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"The Mahapurana is far away, we must travel and stay near the sea. Hurry!" Thus the commanders urged the soldiers. (11) "Hurry, the king has departed, and today's camp is far away." The commanders' words stirred the army. (12) "Today we must travel to the Sindhu, and camp at the gate of the Ganga. We must conquer Magadha today, and find the treasure of water." (13) "Today we will see the ocean, with its high waves. Today we will cross the ocean, with the king's seal of authority." (14) With these words to each other, the soldiers set out. The sound of the war drums, rising in the air, filled the sky. (15) Then the army, with its banners and flags, marched along the banks of the Ganga, as if measuring its length. (16) The army resembled the Ganga, with its chamaras waving like swans, its flags fluttering like herons, and its horses leaping like waves. (17) The army marched towards the ocean, like a second Ganga, with its kings like swans, and its movement as steady as the river's flow. (18) Or perhaps the army had conquered the Ganga, for the river flowed against the current (being filled with birds), while the army did not, always following the king's command. The Ganga flowed downwards (towards the low ground), while the army flowed upwards (towards the high ground, towards the king). And the Ganga flowed in three directions (being called Trimarga), while the army...
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________________ महापुराणम् दूरमद्य प्रयातव्यं निवेष्टव्यमुपार्णवम् । त्वरध्वमिति सेनान्यः सैनिकानुदतिष्ठयन् ॥११॥ त्वर्यतां प्रस्थितो देवो दवीयश्च प्रयाणकम् । बलाधिकारिणामित्थं वचो बलमचुक्षुभत् ॥१२॥ अद्यासिन्धु' प्रयातव्यं गङगाद्वारे निवेशनम् । 'संश्राव्यो मागधोऽद्यैव विलाध्य पयसां निधिम् ॥१३॥ समुद्रमद्य पश्यामः समुद्रङगत्तरङगकम् । समुद्रं लङ्घतेऽद्यैव समुद्र शासनं विभोः ॥१४॥ अन्योन्यस्येति सञ्जल्पैःसम्प्रास्थिषत सैनिकाः । प्रयाणभेरीप्रध्वानः तदोद्यन् द्यामधिध्वनत् ॥१५॥ ततः प्रचलिता सेना सानुगडगं धृतायतिः । मिमानव तदायाम पप्रथे प्रथितध्वनिः ॥१६॥ सचामरा चलद्धंसां सबलाका पताकिनी । अम्वियाय चमूर्गङगा सतुरङगा तरङगिणीम् ॥१७॥ राजहंसः कृताध्यासा क्वचिदप्यस्खलद्गतिः । चमूरब्धिं प्रति प्रायात्" सा द्वितीयेव जाह्नवी ॥१८॥ "विपरीतामतवृत्तिः निम्नगा"मुन्नतस्थितिः। त्रिमार्गगां व्यजेष्टासौ पृतना बहुमागंगा ॥१६॥ 'आज बहुत दूर जाना है और समुद्र के समीप ही ठहरना है इसलिये जल्दी करो' इस प्रकार सेनापति लोग सैनिकोंको जल्दी जल्दी उठा रहे थे ॥११॥ 'अरे जल्दी करो, महाराज प्रस्थान कर गये, और आजका पड़ाव बहुत दूर है' इस प्रकार सेनापतियोंके वचन सेनाको क्षोभित कर रहे थे ।।१२।। 'आज समुद्र तक चलना है, गङ्गाके द्वारपर ठहरना है और आज ही समुद्रको उल्लंघन कर मागधदेवको वश करना है ।।१३।। आज हम लोग, जिसमें ऊंची ऊंची लहरें उठ रही हैं ऐसे समुद्रको देखेंगे और आज ही समुद्रको उल्लंघन करनेके लिये महाराजकी मुहर सहित आज्ञा है' ॥१४॥ इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करते हुए सैनिकोंने प्रस्थान किया, उस समय प्रयाण-कालमें बजनेवाले नगाड़ों के उठे हुए शब्दने आकाशको शब्दायमान कर दिया था ॥१५॥ तदनन्तर, जिसका शब्द सब ओर फैल रहा है ऐसी वह सेना गङ्गा नदीके किनारे बी होकर इस प्रकार चलने लगी मानो उसकी लम्बाईका नाप करती हई ही चल रही हो ।।१६।। उस समय वह सेना ठीक गङ्गा नदीका अनुकरण कर रही थी क्योंकि जिस प्रकार गङ्गा नदीमें हंस चलते हैं उसी प्रकार उस सेनामें चमर ढुलाये जा रहे थे, जिस प्रकार गङ्गा नदी में बगुला उड़ा करते हैं उसी प्रकार उस सेनामें ध्वजाएं फहराई जा रही थीं और जिस प्रकार गङ्गा नदी में अनेक तरङ्ग उठा करते हैं उसी प्रकार उस सेनामें अनेक घोड़े उछल रहे थे ।।१७।। वह सेना समुद्र की ओर इस प्रकार जा रही थी मानो दूसरी गङ्गा नदी ही जा रही हो क्योंकि जिस प्रकार गङ्गा नदीमें राजहंस निवास करते हैं उसी प्रकार उस सेनामें भी राजहंस अर्थात् श्रेष्ठ राजा लोग निवास कर रहे थे और जिस प्रकार गङ्गा नदीकी गति कहीं भी स्खलित नहीं होती उसी प्रकार उस सेनाकी गति भी कहीं स्खलित नहीं हो रही थी ॥१८॥ अथवा उस सेनाने गङ्गा नदीको जीत लिया था क्योंकि गङ्गा नदी विपरीत अर्थात उल्टी प्रवत्ति करने वाली थी (पक्षमें वि-परीत -पक्षियोंसे व्याप्त थी) परन्तु सेना विपरीत नहीं थी अर्थात् सदा चक्रवर्तीके आज्ञानुसार ही काम करती थी, गङ्गा नदी निम्नगा अर्थात् नीच पुरुषको प्राप्त होने वाली थी (पक्षमें ढालू स्थानकी ओर बहनेवाली थी) परन्तु सेना उसके विरुद्ध उन्नतगा अर्थात् उन्नत पुरुष-चक्रवर्तीको प्राप्त होनेवाली थी और इसी प्रकार गङ्गा त्रिमार्गगा अर्थात् तीन मार्गोसे गमन करनेवाली थी (पक्षमें त्रिमार्गगा, यह गंगाका एक नाम है) परन्तु १ अर्णवसमीपे । २ वेगं कुरुध्वम् । ३ दूरतरम । ४ आ समुद्रम् । ५ साधनीयः । संसाध्यो इ०, अ०, द०, ल०। ६ उच्चैश्चलद्वीचिकम् । ७ समुद्रलङघनेऽद्यैव ल०, द०, इ०। ८ मुद्रया सहितम् । है गन्तुमुपक्रान्तवन्तः । १० खम् । ११ ध्वनिमकारयत् । १२ विसकण्ठिकासहितम् । १३ सपताकावती। १४ तरडगवतीम् । १५ अगच्छत् । १६ पक्षिभिः परिवृताम् । प्रतिकूलामिति ध्वनिः । १७ विपरीतवृत्तिरहितेत्यर्थः । १८ नीचपथगामिति ध्वनिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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