझाने पर ब्राह्मी आर्यिकाके पास शीघ्र ही दीक्षा धारण कर ली और जिसे आगामी पर्यायमें मोक्ष होनेवाला है ऐसी वह सुलोचना चिरकाल तक तप कर अच्युतस्वर्गके अनुत्तरविमानमें देव पैदा हुई । इधर जो मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति चला रहे हैं, अनेक ऋद्धियोंसे सुशोभित वृषभसेन आदि चौरासी गणधरोंसे घिरे हुए हैं, चार हजार सात सौ पचास पूर्वज्ञानियोंसे सहित हैं, चार हजार एक सौ पचास शिक्षक मुनियोंसे युक्त हैं, नौहजार अवधिज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले मुनियोंसे सहित हैं, बीस हजार केवलज्ञानियोंसे युक्त हैं, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक मुनियोंसे वृद्धिको प्राप्त हो रहे हैं, बारह हजार सात सौ पचास मनःपर्ययज्ञानियोंसे अन्वित हैं, परवादियोंको हटानेवाले बारह हजार सात सौ पचास वादियोंसे बन्दनीय हैं, और इस प्रकार सब मिलाकर तपश्चरणरूपी सम्पदाओंको प्राप्त करनेवाले चौरासी हजार चौरासी मुनिराज जिनकी निरन्तर पूजा करते हैं, ब्राह्मी आदि तीन लाख पचास हजार आर्यिकाएं जिनके गुणोंका स्तवन कर रही हैं, दृढव्रत आदि तीन लाख श्रावक जिनकी सेवा कर रहे हैं, सुव्रता आदि पांच लाख श्राविकाएं जिनकी स्तुति कर रही हैं, भवनवासी आदि चार प्रकारके देव देवियां जिनके चरणकमलोंका स्तवन कर रही हैं, चौपाये आदि तिर्यञ्चगतिके जीव जिनकी १ भरतेश्वरेण । २ वृषभेश्वरस्य। ३ जयः । ४ भ्रष्टादमर-ल०, ५०, अ०, स०, इ० । ५ उपशान्ति नीता। ६ मातु योग्य । ७-भिर्वृतः ल० । ८ अवधिज्ञान । -भिर्युतः ल० । १०-राजितः । ११ मन:पर्ययज्ञानिसहितः ।। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ महापुराणम् चतुष्पदादिभिस्तिर्यग्जातिभिश्चाभिषेवितः। चतुस्त्रिशदतीशेष विशेषलक्षितोदयः ॥२६८) प्रात्मोपाधिविशिष्टावबोधक सुखवीर्यसद् । देहसौन्दर्यवासोक्त सप्तसंस्थानसजगतः ॥२६॥ प्रातिहार्याष्टकोद्दिष्टनष्टघातिचतुष्टयः । वृषभाद्यन्वितार्थाष्टसहलाह्वयभाषितः ॥३०॥ विकासितविनेयाम्बुजावलिर्वचनांशुभिः। संवृताञ्जलिपङकेजमुकुलेनाखिलेशिना ॥३०१॥ भरतेन समभ्यर्च पृष्टोधर्ममभाषत । धियते धारयत्युच्च विनेयान् "कुगतेस्ततः ॥३०२॥ धर्म इत्युच्यते सद्भिश्चतुर्भेदं समाश्रितः। सम्यग्दृकज्ञानचारित्रतपोरूपः कृपापरः ॥३०३॥ जीवादिसप्तके तत्त्वे श्रद्धानं यत् स्वतोऽञ्जसा। "परप्रणयनाद् वा तत् सम्यग्दर्शनमुच्यते ॥३०४॥ शडकादिदोषनिर्मुक्तं भावत्रयविवेचितम् । तेषां जीवादिसप्तानां संशयादिविवर्जनात् ॥३०॥ याथात्म्पेन परिज्ञानं सम्यग्ज्ञानं समादिशेत् । यथा कर्मास्रवो न स्याच्चारित्रं संयमस्तया ॥३०६॥ निर्जरा कर्मणां येन तेन वृत्तिस्तपो मतम् । चत्वार्येतानि मिश्राणि कषायः स्वर्गहेतवः ॥३०७॥ निष्कषायाणि नाकस्य मोक्षस्य च हितैषिणाम् । चतुष्टयमिदं वम मुक्तेर्दुष्प्रापमङगिभिः ॥३०॥ मिथ्यात्वमवताचारः प्रमादाः सकषायता३ । योगाः शुभाशुभा जन्तोः कर्मणां बन्धहेतवः ॥३०॥ सेवा कर रहे हैं, चौंतीस अतिशय विशेषोंसे जिनका अभ्युदय प्रकट हो रहा है, जो केवल आत्मा से उत्पन्न होनेवाले विशिष्ट ज्ञान, विशिष्ट दर्शन, विशिष्ट सुख और विशिष्ट वीर्यको प्राप्त हो रहे हैं, जो शरीरकी सुन्दरतासे युक्त हैं, जो सज्जाति आदि सात परम स्थानोंसे संगत हैं, जो आठ प्रातिहार्योसे युक्त हैं, जिन्होंने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं, जो वृषभ आदि एक हजार आठ नामोंसे कहे जाते हैं और जिन्होंने भव्य जीवरूपी कमलोंके वनको प्रफुल्लित कर दिया है ऐसे भगवान् वृषभदेवके पास जाकर मुकुलित कमलके समान हाथ जोड़े हुए चक्रवर्ती भरतने उनकी पूजा की और धर्मका स्वरूप पूछा तब भगवान् इस प्रकार कहने लगे-- जो शिष्योंको कुगतिसे हटाकर उत्तम स्थानमें पहुंचा दे सत् पुरुष उसे ही धर्म कहते हैं । उस धर्मके चार भेद हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप। यह धर्म कर्तव्य प्रधान है ॥२८७-३०३॥ अपने आप अथवा दूसरेके उपदेशसे जीव आदि सात तत्त्वोंमें जो यथार्थ श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन कहलाता है ॥३०४॥ यह सम्यग्दर्शन शंका आदि दोषोंसे रहित होता है तथा औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीन भावों द्वारा इसकी विवेचना होती है अर्थात् भावोंकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके तीन भेद हैं। संशय, विपर्यय और अनध्यवसायका अभाव होनेसे उन्हीं जीवादि सात तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जिससे कर्मोंका आस्रव न हो उसे चारित्र अथवा संयम कहते हैं । ॥३०५-३०६॥ जिससे कर्मोंकी निर्जरा हो ऐसी वृत्ति धारण करना तप कहलाता है। ये चारों ही गण यदि कषाय सहित हों तो स्वर्गके कारण हैं और कषायरहित हों तो आत्माका हित चाहनेवाले लोगोंको स्वर्ग और मोक्ष दोनोंके कारण हैं। ये चारों ही मोक्षके मार्ग हैं और प्राणियोंको बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होते हैं ।।३०७-३०८॥ मिथ्यात्व, अव्रताचरण, (अविरति), प्रमाद, कषाय और शुभ-अशुभ योग ये जीवोंके कर्मबन्धके कारण हैं ॥३०९।। १ अतिशय । २ आत्मा उपाधिः कारणं यस्य। ३ वीर्यगः ल०, प०, इ०, अ०, स०। प्रशस्तसौन्दर्यवास । समवसरण। ४ सौन्दर्यवान् स्वोक्तसप्त-ल०, प०, इ०, अ०, स०। ५ अभ्युदयनिःश्रेयसरूपोन्नतस्थाने । ६ भव्यान् । ७ दुर्गतेः सकाशात् अपसार्य । ८ ततः कारणात् । ६ दयाप्रधानः । क्रियापरः ल० । १० परोपदेशात् । ११ औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभावैनिर्णीतम् । १२ विसर्जनात् ल०। १३ सकषायत्वम् । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व ५०५ मिथ्यात्वं पञ्चधा साष्टशतञ्चाविरतिर्मता । प्रमादाः पञ्चदश च कषायास्ते चतुर्विधाः ॥३१०॥ योगाः पञ्चदश ज्ञेयाः सम्यग्ज्ञानविलोचनैः। समलोत्तरभेदेन कर्माण्युक्तानि कोविदः॥३१॥ बन्धश्चतुर्विधो ज्ञेयः प्रकृत्यादिविकल्पितः। कर्माण्युदयसम्प्राप्त्या हेतवः फलबन्धयोः ॥३१२॥ तधूयं संतुतेहेंतं परित्यज्य गृहाश्रमम् । दोषदुःखजरामृत्युपापप्रायं भयावहम् ॥३१३॥ शक्तिमन्तस्समासनविनेया' विदितागमाः। गुप्त्यादिषविधं सम्यग् अनुगत्य यथोचितम् ॥३१४॥ प्रोक्तोपेक्षादिभेदेष वीतरागादिकेष च । पुलाकाविप्रकारेषु व्यपेतागारकादिषु ॥३१॥ प्रमतादिगुणस्थानविशेषेष च सुस्थिताः। निश्चयव्यवहारोक्तम् उपाध्वं मोक्षमुत्तमम् ॥३१६॥ तया गृहाश्रमस्थाश्च सम्यग्दर्शनपूर्वकम् । दानशीलोपवासाहदादिपूजोपलक्षिताः ॥३१७॥ प्राश्रितकादशोपासकवताः शुभाशयाः । सम्प्राप्तपरमस्थानसप्तकाः सन्तु धीधनाः॥३१८॥ इति "सतत्वसम्बर्मगर्भवाग्विभवात्प्रभोः । ससभो' भरताधीशः सर्वमेवममन्यत ॥३१॥ त्रिज्ञाननेत्रसम्यक्त्वशुद्धिभाग् देशसँयतः। स्रष्टारमभिवन्यायात् कैलासानगरोत्तमम् ॥३२०॥ जगस्त्रितयनाथोऽपि धर्मक्षेत्रेवनारतम । उत्त्वा सद्धर्मबीजानि न्यषिञ्चद्धर्मवृष्टिभिः ॥३२१॥ मिथ्यात्व पांच तरहका है, अविरति एक सौ आठ प्रकारकी है, प्रमाद पन्द्रह है, कषायके चार भेद हैं, और सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले लोगोंको योगके पन्द्रह भेद जानना चाहिये । विद्वानोंने कर्मोंका निरूपण मूल और उत्तरभेदके द्वारा किया है--कर्मोंके मूल भेद आठ हैं और उत्तरभेद एक सौ अडतालीस हैं ॥३१०-३१।। प्रकृति आदिके भेदसे बंध चार प्रकारका जानना चाहिये तथा कर्म उदयमें आकर ही फल और बन्धके कारण होते हैं। भावार्थपहलेके बँधे हुए कर्मोंका उदय आनेपर ही उनका सुख दुःख आदि फल मिलता है तथा नवीन कर्मोका बन्ध होता है ॥३१२॥ तुम लोग भक्तिमान् हो, निकटभव्य हो और आगमको जाननेवाले हो, इसलिये संसारके कारण स्वरूप-दोष, दुःख, बुढापा और मृत्यु आदि पापोंसे भरे हुए इस भयंकर गृहस्थाश्रमको छोड़कर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र इन छहोंका अच्छी तरह अभ्यास करो तथा जिनके उपेक्षा आदि भेद कहे गये हैं ऐसे वीतरागादि मनियोंमें, जिनके पलाक आदि भेद हैं ऐसे अनगारादि मनियोंमें अथवा प्रमत्त संयतको आदि लेकर उत्कृष्ट गुण-स्थानोंमें रहनेवाले प्रमत्तविरत आदि मुनियोंमेंसे किसी एककी अवस्था धारणकर निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकारके उत्तम मोक्षकी उपासना करो ॥३१३-३१६। इसी प्रकार गृहस्थाश्रममें रहनेवाले बुद्धिमान् पुरुष सम्यग्दर्शन पूर्वक दान, , उपवास तथा अरहंत आदि परमेष्ठियोंकी पूजा करें, शुभ परिणामोंसे श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाओंका पालन करें और यथायोग्य सज्जाति आदि सात परमस्थानोंको प्राप्त हों ॥३१७३१८॥ इस प्रकार भरतेश्वरने समीचीन तत्त्वोंकी रचनासे भरी हुई भगवान्की वचनरूप विभूति सुनकर सब सभाके साथ साथ कही हुई सब बातोंको ज्योंकी त्यों माना अर्थात उनका ठीक ठीक श्रद्धान किया ॥३१९।। मति, श्रुत, अवधि--इन तीनों ज्ञानरूपी नेत्रों और सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिको धारण करनेवाला देशसंयमी भरत भगवान् वृषभदेवकी वन्दनाकर कैलाश पर्वतसे अपने उत्तम नगर-अयोध्याको आया ॥३२०॥ इधर तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् आदिनाथने भी धर्मके योग्य क्षेत्रोंमें समीचीनधर्मका बीज बोकर उसे धर्मवृष्टिके १ चाष्टशतधाविरति -ल०, प०, अ०, स०, इ०। २ तत् कारणात् । ३ भक्ति -ल०, प०, इ०, अ०, स० । ४ अत्यासन्नभव्या: । ५ गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रभेदैः । ६ सुष्टु शोभनपरिणामाः। ७ पूर्वोत्तरतत्त्व । ८ पुरोस्सकाशात् । विभो ल०। ६ सभासहितः ।। ६४ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् -सतां सत्कलसम्प्राप्त्य विहरन् स्वगर्गःसमम । चतुर्दशदिनोतसहस्राब्दोनपूर्वकम् ॥३२२॥ लक्ष कैलासमासाद्य श्रीसिद्धशिखरान्तरे। पौर्णमासीदिने पौषे निरिच्छः समुपाविशत् ॥३२३॥ तदा भरतराजेन्द्रो महामन्दरभूधरम् । 'पाप्रागभारं व्यलोकिष्ट स्वप्ने दर्येण संस्थितम् ॥३२४॥ तदैव युवराजोऽपि स्वर्गादत्य महौषधिः । द्रमश्छित्वा नणां जन्मरोगं स्वर्यान्तमैक्षस' ॥३२॥ कल्पद्रुममभीष्टार्थं दत्वा नभ्यो निरन्तरम् । गृहेट निशामयामास स्वर्गप्राप्तिसमुद्यतम् ॥३२६॥ रत्नद्वीपं जिवक्षुभ्यों नानारत्नकदम्बकम् । प्रादायाभगमोद्युक्तम् अद्राक्षीत् सचिवाग्रिमः ॥३२७॥ वजपञ्जरमुद्भिद्य कैलासं गजवैरिणम् । उल्लङधयितुमुद्यन्तं सेनापतिमपश्यत ॥३२८॥ आलुलोके बुधो ऽनन्तवीर्यः श्रीमान् जयात्मजः । यान्तं त्रैलोक्यमाभास्य सतारं तारकेश्वरम् ॥३२९॥ यशस्वतीसुनन्दाभ्यां साद्ध शक्रमनःप्रिया। शोचन्तीश्चिरमद्राक्षीत् सुभद्रा स्वप्नगोचरा ॥३३०॥ वाराणसीपतिश्चित्राङगदोऽप्यालोकताकुलः। खमुत्पतन्तं भास्वन्तं प्रकाश्य धरणीतलम् ॥३३१॥ "एवमालोकितस्वप्ना राजराजपुरस्सराः। पुरोधसं फलं तेषाम् अपुच्छन्नर्यमोदये ॥३३२॥ कर्माणि हत्वा निर्मूलं मुनिभिर्बहुभिः समम् । पुरोः सर्वेऽपि शंसन्ति स्वप्नाः स्वर्गाग्रगामिताम् ॥३३३॥ इति स्वप्नफलं तेषां भाषमाणे पुरोहिते । तदैवानन्दनामैत्य भर्तुः१५ स्थितिमवेदयत् ॥३३४॥ ध्वनी भगवता दिव्ये संहृते मुकुलीभवत् । कराम्बुजा सभा जाता पूष्णीव सरसीत्यसौ ॥३३५॥ सींचा ॥३२॥ इस प्रकार सज्जनोंको मोक्षरूपी उत्तम फलकी प्राप्ति करानके लिये भगवान्ने अपने गणधरोंके साथ साथ एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम एक लाख पूर्व विहार किया । और जब आयुके चौदह दिन बाकी रह गये तब योगोंका विरोधकर पौष मासकी पौर्णमासीके दिन श्रीशिखर और सिद्धशिखरके बीच में कैलाश पर्वतपर जा विराजमान हुए ॥३२२-३२३।। उसी दिन महाराज भरतने स्वप्नमें देखा कि महामेरु पर्वत अपनी लम्बाई से सिद्ध क्षेत्र तक पहुंच गया है ॥३२४।। उसी दिन युवराज अर्ककीर्तिने भी स्वप्नमें देखा कि एक महौषधिका वृक्ष मनुष्योंके जन्मरूपी रोगको नष्टकर फिर स्वर्गको जा रहा है ।।३२५।। उसी दिन गहपतिने देखा कि एक कल्पवक्ष निरन्तर लोगोंके लिये उनकी इच्छानसार अभीष्ट फल देकर अब स्वर्ग जानेके लिये तैयार हुआ है ॥३२६॥ प्रधानमंत्रीने देखा कि एक रत्नद्वीप, ग्रहण करनेकी इच्छा करनेवाले लोगोंको अनेक रत्नोंका समूह देकर अब आकाशमें जानेके लिये उद्यत हुआ है ॥३२७॥ सेनापतिने देखा कि एक सिंह वज्रके पिंजड़ेको तोड़कर कैलाश पर्वतको उल्लंघन करनेके लिये तैयार हुआ है ।।३२८॥ जयकुमारके विद्वान् पुत्र श्रीमान् अनन्तवीर्यने देखा कि चन्द्रमा तीनों लोकोंको प्रकाशितकर ताराओं सहित जा रहा है ।।३२९।। सोती हुई सुभद्राने दखा कि यशस्वती और सुनन्दाके साथ बैठी हुई इन्द्राणी बहुत देरतक शोक कर रही है ॥३३०॥ बनारसके राजा चित्राङ्गदने घबड़ाहटके साथ यह स्वप्न देखा कि सूर्य पृथिवीतलको प्रकाशित कर आकाशकी ओर उड़ा जा रहा है ॥३३१॥ इस प्रकार भरतको आदि लेकर सब लोगोंने स्वप्न देखे और सूर्योदय होते ही सबने पुरोहितसे उनका फल पूछा ॥३३२॥ पुरोहितने कहा कि ये सभी स्वप्न कर्मोंको बिलकुल नष्ट कर भगवान् वृषभदेवका अनेक मुनियोंके साथ साथ मोक्ष जाना सूचित कर रहे हैं ।।३३३।। इस प्रकार पुरोहित उन सबके लिये स्वप्नोंका फल कह ही रहा था कि इतने में ही आनन्द नामका एक मनुष्य आकर भगवान्का सब हाल कहने लगा ॥३३४॥ उसने कहा कि भगवान्ने अपनी दिव्यध्वनिका १ पुष्यमासे । २ पूर्वसिद्धक्षेत्रपर्यन्तम् । ३ अर्ककीर्तिः । ४ स्वर्ग गतम् । ५ गृहपतिरत्नम् । ६ ददर्श । ७ गृहीतुमिच्छभ्यः । ८ बुद्धिमान् । ६ तारकासहितम् । १० स्त्रीरत्नम्। ११ एवं विलोकित-ल० । १२ सूर्योदये । १३ मोक्षगामित्वम् । १४ भरतादीनाम् । १५ पुरोः । १६ सूर्ये । इत्यसाववेदयदिति सम्बन्धः । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व तदाकर्णनमात्रेण सत्वरः सर्वसङ्गतः । चक्रवर्ती तमभ्येत्य' त्रिः परीत्य कृतस्तुतिः ॥३३६॥ महामहमहापूजां भक्त्या निर्वर्तयन्स्वयम् । चतुर्दश दिनान्येवं भगवन्तमसेवत ॥ ३३७॥ माघकृष्णचतुर्दश्यां भगवान् भास्करोदय । मुहूर्तेऽभिजिति प्राप्तपल्यङको मुनिभिः समम् ॥३३८ ॥ प्राग्दतीयेन शुक्लध्यानेन रुद्धवान् । योगत्रितयमन्त्येन ध्यानेनाघातिकर्मणाम् ॥३३६॥ पञ्च ह्रस्वस्वरोच्चारणप्रमाणेन संक्षयम् । कालेन विदधत्प्रान्त गुणस्थानमधिष्ठितः ॥ ३४० ॥ शरीरत्रितयापा प्राप्य सिद्धत्वपर्ययम् । निजाष्टगुण सम्पूर्णः क्षणाप्ततनुवातकः ॥ ३४१ ॥ नित्यो निरञ्जनः किञ्चिवूनो देहादमूर्तिभाक् । स्थितः स्वसुखसाद्भूतः पश्यन्विश्वमनारतम् ॥ ३४२ ॥ तदागत्य सुराः सर्वे प्रान्तपूजाचिकीर्षया । पवित्रं परमं मोक्षसाधनं शुचिनिर्मलम् ॥३४३॥ शरीरं भर्तुरस्येति परार्ध्यशिबिकापितम् । श्रग्रीन्द्ररत्नभाभासिप्रोत्तुङ्गमुकुटोद्भवा ॥ ३४४॥ चन्दनागुरुकर्पूरपारी काश्मीरजादिभिः । घृतक्षीरादिभिश्चाप्तवृद्धिना हुतभोजिना ॥ ३४५॥ जगद्गृहस्य सौगन्ध्यं सम्पाद्याभूतपूर्वकम् । तदाकारोपमर्देन पर्यायान्तरमानयन् ॥ ३४६॥ प्रचताग्निकुण्डस्य गन्धपुष्पादिभिस्तथा । तस्य दक्षिणभागेऽभूद् गणभृत्संस्क्रियानलः ॥ ३४७॥ तस्यापरस्मिन् दिग्भागे शेष केवलिकायगः । एवं वह्नित्रयं भूमौ अवस्थाप्यामरेश्वराः ॥ ३४८ ॥ संकोच कर लिया है इसलिये सम्पूर्ण सभा हाथ जोड़कर बैठी हुई है और ऐसा जान पड़ता है मानो सूर्यास्त के समय निमीलित कमलोंसे युक्त सरसी ही हो ।। ३३५ ।। यह सुनते ही भरत चक्रवर्ती - बहुत ही शीघ्र सब लोगोंके साथ साथ कैलाश पर्वतपर गया, वहां जाकर उसने भगवान् वृषभदेवकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं, स्तुति कीं और भक्तिपूर्वक अपने हाथसे महामह नामकी पूजा करता हुआ वह चौदह दिन तक इसी प्रकार भगवान्‌की सेवा करता रहा ।। ३३६-३३७॥ माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदयके शुभ मुहूर्त और अभिजित् नक्षत्रमें भगवान् वृषभदेव पूर्वदिशा की ओर मुँहकर अनेक मुनियोंके साथ साथ पर्यंकासनसे विराजमान हुए, उन्होंने तीसरे - सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामके शुक्ल ध्यानसे तीनों योगोंका निरोध किया और फिर अन्तिम गुणस्थानमें ठहरकर पांच लघु अक्षरोंके उच्चारण प्रमाण कालमें चौर्थ व्युपरत क्रियानिर्वात नामके शुक्लध्यानसे अघातिया कर्मोंका नाश किया । फिर औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीनों शरीरोंके नाश होनेसे सिद्धत्वपर्याय प्राप्तकर वे सम्यक्त्व आदि निजके आठ गुणोंसे युक्त हो क्षण भरमें ही तनुवातवलयमें जा पहुंचे तथा वहांपर नित्य, निरंजन, अपने शरीरसे कुछ कम, अमूर्त, आत्मसुखमें तल्लीन और निरन्तर संसारको देखते हु विराजमान हुए ।। ३३८ - ३४२ ॥ | उसी समय मोक्ष कल्याणककी पूजा करनेकी इच्छासे सब देव लोग आये उन्होंने “यह भगवान्‌का शरीर पवित्र, उत्कृष्ट, मोक्षका साधन, स्वच्छ और निर्मल है" यह विचारकर उसे बहुमूल्य पालकी में विराजमान किया । तदनन्तर जो अग्निकुमार देवोंके इन्द्रके रत्नोंकी कान्तिसे देदीप्यमान उन्नत मुकुटसे उत्पन्न हुई है तथा चन्दन, अगुरु, कपूर, केशर आदि सुगन्धित पदार्थों और घी दूध आदिसे बढ़ाई गई है ऐसी अग्निसे जगत्‌की अभूतपूर्व सुगन्धि प्रकट कर उसका वर्तमान आकार नष्ट कर दिया और इस प्रकार उसे दूसरी पर्याय प्राप्त करा दी ।। ३४३ - ३४६ ।। गन्ध, पुष्प आदिसे जिसकी पूजा की गई है ऐसे उस अग्निकुण्डके दाहिनी ओर गणधरोंके शरीरका संस्कार करनेवाली अग्नि स्थापित की और बांई ओर तीर्थंकर तथा गणधरोंसे अतिरिक्त अन्य सामान्य केवलियोंके शरीरका संस्कार १ जिनम् । २ लोकालोकम् । ३ निर्वाणपूजां कर्तुमिच्छया । ४ याने स्थापितम् । ५ मुकुटोद्भूतेन । ६ कर्पूरमणि । ७ कुङ कुमादिभिः । ८ पूर्वस्मिन्नजातम् । & शरीराकारोपमर्दनेन । १० भस्मीभावं चक्रुरित्यर्थः । ५०७ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ महापुराणम् ततो भस्म समादाय पञ्चकल्याणभागिनः । वयं चैवं भवामेति स्वललाटे भुजद्वये ॥३४॥ कण्ठे हृदयदेशच तेन' संस्पृश्य भक्तितः। तत्पवित्रतमं मत्वा धर्मरागरसाहिताः ॥३५०॥ तोषाद् सम्पादयामासुः सम्भूयानन्दनाटकम् । सप्तमोपासकाधास्ते सर्वेऽपि ब्रह्मचारिणः ॥३५१॥ गार्हपत्याभिधं पूर्व परमाहवनीयकम् । दक्षिणाग्नि ततो न्यस्य सन्ध्यासु तिसृषु स्वयम् ॥३५२॥ तच्छिखित्रयसान्निध्य चक्रमातपवारणम् । जिनेन्द्रप्रतिमाश्चैवा स्थाप्य मन्त्रपुरस्सरम्॥३५३॥ तास्त्रिकालं समभ्यर्च्य गृहस्थविहितादराः । भवतातिथयों यूयमित्याचख्युरुपासकान् ॥३५४॥ स्नेहेनेष्टवियोगोत्थः प्रदीप्तः शोकपावकः । तदा प्रबुद्धमप्यस्य चेतोऽ धाक्षीदधीशितुः ॥३५५॥ गणी वृषभसेनाख्यस्तच्छोकापनिनीषया । प्राक्रस्त वक्तुं सर्वेषां स्वेषां व्यक्तां भवावलीम् ॥३५६।। जयवर्मा भवे पूर्वे द्वितीयेऽभून्महाबलः । तृतीये ललिताङगाख्यो वनजङ्घश्चतुर्थके ॥३५७॥ पञ्चमे भोगभूजोऽभूत् षष्ठेऽयं श्रीधरोऽमरः । सप्तमे सुविधिः क्षमाभूद् अष्टमेऽच्युतनायकः ॥३५८॥ नवमे वजनाभीशो दशोऽनुत्तरान्त्यजः । ततोऽवतीर्य सर्वेन्द्रवन्दितो वृषभोऽभवत् ॥३५६॥ धनश्रीरादिमे जन्मन्यतो निर्णायिका ततः। स्वयंप्रभा ततस्तस्माच्छीमत्यार्या ततोऽभवत् ॥३६०॥ स्वयंप्रभः सुरस्तस्माद् अस्मादपि च केशवः । ततः प्रतीन्द्रस्तस्माच्च धनदत्तोऽहमिन्द्रताम् ॥३६१॥ गतस्ततस्ततः श्रेयान दानतीर्थस्य नायकः । प्राश्चर्यपञ्चकस्यापि प्रथमोऽभूत प्रवर्तकः ॥३६२॥ करनेवाली अग्नि स्थापित की, इस प्रकार इन्द्रोंने पृथिवीपर तीन प्रकारकी अग्नि स्थापित की। तदनन्तर उन्हीं इन्द्रोंने पंच कल्याणकको प्राप्त होनेवाले श्री वृषभदेवके शरीरकी भस्म उठाई और 'हम लोग भी ऐसे ही हों' यही सोचकर बड़ी भक्तिसे अपने ललाटपर दोनों भुजाओंमें, गलेमें और वक्षःस्थलमें लगाई । वे सब उस भस्मको अत्यन्त पवित्र मानकर धर्मानुरागके रससे तन्मय हो रहे थे ॥३४७-३५०॥ सबने मिलकर बड़े संतोषसे आनन्द नामका नाटक किया और फिर श्रावकोंको उपदेश दिया कि 'हे सप्तमादि प्रतिमाओंको धारण करनेवाले सभी ब्रह्मचारियो, तुम लोग तीनों संध्याओंमें स्वयं गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि इन तीन अग्नियोंकी स्थापना करो, और उनके समीप ही धर्मचक्र, छत्र तथा जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाओं की स्थापनाकर तीनों काल मन्त्रपूर्वक उनकी पूजा करो। इस प्रकार गृहस्थोंके द्वारा आदर सत्कार पाते हुए अतिथि बनो' ॥३५१-३५४॥ इधर उस समय इष्टके वियोगसे उत्पन्न हुई और स्नेहसे प्रज्वलित हुई शोकरूपी अग्नि भरतके प्रबुद्ध चित्तको भी जला रही थी ॥३५५॥ जब भरतका यह हाल देखा तब वृषभसेन गणधर भरतका शोक दूर करनेकी इच्छा से अपने सब लोगोंके पूर्वभव स्पष्ट रूपसे कहने लगे ॥३५६॥ उन्होंने कहा कि वृषभदेवका जीव पहले भवमें जयवर्मा था दूसरे भवमें महाबल हुआ, तीसरं भवमं ललिताङ्गदव और चौथं भवमं राजा वनजंघहुआ। पांचवें भवमं भोगभमिका आर्य हुआ। छठवें भवमें श्रीधरदेव हआ, सातवें भवमें सविधि राजा हआ। आठवें भवमें अच्युतेन्द्र हुआ, नौवें भवमें राजा वज्रनाभि हुआ, दशवें भवमें सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ और वहांसे आकर सब इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय वृषभदेव हुआ है ॥३५७-३५९।। श्रेयान् का जीव पहले भवमें घनश्री था, दूसरे भवमें निर्णामिका, तीसरे भवमें स्वयंप्रभा देवी, चौथे भवमें श्रीमती, पांचवें भवमें भोगभूमिकी आर्या, छठवें भवमें स्वयंप्रभदेव, सातवें भवमें केशव, आठवें भवमें अच्युतस्वर्गका प्रतीन्द्र, नौवें भवमें धनदत्त, दशवें भवमें अहमिन्द्र हुआ और वहांसे १ भस्मना। २ भस्म । ३ संस्थाप्य। ४ चावस्थाप्य ल०, ५०, इ०, स० । ५ पात्रतयाभीक्षकाः। ६ चक्रिणः । ७ दहति स्म । ८ भरतस्य शोकमपनेतुमिच्छया । ६ प्रारभते स्म । १० सर्वार्थसिद्धिजः । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व ५०६ प्रतिगद्धः पुरा पश्चान्नारकोऽन चमूरकः । दिवाकरप्रभो देवस्तथा मतिवराह्वयः ॥३६३॥ ततोऽहमिन्द्रस्तस्माच्च सुबाहुरहमिन्द्रताम् । प्राप्य त्वं भरतो जातः षट्खण्डाखण्डपालकः ॥३६४॥ आद्यः सेनापतिः पश्चादार्यस्तस्मात्प्रभडकरः। ततोऽकम्पनभूपालः कल्पातीतस्ततस्ततः ॥३६॥ महाबाहुस्ततश्चाभूद् अहमिन्द्रस्ततश्च्युतः । एष बाहुबली जातो जातापूर्वमहोदयः ॥३६६॥ मन्त्री प्राग्भोगभूजोऽनु सुरोऽन कनकप्रभः । प्रानन्दोऽन्वमिन्द्रोऽनु ततः पीठाह्वयस्ततः ॥३६७॥ अहमिन्द्रोऽग्रिमोऽभूवम् अहमद्य गणाधिपः । पुरोहितस्ततश्चार्यो बभूवास्मत्प्रभञ्जनः ॥३६॥ धनमित्रस्ततस्तस्माद् अहमिन्द्रस्ततश्च्युतः। महापीठोऽहमिन्द्रोऽस्माद् अनन्तविजयोऽभवत् ॥३६६॥ उग्रसेनश्चमूरोऽतो भोगभूमिसमुद्भवः । ततश्चित्राङगदस्तस्माद् वरदत्तः सुरो जयः ॥३७०॥ ततो गत्वाऽहमिन्द्रोऽभूत्तस्माच्चागत्य भूतलम् । महासेनोऽभवत् कर्ममहासेनाजयोजितः ॥३७१॥ हरिवाहननामाद्यो वराहार्यस्ततोऽभवत् । मणिकुण्डल्यतस्तस्माद् बरसेनः सुरोत्तमः ॥३७२॥ ततोऽस्माद् विजयस्तस्माद् अहमिन्द्रो दिवश्च्युतः । अजनिष्ट विशिष्टेष्टः श्रीषणः सेवितः श्रिया ॥२७३॥ नागदत्तस्ततो वानरार्योऽस्माच्च मनोहरः । देवश्चित्राङगदस्तस्माद् अभूत सामानिकः सुरः ॥३७४॥ ततश्च्युतो जयन्तोऽभूद् अहमिन्द्रस्ततस्ततः। महीतलं समासाद्य गुणसेनोऽभवद् गणी ॥३७॥ आकर दानतीर्थका नायक तथा पंचाश्चर्यकी सबसे पहले प्रवृत्ति करानेवाला राजा श्रेयान् हुआ है ।।३६०-३६२।। तेरा जीव पहले भवमें अतिगृद्ध नामका राजा था, दूसरे भवमें नारकी हुआ, तीसरे भवमें शार्दूल हुआ, चौथे भवमें दिवाकर प्रभदेव हुआ, पांचवें भवमें मतिवर हुआ, छठवें भवमें अहमिन्द्र हुआ, सातवें भवमें सुबाहु हुआ, आठवें भवमें अहमिन्द्र हुआ और नौवें भवम छह खण्ड पृथिवीका अखण्ड पालन करनेवाला भरत हुआ है ।।३६३-३६४॥ बाहुबलीका जीव पहले सेनापति था, फिर भोगभूमिमें आर्य हुआ। उसके बाद प्रभंकर देव हुआ तदनन्तर अकंपन हुआ, उसके पश्चात् अहमिन्द्र हुआ, फिर महाबाहु हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब उसके बाद अपूर्व महा उदयको धारण करनेवाला बाहुबली हुआ है ॥३६५-३६६।। मैं पहले भवमें राजा प्रीतिवर्धनका मंत्री था, उसके बाद भोग-भूमिका आर्य हुआ, फिर कनकप्रभ देव हुआ, उसके पश्चात् आनन्द हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ, वहांसे आकर पीठ हुआ, फिर सर्वार्थसिद्धिका अहमिन्द्र हुआ और अब भगवान् वृषभदेवका गणधर हुआ हूं। अनन्तविजयका जीव सबसे पहले पुरोहित था, फिर भोगभूमिका आर्य हुआ, उसके बाद प्रभंजन नामका देव हुआ, फिर धनमित्र हुआ, उसके पश्चात् अहमिन्द्र हुआ, उसके अनन्तर महापीठ हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब अनन्तविजय गणधर हुआ है ॥३६७-३६९॥ महासेन पहले भवमें उग्रसेन था, दूसरे भवमें शार्दूल हुआ, तीसरे भवमें भोगभूमिका आर्य हुआ, चौथे भवमें चित्राङ्गद देव हुआ, पांचवें भवमें वरदत्त राजा हुआ, छठवें भवमें देव हुआ, सातवें भवमें जय हुआ, वहांसे चलकर आठवें भवमें अहमिन्द्र हुआ और नौवें भवमें वहांसे पृथिवीपर आकर कर्मरूपी महासेनाको जीतने में अत्यन्त बलवान् महासेन हुआ है ॥३७०-३७१॥ श्रीषेणका जीव पहले भवमें हरिवाहन था, दूसरे भवमें वराह हुआ, तीसरे भवमें भोगभूमिका आर्य हुआ, चौथे भवमें मणिकुण्डली देव हआ, पांचवें भवमें वरसेन नामका राजा हआ, छठवें भवमें उ देव हुआ, सातवें भवमें विजय हुआ, आठवें भवमें अहमिन्द्र हुआ और नौवें भवमें अतिशय पूज्य तथा लक्ष्मीसे सेवित श्रीषण हुआ है ॥३७२-३७३॥ गुणसेनका जीव पहले नागदत्त था, फिर वानर हुआ, उसके बाद भोगभूमिका आर्य हुआ, फिर मनोहर नामका देव हुआ, उसके पश्चात् चित्राङ्गद नामका राजा हुआ, फिर सामानिक देव हुआ, वहांसे च्युत होकर १ व्याघः । २ पूर्वभवे । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् लोपोनकुलार्योऽस्माद् एतस्मात्समनोरथः। ततोऽपि शान्तमदनस्ततः सामानिकामरः ॥३७६॥ . राजाऽपराजितस्तस्मादहमिन्द्रस्ततोऽजनि । ततो ममानुजो जातो जयसेनोऽयमूजितः ॥३७७॥ इत्यस्मिन्भवसडाकटे भवभूतः स्वेष्टरनिष्टस्तथा। संयोगः सहसा वियोगचरमः सर्वस्य नन्वीदृशम् । त्वं जाननपि कि विषण्णहृदयो विश्लिष्टकर्माष्टको निर्वाण भगवानवापदतुलं तोषे विषादः कुतः ॥३७॥ वयमपि चरमाडगाः सङगमाच्छद्धबुद्धेः सकलमलविलोपापादितात्मस्वरूपा । निवपमसुखसारं चक्रवत्तिस्तदीयं पदमचिरतरेण प्राप्नुमोऽनाप्यमन्यः॥३७६॥ भवतु सुहृदां मृत्यौ शोकः शुभाशुभकर्मभिः - भवति हि स चेत्तेषामस्मिन्पुनर्जननावहः । विनिहतभव प्रायें तस्मिन् स्वयं समुपागते कथमयमहो धीमान कर्याच्छचं यदि नो रिपुः ॥३८०॥ अष्टापि दुष्टरिपवोऽस्य समूलतूल' नष्टा गुणैर्गुरुभिरष्टभिरेष जुष्टः । किं नष्टमत्र निधिनाथ जहीहि मोहं। 'सन्धेहि शोकविजयाय धियं विशुद्धाम् ॥३८१॥ जयन्त हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब वहांसे पृथिवीपर आकर गुणसेन नामका गणधर हुआ है ॥३७४-३७५।। जयसेनका जीव पहले लोलुप नामका हलवाई था, फिर नेवला हुआ, उसके बाद भोगभूमिका आर्य हुआ, फिर मनोरथ नामका देव हुआ, उसके पश्चात् राजा शान्तमदन हुआ, फिर सामानिक देव हुआ, तदनन्तर राजा अपराजित हुआ, फिर अहमिन्द्र हुआ और अब मेरा छोटा भाई अतिशय बलवान् जयसेन हुआ है ॥३७६-३७७।। श्री वृषभसेन गणधर चक्रवर्ती भरतसे कह रहे हैं कि इस संसाररूपी संकटमें इसी प्रकार सब प्राणियोंको इष्ट-अनिष्ट वस्तुओंका संगम होता है और अन्तमें अकस्मात् ही उसका नाश हो जाता है, तू यह सब जानता हुआ भी इतना खिन्नहृदय क्यों हो रहा है ? भगवान् वृषभदेव तो आठों कर्मोको नष्टकर अनुपम मोक्षस्थानको प्राप्त हुए हैं फिर भला ऐसे संतोषके स्थानमें विषाद क्यों करता है ? ॥३७८॥ हे चक्रवर्तिन्, हम सब लोग भी चरमशरीरी हैं, शुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाले भगवानके समागमसे सम्पूर्ण कर्ममलको नष्टकर आत्मस्वरूपको प्राप्त हुए हैं और अनुपम सुखसे श्रेष्ठ तथा अन्य मिथ्यादृष्टियोंके दुर्लभ उन्हीं भगवान्के पदको हम लोग भी बहुत शीघ्र प्राप्त करेंगे ।।३७९॥ इष्ट मित्रोंकी मृत्यु होनेपर शोक हो सकता है क्योंकि उनकी वह मृत्यु शुभ अशुभ कर्मोंसे होती है और फिर भी इस संसारमें उनका जन्म करानेवाली होती है, परन्तु जिसने संसारका नाश कर दिया है और निरन्तर जिसकी प्रार्थना की जाती है ऐसा सिद्ध पद यदि स्वयं प्राप्त हो जावे तो इस बुद्धिमान् मनुष्यको यदि वह शत्रु नहीं है तो शोक कैसे करना चाहिये ? भावार्थ-हर्षके स्थानमें शत्रुको ही शोक होता है, मित्रको नहीं होता इसलिये तुम सबको आनन्द मानना चाहियं न कि शोक करना चाहियं ॥३८०।। हे निधिपते, भगवान् वृषभदेवको आठों ही दुष्ट शत्र जड़ और शाखा सहित बिलकूल १ वृषभसेनभरतादयः । २ पुरोः सम्बन्धि । ३ अप्रापणीयम् । ४ मृत्युः । ५ संसारे । ६ मृत्यौ । ७ कारणसहितम्। ८ सेवितः । ६ सम्यग् धारय । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व देहच्युतौ यदि गुरोर्गुरु' शोचसि त्वं तं 'भस्मसात्कृतिमवाप्य' विवृद्धरागाः । प्राग्जन्मनोऽपि परि कर्मकृतोऽस्य कस्माद् प्रानन्दनत्तमधिकं विदधुर्घनाथाः ॥३८२॥ नेक्षे विश्वदर्श शुणोमि न वचो दिव्यं तदङघिद्वय नमस्तनखभाविभासिमुकुटं कतुं लभे नाधुना । तस्मात् स्नेहवशोऽस्म्यहं बहतरं शोकीति चेदस्त्विदं किन्तु भ्रान्तिरियं व्यतीतविषयप्राप्त्यै भवत्प्रार्थना ॥३८३॥ त्रिज्ञानवत् त्रिभुवनैकगुरुर्गुरुस्ते स्नेहेन मोहविहितेन विनाशयः किम् । स्वोदात्ततां शतमखस्य न लज्जसे कि तस्मात्तव प्रथममुक्तितिं न वेत्सि३ ॥३८४॥ इष्टं कि किमनिष्टमत्र वितथं सङकल्प्य जन्तुर्जडः किञ्चिद्वेष्टयपि वष्टि" किञ्चिदनयोः कर्यादपि व्यत्ययम् । "तेनैनोऽनुगतिस्ततो भववन भव्योऽप्यभव्योपमो भ्राम्यत्येष कुमार्गवृत्तिरधनो" वाऽऽतडकभीदुःखितः ॥३८५॥ ही नष्ट हो गये हैं और अब वे आठ बड़े बड़े गुणोंसे सेवित हो रहे हैं, भला, इसमें क्या हानि हो गई? इसलिये अब त मोह छोड़ और शोकको जीतनके लिये विशद्ध बद्धिको धारण कर ॥३८१॥ पूज्य पिताजीका शरीर छूट जानेसे यदि तू इतना अधिक शोक करता है तो बतला, जन्मसे पहले ही उनकी सेवा करनेवाले और बढ़े हुए अनुरागको धारण करनेवाले ये देव लोग भगवान्के शरीरको भस्म कर इतना अधिक आनन्द नृत्य क्यों कर रहे हैं ? भावार्थ-ये देव लोग भी भगवान्से अधिक प्रेम रखते थे, जन्मसे पहले ही उनकी सेवामें तत्पर रहते थे फिर ये उनके शरीरको जलाकर क्यों आनन्द मना रहे हैं इससे मालूम होता है कि भगवान्का शरीर छूट जाना दुःखका कारण नहीं है तू व्यर्थ ही क्यों शोक कर रहा है ? ॥३८२॥ कदाचित् । यह कहेगा कि 'अब मैं उनके दर्शन नहीं कर रहा हूं, उनके दिव्य वचन नहीं सुन रहा हं, और उनके दोनों चरणोंमें नम्र होकर उनके नखोंकी कान्तिसे अपने मुकुटको देदीप्यमान नहीं कर पाता हूं, इसलिये ही स्नेहके वशसे आज मुझे बहुत शोक हो रहा है तो तेरा यह कहना ठीक है परन्तु बीती हुई वस्तुके लिये प्रार्थना करना तेरी भूल ही है ॥३८३॥ हे भरत, तेरे पिता तो तीनों लोकोंके अद्वितीय गुरु थे और तू भी तीन ज्ञानोंका धारक है फिर इस मोहजात स्नेहसे अपनी उत्तमता क्यों नष्ट कर रहा है ? क्या तुझे ऐसा करते हुए इन्द्रसे लज्जा नहीं आती ? अथवा क्या तू यह नहीं समझता है कि मैं इन्द्रसे पहले ही मोक्षको प्राप्त हो जाऊंगा ? ।३८४।। इस संसारमें क्या इष्ट है ? क्या अनिष्ट है ? फिर भी यह मुर्ख प्राणी व्यर्थ ही संकल्प कर किसीसे द्वेष करता है, किसीको चाहता है और कभी दोनोंको उलटा समझ लेता है, इसलिये ही इसके पापकी परम्परा चलती रहती है और इसलिये ही यह भव्य होकर भी . १ बहलं यथा भवति तथा । २ देहम् । ३ भस्माधीनम् । ४ नीत्वा । ५ उत्पत्तरादावपि । ६ परिचर्याकराः । ७ वृषभस्य । ८ तस्य नखकान्त्या भासत इति। ६ भो त्रिज्ञानधारिन् भरत । १० अज्ञानकृतेन । ११ भवदुदात्तत्वम् । १२ शतमखात् । १३ न जानासि किम् । १४ वाञ्छति । १५ कारणेन । १६ पापानुगतिः । १७ निर्धन इव । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ महापुराणम् भव्यस्यापि भवोऽभवद् भवगतः कालादिलब्धेविना कालोऽनादिरचिन्त्यदुःखनिचितो धिक धिक स्थिति संसृतेः । इत्येतद्विदुषाऽत्र शोच्यमथवा तच्च यद्देहिनाम् भव्यत्वं बहुधा महोश सहजा वस्तुस्थितिस्तादशी ॥३८६॥ गतानि सम्बन्धशतानि जन्तोरनन्तकालं परिवर्तनेन नावे हि किं त्वं हि विबुद्धविश्वो वर्थव मुहये कि मिहेतरो वा ॥३८७॥ कर्मभिः कृतमस्यापि न स्थास्तु त्रिजगत्पतेः । शरीरादि ततस्त्याज्यं मन्वते तन्मनीषिणः ॥३८॥ प्रागक्षिगोचरः सम्प्रत्यष चेतसि वर्तते । भगवास्तत्र कः शोकः पश्यनं तत्र सर्वदा ॥३८६॥ इति मनसि यथार्थ चिन्तयन् शोकर्वाह्न शमय विमलबोधाम्भोभिरित्यावभाषे। गणभदथ स चक्री दावदग्धो महीधो _नवजलदजला तद्वचोभिः प्रशान्तः ॥३६०॥ चिन्तां व्यपास्य गुरुशोककृतां गणेशम् आनम्य नममुकटो निकटात्मबोधिः । निन्दनितान्तनितरां निजभोगतष्णां मोक्षोष्णक: स्वनगरं व्यविशद् विभूत्या ॥३६१ अभव्यकी तरह दुखी, निर्धन, कुमार्गमें प्रवृत्ति करनेवाला और रोगोंसे भयभीत होता हुआ इस संसाररूपी वनमें भ्रमण करता रहता है ।।३८५।। काल आदि लब्धियोंके बिना पूज्य भव्य जीवको भी संसारमें रहना पड़ता है, यह काल अनादि है तथा अचिन्त्य दुःखोंसे भरा हुआ है इसलिये संसारकी इस स्थितिको बार बार धिक्कार हो, यही सब समझ विद्वान् पुरुषको इस संसारमें शोक नहीं करना चाहिये अथवा जीवोंका यह भव्यत्वपना भी अनेक प्रकारका होता है । हे राजन्, वस्तुका सहज स्वभाव ही ऐसा है ॥३८६॥ हे भरत, तू तो संसारका स्वरूप जाननेवाला है, क्या तू यह नहीं जानता कि अनन्त कालसे परिवर्तन करते रहनेके कारण इस जीवके सैकड़ों सम्बन्ध हो चुके हैं ? फिर क्यों अज्ञानीकी तरह व्यर्थ ही मोहित होता है ॥३८७।। तीनों लोकोंके अधिपति भगवान् वृषभदेवका शरीर भी तो कर्मोंके द्वारा किया हुआ है इसलिये वह भी स्थायी नहीं है और इसलिये ही विद्वान् लोग उसे हेय समझते हैं ॥३८८॥ जो भगवान् पहले आंखोंसे दिखाई देते थे वे अब हृदयमें विद्यमान् हैं इसलिये इसमें शोक करनेकी क्या बात है ? तू उन्हें अपने चित्तमें सदा देखता रह ॥३८९।। इस प्रकार मनमें वस्तुके यथार्थ स्वरूपका चिन्तवन करता हुआ तू निर्मल ज्ञानरूपी जलसे शोकरूपी अग्नि शान्त कर, ऐसा गणधर वषभसेनने कहा तब चक्रवर्ती भी जिस प्रकार दावानलसे जला हआ पर्वत नवीन बादलोंके जलसे शान्त हो जाता है उसी प्रकार उनके वचनोंसे शान्त हो गया ॥३९०। जिसे आत्मज्ञान शीघ्र होनेवाला है और जिसका मुकुट नम्रभूत हो रहा है ऐसे भरतने पिताके शोकसे उत्पन्न हुई चिन्ता छोड़कर गणधरदेवको नमस्कार किया और अत्यन्त बढ़ी हुई अपनी भोगविषयक तृष्णाकी निन्दा करते हुए तथा मोक्षके लिये उत्सुक होते हुए उसने बड़े वैभवके साथ अपने नगरमें प्रवेश किया ॥३९१॥ १ संसारानुगतः । २ संसारे। ३ शोकविषयम् । ४ अन्य अज्ञ इवेत्यर्थः । ५ चेतसि । ६ मुक्त्युद्योगे दक्षः । 'दक्षे तु चतुरपेशलपटवः । सूत्थान उष्णश्च' इत्यभिधानात् शीघ्रकारी वर्गः । मोक्षोत्सुक: ल । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तमं पर्व श्रथ कदाचिदसौ वदनाम्बुजं समभिवीक्ष्य समुज्ज्वलदर्पणे । पलितमैक्षत दूतमिवागतं परमसौख्यपदात् पुरुसन्निधेः ॥३६२॥ श्रालोक्य तं गलितमोहरसः स्वराज्यं मत्वा जरत्तृणमिवोद्गत बोधिरुद्यन्' । श्रादातुमात्महितमात्मजमर्ककीर्ति लक्ष्म्या स्वया स्वयमयोजयजितेच्छः ॥ ३६३॥ विदितसकलतत्त्वः सोऽपवर्गस्य मार्ग जिगमिषुरपस' गमं निष्प्रयासम् । "यमसमितिसमग्रं संयमं शम्बलं वा sदित विदितस' मर्याः किं परं प्रार्थयन्ते ॥ ३६४ ॥ मन:पर्ययज्ञानमप्यस्य सद्यः समुत्पन्नवत् केवलं चानु' तस्मात्" । तदेवाभवद् भव्यता तादृशी सा विचित्राङगिनां निर्वृतेः प्राप्तिरत्र ॥ ३६५॥ स्वदेशोद्भवंरेव" सम्पूजितोऽसौ सुरेन्द्रादिभिः साम्प्रतं वन्द्यमानः । त्रिलोकाधिनाथोऽभवत्किं न साध्यं तपो दुष्करं चेत् समादातुमीशः १२ ॥ ३६६॥ अथानन्तर भरत महाराजने किसी समय उज्ज्वल दर्पणमें अपना मुखकमल देखकर परम सुखके स्थान स्वरूप भगवान् वृषभदेवके पाससे आये हुए दूतके समान सफेद बाल देखा ।। ३९२ ।। उसे देखकर जिनका सब मोहरस गल गया है, जिन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ है जो आत्महितको ग्रहण करनेके लिये उद्युक्त हैं और जिनकी वैराग्यविषयक इच्छा अत्यन्त सुदृढ़ तथा वृद्धिशील है ऐसे भरतने अपने राज्यको जीर्णतृणके समान मानकर अपने पुत्र अर्ककीर्तिको अपनी लक्ष्मी से युक्त किया अर्थात् अपनी समस्त सम्पत्ति अर्ककीर्तिको प्रदान कर दी ॥ ३९३॥ जिसने समस्त तत्त्वोंको जान लिया है और जो हीन जीवोंके द्वारा अगम्य मोक्षमार्ग में गमन करना चाहते हैं ऐसे चक्रवर्ती भरतने मार्ग हितकारी भोजनके समान प्रयासहीन यम तथा समितियोंसे पूर्ण संयमको धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि पदार्थके यथार्थ स्वरूपको समझने वाले पुरुष संयम के सिवाय अन्य किस पदार्थकी प्रार्थना करते हैं। ? ॥३९४॥ उन्हें उसी समय मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया और उसके बाद ही केवलज्ञान प्रकट हो गया । उनकी वैसी भव्यता उसी समय प्रकट हो गई सो ठीक ही है क्योंकि प्राणियोंको मोक्षकी प्राप्ति बड़ी विचित्र होती है ।। ३९५ ।। जो भरत पहले अपने देशमें उत्पन्न हुए राजाओंसे ही पूजित थे वे अब इन्द्रोंके द्वारा भी वन्दनीय हो गये । इतना ही नहीं, तीन लोकके स्वामी भी हो गये सो ठीक ही है जो कठिन तपश्चरण ग्रहण करनेके लिये समर्थ रहता है उसे क्या क्या वस्तु साध्य ५१३ १ उत्समानः । २ गन्तुमिच्छुः । ३ अपगतबलैः । ४ मूलगुणसमूह । ५ पादेयमिव । ६ स्वीकृतवान् । ७ ज्ञातसमीचीनार्थाः । ज्ञातार्थक्रियासमर्था वा । ८ समुद्भूतम् । ६ पश्चात् । १० संयमात् । ११ षट्खण्डनैः । १२ समर्थः । ६५ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ परिचितयतिहंसो' धर्मष्टि निषिञ्चन नभसि कृतनिवेशो निर्मलस्तुङगवृत्तिः। फलमविकलमन्यं भव्यसस्येषु कुर्वन् व्यहरदखिलदेशान् शारदो वा स मेघः ॥३६७॥ विहृत्य सुचिरं विनयजनतोपकृत्स्वायुषो, महर्तपरिमास्थितौ' विहितसस्क्रियो विच्यतौ। तनुत्रितयबन्धनस्य गुणसारमूत्तिः स्फुरन् जगत्त्रयशिखामणिःसुखनिधिः स्वधाम्नि स्थितः ॥३९८॥ सर्वेऽपि ते वृषभसेन मुनीशमुख्याः सौख्यं गताः सकलजन्तुषु शान्तचित्ताः । कालक्रमेण यमशीलगुणाभिपूर्णा निर्वाणमापुरमितं गुणिनो गणीन्द्राः ॥३६॥ यो नेतेव पृथु जघान दुरिताराति चतुस्साधनो येनाप्तं कनकाश्मनेव विमलं रूपं स्वमाभा स्वरम् । प्राभेजुश्चरणौ सरोजजयिनौ यस्यालिनो वाऽमरा . स्तं त्रैलोक्यगुरु पुरु श्रितवतां श्रेयांसि वः स क्रियात् ॥४००॥ योऽभूत्पञ्चदशो विभुः कुलभृतां तीर्थेशिनां चाग्निमो दृष्टो येन मनुष्यजीवन विधिर्मुक्तेश्च मार्गो महान् । बोधो रोध विमुक्तवृसिरखिलो यस्योदयाद्यन्तिमः१० स श्रीमान जनकोऽखिला"वनिपतराद्यः स दद्याच्छियम् ॥४०१॥ नहीं है अर्थात् सभी वस्तुएं उसे साध्य हैं ॥३९६॥ मुनिरूपी हंस जिनसे परिचित हैं, जो धर्मकी वर्षा करते रहते हैं, जो आकाशमें निवास करते हैं, निर्मल हैं, उत्तमवृत्तिवाले हैं (पक्षमें ऊंचे स्थानपर विद्यमान रहते हैं) और जो भव्य जीवरूपी धानोंमें मोक्षरूपी पूर्ण फल लगानेवाले हैं ऐसे भरत महाराजने शरद् ऋतुके मेघके समान समस्त देशोंमें विहार किया ॥३९७॥ चिरकालतक विहारकर जिन्होंने शिक्षा देने योग्य जनसमूहका बहुत भारी कल्याण किया है ऐसे भरत महाराजने अपनी आयुकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति बाकी रहनेपर योगनिरोध किया और औदारिक, तैजस तथा कार्माण इन तीन शरीररूप बन्धनोंके नष्ट होनेपर सम्यक्त्व आदि सारभूत गुण ही जिनकी मूर्ति रह गई है, जो प्रकाशमान हैं, जगत्त्रयके चूड़ामणि हैं और सुखके भाण्डार हैं ऐसे वह भरतेश्वर आत्मधाममें स्थित हो गये अर्थात मोक्ष ॥३९८।। जो समस्त जीवोंके विषयमें शान्तचित्त हैं, उत्तम सुखको प्राप्त हैं, यम शील आदि गुणोंसे पूर्ण हैं, गुणवान् हैं और गण अर्थात् मनिसमूहके इन्द्र हैं ऐसे वृषभसेन आदि मुख्य मुनिराज भी कालक्रमसे अपरिमित निर्वाणधामको प्राप्त हुए ॥३९९।। जिन्होंने नेताकी तरह चार आराधनारूप चार प्रकारकी सेनाको साथ लेकर पापरूपी विशाल शत्रुको नष्ट किया था, जिन्होंने सुवर्ण पाषाणके समान अपना देदीप्यमान स्वरूप प्राप्त किया है, भ्रमरोंके समान सब देवलोग जिनके कमलविजयी चरणोंकी सेवा करते हैं और जो तीन लोकके गुरु हैं ऐसे श्री भगवान् वृषभदेवकी सेवा करनेवाले तुम सबको वे ही कल्याण प्रदान करनेवाले हों ॥४००। जो कुलकरोंमें पन्द्रहवें कुलकर थे , तीर्थ करोंमे प्रथम तीर्थ कर थे, जिन्होंने मनुष्योंकी जीविका १ परिवेष्टितयतिमुख्यः । २ भव्यजनसमूहस्योपकारि। ३ मुहूर्तपरिसमास्थितौ सत्याम् । ४ सख्यं ल०। ५ सेनापतिरिव। ६ चतुर्विधाराधनसाधनः। ७ आ समन्ताद् भास्वरम् । ८ जीवितकल्पः । ६ आवरणविभुक्तः । १० उत्पन्नवान्। ११ भरतस्य । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व साक्षात्कृतप्रथितसप्तपदार्थसार्थः सद्धर्मतीर्थपथपालनमूलहेतुः । भव्यात्मनां भवभृतां स्वपरार्थसिद्धि मिक्ष्वाकुवंशवृषभो वृषभो विदध्यात् ॥४०२॥ यो नाभेस्तनयोऽपि विश्वविदुषां पूज्यः स्वयम्भूरिति त्यक्ताशेषपरिग्रहोऽपि सुधियां स्वामीति यः शब्द्यते । मध्यस्थोऽपि विनेयसत्त्वसमितेरेवोपकारी मतो निर्दानोऽपि बुधैरपास्य चरणो यः सोऽस्तु वः शान्तये ॥४०३॥ इत्या भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणश्रीमहापुराणसडग्रहे प्रथमतीर्थडकरचक्रधरपुराणं नाम सप्तचत्वारि शत्तम पर्व परिसमाप्तस् ॥४७॥ की विधि और मोक्षका महान् मार्ग प्रत्यक्ष देखा था, जिन्हें आवरणसे रहित पूर्ण अन्तिमकेवलज्ञान उत्पन्न हुआ और जो समस्त पृथिवीके अधिपति भरत चक्रवर्तीके पिता थे वे श्रीमान् प्रथम तीर्थ कर तुम सबको लक्ष्मी प्रदान करें ॥४०१॥ जिन्होंने प्रसिद्ध सप्त पदार्थोंके समूह को प्रत्यक्ष देखा है और जो समीचीन धर्मरूपी तीर्थके मार्गकी रक्षा करने में मुख्य हेतु हैं ऐसे इक्ष्वाकु वंशके प्रमुख श्री वृषभनाथ भगवान् संसारी भव्य प्राणियोंको मोक्षरूपी आत्माकी उत्कृष्ट सिद्धिको प्रदान करें ॥४०२॥ जो नाभिराजके पुत्र होकर भी स्वयंभू हैं अर्थात् अपने आप उत्पन्न हैं, समस्त विद्वानोंके पूज्य हैं, समस्त परिग्रहका त्याग कर चुके हैं फिर भी विद्वानोंके स्वामी कहे जाते हैं, मध्यस्थ होकर भी भव्यजीवोंके समूहका उपकार करनेवाले हैं और दानरहित होनेपर भी विद्वानोंके द्वारा जिनके चरणोंकी सेवा की जाती है ऐसे भगवान् वृषभदेव तुम सबकी शान्तिके लिये हों अर्थात् तुम्हें शान्ति प्रदान करनेवाले हों ॥४०३।। इस प्रकार भगवान् गुणभद्राचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण श्रीमहापुराण संग्रहके हिन्दी भाषानुवादमें प्रथम तीर्थ कर और प्रथम चक्रवर्तीका वर्णन करनेवाला यह सैंतालीसवां पर्व पूर्ण हुआ। पुराणाब्धिरगम्योऽयमर्थवीचिविभूषितः । सर्वथा शरणं मन्ये जिनसेनं महाकविम ॥ पारग्रामो जन्मभूमिर्यदीया गल्लीलालो जन्मदाता यदीयः । पन्नालाल: क्षुद्रबुद्धिः स चाहं ____टीकामेतां स्वल्पबुद्धया चकार ।। आषाढकृष्णपक्षस्य त्रयोदश्यां तिथावियम् । पञ्चसप्तचतुर्युग्मवर्षे पूर्णा बभूव सा ॥ ते ते जयन्तु विद्वांसो वन्दनीयगुणाधराः । यत्कृपाकोणमालम्ब्य तीर्णोऽयं शास्त्रसागरः ।। १ स्वपरार्थज्ञानं सम्यग्ज्ञानमित्यर्थः । २ श्रेष्ठः । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनूनां नाम प्रति अति सन्मति क्षेमंकर , क्षेमंधर । सीमंकर सीमंधर मननामाय : पल्यका अमम अममांग अटट अटटांग तुटिक तुटचंग कमल कमलांग नलिन नलिनांग पद्म पद्मांग कमद कमदांग नउत नउतांग पर्व पर्वाग दशमांश ८४ गण्य ८४ गण्य ८४ ८४ ८४ ८४ ८४ ८४८४ । ८४ ८४ ८४ ८४ ८४८४८४ ८४ ८४ ८४८४००००० २० १६ १८ १७ १६ १५ १४ १३ १२ ११ १० ८ ७. ६५ ४ ३ २ १ गुणाकार गुणाकार मनूनाम् - १८०० ५५ शून्यं ५० शून्यं ५० ४५ ४५ ४० ४० ३५ ३५ शून्यं ३० ३० २५ २५ २० २० १५ १५ १० ०१ १३०० ८०० ७७५ ७ ५० ७२५ ७०० ६७५ / ६५० ६२५ ६०० ५७५ ५५० शून्यानि ५२५ त्सेधः अङगशब्दवाच्यो यः सख्याविकल्पः स चतुरशीघ्न एव अन्यस्तु पूर्वांगताडित एव। जहां अङग शब्द आवे वहां ८४००००० को ८४ से गुणा करना जहां अङग शब्द नहीं है वहां ८४००००० से गुणा करना। (पाराको प्रतिके अन्तिम पत्रमें यह अंगक संदृष्टि दी गई है।) चतुरुतराशीतिलक्षवर्षाणि पूर्वांग भवति। तस्यांकसंदृष्टि: ८४०००००। तत् पूर्वांगगितं अन्येन पूर्वागेन ताडितं चेत् पूर्व भवति । तस्यांकसन्दृष्टिः ७०५६०००००००००० तेषां पूर्वाणां कोटिः पर्वकोटिर्भवति । ७०५६००००००००००००००००० प्रामुक्तपूर्व चतुरशीतिध्नं चेत् पर्वांगं भवति । अं० सं० ५६२७०४००००००००००। पर्वागडताडितं तत् पर्वागं पर्व भवति । अं० सं०--४६७८७१३६००००००००००००००० चतुरशीति ताडितं ८४ तत् पर्व नउतांगं भवति । अं० सं०--४१८२११९४२४०००००००००००००००। प्रागुक्तं नउतांगं चतुरशीतिलक्षताडितं चेत् ८४००००० नउतं भवति अं० सं० ३५१२९८०३१६१६०००००००००००००००००००० प्रागुक्तं नउतं चतुरशीति ८४ ताडितं चेत् कुमुदांगं भवति । अं० सं० २६५०६०३४६५५७४४०००००००००००००००००००० प्रागुक्तं कुमुदागं चतुरशीति लक्ष ८४००००० ताडितं चेत् कुमुदं भवति अं० सं० २४७८७५८६११०८२४६६ शन्य २५ । एवं चतुरशीत्या ताडितं अंगशब्दयुक्तमुतरोत्तरस्थानं भवति चतुरशीतिलक्षस्ताडितं चेत अंगशब्दरहितमत्तरोत्तरस्थानं भवति । क्रमेणांकसंदृष्टिः पद्मागं २०८२१५७४८ ५३००६२७६६४ शून्यं २५ । पञ। १७४६०११२८७६५९८०६१७७६ शन्यं ३० । नलिनांगं १४६६१७०३२१६३४२३६७०८१८४ शून्यं ३० । नलिनं १२३४१०३०७०१७२७६१३५५७१४५६ शून्यं ३५ । कमलांग १०३६६४६५७८६४५१०६५३८८००२३०४ शून्य ३५ । कमल ८७०७८३१३६००४०२५६२१६३५३६ शून्य ४० । व्युटयङगम्७३१४५७८२६१०३६५६३४६५७७४४२५७०२४ शून्य ४० । युटिकम्-६१४४२४५७३३६२७०७१३३११२५०५१७५६००१६ शन्य ४५। अटटाङगम्-५१६११६५४ २०६८७३६६१८१४५०४३४७७५६१३४४ शून्य ४५। अटटम्-४३३५३७८६५३६२६४१५३१२४१८३६५१ १५१५२८६६ शून्य ५० । अममाङगम्-३६४१७१८३२१०४८७०८८६२४३१४२६७७७६७२८ ३७२६४ शून्य ५० । अमम । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण-द्वितीयभागस्थइलोकानामकाराद्यनुक्रमः १९ ३७१ ४२१ ३६० ४२६ ४२१ १५६ UMGAM monkGK ७४ ४८६ २०३ १३७ ०३७ अ अकम्पनः खलः क्षुद्रो अकम्पनमहाराजम् अकम्पनमहीशस्य अकम्पनस्य सेनेशो अकम्पनैः किमित्येवम् अकम्पनोऽप्यनुप्राप्य अकरां भोक्तुमिच्छन्ति अकस्मात् कुपितो दन्ती अकस्मादुच्चरद्ध्वानम् अकायसायकोभिन्नअकारणरणेनालम् अकालप्रलयारम्भअक्षत्रियाश्च वृत्तस्थाः अक्षम्रक्षणमात्र ते अक्षरत्वं च मुक्तस्य अक्षिमालां महाभूत्या अक्षिमाला किल प्रत्ता अक्षीणावसथः सोऽभूत् अखण्डमनुरागरण अगादहः पुरस्कृत्य अगोष्पदमिदं देव अगोष्पदेष्वरण्येषु अग्निमित्रोऽथ मित्राग्निः अग्रण्या दण्डरत्नेन अङगसादं मतिभ्रेषम् अङगादडगात्सम्भवसि अङगानां सप्तमादङगात् अङगान् मणिभिरत्यङगैः अचलो मेरुसंज्ञश्च अचिन्तयच्च किं नाम अचिन्तयच्च किं नाम अचिराच्च तमासाद्य १६८ ३३६ ४२७ ४३० २१४ १८६ ४१४ २० ३५ ३५६ अच्छत्सीच्छत्रमस्त्राणि अथ चक्रधरो जैनीम् अजानुलम्बिना ब्रह्म अथ जन्मान्तरापातअजितञ्जयमारुक्षत् अथ जातिमदावेशात् अञ्चित्वा विधिना स्तुत्वा ४१८ अथ तत्र कृतावासम् अणिमादिभिरष्टाभिः २५७ अथ तत्र शिलापट्टे अतार्सीत् प्रणतानेष अथ तत्रस्थ एवाब्धिम् अतिक्रान्ते रथे तस्मिन् ३८७ अथ तस्मिन् बनाभोगे अतिगृद्धः पुरा पश्चात् ५०६ अथ ते कृतसम्मानाः अतिपरिणतरत्या ४४४ अथ ते सह सम्भूय अतिवृद्धः क्षयासन्नः ३६७ अथ दुर्मर्षणो नाम अतिवृद्धरसावेगं ४३६ अथ दूतवचश्चण्डअतीत्य परतः किञ्चित् अथ देशोऽस्ति विस्तीर्ण: अतीन्द्रियसुखोऽप्यात्मा ३३७ अथ निर्वतिताशेषअतीन्द्रियात्मदेहश्च ३३७ अथ नृपतिसमाजेनाचितः अतोऽतिबालविद्यादीन् ३१५ अथ प्रादुरभूत् कालः अत्यन्तरसिकानादौ २०७ अथ मेघस्वरो गत्वा अत्यम्बुपानादुद्रिक्त ४० अथ रथपरिवृत्त्य अत्यासगात् क्रमग्राहि- ४३३ अथवा कर्म नोकर्म गर्भेऽस्य अत्र चिन्त्यं न वः किञ्चित् ३६४ अथवा खलु संशय्य अत्र वामुत्र वासोऽस्तु ४१७ अथवाऽग्रं भवेदस्य अत्रान्तरे गिरीन्द्रेऽस्मिन् १२२ अथवा तन्त्रभूयस्त्वम् अत्रान्तरे ज्वलन्मौलि १०४ अथवा दुर्मदाविष्टअत्रापि पूर्ववद्दानम् २४८ अथवाद्यापि जेतव्यः अत्रायं भुजगशिशुः अथवा सोऽनभिज्ञेऽपि अत्रेत्याखिलवेद्युक्तम् अथ व्यापारयामास अत्रैकेषां निसृष्टार्थान् अथ सम्मुखमागत्य अत्रैव न पुनर्वेति ४४४ अथ सरसि जिनानाम् अत्रैब नाटकाचार्यतनूजा ४७२ अथातः श्रेणिकः पीत्वा अत्रैव सप्तमेऽह्नि ४६६ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि अथ कदाचिदसौ वदनाम्बुजं ५१३ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि अथ चक्रधरः काले ३१७ अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि अथ चक्रधरः पूजाम् अथान्यदा जगत्कामअथ चक्रधरस्यासीत् १७२ अथान्यदा समुत्पन्न २०८ . ३५७ १५२ २०६ १३२ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ २१४ ४६० ४५२ ३६० ४७४ ४७० ४०७ ४१६ ३८१ अथान्येद्युः सभामध्ये अथान्येचुरुपारूढ़अथान्येद्युदिनारम्भे अथापरान्तनिर्जेतुम् अथाब्रवीद् द्विजन्मभ्यो अथावरुह्य कैलासात् अथास्मै व्यतरत् प्रांशुअथोदीरिततीर्थेशअथोपाचक्रमे वक्तुम् अथोभयबले धीराः अथोरुष्यभटानीकअदधुर्घनवृन्दानि अदीक्षाहें कुले जाता अदीनमनसः शान्ताः अदूरपारः कायोऽयम् अदृष्टपारमक्षोभ्यम् अदृष्टमश्रुतं कृत्यं अद्यासिन्धु प्रयातव्यम् अद्यैव च प्रतव्याः अधस्ताद् वक्त्रविबरम् अधावयदसौ किञ्चित् अधिकारे हयसत्यस्मिन् अधित्यकासु सोऽस्याद्रेः अधिमेखलमस्यासीत् अधिवक्षस्तरं जिष्णो अधिवासितजैनास्त्रः अधिशय्य गुहागर्भम् अधिष्ठाय जयः अधीतविद्यं तद्विद्यः अधोभागमथोवं च अधोमुखाः खगैर्मुक्ताः अध्यानमात्रमेत्याराद् अध वत्वं गुणं मन्ये अनग्नमुषिता एव अनन्तदर्शनत्वं च अनन्तसुखशब्दश्च अनन्यशरणैरन्यैअनन्यसदृशैरेभिः अनन्विष्य मयि प्रौढिम् अनलस्यानिलो वास्य अनादिपदपूर्वाच्च अनादिमस्तपर्यन्तम् अनादिश्रोत्रियायेति महापुराणम् ४७५ | अमालपन्तीमालाप्य ४३२ | अन्यथा सृष्टिवादेन ११२ अनाशितं भवं पीत्वा ४२ अन्येद्यु: खचराधीशो अनाशुषोऽपि तस्यासीत् अन्येद्युः प्रियदत्तासौ अनाश्वान्नियताहार २८७ अन्येद्युरिभमारुहय २६६ अनित्या त्राणसंसारै- २१५ अन्येधुमैथुनो राज्ञः १५१ अनिराकृतसन्तापा १८० अन्येधुर्यतिमासाद्य १२७ अनिष्टवनितेवेयम् २०७ अन्येधुर्वसुधारादि४६८ अनुकूलानिलोत्क्षिप्त अन्येऽप्यन्यांश्च भूपाला१७७ अनुगङगातटं देशान् अन्ये ऽमी च खगाधीशा २०३ अनुगङगातटं भाति अन्येष्वपि कलाशास्त्र१८६ अनुगङगातट यान्ती अन्यैश्च निश्चितत्यागअनुगङ्गातट सैन्यैः १२७ अन्योऽन्यं खण्डयन्ति स्म ३११. अनुतीरवनम् ५४ अन्योऽन्यं सह सम्भूय १६८ अनुत्तरविमानौप १६३ अन्योऽन्यरदनोद्भिनौ ४६२ अनुद्धता गभीरत्वम् अन्योन्यविषयं सौख्यम् ४४ अनुद्रुताः मृगाः शावैः अन्योन्यस्येति सजल्पैः १५६ अनुप्रवृद्धकल्याण ४५४ अपमृत्युविनाशनम् अनुभेरीरवं सद्यः ३६२ अपराधः कृतोऽस्माभिः १५८ अनुयायिनि तत्त्यागादिव २६५ अपरीक्षितकार्याणाम् ४५६ अनुरक्ततया दूरम् अपरेद्युदिनारम्भ ४८१ अनुरक्तापि सन्ध्येय- १८८ अपापोपहतां वृत्तिः ३१४ अनुवाधितटं कर्षन् अपातयन्महामेरुम् १३३ अनुवाधितटं गत्वा अपायो हि सपत्नेभ्यः १२५ अनुवेणुमतीतीरम् अपि चात्र मनःखेद२०४ अनुसिन्धुतटं सैन्यैः अपि चाद्य मया स्वप्ना अनुत्थितेषु सम्प्रीत्या २६५ अपि चास्मदुपज्ञं यद् ११५ अनेकमन्तरद्वीप अपि चैषां विशुद्धयङगम् ३६५ अनेकानुनयोपाय ४४६ अपि रागं समुत्सृज्य २५५ अन्तःकोपोऽप्ययम् ४१० अपूर्वरत्नसन्दर्भः ४४८ अन्तःप्रकृतिजः कोपो अपूर्वलाभः श्लाघ्यश्च ४०० अन्तकः समवर्तीति ४०२ अपृच्छत् सोऽब्रवीदेषा २०५ अन्तमस्य विधास्यामि ४४३ अप्सव्यस्तिमिरयमाजिघाम ४६४ अन्तर्हासो जयः सर्वम् ४०५ अबन्धाद् बन्धुरां तस्य अन्तवदर्शनं चास्य ३३८ अबन्ध्यशासनस्यास्य ३३६ अन्यच्च गोधनं गोपो ३४७ अबाहुबलिनानेन २६१ अन्यच्च देवताः सन्ति अबिभ्यदेवता चैवम् अन्यच्च नमिताशेष- १७६ अबोधद्वेषरागात्मा २५२ अन्यच्च बहुवाम्जाले । २८७ अभव्य इव सद्धर्मम् ३५२ अन्यच्चारिणतं दृष्टम् ४५३ अभिगम्य नृपः क्षिप्रम् ३८७ अन्यत्र भ्रातृभण्डानि २०८ अभिचारक्रियेवासीत् अन्यथा चिन्तितं कार्यम् . ४२५ । अभिमतफलसिद्ध्या अन्यथाऽन्यकृतां सृष्टिम् ३१३ । अभिवन्द्य यथाकामम् २६४ | अन्यथा विमतिर्भूयो २६४ अभिवन्द्यागताऽस्म्येहि ५०२ ४०५ ३२३ ४०८ ४३३ ३४ २६३ ४२६ ४७५ २६२ २४३ ४६० २६४ ३४१ ३१६ MWW २५५ ३७ ३७० ४८३ १५७ ५०१ ४६५ ४११ ३७४ ३६२ ४२ ३८४ ४८३ ४८६ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ४१६ ४१६ २४७ १२५ ३१७ ३१५ ३१४ २२७ ४०३ ४४८ १५३ ४८ १२ ४१६ ४६६ । १०२ ४७५ अभिषिच्य च राजेन्द्रम् अर्ककीतिरकीति मे ४३० ] अष्टचन्द्रान् सखी कुर्वन् अभिषिच्य चलां मत्वा अर्ककीतिर्बहिर्भास्वद् ३६३ अष्टचन्द्रास्तदाभ्येत्य अभीष्टं मम देहीति अर्ककीादिभिः प्रष्ठः ४३५ अष्टापि दुष्टरिपवोऽस्य अभूतपूर्वमुद्भूत अर्कणालोकनारोधि- ४२६ अष्टोत्तरसहस्राद् वा अभूतपूर्वमेतन्नी अर्थों मनसि जिह्वाग्रे ३५५ असंख्यकल्पकोटीषु अभूज्जयावती भ्रातुः ४६३ अर्धं गुरुभिरेवास्य ३५२ असकृत् किन्नरस्त्रीणाम् अभूत्कान्तिश्चकोराया २३० अर्हन्मातृपदं तद्वत् २६४ असङख्यशङखमाक्रान्तअभूत् प्रहतगम्भीर ४०२ अलं वत चिरं १६३ असत्फला इमे स्वप्नाः अभूदयशसो रूपम् अलं स्तुतिप्रपञ्चेन १४६ असत्यस्मिन् गुणेऽन्यस्मात् अभूद् रागी स्वयं रागः अलका इव संरेजुः असत्यस्मिन्नमान्यत्वम् अभेद्यमपि वज्रण ४८८ अलकाः कामकृष्णाहेः २२४ असहयैः बलसंघट्टैः अभेद्याख्यमभूत्तस्य २३४ अलङ्घ्यं चक्रमाक्रान्त असिमष्यादिषट्कर्मअभेद्या दृढसन्धाना अलङध्यत्वान्महीयत्वाद् असिसंघट्टनिष्ठयूतअभेद्ये मम देहाद्री २०८ अलङध्यमहिमोदनो १२३ असौ रतिवरः कान्तः अभ्यचिताग्निकुण्डस्य ५०७ अलब्धभावो लब्धार्थ अस्ति माधुर्यमस्त्योजः अभ्यर्ण बन्धुवर्गस्य ४८६ अवकाशं प्रकाशस्य ४१४ अस्ति स्वयंवरः पन्थाः अभ्येति वरटाशङकी अवतंसितनीलाब्जाः अस्तु किं यातमद्यापि अभ्येत्य बषभाभ्याशम् ३५६ अवतारक्रियाऽस्यान्या २५६ अस्तु वास्तु समस्तं च अमरेन्द्र समामध्ये ५०१ अवतारक्रियाऽस्यैषा २७२ अस्त्रय॑स्त्रैश्च शस्त्रैश्च अमानुषेष्वरण्येषु अवतारितपरिण अस्मर्जितदुष्कर्मअमितानन्तमत्यायिकाभ्याशे ४५० अवतारो वृत्तलाभः २४४ अस्मितां सस्मितां कुर्वन् अमुनाऽन्यायवत्मव अवतीर्य महीं प्राप्य अस्मिन्नग्नित्रये पूजाम् अमुष्माज्जनसङघट्टात् अवधार्यानभिप्रेत अस्याः पयःप्रवाहेग अमुष्य जलमुत्पतद् अवधार्यास्य पुत्रस्य ४४६ अस्या: प्रवाहमम्भोधिः अमृतश्वसने मन्दम् २५६ अवधूतः पुरानङगः ३७९ अस्याग्रह इवानङग: अमेयवीर्यमाहार्य १४१ अवध्यं शतमित्यास्था १७२ अस्यानुसानु रम्ययं अमोघपातास्तस्यासन् २३४ अवनिपतिसमाजे अस्योपान्तभुवश्चकासतिअयं कायद्रुमः कान्ता ४६४ अवरुद्धाश्च तावन्त्यः २२३ अस्वेदमलमच्छायम् अयं खलु खलाचारो १८० अवान्तरविशेषोऽत्र अहं कुतो कुतो धर्मः अयं च चक्रभृद्देवो २०२ अवार्योऽनन्तवीर्याख्यः ५०२ अहं पूर्वोक्तदेवश्रीः अयं जलधिरुच्चलत्तरलअवास्किरन्त शृङमाग्रैः अहं प्रियरतिर्नामा अयमनिभतवेलो अविगरिगतमहत्त्वा अहं वर्षवरो वेत्सि न अयमनुसरन् कोकः १६५ अविदितपरिमाणैः अहं हि भरतो नाम अयमयमुद्भारो अव्याबाधत्वमस्यष्टम् ३३६ अहमद्य कृतार्थोऽस्मि अयमेकचरः पोत्र अव्याबाधपदं चान्यद् २६१ अहमिन्द्रोऽग्रिमोऽभूवन् अयमेकोऽस्ति दोषोऽस्य अशक्यधारणं चेयम् २५४ अहमेको न मे कश्चित् अयोनिसम्भवं जन्म २७५ अशक्योद्घाटनान्येषाम् अहानि स्थापयित्वैवम् अयोनिसम्भवं दिव्य २७८ अशिशिरकरो लोका १६४ अहिंसालक्षणं धर्म अयोनिसम्भवास्तेन २८० अशोकतरुरत्रायम् अहिंसाशुद्धिरेषां स्यात् अरिजयाख्यमारुह्य ४१८ अशोकशाखिचिह्नन १४० अहिंसा सत्यमस्त्येषाम् अरेमित्रमरेमित्रम् १५४ अश्वेभ्योऽपि रथेभ्योऽपि अहो तटवनस्यास्य अर्ककीर्ति स्वकीर्ति वा ४१२ अष्टचन्द्राः खगाः ख्याताः ३६६ अहो परममाश्चर्यअर्ककीर्तिः पुरो पौत्रम् ३५६ , अष्टचन्द्राः पुरो भूयः- ४०७ | अहो महानयं शैलो ४३० ४६५ ३०१ ३७६ १२२ २४६ १४१ ३६२ ४५७ ४८१ ४६७ १४८ ५०६ ११२ २५६ ४४१ ३२१ २७१ १६५ २१ १२२ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ rm or mx mr ५०३ ४०६ २३६ ७६ ५२० महापुराणम् अहो महानुभावोऽयं १२६ | आद्यूनमसकृत्पीत ४० आरुष्टकलिकां दृष्टिम् अहो महानुभावोऽयं २०२ आद्योऽयं महिते स्वयंवरविधौ ३८४ आरूढ़ः शिबिकां दिव्याम् अहो मया प्रमत्तेन ४४१ आधानं नाम गर्भादौ २४५ आरूढकलिकां पश्यन् २३२ अहो मातृगणोऽस्माकम् १७२ आधानं प्रीति सुप्रीति- २४४ आरूढयौवनोष्माणौ अहो विषयसौख्यानाम् २०६ आधानमन्त्र एवात्र आरूढानेकपानेकआधानात् पञ्चमे मासि आरूढो जगतीमद्रः आधानादिक्रियारम्भ २६० आरोहन्ति दुरारोहम् २०७ आकारसंवृति कृत्वा आधानाद्यास्त्रिपञ्चाशत् २४४ आर्याणामपि वाग्भूयां ३६१ आकारेष्विव रत्नानाम् ३५५ आधाने मन्त्र एव स्यात् ३०२ आर्यिकाभिरभिष्ट्रयमानआकालिकीमनादृत्य आधोरणा मदमषीमलिनान् ७६ आर्हन्त्यभागी भवेति ३०२ आकृष्टदिग्गजालीनि आधोरणैः कृतोत्साहैः आर्हन्त्यमहतो भावो २८८ आकृष्टनिचुलामोदम् २३२ आनन्दराजपुत्रस्य ४७१ आलानिता तनतरुष्वतिमात्र- ७७ आक्रान्तभूभतो नित्यम् आनन्दिन्योऽब्धिनिर्घोषा: आलि त्वं नालिकं झूहि १६१ आक्रान्तसैनिकरस्य आनन्दिन्यो महाभेर्यः २२१ आलुलोके बुधोऽनन्त- ५०६ आखण्डलधनुर्लेखाम १३७ आनीतवानिहेत्येतद् ४८२ आलोकयन् जिनस्वभावआगः परागमातन्वन् १८४ आनीयतां प्रयत्नेन ४८२ आलोक्य तं गलितमोहरसः । आगच्छन्ती भववार्ताम् ४८६ आन्ध्रान् रुन्द्रप्रहारेषु आवश्यकेष्वसम्बाधम् २१२ आघातुको द्विरदिनः आपश्चिमार्णवतटात् आवां चाकर्ण्य तं नत्वा आचरय्य बलान्यके आ पाण्डरगिरिप्रस्थात् आवामपि तदा वन्दनाय आचाराङगेन निःशेषम् १६२ आपातमात्ररम्याणाम् २०६ आवापिपासया प्रीतिः ४३३ आजन्मनः कुमारस्य ४४८ आपीतपयसा प्राज्य आशु गत्वा निवेद्यासौ ४२८ आज्ञापायौ विपाकं च २१५ आपो धनं धृतरसाः आश्रितकादशोपासकव्रताः ५०५ आज्ञाभिमानमुत्सृज्य २८६ आप्तजानपदानीत आष्टाह्निको महः सार्व- २४२ आतपत्रं सहस्रोरु ४६२ आप्तागमपदार्थाश्च ३६८ आसन्नभव्यशब्दश्च आतिथ्यमिव नस्तन्वन् आप्तोपज्ञं भवेत्तत्त्वम् आसन् विजयघोषाख्या: २३६ आत्मंस्त्वं परमात्मानम् आप्तोपज्ञेषु तत्त्वेषु आस्तामाध्यात्मिकीयं ते १४४ आत्मनेव द्वितीयेन आप्तोऽर्हन् वीतदोषत्वात् ३३४ आस्तां भुजबली तावद् १५८ आत्मसम्यग्गुणयुक्तः ३८२ आबध्यस्थानकं पूर्वम् ३६६ आस्थाने जयदुन्दुभी ननु नदन् ८० आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थम २४३ आभिजात्यं वयो रूपम् ३६० आस्फालिता तदा भेरी आत्मोपाधिविशिष्टाव- ५०४ आमृच्छय स्वगुरुम् आहवो परिहार्योऽयं आत्रिकापायसंरक्षा- ३४० आयसा: सायकाः काम- ४१७ आहारभयसंज्ञे च आत्रिकामुत्रिकापायात् ३४० आयुर्वायुचलं कायो ४६२ आहारस्य यथा तेऽद्य ४२७ आदावशुच्युपादानम् ४४२ आयुर्वायुरयं मोहो ४६६ आहूताः केचिदाजग्मुः १०२ आदिक्षत्रियवृत्तस्थाः ३३४ आयुर्वेदे स दीर्घायु ३२८ आइयन्तीमिवोर्ध्वाधः ४४० आदित्यगतिमभ्येत्य ४६१ आयुष्मन् कुशलं प्रष्टुम् १०५ आदित्यगतिरस्यासीत् ४५६ आयुष्मन् भवता सृष्टा ३२० आदिराजकृतां लक्ष्मीम् आयुष्मन् युष्मदीयाज्ञाम् १०० इक्षोरिवास्य पर्वार्द्ध ३५२ आदिष्टवनितारत्न४८६ आयुष्मान्निति इज्यां वार्ता च दत्ति च २४१ आदिष्टसन्निधाने ४८७ आरक्तकलुषा दृष्टिः १६२ इतः किन्नरसङगीतम् आदौ जन्मजरारोगा- ४६३ आरक्षककरे हन्तुम् ४७४ इतः पिबन्ति वन्यभाः १८ आदौ परमकाष्ठेति २६३ आरक्षिणो निगृह्णीयु- ४७२ इतः प्रसीद देवेमाम् आदौ मुनीन्द्रभागीति आरुध्यमानमश्वीयः इतः प्रस्थानमारुध्य आद्यः सेनापतिः पश्चादार्य: ५०६ | आररोह स तं शैलम् १३३ | इत एवोन्मुखौ तौ Y 199x २० ३३३ १७४ १४६ ३७५ ४११ २१२ ३०२ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतश्च तत्प्रमाणं स्यात् इतश्च रचितानल्पइतश्च संकतोत्सङगे इतश्च हरिणारातिइति कञ्चुकिनिदिष्टम् इति कालान्तरे दोषइति कृत्वा निदानं स इति गोपालदृष्टान्तम् इति चक्रधरादेश इति जल्पति संरम्भाच्च इति तत्प्रोक्तमाकर्ण्य इति तत्फलविज्ञान इति तद्वचनं श्रुत्वा इति तद्वचनस्यान्ते इति तद्वचनाच्चक्री इति तद्वचनाच्छु ष्ठी इति तद्वचनाज्जातइति तद्वचनात् किञ्चित् इति तद्वचनात् सर्वान् इति तद्वचनाद् राजा इति तस्य वचः श्रुत्वा इति तस्याः परिप्रश्ने इति तेऽमितमत्युक्तइति दत्तग्रहं वीरम् इति दृष्टापदानं तं इति नानाविधैर्भावः इति निर्धा कार्यज्ञान् इति निभिन्नमर्यादः इति निर्वाणपर्यन्ताः इति निर्विद्य सञ्जातइति निश्चित्य कार्यज्ञान् इति निश्चित्य मन्त्रज्ञाः इति निश्चित्य राजेन्द्रः इति निश्चित्य सम्भ्रान्तैः इति नीतिलतावृद्धिइति पत्युः परिप्रश्नाद् इति पुण्योदयाज्जिष्णुः इति पृष्टवते तस्मै इति पृष्टावदच्छक्तिषेण: इति प्रतीतमाहात्म्यम् इति प्रदोषसमये इति प्रयाणसज्जल्पः इति प्रशस्तिमालीयाम् ६६ २७० २२ २२ १३५ ३८१ ३२१ ४५६ ३४७ १०७ १५७ ४७७ ३२० ४६० १८० १५८ *૬* ११७ ४६ २४१ ४७५ ३८३ ४५७ ४५८ ४२० १२७ १०३ १५६ ३८७ २६७ ४६४ १७३ २०३ २४० ४६ ३६० ४६२ ६४ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः इति प्रशान्तमोजस्वि इति प्रशान्तमोजस्वि इति प्रशान्तो रौद्रश्न इति प्रश्रयणी वाणीं इति प्रश्रयणीं वारणी इति प्रसाद्य सन्तोष्य इति प्रसाधितस्तेन इति प्रसाध्य तां भूमिम् इति प्रस्पष्टचन्द्रांशुइति प्रागेव निविद्य इति प्राचोदयत् सापि इति प्राणप्रियां काञ्चित् इति बन्धुजनवर्यमाणौ इति ब्रुवस्तोत्थाय इति ब्रुवाणः सम्प्राप्य इति भरतनरेन्द्रात् इति भूयोऽनुशिष्यैतान् इति मण्डलभूपालान् ६५ इति मनसि यथार्थं चिन्तयन् ५१२ २६३ २०२ ४६१ १६० १७५ ४५० ४३१ ५.१ ४६ ४७६ १३६ २६ १५६ २७१ २११ ४६६ इति मन्त्रपदान्युक्त्वा इति माध्यस्थ्यवृत्यैके इति याथात्म्यमासाद्य इति युष्मत्पदाब्जन्मइति रम्यान् पुरस्यास्य इति वक्तव्यमित्याख्यत् इति विज्ञाप्य चक्रेशात् इति विशति गाङगमम्वु इति व्यक्तलिपिन्यासो इति व्याहृत्य हेमाङगदा इति शंसति तस्याद्रेः इति शारदिके तीव्रम् इति शासति शास्त्रज्ञे इति शुद्धं मतं यस्य इति शुद्धतरां वृत्तिम् इति श्रीपालचक्रेश: इति सकलकलानामेक १०७ १७७ १३५. ४२६ ४३७ ४२७ १०० १०६ ७ ३४१ ४४७ १९१ ४८६ १०० ३८६ ३१६ २६३ इति सञ्चिन्तयन् गत्वा इति सत्तत्त्वसन्दर्भ २७० ४५७ इति सत्कृत्य तान् दूतान् १०६ इति सत्त्वा वनस्येव १६० इति सन्तोष्य विश्वेशः २८ इति समचितरुच्चैः १२६ इति समुपगता श्रीः ३२६ ४६५ ५०५ १५६ && ४३० १६५ ३८५ इति सम्पूर्णसर्वाग इति सम्यक्त्वसत्पात्र इति सर्वे: समालोच्य इति सागरदत्ताख्यः इति सामादिभिः स्वोक्तंः इति सोत्कर्षमेवास्याम् इति सौलोचने युद्धे इति स्तुतात्मसौभाग्यइति स्थिते प्रणामार्थं इति स्वप्नफलं तेषाम् इति स्वप्नफलान्यस्माद् इति स्वसचिवैः सार्धम् इतीदं वनमत्यन्तइतीदमनुमानं नः इतीमामार्षमीमिष्टिम् इतो धुतवनोऽनिलः इतोऽन्यदुत्तरं नास्ति इतोऽपसर्पताश्वीयाद् इतो महीशसन्देशान् इतोऽमी किन्नरीगीतं इत्थं चराचरगुरुं परमादिदेवं इत्थं नियन्तरि पराम् इत्वं नियन्तृभिरनेकपवृन्द इत्थं पुण्योदयाच्चकी इत्थं पुराणपुरुषाद् इत्थं भवन्तमतिभक्तिपथं इत्थं मनुः सकलचकभूवादि इत्थं वनस्य सामृद्ध्यम् इथं स धर्मविजयी इत्यं स पृथिवीमध्यान् इत्थं सरस्सु रुचिरं इत्थं स विश्वविद् विश्वं इत्थं सर्वेषु शास्त्रेषु इत्यं स्वपुण्यपरिपाकजइत्यकृत्रिमसामोक्त्या इत्यङ्गानि स्पृशेदस्य इत्यजेतव्यपक्षेऽपि इत्यत्तकोंदयावाप्तिइत्यतो न सुधी सद्यो इत्यतोऽसौ दिदृक्षुस्तं ५२१ ३६५ ४६६ ४३६ ४६६ ३६४ २३३ ४२० ३८१ १६० ५०६ ३२३ ३६३ २३ ३१७ १७० इत्यत्यद्भुतमाहात्म्य: इत्यत्युग्रतरे ग्रीष्मे इत्यत्र ब्रूमहे नैतत् ५६ १६५ २८ ३७७ २२ १४६ ५७ ७७ ११० १७० ४२२ ३४६ २५ ३१६ ६६ ७५ २१८ ३२६ ६१ ४३६ ३०४ ८२ ४३१ ४४३ ३६० १४६ १६४ ३३४ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ महापुराणम् २२७ २४४ ४३५ २०२ ४५८ ४४७ २७३ ३५८ ४४७ २७९ ५०० ५३ ४६ २१७ इत्यत्र ब्रूमहे सत्यम् २८२ | इत्याह तद्वचः श्रुत्वा ४६० । इन्द्रियार्था मनोज्ञा ये इत्यनङगमयीं सृष्टि २२५ इत्युक्तास्ते च तं सत्यम् २७५ इन्द्रोपपादाभिषेकी इत्यनङगातुरा काचित् १६२ इत्युक्तौ पार्थिवैः सर्वैः २०३ इन्द्रो वेभाद् बहिर्दारात् इत्यनाकुलमेवेदम् इत्युक्त्वा रतिवेगाहं इमे मकुटबद्धाः किम् इत्यनुत्सुकतां तेषु २५८ इत्युक्त्वा सेदमप्याह ४५८ इमे मुकुटबद्धेषु इत्यनुध्याय निष्कोपः इत्युक्त्वा सोऽब्रवीदेवम् इमां वनगजा: प्राप्य इत्यनुश्रुतमस्माभिः १५४ इत्युक्त्वैनं समाश्वास्य २७५ इमे वनद्रुमा भान्ति इत्यनेकगुणेऽप्यस्मिन् १२३ । इत्युक्त्वोपपुरे योग्य ३७१ इमे सप्तच्छदा: पौष्पं इत्यन्तरङगशत्रूणाम् २१२ इत्युच्चरद् गिरामोघो २०६ इयं दीक्षा गृहीतेति इत्यन्योन्यसमुद्भूत इत्युच्चावचतां भेजे २२५ इयं निधुवनासक्ताः इत्यपृच्छन्नसौ चाह इत्युच्चर्भरताधिपः इयं शीलवतीत्येनाम् इत्यप्राक्षीत्तदा प्राह इत्युच्चैर्भरतेशिनानुकथितम् ३४८ इयन्तकालमज्ञानात् इत्यभूवन्नमी श्रद्धा ४५४ इत्युच्चय॑तिवदतां इयमाह्लादिताशेषइत्यभ्यर्णतमे तस्मिन् २३२ इत्युदीर्य जयो मेघकुमार इष्टं कि किमनिष्टमत्र इत्यभ्यर्णे बले जिष्णोः २०३ इत्युद्दिष्टाभिरष्टाभिः २४४ इह जम्बूमति द्वीप इत्यमूमनगाराणाम् इत्युद्घोष्य कृतानन्द २०४ इह जम्बुमति द्वीप इत्यनङगबलश्चक्री इत्युपायैरुपायज्ञः इहागताविति व्यक्तम् इत्यवोचत्ततस्ताश्च ४८३ इत्युपारूढसंरम्भम् इहामी भुजङगाः सरत्नैः इत्यशाश्वतमप्येतद् २०८ इत्युपारूढसध्यान २१७ इहामुत्र च जन्तूनाम् इत्यसाधारणा प्रीतिः २५८ इत्यकशोऽप्यमी भक्ति इहेन्दुकरसंस्पर्शात् इत्यसाध्वीं क्रुधं भर्तुः इत्येतच्चाह तच्छ त्वा ३६१ इहैव पुष्कलावत्याम् इत्यसौ वसुपालाय ४७५ इत्येतद्देव' मा मंस्थाः ४२६ इहैव स्याद् यशोलाभो इत्यस्मिन् भवसङकटे- ५१० इत्येभिः स्पन्दनादेषा ३८४ इहहीति प्रसन्नोक्त्या इत्यस्मै कुण्डले दिव्ये इत्येवमनुशिष्य इत्यस्याद्रेः परां शोभाम् १२४ इत्येवमनुशिष्यैनम् २५२ इत्यस्या रूपमुद्भूत २३० इत्येवमास्थिते पक्षे ईशितव्या मही कृत्स्ना इत्याकर्ण्य गुरोर्वाक्यम् ३२३ इत्येवमुक्तं तत्सर्वैः ३७० इत्याकर्ण्य विभोर्वाक्यम् इदं चक्रधरक्षेत्रम् इत्याकुलाकुलधियः इदं तस्मात् समुच्चेयम् ४७१ उक्तस्यैवार्थतत्त्वस्य इत्यागमानुसारेण २८८ इदं निष्पन्नमेवात्र उग्रसेनश्चमूरोऽतो इत्यात्मगतमालोच्य ३१८ इदं बुधा ग्रहीष्यन्ति ३५४ उचितं युग्ममारूढो इत्यात्मनो गुणोत्कर्षम् इदं महदनाख्ययम् १५७ उच्चाद्वाऽदुद्रुवन्निम्बम् इत्यात्मीयभवावलीमनुगतैः ४७८ इदं वाचनिकं कृत्स्नम् १८३ उच्चरुजिततूयौं घइत्यादिकामिमां भूतिम् २६७ इदं वाचिकमन्यत्तु १५८ उज्जगार ज्वलत्स्थूलविस्फुइत्यादिराजं तत्सम्राड् ३२६ इदं शुश्रूषवो भव्याः ३५३ उज्झितानकसङगीतइत्यादेशवरं ज्ञात्वा ४६१ इदमस्मद्बलक्षोभाद् उत्तमार्थे कृतास्थानः इत्याप्तानमतं क्षात्रम् इदमेव गतं हन्त उत्तरार्धजयोद्योगइत्यारक्षिभटैस्तूर्ण इदानीमेव दुर्वृत्तम् उत्तारिताखिलपरिच्छदइत्याविर्भावितानङगरसाः इनं स्वच्छानि विच्छायं ४१२ उत्थितः पिलकोऽस्माकम् इत्याविष्कृतमानेन १८५ इन्दुपादैः समुत्कर्षम् १६० उत्पतन्निपतत्केतुइत्याविष्कृतसंशोभाम् इन्द्रजालमिवामुष्मिन् ११८ उत्पत्तिभूभृतां पत्यर्धरण्याम् इत्याविष्कृतसम्पदो विजयिनः २३८ इन्द्रत्यागक्रिया सैषा २५८ | उत्पुष्करं सरोमध्ये इत्याशङक्य नभोभाग्भिः ६ इन्द्राः स्युस्त्रिदशाधीशाः २५७ | उत्गुष्करान् स्फुरद्रौक्म ४७१ २६३ ४२६ १०६ ३३५ ५०६ १७४ ३८१ mror ३८७ २८६ २५६ ३ ४१५ ४४० ७४ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्फुल्लपाटलोद्गन्धिउत्फुल्ल मल्लिकामोद उत्फेनजृम्भिकारम्भः उत्सङ्गसङगिनीभर्तुः उत्सवो राजगेहरय उदयशिखरिग्राव उदये वतिच्छायां उदसुन्वत् फलं मत्वा उदाहार्यक्रमं ज्ञात्वा उदगार्हविनिर्धूतउद्घाटितकवाटेन उत्प्रेदं विशकस्त्वं उद्यानादिकृतां छायाम् उन्मत्तकोकिले काले उन्मीलशीलनीरेजउपक्षेत्रं च गोधेनूः उपनततरूनाधुन्वाना उपनीतिक्रियामन्त्रम् उपनीतिहि वेषस्य उपप्रदानमप्येवम् उपयान्ति समस्तसम्पदो उपयोग्येषु धान्येषु उपर्युच्छ्वासयत्येनाम् उपवासपरिश्रान्ता उपविन्ध्याद्रिविख्यातो उपल्यभुवः कुरुया उपशल्यभुवोऽद्राक्षीत् उपसिन्धुरिति व्यक्तम् उपाधि भोगिनां भोगः उपाध्वं प्राकृतक्षेत्रान् उपानाहाते कोऽन्यः उपानिन्युः करीन्द्राणाम् उपायः प्रतिबोध्यैनाम् उपेक्षितः सदोषोऽपि उपोदयायशस्कीतिः उभयोः पाश्वयोर्वध्वा उरो लिङगमथास्य स्यात् ऊ ऊढभार्योऽप्ययं तावद् कहां च समतोयां च ऋ ऋजुत्वाद् दूरिदशित्वात् २३२ २३२ ३६ १६० ३७६ १६५. .४१० ३६६ २६६ ७५ १०८ ४८४ २८६ २३१ ४४३ १७५ १६६ ३०६ २७४ १८१ ४२२ ६२ ११४ २६६ ४३८ १७५ १३ ८५ २१५ १२ ११४ ६१ * ४३० ४१८ ३६७ २४६ श्लोकानामकारा धनुक्रमः २५१ ६८ ए एकतः सार्वभौमभी: एकतो लवणाम्भोषिः एकदा विहारार्थं एकस्यामेव निक्षिप्याएकाद्येकादशान्तानि एकाधः पातयत्यन्या एकान्नघतसंख्यास्ते एकोऽशो धर्मकार्येऽतो एतत्पुण्यमयं सुरूपमहिमा एतत्पुरममुष्येन एतया सह गत्वाऽतः एतस्य दिग्जये सर्वे एतां तस्याः सखी श्रुत्वा एलान् सर्वास्तदालापान् एतावत् भूयास्ताम् एते तु पीठिकामन्त्राः एते ते मकरादयो जलचराः एते यत्र तत्वेन एतेष्वहापयन् काश्चिद् एतैः स्वसूनुभिः सार्धम् एत्यानङ्गपताकाऽस्यास्तम् एभिः परिवृतः श्रेष्ठी एलालवंगसंवासएवं कृतविवाहस्य एवं कृतव्रतस्याद्य एवं केवलिसिद्धेभ्यः एवं परमराज्यादि एवं प्रजाः प्रजापालान् एवं प्रयाति कालेऽसी एवं प्रयाति कालेय एवंप्रायास्तु ये भावाः एवंप्रायेण लिङगेन एवंप्रायैर्जनालापैः एवं भवत्रयधेयः एवं मंत्रिणमुल्लङष्य १४८ ६२ ३५६ ४६८ ३१६ ११४ १५४ २५३ ३८५ ४७२ ४६२ ३८६ ४८६ ४४७ ४५६ ३०० 모두 २७० २१२ ४६७ ४८२ ४५५ ८४ २५१ २७५ २६३ ४५८ ४७५ ३३६ २४६ २०३ ३६३ ३६२ २४२ एवंविधविधानेन एवंविधैस्त्रिभिर्जन्तुः एवं विहिततत्पूजः ४४२ ३७५ ४६१ एवं सुखानि तनुजान्यनुभूय ४४५ एवं सुखेन यात्येषाम् एवं सुखेन साम्राज्यं भोगसारं ५०० ३६७ | एवं हि क्षत्रियश्रेष्ठो ३४० २६२ ३१० एवमन्यच्च भोगादगम् एवमालोकितस्वप्नएष धर्मप्रियः सम्प्राद् एष पात्रविशेषस्ते एष महामणिरश्मिविकीर्णः एष संसारिदृष्टान्तो एषा कीर्तिरघं चैतत् ऐ ऐक्ष्वाकः प्रथमो राज्ञाम् श्रौ औत्पत्तिक्यादिधीभेदैः औदुम्बरी व पनसाम् क कक्षान्तरे ततस्तस्मिन् कक्षान्तरे द्वितीयेऽस्मिन् कञ्चिद् गजपति स्तम्भम् कञ्जकिञ्जल्कपुजेन कटका रत्ननिर्माण कटिमण्डलसंसक्त कटी कुटी मनोजस्य कटीलिगं भवेदस्य कणपोऽस्य मनोवेगो कण्ठीरवकिशोराणाम् कण्ठे चालिडिंगतः कण्ठे तस्येति वक्त्येषा कण्ठे हृदयदेशे च कतरकतमे नाक्रान्ताः कथं कथमपि त्यक्त्वा कथं च पालनीयास्ताः कथं च सोऽनुनेतव्यो कथं मुनिजनादेषाम् कथमपि रथचक्रम् कथयित्वा महीशानाम् कदम्बामोदसुरभिः कदाचिच्छुक्लपक्षस्य कदाचिच्छु ष्ठिनो गेहं कदाचिच्छ्रेष्ठिनोद्दिष्टम् कदाचित्कान्तया कदाचित् कामिनीकान्तकदाचित् काललब्ध्यादिकदाचित् प्रावृडारम्भे ५२३ ४४६ ५०६ ३२५ ५०३ ५३ ३४० ४२६ १७८ ४२५ ६७ १३६ १३८ ४६० २ २३६ २६२ २२४ २४६ २३५ १६६ ४१७ ४५६ ५०८ ४३४ ३४३ १७२ ३३३ ५८ ३६२ २२ ४५६ ४५३ ४४८ ४५२ ४४८ ४६४ ३६५ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ २२७ ww x x ا ل ا ل ف و महापुराणम् कदाचिदुचितां वेलाम् ३२७ कलकण्ठीकलक्वारण- २३१ । काम्यमन्त्रमतो ब्रूयात् २६५ कदाचिद् धर्मशास्त्रेषु । कलभान् कलभाङकार २१५ काम्यमन्त्रमतो ब्रूयात् ३०० कदाचिद् भवनायात कलशर्मुखविन्यस्त ३७७ कारयन्ती जिनेन्द्रार्चाः कदाचिद् भूपतिः श्रेष्ठि- ४५१ कलहंसा हसन्तीव कारयित्वा पुरी सर्व- ४२१ कदाचिद् राजगहागतेन ४४८ कलापी बहभारण कालज्ञानिभिरादिष्टे कदाचिद् वत्सविषये ४६६ कलाभिजात्यसम्पन्ना कालव्यालगजेनेदं कदाचिन्निधिरत्नानाम् ३२८ कलाविदश्च नत्यादिदर्शनैः ३२७ कालश्रमणशब्दं च २६६ कनिष्ठामङगुलिं वामहस्तेऽसौ ४५२ कलेवरमिदं त्याज्यम् १८६ कालाख्यश्च महाकालो कन्याकृत्यैव गत्वातः ४८९ कलैरलिकुलक्वारणः २३१ कालिङगकान् गजप्रायकन्यागृहात्तदा कन्याम् कलैरलिरुतोद्गानः २१६ कालिङगकैर्गरस्य कन्यारत्नानि सन्त्येव कल्पद्रुमद्वयं वस्त्रभूषणानि कालिन्दकालकूटौ च कन्याव्रतविलोपात्त ४४७ कल्पद्रुममभीष्टार्थम् ५०६ काशिराजस्तदाकर्ण्य कपयः कपिकच्छानाम् कल्पाधिपतये स्वाहा २६७ काशीदेशे शिना देव कपोलकाषसंरुग्णकल्पानोकहसेवेव काष्टजोऽपि दहत्यग्निः कपोलावुज्ज्वलौ तस्या २२६ कल्याणाङगस्त्वमेकान्ताद् कि किङकरैः करालास्त्रकमनीयरतिप्रीतिम् कवाटपुटविश्लेषाद् कि किमात्त्थ दुरात्मानो १५६ कमलनलिनीनालं कविरेव कवेर्वेत्ति किञ्च भो विषयास्वादः करग्रहेण लक्ष्मीवान् ३८० कस्तूरिकामृगाध्यास कि तरां स विजानाति १५७ करग्रहेण सम्पीड्य कस्मिचित्सुकृतावासे २५६ कि बलैर्बलिनां गम्यः करवालं करालाग्रम् २०१ कस्यचित् कोशतः खड्गम् कि भव्यः किमभव्योऽय- ४६४ करवालान् करे कृत्वा १०२ कस्यचित् क्रोधसंहारः किं भूमिगोचरेष्वस्या- ३७० कराग्रविधृतं खड्गं २०१ कस्याप्यकालचक्रेण १५२ किंवदन्ती विदित्वैताम् ३६३ कराङगुलौ विनिक्षिप्य ४७४ कांश्चित् सम्मानदानाभ्याम् ६२ कि वा सुरभटेरेभिः १५७ करिकण्ठस्फुटोद्घोष- ३६२ कांश्चिदालोकनैः कांश्चित् ३२६ किडकिणीकृतझडकारकरिणी नौभिरश्वीय कांश्चिदुर्गाश्रितान् म्लेच्छान् १०६ किञ्चिच्चान्तरमुल्लंघ्य १०७ करिणो हरिणाराती २१५ काकिणीमणिरत्नाभ्याम् किञ्चिच्चान्तरमुल्लंघ्य करिण्यो विसिनीपुत्र- २१५ काकिणीरत्नमादाय १२५ किञ्चित् पश्चान्मुखं गत्वा ११२ करिष्यामीति कोपेन ४६८ काकैरुलूकसम्बाध- ३२२ किञ्चिदन्तरमारुहयकरीरकन्धरारूढ़ः ३२२ काचिदुत्तापिभिर्वाणः किञ्चिदेकं वृणीते करीन्द्रभारनिर्भुग्न३२२ काञ्चिज्जरावती कुत्स्थ किञ्चिन्मात्रावशिष्टायाम् करीरवणसंरुद्ध काञ्चीस्थानं तदालोच्य ३६५ किन्तु प्रजान्तरं स्वेन करैरुत्क्षिप्य पद्मानि कान्तारत्नमभूत्तस्य २२८ किन्तु सोऽयं जयस्नेहात् करैगिर्यग्रसंलग्नः १८७ कान्ते जन्मान्तरावासम् किन्नराणां कलक्वाणः कर्णतालानिलाधूति कान्ते तस्यान्यदप्यस्ति ४८० किमत्र बहुना धर्म १७० कर्णाटकान् स्फुटाटोपकान्तोऽभूद् रतिषणया किमत्र बहुना रत्नैः २१८ कर्णान्तगामिनी नेत्रे काबेरीवारिजास्वाद किमत्र बहुना सोऽद्रिः काभ्यीकृतास्तस्य कामं स राजराजोऽस्तु किमंत्र बहुनोक्तेन १५५ कर्णोत्पलनिलीनालि- १६२ कामगैर्वायुरहोभिः किमत्र बहुनोक्तेन २८७ कन्वयक्रियाश्चैव २४४ कामग्रहाहिता तस्याः ४८८ किमत्र बहुनोक्तेन ३२६ कर्मनिर्मुक्तसंप्राप्यम् १०२ कामपाशायतौ बाहू किमत्र बहुनोक्तेन कर्मभिः कृतमस्यापि ५१२ कामरूपित्वमाप्तस्य किमप्येतदधिज्योतिः कर्माणि हत्वा निर्मूलम् ५०६ | कामशुद्धिर्मता तेषाम् २७१ । किमप्सर:शिरोजान्तकर्शयेन्मूर्तिमात्मीयाम् २८५ । कामोऽगमत् सुरतवृत्तिषु ४४५ किमम्बरमणेबिम्ब- १५१ م ११३ X , room M WKAMGGMAIm m ३४७ १६० Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किममम्भोजराजःपुञ्जकिमसाध्यो द्विषत् कश्चित् किमिदं प्रलयक्षोभाद् किमेतानि स्थलाब्जानि किमेष क्षुभितोऽम्भोधि: किरणस्तरुणैरेव किल तस्मिन् जयो नाम किल स्त्रीभ्यः सुखावाप्तिः किसलयपुटभेदी देवदारुकीदृक् परिच्छदस्तस्य कीर्तिः कुवलयाह्लादी कीर्तिर्बहिश्चरा लक्ष्मी: कीर्तिविख्यातकीर्तेमें कीपमानतां यातो कुक्षिवासशतान्यस्य कुङकुमागरुकर्पूर कुञ्जेषु प्रतनुतृणाङकुरान् कुटी परिसरेष्वस्य कुटीव च प्रसूतायाः कुडुम्बानोलिकांश्चैव कुण्डः शिल्पपुरोत्पन्नः कुण्डत्रये प्रणेतव्याः कुण्डश्च कश्चिदङगुल्या कुण्डोघ्नोऽमृतपिण्डेन कुतः कृता समुत्तुङगाकुतश्चित् कारणाद् यस्य कुतश्चिद् भगवत्यद्य कुन्तः सिंहाटको नाम कुन्तासिप्रासचक्रादिकुबेरदयितस्यापि कुबेरमित्रस्तस्यासीत् कुबेरादिप्रियश्चान्यः कुब्जां धैर्यां च चूर्णी च कुमारं चागमत्तत्र कुमारं पर्णलघ्वाख्य कुमारः प्राहरद् वंशस्तम्बं कुमार तव किं युक्तम् कुमारवंशौ युष्माभिः कुमारवचनाकर्णनेन कुमार समरे हानिस्तवैव कुमारोऽपि समीपस्थकुमारोऽहि कुमारोऽसौ कुमार्या त्रिजगज्जेता १६० १५२ ε कुमार्या निर्जितः कामः कुमार्यंव जितः कामो कुम्भस्थलीषु संसक्ताः कुरुराजस्तदास्फूर्जन् कुरूनवृत्तीन् पाञ्चालान् १६३ कुर्यादक्षतपूजार्थम् २६ ४६ ३५६ ४६६ १३० २२२ ३८२ ३८३ ३६२ ४१२ २२६ १०१ ७८ १३ ११३ ६ ६ ४६१ ३०१ ४६० श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ५ ३६६ ३११ ३१७ २३४ ४०४ ४५७ ४४७ ४६७ कुर्वन्ती शान्तिपूजां त्वम् कुर्वन् पञ्चनमस्कारकुलत्रमस्त्वया तात कुलचर्यामनुप्राप्तोकुलजातिवयोरूपगुणैः कुलधर्मोऽयमित्येषाम् कुलरूपवयोविद्याकुलादिनिलया देव्यः कुलाचलपृथुस्तम्भकुलानुपालनं तत्र कुलानुपालनं प्रोक्तम् कुलानुपालने चायम् कुलानुपालने यत्नम् कुलावधिः कुलाचारकुलोपकुल सम्भूतैः कुल्याः कुलधनान्यस्मै कुवलयपरिबोधं सन्दधानः कुसुमावचयासक्ते कूजन्ति कोकिलाः मत्ताः कूजितैः कलहंसानाम् कूटस्था वयमस्याद्रेः कृतं कृतं वतानेन कृतं वृथा भटालापैः कृतः कलकलः सैन्यैः कृतकार्यञ्च सत्कृत्य ७० ४८८ कृतकृत्यस्य तस्यान्तःकृतग्रन्थपरित्यागः कृतचक्रपरिभ्रान्तिः कृतदीक्षोपवासस्य कृतद्विजार्चनस्यास्य ४८ १ ४६० ३६३ कृतपूजाविधिर्भूयः ४२५ कृतमङ्गलनेपथ्यं ४८६ कृतमङ्गलनेपथ्यां ४११ कृतमङ्गलनेपथ्यो ४६२ कृतमङ्गलसङ्गीत ४२८ कृतमालश्रुतिव्यक्त्यै ३६७ कृतमालादयो देवा ३७७ | कृतयत्नाः प्लवन्तेऽमी ३६७ कृतराज्यार्पणो ज्येष्ठे कृतव्यूहानि सैन्यानि २५ ११८ ६६ २६१ ३६५ ४६२ २५३ २५२ ३०४ २४२ २६६ २६० ४२ ३३१ ३३३ २६४ ३३३ ३१२ ६२ ६४ ३८५ ४६६ २२ ४ १०६ २०६ १८५ ११४ १२६ २४० ५०३ १८४ २५४ २५० १४१ ११६ ३७७ ७ १२७ १०५ १७८ २० २६४ ११५ ३४२ १२ २४१ ३४४ कृतापदान इत्युच्चैः २०६ कृताभिषेकमेनं च १०० कृताभिषेकमेनं च २२१ २४६ कृतार्हत्पूजनस्यास्य कृतावधिः प्रियो नागात् २३२ कृतावासञ्च तत्रेनं ६१ कृतासनं च तत्रैनं १०१ ४२५ १०७ ११६ १२६ १२६ कृताहारपरित्यागकृती कतिपय रेष कृतोच्चविग्रहारम्भौ कृतोदयमिनं ध्वान्तात् कृतोपच्छन्दनं चामुम् कृतोपशोभमाबद्ध:कृतो भवान्तराबद्ध:कृतोऽभिषेको यस्यारात् कृत्वा कृशं भृशं मध्यम् कृत्वा जैनेश्वरीं पूजाम् कृत्वा धर्मपरिप्रश्नं ३० ४३: १७६ ३६५ ३७५ ५०: २५६ कृत्वा परिकरं योग्यं कृत्वा विधिमिमं पश्चात् २७३ कृत्वा विमाने सानुत्तरेऽभूत् ५०: कृत्वा व्यत्यक्षिपत् पापी ४८४ कृत्वा श्रोतृपदे कर्णौ कृत्वैवमात्मसंस्कारः कृत्स्नकर्ममलापायात् कृत्स्नामिति प्रसाध्यैनाम् केचिच्चमूचरस्थाने केचित् काम्बोजवालीककेचित् कीर्त्यङ्गनासङ्गकेचित् कृतधियो धीराः केचित् परिजनस्थाने केचित् सौराष्ट्रकैर्नागैः केचिद् बलैरवष्टब्धाः केचिद् रणरसासक्तकेचिन्नृत्तमिवातेनुः केतवो हरिवस्त्राब्ज कृतात्मरक्षरणश्चैव कृताध्वगोपरोधानि ५२५ कृतानुबन्धना भूयः कृतापदानं तद्योग्यः २२६ २५. २८० १२० २५० ह १६ १०० २५० £1 १०६ १६ १३/ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GK ami a prav wor:009 १२६ ५२६ महापुराणम् केन मोक्षः कथं जीव्यम् क्रीडन्नानाप्रकारेण ४४८ | क्षीरस्यतो निजान वत्सान् केनाप्यविदितो रात्रावेव क्रीडाहेतोरहिंस्रेऽपि क्षीराज्यममृतं पूतं ३०५ केरली कठिनोत्तुङगक्रुद्धा: खे खेचराधीशा: क्षुधं पिपासां शीतोष्ण २१० केवलाख्यं परं ज्योतिः १४२ क्रोधं तितिक्षया मानम् २१३ क्षुब्धाभिघातोच्चलितः केवलार्कादृते नान्यः ३१७ क्रोधान्धतमसे मग्नम् क्षुभितत्वं च संक्षोभः ३३६ केवलार्कोदयात् प्राक् च २१७ क्रोधान्धेन तदा दध्ये क्षेत्र निष्पादयत्येकम् ४४८ केशवापस्तु केशानां २४८ क्लिष्टाचाराः परेनैव क्षेत्रज्ञाऽऽज्ञा सभाकीर्तिः २८४ केषाञ्चित् पत्रनिर्मोक्षम् क्वचिच्छुकमुखाकृष्ट क्षेत्रवास्तुसमुत्सर्गात् २८६ कैलासाचलमभ्यर्णम् क्वचिच्छुक्तिपुटोद्भेद क्षेत्ररोति तयोरग्रे ४६३ कैश्चिद् वीरभटै वि १६२ क्वचित् किन्नरसम्भोग्यः १३२ क्षेमैकतानतां भेजुः २२२ कोककाम्तानुरागरण १६३ क्वचित् सितोपलोत्सङग- १३३ क्षौमांशुकदुकूलश्च कोकिलानकनिःस्वानः क्वचित् स्फुटितशुक्तिमौक्तिक- ५१ ख कोकिलालापमधुरैः क्वचिदुत्फुल्लमन्दारकोटयोऽष्टादशाश्वानाम् २२३ क्वचिद् गजमदामोद खगा: खगान् प्रति प्रास्ता: ४०० कोटयोऽष्टादशास्य क्वचिद् गुहान्तराद् गुज खगाद्रेः पूर्वदिग्भागे ४८५ कोटीशतसहस्रं स्याद् २२६ क्वचिद् वनान्तसंसुप्त खचरादिरलङध्योऽपि को नाम मतिमानीप्सेद् २०६ क्वचिद्विरलनीलांशु- १३२ खण्डनादेव क्रान्तानां ४१५ कोपदष्टविमुक्तौष्टम् क्वचिन्निकुञ्जसंसुप्तान् खण्डितानां तथा तापो ४१५ कोऽयं प्रभुरवष्टम्भी ११६ क्वचिन्महोपलच्छाया ४४ खद्वयर्तुखपक्षोरु ५०३ कौक्षेयकैनिशाताग्रक्वचिन्मृगेन्द्रभिन्नेभ खपक्षसप्तवार्राशिकौपीनाच्छादनं चैनम् ३१० क्वचिल्लतागृहान्तःस्थ खभूचरशरच्छन्ने ४०१ कौबेरीमथ निर्जेतुम् क्वचिल्लताप्रसूनेषु ११ खमुन्मगितिरीटांशुकौबेरी दिशमास्थाय क्वचिद् विश्लिष्टशैलेय खरः प्रणयगर्भेषु कौसुमं धनुरादाय क्व ते गुणा गणेन्द्राणाम् खलूपेक्ष्य लघीयाक्रमान्मुनीन्द्रनिष्क्रान्ति क्व लब्धमिदमित्याख्यत् | खुरोद्धृतान् महीरेणून क्रमेण कुङ्कुमाद्रण ४५ क्व वयं क्षुद्रका देवाः १०५ क्रमेण देशान् सिन्धूंश्च १७४ क्व वयं जितजेतव्याः १५६ क्रमेलकोऽयमुत्त्रस्तः २८ क्वासौ रतिवरोऽद्यति | गङगातटवनोपान्त १२७ कव्यास्रपायिनः पत्रवाहिनो ३६७ क्षणं रथाङगसंघट्टात् गङगाद्वारं समुल्लङघ्य १७८ क्रान्त्वा स्वस्योचितां भूमिम् २५१ क्षणं समरसघट्ट गङगापगोभयप्रान्त १२६ क्रियाकलापेनोक्तेन २७४ क्षणमस्ताचलप्रस्थ | गङगावर्णनयोपेताम् क्रियाकल्पोऽयमाम्नातो २४५ क्षतात् त्रायत इत्यासीत् गङगासिन्धू सरिदेव्यौ २२१ क्रियागर्भादिका यास्ता- २७१ क्षतीर्वन्येभदन्तानाम् गच्छन् मनोरमे राष्ट्र ४८३ क्रियाग्रनिर्वृ तिर्नाम क्षतैरनुपलक्ष्याङगं ४१६ गच्छन् स्थितमधो भागे ४८४ क्रियामन्त्रविहीनास्तु ३१५ क्षत्रियाणां कुलाम्नायः गजं गजस्तदोद्धव्यवाहो क्रियामन्त्रानुषङगरण ३१५ क्षत्रियास्तीर्थमुत्पाद्य ३३४ गजतावनसम्भोगैः क्रियामन्त्रास्त एते क्षत्रियो यस्त्वनात्मज्ञः ३४२ गजताश्वीयरथ्यानाम् ११२ क्रियामन्त्रास्त्विह ज्ञेया: क्षमामथोत्तमां भेजे गजदन्तान्तरालानि क्रियाशेषास्तु निःशेषा क्षायिकानन्तवीर्यश्च गजप्रवेकर्जात्यश्वैः क्रियोपनीति मास्य क्षितिसार इति ख्यातः २३३ गजयूथमितः कच्छाद् क्रीणाति शकुनादीनाम् ३४५ क्षीबकुञ्जरयोगेऽपि गजस्कन्धगता रेजुः २०० क्रीतांश्च वुत्तिमूल्येन क्षीरप्लवमयीं कृत्स्नां गजः पश्य मृगेन्द्राणाम् १३५ क्रीडनासक्तकान्ताभिः ३७३ । क्षीरवृक्षोपशाखाभिः ३०६ । गर्गण्डोत्पलरश्वः mmmmmm mdr or mr" mr mmmr mard m OMM २०G xmur ४६० १८५ or orm १४ » لا لا لا لا لا २४८ ل ا x Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरणग्रहः स एष स्यात् गरणपोषणमित्याविगरणयन्ति महान्तः किम् गणाध्युषितभूभाग गणानिति क्रमात् पश्यन् गरणी तेनेति सम्पृष्टः गणी वृषभसेनाख्यः गतप्रतापः कृच्छ्रात्मा गतस्ततस्ततः श्रेयान् गतानि सम्बन्धशतानि गतायां स्वेन सड़कोचम् गताशा वारयो म्लान गतिस्खलनतो ज्ञात्वा गते मासपुयक्त्वे च गतो नु दिनमन्वेष्टुम् गत्वा कतिपयान्यब्धौ गत्वा किञ्चिदुदग्भूयः गत्वा च गुरुमद्राक्षुः गत्वा च ते यथोद्देशम् गत्वा पुष्पगिरेः प्रस्थान् गन्तुं सहात्मना तस्य गन्धप्रधानमन्त्रश्च गन्धेः पुष्पैश्च धूपश्च गन्धोदकाद्रितान् कृत्वा गम्भीरामतिगम्भीराम गम्भीरावर्तनामान: गर्भशोऽहं गिरेरस्मीगर्जद्भिरतिगम्भीरम् गर्भाधान क्रियामेनाम् गर्भाधानात् परं मासे गर्भान्वयक्रियाश्चैव गलद्गङगाम्बनिष्ठघूताः गलधर्माम्बुविन्दुनि गलन्मदजलास्तस्य गलितान्योन्यसम्प्रीतिगवां गणानथापश्यत् गान्धारी बन्धकीभावम् गान्धारी सर्पदष्टाऽहमिति गाईपत्याभयं पूर्वम् गार्हस्थ्यमनुपात्यैवम् गिरिकूटकमित्यासीत् गिरिदुर्गोऽयमुल्लङघ्यो गिरीन्द्रशिखराकारमारह २७३ २५५ ३५४ १४५ १४० ३५८ ५०८ गुगुपालमहाराजः गुणपालमुनीषोऽस्मत्गुणपालाय सदाज्यम् ४११ ५०८ ४१८ गुग्गुपालाय दत्वा स्वाम ५१२ गुणभूमिकृताद् भेदात् गुरणयन्निति सम्पत्तिगुणवत्यायिकां दृष्ट्वा गुरणाः क्षमादयः सर्वे ३८४ २१६ २४८ | गुणागुणानभिज्ञेन १८७ रिंगन के नान्धाः ४६ गुणिनां गुणमादाय गुणेनतेन शिष्टानाम् १ १५६ | गुणेष्वेष विशेषोऽन्यो १५६ ६८ ४५६ २६० १०१ २४८ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः गिरेरधस्तले दूराद् १३३ गीर्वाणः कृतमाल इत्यभिमतः १११ गीर्वाणा वयमन्यत्र १०५ २४ गुग्गुलूनां वनादेष गुणतोऽपि नवैशिष्टयम् ३४७ ४७६ ४८० ६७ २३६ १०६ गुणैरेभिरुपारूढगुप्तित्रयमयीं गुप्तिम् गुरु वन्दितुमात्मीयं गुरुप्रवाहप्रसृतां गुरुप्रसाद इत्युच्चैः गुरुर्जनयिता तत्त्वगुरुसाक्षितया देहा गुरूणामेव माहात्म्यम् गुरोरनुज्ञया लब्धगुरोरनुमतात् सोऽपि गुरोरनुमतेऽपीतिगुरोर्वचनमादेयं गुर्वोर्गुरुत्वं युवयोः गुल्फदघ्नप्रसूनौष ४३ २४५ २४६ २४४ १२७ २७ २२२ ४५३ ११ ४६७ ४६६ ५०८ गृहशोभां कृतारां गृहाणेहास्ति चेद् दोषम् २८३ २३३ गृहाश्रमे त एवार्याः गृहीतप्रग्रहस्तव १०३ ४०६ | गृहीतोत्कोच इत्येष गुहाम समपध्वान्तम् गुहामुखस्फुरद्धीरगुहेयमतिगृध्येव गुहोष्मरणा स नाश्लेषि गृधपक्षानिलोि गृहत्यागस्ततोऽस्य ४६८ ४६८ २४१ १७४ ४६६ ३८८ ३५४ ४४० ३५३ ३४८ ३१५ २७ε २१२ ४८१ १४ १६० २७२ ३४२ ३५३ २५१ २५५ २०६ १७८ ४५८ १३७ १७८ ८६ ११५ १०८ ४०६ २७६ २६६ ३५३ ४२६ ३८१ ४७२ गृहीत्वा वज्रकाण्डाख्यम् गृहे तस्य समुत्तुङगे गोकुलानामुपान्तेषु गोचराग्रगता योग्यम् गोत्रस्थलनसंवृद्ध गोदोहे: प्लाविता धात्री गोपायिताऽहमस्याद्रेः गोपालको यथा यत्नाद् गोपालको यथा यूथे गोभिः प्रकाश्य रक्तस्य गोशीर्षं दर्दुराद्रिं च गोष्ठागरणेषु संल्लापैः गौरवस्त्रिभिरुन्मुक्तग्रहोपरागग्रहणे ग्रामकोटचश्च विज्ञेया ग्रामान् कुक्कुटसम्पात्यान् ग्रीष्मे करसन्तापम् घ घटदासी कृता लक्ष्मी: पटयन्ति न विघ्नकोटयो घण्टामधुरनिर्घोषघनं तमो विनाकरण पनावरणनिर्मुक्ताः घनावरणरुद्धस्य पनावली कृक्षा पाण्ड घातिकर्मक्षयोद्भूताम् घातिकर्मत्रयं हत्या घातिकर्ममलापायात् च चक्रं तदधुना कस्मात् 'चक्रं नाम परं दैवम् चक्रध्वजं समुत्थाय चक्रभृद् भरतः खष्टः चक्रमस्य ज्वलद्योग्निमक्रमाकान्तदिवचक्रम् चक्ररत्नं पुरोधाय चकरत्नप्रतिस्पद्धि चकरत्नमभूज्जिष्णोः चकलाभो भवेदस्य चक्रवाकयुवा भेजे चकवाकी धृतोत्कण्ठम् ५२७ ३६६ ४४७ ३६ १६१ ३२३ १०० ३४३ ३४४ ४३१ ७० ३६ २१२ २८३ २२६ १३ १६४ १७६ ४२२ ४०७ १८५ ६ ३२३ ३ २१८ ५०० १४२ १५२ १५३ ३६३ २०८ १० १५२ २६१ ८ २३५ २६० २६ १८८ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક चक्रवाकी सरस्तीरे चक्रवाकीमनस्तापचक्रव्यूहविभक्तात्मचक्रसंघट्टसम्पिष्ट चक्रसन्दर्शनादेव चक्रातपत्रदण्डासि चक्रात्मना ज्वलत्येष चक्रानुयायि तद् भ्रजे चक्राभिषेक इत्येक चक्राभिषेकसाम्प्राज्ये चक्रायुधोऽयमरिचक्रमयचक्रासिदण्डरत्नानि चक्रिरणश्चक्रमेकम् चला ज्ञापितो भूयः चक्रिणोऽवसरः कोऽस्य चत्रित्वं चरमागत्वम् चत्रिसूनोः पुनः सेनाचक्री सुतेषु राज्यस्य चकोत्पत्ति भद्र चञ्च्वा मृणालमुद्धृत्य चटुलोज्ज्वलपाठीनचण्डाः कोदण्डकन्तासिचण्डाकाण्डाशनिप्रख्य चरकाण्डमृत्युश्च चतस्रश्चेटिकास्तासाम् चतुरः भावकज्येष्ठ चतुरुत्तरयामीत्या चतुर्जनपदाभ्यन्तरस्थचतुर्ज्ञानमलज्योतिःचतुर्णामाश्रमाणां च चतुर्दशभिरन्विताम् चतुर्भिरधिकाशीतिः चतुर्भिरधिकाशीतिरितिचतुर्भेदेऽपि बोधोऽस्य चतुष्केषु च रयातु चतुष्टयीं वनश्रेणीम् चतुष्पदादिभिस्तिर्यग् चन्दनद्रवसंसिक्त चन्दनद्रवसं सिक्त सुन्दराङगचन्दनद्रवसिन्ताग्यः चन्दनागुरुकर्पूरेचन्दनोद्यानमाधूय चन्द्रग्रहणमालोक्य - २० १८८ ३६६ ४०४ ६१ २२८ १०६ १० २६२ २४४ ६० २२८ ४०१ ११३ १०३ ४६ ४११ ४११ ५० १० ४३९ ३६३ २३४ ४०० ४७७ २७५ ५०३ ४६० ५०३ २८३ १६ २२३. ३५७ २१३ १ ३१८ ५०४ १५.१ २३१ १६० ५०७ ८४ ४६४ महापुराणम् चन्द्रपादास्तपन्तीव चन्द्रमाः करनालीभिः चन्द्रे तीव्रकरोत्सन्नाचमरीबालकान् केचित् चमरीबालकाबिद्धः चमरोऽयं चमूरोधाद् चमूपतिरयोध्याख्यो चमूमतङगजा रेजुः चमूरवधवादेव चमूरवधवोभूत चम्पका विकसन्तोऽत्र चरणालग्नमाकर्षन् चरणोचितमन्यच्च चरन्ति वनमानुष्या चरमाडगपरो धीर चरमागन्धरावेतौ चर्मरत्नं स्फुरद्रक्तवृश्चिक चर्या तु देवतार्थ या चर्येषा गृहिणां प्रोक्ता चलच्छाखी चनत्सत्वचलतां रथचकारणां चलत्प्रकीर्णकाकीर्णचलत्सत्त्वो गुहारन्ध्रः चलत्सितपताकालिचलदश्वीय कल्लोलैः चलरिरोपट्ट चलद्भिरचलोदग्रैः चलिते चलितं पूर्वं नातका वादवृष्टचा चापमाकरणं माकृष्य चामराणि तवामूनि चामराष्युपमामानम् चामरैवज्यमानोऽपि चामत्क्षेप ताम्बूलदान चारणत्वं तृतीयं च चारणाध्युषितानेते चारुचक्रधरस्यायम् चिताः सिताः समाः स्निग्धाः चित्तदुमस्य वेद् वृद्धिः चित्रं जगत्त्रयस्यास्य चित्रं महेन्द्रदत्ताख्यो चित्रं प्रतोलीप्राकारचित्रवर्णा धनाबद्ध १६१ ४१४ ३६७ ३७ ३७ २४ २३५ २०० ६३ ६८ २१ ७५ २४६ २०७ १२५ २०३ ४६२ २८८ २८३ ८६ १३१ १४० ८६ ४०७ ३० ३६२ ४१ ६२ ३७८ ४०१ १४४ २३४ २२२ ३२७ ४६१ १३५ १८३ ३६६ ४६६ ३८२ ३७८ ३७१ ३ १२२ चित्रैरलङ्कृता रत्नैः चिन्तामपास्य गुरुशोककृताम् ५१२ चिरं निरीक्ष्य निर्विण्णाः ४५१ चिरं वर्द्धस्व वद्धिष्णो चिरमाकलयवम् चिराच्चक्रधरस्याद्य चिरात् पर्यायमासाद्य चिरात् समरसम्मर्दः चिरानुभूतमप्येवम् चिरासनेऽपि तत्रास्य बेटक्याः प्रियदत्तायाचेतांसि तरगागोप चेदिपर्वतमुल्लय चैत्यचैत्यालयादीनां चैत्यचैत्यालयादीनां चोदनालक्षणं धर्मं चीलिकान्नालिकप्रायान् चौलकर्मण्यथो मन्त्रः चोलाख्यया प्रतीतेयम् च्यवन्ते स्वस्थितेः काले छ छवं चन्द्रकरापहासि रुपिरे छत्रत्रयकृतच्छाय छत्रभङगाद् विनाप्यस्य छत्ररत्नकृतच्छायो छत्ररत्नमुपर्यासीत् छत्रषण्डकृतच्छायम् छावात्मानः सहोत्थानम् चित्रदण्डः फलैः कश्चिद् छिन्नदन्तकरो दन्ती छिन्नश्चक्रेण शूराणाम् ज जगतः प्रसवागाराद् जगति जयिनमेनम जगत्त्रितयनाथोऽपि जगस्थितिरिवानाया जगद्गृहस्य सौगन्ध्यम् जगाद सापि मामेष जगादैनमिति श्रुत्वा जनक्षयाय सङग्रामो जनतोत्साररव्यय १२७ २०८ १७७ ४०४ १८५ ३१ १०१ ४६८ ६७ २४२ ३२५ २०१ ७० ३०६ २४८ ३८८ १११ १४० १८३ २६ ११६ ३० ६६ ३६६ ४२० ४०६ S २२० ५.५० ११३ ५०७ ४८६ ४६२ ३४७ ३१ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ५२९ र ४८० १६७ १६८ जननी वसुपालस्य जन्तुसम्भवशङकायाम् जन्तो गेषु भोगान्ते जन्मरोगजरामृत्यून् जन्मसंस्कारमन्त्रोऽयम् जन्मानन्तरमायातः जन्मावबुद्धय वन्दित्वा जम्बूद्वीपे विदेहेऽस्मिन् जयं शत्रुदुरालोकम् जयः परस्य नो मेऽद्य जयः प्रसादमध्यास्य जय एव मदादेशाद् जयकरिघटाबन्धजयकुञ्जरमारूढः जयताच्चक्रवर्तीति जयति जननतापजयति जयविलासः जयति जिनवराणाम् जयति समरभेरीजयति तरुरशोको जयति दिविजनाथैः जयति भरतराजजयति भुजगवक्त्रोद्वान्तजयति भुजबलीशो जयति मदनबाणः जयति जिनमनोभः जयद्विरदमारूढो जयधामा जयभामा जय निजितमोहारे जय निर्मद निर्माय जय निस्तीर्णसंसारजयनिस्त्रिशनिस्त्रिशजयन्ति जितमत्यवो जयन्ति विधुताशेषजयन्त्यखिलवाङमार्गजयपुण्योदयात् सद्यो जयप्रयाणशंसिन्यजय प्रबुद्ध सन्मार्गजयप्रहितशस्त्राली जयमानीय सन्धाय जयमुक्ता द्रुतं पेतुः जयलक्ष्मी नवोढायाः जय लक्ष्मीपते जिष्णोः ४८० जयलक्ष्मीमुखालोक जातकर्मविधिः सोऽयं ३०६ जयवत्यात्तसौन्दर्या जाता वयं चिरादद्य १०६ जयवत्यादिभिः स्वाभि: ४88 जाताश्चापधृताः केचिद् ३६८ ४६८ जयवर्मा भवे पूर्वे ५०८ जातिः सैव कुलं तच्च ३०४ जयवादोऽनुवादोऽयम् जातिक्षत्रियवत्तजित- ३४६ २६० जयश्रीदुर्जयस्वामी ४२० जातिमन्त्रोऽयमाम्नातो २६४ ४५७ जयश्रीशफरीजालम् जातिमानप्यनुत्सिक्त- २८४ जयसाधनमस्याब्धे ८५ जातिरैन्द्री भवेद्दिव्या २८४ ४१६ जयसेनाख्यमुख्याभिः ४९३ जातिप॑तिश्च तत्रस्थम् २८४ ४०५ जयस्तम्बरमा रेजुः २०० जाती सागरसेनायाम् ४६५ जयस्य विजयः प्राणः जात्यादिकानिमान् सप्त- २८४ ४३० जयाखिलजगद्वेदिन् १४६ जात्यैव ब्राह्मणः पूर्वम् ३१० १६ जयाध्वरपते यज्वन् १४७ जातकैरिन्द्रजालेन ३६१ ११२ जयावत्यां समुत्पन्नो जितजेतव्यतां देव १५७ जयनास्थानसङग्राम४२१ जितजेतव्यपक्षस्य १५४ १६८ जयेश जय निर्दग्ध १४६ जितनिर्घातनिर्घोषम् जयेश विजयिन् विश्वम् जितनूपुरझङकारम् ११० जयो ज्यास्फालनं कुर्वन् जितमेघकुमारोऽयम् ३८२ १६७ जयो नामात्र कस्तस्मै जितां च भवतवाद्य २०८ जयोऽपि जगदीशानम् ४२२ जितान्तक नमस्तुभ्यम् १४८ जयोऽपि शरसन्तान ४१६ जितामरपुरीशोभा२२० जयोऽपि सुचिरात्प्राप्त जित्वा महीमिमां कृत्स्नाम् १३१ २१४ जयोऽपि स्वयमारुहर जित्वा मेघकुमाराख्यान् ३८२ २१६ जयोऽप्यभिमुखीकृत्य ४१० जित्वा म्लेच्छनृपौ विजित्य १३० जयोऽप्येवं समुत्सिक्त- ३६१ जिनमतविहितं पुराणधर्मम् १६७ जयो महारसः कच्छ जिनविहितमनूनं संस्मरन् जयोऽयात् सानुजस्तावद् जिनाज्ञानुगताः शश्वत् ४६७ जयोऽयात् सो यश्च ४२४ जिनानुस्मरणे तस्य ३२६ १४६ जरज्जम्बूकमाघ्राय २१५ जिनार्चाभिमुखं सूरिः २७२ १४७ जरज्जरन्त ऋङगाग्र जिनालये शुचौ रङगे २७२ १४७ जरठविसिनीकन्द१६५ जिनेन्द्रभवने भक्त्या ४६१ ४१२ .जरठेऽप्यातपो नायम् २५ जिनेन्द्राल्लब्धसज्जन्मा २७८ जराभिभूतमालोक्य ४८६ जिनेषु भक्तिमातन्वन् ३२५ जरायुपटलं चास्य जीयादरीनिह भवानिति ५६ २४० जलदान् पेलवान् जित्वा जीवाजीवविभागज्ञा १६७ जलदृष्टिनियुद्धेषु २०४ जीवादिसप्तके तत्त्वे ५०४ १२६ जलस्तम्भः प्रयुक्तोऽनु जीवेति नन्दतु भवानिति जलस्थलपथान् विष्वक् जैनास्तु पार्थिवास्तेषाम् ३३३ ४०६ जलादजगरस्तिमिम् जैनीमिज्यां वितन्वन् ३४६ ४२७ जलाद् भयं भवेत् किञ्चित् ४३७ जैनेश्वरी परामाज्ञाम् २८७ ४०६ जलाब्जं जलवासेन जैनोपासकदीक्षा स्यात् २७४ ४०७ जलौघो भरतेशेन २०४ ज्ञातप्राग्भवसम्बन्धा ४६० १४६ - जल्लं मलं तृणस्पर्श- २११ । ज्ञातव्याः स्युः प्रपञ्चेन २८३ १६७ ३३ ०. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० महापुराणम् ज्ञातिव्याजनिगूढान्तः ज्ञातृधर्मकथां सम्यक् ज्ञात्वा तदाशु तद्बन्धु ज्ञात्वा समागतं जिष्णः ज्ञात्वा सम्भाव्यशौर्योऽपि ज्ञात्वा सूत्रकृतं सूक्तम् ज्ञानजः स तु संस्कारः ज्ञानध्यानसमायोगो ज्ञानमूर्तिपदं तद्वत् ज्ञानविज्ञानसम्पन्नः ज्ञानशुद्ध्या तपः शुद्धिः ज्ञानोद्योताय पूर्वं च ज्ञेयः पुरुषदृष्टान्तो ज्येष्ठः प्रणम्य इत्येतत् ज्येष्ठे न्यायगतं योग्य ज्योतिनिमथ ज्योतिर्वेगागुरुं प्रीत्या ज्योत्स्नाकीतिमिवातन्वन् ज्योत्स्नादुकूलवसना ज्योत्स्नामये दुकूले च ज्योत्स्नासलितसम्भूता ज्वलत्प्रतापः सौम्योऽपि ज्वलत्येवं स तेजस्वी ज्वलत्यौषधिजालेऽपि ज्वलदचिः करालं वो ज्वलद्दावपरीतानि ज्वलन्त्योषधयो यस्य ज्वलन्मुकुटभाचक्रो १५१ १७३ | तच्छासनहरा गत्वा | ततः परम्परेन्द्राय स्वाहा तच्छिखित्रयसान्निध्ये ५०८ ततः परार्थसम्पत्त्य २६७ ३७१ तच्छुद्धयशुद्धी बोद्धव्य २८२ ततः पर्यन्तविन्यस्त११६ तच्छेषादिग्रहे दोषः ३३२ ततः पुण्योदयोद्भूताम् २३७ ३८६ तच्छेषाशीर्वचः ३३२ ततः पूजाङगतामस्य ३०१ तच्छौर्यं यत्पराभूतेः ४२० ततः पूर्ववदेवास्य २७७ तच्छ त्वा नेत्रभूता नौ ततः प्रचलिता सेना तच्छु त्वा पुनरप्याभ्यां ततः प्रतीतभूपालपुत्रा ३६६ २६४ तच्छ त्वा साऽब्रवीदेवम् ततः प्रतीपमागत्य १०१ २५४ तज्जलं जलदोद्गीर्ण ततः प्रभृत्यभीष्टं हि २४७ २१३ तज्जातौ चक्रिरणो देवी ४८१ ततः प्रयारणकैः कश्चिद् ११३ २६१ तज्ज्ञात्वा मत्पिता पुत्र ४७० ततः प्रविश्य साकेत- ३२३ ३३५ तटनिर्भरसम्पातैः १३२ ततः प्रसन्नगम्भीर- १५३ १८२ तटशुष्कांघ्रिपासन्न ४५१ ततः प्रसेदुषी तस्य ४६७ तटस्थपुटपाषाणः ८८ ततः प्राची दिशं जेतुम् २५० तटाभोगा विभान्त्यस्य १२२ ततः प्राविक्षदुत्तुङग- ३१८ ४८२ ततः कञ्चुकिनिर्देशाद् ३७६ ततः प्रास्थानिक: पुण्यततः कतिपये देवा: . १५१ ततः श्रेष्ठिगृहं याता ४६६ ततः कतिपयरेव ततः श्रेयोऽथिना श्रेयम् २७० ततः कतिपयरेव ११५ ततः षट्कर्मणे स्वाहा २६४ ततः कतिपयरेव ततः सद्गृहिकल्यारिण- ३०३ ततः कतिपयरेव प्रयारणः ततः सप्तदिनैरेव ४६३ १७३ ततः कलियुगेऽभ्यर्णे ततः समरसंघट्टे १८५ ततः किञ्चित् स्वलद्गो १२५ ततः समुदिते चण्डदीधितौ ४६० १५४ तत: किञ्चित् पुरो गच्छन् १३८ ततः समुद्रदत्तश्च ४६५ ८८ ततः कुमारकालेऽस्य २६० ततः समुद्रदत्ताख्यो ४४६ ८8 ततः कुतूहलाद् वाधिम् ततः समुद्रदत्तोऽपि ४६७ २०५ ततः कृतभयं भूयो १८६ ततः सर्वप्रयत्नेन ३१४ ततः कृतयुगस्यास्य ३१७ ततः सर्वेऽपि तद्वार्ताकर्णनाद् ४५६ ततः कृतार्थमात्मानम् २५३ ततः सुखावतीपुत्रम् २४० ततः कृतेन्द्रियजयो २६४ ततः सुविहितस्यास्य २५४ ३७२ ततः कृतोपवासस्य २७२ ततः स्वकाम्यसिद्ध्यर्थम् ततः क्षरणमिव स्थित्वा ततः स्थपतिरत्नेन ४८४ ततः क्षात्रमिमं धर्मन् २६५ तत: स्थितमिदं जैनात् १०७ तत: क्षेपीय एवासौ ३१८ ततः स्वभावसम्बन्धम् ४६५ ततः पञ्चनमस्कार ततः स्म बलसंक्षोभाद् ४८८ तत: परं निषद्यास्य ततः स्वयंवरो युक्तो ४५६ १७७ ततः परः प्रधानत्वम् ३३८ ततः स्वस्य समालक्ष्य १२४ तत: परमजाताय २६१ तत आमुत्रिकापाय- ३४१ ४२० ततः परमजाताय २९६ तत जितपुण्यति ३०६ ततः परमरूपाय २६६ तततारावली रेजे १८६ तत: परमवीर्याय पदम् २६६ ततश्चक्रधरादिष्टा ३३१ । ततः परमार्हताय स्वाहा २६७ । ततश्चक्रधरेणार्य ३६२ ३२० तं कृष्णगिरिमुल्लङघ्य तं नत्वा परमं ज्योतिः तं निरीक्ष्य क्षितेर्भर्ता तं परीत्य विशुद्धोरु तं पुरातनरूपेरण तं रूप्याद्रिगुहाद्वारनं लौहित्यसमुद्रं च तं वीक्ष्य धूमवेगाख्यः तं शासनहरं जिष्णोः तं शैलं भुवनस्यैकम् तं सहस्रसहस्रांशु त इमे कालपर्यन्ते तच्चक्रमरिचक्रस्य तच्चेदं कुलमध्यात्म Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततश्च दिव्यजाताय स्वाहा ततश्च स्वप्रधानाय २६७ २६१ २६८ ३०२ ततश्च्युतः परिप्राप्तमानुष्यः ३४२ ५०६ ततश्च्युतो जयन्तोऽभूद् ततस्तमूचुरभ्यर्णाः ४८ ततस्तस्मिन् वने मन्दम् ततस्तितिक्षमाणेन ततस्तुर्यावशेषेऽह्नि ततस्ते जलदाकारततस्त्वयि वयोरूप ततान्धतमसे लोके ततो गत्वाहमिन्द्रोऽभूत् ततो गुरणकृतां स्वस्मिन् ततो जितारिषड्वर्गः ततोऽतिबालविद्यादीन् ततो दृष्टापदानोऽयं ततो दिव्याष्टसहस्रततो धनवती दीक्षाम् ततो धनुर्धरप्रायम् ततोऽधिगतसज्जाति: ततोऽधिरुह्य तं शैलम् ततोऽधीताखिलाचारः ततो ध्यायेदनुप्रेक्षाः ततोऽध्वनि विशामीशः ततो नभस्यसी गच्छन् ततो नानानकध्वानप्रोत्कीर्ण- ३७३ ४६० ३६६ ततो नास्त्यत्र नश्चर्व्यम् ततो निरुद्ध निःशेष २६७ ११८ ३०६ १३८ २७३ २७३ ८५ ततो निववृते जित्वा ततो निर्ग्रन्थमुण्डादिततोऽन्तः प्रविशन् वीक्ष्य ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या ततोsपमृषितेनालम् ततोऽपरान्तमारुह्यभ् ततोऽपि नेमिनाथाय ततो भस्म समादाय ततोऽभिमतसंसिद्ध्यै ततोऽभिषेकमाप्नोति ततो भुक्तोत्तरास्थाने ततो मतिमतात्मीयततो मध्यंदिनेऽभ्यर्णे २६८ ५० ततश्चानुपमेन्द्राय स्वाहा ततश्चार्हन्त्यकल्याणभागी ε & १५८ ३२७ ११७ ३८३ १८६ ५०६ ३१२ २६५ ३१० ११८ ३०६ ४५८ ११६ २७८ १३७ २५४ ३४२ १० ४५ २६१ ३२७ ३४१ २६ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः २६२ ३१५ ३३३ ३२७ तत्कालोचितमन्यच्च तत्कालोचितवृत्तज्ञः तत्कालोचितसामोक्त्या तत्कुमारस्य संस्पर्शात् तत्क्रमौ नूपुरामञ्जुतत्खेचरगिरौ राजपुरे तत्तटोपान्तविश्रान्ततत्तपःफलतो जातम् ३७४ १६४ ३०३ ३१० ३१२ २५७ ततोऽयमुपनीतः सन् २७४ ततो राज्यमिदं हेयमपथ्यमिव ३४१ ततोऽवगाहनादस्य २८६ २५६ ४८३ २६ २५२ १५३ १३ ३७ ततो मध्यंदिनेऽभ्यर्णे ततोऽमरात् प्रमेयोक्ती ततो महानयं धर्मः ततो महान्वयोत्पन्ना ततो महीभृतः सर्वे ततोऽमी श्रुतनिःशेषततो मुनीन्द्र कल्याणततोऽयं कृतसंस्कारः ततोऽयं शुद्धिकामः सन् ततोऽयमानतानेतान् ततोऽवतीर्णे गर्भेऽसौ ततोऽवतीर्य श्रीपालः ततोऽवरोधनवधूततो वर्णोत्तमत्वेन ततो वाल्पमिदं कार्यम् ततो विदूरमुल्लङ्घ्य ततो विदूरमुल्लङ्घ्य ततो विद्योपदेशोऽस्य ततो विधिममुं सम्यग् ततो विधिवदानर्च ततो विश्वेश्वरास्तन्य ततो विसर्जितास्थानः ततो व्यत्यासयन्नेव ततोऽसौ दिव्यशय्यायाम् ततोऽसौ धृतदिव्यास्त्रो ततोऽस्माद् विजयस्तस्माद् ततोऽस्मै दत्तपुण्याशीः ततोऽस्य केवलोत्पत्तौ ततोऽस्य गुर्वनुज्ञानाद् ततोऽस्य जिनरूपत्वम् ततोऽस्य दिग्जयोद्योगततोऽस्य पञ्चमे वर्षे ततोऽस्य विदिताशेष ततोऽस्य वृत्तलाभः स्यात् ततोऽस्य हायने पूर्णे ततोऽस्याधीतविद्यस्य ततोऽहमिन्द्रस्तस्माच्च ततो हिरण्यवर्मायाद् तत्कथं कर्मभूमित्वाद् तत्करर्णावेव कर्णेषु २६० ३१६ १४१ ३०५ ३२७ १-१ २५७ ६३ ५०६ ३८ २६६ २५१ २७६ १ २४८ २५४ २७२ २४८ २५० ५०६ ४६० ३३१ ३६६ तत्तु स्यादसिवृत्त्या वा तत्त्राणे च नियुक्तानां तत्त्वादर्श स्थिते देवे तत्पत्नी शुक्लपक्षादिदिने तत्पदोपान्तविश्रान्ता तत्पालनं कथं च स्यात् तत्पुरे वरकीर्तीष्टकीर्ति तत्प्रकाशकृतोद्योतम् तत्प्रतिष्ठाभिषेकान्ते तत्प्रश्नावसितावित्थम् तत्प्राप्य सिन्धुरं रुध्वा तत्फलं सन्मति मुक्त्वा तत्फलेनाच्युते कल्पे तत्सत्यमेव मत्तोऽन्याम् तत्सभावर्तनामेतत् तत्समीपे नृपेरणामा तत्सम्भूतौ समुद्भूतम् तत्सिद्धकूटपूजार्थं कान्ता तत्सोपानेन रूप्याद्रेः तत्स्वप्नदर्शनात् किञ्चित् तत्र कल्पोपमैर्देवैः तत्र कश्चित् समागत्य तत्र काचित् प्रियं वीक्ष्य तत्र किन्नरनारीणाम् तत्र क्षरणमिवासीने तत्र चैत्यद्रुमांस्तुङ्गान् तत्र तं सुचिरं स्तुत्वा तत्र नित्यमहो नाम तत्र पक्षो हि जैनानाम् तत्र पश्यन् सुरस्त्रीणाम् तत्र बन्धुजनादर्थ तत्र भद्रासनं दिव्यम् तत्र वारविलासिन्यो तत्र वास्तुवशादस्य तत्र शय्यासने सुप्त्वा ५३१ २६२ ४३५ ४३६ ४८८ २२८ ४८५ १२४ ४६८ ३११ ३३१ ३१७ ४५४ २१५ ३३३ ४६१ ११३ ३६८ ३२० ४३५ ३२२ ४७७ ४६७ ४५३ ४५० ३२६ ४८७ १०७ ३१७ १४० ४६० ४१६ १३८ २६१ १३८ ४६२ २४२ २८२ १३६ २४७ ११६ ३२७ ३८ ४८८ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ १९८ ३४४ ५०७ ४७५ ४७२ ४५७ ४५१ २०५ ३२४ १५४ ५०० ५०७ XX 0 0 15 or 99 س ४११ २४६ २८० ३७४ ४७३ २४६ ३८६ ५३२ महापुराणम् तत्र संस्कारजन्मेदं | तथा चिरं विहृत्यात्तसम्प्रीतिः ५०२ । तदलं स्पर्द्धया दध्वम् तत्र सज्जातिरित्याद्या २७७ तथात्माऽतिशयोऽप्यस्य तदलमधिपकालतत्र सम्यक्त्वशुद्ध्यादि ४६४ तथाऽतीन्द्रियदृग्नार्थी ३३६ तदस्य रुचिमातेने तत्र सर्वसमृद्धाख्यो ४६५ तथाध्वानन् महाघोषा २२१ तदाकर्णनमात्रण तत्र सूत्रपदान्याहुः तथा नृपोऽपि सङग्रामे ३४४ तदाकर्ण्य गृहत्यागम् तत्राकामकृते शुद्धि२८२ तथा नृपोऽपि सैन्ये स्वे तदाकर्ण्य जयोऽप्याह तत्रागत्य कुमारोऽपि ४२८ तथाऽन्तकृद्दशाङगात् १६३ तदाकर्ण्य महीशस्य तत्रातिबालविद्याद्या ३१२ तथा पारावतद्वन्द्वम् । ४४६ तदाकावधूयनम् तत्रादौ तावदुन्नेष्ये- २६० तथापि त्वत्कृतोऽस्मासु १५४ तदा कलकलश्चक्रे तत्रादौ सत्यजाताय २६३ तथापि बहुचिन्तस्य ३२६ तदा कालानुभावेन तत्राधिवासितानोऽङगः तथाप्यस्त्येव जेतव्यः तदा कुबेरमित्रस्य तत्रानर्च मुदा चक्री १४० तथा प्रवृत्ते सङग्रामे ४३१ तदा कृत्वा महदुःखम् तत्रान्तपालदुर्गारणाम् तथाभिषिक्तस्तेनैव २२१ तदा खगभवावासतत्रापरान्तकान् नागान् ८६ तथा भूपोऽप्यतन्द्रालुः ३४६ तदागत्य सुराः सर्वे तत्रापश्यन् मुनीनिद्ध- १४० तथाध्यमात्मरक्षायाम् तदा जन्मान्तरस्नेहः तत्रापि पूर्ववन्मन्त्र २४६ तथा योगं समाधाय २५७ तदा जयोऽप्यतिक्रुद्धो तत्रापि विदितादेशः ४६० तथा रतिवरः पृष्टः ४५३ तदा तं राजगेहस्थम् तत्राप्युक्तो विधिः पूर्वः तथालब्धात्मलाभस्य तदा तुष्ट्वा महीनाथो तत्राभवत् प्रजापालः ४४७ तथा विजितप्राणः ३४२ तदादि प्रत्यहं भेरी तत्रामोघ शरं दिव्यम् ११६ तथाऽसावर्थशास्त्रार्थे ३२८ तदादिश दिशामस्मै तत्रारोप्यं भरं कृत्स्नम् २५५ तथास्य दृढ़चर्या स्यात् तदादिश विधेयोऽत्र तत्रार्चनाविधौ चक्रत्रयम् तथा स्वयंवरस्येमे ४२६ तदा नभोऽङगरणं कृत्स्नम् तत्रार्हतीं त्रिधा भिन्नाम् २८० तथेतरांश्च सम्मान्य ४२७ तदानीमागते पत्यौ तत्रावतारसंज्ञा स्यात् २६६ तथेदमपि मन्तव्यम् ३२१ तदा पटकुटीभेदाः तत्रावासितसाधनो निधिपतिः ७६ तथैव चक्रचीत्कारः ४५ तदापि खलु विद्यन्ते तत्रावासितसैन्यं च १२८ तथैव नृपतिौलम् ३४३ तदापि पूर्ववत् सिद्धतत्राविष्कृतमङगले तथैन्द्रियकदृक्शक्तिः ३३५ तदा पुत्रवियोगेन सा तत्रासीनमुपायनैः तथैन्द्रियकवीर्यश्च तदा पुरात् समागत्य तत्रासीनश्च संशोध्य १०६ तथैन्द्रियकसौन्दर्यः ३३६ तदा पूर्वोदिताचार्या तत्रास्य नृपशार्दूल२२१ तथैव पृथिवीपालो तदा पूर्वोदितो देवः तत्रष्टो गात्रिकाबन्धो तथैव सत्कृता विश्वे २२१ तदा प्रचलदश्वीयतत्रैकस्मै वियच्चारणद्वन्द्वाय ४४५ तथोक्त्वा कान्तवृत्तान्तम् तदा प्रणेदुरामन्द्रम् तत्रैन्द्रियकविज्ञानः ३३५ तथ्याः स्युः स्वस्य सन्दृष्टाः ३२१ तदा प्रभृति मच्चित्ते तत्रैन्द्रियसुखी तदतीत्य समं सैन्यः तदा प्रियास्तवात्रापि तत्रैव दुहिता जाता ४५५ तदत्र कारणं चिन्त्यम् १५३ तदा बलद्वयामात्याः तत्रव विद्यया सौधगेहम् ४८२ तदत्र गुरुपादाज्ञा १५६ तदा भरतराजेन्द्रो तत्रैवागत्य सार्थेशो ४५५ तदत्र प्रतिकर्तव्यम् १५५ तदाऽभूद्रुद्धमश्वीयम् तत्रैवाभीष्टमावर्त्यतदत्र भगवद्वक्त्र तदा मुकुटसंघट्टाद् तत्रोच्चरच्चरद्ध्वाना तदध्युष्य जडो जन्तुस्तप्तः तदा मुदितचित्तः सन् तत्रोद्घोषितमङगलैः तदन्तर्गतनिःशेष तदा मुनेगुहाद् भिक्षाम् तत्रोपनयनिष्क्रान्तिभागी तदभावे च वध्यत्वम् ३१३ तदा रणाङगणे वर्षन् तत्रोपायनसम्पत्त्या ३२७ तदभावे स्वमन्यांश्च तदालोक्य महीपालो तथा गृहाश्रमस्थाश्च ५०५ ' तदलं देव संरभ्य ४६ | तदाशीर्वादसन्तुष्ट: २७३ ४२६ २४५ ४६७ ११७ ३६२ २५१ ४६७ ३७८ ४६१ २४६ ४६८ in ४१३ ५०६ १३१ w १८५ in ४४२ ४६२ ४५४ & ११८ ३१३ ४७२ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x w w २६ ४८४ १६४ तदाशु प्रतिकर्तव्यम् तदाश्वीयखुरोद्घाताद् तदा सदसदः सर्वे तदा सन्नद्धसंयुक्ततदा सर्वोपधाशुद्धो तदा सागरदत्ताख्यः तदा सुखावती कुब्जा तदास्तां समरारम्भः तदाऽस्य क्षपकश्रेणीम् तदाऽस्योपनयास्त्वम् तदा स्वमन्त्रप्रहितः तदिदं तस्य साम्राज्यम् तदुन्मुखस्य या वृत्तिः तदुपज्ञं निमित्तानि तदुपाकृतरत्नौधः तदुपाहृतरत्नाद्यैः तदुपेत्य प्रणामेन तदेतत् सार्वभौमस्त्वम् तदेतत् सिद्धसाध्यस्य तदेतद् योगनिर्वाणम् तदेतद् विधिदानेन्द्रतदेत्य द्रुतमायुष्मन् तदेनं शरमभ्यर्च्य तदेन्द्राः पूजयन्त्येनम् तदेषां जातिसंस्कारः तदैव युवराजोऽपि तदेष परमज्ञानतदोद्भिन्नकटप्रान्ततदोपसर्गनिर्णाश तदोभयबलख्याततद्गर्भ रत्नसन्दर्भतद्गेयकलनिक्वाणतद्गोपुरावनि क्रान्त्वा तदुःखस्यैव माहात्म्यम् तदुर्मुखोऽपि निर्बन्धाद् तवृष्टिमात्रविज्ञाततद्देव कथयास्माकम् तदेव विरमामुष्मात् तद्देव्यश्च महादेव्यो तदेहदीप्तिप्रसरो तद्दौर्गत्यं व्रणस्थानतद्धर्मस्थीयमाम्नायम् तधेतुफलपर्यन्तं श्लोकानामकारानुक्रमः ५१३ | तबलात् कान्तया सार्द्धम् ५०० । तपोऽयमनुपानत्कः २८७ तबिम्बाधरसम्भाविता तपोलक्ष्म्या परिष्वक्ता १६२ ५०० तबुद्ध्वा नाथवंशेशः ४३४ तपो विधाय कालान्ते ४५७ ४०४ तद्भूतवनमेतत्त्वम् ४८५ तप्तपांशुचिताभूमिः | १६४ तद्म शरासनः कामः तमः कवाटमुद्घाटय १६८ ४९८ तद्यथातीन्द्रियज्ञानः तमः सर्वं तदा व्यापत् ४१४ ४८६ तद्यथा यदि गौः कश्चिद् ३४३ तमध्वशेषमध्वन्यः ११७ तद्यथा संसृतौ देही तमभ्यषिञ्चन् पौराश्च २२१ २६६ तत् यूयं संसृतेर्हेतुम् ५०५ तमस्मत्कन्यकामेष तद्रवाकर्णनाद् घृणित- ३६४ तमानयानुनीयेह १६२ ४३३ तद्राष्ट्रविजयार्द्धस्य ४५८ तमालवनवीथीषु तद्रूपालोकनोच्चक्षुः २३० तमासिषेविरे मन्दम् तद्वचःपवनप्रौढ तमित्यद्भुतया लक्ष्म्या १३३ ३२८ तद्वचः सम्मुखीनेऽस्मिन् १७७ तमित्यद्भुतया लक्ष्म्या १२८ तद्वनं पवनाधूतम् ११५ तमित्यालोकयन् दूरात् १७७ ११० तद्विदित्वा कुलस्यैव ४६६ तमिस्रति गुहायासौ तद् विलोक्य कुमारोऽभूत् ४६० तमुच्चैर्वृत्तिमाकान्त- १२१ तद्विलोक्य सपत्न्योऽस्या तमृष्यमूकमाक्रम्य तद्वीक्ष्य पितरावेष ४४६ तमेकमक्षरं ध्यात्वा ३५२ तनुतापमसह्य ते तमेकपाण्डुरं शैलम् १२४ तनूदरी वरारोहा २२८ तमेनं धर्मसाद्भूतम् १८० तनूभूतपयोवेणी तमोऽग्निगजमेघादिविद्याः ४१० तन्त्रावायगता चिन्ता ३२७ तमो दूरं विधूयाऽपि १८६ २६० तन्त्रावायमहाभारम् ४५२ तमो निश्शेषमुद्ध्य १८६ २४३ तन्निमित्तपरीक्षायां ४४६ तमोबलान् प्रदीपादिप्रकाशा: ४१४ ५०६ तन्निरीक्ष्य ममैवायम् ४५३ तमोऽगुण्ठिता रेजे १८८ २७८ तन्निवेशादथान्येद्युः ४६६ तमो विधूय दूरेण १८६ तन्मन्त्रास्तु यथाम्नायाम् तमोविमोहितं विश्वम् तन्मा भूदनयोर्युद्वम् २०२ तयोः कुमारः श्रीपालः ४०८ तन्मुक्ता विशिखा दीप्रा ११८ तयोः सुतां भोगवती ४८३ १४० तन्व्यो वनलता रेजुः तयोरहं तनूजास्मि ४८५ २३० तपः श्रुतञ्च जातिश्च २४६ तयोरारात् तटे पश्यन् ११४ १३८ तपःश्रुताभ्यामेवातो तयोरारात् तटे सैन्यम् तपसोऽग्रेण चोप्रोग्र २१४ तयोर्जन्मान्तरस्नेह ४६० ४५५ तपस्तनूनपात्ताप २१० तयोर्जन्मान्तरात्मीय४५३ तपस्तनूनपात्तापाद् तयोर्जयोऽभवत् ३५८ १६० तपस्तापतनूभूत १६६ तयोविद्युत्प्रभा पुत्री तपस्तीव्रमथासाद्य १६२ तयोस्तुक् सर्वदयितः ४६५ तपोऽग्नितप्तदीप्ताङगाः तरङगात्यस्तोऽयम् २१५ तपोऽनुभावादस्यवम् २१६ तरङिगततनुं वृद्धम् ३४४ तपोभिरकृशैरेभिः २१४ । तरङिगतपयोवेगाम् ३१४ तपो भुजबली रेजे २०४। तरङगर्धवलीभूत४६६ तपोमयः प्रणीतोऽग्निः १७० तरत्तिमिकलेवरं ४६ २४५ १६६ । तरडगाव X W X Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणम् له १८७ ३१३ ३१० ३२० ३५६ तरन्तं मकराकारम् ४३८ तां लक्ष्मीमक्षयां मत्वा ३७५ / तिरीटमुद्वहन् दीप्रम् २५७ तरस्विभिर्वपुर्मेधा १२ तां विलोक्य महीपालो ३६६ तिरीटशिखरोदग्रो तरुणस्य वृषस्योच्चः | ताः श्रयन्ते गुरणान्नैव ३६१ तिरीटोदग्रमूर्धासौ तरुशाखाग्रसंसक्त | ताः सम्पदस्तदैश्वर्यम् १७६ तिर्यग्गोष्फणपाषाणैः ४०२ तल्पादुत्थितमात्रोऽसौ ३२६ । तादवस्थैर्गुणरुद्धैः तिर्यङमण्डलगत्यवं तव वक्षःस्थलाश्लेषाद् ५० तानेकशः शतं चाष्टौ १३६ तिस्रोऽस्य वज्रकोटयः स्युः २२६ तवादेशविधानेन ४२६ तान् प्रजानुग्रहे नित्यम् २६३ तीक्ष्णदण्डो हि नृपतिः ३४३ तस्मादन्ते कुरुम्लेच्छा- ३४७ तान् प्राहुरक्षरम्लेच्छा तीक्ष्णा मर्माण्यभिघ्नन्त: ३६६ तस्मादवध्यतामेष तान्यनन्योपलभ्यानि १०७ तीर्थकृत्सु स्वतः प्राग्यो तस्मादयं गुणैर्यत्नाद् ३१४ तान् सम्पूज्य विसाभूद् ३७० तीर्थकृद्गणभृच्छेषतस्माद् रसदतीक्ष्णादीन् २६४ तान् स्वयंवरशालायाम् ३७४ तीर्थकृद्भिरियं स्रष्टा तस्माद्धमैकतानः सन् ताभ्यां तत्रैव सा रात्रिः तीवं तपस्यतां तेषाम् १६६ तस्मान्नास्माभिराक्रान्तम् २४१ तामाक्रान्तहरिन्मुखाम् तीव्र तपस्यतोऽप्यस्य २१० तस्मिन् दिने प्रविष्टस्य तामालोक्य बलं जिष्णोः ११३ तुङगसिंहासनासीनम् ४३६ तस्मिन्नन्येधुरुद्यानम् ४६४ तामुत्तीर्य जनक्षोभाद् तुङगोऽयं हिमवानद्रिः १२० तस्मिन्नष्टदले पद्म २७२ ताम्बूलरससंसर्गात् तुरङगमवराद्रात् तस्मिन्नेव भवे शक्तः ३४२ तारकाकुमुदाकीर्णे तुरङगमास्तरङगाभाः तस्मिन्नेवोत्तरश्रेण्याम् ४५६ तारालितरलस्थूल- २६१ तुलापुरुष एवायम् १८५ तस्मिन् पौरुषसाध्येऽपि तारुण्यशाली वृषभः तूर्यध्वानातिप्रेडखतस्मिन् वने वसन् तावच्च परचक्रेरण तूर्यमङगलनिर्घोषः ४४१ तस्मै कन्यां गृहाणेति ४२६ तावच्च मन्त्रिणो मुख्या: तणकल्पोऽपि संवाहयः ३६० तस्य पूजा विधातव्या तावच्च सुधियो धीराः तृतीयजन्मनीतोऽत्र तस्य मेऽयशसःकीर्तेः तावत्नपा भयं तावत् ४३२ तृतीयजन्मनो युष्मद्तस्य राज्ञश्च ताः सर्वा तावदासीद् दिनारम्भो तृतीयज्ञानसन्नेत्रः तस्य लक्ष्मीमनाक्षिप्य ३५८ तावद्धेषितनिर्घोषैः ४०२ तृतीयेऽहनि चानन्तज्ञानदर्शी तस्य वक्षःस्थले तत्र ४७४ तावद्भिर्वादिभिर्वन्द्यो ५०३ ते कदाचिज्जगत्पाल- ४५२ तस्य स्वयंप्रभादेव्याम् ४५६ तावन्त्येव सहस्राणि २२३ ते च सत्कृत्य सेनान्यम् तस्यां तन्नाथवंशाय- ३६४ तावन्येधुः कपोतौ च ४५८ ते च स्वप्ना द्विधाम्नाताः । तस्याखिला: क्रियारम्भातावानेतु कुमारोऽपि ते चिरं भावयन्ति स्म १६८ तस्या दक्षिणतोऽपश्यद् तावानिजितनिश्शेष- १२६ तेजसां चक्रवालेन १४१ तस्यापरस्मिन् दिग्भागे ५०७ तावुभौ ब्रह्मलोकान्ते ४५२ तेऽतितीव्रस्तपोयोगः तस्यामसत्यां मूढात्मा ३१२ ताश्च क्रियास्त्रिधाऽऽम्नाता: २४४ ते तु स्ववतसिद्धयर्थं २४१ तस्या लालाटिको नैकः ताश्च तच्चित्तहारिण्यः २२५ तेऽधीत्योपासकाध्यायतस्या विनीलविस्रस्त- .२३० ताश्च तासां तदा व्याकुली- ४८७ तेन षाड्गुण्यमभ्यस्तम् ३२८ तस्यासिपुत्रिका दीपा २३५ तासां किमुच्यते कोपः तेनापि त्याज्यमेवेदम् १६१ तस्यासीत् सुप्रभा देवी तासां मृदुकरस्पर्शः २२५ तेनापि भारते वर्षे ३३१ तस्यास्तु भेदसंख्यानम् तासामकृतकस्नेह- १६३ तेऽनुरक्ता जिनप्रोक्ते तस्येष्टमूरु लिङगञ्च तासामालापसंलाप ते पौरवा मुनिवराः १७० तस्योक्त दोषसंस्पर्शी तास्तु कन्वया ज्ञेया २४५ तेऽभ्यनन्दन्महासत्त्वा १६६ तां काण्डकप्रपाताख्याम् तास्त्रिकालं समभ्यर्च्य तेऽमी जातिमदाविष्टा ३२० तां तस्य वृत्तिरनुवर्तयति स्म ४४५ तिथ्यादिपञ्चभिः शुद्धैः ४४१ तेषां कृतानि चिह्नानि २४१ तां पश्यन्नर्चयंस्तांश्च १३६ तिमिरकरिणां यूथम् १६५ तेषां निधुवनारम्भ- १६३ तां मनोजरसस्येव १२६ | तिरीटं स्फुटरत्नांशु २६१ | तेषां स्यादुचितं लिङगम् ३११ ४५१ ا w ३१२ w ا or لله ३६१ १२९ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराधनुक्रमः ५३५ २४० ४२७ mYm तेष्वर्हदिज्याशेषांशः २४५ | त्वं वह्निनेव केनापि ४२७ । दत्त्वा सुलोचनाय च ४३७ तेष्वव्रता विना सङगात् त्वगस्थिमात्रदेहास्ते ददती पात्रदानानि ३६८ ते स्वदुर्नयलज्जास्तवैराः त्वङगत्तुङगतुरङगसाधनखुर- ६४ ददुरस्मै नृपाः प्राच्यकलिङग- ६६ ते स्वभुक्तोज्झितं भूयो १६५ त्वत्तः स्मो लब्धजन्मानः १५६ ददौ दानमसौ सद्भ्यो ३२५ ते हिमानी परिक्लिष्टाम् त्वत्तीर्थसरसिस्वच्छ दधच्चाकचरी वृत्तिम् १८४ ते हि साधारणाः सर्वत्वत्तो न्यायाः प्रवर्तन्ते दधतीरातपक्लान्ततैरश्चिक गिरि क्रान्त्वा त्वत्पदस्मृतिमात्रेण १४६ दधद्दण्डाभिघातोत्थम् १०७ तैस्तु सर्वप्रयत्नेन ३३२ त्वत्पादनखभाजाल१४८ दधद्धीरतमां दृष्टिम् २०४ तोषाद् सम्पादयामासुः त्वत्पुत्रा इव मत्पुत्रा: दधानं तुलिताशेषतोषितैरवदानेन त्वत्प्रणामानुरक्तानाम् दधानः स्कन्धपर्यन्त २१० तौ भोगपुरवास्तव्यौ त्वत्प्रतापः शरव्याजात् १२० दधानास्ते तपस्तापम् १६५ त्यक्तकामसुखो भूत्वा २८७ त्वत्प्रसादाच्छ तं सम्यक् ३५६ दन्तकाष्ठग्रहो नास्य २४६ त्यक्तचेलादिसङ्गस्य २५३ त्व प्रसादादिदं सर्वम् दन्तिदन्तार्गलप्रोतोद- १८६ त्यक्तशीतातपत्राण२८६ त्वत्स्तुतेः पूतवागस्मि १४८ दयितान्तकुबेराख्यो त्यक्तस्नानादिसंस्कारः २८५ त्वद्देहदीप्तयो दीप्राः १४४ दोद्धराः खुरोत्खातत्यक्तागारस्य यस्यात: २७६ त्वद्भुक्तिवासिनो देव दर्भास्तरणसम्बन्धः २६० त्यक्तागारस्य सदृष्ट: २५३ त्वमत्र तेन सौहार्दाद् ४८२ दर्शयन्ती समीपस्थाम् ४८२ त्यक्तोपधिधरा धीरा त्वमादिराजो राजर्षिः दशम्यां सिद्धक्टाग्रे ४६० त्यक्त्वाऽस्त्रवस्त्रशस्त्राणि २८५ त्वमामुष्यायणः किन्न- २७६ दशाङगमिति भोगाङगम् २३३ त्यक्त्वेशं खेचरास्रातिवष्टौ ३६७ त्वमुद्घाटय गुहाद्वारम् दशाधिकारास्तस्योक्ताः त्यागं पर्वोपवासं च ४५४ त्वया न्यायधनेनाङग २६४ दशाधिकारि वास्तूनि ३१२ त्यागः सर्वार्थिसन्तर्पि ५०२ त्वया मदीयाभरणम् दशार्णकवनोद्भूतानपि त्यागो हि परमो धर्म: त्वयाऽहं हेतुना केन ४७२ दशारान् कामरूपांश्च त्रपां गताः समादाय ४६० त्वयि राजनि राजोक्तिः १५५ दातुं समुद्रदत्तस्य ४७१ त्रयः पञ्चाशदेता हि २४४ त्वयीदं कार्यमित्यस्मै १५३ दानं पूजां च शीलं च त्रयोऽग्नयः प्रयाः स्युः ३०१ त्वयेदानीं ससोपानाम् दानिनो मानिनस्तुङगा: ४०८ त्रयोऽग्नयोऽर्हद्गणभृत् २४५ त्वयंतां प्रस्थितो देवो ३४ । दिक्स्वस्तिका सभाभूमिः असान् हरितकायांश्च त्वां नमस्यन् जनैनः १४८ । दिगङगनाघनापायत्रिः परीत्य नमस्कृत्य ३५६ त्वां स्तोष्य परमात्मानम् १४१ दिगन्तरेभ्यो व्यावर्त्य ३४० त्रि: प्राक् त्वन्मारितावावाम् ४७६ त्वामायुष्मन् जगन्मान्यो १७६ दिग्जय यस्य सैन्यानि १२६ त्रिकलिङगाधिपानोद्रान् दिव्यः प्रभान्वयः कोऽपि १०५ त्रिकालविषयं योगम् दक्षचेटीजनक्षिप्रकृत दिव्यभाषा तवाशेष- १४५ त्रिकूटमलयोत्सङगे दक्षिणानिलमापल्ल ३७७ दिव्यमूर्तेरुदुत्पद्य ३३२ त्रिगुप्ताय नमो २६५ दक्षिणेन तमद्रीन्द्रम् १०१ दिव्यमूर्तेजिनेन्द्रस्य त्रिजगज्जनताजस्र१३८ दक्षिणेन नदं शोरणम् दिव्यरत्नविनिर्माण- २२३ त्रिज्ञानधृत् त्रिभुवनैकगुरुः दक्षिणर्मतया विष्वग् दिव्यरूपं समादाय त्रिज्ञाननेत्रसम्यक्त्व ५०५ दक्षिणोत्तरयो: श्रेण्योः १२८ दिव्यसङगीतवादित्र- २५७ त्रिभिनिदर्शनैरेभिः ३४० दक्षिणोत्तरयोः श्रेण्योः ३८१ दिव्यसिंहासनपदाद् ३०७ त्रिमेखलस्य पीठस्य दण्डनादपरीक्ष्यास्य ४७४ दिव्यानुभावसम्भूत- २५७ त्रिमेखलस्य पीठस्य दण्डरत्नं पुरोधाय दिव्याभरणभेदानाम् २२७ त्रिष्वेतेषु न संसर्गो दण्डरत्नाभिघातेन १०७ दिव्यारत्रदेवताश्चामू त्वं जामातुनिराकृत्या ४६८ दत्त्वा किमिच्छक दानम् २४२ । दिशां प्रसाधनायाधाद् स्वं मन्दराभिषेकाहों भवेति ३०५ | दत्त्वा कोशादि सर्वस्वम् ४३४ | दिशां प्रान्तेषु विश्रान्तः २८१ ४६६ २८३ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ ३२२ । ३१८ १०३ ४११ २२६ २२३ ४८५ १६२ १८६ २४७ २६२ ३७० २२६ ३०० २४३ ३२१ ४४८ १३६ १४० ३६१ १०० महापुराणम् दृष्टाः स्वप्ने मृगाधीशाः द्रष्टव्या गुरवो नित्यम् दृष्टापदानानन्यांश्च द्रष्टव्या विविधादेशा दृष्टिवादेन निर्मात द्रोग्धृन्न्यानस्य भूभर्तुः दृष्टीनामप्यगम्येऽस्मिन् २३ द्रोणादिप्रक्षयारम्भदृष्ट्वा कदाचिद् गान्धारी द्रोणामुखसहस्राणि दृष्ट्वा तत्कम्बलस्यान्ते ४८६ द्वात्रिंशन्मौलिबद्धानाम् दृष्ट्वा तत्साहसं वक्तुम् द्वादशाङगश्रुतस्कन्धदृष्ट्वाऽथ तं महाभाग द्वादशाहात् परं नाम दृष्ट्वा विमोच्य राजानम् ४५२ द्वासप्ततिः सहस्राणि दष्ट्वा षड्राजकन्यास्ताः ४८१ द्विः स्तां त्रिलोकविजयः दृष्ट्वा हरिवरस्तस्मान्नीत्वा ४८७ द्विजातो हि द्विजन्मेष्ट: दृष्ट्वेवाकृष्टरिणाम् १८६ द्विजातिसर्जनं तस्माद् देयमन्यत् स्वतन्त्रण १८५ द्वितीय इव तस्यासीत् देयान्यणव्रतान्यस्मै ३१० द्वितीयमार्जुनं सालम् देवताऽतिथिपित्रग्नि २७६ द्वितीयमेखलायां च देवताप्रमितालक्ष्य ४८० द्विधा भवतु वा मा वा देव त्वामनुवर्तन्ताम् १५५ द्विपानुदन्यतस्तीव्रम् देवदानवगन्धर्व ३१६ द्विरष्टौ भावनास्तत्र देवदिग्विजयस्यार्द्धम् द्विर्वाच्यं वज्रनामेति देव दीप्रः शरः कोऽपि द्विर्वाच्यौ ताविमौ शब्दौ देवभूयं गताः श्रेष्ठि- ४५७ द्विविस्तृतोऽयमद्रीन्द्रो देवश्रीरनुजाश्रेष्ठि ४६५ द्विषड्योजनमागायदेवस्यानुचरो देव ४२८ द्विषन्तमथवा पुत्रम् देवानां प्रिय देवत्वम् द्वेषवन्तौ तदालोक्य देवान्तसत्यः सत्यान्तदेवो देवीषूपचरन्तीषु २५६ देवोऽयमक्षततनुर्विजिताब्धि- ५६ / धत्ते सानुचरान् भद्रान् देवेनानन्यसामान्यमाननाम् ४३७ | धन यशोधन चास्म देवोऽयमम्बुधिमगाधमलङ्घ्य- ५६ धनमित्रस्ततस्तस्माद् देव्यः कनकमालाद्याः ४५० धनमेतदुपादाय देशाध्यक्षा बलाध्यक्षः धनश्रीरादिमे जन्मन्यतो देशेऽपि कारयेत् कृत्स्ने ३४६ धनश्रीरित्यजायन्त देहच्युतौ यदि गुरोर्गुरु- ५११ धनुर्धरा धनुः सज्यम् देहवासो भयं नास्य ४६३ धन्विनः शरनाराचदेहान्तरपरिप्राप्तिः २८० धन्विनः शरनाराचदैवमानुषबाधाभ्यः ३८८ धर्मः कामश्च सञ्चेयो दोर्दपं विगणय्यास्य २०३ धर्मकर्मबहिर्भूतादोर्बलिभ्रातृसंघर्षात् २२२ | धर्म इत्युच्यते सद्भिः दोषः कोऽत्र गुणः कोऽत्र धर्मशीले महीपाले दोषधातुमलस्थानम् धर्मस्याख्याततां बोधेः दोषाः कि तन्मयास्तासु धर्मार्थकाममोक्षारणाम् दोषान् गुणान् गुणी गृह्णन् ३५३ धर्मान्तोऽस्य महानासीद् दोषान् पश्यश्च जात्यादीन् ३३६ धर्मेण गुणयुक्तेन दिशां रावरणमाक्रान्त्या दिशाजयः स विज्ञेयो २६१ दिश्यानिव द्विपान् दीक्षां जैनी प्रपन्नस्य २७६ दीक्षा रक्षा गुरगाभृत्या दीक्षावल्ल्या परिष्वक्तः २०६ दीपिकायामिवामुष्याम् २१५ दीपिका रचिता रेजुः दीप्रैः प्रकीर्णकवातः दीयतां कृतपुण्याय दीर्घदोर्घातनिर्यात २०७ दुःखी सुखी सुखी दुःखी ४४२ दुनोति नो भृशं दूत- १८४ दुन्दुभिध्वनिते मन्द्रम् २५६ दुराचारनिषेधेन त्रयम् ३९२ दुर्गाटवीसहस्राणि २२७ दुर्द्धरोरुतपोभार ४८४ दुनिरीक्ष्यः करैस्तीक्ष्णः ४१३ दुर्मुखे कुपिते भीत्वा दुम॒तश्च दुरन्तेऽस्मिन् ३४२ दुर्विगाहा महाग्राहा: ३५ दुष्टा हिंसादिदोषेषु । ३४८ दुस्तराः सुतरा जाता: दुस्सहे तपसि श्रेयो ४६७ दूत तातवितीर्णा नो १८५ दूत नो दूयते चित्तम् १८२ दूत सात्कृत्सम्मानाः १५८ दूरपाताय नो किन्नु ४०० दूरमद्य प्रयातव्यम् दूरमुत्सारिता: सैन्यः दूरादेव जिनास्थान ३१८ दूरादेवावरुहयात्म ४२१ दूराद् दूष्यकुटीभेदाद् दूरानतचलन्मौलि १०१ दूरानतचलन्मौलिदूरानतचलन्मौलिदूषितां कटकैरनाम् दगर्द्धवीक्षितः सान्तः १६३ दग्विलासा: शरास्तासाम् २२४ दृढव्रतस्य तस्यान्या २७३ दृढीकृतस्य चास्योद्ध- ३४३ दृष्ट: सम्यगुपायोऽयम् ३७० दृष्टवत्यस्मि कान्ताऽस्मिन् ५०१ २६७ २६६ १२२ ३४८ ४८६ १३४ १०१ ४७७ १०२ १०२ २०१ ३६० १४१ २०६ ५०४ ३२४ २१५ ३५८ २३३ ३९७ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ १०८ ४७३ १५७ ४ २६६ ३५० ४०१ ४७५ १४८ १४७ १४७ १४७ १४८ १४७ १४७ १२६ १२८ ४०५ १४८ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः धर्मोऽत्र मुक्तिपदमत्र ३५० नक्राकृत्या स्वदेशस्थः ४३८ | न भेतव्यं न भेतव्यम् धर्मो रक्षत्यपायेभ्यो ३४१ न खट्वाशयनं तस्य २५० न भोक्तुमन्यथाकारम् धय॑मर्थ्य यशस्सारम् नखदर्पणसंक्रान्त नभोगृहाङगणे तेनुः धम्यराचरितः सत्य- २७६ नखांशुकुसुमोद्भेदैः २२४ नमःशब्दपरौ चेतौ धवला धार्मिकर्मान्या ४४० नखेन्दुचन्द्रिका तस्याः ३६४ नमः सकलकल्याणपथधानुष्कर्मागरगर्मार्गः न गृहीतं मयेत्यस्मिन् न मध्ये न शरीरेषु दृष्टाः धारयंश्चक्ररत्नस्य न चक्रिरणोऽपि कोपाय ३६१ | न मया तवयं साध्यमिति धारा रज्जुभिरानद्धा २३२ न चक्रेण न रत्नश्च ४३० - नमस्ते नतनाकीन्द्रधारा वीररसस्येव रेजे ३६६ न च तादग्विधः कश्चित् । नमस्ते परमानन्तधारिणी पृथिवी चेति न चास्य मदिरासङगो ४१ - नमस्ते पारनिर्वाणधार्मिकस्थास्य कामार्थन चित्रं तत्र मच्चित्ती नमस्ते प्रचलन्मौलिधिगिदं चक्रिसाम्राज्यम् न चेदिमान् सुतान् ४२७ नमस्ते प्राप्तकल्याणधुततटवने रक्ताशोक न चेलक्नोपमस्यासीत् ११७ नमस्ते भुवनोभासिधुनी वैतरणी माषवती च नटोऽयं वासवो नाम ४८१ नमस्ते मस्तकन्यस्तधुनी सुमागधी गङगाम् न तथाऽस्मादृशां खेदो नमस्ते मुकुटोपायधूमवेगं विनिजित्य ४६२ नतानां सुरकोटीनाम् १४५ नमस्ते स्वकिरीटाग्रधूमवेगो विलोक्यनम् ४६१ नताशेषो जयः स्नेहाद् ३६४ नमिविनमिपुरोगैधूमवेगो हरिवरश्चैताम् ४८६ न तुष्यन्ति स्म ते लब्धौ १६८ नमिश्च विनमिश्चैव धूलीसालपरिक्षेपन तृतीया गतिस्तेषाम् न मृता व्रणिता नैव धूलीसालपरिक्षेपो१४५ न तृप्तिरेभिरित्येष नमोऽन्तो नीरजश्शब्दः धृतमङगलवेषस्य नत्वाऽपश्यत् प्रसादीव नमोऽस्तु तुभ्यमिद्धर्द्ध धृतरक्तांशुकां सन्ध्याम् नत्वा विश्वसृजं चराचरगुरुम् १७१ नयन्ति निर्भरा यस्य धृतिस्तु सप्तमे मासि नदी वृत्रवती क्रान्त्वा नरविद्याधराधीशान् धेहि देव ततोऽस्मासु १२१ नदीनं रत्नभूयिष्ठम् न रूपमस्य व्यावर्ण्य धौरितं मतिचातुर्यम् नदीनां पुलिनान्यासन् नरेशो नागराश्चैतत् धौरितर्गतमुत्साहैः नदीपुलिनदेशेषु नर्मदा सत्यमेवासीत् धौरेयः पार्थिवः किञ्चित् २६५ नदीमवन्तिकामां च न लक्ष्मीरपि तत्प्रीत्य ध्यानगर्भगृहान्तःस्था १६४ नदी वधूभिरासेव्यम् ४२ नवमे मास्यतोऽभ्यर्णे ध्रुवं स्वगुरुणा दत्ताम् १८५ नदीसखीरियं स्वच्छ नवमे वज्रनाभीशो ध्वजदण्डान् समाखण्डय ४०४ न दुनोति मनस्तीव्रम् १७६ नवलोहितपूराम्बु ध्वजस्योपरि धूमो वा ४०४ नद्योरुत्तरणोपायः नवापि कुपितेभेन्द्र ध्वनतो धनसंघातान् १३४ ननु न्यायेन बन्धोस्ते नवाम्बुकलुषाः पूराः ध्वनत्सु