SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
142 Mahapuraanam Where are your qualities, O Lord, which are beyond the comprehension of even the Ganadharas, and where am I, a mere mortal? Yet, driven by devotion to you, I strive to praise your virtues. || 128 || O Lord, even a little devotion to you bears immense fruit, for the wealth of the master nourishes the lineage of the servants. || 129 || O Lord, just as the rays of the sun emerge from behind the clouds, so too your countless virtues have manifested after the removal of the impurities of karmic actions. || 130 || O Lord, by conquering karmic actions, your true vision, knowledge, happiness, and strength, etc., have emerged as Kshayika attainments. || 131 || O Lord, when your supreme light of Kevala Jnana manifested, you then knew all the Lokas and Alok without any limitations. || 132 || O Lord, your words, which are all-knowing and pure, reveal your omniscience, for a person with a dull intellect cannot possess such a vast wealth of words. || 133 || O Lord, the authority of the speaker determines the authority of the words, for brilliant words cannot emanate from an impure speaker. || 134 || O Lord, your Saptabhangi-based Bharati, which encompasses the entire universe, is capable of generating a pure understanding of your Aapta-hood within me. || 135 || O Lord, your Saptabhangi Bharati is such that things are, are not, are both, are unutterable, are unutterable in the form of existence, are unutterable in the form of non-existence, and are unutterable in the form of both existence and non-existence. || 136 ||
Page Text
________________ १४२ महापुराणम् क्व ते गुणा गणेन्द्राणामप्यगण्या' क्व मादृशः । तथापि प्रयते' स्तोतुं भक्त्या त्वद्गुणनिघ्नया ॥ १२८ ॥ फलाय त्वद्गता भक्तिः अनरुपाय प्रकल्पते । स्वामिसंपत्प्रपुष्णाति ननु संपत्परम्पराम् ॥ १२६ ॥ घातिकर्म मलापायात् प्रादुरासन् गुणास्तव । घनावरणनिर्मुक्तमूर्त्तेर्भानोर्यथांऽशवः ॥१३०॥ यथार्थदर्शनज्ञानसुखवीर्यादिलब्धयः । क्षायिक्यस्तव निर्जाता घातिकर्मविनिर्जयात् ॥१३१॥ केवलाख्यं परं ज्योतिस्तव देव यदोदगात् । तदा लोकमलोकं च त्वमबद्धा विनावधेः ॥ १३२ ॥ सार्वज्ञयं तव वक्तीश वचः शुद्धिरशेषगा । न हि वाग्विभवो मन्दधियामस्तीह पुष्कलः ॥१३३॥ वक्तृप्रामाण्यतो देव वचःप्रामाण्यमिष्यते । न ह्यशुद्धतराद् वक्तुः प्रभवन्त्युज्ज्वला गिरः ॥ १३४ ॥ सप्तभाग्यात्मिकेयं ते भारती विश्वगोचरा । श्राप्तप्रतीति ममलां त्वय्युद्भावयितुं क्षमा ॥ १३५॥ स्यादस्त्येव हि नास्त्येव स्यादवक्तव्यमित्यपि । स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमिति" ते सार्व" भारती ॥१३६॥ हूँ ॥ १२७ ॥ हे देव, जो गणधर देवोंके द्वारा भी गम्य नहीं हैं ऐसे कहाँ तो आपके अनन्त गुण और कहां मुझ सरीखा मन्द पुरुष ? तथापि आपके गुणों के आधीन रहनेवाली भक्तिसे प्रेरित होकर आपकी स्तुति करनेका प्रयत्न करता हूँ ।। १२८ || हे भगवन्, आपके विषय में की हुईं थोड़ी भक्ति भी बहुत भारी फल देनेके लिये समर्थ रहती है सो ठीक ही है क्योंकि स्वामी की सम्पत्ति सेवक जनोंकी सम्पत्तिकी परम्पराको पुष्ट करती ही है ।। १२९ ॥ हे नाथ, जिस प्रकार मेघों के आवरण से छूटे हुए सूर्य की अनेक किरणें प्रकट हो जाती हैं उसी प्रकार घातिया कर्मरूपी मलके दूर हो जानेसे आपके अनेक गुण प्रकट हुए हैं ॥ १३० ॥ हे प्रभो, घातिया कर्मों को जीत लेनेसे आपके यथार्थ दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य आदि क्षायिक लब्धियाँ प्रकट हुई हैं | १३१|| हे देव, जिस समय आपके केवल ज्ञान नामकी उत्कृष्ट ज्योति प्रकट हुई थी उसी समय आपने मर्यादाके बिना ही समस्त लोक और अलोकको जान लिया था ॥ १३२॥ हे ईश, सब जगह जानेवाली अर्थात् संसारके सब पदार्थोंका निरूपण करनेवाली आपके वचनों की शुद्धि आपके सर्वज्ञपने को प्रकट करती है सो ठीक ही है क्योंकि इस जगत् में मन्द बुद्धिवाले जीवों के इतना अधिक वचनोंका वैभव कभी नहीं हो सकता है ।। १३३ ।। है देव, वक्ता की प्रमाणतासे ही वचनों की प्रमाणता मानी जाती है क्योंकि अत्यन्त अशुद्ध वक्तासे उज्ज्वल वाणी कभी उत्पन्न नहीं हो सकती है ॥। १३४|| हे नाथ, समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाली आपकी यह सप्तभंगरूप वाणी ही आपमें आप्तपनेकी निर्मल प्रतीति उत्पन्न करानेके लिये समर्थ है ।। १३५।। हे सबका हित करनेवाले, आपकी सप्तभङ्गरूप वाणी इस प्रकार है कि जीवादि पदार्थ कथंचित् हैं ही, कथंचित् नहीं ही हैं, कथंचित् दोनों प्रकार ही हैं, कथंचित् अवक्तव्य ही हैं, कथंचित् अस्तित्व रूप होकर अवक्तव्य हैं, कथंचित् नास्तित्व रूप होकर अवक्तव्य हैं और कथंचित् अस्तित्व तथा नास्तित्व - दोनों रूप होकर अवक्तव्य हैं । विशेषार्थजैनागममें प्रत्येक वस्तुमें एक एक धर्मके प्रतिपक्षी धर्मकी अपेक्षासे सात सात भङ्ग माने गये हैं, जो कि इस प्रकार हैं-१ स्यादस्त्येव, २ स्यान्नास्त्येव, ३ स्यादस्ति च नास्त्येव, ४ स्यादवक्तव्यमेव, ५ स्यादस्ति चावक्तव्यं च ६ स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च और ७ स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यं च । इनका स्पष्ट अर्थ यह है कि संसारका १ - मप्यगम्या ल० । २ प्रयत्नं करिष्ये । ३ त्वद्गुणाधीनतया । ४ नितरां जाता । ५ उदेति स्म । ६ सर्वज्ञताम् । ७ सर्वगा । ८ सम्पूर्णः । ६ आप्तस्य निश्चितिम् । १० स्यादस्त्येवेत्यादिना सप्तभंगी योजनीया, कथमिति चेत् । १ स्यादस्त्येव, २ स्यान्नास्त्येव, ३ द्वयमपि मिलित्वा स्यादस्ति नास्त्येव, ४ स्यादवक्तव्यमेव, ५ स्यादवक्तव्यपदेन सह स्यादस्ति नास्तीति द्वयं योजनीयम्, कथम् ? स्यादस्त्यवक्तव्यम्, ६ स्यान्नास्त्यवक्त-व्यमिति, ७ स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमिति । ११ सर्वहित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy