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28 Mahapuraanam Those who wield the Shakti weapon, along with those who carry staffs, those who wield spears, those who wield bows, and those who wield swords, all raced forward, competing with each other. || 111 || Those whose armor was slightly moving in the front due to running ahead, those warriors were going so fast as if they had grown wings and were flying. || 112 || "Go, run, move aside, don't block the path ahead!" The warriors shouted loudly, pushing aside those in front of them. || 113 || "Move aside from this group of horses, run away from this group of elephants, and run far away from these broken chariots!" || 114 || "Lift up the children from this crowd of people, and quickly move the horses away from the front of the elephants!" || 115 || "This wicked elephant is standing here blocking the path, and this chariot has overturned in the middle of the road due to the charioteer's mistake." || 116 || "Look, this camel, who has thrown off his load, has long lips and is very frightened, is running backwards on the path as if he wants to mock the people." || 117 || "Someone is holding the inner garment of the woman falling from the frightened mule on this high ground, but while doing so, he himself is falling." || 118 || "This young man, bewildered by seeing the face of a prostitute, has fallen due to the collision of horses, but he is a fool and still doesn't know that he has fallen." || 119 || "This old man, whose hair is dyed black with a special medicine to hide his gray hair, whose eyes are adorned with kohl, and who is following a prostitute, is behaving like a young man." || 120 || Thus, the soldiers, exhausted from the journey, reached their camp, which was set up like a city. || 121 || The soldiers, with their feet clad in shoes, were crossing over stumps, thorns, and stones, and were also moving quickly on horses and chariots. || 110 ||
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________________ २८ महापुराणम् शाक्तिकाः सह याष्टीकै : प्रासिका धन्वभिः समम् । नैस्त्रिशिकाश्च तेऽन्योन्यं स्पर्धयेव ययुर्युतम् ॥ १११ ॥ पुरः प्रधावितः प्रेझखद्वारवाणा' प्रपल्लवाः । जातपक्षा इवोड्डीय भटा जग्मुरतिद्रुतम् ॥ ११२ ॥ प्रयात धावतापेत मार्ग मा रुध्वमप्रतः । इत्युच्वंदच्चरद्ध्वानाः पौरस्त्यानत्ययुभंटाः ॥ ११३ ॥ इतोऽपसर्पताश्वीयात् इतो धावत हास्तिकात् । इतो रथावपत्रस्ता डूरं नश्यत नश्यत ॥ ११४॥ प्रमुष्माज्जनसङ्घट्टाव् उत्थापयत डित्यकान्' । इतो " हस्त्युरसाबश्वान् श्रपसारयत द्रुतम् ॥ ११५ ॥ इतः प्रस्थानमाराध्य स्थितोऽयं धातुको गजः । मध्येऽध्वं १२ १३ प्राजितुर्दोषात् "पर्यस्तोऽयमितो रथः ॥ ११६ ॥ १क्रमेलकोऽयमुत्रस्तः " प्रतीपं पथि धावति । उत्सुष्टभारो लम्बोष्ठो जनानिव विडम्बयन् ॥११७॥ वित्रस्ताद्वेसरादेनां पतन्तीमवरोषिकाम् । सन्धारयन् प्रपातेऽस्मिन् " सौविवल्लः " पतत्ययम् ॥ ११८ ॥ यवीयानेष पण्यस्त्रीमुखालोकनविस्मितः । पातितोऽप्यश्वसङ्घट्टेः नात्मानं वेद" शून्यषीः ॥ ११६ ॥ हरिद्वारञ्जितश्मश्रुः कज्जलाकितलोचनः । "कुट्टिनीमनुयशेष* प्रवयास्तरुणायते ॥१२०॥ इति प्रयाणसञ्जल्पैः श्रज्ञाताध्वपरिश्रमाः । सैनिकाः शिबिरं प्रापन् सेनास्याः प्राऊनिवेशितम् ॥ १२१ ॥ सैनिक जूता पहने हुए पैरोंसे डूंठ, कांटे तथा पत्थर आदिको लांघते हुए घोड़े और रथोंसे भी जल्दी जा रहे थे ॥ ११० ॥ शक्ति नामके हथियारको धारण करनेवाले लट्ठ धारण करनेवालों के साथ, भाला धारण करनेवाले धनुष धारण करनेवालोंके साथ और तलवार धारण करनेवाले लोग परस्पर एक दूसरेके साथ स्पर्धा करते हुए ही मानो बड़ी शीघ्रताके साथ जा रहे थे ॥ १११ ॥ आगे आगे दौड़नेसे जिनके कवचके अग्र भाग कुछ कुछ हिल रहे हैं ऐसे योद्धा लोग इतनी जल्दी जा रहे थे मानो पंख उत्पन्न होनेसे वे उड़े ही जा रहे हों ॥ ११२ ॥ चलो, दौड़ो, हटो, आगेका मार्ग मत रोको इस प्रकार जोर जोरसे बोलनेवाले योद्धा लोग अपने सामनेके लोगोंको हटा रहे थे ।। ११३ ॥ अरे, इन घोड़ोंके समूहसे एक ओर हटो, इन हाथियोंके समूहसे भागो, और बिचले हुए इन रथोंसे भी दूर भाग जाओ ॥ ११४॥ अरे, इन बच्चोंको लोगों की इस भीड़से उठाओ और इन हाथियों के आगेसे घोड़ोंको भी शीघ्र हटाओ ।। ११५ ।। इधर यह दुष्ट हाथी रास्ता रोककर खड़ा हुआ है और इधर यह रथ सारथिकी गलतीसे मार्ग के बीच में ही उलट गया है ।। ११६ ।। इधर देखो, जिसने अपना भार पटक दिया है, जिसके लंबे ओठ हैं और जो बहुत घबड़ा गया है ऐसा यह ऊंट मार्ग में इस प्रकार उल्टा दौड़ा जा रहा है मानो लोगोंकी विडम्बना ही करना चाहता हो ।। ११७।। इधर इस ऊँची जमीनपर घबड़ाये हुए खच्चरपरसे गिरती हुई अन्तःपुरकी स्त्रीको कोई कंचुकी बीचमें ही धारण कर रहा है परन्तु ऐसा करता हुआ वह स्वयं गिर रहा है ।। ११८।। यह तरुण पुरुष वेश्याका मुख देखनेसे आश्चर्यचकित होता हुआ घोड़े के धक्केसे गिर गया है, परन्तु वह मूर्ख 'में' गिर गया हूं इस तरह अब भी अपने आपको नहीं जान रहा है ।। ११९ ।। जिसने अपने बाल खिजाबसे काले कर लिये हैं, जिसकी आंखों में काजल लगा हुआ है और जो किसी कुट्टिनीके पीछे पीछे जा रहा है ऐसा यह बूढा ठोक तरुण पुरुषके समान आचरण कर रहा है ।। १२० ।। इस प्रकार चलते समयकी बात १ शक्तिः प्रहरणं येषां ते शाक्तिकाः । २ यष्टिहेतिकैः । ३ कौन्तिकाः । ४ असिहेतिकाः । ५ प्रधावनैः । ६ चलत्कञ्चुक | ७ पुरोगामिनः । ८ भो विगतभयाः । ६ बालकान् । डिम्भकान् ल०, ५०, इ०, अ०, प०, स० । १० हस्तिमुख्यात् । ११ गमनम् । - पन्थान -ल० । १२ मार्गमध्ये । १३ सारथेः । 'नियन्ता प्राजिता यन्ता सूतः क्षत्ता च सारथिः ।" इत्यभिधानात् । १४ उत्तानितः । १५ उष्ट्रः । १६ भीतिं गतः । १७ प्रतिकूलम् । अभिमुखमित्यर्थः । १८ प्रपातस्तु तटो भृगुः । १६ कञ्चुकी । २० युवा । २१ जानाति । २२ पलितप्रतीकारार्थं प्रयुक्तौषधविशेषरञ्जित । २३ शफरीम् । 'कुट्टिनी शफरी समे' इत्यभिधानात् । २४ अनुगच्छन् । २५ वृद्धा: । 'प्रवया स्थविरो वृद्धो जिनो जीर्णो जरनपि' इत्यभिधानात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002723
Book TitleMahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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