सुरतूर्येषु ननृतुः सुरनर्तक्यः नवास्य निधयः सिद्धाः ध्वनी भगवता दिव्य नन्दनः सोमदत्ताह्वः ३५६ न विघ्नः किन्नु खल्वत्र ध्वस्तोष्मप्रसरा गाढम् नन्दनप्रतिमे तस्मिन् न विषादो विधातव्यः नन्दनो वृषभेशस्य . २२२ नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नम् नन्द्यावर्तो निवेशोऽस्य २३३ नष्टमष्टादशाम्भोधिन करैः पीडितो लोको नन्वहं त्वरिपतृस्थाने नष्टाधिमासदिनयोः न कि निवारिताऽप्यायाम् ४१६ न पश्चान्न पुरा लक्ष्मी: न स सामान्यसन्देशः न किञ्चिदप्यनालोक्य नप्ता श्रीनाभिराजस्य १२६ न स्पृशामि कथं चाहम् न किञ्चिदप्यनालोच्य नभः सतारमारेजे न स्मरिष्यसि किम् न केवलं शिलाभित्ती नभः स्फटिकनिर्माणम् न स्थूले न कृशे नर्जू न केवलं समुद्रान्त: न भुजङगेन सन्दष्टा ४३२ । न स्वतोऽ:ने पवित्रत्वम् ६८ ८८ ४३ ३८२ ४७४ ० ११४ W or mor m O AN ० arxxxbrarm mroom (w yooo mmois orrorxr MY ११५ । ४८ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ १६२ ४०१ २२५ २७३ १६२ AN T T 9 २१४ ३३६ ३५२ २२६ ३५३ ३२३ २२ . U २६६ m २७१ ३८६ १६७ 9 ४५४ ४२ ४६५ १५३ ५३८ महापुराणम् न हर्ता केवलं दाता ३६३ | निःशेषं नाशकद्धन्तुम् ४१४ | निर्जरा कर्मणां येन नाकोकसां धृतरसम् ५२ निःश्रेणीकृत्य तज्जङघे २२८ निजितारिभट ग्या नागदत्तस्ततो वानरार्यो ५०६ निःश्वासधूममलिनाः ५२ निजिताशनिनिर्घोषनागप्रियाद्रिमाक्रम्य निःसङगवृत्तिरेकाकी २५५ निर्दयः परिरम्भेषु नागमारुह्य तिष्ठ त्वम् निःसपत्नमिति भ्रमः निर्दिष्टस्थानलाभस्य नागामरोपि तां पश्यन् ३६० । निःसृत्य नाभिवल्मीकात् २२६ निर्दिष्टां गुरुगणा साक्षाद् नाङगरागस्तुरङगाणाम् निगमान् परितोऽपश्यत् निर्द्वन्द्ववृत्तिरध्यात्मम् नाटकानां सहस्राणि २२६ निगलस्थो यथानेष्टम् निर्मलत्वं तु तस्येष्टम् नाटयमालामरस्तत्र १२६ निगलस्थो विपाशश्च निमितोऽस्य पुराणस्य नाट्यशालाद्वयं दीप्तम् १४६ निचुलः सहकारेण निर्मोकमिव कामाहेः नारिणमा महिमैवास्य २७६ निजगम्भीरपाताल निर्यान्ति हृदयाद् वाचो नातिदूरे निविष्टस्य. १५१ निजग्राह नृपान् दृप्तान् निर्यापितास्ततो घण्टाः नाव किन्त्वमुत्रापि ४७१ निजवागमृताम्भोभिः ८५३ निर्वाणदीक्षयात्मानम् नाथवंशाग्रणीश्चामा ४२८ निजहस्तेन निदिष्टम् निर्वाग्गसाधनं यत् स्यात् नाथेन्दुवंशसंरोहौ ४३७ निजागमनवृत्तान्त ४८२ निर्विशेष पुरोरेनम् नादरिद्रीज्जनः कश्चिद् निजान्यजन्मसौख्यानु- ४६६ निपिक्षनिराकाङक्षा नाध्वा द्रुतं गुरुतरैरपिनिजोचितासनारूढाः निव्रता निर्नमस्कारा नानगारा वसून्यस्मत् २४० नित्यप्रवृत्तिशब्दत्वात् ४२ निविष्टवानिदं चान्यत् नानाप्रसवसन्दृब्ध४४० नित्यानुबद्धतृष्णत्वात् निवेदितवती पृष्टा नानाभाषात्मिकां दिव्य- १४१ नित्योदयो बुधाधीशो निवेद्य कार्यविज्ञानम् नानारत्नविधानदेशविलसत् २३८ नित्यो निरञ्जनः किञ्चिद् ५०७ | निवेद्य सुप्रभायाश्च नान्यो मद्भागिनयोऽयमिति ४६७ निदेशैरुचितैश्चास्मान् १२१ निश्शेषहेतिपूर्णेषु नाभिकूपप्रवृत्तास्या निधयो नव तस्यासन् २२७ निपेव्यमारणा विषया| नाभूत् परिषहर्भङगः १६६ निधयो यस्य पर्यन्ते निष्कण्टकमिति प्राप्य नामकर्मविधाने च निधिः पुण्यनिधेरस्य २२७ निष्कषायाणि नाकस्य नाम्नातिसन्धितो भूढो ३८७ निधीनां सह रत्नानाम् २२८ निष्क्रान्त इति सम्भ्रान्तः नाम्ना वज्रमयं दिव्यम् निध्यानादजयूथस्य निष्क्रान्तिपदमध्ये स्ताम् नाम्ना विद्युत्प्रभे चास्य निपतत्पुष्पवर्षेण १३६ निष्टप्तकनकच्छायम् नाम्नैव कम्पितारातिः ३६३ निपतन्निरारावैः १३२ निष्ठुरं जृम्भतेऽमुग्मिन् नाम्नव लवरगाम्भोधिः निपपे नालिकेराणाम् ८२ निष्पन्दीभूतमालोक्य नायकैः सममन्येद्युः ११५ निपेतुरमरस्त्रीणाम् निष्पर्यायं वनेऽमुष्मिन् नालिकेरद्रुमेष्वासीत् निमीलयन्तश्चक्षूषि निस्सपत्नां महीमेनाम् नालिकेररसःपानम् निमूर्छास्ते स्वदेहेऽपि निस्सहायो निरालम्बो नालिकेरासवर्मत्ताः नियुद्धमथ सङगीर्य २०५ निस्सृष्टार्थतयाऽस्मासु नाशकं तदिहाश्चर्यम् नियोज्य स्वानुजान् सर्वान् ४३५ नीचैर्गतेन सुव्यक्तनास्त्येषामीदशी शक्तिः ४१६ निरन्तरश्रवोत्कोथ ४४२ नीत्वा रात्रि सुखं तत्र नास्त्रे व्यापारितो हस्तो निरर्गलीकृतं द्वारम् ११५ नीत्वा सोऽपि कुमारं तम् नास्यासीत् स्त्रीकृता बाधा २११ निराकृत्यार्ककीर्त्यादीन् नीरां तीरस्थवानीरनास्वादि मदिरा स्वैरम् १६० निरुद्धमवं गनौधैः ४०७ नीरूपोऽयं स्वरूपरण नाहं देहो मनो नास्मि २५६ निरुध्यानन्तसेनादि- ४०५ नीलं श्यामाः कृतरवनाहं सुलोचनार्थ्यस्मि ३६१ निरोधमभयोद्धोषणायाम् नीलोत्पलेक्षणा रेजे निःकृपौ वेशलो लक्ष्णौ ३६५ निर्गुणान गुणिनो मन्तुम् ३६१ । नूनं चक्रिण एवायम् निःशक्तीन् शक्तिभिः | निर्ग्रन्थाय नमो वीतरागाय २६५ नूनं पुण्यं पुरागाब्धेः २२२ ५०४ २३४ MWWWXXW . xx1si Gook xWKGmxn. 0000G.KNWK.. ३८१ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ४२० 10 ४०३ w 7 w in is in Um9 mucorr w is w w o in م الله मन् ११३ ४८३ م ४६२ नृत्तमप्सरसां पश्यन् २१ पठन् मुनीन्द्रसद्धर्म- ४७३ | परिग्रहग्रहान्मुक्तो ४६५ नृत्यगीतसुखालापैः ४४१ पतत्पतङगसङकाशम् परिचितयतिहंसो ५१४ नृत्यत्कबन्धपर्यन्तपतद्गङगाजलावर्त परिणतपरितापात् स्वेदधारी ४२३ नृपं सिंहासनासीनम् पतन्तं वारुणीसङगात् परितः कायमानानि नृपतेमैथुनो नाम्ना पतन्मृगखगान्वीतप्रियाभिः ४०२ परितः सरसी: सरसैः नृपवर जिनभर्तुः पतन्यत्र पतङगोऽपि परितस्त्वत्सभां देव नृपवल्लभिकावक्त्र पताकाकोटयोऽस्याष्ट- २३६ परिनिष्क्रान्तिरेषा स्यात् २६६ नृपस्ताम्बूलवल्लीनाम् । पतिः पतिर्वा ताराणां ३५८ परिभूतिद्विधा सात्र ३८१ नृपाङगनामुखाजानिपतितान्यसिनिर्घातात् परिवषोपरक्तस्य ३२३ नृपानवारपारीणान् पत्तनानां सहस्राणि २२६ परिवेष्ट्य निरैयन्त २०१ नृपानाकर्षतो दूरान् पत्रवन्तः प्रतापोग्रा: परिसिन्धुनदीस्रोतः नृपानेतान् विजित्याशु पत्रश्यामरथं प्रोच्चैः परिहार्यं यथा देव ३१४ नृपान् सौराष्ट्रकानुष्ट्रपथि द्वैधे स्थिता तस्मिन् परीतजातरूपोच्च ४४० नृपा भरतगृह्या ये २०४ पथि प्रणेमुरागत्य ३५ परीत्य स्तोतुमारेभे नृपासनमथाध्यास्य पदं परं परिप्राप्तुम् ५०२ परीषहजयादस्य नृपंर्गङगाद्वारे पदैरेभिरयं मन्त्रस्तद्विद्भिः ३०७ परीषहजयैर्दीप्तो २१३ नृपोपायनवाजीभपद्भ्यामारोहतोऽस्याद्रिम् परीषहमलाभं च २११ नृवरभरतराज्योऽपि १६८ पद्मरागांशुभिभिन्नम् परेधुः कान्तया सार्ध नेक्षे विश्वदृशं श्रृणोमि ५११ पद्मरागांशुभिभिन्नः पर्यटन्ति तटेष्वस्य १२२ नेत्रावलीमिवातन्वन् पद्म ह्रदाद्धिमवतः पर्यन्तेऽस्य तटोद्देशा १२३ नेन्दुपादैधृति लेभे पद्मिन्यो म्लानपद्मास्या १८८ पर्यष्वजीत पुरौवैताम् नेम्यादिविजयं चैव पनसानि मृदूयन्तः पर्याप्तमात्र एवायम् २५७ नैकान्तशमनं साम १८१ परदाराभिलाषस्य पर्याप्तमेतदेवास्य १३४ नैणाजिनधरो ब्रह्मा परप्रणामविमुखीं १६० पर्वतोदग्रमारूढो नोद्घातः कोऽप्यभूदङगे परप्रणामसञ्जात पर्वोपवासमास्थाय ३२५ न्यगृह्णात्तानि चास्यासन् ४८८ परमजिनपदानुरक्तधीः २८६ पलायमानौ पाषाणैः ३६० न्यग्रोधपादपाधःस्थ४८१ परमद्धिपट चान्यत् पल्यङकेन निषण्णास्ते १६७ न्यषेवन्त वनोद्देशान् परमषिभ्य इत्यस्मात्परम् २६६ पवनस्य जयन् वेगम् २३६ न्यायमार्गाः प्रवर्त्यन्ते ४१० परमादिगुरगायति २६६ पवनाधूतशाखाग्रन्यायश्च द्वितयो दुष्ट- २६३ परमादिपदान्नेत्र इत्यस्माच्च २६६ पवनाधोरणारूढा परमार्थकृतं तेन ४७७ पशुहत्यासमारम्भात् २८१ परमार्हताय स्वाहा २६८ पशून् विशृङगान् मत्वाश्वान् ४०३ पक्वशालिभुवो नम् परमार्हन्त्यराज्यादि- ३०६ पश्चाज्जग्लुर्मुखाब्जानि पङकजेषु विलीयन्ते परमार्हन्त्यराज्याभ्याम् ३०८ पश्चात् कोऽपि ग्रहः ४२८ पञ्चबाणाननङगस्य २३० परमावधिमुल्लङघ्य २१३ पश्चात् सर्वानिरीक्ष्यषा ३८१ पञ्चमं स्वपदे सूनुं परश्शतमिहाद्रीन्द्रे १२३ पश्चाद् विषविपाकिन्यः ४५० पञ्चमुष्टिविधानेन २७८ परस्परानुकूलास्ते ४७५ पश्चिमार्धन विन्ध्याद्रिम् पञ्चमे भोगभूजोऽभूत् ५०८ पराज्ञोपहतां लक्ष्मी १८३ पश्य कृत्रिममूर्ध्वात्त ४४७ पञ्च ह्रस्वस्वरोच्चारणपराराधनदैन्योनम् पश्य तादृश एवात्र पञ्चेन्द्रियाण्यनायासात् पराय॑मणिनिर्माण पश्य देवगिरेरस्य १३४ पट्टबन्धात् परं मत्वा ४५१ पराय॑ मानसं सैंहम् पश्य धूर्तेरहं मूढो ४५२ पट्टांशुकदुकूलादि२२७ परार्ध्यरत्ननिर्माणम् १४५ | पश्यन्नुपसमुद्रं तम् ३७ पट्टाल्ललाटो नान्येन । ४५१ । परावमानमलिनां भूतिम् १८३ ] पश्यन् स्तम्बकरिस्तम्बान् १७४ ० ०nsIM WXW durur Up ११२ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ ३७२ १६२ ५०१ पश्य पुण्यस्य माहात्म्यम् पश्याम्भोधेरनुतटमेषा पहरां विषमग्राहैः पांसुधूसररत्नौघपाकसत्त्वशताकीम् पाणिग्रहरणदीक्षायाम् पाण्डधान् प्रचण्डदोर्दण्डपादातकृतसंबाधात् पादरयं जलनिधिः पापः स तवरगर्मृत्वा पापरोगी परप्रेों पापसूत्रधरा धूर्ताः पापसूत्रानुगा यूयम् पापान्येतानि कर्मारिण पापिनाऽशनिवेगेन पारमात्म्य पदे पूज्यो पारा पारेजलं कूजत् पारावतभवे चाप्यधर्मम् पारिवज्यं परिव्राजो पार्थिवस्यैकराष्ट्रस्य पार्थिवान् प्रणतान् यूयम् पार्थिवैर्दण्डनीयाश्च पालयेदनुरूपेण दण्डेनेव पालयेद्य इमं धर्मम् पिताहं भवदेवस्य पितु: पदमधिष्ठाय पितुरन्वयशुद्धिर्या पित्रोः पुरी प्रवृत्तः सन् पिनद्धतोरणामुच्चैः पीठिकामन्त्र एष स्यात् पीतं पुरा गजतया सलिलं पीतं वनद्विपैः पूर्वम् पीताम्बुराम्बुदस्पद्धि पीताम्भसो मदासारैः पीत्वाऽथो धर्मपीयूषम् पीत्वाऽम्भो व्यपगमितान्तपीनस्तनतटोत्सङगपुंसां संस्पर्शमात्रण पुंसां स्त्रीणां च चारित्रपुंसो हतवतो दण्डम् पुस्कोकिलकलालापपुस्कोकिलकलालापपुण्डरीकातपत्रण महापुराणम् ३७६ | पुण्यं जले स्थलमिवाभ्यव- ६० | पुरोधाय शरं रत्नपुण्यं जिनेन्द्रपरिपूजन पुरोधोमन्त्र्यमात्यानाम् ८७ पुण्यं परं शरणमापदि दुवि- ६० पुरोपार्जितपुण्यस्य ३२२ पुण्यं साधनमस्यकम् ६५ पुरोपार्जितसद्धर्मात् पुण्यकल्पतरोरासन् २३७ पुरो बहिः पुरः पश्चात् २५१ पुण्याच्चक्रधरथियं विजयिनी- ६५ पुरो भागानिवात्यतुम् पुण्यादयं भरतचक्रधरो पुरोहितसखस्तत्र पुण्यादित्ययमादिमा- १३० पुरोहितः पुरन्ध्रीभिः पुण्याद् विना कुतस्तादृग् १३७ पुलिन्दकन्यकासन्य पुण्याश्रये क्वचित् सिद्धः २५१ पुष्कराद्धेऽपरे भागे ४१३ पुण्याहघोषणापूर्व कुर्याद् पुष्करावर्त्य भिख्यं च ३२१ पुण्यैः सिन्धुजलैरेनम् ११६ पुष्करैः पुष्करोदस्तैः २८० पुण्योदयान्निधिपतिः १५० पुष्टो मौलेन तन्त्रण पुण्योदयन मकराकर पुष्पच्चूतवनोद्गन्धिः ४८२ पुत्रबन्धुपदातीनाम् ४२६ पुष्पमार्तवमाप्तानः पुत्रलाभार्थि तच्चित्तम् ४५२ पुष्पसम्मर्दसुरभिः पुत्र्यश्च संविभागार्हः २५३ पुष्पावचयसंसक्तपुत्र्या गेहं गतस्याङग पुष्पोपहारिभूभागा२८३ पुनः प्रियां जयः प्राह ४६२ पुस्फुरुः स्फुरदस्त्रौघाः पुनरध्यारय हृज्जन्म पूजाराधाख्यया ख्याता पुनरेकाकिनः सिंह ३२२ पूर्वं वननिवेशे तौ २८१ पुनर्विवाहसंस्कारः पूर्व विहितसन्धानाः पुनस्तत्रागता दृष्टा ४६७ पूर्वमेव समालोच्य २६३ पुनातीयं हिमाद्रि च पूर्ववत् पश्चिमे खण्डे ४६१ पुरः पादातमश्वीयम् पूर्वोक्तपिङगलाख्यस्य ३५६ पुरः प्रतस्थे दण्डेन पृथक् पृथक् प्रदायाति २७७ पुरः प्रधावितैः प्रेङख २८ पृथक् पृथगिमे शब्दाः ४५४ पुरः प्रयातमश्वीयः 1-पृथुधीस्तमवष्टभ्य पुरगोपुरमुल्लङध्य १७५ पृथुवक्षस्तटं तुङग२६३ पुरवो मोक्षमार्गस्य पोषयत्यतियत्नेन पुरस्कृत्येह तामेताम् ४३० पोषयन्ति महीपालापुरस्तीर्थकृतां पूर्व पौरा: प्रकृतिमुख्याश्च पुरस्सरणमात्रण ३८६ पौरैर्जनैरतः स्वेषु पुरस्सरेषु निश्शेष २६५ प्रकाममधुरानित्थम् ३१६ पुराङगनाभिरुन्मुक्ता प्रकीर्णकचलद्वीचिपुराणं तस्य मे ब्रूहि प्रकृतिस्थेन रूपेण १७५ पुराणं धर्मशास्त्रं च प्रकृष्टो यो गुणैरेभिः ३६७ पुराणं मार्गमासाद्य प्रक्षालितेव लज्जाऽगात् ३२३ पुराणस्यास्य संसिद्धि ३५५ प्रक्ष्वेलितरथं विश्वग ४७० पुराणे प्रौढ़शब्दार्थे ३५२ प्रगुणस्थानसोपानाम् | पुराद् गजं समारुह्य प्रगुणामुष्टिसंवाहया | पुरुषार्थत्रयं पुम्भि प्रचचालबलं विष्वग २६ । पुरोज्वलत्समुत्सर्पच्छर- ४०४ प्रचण्डदण्डनिर्घात 4 १८ पूर्वव ११५ ४७७ ४३६ २६२ ४७४ १७६ ३४५ १८६ २६२ ३२४ २२५ X m m १३१ m m ४३७ ३६८ २१६ १७६ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकारानुक्रमः ५४१ २६४ १०३ १४५ surxy trrxumarururr ४६६ प्रचण्डश्चण्डवेगाख्यो प्रचण्डा बज्रतुण्डाख्या प्रचलबलसंक्षोभाद् प्रचेलुः सर्वसामग्र्या प्रजाः करभराक्रान्ता प्रजानां पालनार्थ च प्रजानां सदसद्वत्तचिन्तनैः प्रजानुपालनं प्रोक्तम् प्रजापतिः सर्वसन्धो प्रजापालतनूजाभ्याम् प्रजासामान्यतैवेषाम् प्रज्ञा परिषहं प्राज्ञो प्रज्वलन्तं जयन्तं वा प्रगताननुजग्राह प्रणमंश्चरणावेत्य प्रणम्य वनपालाय प्रणम्य वनपालाय प्रणयः प्रश्रयश्चेति प्रणयः प्रश्रयश्चेति प्रणिधाय मनोवृत्तिम् प्रणिपत्य विधानेन प्रतापी भुवनस्यकम् प्रतिकक्षं सुरस्त्रीणां प्रतिकेतनमुद्बद्धप्रतिग्रहापसारादिप्रतिध्वनितदिग्भित्तिप्रतिध्वस्तानि पापानि प्रतिप्रयागमभ्येत्य प्रतिप्रयागमानम्राप्रतिप्रयाणमित्यस्य प्रतियोद्धुमशक्तास्तम् प्रतिराष्ट्रमुपानीतप्रतिवादसमुद्भूतप्रतिशय्यानिपातेन प्रतीची येन जायेऽहम् प्रतीच्यापि युतश्चन्द्रो प्रतीपवृत्तयः कामम् प्रतीपवृत्तिमादर्श प्रतीयायान्तरे छिन्दन् प्रत्यक्षो गुरुरस्माकम् प्रत्यग्रसमरारम्भप्रत्यग्राः किसलयिनीगुहारण प्रत्यनीककृतानेक २३५ । प्रत्यापरणमसौ तत्र २३४ प्रत्यायातमहावात प्रत्येत्येव प्रपश्यन्तीम् १०४ । प्रत्ययः श्रेष्ठिना प्रोक्तः ६४ प्रथमं सत्यजाताय नमः प्रथमं सत्यजाताय स्वाहा प्रथमोऽस्य परिक्षेपो ३४८ प्रदानाहत्वमस्यष्टम् प्रदाय परिवारं च ४५३ प्रदीपः स्वकुलस्यायम् प्रदुष्टान् भोगिनः कांश्चित् २११ प्रद्विषन् परपाषण्डी ४०४ प्रनृत्यतां प्रभूतानाम् प्रपतन्नालिकेरौघस्थ प्रफुल्लवनमाशोकम् ४८० प्रबुद्धपद्मसौम्यास्या ४८० प्रबोधजृम्भरणादास्यम् प्रभग्नचरणं किञ्चिद् प्रभातमरुतोद्भूतप्रबुद्ध प्रभावती च तन्मात्रा १५६ प्रभावतीचरी देवी प्रभावतीति सम्मुह्य ३१८ प्रभावत्या च पृष्टोऽसौ ४६० प्रभा समजयत्तत्र प्रभुरणाऽनुमतश्चायम् ३६२ प्रभोरवसरः सार्यः प्रभोरिवागमात्तुष्टा प्रमत्तादिगुणस्थान१२८ प्रमदारव्यं वनं प्राप्य ६२ प्रमाणकालभावेभ्यो प्रमाद्यन् द्विरदः कश्चिद् प्रमेयत्वं परिच्छिन्नप्रमोदात् सुप्रभादेशात् प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्याद् ४१४ प्रययौ निकषाम्भोधिम् ४१८ प्रयाणभेरीनिः स्वानः १७२ प्रयात धावतापेत प्रयान्तमनुजग्मुस्तं प्रयायानुवनं किञ्चिद् १५६ प्रयुक्तानुनयं भूयो २०१ प्रयोज्याभिमुख तीक्ष्णान् प्ररूढशुष्कनाथेन्दु१८६ | प्ररूपयिष्यते किञ्चिद् ४१०० rror09. ७rxxxxx m Wr arrrumm प्रवालपत्रपुष्पादेः २४१ ४१६ प्रविभक्तचतुरिम् ११७ ४४० प्रविशद्भिश्च निर्यद्भिः ४६६ प्रविश्य भवनं कान्त्या ४८७ २६५ प्रविष्टमात्र एवास्मिन् १०८ प्रवीरा राजयुध्वानः प्रवृत्तेयं कृतिः कृत्वा ३५४ ३१२ प्रवृद्धनिजचेतोभिः ३५८ ४४१ प्रवृद्धप्रावृडारम्भ ४१० ३८२ प्रवृद्धवयसो रेजुः प्रवेश्य पापधी राजसमीपम् ४७४ ३३२ प्रवेष्टमब्जिनीपत्र३२२ प्रव्रज्य बहुभिः सार्द्धम् ४४३ प्रशस्ततिथिनक्षत्र- २८३ प्रशान्तधीः समुत्पन्न२२८ प्रशान्तमत्सराः शान्ताः प्रश्नव्याकरणात् प्रश्नम् प्रसन्नमभवत्तोयम् प्रसन्नया दृशैवास्य प्रसन्नवदनेन्दूद्यदाहादि- ४३६ प्रसन्नसलिला रेजुः ४४७ प्रसह्य च तथाभूतान् ३४५ ४६१ प्रसह्य तमसा रुद्धो ६४ प्रसय पातयन् भूमौ २०७ प्रसादा विविधारस्तत्र १३६ १०३ प्रसाधितदिशो यस्य । १२६ प्रसाधितानि दुर्गाणि ११६ ५०५ प्रसाध्य दक्षिणामाशाम् ४८० प्रसारितसरिज्जिह्मो ८७ प्रसुप्तवन्तं तं तत्र ४८९ प्रस्थानभेर्यो गम्भीर३३८ प्रस्फुरच्छस्त्रसङघात- ४०७ ३७६ प्रस्फुरद्भिः फलोपेतैः ३०१ प्रहारकर्कशो दृष्ट- १६३ प्राकृतोऽपि न सोढव्यः २८६ प्राक् केन हेतुना यूयम् २८ प्राक् पीतमम्बु सरसां ७७ प्राक् समर्थितमन्त्रण ३६१ ६६ प्राक् समुच्चितदुष्कर्मा ३६३ २०६ प्राक् स्वीया जलदा जाता प्रागक्षिगोचरः सम्प्रत्येष ५१२ ३८७ प्रागत्र सत्यजाताय स्वाहा २६८ ४६६ | प्रागभावितमेवाहम् ३४२ १८६ १०५ ४४४ ४०० १५६ orrY २४१ ४१६ , Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ महापुराणम् لم تمر لس KK० ० ०ी. AAI K८० vd.xiyu09 २४२ لا ५०५ ३ १६४ ३३४ २४७ ५०४ प्रागुक्तकरवालेशः ४६१ । प्रियदुहितरमेनां नाथ- ३८५ बलादशनिवेगेन प्रागुक्तवर्णनं चास्य प्रियसेनं समाहूय ४४६ बलादुद्धरणीयो हि प्राग्दिङमुखस्तृतीयेन प्रियोद्भवः प्रसूतायाम् बलानि प्रविभवतानि प्राग्देहाकारमूर्तित्वम् प्रियोद्भवे च मन्त्रोऽयम् बलान्तभद्रो नन्दी च प्राग्वरिणतमथानन्दम् ३०५ प्रीताश्चाभिष्ट्वन्त्येनम् बलिनामपि सन्त्येव प्राङ्मुखं सर्वतोभद्रम् ३७१ प्रीतिमप्रीतिमादेयम् | बलिनोर्युवयोर्मध्ये प्राची दिशमथो जेतुम् प्रेम नः कृत्रिम नैतत् बलैः पराहय निर्भक्ताः प्राच्यानाजलधेरपाच्यप्रेयसीयं तवैवास्तु बलोत्कर्षपरीक्षेयम् प्राच्यानिब स भूपालान् ६२ प्रेषिता काञ्चना नाम बलोपभुक्तनिःशेषप्रारणा इव वनादस्माद् प्रोक्ता पूजाहंतामिज्या बालीता स्फोटितश्चित्रः प्रातरुत्थाय धर्मस्थैः प्रोक्तास्त्विन्द्रोपपादाः २५८ बहवोऽप्यस्य लम्भाः प्रातरुद्यन्तमुद्धृत३२६ प्रोक्तोपेक्षादिभेदेषु बहिः कलकलं धुत्वा प्रातरुन्मीलिताक्षः सन् ३२६ प्रोत्खातासिलता विद्युत् ४०७ बहिः पुरमथासाद्य प्रातस्तरामथानीय ३४६ बहिःसमुद्रमुद्रिक्तम् प्रातस्तरामथोत्थाय बहिरन्तर्मलापायाद् ३४० प्रातिकूल्यं तवास्मासु ४२६ फरणमात्रोद्गता रन्ध्यात् बहिनिवेशमित्यादीन् प्रातिहार्यमयी भूतिः १४५ फलानतान् स्तम्भकरीन् बहिर्मण्डलमेवासीत् फलाय त्वद्गता भक्तिः १४२ प्रातिहार्यमयी भूतिः । बहिर्यानं ततो द्वित्रः फलेन योजितास्तीक्ष्णा प्रातिहार्याष्टकं दिव्यम् २६७ बहिविभूतिरित्युच्चैः फेनोमिहिमसन्ध्यानप्रातिहार्याष्टकोद्दिष्ट बहिस्तटवनादेतत् २३ प्रादात् प्रागेव सर्वस्वम् ४३४ बहुनापि न दत्तेन प्रादुर्भवति निःशेष बद्धभुकुटिरुझान्त२०५ बहुवाणासनाकीर्णम् २५ प्राध्वंकृत्य गले रत्न बद्धवैरो निहन्ता भूः ४७६ बह्वपायमिदं राज्यम् ३४१ प्रान्ते ततोऽहमागत्य ४६४ बद्धाय च तुरणाद्यस्मै बाध्यत्वं ताडनानिष्ट वचन- ३३८ प्रान्ते स्वर्गादिहागत्य ४६८ बन्धः सर्वोऽपि सम्बन्धो बालं समर्पयामारा प्रापधुद्धोत्सुक: साईम्- ४०७ बन्धवः स्युन पाः सर्वे ३६६ बालानिव छलादरमान् प्रापितोऽप्यसकृदुःखम् ४६३ बन्धश्चतुर्विधो ज्ञेयः बालास्ते बालभावेन १५७ प्राप्तातीन्द्रियसौन्दर्यो बन्धुजीवेषु विन्यस्त बाल्य एय ततोऽभ्यस्येत् ३१२ प्राप्तोत्कर्ष तदस्य स्यात् | बन्धुभृत्यक्षयाद् भूयः बाल्यात् प्रभृति या विद्या ३१२ प्राप्तौषधरस्यासीत् बन्धूकैरिन्द्रगोपथी बाहू तस्या जितानगपाशी प्राप्य संयमरूपेण बभुर्नभोऽम्बुधौ ताराः बिभर्ति यः पुमान् प्राणान् प्राभातानककोटीनाम् ४१८ बभुर्मकुटबद्धास्ते २०१ बिति हिमवानेनाम् प्रायश्चित्तविधानज्ञः बने हारलतां कण्ठलग्नाम् २२६ विभ्यता जननिर्वादाद् १५८ प्रायो व्याख्यात एवास्य १७३ बलक्षोभादिभो निर्यन् बुद्धिमांस्त्वं तवाहार्यप्राविशद् बहुभिः सार्धम् बलद्वयास्त्रसंघट्ट बुद्धिसागरनामास्य २३५ प्राशनेऽपि तथा मन्त्रम् बलध्वानं गुहारन्यः १०४ बुद्धथैव बद्धपल्यङका: प्राशंसत् सा तयोस्तादृङ बलरेणुभिरारद्धे ब्रह्मचर्य च धर्म्यस्य २१४ प्रासान् प्रस्फुरतस्तीधरणान् बलवाननुवर्त्यश्चेद् ब्रह्मचारी गृहस्थश्च २८३ प्राहुर्भूतमुखं खेटम् २३५ बलवान् कुरुराजोऽपि ब्रह्मरणोऽपत्यमित्येवम् २८१ प्राहुर्मूलगुणानेतान् २१२ बलवान् धूमवेगाख्यः ४८६ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् २४३ प्रियदत्तापि तं गत्वा वन्दित्वा ४६६ | बलवान्नाभियोक्तव्यो ब्रुवन् स कल्पना दुष्ट मिति ४०६ प्रियदत्ताह्वया तस्याः ४४६ | बलं विभज्य भूभागे ब्रुवारणानिति साक्षेपम् प्रियदत्तेङिगत तदवगत्यान्य- ४५३ | बलव्यसनमाशङक्य- ११४ | ब्रुवाणैरिति सङग्राम- १८६ ३५३ A0%EW २१४ २२६ २७६ ४०८ ० ० Wwxws ४६ ० Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ५४३ PU0mm MY al००। AMAK.00000 ब्रूत यूयं महाप्रज्ञा २६६ भाति तस्याः पुरो भागो | भोगेष्वत्युत्सुकः प्रायो २०७ ब्रूयाच्च नेमिनाथाय स्वाहा २६७ भाति यः शिखरैस्तुङगैः भोगोपभोगयोग्योरु- ३७२ ब्रूहि तत्प्रापणोपायमिति ४८५ भार्या सागरदत्तस्य भोगोऽयं भोगिनो भोगो भावनव्यन्तरज्योतिः १४० भोग्येष्वर्थेष्वनौत्सुक्यभावयन्ती मृतात्रेयम् भ्रमत्यकाकिनी लोकम् भक्त्या प्रगमतस्तस्य भास्वत्प्रभाप्रसरणप्रतिबुद्ध भ्रमद्यन्त्रकुटीयन्त्र १७५ भक्त्यापितां स्रजम् १४६ भास्वत्सूर्यप्रभं तस्य २३४ भ्रातरोऽमी तवाजय्या- १५४ भक्षाश्चामृतगर्भाख्या भिक्षां नियतवेलायाम् भ्रातृभाण्डकृतामर्ष १५६ भक्ष्यमाणान् कपोताद्यैः भिषजेव करैः स्पृष्ट्वा १६० भ्रक्षेपयन्त्रपाषाणैः २२५ भगवंस्त्वद्गगास्तोत्रात् १४६ भिन्नी युक्ती मृदुस्तब्धौ भ्रभङगेन विना भङगः २०३ भगवदिव्यवागर्थ ३२० भीकरा: किङकराकाराः भगवानभिनिष्क्रान्तः । भीतभीता युधोऽन्यैश्च मरिंग मत्वा प्रविश्यान्त षु भङिगना किमु राज्येन भुक्तमात्मम्भरित्वेन ४३३ मणिकुण्डलभारण ३७५ भडगुरः सङगम: सर्वोऽपि भुक्तो भोगो दशाङगोऽपि ४६६ मरिगपीठे समास्थाप्य ४३८ भटा हस्त्युरसं भेजुः २०१ भुक्त्वापि सुचिरं कालम् १६१ । मणिमुक्ताफलप्रोत- ४३५ भटाकुटिकः केचिद् १०४ भुजङ्गप्रयातैरिदं वारिरागेः ५४ । मरिगर्न जलमध्येऽस्ति भरतविजयलक्ष्मी भुजबल्यादयोऽभ्येयुः ४१६ मरिणश्चूडामणिनाम भरतस्यादिराजस्य भुजोपरोधमुद्धृत्य २०५ मण्डलाग्रसमुत्सृष्ट- ४०४ भरतेन समभ्यय॑ भुज्यते यः स भोगःस्याद् मतः संसारि दृष्टान्तः भरतेशल किलात्रापि २०५ भुनक्तु नृपशार्दूलो मतिज्ञानसमुत्कर्षात् २१३ भरतो भारत वर्ष २४० भूतार्थस्त्वस्तु तत्सर्वम् ४५६ । मतिमें केवलं सूते भरतोऽभिरतो धर्मे भूत्वा बुधविमानेऽसौ ४७७ मतिश्रुतिभ्यां निश्शेषम् भर्तृभार्याभिसम्बन्धम् भूपोऽप्यनुनयरस्य मत्खड्गवारिवाराशि- ३८७ भवतु सुहृदां मृत्यौ शोकः भूपोऽप्येवं बली कश्चित् ३४७ मत्वा नीत्वा द्विजः ४८३ भवत्कुलाचलस्योभौ ३८६ भूपोऽप्येवमुपासन्नम् ३४५ मत्वाऽसौ गत्वरी लक्ष्मीम् १२६ भवदेवचरेगानुबद्धवरेण ४५८ भूभृतां पतिमुत्तुङगम् मत्वेति तनुमाहारम् भवदेवेन निर्दग्धम् ४५७ भूमिष्ठैनिष्ठुरं क्षिप्ता मदनज्वरतापा २३१ भवद्भिर्भावितैश्वर्यम् भूयः परमराज्यादि३०४ मदनानलसन्तप्त इति ४७४ भवबन्धनमुक्तस्य २८८ भूयः प्रोत्साहितो देवैः १२७ मदस्रुतिमिवाबद्धभवेच्च न तपः कामो ३३७ भूयस्तदलमालप्य १८५ मदीयराज्यमाकान्त- १७६ भवेत्कर्ममलादेशाद् भूयो द्रष्टव्यमत्रास्ति मद्गृहाङगणवेदीयम् भवेदन्यत्र कामस्य भूयोऽपि संप्रवक्ष्यामि मदृष्टपूर्वजन्मानि ४७१ भवेद् दैवादपि स्वामिन्य- ४२६ भूयो भूयः प्रणम्येशम् ३२३ मद्यशः कुसुमाम्लान- ३८७ भवेयुरन्तरद्वीपाः २२६ भूरेण वस्तदाश्वीय २०२ मधु द्विगुणितस्वादु- ४१५ भवेऽस्मिन्नेव भव्योऽयम् भङगीसङगीतसम्मूर्छन् १३८ मधुमांसपरित्यागः २५० भव्यस्यापि भवोऽभवद् ५१२ भेजे षड्ऋतुजानिष्टान् २२८ मधौ मधुमदारक्तलोचनाम् २३१ भव्यात्मा समवाप्य जातिमु- २८६ भेदं स चक्रवर्तीति ४८१ मध्यस्थवृत्तिरेवं यः ३४८ भागी भवपदं ज्ञेयम् भेर्यः प्रस्थानशंसिन्यो मध्यस्थोऽपि तदा तीव्रम् भागी भवपदं वाच्यम् ३०४ भो भोः सुधाशना यूयम् २५८ मध्ये चक्षुरधीराक्ष्या २२६ भागीभवपदान्तश्च भोक्तृशून्यं नभोगाङगम् मध्ये तस्य स्फुरद्रत्न- ४३५ भागीभवपदेनान्ते भोगब्रह्मव्रतादेवम् २५० मध्ये महाकुलीनेषु ३८६ भागीभवपदोपेतः ३०२ भोगास्तृष्णाग्निसंवृद्धयै मध्ये महीभृतां तेषाम् भाजनं भक्ष्यसम्पूर्णमदत्त- ४४६ | भोगिनो भोगवद् भोगा- ४६३ | मध्ये रत्नद्वयस्यास्य ५१० २०४ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ महापुराणम् ५१३ १६ x x " ها मध्ये विन्ध्यमथैक्षिष्टमध्येवेदि जिनेन्द्रार्चाः मध्येसममथान्येद्युः सनःपर्ययज्ञानमप्यस्य मनसि मनसिजस्यावापि मनुश्चक्रभृतामाद्यः मनुष्यजातिरेकैव मनोऽगारे महत्यस्य मनोजशरपुङखाब्जः मनोभवनिवेशस्य मनोभुवोऽतिवृद्धस्य मनोरथस्य पुत्राय मनोवेगोऽशनिवरः मनोव्याक्षेपरक्षार्थम् मनोहराख्यविषय मन्त्रः परमराजादिर्मतोऽयं मन्त्रभेदभयाद् गूढम् मन्त्रमूर्तीन् समाधाय मन्त्रनिमान् यथायोगम् मन्त्रास्त एव धर्माः स्युः मन्त्रिणस्तस्य भूतार्थ: मन्त्री च फल्गुमत्याख्यो मन्त्री प्राग्भोगभुजोमन्त्रेणानेन शिष्यस्य मन्त्रेणानेन सम्मन्त्र्य मन्त्ररेभिस्तु संस्कृत्य मन्त्रो मोदक्रियायां च मन्त्रोऽवतारकल्याणभागीमन्थरज्जुसमाकृष्टिः मन्थाकर्षश्रमोद्भूत- . मन्थारवानुसारेण मन्दं पयोमुचां मार्गे मन्दमन्दं प्रकृत्यैव मन्दराभिषेककल्याणमन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिमन्दरेन्द्राभिषेकश्च मन्दरेन्द्राभिषेकोऽसौ मन्दसाना मदं भेजुः मन्दाकिनीतरङगोत्थमन्दातपशरच्छाये मन्दारकुसुमामोदमन्दारकुसुमोद्गन्धि:मन्दारवनवीथीनाम् मन्दारस्रजमम्लानिम् मन्ये पत्राणि गात्राणि २३१ ममाभिवीक्षितुं तत्र मया तु चरितो धर्मः ४४४ मया निवारितोऽप्याया २२२ मया सृष्टा द्विजन्मानः २४३ मयि स्वसात्कृते देव २१३ मयैव विहिता: सम्यक् मयापनयनेऽग्राहि मरुदान्दोलितोदन२२४ मरुदुद्भूतशाखाग्रमलयानिलमाश्लेष्टुम् मलयोपान्तकान्तारे मलिनाचरिता येते ५०१ मलीमसाङगो व्युत्सृष्ट मल्लिकाविततामोदैः १७४ महद्भिरपि कल्लोलैः ४३८ महसास्य तपोयोग महाकल्याणकं नाम २७१ महाजवजुषो वक्त्राद् ४५५ महातपोधनायार्चा ४५० महादानमथो दत्त्वा महाद्रिरयमुत्सङग३१० महाध्वरपतिर्देवो ३०५ महान्गजघटाबन्धो २६१ महान्ति गिरिदुर्गाणि महापगाभिरित्याभिः महापगारयस्येव महाबलिनि निक्षिप्तमहाबाहुस्ततश्चाभूद् महाब्धिरौद्रसङग्राम२१८ महाभिषेकसामग्र्या४०६ महाभोगैर्नृपः कश्चिद् महामना वयुष्मान्तो३०७ महामहमहं कृत्वा महामहमहापूजाम् महामुकुटबद्धानाम् महामुकुटबद्धानाम् महामुकुटबद्धास्तम् १८६ महामुकुटबद्धैश्च २६२ महाव्रतं भवेत् कृत्स्न१३७ महाहास्तिकविस्तार२१ | महाहिरण्यमायामम् २५६ | महिम्ना शमिनः शान्तम् २२४ । महिम्नाऽस्य तपोवीर्य- २१६ ४८५ मही व्योमशशी सूर्यः ३८८ २७५ महीशेनेति सम्प्रोक्ता ५०१ महेन्द्राद्रीं समाक्रामन् महोत्सङगानुदग्राङगान् ८६ १०६ महोपवासम्लानाङगा ४२६ मां निवार्य सहायान्तीम् ४८३ मां स्वकार्ये स्मरेत्युक्त्वा १३२ मागधायितमेवास्य मा मा मागधवैचिताम् ४६ माघकृष्णचतुर्दश्याम् ५०७ ८४ माता पिताऽपि या यश्च ४५६ २८२ मातापितृभ्यां तदृष्ट्वा ४५६ २८५ मातापितृभ्यां प्रादायि ४५५ २२ माद्यन्ति कोकिला शश्वत् २२ ४५ माद्यन्मलयमातङग- . २१६ माधवीलतया माढम् २१० २३६ माधवीस्तबकेष्वन्त २२ मानखण्डनसम्भूत२४२ मानत्वमस्य सन्धत्ते ३१४ २६५ मानभङगाजित गः मानमेवाभिरक्षन्तु १८३ मानयन्निति तद्वाक्यम् १२१ मानस्तम्भमहाचैत्य मानस्तम्भस्य पर्यन्ते १२३ मा नाम प्रगति यस्य १७८ मामजेषीत् सखासो मे २०६ मामधिक्षिप्य कन्येयम् ३८७ मायया नास्मि शान्तेति २०७ मायारूपद्वयं विद्याप्रभावात् २६१ मार्ग स्थितमुद्धृय ४८१ मार्गविभ्र शहेतुत्वाद् ४६६ मार्गांश्चिरन्तनान् येत्र ४३० मार्गे प्रगुणसञ्चारा: ३६६ मार्गे बहुविधान् देशान् ३५ माहात्म्यप्रच्युतिस्तावत् मित्रयज्ञः स्वयम्भूश्च ३५७ मिथ्यात्वं पञ्चधा साष्ट२४२ मिथ्यात्वमव्रताचारः ५०४ मिथ्यामदोद्धतः कोऽपि ४०७ मुकुले वा मुखे चक्रे २३ | मुक्तसिंहप्रणादेन ११६ ه لله ५०४ MY MY MY MY ० ००० mmmm ० ० ०" MY MY v r ovV Y Mr. ०० ० ० urummo mar4 २६० ३३२ Wx., Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तस्तु न तथा किन्तु मुक्तात्मनां भवेद् भावः मुक्ताफलाच्छ्मापायमुक्तेतरात्मनोर्व्यक्त्यै मुक्त्वा कुमारमभ्येत्य मुखं रतिसुखागार - मुखमुद्ध् तनूदर्याः मुखरैर्जयकारेण मुखेन चन्द्रकान्तेन मुखेन पद्मकजच्छायाम् मुखैरनिष्टवाग्वह्नि मुच्यमाना गुहा सैन्यैः मुदा निष्पादयामास मुद्गरादभिघातेन मुनयोऽपि समानाश्चेत् मुनि रतिवरं प्राप्य मुनिं हिरण्यवर्मारणम् मुनिः पृथकप्रदेशस्थाम् मुनिभ्यां दत्तदानेन मुनिमन्त्रोऽयमाम्नाती मुनिस्तद्वचनं श्रुत्वा मुनीन्द्रपाठनिर्घोषैः मुसलस्थूलधाराभिः मुहुः प्रचलदु वेल मूकः श्रेयःपुरे जातः मूच्छितः प्रेमसद्भावात् मूर्त्यादिष्वपि नेतव्या मूर्धाभिषिक्तः प्राप्तमूनि पद्म हदोऽस्यास्ति मूलस्कन्धामध्येषु मूलोत्तरगुणेष्वात्तमृगाङकस्य कलङकोऽयम् मृगैः प्रविष्टवेश मुर्गम रिवापातमात्रभग्नंः मृणालैरङ्गमावेष्ट्य मृणालैरधिदन्ताग्रम् मृदवस्तनवः स्निग्धाः मृष्यतां च तदस्माभिः मेखलायां तृतीयस्याम् मेखलायां द्वितीयस्याम् मेघप्रभवच चण्डासिप्रभामेघप्रभसुकेत्वादि मेघप्रभो जयादेशाद् श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ३३६ ३३५ | मेषस्वरो भीमभुजमेघान्धकारिताशेषमेधा सत्त्वजवोपेता १६० ३३७ ४६२ मैथुनस्य च संस्मृत्य मैथुनाय नृपः क्रुध्वा मोक्षो गुणमयो नित्यो २२४ २२६ ११० १७६ १७६ १७२ मोहपाशं समुच्छिद्य मीनाध्ययनवृत्तत्वम् म्लापयन् स्वाङगसौन्दर्यम् म्लेच्छखण्डमखण्डाज्ञः म्लेच्छराजसहस्राणि म्लेच्छराजादिभिर्दत्ताः म्लेच्छराजान् विनिर्जित्य म्लेच्छाचारी हि हिंसायाम् म्लेच्छाननिच्छतोऽप्यज्ञान् १२६ ३७२ ३३८ १८३ ४६७ ४६८ ४६८ ४५६ यः पूर्वापरकोटिभ्याम् २६६ यः समरेभिः ४६६ यः स्तुत्यो जगतां त्रयस्य १३५ १६४ यक्षीभूताः तदागत्य यच्च दण्डकपाटादियज्ञोपवीतमस्य स्यात् यतिमाभाय लोकाये ३६ ४६१ ४३७ यतोऽक्षरकृतं गर्वम् यतो निःशेषमाहारं २८५ २२१ १२३ ३७२ यतोऽयं लब्धसंस्कारो यतो यतो बलं जिष्णोः यतोऽस्य दृढढक्कानाम् ३२२ यत्तु नः संविभागार्थम् ३६८ यत्पुरश्चरणं दीक्षा यत्प्रष्टुमिष्टमस्माभिः यत्र शास्त्रारिण मित्राणि यत्रोन्मग्नजला सिन्धुः यत्संसारिणमात्मानम् यथा कालायसाविद्धम् यथा क्रममतो धूमः यथा खल्वपि गोपाल: ३४४ यथाख्यातमवाप्योर ४६६ ३४३ यथा गोपालको मीलम् यथा च गोकुलं गोमिन्यायाते ३४७ ३४४ १३५ ४०८ ३७० १६४ २६ ७५ ३६६ २०६ १४० ३१६ ३६५ ४२८ ४१० यथा च गोपो गोयूथम् २७ ४६७ ४७३ ३६१ ૪૨૪ २४४ २८५ १०८ २२७ २२३ ४३० ३४६ १७८ य यं नत्वा पुनरामनन्ति न परं २३६ यः कोऽप्यकारणद्वेषी १५२ ८५ ३४० २३८ ४६२ २६७ २७८ २५६ ३४६ २५६ २८० ६६ ६२ १५६ २५३ ३५७ १६१ ११४ ३३८ ३१४ २७० यथा जिनाम्बिका पुत्र यथा तथा नरेन्द्रोऽपि यथा तव हृतं चेतः यथा दृष्टमुपन्यस्ये यान्तमसो दूरात्तम् ययान्नमुपयुक्तं सत् यथार्थदर्शनज्ञान यथायंवरमय्यंञ्च यथावदभिषिक्तस्य यथाविभवमत्राषि यथाविभवमत्रेष्टम् यथा विषयमेवैषाम् यथामत्पितृदत्तेन यथास्वं संविभज्यामी यथास्वानुगमर्हन्ति यथा हि कुलपुत्राणाम् यथेष्टं सप्रियो विद्यावाहनः यथेह बन्धनान्मुक्तः यथैव खलु गोपालः यथैव खलु गोपालो यथैव गोपः संजातम् यथोक्तविधिनताः स्युः यथा किल विनिर्याति ५४५ यमसम्बन्धिदिक्त्यागम् ययुः करिभिराद्धम् यवीयानेष पण्यस्त्री यवीयान् नृपशार्दूलम् यशः पालः सुखावत्याः ३०६ ३४३ १६१ ३१६ १४४ ३२१ १४२ ४८ २६१ २४८ २४७ १८१ २५२ २२२ ३५३ ३३३ ५०० ३३ ३४५ ३४४ ३४५ २६७ ३२४ ४४२ २६६ '' यदादाय भवेज्जन्मी यदायं त्यक्तवाचान्तः यदि देशादिसाकल्ये यदि धर्मकरणादित्थम् यदिष्टं तदनिष्टं स्याद् यदि स्यात् सर्वसम्प्रार्थ्या यदीच्छाऽस्ति तवेत्याह यदुक्तमादिराजेन यदुक्तं गृहचर्यायाम् यदैव लब्धसंस्कार यद्दिग्भ्रान्तिविमूढेन यद्वच्चन्द्रार्कबिम्बोत्थयद्वच्च प्रतिभूः कश्चित् यदुवयं भिन्नमर्यादे ३४५ ४२७ यन्नाम्ना भरतावनित्वमगमत् २३८ ३७२ ७५ २८ ४४२ ३८६ ४८६ १५६ २७८ २७८ १४६ ३१७ २०५ ૪૪ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ महापुराणम् ४३३ سه سه ७ 2ur ک २४० यशःपालमहीपाल ४६५ | ये विशुद्धतरां वृत्तिम् यशस्यमिदमेवार्य ५८. ये केचिच्चाक्षरम्लेच्छा: यशस्वतीसुनन्दाभ्याम् ५०६ ये तस्यास्तनुनिर्माण यशोधनमसंहार्य ८४ येन प्रकाशिते मुक्तेः यस्त्वतीन्द्रियविज्ञान येनायं प्रहितः पत्री यस्त्वेताः द्विजसत्तमैरभिमता २६८ येनाऽसौ चक्रवर्तित्वम् यस्त्वेतास्तत्त्वतो ज्ञात्वा २७६ येनास्य सहजा प्रज्ञा यस्य दिग्विजये मेघकुमार- ३४६ ये ये यथा यथा प्राप्ताः यस्य दिग्विजय विष्वग् १२५ येषामयं जितसुरः समरे यस्य यत्र गताः स्यादृक्- ३७६ योगः समाधिनिर्वाणम् यस्याष्टादशकोटयोऽश्वा- १२५ योगक्षेमौ जगत्स्थित्य यस्योत्संगभुवो रम्याः १२४ योगजाः सिद्धयस्तेषाम् या कचग्रहपूर्वरण १६२ योगजाश्चर्द्धयस्तस्य या कृता भरतेशेन योगाः पञ्चदश ज्ञेयाः यागहस्तिनि मांसस्य योगो ध्यानं तदर्थो यो या च पूजा मुनीन्द्राणाम् २४२ योऽणुव्रतधराः धीरा याचित्रियण नास्येष्टा २११ योऽभूत् पञ्चदशो विभुः याथात्म्येन परिज्ञानम् योऽत्र शेषो विधिर्मुक्तः यादोदोर्घातनिर्घातः यो नाभेस्तनयोऽपि याममात्रावशिष्टायाम् योऽनुतिष्ठत्यतन्द्रालुः यां व चयमसौ वष्टि- ४४२ यो नेतेव पृथु जघान यावज्जीवं व्रतेष्वेषु यो योजनशतोच्छायो यावदभ्येति सेनानी १२८ यो वज्रमणिपाकाय यावद् विद्यासमाप्तिः स्यात् योषितां मधुगण्डूषैः या सुरेन्द्रपदप्राप्तिः २८८ योषितो निष्कमालाभिः याऽसौ दिवोऽवतीर्णस्य २८८ योषितोऽप्यभटायन्त युक्तं परमर्षिलिङगेन ३१० योऽस्मिश्चतुर्थकालादौ युक्त्यानया गुरगाधिक्यम् ३१४ योऽस्य जीवधनाकारयुगभारं वहेग्नेकः ३५२ यौवनेन समाक्रान्ताम् युगादौ कुलवृद्धेन ३६१ यौवनोन्मादजस्तेषाम् युगान्तविप्लवोदर्काः ३१७ युद्ध्वाप्येवं चिरं शेकुर्न रक्तः करैः समाश्लिष्य युवा तु दोर्बली प्राज्ञः १७२ रक्षाभ्युद्यता येऽत्र युवाभ्यां निजित: कामः रक्षावृशिरिक्षेपम् युष्मत्पादरजःस्पर्शाद् रक्ष्यं देवसहस्रण युष्मत्प्रणमनाभ्यास रक्ष्यः सृष्ट्यधिकारोऽपि युष्मत्साक्षि ततः कृत्स्नम् रङगितैश्चलितैः क्षोभैः युष्मादृशामलाभे तु २७५ रजःसन्तमसे रुद्धः यूथं वनवराहाणाम् रजन्यामपि यत्कृत्यम् यूयं त एव मद्ग्राहयाः रजस्वलां महीं स्पृष्ट्वा यूयं निस्तारका देव २७५ रजो वितानयन् पौष्पयूयं सर्वेऽपि सायन्तनाम्भोजा ४४६ रञ्जिताञ्जनसन्नेत्रा यूयमाध्वं ततस्तूष्णीम् ३६२ रणभूमि प्रसाध्यारात् २८२ रणभूमि समालोक्य ४२१ रतानुवर्तनैर्गाढ १९३ रतावसाने निःशक्त्योः ३५१ रति चारितमप्येष २१० रतिः कुलाभिधानस्य ४७७ ४८५ रतिपिङगलसंज्ञस्य ४७० ३२६ रतेः कामाद् विना नेच्छा ३७४ रत्नं स्थपतिरप्यस्य ४२३ रत्नं रत्नेषु कन्यव २५६ रत्नतोरणविन्यासे ३२४ रत्नतोरणसङकीर्ण- ३७१ १६६ रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि। २१३ रत्नद्वीपं जिघृक्षुभ्यो ५०५ रत्नमालाऽतिरोचिष्णः २३४ २५६ रत्नांशुचित्रिततलं ४३ रत्नांशुच्छरितं बिभ्रत् २६१ ५१४ रत्नांशुटिलास्तस्य २३४ रत्नाकरत्वदुर्गर्वम् ३८० ५१५ रत्नातपत्रमस्योच्चैः २१८ २८८ रत्नानि द्वितयान्यस्य ५१४ रत्नान्यपि विचित्राणि रत्नान्यपि यथाकामम् २२२ ४६० रत्नान्यमून्यनर्घारिण रत्नान्येतानि दिव्यानि २३६ रत्नाभ्रुः पर्युपासाताम् १७६ रत्नावर्तगिरि याहि ४८२ ३५१ रत्नः किमस्ति वा कृत्यम् ३३६ रत्नश्चाभ्यर्च्य रत्नेशम् ४५६ रत्यप्रतय॑माहात्म्यम् १४१ रत्यादिविमलासार्द्धम् ४६१ रथकटचा परिक्षेपो २०० ४१८ रथचक्रसमुत्पीडात् ४५ रथवाही रथानूहुः रथवेगानिलोदस्तम् २६ रथाः प्रागिव पर्याप्ताः ३६५ ३१३ रथाङगपाणिरित्युच्चैः रथान्तकनकस्तस्य ४६४ २०२ रथान्नव तथा दुष्टानष्ट- ४२० रथिनो रथकट्यासु १०२ रथिनो रथकट्यासु २०१ रथोऽजितञ्जयो नाम्ना २३४ ३७५ रथोद्धतगतिक्षोभाद् २६ २०२ । रथो मनोरथात् पूर्व १२४ १५६ 6 ०१.xurx الله MY ४४ ا २६ ३२७ لله MG Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ WIKKIMG KWN.00 २१६ । ३५२ श्लोकानामकारानुक्रमः रथोऽस्याभिमतां भूमिम् ४५ रात्री तलवरो दृष्ट्वा ४७३ | ललवालधयो लोल- २४ रथ्या रथ्याश्वसंघट्टात् राष्ट्राण्यवधयस्तेषाम् ललाटपट्टमारूढ १७६ रमणा रमणीयाश्च १६० रिपु कुपितभोगीन्द्र ललाटाभोगमेतासाम् २२४ रम्यां तीरतरुच्छाया ८७ रुद्धरोधोवनाक्षुण्ण ललाटे यदि केनापि ४५१ रम्य शिवङकरोद्याने ४७६ रुद्ध्वा माल्यवतीतीरवनम् ६८ लवङगलवलीप्रायम् रराज राजराजस्य १०६ रुषिता: कञ्जकिजल्कैः २० लाटाललाटसंघृष्टरराज राजराजोऽपि २०४ रूढो रागाङकुरैश्चित्ते लावण्यमम्बुधौ पुंसु ३८० रविः पयोधरोत्सङगरूपतेजोगुणस्थान लावण्यादयमभिसारयन् रविरविरलानशून् १६४ रेजुः सूत्रेषु सम्प्रोक्ता ३२४ लावण्येऽपि न सम्भोग्यम् रविराशावधूरत्न ३२० रेजुरङगुलयस्तस्याः ३६४ / लास्यः स्खलत्पदन्यासः रविवीर्यस्तथान्य च ५०२ रेजुर्वनलताः नः लिखितं साक्षिणे भुक्तिः १२६ रवेः किमपराधोऽयम् १८८ रेजे करतलं तस्याः २२६ लेखसाध्येऽपि कार्येऽस्मिन् १५८ रशनारज्जुविभ्राजि ३७६ रेजे स तदवस्थोऽपि २१० लेभेऽभेद्यमुरश्छदं वरतनोः ७६ रसनोत्पाटनं हारम् ४७० रोगस्यायतनं देहम् लोकचूडामणेस्तस्य ३२४ रागद्वेषौ समुत्सृज्य २५६ रोधोभुवोऽस्य तनुशीकर लोकपालाय दत्वात्मलक्ष्मीम् ४५० रागादीन् दूरतस्त्यक्त्वा रोधोलतालयासीनान् लोकपालोऽपि सम्प्राप्तराजगेहं महानन्दविधायि ४४१ रोधोलताशिखोत्सृष्ट लोकस्य कुशलाधाने १०५ राजन्यकेन संरुद्धः रोमराजीमिवानीलाम् १४ लोकाग्रवासस्त्रलोक्य ३४० राजन् राजन्वती भूयान् -१५५ रौक्म रजोभिराकीर्णम् लोकाग्रवासिने शब्दात् राजराजस्तदा भूरि रौप्यदण्डेषु विन्यस्तान् २६ लोकानन्दिभिरप्रमापरिगतैः ५६ राजविद्यापरिज्ञानाद् ३३४ लोलतरङगविलोलितदृष्टिः राजविद्याश्चतस्रोऽभूः ३२८ लोलस्यान्वर्थसंज्ञस्य ४७० राजवृत्तमिदं विद्धि- २६४ लक्षं कैलासमासाद्य लोलुपो नकुलार्योऽस्माद् ५१० राजवृत्तिमिमां सम्यक् लक्ष्मीः पुरीमिवायोध्याम् ३७८ लोलोमिहस्तनिर्धूतराजसिद्धान्ततत्त्वज्ञो ३२६ लक्ष्मीः सरस्वती कीर्तिः लोहस्यवोपतप्तस्य १८१ राजहंसैः कृताध्यात्सा लक्ष्मीः सा सर्वयोग्याऽभूद् राजहंसैः कृतोपास्य लक्ष्मीप्रहासविशदा राजहंसैरियं सेव्या लक्ष्मीवाग्वनितासमागम- ३३० | वंशमात्रावशिष्टाङगैः राजा कदाचिदबाजीद् ४५१ लक्ष्मीवतीं गृहाणेमाम् ४२६ वक्तृप्रामाण्यतो देव १४२ राजाऽपराजितस्तस्मात् लक्ष्मीस्तस्येक्षितुस्तेन- ३६७ वक्त्रमस्याः शशाङकस्य २२६ राजा राजप्रभो लक्ष्मीवती- ३५६ लक्ष्म्यान्दोललतामिवोरसि ६४ वक्त्रवारिजवासिन्या ३८४ राजा वित्तं समाधाय ३४८ लङघयन्नेत्रयोर्दीप्त्या ४०६ - वक्त्रेष्वमरनारीणाम् १४५ राजा सान्तःपुरः श्रेष्ठी ४५३ लङध्यते यदि केनापि वक्त्रेऽपि गुणवत्यस्मिन् राजा सुलोचना चावरोप्य ४३५ लज्जाशोकाभिभूतः सन् ४८४ वक्षःस्थलेऽस्य रुरुचे राजोक्तिर्मयि तस्मिश्च १८२ लज्जे सम्पर्कमर्केण ४१४ वङगाङगपुण्ड्रमगधान् राजोक्तिस्त्वयि राजेन्द्रलतायुवतिसंसक्ता वचोभिः पोषयन्त्येव १८३ राज्ञामावसथेषु शान्तजनता ३२ लतालयेषु रम्येषु वज्रकेतोर्महावीथ्याम् ४७० राज्यं कुलकलत्रं च १५५ लब्धचन्द्रबलस्योच्चैः ४१५ वज्रद्रोण्याममुष्य क्वथदिव राज्यादिपरिवर्तेषु ३४५ लब्धप्रसाद इत्युक्त्वा ४३१ वज्रपञ्जरमुद्भिद्य राज्याभिषेचने भर्तुः २२१ लब्धवर्णस्य तस्यति २५२ वज्रास्थिबन्धनं वाजं: २२३ राज्ये न सुखलेशोऽपि लब्धादेशोऽप्यहं हन्मि ४७२ वटविम्बप्रवालादि ३६५ राज्ये मनोभवस्यास्मिन् १६२ । लम्बिताश्च पुरद्वारि ३२४ वटस्थानवटस्थांश्च रात्राविन्दुर्दिवाम्भोजम् ३६७ | लम्भयन्त्युचितां शेषाम् २७८ | वत्सरानशनस्यान्ते २१७ २६३ ४०३ ३८६ ३४१ For Privated-Personaleemi Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ वदनोऽस्य मुखाम्भोजाद् वद प्रयाति कः पन्थाः वधं विधाय न्यायेन वध्नीथ नः किमिति हन्त वनं वनगजैरिदं जलनिधेः वनं विलोकयन् स्वैरम् वनद्विपमदामोद वनप्रवेशमुन्मुग्धा वनप्रवेशिभिर्नित्यम् वनराजीद्वयेनेयम् वनराजीस्ततामोदा: वनरेणुभिरालन्नैः वनरोमावलीस्तुङग वनवेदीं ततोऽतीत्य वनवेदीद्वयं प्रोच्चैः मनवेदीपचा पश्यद् वनवेदीमियं धत्ते वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य वन्दित्वा नागराः सर्वे वन्दित्वा वन्द्यमर्हन्तम् वन्दित्वा सिद्धकूटाख्यम् वन्दिमागधवृन्देन वन्याः स्तम्बेरमाः बन्यानेकपसम्भोग वप्रान्तर्भुवमाप्रातुम् वयं किमिति नाहूताः वयं जात्यैव मातङ्गाः वयं निस्तारका देव वयं वचोहरा नाम वयमपि चरमाङ्गाः वयमेव महादेवा १५२ ४८५ ४०२ ७६ ५६ ७४ ७४ ६६ १३५ १६ वनस्थलीस्तरुच्छाया वनस्पतीन् फलानप्रान् बनान्वयं वयशिक्षावनाभोगमपर्यन्तम् वनितातनुसम्भूतकामाग्निः ४६३ ८८ ३६ वने वनगजैर्जुष्टो वने वनचरस्त्रीणाम् वनेषु वनमातङ्गा वनोपान्तभुवः सैन्यैः वन्दनार्थं कृता माला बन्दाकरणां मुनीन्द्राणाम् वन्दारोर्भरताधिपस्य ५ २५ ८६ १३६ १४६ १३८ १६ बल्लीनां सकुसुमपल्लवाब ७२ वल्लीवनं ततोऽद्राक्षीत् ८३ ३६५ वह्निवृष्टि या ववुर्मन्दं स्वरुद्यानववौ मन्दं गजोद्धृष्टवशीकरणपुष्पारिण ४१८ २६ ७४ १२ ४३६ महापुराणम् ७५ ३४७ १७७ वयसाधिक इत्येव वरं वनाधिवासोऽपि वरं विषं यदेकस्मिन् वररणावररणस्तस्थुः वराहाररति मुक्त्वा वलाभस्ततोऽस्य वर्णलाभोऽयमुद्दिष्ट: वरन्तिःपातिनो नेते वर्णोत्तमत्वं यद्यस्य न वर्णोत्तमत्वं वर्णेषु वर्णोत्तमानिमान् विद्मः वर्णोत्तमो महादेवः वर्द्धमानो ध्वनिस्तुयें वर्षारम्भो युगारम्भे वर्षीयोभिरथासन्नः वलिस्नपनमित्यन्यः १२८ १६७ ६७ ३२४ १४५ ३४६ ४७६ ४६८ २८७ ४८७ वस्तुवाहनसर्वस्वम् बागाद्यतिशयरेभिः वागाद्यतिशयोपेतः वाग्गुप्तो हितवाग्वृत्या वाग्देव्या सममालापो वाचंयमत्वमास्थाय वाचंयमस्य तस्यासीन वाचंयमो विनीतात्मा वाजिनः प्राक्कापाताद् ५१० ३३४ वसंस्तत्र महाकालस्तम् वसन्ततिलकोद्याने वसन्तश्रीवियोगो वा वसन्तानुचरानीतवसन्ति स्मानिकेतास्ते वसुधारकमित्यासीद् वसुपालकुमारस्य वसुपाल महीपालप्रश्नाद् वसुमत्यापगामब्धिवस्तुवाहनराज्याङगैः १८२ १८३ २०६ £5 &5 २७५ २७५ २८१ ३१२ ३१२ २८१ २५२ ३६५ ३७ २६ २४२ ७८ १३७ ४०५ २१८ ३७२ ३३२ ४८८ ४३६ ३७२ ३७८ १६६ २३४ ४६३ ४६३ ६८ ४७ ६४ ३३५ ३३४ २८७ १६४ १६६ २१३ २५४ ४०३ वाणामविरतावाणाम् वाणैः कुसुमवारणस्य वातपृष्ठदरीभागानृक्षवत् वातापातात् वात्सक क्षीरसम्पोषाद् वादिनेव जयेनोच्चैः वापीकूपतडागैश्च वाराणसी जितायोध्या वाराणसीपतिश्चित्राङ्गदो वाराणसी पुरी तत्र वारिवारिजकिञ्जल्क वार्ता विशुद्धवृत्त्या स्यात् वासगेहे जयो रात्रौ वासन्त्यो विकसन्त्येताः वासवन्तं महाशैलम् वायन्तं तमालोक्य विकसन्ति सरोजानि विकास बन्धुजीवेषु विकासित विनेयाम्बु विक्रमं कर्मचक्रस्य विक्रियां न भजन्त्येते विक्रियायी चित्रम् विख्यातविजयः श्रीमान् विगतच्छुतच्छ्रमः शीघ्रम् विग्रहे तशक्तित्वात् विषव्य तमो नैशम् विघटय्य रथाङगानाम् विचार्य कार्यपर्यायम् विचित्रपदविन्यासा विचिन्त्य विश्वविष्तानाम् विचूयेन शरं तावत् विवेकः स्वरोद्भूतविच्छिनकेतवः केचित् विजयमित्रो विजयिलो विजयायेत्यथार्हत्यविजयार्द्ध समारुहप विजयार्द्धगिरेरस्य विजयार्द्धजयेऽप्यासीत् विजयार्द्धतटाक्रान्ति विजयार्द्धप्रतिस्पति विजयाद्वंमहागन्ध वाच कपाटयोर्युग्मम् ११२ विजयादचिलप्रस्था वाढं स्मरामि सौभाग्यभागिनः ४८० | विजयार्द्धाचले यस्य ८७ ६८ ५४ १२ ४०० १७५ ३७४ ५०६ ३६३ ७३ २४२ ३६० २२ ६८ ४०३ १६ ३ ५०४ ३५१ ३४६ २१४ ३८३ ४८७ ३६८ १८७ १६३ ४३४ ३५५ ४२१ ४७ ६७ ४०४ ३५७ ३०४ ४३४ ४६६ १०१ १५ ३३ ४२१ १०४ १७८ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयार्द्धाचिलोलङघी विजयार्द्धे जिते कृत्स्नम् विजयार्द्धात्तरश्रेणिविजिगीषुतया देवाः विजिगीषर्विपुण्यस्य विजिताब्धिसमाक्रान्तविजितेन्द्रियवर्गाणाम् विज्ञातमेव देवेन वितर्जितमहामोहः वित्रस्तः करभनिरीक्षणाद् वित्रस्ताद्वेसरादेनाम् वित्रस्तंरपथमुपाहृतविदध्यामद्य नाथेन्दुविदश्य मञ्जरीस्तीक्ष्णा विदितप्रस्तुतार्थोऽसि विदितसकलतत्त्वः ११६ १०० ४८४ ૪૭ ४०६ १२० १५८ ४२८ ५०२ ७८ २८ ७८ ४०५ ८३ ४२८ ५१३ विदित्वा विष्टराकम्पाज्जयम् ४२० १५८ विदूरस्थैर्न युष्माभिः विदेशः किल यातव्यो १०२ ४७० १०६ १०० २७० ४८४ विदेहे पुष्कलावत्याम् विद्धि मां विजयार्द्धस्य विद्धि मां विजयार्द्धाख्यम् विद्धि सत्योद्यमाप्तीयम् विद्यया शवरूपरेण सद्यः विद्याधरधराधीशैः विद्याधरधरासार विद्याधरीकरालूनविद्याधर्यः कदाचिच्च विद्याश्रितेति सम्प्रीतः विद्युच्चोरत्वमासाद्य विद्युद्वेगा ततोऽगच्छत् विद्युद्वेगाऽभवद् विद्युद्वेगाऽवलोक्य विद्युद्वेगा ह्वयं चोरम् विधवेति विवेदाधीनेंदृक्षम् विधातुमनुरक्तानाम् विधाय चरणे तस्य विधाय प्राक् स्वयं प्राप्यबिधायाष्टाह्निकी पूजाम् विधिरेष न चाशक्तिः विधुं ज्योतिर्गणेनेव विधुं तत्करसंस्पर्शाद् विषुविम्ब प्रतिस्पद्ध १२८ १२८ २१० २१७ ४८४ ४७६ ४८३ ४६८ ४८३ ४७१ ३६० ४३६ ३४५ ४८० ३६८ ११६ ४३५ ४१४ ८ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः विध्वस्ते पन्नगानीके विनयाद् विच्युतं राजविना चक्राद् विना रत्नैः विनियोगास्तु सर्वासु विनिवर्तयितुं शक्ता विनिवार्य कृतक्षोभम् विनीतं संवरो गुप्तो विन्ध्यश्रीस्तां पिता तस्याः विपक्षखगभूपालान् विपरीतामतद्वृत्तिः विपर्यासे विपयति विपाककटुसाम्प्राज्यम् विपाकसूत्र निर्ज्ञातविप्रकृष्टान्तराः क्वास्माद् विप्रकृष्टान्तरावासविलोsपि स्वजातीयो विबभावम्बरे कञ्ज विबभुः पवनोद्धूताः विबुध्यासन कम्पेन विभक्ततोरणामुच्चैः विभिन्दन् केतकी सूची: विभुत्वमरिचक्रेषु विभोर्बलभरक्षोभम् विभ्रारणमतिविस्तीर्णम् विमतेरेव तद्गे हे विमत्सराणि चेतांसि विमुक्तं व्यक्तसूत्कारम् विमुक्तककरणं पश्चात् विमुक्तप्रग्रहैर्वाहैः वियदुन्दुभिभिर्मन्द्र वियद्विभूतिमाक्रम्य विरक्तो हयानुजीवी स्यात् विरज्य राज्यं संयोज्य विरागः सर्ववित् सार्वः विरुद्धाबद्ध वाग्जालविरूपं रूपिणं चापि विरूपकमिदं युद्धम् विरेजुरसनापुष्पैः विरोधिनोऽप्यमी मुक्तविलङ्घ्य विविधान् देशान् विलसत्पद्मसम्भूताम् विलसद्ब्रह्मसूत्रेरेण विलोक्य कृतपुष्पादि ११८ ४५० ३६० २४५ ४८४ १७६ ४७२ १५२ ७५ २५१ २०४ ३५७ ४३६ ४२७ ३४ ३८८ २०६ १६३ १२० १०६ ७३ ६२ ४३८ १५४ विशुद्धकुलजात्यादि विशुद्धवृत्तयस्तस्मात् विशुद्धस्तेन वृत्तेन विशुद्धाकरसम्भूतो विशुद्धा वृत्तिरस्यार्थ - विशुद्धावृत्तिरेषैषाम् ३५ विशुद्धिरुभयस्यास्य विशेषतस्तु तत्सर्गः विशेषविषया मन्त्राः ११० २३२ ६६ ४५ १४१ ३७३ ३४४ ३५६ २७० १४३ ३८६ २०२ ६ २१५ ६२ १५ २६२ ४६२ विलोक्य तं वणिक्पुत्राः विलोक्य विलयज्वालिविलोलवीचिसंघट्टाद् विलोलितालिराधुन्वविवाहविधिवेदिन्यः विवाहस्तु भवेदस्य विवाहो वर्णलाभश्च विविक्त रमणीयेषु विविक्तैकान्त सेवित्वाद् विविधद्वपदं चास्मात् विविधव्यजनत्यागाद् विवृणोति खलोऽन्येषाम् विशालां नालिकां सिन्धुम् विशालाक्षो महाबालः विशुद्धकुलगोत्रस्य विशोधितमहावीथी विश्वं विनश्वरं पश्यन् विश्वक्षत्र जयोद्योगम् विश्वदिग्विजये पूर्वविश्वमङ्गलसम्पत्त्या विश्वविद्याधराधीशम् विश्वविश्वम्भराह्लादी विश्वस्य धर्मसङ्घस्य विश्वानाश्वास्य तद्योग्यैः विश्वेश्वरा जगन्माता विश्वेश्वरादयो ज्ञेया विषकण्टकजालीवविषयीकृत्य सर्वेषाम् विषय वत्सकावत्याम् विषयेष्वनभिष्वङ्गो विषयेऽस्मिन् खगाक्ष्माभृत्विषाणोल्लिखितस्कन्धो विष्वगापूर्यमाणस्य विष्वग्विसारि दाक्षिण्यम् ५४९ ४६६ ३६६ १४ १२८ ३७६ २७४ २४४ १२२ १६६ २६५ २८६ १८० ६८ ३५७ २८३ २७७ २८२ २७६ २७७ २५२ २४३ २७७ ३३२ ३१५ ३७५ ४६१ १७७ १५२ ४४१ ४०६ ४२६ ३१६ ४२५ २६० २७१ २०६ ४३३ ४८५ २५३ ४५४ ६८ १०१ ८४ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ४८९ १२ २६७ २३ २२७ १६३ ३०८ २४ महापुराणम् २६ । वैशिष्टयं किं कृतम् ३४७ | शनैः प्रयाति सजिघन् व्यक्तये पुरुषार्थस्य ३३५ | शनैः शनैर्जनमुक्ता व्यजनैरिव शाखाप्रैः ११५ शनैराकाशवाराशि १८८ ४६४ व्ययो मे विक्रमस्यास्ताम् शनैर्वालेन्दुरेखेव सा- ३६८ १६७ व्यलोकिष्ट स भूपोऽपि शफरी प्रक्षेपणामुद्यत् ५०० व्यवहारनयापेक्षा ३०१ शब्दपारभागी भव ३०६ व्यवहारेशितां प्राहुः ३१३ शब्दविद्यार्थशास्त्रादि- २५० व्यवहारेशितान्या स्याद् शमिताखिलविघ्नसंस्तवः ४२२ व्यसनेऽस्मिन् दिनेशस्य १८७ शमिता चक्रवर्तीष्टं ५०३ ५१४ व्यापारितदृशं तत्र १८ शयिता वीरशय्यायाम् ४१८ ३६० व्याप्योदरं चलकुलाचल शयुपोता निकुञ्जेषु व्यायता जीविताशेव शय्यासनालयादीनाम् ३६ व्यालोलोमिकरास्पृष्टः शरतल्पगतानल्प३७६ व्यावहासीमिवातेनुः शरदुपहितकान्तिम् ४६१ व्युष्टिक्रियाश्रितं मन्त्रम् शरनिभिन्नसङिगः ४१६ ३८२ व्युष्टिश्च केशवापश्च २४४ शरभः खं समुत्पत्य ३८७ व्योमापगामिमां प्राहुः शरभो रभसादूर्ध्वम् ४२० व्रजन् मन्द्राश्च कच्छांश्च शरल्लक्ष्मीमुखालोक३६५ व्रतं च समितिः सर्वाः २१२ शरव्यमकरोद्यस्य १७८ ३६६ व्रतं दत्तवत्तः स्थानम् शरव्याजः प्रतापाग्निः १७८ व्रतचर्यामतो वक्ष्ये २४४ शरशाली प्रभुः कोऽपि व्रतचिह्न भवेदस्य २७८ शरसंरुग्णविद्याधुत् | व्रतसिद्धयर्थमेवाऽहं २७५ शरसङघातसञ्छन्नान् ४०० व्रतानुपालनं शील ३२५ शराः पौष्पास्तव त्वं च ४१७ ४१५ व्रतान्येतानि दास्यामः ४७० शरीरं भर्तुरस्येति ५०७ व्रतावतरणं चेदम् शरीरं यच्च यावच्च २२३ ३५० व्रतावतरणस्यान्ते २७५ शरीरजन्मना सैषा २७७ व्रतावतारणं तस्य शरीरजन्मसंस्कार २८० व्रताविष्करणं दीक्षा २६६ शरीरत्रितयापायाद् शरीरत्रितयापाये शरीरबलमेतच्च १०८ शंफलीवचनैर्दूता शरीरमरणं स्वायुः २८० शकुनिः शकुनाद् दुष्टाद् शरैरिवोरासक्तैविमुक्तः ४११ ३६५ शकृतो भक्षणं मल्लः ४७२ शशः शशन्नयं देव २४ २५१ शक्तिमन्तः समासन्नविनेया ५०५ शशाङ्ककरजैत्रास्त्र:- १६० शक्तिषणमहीपालप्रतिपन्नतुजः ४५६ शशिप्रभा स्वसा देव्या ४५६ शक्तिषणोऽस्य सामन्त ४५४ शश्वद्विकासिकुसुमैः २१६ ४३६ शक्रप्रिये शची मेनका शस्त्रनिर्मिसन्नसर्वाङगा- ४०८ शडकादिदोषनिर्मुक्तम् शस्त्रप्रहारदीप्ताग्नि- २०७ ४७५ शङिकताभिहृतोदिष्टः शस्त्रसंभिन्नसङिगम् ४१७ शङके निशातपाषाणम् शस्त्रोपजीविवय॑श्चेद् शङखात् प्रदक्षिणावर्तात् २२७ शाक्तिकाः सह याष्टीकः ४६७ | शतभोगां च नन्दां च ६८ | शाखाभङ्गैः कृतच्छायाः विसभङगैः कृताहारा विजितश्च सानुज्ञम् विस्तीर्णर्जनसम्भोग्यः विस्रम्भजननैः पूर्वम् विहरन्तो महीं कृत्स्नाम् विहरन्नन्यदा मेघस्वर: विहाय मामिहेकाकिनम् विहारस्तु प्रतीतार्थो विहारस्योपसंहारः विहृत्य सुचिरं विनेयजनवीक्ष्य काकोदरेणात्मा वीचिबाहुभिराध्वन्तम् वीचिबाहुभिरुन्मुक्तैः वीज्यमाना विधुस्पद्धिवीतशोका ह्वया तस्य वीरपट्ट प्रबध्यास्य वीरपट्टस्तदा सोढो भुवो वीरपट्टेन बद्धोऽयम् वीरलक्ष्मीपरिष्वक्तवृणते सर्वभूपाला:वृत: परिमितैरेव वृतः शशीव नक्षत्रैः वृत्तस्थानथ तान् विधाय वृत्तादनात्मनीनाद्धीः वृथाभिमानविध्वंसी वृश्चिकस्य विषं पश्चात् वृषभाय नमोऽशेषवृषाः ककुदसंलग्नवेदः पुराणं स्मृतयः वेदनाभिभवाभावाद् वेदनाव्याकुलीभावः वेदिकां तामतिक्रम्य वेदिकातोरणद्वारम् वेदिकेव मनोजस्य वेद्यां प्रणीतमग्नीनाम् वेलापर्यन्तसम्मूर्च्छत् वेलासरित्करान्वाद्धिः वेष्टितं वेन्द्रधनुषा वैरणवस्तण्डुलैर्मुक्त्वा बैमनस्यं निरस्यैषाम् वैरकाम्यति यः स्मास्मिन् वैराग्यस्य परां कोटीम् वै वैश्रवणदत्तोऽपि ३१८ ४७ ४०२ ५०७ २०८ Mmm orm م کر ४४ ६० २२४ २५० १६२ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ २७२ ४१७ २०६ २०० ३५१ rm in an orNM inn ४८ ३११ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः शाखामृगा मृगेन्द्राणाम् १३५ । शेषो विधिस्तु निःशेष- ३०७ श्रोत्रपात्राञ्जलिं कृत्वा शाखामगा द्विपस्कन्धम् ३१६ । शेषोविधिस्तु प्राक्प्रोक्तः ३११ श्रौतान्यपि हि वाक्यानि शान्तं तत्त्वत्प्रसादेन शैलोदग्रे महानस्य २३६ श्लक्षण पिष्टचूर्णेन शान्तस्वनैर्नदन्ति स्म शोभानगरमस्येशः ४५४ श्वः स्वर्गे कि किमत्रव शान्तिक्रियामतश्चके ३च्योतन्मदजलासार श्वसदाविर्भवद्भोगः शान्तिपूजां विधायाष्टौ ४२७ श्यामाङगीरनभिव्यक्तशासनं तस्य चक्राङकम् २२३ श्रावकानायिकासङघम् २५५ शास्त्रज्ञा वयमेकान्ताद् १५३ श्राविकाभिः स्तुतः पञ्च- ५०३ शिक्षिताः बलिन: शूराः श्रियं तनोतु स श्रीमान् षडङगबलसामग्र्या शिखररेष कुत्कील श्रीदेव्यश्च सरिद्देव्यो १२३ षोडशास्य सहस्राणि २६२ शिखरोल्लिखिताम्भोद षोडशैतेऽद्य यामिन्याम् श्रीदेव्यो जात ते जात षोडशैव सहस्राणि शिखामेतेन मन्त्रण श्रीपर्वतं च किष्किन्धम् शिखी सिताशंकः सान्तः श्रीपालवसुपालाख्यौ ४८० शितिभिरलिकुलाभैः २२० श्रीपालाख्यकुमारस्य ४७७ शिरःप्रहरणेनान्यो ४०३ श्रीमण्डपनिवेशस्ते १४५ संयम प्रतिपन्नः सन् शिरीषसुकुमाराङगी श्रीमानानमिताशेष संयमस्थानसम्प्राप्तशिरोरुहर्जराम्भोधि- ४८४ श्रीमानाननिःशेष संवाहानां सहस्राणि शिरोलिङगञ्च तस्येष्टम् २४६ श्रुतं च बहुशोऽस्माभिः संवेगजनितश्रद्धाः शिरोलिङगमुरोलिङगम् श्रुतं सुविहितं वेदो २७१ संशुष्यद्दाननिष्यन्दशिलातलेषु तप्तेषु श्रुतं हि विधिनानेन २५४ संसारावास एषोऽस्य शिवानामशिवैनिः श्रुतज्ञानदृशो दृष्ट संसारावासनिविणाशिशिरसुरभिमन्दोश्रुतवृत्तक्रियामन्त्र संसारीन्द्रियविज्ञानशिष्टान् पृष्ट्वा च दैवज्ञान् ३७० श्रुताथिभ्यः श्रुतं दद्यात् २५५ संस्कारजन्मना चान्या शीतमुष्णं विरुक्षं च श्रुता विश्वदिशः सिद्धा संस्कृतानां हिते प्रीतिः शीलानुपालने यत्नो ३२५ श्रुतिस्मृतिपुरावृत्त २८२ संहार्यः किममुष्याब्धिः शुकान् शुकच्छदच्छायः श्रुत्वा तदादिमे कल्पे ५०१ स एवमखिलैर्दोषैः शुकावलीप्रवालाभ श्रुत्वा तद्वचनं राजा ४५० स एवासीद् गृहत्यागाद् शुक्लवस्त्रोपवासादि२७४ श्रुत्वा तां हृदयप्रियोक्ति स एष धर्ममावर्यशुचिनावविनिर्माणः १३२ श्रुत्वा पुराणपुरुषाच्च १४६ स कदाचिद् गतिः का शुद्धस्फटिकसङकाश श्रुत्वा सर्वार्थवित्सर्वम् ३७० सकलक्षत्रियज्येष्ठः शुनोऽचितस्य सत्कारैः ३३२ श्रुत्वेति देशनां तस्मात् २७२ सकलनृपसमाजे शुभे श्रुतार्थसिद्धार्थ- ३६६ श्रूयतां भो द्विजम्मन्य २७६ सकलमविकलं तत्स शुभैः षोडशभिः स्वप्नः २५६ श्रूयतां भो द्विजन्मानो सकान्तां रमयामास शुश्रुवं ध्वनिरामन्द्रो १३७ श्रूयतां भो महात्मानः ३३१ | स किं न दर्भशय्यायाम शुष्कभूरुहशाखाग्रे श्रेष्ठिनेऽनपराधाया ४६७ स कुटुम्बिभिरुद्दात्रैः शुष्कमध्यं तडागं च ३२० श्रेष्ठिनैव निकारोऽयम् । ४७४ सखीमुखानि संवीक्ष्य शुष्कमध्यतडागस्य ३२२ श्रेष्ठिनोऽस्य मिथोऽन्येद्युः । सखीवचनमुल्लङघ्य शून्यगानस्वनैः स्त्रीणाम् १६० श्रेष्ठी कदाचिदुद्याने स गव्यूतिशतोत्सेधशून्यागारस्मशानादि- १६६ श्रेष्ठी किमर्थमायातो ४७४ स गिरिमणिनिर्माणशूर्पोन्मेयानि रत्नानि श्रेष्ठी कुबेरकान्तश्च सङकल्पसुखसन्तोषात् शृण भो नृपशार्दूल२०८ श्रेष्ठी तवेति श्रेष्ठी च सङकल्पेष्वहितोत्कों शुरण श्रेणिक संप्रश्नः श्रेष्ठयहिंसाफलालोकात् सङक्रीडतां रथाङगानाम् शेषक्षत्रिययूनां च | श्रेष्ठ्येव ते तपोहेतुरिति सङक्लिष्टो भरताधीशः irr" For mor9x १६८ ३५६ ३५७ ४५५ ४४८ x n r २१६ ४७६ २३३ १८४ १७४ ४३२ १६० ४८५ ४४६ ४७४ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ सङ्ग्रामनाटकारम्भ सचर्क धेहि राजेन्द्र सचक्रं धेहि संयोज्य स चकिरणा सहाक्रम्य स चन्दनरसस्फारसचामरां चलसाम् सचित्र पुरुषो वास्तु सचिवस्य सुतं दृष्ट्वा स चैष भारतं वर्षम् सच्छायानप्यसम्भाव्य सच्छायान् सफलान् तुङगान् सच्छायान् सफलान् तुङगान् स जयति जयलक्ष्मी स जयति जिनराजो स जयति हिमकाले स जीयात् वृषभो मोहसज्जने दुर्ज्जनः कोषम् सज्जन्मप्रतिलम्भोऽयम् सज्जातिः सद्गृहित्वं च सज्जातिभागी भव सञ्चरद्भीषणग्राहै: सञ्चितस्यैनसो हन्त्री सज्जातानुशया साऽपि स तं स्यन्दनमारुह्यस ततोऽवतरन्नद्रे: स तत्र जिनदोषेण स तद्वनगतान् दूराद् स तमालोकयन् दूरात् स तस्मै रत्नभृङगारम् स तो प्रदक्षिणीकृत्य सतां वचांसि चेतांसि सतां सत्फलसम्प्राप्तये सता बुधेन मित्रेण सतामसम्मतां विष्यम् सति चैवं कृतज्ञोऽयम् स तु न्यायोऽनतिक्रान्त्या स तु संसृत्य योगीन्द्रम् सतोरणमतिक्रम्य सत्कवेरर्जुनस्येव सत्कारलाभसंवृद्धसत्कृतः स जयाशंसम् सत्यं दिग्विजये चक्री सत्यं परिभवः सोम् ३६६ ३५ ३०३ ३६२ ३७५ ३४ ४७ ४७३ ३३१ ७२ ११ ७२ २१६ १६७ २२० २४० ३५३ २७७ २४५ ३०२ ८६ ३५५ ३६० Τα १०४ ४७७ ८६ τε १०० २१८ ४२६ ५०६ ४१३ १८० ३४४ ३३२ २६६ १०६ ३.५४ ३२० २०६ १८४ ४८ महापुराणम् सत्यं भरतराजोऽयम् सत्यं महेषुधी ज सत्यजन्मपदं तारतम् सत्यजातपदं पूर्वम् सत्यमेव यशो रक्ष्यम् सत्याभासैनं तैः स्त्रीणाम् सत्येवं पुष्टतन्त्रः स्याद् सत्योऽभूत् प्राक्तनादेश सत्त्वोपघातनिरता सदाचार निजैरिष्ट सदानमानः सम्पूज्य सदास्ति निर्जरा नासौ सदेव बलमित्यस्य सदोऽवनिरियं देव सदोषो यदि निग्रहयो सद्गृहित्वमिदं ज्ञेयम् सद्यः संहारसंक्रुद्धसयो गुरुप्रसादेन सद्यो मिश्राण्डकोद्भूतान् सद्रत्नकटके प्रो सद्वृत्तस्तपसा दीप्ती सद्वृत्तान् धारयन् सूरि स धर्मविजयी सम्राट् सधान्यैर्हरितः कीर्णम् सधूपघटयोर्युग्मं तत्र सधीचीं वीचिसंरुद्धाम् स नगो नागपुन्नागसनम सचिवं कञ्चित् सनागमसनागैश्च स नान्यं परमं विभ्रत् सनातनोऽस्ति मार्गोऽयम् सनिमित्तं निमित्तानाम् स निवेदितवृत्तान्तो स नृजन्मपरिप्राप्ती सन्तानार्थमृतावेव सन्तुष्टान् रवे बने शूरान् सन्त्यब्धिनिलया देवाः सन्त्येवानन्तशो जीवा सन्धि च परणबन्धञ्च सन्धिविग्रहचिन्तास्य सन्धिविग्रहयानादिसन्ध्यातपतपान्यासन् सन्ध्यादिविषये नारय १५१ २२४ २६३ २६१ ४८ ३६१ ३४६ ४८६ ३२१ २४० ३७१ ४६४ ८१ १४६ ४३० २८३ ४०१ ४७१ ४७५ २६२ ४६५ २५५ ३२५ २४१ १३८ १० ६७ ३२७ १२४ २१० ३८६ ३२६ १७६ २७७ २५१ ८६ ३६ २४१ १७४ ८२ १०६ १६ ३६ सन्ध्याकरणां कलामिन्दोः सन्ध्यास्वग्नित्रये सन्नद्धस्यन्दनाश्चण्डास्तदा मन्त्रागं बहुपुन्नागम् स पक्वकरिणशानम्र सपदि विजय सैन्यनिजित समग्र बलसम्पत्त्या समञ्जसत्वमस्येष्टम् समन्ततः शरैरच्छन्ना समन्तादिति सामन्तः समन्ताद योजनायामसमभ्यच्यं समाश्वास्य समवायाख्यमङ्गं ते समवेगैः समं मुक्तैः समस्तनेत्रसम्प्रीतसमस्तबलसन्दोहम् स महाभ्युदयं प्राप्य समांसमीना पर्याप्तसमागतः स इत्येतन्निश्चेतुं समागत्य महाभक्त्या २३१ ३०० ४०५ ७१ सपुत्रविटपाटोपः स पुमान् यः पुनीते सप्तगोदावरं तीर्त्वा सप्तभग्यात्मिकेयं ते सप्ररणामं च सम्प्राप्तम् सप्रतापं यशः स्थास्नु सप्रतापः प्रभा सास्य स प्रतिज्ञामिवारूढ सप्रभा चन्द्रलेखेव सप्रसादं च सम्मान्य स प्रेयसीभिरावद्ध ७२ ४६६ १४६ ३२५ स बहुतरमराजन् प्रोच्छ्रितान् ४२३ स बाहयमन्तरङगं च सभापरिच्छदः सोऽयन् सभावनानि तान्येष समं ताम्बूलवल्लीभिः समं समञ्जसत्वेन समं प्रविभक्ताम् समक्षमीक्षमाणेषु ८३ २६५ २२३ २०५ ३६५ २६५ ४०८ स मागधवदाध्याय स मातङ्गं वन यस्य समानदत्तिरेषा स्यात् समानायात्मनाभ्यस्मै १२ १३० ३५६ ४७ ७० १४२ १०५ ३६० ४१२ ३६ ४६६ ११० १०४ १४० ४२५ १६३ ४०१ ३८० ३७८ २८६ १४ ४८६ ४८७ १२० ८८ २४३ २४३ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापतच्छत्रातसमीपवर्तिन्येकस्मिन् समुच्चरन् जयध्वानसमुच्छ्रितपुरोभागा समुत्थाय सभामध्ये समुत्सृजेदनात्मीयम् समुद्धृतास्त्र सम्पृक्तसमुद्भटरसप्रायैः समुद्रदत्तसारूप्यम् समुद्रवतो ज्वलनवेगस्य समुद्रमद्य पश्यामः समूलतुलमुच्छिद्य समेत्यावसरावेक्षाः समीक्तिक स्फुरद्रत्नम् सम्पत्सम्पन्न पुण्यानाम् सम्पूज्य निधिरत्नानि सम्प्रत्यकम्पनोपक्रमम् सम्प्रदायमनादृत्य सम्प्रधार्यमिदं तावद् सम्प्राप्तभाव पर्यन्ती सम्प्राप्तश्च तमुद्देशम् सम्प्राप्य नवधा पुण्यम् सम्प्रेक्षित: स्मितह सम्भाषितश्च सम्भाज सम्भूय बान्धवाः सर्वे सम्भोगर्वनमिति निविशन् सम्यग्दृष्टिपदं चान्ते सम्यग्दष्टिपदं चारमाद् सम्यग्दृष्टिपदं चास्माद् सम्यग्दृष्टिपदं चैव सम्यन्दुष्टिपदं बोध्यविषयं सम्यग्दृष्टिपदं बोध्ये सम्यग्दृष्टिस्तवाम्बेयमतः सम्राट् पश्यन्नयोध्यायाः स यजन् याजयन् धीमान् स यस्य जयसंन्यानि सरःपरिसरेण्वासन् सरःसरोज रजसा संरक्षान् धृतभूपालान् सरजोऽब्रजः कीर्णसरति सरसीतीरं हंसः सरत्नमुल्वविषम् सरत्ना निधयः सर्वे ७० २०७ ४९६ १२० २७ ३५६ ३४२ ४०३ २०२ ४६७ ४६८ ३४ ३६१ १३१ ३० ४३७ २६१ ३७० २८४ १५२ ४३३ १२० ४५२ ६५ १०५ ४६० ७८ २६६ २६७ २६८ २६५ २०६ ३०५ ३०४ ε २७६ १७६ ७२ २ ४२१ १७५ १६५ ४० २१५ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः सरत्ना निधयो दिव्याः सरसकिसलयान्तस्पन्दसरसां कमलाक्षिभ्यः सरसानि मरीचानि सरसिजमकरन्दो सरसीजलमा गाढौ सरस्तरङ्गयौतालगा: सरस्तीरतरुच्छायाम् सरस्तीरतरूपान्त सरस्तीरभुवोऽपश्यत् सरस्यः स्वच्छसलिला सरांसि कमलामोदन् सरांसि ससरोजानि सरितं रोहितास्यां च सरितोऽम् समं सैन्यैः सरितोऽमूरगाधापासरितो विषमावर्तसरिद्वधूस्तदुत्सङगो स रेमे शरदारम्भे सरोजरागरत्नांशुसरोजलं समासे सरोजलमभूत् कान्तम् सरोवगाहनिरिक्तसरोवगाहनिर्धूतसडियोमिश्रसर्व प्राणी न हन्तव्यो सर्वगुप्तः प्रियप्रान्तसर्वज्ञाय नमोवाक्यमर्हते सर्वतोभद्रमारुह्य सर्वद्वन्द्वसहान् सार्वान् सर्वभूपालसन्दोहसर्वमङ्गलसम्पूर्ण सर्वमेतत्समाकर्ण्य बुद्धिम् सर्वमेतत्सुखाय स्याद् सर्वमेतन्ममेवेति मा संस्था सर्वमेधमयं धर्मम् सर्वरत्नमयैर्दिव्यैर्भूषासर्वरत्नान् महानीलसर्वशान्तिकरी ध्वातिम् सर्वंसहः क्षमाभारम् सर्वस्वस्व व्ययोऽनाथ सर्वारम्भविनिर्मुक्ता सर्वाङ्गसङ्गतं तेजो २३३ १२६ ४१८ ८३ १६ २०४ ७५ २६ हह ११ २५ १० २ १२३ ८७ ६८ २०७ ८६ २३२ १३६ २ २ ७५ ७३ ४७३ ३१३ ३५७ २६६ ३७८ १३४ ३६१ ३७६ ३६१ ४६६ ३६० २८१ ४६२ २२७ ४२५ २१० ३६६ १६५ १७७ सर्वेऽपि जीवनोपायं सर्वेऽपि वृषभसेनसर्वेऽप्यासन्नभव्यत्वाद् सर्वोऽपि विधिनिर्मुक्ता सलीलमृदुभिर्यातैः सवयमपिाकस्य सवनः सावनिः सोऽद्रिः सर्वामता भृशं रेजुः सवागतिशयो ज्ञेयो स वा प्रणम्य तीर्थेशम् स वैश्रवणदत्तोऽपि सव्रतो वीरलक्ष्मीं च स शंसितव्रतोऽनाश्वान् स शरो दूरमुत्पत्य सशिखामणयोऽमीषाम् स शेलः पवनाभूत स श्रीपालकुमारश्च स श्रीमानिति विश्वतः स श्रीमान् भरतेश्वरः स सत्कारपुरस्कारे ससत्त्वमतिगम्भीरम् ससम्भ्रमं च सोऽभ्येत्य ससम्भ्रमं सहापेतुः ससम्भ्भ्रममिवास्याभूद् स सर्वमनुभूयायात् स सर्वाश्चित्युंक्त स साधनं सनं भेजे Xx3 ४७५ ५१४ ४५४ १६६ ८४ ४६१ १०४ १०२ ३३४ ४३६ ४६८ ४१७ २०६ १२० १४५ ६७ ४६३ ३१ .१७१ २११ ४३ ६६ ४३८ ४६ ४७२ ४६३ ६६ ४३२ ४४३ २११ १० २१ ३६५ ४६६ ३८४ ४८७ २०१ स साध्वसा सलज्जा सा स सा सा तत्तदेवैषा स सेहे वषमापासू सहसान् सरसां तीरेषु सहकारेष्वमी मत्ता सह वक्षोनिवासिन्यायह साधन भीमाख्यम् सहसा सर्वतुर्याणाम् सहिता चित्तवेगाख्या सहयादिपरमब्रहा सहयोत्सव लुब्धः सांशुकर्ममिवोद्यन्तम् साक्षात्कृतप्रस्थितसप्तपदाथ ५१५. ८५ ३७४ साक्षिरणं परिकल्प्यैनम् साक्षेपमिति संरम्भात् ४७३ ४८ सा घनस्तनितव्याजात् २३२ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ महापुराणम् साडग्रामिक्यो महाभेर्यः |सा वैश्रवणदत्ता च ४६७ | सुताश्चतुर्दशास्यान्ये ३५८ साङगो यद्येतयाऽद्यैवम् सा वैश्रवणदत्तेष्टा ४६५ सुता सागरसेनस्य सा चिन्ता जननीत्यस्य २३५ साऽऽशाखनिः किलाव ४४२ सुतीक्ष्णा वीक्षणाभि ४०० सारोपं स्फुटिताः केचिद् साऽशोककलिकां चूतमञ्जरीम् २३१ सुदूरपारगम्भीरम् सा तदाकर्ण्य सञ्चित्य सिंहर्क्षवृकशार्दूल सुधीर्गृहपतिर्नाम्ना २३५ सा तुण्डेनालिखन्नाम ४५३ सिंहवाहिन्यभूच्छाया २३४ सुन्दरेष्वपि कुन्देषु ३७३ सा तु षोडशधाऽऽम्नाता २५४ सिंहा इव नृसिंहास्ते १६७ सुप्रयोगां नदी तीर्वा सादिनां वारवाणानि २५ सिंहासने निवेश्यनम् १२७ सुभगेति च देव्यस्ताः ४७७ साधनैरमुनाकान्ता ६४ सिंहासनोपधाने च २८४ सुमतिस्तं निशम्यार्थम् ३७० साधारणास्त्विमे मन्त्राः ३०१ सिंहो मृगेन्द्रपोतश्च ३१६ सुमत्याख्यामला: सा धुनीबलसंक्षोभाद् सितच्छदावली रेजे सुमनोवर्षमातेनु: साधु वत्स कृतं साधु ३२० सितांशुकधरः स्रग्बी सुमनोवृष्टिरापप्तद् १३७ साधुवादैः सदानश्च ४३१ सितातपत्रमस्योच्चैः सुमुखस्तद्दयाभारमिवसाधूक्तं साधुवृत्तत्वम् १८० सितासिता सितालोल- ४३२ सुरखेचरभूपालाः ४३६ सानुकम्पमनुग्राह्य २४२ सिद्धदिग्विजयस्यास्य सुरदुन्दुभयो मन्द्रम् १४४ सानुजोऽनन्तसेनोऽपि ४१६ सिद्धविद्यस्ततो मन्त्रः सुरदेवस्य तद्वाक्यं ४३७ सानुरागान् स्वयं रागात् सिद्धशेषां समादाय सुरदौवारिकारक्ष्य १३८ सान्द्रपद्मरजःकीर्णाः सिद्धशेषाक्षतैः पुण्यैः सुरम्य विषये श्रीपुराधिपः । सान्ध्यो रागः स्फुरन् दिक्षु १८८ सिद्धार्चनविधि सम्यक् २५१ सुरसा कृतनिर्वाणाः ८१ सापि मुक्त्वा कुमारं तम् सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य २५३ सुरा जातरुषः केचित् १५१ सा पुरी गोपूरोपान्त- १५१ सिद्धार्चनादिक: सर्वो २४७ सुराणामभिगम्यत्वात् १३६ साऽब्रवीदिति तद्वत्तम् ४६२ सिद्धार्चासन्निधौ मन्त्रान् सुराश्चासनकम्पेन २१८ सामजं विजयार्डाख्यम् सिद्धार्थपादपांस्तत्र सुराष्ट्रपूर्जयन्ताद्रिम् साम दर्शयता नाम १८० सिद्धार्थोऽत्राह तत्सर्वमिति सुरेन्द्रजन्मना मन्दराभि- ३०८ सामन्तानां निवेशेषु सिन्धुरोधो भुवः क्षुन्दन् ११६ सुरेन्द्रमन्त्र एषः स्यात् २६८ सामवायिकसामन्तसिन्धोस्तटवने रम्ये सुरेभं शरदभ्राभम् सामात्यः स महीपाल- २१७ सुकण्ठा पेतुरत्युच्चैः सुरैरासेवितोपान्ते १४४ साम्नाऽपि दुष्करं साध्या सुकान्तोऽशोकदेवेष्ट ४५५ सुरैरिचितः प्राप्तः २१८ साम्प्रतं स्वर्गभोगेषु २५८ सुकालश्च सुराजा च सुरैरुच्छितमेतत्ते १४४ साम्राज्यं नास्य तोषाय १५८ सुकेतुः सूर्यमित्राख्यः ३६५ सुलोचनां महादेवीम् ४४१ साम्राज्यमाधिराज्यं स्यात् सुकेतुस्तत्र वैश्येशः ४५५ । सुलोचनाप्यसंहार्यशोकासायंप्रातिकनिःशेष सुकेतोश्चाखिले तस्मिन् ४७८ सुलोचनाभिधाकृष्टिसायकोद्भिन्नमालोक्य ३६६ सुखं काले गलत्येवम् | सुलोचनामनोवृत्तिसायमुद्गाहनिर्णितः २३१ सुखप्रमाणैः सम्प्राप्य सुलोचनामुखाम्भोज- ४३१ सारङगोऽयं तनुच्छाया २४ सुखासुखं बलाहारौ सुलोचनाऽसौ बालेव ३६४ सारदारुभिरुत्तम्भ्य ११४ सुगन्धिकलमामोद सुलोचनेति का वार्ता सा रात्रिरिति सँल्लापैः ४१७ सुगन्धिपवनामोद सुलोचनेति नः ४२८ सार्धं कुवलये नेन्दुः सह सुगन्धिमुखनिश्वासा सुवर्णधातुरथवा २७७ सार्धं समाधिगुप्तस्य सुगन्धि सलिलं गाङगम् ४४६ सुस्वनन्तः खनन्तः खम् ३६४ सार्वज्ञयं तव वक्तीश १४२ सुचिरं सर्वसन्दोह ४०७ सूत्रं गणधरैर्दृब्धम् सालत्रितयमुत्तुङग१४६ । सुजयश्च सुकान्तश्च | सूत्रमौपासिकं चास्य २५० सावद्यविरतिर्वृत्तम् २७१ । सुतः कुबेरमित्रस्य ४४८ | सूनुः स्तनितवेगस्य ४८२ सावनिः सावनीवोद्यत् १३६ | सुता विमलसेनास्य ४६१ सूर्यांशुभिः परामृष्टाः ५०४ 9 ४२६ GW Gm ० ० m Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्याचन्द्रमसौ वा सृष्टिः पितामहेनेयम् सृष्टघन्तरमतो दूरम् सेनानीप्रमुखास्तावत् सेनानीरपि बभ्राम सेनान्तो वृषभः कुम्भो सेनान्यं बलरक्षायं सेवागतैः पृथिव्यादिसैनिकेरमारुद्धः सैन्ये च कृतसन्नाहे सेन्यं रनुगतो रेजे संवानुवर्तनीया ते संषा चतुष्टयी वृत्तिसैषा निष्क्रान्तिरस्येष्टा मैया सकलदत्तिः स्वात् सोऽचलः प्रभुमायान्तम् सोऽचलः शिखरोपान्तसोमकं ललस्तेजो सोऽतप्यत तपस्तप्तं सोत्पलां कुब्जर्कव्याम् सोदर्या त्वं ममादायि सोध्दा विशुद्धमाहारम् सोऽथीती पदविद्यायाम् सोऽनुरूपं ततो लब्धा सोऽन्तःपुरे चरेत् पात्र्याम् सोऽन्वयः स पिता तादृक् सोऽन्वीयं वक्ति चेदेवम् सोपप्रदानं सामादी सोऽपश्यन्निगमोपान्ते सोऽपि प्राक् प्रतिपाचंतत सोऽपि सर्वेः सर्गः सार्धम् सोऽभिषिक्तोऽपि नोत्सिनतो सोऽभेयो नीतित्वाद् सोऽयं चक्रभृतामाद्यो सोऽयं नृजन्म सम्प्राप्त्या सोऽयं भुजबली बाहुसोऽयं साधितकामार्थः सोऽयमष्टापदैर्जुष्टो सोऽत्यमीयांच सौभाग्येनं यदा स्ववक्षसि सौधोत्लुङकुचां भास्वद् सौनन्दकाख्यमस्याभूद् सौरभेयान् स शृङगाग्र ४६३ ३८८ २१३ १५२ ६६ ३५६ ३८ २६२ २३ २६६ १५१ १६१ ३३२ २६४ २४३ १२४ ६७ ४११ २१४ २३३ ५०१ ३२५ ३२८ २५२ २४६ ४२० १७४ १८० १३ ४७३ ४०६ २२२ १७३ ४६ २५६ १७२ ३२५ १३५ ૩૬ ४२३ ४४० २३५ ११ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः स्कन्धावारं यथास्थानम् स्कन्धावारनिवेशोऽस्य स्खलति स्म कलालापाः स्तनाङगरागसम्मर्दी स्तनाब्जकुमलैरास्यस्तुति निन्दां सुखं दुःखम् स्तुतिनिन्दे कृति श्रुत्वा स्तुत्वा स्तुतिभिरीशानम् स्तूपाश्च रत्ननिर्मारणाः स्त्रीरत्नगजवाजीनाम् स्त्रीषु मामेति या वार्ता स्थलाब्जशङ्किनी हंसी स्थलाब्जिनीवनाद् विश्वक् स्वलाम्भोरहिणीवास्य स्थलेषु पद्मपद्मिन्यो ४३४ ६० स्फुरत्परूप सम्पातस्फुरत्पुरुषशार्दूल ४३२ १६२ २२४ १६६ ३५२ ३१६ १३६ २२८ ४४७ २० १२१ १२१ २० १६३ २४५ ४८७ स्थानाध्ययनमध्याय स्थानान्येतानि सप्त स्युः स्थानेऽन्यस्मिन्यधादेनम् स्थालीनां कोटिरेकोवता स्थितं प्राक्तनरूपेण स्थितश्चर्यां निषद्याम् स्थितस्तत्र स्मरनवम् स्थिताः पश्चिमपादाभ्याम् स्थिता तत्रैव सा कीर्तिः स्थिता सामयिके वृत्ते स्थित्वा महेन्द्रदत्तोऽपि स्थिरप्रकृतिसत्त्वानाम् स्थूलनीलोत्पलाबद्धस्फुरद्- ३७१ स्नपनोदकधौताङगम् ६ २४८ ५०८ ३६२ २७६ स्नेहनेष्टवियोगोत्थ: स्पन्दत्स्यन्दनचक्रोत्थस्पृशन्नपि महीं नैव स्फुटद्वेगुदरोन्मुक्तः स्फुटनिम्नोशतोद्देशः स्फुटालोकोऽपि सद्वृत्तो स्फुटीकरणमस्यैव' ८६ दह ४१२ ३२६ स्फुरज्ज्यं वज्रकाण्डम् स्फुरदाभरणोद्योत स्फुरद्गम्भीरनिर्घोष स्फुरन्मरिणतटोपान्त स्फुरन्मौर्वीरवस्तस्य २२६ ४८६ २११ ४८५ ४०३ ४१६ १६२ ३८१ ४६ १७६ १४१ १३५ ४६ ८३ १६६ स्मितमालोकितं हासो स्मितेष्वासां दुरोद्भिचो स्मितः प्रसादः सञ्ज स्मृत्वा ततोऽर्हदर्चानाम् स्यात् परमकाङक्षिताय स्यात् परमनिस्तारक स्यात् परमविज्ञानाय स्यात् प्रजान्तरसम्बन्धे स्यात् प्रीतिमन्त्रस्त्रलोक्यस्यात् समञ्जसवृत्तित्वम् स्यादस्त्येव हि नास्त्येव स्यादवध्याधिकारेऽपि स्यादेव स्त्री प्रनृत्यन्ती स्यादस्य सुखमप्येवम् स्याद्यत्किञ्चिच्च सावयम् स्यादारेका च षट्कर्म स्यादृद्दण्डचत्वमप्येवम् स्याद्देवब्राह्मणायेति स्यान्निरामिषभोजित्वम् स्यान्निरामिषभोजित्वम् स्रग्वी सदंशुको दीप्र स्वं ग्रामगण स्वं मरिणस्नेहदीपादि स्वं स्वापतेयमुचितम् स्वं स्वाम्यमेहिकं त्यक्त्वा स्वकामिनीभिरारम्भ स्वकुलान्युल्मुकानीव स्वगुरणोत्कीर्तनं त्यक्त्वा स्वगुरुस्थानसंक्रान्ति स्वगेहादिषु सम्प्रीत्या स्वच्छं स्वं हृदयं स्फुटं स्वतटस्फटिकोत्सर्पत् स्वतटाश्रयिणी प स्वतन्त्रस्य प्रभो सत्यम् स्वदेव्यां चित्रसेनायाम् स्वदेशे वाक्षरम्लेच्छान् स्वदेशोद्भवंरेव सम्पूजितो स्वदोद्रुमफलं श्लाघ्यं स्वपक्षैरेव तेजस्वी स्वपूर्वापरकोटिभ्याम् स्वप्नानां द्वैतमस्त्यन्यद् स्वप्नानेव फलान्येतान् स्वप्राच्यभवसम्बन्धम् ५५५ २३० २२५ ६५ ३२४ २६६ ३०६ २६६ ३१४ ३०२ २६४ १४२ ३१३ ४८० ३३८ १६७ २८२ ३१४ २६५ ३११ २७१ २५७ ४८४ २८५ २०६ २८५ १६२ १५५ २८७ २४४ ३७४ ८० १२४ १६ १८० ४८८ ३४६ ५१४ १८२ १५४ १२२ ३२१ ३२३ ४६२ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ स्वप्राणनिविशेषश्च स्वप्राणव्यय सन्तुष्टैः स्वभावदुर्गमे तन्नः स्वभावपरुये चास्मिन् स्वभावसुभगा दृष्टहृदया स्वभुक्तिक्षेत्रसीमानम् स्वभ्यस्तात् पञ्चमादहमाद् स्वयं कस्यचिदेकस्य स्वयं च सञ्चिताघाति स्वयं तदा समालोच्य स्वयं धौतमभाद् व्योमस्वयंप्रभः सुरस्तस्माद् स्वयं मनोहरं वीरणां स्वयं महान्वयत्वेन स्वयं व्यधूयतास्योच्चैः स्वयं स्तनितवेगोसी स्वयमपथं गत्वा स्वयमर्पितसर्वस्वास्वयमागत्य केनात्र स्वराज्यमधिराज्य स्वर्गं समुदपद्येताम् स्वर्गोद्यानश्रियमित्र हसति स्वर्धुनीशीकरस्पद्वि स्वधुनीशीकरासार स्वलक्षणमनिर्देश्यम् स्वलक्ष्मीव्याप्तसर्वाशः स्वविमानद्धिदानेन स्ववृत्तान्तं समाख्याय स्वसारं च नमोर्धन्याम् स्वसौभाग्यवशात् सर्वान् स्वस्तीक्ष्वाकुकूलव्योमस्वागः प्रमार्जनार्थेज्यास्वाजन्यानुगमोऽस्त्ये को स्वादरेणैव संसिद्धिम् स्वायं चामृतकल्पाख्यम् स्वाध्यायमिव कुरणाम् स्वाध्याययोगसंसक्तास्वाध्यायेन मनोरोधः स्वानुरागं जये व्यक्तम् स्वामिसम्मानदानादिस्वामीष्टभृत्यवन्ध्वादि स्वायम्भुवान्मुखाज्जाताः स्वावासं सम्प्रविश्योच्चैः २५८ ४०६ ११७ १७३ ४३६ १२४ १६३ १२५ ४२५ ४८२ ५ ५०८ ४४८ ३३२ २१८ ४८२ २७४ ६४ ४३८ २६० ४६८ ५५ ८ १२६ २८५ ३७८ २५७ ५०२ १२८ ३७६ १२५ २१७ २१७ ३७४ २३६ ८३ १६७ १६२ ५०१ ४०६ २८६ २८० ४३६ महापुराणम् स्वास्वैः शस्त्रैर्नभोगानाम् स्वाहान्तं सत्यजाताय स्वीकुर्वधिन्द्रियावासम् स्वीकृतस्य च तस्य स्वीकृत्य शयनाध्यक्षम् स्वेदबिन्दुभिराबद्ध: स्वेन मूर्ध्ना विभत्येष स्वैरं जगृहुरावासम् स्वेरं न पपुरम्भांसि स्वैरं नवाम्बुपरिपीतमयत्नस्वोचितासनभेदानाम् स्वोपधानाद्यनादृत्य स्वोष प्रयुक्ताः सर्वे ह हंसपोत वाच्छिन् हंसयूनाब्जकिञ्जल्कहंसस्वनानकाकाशहंसाः फलमपण्डेषु हंसोऽयं निजशाबाय हटस्पटकुटीकोटिहत एव सुतो भर्तुहतानुचरभार्याव हत्वा भूमौ विनिक्षिप्त ह्यान् प्रतिष्कशीकृत्य ह्येनैव दुरारोहाज्जये हरन् करिकराकारहरिणीप्रेक्षितेष्येताः हरित रकुरैः पुष्पैः हरिद्रारञ्जितश्मश्रुः हरिन्मणिप्रभाजालैः हरिन्मणिप्रभोत्सर्यैः हरिन्मणिप्रभोत्सर्पः हरिन्मणिमयस्तम्भ: हरिवाहननामायो हरीन सरनिभिन्न हविः पीयूषपिण्डेन हविष्पाके च धूम्रच हसन्तमिव फेनीचेः हस्तितन्त्रेऽश्वतन्त्रे च हस्तिनां पदरक्षायें हस्त्यश्वरथपत्त्यौषम् हस्त्यश्वरथपादातम् ४०१ २६४ ३३६ ३४५ ४५० २७ १२३ && ७४ ७६ २८५ २८५ ३५२ १८६ १० ३ २६ २० ४३४ ४२० ४८८ ४७१ ४०३ ४२६ ४४८ २५ २४० २८ १३२ ४४ ८५ १७७ ५०६ १३४ २१८ ३०१ ४० हा दुष्टं कृतमित्युच्चैः हा मे प्रभावतीत्याह हा मे प्रभावतीत्येतद् हाराकान्तस्तनाभोगहारिगीतस्वनाकृष्टः हारिभिः किन्नरोद्गीतः हारोऽयमतिरोचिष्णुः हास्तिनाव्यं पुरं तत्र हा इतोऽसि चिरं जन्तोहिमचन्दनसम्मिश्र हिमवज्जयशंसीनि हिमवत्पद्मयोगंडगा हिमवद्विजयोद्देशौ हिमवद्विघृतां पूज्याम् हिमवानयमुत्तुङ्गः हिमाचलमनुप्राप्तः हिमाचलस्थलेष्वस्य हिमानिलैः कुचोत्कम्पम् हिरण्यवर्मरण: सर्व हिरण्यवर्मरणा ज्ञातजन्मना हिरण्यवृष्टि धनदे हिरण्यसूचितोत्कृष्टहुम्भारवभूतो वत्सान् हृतसरसिजसार हृतालिकुल झङकार: हत्वा सरोकरो हृदये त्वयि सन्निधापिते हृदि धर्ममहारत्नम् हृदि नाराचनिभिन्नाहृदि निभिन्ननाराचो हृद्यं ससारसारावैः हृष्ट: सुप्रभया चामा हेत्वाज्ञायुक्तमद्वैतम् हेमपत्रात तन्व्याः मस्तम्भाविन्यस्त हेमाङ्गदं ससोदर्यम् हेमाङगदकुमारेण हेमादसुकेतुश्री विवेकः कः मनीषु वियामासुजगवीनकली ३२८ १०३ ३६८ ह्रदस्यास्य पुरः प्रत्यक् ६२ | हस्ववृत्तसुरास्तुङगाः २०६ ४५६ ४४६ २२६ १२ १६ ५० ३५८ ४४२ ४४६ १२१ ३६४ २२२ १३ १२२ ११६ १२१ २३० ४६२ ४६० २५६ २५६ ६ ४४५ २३१ ७६ ४२२ ३५४ ४०६ ४१६ १६ ४२५ २७० २२६ १३७ ४४१ ४३४ ३६४ ४३७ १६५ १३ १२३ २७ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________